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Full text of "Mahabharat Geeta Press"

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॥ श्रीहरि: ।। 
श्रीमन्महर्षि वेदव्यासप्रणीत 


महाभारत 
(चतुर्थ खण्ड) 


[द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक और स्त्रीपर्व] 
(सचित्र, सरल हिंदी-अनुवादसहित) 





त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव । 
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव 
त्वमेव सर्व मम देवदेव ।। 





अनुवादक-- 


-_  साहित्याचार्य पणिडत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' - 


सं० २०७२ पंद्रहवाँ पुनर्मुद्रण ३,००० 
कुल मुद्रण... ७८,६०० 


प्रकाशक-- 


गीताप्रेस, गोरखपुर--२७३००५ 
(गोबिन्दभवन-कार्यालय, कोलकाता का संस्थान) 
फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०; फैक्स : (०५५१) २३३६९९७ 


जज : शा997/९5५5.072 ९-नाभा। : 900ए59९508 शं।977९5५.०९ 
गीताप्रेस प्रकाशन शा9०7९5६०००ए५७॥०फए था से ०॥४॥९ खरीदें। 


श्रीकृष्णकी शरण 


सर्वारिष्टहरं सुखैकरमणं शान्त्यास्पदं भक्तिदं 

स्मृत्या ब्रह्मपदप्रदं स्वरसदं प्रेमास्पदं शाश्वतम्‌ । 
मेघश्यामशरीरमच्युतपदं पीताम्बरं सुन्दरं 

श्रीकृष्णं सततं व्रजामि शरणं कायेन वाचा धिया ।। 


जो सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंको हर लेनेवाले, एकमात्र सुखस्वरूप अपने आत्मामें 
रमण करनेवाले, शान्तिके अधिष्ठान, अपनी भक्ति देनेवाले, चिन्तन करनेसे ब्रह्मपद प्रदान 
करनेमें समर्थ, अपना रस प्रदान करनेवाले, प्रेमके अधिष्ठान, सनातन पुरुष, मेघके समान 
श्यामसुन्दर विग्रहवाले, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले, पीताम्बरधारी और सुन्दर 
हैं, उन श्रीकृष्णकी मैं सदा मन, वाणी और शरीरसे शरण लेता हूँ। 


भी्न्आ तन () आसऔमन- 


॥। ३० श्रीपरमात्मने नम: ।। 





श्रीकृष्ण ही परमार्थपद हैं 


श्रीकृष्ण एव परमार्थपदं न चान्यत्‌ 
तज्ज्ञास्त एव जगतामिह कीर्तनीया: । 

तद्ध्यानतः परममड्नलमस्ति पुंसां 
तज्ज्ञानमेव परमार्थयदैकला भ: ।। 


भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही परमार्थपद हैं, उनके सिवा दूसरी कोई वस्तु परमार्थ नहीं है। 
जो उनके तत्त्वको जाननेवाले हैं, वे ही यहाँ सम्पूर्ण जगत्‌के लिये कीर्तनीय हैं--सब 
लोग उन्हींकी महिमाका बखान करते हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्णके ध्यानसे ही मनुष्योंका 
परम मंगल होता है तथा उनका ज्ञान ही एकमात्र परमार्थपदकी प्राप्ति है। 


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विषय-सूची 
द्रोणपर्व 


अध्याय विषय 
(द्रोणाभिषेकपर्व) 


$- भीष्मजीके धराशायी होनेसे कौरवोंका शोक तथा उनके द्वारा कर्णका स्मरण 
२- कर्णकी रणयात्रा 
३- भीष्मजीके प्रति कर्णका कथन 
४- भीष्मजीका कर्णको प्रोत्साहन देकर युद्धके लिये भेजना तथा कर्णके आगमनसे 
कौरवोंका हर्षोल्लास 
५- कर्णका दुर्योधनके समक्ष सेनापति-पदके लिये द्रोणाचार्यका नाम प्रस्तावित करना 
६- दुर्योधनका द्रोणाचार्यसे सेनापति होनेके लिये प्रार्थना करना 
७- ट्रोणाचार्यका सेनापतिके पदपर अभिषेक,_कौरव-पाण्डव-सेनाओंका युद्ध _और 
द्रोणका पराक्रम 
८- द्रोणाचार्यके पराक्रम और वधका संक्षिप्त समाचार 
९- द्रोणाचार्यकी मृत्युका समाचार सुनकर धृतराष्ट्रका शोक करना 
१०- राजा धृतराष्ट्रका शोकसे व्याकुल होना और संजयसे युद्धविषयक प्रश्न 











जीवित पकड़ लानेकी प्रतिज्ञा करना 

१३- अर्जनका युधिष्ठिरको आश्वासन देना तथा युद्धमें द्रोणाचार्यका पराक्रम 

१४- द्रोणका पराक्रम, _कौरव-पाण्डववीरोंका द्वन्दयुद्ध__रणनदीका वर्णन तथा 
अभिमन्युकी वीरता 

१५- शल्यके साथ भीमसेनका युद्ध तथा शल्यकी पराजय 

१६- वृषसेनका पराक्रम,_कौरव-पाण्डववीरोंका तुमुल युद्ध,_ द्रोणाचार्यके द्वारा 
पाण्डवपक्षके अनेक वीरोंका वध तथा अर्जुनकी विजय 


(संशप्तकवधधपर्व) 


१७- सुशर्मा आदि संशप्तकवीरोंकी प्रतिज्ञा तथा अर्जनका युद्धके लिये उनके निकट 
जाना 














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माया और उसकी पराजय 


थामाके द्वारा राजा नीलका 


अभि न्यका उत्साह [ह तथा उसके >ो- कौरवोंकी । 
अभिमन्युका पराक्रम,_उसके द्वारा अ३ 





_वसाति और कैकय रथियोंकोी मार डालना एवं छ 
हुई_अपनी सेनाको 








कार्य सौंपा जाना | 
युकी घोर तपस्या,_ब्रह्माजीके द्वारा उसे वर्क 





राजा पौरवके अदभुत दानका वृत्तान्त 














- अर्जुनके द्वारा तीव्र गतिसे कौरव-सेनामें प्रवेश,_विन्द और अनुविन्दका वध तथा 
अदभुत जलाशयका निर्माण 











जों और यवन 






पग्रोंसहित दुर्योधनका पलायन 
! सेनाका संहार और दु 








प्रशसा 





उनका सहार 








कलिंगराजकुमारका एवं ध्रुव जयरात तथा धृतर दष्व 
१५६- सोमदत्त और सात्यकिका युद्ध,_ सोमदत्तकी 


वज्ायदाय क्‍न्‍पयापते उन लता 
त्रोंका वध ए 





से दूर रहनेका आदेश... 
सेना बाओं: ओमें प्रदीषों (मशालों)-< प्रकाश _ हक 


प्रतिविन्ध्य आतिविन्ध्प एव द॒ दश शासनक भा पु्ध 





था कर्णके द्वारा चलायी हुई इन्द्रप्रद्त शक्तिसे उसका 




















श्रवणका फल 








जनमेजयका _ वैशम्पायनजीसे 






कर्णको सेनापति बनानेके लिये अश्वत्थामाका और ः 
$१३- कर्णके सेनापतित्वमें कौरव-सेनाका युद्धके लिये प्रस्थान और मकरव्यूहका 
निर्माण तथा पाण्डव-सेनाके अर्धच व्यूहकी और युद्धका 
दोनों सेनाओंका हक ग़॒ परस्पर घोर युद्ध तथा सात्यकिके द्वारा विन्द और अनुविन्दका 

















॥५5 ॥45 ॥५७ ७5 
का कद 
॥ [] [ह। । हि 


सेनाका पलायन 


२९- युधिष्ठिरके द्वारा दु्यधनर्व 
3०- सात्यकि और कर्णका युद्ध _तथा अर्जुनके द्वारा कौरव 








न उपाख्यान सुनाना एवं परशुरामजीके द्वारा कर्णको दिव्य 





- शल्य कि प्रति : हट 'यन्त आशक्षेपपूर्ण वचन कहना की 
- कर्णका शल्यको फटकारते हुए मद्रदेशके निवासियोंकी निन्‍्दा करना 





कर्णका आत्मप्रशंसापूर्वक शल्यको फटकारना 
कर्णके द्वारा मद्र आदि बाहीक देशवासियों 








प्री ओर चले जाना 
सहदेवके साथ दुर्योधनका युद्ध, धृष्ट्द्य 


पष्टट्युम्म और कर्णका युद्ध, _अः 




























हु हू कह क्‍ शल्यका ते सानवना देना ना हु 
३- भीमसेनद्वारा पचीस हजार पैदल सैनिकोंक थसेनाका 
कौरव-सेनाका पलायन और दुर्योधनका उसे रोकनेके लिये विफल प्रयास 


रणभूमिका दिग्दर्शन ष्ण 
























२- राजा धूतराष्ट्रका विलाप करना और का विलाप करना और संजयसे युद्धका वृत्तान्त पूछना 
कर्णके मारे जानेपर पाण्डवोंके भयसे कौ 


नः पाण्डवोंके साथ युद्धमें लगाना का 
'पाचार्यको उत्तर देते हुए संधि स्वीकार न करके युद्धका ही निश्चय 






करना 


अर ि 
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द्र और कौरव-सेनाका पलाय- 
वध तथा उभय पक्षकी सेनाओंका भयानक युद्ध 





पलायन 


२९- बची हुई समस्त कौरव-से 
प्रवेश तथा युयुत्सुका राजर्मा 




















६१- पाण्डव-सैनिकोंद्वारा भीमकी स्तुति,_श्र 
उत्तर तथा श्रीकृष्णके द्वारा पाण्डवोंका समाधान एवं शंखध्वनि 











पहुँचना,_अर्जुनके «3० 













कृपाचार्यका अश्वत्थामाको दैवकी प्रबलता बताते हुए_ कर्तव्यके विषयमें 
से नेनेकी प्रेरणा देना 





अपना क्रूरतापूर्ण 











कृपाचार्यका कल प्रातःकाल युद्ध करनेकी सलाह देना और अश्वत्थामाका इसी 
रात्रिमें सोते हुओंको मारनेका आग्रह प्रकट करना 








अश्वत्थामाके द्वारा रात्रिमें सोये हुए बा ह5 आदि समस्त वीरोंका का कप संहार 
टकसे निकलकर भागते हुए योद्धाओंका कतवर्मा और कपाचार्यद्वारा वध... 


ओंका कृतवर्मा और कृपाचार्यद्वारा वध 








३- विदुरजीका शरीरकी अनित्यता बताते हुए धृतराष्ट्रको शोक त्यागनेके लिये कहना 
४- दुःखमय संसारके गहन स्वरूपका वर्णन और उससे छूटनेका उपाय 








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गहन वनके दृष्टान्तसे संसारके भयंकर स्वरूपका वर्णन 
&- संसाररूपी वनके रूपकका स्पष्टीकरण 
७- संसारचक्रका वर्णन और रथके रूपकसे संयम और ज्ञान आदिको : 









नगरसे बाहर निकलना 
राजा धृवराष्ट्रसे कृप 


| (२ त्रीविलापपर्व) 
छ््सिम्प न्र हुई गान्धारीका युद्धस्थलमें मारे गये 








विलापका वर्णन 


? दष्टिपात करके गान्धारीका श्रीकृष्णके सम्मुख ख विलाप विलाप 
श॒ बह भगदत्त,_भीष्म और द्रोणको ग्रीकष्णवे 


- अन्यान्य 4 को | मरा हुआ देखकर गान्धारीका शोकातुर होकर विलाप करना 
्॒रीकृष्णको यदुवंशविनाशविषयक शाप देना 





रुषोंका अपने मरे हुए _सम्बन्धियोंको ज 
प्रकट करते हुए उनका प्रेतकृत्य हत्य सम्पन्न करना और सियोके मनमे रहर 








चित्र-सूची 
(सादा) 
$- दुर्योधनद्वारा द्रोणाचार्यका सेनापतिके पदपर अभिषेक 
- अर्जुनके द्वारा भगदत्तका वध 
3> यक्रव्यूह 
४ 


४ 


- अभिमन्युपर अनेक महारथियोंद्वारा एक साथ प्रहार 
- रुद्रदेवका ब्रह्माजीसे उनके क्रोधकी शान्तिके लिये वर माँगना 
- अर्जुनका जयद्रथवधके लिये प्रतिज्ञा करना 
- अर्जुनका स्वप्रदर्शन 
- श्रीकृष्ण और अर्जुनका दुर्मर्षणकी गजसेनामें प्रवेश 
- सात्यकिका कौरव-सेनामें प्रवेश और युद्ध 
- भीमसेनके द्वारा कर्णकी पराजय 
- भीमसेनका कर्णके रथपर हाथीकी लाश फेंकना 
जयद्रथके कटे हुए मस्तकका उसके पिताकी गोदमें गिरना 
१४- घटोत्कचको कर्णके साथ युद्ध करनेकी प्रेरणा 
१५- ट्रोणाचार्यका ध्यानावस्थामें देहत्याग एवं तेजस्वीस्वरूपसे ऊर्ध्वलोकगमन 
१६- अभ्रत्थामाके द्वारा पाण्डव-सेनापर नारायणास्त्रका प्रयोग 
१७- अश्वत्थामाके द्वारा अर्जुनपर आग्नेयास्त्रका प्रयोग एवं उसके द्वारा पाण्डव- 
सेनाका संहार 
१८- वेदव्यासजीका अभश्वत्थामाको आश्वासन 
१९- (७५ लाइन चित्र फरमोंमें) 
२०- दुर्योधनकी शल्यसे कर्णका सारथि बननेके लिये प्रार्थना 
२१- शल्य कर्णको हंस और कौएका उपाख्यान सुनाकर अपमानित कर रहे हैं 
२२- भीमसेनके द्वारा धृवराष्ट्रके कई पुत्रों एवं कौरवयोद्धाओंका संहार 
- अर्जुनके द्वारा संशप्तकोंका संहार 
धर्मराजके चरणोंमें श्रीकृष्ण एवं अर्जुन प्रणाम कर रहे हैं 
कर्णद्वारा पथ्वीमें धँसे हुए पहियेको उठानेका प्रयत्न 
कर्णवध 
- (१६ लाइन चित्र फरमोंमें) 
२८- शल्यका कौरवोंके सेनापतिपदपर अभिषेक 





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२९- युधिष्छिरद्वारा शल्यपर शक्तिका घातक प्रहार 





रहे हैं 
3३- विश्रामके लिये सरोवरमें छिपे हुए दुर्योधन 
3२- पाण्डवोंद्वारा बलरामजीकी पूजा 








॥ ७० श्रीपरमात्मने नम: ।। 


श्रीमहाभारतम्‌ 
द्रोणपर्व 


ट्रोणाभिषेकपर्व 


प्रथमो 5 ध्याय: 


भीष्मजीके धराशायी होनेसे कौरवोंका शोक तथा उनके 
द्वारा कर्णका स्मरण 


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्‌ | 

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्‌ ।। 

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ 
अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन 
करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये। 

जनमेजय उवाच 

तमप्रतिमसत्त्वीजोबलवीर्यसमन्वितम्‌ । 

हतं देवव्रतं श्रुव्वा पाउ्चाल्येन शिखण्डिना ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रस्ततो राजा शोकव्याकुललोचन: । 

किमचेष्टत विप्रर्षे हते पितरि वीर्यवान्‌ ।। २ ।। 

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! अनुपम सत्त्व, ओज, बल और पराक्रमसे सम्पन्न देवव्रत 
भीष्मको पांचालराज शिखण्डीके हाथसे मारा गया सुनकर राजा धूृतराष्ट्रके नेत्र शोकसे 
व्याकुल हो उठे होंगे। ब्रह्मर्ष! अपने ज्येष्ठ पिताके मारे जानेपर पराक्रमी धृतराष्ट्रने कैसी 
चेष्टा की? ।। १-२ ।। 

तस्य पुत्रो हि भगवन्‌ भीष्मद्रोणमुखै रथै: । 

पराजित्य महेष्वासान्‌ पाण्डवान्‌ राज्यमिच्छति ।। ३ ।। 

भगवन्‌! उनका पुत्र दुर्योधन भीष्म, द्रोण आदि महारथियोंके द्वारा महाधनुर्धर 
पाण्डवोंको पराजित करके स्वयं राज्य हथिया लेना चाहता था || ३ ।। 


तस्मिन्‌ हते तु भगवन्‌ केतौ सर्वधनुष्मताम्‌ | 

यदचेष्टत कौरव्यस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ।। ४ ।। 

भगवन्‌! तपोधन! सम्पूर्ण धनुर्धरोंके ध्वजस्वरूप भीष्मजीके मारे जानेपर कुरुवंशी 
दुर्योधनने जो प्रयत्न किया हो, वह सब मुझे बताइये ।। ४ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

निहतं पितरं श्रुत्वा धृतराष्ट्री जनाधिप: । 

लेभे न शान्तिं कौरव्यश्चिन्ताशोकपरायण: ।। ५ ।। 

वैशम्पायनजीने कहा--जनमेजय! ज्येष्ठ पिताको मारा गया सुनकर कुरुवंशी राजा 
धृतराष्ट्र चिन्ता और शोकमें डूब गये। उन्हें क्षणभरको भी शान्ति नहीं मिल रही थी ।। ५ ।। 

तस्य चिन्तयतो दुःखमनिशं पार्थिवस्य तत्‌ | 

आजगाम विशुद्धात्मा पुनर्गावल्‍गणिस्तदा ।। ६ ।। 

वे भूपाल निरन्तर उस दुःखदायिनी घटनाका ही चिन्तन करते रहे। उसी समय विशुद्ध 
अन्त:ःकरणवाला गवल्गणपुत्र संजय पुनः उनके पास आया ।। ६ ।। 

शिबिरात्‌ संजयं प्राप्त निशि नागाह्यं पुरम्‌ 

आम्बिकेयो महाराज धृतराष्ट्रोडन्वपृच्छत ।। ७ ।। 

महाराज! रातके समय कुरुक्षेत्रके शिविरसे हस्तिनापुरमें आये हुए संजयसे 
अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने वहाँका समाचार पूछा || ७ ।। 

श्रुत्वा भीष्मस्य निधनमप्रहृष्टमना भूशम्‌ । 

पुत्राणां जयमाकाड्क्षन्‌ विललापातुरों यथा ॥। ८ ।॥। 

भीष्मकी मृत्युका वृत्तान्त सुनकर उनका मन सर्वथा अप्रसन्न एवं उत्साहशून्य हो गया 
था। वे अपने पुत्रोंकी विजय चाहते हुए आतुरकी भाँति विलाप कर रहे थे ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

संशोच्य तु महात्मानं भीष्म॑ं भीमपराक्रमम्‌ | 

किमकार्षु: परं॑ तात कुरव: कालचोदिता: ।। ९ |। 

धृतराष्ट्रने पूछा--तात! संजय! भयंकर पराक्रमी महात्मा भीष्मके लिये अत्यन्त शोक 
करके कालप्रेरित कौरवोंने आगे कौन-सा कार्य किया ।। ९ ।। 








कि नु स्वित्‌ कुरवो5कार्षु्निमग्ना: शोकसागरे ।। १० ।। 

उन दुर्धर्ष वीर महात्मा भीष्मके मारे जानेपर तो समस्त कुरुवंशी शोकके समुद्रमें डूब 
गये होंगे; फिर उन्होंने कौन-सा कार्य किया? ।। १० ।॥। 

तदुदीर्ण महत्‌ सैन्यं त्रैलोक्यस्यापि संजय । 

भयमुत्पादयेत्‌ तीव्रं पाण्डवानां महात्मनाम्‌ ।। ११ ।। 

संजय! महात्मा पाण्डवोंकी वह विशाल एवं प्रचण्ड सेना तो तीनों लोकोंके हृदयमें 
तीव्र भय उत्पन्न कर सकती है ।। ११ ।। 

को हि दौर्योधने सैन्ये पुमानासीन्महारथ: । 

य॑ं प्राप्प समरे वीरा न त्रस्यन्ति महाभये ।। १२ ।। 

उस महान्‌ भयके अवसरपर दुर्योधनकी सेनामें कौन ऐसा वीर महारथी पुरुष था, 
जिसका आश्रय पाकर समरांगणमें वीर कौरव भयभीत नहीं हुए हैं ।। १२ ।। 

देवव्रते तु निहते कुरूणामृषभे तदा । 

किमकार्षु्नुपतयस्तन्ममाचक्ष्व संजय ।। १३ ।। 

संजय! कुरुश्रेष्ठ देवव्रतके मारे जानेपर उस समय सब राजाओंने कौन-सा कार्य 
किया? यह मुझे बताओ ।। 


संजय उवाच 
शृणु राजन्नेकमना वचन ब्रुवतो मम । 
यत्‌ ते पुत्रास्तदाकार्षुहते देवव्रते मृथे ।। १४ ।। 


संजयने कहा--राजन्‌! उस युद्धमें देवव्रत भीष्मके मारे जानेपर उस समय आपके 
पुत्रोंने जो कार्य किया, वह सब मैं बता रहा हूँ। मेरे इस कथनको आप एकाग्रचित्त होकर 
सुनिये ।। १४ ।। 
निहते तु तदा भीष्म॑ 
राजन्‌ सत्यपराक्रमे । 
तावका: पाण्डवेयाश्र 
प्राध्यायन्त पृथक्‌ पृथक्‌ ।। १५ ।। 
राजन! जब सत्यपराक्रमी भीष्म मार दिये गये, उस समय आपके पुत्र और पाण्डव 
अलग-अलग चिन्ता करने लगे || १५ ।। 
विस्मिताश्र प्रद्ष्टाश्न 
क्षत्रधर्म निशम्य ते । 
स्वधर्म निन्दमानास्ते 
प्रणिपत्य महात्मने ।। १६ ।। 
शयनं कल्पयामासुर्भीष्मायामितकर्मणे | 
सोपधान नरव्याप्र शरै: संनतपर्वभि: ।। १७ ।। 
पुरुषसिंह! वे क्षत्रियरधर्मका विचार करके अत्यन्त विस्मित और प्रसन्न हुए। फिर अपने 
कठोरतापूर्ण धर्मकी निन्‍्दा करते हुए उन्होंने महात्मा भीष्मको प्रणाम किया और उन 
अमित पराक्रमी भीष्मके लिये झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा तकिये और शय्याकी रचना 
की ।। १६-१७ ।। 
विधाय रक्षां भीष्माय समाभाष्य परस्परम्‌ | 
अनुमान्य च गाड़ेयं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्‌ ।। १८ ।। 
क्रोधसंरक्तनयना: समवेत्य परस्परम्‌ । 
पुनर्युद्धाय निर्जग्मु: क्षत्रिया: कालचोदिता: ।। १९ ।। 
इसी प्रकार परस्पर वार्तालाप करके भीष्मजीकी रक्षाकी व्यवस्था कर दी और उन 
गंगानन्दन देवव्रतकी अनुमति ले उनकी परिक्रमा करके आपसमें मिलकर वे कालवप्रेरित 
क्षत्रिय क्रोधसे लाल आँखें किये पुनः युद्धके लिये निकले ।। १८-१९ ।। 
ततस्तूर्यनिनादैश्व॒ भेरीणां निनदेन च । 
तावकानामनीकानि परेषां च विनिर्ययु: ।। २० ।। 
तदनन्तर बाजोंकी ध्वनि और नगाड़ोंकी गड़गड़ाहटके साथ आपकी तथा पाण्डवोंकी 
भी सेनाएँ युद्धके लिये निकलीं || २० ।। 
व्यावृत्तेडर्यम्णि राजेन्द्र पतिते जाह्नवीसुते । 
अमर्षवशमापन्ना: कालोपहतचेतस: ।। २३ ।। 
अनादृत्य वच: पथ्यं गाड़ेयस्य महात्मन: । 


निर्ययुर्भरतश्रेष्ठा: शस्त्राण्यादाय सत्वरा: || २२ ।। 

राजेन्द्र! जिस समय गंगानन्दन भीष्म रथसे गिरे थे, उस समय सूर्य पश्चिम दिशामें छल 
चुके थे। यद्यपि महात्मा गंगानन्दन भीष्मने उन सबको युद्ध बंद कर देनेकी सलाह दी थी, 
तथापि कालसे विवेकशक्ति नष्ट हो जानेके कारण वे भरतश्रेष्ठ क्षत्रिय उनके हितकर 
वचनकी अवहेलना करके अमर्षके वशीभूत हो हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये तुरंत ही युद्धके 
लिये निकल पड़े | २१-२२ ।। 

मोहात्‌ तव सपुत्रस्य वधाच्छान्तनवस्थ च । 

कौरव्या मृत्युसाद्धूता: सहिता: सर्वराजभि: || २३ ।। 

पुत्रसहित आपके मोह (अविवेक)-से और शान्तनुनन्दन भीष्मका वध हो जानेसे 
समस्त राजाओंसहित सम्पूर्ण कुरुवंशी मृत्युके अधीन हो गये हैं || २३ ।। 

अजावय इवागोपा बने श्वापदसंकुले । 

भृशमुद्विग्नमनसो हीना देवव्रतेन ते | २४ ।। 

जैसे हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए वनमें बिना रक्षककी भेड़ और बकरियाँ भयसे उद्विग्न 
रहती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक देवव्रतसे रहित हो मन-ही-मन अत्यन्त 
उद्धिग्न हो उठे थे || २४ ।। 

पतिते भरतश्रेष्ठे बभूव कुरुवाहिनी । 

द्यौरिवापेतनक्षत्रा हीनं खमिव वायुना ।। २५ ।। 

विपन्नसस्थेव मही वाक्‌ चैवासंस्कृता तथा । 

आसुरीव यथा सेना निगृहीते नृूपे बलौ ।। २६ ।। 

भरतशिरोमणि भीष्मके धराशायी हो जानेपर कौरव-सेना नक्षत्ररहित आकाश, 
वायुशून्य अन्तरिक्ष, नष्ट हुई खेतीवाली भूमि, असंस्कृत वाणी तथा राजा बलिके बाँध लिये 
जानेपर नायकविहीन हुई असुरोंकी सेनाके समान उद्विग्न, असमर्थ और श्रीहीन हो 
गयी ।। २५-२६ |। 

विधवेव वरारोहा शुष्कतोयेव निम्नगा । 

वृकैरिव वने रुद्धा पृषती हतयूथपा || २७ ।। 

शरभाहतसिंहेव महती गिरिकन्दरा । 

भारती भरतश्रेष्ठे पतिते जाह्नवीसुते ।। २८ ।। 

गंगानन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्मके धराशायी होनेपर भरत-वंशियोंकी सेना विधवा सुन्दरीके 
समान, जिसका पानी सूख गया हो, उस नदीके समान, जिसे भेड़ियोंने वनमें घेर रखा हो 
और जिसका साथी यूथप मार डाला गया हो, उस चितकबरी मृगीके समान तथा शरभने 
जिसमें रहनेवाले सिंहको मार डाला हो, उस विशाल कन्दराके समान भयभीत, विचलित 
और श्रीहीन जान पड़ती थी ।। 

विष्वग्वाताहता रुग्णा नौरिवासीन्महार्णवे । 


बलिभि: पाण्डवैवीरिरलब्धलक्षैर्भुशार्दिता ।। २९ ।। 

वीर और बलवान पाण्डव अपने लक्ष्यको सफलतापूर्वक मार गिरानेवाले थे, उनके 
द्वारा अत्यन्त पीड़ित होकर आपकी सेना महासागरमें चारों ओरसे वायुके थपेड़े खाकर 
टूटी हुई नौकाके समान बड़ी विपत्तिमें फँस गयी ।। २९ ।। 

सा तदा55सीद्‌ भशं सेना व्याकुलाश्चरथद्विपा । 

विपन्नभूयिष्ठनरा कृपणा ध्वस्तमानसा ।। ३० || 

उस समय आपकी सेनाके घोड़े, रथ और हाथी सब अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। उसके 
अधिकांश सैनिक अपने प्राण खो चुके थे। उसका दिल बैठ गया था और वह अत्यन्त दीन 
हो रही थी ।। ३० ।। 

तस्यां त्रस्ता नृपतयः सैनिकाश्न पृथग्विधा: । 

पाताल इव मज्जन्तो हीना देवव्रतेन ते ।। ३१ ।। 

उस सेनाके भिन्न-भिन्न सैनिक, नरेशगण अत्यन्त भयभीत हो देवव्रत भीष्मके बिना 
मानो पातालमें डूब रहे थे || ३१ ।। 

कर्ण हि कुरवो<स्मार्षु: स हि देवव्रतोपम: । 

सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठ रोचमानमिवातिथिम्‌ ।। ३२ ।। 

बन्धुमापद्गतस्येव तमेवोपागमन्मन: । 

चुक्रुशु: कर्ण कर्णेति तत्र भारत पार्थिवा: ।। ३३ ।। 

उस समय कौरवोंने कर्णका स्मरण किया। जैसे गृहस्थका मन अतिथिकी ओर तथा 
आपत्तिमें पड़े हुए मनुष्यका मन अपने मित्र या भाई-बन्धुकी ओर जाता है, उसी प्रकार 
कौरवोंका मन समस्त श्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ एवं तेजस्वी वीर कर्णकी ओर गया; क्योंकि वही 
भीष्मके समान पराक्रमी समझा जाता था। भारत! वहाँ सब राजा “कर्ण! कर्ण!” की पुकार 
करने लगे ।। ३२-३३ ।। 

राधेयं हितमस्माकं सूतपुत्रं तनुत्यजम्‌ । 

स हि नायुध्यत तदा दशाहानि महायशा: ।। ३४ ।। 

सामात्यबन्धु: कर्णो वै तमानयत मा चिरम्‌ | 

वे कहने लगे कि “राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण हमारा हितैषी है। हमारे लिये अपना शरीर 
निछावर किये हुए है। अपने मन्त्रियों और बन्धुओंके साथ महायशस्वी कर्णने दस दिनोंतक 
युद्ध नहीं किया है। उसे शीघ्र बुलाओ। देर न करो || ३४६ ।। 

भीष्मेण हि महाबाहु: सर्वक्षत्रस्थ पश्यत: ।। ३५ ।। 

रथेषु गण्यमानेषु बलविक्रमशालिषु । 

संख्यातो<र्धरथ: कर्णो द्विगुण: सन्‌ नरर्षभ: ।। ३६ ।। 

राजन! बात यह हुई थी कि जब बल और पराक्रमसे सुशोभित रथियोंकी गणना की 
जा रही थी, उस समय समस्त क्षत्रियोंके देखते-देखते भीष्मजीने महाबाहु नरश्रेष्ठ कर्णको 


अर्धरथी बता दिया। यद्यपि वह दो रथियोंके समान है || ३५-३६ ।। 

रथातिरथसंख्यायां यो5ग्रणी: शूरसम्मत: । 

सासुरानपि देवेशान्‌ रणे यो योद्धुमुत्सहेत्‌ ।। ३७ ।। 

रथियों और अतिरथियोंकी संख्यामें वह अग्रगण्य और शूरवीरके सम्मानका पात्र है। 
रणक्षेत्रमें असुरोंसहित सम्पूर्ण देवेश्वरोंके साथ भी वह युद्ध करनेका उत्साह रखता 
है ।। ३७ ।। 

स तु तेनैव कोपेन राजन्‌ गाड़्रेयमुक्तवान्‌ | 

त्वयि जीवति कौरव्य नाहं योत्स्ये कदाचन ।। ३८ ।। 

त्वया तु पाण्डवेयेषु निहतेषु महामृधे । 

दुर्योधनमनुज्ञाप्य वनं यास्यामि कौरव ।। ३९ ।। 

राजन! अर्धरथी बतानेके कारण ही क्रोधवश उसने गंगानन्दन भीष्मसे कहा 
--'कुरुनन्दन! आपके जीते-जी मैं कदापि युद्ध नहीं करूँगा। कौरव! यदि आप उस 
महासमरमें पाण्डुपुत्रोंको मार डालेंगे तो मैं दुर्योधनकी अनुमति लेकर वनको चला 
जाऊँगा || ३८-३९ |। 

पाण्डवैर्वा हते भीष्मे त्वयि स्वर्गमुपेयुषि । 

हन्तास्म्येकरथेनैव कृत्स्नान्‌ यान्‌ मन्यसे रथान्‌ ।। ४० ।। 

“अथवा यदि पाण्डवोंके द्वारा मारे जाकर आप स्वर्गलोकमें पहुँच गये तो मैं एकमात्र 
रथकी सहायतासे उन सबको मार डालूँगा, जिन्हें आप रथी मानते हैं! || ४० ।। 

एवमुक्‍त्वा महाबाहुर्दशाहानि महायशा: । 

नायुध्यत ततः कर्ण: पुत्रस्य तव सम्मते ।। ४१ ।। 

ऐसा कहकर महाबाहु महायशस्वी कर्ण आपके पुत्रकी सम्मति ले दस दिनोंतक युद्धमें 
सम्मिलित नहीं हुआ ।। ४१ ।। 

भीष्म: समरविक्रान्त: पाण्डवेयस्य भारत । 

जघान समरे योधानसंख्येयपराक्रम: ।। ४२ ।। 

भारत! समरभूमिमें पराक्रम प्रकट करनेवाले अनन्त पराक्रमी भीष्मने युद्धस्थलमें 
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके बहुत-से योद्धाओंको मार डाला ।। ४२ ।। 

तस्मिंस्तु निहते शूरे सत्यसंधे महौजसि । 

त्वत्सुता: कर्णमस्मार्षुस्ततुकामा इव प्लवम्‌ ।। ४३ ।। 

उन महापराक्रमी सत्यप्रतिज्ञ शूरवीर भीष्मके मारे जानेपर आपके पुत्रोंने कर्णका उसी 
प्रकार स्मरण किया, जैसे पार जानेकी इच्छावाले पुरुष नावकी इच्छा करते हैं ।। 

तावकास्तव पुत्रा श्न सहिता: सर्वराजभि: । 

हा कर्ण इति चाक्रन्दन्‌ कालोड्यमिति चाब्रुवन्‌ ।। ४४ ।। 


समस्त राजाओंसहित आपके पुत्र और सैनिक 'हा कर्ण" कहकर विलाप करने लगे 
और बोले--'कर्ण! तुम्हारे पराक्रमका यह अवसर आया है” || ४४ ।। 

एवं ते सम हि राधेयं सूतपुत्र तनुत्यजम्‌ | 

चुक्कुशु: सहिता योधास्तत्र तत्र महाबला: ।। ४५ ।। 

इस प्रकार आपके महाबली योद्धालोग राधानन्दन सूतपुत्र कर्णको, जो दुर्योधनके लिये 
अपना शरीर निछावर किये बैठा था, एक साथ पुकारने लगे || ४५ ।। 

जामदग्न्याभ्यनुज्ञातमस्त्रे दुर्वारपौरुषम्‌ । 

अगमन्नो मन: कर्ण बन्धुमात्ययिकेष्विव ।। ४६ ।। 

राजन! कर्णने जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे अस्त्र-विद्याकी शिक्षा प्राप्त की है और 
उसका पराक्रम दुर्निवार्य है। इसीलिये हमलोगोंका मन कर्णकी ओर गया, ठीक वैसे ही, 
जैसे बड़ी भारी आपत्तिके समय मनुष्यका मन अपने मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियोंकी ओर 
जाता है || ४६ |। 

स हि शक्तो रणे राजंस्त्रातुमस्मान्‌ महाभयात्‌ | 

त्रिदशानिव गोविन्द: सततं सुमहाभयात्‌ ।। ४७ ।। 

राजन! जैसे भगवान्‌ विष्णु देवताओंकी सदा अत्यन्त महान्‌ भयसे रक्षा करते हैं, उसी 
प्रकार कर्ण हमें भारी भयसे उबारनेमें समर्थ है ।। ४७ ।। 

वैशम्पायन उवाच 

तथा तु संजयं कर्ण कीर्तयन्तं पुन: पुनः । 

आशीविषवदुच्छवस्य धृतराष्ट्रोडब्रवीदिदम्‌ ।। ४८ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जब संजय इस प्रकार बार-बार कर्णका नाम ले 
रहा था, उस समय राजा धूृतराष्ट्रने विषधर सर्पके समान उच्छवास लेकर इस प्रकार 
कहा ।। ४८ ।। 


घतराट्र उवबाच 


यत्‌ तद्वैकर्तनं कर्णमगमद्‌ वो मनस्तदा । 

अप्यपश्यत राधेयं सूतपुत्र॑ तनुत्यजम्‌ ।। ४९ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! जब तुमलोगोंका मन विकर्तनपुत्र कर्णकी ओर गया, तब 
क्या तुमने शरीर निछावर करनेवाले सूतपुत्र राधानन्दन कर्णको वहाँ देखा? ।। 

अपि तन्न मृषाकार्षीत्‌ कच्चित्‌ सत्यपराक्रम: । 

सम्भ्रान्तानां तदारततानां त्रस्तानां त्राणमिच्छताम्‌ ।। ५० ।। 

कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि संकटमें पड़कर घबराये हुए और भयभीत होकर अपनी 
रक्षा चाहते हुए कौरवोंकी प्रार्थनाको सत्यपराक्रमी कर्णने निष्फल कर दिया हो? ।। 

अपि तत्‌ पूरयांचक्रे धनुर्धरवरो युधि । 


यत्तद्‌ विनिहते भीष्मे कौरवाणामपाकृतम्‌ ।। ५१ ।। 

भीष्मके मारे जानेपर युद्धस्थलमें कौरवोंके पक्षमें जो कमी आ गयी थी, क्या उसे 
धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ कर्णने पूरा कर दिया? ।। ५१ ।। 

तत्‌ खण्डं पूरयन्‌ कर्ण: परेषामादधद्‌ भयम्‌ । 

स हि वै पुरुषव्याप्रो लोके संजय कथ्यते || ५२ ।। 

क्या उस खण्डित अंशकी पूर्ति करके कर्णने शत्रुओंके मनमें भय उत्पन्न किया? 
संजय! जगतमें कर्णको 'पुरुषसिंह” कहा जाता है ।। ५२ ।। 

आर्तानां बान्धवानां च क्रन्दतां च विशेषत: । 

परित्यज्य रणे प्राणांस्तत्त्राणार्थ च शर्म च । 

कृतवान्‌ मम पुत्राणां जयाशां सफलामपि ।। ५३ ।। 

क्या उसने रणभूमिमें शोकार्त होकर विशेषरूपसे क्रन्दन करनेवाले अपने उन 
बन्धुजनोंकी रक्षा एवं कल्याणके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करके मेरे पुत्रोंकी 
विजयाभिलाषाको सफल किया? ।। ५३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रप्रश्ने प्रथमो5ध्याय: ।। १ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वरें धृतराष्ट्र-प्रश्नविषयक पहला 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १ ॥ 


ऑपनआक्रात बछ। अर: 


द्वितीयो&्ध्याय: 


कर्णकी रणयात्रा 


संजय उवाच 
हतं भीष्ममथाधिरथिरवविंदित्वा 
भिन्नां नावमिवात्यगाधथे कुरूणाम्‌ | 
सोदर्यवद्‌ व्यसनात्‌ सूतपुत्र: 
संतारयिष्यंस्तव पुत्रस्य सेनाम्‌ ।। १ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! अधिरथनन्दन सूतपुत्र कर्ण यह जानकर कि भीष्मजीके 
मारे जानेपर कौरवोंकी सेना अगाध महासागरमें टूटी हुई नौकाके समान संकटमें पड़ गयी 
है, सगे भाईके समान आपके पुत्रकी सेनाको संकटसे उबारनेके लिये चला ।। १ ।। 
श्र॒ुत्वा तु कर्ण: पुरुषेन्द्रमच्युतं 
निपातितं शान्तनवं महारथम्‌ । 
अथोपयायात्‌ सहसारिकर्षणो 
धनुर्धराणां प्रवरस्तदा नृप ॥। २ ।। 
राजन! तत्पश्चात्‌ योद्धाओंके मुखसे अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले पुरुषप्रवर 
शान्तनुनन्दन महारथी भीष्मके मारे जानेका विस्तृत वृत्तान्त सुनकर थधनुर्धरोंमें श्रेष्ठ 
शत्रुसूदन कर्ण सहसा दुर्योधनके समीप चल दिया ।। २ ।। 
हते तु भीष्मे रथसत्तमे परै- 
निमज्जतीं नावमिवार्णवे कुरून्‌ । 
पितेव पुत्रांस्त्वरितो5भ्ययात्‌ ततः 
संतारयिष्यंस्तव पुत्रस्य सेनाम्‌ ।। ३ ।। 
रथियोंमें श्रेष्ठ भीष्मके शत्रुओंद्वारा मारे जानेपर, जैसे पिता अपने पुत्रोंको संकटसे 
बचानेके लिये जाता हो, उसी प्रकार सूतपुत्र कर्ण डूबती हुई नौकाके समान आपके पुत्रकी 
सेनाको संकटसे उबारनेके लिये बड़ी उतावलीके साथ दुर्योधनके निकट आ पहुँचा ।। ३ ।। 
(सम्मृज्य दिव्यं धनुराततज्यं 
स रामदत्तं रिपुसंघहन्ता । 
बाणांश्व कालानलवायुकल्पा- 
नुल्लालयन्‌ वाक्यमिदं बभाषे ।।) 
शत्रुसमूहका विनाश करनेवाले कर्णने परशुरामजीके दिये हुए दिव्य धनुषपर प्रत्यंचा 
चढ़ा ली और उसपर हाथ फेरकर कालाग्नि तथा वायुके समान शक्तिशाली बाणोंको ऊपर 
उठाते हुए इस प्रकार कहा। 


कर्ण उवाच 
यस्मिन्‌ धृतिर्बुद्धिपराक्रमौज: 
सत्यं॑ स्मृतिर्वीरगुणाश्च सर्वे । 
अस्त्राणि दिव्यान्यथ संनतिर्हीं: 
प्रिया च वागनसूया च भीष्मे ।। ४ ।। 
सदा कृतज्ञे द्विजशत्रुधातके 
सनातन चन्द्रमसीव लक्ष्म । 
स चेत्‌ प्रशान्तः परवीरहन्ता 
मनन्‍्ये हतानेव च सर्ववीरान्‌ ।। ५ ।। 
कर्ण बोला--ब्राह्मणोंके शत्रुओंका विनाश करनेवाले तथा अपने ऊपर किये हुए 
उपकारोंका आभार माननेवाले जिन वीरशिरोमणि भीष्मजीमें चन्द्रमामें सदा सुशोभित 
होनेवाले शशचिह्नलके समान सदा धृति, बुद्धि, पराक्रम, ओज, सत्य, स्मृति, विनय, लज्जा, 
प्रिय वाणी तथा अनसूया (दोषदृष्टिका अभाव)--ये सभी वीरोचित गुण तथा दिव्यास्त्र 
शोभा पाते थे, वे शत्रुवीरोंके हन्ता देवव्रत यदि सदाके लिये शान्त हो गये तो मैं सम्पूर्ण 
वीरोंको मारा गया ही मानता हूँ ।। ४-५ ।। 
नेह ध्रुवं किंचन जातु विद्यते 
लोके हास्मिन्‌ कर्मणोडनित्ययोगात्‌ । 
सूर्योदये को हि विमुक्तसंशयो 
भावं कुर्वीतार्यमहाव्रते हते ।। ६ ।। 
निश्चय ही इस संसारमें कर्मोके अनित्य सम्बन्धसे कभी कोई वस्तु स्थिर नहीं रहती है। 
श्रेष्ठ एवं महान्‌ व्रतधारी भीष्मजीके मारे जानेपर कौन संशयरहित होकर कह सकता है कि 
कल सूर्योदय होगा ही (अर्थात्‌ जीवन अनित्य होनेके कारण हममेंसे कौन कलका सूर्योदय 
देख सकेगा, यह कहना कठिन है। जब मृत्युंजयी भीष्मजी भी मारे गये, तब हमारे 
जीवनकी क्या आशा है?) ।। ६ ।। 
वसुप्रभावे वसुवीर्यसम्भवे 
गते वसूनेव वसुन्धराधिपे । 
वसूनि पुत्रांश्व वसुन्धरां तथा 
कुरूंश्व॒ शोचध्वमिमां च वाहिनीम्‌ ।। ७ ।। 
भीष्मजीमें वसु देवताओंके समान प्रभाव था। वसुओंके समान शक्तिशाली महाराज 
शान्तनुसे उनकी उत्पत्ति हुई थी। ये वसुधाके स्वामी भीष्म अब वसु देवताओंको ही प्राप्त 
हो गये हैं; अतः उनके अभावमें तुम सभी लोग अपने धन, पुत्र, वसुन्धरा, कुरुवंश, 
कुरुदेशकी प्रजा तथा इस कौरव-सेनाके लिये शोक करो ।। ७ ।। 


संजय उवाच 
महाप्रभावे वरदे निपातिते 
लोकेश्वरे शास्तरि चामितौजसि । 
पराजितेषु भरतेषु दुर्मना: 
कर्णो भृशं न्यश्वसदश्रु वर्तयन्‌ । ८ ।। 
संजय कहते हैं--महान्‌ प्रभावशाली वर देनेमें समर्थ लोकेश्वर शासक तथा अमित 
तेजस्वी भीष्मके मारे जानेपर भरतवंशियोंकी पराजय होनेसे कर्ण मन-ही-मन बहुत दुःखी 
हो नेत्रोंस आँसू बहाता हुआ लंबी साँस खींचने लगा ।। ८ ।। 
इदं च राधेयवचो निशम्य 
सुताश्न राजंस्तव सैनिकाश्न ह | 
परस्परं चुक्रुशुरार्तिजं मुहु- 
स्तदाश्रु नेत्रैर्मुमुचुश्ष शब्दवत्‌ ।। ९ ।। 
राजन! राधानन्दन कर्णकी यह बात सुनकर आपके पुत्र और सैनिक एक-दूसरेकी 
ओर देखकर शोकवश बारंबार फूट-फूटकर रोने तथा नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे ।। ९ ।। 
प्रवर्तमाने तु पुनर्महाहवे 
विगाह्यमानासु चमूषु पार्थिव: । 
अथाब्रवीद्धर्षकरं तदा वचो 
रथर्षभान्‌ सर्वमहारथर्षभ: ।। १० ।। 
पाण्डवसेनाके राजालोगोंद्वारा जब कौरव-सेनाका ध्वंस होने लगा और बड़ा भारी 
संग्राम आरम्भ हो गया, तब सम्पूर्ण महारथियोंमें श्रेष्ठ कर्ण समस्त श्रेष्ठ रथियोंका हर्ष और 
उत्साह बढ़ाता हुआ इस प्रकार बोला-- ।। 
जगत्यनित्ये सततं प्रधावति 
प्रचिन्तयन्नस्थिरमद्य लक्षये । 
भवत्सु तिष्ठत्स्विह पातितो मृथे 
गिरिप्रकाश: कुरुपुड्रव: कथम्‌ ।। ११ ।। 


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सदा मृत्युकी ओर दौड़ लगानेवाले इस अनित्य संसारमें आज मुझे बहुत चिन्तन 
करनेपर भी कोई वस्तु स्थिर नहीं दिखायी देती; अन्यथा युद्धमें आप-जैसे शूरवीरोंके रहते 
हुए पर्वतके समान प्रकाशित होनेवाले कुरुश्रेष्ठ भीष्म कैसे मार गिराये गये? ।। ११ ।। 

निपातिते शान्तनवे महारथे 

दिवाकरे भूतलमास्थिते यथा । 

न पार्थिवा: सोढुमलं धनंजयं 

गिरिप्रवोढारमिवानिल द्रुमा: ।। १२ ।। 

“महारथी शान्तनुनन्दन भीष्मका रणमें गिराया जाना सूर्यके आकाशसे गिरकर 
पृथ्वीपर आ पड़नेके समान है। यह हो जानेपर समस्त भूपाल अर्जुनका वेग सहन करनेमें 
असमर्थ हैं, जैसे पर्वतोंको भी ढोनेवाले वायुका वेग साधारण वृक्ष नहीं सह सकते 
हैं ।। १२ ।। 

हतप्रधानं त्विदमार्तरूप॑ 

परैर्हतोत्साहमनाथमद्य वै । 


मया कुरूणां परिपाल्यमाहवे 
बल॑ यथा तेन महात्मना तथा ।॥। १३ ।। 

“आज यह कौरवदल अपने प्रधान सेनापतिके मारे जानेसे अनाथ एवं अत्यन्त पीड़ित 
हो रहा है। शत्रुओंने इसके उत्साहको नष्ट कर दिया है। इस समय संग्रामभूमिमें मुझे इस 
कौरवसेनाकी उसी प्रकार रक्षा करनी है, जैसे महात्मा भीष्म किया करते थे ।। १३ ।। 

समाहितं चात्मनि भारमीदृशं 

जगत्‌ तथानित्यमिदं च लक्षये । 
निपातितं चाहवशौण्डमाहवे 
कथं नु कुर्यामहमीदृशे भयम्‌ ।। १४ ।। 

“मैंने यह भार अपने ऊपर ले लिया। जब मैं यह देखता हूँ कि सारा जगत्‌ अनित्य है 
तथा युद्धकुशल भीष्म भी युद्धमें मारे गये हैं, तब ऐसे अवसरपर मैं भय किस लिये 
करूँ? ।। १४ ।। 

अहं तु तान्‌ कुरुवृषभानजिद्ागै: 

प्रवेशयन्‌ यमसदनं चरन्‌ रणे । 
यश: परं जगति विभाव्य वर्तिता 
परैर्हतो भुवि शयिताथवा पुन: ।। १५ ।। 

“मैं उन कुरुप्रवर पाण्डवोंको अपने सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा यमलोकमें पहुँचाकर 
रणभूमिमें विचरूगा और संसारमें उत्तम यशका विस्तार करके रहूँगा अथवा शत्रुओंके 
हाथसे मारा जाकर युद्धभूमिमें सदाके लिये सो जाऊँगा ।। १५ ।। 

युधिष्ठिरो धृतिमतिसत्यसत्त्ववान्‌ 

वृकोदरो गजशततुल्यविक्रम: । 
तथार्जुनस्त्रिदशवरात्मजो युवा 
न तद्धलं सुजयमिहामरैरपि ।। १६ ।। 

'युधिष्ठिर धैर्य, बुद्धि, सत्य और सत्त्वगुणसे सम्पन्न हैं। भीमसेनका पराक्रम सैकड़ों 
हाथियोंके समान है तथा अर्जुन भी देवराज इन्द्रके पुत्र एवं तरुण हैं। अतः पाण्डवोंकी 
सेनाको सम्पूर्ण देवता भी सुगमतापूर्वक नहीं जीत सकते ।। १६ ।। 

यमौ रणे यत्र यमोपमौ बले 

ससात्यकिर्यत्र च देवकीसुत: । 
न तद्धलं कापुरुषो 5 भ्युपेयिवान्‌ 
निवर्तते मृत्युमुखान्न चासुभृत्‌ ।। १७ ।। 

“जहाँ रणभूमिमें यमराजके समान नकुल और सहदेव विद्यमान हैं, जहाँ सात्यकि तथा 
देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, उस सेनामें कोई कायर मनुष्य प्रवेश कर जाय तो वह 
मौतके मुखसे जीवित नहीं निकल सकता ।। १७ |। 


तपो<भ्युदीर्ण तपसैव बाध्यते 
बल॑ बलेनैव तथा मनस्विभि: । 
मनश्न मे शरत्रुनिवारणे ध्रुवं 
स्वरक्षणे चाचलवद्‌ व्यवस्थितम्‌ ।। १८ ।। 

“मनस्वी पुरुष बढ़े हुए तपका तपसे और प्रचण्ड बलका बलसे ही निवारण करते हैं। 
यह सोचकर मेरा मन भी शत्रुओंको रोकनेके लिये दृढ़ निश्चय किये हुए है तथा अपनी 
रक्षाके लिये भी पर्वतकी भाँति अविचल-भावसे स्थित है ।। १८ ।। 

एवं चैषां बाधमान: प्रभावं॑ 

गत्वैवाहं ताञ्जयाम्यद्य सूत । 
मित्रद्रोहो मर्षणीयो न मे<यं 
भग्ने सैन्ये यः समेयात्‌ स मित्रम्‌ ।। १९ ।। 

फिर कर्ण अपने सारथिसे कहने लगा--'सूत! इस प्रकार मैं युद्धमें जाकर इन 
शत्रुओंके बढ़ते हुए प्रभावको नष्ट करते हुए आज इन्हें जीत लूँगा। मेरे मित्रोंक साथ कोई 
द्रोह करे, यह मुझे सहा नहीं। जो सेनाके भाग जानेपर भी साथ देता है, वही मित्र है ।। 

कतस्‍्म्येतत्‌ सत्पुरुषार्यकर्म 

त्यक्त्वा प्राणाननुयास्यामि भीष्मम्‌ | 
सर्वान्‌ संख्ये शत्रुसंघान्‌ हनिष्ये 
हतस्तैर्वा वीरलोकं प्रपत्स्ये | २० ।। 

'या तो मैं सत्पुरुषोंके करनेयोग्य इस श्रेष्ठ कार्यको सम्पन्न करूँगा अथवा अपने 
प्राणोंका परित्याग करके भीष्मजीके ही पथपर चला जाऊँगा। मैं संग्रामभूमिमें शत्रुओंके 
समस्त समुदायोंका संहार कर डालूँगा अथवा उन्हींके हाथसे मारा जाकर वीरलोक प्राप्त 
कर लूँगा ।। 

सम्प्राक्रुष्टे रुदितस्त्रीकुमारे 

पराहते पौरुषे धार्त॑राष्टरे । 
मया कृत्यमिति जानामि सूत 
तस्माद्‌ राज्ञस्त्वद्य शत्रून्‌ विजेष्ये | २१ ।। 

'सूत! दुर्योधनका पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया है। उसके स्त्री-बच्चे रो-रोकर “त्राहि-त्राहि' 
पुकार रहे हैं। ऐसे अवसरपर मुझे क्या करना चाहिये, यह मैं जानता हूँ। अत: आज मैं राजा 
दुर्योधनके शत्रुओंको अवश्य जीतूँगा ।। २१ ।। 

कुरून्‌ रक्षन्‌ पाण्डुपुत्राञ्जिघांसं- 

स्त्यक्त्वा प्राणान्‌ घोररूपे रणे5स्मिन्‌ । 
सर्वान्‌ संख्ये शत्रुसंघान्‌ निहत्य 
दास्याम्यहं धार्तराष्ट्राय राज्यम्‌ ।। २२ ।॥। 


“कौरवोंकी रक्षा और पाण्डवोंके वधकी इच्छा करके मैं प्राणोंकी भी परवा न कर इस 
महाभयंकर युद्धमें समस्त शत्रुओंका संहार कर डालूँगा और दुर्योधनको सारा राज्य सौंप 
दूँगा ।। २२ ।। 

निबध्यतां मे कवचं विचित्र 

हैमं शुभ्रं मणिरत्नावभासि । 
शिरस्त्राणं चार्कसमानभासं 
धनु: शरांशक्षाग्नेविषाहिकल्पान्‌ ।। २३ |। 

“तुम मेरे शरीरमें मणियों तथा रत्नोंसे प्रकाशित सुन्दर एवं विचित्र सुवर्णमय कवच 
बाँध दो और मस्तकपर सूर्यके समान तेजस्वी शिरस्त्राण रख दो। अग्नि, विष तथा सर्पके 
समान भयंकर बाण एवं धनुष ले आओ ।। २३ ।। 

उपासज्रान्‌ षोडश योजयन्तु 

धनूंषि दिव्यानि तथा55हरन्तु । 
असींश्व शक्तीश्व गदाश्न गुर्वी: 
शड्खं च जाम्बूनदचित्रनालम्‌ ।। २४ ।। 

“मेरे सेवक बाणोंसे भरे हुए सोलह तरकश रख दें, दिव्य धनुष ले आ दें, बहुत-से 
खडगों, शक्तियों, भारी गदाओं तथा सुवर्णजटित विचित्र नालवाले शंखको भी ले आकर 
रख दें ।। २४ ।। 

इमां रौक्‍्मीं नागकक्ष्यां विचित्रां 

ध्वजं चित्र दिव्यमिन्दीवराड्कम्‌ | 
श्लक्ष्णैवस्त्रैविप्रमृज्यानयन्तु 
चित्रां मालां चारुबद्धां सलाजाम्‌ | २५ || 

हाथीको बाँधनेके लिये बनी हुई इस विचित्र सुनहरी रस्सीको तथा कमलके चिह्नसे 
युक्त दिव्य एवं अद्भुत ध्वजको स्वच्छ सुन्दर वस्त्रोंसे पोंछकर ले आवें। इसके सिवा सुन्दर 
ढंगसे गुँथी हुई विचित्र माला और खील आदि मांगलिक वस्तुएँ प्रस्तुत करें | २५ ।। 

अश्वानग्रयान्‌ पाण्डुराभ्रप्रकाशान्‌ 

पुष्टान्‌ सनातान्‌ मन्त्रपूताभिरद्धि: । 
तप्तैर्भाण्डै: काउचनैरभ्युपेतान्‌ 
शीघ्रान्‌ शीघ्र सूतपुत्रानयस्व ।। २६ ।। 

'सूतपुत्र! तुम शीघ्र ही मेरे लिये श्रेष्ठ एवं शीघ्रगामी घोड़े ले आओ, जो श्वेत बादलोंके 
समान उज्ज्वल तथा मन्त्रपूत जलसे नहाये हुए हों, शरीरसे हृष्टपुष्ट हों और जिन्हें सोनेके 
आभूषणोंसे सजाया गया हो ।। २६ ।। 

रथं चाग्रयं हेममालावनद्ध 

रल्नैश्षित्रं सूर्यचन्द्रप्रकाशै: । 


द्रव्यैर्युक्ते सम्प्रहारोपपन्नै- 
वहिर्युक्त तूर्णमावर्तयस्व । २७ ।। 

उन्हीं घोड़ोंसे जुता हुआ सुन्दर रथ शीघ्र ले आओ, जो सोनेकी मालाओंसे अलंकृत, 
सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशित होनेवाले विचित्र रत्नोंसे जटित तथा युद्धोपयोगी 
सामग्रियोंसे सम्पन्न हो || २७ ।। 

चित्राणि चापानि च वेगवन्ति 

ज्याक्षोत्तमा: संनहनोपपन्ना: । 
तूणांश्न पूर्णानू महतः शराणा- 
मासाद्य गात्रावरणानि चैव ।। २८ ।। 

“विचित्र एवं वेगशाली धनुष, उत्तम प्रत्यंचा, कवच, बाणोंसे भरे हुए विशाल तरकश 
और शरीरके आवरण--इन सबको लेकर शीघ्र तैयार हो जाओ ।। २८ ।। 

प्रायात्रिकं चानयताशु सर्व 

दध्ना पूर्ण वीर कांस्यं च हैमम्‌ 
आनीय मालामवबध्य चाडज़े 
प्रवादयन्त्वाशु जयाय भेरी: ।। २९ ।। 

“वीर! रणयात्राकी सारी आवश्यक सामग्री, दहीसे भरे हुए कांस्य और सुवर्णके पात्र 
आदि सब कुछ शीघ्र ले आओ। यह सब लानेके पश्चात्‌ मेरे गलेमें माला पहनाकर विजय- 
यात्राके लिये तुमलोग तुरंत नगाड़े बजवा दो ।। २९ ।। 

प्रयाहि सूताशु यत: किरीटी 

वृकोदरो धर्मसुतो यमौ च । 
तान्‌ वा हनिष्यामि समेत्य संख्ये 
भीष्माय गच्छामि हतो द्विषद्धिः ।। ३० ।। 

'सूत! यह सब कार्य करके तुम शीघ्र ही रथ लेकर उस स्थानपर चलो, जहाँ 
किरीटधारी अर्जुन, भीमसेन, धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा नकुल-सहदेव खड़े हैं। वहाँ युद्धस्थलमें 
उनसे भिड़कर या तो उन्हींको मार डालूँगा या स्वयं ही शत्रुओंके हाथसे मारा जाकर 
भीष्मके पास चला जाऊँगा ।। ३० || 

यस्मिन्‌ राजा सत्यधृतिर्युधिष्ठिर: 

समास्थितो भीमसेनार्जुनौ च । 
वासुदेव: सात्यकि: सूंजयाश्च 
मनन्‍्ये बल॑ तदजय्यं महीपै: ।। ३१ ।। 

“जिस सेनामें सत्यधृति राजा युधिष्ठिर खड़े हों, भीमसेन, अर्जुन, वासुदेव, सात्यकि 
तथा सूंजय मौजूद हों, उस सेनाको मैं राजाओंके लिये अजेय मानता हूँ ।। 

त॑ चेन्मृत्यु: सर्वहरो5भिरक्षेत्‌ 


सदाप्रमत्त: समरे किरीटिनम्‌ । 
तथापि हन्तास्मि समेत्य संख्ये 
यास्यामि वा भीष्मपथा यमाय ॥। ३२ ।। 

“तथापि मैं समरभूमिमें सावधान रहकर युद्ध करूँगा और यदि सबका संहार 
करनेवाली मृत्यु स्वयं आकर अर्जुनकी रक्षा करे तो भी मैं युद्धके मैदानमें उनका सामना 
करके उन्हें मार डालूँगा अथवा स्वयं ही भीष्मके मार्गसे यमराजका दर्शन करनेके लिये 
चला जाऊँगा ।। ३२ || 


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अर्जुनका जयद्रथके मस्तकको काटकर समन्त-पज्चक क्षेत्रसे बाहर फेंकना 








व्यासजी अर्जुनको शंकरजीकी महिमा कह रहे हैं 





भगवान्‌के द्वारा अर्जुनकी सर्पमुख बाणसे रक्षा 


हा गोरखपुर 


युधिष्ठिरकी ललकारपर दुर्योधनका पानीसे बाहर निकल आना 





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भीमसेन अश्॒त्थामासे प्राप्त हुई मणि द्रौपदीको दे रहे हैं 





| 


त्रिपुर-विनाशके लिये देवताओंद्वारा शंकरजीकी स्तुति 





श्रीकृष्णद्वारा अर्जुनके अश्वोंकी परिचर्या 


न त्वेवाहं न गमिष्यामि तेषां 

मध्ये शूराणां तत्र चाहं ब्रवीमि । 
मित्रद्रुहो दुर्बलभक्तयो ये 

पापात्मानो न ममैते सहाया: || ३३ ।। 

“अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि मैं उन शूरवीरोंके बीचमें न जाऊँ। इस विषयमें मैं 
इतना ही कहता हूँ कि जो मित्रद्रोही हों, जिनकी स्वामिभक्ति दुर्बल हो तथा जिनके मनमें 
पाप भरा हो; ऐसे लोग मेरे साथ न रहें” ।। ३३ ।। 

संजय उवाच 
समृद्धिमन्तं रथमुत्तमं दृढं 
सकूबरं हेमपरिष्कृतं शुभम्‌ । 
पताकिनं वातजवैहयोत्तमै- 
युक्त समास्थाय ययौ जयाय ।। ३४ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर कर्ण वायुके समान वेगशाली उत्तम घोड़ोंसे 
जुते हुए, कूबर और पताकासे युक्त, सुवर्णभूषित, सुन्दर, समृद्धिशाली, सुदृढ़ तथा श्रेष्ठ 
रथपर आखरूढ़ हो युद्धमें विजय पानेके लिये चल दिया ।। ३४ ।। 


सम्पूज्यमान: कुरुभिर्महात्मा 
रथर्षभो देवगण्णर्यथेन्द्र: । 
ययौ तदायोधनमुग्रधन्वा 
यत्रावसानं भरतर्षभस्य ।। ३५ ।। 
उस समय देवगणोंसे इन्द्रकी भाँति समस्त कौरवोंसे पूजित हो रथियोंमें श्रेष्ठ, भयंकर 
धनुर्धर, महामनस्वी कर्ण युद्धके उस मैदानमें गया, जहाँ भरतशिरोमणि भीष्मका देहावसान 
हुआ था | ३५ |। 


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वरूथिना महता सध्वजेन 
सुवर्णमुक्तामणिरत्नमालिना । 
सदश्वयुक्तेन रथेन कर्णो 
मेघस्वनेनार्क इवामितौजा: ।। ३६ ।। 
सुवर्ण, मुक्ता, मणि तथा रत्नोंकी मालासे अलंकृत सुन्दर ध्वजासे सुशोभित, उत्तम 
घोड़ोंसे जुते हुए तथा मेघके समान गम्भीर घोष करनेवाले रथके द्वारा अमित तेजस्वी कर्ण 
विशाल सेना साथ लिये युद्धभूमिकी ओर चल दिया ।। ३६ ।। 
हुताशनाभ: स हुताशनप्रभे 
शुभ: शुभे वै स्वरथे धनुर्धर: । 
स्थितो रराजाधिरथिर्महारथ: 
स्वयं विमाने सुरराडिवास्थित: ।। ३७ ।। 


अग्निके समान तेजस्वी अपने सुन्दर रथपर बैठा हुआ अग्निसदृश कान्तिमान्‌, सुन्दर 
एवं धनुर्धर महारथी अधिरथपुत्र कर्ण विमानमें विराजमान देवराज इन्द्रके समान सुशोभित 
हुआ || ३७ || 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि कर्णनिर्याणे द्वितीयो$ध्याय: ।। २ 
|| 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें कर्णकी रणयात्राविषयक 
दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥/ २ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३८ “लोक हैं।) 


ऑपनआक्रात छा अकाल 


तृतीयो<थध्याय: 
भीष्मजीके प्रति कर्णका कथन 


संजय उवाच 

शरतल्पे महात्मानं शयानममितौजसम्‌ । 

महावातसमूहेन समुद्रमिव शोषितम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! अमित तेजस्वी महात्मा भीष्म बाण-शय्यापर सो रहे थे। 
उस समय वे प्रलयकालीन महावायुसमूहसे सोख लिये गये समुद्रके समान जान पड़ते थे ।। 

दृष्टवा पितामहं भीष्म॑ सर्वक्षत्रान्तकं गुरुम्‌ । 

दिव्यैरस्त्रैर्महेष्वासं पातितं सव्यसाचिना ।। २ ।। 

जयाशा तव पुत्राणां सम्भग्ना शर्म वर्म च । 

अपाराणामिव द्वीपमगाधे गाधमिच्छताम्‌ ।। ३ |। 

समस्त क्षत्रियोंका अन्त करनेमें समर्थ गुरु एवं पितामह महाधनुर्धर भीष्मको 
सव्यसाची अर्जुनने अपने दिव्यास्त्रोंके द्वारा मार गिराया था। उन्हें उस अवस्थामें देखकर 
आपके पुत्रोंकी विजयकी आशा भंग हो गयी। उन्हें अपने कल्याणकी भी आशा नहीं रही। 
उनके रक्षाकवच भी छिजन्न-भिन्न हो गये। कहीं पार न पानेवाले तथा अथाह समुद्रमें थाह 
चाहनेवाले कौरवोंके लिये भीष्मजी द्वीपके समान आश्रय थे, जो पार्थद्वारा धधाशायी कर 
दिये गये थे ।। २-३ ।। 

स्रोतसा यामुनेनेव शरौघेण परिप्लुतम्‌ । 

महेन्द्रेणेव मैनाकमसहां भुवि पातितम्‌ ।। ४ ।। 

वे यमुनाके जलप्रवाहके समान बाणसमूहसे व्याप्त हो रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा जान 
पड़ता था, मानो महेन्द्रने असह्य मैनाक पर्वतको धरतीपर गिरा दिया हो ।। ४ ।। 

नभश्च्युतमिवादित्यं पतितं धरणीतले । 

शतक्रतुमिवाचिन्त्यं पुरा वृत्रेण निर्जितम्‌ ।। ५ ।। 

वे आकाशसे च्युत होकर पृथ्वीपर पड़े हुए सूर्यके समान तथा पूर्वकालमें वृत्रासुरसे 
पराजित हुए अचिन्त्य देवराज इन्द्रके सदृश प्रतीत होते थे ।। ५ ।। 

मोहन सर्वसैन्यस्य युधि भीष्मस्य पातनम्‌ । 

ककुदं सर्वसैन्यानां लक्ष्म सर्वधनुष्मताम्‌ ।। ६ ।। 

धनंजयशरैरव्याप्तं पितरं ते महाव्रतम्‌ । 

तं॑ वीरशयने वीरं शयान पुरुषर्षभम्‌ ।। ७ ।। 

भीष्ममाधिरथिरद्दृष्टवा भरतानां महाद्युति: । 

अवतीर्य रथादार्तों बाष्पव्याकुलिताक्षरम्‌ ।। ८ ।। 


अभिवाद्याज्जलिं बद्ध्वा वन्दमानो5भ्यभाषत | 

उस युद्धस्थलमें भीष्मका गिराया जाना समस्त सैनिकोंको मोहमें डालनेवाला था। 
आपके ज्येष्ठ पिता महान व्रतधारी भीष्म समस्त सैनिकोंमें श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धनुर्धरोंके 
शिरोमणि थे। वे अर्जुनके बाणोंसे व्याप्त होकर वीरशय्यापर सो रहे थे। उन भरतवंशी वीर 
पुरुषप्रवर भीष्मको उस अवस्थामें देखकर अधिरथपुत्र महातेजस्वी कर्ण अत्यन्त आर्त 
होकर रथसे उतर पड़ा और अंजलि बाँध अभिवादनपूर्वक प्रणाम करके आँसूसे गदगद 
वाणीमें इस प्रकार बोला-- || ६--८ $ || 

कर्णोडहमस्मि भद्रें ते वद मामभि भारत ।। ९ ।। 

पुण्यया क्षेम्यया वाचा चक्षुषा चावलोकय । 

“भारत! आपका कल्याण हो। मैं कर्ण हूँ। आप अपनी पवित्र एवं मंगलमयी वाणीद्वारा 
मुझसे कुछ कहिये और कल्याणमयी दृष्टिद्वारा मेरी ओर देखिये ।। 





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६६/2॥॥ ॥00/वी00५ (0. 


न नूनं सुकृतस्येह फलं कश्चित्‌ समश्लुते ।। १० ।। 

यत्र धर्मपरो वृद्धः शेते भुवि भवानिह । 

“निश्चय ही इस लोकमें कोई भी अपने पुण्यकर्मोंका फल यहाँ नहीं भोगता है; क्योंकि 
आप वृद्धावस्थातक सदा धर्ममें ही तत्पर रहे हैं, तो भी यहाँ इस दशामें धरतीपर सो रहे 
हैं ।। १०३ |। 

कोशसंचयने मन्त्रे व्यूहे प्रहरणेषु च ।। ११ ।। 

नाहमन्यं प्रपश्यामि कुरूणां कुरुपुड्रव । 

बुद्धया विशुद्धया युक्तो यः कुरूंस्तारयेद्‌ भयात्‌ ।। १२ ।। 


योधांस्तु बहुधा हत्वा पितृलोकं॑ गमिष्यति । 

'कुरुश्रेष्ठ। कोश-संग्रह, मन्त्रणा, व्यूह-रचना तथा अस्त्र-शस्त्रोंके प्रहारमें आपके समान 
कौरववंशमें दूसरा कोई मुझे नहीं दिखायी देता, जो अपनी विशुद्ध बुद्धिसे युक्त हो समस्त 
कौरवोंको भयसे उबार सके तथा यहाँ बहुत-से योद्धाओंका वध करके अन्तमें पितृ- 
लोकको प्राप्त हो ।। 

अद्यप्रभृति संक्रुद्धा व्याप्रा इव मृगक्षयम्‌ ।। १३ ।। 

पाण्डवा भरतगश्रेष्ठ करिष्यन्ति कुरुक्षयम्‌ । 

“भरतश्रेष्ठ) आजसे क्रोधमें भरे हुए पाण्डव उसी प्रकार कौरवोंका विनाश करेंगे, जैसे 
व्याप्र हिरनोंका ।। 

अद्य गाण्डीवघोषस्य वीर्यज्ञा: सव्यसाचिन: ।। १४ ।। 

कुरव: संत्रसिष्यन्ति वज़्पाणेरिवासुरा: । 

“आज गाण्डीवकी टंकार करनेवाले सव्यसाची अर्जुनके पराक्रमको जाननेवाले कौरव 
उनसे उसी प्रकार डरेंगे, जैसे वज्रधारी इन्द्रसे असुर भयभीत होते हैं ।। 

अद्य गाण्डीवमुक्ताना- 

मशनीनामिव स्वन: ।। १५ ।। 
त्रासयिष्यति बाणानां 
कुरूनन्यांश्व पार्थिवान्‌ । 

“आज गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाणोंका वज्रपातके समान शब्द कौरवों तथा अन्य 
राजाओंको भयभीत कर देगा ।। १५३ ।। 

समिद्धो5ग्निर्यथा वीर 

महाज्वालो द्रुमान्‌ दहेत्‌ ।। १६ ।। 
धार्तराष्ट्रान्‌ प्रथक्ष्यन्ति 
तथा बाणा: किरीटिन: । 

“वीर! जैसे बड़ी-बड़ी लपटोंसे युक्त प्रज्वलित हुई आग वृक्षोंको जलाकर भस्म कर 
देती है, उसी प्रकार अर्जुनके बाण धुृतराष्ट्रके पुत्रों तथा उनके सैनिकोंको जला 
डालेंगे || १६६ ।। 

येन येन प्रसरतो वाय्वग्नी सहितौ वने ।। १७ ।। 

तेन तेन प्रदहतो भूरिगुल्मतृणद्रुमान्‌ 

“वायु और अग्निदेव--ये दोनों एक साथ वनमें जिस-जिस मार्गसे फैलते हैं, उसी- 
उसीके द्वारा बहुत-से तृण, वृक्ष और लताओंको भस्म करते जाते हैं ।। 

यादृशो<ग्नि: समुद्धूस्तादुक्‌ पार्थो न संशय: ।। १८ ।। 

यथा वायुर्नरव्यात्र तथा कृष्णो न संशय: । 


'पुरुषसिंह! जैसी प्रज्वलित अग्नि होती है, वैसे ही कुन्तीकुमार अर्जुन हैं--इसमें 
संशय नहीं है और जैसी वायु होती है, वैसे ही श्रीकृष्ण हैं, इसमें भी संशय नहीं है ।। १८ ई 

|| 

नदत: पाउ्चजन्यस्य रसतो गाण्डिवस्य च ॥। १९ ।। 

श्र॒ुत्वा सर्वाणि सैन्यानि त्रासं यास्यन्ति भारत | 

“भारत! बजते हुए पांचजन्य और टंकारते हुए गाण्डीव धनुषकी भयंकर ध्वनि सुनकर 
आज सारी कौरव सेनाएँ भयभीत हो उठेंगी ।। १९३ ।। 

कपिथ्वजस्योत्यततो रथस्यामित्रकर्षिण: ।। २० ।। 

शब्दं सोढुं न शक्ष्यन्ति त्वामृते वीर पार्थिवा: | 

“वीर! शत्रुसूदन कपिध्वज अर्जुनके उड़ते हुए रथकी घरघराहटको आपके सिवा दूसरे 
राजा नहीं सह सकेंगे || २०६ ।। 

को हार्जुनं योधयितु त्वदन्य: पार्थिवो5हति ।। २१ ।। 

यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिण: । 

अमानुषैश्च संग्रामस्त्रयम्बकेण महात्मना ।। २२ ।। 

तस्माच्चैव वर प्राप्तो दुष्प्रपमकृतात्मभि: । 

को<न्य: शक्तो रणे जेतुं पूर्व यो न जितस्त्वया ।। २३ ।। 

“आपके सिवा दूसरा कौन राजा अर्जुनसे युद्ध कर सकता है? मनीषी पुरुष जिनके 
दिव्य कर्मोंका बखान करते हैं, जो मानवेतर प्राणियों--असुरों तथा दैत्योंसे भी संग्राम कर 
चुके हैं, त्रिनेत्रधारी महात्मा भगवान्‌ शंकरके साथ भी जिन्होंने युद्ध किया है और उनसे वह 
उत्तम वर प्राप्त किया है, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है, जिन्हें पहले आप 
भी जीत नहीं सके हैं, उन्हें आज दूसरा कौन युद्धमें जीत सकता है? ।| २१--२३ ।। 

जितो येन रणे रामो भवता वीर्यशालिना । 

क्षत्रियान्तकरो घोरो देवदानवदर्पहा ।। २४ ।। 

“आप अपने पराक्रमसे शोभा पानेवाले वीर थे। आपने देवताओं तथा दानवोंका दर्प 
दलन करनेवाले क्षत्रियहन्ता घोर परशुरामजीको भी युद्धमें जीत लिया है || २४ ।। 

तमद्याहं पाण्डवं युद्धशौण्ड- 

ममृष्यमाणो भवता चानुशिष्ट: । 
आशीदविपष॑ दृष्टिहरं सुघोरं 
शूरं शक्ष्याम्यस्त्रबलान्निहन्तुम्‌ । २५ ।। 

“आज यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अमर्षमें भरकर दृष्टि हर लेनेवाले विषधर सर्पके 
समान अत्यन्त भयंकर युद्धकुशल शूरवीर पाण्डुपुत्र अर्जुनको अपने अस्त्रबलसे मार 
सकूँगा” | २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि कर्णवाक्ये तृतीयो5ध्याय: ।। ३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेक पर्वमें कर्णवाक्यविषयक तीयरा 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३ ॥। 


ऑपन--#हू< बक। ] अति: 


चतुथों5 ध्याय: 


भीष्मजीका कर्णको प्रोत्साहन देकर युद्धके लिये भेजना 
तथा कर्णके आगमनसे कौरवोंका हर्षोल्लास 


संजय उवाच 

तस्य लालप्यत: श्रुत्वा कुरुवृद्ध: पितामह: । 

देशकालोचितं वाक्यमन्रवीत्‌ प्रीतमानस: ।। १ ।॥। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार बहुत कुछ बोलते हुए कर्णकी बात सुनकर 
कुरुकुलके वृद्ध पितामह भीष्मने प्रसन्नचित्त होकर देश और कालके अनुसार यह बात कही 
-- || 

समुद्र इव सिन्धूनां ज्योतिषामिव भास्कर: । 

सत्यस्य च यथा सन्‍्तो बीजानामिव चोर्वरा ।। २ ।। 

पर्जन्य इव भूतानां प्रतिष्ठा सुह्ददां भव । 

बान्धवास्त्वानुजीवन्तु सहस्राक्षमिवामरा: ।। ३ ।। 

“कर्ण! जैसे सरिताओंका आश्रय समुद्र, ज्योतिर्मय पदार्थोंका सूर्य, सत्यका साधु 
पुरुष, बीजोंका उर्वरा भूमि और प्राणियोंकी जीविकाका आधार मेघ है, उसी प्रकार तुम भी 
अपने सुहृदोंके आश्रयदाता बनो। जैसे देवता सहस्रलोचन इन्द्रका आश्रय लेकर जीवन- 
निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त बन्धु-बान्धव तुम्हारा आश्रय लेकर जीवन धारण 
करें ।। २-३ ।। 

मानहा भव शत्रूणां मित्राणां नन्दिवर्धन: । 

कौरवाणां भव गतिर्यथा विष्णुर्दिवौकसाम्‌ ।। ४ ।। 

“तुम शत्रुओंका मान मर्दन करनेवाले और मित्रोंका आनन्द बढ़ानेवाले होओ। जैसे 
भगवान्‌ विष्णु देवताओंके आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम कौरवोंके आधार बनो ।। ४ ।। 

स्वबाहुबलवीर्येण धार्तराष्ट्रजयैषिणा । 

कर्ण राजपुरं गत्वा काम्बोजा निर्जितास्त्वया || ५ ।। 

“कर्ण! तुमने दुर्योधनके लिये विजयकी इच्छा रखकर अपनी भुजाओंके बल और 
पराक्रमसे राजपुरमें जाकर समस्त काम्बोजोंपर विजय पायी है ।। ५ ।। 

गिरिव्रजगताश्चापि नग्नजित्प्रमुखा नृपा: । 

अम्बष्ठाश्न विदेहाश्ष गान्धाराश्ष॒ जितास्त्वया ।। ६ ।। 

“गिरिव्रजके निवासी नग्नजित्‌ आदि नरेश, अम्बष्ठ, विदेह और गान्धारदेशीय 
क्षत्रियोंको भी तुमने परास्त किया है || ६ ।। 


हिमवद्‌दुर्गनिलया: किराता रणकर्कशा: । 

दुर्योधनस्य वशगास्त्वया कर्ण पुरा कृता: ।। ७ ।। 

“कर्ण! पूर्वकालमें तुमने हिमालयके दुर्गमें निवास करनेवाले रणकर्कश किरातोंको भी 
जीतकर दुर्योधनके अधीन कर दिया था ।। ७ ।। 

उत्कला मेकला: पौण्ड्रा: कलिड्रन्ध्राश्न संयुगे 

निषादाश्ष त्रिगर्ताश्न बाह्लीकाश्न जितास्त्वया ।। ८ ।। 

“उत्कल, मेकल, पौण्ड्र, कलिंग, अंध्र, निषाद, त्रिगर्त और बाह्नलीक आदि देशोंके 
राजाओंको भी तुमने परास्त किया है ।। ८ ।। 

तत्र तत्र च संग्रामे दुर्योधनहितैषिणा । 

बहवश्च जिता: कर्ण त्वया वीरा महौजसा ।। ९ || 

“कर्ण! इनके सिवा और भी जहाँ-तहाँ संग्राम-भूमिमें दुर्योधनका हित चाहनेवाले तुम 
महापराक्रमी शूरवीरने बहुत-से वीरोंपर विजय पायी है ।। ९ ।। 

यथा दुर्योधनस्तात सज्ञातिकुलबान्धव: । 

तथा त्वमपि सर्वेषां कौरवाणां गतिर्भव ।। १० ।। 

“तात! कुटुम्बी, कुल और बन्धु-बान्धवोंसहित दुर्योधन जैसे सब कौरवोंका आधार है, 
उसी प्रकार तुम भी कौरवोंके आश्रयदाता बनो || १० ।। 

शिवेनाभिवदामि त्वां गच्छ युध्यस्व शत्रुभि: | 

अनुशाधि कुरून्‌ संख्ये धत्स्व दुर्योधने जयम्‌ ।। ११ ।। 

“मैं तुम्हारा कल्याणचिन्तन करते हुए तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ, जाओ, शत्रुओंके साथ 
युद्ध करो। रणक्षेत्रमें कौरव सैनिकोंको कर्तव्यका आदेश दो और दुर्योधनको विजय प्राप्त 
कराओ ।। ११ ।। 

भवान्‌ पौत्रसमो<स्माकं यथा दुर्योधनस्तथा । 

तवापि धर्मत: सर्वे यथा तस्य वयं तथा ।॥। १२ ।। 

“दुर्योधनकी तरह तुम भी मेरे पौत्रके समान हो। धर्मतः जैसे मैं उसका हितैषी हूँ, उसी 
प्रकार तुम्हारा भी हूँ ।। 

यौनात्‌ सम्बन्धकाल्लोके विशिष्ट संगतं सताम्‌ | 

सद्धिः सह नरश्रेष्ठ प्रवदन्ति मनीषिण: ।। १३ || 

“नरश्रेष्ठी संसारमें यौन (कौटुम्बिक)-सम्बन्धकी अपेक्षा साधु पुरुषोंके साथ की हुई 
मैत्रीका सम्बन्ध श्रेष्ठ है; यह मनीषी महात्मा कहते हैं ।। १३ ।। 

स सत्यसंगतो भूत्वा ममेदमिति निश्चित: । 

कुरूणां पालय बलं॑ यथा दुर्योधनस्तथा ।। १४ ।। 

“तुम सच्चे मित्र होकर और यह सब कुछ मेरा ही है, ऐसा निश्चित विचार रखकर 
दुर्योधनके ही समान समस्त कौरवदलकी रक्षा करो” ।। १४ ।। 


निशम्य वचन॑ तस्य चरणावभिवाद्य च । 

ययौ वैकर्तन: कर्ण: समीपं सर्वधन्विनाम्‌ ।। १५ ।। 

भीष्मजीका यह वचन सुनकर विकर्तनपुत्र कर्णने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और 
वह फिर सम्पूर्ण धनुर्धर सैनिकोंके समीप चला गया ।। १५ ।। 

सो5भिवीक्ष्य नरौघाणां स्थानमप्रतिमं महत्‌ । 

व्यूढप्रहरणोरस्कं॑ सैन्यं तत्‌ समबृंहयत्‌ ।। १६ ।। 

वहाँ कर्णने कौरव सैनिकोंका वह अनुपम एवं विशाल स्थान देखा। समस्त सैनिक 
व्यूहाकारमें खड़े थे और अपने वक्ष:स्थलके समीप अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको बाँधे हुए 
थे। कर्णने उस समय सारी कौरव-सेनाको उत्साहित किया ।। १६ || 

हृषिता: कुरव: सर्वे दुर्योधनपुरोगमा: । 

उपागतं महाबाहुं सर्वानीकपुरःसरम्‌ ।। १७ ।। 

कर्ण दृष्टवा महात्मानं युद्धाय समुपस्थितम्‌ । 

समस्त सेनाओंके आगे चलनेवाले महाबाहु, महामनस्वी कर्णको आया और युद्धके 
लिये उपस्थित हुआ देख दुर्योधन आदि समस्त कौरव हर्षसे खिल उठे ।। 

क्ष्वेडितास्फोटितरवै: सिंहनादरवैरपि । 

धनु:शब्दैश्व विविध: कुरव: समपूजयन्‌ ।। १८ ।। 

उन समस्त कौरवोंने उस समय गर्जने, ताल ठोकने, सिंहनाद करने तथा नाना प्रकारसे 
धनुषकी टंकार फैलाने आदिके द्वारा कर्णका स्वागत-सत्कार किया ।। १८ ।॥। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि कर्णाश्वासे चतुर्थो5ध्याय: || ४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें कर्णका आश्वायनविषयक 
चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥। ४ ॥। 


अपना छा अर 


पञठ्चमो< ध्याय: 


कर्णका दुर्योधनके समक्ष सेनापति-पदके लिये 
द्रोणाचार्यका नाम प्रस्तावित करना 


संजय उवाच 

रथस्थं पुरुषव्याप्रं दृष्टवा कर्णमवस्थितम्‌ | 

हृष्टो दुर्योधनो राजन्निदं वचनमब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! पुरुषसिंह कर्णको रथपर बैठा देख दुर्योधनने प्रसन्न होकर 
इस प्रकार कहा-- || १ |। 

सनाथमिव मन्ये5हं भवता पालितं बलम्‌ | 

अत्र कि नु समर्थ यद्धितं तत्‌ सम्प्रधार्यताम्‌ ।। २ ।। 

“कर्ण! तुम्हारे द्वारा इस सेनाका संरक्षण हो रहा है, इससे मैं इसे सनाथ हुई-सी मानता 
हूँ। अब यहाँ हमारे लिये क्या करना उपयोगी और हितकर है, इसका निश्चय करो” ।। २ ।। 

कर्ण उवाच 

ब्रृहि नः पुरुषव्याप्र त्वं हि प्राज्ञतमो नृप । 

यथा चार्थपति: कृत्यं पश्यते न तथेतर: ।। ३ ।। 

कर्णने कहा--पुरुषसिंह नरेश्वर! तुम तो बड़े बुद्धिमान्‌ हो | स्वयं ही अपना विचार 
हमें बताओ; क्योंकि धनका स्वामी उसके सम्बन्धमें आवश्यक कर्तव्यका जैसा विचार 
करता है, वैसा दूसरा कोई नहीं कर सकता ।। ३ |॥। 

ते सम सर्वे तव वच: श्रोतुकामा नरेश्वर । 

नान्याय्यं हि भवान्‌ वाक्यं ब्रूयादिति मतिर्मम ।। ४ ।। 

अतः नरेश्वर! हम सब लोग तुम्हारी ही बात सुनना चाहते हैं। मेरा विश्वास है कि तुम 
कोई ऐसी बात नहीं कहोगे, जो न्‍्यायसंगत न हो ।। ४ ।। 

दुर्योधन उवाच 


भीष्म: सेनाप्रणेता55सीद्‌ वयसा विक्रमेण च । 

श्रुतेन चोपसम्पन्न: सर्वेर्योधगणैस्तथा ।। ५ ।। 

तेनातियशसा कर्ण घ्नता शत्रुगणान्‌ मम । 

सुयुद्धेन दशाहानि पालिता: स्मो महात्मना ।। ६ ।। 

दुर्योधनने कहा--कर्ण! पहले आयु, बल-पराक्रम और विद्यामें सबसे बढ़े-चढ़े 
पितामह भीष्म हमारे सेनापति थे। वे अत्यन्त यशस्वी महात्मा पितामह समस्त योद्धाओंको 


साथ ले उत्तम युद्ध-प्रणालीद्वारा मेरे शत्रुओंका संहार करते हुए दस दिनोंतक हमारा पालन 
करते आये हैं ।। ५-६ ।। 

तस्मिन्नसुकरं कर्म कृतवत्यास्थिते दिवम्‌ । 

क॑ नु सेनाप्रणेतारं मन्यसे तदनन्तरम्‌ ।। ७ ।। 

वे तो अत्यन्त दुष्कर कर्म करके अब स्वर्गलोकके पथपर आरूढ़ हो गये हैं। ऐसी 
दशामें उनके बाद तुम किसे सेनापति बनाये जानेयोग्य मानते हो? ।। ७ ।। 

न विना नायकं सेना मुहूर्तमपि तिष्ठति । 

आहवेष्वाहवश्रेष्ठ नेतृहीनेव नौर्जले ।। ८ ।। 

समरांगणके श्रेष्ठ वीर! सेनापतिके बिना कोई सेना दो घड़ी भी संग्राममें टिक नहीं 
सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे मल्लाहके बिना नाव जलमें स्थिर नहीं रह सकती 
है।। ८ ।। 

यथा ह्मुकर्णधारा नौ रथश्नलासारथियथा । 

द्रवेद्‌ यथेष्टं तद्धत्‌ स्यादृते सेनापतिं बलम्‌ ।। ९ ।। 

जैसे बिना नाविककी नाव जहाँ-कहीं भी जलमें बह जाती है और बिना सारथिका रथ 
चाहे जहाँ भटक जाता है, उसी प्रकार सेनापतिके बिना सेना भी जहाँ चाहे भाग सकती 
है।। ९ ।। 

अदेशिको यथा सार्थ: सर्व: कृच्छं समृच्छति । 

अनायका तथा सेना सर्वान्‌ दोषान्‌ समरछति ।। १० ।। 

जैसे कोई मार्गदर्शक न होनेपर यात्रियोंका सारा दल भारी संकटमें पड़ जाता है, उसी 
प्रकार सेनानायकके बिना सेनाको सब प्रकारकी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता 
है ।। १० |। 

स भवान्‌ वीक्ष्य सर्वेषु मामकेषु महात्मसु । 

पश्य सेनापतिं युक्तमनु शान्तनवादिह ।। ११ ।। 

अतः तुम मेरे पक्षके सब महामनस्वी वीरोंपर दृष्टि डालकर यह देखो कि भीष्मजीके 
बाद अब कौन उपयुक्त सेनापति हो सकता है ।। ११ ।। 

य॑ हि सेनाप्रणेतारं भवान्‌ वक्ष्यति संयुगे । 

त॑ वयं सहिता: सर्वे करिष्यामो न संशय: ।। १२ |।। 

इस युद्धस्थलमें तुम जिसे सेनापतिपदके योग्य बताओगे, नि:संदेह हम सब लोग 
मिलकर उसीको सेनानायक बनायेंगे ।। १२ ।। 


कर्ण उवाच 


सर्व एव महात्मान इमे पुरुषसत्तमा: । 
सेनापतित्वमर्हन्ति नात्र कार्या विचारणा ।। १३ ।। 


कर्णने कहा--राजन्‌! ये सभी महामनस्वी पुरुष-प्रवर नरेश सेनापति होनेके योग्य हैं। 
इस विषयमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है ।। १३ ।। 

कुलसंहननज्ञानैर्बलविक्रमबुद्धिभि: । 

युक्ता: श्रुतज्ञा धीमन्‍्त आहवेष्वनिवर्तिन: ।। १४ ।। 

जो राजा यहाँ मौजूद हैं, वे सभी अपने कुल, शरीर, ज्ञान, बल, पराक्रम और बुद्धिकी 
दृष्टिसे सेनापति-पदके योग्य हैं। ये सब-के-सब वेदज्ञ, बुद्धिमान्‌ और युद्धसे कभी पीछे न 
हटनेवाले हैं ।। १४ ।। 

युगपन्न तु ते शक्‍या: कर्तु सर्वे पुर:सरा: । 

एक एव तु कर्तव्यो यस्मिन्‌ वैशेषिका गुणा: ।। १५ ।। 

परंतु सब-के-सब एक ही समय सेनापति नहीं बनाये जा सकते, इसलिये जिस एकमें 
सभी विशिष्ट गुण हों, उसीको अपनी सेनाका प्रधान बनाना चाहिये ।। 

अन्योन्यस्पर्धिनां होषां यद्येकं यं करिष्यसि । 

शेषा विमनसो व्यक्त न योत्स्यन्ति हितास्तव ।। १६ ।। 

किंतु ये सभी नरेश परस्पर एक-दूसरेसे स्पर्धा रखनेवाले हैं। यदि इनमेंसे किसी एकको 
सेनापति बना लोगे तो शेष सब लोग मन-ही-मन अप्रसन्न हो तुम्हारे हितकी भावनासे युद्ध 
नहीं करेंगे, यह बात बिलकुल स्पष्ट है ।। १६ ।। 

अयं च सर्वयोधानामाचार्य: स्थविरो गुरु: । 

युक्त: सेनापति: कर्तु द्रोण: शस्त्रभृतां वर: ॥। १७ ।। 

इसलिये जो इन समस्त योद्धाओंके आचार्य, वयोवृद्ध गुरु तथा शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हैं, 
वे आचार्य द्रोण ही इस समय सेनापति बनाये जानेके योग्य हैं ।। १७ ।। 

को हि तिष्ठति दुर्थर्षे द्रोणे शस्त्रभृतां वरे । 

सेनापतिःस्यादन्यो<स्माच्छुक्राज्ञिरसदर्शनात्‌ ।। १८ ।। 

सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ, दुर्जय वीर द्रोणाचार्यके रहते हुए इन शुक्राचार्य और 
बृहस्पतिके समान महानुभावको छोड़कर दूसरा कौन सेनापति हो सकता है? ।। १८ ।। 

न च सो>प्यस्ति ते योध: सर्वराजसु भारत । 

द्रोणं यः समरे यान्तं नानुयास्यति संयुगे ।। १९ ।। 

भारत! समस्त राजाओंमें तुम्हारा कोई भी ऐसा योद्धा नहीं है, जो समरभूमिमें आगे 
जानेवाले द्रोणाचार्यके पीछे-पीछे न जाय ।। १९ ।। 

एष सेनाप्रणेतृणामेष शस्त्रभूतामपि | 

एष बुद्धिमतां चैव श्रेष्ठो राजन्‌ गुरुस्तव ।। २० ।। 

राजन! तुम्हारे ये गुरुदेव समस्त सेनापतियों, शस्त्रधारियों और बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ 
हैं || २० ।। 

एवं दुर्योधनाचार्यमाशु सेनापतिं कुरु । 


जिगीषन्तो<सुरान्‌ संख्ये कार्तिकेयमिवामरा: ।। २१ ।। 

अतः दुर्योधन! जैसे असुरोंपर विजयकी इच्छा रखनेवाले देवताओंने रणक्षेत्रमें 
कार्तिकेयको अपना सेनापति बनाया था, इसी प्रकार तुम भी आचार्य द्रोणको शीघ्र 
सेनापति बनाओ ।। २१ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि कर्णवाक्ये पठचमो<ध्याय: ।। ५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्गाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें कर्णवाक्यविषयक पॉचवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ५ ॥/ 


अप ह< बक। ] अत काए: 


षष्ठो 5 ध्याय: 


दुर्योधनका द्रोणाचार्यसे सेनापति होनेके लिये प्रार्थना 
करना 


संजय उवाच 
कर्णस्य वचन श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा । 
सेनामध्यगतं द्रोणमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। १ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! कर्णका यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधनने 
सेनाके मध्यभागमें स्थित हुए आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा ।। १ ।। 
दुर्योधन उवाच 


वर्णश्रैष्ठयात्‌ कुलोत्पत्त्या श्रुतेन वयसा धिया । 

वीर्याद्‌ दाक्ष्यादधृष्यत्वादर्थज्ञानान्नयाज्जयात्‌ ।। २ ।। 

तपसा च कृतज्ञत्वाद वृद्ध: सर्वगुणैरपि । 

युक्तो भवत्समो गोप्ता राज्ञामन्यो न विद्यते ।। ३ ।॥। 

स भवान्‌ पातु नः सर्वान्‌ देवानिव शतक्रतुः । 

भवन्नेत्रा: पसजउ्जेतुमिच्छामो द्विजसत्तम ।। ४ ।। 

दुर्योधन बोला--द्विजश्रेष्ठ] आप उत्तम वर्ण, श्रेष्ठ कुलमें जन्म, शास्त्रज्ञान, अवस्था, 
बुद्धि, पराक्रम, युद्धकौशल, अजेयता, अर्थज्ञान, नीति, विजय, तपस्या तथा कृतज्ञता आदि 
समस्त गुणोंके द्वारा सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपके समान योग्य संरक्षक इन राजाओंमें भी 
दूसरा नहीं है। अतः जैसे इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप 
हमलोगोंकी रक्षा करें। हम आपके नेतृत्वमें रहकर शत्रुओंपर विजय पाना चाहते हैं | २-- 
४।। 


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रुद्राणामिव कापाली वसूनामिव पावक: । 

कुबेर इव यक्षाणां मरुतामिव वासव: ।। ५ ।। 

वसिष्ठ इव विप्राणां तेजसामिव भास्कर: । 

पितृणामिव धर्मेन्द्रो यादसामिव चाम्बुराट्‌ ।। ६ ।। 

नक्षत्राणामिव शशी दितिजानामिवोशना: । 

श्रेष्ठ: सेनाप्रणेतृणां स नः सेनापतिर्भव ।। ७ ।। 

रुद्रोंमें शंकर, वसुओंमें पावक, यक्षोंमें कुबेर, देवताओंमें इन्द्र, ब्राह्मणोंमें वसिष्ठ, 
तेजोमय पदार्थोमें भगवान्‌ सूर्य, पितरोंमें धर्मराज, जलचरोंमें वरुणदेव, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा 
और दैत्योंमें शुक्राचार्यके समान आप समस्त सेनानायकोंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमारे सेनापति 
होइये ।। 

अक्षौहिण्यो दशैका च वशगा: सनन्‍्तु तेडनघ । 

ताभि: शत्रून्‌ प्रतिव्यूह्द जहीन्द्रो दानवानिव ।। ८ ।। 

अनघ! मेरी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आपके अधीन रहें। उन सबके द्वारा शत्रुओंके 
मुकाबलेमें व्यूह बनाकर आप मेरे विरोधियोंका उसी प्रकार नाश कीजिये, जैसे इन्द्र 


दैत्योंका नाश करते हैं ।। ८ ।। 

प्रयातु नो भवानग्रे देवानामिव पावकि: । 

अनुयास्यामहे त्वाजी सौरभेया इवर्षभम्‌ ।। ९ |। 

जैसे कार्तिकेय देवताओंके आगे चलते हैं, उसी प्रकार आप हमलोगोंके आगे चलिये। 
जैसे बछड़े साँड़के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार युद्धमें हम सब लोग आपके पीछे 
चलेंगे ।। ९ |। 

उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यं विस्फारयन्‌ धनु: । 

अग्रेभवं त्वां तु दृष्टवा नार्जुन: प्रहरिष्यति ।। १० ।। 

आपको अग्रगामी सेनापतिके रूपमें देखकर भयंकर धनुष धारण करनेवाले 
महाधनुर्धर अर्जुन अपने दिव्य धनुषकी टंकार फैलाते हुए भी प्रहार नहीं करेंगे || १० ।। 

ध्रुवं युधिष्ठिरं संख्ये सानुबन्धं सबान्धवम्‌ | 

जेष्यामि पुरुषव्यात्र भवान्‌ सेनापतियदि ।। ११ ।। 

पुरुषसिंह! यदि आप मेरे सेनापति हो जाय॑ँ तो मैं युद्धमें निश्चय ही भाइयों तथा सगे- 
सम्बन्धियोंसहित युधिष्ठिरको जीत लूँगा ।। ११ ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्ते ततो द्रोणं जयेत्यूचुर्नराधिपा: । 

सिंहनादेन महता हर्षयन्तस्तवात्मजम्‌ ।। १२ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! दुर्योधनके ऐसा कहनेपर सब राजा अपने महान्‌ सिंहनादसे 
आपके पुत्रका हर्ष बढ़ाते हुए द्रोणसे बोले--“आचार्य! आपकी जय हो” ।। १२ ।। 

सैनिकाश्न मुदा युक्ता वर्धयन्ति द्विजोत्तमम्‌ 

दुर्योधन पुरस्कृत्य प्रार्थयन्तो महद्‌ यश: । 

दुर्योधनं ततो राजन्‌ द्रोणो वचनमब्रवीत्‌ ।। १३ ।। 

दूसरे सैनिक भी प्रसन्न होकर दुर्योधनको आगे करके महान्‌ यशकी अभिलाषा रखते 
हुए द्रोणाचार्यकी प्रशंसा करके उनका उत्साह बढ़ाने लगे। राजन्‌! उस समय द्रोणाचार्यने 
दुर्योधनसे कहा ।। १३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणप्रोत्साहने षष्ठो5ध्याय: ।। ६ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणको उत्साह- 
प्रदानविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥। ६ ॥। 


अपन का छा | अकाल 





सप्तमो<्ध्याय: 


द्रोणाचार्यका सेनापतिके पदपर अभिषेक, कौरव-पाण्डव- 
सेनाओंका युद्ध और द्रोणका पराक्रम 


द्रोण उदाच 

वेदं षडड़ृ वेदाहमर्थविद्यां च मानवीम्‌ । 

त्रैय्यम्बकमथेष्वस्त्रं शस्त्राणि विविधानि च ।। १ ।। 

द्रोणाचार्यने कहा--राजन्‌! मैं छहों अंगोंसहित वेद, मनुजीका कहा हुआ अर्थशास्त्र, 
भगवान्‌ शंकरकी दी हुई बाण-विद्या और अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र भी जानता हूँ ।। १ ।। 

ये चाप्युक्ता मयि गुणा भवद्धिर्जयकाड्क्षिभि: । 

चिकीर्षुस्तानहं सर्वान्‌ योधयिष्यामि पाण्डवान्‌ ।। २ ।। 

विजयकी अभिलाषा रखनेवाले तुमलोगोंने मुझमें जो-जो गुण बताये हैं, उन सबको 
प्राप्त करनेकी इच्छासे मैं पाण्डवोंके साथ युद्ध करूँगा ।। २ ।। 

पार्षत॑ तु रणे राजन्‌ न हनिष्ये कथंचन । 

स हि सृष्टी वधार्थाय ममैव पुरुषर्षभ: ।। ३ ।। 

राजन! मैं ट्रुपदकुमार धृष्टद्युम्नको युद्धस्थलमें किसी प्रकार भी नहीं मारूँगा; क्योंकि 
वह पुरुषप्रवर धृष्टद्युम्न मेरे ही वधके लिये उत्पन्न हुआ है ।। ३ ।। 

योधयिष्यामि सैन्यानि नाशयन्‌ सर्वसोमकान्‌ । 

नच मां पाण्डवा युद्धे योधयिष्यन्ति हर्षिता: ।। ४ ।। 

मैं समस्त सोमकोंका संहार करते हुए पाण्डव-सेनाओंके साथ युद्ध करूँगा; परंतु 
पाण्डवलोग युद्धमें प्रसन्नतापूर्वक मेरा सामना नहीं करेंगे || ४ ।। 

संजय उवाच 

स एवमभ्यनुज्ञातश्षक्रे सेनापतिं ततः । 

द्रोणं तव सुतो राजन्‌ विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ५ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार आचार्य द्रोणकी अनुमति मिल जानेपर आपके 
पुत्र दुर्योधनने उन्हें शास्त्रीय विधिके अनुसार सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया ।। ५ |। 

अथाभिषिषिचुद्रोंणं दुर्योधनमुखा नृपा: । 

सैनापत्ये यथा स्कन्दं पुरा शक्रमुखा: सुरा: ।। ६ ।। 

तदनन्तर जैसे पूर्वकालमें इन्द्र आदि देवताओंने स्कन्दको सेनापतिके पदपर अभिषिक्त 
किया था, उसी प्रकार दुर्योधन आदि राजाओंने भी द्रोणाचार्यका अभिषेक किया ।। ६ |। 

ततो वादित्रघोषेण शड्खानां च महास्वनै: । 


प्रादुरासीत्‌ कृते द्रोणे हर्ष: सेनापतौ तदा ।। ७ ।। 

उस समय वाद्योंके घोष तथा शंखोंकी गम्भीर ध्वनिके साथ द्रोणाचार्यके सेनापति बना 
लिये जानेपर सब लोगोंके हृदयमें महान्‌ हर्ष प्रकट हुआ ।। ७ ।। 

ततः पुण्याहघोषेण स्वस्तिवादस्वनेन च । 

संस्तवैर्गीतशब्दैश्व सूतमागधवन्दिनाम्‌ ।। ८ ।। 

जयशब्दे्द्धिजाग्रयाणां सुभगानर्तितिस्तथा | 

सत्कृत्य विधिना द्रोणं मेनिरे पाण्डवाञ्जितान्‌ ।। ९ ।। 

पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन, सूत, मागध और वन्दीजनोंके स्तोत्र, गीत तथा श्रेष्ठ 
ब्राह्मणोंक जय-जयकारके शब्दसे एवं नाचनेवाली स्त्रियोंके नृत्यसे द्रोणाचार्यका विधिवत्‌ 
सत्कार करके कौरवोंने यह मान लिया कि अब पाण्डव पराजित हो गये ।। ८-९ ।। 

सैनापत्यं तु सम्प्राप्प भारद्वाजो महारथ: । 

युयुत्सु्व्यूह् सैन्यानि प्रायात्‌ तव सुतैः सह ।। १० ।। 

राजन! महारथी द्रोणाचार्य सेनापतिका पद पाकर अपनी सेनाकी व्यूह-रचना करके 
आपके पुत्रोंको साथ ले युद्धके लिये उत्सुक हो आगे बढ़े ।। १० ।। 

सैन्धवश्नलृ कलिड्रश्न विकर्णश्र॒ तवात्मज: । 

दक्षिण पाश्वमास्थाय समतिष्ठन्त दंशिता: ।। १३ ।। 

सिन्धुराज जयद्रथ, कलिंगनरेश और आपके पुत्र विकर्ण--ये तीनों उनके दक्षिण 
पार्वका आश्रय ले कवच बाँधकर खड़े हुए ।। ११ ।। 

प्रपक्ष: शकुनिस्तेषां प्रवरैर्हपसादिभि: । 

ययौ गान्धारकै: सार्थ विमलप्रासयोधिभि: ।। १२ ।। 

गान्धार देशके प्रधान-प्रधान घुड़सवारोंके साथ, जो चमकीले प्रासोंद्वारा युद्ध करनेवाले 
थे, गान्धारराज शकुनि उन दक्षिण पार्श्वके योद्धाओंका प्रपक्ष (सहायक) बनकर 
चला ।। १२ ।। 

कृपश्च कृतवर्मा च चित्रसेनो विविंशति: । 

दुःशासनमुखा यत्ता: सव्यं पक्षमपालयन्‌ ।। १३ ।। 

कृपाचार्य, कृतवर्मा, चित्रसेन, विविंशति और दुःशासन आदि वीर योद्धा बड़ी 
सावधानीके साथ द्रोणाचार्यके वाम पार्श्वकी रक्षा करने लगे ।। १३ ।। 

तेषां प्रपक्षा: काम्बोजा: सुदक्षिणपुर:सरा: । 

ययुरश्वैर्महावेगै: शकाश्न यवनै: सह ।। १४ ।। 

उनके सहायक या प्रपक्ष थे सुदक्षिण आदि काम्बोजदेशीय सैनिक। ये सब लोग शकों 
और यवनोंके साथ महान्‌ वेगशाली घोड़ोंपर सवार हो युद्धके लिये आगे बढ़े ।। १४ ।। 

मद्रास्त्रिगर्ता: साम्बष्ठा: प्रतीच्योदीच्यमालवा: । 

शिबय: शूरसेनाश्व शूद्राश्न मलदै: सह ।। १५ ।। 


सौवीरा: कितवाः प्राच्या दाक्षिणात्याश्ष सर्वश: । 

तवात्मजं पुरस्कृत्य सूतपुत्रस्थ पृष्ठत: ।। १६ ।। 

हर्षयन्तः स्वसैन्यानि ययुस्तव सुतैः सह । 

मद्र, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, प्रतीच्य, उदीच्य, मालव, शिबि, शूरसेन, शूद्र, मलद, सौवीर, 
कितव, प्राच्य तथा दाक्षिणात्य वीर--ये सब-के-सब आपके पुत्र दुर्योधनको आगे करके 
सूतपुत्र कर्णके पृष्ठभागमें रहकर अपनी सेनाओंको हर्ष प्रदान करते हुए आपके पुत्रोंके 
साथ चले ।। 

प्रवर: सर्वयोधानां बलेषु बलमादधत्‌ ।। १७ ।। 

ययीौ वैकर्तन: कर्ण: प्रमुखे सर्वधन्विनाम्‌ । 

समस्त योद्धाओंमें श्रेष्ठ विकर्तनपुत्र कर्ण सारी सेनाओंमें नूतन शक्ति और उत्साहका 
संचार करता हुआ सम्पूर्ण धनुर्धरोंके आगे-आगे चला ।। १७३ ।। 

तस्य दीप्तो महाकाय: स्वान्यनीकानि हर्षयन्‌ ।। १८ ।। 

हस्तिकक्ष्यो महाकेतुर्ब भौ सूर्यसमद्युति: । 

उसका अत्यन्त कान्तिमान्‌ विशाल ध्वज बहुत ऊँचा था। उसमें हाथीको बाँधनेवाली 
साँकलका चिह्न सुशोभित था। वह ध्वज अपने सैनिकोंका हर्ष बढ़ाता हुआ सूर्यके समान 
देदीप्यमान हो रहा था ।। १८६ ।। 

न भीष्मव्यसनं कश्रिद्‌ दृष्टया कर्णममन्यत ।। १९ ।। 

विशोकाश्वाभवन्‌ सर्वे राजान: कुरुभि: सह । 

कर्णको देखकर किसीको भी भीष्मजीके मारे जानेका दुःख नहीं रह गया। 
कौरवोंसहित सब राजा शोकरहित हो गये ।। १९६३ ।। 

हृष्टाश्ष बहवो योधास्तत्राजल्पन्त वेगत: ।। २० || 

न हि कर्ण रणे दृष्टवा युधि स्थास्यन्ति पाण्डवा: । 

हर्षमें भरे हुए बहुत-से योद्धा वहाँ वेगपूर्वक बोल उठे--“इस रणक्षेत्रमें कर्णको 
उपस्थित देख पाण्डवलोग ठहर नही सकेंगे || २०६ ।। 

कर्णो हि समरे शक्तो जेतुं देवान्‌ सवासवान्‌ ॥। २१ ।। 

किमु पाण्डुसुतान्‌ युद्धे हीनवीर्यपराक्रमान्‌ । 

“क्योंकि कर्ण समरांगणमें इन्द्रके सहित देवताओंको भी जीतनेमें समर्थ है। फिर, जो 
बल और पराक्रममें कर्णकी अपेक्षा निम्न श्रेणीके हैं, उन पाण्डवोंको युद्धमें पराजित करना 
उसके लिये कौन बड़ी बात है |। २१६ ।। 

भीष्मेण तु रणे पार्था: पालिता बाहुशालिना ॥। २२ ।। 

तांस्तु कर्ण: शरैस्ती3्ैर्नाशयिष्यति संयुगे । 


“अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले भीष्मने तो युद्धमें कुन्तीकुमारोंकी रक्षा की है; 
परंतु कर्ण अपने तीखे बाणोंद्वारा उनका विनाश कर डालेगा” ।| २२६ ।। 

एवं ब्रुवन्तस्तेडन्योन्यं हृष्टरूपा विशाम्पते ।। २३ ।। 

राधेयं पूजयन्तश्न प्रशंसन्तश्न निर्ययु: । 

अस्माकं शकटबव्यूहो द्रोणेन विहितो&$भवत्‌ ।। २४ ।। 

प्रजानाथ! इस प्रकार प्रसन्न होकर परस्पर बात करते तथा राधानन्दन कर्णकी प्रशंसा 
और आदर करते हुए आपके सैनिक युद्धके लिये चले। उस समय द्रोणाचार्यने हमारी 
सेनाके द्वारा शकटव्यूहका निर्माण किया था ।। २३-२४ ।। 

परेषां क्रौज्च एवासीदू व्यूहो राजन्‌ महात्मनाम्‌ । 

प्रीयमाणेन विहितो धर्मराजेन भारत ।। २५ ।। 

राजन! हमारे महामनस्वी शत्रुओंकी सेनाका क्रौंचव्यूह दिखायी देता था। भारत! 
धर्मराज युधिष्ठिरने स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक उस व्यूहकी रचना की थी ।। 

व्यूहप्रमुखतस्तेषां तस्थतु: पुरुषर्षभौ । 

वानरध्वजमुच्छित्य विष्वक्सेनधनंजयौ ।। २६ ।। 

पाण्डवोंके उस व्यूहके अग्रभागमें अपनी वानरध्वजाको बहुत ऊँचेतक फहराते हुए 
पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन खड़े हुए थे || २६ ।। 

ककुदं सर्वसैन्यानां धाम सर्वधनुष्मताम्‌ । 

आदित्यपथग: केतु: पार्थस्यामिततेजस: ।। २७ ।। 

दीपयामास तत्‌ सैन्यं पाण्डवस्य महात्मन: । 

अमित तेजस्वी अर्जुनका वह ध्वज सूर्यके मार्गतक फैला हुआ था। वह सम्पूर्ण 
सेनाओंके लिये श्रेष्ठ आश्रय तथा समस्त धनुर्धरोंके तेजका पुंज था। वह ध्वज पाण्डुनन्दन 
महात्मा युधिष्ठिरकी सेनाको अपनी दिव्य प्रभासे उद्भधासित कर रहा था ।। २७६ ।। 

यथा प्रज्वलित: सूर्यो युगान्ते वै वसुंधराम्‌ ।। २८ ।। 

दीप्यन्‌ दृश्येत हि तथा केतु: सर्वत्र धीमत: । 

जैसे प्रलयकालमें प्रज्वलित सूर्य सारी वसुधाको देदीप्यमान करते दिखायी देते हैं, उसी 
प्रकार बुद्धिमान्‌ अर्जुनका वह विशाल ध्वज सर्वत्र प्रकाशमान दिखायी देता था || २८३ ।। 

योधानामर्जुन: श्रेष्ठो गाण्डीवं धनुषां वरम्‌ ।। २९ ।। 

वासुदेवश्व भूतानां चक्राणां च सुदर्शनम्‌ । 

समस्त योद्धाओंमें अर्जुन श्रेष्ठ है, धनुषोंमें गाण्डीव श्रेष्ठ है, सम्पूर्ण चेतन सत्ताओंमें 
सच्चिदानन्दघन वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं और चक्रोंमें सुदर्शन श्रेष्ठ है ।। २९३ 

|| 
चत्वार्येतानि तेजांसि बहन्‌ श्वेतहयो रथ: ।। ३० ।। 
परेषामग्रतस्तस्थौ कालचक्रमिवोद्यतम्‌ | 


एवं तौ सुमहात्मानौ बलसेनाग्रगावुभौ ।। ३१ ।। 

शत घोड़ोंसे सुशोभित वह रथ इन चार तेजोंको धारण करता हुआ शत्रुओंके सामने 
उठे हुए कालचक्रके समान खड़ा हुआ। इस प्रकार वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन 
अपनी सेनाके अग्रभागमें सुशोभित हो रहे थे || ३०-३१ ।। 

तावकानां मुखे कर्ण: परेषां च धनंजय: । 

ततो जयाभिसंरब्धौ परस्परवधैषिणौ ।। ३२ ।। 

अवेक्षेतां तदान्योन्यं समरे कर्णपाण्डवौ | 

राजन्‌! आपकी सेनाके प्रमुख भागमें कर्ण और शत्रुओंकी सेनाके अग्रभागमें अर्जुन 
खड़े थे। वे दोनों उस समय विजयके लिये रोषावेशमें भरकर एक-दूसरेका वध करनेकी 
इच्छासे रणक्षेत्रमें परस्पर दृष्टिपात करने लगे || ३२३ ।। 

ततः प्रयाते सहसा भारद्वाजे महारथे ।। ३३ ।। 

आर्तनादेन घोरेण वसुधा समकम्पत । 

तदनन्तर सहसा महारथी द्रोणाचार्य आगे बढ़े। फिर तो भयंकर आर्तनादके साथ सारी 
पृथ्वी काँप उठी ।। 

ततस्तुमुलमाकाशमावृणोत्‌ सदिवाकरम्‌ ।। ३४ ।। 

वातोद्धूतं रजस्तीव्रं कौशेयनिकरोपमम्‌ । 

ववर्ष द्यौरनभ्रापि मांसास्थिरुधिराण्युत ।। ३५ ।। 

इसके बाद प्रचण्ड वायुके वेगसे बड़े जोरकी धूल उठी, जो रेशमी वस्त्रोंके समुदाय-सी 
प्रतीत होती थी। उस तीव्र एवं भयंकर धूलने सूर्यसहित समूचे आकाशको ढक लिया। 
आकाशमें मेघोंकी घटा नहीं थी, तो भी वहाँसे मांस, रक्त तथा हड्डियोंकी वर्षा होने 
लगी ।। ३४-३५ ।। 

गृध्रा: श्येना बका: कड्का वायसाश्न सहस्रश: । 

उपर्युपरि सेनां ते तदा पर्यपतन्‌ नूप ।। ३६ ।। 

नरेश्वर! उस समय गीध, बाज, बगले, कंक और हजारों कौवे आपकी सेनाके ऊपर- 
ऊपर उड़ने लगे ।। 

गोमायवदश्च प्राक्रोशन्‌ भयदान्‌ दारुणान्‌ रवान्‌ | 

अकार्षुरपसव्यं च बहुश: पृतनां तव ।। ३७ ।। 

चिखादिषन्तो मांसानि पिपासन्तश्न शोणितम्‌ । 

गीदड़ जोर-जोरसे दारुण एवं भयदायक बोली बोलने लगे और मांस खाने तथा रक्त 
पीनेकी इच्छासे बारंबार आपकी सेनाको दाहिने करके घूमने लगे || ३७३ ।। 

अपतद्‌ दीप्यमाना च सनिर्घाता सकम्पना ॥। ३८ ।। 

उल्का ज्वलन्ती संग्रामे पुच्छेनावृत्य सर्वश: । 


उस समय एक प्रज्वलित एवं देदीप्यमान उल्का युद्धस्थलमें अपने पुच्छभागद्वारा 
सबको घेरकर भारी गर्जना और कम्पनके साथ पृथ्वीपर गिरी ।। ३८३ ।। 

परिवेषो महांश्वापि सविद्युत्स्तनयित्नुमान्‌ ।। ३९ ।। 

भास्करस्याभवद्‌ राजन्‌ प्रयाते वाहिनीपतौ । 

राजन! सेनापति द्रोणके युद्धके लिये प्रस्थान करते ही सूर्यके चारों ओर बहुत बड़ा घेरा 
पड़ गया और बिजली चमकनेके साथ ही मेघ-गर्जना सुनायी देने लगी || ३९३ ।। 

एते चान्ये च बहव: प्रादुरासन्‌ सुदारुणा: || ४० ।। 

उत्पाता युधि वीराणां जीवितक्षयकारिण: । 

ये तथा और भी बहुत-से भयंकर उत्पात प्रकट हुए, जो युद्धमें वीरोंकी जीवन-लीलाके 
विनाशकी सूचना देनेवाले थे || ४० ३ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध परस्परवधैषिणाम्‌ ।। ४१ ।। 

कुरुपाण्डवसैन्यानां शब्देनापूरयज्जगत्‌ । 

तदनन्तर एक-दूसरेके वधकी इच्छावाले कौरवों तथा पाण्डवोंकी सेनाओंमें भयंकर 
युद्ध होने लगा और उनके कोलाहलसे सारा जगत्‌ व्याप्त हो गया ।। ४१३ ।। 

ते त्वन्योन्यं सुसंरब्धा: पाण्डवा: कौरवै: सह || ४२ ।। 

अभ्यघ्नन्‌ निशितै: शस्त्रैर्जयगृद्धा: प्रहारिण: । 

क्रोधमें भरे हुए पाण्डव तथा कौरव विजयकी अभिलाषा लेकर एक-दूसरेको तीखे 
अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा मारने लगे। वे सभी योद्धा प्रहार करनेमें कुशल थे || ४२ ई ।। 

स पाण्डवानां महतीं महेष्वासो महाद्युति: || ४३ ।। 

वेगेनाभ्यद्रवत्‌ सेनां किरज्छरशतै: शितै: । 

महाधनुर्धर महातेजस्वी द्रोणाचार्यने पाण्डवोंकी विशाल सेनापर सैकड़ों पैने बाणोंकी 
वर्षा करते हुए बड़े वेगसे आक्रमण किया ।। ४३ $ ।। 

द्रोणमभ्युद्यतं दृष्टवा पाण्डवा: सह सृञ्जयै: || ४४ ।। 

प्रत्यगृह्लंस्तदा राजज्छरवर्ष: पृथक्‌ पृथक्‌ । 

राजन! उस समय द्रोणाचार्यको युद्धके लिये उद्यत देख सूंजयोंसहित पाण्डवोंने 
पृथक्‌-पृथक्‌ बाणोंकी वर्षा करते हुए उनका सामना किया ।। ४४ $ || 

विक्षोभ्यमाणा द्रोणेन भिद्यमाना महाचमू: || ४५ ।। 

व्यशीर्यत सपाञज्चाला वातेनेव बलाहका: । 

जैसे वायु बादलोंको उड़ाकर छिज्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके द्वारा 
क्षत-विक्षत हुई पांचालोंसहित पाण्डवोंकी विशाल सेना तितर-बितर हो गयी || ४५३ ।। 

बहूनीह विकुर्वाणो दिव्यान्यस्त्राणि संयुगे || ४६ ।। 

अपीडयत्‌ क्षणेनैव द्रोण: पाण्डवसृज्जयान्‌ | 


द्रोणने युद्धमें बहुत-से दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करके क्षणभरमें पाण्डवों तथा सूंजयोंको 
पीड़ित कर दिया ।। 

ते वध्यमाना द्रोणेन वासवेनेव दानवा: ।। ४७ ।। 

पड्चाला: समकम्पन्त धृष्टद्युम्नपुरोगमा: । 

जैसे इन्द्र दानवोंको पीड़ा देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्यसे पीड़ित हो धृष्टद्युम्म आदि 
पांचाल योद्धा भयसे काँपने लगे || ४७३ ।। 

ततो दिव्यास्त्रविच्छूरो याज्ञसेनिर्महारथ: || ४८ ।। 

अभिनच्छरवर्षेण द्रोणानीकमनेकधा । 

तब दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता यज्ञसेनकुमार शूरवीर महारथी धृष्टद्युम्नने अपने बाणोंकी वर्षासे 
द्रोणाचार्यकी सेनाको बारंबार घायल किया || ४८ $ ।। 

द्रोणस्य शरवर्षाणि शरवर्षेण पार्षत: ।। ४९ ।। 

संनिवार्य ततः सर्वान्‌ कुरूनप्यवधीद्‌ बली । 

बलवान ट्रुपदपुत्रने अपने बाणोंकी वर्षसे द्रोणाचार्यकी बाणवृष्टिको रोककर समस्त 
कौरव सैनिकोंको मारना आरम्भ किया ।। ४९३ ।। 

संयम्य तु ततो द्रोण: समवस्थाप्य चाहवे ।। ५० ।। 

स्वमनीकं महेष्वास: पार्षतं समुपाद्रवत्‌ । 

तब महाथनुर्धर द्रोणाचार्यने अपनी सेनाको काबूमें करके उसे युद्धस्थलमें स्थिरभावसे 
खड़ा कर दिया और ट्रुपदकुमारपर धावा किया || ५० $ ।। 

स बाणवर्ष सुमहदसृजत्‌ पार्षतं प्रति ।। ५१ ।। 

मघवान्‌ समभिक्रुद्ध: सहसा दानवानिव । 

जैसे क्रोधमें भरे हुए इन्द्र सहसा दानवोंपर बाणोंकी बौछार करते हैं, उसी प्रकार 
द्रोणाचार्यने धृष्टद्युम्मपर बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ५१३ ।। 

ते कम्प्यमाना द्रोणेन बाणै: पाण्डवसृञ्जया: ।। ५२ |। 

पुन: पुनरभज्यन्त सिंहेनेवेतरे मृगा: । 

जैसे सिंह दूसरे मृगोंको भगा देता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके बाणोंसे विकम्पित हुए 
पाण्डव तथा सूंजय बारंबार युद्धका मैदान छोड़कर भागने लगे ।। ५२ ६ ।। 

तथा पर्यचरद्‌ द्रोण: पाण्डवानां बले बली | 

अलातचक्रवद्‌ राज॑स्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ५३ ।। 

राजन! बलवान द्रोणाचार्य पाण्डवोंकी सेनामें अलातचक्रकी भाँति चारों ओर चक्कर 
लगाने लगे। यह एक 5 बात हुई ।। ५३ ।। 

खचरनगरकल्पं | शास्त्रदृष्टया 

चलदनिलपताकं ह्वादनं वल्गिताश्वम्‌ | 


स्फटिकविमलतकेतु त्रासनं शात्रवाणां 
रथवरमधिरूढ: संजहारारिसेनाम्‌ ।। ५४ ।। 
शास्त्रोक्त विधिसे निर्मित हुआ आचार्य द्रोणका वह श्रेष्ठ रथ आकाशचारी गन्धर्वनगरके 
समान जान पड़ता था। वायुके वेगसे उसकी पताका फहरा रही थी। वह रथीके मनको 
आह्वाद प्रदान करनेवाला था। उसके घोड़े उछल-उछलकर चल रहे थे। उसका ध्वज-दण्ड 
स्फटिक मणिके समान स्वच्छ एवं उज्ज्वल था। वह शत्रुओंको भयभीत करनेवाला था। 
उस श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ होकर द्रोणाचार्य शत्रुसेनाका संहार कर रहे थे ।। ५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणपराक्रमे सप्तमो5ध्याय: ।। ७ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्गाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोगपराक्रमविषयक सातवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७ ॥ 


अष्टमो< ध्याय: 
द्रोणाचार्यके पराक्रम और वधका संक्षिप्त समाचार 


संजय उवाच 

तथा द्रोणमभिष्नन्तं साश्वसूतरथद्विपान्‌ 

व्यथिता: पाण्डवा दृष्टवा न चैनं पर्यवारयन्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! द्रोणाचार्यको इस प्रकार घोड़े, सारथि, रथ और 
हाथियोंका संहार करते देखकर भी व्यथित हुए पाण्डव-सैनिक उन्हें रोक न सके ।। १ ।। 

ततो युधिष्ठिरो राजा धृष्टद्युम्नधनंजयौ । 

अब्रवीत्‌ सर्वतो यत्तै: कुम्भयोनिर्निवार्यताम्‌ ।। २ ।। 

तब राजा युधिष्ठिरने धृष्टद्युम्म और अर्जुनसे कहा--“वीरो! मेरे सैनिकोंको सब ओरसे 
प्रयत्नशील होकर द्रोणाचार्यको रोकना चाहिये” ।। २ ।। 

तत्रैनमर्जुनश्वैव पार्षतश्न सहानुग: । 

प्रत्यगृह्नात्‌ ततः सर्वे समापेतुर्महारथा: ।। ३ ।॥। 

यह सुनकर वहाँ अर्जुन और सेवकोंसहित धृष्टद्युम्नने द्रोणाचार्यको रोका। फिर तो 
सभी महारथी उनपर टूट पड़े ।। 

केकया भीमसेनश्न सौभद्रो5थ घटोत्कच: । 

युधिष्ठिरो यमौ मत्स्या द्रुपदस्यात्मजास्तथा ।। ४ ।। 

द्रौपदेयाश्व संहृष्टा धृष्टकेतु: ससात्यकि: । 

चेकितानश्र संक्रुद्धो युयुत्सुश्न महारथ: ।। ५ ।। 

ये चान्ये पार्थिवा राजन्‌ पाण्डवस्यानुयायिन: । 

कुलवीर्यनुरूपाणि चक्कुः कर्माण्यनेकश: ।। ६ ।। 

राजन! केकयराजकुमार, भीमसेन, अभिमन्यु, घटोत्कच, युधिष्ठिर, नकुल-सहदेव, 
मत्स्यदेशीय सैनिक, द्रुपदके सभी पुत्र, हर्ष और उत्साहमें भरे हुए द्रौपदीके पाँचों पुत्र, 
धृष्टकेतु, सात्यकि, कुपित चेकितान और महारथी युयुत्सु--ये तथा और भी जो भूमिपाल 
पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके अनुयायी थे, वे सब अपने कुल और पराक्रमके अनुकूल अनेक 
प्रकारके वीरोचित कार्य करने लगे || ४--६ ।। 

संरक्ष्यमाणां तां दृष्टवा पाण्डवैर्वाहिनीं रणे । 

व्यावृत्य चक्षुषी कोपाद्‌ भारद्वाजो<न्ववैक्षत ।। ७ ।। 

उस रफक्षेत्रमें पाण्डवोंद्वारा सुरक्षित हुई उनकी सेनाकी ओर द्रोणाचार्यने क्रोधपूर्वक 
आँखें फाड़-फाड़कर देखा || ७ || 

स तीव्रं कोपमास्थाय रथे समरदुर्जय: । 


व्यधमत्‌ पाण्डवानीकमभ्राणीव सदागति: ।। ८ ।। 

जैसे वायु बादलोंको छिलन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार रथपर बैठे हुए रणदुर्जय वीर 
द्रोणाचार्य प्रचण्ड कोप धारण करके पाण्डव-सेनाका संहार करने लगे ।। ८ ।। 

रथानश्वान्‌ नरान्‌ नागानभिधावन्नितस्ततः । 

चचारोन्मत्तवद द्रोणो वृद्धोडपि तरुणो यथा ।। ९ ।। 

वे बूढ़े होकर भी जवानके समान फुर्तीले थे। द्रोणाचार्य उन्मत्तकी भाँति युद्धस्थलमें 
इधर-उधर चारों ओर विचरते और रथों, घोड़ों, पैदल मनुष्यों तथा हाथियोंपर धावा करते 
थे।।९।। 

तस्य शोणितदिग्धाड्ा: शोणास्ते वातरंहस: । 

आजानेया हया राजन्नविश्रान्ता ध्रुवं ययु: ।। १० ।। 

उनके घोड़े स्वभावत: लाल रंगके थे। उसपर भी उनके सारे अंग खूनसे लथपथ होनेके 
कारण वे और भी लाल दिखायी देते थे। उनका वेग वायुके समान तीव्र था। राजन्‌! उन 
घोड़ोंकी नस्ल अच्छी थी और वे बिना विश्राम किये निरन्तर दौड़ लगाते रहते थे ।। १० ।। 

तमन्तकमिव क्रुद्धमापतन्तं यतव्रतम्‌ । 

दृष्टवा सम्प्राद्रवन्‌ योधा: पाण्डवस्य ततस्तत: ।। ११ ।। 

नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले द्रोणाचार्यको क्रोधमें भरे हुए कालके समान आते 
देख पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके सारे सैनिक इधर-उधर भाग चले ।। ११ ।। 

तेषां प्राद्रवतां भीम: पुनरावर्ततामपि । 

पश्यतां तिष्ठतां चासीच्छब्द: परमदारुण: ।। १२ ।। 

वे कभी भागते, कभी पुनः लौटते और कभी चुपचाप खड़े होकर युद्ध देखते थे; इस 
प्रकारकी हलचलमें पड़े हुए उन योद्धाओंका अत्यन्त दारुण भयंकर कोलाहल चारों ओर 
गूँज उठा ।। १२ |। 

शूराणां हर्षजननो भीरूणां भयवर्धन: । 

द्यावापृथिव्योर्विवरं पूरयामास सर्वतः: ।। १३ ।। 

वह कोलाहल शूरवीरोंका हर्ष और कायरोंका भय बढ़ानेवाला था। वह आकाश और 
पृथ्वीके बीचमें सब ओर व्याप्त हो गया ।। १३ ।। 

ततः पुनरपि द्रोणो नाम विश्रावयन्‌ युधि । 

अकरोद्‌ रौद्रमात्मानं किर|ञ्छरशतै: परान्‌ ।। १४ ।। 

तब द्रोणाचार्यने पुन: रणभूमिमें अपना नाम सुना-सुनाकर शत्रुओंपर सैकड़ों बाणोंकी 
वर्षा करते हुए अपने भयंकर स्वरूपको प्रकट किया ।। १४ ।। 

स तथा तेष्वनीकेषु पाण्डुपुत्रस्य मारिष | 

कालवदू व्यचरद्‌ द्रोणो युवेव स्थविरो बली ।। १५ ।। 


आर्य! बलवान द्रोणाचार्य वृद्ध होकर भी तरुणके समान फुर्ती दिखाते हुए पाण्बुपुत्र 
युधिष्ठिरकी सेनाओंमें कालके समान विचरने लगे ।। १५ ।। 

उत्कृत्य च शिरांस्य॒ुग्रान्‌ बाहूनपि सुभूषणान्‌ । 

कृत्वा शून्यान्‌ रथोपस्थानुदक्रोशन्महारथान्‌ ।। १६ ।। 

वे योद्धाओंके मस्तकों और आभूषणोंसे भूषित भयंकर भुजाओंको भी काटकर रथकी 
बैठकोंको सूनी कर देते और महारथियोंकी ओर देख-देखकर दहाड़ते थे ।। 

तस्य हर्षप्रणादेन बाणवेगेन वा विभो । 

प्राकम्पन्त रणे योधा गाव: शीतार्दिता इव ।। १७ ।। 

प्रभो! उनके हर्षपूर्वक किये हुए सिंहनाद अथवा बाणोंके वेगसे उस रणक्षेत्रमें समस्त 
योद्धा सर्दीसे पीड़ित हुई गायोंकी भाँति थर-थर काँपने लगे ।। १७ ।। 

द्रोणस्य रथघोषेण मौर्वीनिष्पेषणेन च । 

धनु:शब्देन चाकाशे शब्द: समभवन्महान्‌ ।। १८ ।। 

द्रोणाचार्यके रथकी घरघराहट, प्रत्यंचाको दबा-दबाकर खींचनेके शब्द और धनुषकी 
टंकारसे आकाशमें महान्‌ कोलाहल होने लगा | १८ ।। 

अथास्य धनुषो बाणा निश्चरन्त: सहस्रश: | 

व्याप्य सर्वा दिश: पेतुर्नागाश्वरथपत्तिषु ।। १९ ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषसे सहस्रों बाण निकलकर सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त हो हाथी, घोड़े, 
रथ और पैदल सैनिकोंपर बड़े वेगसे गिरने लगे || १९ ।। 

त॑ कार्मुकमहावेगमस्त्रज्वलितपावकम्‌ । 

द्रोणमासादयांचक्रु: पजचाला: पाण्डवै: सह ।। २० ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषका वेग महान्‌ था। उन्होंने अस्त्रोंद्वारा आग-सी प्रज्वलित कर दी थी। 
पाण्डव और पांचाल सैनिक उनके पास पहुँचकर उन्हें रोकनेकी चेष्टा करने लगे || २० ।। 

तान्‌ सकुण्जरप्त्त्यश्वान्‌ प्राहिणोद्‌ यमसादनम्‌ । 

चक्रेडचिरेण च द्रोणो महीं शोणितकर्दमाम्‌ ।। २१ ।। 

द्रोणाचार्यने हाथी, घोड़े और पैदलोंसहित उन समस्त योद्धाओंको यमलोक पहुँचा 
दिया और थोड़ी ही देरमें भूतलपर रक्तकी कीच मचा दी ।। २१ |। 

तन्वता परमास्त्राणि शरान्‌ सततमस्यता । 

द्रोणेन विहितं दिक्षु शरजालमदृश्यत ।। २२ ।। 

द्रोणाचार्यने निरन्तर बाणोंकी वर्षा और उत्तम अस्त्रोंका विस्तार करके सम्पूर्ण 
दिशाओंमें बाणोंका जाल-सा बुन दिया, जो स्पष्ट दिखलायी दे रहा था || २२ ।। 

पदातिषु रथाश्वेषु वारणेषु च सर्वश: । 

तस्य विद्युदिवा भ्रेषु चरन्‌ केतुरदृश्यत ।। २३ ।। 


पैदल सैनिकों, रथियों, घुड़सवारों तथा हाथीसवारोंमें सब ओर विचरता हुआ उनका 
ध्वज बादलोंमें विद्युत्‌-सा दृष्टिगोचर हो रहा था || २३ ।। 
स केकयानां प्रवरांक्ष॒ पञच 
पज्चालराजं च शरै: प्रमथ्य । 
युधिष्ठटिरानीकमदीनसत्त्वो 
द्रोणो5भ्ययात्‌ कार्मुकबाणपाणि: ।। २४ ।। 
पाँचों श्रेष्ठ केकयराजकुमारों तथा पांचालराज ट्रपदको अपने बाणोंसे मथकर उदार 
हृदयवाले द्रोणाचार्यने हाथोंमें धनुष-बाण लेकर युधिष्ठिरकी सेनापर आक्रमण 
किया ।। २४ ।। 
त॑ भीमसेनश्ष धनंजयश्न 
शिनेश्व नप्ता द्रुपदात्मजश्न । 
शैब्यात्मज: काशिपति: शिबिश्न 
दृष्टवा नदन्तो व्यकिरणञ्छरौचै: ।। २५ ।। 
यह देख भीमसेन, अर्जुन, सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शैब्यकुमार, काशिराज तथा शिबि 
गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे || २५ ।। 
(तेषां शरा द्रोणशरैर्निकृत्ता 
भूमावदृश्यन्त विवर्तमाना: । 
श्रेणीकृता: संयति मोघवेगा 
द्वीपे नदीनामिव काशरोहा: ।।) 
इन सबके बाण द्रोणाचार्यके सायकोंद्वारा छिन्न-भिन्न एवं निष्फल हो युद्धस्थलमें 
धरतीपर लोटते दिखायी देने लगे, मानो नदियोंके द्वीपमें ढेर-के-ढेर कास अथवा सरकण्डे 
काटकर बिछा दिये गये हों। 
तेषामथ द्रोणधरनुर्विमुक्ता: 
पतत्रिण: काञ्चनचित्रपुड्खा: । 
भित्त्वा शरीराणि गजाश्चयूनां 
जम्मुर्महीं शोणितदिग्धवाजा: ।। २६ ।। 
द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए सुवर्णमय विचित्र पंखोंसे युक्त बाण हाथी, घोड़े और 
युवकोंके शरीरोंको छेदकर धरतीमें घुस गये। उस समय उनके पंख रक्तसे रँग गये 
थे ।। २६ |। 
सा योधसंघैश्न रथैश्न भूमि: 
शरैविभिन्नैर्गजवाजिभिश्ष । 
प्रच्छाद्यमाना पतितैर्बभूव 
समावृता द्यौरिव कालमेघै: ।। २७ ।। 


जैसे वर्षाकालके मेघोंकी घटासे आकाश आच्छादित हो जाता है, उसी प्रकार वहाँ 
बाणोंसे विदीर्ण होकर गिरे हुए योद्धाओंके समूहों, रथों, हाथियों और घोड़ोंसे सारी रणभूमि 
पट गयी थी ।। २७ ।। 
शैनेयभीमार्जुनवाहिनी शं 
सौभद्रपाज्चालसकाशिराजम्‌ | 
अन्यांश्व वीरान्‌ समरे मर्द 
द्रोण: सुतानां तव भूतिकाम: ।। २८ ।। 
सात्यकि, भीमसेन और अर्जुन जिसमें सेनापति थे तथा जिसके भीतर अभिमन्यु, 
द्रपद एवं काशिराज-जैसे योद्धा मौजूद थे, उस सेनाको तथा अन्यान्य महावीरोंको भी 
द्रोणाचार्यने समरांगणमें रौंद डाला; क्योंकि वे आपके पुत्रोंको ऐश्वर्यकी प्राप्ति कराना चाहते 
थे।। २८ ।। 
एतानि चान्यानि च कौरवेन्द्र 
कर्माणि कृत्वा समरे महात्मा । 
प्रताप्य लोकानिव कालसूर्यो 
द्रोणो गत: स्वर्गमितो हि राजन्‌ ।। २९ ।। 
राजन! कौरवेन्द्र! युद्धस्थलमें ये तथा और भी बहुत-से वीरोचित कर्म करके महात्मा 
द्रोणाचार्य प्रलयकालके सूर्यकी भाँति सम्पूर्ण लोकोंको तपाकर यहाँसे स्वर्गमें चले 
गये ।। २९ ।। 
एवं रुक्मरथ: शूरो हत्वा शतसहस्रश: । 
पाण्डवानां रणे योधान्‌ पार्षतेन निपातित: ।। ३० ।। 
इस प्रकार सुवर्णमय रथवाले शूरवीर द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें पाण्डवपक्षके लाखों 
योद्धाओंका संहार करके अन्तमें धृष्टद्युम्नके द्वारा मार गिराये गये || ३० ।। 
अक्षौहिणीमभ्यधिकां शूराणामनिवर्तिनाम्‌ | 
निहत्य पश्चाद्‌ धृतिमानगच्छत्‌ परमां गतिम्‌ ।। ३१ ।। 
धैर्यशाली द्रोणाचार्यने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीरोंकी एक अक्षौहिणीसे भी 
अधिक सेनाका संहार करके पीछे स्वयं भी परमगति प्राप्त कर ली ।। ३१ ।। 
पाण्डवैः सह पज्चालैरशिवै: क्रूरकर्मभि: । 
हतो रुक्मरथो राजन्‌ कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ ।। ३२ ।। 
राजन्‌! सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके अन्तमें 
पाण्डवोंसहित अमंगलकारी क्रूरकर्मा पांचालोंके हाथसे मारे गये || ३२ ।। 
ततो निनादो भूतानामाकाशे समजायत । 
सैन्यानां च ततो राजन्नाचार्ये निहते युधि ।। ३३ ।। 


नरेश्वर! युद्धस्थलमें आचार्य द्रोणके मारे जानेपर आकाशमें स्थित अदृश्य भूतोंका तथा 
कौरव-सैनिकोंका आर्तनाद सुनायी देने लगा || ३३ ।। 

द्यां धरां खं दिशो वापि प्रदिशश्वानुनादयन्‌ | 

अहो धिगिति भूतानां शब्द: समभवद्‌ भृशम्‌ ।। ३४ || 

उस समय स्वर्गलोक, भूलोक, अन्तरिक्षतोक, दिशाओं तथा विदिशाओंको भी 
प्रतिध्वनित करता हुआ समस्त प्राणियोंका 'अहो! धिक्कार है!” यह शब्द वहाँ जोर-जोरसे 
गूँजने लगा ।। ३४ ।। 

देवता: पितरश्ैव पूर्वे ये चास्य बान्धवा: । 

ददृशुर्निहतं तत्र भारद्वाजं महारथम्‌ ।। ३५ ।। 

देवता, पितर तथा जो इनके पूर्ववर्ती भाई-बन्धु थे, उन्होंने भी वहाँ भरद्वाजनन्दन 
महारथी द्रोणाचार्यको मारा गया देखा ।। ३५ ।। 

पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सिंहनादान्‌ प्रचक्रिरे । 

सिंहनादेन महता समकम्पत मेदिनी ।। ३६ ।। 

पाण्डव विजय पाकर सिंहनाद करने लगे। उनके उस महान्‌ सिंहनादसे पृथ्वी काँप 
उठी ।। ३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणवधश्रवणे अष्टमो5ध्याय: ।। ८ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाथिषेकपरवर्में द्रोणवधश्रवणविषयक 
आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३७ “लोक हैं।) 


नवमो<्ध्याय: 


द्रोणाचार्यकी मृत्युका समाचार सुनकर धृतराष्ट्रका शोक 
करना 


धृतराष्ट उवाच 

कि कुर्वाणं रणे द्रोणं जघ्नु: पाण्डवसूंजया: । 

तथा निपुणमस्त्रेषु सर्वशस्त्रभूतामपि ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्य क्या कर रहे थे कि पाण्डव तथा सूंजय 
उनपर चोट कर सके? वे तो सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ और अस्त्र-विद्यामें निपुण 
थे।।१॥।। 

रथभज़ो बभूवास्य थनुर्वाशीर्यतास्यत: । 

प्रमत्तो वाभवद्‌ द्रोणस्ततो मृत्युमुपेयिवान्‌ ।। २ ।। 

उनका रथ टूट गया था या बाणोंका प्रहार करते समय धनुष ही खण्डित हो गया था 
अथवा द्रोणाचार्य असावधान थे, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी? ।। २ ।। 

कथं नु पार्षतस्तात शत्रुभिर्दुष्प्रधर्षणम्‌ 

किरन्तमिषुसंघातान्‌ रुक्मपुड्खाननेकश: ।। ३ ।। 

क्षिप्रहस्तं द्विजश्रेष्ठ कृतिनं चित्रयोधिनम्‌ 

दूरेषुपातिनं दान्तमस्त्रयुद्धेषु पारगम्‌ ।। ४ ।। 

पाज्चालपुत्रो न्यवधीद्‌ दिव्यास्त्रधरमच्युतम्‌ । 

कुर्वाणं दारुणं कर्म रणे यत्तं महारथम्‌ ॥। ५ ।। 

तात! द्रोणाचार्य तो शत्रुओंके लिये सर्वथा दुर्जय थे। वे सुवर्णमय पंखवाले 
बाणसमूहोंकी बारंबार वर्षा करते थे। उनके हाथोंमें फुर्ती थी। वे विचित्र रीतिसे युद्ध 
करनेवाले और विद्वान थे। दूरतक बाण मारनेवाले और अस्त्र-युद्धमें पारंगत थे। फिर उन 
जितेन्द्रिय दिव्यास्त्रधारी और अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले द्विजश्रेष्ठ 
द्रोणाचार्यको पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नने कैसे मार दिया? वे तो रणक्षेत्रमें कठोर कर्म 
करनेवाले, विजयके लिये प्रयत्नशील और महारथी वीर थे || ३--५ ।। 

व्यक्त हि दैवं बलवत्‌ पौरुषादिति मे मति: । 

यद्‌ द्रोणो निहतः शूर: पार्षतेन महात्मना ।। ६ ।। 

निश्चय ही पुरुषार्थकी अपेक्षा दैव ही प्रबल है, ऐसा मेरा विश्वास है; क्योंकि द्रोणाचार्य- 
जैसे शूरवीर महामना धृष्टद्युम्नके हाथसे मारे गये ।। ६ ।। 

अस्त्र॑ चतुर्विधं वीरे यस्मिन्नासीत्‌ प्रतिष्तितम्‌ 


तमिष्वस्त्रधराचार्य द्रोणं शंससि मे हतम्‌ ।। ७ ।। 

जिन वीर सेनापतिमें चार प्रकारके अस्त्र प्रतिष्ठित थे, उन धनुर्धरोंके आचार्य द्रोणको 
तुम मुझे मारा गया बता रहे हो || ७ ।। 

श्रुत्वा हतं रुक्मरथं वैयातच्रपरिवारितम्‌ । 

जातरूपशिरस्त्राणं नाद्य शोकमपानुदे ।। ८ ।। 

व्याप्रचर्मसे आच्छादित सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हो सुनहरा शिरस्त्राण (टोप या पगड़ी) 
धारण करनेवाले द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर आज मैं अपने शोकको किसी प्रकार दूर 
नहीं कर पाता हूँ ।। ८ ।। 

न नूनं परदु:खेन प्रियते कोडपि संजय । 

यत्र द्रोणमहं श्रुत्वा हतं जीवामि मन्दधी: ।। ९ ।। 

संजय! निश्चय ही कोई भी दूसरेके दुःखसे नहीं मरता है, तभी तो मैं मन्दबुद्धि मनुष्य 
द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर भी जी रहा हूँ ।। ९ ।। 

दैवमेव परं मन्ये नन्वनर्थ हि पौरुषम्‌ | 

अश्मसारमयं नून॑ हृदयं सुदृढे मम ।। १० ।। 

यच्छुत्वा निहतं द्रोणं शतधा न विदीर्यते । 

मैं तो दैवको ही श्रेष्ठ मानता हूँ। पुरुषार्थ तो अनर्थका ही कारण है। निश्चय ही मेरा यह 
अत्यन्त सुदृढ़ हृदय लोहेका बना हुआ है, जिससे द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर भी इसके 
सौ टुकड़े नहीं हो जाते || १०३ ।। 

ब्राह्मे दैवे तथेष्वस्त्रे यमुपासन्‌ गुणार्थिन: ।। ११ ।। 

ब्राह्मणा राजपुत्राश्न स कथं मृत्युना हृत: । 

गुणार्थी ब्राह्मण तथा राजकुमार ब्राह्म और दैव अस्त्रोंके लिये जिनकी उपासना करते 
थे, उन्हें मृत्यु कैसे हर ले गयी? ।। ११६ ।। 

शोषणं सागरस्येव मेरोरिव विसर्पणम्‌ ।। १२ ।। 

पतनं भास्करस्यथेव न मृष्ये द्रोणपातनम्‌ । 

द्रोणका रणभूमिमें गिराया जाना समुद्रके सूखने, मेरु पर्वतके चलने-फिरने और सूर्यके 
आकाशसे टूटकर गिरनेके समान है। मैं इसे किसी प्रकार सहन नहीं कर पाता || १२३ ।। 

दुष्टानां प्रतिषेद्धा5डसीद्‌ धार्मिकाणां च रक्षिता ।। १३ ।। 

यो5हासीत्‌ कृपणस्यार्थे प्राणानपि परंतप: । 

शत्रुओंको संताप देनेवाले द्रोणाचार्य दुष्टोंको दण्ड देनेवाले और धार्मिकोंके रक्षक थे। 
उन्होंने मुझ कृपणके लिये अपने प्राणतक दे दिये ।। १३ ई ।। 

मन्दानां मम पुत्राणां जयाशा यस्य विक्रमे ।। १४ ।। 

बृहस्पत्युशनस्तुल्यो बुद्धथया स निहतः कथम्‌ | 


मेरे मूर्ख पुत्रोंकोी जिनके ही पराक्रमके भरोसे विजयकी आशा बनी हुई थी तथा जो 
बुद्धिमें बृहस्पति और शुक्राचार्यके समान थे, वे द्रोणाचार्य कैसे मारे गये? ।। १४ इ ।। 

ते च शोणा बृहन्तो<श्वाश्छन्ना जालैहिरिण्मयै: ।। १५ ।। 

रथे वातजवा युक्ता: सर्वशस्त्रातिगा रणे । 

बलिनो ह्वेषिणो दान्ता: सैन्धवा: साधुवाहिन: ।। १६ ।। 

दृढा: संग्राममध्येषु कच्चिदासन्नविह्नला: । 

करिणां बूंहतां युद्धे शड्खदुन्दुभिनि:स्वनै: ।। १७ ।। 

ज्याक्षेपशरवर्षाणां शस्त्राणां च सहिष्णव: । 

आशंसन्त: पराज्जेतुं जितश्वासा जितव्यथा: ।। १८ ।। 

जिनके रंग लाल थे, जो विशाल एवं दृढ़ शरीरवाले थे, जिन्हें सोनेकी जालियोंसे 
आच्छादित किया जाता था, जो रथमें जोते जानेपर वायुके समान वेगसे चलते थे, संग्राममें 
सब प्रकारके शस्त्रोंद्वारा किये जानेवाले प्रहारको बचा जाते थे, जो बलवान, सुशिक्षित और 
रथको अच्छी तरह वहन करनेवाले थे, रणभूमिमें जो दृढ़तापूर्वक डटे रहते और जोर- 
जोरसे हिनहिनाते थे, धनुषोंकी टंकारके साथ होनेवाली बाणवर्षा तथा अस्त्र-शस्त्रोंके 
आधघातको सहन करनेमें समर्थ एवं शत्रुओंको जीतनेका उत्साह रखनेवाले थे, जो पीड़ा 
तथा श्वासको जीत चुके थे, वे सिन्धुदेशीय घोड़े युद्ध-स्थलमें चिग्घाड़ते हुए हाथियों और 
शंखों एवं नगाड़ोंकी आवाजसे घबराये तो नहीं थे? || १५--१८ ।। 

हया: पराजिता: शीघ्रा भारद्वाजरथोद्वहा: । 

ते सम रुक्मरथे युक्ता नरवीरसमास्थिता: ।। १९ |। 

कथं नाभ्यतरंस्तात पाण्डवानामनीकिनीम्‌ । 

क्या द्रोणाचार्यके रथको वहन करनेवाले वे शीघ्रगामी अश्व पराजित हो गये थे? तात! 
द्रोणाचार्यके सुवर्णमय रथमें जुते हुए और उन्हीं नरवीर आचार्यकी सवारीमें काम आनेवाले 
वे घोड़े पाण्डव-सेनाको पार कैसे नहीं कर सके? ।। १९३ ।। 

जातरूपपरिष्कारमास्थाय रथमुत्तमम्‌ ।। २० ।। 

भारद्वाज: किमकरोद्‌ युधि सत्यपराक्रम: । 

उस सुवर्णभूषित उत्तम रथपर आरूढ़ हो सत्यपराक्रमी द्रोणाचार्यने युद्धस्थलमें क्या 
किया? ।। २०६ ।। 

विद्यां यस्पोपजीवन्ति सर्वलोकधनुर्धरा: ।। २१ ।। 

स सत्यसंधो बलवान्‌ द्रोण: किमकरोदू युधि । 

समस्त जगतके धनुर्धर जिनकी विद्याका आश्रय लेकर जीवननिर्वाह करते हैं, उन 
सत्यपराक्रमी बलवान द्रोणाचार्यने युद्धमें क्या किया? ।। २१ ३ ।। 

दिवि शक्रमिव श्रेष्ठ महामात्र धनुर्भुताम्‌ ।। २२ ।। 

के नुतं रौद्रकर्माणं युद्धे प्रत्युद्ययू रथा: । 


स्वर्गमें देवराज इन्द्रके समान जो इस लोकमें श्रेष्ठ और समस्त धनुर्धरोंमें महान्‌ थे, उन 
भयंकर कर्म करनेवाले द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये उस रणक्षेत्रमें कौन-कौनसे रथी 
गये थे? ।। २२६ ।। 

ननु रुक्मरथं दृष्टवा प्राद्रवन्ति सम पाण्डवा: || २३ ।। 

दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं रणे तस्मिन्‌ महाबलम्‌ | 

उस समरांगणमें दिव्य अस्त्रोंका प्रयोग करनेवाले तथा सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए 
महाबली द्रोणाचार्यको देखकर तो समस्त पाण्डव-योद्धा भाग खड़े होते थे ।। 

उताहो सर्वसैन्येन धर्मराज: सहानुज: ।। २४ ।। 

पाज्चाल्यप्रग्रहो द्रोणं सर्वतः समवारयत्‌ । 

भाइयोंसहित धर्मराज युधिष्ठिरने अपनी सारी सेनाके साथ जाकर धृष्टद्युम्नरूपी 
डोरीकी सहायतासे द्रोणाचार्यको घेर तो नहीं लिया था? ।। २४६ ।। 

नूनमावारयत्‌ पार्थों रथिनो<न्यानजिह्ागै: ।। २५ ।। 

ततो द्रोणं समारोहत्‌ पार्षत: पापकर्मकृत्‌ । 

निश्चय ही अर्जुनने अपने सीधे जानेवाले बाणोंके द्वारा अन्य रथियोंको आगे बढ़नेसे 
रोक दिया था। इसीलिये पापकर्मा धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्यपर चढ़ाई कर सका ।। २५३६ || 

न हाहं परिपश्यामि वधे कज्चन शुष्मिण: ।। २६ ।। 

धृष्टय्युम्नादृते रौद्रात्‌ पाल्यमानात्‌ किरीटिना । 

किरीटथधारी अर्जुनके द्वारा सुरक्षित भयंकर स्वभाववाले धृष्टद्युम्नको छोड़कर दूसरे 
किसीको मैं ऐसा नहीं देखता, जो अत्यन्त तेजस्वी द्रोणाचार्यके वधमें समर्थ हो || २६६ ।। 

तैर्वतः सर्वतः शूर: पाउ्चाल्यापसदस्तत: ।। २७ ।। 

केक्यैश्रेदिकारूषैर्मस्स्यैरन्यैश्व भूमिपै: । 

व्याकुलीकृतमाचार्य पिपीलैरुरगं यथा ।। २८ ।। 

कर्मण्यसुकरे सक्तं जघानेति मतिर्मम । 

केकय, चेदि, कारूष, मत्स्यदेशीय सैनिकों तथा अन्य भूमिपालोंने आचार्यको उसी 
प्रकार व्याकुल कर दिया होगा, जैसे बहुत-सी चींटियाँ सर्पको विह्नल कर देती हैं; उसी 
अवस्थामें उन पाण्डव सैनिकोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए नीच धृष्टद्युम्नने दुष्कर कर्ममें लगे 
हुए द्रोणाचार्यको मार डाला होगा, यही बात मेरे मनमें आती है || २७-२८ $ || 

यो<धीत्य चतुरो वेदान्‌ साड्ानाख्यानपञ्चमान्‌ ॥। २९ ।। 

ब्राह्मणानां प्रतिष्ठा35सीत्‌ स्रोतसामिव सागर: । 

क्षत्रं च ब्रह्म चैवेह यो5भ्यतिष्ठत्‌ परंतप: ।। ३० ।। 

स कथं ब्राह्म॒णो वृद्ध: शस्त्रेण वधमाप्तवान्‌ । 


जो छहों अंगों तथा पंचम वेदस्थानीय इतिहास-पुराणोंसहित चारों वेदोंका अध्ययन 
करके ब्राह्मणोंके लिये उसी प्रकार आश्रय बने हुए थे, जैसे नदियोंके लिये समुद्र हैं। जो 
शत्रुओंको संताप देनेवाले तथा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनोंके धर्मोका अनुष्ठान करनेवाले थे, वे 
वृद्ध ब्राह्मण द्रोणाचार्य शस्त्रद्वारा कैसे मारे गये? ।। 

अमर्षिणा मर्षितवान्‌ क्लिश्यमानान्‌ सदा मया ।। ३१ ।। 

अनर्हमाणान्‌ कौन्तेयान्‌ कर्मणस्तस्य तत्‌ फलम्‌ | 

मैंने अमर्षमें भरकर सदा कष्ट भोगनेके अयोग्य कुन्तीकुमारोंको क्लेश ही दिया है; 
परंतु मेरे इस बर्तावको द्रोणाचार्यने चुपचाप सह लिया था। उनके उसी कर्मका यह वधरूपी 
फल प्राप्त हुआ है || ३१३ ।। 

यस्य कर्मानुजीवन्ति लोके सर्वधनुर्भुतः ॥। ३२ ।। 

स सत्यसंध: सुकृती श्रीकामैर्निहत: कथम्‌ । 

जगतके सम्पूर्ण धनुर्धर जिनके शिक्षणरूपी कर्मका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते 
हैं, उन सत्यप्रतिज्ञ पुण्यात्मा द्रोणाचार्यको राजलक्ष्मीके लोभियोंने कैसे मार डाला? ।। ३२ 
ई || 

दिवि शक्र इव श्रेष्ठोी महासत्त्वो महाबल: ।। ३३ ।। 

स कथं निहतः: पार्थ: क्षुद्रमत्स्यैर्यथा तिमि: । 

स्वर्गलोकमें इन्द्रके समान जो इस लोकमें सबसे श्रेष्ठ थे, उन महान्‌ सत्त्वशाली, 
महाबली द्रोणाचार्यको कुन्तीके पुत्रोंने उसी प्रकार मार डाला, जैसे छोटे मत्स्योंने मिलकर 
तिमि नामक महामत्स्यको मार डाला हो। यह कैसे सम्भव हुआ? ।। ३३६ ।। 

क्षिप्रहस्तश्न बलवान्‌ दृढ्धन्वारिमर्दन: ।। ३४ ।। 

न यस्य विजयाकाडूभक्षी विषयं प्राप्प जीवति । 

यं द्ौन जहत: शब्दौ जीवमानं कदाचन ।। ३५ || 

ब्राह्मश्व वेदकामानां ज्याघोषश्न धनुष्मताम्‌ । 

जो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले, बलवान, दृढ्धन्वा तथा शत्रुओंका मर्दन करनेवाले 
थे, कोई भी विजयाभिलाषी वीर जिनके बाणोंका लक्ष्य बन जानेपर जीवित नहीं रह 
सकता था, जिन्हें जीते-जी दो शब्दोंने कभी नहीं छोड़ा था--एक तो वेदाध्ययनकी 
इच्छावाले लोगोंके समक्ष वेदध्वनिका शब्द और दूसरा धनुर्धारियोंके बीचमें प्रत्यंचाकी 
टंकारका शब्द || ३४-३५३ ।। 

अदीनं पुरुषव्याघत्रं हवीमनतमपराजितम्‌ ।। ३६ ।। 

नाहं मृष्ये हतं द्रोणं सिंहद्विरदविक्रमम्‌ । 

सिंह और हाथीके समान पराक्रमी, उदार, लज्जाशील और किसीसे पराजित न 
होनेवाले पुरुषसिंह द्रोणका वध मैं नहीं सहन कर सकता ।। ३६६ ।। 


कथं संजय दुर्धर्षमनाधृष्यशोबलम्‌ ।। ३७ ।। 

पश्यतां पुरुषेन्द्राणां समरे पार्षतो5वधीत्‌ । 

संजय! जिनके यश और बलका तिरस्कार होना असम्भव था, उन दुर्धर्ष वीर 
द्रोणाचार्यको समरभूमिमें सम्पूर्ण नरेशोंके देखते-देखते धृष्टद्युम्नने कैसे मार डाला? ।। 

के पुरस्तादयुध्यन्त रक्षन्तो द्रोणमन्तिकात्‌ ।। ३८ ।। 

के नु पश्चादवर्तन्त गच्छन्तो दुर्गमां गतिम्‌ 

कौन-कौनसे वीर उस समय निकटसे द्रोणाचार्यकी रक्षा करते हुए उनके आगे रहकर 
युद्ध करते थे और कौन-कौन योद्धा दुर्गम मार्गपर पैर बढ़ाते हुए उनके पीछे रहकर रक्षा 
करते थे? ।। ३८३ ।। 

केडरक्षन्‌ दक्षिणं चक्रं सव्यं के च महात्मन: ।। ३९ |। 

पुरस्तात्‌ के च वीरस्य युध्यमानस्य संयुगे | 

के च तस्मिंस्तनूंस्त्यकत्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्‌ ।। ४० ।। 

कौन वीर उन महात्माके दाहिने पहियेकी और कौन बायें पहियेकी रक्षा करते थे? 
कौन उस युद्धस्थलमें युद्धपरायण वीरवर द्रोणाचार्यके आगे थे और किन लोगोंने अपने 
शरीरका मोह छोड़कर विपक्षियोंका सामना करते हुए उस रणक्षेत्रमें मृत्युका वरण किया 
था || ३९-४० || 

द्रोणस्य समरे वीरा: के5कुर्वन्त परां धृतिम्‌ 

कच्चिन्नैनं भयान्मन्दा: क्षत्रिया व्यजहन्‌ रणे ।। ४१ ।। 

रक्षितारस्तत: शून्ये कच्चित्‌ तैर्न हतः परै: । 

किन वीरोंने युद्धमें द्रोणाचार्यको उत्तम धैर्य प्रदान किया? उनकी रक्षा करनेवाले मूर्ख 
क्षत्रियोंने भयभीत होकर युद्धस्थलमें उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ दिया? और इस प्रकार 
शत्रुओंने सूनेमें तो उन्हें नहीं मार डाला? ।। ४१ $ ।। 

न स पृष्ठमरेस्त्रासाद्‌ रणे शौर्यात्‌ प्रदर्शयेत्‌ || ४२ ।। 

परामप्यापदं प्राप्प स कथं निहत: परै: । 

जो बड़ी-से-बड़ी आपत्ति पड़नेपर भी रणमें अपने शौर्यके कारण शत्रुको भयवश पीठ 
नहीं दिखा सकते थे, वे विपक्षियोंद्वारा किस प्रकार मारे गये? || ४२ ई ।। 

एतदार्येण कर्तव्यं कृच्छास्वापत्सु संजय | ४३ ।। 

पराक्रमेद्‌ यथाशक्त्या तच्च तस्मिन्‌ प्रतिष्ठितम्‌ । 

संजय! बड़े भारी संकटमें पड़नेपर श्रेष्ठ पुरुषको यही करना चाहिये कि वह यथाशक्ति 
पराक्रम दिखावे; यह बात द्रोणाचार्यमें पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित थी ।। ४३ $ ।। 

मुहाते मे मनस्तात कथा तावन्निवार्यताम्‌ । 

भूयस्तु लब्धसंज्ञस्त्वां परिपृच्छामि संजय ।। ४४ ।। 


तात! इस समय मेरा मन मोहित हो रहा है; अतः तुम यह कथा बंद करो! संजय! फिर 
होशमें आनेपर तुमसे यह समाचार पूछूँगा || ४४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रशोके नवमो<ध्याय: ।। ९ 
|| 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें धृतराष्रका शोकविषयक 
नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९ ॥ 


दशमो< ध्याय: 


राजा धृतराष्ट्रका शोकसे व्याकुल होना और संजयसे 
युद्धविषयक प्रश्न 


वैशम्पायन उवाच 

एतत्‌ पृष्टवा सूतपुत्र हृच्छोकेनार्दितो भृशम्‌ | 

जये निराश: पुत्राणां धृतराष्ट्रोडपतत्‌ क्षितौ ।॥। १ ।। 

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! सूतपुत्र संजयसे इस प्रकार प्रश्न करते-करते 
हार्दिक शोकसे अत्यन्त पीड़ित हो अपने पुत्रोंकी विजयकी आशा टूट जानेके कारण राजा 
धृतराष्ट्र अचेत-से होकर पृथ्वीपर गिर पड़े | १ ।। 

तं विसंज्ञं निपतितं सिषिचु: परिचारिका: । 

जलेनात्यर्थशीतेन वीजन्त्य: पुण्यगन्धिना ।। २ ।॥। 

उस समय अचेत पड़े हुए राजा धृतराष्ट्रको उनकी दासियाँ पंखा झलने लगीं और उनके 
ऊपर परम सुगन्धित एवं अत्यन्त शीतल जल छिड़कने लगीं ।। २ ।। 

पतितं चैनमालोक्य समन्ताद्‌ भरतस्त्रिय: । 

परिवव्रुर्महाराजमस्पृशंश्वैव पाणिभि: ।। ३ ।। 

महाराजको गिरा देख धृतराष्ट्रकी बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गयीं 
और उन्हें हाथोंसे सहलाने लगीं ।। ३ ।। 

उत्थाप्य चैनं शनकै राजानं पृथिवीतलात्‌ | 

आसन प्रापयामासुर्बाष्पकण्ठ्यो वरानना: ।। ४ ।। 

फिर उन सुमुखी स्त्रियोंने राजाको धीरे-धीरे धरतीसे उठाकर सिंहासनपर बिठाया। उस 
समय उनके नेत्रोंसे आँसू झर रहे थे और कण्ठ गदगद हो रहे थे ।। ४ ।। 

आसन प्राप्य राजा तु मूर्च्डयाभिपरिप्लुत: । 

निश्चेष्टोी>तिष्ठत तदा वीज्यमान: समन्तत: ।। ५ ।। 

सिंहासनपर पहुँचकर भी राजा धृतराष्ट्र मू्च्छसे पीड़ित हो निश्चेष्ट हो गये। उस समय 
सब ओरसे उनके ऊपर व्यजन डुलाया जा रहा था ।। ५ ।। 

स लब्ध्वा शनकै: संज्ञां वेपमानो महीपति: । 

पुनर्गावल्‍गर्णिं सूतं पर्यपृच्छद्‌ यथातथम्‌ ।। ६ ।। 

फिर धीरे-धीरे होशमें आनेपर काँपते हुए राजा धृतराष्ट्रने पुन: सूतजातीय संजयसे 
युद्धका यथावत्‌ समाचार पूछा ।। ६ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 


यः स उद्यन्निवादित्यो ज्योतिषा प्रणुदंस्तम: । 

अजातशत्रुमायान्तं कस्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। ७ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--जो उगते हुए सूर्यकी भाँति अपनी प्रभासे अन्धकार दूर कर देते हैं, 
उन अजातशत्रु युधिष्ठिरको द्रोणके समीप आनेसे किसने रोका था? ।। ७ ।। 

प्रभिन्नमिव मातडुं यथा क्रुद्धं तरस्विनम्‌ । 

प्रसन्नवदनं दृष्टवा प्रतिद्विरदगामिनम्‌ ।। ८ ।। 

वासितासंगमे यद्वदजय्यं प्रति यूथपै: । 

निजघान रणे वीरान्‌ वीर: पुरुषसत्तम: ।। ९ || 

यो होको हि महावीरयों निर्दहेद्‌ घोरचक्षुषा । 

कृत्स्नं दुर्योधनबलं धृतिमान्‌ सत्यसंगर: ।। १० ।। 

चक्षुर्हणं जये सक्तमिष्वासधरमच्युतम्‌ । 

दान्तं बहुमतं लोके के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ११ ।। 

जो मदकी धारा बहानेवाले, हथिनीके साथ समागमके समय आये हुए विपक्षी हाथीपर 
आक्रमण करनेवाले तथा गजयूथपतियोंके लिये अजेय मतवाले गजराजके समान वेगशाली 
और पराक्रमी हैं, कौरवोंके प्रति जिनका क्रोध बढ़ा हुआ है, जिन पुरुषप्रवर वीरने रणक्षेत्रमें 
बहुत-से वीरोंका संहार किया है, जो महापराक्रमी, धैर्यवान्‌ एवं सत्यप्रतिज्ञ हैं और अपनी 
भयंकर दृष्टिसे अकेले ही दुर्योधनकी सम्पूर्ण सेनाको भस्म कर सकते हैं, जो क्रोधभरी 
दृष्टिसे ही शत्रुका संहार करनेमें समर्थ हैं, विजयके लिये प्रयत्नशील, अपनी मर्यादासे कभी 
च्युत न होनेवाले, जितेन्द्रिय तथा लोकमें विशेष सम्मानित हैं, उन प्रसन्नवदन धनुर्धर 
युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके सामने आते देख मेरे पक्षके किन शूरवीरोंने रोका था? ।। ८-- 
११ || 

के दुष्प्रधर्ष राजानमिष्वासधरमच्युतम्‌ । 

समासेदुर्नरव्याप्र॑ कौन्तेयं तत्र मामका: ।। १२ ।। 

जो धर्मसे कभी विचलित नहीं होते हैं, उन महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर पुरुषसिंह कुन्तीकुमार 
राजा युधिष्ठिरपर मेरे किन योद्धाओंने आक्रमण किया था? ।। १२ ।। 

तरसैवाभिपलद्याथ यो वै द्रोणमुपाद्रवत्‌ । 

य: करोति महत्‌ कर्म शत्रूणां वै महाबल: ।। १३ ।। 

महाकायो महोत्साहो नागायुतसमो बले । 

त॑ भीमसेनमायान्तं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। १४ ।। 

जिन्होंने वेगसे ही पहुँचकर द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया था, जो शत्रुके समक्ष महान्‌ 
पराक्रम प्रकट करते हैं, जो महाबली, महाकाय और महान्‌ उत्साही हैं तथा जिनमें दस 
हजार हाथियोंके समान बल है, उन भीमसेनको आते देख किन वीरोंने रोका 
था? ॥| १३-१४ ।। 


यदा55याज्जलदप्रख्यो रथ: परमवीर्यवान्‌ । 

पर्जन्य इव बीभत्सुस्तुमुलामशनीं सृूजन्‌ ।। १५ ।। 

विसृजज्छरजालानि वर्षाणि मघवानिव । 

अवस्फूर्जन्‌ दिश: सर्वास्तलनेमिस्वनेन च ।। १६ ।। 

चापविद्युत्प्रभो घोरो रथगुल्मबलाहक: । 

स नेमिघोषस्तनित: शरशब्दातिबन्धुर: ।। १७ ।। 

रोषानिलसमुद्धूतो मनोभिप्रायशीघ्रग: । 

मर्मातिगो बाणधरस्तुमुल: शोणितोदकै: ।। १८ ।। 

सम्प्लावयन्‌ दिश: सर्वा मानवैरास्तरन्‌ महीम्‌ । 

जो मेघके समान श्यामवर्णवाले परम पराक्रमी महारथी अर्जुन विद्युत॒की उत्पत्ति करते 
हुए बादलोंके समान भयंकर वच्ञास्त्रका प्रयोग करते हैं, जो जलकी वर्षा करनेवाले इन्द्रके 
समान बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हैं तथा जो अपने धनुषकी टंकार और रथके पहियेकी 
घरघराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दायमान कर देते हैं, वे स्वयं भयंकर मेघस्वरूप जान 
पड़ते हैं। धनुष ही उनके समीप विद्युत्प्रभाके समान प्रकाशित होता है। रथियोंकी सेना 
उनकी फैली हुई घटाएँ जान पड़ती हैं। रथके पहियोंकी घरघराहट मेघ-गर्जनाके समान 
प्रतीत होती है। उनके बाणोंकी सनसनाहट वर्षके शब्दकी भाँति अत्यन्त मनोहर लगती है। 
क्रोधरूपी वायु उन्हें आगे बढ़नेकी प्रेरणा देती है। वे मनोरथकी भाँति शीघ्रगामी और 
विपक्षियोंके मर्मस्थलोंको विदीर्ण कर डालनेवाले हैं। बाण धारण करके वे बड़े भयानक 
प्रतीत होते और रक्तरूपी जलसे सम्पूर्ण दिशाओंको आप्लावित करते हुए मनुष्योंकी 
लाशोंसे धरतीको पाट देते हैं ।। १५--१८ ३ ।। 

भीमनिः:स्वनितो रौद्रो दुर्योधनपुरोगमान्‌ ।। १९ ।। 

युद्धे3भ्यषिज्चद्‌ विजयो गार्ध्रपत्रे: शिलाशितै: । 

गाण्डीवं धारयन्‌ धीमान्‌ कीदृशं वो मनस्तदा ।। २० |। 

जिस समय भयंकर गर्जना करनेवाले रौद्ररूपधारी बुद्धिमान्‌ अर्जुनने युद्धमें गाण्डीव 
धारण करके सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए गृध्रपंखयुक्त बाणोंद्वारा दुर्योधन आदि मेरे पुत्रों 
और सैनिकोंको घायल करना आरम्भ किया, उस समय तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था 
हुई थी? ।। १९-२० ।। 

इषुसम्बाधमाकाशं कुर्वन्‌ कपिवरध्वज: । 

यदा55यात्‌ कथमासीत्‌ तु तदा पार्थ समीक्षताम्‌ ।। २१ ।। 

वानरके चिह्नसे युक्त श्रेष्ठ ध्वजावाले अर्जुन जब आकाशको अपने बाणोंसे ठसाठस 
भरते हुए तुमलोगोंपर चढ़ आये थे, उस समय उन्हें देखकर तुम्हारे मनकी कैसी दशा हुई 
थी? ।। २१ ।। 

कच्चिद्‌ गाण्डीवशब्देन न प्रणश्यति वै बलम्‌ । 


यद्व: सभैरवं कुर्वन्नर्जुनो भूशमन्वयात्‌ ।। २२ ।। 

जिस समय अर्जुनने अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करते हुए तुमलोगोंका पीछा किया था, 
उस समय गाण्डीवकी टंकार सुनकर हमारी सेना भाग तो नहीं गयी थी? ।। २२ ।। 

कच्चिन्नापानुदत्‌ प्राणानिषुभिवों धनंजय: । 

वातो वेगादिवाविध्यन्मेघान्‌ शरगणैर्नपान्‌ ॥। २३ ।। 

उस अवसरपर पार्थने अपने बाणोंद्वारा तुम्हारे सैनिकोंके प्राण तो नहीं ले लिये थे? 
जैसे वायु वेगपूर्वक चलकर मेघोंकी घटाको छिजत्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुनने 
वेगसे चलाये हुए बाण-समूहोंद्वारा विपक्षी नरेशोंको घायल कर दिया होगा ।। २३ ।। 

को हि गाण्डीवधन्वानं रणे सोढुं नरो$हति । 

यमुपश्रुत्य सेनाग्रे जन: सर्वो विदीर्यते ।। २४ ।। 

सेनाके प्रमुख भागमें जिनका नाम सुनकर ही सारे सैनिक विदीर्ण हो जाते (भाग 
निकलते) हैं, उन्हीं गाण्डीवधारी अर्जुनका वेग रणक्षेत्रमें कौन मनुष्य सह सकता 
है? ।। २४ ।। 

यत्सेना: समकम्पन्त यद्वीरानस्पृशद्‌ भयम्‌ । 

के तत्र नाजहुढद्रोंणं के क्षुद्रा: प्राद्रवन्‌ू भयात्‌ ।। २५ ।। 

जहाँ सारी सेनाएँ काँप उठीं, समस्त वीरोंके मनमें भय समा गया, वहाँ किन वीरोंने 
ट्रोणाचार्यका साथ नहीं छोड़ा और कौन-कौनसे अधम सैनिक भयके मारे मैदान छोड़कर 
भाग गये? ।। २५ ।। 

के वा तत्र तनूंस्त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्‌ । 

अमानुषाणां जेतारं युद्धेष्वपि धनंजयम्‌ ।। २६ ।। 

मानवेतर प्राणियों (देवताओं और दैत्यों)-पर भी विजय पानेवाले वीर अर्जुनको युद्धमें 
अपने प्रतिकूल पाकर किन वीरोंने वहाँ अपने शरीरोंको निछावर करके मृत्युको स्वीकार 
किया? ।। २६ ।। 

न च वेगं सिताश्व॒स्य विसहिष्यन्ति मामका: । 

गाण्डीवस्य च निर्घोष॑ं प्रावड्जलदनि:स्वनम्‌ ।। २७ ।। 

मेरे सैनिक श्वेतवाहन अर्जुनके वेग और वर्षाकालके मेघकी गम्भीर गर्जनाकी भाँति 
गाण्डीव धनुषकी टंकारध्वनिको नहीं सह सकेंगे || २७ ।। 

विष्वक्सेनो यस्य यन्ता यस्य योद्धा धनंजय: । 

अशक्य: स रथो जेतुं मन्ये देवासुरैरपि ।। २८ ।। 

जिसके सारथि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और योद्धा वीर धनंजय हैं, उस रथको जीतना मैं 
देवताओं तथा असुरोंके लिये भी असम्भव मानता हूँ || २८ ।। 

सुकुमारो युवा शूरो दर्शनीयश्व पाण्डव: । 

मेधावी निपुणो धीमान्‌ युधि सत्यपराक्रम: ।। २९ |। 


आयावं विपुल कुर्वन्‌ व्यथयन्‌ सर्वसैनिकान्‌ | 

यदा<<याजन्नकुलो द्रोणं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ३० ।। 

सुकुमार, तरुण, शूरवीर, दर्शनीय (सुन्दर), मेधावी, युद्धकुशल, बुद्धिमानू और 
सत्यपराक्रमी पाण्डुपुत्र नकुल जब युद्धमें जोर-जोरसे गर्जना करके समस्त सैनिकोंको 
पीड़ित करते हुए द्रोणाचार्यपर चढ़ आये, उस समय किन वीरोंने उन्हें रोका 
था? ॥। २९-३० || 

आशीविष इव क्रुद्ध: सहदेवो यदाभ्ययात्‌ 

कदनं करिष्यउछत्रूणां तेजसा दुर्जयो युधि ।। ३१ ।। 

आर्यव्रतममोधेषुं हीमनन्‍तमपराजितम्‌ । 

सहदेवं तमायान्तं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ३२ ।। 

विषधर सर्पके समान क्रोधमें भरे हुए तथा तेजसे दुर्जय सहदेव जब युद्धमें शत्रुओंका 
संहार करते हुए द्रोणाचार्यके सामने आये, उस समय श्रेष्ठ व्रतधारी अमोघ बाणोंवाले 
लज्जाशील और अपराजित वीर सहदेवको आते देख किन शूरवीरोंने उन्हें रोका 
था? ॥| ३१-३२ |। 

यस्तु सौवीरराजस्य प्रमथ्य महतीं चमूम्‌ । 

आदत्त महिषीं भोजां काम्यां सर्वाड्रशो भनाम्‌ ।। ३३ ।। 

सत्यं धृतिश्व शौर्य च ब्रह्म॒चर्य च केवलम्‌ । 

सर्वाणि युयुधाने5स्मिन्‌ नित्यानि पुरुषर्षभे ।। ३४ ।। 

जिन्होंने सौवीरराजकी विशाल सेनाको मथकर उनकी सर्वांगसुन्दरी कमनीय कन्या 
भोजाको अपनी रानी बनानेके लिये हर लिया था, उन पुरुषशिरोमणि सात्यकिमें सत्य, धैर्य, 
शौर्य और विशुद्ध ब्रह्मचर्य आदि सारे सदगुण सदा विद्यमान रहते हैं || ३३-३४ ।। 

बलिनं सत्यकर्माणमदीनमपराजितम्‌ । 

वासुदेवसमं युद्धे वासुदेवादनन्तरम्‌ ।। ३५ ।। 

धनंजयोपदेशेन श्रेष्ठमिष्वस्त्रकर्मणि । 

पार्थेन सममस्त्रेषु कस्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। ३६ ।। 

वे सात्यकि बलवान, सत्यपराक्रमी, उदार, अपराजित, युद्धमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके 
समान शक्तिशाली, अवस्थामें उनसे कुछ छोटे, अर्जुनसे ही शिक्षा पाकर बाणविद्यामें श्रेष्ठ 
तथा अस्त्रोंके संचालनमें कुन्तीकुमार अर्जुनके तुल्य यशस्वी हैं। उन वीरवर सात्यकिको 
किसने द्रोणाचार्यके पास आनेसे रोका? ।। ३५-३६ ।। 

वृष्णीनां प्रवरं वीरं शूरं सर्वधनुष्मताम्‌ । 

रामेण सममस्त्रेषु यशसा विक्रमेण च ।। ३७ ।। 

वृष्णिवंशके श्रेष्ठ शूरवीर सात्यकि सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें उत्तम हैं। वे अस्त्र-विद्या, यश तथा 
पराक्रममें परशुरामजीके समान हैं ।। ३७ ।। 


सत्यं धृतिर्मति: शौर्य बाह्दां चास्त्रमनुत्तमम्‌ 

सात्वते तानि सर्वाणि त्रैलोक्यमिव केशवे ।। ३८ ।। 

जैसे भगवान्‌ श्रीकृष्णमें तीनों लोक स्थित हैं, उसी प्रकार सात्वतवंशी सात्यकिमें सत्य, 
धैर्य, बुद्धि, शौर्य तथा परम उत्तम ब्रह्मास्त्र विद्यमान हैं || ३८ ।। 

तमेवंगुणसम्पन्नं दुर्वारमपि दैवतै: । 

समासाद्य महेष्वासं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ३९ ।। 

इस प्रकार सर्वसदगुणसम्पन्न महाधनुर्धर सात्यकिको रोकना देवताओंके लिये भी 
अत्यन्त कठिन है। उनके पास पहुँचकर किन शूरवीरोंने उन्हें आगे बढ़नेसे रोका? ।। ३९ ।। 

पज्चालेषूत्तमं वीरमुत्तमाभिजनप्रियम्‌ । 

नित्यमुत्तमकर्माणमुत्तमौजसमाहवे ।। ४० ।। 

युक्त धनंजयहिते समानर्थार्थमुत्थितम्‌ । 

यमवैश्रवणादित्यमहेन्द्रवरुणोपमम्‌ ।। ४१ ।। 

महारथं समाख्यात॑ द्रोणायोद्यतमाहवे । 

त्यजन्तं तुमुले प्राणान्‌ के शूराः समवारयन्‌ ।। ४२ ।। 

पांचालोंमें उत्तम, श्रेष्ठ कुल एवं ख्यातिके प्रेमी, सदा सत्कर्म करनेवाले, संग्राममें उत्तम 
आत्मबलका परिचय देनेवाले, अर्जुनके हितसाधनमें तत्पर, मेरा अनर्थ करनेके लिये उद्यत 
रहनेवाले, यमराज, कुबेर, सूर्य, इन्द्र और वरुणके समान तेजस्वी, विख्यात महारथी तथा 
भयंकर युद्धमें अपने प्राणोंको निछावर करके द्रोणाचार्यसे भिड़नेके लिये सदा तैयार 
रहनेवाले वीर धृष्टद्युम्नको किन शूरवीरोंने रोका? || ४०--४२ ।। 

एको<पसृत्य चेदिभ्य: पाण्डवान्‌ यः समाश्रित: । 

धृष्टकेतुं समायान्तं द्रोणं कस्तं न्‍्यवारयत्‌ ।। ४३ ।। 

जिसने अकेले ही चेदिदेशसे आकर पाण्डव-पक्षका आश्रय लिया है, उस धृष्टकेतुको 
द्रोणके पास आनेसे किसने रोका? ।। ४३ ।। 

यो<वधीत्‌ केतुमान्‌ वीरो राजपुत्रं दुरासदम्‌ | 

अपरान्तगिरिद्वारे द्रोणात्‌ कस्तं न्‍्यवारयत्‌ ।। ४४ ।। 

जिस वीरने अपरान्त पर्वतके द्वारदेशमें स्थित दुर्जय राजकुमारका वध किया, उस 
केतुमान्‌को द्रोणाचार्यके पास आनेसे किसने रोका? ।। ४४ ।। 

स्त्रीपुंसयोर्नरव्याप्रो यः स वेद गुणागुणान्‌ | 

शिखण्डिनं याज्ञसेनिमम्लानमनसं युधि ।। ४५ ।। 

देवव्रतस्य समरे हेतुं मृत्योर्महात्मन: । 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ४६ ।। 

जो पुरुषसिंह स्त्री और पुरुष दोनों शरीरोंके गुण-अवगुणको अपने अनुभवद्वारा 
जानता है, युद्धस्थलमें जिसका मन कभी म्लान (उत्साहशून्य) नहीं होता, जो समरांगणमें 


महात्मा भीष्मकी मृत्युमें हेतु बन चुका है, उस द्रुपदपुत्र शिखण्डीको द्रोणाचार्यके सम्मुख 
आनेसे किन वीरोंने रोका था? ।। ४५-४६ ।। 

यस्मिन्नभ्यधिका वीरे गुणा: सर्वे धनंजयात्‌ । 

यस्मिन्नस्त्राणि सत्यं च ब्रह्मचर्य च सर्वदा ।। ४७ ।। 

वासुदेवसमं वीर्ये धनंजयसमं बले । 

तेजसा55दित्यसदृशं बृहस्पतिसमं मतौ ।। ४८ ।। 

अभिमन्युं महात्मानं व्यात्ताननमिवान्तकम्‌ | 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूरा: समवारयन्‌ ।। ४९ ।। 

जिस वीरमें अर्जुनसे भी अधिक मात्रामें समस्त गुण मौजूद हैं, जिसमें अस्त्र, सत्य तथा 
ब्रह्मचर्य सदा प्रतिष्ठित हैं, जो पराक्रममें भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलमें अर्जुन, तेजमें सूर्य और 
बुद्धिमें बृहस्पतिके समान है, वह महामना अभिमन्यु जब मुँह फैलाये हुए कालके समान 
द्रोणाचार्यके सम्मुख जा रहा था, उस समय किन शूरवीरोंने उसे रोका था? ।। ४७--४९ ।। 

तरुणस्तरुणप्रज्ञ: सौभद्र: परवीरहा । 

यदाभ्यधावद्‌ वै द्रोणं तदा5डसीद्‌ वो मन: कथम्‌ ।। ५० ।। 

तरुण अवस्था और तरुण बुद्धिवाले शत्रुवीरोंके हन्ता सुभद्राकुमारने जब द्रोणाचार्यपर 
धावा किया था, उस समय तुमलोगोंका मन कैसा हो रहा था? ।। ५० ।। 

द्रौपदेया नरव्याप्रा: समुद्रमिव सिन्धव: । 

यद्‌ द्रोणमाद्रवन्‌ संख्ये के शूरास्तान्‌ न्‍्यवारयन्‌ | ५१ ।। 

पुरुषसिंह द्रौपदीकुमार समुद्रकी ओर जानेवाली नदियोंकी भाँति जब द्रोणाचार्यपर 
धावा कर रहे थे, उस समय युद्धमें किन शूरवीरोंने उनको रोका था? ।। ५१ ।। 

एते द्वादश वर्षाणि क्रीडामुत्सूज्य बालका: । 

अस्त्रार्थमवसन्‌ भीष्मे बि शभ्रतो व्रतमुत्तमम्‌ ।। ५२ ।। 

इन द्रौपदीकुमारोंने बारह वर्षोतक खेल-कूद छोड़कर अस्त्रोंकी शिक्षा पानेके लिये 
उत्तम ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते हुए भीष्मके समीप निवास किया था || ५२ || 

क्षत्रंजय: क्षत्रदेव: क्षत्रवर्मा च मानद: । 

धृष्टद्युम्नात्मजा वीरा: के तान्‌ द्रोणादवारयन्‌ ।॥। ५३ ।। 

क्षत्रंजय, क्षत्रदेव तथा दूसरोंको मान देनेवाले क्षत्रवर्मा--ये धृष्टद्युम्नके तीन वीर पुत्र हैं। 
उन्हें द्रोणके पास आनेसे किन वीरोंने रोका था? ।। ५३ ।। 

शताद्‌ विशिष्ट यं युद्धे सममन्यन्त वृष्णय: । 

चेकितान महेष्वासं कस्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। ५४ ।। 

जिन्हें युद्धके मैदानमें वृष्णिवंशियोंने सौ वीरोंसे भी अधिक माना है, उन महाधनुर्धर 
चेकितानको द्रोणके पास आनेसे किसने रोका? ।। ५४ ।। 

वार्थक्षेमि: कलिड्रानां यः कन्यामाहरद्‌ युधि । 


अनाधृष्टिरदीनात्मा कस्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। ५५ ।। 

वृद्धक्षेमके पुत्र उदारचित्त अनाधुष्टिने युद्धस्थलमें कलिंगराजकी कन्‍्याका अपहरण 
किया था। उन्हें द्रोणके पास आनेसे किसने रोका? ।। ५५ ।। 

भ्रातर: पञज्च कैकेया धार्मिका: सत्यविक्रमा: । 

इन्द्रगोपकसंकाशा रक्तवर्मायुधध्वजा: ।। ५६ ।। 

मातृष्वसु: सुता वीरा: पाण्डवानां जयार्थिन: । 

तान्‌ द्रोणं हन्तुमायातान्‌ के वीरा: पर्यवारयन्‌ ।। ५७ ।। 

केकय देशके सत्यपराक्रमी, धर्मात्मा पाँच वीर राजकुमार लाल रंगके कवच, आयुध 
और ध्वज धारण करनेवाले हैं तथा उनके शरीरकी कान्ति भी इन्द्रगोपके समान लाल 
रंगकी ही है; वे पाण्डवोंकी मौसीके बेटे हैं। वे जब पाण्डवोंकी विजयके लिये द्रोणाचार्यको 
मारनेके लिये उनपर चढ़ आये, उस समय किन वीरोंने उन्हें रोका था? ।। ५६-५७ || 

यं योधयन्तो राजानो नाजयन्‌ वारणावते । 

षण्मासानपि संरब्धा जिघांसन्तो युधाम्पतिम्‌ ।। ५८ ।। 

धनुष्मतां वरं शूरं सत्यसंध॑ महाबलम्‌ | 

द्रोणात्‌ कस्तं नरव्याप्र॑ युयुत्सुं पर्यवारयत्‌ ।। ५९ ।। 

वारणावत नगरमें सब राजालोग मार डालनेकी इच्छासे क्रोधमें भरकर छ: महीनोंतक 
युद्ध करते रहनेपर भी योद्धाओंमें श्रेष्ठ जिस वीरको परास्त न कर सके, धनुर्धरोंमें उत्तम, 
शौर्यसम्पन्न, सत्यप्रतिज्ञ, महाबली, उस पुरुषसिंह युयुत्सुको द्रोणाचार्यके पास आनेसे 
किसने रोका? ।। ५८-५९ || 

य: पुत्रं काशिराजस्य वाराणस्यां महारथम्‌ | 

समरे स्त्रीषु गृध्यन्तं भल्‍लेनापाहरद्‌ रथात्‌ ।। ६० ।। 

धृष्टय्युम्नं महेष्वासं पार्थानां मन्त्रधारिणम्‌ । 

युक्त दुर्योधनानर्थे सृष्ट द्रोणवधाय च ।। ६१ ।। 

निर्दहन्तं रणे योधान्‌ दारयन्तं च सर्वतः । 

द्रोणाभिमुखमायान्तं के शूरा: पर्यवारयन्‌ ।। ६२ ।। 

जिसने काशीपुरीमें काशिराजके महारथी पुत्रको, जो स्त्रियोंके प्रति आसक्त था, 
समरभूमिमें भल्‍ल नामक बाणद्दवारा रथसे मार गिराया; जो कुन्तीकुमारोंकी गुप्त मन्त्रणाको 
सुरक्षित रखनेवाला तथा दुर्योधनका अनर्थ करनेके लिये उद्यत रहनेवाला है तथा जिसकी 
उत्पत्ति द्रोणाचार्यके वधके लिये हुई है; वह महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न जब रणक्षेत्रमें योद्धाओंको 
अपने बाणोंकी अग्निसे चलाता और सब ओरसे सारी सेनाको विदीर्ण करता हुआ 
द्रोणाचार्यके सम्मुख आ रहा था, उस समय किन शूरवीरोंने उसे रोका था? ।। ६०--६२ ।। 

उत्सज् इव संवृद्ध द्रुपदस्यास्त्रवित्तमम्‌ | 

शैखण्डिनं शस्त्रगुप्तं के च द्रोणादवारयन्‌ ।। ६३ ।। 


जो ट्रपटकी गोदमें पला हुआ था और शश्त्रोंद्वारा सुरक्षित था, अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उस 
शिखण्डीपुत्रको द्रोणाचार्यके पास आनेसे किन वीरोंने रोका? ।। ६३ ।। 

य इमां पृथिवीं कृत्स्नां चर्मवत्‌ समवेष्टयत्‌ । 

महता रथघोषेण मुख्यारिघ्नो महारथ: ।। ६४ ।। 

दशाश्वमेधानाजलद्ले स्वन्नपानाप्तदक्षिणान्‌ । 

निरर्गलान्‌ सर्वमेधान्‌ पुत्रवत्‌ पालयन्‌ प्रजा: ॥। ६५ ।। 

गड़ास्रोतसि यावत्य: सिकता अप्यशेषत: । 

तावतीर्गा ददौ वीर उशीनरसुतो<5ध्वरे ।। ६६ ।। 

जैसे चमड़ेको अंगोमें लपेट लिया जाता है, उसी प्रकार जिन्होंने अपने रथके महान्‌ 
घोषद्वारा इस सारी पृथ्वीको व्याप्त कर लिया था, जो प्रधान-प्रधान शत्रुओंका वध 
करनेवाले और महारथी वीर थे, जिन्होंने प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते हुए सुन्दर अन्न, 
पान तथा प्रचुर दक्षिणासे युक्त एवं विघ्नरहित दस अश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान किया और 
कितने ही सर्वमेध-यज्ञ सम्पन्न किये, वे राजा उशीनरके वीर पुत्र सर्वत्र विख्यात हैं, 
गंगाजीके स्रोतमें जितने सिकताकण बहते हैं, उतनी ही अर्थात्‌ असंख्य गौएँ 
उशीनरकुमारने अपने यज्ञमें ब्राह्मणोंको दी थीं।। ६४--६६ ।। 

न पूर्वे नापरे चक्रुरिदं केचन मानवा: । 

इतीदं चुक्रुशु्देवा: कृते कर्मणि दुष्करे || ६७ ।। 

राजा जब उस दुष्कर यज्ञका अनुष्ठान पूर्ण कर चुके, तब सम्पूर्ण देवताओंने यह 
पुकार-पुकारकर कहा कि “ऐसा यज्ञ पहलेके और बादके भी मनुष्योंने कभी नहीं किया 
था' || ६७ || 

पश्यामस्त्रिषु लोकेषु न त॑ संस्थास्नुचारिषु । 

जातं चापि जनिष्यन्तं द्वितीयं चापि साम्प्रतम्‌ ।। ६८ ।। 

अन्यमौशीनराच्छैब्याद्‌ धुरो वोढारमित्युत । 

गति यस्य न यास्यन्ति मानुषा लोकवासिन: ।। ६९ ।। 

स्थावर-जंगमरूप तीनों लोकोंमें एकमात्र उशीनरपौत्र शैब्यको छोड़कर दूसरे किसी 
ऐसे राजाको न तो हम इस समय उत्पन्न हुआ देखते हैं और न भविष्यमें किसीके उत्पन्न 
होनेका लक्षण ही देख पाते हैं, जो इस महान्‌ भारको वहन करनेवाला हो। इस मर्त्यलोकके 
निवासी मनुष्य उनकी गतिको नहीं पा सकेंगे || ६८-६९ ।। 

तस्य नप्तारमायान्तं शैब्यं क: समवारयत्‌ | 

द्रोणायाभिमुखं यत्तं व्यात्ताननमिवान्तकम्‌ | ७० ।। 

उन्हीं उशीनरका पौत्र शैब्य सावधान हो जब द्रोणाचार्यके सम्मुख आ रहा था, उस 
समय मुँह फैलाये हुए कालके समान उस वीरको किसने रोका? || ७० ।। 

विराटस्य रथानीकं मत्स्यस्यामित्रधातिन: । 


प्रेप्सन्तं समरे द्रोणं के वीरा: पर्यवारयन्‌ ।। ७१ ।। 

शत्रुधाती मत्स्ययाज विराटकी रथसेनाको, जो द्रोणाचार्यको नष्ट करनेकी इच्छासे 
खोजती हुई आ रही थी, किन वीरोंने रोका था? ।। ७१ ।। 

सद्यो वृकोदराज्जातो महाबलपराक्रम: । 

मायावी राक्षसो वीरो यस्मान्मम महद्‌ भयम्‌ ।। ७२ ।। 

पार्थानां जयकामं तं॑ पुत्राणां मम कण्टकम्‌ । 

घटोत्कचं महात्मानं कस्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। ७३ ।। 

जो भीमसेनसे तत्काल प्रकट हुआ तथा जिससे मुझे महान्‌ भय बना रहता है, वह 
महान्‌ बल और पराक्रमसे सम्पन्न मायावी राक्षस वीर घटोत्कच कुन्तीकुमारोंकी विजय 
चाहता है और मेरे पुत्रोंके लिये कंटक बना हुआ है, उस महाकाय घटोत्कचको द्रोणाचार्यके 
पास आनेसे किसने रोका? ।। ७२-७३ ।। 

एते चान्ये च बहवो येषामर्थाय संजय । 

त्यक्तार: संयुगे प्राणान्‌ कि तेषामजितं युधि ।। ७४ ।। 

संजय! ये तथा और भी बहुत-से वीर जिनके लिये युद्धमें प्राण त्याग करनेको तैयार हैं, 
उनके लिये कौन-सी ऐसी वस्तु होगी, जो जीती न जा सके ।। ७४ ।। 

येषां च पुरुषव्याप्र: शार्ड्र्धन्चा व्यपाश्रय: । 

हितार्थी चापि पार्थानां कथं तेषां पराजय: ।। ७५ |। 

शार्ज््धनुष धारण करनेवाले पुरुषसिंह भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिनके आश्रय तथा हित 
चाहनेवाले हैं, उन कुन्तीकुमारोंकी पराजय कैसे हो सकती है? ।। ७५ ।। 

लोकानां गुरुरत्यर्थ लोकनाथ: सनातन: । 

नारायणो रणे नाथो दिव्यो दिव्यात्मक: प्रभु: ।। ७६ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्‌के परम गुरु हैं, समस्त लोकोंके सनातन स्वामी हैं, 
संग्रामभूमिमें सबकी रक्षा करनेवाले दिव्य स्वरूप, सामर्थ्यशाली, दिव्य नारायण 
हैं ।। ७६ || 

यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिण: । 

तान्यहं कीर्तयिष्यामि भक्‍त्या स्थैर्यार्थमात्मन: ।। ७७ ।। 

मनीषी पुरुष जिनके दिव्य कर्मोंका वर्णन करते हैं, मैं उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णकी 
लीलाओंका अपने मनकी स्थिरताके लिये भक्तिपूर्वक वर्णन करूँगा ।। ७७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये दशमो<5ध्याय: ।। १० 


|| 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें धृतराष्ट्रवक्यविषयक दसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १० ॥। 


भीकम (2 अमान 


एकादशोब< ध्याय: 


धृतराष्ट्रका भगवान्‌ श्रीकृष्णकी संक्षिप्त लीलाओंका वर्णन 
करते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनकी महिमा बताना 


धृतराष्ट्र रवाच 

शृणु दिव्यानि कर्माणि वासुदेवस्य संजय । 

कृतवान्‌ यानि गोविन्दो यथा नान्य: पुमान्‌ क्वचित्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णके दिव्य कर्मोंका वर्णन सुनो। 
भगवान्‌ गोविन्दने जो-जो कार्य किये हैं, वैसा दूसरा कोई पुरुष कदापि नहीं कर 
सकता || १ ।। 

संवर्धता गोपकुले बालेनैव महात्मना । 

विख्यापितं बल बाद्दोस्त्रिषु लोकेषु संजय ॥। २ ।। 

संजय! बाल्यावस्थामें ही जब कि वे गोपकुलमें पल रहे थे, महात्मा श्रीकृष्णने अपनी 
भुजाओंके बल और पराक्रमको तीनों लोकोंमें विख्यात कर दिया ।। २ ।। 

उच्चै:श्रवस्तुल्यबलं वायुवेगसमं जवे । 

जघान हयराजं तं यमुनावनवासिनम्‌ ।। ३ ।। 

यमुनाके तटवर्ती वनमें उच्चै:श्रवाकें समान बलशाली और वायुके समान वेगवान्‌ 
अश्वराज केशी रहता था। उसे श्रीकृष्णने मार डाला ।। ३ ।। 

दानवं घोरकर्माणं गवां मृत्युमिवोत्थितम्‌ । 

वृषरूपधरं बाल्ये भुजाभ्यां निजघान ह ।। ४ ।। 

इसी प्रकार एक भयंकर कर्म करनेवाला दानव वहाँ बैलका रूप धारण करके रहता 
था, जो गौओंके लिये मृत्युके समान प्रकट हुआ था। उसे भी श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें 
अपने हाथोंसे ही मार डाला || ४ ।। 

प्रलम्बं नरकं जम्भं पीठं चापि महासुरम्‌ | 

मुरं चान्तकसंकाशमवधीत्‌ पुष्करेक्षण: ।। ५ ।। 

तत्पश्चात्‌ कमलनयन श्रीकृष्णने प्रलम्ब, नरकासुर, जम्भासुर, पीठ नामक महान्‌ असुर 
और यमराजसदृश मुरका भी संहार किया ।। ५ ।। 

तथा कंसो महातेजा जरासंधेन पालित: । 

विक्रमेणैव कृष्णेन सगण: पातितो रणे ।। ६ ।। 

इसी प्रकार श्रीकृष्णने पराक्रम करके ही जरासंधके द्वारा सुरक्षित महातेजस्वी कंसको 
उसके गणोंसहित रणभूमिमें मार गिराया || ६ ।। 


सुनामा रणविक्रान्त: समग्राक्षीहिणीपति: । 

भोजराजस्य मध्यस्थो भ्राता कंसस्य वीर्यवान्‌ ।। ७ ।। 

बलदेवद्वितीयेन कृष्णेनामित्रघातिना । 

तरस्वी समरे दग्ध: ससैन्य: शूरसेनराट्‌ ।। ८ ।। 

शत्रुहन्ता श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ जाकर युद्धमें पराक्रम दिखानेवाले, बलवान, 
वेगवान्‌, सम्पूर्ण अक्षौहिणी सेनाओंके अधिपति, भोजराज कंसके मझले भाई शूरसेन 
देशके राजा सुनामाको समरमें सेनासहित दग्ध कर डाला ।। 

दुर्वासा नाम विप्रर्षिस्तथा परमकोपन: । 

आराधित: सदारेण स चास्मै प्रददौ वरान्‌ । ९ ।। 

पत्नीसहित श्रीकृष्णने परम क्रोधी ब्रह्मर्षि दुर्वासाकी आराधना की। अतः उन्होंने प्रसन्न 
होकर उन्हें बहुत-से वर दिये ।। ९ ।। 

तथा गान्धारराजस्य सुतां वीर: स्वयंवरे । 

निर्जित्य पृथिवीपालानावहत्‌ पुष्करेक्षण: ।। १० ।। 

अमृष्यमाणा राजानो यस्य जात्या हया इव | 

रथे वैवाहिके युक्ता: प्रतोदेन कृतव्रणा: ।। ११ ।। 

कमलनयन वीर श्रीकृष्णने स्वयंवरमें गान्धारराजकी पुत्रीको प्राप्त करके समस्त 
राजाओंको जीतकर उसके साथ विवाह किया। उस समय अच्छी जातिके घोड़ोंकी भाँति 
श्रीकृष्णके वैवाहिक रथमें जुते हुए वे असहिष्णु राजालोग कोड़ोंकी मारसे घायल कर दिये 
गये थे || १०-११ ।। 

जरासंध॑ महाबाहुमुपायेन जनार्दन: । 

परेण घातयामास समग्राक्षीहिणीपतिम्‌ ।। १२ ।। 

जनार्दन श्रीकृष्णने समस्त अक्षौहिणी सेनाओंके अधिपति महाबाहु जरासंधको 
उपायपूर्वक दूसरे योद्धा (भीमसेन)-के द्वारा मरवा दिया ।। १२ ।। 

चेदिराजं च विक्रान्तं राजसेनापतिं बली । 

अर्घ्ये विवदमानं च जघान पशुवत्‌ तदा ।। १३ ।। 

बलवान्‌ श्रीकृष्णने राजाओंकी सेनाके अधिपति पराक्रमी चेदिराज शिशुपालको 
अग्रपूजनके समय विवाद करनेके कारण पशुकी भाँति मार डाला ।। १३ ।। 

सौभ दैत्यपुरं खस्थं शाल्वगुप्तं दुरासदम्‌ । 

समुद्रकुक्षौ विक्रम्य पातयामास माधव: ।। १४ ।। 

तत्पश्चात्‌ माधवने आकाशमें स्थित रहनेवाले सौभ नामक दुर्धर्ष दैत्य-नगरको, जो 
राजा शाल्दद्वारा सुरक्षित था, समुद्रके बीच पराक्रम करके मार गिराया ।। 

अड्डान्‌ वज़ान्‌ कलिज्रांश्न मागधान्‌ काशिकोसलान्‌ | 

वात्स्यगार्ग्यकरूषांश्व॒ पौण्डरांशक्राप्पजयद्‌ रणे ।। १५ |। 


उन्होंने रणक्षेत्रमें अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि, कोसल, वत्स, गर्ग, करूष तथा 
पौण्ड़र आदि देशोंपर विजय पायी थी ।। १५ ।। 

आन्न्त्यान्‌ दाक्षिणात्यांश्न॒ पर्वतीयान्‌ दशेरकान्‌ । 

काश्मीरकानौरसिकान्‌ पिशाचांश्व समुद्गलान्‌ ।। १६ ।। 

काम्बोजान्‌ वाटधानांश्व चोलान्‌ पाण्ड्यांश्व॒ संजय । 

त्रिगर्तान्‌ मालवांश्वैव दरदांश्व॒ सुदुर्जयान्‌ ।। १७ ।। 

नानादिग्भ्यश्न सम्प्राप्तान्‌ खशांश्चैव शकांस्तथा । 

जितवान्‌ पुण्डरीकाक्षो यवनं च सहानुगम्‌ ।। १८ ।। 

संजय! इसी प्रकार कमलनयन श्रीकृष्णने अवन्ती, दक्षिण प्रान्त, पर्वतीय देश, दशेरक, 
काश्मीर, औरसिक, पिशाच, मुद्गल, काम्बोज, वाटधान, चोल, पाण्डब, त्रिगर्त, मालव, 
अत्यन्त दुर्जय दरद आदि देशोंके योद्धाओंको तथा नाना दिशाओंसे आये हुए खशों, शकों 
और अनुयायियों-सहित कालयवनको भी जीत लिया ।। १६--१८ ।। 

प्रविश्य मकरावासं यादोगणनिषेवितम्‌ । 

जिगाय वरुणं संख्ये सलिलान्तर्गतं पुरा || १९ ।। 

पूर्वकालमें श्रीकृष्णने जल-जन्तुओंसे भरे हुए समुद्रमें प्रवेश करके जलके भीतर 
निवास करनेवाले वरुण देवताको युद्धमें परास्त किया ।। १९ |। 

युधि पञ्चजन हत्वा दैत्यं पातालवासिनम्‌ | 

पाज्चजन्यं हृषीकेशो दिव्यं शड्खमवाप्तवान्‌ ।। २० ।। 

इसी प्रकार हृषीकेशने पाताल-निवासी पंचजन नामक दैत्यको युद्धमें मारकर दिव्य 
पाज्चजन्य शंख प्राप्त किया ।। 

खाण्डवे पार्थसहितस्तोषयित्वा हुताशनम्‌ । 

आग्नेयमस्त्रं दुर्धर्ष चक्र लेभे महाबल: ।। २१ ।। 

खाण्डव वनमें अर्जुनके साथ अग्निदेवको संतुष्ट करके महाबली श्रीकृष्णने दुर्धर्ष 
आग्नेय अस्त्र चक्रको प्राप्त किया था || २१ ।। 

वैनतेयं समारुह्य त्रासयित्वामरावतीम्‌ | 

महेन्द्रभवनाद्‌ वीर: पारिजातमुपानयत्‌ ।। २२ ।। 

वीर श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ हो अमरावती पुरीमें जाकर वहाँके निवासियोंको 
भयभीत करके महेन्द्रभवनसे पारिजात वृक्ष उठा ले आये || २२ ।। 

तच्च मर्षितवान्‌ शक्रो जानंस्तस्य पराक्रमम्‌ | 

राज्ञां चाप्यजितं कज्चित्‌ कृष्णेनेह न शुश्रुम | २३ ।। 

उनके पराक्रमको इन्द्र अच्छी तरह जानते थे, इसलिये उन्होंने वह सब चुपचाप सह 
लिया। राजाओंमेंसे किसीको भी मैंने ऐसा नहीं सुना है, जिसे श्रीकृष्णने जीत न लिया 
हो ।। २३ ।। 


यच्च तन्महदाक्षर्य सभायां मम संजय । 

कृतवान्‌ पुण्डरीकाक्ष: कस्तदन्य इहाहति ।। २४ ।। 

संजय! उस दिन मेरी सभामें कमलनयन श्रीकृष्णने जो महान्‌ आश्चर्य प्रकट किया था, 
उसे इस संसारमें उनके सिवा दूसरा कौन कर सकता है? ।। २४ ।। 

यच्च भकक्‍त्या प्रसन्नो5हमद्राक्ष॑ कृष्णमी श्वरम्‌ । 

तन्मे सुविदितं सर्व प्रत्यक्षमिव चागमम्‌ ।। २५ ।। 

मैंने प्रसन्न होकर भक्तिभावसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके उस ईश्वरीय रूपका जो दर्शन किया, 
वह सब मुझे आज भी अच्छी तरह स्मरण है। मैंने उन्हें प्रत्यक्षकी भाँति जान लिया 
था ।। २५ || 

नान्तो विक्रमयुक्तस्य बुद्धया युक्तस्य वा पुनः । 

कर्मणां शक्‍्यते गन्तुं हृषीकेशस्थ संजय ।। २६ ।। 

संजय! बुद्धि और पराक्रमसे युक्त भगवान्‌ हृषीकेशके कर्मोका अन्त नहीं जाना जा 
सकता ।। २६ |। 

तथा गदश्न साम्बश्न प्रद्युम्नोडथ विदूरथ: । 

अगावहोडनिरुद्धश्ष चारुदेष्ण: ससारण: || २७ |। 

उल्मुको निशठश्वैव झिल्ली बश्रुश्न वीर्यवान्‌ 

पृथुश्न विपृथुश्नमेव शमीको5थारिमेजय: ।। २८ ।। 

एते<न्ये बलवन्तश्न वृष्णिवीरा: प्रहारिण: । 

कथंचित्‌ पाण्डवानीकं श्रयेयु: समरे स्थिता: || २९ ।। 

आहूता वृष्णिवीरेण केशवेन महात्मना | 

ततः संशयितं सर्व भवेदिति मतिर्मम ।। ३० ।। 

यदि गद, साम्ब, प्रद्युम्न, विदूरथ, अगावह, अनिरुद्ध, चारुदेष्ण, सारण, उल्मुक, 
निशठ, झिल्ली, पराक्रमी बश्रु, पृथु, विपृथु, शमीक तथा अरिमेजय--ये तथा दूसरे भी 
बलवान एवं प्रहारकुशल वृष्णिवंशी योद्धा वृष्णिवंशके प्रमुख वीर महात्मा केशवके 
बुलानेपर पाण्डव-सेनामें आ जायेँ और समरभूमिमें खड़े हो जायेँ तो हमारा सारा उद्योग 
संशयमें पड़ जाय; ऐसा मेरा विश्वास है ।। 

नागायुतबलो वीर: कैलासशिखरोपम: । 

वनमाली हली रामस्तत्र यत्र जनार्दन: ।। ३३१ || 

वनमाला और हल धारण करनेवाले वीर बलराम कैलास-शिखरके समान गौरवर्ण हैं। 
उनमें दस हजार हाथियोंका बल है। वे भी उसी पक्षमें रहेंगे, जहाँ श्रीकृष्ण हैं | ३१ ।। 

यमाहु: सर्वपितरं वासुदेव॑ द्विजातय: । 

अपि वा होष पाण्डूनां योत्स्यते<र्थाय संजय ।। ३२ ।। 


संजय! जिन भगवान्‌ वासुदेवको द्विजगण सबका पिता बताते हैं, क्या वे पाण्डवोंके 
लिये स्वयं युद्ध करेंगे? ।। 

स यदा तात संनहोत्‌ पाण्डवार्थाय संजय । 

न तदा प्रतिसंयोद्धा भविता तत्र कश्षन ।। ३३ |। 

तात! संजय! जब पाण्डवोंके लिये श्रीकृष्ण कवच बाँधकर युद्धके लिये तैयार हो 
जाय, उस समय वहाँ कोई भी योद्धा उनका सामना करनेको तैयार न होगा ।। ३३ ।। 

यदि सम कुरव: सर्वे जयेयुर्नाम पाण्डवान्‌ | 

वार्ष्णेयो<र्थाय तेषां वै गृह्नीयाच्छस्त्रमुत्तमम्‌ ।। ३४ ।। 

यदि सब कौरव पाण्डवोंको जीत लें तो वृष्णिवंशभूषण भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके हितके 
लिये अवश्य उत्तम शस्त्र ग्रहण कर लेंगे ।। ३४ ।। 

ततः सर्वान्‌ नरव्याप्रो हत्वा नरपतीन्‌ रणे | 

कौरवांश्व महाबाहु: कुन्त्यै दद्यात्‌ स मेदिनीम्‌ ।। ३५ ।। 

उस दशामें पुरुषसिंह महाबाहु श्रीकृष्ण सब राजाओं तथा कौरवोंको रणभूमिमें 
मारकर सारी पृथ्वी कुन्तीको दे देंगे || ३५ ।। 

यस्य यन्ता हृषीकेशो योद्धा यस्य धनंजय: । 

रथस्य तस्य कः संख्ये प्रत्यनीको भवेद्‌ रथ: ।। ३६ ।। 

जिसके सारथि सम्पूर्ण इन्द्रियोंके नियन्ता श्रीकृष्ण तथा योद्धा अर्जुन हैं, रणभूमिमें 
उस रथका सामना करनेवाला दूसरा कौन रथ होगा? ।। ३६ ।। 

न केनचिदुपायेन कुरूणां दृश्यते जय: । 

तस्मान्मे सर्वमाचक्ष्व यथा युद्धमवर्तत ।। ३७ ।। 

किसी भी उपायसे कौरवोंकी जय होती नहीं दिखायी देती। इसलिये तुम मुझसे सब 
समाचार कहो। वह युद्ध किस प्रकार हुआ? || ३७ ।। 

अर्जुन: केशवस्यात्मा कृष्णो5प्यात्मा किरीटिन: । 

अर्जुने विजयो नित्यं कृष्णे कीर्तिश्व शाश्वती ।। ३८ ।। 

अर्जुन श्रीकृष्णके आत्मा हैं और श्रीकृष्ण किरीटधारी अर्जुनके आत्मा हैं। अर्जुनमें 
विजय नित्य विद्यमान है और श्रीकृष्णमें कीर्तिका सनातन निवास है || ३८ ।। 

सर्वेष्वपि च लोकेषु बीभत्सुरपराजित: । 

प्राधान्येनेव भूयिष्ठममेया: केशवे गुणा: ।। ३९ ।। 

अर्जुन सम्पूर्ण लोकोंमें कभी कहीं भी पराजित नहीं हुए हैं। श्रीकृष्णमें असंख्य गुण हैं। 
यहाँ प्राय: प्रधान गुणके नाम लिये गये हैं || ३९ ।। 

मोहाद्‌ दुर्योधन: कृष्णं यो न वेत्तीह केशवम्‌ | 

मोहितो दैवयोगेन मृत्युपाशपुरस्कृत: ।। ४० ।। 


दुर्योधन मोहवश सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ केशवको नहीं जानता है, वह दैवयोगसे 
मोहित हो मौतके फंदेमें फँस गया || ४० ।। 

न वेद कृष्णं दाशार्हमर्जुनं चैव पाण्डवम्‌ । 

पूर्वदेवी महात्मानौ नरनारायणावुभौ ।। ४१ ।। 

यह दशा्कुलभूषण श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनको नहीं जानता है, वे दोनों 
पूर्वदेवता महात्मा नर और नारायण हैं ।। 

एकात्मानौ द्विधाभूतौ दृश्येते मानवैर्भुवि । 

मनसा5पि हि दुर्धर्षा सेनामेतां यशस्विनौ ।। ४२ ।। 

नाशयेतामिहेच्छन्तौ मानुषत्वाच्च नेच्छत: । 

उनकी आत्मा तो एक है; परंतु इस भूतलके मनुष्योंको वे शरीरसे दो होकर दिखायी 
देते हैं। उन्हें मनसे भी पराजित नहीं किया जा सकता। वे यशस्वी श्रीकृष्ण और अर्जुन यदि 
इच्छा करें तो मेरी सेनाको तत्काल नष्ट कर सकते हैं; परंतु मानवभावका अनुसरण करनेके 
कारण ये वैसी इच्छा नहीं करते हैं || ४२ ३ ।। 

युगस्येव विपर्यासो लोकानामिव मोहनम्‌ ।। ४३ ।। 

भीष्मस्य च वधस्तात द्रोणस्य च महात्मन: । 

तात! भीष्म तथा महात्मा द्रोणका वध युगके उलट जानेकी-सी बात है। सम्पूर्ण 
लोकोंको यह घटना मानो मोहमें डालनेवाली है || ४३ ६ ।। 

न होव ब्रह्मचर्येण न वेदाध्यपयनेन च ।। ४४ ।। 

न क्रियाभिरनन चास्त्रेण मृत्यो: कश्षिन्निवार्यते 

जान पड़ता है, कोई भी न तो ब्रह्मचर्यके पालनसे, न वेदोंके स्वाध्यायसे, न कर्मोके 
अनुष्ठानसे और न अस्त्रोंके प्रयोगसे ही अपनेको मृत्युसे बचा सकता है || ४४३ ।। 

लोकसम्भावितौ वीरीौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ || ४५ ।। 

भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा कि नु जीवामि संजय । 

संजय! लोकसम्मानित, अस्त्रविद्याके ज्ञाता तथा युद्धदुर्मद वीरवर भीष्म और 
द्रोणाचार्यके मारे जानेका समाचार सुनकर मैं किसलिये जीवित रहूँ? || ४५३ ।। 

यां तां श्रियमसूयाम: पुरा दृष्टवा युधिषछ्टिरे || ४६ ।। 

अद्य तामनुजानीमो भीष्मद्रोणवधेन ह । 

पूर्वकालमें राजा युधिष्ठिरके पास जिस प्रसिद्ध राजलक्ष्मीको देखकर हमलोग उनसे 
डाह करने लगे थे, आज भीष्म और द्रोणाचार्यके वधसे हम उसके कटु फलका अनुभव कर 
रहे हैं || ४६३ ।। 

मत्कृते चाप्यनुप्राप्त: कुरूणामेष संक्षय: ।। ४७ ।। 

पक्‍वानां हि वधे सूत वज्ायन्ते तृणान्युत । 


सूत! मेरे ही कारण यह कौरवोंका विनाश प्राप्त हुआ है। जो कालसे परिपक्व हो गये 
हैं, उनके वधके लिये तिनके भी वज्रका काम करते हैं || ४७३ ।। 

अनन्तमिदमैश्वर्य लोके प्राप्तो युधिष्ठिर: ।। ४८ ।। 

यस्य कोपान्महात्मानौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ । 

युधिष्ठिर इस संसारमें अनन्त ऐश्वर्यके भागी हुए हैं। जिनके कोपसे महात्मा भीष्म और 
द्रोण मार गिराये गये ।। 

प्राप्त: प्रकृतितो धर्मो न धर्मो मामकान्‌ प्रति || ४९ ।। 

क्रूर: सर्वविनाशाय कालो5सौ नातिवर्तते । 

युधिष्ठटिरको धर्मका स्वाभाविक फल प्राप्त हुआ है, किंतु मेरे पुत्रोंकी उसका फल नहीं 
मिल रहा है। सबका विनाश करनेके लिये प्राप्त हुआ यह क्रूर काल बीत नहीं रहा है ।। 

अन्यथा चिन्तिता हार्था नरैस्तात मनस्विभि: || ५० |। 

अन्यथैव प्रपद्यन्ते दैवादिति मतिर्मम । 

तात! मनस्वी पुरुषोंद्वारा अन्य प्रकारसे सोचे हुए कार्य भी दैवयोगसे कुछ और ही 
प्रकारके हो जाते हैं; ऐसा मेरा अनुभव है ।। ५० ६ ।। 

तस्मादपरिहार्ये<र्थे सम्प्राप्ते कृच्छू उत्तमे । 

अपारणीये दुश्निन्त्ये यथाभूत॑ प्रचक्ष्य मे || ५१ ।। 

अतः इस अनिवार्य, अपार, दुश्निन्त्य एवं महान्‌ संकटके प्राप्त होनेपर जो घटना जिस 
प्रकार हुई हो, वह मुझे बताओ ।। ५१ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि धृतराष्ट्रविलापे एकादशो<ध्याय: 
॥॥ ११ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें धृतराष््रविलापविषयक 
ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १९ ॥। 


#स्न्पैमा+ () आजमाने 


द्ादशो<ड्ध्याय: 


दुर्योधनका वर मॉँगना और द्रोणाचार्यका युधिष्ठिरको 
अर्जुनकी अनुपस्थितिमें जीवित पकड़ लानेकी प्रतिज्ञा 
करना 


संजय उवाच 

हन्त ते कथयिष्यामि सर्व प्रत्यक्षदर्शिवान्‌ । 

यथा स न्यपतद्‌ द्रोण: सूदित: पाण्डुसृञ्जयै: ।। १ ।। 

संजयने कहा--महाराज! मैं बड़े दुःखके साथ आपसे उन सब घटनाओंका वर्णन 
करूँगा। द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्डवों तथा सूंजयोंने कैसे उनका वध किया 
है? इन सब बातोंको मैंने प्रत्यक्ष देखा था || १ ।। 

सेनापतित्व॑ सम्प्राप्प भारद्वाजो महारथ: । 

मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पुत्र ते वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २ ।। 

सेनापतिका पद प्राप्त करके महारथी द्रोणाचार्यने सारी सेनाके बीचमें आपके पुत्र 
दुर्योधनसे इस प्रकार कहा-- ।। २ ।। 

यत्‌ कौरवाणामृषभादापगेयादनन्तरम्‌ । 

सैनापत्येन यद्‌ राजन्‌ मामद्य कृतवानसि ।। ३ ।। 

सदृशं कर्मणस्तस्य फल प्राप्तुहि भारत । 

करोमि काम कं तेडद्य प्रवृणीष्व यमिच्छसि ।। ४ ।। 

“राजन! तुमने कौरवश्रेष्ठ गंगापुत्र भीष्मके बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, 
भरतनन्दन! इस कार्यके अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्त करो। आज तुम्हारा कौन-सा 
मनोरथ पूर्ण करूँ? तुम्हें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे ही माँग लो” || ३-४ ।। 

ततो दुर्योधनो राजा कर्णदुःशासनादिशभि: । 

सम्मन्त्रयोवाच दुर्धर्षमाचार्य जयतां बरम्‌ ।। ५ ।। 

तब राजा दुर्योधनने कर्ण, दःशासन आदिके साथ सलाह करके विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ एवं 
दुर्जय आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा-- ।। ५ ।। 

ददासि चेद्‌ू वरं महाूं जीवग्राहं युधिष्ठिरम्‌ । 

गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठ मत्समीपमिहानय ।। ६ ।। 

“आचार्य! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिकको जीवित पकड़कर 
यहाँ मेरे पास ले आइये” ।। ६ ।। 

ततः कुरूणामाचार्य: श्रुत्वा पुत्रस्य ते वच: । 


सेनां प्रहर्षषन्‌ सर्वामिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ७ ।। 

आपके पुत्रकी वह बात सुनकर कुरुकुलके आचार्य द्रोण सारी सेनाको प्रसन्न करते हुए 
इस प्रकार बोले-- ।। ७ ।। 

धन्य: कुन्तीसुतो राजन्‌ यस्य ग्रहणमिच्छसि । 

न वधार्थ सुदुर्धर्ष वरमद्य प्रयाचसे ।। ८ ।। 

“राजन! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर धन्य हैं, जिन्हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो। उन दुर्धर्ष 
वीरके वधके लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो || ८ ।। 

किमर्थ च नरव्यात्र न वध॑ तस्य काड्क्षसे | 

नाशंससि क्रियामेतां मत्तो दुर्योधन ध्रुवम्‌ ।। ९ ।। 

'पुरुषसिंह! तुम्हें उनके वधकी इच्छा क्‍यों नहीं हो रही है? दुर्योधन! तुम मेरे द्वारा 
निश्चितरूपसे युधिष्ठिरका वध कराना क्यों नहीं चाहते हो? ।। ९ ।। 

आहोस्विद्‌ धर्मराजस्य द्वेष्ठा तस्य न विद्यते । 

यदीच्छसि त्वं जीवन्तं कुलं रक्षसि चात्मन: ।। १० ।। 

“अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्छिरसे द्वेष रखनेवाला इस 
संसारमें कोई है ही नहीं। इसीलिये तुम उन्हें जीवित देखना और अपने कुलकी रक्षा करना 
चाहते हो || १० ।। 

अथवा भरतमश्रेष्ठ निर्जित्य युधि पाण्डवान्‌ । 

राज्यं सम्प्रति दत्त्वा च सौक्रात्रं कर्तुमिच्छसि ।। ११ ।। 

“अथवा भरतश्रेष्ठ! तुम युद्धमें पाण्डवोंको जीतकर इस समय उनका राज्य वापस दे 
सुन्दर भ्रातृभावका आदर्श उपस्थित करना चाहते हो ।। ११ ।। 

धन्य: कुन्तीसुतो राजा सुजातं चास्य धीमतः । 

अजातशशभ्नुता सत्या तस्य यत्‌ स्निहाते भवान्‌ ।। १२ ।। 

“दुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्य हैं। उन बुद्धिमान्‌ नरेशका जन्म बहुत ही उत्तम है और 
वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्‍योंकि तुम भी उनपर स्नेह रखते 
हो' ॥| १२ ।। 

द्रोणेन चैवमुक्तस्य तव पुत्रस्य भारत | 

सहसा नि:सृतों भावो यो<स्य नित्यं हृदि स्थित: ।। १३ ।। 

भारत! द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर तुम्हारे पुत्रके मनका भाव जो सदा उसके हृदयमें 
बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया ।। १३ ।। 

नाकारो गूहितुं शक्‍्यो बृहस्पतिसमैरपि । 

तस्मात्तव सुतो राजन प्रह्ृष्टो वाक्यमब्रवीत्‌ ।। १४ ।। 

बृहस्पतिके समान बुद्धिमान्‌ पुरुष भी अपने आकारको छिपा नहीं सकते। राजन! 
इसीलिये आपका पुत्र अत्यन्त प्रसन्न होकर इस प्रकार बोला-- || १४ ।। 


वधे कुन्तिसुतस्थाजी नाचार्य विजयो मम । 

हते युधिष्ठिरे पार्था हन्यु: सर्वान्‌ हि नो ध्रुवम्‌ ।। १५ ।। 

“आचार्य! युद्धके मैदानमें कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके मारे जानेसे मेरी विजय नहीं हो सकती; 
क्योंकि युधिष्ठिका वध होनेपर कुन्तीके पुत्र हम सब लोगोंको अवश्य ही मार 
डालेंगे || १५ ।। 

न च शक्या रणे सर्वे निहन्तुममरैरपि । 

(यदि सर्वे हनिष्यन्ते पाण्डवा: ससुता मृधे । 

ततः कृत्स्नं वशे कृत्वा नि:शेषं नृपमण्डलम्‌ ।। 

ससागरवनां स्फीतां विजित्य वसुधामिमाम्‌ | 

विष्णुर्दास्यति कृष्णायै कुन्त्यै वा पुरुषोत्तम: ।।) 

य एव तेषां शेष: स्यात्‌ स एवास्मान्‌ न शेषयेत्‌ ।। १६ ।। 

“सम्पूर्ण देवता भी समस्त पाण्डवोंको रणक्षेत्रमें नहीं मार सकते। यदि सारे पाण्डव 
अपने पुत्रोंसहित युद्धमें मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पूर्ण 
नरेशमण्डलको अपने वशमें करके समुद्र और वनोंसहित इस सारी समृद्धिशालिनी 
वसुधाको जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्तीको दे डालेंगे। अथवा पाण्डवोंमेंसे जो भी शेष रह 
जायगा, वही हमलोगोंको शेष नहीं रहने देगा || १६ ।। 

सत्यप्रतिज्ञे त्वानीते पुनर्ययूतेन निर्जिते । 

पुनर्यास्यन्त्यरण्याय पाण्डवास्तमनुव्रता: ।। १७ ।। 

'सत्यप्रतिज्ञ राजा युधिष्ठिरको जीते-जी पकड़ ले आनेपर यदि उन्हें पुनः जूएमें जीत 
लिया जाय तो उनमें भक्ति रखनेवाले पाण्डव पुनः वनमें चले जायँगे ।। १७ ।। 

सो<यं मम जयो व्यक्त दीर्घकालं भविष्यति । 

अतो न वधमिच्छामि धर्मराजस्य कहिचित्‌ ।। १८ ।। 

“इस प्रकार निश्चय ही मेरी विजय दीर्घकालतक बनी रहेगी। इसीलिये मैं कभी धर्मराज 
युधिष्ठिरका वध करना नहीं चाहता” ।। १८ ।। 

तस्य जिह्ममभिप्रायं ज्ञात्वा द्रोणो5थ तत्त्ववित्‌ 

त॑ वरं सान्तरं तस्मै ददौ संचिन्त्य बुद्धिमान्‌ ।। १९ ।। 

राजन! द्रोणाचार्य प्रत्येक बातके वास्तविक तात्पर्यको तत्काल समझ लेनेवाले थे। 
दुर्योधनके उस कुटिल मनोभावको जानकर बुद्धिमान्‌ द्रोणने मन-ही-मन कुछ विचार किया 
और अन्तर रखकर उसे वर दिया ।। १९ || 


द्रोण उवाच 


न चेद्‌ युधिष्ठिरं वीर: पालयत्यर्जुनो युधि । 
मन्यस्व पाण्डवश्रेष्ठमानीतं वशमात्मन: || २० || 


द्रोणाचार्य बोले--राजन्‌! यदि वीरवर अर्जुन युद्धमें युधिष्ठिरकी रक्षा न करते हों, तब 
तुम पाण्डवश्रेष्ठ युधिष्ठिरको अपने वशमें आया हुआ ही समझो ।। २० ।। 

न हि शक्यो रणे पार्थ: सेन्द्रैदेवासुरैरपि । 

प्रत्युद्यातुमतस्तात नैतदामर्षयाम्यहम्‌ ।। २१ ।। 

तात! रणक्षेत्रमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी अर्जुनका सामना नहीं कर 
सकते हैं। अतः मुझमें भी उन्हें जीतनेका उत्साह नहीं है || २१ ।। 

असंशयं स मे शिष्यो मत्पूर्वश्चास्त्रकर्मणि | 

तरुण: सुकृतैर्युक्त एकायनगतश्च ह ।। २२ ।। 

अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च भूय: स समवाप्तवान्‌ | 

अमर्षितश्न ते राज॑स्ततो नामर्षयाम्यहम्‌ ।। २३ |। 

इसमें संदेह नहीं कि अर्जुन मेरा शिष्य है और उसने पहले मुझसे ही अस्त्रविद्या सीखी 
है, तथापि वह तरुण है। अनेक प्रकारके पुण्य कर्मोंसे युक्त है। विजय अथवा मृत्यु--इन 
दोनोंमेंसे एकका वरण करनेका दृढ़ निश्चय कर चुका है। इन्द्र और रुद्र आदि देवताओंसे 
पुनः बहुत-से दिव्यास्त्रोंकी शिक्षा पा चुका है और तुम्हारे प्रति उसका अमर्ष बढ़ा हुआ है। 
इसलिये राजन! मैं अर्जुनसे लड़नेका उत्साह नहीं रखता हूँ || २२-२३ ।। 

स चाफक्रम्यतां युद्धाद्‌ येनोपायेन शक्‍्यते । 

अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया ।। २४ ।। 

अतः जिस उपायसे भी सम्भव हो, तुम उन्हें युद्धसे दूर हटा दो। कुन्तीकुमार अर्जुनके 
रणक्षेत्रसे हट जानेपर समझ लो कि तुमने धर्मराजको जीत लिया ।। २४ ।। 

ग्रहणे हि जयस्तस्य न वधे पुरुषर्षभ । 

एतेन चाप्युपायेन ग्रहणं समुपैष्यसि ।। २५ ।। 

नरश्रेष्ठ) उनको पकड़ लेनेमें ही तुम्हारी विजय है, उनके वधरमें नहीं; परंतु इसी उपायसे 
तुम उन्हें पकड़ पाओगे ।। २५ ।। 

अहं गृहीत्वा राजानं सत्यधर्मपरायणम्‌ । 

आनयिष्यामि ते राजन्‌ वशमद्य न संशय: ।। २६ ।। 

यदि स्थास्यति संग्रामे मुहूर्तमपि मे5ग्रत: । 

अपनीते नरव्याप्रे कुन्तीपुत्रे धनंजये ।। २७ ।। 

राजन! पुरुषसिंह कुन्तीपुत्र अर्जुनके युद्धसे हट जानेपर यदि वे दो घड़ी भी मेरे सामने 
संग्राममें खड़े रहेंगे तो मैं आज सत्यधर्मपरायण राजा युधिष्ठिरको पकड़कर तुम्हारे वशमें 
ला दूँगा, इसमें संशय नहीं है ।। 

फाल्गुनस्य समीपे तु न हि शक्‍्यो युधिष्ठिर: । 

ग्रहीतुं समरे राजन सेन्द्रैरपि सुरासुरै: | २८ ।। 


राजन! अर्जुनके समीप तो समरभूमिमें इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता और असुर भी 

युधिष्ठिरको नहीं पकड़ सकते हैं || २८ ।। 
संजय उवाच 

सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे | 

गृहीतं तममन्यन्त तव पुत्रा: सुबालिशा: ।। २९ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! द्रोणाचार्यने कुछ अन्तर रखकर जब राजा युधिष्ठिरको 
पकड़ लानेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके मूर्ख पुत्र उन्हें कैद हुआ ही मानने लगे || २९ ।। 

पाण्डवेयेषु सापेक्ष द्रोणं जानाति ते सुतः । 

ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थ स मन्त्रो बहुलीकृतः ।। ३० ।। 

आपका पुत्र दुर्योधन यह जानता था कि द्रोणाचार्य पाण्डवोंके प्रति पक्षपात रखते हैं, 
अतः उसने उनकी प्रतिज्ञाको स्थिर रखनेके लिये उस गुप्त बातको भी बहुत लोगोंमें फैला 
दिया ।। ३० ।। 

ततो दुर्योधनेनापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्‌ | 

(स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष ।) 

सैन्यस्थानेषु सर्वेषु सुघोषितमरिंदम ।। ३१ ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले आर्य धृतराष्ट्र! तदनन्तर दुर्योधनने युद्धकी सारी छावनियोंमें 
तथा सेनाके विश्राम करनेके प्राय: सभी स्थानोंपर द्रोणाचार्यकी युधिष्ठिरको पकड़ लानेकी 
उस प्रतिज्ञाको घोषित करवा दिया ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्रोणप्रतिज्ञायां द्वादशो5ध्याय: ।। 
१२२ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणप्रतिज्ञाविषयक बारहवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २३ “लोक मिलाकर कुल ३३३ *लोक हैं।) 


नल्‍्च्स््ज्ल्स्स्सि हज #5््ामप्र्स 


त्रयोदशो< ध्याय: 


अर्जुनका युधिष्ठिरको आश्वासन देना तथा युद्धमें 
द्रोणाचार्यका पराक्रम 


संजय उवाच 

सान्तरे तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे । 

ततस्ते सैनिका: श्रुत्वा तं युधिष्ठिरनिग्रहम्‌ ।। १ ।। 

सिंहनादरवांश्षक्रुर्बाहुशब्दांश्व कृत्स्नश: । 

तच्च सर्व यथान्यायं धर्मराजेन भारत ॥। २ ।। 

आप्तैराशु परिज्ञातं भारद्वाजचिकीर्षितम्‌ । 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जब द्रोणाचार्यने कुछ अन्तर रखकर राजा युधिष्ठछिरको कैद 
करनेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब आपके सैनिकोंने युधिष्ठिरके पकड़े जानेका उद्योग सुनकर 
जोर-जोरसे सिंहनाद करना और भुजाओंपर ताल ठोंकना आरम्भ किया। भरतनन्दन! उस 
समय धर्मराज युधिष्छिरने शीघ्र ही अपने विश्वसनीय गुप्तचरोंद्वारा यथायोग्य सारी बातें 
पूर्णरूपसे जान लीं कि द्रोणाचार्य क्या करना चाहते हैं ।। १-२६ ।। 

ततः सर्वान्‌ समानाय्य क्रातृनन्यांश्व सर्वशः ।। ३ ।। 

अब्रवीद्‌ धर्मराजस्तु धनंजयमिदं वच: । 

श्रुतं ते पुरुषव्याप्र द्रोणस्याद्य चिकीर्षितम्‌ ।। ४ ।। 

तब धर्मराज युधिष्ठिरने अपने सब भाइयोंको और दूसरे राजाओंको सब ओरसे 
बुलवाकर धनंजय अर्जुनसे कहा--'पुरुषसिंह! आज द्रोण क्या करना चाहते हैं, यह तुमने 
सुना ही होगा? ।। ३-४ ।। 

यथा तन्न भवेत्‌ सत्यं तथा नीतिर्विधीयताम्‌ । 

सान्तर हि प्रतिज्ञातं द्रोणेनामित्रकर्षिणा || ५ ।। 

“अतः तुम ऐसी नीति बताओ, जिससे उनकी इच्छा सफल न हो। शत्रुसूदन द्रोणने कुछ 
अन्तर रखकर प्रतिज्ञा की है ।। ५ ।। 

तच्चान्तरं महेष्वास त्वयि तेन समाहितम्‌ । 

स त्वमद्य महाबाहो युध्यस्व मदनन्तरम्‌ ।। ६ ।। 

यथा दुर्योधन: काम नेम॑ द्रोणादवाप्रुयात्‌ । 

“महाधनुर्धर अर्जुन! वह अन्तर उन्होंने तुम्हींपर डाल रखा है। अतः महाबाहो! आज 
तुम मेरे समीप रहकर ही युद्ध करो, जिससे दुर्योधन द्रोणाचार्यसे अपने इस मनोरथको पूर्ण 
न करा सके' || ६६ || 


अर्जुन उवाच 

यथा मे न वध: कार्य आचार्यस्य कदाचन ।। ७ ।। 

तथा तव परित्यागो न मे राजंश्रिकीर्षित: । 

अर्जुन बोले--राजन्‌! जिस प्रकार मेरे लिये आचार्यका कभी वध न करना कर्तव्य है, 
उसी प्रकार किसी भी दशामें आपका परित्याग करना मुझे अभीष्ट नहीं है ।। 

अप्येवं पाण्डव प्राणानुत्सूजेयमहं युधि ।। ८ ।। 

प्रतीपो नाहमाचार्ये भवेयं वै कथंचन । 

पाण्डुनन्दन! इस नीतिके अनुसार बर्ताव करते हुए मैं युद्धमें अपने प्राणोंका परित्याग 
कर दूँगा; परंतु किसी प्रकार भी आचार्यका शत्रु नहीं बनूँगा || ८३ ।। 

त्वां निगृह्माहवे राज्यं धार्तराष्ट्रोड्यमिच्छति ।। ९ ।। 

न सतं जीवलोकेडस्मिन्‌ काम॑ प्राप्पेत्‌ कथंचन । 

महाराज! यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन जो आपको युद्धमें कैद करके सारा राज्य हथिया 
लेना चाहता है, वह इस जगतमें अपने उस मनोरथको किसी प्रकार पूर्ण नहीं कर 
सकता ।। ९६ || 

प्रपतेद्‌ द्यौ: सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत्‌ ।। १० ।। 

नत्वां द्रोणो निगृहल्लीयाज्जीवमाने मयि ध्रुवम्‌ 

नक्षत्रोंसहित आकाश फट पड़े और पृथ्वीके टुकड़े-टुकड़े हो जाय, तो भी मेरे जीते-जी 
द्रोणाचार्य आपको पकड़ नहीं सकते; यह ध्रुव सत्य है ।। १०६ ।। 

यदि तस्य रणे साहां कुरुते वजभूत्‌ स्वयम्‌ ।। ११ ।। 

विष्णुर्वा सहितो देवैर्न त्वां प्राप्स्पत्यसौ मृथे । 

मयि जीवति राजेन्द्र न भयं कर्तुमहसि ।। १२ ।। 

द्रोणादस्त्रभृतां श्रेष्ठात्‌ सर्वशस्त्र भूतामपि । 

राजेन्द्र! यदि रणक्षेत्रमें साक्षात्‌ वजधारी इन्द्र अथवा भगवान्‌ विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके 
साथ आकर दुर्योधनकी सहायता करें, तो भी मेरे जीते-जी वह आपको पकड़ नहीं सकेगा; 
अतः आपको सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यसे भय नहीं करना 
चाहिये || ११-१२ ६ ।। 

अन्यच्च ब्रूयां राजेन्द्र प्रतिज्ञां मम निश्चलाम्‌ ।। १३ ।। 

न स्मराम्यनृतं तावन्न स्मरामि पराजयम्‌ । 

न स्मरामि प्रतिश्रुत्य किंचिदप्यनृतं कृतम्‌ ।। १४ ।। 

महाराज! मैं अपनी दूसरी भी निश्चल प्रतिज्ञा आपको सुनाता हूँ। मैंने कभी झूठ कहा 
हो, इसका स्मरण नहीं है। मेरी कहीं पराजय हुई हो, इसकी भी याद नहीं है और मैंने 


प्रतिज्ञा करके उसे तनिक भी झूठी कर दिया हो, इसका भी मुझे स्मरण नहीं 
है ।। १३-१४ ।। 
संजय उवाच 

ततः शड्खाश्न भेर्यश्व मृदड़ाश्चानकै: सह । 

प्रावाद्यन्त महाराज पाण्डवानां निवेशने ।। १५ ।। 

सिंहनादश्न संजज्ञे पाण्डवानां महात्मनाम्‌ | 

धनुर्ज्यातलशब्दश्ष गगनस्पृक्‌ सुभैरव: ।। १६ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर पाडवोंके शिविरमें शंख, भेरी, मृदंग और 
आनक आदि बाजे बजने लगे। महात्मा पाण्डवोंका सिंहनाद सहसा प्रकट हुआ। धनुषकी 
टंकारका भयंकर शब्द आकाशमें गूँजने लगा ।। १५-१६ ।। 

श्रुत्वा शड्खस्य निर्घोषं पाण्डवस्य महौजस: । 

त्वदीयेष्वप्यनीकेषु वादित्राण्यभिजषध्निरे || १७ ।। 

महातेजस्वी पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सेनामें वह शंखध्वनि सुनकर आपकी सेनाओंमें 
भी भाँति-भाँतिके बाजे बजने लगे ।। १७ ।। 

ततो व्यूढान्यनीकानि तव तेषां च भारत | 

शनैरुपेयुरन्योन्यं योध्यमानानि संयुगे ।। १८ ।। 

भारत! तदनन्तर आपकी और उनकी भी सेनाएँ व्यूहबद्ध होकर धीरे-धीरे युद्धके लिये 
एक-दूसरीके समीप आने लगीं ।। १८ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध तुमुलं लोमहर्षणम्‌ । 

पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणपाउचाल्ययोरपि ।। १९ ।। 

तदनन्तर कौरवों तथा पाण्डवोंमें और द्रोणाचार्य तथा धृष्टद्युम्नमें रोमांचकारी भयंकर 
युद्ध होने लगा ।। १९ |। 

यत्नमाना: प्रयत्नेन द्रोणानीकविशातने । 

न शेकुः सृञ्जया युद्धे तद्धि द्रोणेन पालितम्‌ ।। २० ।। 

सूंजय योद्धा उस युद्धमें द्रोणाचार्यकी सेनाका विनाश करनेके लिये बड़े यत्नके साथ 
चेष्टा करने लगे, परंतु सफल न हो सके; क्योंकि वह सेना आचार्य द्रोणके द्वारा भली-भाँति 
सुरक्षित थी ।। २० ।। 

तथैव तव पुत्रस्य रथोदारा: प्रहारिण: । 

न शेकु: पाण्डवीं सेनां पाल्यमानां किरीटिना ।। २१ ।। 

इसी प्रकार आपके पुत्रकी सेनाके उदार महारथी, जो प्रहार करनेमें कुशल थे, पाण्डव- 
सेनाको परास्त न कर सके; क्योंकि किरीटधारी अर्जुन उसकी रक्षा कर रहे थे || २१ ।। 

आस्तां ते स्तिमिते सेने रक्ष्यमाणे परस्परम्‌ । 


सम्प्रसुप्ते यथा नक्तं वनराज्यौ सुपुष्पिते || २२ ।। 

जैसे रातमें सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित दो वनश्रेणियाँ प्रसुप्त (सिकुड़े हुए पत्तोंसे युक्त) 
देखी जाती हैं, उसी प्रकार वे सुरक्षित हुई दोनों सेनाएँ आमने-सामने निश्चलभावसे खड़ी 
थीं ।। २२ ।। 

ततो रुक्मरथो राजन्नकेणेव विराजता । 

वरूथिना विनिष्पत्य व्यचरत्‌ पृतनामुखे ।। २३ ।। 

राजन! तदनन्तर सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य सूर्यके समान प्रकाशभान आवरणपयुक्त 
रथके द्वारा आगे बढ़कर सेनाके प्रमुख भागमें विचरने लगे || २३ ।। 

तमुद्यतं रथेनैकमाशुकारिणमाहवे । 

अनेकमिव संत्रासान्मेनिरे पाण्ड्सृूज्जया: ।। २४ ।। 

द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें केवल रथके द्वारा उद्यत होकर अकेले ही शीघ्रतापूर्वक अस्त्र- 
शस्त्रोंका प्रयोग कर रहे थे। उस समय पाण्डव तथा सूंजय भयके मारे उन्हें अनेक-सा मान 
रहे थे || २४ ।। 

तेन मुक्ता: शरा घोरा विचेरु: सर्वतोदिशम्‌ । 

त्रासयन्तो महाराज पाण्डवेयस्य वाहिनीम्‌ ।। २५ ।। 

महाराज! उनके द्वारा छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सेनाको भयभीत 
करते हुए चारों ओर विचर रहे थे || २५ ।। 

मध्यंदिनमनुप्राप्तो गभस्तिशतसंवृत: । 

यथा दृश्येत घर्माशुस्तथा द्रोणो5प्यदृश्यत ।। २६ ।। 

दोपहरके समय सहस्रों किरणोंसे व्याप्त प्रचण्ड तेजवाले भगवान्‌ सूर्य जैसे दिखायी 
देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी दृष्टिगोचर हो रहे थे || २६ ।। 

न चैनं पाण्डवेयानां कश्षिच्छक्नोति भारत । 

वीक्षितुं समरे क्रुद्धें महेन्द्रमिव दानवा: ।। २७ ।। 

भरतनन्दन! जैसे दानवदल क्रोधमें भरे हुए देवराज इन्द्रकी ओर देखनेका साहस नहीं 
करता है, उसी प्रकार पाण्डव-सेनाका कोई भी वीर समरभूमिमें द्रोणाचार्यकी ओर आँख 
उठाकर देख न सका ।। २७ ।। 

मोहयित्वा ततः सैन्यं भारद्वाज: प्रतापवान्‌ | 

धृष्टद्युम्नबलं तूर्ण व्यधमन्निशितै: शरै: ।। २८ ।। 

इस प्रकार प्रतापी द्रोणाचार्यने पाण्डव-सेनाको मोहित करके पैने बाणोंद्वारा तुरंत ही 
धृष्टद्युम्नकी सेनाका संहार आरम्भ कर दिया ।। २८ ।। 

स दिश: सर्वतो रुद्ध्वा संवृत्य खमजिद्दागै: । 

पार्षतो यत्र तत्रेव ममृदे पाण्ड्वाहिनीम्‌ ।। २९ ।। 


उन्होंने अपने सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको अवरुद्ध करके आकाशको 
भी आच्छादित कर दिया और जहाँ धृष्टद्युम्न खड़ा था, वहीं वे पाण्डव-सेनाका मर्दन करने 
लगे ।। २९ |। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि अर्जुनकृतयुधिष्ठिरा श्वासने 
त्रयोदशो 5ध्याय: ।। १३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें अर्जुनके द्वारा युधिष्ठिरको 
आश्वासनविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३ ॥ 


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चतुर्दशो 5 ध्याय: 


द्रोणका पराक्रम, कौरव-पाण्डववीरोंका दन्डयुद्ध, 
रणनदीका वर्णन तथा अभिमन्युकी वीरता 


संजय उवाच 

ततः स पाण्डवानीके जनयन्‌ सुमहद्‌ भयम्‌ | 

व्यचरत्‌ पृतनां द्रोणो दहन्‌ कक्षमिवानल: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जैसे आग घास-फ़ूसके समूहको जला देती है, उसी प्रकार 
द्रोणाचार्य पाण्डव-दलमें महान्‌ भय उत्पन्न करते और सारी सेनाको चलाते हुए सब ओर 
विचरने लगे ।। १ ।। 

निर्दहन्तमनीकानि साक्षादग्निमिवोत्थितम्‌ । 

दृष्टवा रुक्मरथं क्रुद्धं समकम्पन्त सृञज्जया: ।। २ ॥। 

सुवर्णमय रथवाले द्रोणको वहाँ प्रकट हुए साक्षात्‌ अग्निदेवके समान क्रोधमें भरकर 
सम्पूर्ण सेनाओंको दग्ध करते देख समस्त सूंजयवीर काँप उठे ।। २ ।। 

सतत कृष्यत: संख्ये धनुषो5स्थाशुकारिण: । 

ज्याघोष: शुश्रुवे5त्यर्थ विस्फूर्जितमिवाशने: || ३ ।। 

बाण चलानेमें शीघ्रता करनेवाले द्रोणाचार्यके युद्धमें निरन्तर खींचे जाते हुए धनुषकी 
प्रत्यंचाका टंकार-घोष वजद्रकी गड़गड़ाहटके समान बड़े जोर-जोरसे सुनायी दे रहा 
था ।। ३ ।। 

रथिन: सादिनश्लैव नागानश्वान्‌ पदातिन: । 

रौद्रा हस्तवता मुक्ता: सम्मृद्नन्ति सम सायका: ।। ४ ।। 

शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले द्रोणाचार्यके छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्डव-सेनाके 
रथियों, घुड़सवारों, हाथियों, घोड़ों और पैदल योद्धाओंको गर्दमें मिला रहे थे || ४ ।। 

नानद्यमान: पर्जन्य: प्रवृद्ध: शुचिसंक्षये । 

अश्मवर्षमिवावर्षत्‌ परेषामावहद्‌ भयम्‌ ।। ५ ।। 

आषाढ़ मास बीत जानेपर वर्षके प्रारम्भमें जैसे मेघ अत्यन्त गर्जन-तर्जनके साथ 
फैलकर आकाशमें छा जाता और पत्थरोंकी वर्षा करने लगता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी 
बाणोंकी वर्षा करके शत्रुओंके मनमें भय उत्पन्न करने लगे ।। ५ ।। 

विचरन्‌ स तदा राजन सेनां संक्षो भयन्‌ प्रभु: । 

वर्धयामास संत्रासं शात्रवाणाममानुषम्‌ ।। ६ ।। 


राजन! शक्तिशाली द्रोणाचार्य उस समय रणभूमिमें विचरते और पाण्डव-सेनाको क्षुब्ध 
करते हुए शत्रुओंके मनमें लोकोत्तर भयकी वृद्धि करने लगे ।। ६ ।। 

तस्य विद्युदिवा भ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्‌ । 

भ्रमद्रथाम्बुदे चास्मिन्‌ दृष्यते सम पुन: पुन: ।। ७ ।। 

उनके घूमते हुए रथरूपी मेघमण्डलमें सुवर्णभूषित धनुष विद्युतके समान बारंबार 
प्रकाशित दिखायी देता था ।। 

स वीर: सत्यवान्‌ प्राज्ञो धर्मनित्य: सदा पुन: । 

युगान्तकालवद्‌ू घोरां रौद्रां प्रावर्तयन्नदीम्‌ ।। ८ ।। 

उन सत्यपरायण परम बुद्धिमान्‌ तथा नित्य धर्ममें तत्पर रहनेवाले वीर द्रोणाचार्यने उस 
रणक्षेत्रमें प्रलय-कालके समान अत्यन्त भयंकर रक्तकी नदी प्रवाहित कर दी ।। ८ ।। 

अमर्षवेगप्रभवां क्रव्यादगणसंकुलाम्‌ । 

बलौघै: सर्वतः पूर्णा ध्वजवृक्षापहारिणीम्‌ ।। ९ ।। 

उस नदीका प्राकट्य क्रोधके आवेगसे हुआ था। मांसभक्षी जन्तुओंसे वह घिरी हुई थी। 
सेनारूपी प्रवाहद्वारा वह सब ओरसे परिपूर्ण थी और ध्वजरूपी वृक्षोंको तोड़-फोड़कर बहा 
रही थी ।। ९ ।। 

शोणितोदां रथावर्ता हस्त्यश्वकृतरो धसम्‌ । 

कवचोडुपसंयुक्तां मांसपड़कसमाकुलाम्‌ ।। १० ।। 

उस नदीमें जलकी जगह रक्तराशि भरी हुई थी, रथोंकी भँवरें उठ रही थीं, हाथी और 
घोड़ोंकी ऊँची-ऊँची लाशें उस नदीके ऊँचे किनारोंके समान प्रतीत होती थीं। उसमें कवच 
नावकी भाँति तैर रहे थे तथा वह मांसरूपी कीचड़से भरी हुई थी ।। १० ।। 

मेदोमज्जास्थिसिकतामुष्णीषचयफेनिलाम्‌ । 

संग्रामजलदापूर्णा प्रासमत्स्यसमाकुलाम्‌ ।। ११ ।। 

मेद, मज्जा और हड़ियाँ वहाँ बालुकाराशिके समान प्रतीत होती थीं। पगड़ियोंका 
समूह उसमें फेनके समान जान पड़ता था। संग्रामरूपी मेघ उस नदीको रक्तकी वर्षद्वारा 
भर रहा था। वह नदी प्रासरूपी मत्स्योंसे भरी हुई थी ।। 

नरनागाश्वकलिलां शरवेगौघवाहिनीम्‌ । 

शरीरदारुसंघट्टां रथकच्छपसंकुलाम्‌ ।। १२ ।। 

वहाँ पैदल, हाथी और घोड़े ढेर-के-ढेर पड़े हुए थे। बाणोंका वेग ही उस नदीका प्रखर 
प्रवाह था, जिसके द्वारा वह प्रवाहित हो रही थी। शरीररूपी काष्ठसे ही मानो उसका घाट 
बनाया गया था। रथरूपी कछुओंसे वह नदी व्याप्त हो रही थी ।। १२ ।। 

उत्तमाजैः पड़कजिनी निस्त्रिंशझषसंकुलाम्‌ । 

रथनागह्दोपेतां नानाभरणभूषिताम्‌ ।। १३ ।। 


योद्धओंके कटे हुए मस्तक कमल-पुष्पके समान जान पड़ते थे, जिनके कारण वह 
कमलवनसे सम्पन्न दिखायी देती थी। उसके भीतर असंख्य डूबती-बहती तलवारोंके कारण 
वह नदी मछलियोंसे भरी हुई-सी जान पड़ती थी। रथ और हाथियोंसे यत्र-तत्र घिरकर वह 
नदी गहरे कुण्डके रूपमें परिणत हो गयी थी। वह भाँति-भाँतिके आभूषणोंसे विभूषित-सी 
प्रतीत होती थी || १३ ।। 

महारथशतावर्ता भूमिरेणूमिमालिनीम्‌ | 

महावीर्यवतां संख्ये सुतरां भीरुदुस्तराम्‌ ।। १४ ।। 

सैकड़ों विशाल रथ उसके भीतर उठती हुई भँवरोंके समान प्रतीत होते थे। वह 
धरतीकी धूल और तरंगमालाओंसे व्याप्त हो रही थी। उस युद्धसस्‍्थलमें वह नदी 
महापराक्रमी वीरोंके लिये सुगमतासे पार करने-योग्य और कायरोंके लिये दुस्तर 
थी ।। १४ ।। 

शरीरशतसम्बाधां गृध्रकड्कनिषेविताम्‌ । 

महारथसहस्राणि नयन्तीं यमसादनम्‌ ।। १५ ।। 

उसके भीतर सैकड़ों लाशें पड़ी हुई थीं। गीध और कंक उस नदीका सेवन करते थे। 
वह सहस्रों महारथियोंको यमराजके लोकमें ले जा रही थी ।। १५ ।। 

शूलव्यालसमाकीर्णा प्राणिवाजिनिषेविताम्‌ । 

छिन्नक्षत्रमहाहंसां मुकुटाण्डजसेविताम्‌ ।। १६ ।। 

उसके भीतर शूल सर्पोके समान व्याप्त हो रहे थे। विभिन्न प्राणी ही वहाँ चल-पक्षीके 
रूपमें निवास करते थे। कटे हुए क्षत्रिय-समुदाय उसमें विचरनेवाले बड़े-बड़े हंसोंके समान 
प्रतीत होते थे। वह नदी राजाओंके मुकुटरूपी जलपक्षियोंसे सेवित दिखायी देती 
थी ।। १६ |। 

चक्रकूर्मा गदानक्रां शरक्षुद्रमझषाकुलाम्‌ । 

बकगृध्रसृगालानां घोरसंघैर्निषेविताम्‌ ।। १७ ।। 

उसमें रथोंके पहिये कछुओंके समान, गदाएँ नाकोंके समान और बाण छोटी-छोटी 
मछलियोंके समान भरे हुए थे। बगलों, गीधों और गीदड़ोंके भयानक समुदाय उसके तटपर 
निवास करते थे ।। १७ ।। 

निहतान्‌ प्राणिन: संख्ये द्रोणेन बलिना रणे । 

वहन्तीं पितृलोकाय शतशो राजसत्तम ।। १८ ।। 

नृपश्रेष्ठट बलवान द्रोणाचार्यके द्वारा रणभूमिमें मारे गये सैकड़ों प्राणियोंको वह 
पितृलोकमें पहुँचा रही थी ।। 

शरीरशतसम्बाधां केशशैवलशाद्धलाम्‌ | 

नदीं प्रावर्तयद्‌ राजन्‌ भीरूणां भयवर्धिनीम्‌ ।। १९ ।। 


उसके भीतर सैकड़ों लाशें बह रही थीं। केश सेवार तथा घासोंके समान प्रतीत होते थे। 
राजन! इस प्रकार द्रोणाचार्यने वहाँ खूनकी नदी बहायी थी, जो कायरोंका भय बढ़ानेवाली 
थी ।। १९ |। 

तर्जयन्तमनीकानि तानि तानि महारथम्‌ । 

सर्वतो<भ्यद्रवन्‌ द्रोणं युधिष्ठिरपुरोगमा: ।। २० ।। 

उस समय समस्त सेनाओंको अपने गर्जन-तर्जनसे डराते हुए महारथी द्रोणाचार्यपर 
युधिष्ठिर आदि योद्धा सब ओरसे टूट पड़े | २० ।। 

तानभिद्रवत: शूरांस्तावका दृढविक्रमा: । 

सर्वतः प्रत्यगृह्लन्त तदभूल्लोमहर्षणम्‌ ।। २१ ।। 

उन आक्रमण करनेवाले पाण्डव वीरोंको आपके सुदृढ़ पराक्रमी सैनिकोंने सब ओरसे 
रोक दिया। उस समय दोनों दलोंमें रोमांचकारी युद्ध होने लगा || २१ ।। 

शतमायस्तु शकुनि: सहदेवं समाद्रवत्‌ | 

सनियन्तृथ्वजरथं विव्याध निशितै: शरै: ।। २२ ।। 

सैकड़ों मायाओंको जाननेवाले शकुनिने सहदेवपर धावा किया और उनके सारथि, 
ध्वज एवं रथसहित उन्हें अपने पैने बाणोंसे घायल कर दिया || २२ ।। 

तस्य माद्रीसुत: केतुं धनु: सूतं हयानपि । 

नातिक्रुद्ध:ः शरैश्छित्त्वा षष्टया विव्याध सौबलम्‌ ॥। २३ ।। 

तब माद्रीकुमार सहदेवने अधिक कुपित न होकर शकुनिके ध्वज, धनुष, सारथि और 
घोड़ोंको अपने बाणोंद्वारा छिन्न-भिन्न करके साठ बाणोंसे सुबलपुत्र शकुनिको भी बींध 
डाला || २३ || 

सौबलस्तु गदां गृहा प्रचस्कन्द रथोत्तमात्‌ | 

स तस्य गदया राजन्‌ रथात्‌ सूतमपातयत्‌ ।। २४ ।। 

यह देख सुबलपुत्र शकुनि गदा हाथमें लेकर उस श्रेष्ठ रथसे कूद पड़ा। राजन्‌! उसने 
अपनी गदाद्वारा सहदेवके रथसे उनके सारथिको मार गिराया ।। २४ ।। 

ततस्तौ विरथौ राजन गदाहस्तौ महाबलौ । 

चिक्रीडतू रणे शूरौ सशृज्भाविव पर्वती ।। २५ ।। 

महाराज! उस समय वे दोनों महाबली शूरवीर रथहीन हो गदा हाथमें लेकर रणक्षेत्रमें 
खेल-सा करने लगे, मानो शिखरवाले दो पर्वत परस्पर टकरा रहे हों ।। २५ ।। 

द्रोण: पाउ्चालराजानं विद्ध्वा दशभिराशुगै: । 

बहुभिस्तेन चाभ्यस्तस्तं विव्याध ततोडधिकै: ।। २६ ।। 

द्रोणाचार्यने पांचालराज ट्रुपदको दस शीघ्रगामी बाणोंसे बींध डाला। फिर द्रुपदने भी 
बहुत-से बाणोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया। तब द्रोणने भी और अधिक सायकोंद्वारा ट्रपदको 
क्षत-विक्षत कर दिया ।। २६ ।। 


विविंशतिं भीमसेनो विंशत्या निशितै: शरै: । 

विद्ध्वा नाकम्पयद्‌ वीरस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। २७ ।। 

वीर भीमसेन बीस तीखे बाणोंद्वारा विविंशतिको घायल करके भी उन्हें विचलित न कर 
सके। यह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। २७ ।। 

विविंशतिस्तु सहसा व्यश्वकेतुशरासनम्‌ । 

भीम॑ चक्रे महाराज ततः सैन्यान्यपूजयन्‌ ।। २८ ।। 

महाराज! फिर विविंशतिने भी सहसा आक्रमण करके भीमसेनके घोड़े, ध्वज और 
धनुष काट डाले; यह देख सारी सेनाओंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || २८ ।। 

स तन्न ममृषे वीर: शत्रोर्विक्रममाहवे । 

ततो<स्य गदया दान्तान्‌ हयान्‌ सर्वानपातयत्‌ ॥। २९ ।। 

वीर भीमसेन युद्धमें शत्रुके इस पराक्रमको न सह सके। उन्होंने अपनी गदाद्वारा उसके 
समस्त सुशिक्षित घोड़ोंको मार डाला ।। २९ || 

हताश्चात्‌ सरथाद्‌ राजन्‌ गृह चर्म महाबल: । 

अभ्यायाद्‌ भीमसेन तु मत्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। ३० ।। 

राजन! घोड़ोंके मारे जानेपर महाबली विविंशति ढाल और तलवार लिये रथसे कूद 
पड़ा और जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त गजराजपर आक्रमण करता है, उसी 
प्रकार उसने भीमसेनपर चढ़ाई की ।। ३० ।। 

शल्यस्तु नकुलं वीर: स्वस्त्रीयं प्रियमात्मन: । 

विव्याध प्रहसन्‌ बाणैलॉालयन्‌ कोपयन्निव ।। ३१ ।। 

वीर राजा शल्यने अपने प्यारे भानजे नकुलको हँसकर लाड़ लड़ाते और कुपित करते 
हुए-से अनेक बाणोंद्वारा बींध डाला ।। ३१ ।। 

तस्याश्वानातपत्र॑ च ध्वजं सूतमथो धनु: । 

निपात्य नकुलः संख्ये शड्खं दध्मौ प्रतापवान्‌ ।। ३२ ।। 

तब प्रतापी नकुलने उस युद्धस्थलमें शल्यके घोड़ों, छत्र, ध्वज, सारथि और धनुषको 
काट गिराया और विजयी होकर अपना शंख बजाया || ३२ |। 

धृष्टकेतु: कृपेणास्तान्‌ छित्त्वा बहुविधाउ्छरान्‌ । 

कृप॑ विव्याध सप्तत्या लक्ष्म चास्याहरत्‌ त्रिभि: ॥। ३३ ।। 

धृष्टकेतुने कृपाचार्यके चलाये हुए अनेक बाणोंको काटकर उन्हें सत्तर बाणोंसे घायल 
कर दिया और तीन बाणोंद्वारा उनके चिह्नस्वरूप ध्वजको भी काट गिराया || ३३ ।। 

त॑ं कृप: शरवर्षेण महता समवारयत्‌ | 

विव्याध च रणे विप्रो धृष्टकेतुममर्षणम्‌ ।। ३४ ।। 

तब ब्राह्मण कृपाचार्यने भारी बाण-वर्षके द्वारा अमर्षशील धृष्टकेतुको युद्धमें आगे 
बढ़नेसे रोका और घायल कर दिया ।। ३४ ।। 


सात्यकि: कृतवर्माणं नाराचेन स्तनान्तरे । 

विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनरन्यै: स्मयन्निव ।। ३५ ।। 

सात्यकिने मुसकराते हुए-से एक नाराचद्वारा कृतवर्माकी छातीमें चोट की और पुनः 
अन्य सत्तर बाणोंद्वारा उसे क्षत-विक्षत कर दिया ।। ३५ ।। 

त॑ भोज: सप्तसप्तत्या विद्ध्वा55शु निशितै: शरैः । 

नाकम्पयत शैनेयं शीघ्रो वायुरिवाचलम्‌ ।। ३६ ।। 

तब भोजवंशी कृतवर्माने तुरंत ही सतहत्तर पैने बाणोंद्वारा सात्यकिको बींध डाला, 
तथापि वह उन्हें विचलित न कर सका। जैसे तेज चलनेवाली वायु पर्वतको नहीं हिला पाती 
है ।। ३६ || 

सेनापति: सुशर्माणं भृशं मर्मस्वताडयत्‌ । 

स चापि तं तोमरेण जद्रुदेशे5भ्यताडयत्‌ ।। ३७ ।। 

दूसरी ओर सेनापति धृष्टद्युम्नने त्रिगर्तराज सुशर्माको उसके मर्मस्थानोंमें अत्यन्त चोट 
पहुँचायी। यह देख सुशर्माने भी तोमरद्वारा धृष्टद्युम्नके गलेकी हँसलीपर प्रहार 
किया ।। ३७ ।। 

वैकर्तनं तु समरे विराट: प्रत्यवारयत्‌ । 

सह मत्स्यैर्महावीर्यैस्तदद्भुतमिवा भवत्‌ ।। ३८ ।। 

समरभूमिमें महापराक्रमी मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ विराटने विकर्तनपुत्र कर्णको रोका। 
वह अद्भुत-सी बात थी ।। ३८ ।। 

तत्‌ पौरुषमभूत्‌ तत्र सूतपुत्रस्य दारुणम्‌ । 

यत्‌ सैन्यं वारयामास शरै: संनतपर्वभि: ।। ३९ ।। 

वहाँ सूतपुत्र कर्णका भयंकर पुरुषार्थ प्रकट हुआ। उसने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा 
उनकी समस्त सेनाकी प्रगति रोक दी ।। ३९ ।। 

द्रुपदस्तु स्वयं राजा भगदत्तेन संगत: । 

तयोर्युद्धं महाराज चित्ररूपमिवाभवत्‌ ।। ४० ।। 

महाराज! तदनन्तर राजा द्रुपद स्वयं जाकर भगदत्तसे भिड़ गये। महाराज! फिर उन 
दोनोंमें विचित्र-सा युद्ध होने लगा || ४० ।। 

भगदत्तस्तु राजानं द्रुप्दं नतपर्वभि: । 

सनियन्तृध्वजरथं विव्याध पुरुषर्षभ: ।। ४१ ।। 

पुरुषश्रेष्ठ भगदत्तने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे राजा द्रपदको उनके सारथि, रथ और 
ध्वजसहित बींध डाला ।। 

द्रपदस्तु ततः क्रुद्धों भगदत्तं महारथम्‌ । 

आजपघानोससि क्षिप्रं शरेणानतपर्वणा ।। ४२ ।। 


यह देख ट्रुपदने कुपित हो शीघ्र ही झुकी हुई गाँठवाले बाणके द्वारा महारथी 
भगदत्तकी छातीमें प्रहार किया ।। ४२ ।। 

युद्ध योधवरौ लोके सौमदत्तिशिखण्डिनौ । 

भूतानां त्रासजननं चक्राते5स्त्रविशारदौ ।। ४३ ।। 

भूरिश्रवा और शिखण्डी--ये दोनों संसारके श्रेष्ठ योद्धा और अस्त्रविद्याके विशेषज्ञ थे। 
उन दोनोंने सम्पूर्ण भूतोंको त्रास देनेवाला युद्ध किया ।। ४३ ।। 

भूरिश्रवा रणे राजन्‌ याज्ञसेनिं महारथम्‌ | 

महता सायकौघेन छादयामास वीर्यवान्‌ । ४४ ।। 

राजन! पराक्रमी भूरिश्रवाने रणक्षेत्रमें ट्रपदपुत्र महारथी शिखण्डीको सायकसमूहोंकी 
भारी वर्षा करके आच्छादित कर दिया ।। ४४ ।। 

शिखण्डी तु ततः क्रुद्ध: सौमदत्तिं विशाम्पते । 

नवत्या सायकानां तु कम्पयामास भारत ।। ४५ ।। 

प्रजानाथ! भरतनन्दन! तब क्रोधमें भरे हुए शिखण्डीने नब्बे बाण मारकर 
सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाको कम्पित कर दिया ।। ४५ ।। 

राक्षसौ रौद्रकर्माणौ हैडिम्बालम्बुषावुभौ । 

चक्राते>त्यद्भुतं युद्धं परस्परजयैषिणौ ।। ४६ ।। 

भयंकर कर्म करनेवाले राक्षस घटोत्कव और अलम्बुष--ये दोनों एक-दूसरेको 
जीतनेकी इच्छासे अत्यन्त अद्भुत युद्ध करने लगे || ४६ |। 

मायाशतसूजौ दृप्तौ मायाभिरितरेतरम्‌ | 

अन्तर्हितौ चेरतुस्ती भृूशं॑ विस्मपकारिणौ ।। ४७ ।। 

वे घमंडमें भरे हुए निशाचर सैकड़ों मायाओंकी सृष्टि करते और मायाद्वारा ही एक- 
दूसरेको परास्त करना चाहते थे। वे लोगोंको अत्यन्त आश्वर्यमें डालते हुए अदृश्यभावसे 
विचर रहे थे ।। ४७ ।। 

चेकितानो<नुविन्देन युयुधे चातिभैरवम्‌ । 

यथा देवासुरे युद्धे बलशक्रौ महाबलौ ।। ४८ ।। 

चेकितान अनुविन्दके साथ अत्यन्त भयंकर युद्ध करने लगे, मानो देवासुर-संग्राममें 
महाबली बल और इन्द्र लड़ रहे हों || ४८ ।। 

लक्ष्मण: क्षत्रदेवेन विमर्दमकरोद्‌ भृशम्‌ | 

यथा विष्णु: पुरा राजन्‌ हिरण्याक्षेण संयुगे ।। ४९ ।। 

राजन! जैसे पूर्वकालमें भगवान्‌ विष्णु हिरण्याक्षके साथ युद्ध करते थे, उसी प्रकार 
उस रफणक्षेत्रमें लक्ष्मण क्षत्रदेवके साथ भारी संग्राम कर रहा था ।। ४९ ।। 

तत: प्रचलिताश्वेन विधिवत्कल्पितेन च । 

रथेनाभ्यपतद्‌ राजन्‌ सौभद्रं पौरवो नदन्‌ ।। ५० ।। 


राजन! तदनन्तर विधिपूर्वक सजाये हुए चंचल घोड़ोंवाले रथपर आरूढ़ हो गर्जना 
करते हुए राजा पौरवने सुभद्राकुमार अभिमन्युपर आक्रमण किया ।। ५० ।। 

ततो<भ्ययात्‌ सत्वरितो युद्धाकाड्क्षी महाबल: । 

तेन चक्रे महद्‌ युद्धमभिमन्युररिंदम: ।। ५१ |। 

तब शत्रुओंका दमन और युद्धकी अभिलाषा करनेवाले महाबली अभिमन्यु भी तुरंत 
सामने आया और उनके साथ महान्‌ युद्ध करने लगा ।। ५१ ।। 

पौरवस्त्वथ सौभद्रं शरब्रातैरवाकिरत्‌ । 

तस्यार्जुनिर्ध्वजं छत्र॑ धनुश्वोव्यामपातयत्‌ ।। ५२ ।। 

पौरवने सुभद्राकुमारपर बाणसमूहोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। यह देख अर्जुनपुत्र 
अभिमन्युने उनके ध्वज, छत्र और धनुषको काटकर धरतीपर गिरा दिया ।। ५२ ।। 

सौभद्र: पौरवं त्वन्यैर्विदूध्वा सप्तभिराशुगै: । 

पज्चभिस्तस्य विव्याध हयान्‌ सूतं च सायकै: ।। ५३ ।। 

फिर अन्य सात शीघ्रगामी बाणोंद्वारा पौरवको घायल करके अभिमन्युने पाँच बाणोंसे 
उनके घोड़ों और सारथिको भी क्षत-विक्षत कर दिया ।। ५३ ।। 

ततः प्रहर्षयन्‌ सेनां सिंहवद्‌ विनदन्‌ मुहुः । 

समादत्तार्जुनिस्तूर्ण पैरवान्तकरं शरम्‌ ।। ५४ ।। 

तत्पश्चात्‌ अपनी सेनाका हर्ष बढ़ाते और बारंबार सिंहके समान गर्जना करते हुए 
अर्जुनकुमार अभिमन्युने तुरंत ही एक ऐसा बाण हाथमें लिया, जो राजा पौरवका अन्त कर 
डालनेमें समर्थ था ।। ५४ ।। 

त॑ तु संधितमाज्ञाय सायकं घोरदर्शनम्‌ । 

द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यश्चिच्छेद सशरं धनु: ।। ५५ ।। 

उस भयानक दिखायी देनेवाले सायकको धनुषपर चढ़ाया हुआ जान कृतवर्माने दो 
बाणोंद्वारा अभिमन्युके सायकसहित धनुषको काट डाला || ५५ |। 

तदुत्सज्य धनुश्छिन्न॑ं सौभद्र: परवीरहा । 

उद्धबर्ह सितं खड्गमाददान: शरावरम्‌ ।। ५६ ।। 

तब शशत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सुभद्राकुमारने उस कटे हुए धनुषको फेंककर 
चमचमाती हुई तलवार खींच ली और ढाल हाथमें ले ली ।। ५६ ।। 

स तेनानेकतारेण चर्मणा कृतहस्तवत्‌ | 

भ्रान्तासिवव्यचरन्मार्गान्‌ दर्शयन्‌ वीर्यमात्मन: ।। ५७ ।। 

उसने अपनी शक्तिका परिचय देते हुए सुशिक्षित हाथोंवाले पुरुषकी भाँति अनेक 
ताराओंके चिह्नोंसे युक्त ढालके साथ अपनी तलवारको घुमाते और अनेक पैंतरे दिखाते हुए 
रणभूमिमें विचरना आरम्भ किया ।। ५७ |। 

भ्रामितं पुनरुद्भ्रान्तमाधूतं पुनरुत्थितम्‌ । 


चर्मनिस्त्रिंशयो राजन्‌ निर्विशेषमदृश्यत ।। ५८ ।। 

राजन्‌! उस समय नीचे घुमाने, ऊपर घुमाने, अगल-बगलमें चारों ओर घुमाने और फिर 
ऊपर उठानेकी क्रियाएँ इतनी तेजीसे हो रही थीं कि ढाल और तलवारमें कोई अन्तर ही 
नहीं दिखायी देता था ।। ५८ ।। 

स पौरवरथस्येषामाप्लुत्य सहसा नदन्‌ । 

पौरवं रथमास्थाय केशपक्षे परामृशत्‌ ।। ५९ ।। 

तब अभिमन्यु सहसा गर्जता हुआ उछलकर पौरवके रथके ईषादण्डपर चढ़ गया। फिर 
उसने पौरवकी चुटिया पकड़ ली ।। ५९ || 

जघानास्य पदा सूतमसिनापातयद्‌ ध्वजम्‌ | 

विक्षोभ्याम्भोनिधिं ताक्ष्यस्तं नागमिव चाक्षिपत्‌ ।। ६० || 

उसने पैरोंके आघातसे पौरवके सारथिको मार डाला और तलवारसे उनके ध्वजको 
काट गिराया। फिर जैसे गरुड़ समुद्रको क्षुब्ध करके नागको पकड़कर दे मारते हैं, उसी 
प्रकार उसने भी पौरवको रथसे नीचे पटक दिया ।। ६० ।। 

तमागलितकेशान्तं ददृशुः सर्वपार्थिवा: । 

उक्षाणमिव सिंहेन पात्यमानमचेतसम्‌ ।। ६१ ।। 

उस समय सम्पूर्ण राजाओंने देखा, जैसे सिंहने किसी बैलको गिराकर अचेत कर दिया 
हो, उसी प्रकार अभिमन्युने पौरवको गिरा दिया है। वे अचेत पड़े हैं और उनके सिरके बाल 
कुछ उखड़ गये हैं ।। ६१ ।। 

तमार्जुनिवशं प्राप्त कृष्पममाणमनाथवत्‌ | 

पौरवं पातितं दष्ट्वा नामृष्यत जयद्रथ: ।। ६२ ।। 

पौरव अभिमन्युके वशमें पड़कर अनाथकी भाँति खींचे जा रहे हैं और गिरा दिये गये 
हैं। यह देखकर जयद्रथ सहन न कर सका ।। ६२ || 

स ब्हिबहाॉवततं किंकिणीशतजालवत्‌ | 

चर्म चादाय खड्गं च नदन्‌ पर्यपतद्‌ रथात्‌ ।। ६३ ।। 

वह मोरकी पाँखसे आच्छादित और सैकड़ों क्षुद्र घंटिकाओंके समूहसे अलंकृत ढाल 
और खड्ग लेकर गर्जता हुआ अपने रथसे कूद पड़ा ।। ६३ ।। 

ततः सैन्धवमालोक्य कार्ष्णिरित्सृज्य पौरवम्‌ । 

उत्पपात रथात्‌ तूर्ण श्येनवन्निपपात च ।। ६४ ।। 

तब अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जयद्रथको आते देख पौरवको छोड़कर तुरंत ही पौरवके 
रथसे कूद पड़ा और बाजके समान जयद्रथपर झपटा ।। ६४ ।। 

प्रासपट्टिशनिस्त्रिंशाउछत्रुभि: सम्प्रचोदितान्‌ । 

चिच्छेद चासिना कार्ष्णिक्ष्मणा संरुरोध च ।। ६५ ।। 


अभिमन्यु शत्रुओंके चलाये हुए प्रास, पट्टिश और तलवारोंको अपनी तलवारसे काट 
देते और अपनी ढालपर भी रोक लेते थे ।। ६५ ।। 

स दर्शयित्वा सैन्यानां स्वबाहुबलमात्मन: । 

तमुद्यम्य महाखड्‌गं चर्म चाथ पुनर्बली ।। ६६ ।। 

वृद्धक्षत्रस्य दायादं पितुरत्यन्तवैरिणम्‌ । 

ससाराभिमुख: शूर: शार्दूल इव कुज्जरम्‌ ।। ६७ ।। 

शूर एवं बलवान्‌ अभिमन्यु सैनिकोंको अपना बाहुबल दिखाकर पुनः विशाल खड़्ग 
और ढाल हाथमें ले अपने पिताके अत्यन्त वैरी वृद्धक्षत्रके पुत्र जयद्रथके सम्मुख उसी 
प्रकार चला, जैसे सिंह हाथीपर आक्रमण करता है ।। ६६-६७ ।। 

तौ परस्परमासाद्य खड्गदन्तनखायुधौ । 

हृष्टवत्‌ सम्प्रजद्गवाते व्याप्रकेसरिणाविव ।। ६८ ।। 

वे दोनों खड़ग, दन्‍त और नखका आयुधके रूपमें उपयोग करते थे और बाघ तथा 
सिंहोंके समान एक-दूसरेसे भिड़कर बड़े हर्ष और उत्साहके साथ परस्पर प्रहार कर रहे 
थे ।। ६८ ।। 

सम्पातेष्वभिघातेषु निपातेष्वसिचर्मणो: । 

न तयोरन्तरं कश्चिद्‌ ददर्श नरसिंहयो: ।। ६९ ।। 

ढाल और तलवारके सम्पात (प्रहार), अविघात (बदलेके लिये प्रहार) और निपात 
(ऊपर-नीचे तलवार चलाने)-की कलामें उन दोनों पुरुषसिंह अभिमन्यु और जयद्रथमें 
किसीको कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था || ६९ ।। 

अवक्षेपो$सिनिर्ल्ाद: शस्त्रान्तरनिदर्शनम्‌ | 

बाह्यान्तरनिपातश्च निर्विशेषमदृश्यत ।। ७० ।। 

खड्गका प्रहार, खड़्ग-संचालनके शब्द, अन्यान्य शस्त्रोंके प्रदर्शन तथा बाहर 
भीतरकी चोटें करनेमें उन दोनों वीरोंकी समान योग्यता दिखायी देती थी || ७० ।। 

बाह्[माभ्यन्तरं चैव चरन्तौ मार्गमुत्तमम्‌ । 

ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वताौ ।। ७१ ।। 

वे दोनों महामनस्वी वीर बाहर और भीतर चोट करनेके उत्तम पैंतरे बदलते हुए 
पंखयुक्त दो पर्वतोंके समान दृष्टिगोचर हो रहे थे || ७१ ।। 

ततो विक्षिपत: खड्ग॑ सौभद्रस्य यशस्विन: । 

शरावरणपफफक्षान्ते प्रजहार जयद्रथ: ।। ७२ ।। 

इसी समय तलवार चलाते हुए यशस्वी सुभद्राकुमारकी ढालपर जयद्रथने प्रहार 
किया || ७२ ।। 

रुक्मपत्रान्तरे सक्तस्तस्मिं क्षमणि भास्वरे | 

सिन्धुराजबलोद्धूत: सो5भज्यत महानसि: ।। ७३ ।। 


उस चमकीली ढालपर सोनेका पत्र जड़ा हुआ था। उसके ऊपर जयद्रथने जब 
बलपूर्वक प्रहार किया, तब उससे टकराकर उसका वह विशाल खड्ग टूट गया ।। ७३ ।। 

भग्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्‌ । 

अदृश्यत निमेषेण स्वरथं पुनरास्थित: ।। ७४ ।। 

अपनी तलवार टूटी हुई जानकर जयद्रथ छ: पग उछल पड़ा और पलक मारते-मारते 
पुनः अपने रथपर बैठा हुआ दिखायी दिया ।। ७४ ।। 

त॑ कार्ष्णि समरान्मुक्तमास्थितं रथमुत्तमम्‌ । 

सहिता: सर्वराजान: परिवद्रु: समन्‍्तत: ।। ७५ ।। 

उस समय अर्जुनपुत्र अभिमन्यु युद्धसे मुक्त होकर अपने उत्तम रथपर जा बैठा। 
इतनेहीमें सब राजाओंने एक साथ आकर उसे सब ओरसे घेर लिया || ७५ ।। 

ततश्चर्म च खड्गं च समुत्क्षिप्प महाबल: । 

ननादार्जुनदायाद: प्रेक्षमाणो जयद्रथम्‌ ।। ७६ ।। 

तब महाबली अर्जुनकुमारने ढाल और तलवार ऊपर उठाकर जयद्रथकी ओर देखते 
हुए बड़े चोरसे सिंहनाद किया || ७६ ।। 

सिन्धुराजं परित्यज्य सौभद्र: परवीरहा । 

तापयामास तत्‌ सैन्यं भुवनं भास्करो यथा ।। ७७ ।। 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सुभद्राकुमारने सिन्धुराज जयद्रथको छोड़कर, जैसे सूर्य 
सम्पूर्ण जगत्‌को तपाते हैं, उसी प्रकार उस सेनाको संताप देना आरम्भ किया || ७७ ।। 

तस्य सर्वायसीं शक्ति शल्य: कनकभूषणाम्‌ | 

चिक्षेप समरे घोरां दीप्तामग्निेशिखामिव ।। ७८ ।। 

तब शल्यने समरभूमिमें अभिमन्युपर सम्पूर्णतः लोहेकी बनी हुई एक स्वर्णभूषित 
भयंकर शक्ति छोड़ी, जो अग्निशिखाके समान प्रज्वलित हो रही थी ।। ७८ ।। 

तामवप्लुत्य जग्राह विकोशं चाकरोदसिम्‌ | 

वैनतेयो यथा कार्ष्णि: पतन्तमुरगोत्तमम्‌ । ७९ ।। 

जैसे गरुड़ उड़ते हुए श्रेष्ठ नागको पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार अभिमन्युने उछलकर उस 
शक्तिको पकड़ लिया और म्यानसे तलवार खींच ली || ७९ || 

तस्य लाघवमाज्ञाय सत्त्वं चामिततेजस: । 

सहिता: सर्वराजान: सिंहनादमथानदन्‌ ।। ८० ।। 

अमिततेजस्वी अभिमन्युकी वह फुर्ती और शक्ति देखकर सब राजा एक साथ सिंहनाद 
करने लगे || ८० ।। 

ततस्तामेव शल्यस्य सौभद्र: परवीरहा । 

मुमोच भुजवीरयेण वैदूर्यविकृतां शिताम्‌ ।। ८१ ।। 


उस समय शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सुभद्रा-कुमारने वैदूर्यमणिकी बनी हुई तीखी 
धारवाली उसी शक्तिको अपने बाहुबलसे शल्यपर चला दिया ।। ८१ ।। 

सा तस्य रथमासाद्य निर्मुक्तभुजगोपमा । 

जघान सूतं शल्यस्य रथाच्चैनमपातयत्‌ ।। ८२ ।। 

केंचुलसे छूटकर निकले हुए सर्पके समान प्रतीत होनेवाली उस शक्तिने शल्यके रथपर 
पहुँचकर उनके सारथिको मार डाला और उसे रथसे नीचे गिरा दिया ।। 

ततो विराटद्रुपदौ धृष्टकेतुर्युधिष्ठिर: । 

सात्यकि: केकया भीमो धृष्टद्युम्मशिखण्डिनौ ।। ८३ ।। 

यमौ च द्रौपदेयाश्व साधु साधथ्विति चुक्रुशु: । 

यह देखकर विराट, ट्रुपद, धृष्टकेतु, युधिष्ठिर, सात्यकि, केकयराजकुमार, भीमसेन, 
धृष्टद्यम्न, शिखण्डी, नकुल, सहदेव तथा द्रौपदीके पाँचों पुत्र 'साधु, साधु" (बहुत अच्छा, 
बहुत अच्छा) कहकर कोलाहल करने लगे ।। 

बाणशब्दाश्न विविधा: सिंहनादाश्न पुष्कला: ।। ८४ ।। 

प्रादुरासन्‌ हर्षयन्त: सौभद्रमपलायिनम्‌ । 

उस समय युद्धभूमिमें पीठ न दिखानेवाले सुभद्राकुमार अभिमन्युका हर्ष बढ़ाते हुए 
नाना प्रकारके बाण-संचालनजनित शब्द और महान सिंहनाद प्रकट होने लगे || ८४ $ ।। 

तन्नामृष्यन्त पुत्रास्ते शत्रोर्विजयलक्षणम्‌ ।। ८५ ।। 

अथैनं सहसा सर्वे समन्तान्निशितै: शरै: । 

अभ्याकिरन्‌ महाराज जलदा इव पर्वतम्‌ ।। ८६ ।। 

महाराज! उस समय आपके पुत्र शत्रुकी विजयकी सूचना देनेवाले उस सिंहनादको 
नहीं सह सके। वे सब-के-सब सहसा सब ओरसे अभिमन्युपर पैने बाणोंकी वर्षा करने लगे, 
मानो मेघ पर्वतपर जलकी धाराएँ बरसा रहे हों || ८५-८६ ।। 

तेषां च प्रियमन्विच्छन्‌ सूतस्य च पराभवरम्‌ । 

आर्तायनिरमित्रघ्न: क्रुद्ध: सौभद्रमभ्ययात्‌ |। ८७ ।। 

अपने सारथिको मारा गया देख कौरवोंका प्रिय करनेकी इच्छावाले शत्रुसूदन शल्यने 
कुपित होकर सुभद्राकुमारपर पुन: आक्रमण किया ।। ८७ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे चतुर्दशोध्याय: 
॥। १४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें अभिमन्युका 
पराक्रमविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४ ॥ 


नफमशा (0) असऔ मनन 


पज्चदशो< ध्याय: 
शल्यके साथ भीमसेनका युद्ध तथा शल्यकी पराजय 


धृतराष्ट्र रवाच 

बहूनि सुविचित्राणि द्वन्द्ययुद्धानि संजय । 

त्वयोक्तानि निशम्माहं स्पृहयामि सचक्षुषाम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! तुमने बहुत-से अत्यन्त विचित्र द्वन्द्ययुद्धोंका वर्णन किया है, 
उनकी कथा सुनकर मैं नेत्रवाले लोगोंके सौभाग्यकी स्पृहा करता हूँ ।। १ ।। 

आश्चर्यभूतं लोकेषु कथयिष्यन्ति मानवा: । 

कुरूणां पाण्डवानां च युद्ध देवासुरोपमम्‌ ।। २ ।। 

देवताओं और असुरोंके समान इस कौरव-पाण्डव-युद्धको संसारके मनुष्य अत्यन्त 
आश्चर्यकी वस्तु बतायेंगे || २ ।। 

न हि मे तृप्तिरस्तीह शृण्वतो युद्धमुत्तमम्‌ । 

तस्मादातायनेरयुद्धं सौभद्रस्थ च शंस मे ।। ३ ।। 

इस समय इस उत्तम युद्ध-वृत्तान्तको सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है; अतः: शल्य 
और सुभद्राकुमारके युद्धका वृत्तान्त मुझसे कहो ।। ३ ।। 

संजय उवाच 

सादितं प्रेक्ष्य यन्तारं शल्य: सर्वायसीं गदाम्‌ | 

समुत्क्षिप्प नदन्‌ क्रुद्ध: प्रचस्कन्द रथोत्तमात्‌ ।। ४ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! राजा शल्य अपने सारथिको मारा गया देख कुपित हो उठे 
और पूर्णतः लोहेकी बनी हुई गदा उठाकर गर्जते हुए अपने उत्तम रथसे कूद पड़े ।। 

त॑ दीप्तमिव कालाग्निं दण्डहस्तमिवान्तकम्‌ | 

जवेनाभ्यपतद्‌ भीम: प्रगृह् महतीं गदाम्‌ ।। ५ ।। 

उन्हें प्रलयकालकी प्रज्वलित अग्नि तथा दण्डधारी यमराजके समान आते देख 
भीमसेन विशाल गदा हाथमें लेकर बड़े वेगसे उनकी ओर दौड़े || ५ ।। 

सौभद्रो5प्यशनिप्रख्यां प्रगृह्ा महतीं गदाम्‌ । 

एह्टोहीत्यब्रवीच्छल्यं यत्नाद्‌ भीमेन वारित: ।। ६ ।। 

उधरसे अभिमन्यु भी वज्जके समान विशाल गदा हाथमें लेकर आ पहुँचा और “आओ, 
आओ' कहकर शल्यको ललकारने लगा। उस समय भीमसेनने बड़े प्रयत्नसे उसको 
रोका ।। ६ ।। 

वारयित्वा तु सौभद्रं भीमसेन: प्रतापवान्‌ । 


शल्यमासाद्य समरे तस्थौ गिरिरिवाचल: ।। ७ ।। 

सुभद्राकुमार अभिमन्युको रोककर प्रतापी भीमसेन राजा शल्यके पास जा पहुँचे और 
समरभूमिमें पर्वतके समान अविचल भावसे खड़े हो गये || ७ ।। 

तथैव मद्रराजो5पि भीम॑ दृष्टवा महाबलम्‌ | 

ससाराभिमुखस्तूर्ण शार्दूल इव कुज्जरम्‌ ।। ८ ।। 

इसी प्रकार मद्रराज शल्य भी महाबली भीमसेनको देखकर तुरंत उन्हींकी ओर बढ़े, 
मानो सिंह किसी गजराजपर आक्रमण कर रहा हो ।। ८ ।। 

ततस्तूर्यनिनादाश्न शड्खानां च सहस्रश: । 

सिंहनादाश्न संजज्ञुभेरीणां च महास्वना: ।। ९ ।। 

उस समय सहस्रों रणवाद्यों और शंखोंके शब्द वहाँ गूँज उठे। वीरोंके सिंहनाद प्रकट 
होने लगे और नगाड़ोंके गम्भीर घोष सर्वत्र व्याप्त हो गये ।। ९ ।। 

पश्यतां शतशो हाासीदन्योन्यमभिधावताम्‌ । 

पाण्डवानां कुरूणां च साधु साध्विति नि:स्वन: ।। १० ।। 

एक दूसरेकी ओर दौड़ते हुए सैकड़ों दर्शकों, कौरवों और पाण्डवोंके साधुवादका 
महान्‌ शब्द वहाँ सब ओर गूँजने लगा ।। १० ।। 

न हि मद्राधिपादन्य: सर्वराजसु भारत | 

सोदुमुत्सहते वेगं भीमसेनस्य संयुगे || ११ ।। 

भरतनन्दन! समस्त राजाओंमें मद्रराज शल्यके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं था, जो 
युद्धमें भीमसेनके वेगको सहनेका साहस कर सके ।। ११ ।। 

तथा मद्राधिपस्यापि गदावेगं महात्मन: । 

सोढुमुत्सहते लोके युधि को<5न्यो वृकोदरात्‌ ॥ १२ ।। 

इसी प्रकार संसारमें भीमसेनके सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें महामनस्वी 
मद्रराज शल्यकी गदाके वेगको सह सकता है ।। १२ ।। 

पट्टै्जाम्बूनदैर्बद्धा बभूव जनहर्षणी । 

प्रजज्वाल तदा5<5विद्धा भीमेन महती गदा ।। १३ ।। 

उस समय भीमसेनके द्वारा घुमायी गयी विशाल गदा सुवर्णपत्रसे जटित होनेके कारण 
अग्निके समान प्रज्वलित हो रही थी। वह वीरजनोंके हृदयमें हर्ष और उत्साहकी वृद्धि 
करनेवाली थी ।॥। १३ ।। 

तथैव चरतो मार्गान्‌ मण्डलानि च सर्वश: । 

महाविद्युत्प्रतिकाशा शल्यस्य शुशुभे गदा ।। १४ ।। 

इसी प्रकार गदायुद्धके विभिन्न मार्गों और मण्डलोंसे विचरते हुए महाराज शल्यकी 
महाविद्युतके समान प्रकाशमान गदा बड़ी शोभा पा रही थी ।। १४ ।। 

तौ वृषाविव नर्दन्तौ मण्डलानि विचेरतु: । 


आवर्तितगदाशूज्रावुभौ शल्यवृकोदरौ ।। १५ ।। 

वे शल्य और भीमसेन दोनों गदारूप सींगोंको घुमा-घुमाकर साँड़ोंकी भाँति गरजते हुए 
पैंतरे बदल रहे थे ।। 

मण्डलावर्तमार्गेषु गदाविहरणेषु च । 

निर्विशेषम भूद्‌ युद्ध तयो: पुरुषसिंहयो: ।। १६ ।। 

मण्डलाकार घूमनेके मार्गों (पैंतरों) और गदाके प्रहारोंमें उन दोनों पुरुषसिंहोंकी 
योग्यता एक-सी जान पड़ती थी ।। १६ ।। 

ताडिता भीमसेनेन शल्यस्य महती गदा । 

साग्निज्वाला महारीद्रा तदा तूर्णमशीर्यत ।। १७ ।। 

उस समय भीमसेनकी गदासे टकराकर शल्यकी विशाल एवं महाभयंकर गदा आगकी 
चिनगारियाँ छोड़ती हुई तत्काल छिन्न-भिन्न होकर बिखर गयी ।। १७ ।। 

तथैव भीमसेनस्य द्विषताभिहता गदा । 

वर्षाप्रदोषे खद्योतैर्व॒तो वृक्ष इवाबभौ ।। १८ ।। 

इसी प्रकार शत्रुके आघात करनेपर भीमसेनकी गदा भी चिनगारियाँ छोड़ती हुई 
वर्षाकालकी संध्याकें समय जुगनुओंसे जगमगाते हुए वृक्षकी भाँति शोभा पाने 
लगी ।। १८ ।। 

गदा क्षिप्ता तु समरे मद्रराजेन भारत | 

व्योम दीपयमाना सा ससूजे पावकं मुहुः ।। १९ ।। 

भारत! तब मद्रराज शल्यने समरभूमिमें दूसरी गदा चलायी, जो आकाशको प्रकाशित 
करती हुई बारंबार अंगारोंकी वर्षा कर रही थी ।। १९ ।। 

तथैव भीमसेनेन द्विषते प्रेषिता गदा । 

तापयामास तत्‌ सैन्यं महोल्का पतती यथा ।। २० ।। 

इसी प्रकार भीमसेनने शत्रुको लक्ष्य करके जो गदा चलायी थी, वह आकाशसे गिरती 
हुई बड़ी भारी उल्काके समान कौरव-सेनाको संतप्त करने लगी ।। २० ।। 

ते गदे गदिनां श्रेष्ठौ समासाद्य परस्परम्‌ । 

श्वसन्त्यौ नागकन्ये वा ससृजाते विभावसुम्‌ ।। २१ ।। 

वे दोनों गदाएँ गदाधारियोंमें श्रेष्ठ भीमसेन और शल्यको पाकर परस्पर टकराती हुई 
फुफकारती नागकन्याओंकी भाँति अग्निकी सृष्टि करती थीं ।। २१ ।। 

नखैरिव महाव्याप्रौ दनतैरिव महागजौ । 

तौ विचेरतुरासाद्य गदाग्रया भ्यां परस्परम्‌ ।। २२ ।। 

जैसे दो बड़े व्याप्र पंजोंसे और दो विशाल हाथी दाँतोंसे आपसमें प्रहार करते हैं, उसी 
प्रकार भीमसेन और शल्य गदाओंके अग्रभागसे एक-दूसरेपर प्रहार करते हुए विचर रहे 
थे ।। २२ ।। 


ततो गदाग्राभिहतौ क्षणेन रुधिरोक्षितौ | 

ददृशाते महात्मानौ किंशुकाविव पुष्पितौ ।। २३ ।। 

एक ही क्षणमें गदाके अग्रभागसे घायल होकर वे दोनों महामनस्वी वीर खूनसे लथपथ 
हो फूलोंसे भरे हुए दो पलाश वृक्षोंके समान दिखायी देने लगे || २३ ।। 

शुश्रुवे दिक्षु सर्वासु तयो: पुरुषसिंहयो: । 

गदाभिघातसंह्ाद: शक्राशनिरवोपम: || २४ ।। 

उन दोनों पुरुषसिंहोंकी गदाओंके टकरानेका शब्द इन्द्रके वजकी गड़गड़ाहटके समान 
सम्पूर्ण दिशाओंमें सुनायी देता था || २४ ।। 

गदया मद्रराजेन सव्यदक्षिणमाहत: । 

नाकम्पत तदा भीमो भिद्यमान इवाचल: ।। २५ ।। 

उस समय मद्रराजकी गदासे बायें-दायें चोट खाकर भी भीमसेन विचलित नहीं हुए। 
जैसे पर्वत वजका आघात सहकर भी अविचलभावसे खड़ा रहता है ।। २५ ।। 

तथा भीमगदावेगैस्ताड्यमानो महाबल: । 

धैर्यान्मद्राधिपस्तस्थौ वजैर्गिरिरिवाहत: ।। २६ ।। 

इसी प्रकार भीमसेनकी गदाके वेगसे आहत होकर महाबली मद्रराज वज्राघातसे 
पीड़ित पर्वतकी भाँति धैर्यपूर्वक खड़े रहे || २६ ।। 

आपेततुर्महावेगौ समुच्छितगदावुभौ । 

पुनरन्तरमार्गस्थौ मण्डलानि विचेरतु: ।। २७ ।। 

वे दोनों महावेगशाली वीर गदा उठाये एक-दूसरेपर टूट पड़े। फिर अन्तर्मार्गमें स्थित हो 
मण्डलाकार गतिसे विचरने लगे || २७ ।। 

अथाप्लुत्य पदान्यष्टौ संनिपत्य गजाविव । 

सहसा लोहदण्डाभ्यामन्योन्यमभिजष्नतु: ।॥ २८ ।। 

तत्पश्चात्‌ आठ पग चलकर दोनों दो हाथियोंकी भाँति परस्पर टूट पड़े और सहसा 
लोहेके डंडोंसे एक-दूसरेको मारने लगे || २८ ।। 

तौ परस्परवेगाच्च गदाभ्यां च भूशाहतौ । 

युगपत पेततुर्वीरौ क्षिताविन्द्रध्वजाविव ।। २९ ।। 

वे दोनों वीर परस्परके वेगसे और गदाओंद्वारा अत्यन्त घायल हो दो इन्द्रध्वजोंके 
समान एक ही समय पृथ्वीपर गिर पड़े ।। २९ ।। 

ततो विह्वलमान त॑ नि:श्वसन्तं पुन: पुन: । 

शल्यमभ्यपतत्‌ तूर्ण कृतवर्मा महारथ: ।। ३० ।। 

उस समय शल्य अत्यन्त विह्लल होकर बारंबार लम्बी साँस खींच रहे थे। इतनेहीमें 
महारथी कृतवर्मा तुरंत राजा शल्यके पास आ पहुँचा ।। ३० ।। 

दृष्टवा चैनं महाराज गदयाभिनिपीडितम्‌ । 


विचेष्टन्तं यथा नागं मूर्च्छयाभिपरिप्लुतम्‌ ।। ३१ ।। 

महाराज! आकर उसने देखा कि राजा शल्य गदासे पीड़ित एवं मूच्छासे अचेत हो 
आहत हुए नागकी भाँति छटपटा रहे हैं || ३१ ।। 

ततः स्वरथमारोप्य मद्राणामधिपं रणे । 

अपोवाह रणात्‌ तूर्ण कृतवर्मा महारथ: ।। ३२ ।। 

यह देख महारथी कृतवर्मा युद्धस्थलमें मद्रराज शल्यको अपने रथपर बिठाकर तुरंत ही 
रणभूमिसे बाहर हटा ले गया ।। ३२ ।। 

क्षीबवद्‌ विह्नललो वीरो निमेषात्‌ पुनरुत्थित: । 

भीमो<पि सुमहाबाहुर्गदापाणिरदृश्यत ।। ३३ ।। 

तदनन्तर महाबाहु वीर भीमसेन भी मदोन्मत्तकी भाँति विह्लल हो पलक मारते-मारते 
उठकर खड़े हो गये और हाथमें गदा लिये दिखायी देने लगे || ३३ ।। 

ततो मद्राधिपं दृष्टवा तव पुत्रा: पराड्मुखम्‌ । 

सनागपत्त्यश्वरथा: समकम्पन्त मारिष || ३४ ।। 

आर्य! उस समय मद्रराज शल्यको युद्धसे विमुख हुआ देख हाथी, घोड़े, रथ और 
पैदल-सेनाओंसहित आपके सारे पुत्र भयसे काँप उठे ।। ३४ ।। 

ते पाण्डवैर््यमानास्तावका जितकाशिभि: । 

भीता दिशो<न्वपद्यन्त वातनुन्ना घना इव ।। ३५ ।। 

विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डवोंद्वारा पीड़ित हो आपके सभी सैनिक भयभीत हो 
हवाके उड़ाये हुए बादलोंकी भाँति चारों दिशाओंमें भाग गये ।। ३५ ।। 

निर्जित्य धार्तराष्ट्रांस्तु पाण्डवेया महारथा: । 

व्यरोचन्त रणे राजन्‌ दीप्यमाना इवाग्नय: ।। ३६ ।। 

राजन्‌! इस प्रकार आपके पुत्रोंकी जीतकर महारथी पाण्डव प्रज्वलित अग्नियोंकी 
भाँति रणक्षेत्रमें प्रकाशित होने लगे || ३६ ।। 

सिंहनादान्‌ भृशं चक्र: शड्खान्‌ द्मुश्न हर्षिता: । 

भेरीक्ष वादयामासुर्मुदड्भां श्षानके: सह ।। ३७ ।। 

उन्होंने हर्षित होकर बारंबार सिंहनाद किये और बहुत-से शंख बजाये; साथ ही उन्होंने 
भेरी, मृदंग और आनक आदि वाद्योंको भी बजवाया ।। ३७ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि शल्यापयाने पठचदशो<ध्याय: ।। 

२५ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें शल्यका पलायनविषयक 
पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५ ॥/ 


ऑपन-माज बछ। जि 


घोडशो< ध्याय: 


वृषसेनका पराक्रम, कौरव-पाण्डववीरोंका तुमुल युद्ध, 
द्रोणाचार्यके द्वारा पाण्डवपक्षके अनेक वीरोंका वध तथा 
अर्जुनकी विजय 


संजय उवाच 

तद्‌ बल॑ सुमहद्‌ दीर्ण त्वदीयं प्रेक्ष्य वीर्यवान्‌ । 

दधारैको रणे राजन्‌ वृषसेनो<स्त्रमायया ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! आपकी विशाल सेनाको तितर-बितर हुई देख एकमात्र 
पराक्रमी वृषसेनने अपने अस्त्रोंकी मायासे रणक्षेत्रमें उसे धारण किया (भागनेसे 
रोका) ॥| १ || 

शरा दश दिशो मुक्ता वृषसेनेन संयुगे | 

विचेरुस्ते विनिर्भिद्य नरवाजिरथद्विपान्‌ ।। २ ।। 

उस युद्धस्थलमें वृषसेनके छोड़े हुए बाण हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्योंको विदीर्ण 
करते हुए दसों दिशाओंमें विचरने लगे || २ ।। 

तस्य दीप्ता महाबाणा विनिश्चेरु: सहसत्रश: । 

भानोरिव महाराज धर्मकाले मरीचय: ।। ३ ।। 

महाराज! जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें सूर्यससे निकलकर सहस्रों किरणें सब ओर फैलती हैं, उसी 
प्रकार वृषसेनके धनुषसे सहस्रों तेजस्वी महाबाण निकलने लगे ।। ३ ।। 

तेनारदिता महाराज रथिन: सादिनस्तथा । 

निपेतुरुरव्या सहसा वातभग्ना इव द्रुमा: || ४ ।। 

राजन! जैसे प्रचण्ड आँधीसे सहसा बड़े-बड़े वृक्ष टूटकर गिर जाते हैं, उसी प्रकार 
वृषसेनके द्वारा पीड़ित हुए रथी और अन्य योद्धागण सहसा धरतीपर गिरने लगे ।। ४ ।। 

हयौघांश्र॒ रथौघांक्ष॒ गजौघांश्व॒ महारथ: । 

अपातयद्‌ू रणे राजन्‌ शतशोडथ सहस्रश: ।। ५ ।॥। 

नरेश्वर! उस महारथी वीरने रणभूमिमें घोड़ों, रथों और हाथियोंके सैकड़ों-हजारों 
समूहोंको मार गिराया ।। ५ ।। 

दृष्टवा तमेक॑ समरे विचरन्तमभीतवत्‌ | 

सहिता: सर्वराजान: परिवद्रु: समन्‍्तत: ।। ६ ।। 

उसे अकेले ही समरभूमिमें निर्भय विचरते देख सब राजाओंने एक साथ आकर सब 
ओरसे घेर लिया ।। ६ ।। 


नाकुलिस्तु शतानीको वृषसेनं समभ्ययात्‌ | 

विव्याध चैनं दशभिनरिचैर्मर्म भेदिभि: ।। ७ ।। 

इसी समय नकुलके पुत्र शतानीकने वृषसेनपर आक्रमण किया और दस मर्मभेदी 
नाराचोंद्वारा उसे बींध डाला ।। ७ ।। 

तस्य कर्णात्मजश्चापं छित्त्वा केतुमपातयत्‌ । 

त॑ भ्रातरं परीप्सन्तो द्रौपदेया: समभ्ययु: ॥। ८ ।। 

तब कर्णके पुत्रने शतानीकके धनुषको काटकर उनके ध्वजको भी गिरा दिया। यह 
देख अपने भाईकी रक्षा करनेके लिये द्रौपदीके दूसरे पुत्र भी वहाँ आ पहुँचे ।। ८ ।। 

कर्णात्मजं शरख्रातैरदृश्यं चक्कुरञज्जसा । 

तान्‌ नदन्तो<भ्यधावन्त द्रोणपुत्रमुखा रथा: ।। ९ ।। 

छादयन्तो महाराज द्रौपदेयान्‌ महारथान्‌ । 

शरैर्नानाविधैस्तूर्ण पर्वताउजलदा इव ।। १० ।। 

उन्होंने अपने बाणसमूहोंकी वर्षसे कर्णकुमार वृषसेनको अनायास ही आच्छादित 
करके अदृश्य कर दिया। महाराज! यह देख अश्वत्थामा आदि महारथी सिंहनाद करते हुए 
उनपर टूट पड़े और जैसे मेघ पर्वतोंपर जलकी धारा गिराते हैं, उसी प्रकार वे नाना प्रकारके 
बाणोंकी वर्षा करते हुए तुरंत ही महारथी द्रौपदीपुत्रोंकी आच्छादित करने लगे || ९-१० ।। 

तान्‌ पाण्डवा: प्रत्यगृह्लंस्त्वरिता: पुत्रगृद्धिन: । 

पज्चाला: केकया मत्स्या: सृज्जयाश्रोद्यतायुआ: ।। ११ ।। 

तब पुत्रोंकी प्राणरक्षा चाहनेवाले पाण्डवोंने तुरंत आकर उन कौरव महारथियोंको 
रोका। पाण्डवोंके साथ पांचाल, केकय, मत्स्य और सूंजयदेशीय योद्धा भी अस्त्र-शस्त्र लिये 
उपस्थित थे ।। ११ ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ घोरं सुमहल्लोमहर्षणम्‌ । 

त्वदीयै: पाण्डुपुत्राणां देवानामिव दानवै: ।। १२ ।। 

राजन! फिर तो दानवोंके साथ देवताओंकी भाँति आपके सैनिकोंके साथ पाण्डवोंका 
अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था | १२ ।। 

एवं युयुधिरे वीरा: संरब्धा: कुरुपाण्डवा: । 

परस्परमुदी क्षन्त: परस्परकृतागस: ।। १३ |। 

इस प्रकार एक-दूसरेके अपराध करनेवाले कौरव-पाण्डववीर परस्पर क्रोधपूर्ण दृष्टिसे 
देखते हुए युद्ध करने लगे || १३ ।। 

तेषां ददृशिरे कोपाद्‌ वपूंष्यमिततेजसाम्‌ | 

युयुत्सूनामिवाकाशे पतत्त्रिवरभोगिनाम्‌ ।। १४ ।। 

क्रोधवश युद्ध करते हुए उन अमित तेजस्वी राजाओंके शरीर आकाशमें युद्धकी 
इच्छासे एकत्र हुए पक्षिराज गरुड़ तथा नागोंके समान दिखायी देते थे | १४ ।। 


भीमकर्णकृपद्रोणद्रौणिपार्षतसात्यकै: । 

बभासे स रणोद्ेश: कालसूर्य इवोदित: ।। १५ ।। 

भीम, कर्ण, कृपाचार्य, द्रोण, अश्वत्थामा, धृष्टद्युम्न तथा सात्यकि आदि वीरोंसे वह 
रणक्षेत्र ऐसी शोभा पा रहा था, मानो वहाँ प्रलयकालके सूर्यका उदय हुआ हो ।। १५ ।। 

तदा<<सीत्‌ तुमुल॑ युद्ध निध्नतामितरेतरम्‌ । 

महाबलानां बलिभिरर्दानवानां यथा सुरै: ।। १६ ।। 

उस समय एक-दूसरेपर प्रहार करनेवाले उन महाबली वीरोंमें वैसा ही भयंकर युद्ध हो 
रहा था, जैसे पूर्वकालमें बलवान्‌ देवताओंके साथ महाबली दानवोंका संग्राम हुआ 
था ।। १६ || 

ततो युधिष्ठटिरानीकमुद्धतार्णवनि:स्वनम्‌ । 

त्वदीयमवधीत्‌ सैन्यं सम्प्रद्रतमहारथम्‌ ।। १७ ।। 

तदनन्तर उत्ताल तरंगोंसे युक्त महासागरकी भाँति गर्जना करती हुई युधिष्ठिरकी सेना 
आपकी सेनाका संहार करने लगी। इससे कौरव-सेनाके बड़े-बड़े रथी भाग खड़े 
हुए || १७ ।। 

तत्‌ प्रभग्नं बल॑ दृष्टवा शत्रुभिर्भुशमर्दितम्‌ । 

अलं द्रुतेन वः शूरा इति दोणो5भ्यभाषत ।। १८ ।। 

शत्रुओंके द्वारा अच्छी तरह रौंदी गयी आपकी सेनाको भागती देख द्रोणाचार्यने कहा 
--“शूरवीरो! तुम भागो मत, इससे कोई लाभ न होगा” ।। १८ ।। 

(भारद्वाजममर्षश्न विक्रमश्न समाविशत्‌ । 

समुद्धृत्य निषड्भाच्च धनुर्ज्यामवमृज्य च ।। 

महाशरघधनुष्पाणिर्यन्तारमिदमब्रवीत्‌ । 

उस समय द्रोणाचार्यमें अमर्ष और पराक्रम दोनोंका समावेश हुआ। उन्होंने धनुषकी 
प्रत्यंचाको पोंछकर तूृणीरसे बाण निकाला और उस महान्‌ बाण एवं धनुषको हाथमें लेकर 
सारथिसे इस प्रकार कहा। 

द्रोण उदाच 

सारथे याहि यत्रैव पाण्डरेण विराजता ।। 

टप्रियमाणेन छत्रेण राजा तिष्ठति धर्मराट्‌ । 

द्रोणाचार्य बोले--सारथे! वहीं चलो, जहाँ सुन्दर श्वेत छत्र धारण किये धर्मराज राजा 
युधिष्ठिर खड़े हैं। 

तदेतद्‌ दीर्यते सैन्यं धार्तराष्ट्रमनेकथा ।। 

एतत्‌ संस्तम्भयिष्यामि प्रतिवार्य युधिष्ठिरम्‌ । 


यह धुृतराष्ट्रकी सेना तितर-बितर हो अनेक भागोंमें बँटी जा रही हैं। मैं युधिष्ठिरको 
रोककर इस सेनाको स्थिर करूँगा (भागनेसे रोकूँगा)। 

न हि मामभिवर्षन्ति संयुगे तात पाण्डवा: ।। 

मात्स्या: पाड्चालराजान: सर्वे च सहसोमका: । 

तात! ये पाण्डव, मत्स्य, पांचाल और समस्त सोमक वीर मुझपर बाण-वर्षा नहीं कर 
सकते। 

अर्जुनो मत्प्रसादाद्धि महास्त्राणि समाप्तवान्‌ ।। 

न मामुत्सहते तात न भीमो न च सात्यकि: । 

अर्जुनने भी मेरी ही कृपासे बड़े-बड़े अस्त्रोंको प्राप्त किया है। तात! वे भीमसेन और 
सात्यकि भी मुझसे लड़नेका साहस नहीं कर सकते। 

मत्प्रसादाद्धि बीभत्सु: परमेष्वासतां गतः ।। 

ममैवास्त्रं विजानाति धृष्टद्युम्नोडपि पार्षत: । 

अर्जुन मेरे ही प्रसादसे महान्‌ धनुर्धर हो गये हैं। धृष्टद्युम्न भी मेरे ही दिये हुए अस्त्रोंका 
ज्ञान रखता है। 

नायं संरक्षितुं काल: प्राणांस्तात जयैषिणा ।। 

याहि स्वर्ग पुरस्कृत्य यशसे च जयाय च । 

तात सारथे। विजयकी अभिलाषा रखनेवाले वीरके लिये यह प्राणोंकी रक्षा करनेका 
अवसर नहीं है। तुम स्वर्गप्राप्तिका उद्देश्य लेकर यश और विजयके लिये आगे बढ़ो। 

संजय उवाच 

एवं संचोदितो यन्ता द्रोणम भ्यवहत्‌ ततः ।। 

तदाश्वह्वदयेनाश्चवानभिमन्त्रयाशु हर्षयन्‌ । 

रथेन सवरूथेन भास्वरेण विराजता ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार प्रेरित होकर सारथि अश्वह्ृदय नामक मन्त्रोंसे 
अभिमन्त्रित करके घोड़ोंका हर्ष बढ़ाता हुआ आवरणयुक्त प्रकाशमान एवं तेजस्वी रथके 
द्वारा शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्यको आगे ले चला। 

त॑ करूषाश्न मत्स्याश्ष चेदयश्षु ससात्वता: । 

पाण्डवाश्न सपञ्चाला: सहिता: पर्यवारयन्‌ ।।) 

उस समय करूष, मत्स्य, चेदि, सात्वत, पाण्डव तथा पांचाल वीरोंने एक साथ आकर 
द्रोणाचार्यको रोका। 

ततः शोणहय: क्रुदधश्वतुर्दन्त इव द्विप: । 

प्रविश्य पाण्डवानीकं युधिष्िरमुपाद्रवत्‌ ।। १९ ।। 


तब लाल घोड़ोंवाले द्रोणाचार्यने कुपित हो चार दाँतोंवाले गजराजके समान पाण्डव- 
सेनामें घुसकर युधिष्ठिरपर आक्रमण किया ।। १९ |। 

तमाविध्यच्छितैर्बाणै: कड़कपन्रैर्युधिष्िर: । 

तस्य द्रोणो धनुश्कछित्त्वा तं द्रुतं समुपाद्रवत्‌ ।। २० ।। 

युधिष्ठिरने गीधकी पाँखोंसे युक्त पैने बार्णोद्वारा द्रोणाचार्यको बींध डाला। तब 
द्रोणाचार्यने उनका धनुष काटकर बड़े वेगसे उनपर आक्रमण किया ।। २० ।। 

चक्ररक्ष: कुमारस्तु पठचालानां यशस्कर: । 

दधार द्रोणमायान्तं वेलेव सरितां प्रतिम ।। २१ ।। 

उस समय पांचालोंके यशको बढ़ानेवाले कुमारने, जो युधिष्ठिरके रथ-चक्रकी रक्षा कर 
रहे थे, आते हुए द्रोणाचार्यको उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तटभूमि समुद्रको रोकती 
है ।। २१ ।। 

द्रोणं निवारितं दृष्टवा कुमारेण द्विजर्षभम्‌ | 

सिंहनादरवो हयासीत्‌ साधु साध्विति भाषितम्‌ ।। २२ ।। 

कुमारके द्वारा द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्यको रोका गया देख पाण्डव-सेनामें चोर-जोरसे 
सिंहनाद होने लगा और सब लोग कहने लगे “बहुत अच्छा, बहुत अच्छा” || २२ ।। 

कुमारस्तु ततो द्रोणं सायकेन महाहवे । 

विव्याधोरसि संक्रुद्ध: सिंहवच्च नदन्‌ मुहुः ।। २३ ।। 

कुमारने उस महायुद्धमें कुपित हो बारंबार सिंहनाद करते हुए एक बाएणएद्धारा 
द्रोणाचार्यकी छातीमें चोट पहुँचायी || २३ ।। 

संवार्य च रणे द्रोणं कुमारस्तु महाबल: । 

शरैरनेकसाहसै: कृतहस्तो जितश्रम: ।। २४ ।। 

इतना ही नहीं, उस महाबली कुमारने कई हजार बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यको 
रोक दिया; क्योंकि उनके हाथ अस्त्र-संचालनकी कलामें दक्ष थे और उन्होंने परिश्रमको 
जीत लिया था || २४ ।। 

त॑ शूरमार्यव्रतिनं मन्त्रास्त्रेषु कृतश्रमम्‌ 

चक्ररक्षं परामृद्नात्‌ कुमारं द्विजपुड़व: ।। २५ || 

परंतु द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्यने शूर, आर्यव्रती एवं मन्त्रास्त्रविद्यामें परिश्रम किये हुए चक्र- 
रक्षक कुमारको परास्त कर दिया ।। २५ || 

स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वाः प्रविचरन्‌ दिश: । 

तव सैन्यस्य गोप्ता5डसीद्‌ भारद्वाजो द्विजर्षभ: ।। २६ ।। 

राजन! भरद्वाजनन्दन विप्रवर द्रोणाचार्य आपकी सेनाके संरक्षक थे। वे पाण्डव- 
सेनाके बीचमें घुसकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरने लगे || २६ ।। 

शिखण्डिनं द्वादशभिवविंशत्या चोत्तमौजसम्‌ । 


नकुल॑ पज्चभिर्विद्ध्वा सहदेवं च सप्तभि: ।। २७ ।। 

युधिष्ठिरं द्वादशभिद्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभि: | 

सात्यकिं पज्चभिर्विद्ध्वा मत्स्यं च दशभि: शरै: || २८ ।। 

उन्होंने शिखण्डीको बारह, उत्तमौजाको बीस, नकुलको पाँच और सहदेवको सात 
बाणोंसे घायल करके युधिष्छिरको बारह, द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको तीन-तीन, सात्यकिको 
पाँच और विराटको दस बाणोंसे बींध डाला | २७-२८ ।। 

व्यक्षोभयद्‌ रणे योधान्‌ यथा मुख्यमभिद्रवन्‌ । 

अभ्यवर्तत सम्प्रेप्सु: कुन्तीपुत्रं युधिछ्ठिरम्‌ ।। २९ ।। 

राजन! उन्होंने रणक्षेत्रमें मुख्य-मुख्य योद्धाओंपर धावा करके उन सबको क्षोभमें डाल 
दिया और कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये उनपर वेगसे आक्रमण किया ।। २९ ।। 

युगन्धरस्ततो राजन्‌ भारद्वाजं महारथम्‌ | 

वारयामास संक्रुद्धं वातोद्धतमिवार्णवम्‌ ।। ३० ।। 

राजन्‌! उस समय वायुके थपेड़ोंसे विक्षुब्ध हुए महासागरके समान क्रोधमें भरे हुए 
महारथी द्रोणाचार्यको राजा युगन्धरने रोक दिया ।। ३० ।। 

युधिष्ठिरं स विद्ध्वा तु शरै: संनतपर्वभि: । 

युगन्धरं तु भल्‍लेन रथनीडादपातयत्‌ ।। ३१ ।। 

तब झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा युधिष्ठिरको घायल करके द्रोणाचार्यने एक भल्ल 
नामक बाणद्धारा मारकर युगन्धरको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया ।। ३१ ।। 

ततो विराटद्रुपदौ केकया: सात्यकि: शिबि: । 

व्याप्रदत्तश्न पाज्चाल्य: सिंहसेनश्न वीर्यवान्‌ ।। ३२ ।। 

एते चान्ये च बहव: परीप्सन्तो युधिष्ठिरम्‌ । 

आवव्र॒स्तस्य पन्थानं किरन्त: सायकान्‌ बहून्‌ | ३३ ।। 

यह देख विराट, ट्रपद, केकय, सात्यकि, शिबि, पांचालदेशीय व्याप्रदत्त तथा पराक्रमी 
सिंहसेन--ये तथा और भी बहुत-से नरेश राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करनेके लिये बहुत-से 
सायकोंकी वर्षा करते हुए द्रोणाचार्यकी राह रोककर खड़े हो गये ।। ३२-३३ ।। 

व्याप्रदत्तस्तु पाउ्चाल्यो द्रोणं विव्याध मार्गणै: । 

पज्चाशता शितै राजंस्तत उच्चुक्रुशुर्जना: ।। ३४ ।। 

राजन! पांचालदेशीय व्याप्रदत्तने पचास तीखे बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल कर 
दिया। तब सब लोग जोर-जोरसे हर्षनाद करने लगे ।। ३४ ।। 

त्वरितं सिंहसेनस्तु द्रोणं विदूध्वा महारथम्‌ | 

प्राहसत्‌ सहसा हृष्टसत्रासयन्‌ वै महारथान्‌ ।। ३५ ।। 

हर्षमें भरे हुए सिंहसेनने तुरंत ही महारथी द्रोणाचार्यको घायल करके अन्य 
महारथियोंके मनमें त्रास उत्पन्न करते हुए सहसा चोरसे अट्टहास किया ।। ३५ ।। 


ततो विस्फार्य नयने धनुज्यामवमृज्य च | 
तलशब्दं महत्‌ कृत्वा द्रोणस्तं समुपाद्रवत्‌ ।। ३६ ।। 
तब द्रोणाचार्यने आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए धनुषकी डोरी साफ कर महान्‌ 
टंकारघोष करके सिंहसेनपर आक्रमण किया ।। ३६ ।। 
ततस्तु सिंहसेनस्य 
शिर: कायात्‌ सकुण्डलम्‌ | 
व्याप्रदत्तस्य चाक्रम्य 
भल्लाभ्यामाहरद्‌ बली ॥। ३७ || 
फिर बलवान द्रोणने आक्रमणके साथ ही भल्ल नामक दो बाणोंद्वारा सिंहसेन और 
व्याप्रदत्तके शरीरसे उनके कुण्डलमण्डित मस्तक काट डाले ।। ३७ || 
तान्‌ प्रमथ्य शख्रातै: 
पाण्डवानां महारथान्‌ | 
युधिष्ठिररथाभ्याशे 
तस्थौ मृत्युरिवान्तक: ।। ३८ ।। 
इसके बाद पाण्डवोंके उन अन्य महारथियोंको भी अपने बाणसमूहोंसे मथित करके 
विनाशकारी यमराजके समान वे युधिष्ठिरके रथके समीप खड़े हो गये ।। ३८ ।। 
ततो5भवन्महाशब्दो राजन्‌ यौधिष्ठिरे बले । 
हतो राजेति योधानां समीपस्थे यतव्रते ।। ३९ ।। 
राजन! नियम एवं व्रतका पालन करनेवाले द्रोणाचार्य युधिष्ठिरके बहुत निकट आ गये। 
तब उनकी सेनाके सैनिकोंमें महान्‌ हाहाकार मच गया। सब लोग कहने लगे “हाय, राजा 
मारे गये” ।। ३९ ।। 
अब्र॒ुवन्‌ सैनिकास्तत्र दृष्टवा द्रोणस्य विक्रमम्‌ । 
अद्य राजा धाररराष्ट्र: कृतार्थों वै भविष्यति ।। ४० ।। 
वहाँ द्रोणाचार्यका पराक्रम देख कौरव-सैनिक कहने लगे, “आज राजा दुर्योधन अवश्य 
कृतार्थ हो जायँगे ।। ४० ।। 
अस्मिन्‌ मुहूतें द्रोणस्तु पाण्डवं गृह हर्षितः । 
आगमिष्याति नो नून॑ धार्तराष्ट्रस्य संयुगे || ४१ ।। 
“इस मुहूर्तमें द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें निश्चय ही राजा युधिष्ठिरको पकड़कर बड़े हर्षके साथ 
हमारे राजा दुर्योधनके समीप ले आयेंगे” || ४१ ।। 
एवं संजल्पतां तेषां तावकानां महारथ: । 
आयाज्जवेन कौन्तेयो रथघोषेण नादयन्‌ ॥। ४२ ।। 
राजन्‌! जब आपके सैनिक ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय उनके समक्ष कुन्तीनन्दन 
महारथी अर्जुन अपने रथकी घरघराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए बड़े 


वेगसे आ पहुँचे || ४२ ।। 

शोणितोदां रथावर्ता कृत्वा विशसने नदीम्‌ | 

शूरास्थिचयसंकीर्णा प्रेतकूलापहारिणीम्‌ ।। ४३ ।। 

तां शरौघमहाफेनां प्रासमत्स्यसमाकुलाम्‌ । 

नदीमुत्तीर्य वेगेन कुरून्‌ विद्राव्य पाण्डव: ।। ४४ ।। 

ततः किरीटी सहसा द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ । 

ये उस मार-काटसे भरे हुए संग्राममें रक्तकी नदी बहाकर आये थे। उसमें शोणित ही 
जल था। रथकी भँवरें उठ रही थीं। शूरवीरोंकी हड्डियाँ उसमें शिलाखण्डोंके समान बिखरी 
हुई थीं। प्रेतोंके कंकाल उस नदीके कूल-किनारे जान पड़ते थे, जिन्हें वह अपने वेगसे तोड़- 
फोड़कर बहाये लिये जाती थी। बाणोंके समुदाय उसमें फेनोंके बहुत बड़े ढेरके समान जान 
पड़ते थे। प्रास आदि शस्त्र उसमें मत्स्यके समान छाये हुए थे। उस नदीको वेगपूर्वक पार 
करके कौरव-सैनिकोंको भगाकर पाण्डुनन्दन किरीटधारी अर्जुनने सहसा द्रोणाचार्यकी 
सेनापर आक्रमण किया ।। ४३-४४ $ || 






7 १ लोड ० ! हर ॥ 


प्र है > मई 


छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव ।। ४५ ।। 

शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान्‌ संदधानस्य चानिशम्‌ | 

नान्तरं ददृशे कश्चित्‌ कौन्तेयस्थ यशस्विन: ।। ४६ ।। 

वे अपने बाणोंके महान्‌ समुदायसे द्रोणाचार्यको मोहमें डालते हुए-से आच्छादित करने 
लगे। यशस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन इतनी शीघ्रताके साथ निरन्तर बाणोंको धनुषपर रखते 


और छोड़ते थे कि किसीको इन दोनों क्रियाओंमें तनिक भी अन्तर नहीं दिखायी देता 
था || ४५-४६ || 

न दिशो नान्तरिक्ष॑ च न द्यौर्नैव च मेदिनी । 

अदृश्यन्त महाराज बाणभूता इवाभवन्‌ ।। ४७ ।। 

महाराज! न दिशाएँ, न अन्तरिक्ष, न आकाश और न पृथिवी ही दिखायी देती थी। 
सम्पूर्ण दिशाएँ बाणमय हो रही थीं ।। ४७ ।। 

नादृश्यत तदा राजंस्तत्र किंचन संयुगे । 

बाणान्धकारे महति कृते गाण्डीवधन्चना ।। ४८ ।। 

राजन! उस रफक्षेत्रमें गाण्डीवधारी अर्जुनने बाणोंके द्वारा महान्‌ अन्धकार फैला दिया 
था। उसमें कुछ भी दिखायी नहीं देता था ।। ४८ ।। 

सूर्ये चास्तमनुप्राप्ते तमसा चाभिसंवृते । 

नाज्ञायत तदा शत्रुर्न सुह्न्न च कश्चन ।। ४९ ।। 

सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये, सम्पूर्ण जगत्‌ अन्धकारसे व्याप्त हो गया, उस समय न 
कोई शत्रु पहचाना जाता था न मित्र ।। ४९ ।। 

ततो<वहारं चक्कुस्ते द्रोणदुर्योधनादय: । 

तान्‌ विदित्वा पुनस्त्रस्तानयुद्धमनस: परान्‌ । ५० ।। 

स्वान्यनीकानि बीभत्सु: शनकैरवहारयत्‌ | 

तब द्रोणाचार्य और दुर्योधन आदिने अपनी सेनाको पीछे लौटा लिया। शत्रुओंका मन 
अब युद्धसे हट गया है और वे बहुत डर गये हैं, यह जानकर अर्जुनने भी धीरे-धीरे अपनी 
सेनाओंको युद्धभूमिसे हटा लिया ।। 

ततोऊभितुष्टवुः पार्थ प्रह्ष्टा: पाण्ड्संंजया: ।। ५१ ।। 

पज्चालाश्व मनोज्ञाभिववमग्धि: सूर्यमिवर्षय: । 

उस समय हर्षमें भरे हुए पाण्डव, सूंजय और पांचाल वीर जैसे ऋषिगण सूर्यदेवकी 
स्तुति करते हैं, उसी प्रकार मनोहर वाणीसे कुन्तीकुमार अर्जुनके गुणगान करने लगे ।। ५१ 
न्‍ |! 

एवं स्वशिबिरं प्रायाज्जित्वा शत्रून्‌ धनंजय: ।। ५२ ।। 

पृष्ठत: सर्वसैन्यानां मुदितो वै सकेशव: ।। ५३ ।। 

इस प्रकार शत्रुओंको जीतकर सब सेनाओंके पीछे श्रीकृष्णसहित अर्जुन बड़ी 
प्रसन्नताके साथ अपने शिविरको गये ।। ५२-५३ ।। 

मसारगल्वर्कसुवर्णरूपै- 

वैज्रप्रवालस्फटिकैश्व मुख्य: । 
चित्रे रथे पाण्डुसुतो बभासे 
नक्षत्रचित्रे वियतीव चन्द्र: ।। ५४ ।। 


जैसे नक्षत्रोंद्वारा चितकबरे प्रतीत होनेवाले आकाशमें चन्द्रमा सुशोभित होते हैं, उसी 
प्रकार इन्द्रनील, पद्मराग, सुवर्ण, वज्रमणि, मूँगे तथा स्फटिक आदि प्रधान-प्रधान 
मणिरत्नोंसे विभूषित विचित्र रथमें बैठे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन शोभा पा रहे थे || ५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि प्रथमदिवसावहारे षोडशो< ध्याय: 
॥ १६ |। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्वमें द्रोणके प्रथम दिनके युद्धमें 
सेनाको पीछे लौटानेसे सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० श्लोक मिलाकर कुल ६४ श्लोक हैं।) 


ऑपनआक्रात बछ। अकाल 


(संशप्तकवधपर्व) 


सप्तदशो< ध्याय: 


सुशर्मा आदि संशप्तकवीरोंकी प्रतिज्ञा तथा अर्जुनका 
युद्धके लिये उनके निकट जाना 


संजय उवाच 

ते सेने शिबिरं गत्वा न्‍्यविशेतां विशाम्पते । 

यथाभागं यथान्यायं यथागुल्मं च सर्वश: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--प्रजानाथ! वे दोनों सेनाएँ अपने शिविरमें जाकर ठहर गयीं। जो 
सैनिक जिस विभाग और जिस सैन्यदलमें नियुक्त थे, उसीमें यथायोग्य स्थानपर जाकर सब 
ओर ठहर गये ।। १ ।। 

कृत्वावहारं सैन्यानां द्रोण: परमदुर्मना: । 

दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य सब्रीडमिदमब्रवीत्‌ ।। २ ।। 

सेनाओंको युद्धसे लौटाकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अत्यन्त दुःखी हो दुर्योधनकी ओर 
देखते हुए लज्जित होकर बोले-- ।। २ ।। 

उक्तमेतन्मया पूर्व न तिष्ठति धनंजये । 

शक्यो ग्रहीतु संग्रामे देवेरपि युधिष्ठिर: ॥। ३ ।। 

“राजन! मैंने पहले ही कह दिया था कि अर्जुनके रहते हुए सम्पूर्ण देवता भी युद्धमें 
युधिष्ठिरको पकड़ नहीं सकते हैं ।। ३ ।। 

इति तद्‌ व: प्रयततां कृतं पार्थेन संयुगे । 

मा विशड्कीर्वचो मह[मजेयौ कृष्णपाण्डवौ || ४ ।। 

“तुम सब लोगोंके प्रयत्न करनेपर भी उस युद्धस्थलमें अर्जुनने मेरे पूर्वोक्त कथनको 
सत्य कर दिखाया है। तुम मेरी बातपर संदेह न करना। वास्तवमें श्रीकृष्ण और अर्जुन मेरे 
लिये अजेय हैं ।। ४ ।। 

अपनीते तु योगेन केनचिच्छवेतवाहने । 

तत एष्यति मे राजन्‌ वशमेष युधिष्ठिर: ।। ५ ।। 

“राजन्‌! यदि किसी उपायसे श्वेतवाहन अर्जुन दूर हटा दिये जाय॑ँ तो ये राजा युधिष्छिर 
मेरे वशमें आ जायँगे ।। ५ ।। 

कश्चिदाहूय त॑ं संख्ये देशमन्यं प्रकर्षतु । 


तमजित्वा न कौन्तेयो निवर्तेत कथंचन ।। ६ ।। 

“यदि कोई वीर अर्जुनको युद्धके लिये ललकारकर दूसरे स्थानमें खींच ले जाय तो वह 
कुन्तीकुमार उसे परास्त किये बिना किसी प्रकार नहीं लौट सकता ।। ६ ।। 

एतस्मिन्नन्तरे शून्ये धर्मराजमहं नृप । 

ग्रहीष्यामि चमूं भित्त्वा धृष्टद्युम्नस्य पश्यत: ।।॥ ७ ।। 

“नरेश्वर! इस सूने अवसरमें मैं धृष्टद्युम्नके देखते-देखते पाण्डव-सेनाको विदीर्ण करके 
धर्मराज युधिष्ठिरको अवश्य पकड़ लूँगा || ७ ।। 

अर्जुनेन विहीनस्तु यदि नोत्सूजते रणम्‌ । 

मामुपायान्तमालोक्य गृहीतं विद्धि पाण्डवम्‌ ॥। ८ ।। 

“अर्जुनसे अलग रहनेपर यदि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर मुझे निकट आते देख युद्धस्थलका 
परित्याग नहीं कर देंगे तो तुम निश्चय समझो, वे मेरी पकड़में आ जायाँगे || ८ ।। 

एवं ते5हं महाराज धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

समानेष्यामि सगणं वशमद्य न संशय: ।॥। ९ ।। 

यदि तिष्ठति संग्रामे मुहूर्तमपि पाण्डव: । 

अथापयाति संग्रामाद्‌ विजयात्‌ तद्‌ विशिष्यते ॥। १० ।। 

“महाराज! यदि अर्जुनके बिना दो घड़ी भी युद्धभूमिमें खड़े रहे तो मैं तुम्हारे लिये 
धर्मपुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको आज उनके गणोंसहित अवश्य पकड़ लाऊँगा; इसमें संदेह 
नहीं है और यदि वे संग्रामसे भाग जाते हैं तो यह हमारी विजयसे भी बढ़कर 
है! ।। ९-१० |। 

संजय उवाच 

द्रोणस्य तद्‌ वच:ः श्रुत्वा त्रिगर्ताधिपतिस्तदा । 

भ्रातृभि: सहितो राजन्निदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ११ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! द्रोणाचार्यका यह वचन सुनकर उस समय भाइयोंसहित 
त्रिगर्तराज सुशर्माने इस प्रकार कहा-- ।। ११ ।। 

वयं विनिकृता राजन्‌ सदा गाण्डीवधन्चना । 

अनाग:स्वपि चागस्तत्‌ कृतमस्मासु तेन वै ।। १२ ।। 

“महाराज! गाण्डीवधारी अर्जुनने हमेशा हमलोगोंका अपमान किया है। यद्यपि हम 
सदा निरपराध रहे हैं तो भी उनके द्वारा सर्वदा हमारे प्रति अपराध किया गया है ॥। १२ ।। 

ते वयं स्मरमाणास्तान्‌ विनिकारान्‌ पृथग्विधान्‌ । 

क्रोधाग्निना दह्ममाना न शेमहि सदा निशि || १३ ।। 

“हम पृथक्‌-पृथक्‌ किये गये उन अपराधोंको याद करके क्रोधाग्निसे दग्ध होते रहते हैं 
तथा रातमें हमें कभी नींद नहीं आती है || १३ ।। 


स नो दिष्टयास्त्रसम्पन्नश्नक्षु्िषयमागत: । 

कर्तार: सम वयं कर्म यच्चिकीर्षाम हृदूगतम्‌ || १४ ।। 

“अब हमारे सौभाग्यसे अर्जुन स्वयं ही अस्त्र-शस्त्र धारण करके आँखोंके सामने आ 
गये हैं। इस दशामें हम मन-ही-मन जो कुछ करना चाहते थे, वह प्रतिशोधात्मक कार्य 
अवश्य करेंगे || १४ ।। 

भवतश्च प्रियं यत्‌ स्थादस्माकं च यशस्करम्‌ । 

वयमेनं हनिष्यामो निकृष्यायोधनाद्‌ बहि: ।। १५ ।। 

“उससे आपका तो प्रिय होगा ही, हमलोगोंके सुयशकी भी वृद्धि होगी। हम इन्हें 
युद्धस्थलसे बाहर खींच ले जायूँगे और मार डालेंगे |। १५ ।। 

अद्यास्त्वनर्जुना भूमिरत्रिगर्ताथ वा पुन: । 

सत्यं ते प्रतिजानीमो नैतन्मिथ्या भविष्यति ।। १६ ।। 

“आज हम आपके सामने यह सत्य प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि यह भूमि या तो अर्जुनसे 
सूनी हो जायगी या त्रिर्गतोंमेंसे कोई इस भूतलपर नहीं रह जायगा। मेरा यह कथन कभी 
मिथ्या नहीं होगा” ।। १६ ।। 

एवं सत्यरथश्नोक्त्वा सत्यवर्मा च भारत | 

सत्यव्रतश्न सत्येषु: सत्यकर्मा तथैव च ।। १७ ।। 

सहिता भ्रातर: पञजच रथानामयुतेन च । 

न्यवर्तन्त महाराज कृत्वा शपथमाहवे ।। १८ ।। 

भरतनन्दन! सुशमाके ऐसा कहनेपर सत्यरथ, सत्यवर्मा, सत्यव्रत, सत्येषु तथा 
सत्यकर्मा नामवाले उसके पाँच भाइयोंने भी इसी प्रतिज्ञाको दुहराया। उनके साथ दस 
हजार रथियोंकी सेना भी थी। महाराज! ये लोग युद्धके लिये शपथ खाकर लौटे 
थे।। १७-१८ || 

मालवास्तुण्डिकेराश्न रथानामयुतैस्त्रिभि: । 

सुशर्मा च नरव्याप्रस्त्रिगर्त: प्रस्थलाधिप: ।। १९ ।। 

मावेल्लकैललित्थैश्न सहितो मद्रकैरपि । 

रथानामयुतेनैव सो5गमद्‌ भ्रातृभि: सह ।। २० ।। 

महाराज! ऐसी प्रतिज्ञा करके प्रस्थलाधिपति पुरुषसिंह त्रिर्गतराज सुशर्मा तीस हजार 
रथियोंसहित मालव, तुण्डिकेर, मावेल्लक, ललित्थ, मद्रकगण तथा दस हजार रथियोंसे 
युक्त अपने भाइयोंके साथ युद्धके लिये (शपथ ग्रहण करनेको) गया ।। १९-२० ।। 

नानाजनपदेभ्यश्व रथानामयुतं पुनः । 

समुत्थितं विशिष्टानां शपथार्थमुपागमत्‌ ।। २१ ।। 

विभिन्न देशोंसे आये हुए दस हजार श्रेष्ठ महारथी भी वहाँ शपथ लेनेके लिये उठकर 
गये ।। २१ ।। 


ततो ज्वलनमानर्च्य हुत्वा सर्वे पृथक्‌ पृथक्‌ । 

जगृहु: कुशचीराणि चित्राणि कवचानि च ।। २२ ।। 

उन सबने पृथक्‌-पृथक्‌ अग्निदेवकी पूजा करके हवन किया तथा कुशके चीर और 
विचित्र कवच धारण कर लिये ।। २२ ।। 

ते च बद्धतनुत्राणा घृताक्ता: कुशचीरिण: । 

मौर्वीमेखलिनो वीरा: सहस्रशतदक्षिणा: ।। २३ ।। 

कवच बाँधकर कुश-चीर धारण कर लेनेके पश्चात्‌ उन्होंने अपने अंगोंमें घी लगाया 
और “मौर्वी” नामक तृणविशेषकी बनी हुई मेखला धारण की। वे सभी वीर पहले यज्ञ करके 
लाखों स्वर्ण-मुद्राएँ दक्षिणामें बाँट चुके थे || २३ ।। 

यज्वान: पुत्रिणो लोक्या: कृतकृत्यास्तनुत्यज: । 

योक्ष्यमाणास्तदा55त्मानं यशसा विजयेन च ।। २४ ।। 

उन सबने पूर्वकालमें यज्ञोंका अनुष्ठान किया था, वे सभी पुत्रवान्‌ तथा पुण्यलोकोंमें 
जानेके अधिकारी थे, उन्होंने अपने कर्तव्यको पूरा कर लिया था। वे हर्षपूर्वक युद्धमें अपने 
शरीरका त्याग करनेको उद्यत थे और अपने-आपको यश एवं विजयसे संयुक्त करने जा रहे 
थे ।। २४ ।। 

ब्रह्मचर्यश्रुतिमुखै: क्रतुभिश्नाप्तदक्षिणै: । 

प्राप्पॉल्लोकान्‌ सुयुद्धेन क्षिप्रमेव यियासव: ।। २५ ।। 

ब्रह्मचर्यपालन, वेदोंके स्वाध्याय तथा पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंके अनुष्ठान आदि 
साधनोंसे जिन पुण्यलोकोंकी प्राप्ति होती है, उन सबमें वे उत्तम युद्धके द्वारा ही शीघ 
पहुँचनेकी इच्छा रखते थे || २५ ।। 

ब्राह्मणांस्तर्पयित्वा च निष्कान्‌ दत्त्वा पृथक्‌ पृथक्‌ । 

गाश्न वासांसि च पुन: समाभाष्य परस्परम्‌ ।। २६ |। 

(द्विजमुख्यै: समुदितैः कृतस्वस्त्ययनाशिष: । 

मुदिताश्ष प्रहृष्टाश्न॒ जल॑ संस्पृश्य निर्मलम्‌ ।।) 

प्रज्वाल्य कृष्णवर्त्मानमुपागम्य रणव्रतम्‌ । 

तस्मिन्नग्नौ तदा चक्र: प्रतिज्ञां दृढनिश्चया: || २७ ।। 

ब्राह्मगोंको भोजन आदिसे तृप्त करके उन्हें अलग-अलग स्वर्णमुद्राओं, गौओं तथा 
वस्त्रोंकी दक्षिणा देकर परस्पर बातचीत करके उन्होंने वहाँ एकत्र हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा 
स्वस्तिवाचन कराया, आशीर्वाद प्राप्त किया और हर्षोल्लासपूर्वक निर्मल जलका स्पर्श 
करके अग्निको प्रज्वलित किया। फिर समीप आकर युद्धका व्रत ले अग्निके सामने ही दृढ़ 
निश्चयपूर्वक प्रतिज्ञा की ।। 

शृण्वतां सर्वभूतानामुच्चैर्वाचो बभाषिरे । 

सर्वे धनंजयवधे प्रतिज्ञां चापि चक्रिरे || २८ ।। 


उन सभीने समस्त प्राणियोंके सुनते हुए अर्जुनका वध करनेके लिये प्रतिज्ञा की और 
उच्चस्वरसे यह बात कही-- ।। २८ ।। 

ये वै लोकाश्चाव्रतिनां ये चैव ब्रह्मघातिनाम्‌ । 

मद्यपस्य च ये लोका गुरुदाररतस्य च ।। २९ |। 

ब्रह्मस्वहारिणश्रैव राजपिण्डापहारिण: | 

शरणागतं च त्यजतो याचमानं तथा घ्नत: ॥। ३० ।। 

अगारदाहिनां चैव ये च गां निघ्नतामपि । 

अपकारिणां च ये लोका ये च ब्रह्मद्धिषामपि ।। ३१ ।। 

स्वभार्यामृतुकालेषु मोहाद्‌ वै नाभिगच्छताम्‌ । 

श्राद्धमैथुनिकानां च ये चाप्यात्मापहारिणाम्‌ ।। ३२ ।। 

न्यासापहारिणां ये च श्रुतं नाशयतां च ये । 

क्लीबेन युध्यमानानां ये च नीचानुसारिणाम्‌ ।। ३३ ।। 

नास्तिकानां च ये लोका येडग्निमातृपितृत्यजाम्‌ । 

(सस्यमाक्रमतां ये च प्रत्यादित्यं प्रमेहताम्‌ ।) 

तानाप्नुयामहे लोकान्‌ ये च पापकृतामपि ।। ३४ ।। 

यद्यहत्वा वयं युद्धे निवर्तेम धनंजयम्‌ | 

तेन चाभ्यर्दितास्त्रासादू भवेम हि पराड्मुखा: ।। ३५ ।। 

“यदि हमलोग अर्जुनको युद्धमें मारे बिना लौट आवें अथवा उनके बाणोंसे पीड़ित हो 
भयके कारण युद्धसे पराड्मुख हो जायेँ तो हमें वे ही पापमय लोक प्राप्त हों, जो व्रतका 
पालन न करनेवाले, ब्रह्महत्यारे, मद्य पीनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, ब्राह्मणके धनका अपहरण 
करनेवाले, राजाकी दी हुई जीविकाको छीन लेनेवाले, शरणागतको त्याग देनेवाले, 
याचकको मारनेवाले, घरमें आग लगानेवाले, गोवध करनेवाले, दूसरोंकी बुराईमें लगे 
रहनेवाले, ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाले, ऋतुकालमें भी मोहवश अपनी पत्नीके साथ समागम 
न करनेवाले, श्राद्धके दिन मैथुन करनेवाले, अपनी जाति छिपानेवाले, धरोहरको हड़प 
लेनेवाले, अपनी प्रतिज्ञा तोड़नेवाले, नपुंसकके साथ युद्ध करनेवाले, नीच पुरुषोंका संग 
करनेवाले, ईश्वर और परलोकपर विश्वास न करनेवाले, अग्नि, माता और पिताकी सेवाका 
परित्याग करनेवाले, खेतीको पैरोंसे कुचलकर नष्ट कर देनेवाले, सूर्यकी ओर मुँह करके 
मूत्र॒त्याग करनेवाले तथा पापपरायण पुरुषोंको प्राप्त होते हैं | २९--३५ ।। 

यदि त्वसुकरं लोके कर्म कुर्याम संयुगे । 

इष्टॉल्लोकान प्राप्रुयामो वयमद्य न संशय: ।। ३६ ।। 

“यदि आज हम युद्धमें अर्जुनको मारकर लोकमें असम्भव माने जानेवाले कर्मको भी 
कर लेंगे तो मनोवांछित पुण्यलोकोंको प्राप्त करेंगे, इसमें संशय नहीं है” || ३६ ।। 

एवमुकक्‍्त्वा तदा राजंस्ते<भ्यवर्तन्त संयुगे । 


आह्वयन्तोडर्जुनं वीरा: पितृजुष्टां दिशं प्रति । ३७ ।। 

राजन! ऐसा कहकर वे वीर संशप्तकगण उस समय अर्जुनको ललकारते हुए 
युद्धस्थलमें दक्षिण दिशाकी ओर जाकर खड़े हो गये || ३७ ।। 

आहूतस्तैर्नरिव्याप्रै: पार्थ: परपुरंजय: । 

धर्मराजमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत्‌ ।। ३८ ।। 

उन पुरुषसिंह संशप्तकोंद्वारा ललकारे जानेपर शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले 
कुन्तीकुमार अर्जुन तुरंत ही धर्मराज युधिष्ठटिरसे इस प्रकार बोले-- ।। ३८ ।। 

आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम्‌ । 

संशप्तकाश्न मां राजन्नाह्नयन्ति महामूथे ।। ३९ ।। 

राजन! मेरा यह निश्चित व्रत है कि यदि कोई मुझे युद्धके लिये बुलाये तो मैं पीछे नहीं 
हटूँगा। ये संशप्तक मुझे महायुद्धमें बुला रहे हैं || ३९ ।। 

एष च भ्रातृभि: सार्थ सुशर्मा55ह्वयते रणे । 

वधाय सगणपस्यास्य मामनुज्ञातुमरहसि ।। ४० ।। 

“यह सुशर्मा अपने भाइयोंके साथ आकर मुझे युद्धके लिये ललकार रहा है, अतः 
गणोंसहित इस सुशर्माका वध करनेके लिये मुझे आज्ञा देनेकी कृपा करें || ४० ।। 

नैतच्छक्नोमि संसोदुमाद्दानं पुरुषर्षभ । 

सत्यं ते प्रतिजानामि हतान्‌ विद्धि परान्‌ युधि ॥। ४१ ।। 

'पुरुषप्रवर! मैं शत्रुओंकी यह ललकार नहीं सह सकता। आपसे सच्ची प्रतिज्ञापूर्वक 
कहता हूँ कि इन शत्रुओंको युद्धमें मारा गया ही समझिये” ।। ४१ ।। 

युधिषछ्िर उवाच 


श्रुतं ते तत्त्वतस्तात यद्‌ द्रोणस्य चिकीर्षितम्‌ । 

यथा तदनृतं तस्य भवेत्‌ तत्‌ त्वं समाचर || ४२ ।। 

युधिष्ठिर बोले--तात! द्रोणाचार्य क्या करना चाहते हैं, यह तो तुमने अच्छी तरह सुन 
ही लिया होगा। उनका वह संकल्प जैसे भी झूठा हो जाय, वही तुम करो || ४२ ।। 

द्रोणो हि बलवाउछूर: कृतास्त्रश्न जितश्रम: । 

प्रतिज्ञातं च तेनैतद्‌ ग्रहणं मे महारथ ।। ४३ ।। 

महारथी वीर! आचार्य द्रोण बलवान, शौर्यसम्पन्न और अस्त्रविद्यामें निपुण हैं, उन्होंने 
परिश्रमको जीत लिया है तथा वे मुझे पकड़कर दुर्योधनके पास ले जानेकी प्रतिज्ञा कर चुके 
हैं ।। ४३ ।। 

अजुन उवाच 
अयं वै सत्यजिद्‌ राजन्नद्य त्वां रक्षिता युधि | 
प्रियमाणे च पाज्चाल्ये नाचार्य: काममाप्स्यति ।। ४४ ।। 


अर्जुन बोले--राजन! ये पांचालराजकुमार सत्यजित्‌ आज युद्धस्थलमें आपकी रक्षा 
करेंगे। इनके जीते-जी आचार्य अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सकेंगे || ४४ ।। 

हते तु पुरुषव्याप्रे रणे सत्यजिति प्रभो । 

सर्वैरपि समेतैर्वा न स्थातव्यं कथंचन ।। ४५ ।। 

प्रभो! यदि पुरुषसिंह सत्यजित्‌ रणभूमिमें वीरगतिको प्राप्त हो जायँ तो आप सब 
लोगोंके साथ होनेपर भी किसी तरह युद्धभूमिमें न ठहरियेगा || ४५ ।। 

संजय उवाच 

अनुज्ञातस्ततो राज्ञा परिष्वक्तश्व फाल्गुन: | 

प्रेम्णा दृष्टश्च॒ बहुधा ह्याशिषश्चास्य योजिता: ।। ४६ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तब राजा युधिष्ठिरने अर्जुनको जानेकी आज्ञा दे दी और 
उनको हृदयसे लगा लिया। प्रेमपूर्वक उन्हें बार-बार देखा और आशीर्वाद दिया ।। ४६ ।। 

विहायैनं ततः पार्थस्त्रिगर्तान्‌ प्रत्ययाद्‌ बली । 

क्षुधित: क्षुद्विघातार्थ सिंहो मृगगणानिव ।। ४७ ।। 

तदनन्तर बलवान कुन्तीकुमार अर्जुन राजा युधिष्ठिरको वहीं छोड़कर त्रिगर्तोंकी ओर 
बढ़े, मानो भूखा सिंह अपनी भूख मिटानेके लिये मृगोंके झुंडकी ओर जा रहा हो ।। ४७ ।। 

ततो दौर्योधनं सैन्यं मुदा परमया युतम्‌ | 

ऋतेडर्जुनं भृशं क्रुद्धं धर्मराजस्य निग्रहे || ४८ ।। 

तब दुर्योधनकी सेना बड़ी प्रसन्नताके साथ अर्जुनके बिना राजा युधिष्ठिरको कैद 
करनेके लिये अत्यन्त क्रोधपूर्वक प्रयत्न करने लगी || ४८ ।। 

ततोडचन्योन्येन ते सैन्ये समाजग्मतुरोजसा । 

गड्भासरय्वौ वेगेन प्रावषीवोल्बणोदके ।। ४९ ।। 

तत्पश्चात्‌ दोनों सेनाएँ बड़े वेगसे परस्पर भिड़ गयीं, मानो वर्षा-ऋतुमें जलसे लबालब 
भरी हुई गंगा और सरयू वेगपूर्वक आपसमें मिल रही हों || ४९ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि धनंजययाने सप्तदशो<ध्याय: ।। 
१७ |। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें अर्जुनकी रणयात्राविषयक 
सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६ श्लोक मिलाकर कुल ५०३ श्लोक हैं।) 


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अष्टादशो< ध्याय: 


संशप्तक-सेनाओंके साथ अर्जुनका युद्ध और सुधन्वाका 
वध 


संजय उवाच 

ततः संशप्तका राजन्‌ समे देशे व्यवस्थिता: । 

व्यूह्वानीकं रथैरेव चन्द्राकारं मुदा युता: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर संशप्तक योद्धा रथोंद्वारा ही सेनाका चन्द्राकार 
व्यूह बनाकर समतल प्रदेशमें प्रसन्नतापूर्वक खड़े हो गये ।। १ ।। 

ते किरीटिनमायान्तं दृष्टवा हर्षेण मारिष । 

उदक्रोशन्‌ नरव्याप्रा: शब्देन महता तदा ॥। २ ।। 

आर्य! किरीटधारी अर्जुनको आते देख पुरुषसिंह संशप्तक हर्षपूर्वक बड़े जोर-जोरसे 
गर्जना करने लगे ।। 

स शब्द: प्रदिश: सर्वा दिश: खं च समावृणोत्‌ । 

आवृतत्वाच्च लोकस्य नासीतू तत्र प्रतिस्वन: ।। ३ ।। 

उस सिंहनादने सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं तथा आकाशको व्याप्त कर लिया। इस 
प्रकार सम्पूर्ण लोक व्याप्त हो जानेसे वहाँ दूसरी कोई प्रतिध्वनि नहीं होती थी ।। 

सो$तीव सम्प्रहृष्टांस्तानुपलभ्य धनंजय: । 

किंचिदश्युत्स्मयन्‌ कृष्णमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। ४ ।। 

अर्जुनने उन सबको अत्यन्त हर्षमें भरा हुआ देख किंचित्‌ मुसकराते हुए भगवान्‌ 
श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा-- ।। ४ ।। 

पश्यैतान्‌ देवकीमातर्मुमूर्षूनद्य संयुगे । 

्रातृस्त्रैगर्तकानेवं रोदितव्ये प्रहर्षितान्‌ ।। ५ ।। 

“देवकीनन्दन! देखिये तो सही, ये त्रिगर्तदेशीय सुशर्मा आदि सब भाई मृत्युके निकट 
पहुँचे हुए हैं। आज युद्धस्थलमें जहाँ इन्हें रोना चाहिये, वहाँ ये हर्षसे उछल रहे हैं ।। ५ ।। 

अथवा हर्षकालो<यं त्रैगर्तानामसंशयम्‌ । 

कुनरैर्दुरवापान्‌ हि लोकान  प्राप्स्यन्त्यनुत्तमान्‌ ।। ६ ।। 

“अथवा इसमें संदेह नहीं कि यह इन त्रिगर्तोंके लिये हर्षका ही अवसर है; क्योंकि ये 
उन परम उत्तम लोकोंमें जायँगे, जो दुष्ट मनुष्योंके लिये दुर्लभ हैं! || ६ ।। 

एवमुक्‍त्वा महाबाहुर्ईषीकेशं ततोड<र्जुन: । 

आससाद रणे व्यूढां त्रिगर्तानामनीकिनीम्‌ ।। ७ ।। 


भगवान्‌ हृषीकेशसे ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुनने युद्धमें त्रिगर्तोंकी व्यूहाकार खड़ी 
हुई सेनापर आक्रमण किया ।। ७ ।। 

स देवदत्तमादाय शड्खं हेमपरिष्कृतम्‌ 

दध्मौ वेगेन महता घोषेणापूरयन्‌ दिश: ।। ८ ।। 

उन्होंने सुवर्णजटित देवदत्त नामक शंख लेकर उसकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाओंको 
परिपूर्ण करते हुए उसे बड़े वेगसे बजाया ।। ८ ।। 

तेन शब्देन वित्रस्ता संशप्तकवरूथिनी । 

विचेष्टावस्थिता संख्ये हश्मसारमयी यथा ।। ९ ।। 

उस शंखनादसे भयभीत हो वह संशप्तक-सेना युद्धभूमिमें लोहेकी प्रतिमाके समान 
निश्चेष्ठट खड़ी हो गयी ।। ९ ।। 

(सा सेना भरतश्रेष्ठ निश्चेष्ठा शुशुभे तदा । 

चित्र पटे यथा न्यस्ता कुशलै: शिल्पिभिनरिे: ।। 

भरतश्रेष्ठ! वह निनश्वेष्ट हुई सेना ऐसी सुशोभित हुई, मानो कुशल कलाकारोंद्वारा 
चित्रपटमें अंकित की गयी हो। 

स्वनेन तेन सैन्यानां दिवमावृण्वता तदा । 

सस्वना पृथिवी सर्वा तथैव च महोदधि: ।। 

स्वनेन सर्वसैन्यानां कर्णास्तु बधिरीकृता: ।) 

सम्पूर्ण आकाशमें फैले हुए उस शंखनादने समूची पृथ्वी और महासागरको भी 
प्रतिध्वनित कर दिया। उस ध्वनिसे सम्पूर्ण सैनिकोंके कान बहरे हो गये। 

वाहास्तेषां विवृत्ताक्षा: स्तब्धकर्णशिरोधरा: । 

विष्टब्धचरणा मूत्र रुधिरं च प्रसुखुवु: ।। १० ।॥। 

उनके घोड़े आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। उनके कान और गर्दन स्तब्ध हो गये, 
चारों पैर अकड़ गये और वे मूत्रके साथ-साथ रुधिरका भी त्याग करने लगे || १० ।। 

उपलभ्य तत: संज्ञामवस्थाप्य च वाहिनीम्‌ । 

युगपत्‌ पाण्डुपुत्राय चिक्षिपु: कड्कपत्रिण: ।। ११ || 

थोड़ी देरमें चेत होनेपर संशप्तकोंने अपनी सेनाको स्थिर किया और एक साथ ही 
पाण्डुपुत्र अर्जुनपर कंकपक्षीकी पाँखवाले बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। 

तान्यर्जुन: सहस्राणि दशपञ्चभिराशुगै: । 

अनागतान्येव शरैश्निच्छेदाशु पराक्रमी ।। १२ ।। 

परंतु पराक्रमी अर्जुनने पंद्रह शीघ्रगामी बाणोंद्वारा उनके सहस्रों बाणोंको अपने पास 
आनेसे पहले ही शीघ्रतापूर्वक काट डाला ।। १२ ।। 

ततोर्ड्जुनं शितैर्बाणर्दशभिर्दशभि: पुनः । 

प्राविध्यन्त ततः पार्थस्तानविध्यत्‌ त्रिभिस्त्रिभि: ।। १३ ।। 


तदनन्तर संशप्तकोंने दस-दस तीखे बाणोंसे पुनः अर्जुनको बींध डाला, यह देख उन 
कुन्तीकुमारने भी तीन-तीन बाणोंसे संशप्तकोंको घायल कर दिया ।। १३ ।। 

एकैकस्तु ततः पार्थ राजन्‌ विव्याध पठ्चभि: । 

सच तान्‌ प्रतिविव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमी ।। १४ ।। 

राजन! फिर उनमेंसे एक-एक योद्धाने अर्जुनको पाँच-पाँच बाणोंसे बींध डाला और 
पराक्रमी अर्जुनने भी दो-दो बाणोंद्वारा उन सबको घायल करके तुरंत बदला 
चुकाया ।। १४ ।। 

भूय एव तु संक्रुद्धास्त्वर्जुन॑ सहकेशवम्‌ । 

आपूरयन्‌ शरैस्तीक्ष्णैस्तडागमिव वृष्टिभि: ।। १५ ।। 

तत्पश्चात्‌ अत्यन्त कुपित हो संशप्तकोंने पुनः श्रीकृष्णसहित अर्जुनको पैने बाणोंद्वारा 
उसी प्रकार परिपूर्ण करना आरम्भ किया, जैसे मेघ वर्षाद्वारा सरोवरको पूर्ण करते 
हैं ।। १५ ।। 

ततः शरसहस्राणि प्रापतन्नर्जुनं प्रति । 

भ्रमराणामिव व्राता: फुल्लं द्रमगणं वने ।। १६ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनपर एक ही साथ हजारों बाण गिरे, मानो वनमें फूले हुए वृक्षपर भौंरोंके 
समूह आ गिरे हों ।। १६ ।। 

ततः सुबाहुस्त्रिंशद्धिरद्रिसारमयै: शरै: । 

अविध्यदिषुभिग्गाढं किरीटे सव्यसाचिनम्‌ ।। १७ ।। 

तदनन्तर सुबाहुने लोहेके बने हुए तीस बाणोंद्वारा अर्जुनके किरीटमें गहरा आघात 
किया ।। १७ |। 

तैः किरीटी किरीटस्थैहेमपुड्खैरजिद्ागै: । 

शातकुम्भमयापीडो बभौ सूर्य इवोत्थित: ।। १८ ।। 

सोनेके पंखोंसे युक्त सीधे जानेवाले वे बाण उनके किरीटमें चारों ओरसे धँस गये। उन 
बाणोंद्वारा किरीटधारी अर्जुनकी वैसी ही शोभा हुई जैसे स्वर्णमय मुकुटसे मण्डित भगवान्‌ 
सूर्य उदित एवं प्रकाशित हो रहे हों || १८ ।। 

हस्तावापं सुबाहोस्तु भल्लेन युधि पाण्डव: । 

चिच्छेद तं चैव पुन: शरवर्षैरवाकिरत्‌ ।। १९ ।। 

तब पाण्डुनन्दन अर्जुनने भल्लका प्रहार करके युद्धमें सुबाहुके दस्तानेकी काट दिया 
और उसके ऊपर पुनः बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। १९ |। 

ततः सुशर्मा दशभि: सुरथस्तु किरीटिनम्‌ | 

सुधर्मा सुधनुश्वैव सुबाहुश्न समार्पयत्‌ ।। २० ।। 

यह देख सुशर्मा, सुरथ, सुधर्मा, सुधन्‍्वा और सुबाहुने दस-दस बाणोंसे किरीटधारी 
अर्जुनको घायल कर दिया || २० ।। 


तांस्तु सर्वान्‌ पृथग्बाणैर्वानरप्रवरध्वज: । 

प्रत्यविध्यद्‌ ध्वजांश्रैषां भल्लैश्वचिच्छेद सायकान्‌ ।। २१ ।। 

फिर कपिध्वज अर्जुनने भी पृथक्‌ू-पृथक्‌ बाण मारकर उन सबको घायल कर दिया। 
भल्‍्लोंद्वारा उनकी ध्वजाओं तथा सायकोंको भी काट गिराया ।। २१ ।। 

सुधन्वनो धनुश्छित्त्वा हयांश्वास्यावधीच्छरै: । 

अथास्य सशिरस्त्राणं शिर: कायादपातयत्‌ ॥। २२ ।। 

सुधन्वाका धनुष काटकर उसके घोड़ोंको भी बाणोंसे मार डाला। फिर शिरस्त्राणसहित 
उसके मस्तकको भी काटकर धड़से नीचे गिरा दिया || २२ ।। 

तस्मिन्निपतिते वीरे त्रस्तास्तस्य पदानुगा: । 

व्यद्रवन्त भयाद्‌ भीता यत्र दौर्योधनं बलम्‌ ।। २३ ।। 

वीरवर सुधन्वाके धराशायी हो जानेपर उसके अनुगामी सैनिक भयभीत हो गये, वे 
भयके मारे वहीं भाग गये, जहाँ दुर्योधनकी सेना थी || २३ ।। 

ततो जघान संक्रुद्धो वासविस्तां महाचमूम्‌ । 

शरजालैरविच्छिन्नैस्तम: सूर्य इवांशुभि: ॥। २४ ।। 






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तब क्रोधमें भरे हुए इन्द्रकुमार अर्जुनने बाणसमूहोंकी अविच्छिन्न वर्षा करके उस 
विशाल वाहिनीका उसी प्रकार संहार आरम्भ किया, जैसे सूर्यदेव अपनी किरणोंद्वारा महान्‌ 
अन्धकारका नाश करते हैं || २४ ।। 
ततो भग्ने बले तस्मिन्‌ विप्रलीने समन्ततः । 
सव्यसाचिनि संक्रुद्धे त्रैगर्तानू भयमाविशत्‌ ।। २५ ।। 


तदनन्तर जब संशप्तकोंकी सारी सेना भागकर चारों ओर छिप गयी और सव्यसाची 
अर्जुन अत्यन्त क्रोधमें भर गये, तब उन त्रिगर्तदेशीय योद्धाओंके मनमें भारी भय समा 
गया ।। २५ |। 

ते वध्यमाना: पार्थेन शरै: संनतपर्वभि: । 

अमुहांस्तत्र तत्रैव त्रस्ता मृगगणा इव ।॥। २६ ।। 

अर्जुनके झुकी हुई गाँठवाले बाणोंकी मार खाकर वे सभी सैनिक वहाँ भयभीत 
मृगोंकी भाँति मोहित हो गये ।। 

ततल्त्रिगर्तराट्‌ क्रुद्धस्तानुवाच महारथान्‌ | 

अलं द्रुतेन वः शूरा न भयं कर्तुमरहथ ।। २७ ।। 

तब क्रोधमें भरे हुए त्रिगर्तरजने अपने उन महारथियोंसे कहा--'शूरवीरो! भागनेसे 
कोई लाभ नहीं है। तुम भय न करो || २७ ।। 

शप्त्वाथ शपथानू्‌ घोरान्‌ सर्वसैन्यस्य पश्यत: । 

गत्वा दौर्योधनं सैन्यं कि वै वक्ष्यथ मुख्यश: ।। २८ ।। 

“सारी सेनाके सामने भयंकर शपथ खाकर अब यदि दुर्योधनकी सेनामें जाओगे तो तुम 
सभी श्रेष्ठ महारथी क्या जवाब दोगे? ।। २८ ।। 

नावहास्या: कथ॑ं लोके 

कर्मणानेन संयुगे । 
भवेम सहिता: सर्वे 
निवर्तध्वं यथाबलम्‌ ।॥। २९ ।। 

“हमें युद्धमें ऐसा कर्म करके किसी प्रकार संसारमें उपहासका पात्र नहीं बनना चाहिये। 
अतः तुम सब लोग लौट आओ । हमें यथाशक्ति एक साथ संगठित होकर युद्धभूमिमें डटे 
रहना चाहिये” ।। २९ ।। 

एवमुक्तास्तु ते राजन्नुदक्रोशन्‌ मुहुर्मुहुः । 

शड्खांश्व॒ दश्मिरे वीरा हर्षयन्त: परस्परम्‌ ।। ३० ।। 

राजन! त्रिगर्तराजके ऐसा कहनेपर वे सभी वीर बारंबार गर्जना करने और एक-दूसरेमें 
हर्ष एवं उत्साह भरते हुए शंख बजाने लगे ।। ३० ।। 

ततस्ते संन्यवर्तन्त संशप्तकगणा: पुन: । 

नारायणाश्च गोपाला मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्‌ ।। ३१ ।। 

तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेनाके ग्वाले मृत्युको ही युद्धसे निवृत्तिका 
अवसर मानकर पुन: लौट आये ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि सुधन्ववधे अष्टादशो 5 ध्याय: ।। 
१८ || 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें सुधन्वाका वधविषयक 
अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १८ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ३३३ “लोक हैं।) 


न२्््स्नितास्स श््यु नी नल 


एकोनविशो< ध्याय: 
संशप्तकगणोंके साथ अर्जुनका घोर युद्ध 


संजय उवाच 

दृष्टवा तु संनिवृत्तांस्तान्‌ संशप्तकगणान्‌ पुनः । 

वासुदेवं महात्मानमर्जुन: समभाषत ।। १ || 

संजय कहते हैं--राजन्‌! उन संशप्तकगणोंको पुनः लौटा हुआ देख अर्जुनने महात्मा 
श्रीकृष्णसे कहा-- ।। 

चोदयाश्वान्‌ हृषीकेश संशप्तकगणानू्‌ प्रति | 

नैते हास्यन्ति संग्रामं जीवन्त इति मे मति: ।। २ ।। 

“हृषीकेश! घोड़ोंको इन संशप्तकगणोंकी ओर ही बढ़ाइये। मुझे ऐसा जान पड़ता है, ये 
जीते-जी रणभूमिका परित्याग नहीं करेंगे || २ ।। 

पश्य मे<स्त्रबलं घोर बाह्वदोरिष्वसनस्य च | 

अद्यैतान्‌ पातयिष्यामि क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव ।। ३ ।। 

“आज आप मेरे अस्त्र, भुजाओं और धनुषका बल देखिये। क्रोधमें भरे हुए रुद्रदेव जैसे 
पशुओं (जगतके जीवों) का संहार करते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन्हें मार गिराऊँगा' ।। 

ततः कृष्ण: स्मितं कृत्वा प्रतिनन्द्य शिवेन तम्‌ । 

प्रावेशयत दुर्धर्षो यत्र यत्रैच्छदर्जुन: ।। ४ ।। 

तब श्रीकृष्णने मुसकराकर अर्जुनकी मंगलकामना करते हुए उनका अभिनन्दन किया 
और दुर्धर्ष वीर अर्जुनने जहाँ-जहाँ जानेकी इच्छा की, वहीं-वहीं उस रथको पहुँचाया ।। 

स रथो भ्राजते>त्यर्थमुह्यामानो रणे तदा । 

उह्यूमानमिवाकाशे विमान पाण्डुरैरहयै: ।। ५ ।। 

रणभूमिमें श्वेत घोड़ोंद्वारा खींचा जाता हुआ वह रथ उस समय आकाशमें उड़नेवाले 
विमानके समान अत्यन्त शोभा पा रहा था ॥। ५ ।। 

मण्डलानि ततक्षुक्रे गतप्रत्यागतानि च । 

यथा शक्ररथो राजन्‌ युद्धे देवासुरे पुरा । ६ ।। 

राजन! पूर्वकालमें देवताओं और असुरोंके संग्राममें इन्द्रका रथ जिस प्रकार चलता था, 
उसी प्रकार अर्जुनका रथ भी कभी आगे बढ़कर और कभी पीछे हटकर मण्डलाकार 
गतिसे घूमने लगा ।। ६ ।। 

अथ नारायणा: क्रुद्धा विविधायुधपाणय: । 

छादयन्त: शरव्रातै: परिवद्रुर्धन॑जयम्‌ ।। ७ ।। 


तब क्रोधमें भरे हुए नारायणीसेनाके गोपोंने हाथोंमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर 
अर्जुनको अपने बाण-समूहोंसे आच्छादित करते हुए उन्हें चारों ओरसे घेर लिया ।। 

अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ । 

कृष्णेन सहित युद्धे कुन्तीपुत्रं धनंजयम्‌ ॥। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ीमें श्रीकृष्णसहित कुन्तीकुमार अर्जुनको युद्धमें अदृश्य 
कर दिया ।। ८ ।। 

क्रुद्धस्तु फाल्गुन: संख्ये द्विगुणीकृतविक्रम: । 

गाण्डीवं धनुरामृज्य तूर्ण जग्राह संयुगे ।। ९ ।। 

तब अर्जुनने कुपित होकर युद्धमें अपना द्विगुण पराक्रम प्रकट करते हुए गाण्डीव 
धनुषको सब ओरसे पोंछकर उसे तुरंत हाथमें लिया ।। ९ ।। 

बद्ध्वा च भ्रुकुटिं वक्रे क्रोधस्य प्रतिलक्षणम्‌ । 

देवदत्तं महाशड्खं पूरयामास पाण्डव: ।। १० |। 

फिर पाण्डुकुमारने भौंहें टेढ़ी करके क्रोधको सूचित करनेवाले अपने महान्‌ शंख 
देवदत्तको बजाया ।। 

अथास्त्रमरिसंघष्न॑ त्वाष्ट्रम भ्यस्यदर्जुन: । 

ततो रूपसहस्राणि प्रादुरासन्‌ पृथक्‌ पृथक्‌ ।। ११ ।। 

तदनन्तर अर्जुनने शत्रुसमूहोंका नाश करनेवाले त्वाष्ट नामक अस्त्रका प्रयोग किया। 
फिर तो उस अस्त्रसे सहस्रों रूप पृथक्‌-पृथक्‌ प्रकट होने लगे ।। ११ ।। 

आत्मन: प्रतिरूपैस्तैर्नानारूपैरविमोहिता: । 

अन्योन्येनार्जुनं मत्वा स्वमात्मानं च जध्निरे || १२ ।। 

अपने ही समान आकृतिवाले उन नाना रूपोंसे मोहित हो वे एक-दूसरेको अर्जुन 
मानकर अपने तथा अपने ही सैनिकोंपर प्रहार करने लगे ।। १२ ।। 

अयमर्जुनो<यं गोविन्द इमौ पाण्डवयादवौ । 

इति ब्रुवाणा: सम्मूढा जध्नुरन्योन्यमाहवे ।। १३ ।। 

ये अर्जुन हैं, ये श्रीकृष्ण हैं, ये दोनों अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं--इस प्रकार बोलते हुए वे 
मोहाच्छन्न हो युद्धमें एक-दूसरेपर आघात करने लगे ।। १३ ।। 

मोहिता: परमास्त्रेण क्षयं जग्मु: परस्परम्‌ । 

अशोभन्त रणे योधा: पुष्पिता इव किंशुका: ।। १४ ।। 

उस दिव्यास्त्रसे मोहित हो वे परस्परके आघातसे क्षीण होने लगे। उस रणक्षेत्रमें समस्त 
योद्धा फूले हुए पलाश वृक्षके समान शोभा पा रहे थे ।। १४ ।। 

तत:ः शरसहस्राणि तैरविमुक्तानि भस्मसात्‌ । 

कृत्वा तदस्त्रं तान्‌ वीराननयद्‌ यमसादनम्‌ ।। १५ |। 


तत्पश्चात्‌ उस दिव्यास्त्रने संशप्तकोंके छोड़े हुए सहस्रों बाणोंको भस्म करके 
बहुसंख्यक वीरोंको यमलोक पहुँचा दिया || १५ ।। 

अथ प्रहस्य बीभत्सुर्ललित्थान्‌ मालवानपि | 

मावेल्लकांस्त्रिगर्ताश्न॒ यौधेयांक्षार्दयच्छरै: | १६ ।। 

इसके बाद अर्जुनने हँसकर ललित्थ, मालव, मावेल्लक, त्रिगर्त तथा यौधेय सैनिकोंको 
बाणोंद्वारा गहरी पीड़ा पहुँचायी || १६ ।। 

ते हन्यमाना वीरेण क्षत्रिया: कालचोदिता: । 

व्यसृजज्छरजालानि पार्थ नानाविधानि च ।। १७ ।। 

वीर अर्जुनके द्वारा मारे जाते हुए क्षत्रियगण कालसे प्रेरित हो अर्जुनके ऊपर नाना 
प्रकारके बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे || १७ ।। 

न ध्वजो नार्जुनस्तत्र न रथो न च केशव: । 

प्रत्यदृश्यत घोरेण शरवर्षेण संवृत: ।। १८ ।। 

उस भयंकर बाण-वर्षासे ढक जानेके कारण वहाँ न ध्वज दिखायी देता था, न रथ; न 
अर्जुन दृष्टिगोचर हो रहे थे, न भगवान्‌ श्रीकृष्ण || १८ ।। 

ततस्ते लब्धलक्षत्वादन्योन्यमभिचुक्रुशु: 

हतौ कृष्णाविति प्रीत्या वासांस्यादुधुवुस्तदा ।। १९ |। 

उस समय “हमने अपने लक्ष्यको मार लिया” ऐसा समझकर वे एक-दूसरेकी ओर 
देखते हुए चोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन मारे गये--ऐसा 
सोचकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने कपड़े हिलाने लगे ॥। १९ |। 

भेरीमृदड्शशड्खांश्व दध्मुर्वीरा: सहस्रश: । 

सिंहनादरवांक्षोग्रांक्ष॒क्रिरे तत्र मारिष ।। २० || 

आर्य! वे सहस्रों वीर वहाँ भेरी, मृदंग और शंख बजाने तथा भयानक सिंहनाद करने 
लगे ।। २० ।। 

ततः प्रसिष्विदे कृष्ण: खिन्नश्नार्जुनमब्रवीत्‌ । 

क्वासि पार्थ न पश्ये त्वां कच्चिज्जीवसि शत्रुहन्‌ । २१ ।। 

उस समय श्रीकृष्ण पसीने-पसीने हो गये और खिन्न होकर अर्जुनसे बोले--'पार्थ! 
कहाँ हो। मैं तुम्हें देख नहीं पाता हूँ। शत्रुओंका नाश करनेवाले वीर! कया तुम जीवित 
हो?” ।। २१ ।। 

तस्य तद्‌ भाषितं श्रुत्वा त्वरमाणो धनंजय: । 

वायव्यास्त्रेण तैरस्तां शरवृष्टिमपाहरत्‌ ।। २२ ।। 

श्रीकृष्णका वह वचन सुनकर अर्जुनने बड़ी उतावलीके साथ वाययव्यास्त्रका प्रयोग 
करके शत्रुओंद्वारा की हुई उस बाण-वर्षाको नष्ट कर दिया || २२ ।। 

ततः संशप्तकव्रातान्‌ साश्वद्विपरथायुधान्‌ । 


उवाह भगवान्‌ वायु: शुष्कपर्णचयानिव ।। २३ ।। 
तदनन्तर भगवान्‌ वायुदेवने घोड़े, हाथी, रथ और आयुधोंसहित संशप्तकसमूहोंको 
वहाँसे सूखे पत्तोंके ढेरकी भाँति उड़ाना आरम्भ किया ।। २३ ।। 


न्क्हा पट प्टतचत, ह्च्प्ट्ण्स्प्प पता 
/ बन हर के "23 ८: न्टाप्यत- 








५ ५ 


३७ 


“ले ६३७. जी 


उह्मानास्तु ते राजन्‌ बह्नबशोभन्त वायुना | 

प्रडीना: पक्षिण: काले वृक्षेभ्य इव मारिष ।। २४ ।। 

माननीय महाराज! वायुके द्वारा उड़ाये जाते हुए वे सैनिक समय-समयपर वृक्षोंसे 
उड़नेवाले पक्षियोंके समान शोभा पा रहे थे || २४ ।। 

तांस्तथा व्याकुलीकृत्य त्वरमाणो धनंजय: । 

जघान निशितैर्बाणै: सहस्राणि शतानि च ।। २५ ।। 

उन सबको व्याकुल करके अर्जुन अपने पैने बाणोंसे शीघ्रतापूर्वक उनके सौ-सौ और 
हजार-हजार योद्धाओंका एक साथ संहार करने लगे ।। २५ ।। 

शिरांसि भल्लैरहरद्‌ बाहूनपि च सायुधान्‌ । 

हस्तिहस्तोपमां श्लोरून्‌ शरैरुव्यामपातयत्‌ ।। २६ ।। 

उन्होंने भल्‍ल्लोंद्वारा उनके सिर उड़ा दिये, आयुधोंसहित भुजाएँ काट डालीं और 
हाथीकी सूँड़के समान मोटी जाँघोंको भी बाणोंद्वारा पृथ्वीपर काट गिराया || २६ ।। 

पृष्ठच्छिन्नान्‌ विचरणान्‌ बाहुपाश्वेक्षणाकुलान्‌ । 

नानाड्ावयवैहीनांश्वकारारीन्‌ धनंजय: || २७ ।। 


7, /' ५५ हैः 
| /' ॥ | | ॥॥ । | 


(( 


धनंजयने शत्रुओंको शरीरके अनेक अंगोंसे विहीन कर दिया। किन्हींकी पीठ काट ली 
तो किन्हींके पैर उड़ा दिये। कितने ही सैनिक बाहु, पसली और नेत्रोंसे वंचित होकर व्याकुल 
हो रहे थे || २७ ।। 

गन्धर्वनगराकारान्‌ विधिवत्कल्पितान्‌ रथान्‌ | 

शरैविशकलीकुर्वश्रक्रे व्यश्वरथद्विपान्‌ ।। २८ ।। 

उन्होंने गन्धर्वनगरोंके समान प्रतीत होनेवाले और विधिवत्‌ सजे हुए रथोंके अपने 
बाणोंद्वारा टुकड़े-टुकड़े कर दिये और शत्रुओंको हाथी, घोड़े एवं रथोंसे वंचित कर 
दिये || २८ ।। 

मुण्डतालवनानीव तत्र तत्र चकाशिरे । 

छिन्ना रथध्वजव्राता: केचित्तत्र क्वचित्‌ क्वचित्‌ ।। २९ ।। 

वहाँ कहीं-कहीं रथवर्ती ध्वजोंके समूह ऊपरसे कट जानेके कारण मुण्डित तालवनोंके 
समान प्रकाशित हो रहे थे || २९ ।। 

सोत्तरायुधिनो नागा: सपताकाड्कुशध्वजा: । 

पेतु: शक्राशनिहता द्रुमवन्त इवाचला: ।। ३० ।। 

पताका, अंकुश और ध्वजोंसे विभूषित गजराज वहाँ इन्द्रके वज्ञसे मारे हुए वृक्षयुक्त 
पर्वतोंके समान ऊपर चढ़े हुए योद्धाओंसहित धराशायी हो गये || ३० ।। 

चामरापीडकवचा: स्रस्तान्त्रनयनास्तथा । 

सारोहास्तुरगा: पेतु: पार्थबाणहता: क्षितौ ।। ३१ |। 

चामर, माला और कवचोंसे युक्त बहुत-से घोड़े अर्जुनके बाणोंसे मारे जाकर 
सवारोंसहित धरतीपर पड़े थे। उनकी आँतें और आँखें बाहर निकल आयी थीं ।। 

विप्रविद्धासिनखराश्शकिन्नवर्मष्टि शक्तय: । 

पत्तयश्कछिन्नवर्माण: कृपणा: शेरते हता: ।। ३२ ।। 

पैदल सैनिकोंके खड़्ग एवं नखर कटकर गिरे हुए थे। कवच, ऋष्टि और शक्तियोंके 
टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। कवच कट जानेसे अत्यन्त दीन हो वे मरकर पृथ्वीपर पड़े 
थे ।। ३२ ।। 

तैर्हतैर्हन्यमानैश्व पतद्धिः पतितैरपि । 

भ्रमद्धिर्निष्टनद्धिश्व क्र्रमायोधनं बभौ ।। ३३ ।। 

कितने ही वीर मारे गये थे और कितने ही मारे जा रहे थे। कुछ गिर गये थे और कुछ 
गिर रहे थे। कितने ही चक्कर काटते और आघात करते थे। इन सबके द्वारा वह युद्धस्थल 
अत्यन्त क़्रूरतापूर्ण जान पड़ता था ।। ३३ ।। 

रजश्व सुमहज्जातं शान्तं रुधिरवृष्टिभि: । 

मही चाप्यभवद्‌ दुर्गा कबन्धशतसंकुला ।। ३४ ।। 


रक्तकी वर्षसे वहाँकी उड़ती हुई भारी धूलराशि शान्त हो गयी और सैकड़ों कबन्धों 
(बिना सिरकी लाशों)-से आच्छादित होनेके कारण उस भूमिपर चलना कठिन हो 
गया ।। ३४ ।। 

तद्‌ बभौ रौद्रबी भत्सं बीभत्सोर्यानमाहवे । 

आक्रीडमिव रुद्रस्य घ्नत: कालात्यये पशून्‌ ।। ३५ ।। 

रणक्षेत्रमें अर्जुनका वह भयंकर एवं बीभत्स रथ प्रलयकालमें पशुओं (जगतके जीवों) 
का संहार करनेवाले रुद्रदेवके क्रीड़ास्थल-सा प्रतीत हो रहा था ।। ३५ ।। 

ते वध्यमाना: पार्थेन व्याकुलाश्न रथद्विपा: । 

तमेवाभिमुखा: क्षीणा: शक्रस्यातिथितां गता: | ३६ ।। 

अर्जुनके द्वारा मारे जाते हुए रथ और हाथी व्याकुल होकर उन्हींकी ओर मुँह करके 
प्राणत्याग करनेके कारण इन्द्रलोकके अतिथि हो गये ।। ३६ ।। 

सा भूमिर्भरतश्रेष्ठ निहतैस्तैर्महारथै: । 

आस्तीर्णा सम्बभौ सर्वा प्रेतीभूते: समन्‍तत: ।। ३७ ।। 

भरतश्रेष्ठ! वहाँ मारे गये महारथियोंसे आच्छादित हुई वह सारी भूमि सब ओरसे 
प्रेतोंद्ारा घिरी हुई-सी जान पड़ती थी ।। ३७ ।। 

एतस्मिन्नन्तरे चैव प्रमत्ते सव्यसाचिनि । 

व्यूढानीकस्ततो द्रोणो युधिष्ठिरमुपाद्रवत्‌ ।। ३८ ।। 

जब इधर सव्यसाची अर्जुन उस युद्धमें भली प्रकार लगे हुए थे, उसी समय अपनी 
सेनाका व्यूह बनाकर द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरपर आक्रमण किया ।। ३८ ।। 

त॑ प्रत्यगृह्लंस्त्वरिता व्यूढानीका: प्रहारिण: । 

युधिष्टिरं परीप्सन्तस्तदासीत्‌ तुमुलं महत्‌ ।। ३९ ।। 

व्यूह-रचनापूर्वक प्रहार करनेमें कुशल योद्धाओंने युधिष्ठिरको पकड़नेकी इच्छासे तुरंत 
ही उनपर चढ़ाई कर दी, वह युद्ध बड़ा भयानक हुआ ।। ३९ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि अर्जुनसंशप्तकयुद्धे 
एकोनविंशो5 ध्याय: ।। १९ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वरमें अर्जुन-संशप्तक- 
युद्धविषयक उतन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १९ ॥ 


ऑपन-आक्ाा छा 2 


विशो<्ध्याय: 


द्रोणाचार्यके द्वारा गरुड़व्यूहका निर्माण, युधिष्ठिरका भय, 
धृष्टद्युम्नका आश्वासन, धृष्टद्युम्न और दुर्मुखका युद्ध तथा 
संकुल युद्धमे गजसेनाका संहार 


संजय उवाच 

परिणाम्य निशां तां तु भारद्वाजो महारथ: । 

उक्त्वा सुबहु राजेन्द्र वचनं वै सुयोधनम्‌ ।। १ ।। 

विधाय योगं पार्थेन संशप्तकगणै: सह । 

निष्क्रान्ते च तदा पार्थे संशप्तकवधध॑ं प्रति ।। २ ।। 

व्यूढानीकस्ततो द्रोण: पाण्डवानां महाचमूम्‌ । 

अभ्ययाद्‌ भरतश्रेष्ठ धर्मराजजिघृक्षया ।। ३ ।। 

संजय कहते हैं--राजेन्द्र! महारथी द्रोणाचार्यने वह रात बिताकर दुर्योधनसे बहुत 
कुछ बातें कहीं और संशप्तकोंके साथ अर्जुनके युद्धका योग लगा दिया। भरतश्रेष्ठ) फिर 
संशप्तकोंका वध करनेके लिये अर्जुन जब दूर निकल गये, तब सेनाकी व्यूहरचना करके 
धर्मराज युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये द्रोणाचार्यने पाण्डवोंकी विशाल सेनापर आक्रमण 
किया ।। १--३ ।। 

व्यूढं दृष्टवा सुपर्ण तु भारद्वाजकृतं तदा । 

व्यूहेन मण्डलार्धेन प्रत्यव्यूहद्‌ युधिष्ठिर: ।। ४ ।। 

द्रोणाचार्यके बनाये हुए गरुड़व्यूहको देखकर युधिष्ठिरने अपनी सेनाका मण्डलार्धव्यूह 
बनाया ।। ४ ।। 

मुखं त्वासीत्‌ सुपर्णस्य भारद्वाजो महारथ: । 

शिरो दुर्योधनो राजा सोदर्य: सानुगैर्व॒त: । 

चक्षुषी कृतवर्मा5डसीद्‌ गौतमश्चास्यतां वर: ।। ५ ।। 

गरुड़व्यूहमें गरुड़के मुँहके स्थानपर महारथी द्रोणाचार्य खड़े थे। शिरोभागमें भाइयों 
तथा अनुगामी सैनिकोंसहित राजा दुर्योधन उपस्थित हुआ। बाण चलानेवालोंमें श्रेष्ठ 
कृपाचार्य और कृतवर्मा उस व्यूहकी आँखके स्थानमें स्थित हुए ।। ५ ।। 

भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्न वीर्यवान्‌ | 

कलिज्जा: सिंहला: प्राच्या: शूराभीरा दशेरका: ॥। ६ ।। 

शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्न ये । 

ग्रीवायां शूरसेनाश्व दरदा मद्रकेकया: ।। ७ ।। 


गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थु: परमदंशिता: । 

भूतशर्मा, क्षेमशर्मा, पराक्रमी करकाश, कलिंग, सिंहल, पूर्वदिशाके सैनिक, शूर 
आभीरगण, दाशेरकगण, शक, यवन, काम्बोज, शूरसेन, दरद, मद्र, केकय तथा हंसपथ 
नामवाले देशोंके निवासी शूरवीर एवं हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल सैनिकोंके 
समूह उत्तम कवच धारण करके उस गरुड़के ग्रीवाभागमें खड़े थे ।। 

भूरिश्रवास्तथा शल्य: सोमदत्तश्न बाह्विक: ।॥। ८ ।। 

अक्षौहिण्या वृता वीरा दक्षिण पार्श्रमास्थिता: । 

भूरिश्रवा, शल्य, सोमदत्त तथा बाह्लिक--ये वीरगण अक्षौहिणी सेनाके साथ व्यूहके 
दाहिने पार्श्वमें स्थित थे ।। ८३ ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्बोजश्च सुदक्षिण: ।। ९ ।। 

वाम॑ पार्श्व समाश्रित्य द्रोणपुत्राग्रत: स्थिता: । 

अवन्तीके विन्द और अनुविन्द तथा काम्बोजराज सुदक्षिण--ये बायें पाश्वका आश्रय 
लेकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके आगे खड़े हुए || ९६ ।। 

पृष्ठे कलिड्भा: साम्बष्ठा मागधा: पौण्ड्रमद्रका: ।। १० ।। 

गान्धारा: शकुना: प्राच्या: पर्वतीया वसातय: । 

पृष्ठभागमें कलिंग, अम्बष्ठ, मगध, पौण्ड्र, मद्रक, गन्धार, शकुन, पूर्वदेश, पर्वतीय प्रदेश 
और वसाति आदि देशोंके वीर थे || १० $ ।। 

पुच्छे वैकर्तन: कर्ण: सपुत्रज्ञातिबान्धव: || ११ ।। 

महत्या सेनया तस्थौ नानाजनपदोत्थया । 

पुच्छभागमें अपने पुत्र, जाति-भाई तथा कुटुम्बके बन्धु-बान्धवोंसहित भिन्न-भिन्न 
देशोंकी विशाल सेना साथ लिये विकर्तनपुत्र कर्ण खड़ा था || ११३ ।। 

जयद्रथो भीमरथ: सम्पातिऋषभो जय: ।। १२ ।। 

भूमिंजयो वृषक्राथो नैषधश्च महाबल: । 

वृता बलेन महता ब्रह्मलोकपुरस्कृता: ।। १३ ।। 

व्यूहस्योरसि ते राजन्‌ स्थिता युद्धविशारदा: । 

राजन! उस व्यूहके हृदयस्थानमें जयद्रथ, भीमरथ, सम्पाति, ऋषभ, जय, भूमिंजय, 
वृषक्राथ तथा महाबली निषधराज बहुत बड़ी सेनाके साथ खड़े थे। ये सब-के-सब 
ब्रह्मलोककी प्राप्तिको लक्ष्य बनाकर लड़नेवाले तथा युद्धकी कलामें अत्यन्त निपुण 
थे ।। १२-१३ ६ ।। 

द्रोणेन विहितो व्यूह: पदात्यश्वरथद्विपै: ।। १४ ।। 

वातोद्धूतार्णवाकार: प्रवृत्त इव लक्ष्यते । 


इस प्रकार पैदल, अश्वारोही, गजारोही तथा रथियोंद्वारा आचार्य द्रोणका बनाया हुआ 
वह व्यूह वायुके झकोरोंसे उछलते हुए समुद्रके समान दिखायी देता था ।। १४३ ।। 

तस्य पक्षप्रपक्षेभ्यो निष्पतन्ति युयुत्सव: ।। १५ ।। 

सविद्युत्स्तनिता मेघा: सर्वदिग्भ्य इवोष्णगे | 

उसके पक्ष और प्रपक्ष भागोंसे युद्धकी इच्छा रखनेवाले योद्धा उसी प्रकार निकलने 
लगे, जैसे वर्षाकालमें विद्युत्से प्रकाशित गर्जते हुए मेघ सम्पूर्ण दिशाओंसे प्रकट होने लगते 
हैं ।। १५३ || 

तस्य प्राग्ज्योतिषो मध्ये विधिवत्‌ कल्पितं गजम्‌ ।। १६ ।। 

आस्थित: शुशुभे राजन्नंशुमानुदये यथा । 

राजन! उस व्यूहके मध्यभागमें विधिपूर्वक सजाये हुए हाथीपर आरूढ़ हो 
प्राग्ज्योतिषपुरके राजा भगदत्त उदयाचलपर प्रकाशित होनेवाले सूर्यदेवके समान सुशोभित 
हो रहे थे || १६३ ।। 

माल्यदामवता राजन्‌ श्वैतच्छत्रेण धार्यता ।। १७ ।। 

कृत्तिकायोगयुक्तेन पौर्णमास्यामिवेन्दुना । 

राजन! सेवकोंने राजा भगदत्तके ऊपर मुक्तामालाओंसे अलंकृत श्वेत छत्र लगा रखा 
था। उनका वह छत्र कृत्तिका नक्षत्रके योगसे युक्त पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति शोभा दे रहा 
था | १७३७ || 

नीलाञ्जनचयप्रख्यो मदान्धो द्विरदो बभौ ।। १८ ।। 

अतिदवृष्टो महामेघैर्यथा स्यात्‌ पर्वतों महान्‌ | 

राजाका काली कज्जलराशिके समान मदान्ध गजराज अपने मस्तककी मदवर्षके 
कारण महान्‌ मेघोंकी अतिवृष्टिसे आर्द्र हुए विशाल पर्वतके समान शोभा पा रहा था ।। १८ 
|| 

नानानूपतिभिवरवरिरविविधायुध भूषणै: ।। १९ ।। 

समन्वितः पर्वतीयै: शक्रो देवगणैरिव । 

जैसे इन्द्र देवगणोंसे घिरकर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार भाँति-भाँतिके आयुधों और 
आभूषणोंसे विभूषित, वीर एवं बहुसंख्यक पर्वतीय नृपतियोंसे घिरे हुए भगदत्तकी बड़ी 
शोभा हो रही थी || १९३ ।। 

ततो युधिष्छिर: प्रेक्ष्य व्यूहं तमतिमानुषम्‌ ।। २० ।। 

अजय्यमरिभि: संख्ये पार्षतं वाक्यमब्रवीत्‌ । 

ब्राह्मणस्य वशं नाहमियामद्य यथा प्रभो | 

पारावतसवर्णाश्व तथा नीतिर्विधीयताम्‌ ।। २१ ।। 


राजा युधिष्ठिरने द्रोणाचार्यके रचे हुए उस अलौकिक तथा शत्रुओंके लिये अजेय 
व्यूहको देखकर युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नसे इस प्रकार कहा--“कबूतरके समान रंगवाले 
घोड़ोंपर चलनेवाले वीर! आज तुम ऐसी नीतिका प्रयोग करो, जिससे मैं उस ब्राह्मणके 
वशमें न होऊँ' ।। 

धृष्टह्ुम्न उवाच 

द्रोणस्प यतमानस्य वशं नैष्यसि सुव्रत । 

अहमावारयिष्यामि द्रोणमद्य सहानुगम्‌ ।। २२ ।। 

धृष्टद्युम्न बोले--उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश! द्रोणाचार्य कितना ही प्रयत्न 
क्यों न करें, आप उनके वशमें नहीं होंगे। आज मैं सेवकोंसहित द्रोणाचार्यको 
रोकूँगा ।। २२ ।। 

मयि जीवति कौरव्य नोद्रेगं कर्तुमहसि । 

न हि शक्तो रणे द्रोणो विजेतुं मां कथंचन ।। २३ ।। 

कुरुनन्दन! मेरे जीते-जजी आपको किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। द्रोणाचार्य 
रणक्षेत्रमें मुझे किसी प्रकार जीत नहीं सकते | २३ ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्‍त्वा किरन्‌ बाणान्‌ द्रपदस्य सुतो बली । 

पारावतसवर्णाश्वः स्वयं द्रोणमुपाद्रवत्‌ ।। २४ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! ऐसा कहकर कबूतरके समान रंगवाले घोड़े रखनेवाले 
महाबली ट्रुपदपुत्रने बाणोंका जाल-सा बिछाते हुए स्वयं द्रोणाचार्यपर धावा किया ।। २४ ।। 

अनिष्टदर्शनं दृष्टवा धृष्टद्युम्नमवस्थितम्‌ | 

क्षणेनैवाभवद्‌ द्रोणो नातिहृष्टमना इव ।। २५ ।। 

जिसका दर्शन अनिष्टका सूचक था, उस धृष्टद्युम्नको सामने खड़ा देख द्रोणाचार्य 
क्षणभरमें अत्यन्त अप्रसन्न और उदास हो गये ।। २५ ।। 

(स हि जातो महाराज द्रोणस्य निधन प्रति । 

मर्त्यधर्मतया तस्माद्‌ भारद्वाजो व्यमुहयत ।।) 

महाराज! वह द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये पैदा हुआ था; इसलिये उसे देखकर 
मर्त्यभावका आश्रय ले द्रोणाचार्य मोहित हो गये। 

तं तु सम्प्रेक्ष्य पुत्रस्ते दुर्मुख: शत्रुकर्षण: । 

प्रियं चिकीर्षद्रोणस्य धृष्टद्युम्मनमवारयत्‌ ।। २६ ।। 

राजन! शत्रुओंका संहार करनेवाले आपके पुत्र दुर्मुखने द्रोणाचार्यको उदास देख 
धष्टद्युम्नको आगे बढ़नेसे रोक दिया। वह द्रोणाचार्यका प्रिय करना चाहता था || २६ ।। 

स सम्प्रहारस्तुमुल: सुघोर: समपद्यत । 


पार्षतस्य च शूरस्य दुर्मुखस्य च भारत ।। २७ ।। 

भरतनन्दन! उस समय शूरवीर धृष्टद्युम्न तथा दुर्मुखमें तुमुल युद्ध होने लगा, धीरे-धीरे 
उसने अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर लिया ।। २७ ।। 

पार्षत: शरजालेन क्षिप्रं प्रच्छाद्य दुर्मुखम्‌ । 

भारद्वाजं शरौघेण महता समवारयत्‌ ॥। २८ ।। 

धष्टद्युम्नने शीघ्र ही अपने बाणोंके जालसे दुर्मुखको आच्छादित करके महान्‌ 
बाणसमूहद्वारा द्रोणाचार्यको भी आगे बढ़नेसे रोक दिया || २८ ।। 

द्रोणमावारितं दृष्टवा भूशायस्तस्तवात्मज: । 

नानालिदड्जैः शरव्रातैः पार्षती सममोहयत्‌ ।। २९ ।। 

द्रोणाचार्यकोी रोका गया देख आपका पुत्र अत्यन्त प्रयत्न करके नाना प्रकारके 
बाणसमूहोंद्वारा धृष्टद्युम्मको मोहित करने लगा ।। २९ ।। 

तयोर्विषक्तयो: संख्ये पाउ्चाल्यकुरुमुख्ययो: । 

द्रोणो यौधिष्टिरं सैन्यं बहुधा व्यधमच्छरै: ।॥ ३० ।। 

वे दोनों पांचालराजकुमार और कुरुकुलके प्रधान वीर जब युद्धमें पूर्णतः आसक्त हो 
रहे थे, उसी समय द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरकी सेनाको अपनी बाण-वर्षद्वारा अनेक प्रकारसे 
तहस-नहस कर डाला ।। ३० || 

अनिलेन यथाभ्राणि विच्छिन्नानि समन्तत: । 

तथा पार्थस्य सैन्यानि विच्छिन्नानि क्वचित्‌ क्वचित्‌ ।। ३१ ।। 

जैसे वायुके वेगसे बादल सब ओरसे फट जाते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिरकी सेनाएँ भी 
कहीं-कहींसे छिन्न-भिन्न हो गयीं ।। ३१ ।। 

मुहूर्तमिव तद्‌ युद्धमासीन्मधुरदर्शनम्‌ । 

तत उन्मत्तवद्‌ राजन्‌ निर्मर्यादमवर्तत ।। ३२ ।। 

राजन! दो घड़ीतक तो वह युद्ध देखनेमें बड़ा मनोहर लगा; परंतु आगे चलकर उनमें 
पागलोंकी तरह मर्यादाशून्य मारकाट होने लगी ।। ३२ ।। 

नैव स्वे न परे राजन्नाज्ञायन्त परस्परम्‌ | 

अनुमानेन संज्ञाभियद्धं तत्‌ समवर्तत | ३३ ।। 

नरेश्वरर उस समय वहाँ आपसमें अपने-परायेकी पहचान नहीं हो पाती थी। केवल 
अनुमान अथवा नाम बतानेसे ही शत्रु-मित्रका विचार करके युद्ध हो रहा था ।। ३३ ॥। 

चुडामणिषु निष्केषु भूषणेष्वपि वर्मसु | 

तेषामादित्यवर्णाभा रश्मय: प्रचकाशिरे ।। ३४ ।। 

उन वीरोंके मुकुटों, हारों, आभूषणों तथा कवचोंमें सूर्यके समान प्रभामयी रश्मियाँ 
प्रकाशित हो रही थीं ।। 

तत्प्रकीर्णपताकानां रथवारणवाजिनाम्‌ । 


बलाकाशबलाश्राभं ददृशे रूपमाहवे ।। ३५ ।। 

उस युद्धस्थलमें फहराती हुई पताकाओंसे युक्त रथों, हाथियों और घोड़ोंका रूप 
बकपंक्तियोंसे चितकबरे प्रतीत होनेवाले मेघोंके समान दिखायी देता था || ३५ ।। 

नरानेव नरा जघ्नुरुदग्राश्न हया हयान्‌ । 

रथांश्व॒ रथिनो जष्नुर्वारणा वरवारणान्‌ ॥। ३६ ।। 

पैदल पैदलोंको मार रहे थे, प्रचण्ड घोड़े घोड़ोंका संहार कर रहे थे, रथी रथियोंका वध 
करते थे और हाथी बड़े-बड़े हाथियोंको चोट पहुँचा रहे थे || ३६ ।। 

समुच्छितपताकानां गजानां परमद्दिपै: । 

क्षणेन तुमुलो घोर: संग्राम: समपद्यत ।। ३७ ।। 

जिनके ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं, उन गजराजोंका शत्रुपक्षके बड़े-बड़े 
हाथियोंके साथ क्षणभरमें अत्यन्त भयंकर संग्राम छिड़ गया ।। ३७ ।। 

तेषां संसक्तगात्राणां कर्षतामितरेतरम्‌ । 

दन्तसंघातसंघर्षात्‌ सधूमो5ग्निरजायत ।। ३८ ।। 

वे एक-दूसरेसे अपने शरीरोंको सटाकर आपसमें खींचातानी करते थे। दाँतोंसे दाँतोंपर 
टक्कर लगनेसे धूमसहित आग-सी उठने लगती थी ।। ३८ ।। 

विप्रकीर्णपताकास्ते विषाणजनिताग्नय: । 

बभूवु: खं समासाद्य सविद्युत इवाम्बुदा: || ३९ |। 

उन हाथियोंकी पीठपर फहराती हुई पताकाएँ वहाँसे टूट-टूटकर गिरने लगीं। उनके 
दाँतोंक आपसमें टकरानेसे आग प्रकट होने लगी। इससे वे आकाशमें छाये हुए 
बिजलीसहित मेघोंके समान जान पड़ते थे ।। 

विक्षिपद्धिर्नदद्धिश्न निपतद्/िश्न वारणै: । 

सम्बभूव मही कीर्णा मेघैद्यौरिव शारदी ।। ४० ।। 

कोई हाथी दूसरे योद्धाओंको उठाकर फेंकते थे, कोई गरज रहे थे और कुछ हाथी 
मरकर धराशायी हो रहे थे। उनकी लाशोंसे आच्छादित हुई भूमि शरद्‌-ऋतुके आरम्भमें 
मेघोंसे आच्छादित आकाशके समान प्रतीत होती थी ।। ४० ।। 

तेषामाहन्यमानानां बाणतोमरऋष्टिभि: । 

वारणानां रवो जज्ञे मेघानामिव सम्प्लवे || ४१ ।। 

बाण, तोमर तथा ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे मारे जाते हुए गजराजोंका चीत्कार 
प्रलयकालके मेघोंकी गर्जनाके समान जान पड़ता था ।। ४१ ।। 

तोमराभिहता: केचिद्‌ बाणैश्न परमद्दिपा: । 

वित्रेसु: सर्वनागानां शब्दमेवापरे5व्रजन्‌ ।। ४२ ।। 

कुछ बड़े हाथी तोमरोंकी मारसे घायल हो रहे थे, कुछ बाणोंकी चोटसे क्षत-विक्षत हो 
अत्यन्त भयभीत हो गये थे और कुछ सम्पूर्ण हाथियोंके शब्दका अनुसरण करते हुए 


उन्हींकी ओर बढ़े जा रहे थे || ४२ ।। 

विषाणाभिहताश्चापि केचित्‌ तत्र गजा गजै: । 

चक्कुरार्तस्वनं घोरमुत्पातजलदा इव ।। ४३ ।। 

कुछ हाथी वहाँ हाथियोंद्वारा दाँतोंस घायल किये जानेपर उत्पातकालके मेघोंके समान 
भयंकर आर्तनाद कर रहे थे || ४३ ।। 

प्रतीपा: क्रियमाणाश्न॒ वारणा वरवारणै: । 

उन्मथ्य पुनराजम्मु: प्रेरिता: परमाड्कुशैः ।। ४४ ।। 

कितने ही हाथी शत्रुपक्षके श्रेष्ठ हाथियोंद्वारा घायल हो युद्धभूमिसे विमुख कर दिये गये 
थे। वे पुनः महावतोंद्वारा उत्तम अंकुशोंसे हाँके जानेपर अपनी ही सेनाको रौंदते हुए पुनः 
लौट आये ।। ४४ ।। 

महामात्रैर्महामात्रास्ताडिता: शरतोमरै: । 

गजेभ्य: पृथिवीं जम्मुर्मुक्तप्रहरणाड्कुशा: ।। ४५ ।। 

महावतोंने बाणों और तोमरोंसे महावतोंको भी घायल कर दिया था। अतः वे हाथियोंसे 
पृथ्वीपर गिर पड़े और उनके आयुध एवं अंकुश हाथोंसे छूटकर इधर-उधर जा 
गिरे || ४५ |। 

निर्मनुष्याश्न मातज़ा विनदन्तस्ततस्ततः । 

छिन्ना भ्राणीव सम्पेतु: सम्प्रविश्य परस्परम्‌ ।। ४६ ।। 

कितने ही गजराज मनुष्योंसे शून्य हो इधर-उधर चीत्कार करते हुए फिर रहे थे। वे 
एक-दूसरेकी सेनामें घुसकर फटे हुए बादलोंके समान छित्न-भिन्न हो धरतीपर गिर 
पड़े || ४६ ।। 

हतान्‌ परिवहन्तश्न पतितान्‌ पतितायुधान्‌ । 

दिशो जम्मुर्महानागा: केचिदेकचरा इव ।। ४७ ।। 

कितने ही बड़े-बड़े हाथी अपनी पीठपर मरकर गिरे हुए आयुधशून्य सवारोंको ढोते 
हुए अकेले विचरनेवाले गजराजोंके समान सम्पूर्ण दिशाओंमें चक्कर लगा रहे थे || ४७ ।। 

ताडितास्ताड्यमानाशक्ष तोमरघ्टथिपरश्वथै: । 

पेतुरार्तस्वनं कृत्वा तदा विशसने गजा: ।। ४८ ।। 

उस समय बहुत-से हाथी उस युद्धस्थलमें तोमर, ऋष्टि तथा फरसोंकी मार खाकर 
घायल हो आर्तनाद करके धरतीपर गिर जाते थे ।। ४८ ।। 

तेषां शैलोपमै: कार्यरनिपतद्धिः समन्ततः । 

आहता सहसा भूमिश्चकम्पे च ननाद च ।। ४९ |।। 

उनके पर्वताकार शरीरोंके गिरनेसे सब ओरसे आहत हुई भूमि सहसा काँपने और 
आर्तनाद करने लगी || ४९ ।। 

सादितै: सगजारोहै: सपताकै: समन्तत: । 


मातद्जैः शुशुभे भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतै: ।। ५० ।। 

वहाँ मारे जाकर पताकाओं तथा गजारोहियोंसहित सब ओर गिरे हुए हाथियोंसे 
आच्छादित हुई वह भूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतखण्डोंसे 
व्याप्त हो रही हो || ५० ।। 

गजस्थाश्न महामात्रा निर्भिन्नहृदया रणे । 

रथिश्रि: पातिता भल्लैविंकीर्णाड्कुशतोमरा: || ५१ |। 

उस रणक्षेत्रमें कितने ही रथियोंने अपने भल्लोंद्वारा हाथीपर बैठे हुए महावतोंकी छाती 
छेदकर उन्हें सहसा मार गिराया। उन महावतोंके अंकुश और तोमर इधर-उधर बिखर गये 
थे ।। ५१ |। 

क्रौज्चवद्‌ विनदन्तो<5न्ये नाराचाभिहता गजा: । 

परान्‌ स्वांश्वापि मृद्नन्तः परिपेतुर्दिशो दश ।। ५२ ।। 

कितने हीं हाथी नाराचोंसे घायल हो क्रौंच पक्षीकी भाँति चिग्घाड़ रहे थे और अपने 
तथा शत्रुपक्षके सैनिकोंको भी रौंदते हुए दसों दिशाओंमें भाग रहे थे ।। 

गजाश्चरथयोधानां शरीरौघसमावृता । 

बभूव पृथिवी राजन्‌ मांसशोणितकर्दमा ।। ५३ || 

राजन! हाथी, घोड़े तथा रथ-योद्धाओंकी लाशोंसे ढकी हुई वहाँकी भूमिपर रक्त और 
मांसकी कीच जम गयी थी ।। ५३ ।। 

प्रमथ्य च विषाणाग्रै: समुत्क्षिप्ताश्न वारणै: । 

सचक्राश्न विचक्राश्न रथैरेव महारथा: ।। ५४ ।। 

कितने ही हाथियोंने अपने दाँतोंके अग्रभागसे पहियेवाले तथा बिना पहियेके बड़े-बड़े 
रथोंको रथियोंसहित चकनाचूर करके अपनी सूँड़ोंसे उछालकर फेंक दिया ।। ५४ ।। 

रथाश्चन रथिभिहीना निर्मनुष्याश्न॒ वाजिन: | 

हतारोहाश्न मातड़्ा दिशो जम्मुर्भयातुरा: ।। ५५ |। 

रथियोंसे रहित रथ, सवारोंसे शून्य घोड़े और जिनके सवार मार डाले गये हैं ऐसे हाथी 
भयसे व्याकुल हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग रहे थे || ५५ ।। 

जघानात्र पिता पुत्र पुत्रश्न पितरं तथा । 

इत्यासीत्‌ तुमुल॑ युद्ध न प्राज़्ायत किंचन ।। ५६ ।। 

वहाँ पिताने पुत्रको और पुत्रने पिताको मार डाला। ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि 
किसीको कुछ भी ज्ञात नहीं होता था ।। ५६ ।। 

आगुल्फेभ्योडवसीदन्ते नरा लोहितकर्दमै: । 

दीप्यमानै: परिक्षिप्ता दावैरिव महाद्रुमा: ।। ५७ ।। 

मनुष्योंके पैर रक्तकी कीचमें टखनोंतक धँस जाते थे। उस समय वे दहकते हुए 
दावानलसे घिरे हुए बड़े-बड़े वृक्षोंके समान जान पड़ते थे || ५७ ।। 


शोणितै: सिच्यमानानि वस्त्राणि कवचानि च । 

छत्राणि च पताकाश्च सर्व रक्तमदृश्यत ।। ५८ ।। 

योद्धाओंके वस्त्र, कवच, ध्वज और पताकाएँ रक्तसे सींच उठी थीं। वहाँ सब कुछ 
रक्तसे रँगकर लाल-ही-लाल दिखायी देता था ।। ५८ ।। 

हयौघाश्ष रथौघाक्ष नरीघाश्न निपातिता: । 

संक्षुण्णा: पुनरावृत्य बहुधा रथनेमिभि: ।। ५९ ।। 

रणभूमिमें गिराये हुए घोड़ों, रथों और पैदलोंके समुदाय बारंबार आते-जाते रथोंके 
पहियोंसे कुचलकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे || ५९ ।। 

सगजौघमहावेग: परासुनरशैवल: । 

रथौघतुमुलावर्त: प्रबभौ सैन्यसागर: || ६० ।। 

वह सेनाका समुद्र हाथियोंके समूहरूपी महान्‌ वेग, मरे हुए मनुष्यरूपी सेवार तथा 
रथसमूहरूपी भयंकर भँवरोंके कारण अद्भुत शोभा पा रहा था ।। ६० ।। 

त॑ वाहनमहानौभियोंधा जयधनैषिण: । 

अवगाह्याथ मज्जन्तो नैव मोहं प्रचक्रिरे |। ६१ ।। 

विजयरूपी धनकी इच्छा रखनेवाले योद्धारूपी व्यापारी वाहनरूपी बड़ी-बड़ी 
नौकाओंद्वारा उस सैन्य-समुद्रमें उतरकर डूबते हुए भी प्राणोंका मोह नहीं करते थे ।। 

शरवर्षाभिवृष्टेषु योधेष्वज्चितलक्ष्मसु । 

न तेष्वचित्ततां लेभे कश्षिदाहतलक्षण: ।। ६२ ।। 

वहाँ समस्त योद्धाओंपर बाणोंकी वर्षा हो रही थी। कहीं उनके चिह्न लुप्त नहीं थे। 
उनमेंसे कोई भी योद्धा अपनी ध्वज आदि चिह्ढोंके नष्ट हो जानेपर भी मोहको नहीं प्राप्त 
हुआ ।। ६२ |। 

वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे भयंकरे । 

मोहयित्वा परान्‌ द्रोणो युधिष्िरमुपाद्रवत्‌ ।। ६३ ।। 

इस प्रकार जब अत्यन्त भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय शत्रुओंको मोहित 
करके द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरपर आक्रमण किया ।। ६३ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि संकुलयुद्धे विंशो5ध्याय: ।॥ २० ।। 

इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें संकुलयुद्धाविषयक बीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६४ “लोक हैं।) 


पम्प बछ। आर: 


एकविशो< ध्याय: 


द्रोणाचार्यके द्वारा सत्यजित, शतानीक, दृढसेन, क्षेम, 
वसुदान तथा पांचालराजकुमार आदिका वध और पाण्डव- 
सेनाकी पराजय 


संजय उवाच 

ततो युधिष्छिरो द्रोणं दृष्टवाइन्तिकमुपागतम्‌ । 

महता शरवर्षेण प्रत्यगृह्नादभीतवत्‌ ।। १ | 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर युधिष्ठिरने द्रोणको अपने समीप आया देख एक 
निर्भय वीरकी भाँति बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करके उन्हें रोक दिया ।। 

ततो हलहलाशब्द आसीदू यौधिष्छिरे बले । 

जिघृक्षति महासिंहे गजानामिव यूथपम्‌ ।। २ ।। 

उस समय युधिष्ठिरकी सेनामें महान्‌ कोलाहल मच गया। जैसे विशाल सिंह हाथियोंके 
यूथपतियोंको पकड़ना चाहता हो, उसी प्रकार द्रोणाचार्य युधिष्ठिरको अपने काबूमें करना 
चाहते थे ।। २ ।। 

दृष्टवा द्रोणं तत: शूर: सत्यजित्‌ सत्यविक्रम: । 

युधिष्ठटिरमभिप्रेप्सुराचार्य समुपाद्रवत्‌ ।। ३ ।। 

यह देख सत्यपराक्रमी शूरवीर सत्यजित्‌ युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये द्रोणाचार्यपर टूट 
पड़ा ३ ।। 

तत आचार्यपाज्चाल्यौ युयुधाते महाबलौ । 

विक्षोभयन्तौ तत्‌ सैन्यमिन्द्रवैरोचनाविव ।। ४ ।। 

फिर तो आचार्य और पांचालराजकुमार दोनों महाबली वीर इन्द्र और बलिकी भाँति 
उस सेनाको बिश्षुब्ध करते हुए आपसमें जूझने लगे ।। ४ ।। 

ततो द्रोणं महेष्वास: सत्यजित्‌ सत्यविक्रम: । 

अविध्यन्निशिताग्रेण परमास्त्रं विदर्शयन्‌ ।। ५ ।॥। 

सत्यपराक्रमी महाधनुर्धर सत्यजितने अपने उत्तम अस्त्रका प्रदर्शन करते हुए तेज 
धारवाले एक बाणसे द्रोणाचार्यको घायल कर दिया ।। ५ || 

तथास्य सारथे: पठ्च शरान्‌ सर्पविषोपमान्‌ | 

अमुञ्चदन्तकप्रख्यान्‌ सम्मुमोहास्य सारथि: ।। ६ ।। 

फिर उनके सारथिपर सर्पविष एवं यमराजके समान भयंकर पाँच बाणोंका प्रहार 
किया। उन बाणोंकी चोटसे द्रोणाचार्यका सारथि मूर्च्छित हो गया || ६ ।। 


अथास्य सहसाविध्यद्धयान्‌ दशभिराशुगै: । 

दशभिर्दशश्ि: क्रुद्ध उभौ च पार्ष्णिसारथी ।। ७ ।। 

इसके बाद सत्यजितने सहसा दस शीघ्रगामी बाणोंद्वारा उनके घोड़ोंको बींध डाला 
और कुपित होकर दोनों पृष्ठरक्षकोंको भी दस-दस बाण मारे || ७ |। 

मण्डलं तु समावृत्य विचरन्‌ पृतनामुखे । 

ध्वजं चिच्छेद च क्रुद्धो द्रोणस्यामित्रकर्षण: ।। ८ ।। 

तत्पश्चात्‌ शत्रुसूदन सत्यजितने अत्यन्त कुपित हो सेनाके प्रमुख भागमें मण्डलाकार 
विचरते हुए अपने बाणद्दारा द्रोणाचार्यके ध्वजको भी काट डाला || ८ ।। 

द्रोणस्तु तत्‌ समालोक्य चरितं तस्य संयुगे । 

मनसा चिन्तयामास प्राप्तकालमरिंदम: ।। ९ || 

तब शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणाचार्यने युद्धस्थलमें उसका वह पराक्रम देख मन- 
ही-मन समयोचित कर्तव्यका चिन्तन किया ।। ९ ।। 

ततः सत्यजितं ती&णैर्दशभिर्मर्म भेदिभि: । 

अविध्यच्छीघ्रमाचार्यश्छित्त्वास्य सशरं धनु: ।। १० ।। 

तदनन्तर आचार्यने सत्यजितके बाणसहित धनुषको काटकर मर्मस्थलको विदीर्ण 
करनेवाले दस पैने बाणोंद्वारा उसे शीघ्र ही घायल कर दिया ।। १० ।। 

स शीघ्रतरमादाय धनुरन्यत्‌ प्रतापवान्‌ | 

द्रोणमभ्यहनद्‌ राजंस्त्रिंशता कड़गकपत्रिभि: ।। ११ || 

राजन! धनुष कट जानेपर प्रतापी वीर सत्यजितने शीघ्र ही दूसरा धनुष लेकर कंककी 
पाँखसे युक्त तीस बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको गहरी चोट पहुँचायी ।। ११ ।। 

दृष्टवा सत्यजिता द्रोणं ग्रस्यमानमिवाहवे । 

वृक: शरशतैस्तीक3्ष्णै: पाज्चाल्यो द्रोणमार्दयत्‌ ।। १२ ।। 

उस युद्धस्थलमें द्रोणाचार्यको सत्यजितके बाणोंका ग्रास बनते देख पांचालवीर वृकने 
भी सैकड़ों पैने बाण मारकर द्रोणाचार्यको अत्यन्त पीड़ित कर दिया ।। १२ || 

संछाद्यमानं समरे द्रोणं दृष्टया महारथम्‌ । 

चुक्ुशु: पाण्डवा राजन्‌ वस्त्राणि दुधुवुश्च ह ।। १३ ।। 

राजन! महारथी द्रोणाचार्यको समरभूमिमें बाणोंद्वारा आच्छादित होते देख समस्त 
पाण्डव-सैनिक गर्जने और वस्त्र हिलाने लगे || १३ ।। 

वृकस्तु परमक्रुद्धो द्रोणं षष्ट्या स्तनान्तरे । 

विव्याध बलवान राज॑स्तदद्भुतभिवाभवत्‌ ।। १४ ।। 

नरेश्वर! बलवान्‌ वृकने अत्यन्त कुपित होकर द्रोणाचार्यकी छातीमें साठ बाण मारे। वह 
अद्भुत-सी बात थी ।। १४ ।। 

द्रोणस्तु शरवर्षेण च्छाद्यमानो महारथ: । 


वेग॑ चक्रे महावेग: क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी ।। १५ ।। 

इस प्रकार बाण-वर्षासे आच्छादित होनेपर महान्‌ वेगशाली महारथी द्रोणने क्रोधसे 
आँखें फाड़कर देखते हुए अपना विशेष वेग प्रकट किया ।। १५ ।। 

ततः सत्यजितक्चापं छित्त्वा द्रोणो वृकस्य च । 

षड्भि: ससूतं सहयं शरैद्रोणो5वधीद्‌ वृकम्‌ ।। १६ ।। 

आचार्य द्रोणने सत्यजित्‌ और वृक दोनोंके धनुष काटकर छ: बाणोंद्वारा उन्होंने सारथि 
और घोड़ोंसहित वृकको मार डाला ।। १६ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सत्यजिद्‌ वेगवत्तरम्‌ | 

साश्वंं ससूतं विशिखैद्रोणं विव्याध सध्वजम्‌ ।। १७ ।। 

इतनेहीमें अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष लेकर सत्यजितने अपने बाणोंद्वारा घोड़े, 
सारथि और ध्वजसहित द्रोणाचार्यको बींध डाला ।। १७ ।। 

स तन्न ममृषे द्रोण: पाञ्चाल्येनार्दितो मृधे । 

ततस्तस्य विनाशाय सत्वरं व्यसृजच्छरान्‌ ।। १८ ।। 

संग्राममें पांचालराजकुमार सत्यजित्से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य उसके पराक्रमको न 
सह सके। इसलिये तुरंत ही उसके विनाशके लिये उन्होंने बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर 
दी ।। १८ ।। 

हयान्‌ ध्वजं धनुर्मष्टिमुभी च पार्ष्णिसारथी । 

अवाकिरत्‌ ततो द्रोण: शरवर्षै: सहस्रश: ।। १९ |। 

द्रोणने सत्यजित॒के घोड़ों, ध्वज, धनुषकी मुष्टि तथा दोनों पार्श्वरक्षकोंपर सहस्रों 
बाणोंकी वर्षा की ।। १९ ।। 

तथा संछिद्यमानेषु कार्मुकेषु पुनः पुनः । 

पाज्चाल्य: परमास्त्रज्ञ: शोणाश्वं समयोधयत्‌ ।। २० ।। 

इस प्रकार बारंबार धनुषोंके काटे जानेपर भी उत्तम अस्त्रोंका ज्ञाता पांचालवीर 
सत्यजित्‌ लाल घोड़ोंवाले द्रोणाचार्यसे युद्ध करता ही रहा ।। २० ।। 

स सत्यजितमालोक्य तथोदीर्ण महाहवे । 

अर्धचन्द्रेण चिच्छेद शिरस्तस्य महात्मन: ।। २१ ।। 

उस महासमरमें सत्यजितको प्रचण्ड होते देख द्रोणाचार्यने अर्धचन्द्राकार बाणके द्वारा 
उस महामनस्वी वीरका मस्तक काट डाला ।। २१ ।। 

तस्मिन्‌ हते महामात्रे पज्चालानां महारथे । 

अपायाज्जवनैरश्रैद्रोणात्‌ त्रस्तो युधिष्ठिर: || २२ ।। 

उस महाबली महारथी पांचाल वीरके मारे जानेपर युधिष्ठिर द्रोणाचार्यसे अत्यन्त 
भयभीत हो गये और वेगशाली घोड़ोंसे जुते हुए रथके द्वारा युद्धस्थलसे दूर चले गये ।। 

पज्चाला: केकया मत्स्या चेदिकारूषकोसला: । 


युधिष्ठिरमभीप्सन्तो दृष्टवा द्रोणमुपाद्रवन्‌ ।। २३ ।। 

उस समय युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये पांचाल, केकय, मत्स्य, चेदि, कारूष और कोसल 
देशोंके योद्धा द्रोणाचार्यको देखते ही उनपर टूट पड़े ।। २३ ।। 

ततो युधिष्टिरं प्रेप्सुराचार्य: शत्रुपूगहा । 

व्यधमत्‌ तान्यनीकानि तूलराशिमिवानल: ।। २४ ।। 

तब शत्रुसमूहोंका नाश करनेवाले द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरको पकड़नेके लिये उन समस्त 
सैनिकोंका उसी प्रकार संहार कर डाला, जैसे आग रूईके ढेरको जला देती है || २४ ।। 

निर्दहन्तमनीकानि तानि तानि पुन: पुनः । 

द्रोणं मत्स्यादवरज: शतानीको<भ्यवर्तत ।। २५ || 

उन समस्त सैनिकोंको बार-बार बाणोंकी आगसे दग्ध करते देख विराटके छोटे भाई 
शतानीक द्रोणाचार्यपर चढ़ आये || २५ ।। 

सूर्यरश्मिप्रतीकाशै: कर्मारपरिमार्जिति: । 

षड्भि: ससूतं सहयं द्रोणं विद्ध्वानदद्‌ भूशम्‌ ।। २६ ।। 

उन्होंने कारीगरके द्वारा स्वच्छ किये हुए सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले छ: 
बाणोंद्वारा सारथि और घोड़ोंसहित द्रोणाचार्यको घायल करके बड़े चोरसे गर्जना 
की ।। २६ |। 

क्रूराय कर्मणे युक्तश्चिकीर्षु: कर्म दुष्करम्‌ । 

अवाकिरच्छरशतैर्भरद्वाजं महारथम्‌ । २७ ।। 

तत्पश्चात्‌ दुष्कर पराक्रम करनेकी इच्छासे क्रूरतापूर्ण कर्म करनेके लिये तत्पर हो 
उन्होंने महारथी द्रोणाचार्यपर सौ बाणोंकी वर्षा की || २७ ।। 

तस्य चानदतो द्रोण: शिर: कायात्‌ सकुण्डलम्‌ | 

क्षुरेणापाहरत्‌ तूर्ण ततो मत्स्या: प्रदुद्रुवु: ॥॥ २८ ।। 

तब द्रोणाचार्यने वहाँ गर्जना करते हुए शतानीकके कुण्डलसहित मस्तकको क्षुर नामक 
बाणद्वारा तुरंत ही धड़से काट गिराया। यह देख मत्स्यदेशके सैनिक भाग खड़े 
हुए || २८ ।। 

मत्स्याज्चित्वा3जयच्चेदीन्‌ करूषान्‌ केकयानपि । 

पज्चालान्‌ सृज्जयान्‌ पाण्डून्‌ भारद्वाज: पुनः पुन: ।। २९ ।। 

इस प्रकार भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यने मत्स्यदेशीय योद्धाओंको जीतकर चेदि, करूष, 
केकय, पांचाल, सूंजय तथा पाण्डव-सैनिकोंको भी बारंबार परास्त किया || २९ || 

त॑ दहन्तमनीकानि क्रुद्धमग्निं यथा वनम्‌ | 

दृष्टवा रुक्मरथं वीर॑ समकम्पन्त सूंजया: ।। ३० ।। 

जैसे प्रज्वलित अग्नि सारे वनको जला देती है, उसी प्रकार क्रोधमें भरकर शत्रुकी 
सेनाओंको दग्ध करते हुए सुवर्णमय रथवाले वीर द्रोणाचार्यको देखकर सूंजयवंशी क्षत्रिय 


काँपने लगे || ३० ।। 

उत्तमं ह्वाददानस्य धनुरस्याशुकारिण: । 

ज्याघोषो निध्नतोअमित्रान्‌ दिक्षु सर्वासु शुश्रुवे || ३१ ।। 

उत्तम धनुष लेकर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने और शत्रुओंका वध करनेवाले 
द्रोणाचार्यकी प्रत्यंचाका शब्द सम्पूर्ण दिशाओंमें सुनायी पड़ता था ॥। ३१ ।। 

नागानश्वान्‌ पदातींक्ष रथिनो गजसादिन: । 

रौद्रा हस्तवता मुक्ता: प्रमथ्नन्ति सम सायका: ।। ३२ ।। 

शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले द्रोणाचार्यके छोड़े हुए भयंकर सायक हाथियों, घोड़ों, 
पैदलों, रथियों और गजारोहियोंको मथे डालते थे ।। ३२ ।। 

नानद्यमान: पर्जन्यो मिश्रवातो हिमात्यये । 

अश्मवर्षमिवावर्षत्‌ परेषां भयमादधत्‌ ।। ३३ ।। 

जैसे हेमन्त-ऋतुके अन्तमें अत्यन्त गर्जना करता हुआ वायुयुक्त मेघ पत्थरोंकी वर्षा 
करता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य शत्रुओंको भयभीत करते हुए उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा 
करते थे ।। ३३ ।। 

सर्वा दिश: समचरत्‌ सैन्यं विक्षोभयन्निव । 

बली शूरो महेष्वासो मित्राणाम भयंकर: ।। ३४ ।। 

बलवान, शूरवीर, महाधनुर्धर और मित्रोंको अभय प्रदान करनेवाले द्रोणाचार्य सारी 
सेनामें हलचल मचाते हुए सम्पूर्ण दिशाओंमें विचर रहे थे || ३४ ।। 

तस्य विद्युदिवा भ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्‌ । 

दिक्षु सर्वासु पश्यामो द्रोणस्पामिततेजस: ।। ३५ |। 

जैसे बादलोंमें बिजली चमकती है, उसी प्रकार अमित तेजस्वी द्रोणाचार्यके 
सुवर्णभूषित धनुषको हम सम्पूर्ण दिशाओंमें चमकता हुआ देखते थे ।। ३५ ।। 

शोभमानां ध्वजे चास्य वेदीमद्राक्ष्म भारत । 

हिमवच्छिखराकारां चरत: संयुगे भूशम्‌ ।। ३६ ।। 

भरतनन्दन! युद्धमें तीव्रवेगसे विचरते हुए आचार्यके ध्वजमें जो वेदीका चिह्न बना हुआ 
था, वह हमें हिमालयके शिखरकी भाँति शोभायमान दिखायी देता था || ३६ ।। 

द्रोणस्तु पाण्डवानीके चकार कदनं महत्‌ | 

यथा दैत्यगणे विष्णु: सुरासुरनमस्कृत: ।। ३७ ।। 

जैसे देव-दानववन्दित भगवान्‌ विष्णु दैत्योंकी सेनामें भयानक संहार मचाते हैं, उसी 
प्रकार द्रोणाचार्यने पाण्डव-सेनामें भारी मारकाट मचा रखी थी ।। ३७ ।। 

स शूर: सत्यवाक्‌ प्राज्ञो बलवान्‌ सत्यविक्रम: । 

महानुभाव: कल्पान्ते रौद्रां भीरुविभीषणाम्‌ ॥। ३८ ।। 

कवचोर्मिध्वजावर्ता मर्त्यकूलापहारिणीम्‌ । 


गजवाजिमहाग्राहामसिमीनां दुरासदाम्‌ ।। ३९ ।। 

वीरास्थिशर्करां रौद्रां भेरीमुरजकच्छपाम्‌ । 

चर्मवर्मप्लवां घोरां केशशैवलशाद्धलाम्‌ ।। ४० ।। 

शरौधिणीं धनु:स््रोतां बाहुपन्नगसंकुलाम्‌ । 

रणभूमिवहां तीव्रां कुरुसूजजयवाहिनीम्‌ ।। ४१ ।। 

मनुष्यशीर्षपाषाणां शक्तिमीनां गदोडुपाम्‌ । 

उष्णीषफेनवसनां विकीर्णान्त्रसरीसृपाम्‌ ।। ४२ ।। 

वीरापहारिणीमुग्रां मांसशोणितकर्दमाम्‌ । 

हस्तिग्राहां केतुवृक्षां क्षत्रियाणां निमज्जनीम्‌ ।। ४३ ।। 

क्रूरां शरीरसंघट्टां सादिनक्रां दुरत्ययाम्‌ । 

द्रोण: प्रावर्तयत्‌ तत्र नदीमन्तकगामिनीम्‌ ।। ४४ ।। 

क्रव्यादगणसंजुष्टां श्वशृूगालगणायुताम्‌ | 

निषेवितां महारौद्रै: पिशिताशै: समन्तत: || ४५ ।। 

उन शौर्य-सम्पन्न, सत्यवादी, विद्वान, बलवान्‌ और सत्यपराक्रमी महानुभाव द्रोणने उस 
युद्धस्थलमें रक्तकी भयंकर नदी बहा दी, जो प्रलयकालकी जलराशिके समान जान पड़ती 
थी। वह नदी भीरु पुरुषोंको भयभीत करनेवाली थी। उसमें कवच लहरें और ध्वजाएँ भँवरें 
थीं। वह मनुष्यरूपी तटोंको गिरा रही थी। हाथी और घोड़े उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राहोंके 
समान थे। तलवारें मछलियाँ थीं। उसे पार करना अत्यन्त कठिन था। वीरोंकी हड्डियाँ बालू 
और कंकड़-सी जान पड़ती थीं। वह देखनेमें बड़ी भयानक थी। ढोल और नगाड़े उसके 
भीतर कछुए-से प्रतीत होते थे। ढाल और कवच उसमें डोंगियोंके समान तैर रहे थे। वह 
घोर नदी केशरूपी सेवार और घाससे युक्त थी। बाण ही उसके प्रवाह थे। धनुष स्रोतके 
समान प्रतीत होते थे। कटी हुई भुजाएँ पानीके सर्पोके समान वहाँ भरी हुई थीं। वह 
रणभूमिके भीतर तीव्र वेगसे प्रवाहित हो रही थी। कौरव और सूंजय दोनोंको वह नदी 
बहाये लिये जाती थी। मनुष्योंके मस्तक उसमें प्रस्तर-खण्डका भ्रम उत्पन्न करते थे। 
शक्तियाँ मीनके समान थीं। गदाएँ नाक थीं। उष्णीषवस्त्र (पगड़ी) फेनके तुल्य चमक रहे 
थे। बिखरी हुई आँतें सर्पाकार प्रतीत होती थीं। वीरोंका अपहरण करनेवाली वह उग्र नदी 
मांस तथा रक्तरूपी कीचड़से भरी थी। हाथी उसके भीतर ग्राह थे। ध्वजाएँ वृक्षके तुल्य थीं। 
वह नदी क्षत्रियोंको अपने भीतर डुबोनेवाली थी। वहाँ क्रूरता छा रही थी। शरीर (लाशें) ही 
उसमें उतरनेके लिये घाट थे। योद्धागण मगर-जैसे जान पड़ते थे। उसको पार करना बहुत 
कठिन था। वह नदी लोगोंको यमलोकमें ले जानेवाली थी। मांसाहारी जन्तु उसके आस- 
पास डेरा डाले हुए थे। वहाँ कुत्ते और सियारोंके झुंड जुटे हुए थे। उसके सब ओर 
महाभयंकर मांसभक्षी पिशाच निवास करते थे | ३८--४५ ।। 

त॑ दहन्तमनीकानि रथोदारं कृतान्तवत्‌ । 


सर्वतो<भ्यद्रवन्‌ द्रोणं कुन्तीपुत्रपुरोगमा: ।। ४६ ।। 

समस्त सेनाओंको दग्ध करनेवाले यमराजके समान भयंकर उदार महारथी 
द्रोणाचार्यपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर आदि सब वीर सब ओरसे टूट पड़े ।। ४६ ।। 

ते द्रोणं सहिता: शूरा: सर्वतः प्रत्यवारयन्‌ । 

गभस्तिभिरिवादित्यं तपन्तं भुवनं यथा ।। ४७ ।। 

उन सभी शूरवीरोंने एक साथ आकर द्रोणाचार्यको सब ओरसे उसी प्रकार घेर लिया, 
जैसे जगत्‌को तपानेवाले भगवान्‌ सूर्य अपनी किरणोंसे घिरे रहते हैं ।। 

तं तु शूरं महेष्वासं तावका<शभ्युद्यतायुधा: । 

राजानो राजपुत्राश्चन समन्तात्‌ पर्यवारयन्‌ ।। ४८ ।। 

आपकी सेनाके राजा और राजकुमारोंने अस्त्र-शस्त्र लेकर उन शौर्यसम्पन्न महाधनुर्धर 
द्रोणाचार्यको उनकी रक्षाके लिये सब ओरसे घेर रखा था ।। ४८ ।। 

शिखण्डी तु ततो द्रोणं पठचभिर्नतपर्वभि: । 

क्षत्रवर्मा च विंशत्या वसुदानश्च पञठ्चभि: ।। ४९ ।। 

उत्तमौजास्त्रिभिाणिे: क्षत्रदेवश्च सप्तभि: । 

सात्यकिश्न शतेनाजौ युधामन्युस्तथाष्टभि: || ५० ।। 

युधिष्ठिरो द्वादशभिद्रोणं विव्याध सायकै: । 

धष्टय्युम्नश्व॒ दशभिश्लेकितानस्त्रिभि: शरै: ।। ५१ ।। 

उस समय शिखण्डीने झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको बींध डाला। 
तत्पश्चात्‌ क्षत्रवर्माने बीस, वसुदानने पाँच, उत्तमौजाने तीन, क्षत्रदेवने सात, सात्यकिने सौ, 
युधामन्युने आठ और युधिष्छिरने बारह बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें द्रोणाचार्यको घायल कर 
दिया। धृष्टद्युम्नने दस और चेकितानने उन्हें तीन बाण मारे || ४९--५१ ।। 

ततो द्रोण: सत्यसंध: प्रभिन्न इव कुझ्जर: । 

अभ्यतीत्य रथानीकं दृढसेनमपातयत्‌ ।। ५२ ।। 

तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ द्रोणने मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति रथ-सेनाको 
लाँघकर दृढसेनको मार गिराया ।। ५२ ।। 

ततो राजानमासाद्य प्रहरन्‍्तमभीतवत्‌ । 

अविध्यन्नव्ि: क्षेमं स हतः प्रापतद्‌ रथात्‌ ।। ५३ ।। 

फिर निर्भय-से प्रहार करते हुए राजा क्षेमके पास पहुँचकर उन्हें नौ बाणोंसे बींध 
डाला। उन बाणोंसे मारे जाकर वे रथसे नीचे गिर गये ।। ५३ ।। 

स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वा: प्रविचरन्‌ दिश: । 

त्राता ह्भवदन्येषां न त्रातव्य: कथठ्चन ।। ५४ ।। 

यद्यपि वे शत्रुसेनाके भीतर घुसकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचर रहे थे, तथापि वे ही 
दूसरोंके रक्षक थे, स्वयं किसी प्रकार किसीके रक्षणीय नहीं हुए ।। ५४ ।। 


शिखण्डिनं द्वादशभिवविंशत्या चोत्तमौजसम्‌ । 

वसुदानं च भल्लेन प्रैषयद्‌ यमसादनम्‌ ।। ५५ || 

उन्होंने शिखण्डीको बारह और उत्तमौजाको बीस बाणोंसे घायल करके वसुदानको 
एक ही भल्लसे मारकर यमलोक भेज दिया ।। ५५ ।। 

अशीत्या क्षत्रवर्माणं षड्विंशत्या सुदक्षिणम्‌ । 

क्षत्रदेव॑ तु भल्‍लेन रथनीडादपातयत्‌ ।। ५६ ।। 

तत्पश्चात्‌ क्षत्रवर्माको अस्सी और सुदक्षिणको छब्बीस बाणोंसे आहत करके क्षत्रदेवको 
भल्लसे घायलकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया ।। ५६ ।। 

युधामन्युं चतुःषष्ट्या त्रिंशता चैव सात्यकिम्‌ । 

विद्ध्वा रुक्मरथस्तूर्ण युधिष्ठिरमुपाद्रवत्‌ ।। ५७ ।। 

युधामन्युको चौसठ तथा सात्यकिको तीस बाणोंसे घायल करके सुवर्णमय रथवाले 
द्रोणाचार्य राजा युधिष्ठिरकी ओर दौड़े || ५७ ।। 

ततो युधिष्छिर: क्षिप्रं गुरुतो राजसत्तम: । 

अपायाज्जवनैरश्वै: पाज्चाल्यो द्रोणमभ्ययात्‌ ।। ५८ ।। 

तब राजाओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर गुरुक निकटसे तीव्रगामी अअश्रोंद्वारा शीघ्र ही दूर चले गये 
और पांचाल देशका एक राजकुमार द्रोणका सामना करनेके लिये आगे बढ़ आया ।। ५८ ।। 

त॑ द्रोण: सथनुष्कं तु साश्वयन्तारमाक्षिणोत्‌ | 

स हत: प्रापतद्‌ भूमौ रथाज्ज्योतिरिवाम्बरात्‌ । ५९ ।। 

परंतु द्रोणने धुनष, घोड़े और सारथिसहित उसे क्षत-विक्षत कर दिया। उनके द्वारा 
मारा गया वह राजकुमार आकाशसे उल्काकी भाँति रथसे भूमिपर गिर पड़ा ।। ५९ || 

तस्मिन्‌ हते राजपुत्रे पज्चालानां यशस्करे । 

हत द्रोणं हत द्रोणमित्यासीज्नि:स्वनो महान्‌ ।। ६० ।। 

पांचालोंका यश बढ़ानेवाले उस राजकुमारके मारे जानेपर वहाँ “द्रोणको मार डालो, 
द्रोणको मार डालो” इस प्रकार महान्‌ कोलाहल होने लगा ।। ६० ।। 

तांस्तथा भृशसंरब्धान्‌ पञ्चालान्‌ मत्स्यकेकयान्‌ | 

सृञ्जयान्‌ पाण्डवांश्वैव द्रोणो व्यक्षो भयद्‌ बली ।। ६१ ।। 

इस प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए पांचाल, मत्स्य, केकय, सृंजय और पाण्डव 
योद्धाओंको बलवान द्रोणाचार्यने क्षोभमें डाल दिया || ६१ ।। 

सात्यकिं चेकितानं च धृष्टद्युम्मशिखण्डिनौ । 

वार्थक्षेमिं चैत्रसेनिं सेनाबिन्दुं सुवर्चसम्‌ ।। ६२ ।। 

एतांश्षान्यांश्व सुबहूनू नानाजनपदेश्वरान्‌ । 

सर्वान्‌ द्रोणोड5जयद्‌ युद्धे कुरुभि: परिवारित: ।। ६३ ।। 


कौरवोंसे घिरे हुए द्रोणाचार्यने युद्धमें सात्यकि, चेकितान, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, 
वृद्धक्षेमके पुत्र, चित्रसेनकुमार, सेनाबिन्दु तथा सुवर्चा--इन सबको तथा अन्य बहुत-से 
विभिन्न देशोंके राजाओंको परास्त कर दिया ।। ६२-६३ ।। 

तावकाश्न महाराज जयं लब्ध्वा महाहवे । 

पाण्डवेयान्‌ रणे जष्नुर्द्रवमाणान्‌ समन्‍्ततः ।। ६४ ।। 

महाराज! आपके पुत्रोंने उस महासमरमें विजय प्राप्त करके सब ओर भागते हुए 
पाण्डव-योद्धाओंको मारना आरम्भ किया ।। ६४ ।। 

ते दानवा इवेन्द्रेण वध्यमाना महात्मना । 

पज्चाला: केकया मत्स्या: समकम्पन्त भारत ॥। ६५ ।। 

भरतनन्दन! इन्द्रके द्वारा मारे जानेवाले दानवोंकी भाँति महामना द्रोणकी मार खाकर 
पांचाल, केकय और मत्स्यदेशके सैनिक काँपने लगे || ६५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्रोणयुद्धे एकविंशो5ध्याय: ।। २१ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें द्रोणाचार्यका युद्धविषयक 
इक्कीसवाँ अध्याय प्रा हुआ ॥/ २९ ॥। 


ऑपन--मा_जल बक। अकाल 


द्वाविशोडध्याय: 
द्रोणके युद्धके विषयमें दुर्योधन और कर्णका संवाद 


धृतराष्ट्र रवाच 

भारद्वाजेन भग्नेषु पाण्डवेषु महामृधे । 

पज्चालेषु च सर्वेषु कच्चिदन्यो5भ्यवर्तत ।। १ ।। 

आर्या युद्धे मतिं कृत्वा क्षत्रियाणां यशस्करीम्‌ । 

असेवितां कापुरुषै: सेवितां पुरुषर्षभै: ।। २ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! द्रोणाचार्यने उस महासमरमें जब पाण्डवों तथा समस्त 
पांचालोंको मार भगाया, तब क्षत्रियोंके लिये यशका विस्तार करनेवाली, कायरोंद्वारा न 
अपनायी जानेवाली और श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सेवित युद्धविषयक उत्तम बुद्धिका आश्रय लेकर 
क्या कोई दूसरा वीर भी उनके सामने आया? ।। १-२ ।। 

स हि वीरोन्नत: शूरो यो भग्नेषु निवर्तते । 

अहो नासीत्‌ पुमान्‌ कश्रिद्‌ दृष्टवा द्रोणं व्यवस्थितम्‌ ।। ३ ।। 

वही वीरोंमें उन्नतिशील और शौर्यसम्पन्न है, जो सैनिकोंके भाग जानेपर स्वयं युद्धक्षेत्रमें 
लौटकर आ जाय। अहो! क्‍या उस समय द्रोणाचार्यको डटा हुआ देखकर पाण्डवोंमें कोई 
भी वीर पुरुष नहीं था (जो द्रोणाचार्यका सामना कर सके) ।। ३ ।। 

जृम्भमाणमिव व्याप्र॑ प्रभिन्नमिव कुज्जरम्‌ । 

त्यजन्तमाहवे प्राणान्‌ संनद्ध॑ं चित्रयोधिनम्‌ ।। ४ ।। 

महेष्वासं नरव्याप्रं द्विषतां भयवर्धनम्‌ । 

कृतज्ञं सत्यनिरतं दुर्योधनहितैषिणम्‌ ।। ५ ।। 

भारद्वाजं तथानीके दृष्टवा शूरमवस्थितम्‌ | 

के शूरा: संन्यवर्तन्त तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। ६ ।। 

जँभाई लेते हुए व्याप्र तथा मदकी धारा बहानेवाले गजराजकी भाँति पराक्रमी, युद्धमें 
प्राणोंका विसर्जन करनेके लिये उद्यत, कवच आदिसे सुसज्जित, विचित्र रीतिसे युद्ध 
करनेवाले, शत्रुओंका भय बढ़ानेवाले, कृतज्ञ, सत्यपरायण, दुर्योधनके हितैषी तथा शूरवीर, 
भरद्वाजनन्दन महाधनुर्धर पुरुषसिंह द्रोणाचार्यको युद्धमें डटा हुआ देख किन शूरवीरोंने 
लौटकर उनका सामना किया? संजय! यह वृत्तान्त मुझसे कहो || ४--६ ।। 

संजय उवाच 
तान्‌ दृष्टवा चलितानू्‌ संख्ये प्रणुन्नान्‌ द्रोणसायकै: । 
पज्चालान्‌ पाण्डवान्‌ मत्स्यान्‌ सृज्जयांश्वेदिकिकयान्‌ ॥। ७ ।। 


द्रोणचापविमुक्तेन शरौघेणाशुहारिणा । 

सिन्धोरिव महौघेन हियमाणान्‌ यथा प्लवान्‌ ॥। ८ ।। 

कौरवा: सिंहनादेन नानावाद्यस्वनेन च । 

रथद्विपनरांश्वैव सर्वत:ः समवारयन्‌ ।। ९ ।। 

संजयने कहा--महाराज! कौरवोंने देखा कि पांचाल, पाण्डव, मत्स्य, सूंजय, चेदि 
और केकय-देशीय योद्धा युद्धमें द्रोणाचार्यके बाणोंसे पीड़ित हो विचलित हो उठे हैं तथा 
जैसे समुद्रकी महान्‌ जलराशि बहुत-से नावोंको बहा ले जाती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके 
धनुषसे छूटकर शीघ्र ही प्राण हर लेनेवाले बाण-समुदायने पाण्डव-सैनिकोंको मार भगाया 
है। तब वे सिंहनाद एवं नाना प्रकारके रण-वाद्योंका गम्भीर घोष करते हुए शत्रुओंके 
रथारोहियों, हाथीसवारों तथा पैदल सैनिकोंको सब ओरसे रोकने लगे || ७--९ ।। 

तान्‌ पश्यन्‌ सैन्यमध्यस्थो राजा स्वजनसंवृत: । 

दुर्योधनो<ब्रवीत्‌ कर्ण प्रहृष्ट: प्रहसन्निव ।। १० ।। 

सेनाके बीचमें खड़े हो स्वजनोंसे घिरे हुए राजा दुर्योधनने पाण्डव-सैनिकोंकी ओर 
देखते हुए अत्यन्त प्रसन्न होकर कर्णसे हँसते हुए-से कहा ।। १० ।। 

दुर्योधन उवाच 


पश्य राधेय पज्चालानू प्रणुन्नान्‌ द्रोणसायकै: । 

सिंहेनेव मृगान्‌ वन्यांस्त्रासितान्‌ दृढ्धन्वना ।। ११ ।। 

दुर्योधन बोला--राधानन्दन! देखो, सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले द्रोणाचार्यके बाणोंसे 
ये पांचाल सैनिक उसी प्रकार पीड़ित हो रहे हैं, जैसे सिंह वनवासी मृगोंको त्रस्त कर देता 
है ।। ११ || 

नैते जातु पुनर्युद्धमीहेयुरिति मे मति: । 

यथा तु भग्ना द्रोणेन वातेनेव महाद्रुमा: ।। १२ ।। 

मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये फिर कभी युद्धकी इच्छा नहीं करेंगे। जैसे वायु बड़े-बड़े 
वृक्षोंको उखाड़ देती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यने युद्धसे इनके पाँव उखाड़ दिये हैं || १२ ।। 

अर्दयमाना: शरैरेते रुक्मपुड्खैर्महात्मना । 

पथा नैकेन गच्छन्ति घूर्णमानास्ततस्तत: ।। १३ ।। 

महामना द्रोणके सुवर्णमय पंखयुक्त बाणोंद्वारा पीड़ित होकर ये इधर-उधर चक्कर 
काटते हुए एक ही मार्गसे नहीं भाग रहे हैं || १३ ।। 

संनिरुद्धाश्न॒ कौरव्यैद्रोणेन च महात्मना । 

एते<न्ये मण्डली भूता: पावकेनेव कुझड्जरा: ।। १४ ।। 

कौरव-सैनिकों तथा महामना द्रोणने इनकी गति रोक दी है। जैसे दावानलसे हाथी घिर 
जाते हैं, उसी प्रकार ये तथा अन्य पाण्डव-योद्धा कौरवोंसे घिर गये हैं || १४ ।। 


भ्रमरैरिव चाविष्टा द्रोणस्य निशितै: शरै: । 

अन्योन्यं समलीयन्त पलायनपरायणा: ।। १५ ।। 

भ्रमरोंके समान द्रोणके पैने बाणोंसे घायल होकर ये रणभूमिसे पलायन करते हुए 
एक-दूसरेकी आउडमें छिप रहे हैं || १५ ।। 

एष भीमो महाक्रोधी हीन: पाण्डवसृञ्जयै: । 

मदीयैरावृतो योधै: कर्ण नन्दयतीव माम्‌ ।। १६ ।। 

यह महाक्रोधी भीमसेन पाण्डव तथा सूंजयोंसे रहित हो मेरे योद्धाओंसे घिर गया है। 
कर्ण! इस अवस्थामें भीमसेन मुझे आनन्दित-सा कर रहा है ।। १६ ।। 

व्यक्त द्रोणमयं लोकमद्य पश्यति दुर्मति: । 

निराशो जीवितान्नूनमद्य राज्याच्च पाण्डव: ।। १७ ।। 

निश्चय ही आज जीवन और राज्यसे निराश हो यह दुर्बुद्धि पाण्डुकुमार सारे संसारको 
द्रोणगमय ही देख रहा होगा ।। १७ ।। 

कर्ण उवाच 

नैष जातु महाबाहुर्जीवन्नाहवमुत्सूजेत्‌ । 

न चेमान्‌ पुरुषव्यात्र सिंहनादान्‌ सहिष्यति ।। १८ ।। 

कर्ण बोला--राजन्‌! यह महाबाहु भीमसेन जीतेजी कभी युद्ध नहीं छोड़ सकता है। 
पुरुषसिंह! तुम्हारे सैनिक जो ये सिंहनाद कर रहे हैं, इन्हें भीमसेन कभी नहीं 
सहेगा ।। १८ ।। 

न चापि पाण्डवा युद्धे भज्येरन्निति मे मति: । 

शूराश्ष बलवन्तश्न कृतास्त्रा युद्धदुर्मदा: ।। १९ ।। 

पाण्डव शूरवीर, बलवान अस्त्र-विद्यामें निपुण तथा युद्धमें उन्‍्मत्त होकर लड़नेवाले हैं। 
ये रणभूमिसे कभी भाग नहीं सकते हैं। मेरा यही विश्वास है ।। १९ ।। 

विषाग्निद्यूतसंक्लेशान्‌ वनवासं च पाण्डवा: । 

स्मरमाणा न हास्यन्ति संग्राममिति मे मति: || २० ।। 

मैं ऐसा मानता हूँ कि पाण्डव तुम्हारे द्वारा दिये हुए विष, अग्निदाह और द्यूतके क्लेशों 
तथा वनवासको याद करके कभी युद्धभूमि नहीं छोड़ेंगे || २० ।। 

निवृत्तो हि महाबाहुरमितौजा वृकोदर: । 

वरान्‌ वरान्‌ हि कौन्तेयो रथोदारान्‌ हनिष्यति ।। २१ ।। 

अमिततेजस्वी महाबाहु कुन्तीपुत्र वृकोदर इधरकी ओर लौटे हैं। वे बड़े-बड़े उदार 
महारथियोंको चुन-चुनकर मारेंगे || २१ ।। 

असिना धनुषा शक्‍्त्या हयैनगिनरि रथै: | 

आयसेन च दण्डेन व्रातान्‌ व्रातान्‌ हनिष्यति || २२ ।। 


वे खड्ग, धनुष, शक्ति, घोड़े, हाथी, मनुष्य एवं रथोंद्वारा और लोहेके डंडेसे समूह-के- 
समूह सैनिकोंका संहार कर डालेंगे || २२ ।। 

तमेनमनुवर्तन्ते सात्यकिप्रमुखा रथा: । 

पज्चाला: केकया मत्स्या: पाण्डवाश्न विशेषत: ।। २३ || 

देखो, भीमसेनके पीछे सात्यकि आदि महारथी तथा पांचाल, केकय, मत्स्य और 
विशेषत: पाण्डव योद्धा भी आ रहे हैं || २३ ।। 

शुराश्न बलवन्तश्न विक्रान्ताश्व महारथा: । 

विनिध्नन्तश्न भीमेन संरब्धेनाभिचोदिता: ।। २४ ।। 

क्रोधमें भरे हुए भीमसेनसे प्रेरित हो वे शूरवीर, बलवान्‌ पराक्रमी महारथी सैनिक 
हमारे सैनिकोंको मारते आ रहे हैं ।। २४ ।। 

ते द्रोणमभिवर्तन्ते सर्वतः कुरुपुड्भवा: | 

वृकोदरं परीप्सन्त: सूर्यमभ्रगणा इव ।। २५ ।। 

वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डव भीमसेनकी रक्षाके लिये द्रोणाचार्यको सब ओरसे उसी प्रकार घेर 
रहे हैं, जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं || २५ ।। 

(समरेषु तु निर्दिष्टा: पाण्डवा: कृष्णबान्धवा: । 

ह्वीमन्त: शत्रुमरणे निपुणा: पुण्यलक्षणा: ।। 

बहव: पार्थिवा राजंस्तेषां वशगता रणे । 

मावमंस्था: पाण्डवांस्त्वं नारायणपुरोगमान्‌ ।।) 

राजन! पाण्डवोंके सहायक बन्धु श्रीकृष्ण हैं। वे उन्हें युद्धविषयक कर्तव्यका निर्देश 
किया करते हैं। वे लज्जाशील, शत्रुओंको मारनेकी कलामें निपुण तथा पवित्र लक्षणोंसे 
युक्त हैं। रणभूमिमें बहुत-से भूपाल उनके वशमें आ चुके हैं। अतः भगवान्‌ नारायण जिनके 
अगुआ हैं, उन पाण्डवोंकी तुम अवहेलना न करो। 

एकायनगता होते पीडयेयुर्यतव्रतम्‌ । 

अरक्ष्यमाणं शलभा यथा दीपं मुमूर्षव: ।। २६ ।। 

ये सब एक रास्तेपर चल रहे हैं। यदि व्रत और नियमका पालन करनेवाले द्रोणाचार्यकी 
रक्षा न की गयी तो ये उन्हें उसी प्रकार पीड़ा देंगे, जैसे मरनेकी इच्छावाले पतंग दीपकको 
बुझा देनेकी चेष्टा करते हैं || २६ ।। 

असंशयं कृतास्त्राश्न पर्याप्ताश्चापि वारणे | 

अतिभारमहं मन्ये भारद्वाजे समाहितम्‌ ।। २७ ।। 

इसमें संदेह नहीं कि वे पाण्डव योद्धा अस्त्र-विद्यामें निपुण तथा द्रोणाचार्यकी गतिको 
रोकनेमें समर्थ हैं। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि इस समय भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यपर बहुत 
बड़ा भार आ पहुँचा है ।। २७ ।। 

शीघ्रमनुगमिष्यामो यत्र द्रोणो व्यवस्थित: । 


कोका इव महानागं मा वै हन्युर्यतव्रतम्‌ ।। २८ ।। 

अत: हमलोग शीघ्र वहीं चलें, जहाँ टद्रोणाचार्य खड़े हैं। कहीं ऐसा न हो कि कुछ भेड़िये 
(जैसे पाण्डव-सैनिक) महान्‌ गजराज-जैसे व्रतधारी द्रोणाचार्यका वध कर डालें || २८ ।। 

संजय उवाच 

राधेयस्य वच: श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तत: । 

भ्रातृभि: सहितो राजन प्रायाद्‌ द्रोणरथं प्रति |। २९ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! राधानन्दन कर्णकी बात सुनकर राजा दुर्योधन अपने 
भाइयोंके साथ द्रोणाचार्यके रथकी ओर चल दिया ।। २९ || 

तत्रारावो महानासीदेकं द्रोणं जिघांसताम्‌ | 

पाण्डवानां निवृत्तानां नानावर्णह्योत्तमै: ।। ३० ।। 

वहाँ अनेक प्रकारके रंगवाले उत्तम घोड़ोंसे जुते हुए रथोंद्वारा एकमात्र द्रोणाचार्यको 
मार डालनेकी इच्छासे लौटे हुए पाण्डव-सैनिकोंका महान्‌ कोलाहल प्रकट हो रहा 
था ।। ३० || 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्रोणयुद्धे द्वाविशो5ध्याय: ।॥ २२ 
|| 
इस प्रकार श्रीमह्मा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें द्रोणाचार्यका युद्धविषयक 
बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ २२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं।) 


न-आऔका-<> २ 


त्रयोविशो<् ध्याय: 


पाण्डव-सेनाके महारथियोंके रथ, घोड़े, ध्वज तथा 
धनुषोंका विवरण 


धृतराष्ट उवाच 

सर्वेषामेव मे ब्रूहि रथचिह्वानि संजय । 

ये द्रोणमभ्यवर्तन्त क़्रुद्धा भीमपुरोगमा: ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! क्रोधमें भरे हुए भीमसेन आदि जो योद्धा 
द्रोणाचार्यपर चढ़ाई कर रहे थे, उन सबके रथोंके (घोड़े-ध्वजा आदि) चिह्न कैसे 
थे? यह मुझे बताओ ।। १ ।। 

संजय उवाच 

ऋक्षवर्णहयैर्दष्टवा व्यायच्छन्तं वृकोदरम्‌ । 

रजताश्चवस्तत: शूर: शैनेय: संन्यवर्तत ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! रीछके समान रंगवाले घोड़ोंसे जुते हुए रथपर 
बैठकर भीमसेनको आते देख चाँदीके समान श्वेत घोड़ोंवाले शूरवीर सात्यकि 
भी लौट पड़े ।। २ ।। 

सारज्जञश्वो युधामन्यु: स्वयं प्रत्वरयन्‌ हयान्‌ । 

पर्यवर्तत दुर्धर्ष: क्रुद्धों द्रोणरथं प्रति ।। ३ ।। 

सारंगके* समान (सफेद, नीले और लाल) रंगके घोड़ोंसे युक्त युधामन्यु, 
स्वयं ही अपने घोड़ोंको शीघ्रतापूर्वक हाँकता हुआ द्रोणाचार्यके रथकी ओर लौट 
पड़ा। वह दुर्जय वीर क्रोधमें भरा हुआ था ।। ३ ।। 

पारावतसवर्णस्तु हेमभाण्डैर्महाजवै: । 

पाज्चालराजस्य सुतो धृष्टब्युन्नो न्यवर्तत ।। ४ ।। 

पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न कबूतरके5ं समान (सफेद और नीले) रंगवाले 
सुवर्णभूषित एवं अत्यन्त वेगशाली घोड़ोंके द्वारा लौट आया ।। ४ ।। 

पितरं तु परिप्रेप्सु: क्षत्रधर्मा यतव्रत: । 

सिद्धि चास्य परां काड्क्षन्‌ शोणाश्व: संन्यवर्तत ।। ५ ।। 

नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाला क्षत्रधर्मा अपने पिता धृष्टद्युम्नकी रक्षा 
और उनके अभीष्ट मनोरथकी उत्तम सिद्धि चाहता हुआ लाल रंगके घोड़ोंसे 
युक्त रथपर आरूढ़ हो लौट आया ।। ५ ।। 

घा्मपत्रनिभांश्चाश्वान्‌ मल्लिकाक्षान्‌ स्वलंकृतान्‌ | 


शैखण्डि: क्षत्रदेवस्तु स्वयं प्रत्वरयन्‌ ययौ ।। ६ ।। 

शिखण्डीका पुत्र क्षत्रदेव, कमलपत्रके समान रंग तथा निर्मल नेत्रोंवाले 
सजे-सजाये घोड़ोंको स्वयं ही शीघ्रतापूर्वक हाँकता हुआ वहाँ आया ।। ६ ।। 

दर्शनीयास्तु काम्बोजा: शुकपत्रपरिच्छदा: । 

वहन्तो नकुलं शीघ्रं तावकानभिदुद्रुवु: ॥ ७ ।। 

तोतेकी पाँखके समान रोमवाले दर्शनीय काम्बोजदेशीयः घोड़े नकुलको 
वहन करते हुए बड़ी शीघ्रताके साथ आपके सैनिकोंकी ओर दौड़े ।। ७ ।। 

कृष्णास्तु मेघसंकाशा अवहनुत्तमौजसम्‌ | 

दुर्धर्षायाभिसंधाय क्रुद्धं युद्धाय भारत ।। ८ ।। 

भरतनन्दन! दुर्धर्ष युद्धका संकल्प लेकर क्रोधमें भरे हुए उत्तमौजाको मेघके 
समान श्यामवर्णवाले घोड़े युद्धस्थलकी ओर ले जा रहे थे || ८ ।। 

तथा तित्तिरिकल्माषा हया वातसमा जवे | 

अवहंस्तुमुले युद्धे सहदेवमुदायुधम्‌ ।। ९ ।। 

इस प्रकार अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न सहदेवको तीतरके समान चितकबरे 
रंगवाले तथा वायुके समान वेगशाली घोड़े उस भयंकर युद्धमें ले गये ।। ९ ।। 

दन्तवर्णस्तु राजानं कालवाला युधिष्ठटिरम्‌ 

भीमवेगा नरव्याप्रमवहन्‌ वातरंहस: ।। १० ।। 

हाथीके दाँतके समान सफेद रंग, काली एूँछ तथा वायुके समान तीव्र एवं 
भयंकर वेगवाले घोड़े नरश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरको रणक्षेत्रमें ले गये || १० ।। 

हेमोत्तमप्रतिच्छन्नैर्हयैर्वातसमैर्जवे । 

अभ्यवर्तन्त सैन्यानि सर्वाण्येव युधिष्ठिरम्‌ ।। ११ ।। 

सोनेके उत्तम आवरणोंसे ढके हुए, वायुके समान वेगशाली घोड़ोंद्वारा सारी 
सेनाओंने महाराज युधिष्ठिरको सब ओरसे घेर रखा था || ११ ।। 

राज्ञस्त्वनन्तरो राजा पाज्चाल्यो द्रुपदो5भवत्‌ | 

जातरूपमयच्छत्र: सर्वैस्तैरभिरक्षित: ।। १२ ।। 

राजा युधिष्ठिरके पीछे पांचालराज द्रुपद चल रहे थे। उनका छत्र सोनेका 
बना हुआ था। वे भी समस्त सैनिकोंद्वारा सुरक्षित थे || १२ ।। 

ललामैहरिभिर्युक्त: सर्वशब्दक्षमैर्युधि । 

राज्ञां मध्ये महेष्वास: शान्तभीरभ्यवर्तत ।। १३ ।। 

वे “ललाम'* और “हरि संज्ञावाले घोड़ोंसे, जो सब प्रकारके शब्दोंको 
सुनकर उन्हें सहन करनेमें समर्थ थे, सुशोभित हो रहे थे। उस युद्धस्थलमें 


समस्त राजाओंके मध्यभागमें महाधनुर्थर राजा ट्रुपद निर्भय होकर द्रोणाचार्यका 
सामना करनेके लिये आये ।। १३ ।। 

त॑ विराटो<न्वयाच्छीघ्रं सह सर्वर्महारथै: । 

केकयाश्र शिखण्डी च धृष्टकेतुस्तथैव च ।। १४ ।। 

स्वै: स्वै: सैन्यै: परिवृता मत्स्यराजानमन्वयु: । 

द्रपदके पीछे सम्पूर्ण महारथियोंके साथ राजा विराट शीघ्रतापूर्वक चल रहे 
थे। केकयराजकुमार, शिखण्डी तथा धृष्टकेतु--ये अपनी-अपनी सेनाओंसे 
घिरकर मत्स्यराज विराटके पीछे चल रहे थे || १४६ ।। 

त॑ तु पाटलिपुष्पाणां समवर्णा हयोत्तमा: ।। १५ ।। 

वहमाना व्यराजन्त मत्स्यस्यामित्रघातिन: । 

शत्रुसूदन मत्स्यराज विराटके रथको जो वहन करते हुए शोभा पा रहे थे, वे 
उत्तम घोड़े पाडरके फूलोंक समान लाल और सफेद रंगवाले थे ।। १५६ ।। 

हरिद्रासमवर्णास्तु जवना हेममालिन: ।। १६ ।। 

पुत्र विराटराजस्य सत्वरं समुदावहन्‌ । 

हल्दीके समान पीले रंगवाले तथा सुवर्णमय माला धारण करनेवाले 
वेगशाली घोड़े विराटराजके पुत्रको शीघ्रतापूर्वक रणभूमिकी ओर ले जा रहे 
थे।। १६३ || 

इन्द्रगोपकवर्ण श्र भ्रातर: पठच केकया: ।। १७ ।। 

जातरूपसमाभासा: सर्वे लोहितकध्वजा: । 

पाँच भाई केकयराजकुमार इन्द्रगोप (वीरबहूटी)-के समान रंगवाले 
घोड़ोंद्वारा रणभूमिमें लौट रहे थे। उन पाँचों भाइयोंकी कान्ति सुवर्णके समान 
थी तथा वे सब-के-सब लाल रंगकी ध्वजा-पताका धारण किये हुए थे ।। १७३६ 

|| 

ते हेममालिन: शूरा: सर्वे युद्धविशारदा: ।। १८ ।। 

वर्षन्त इव जीमूता: प्रत्यदृश्यन्त दंशिता: । 

सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित वे सभी युद्धविशारद शूरवीर मेघोंके समान 
बाण-वर्षा करते हुए कवच आदिसे सुसज्जित दिखायी देते थे ।। १८६ ।। 

आमपात्रनिकाशास्तु पांचाल्यममितौजसम्‌ ।। १९ |। 

दत्तास्तुम्बुरुणा दिव्या: शिखण्डिनमुदावहन्‌ । 

अमित तेजस्वी पांचालराजकुमार शिखण्डीको तुम्बुरुके दिये हुए मिट्टीके 
कच्चे बर्तनके समान रंगवाले दिव्य अश्व वहन करते थे ।। १९३ ।। 

तथा द्वादश साहस्रा: पञ्चालानां महारथा: || २० ।। 


तेषां तु षट्‌ सहस्राणि ये शिखण्डिनमन्वयु: । 

पांचालोंके जो बारह हजार महारथी युद्धमें लड़ रहे थे, उनमेंसे छः हजार 
इस समय शिखण्डीके पीछे चलते थे || २०६ ।। 

पुत्र तु शिशुपालस्य नरसिंहस्य मारिष ।। २१ ।। 

आक्रीडन्तो वहन्ति सम सारड्रशबला हया: । 

आर्य! पुरुषसिंह शिशुपालके पुत्रके सारंगके समान चितकबरे अश्व खेल 
करते हुए-से वहन कर रहे थे || २१६ ।। 

धेष्टकेतुस्तु चेदीनामृषभो5तिबलोदित: | २२ |। 

काम्बोजै: शबलैरश्वेरभ्यवर्तत दुर्जय: । 

चेदिदेशका श्रेष्ठ राजा अत्यन्त बलवान दुर्जय वीर धृष्टकेतु काम्बोजदेशीय 
चितकबरे घोड़ोंद्वारा युद्धभूमिकी ओर लौट रहा था | २२३ || 

बृहत्क्षत्रं तु कैकेयं सुकुमारं हयोत्तमा: ।। २३ ।। 

पलालधूमसंकाशा: सैन्धवा: शीघ्रमावहन्‌ । 

केकयदेशके सुकुमार राजकुमार बृहत्क्षत्रकों पुआलके धूएँके समान 
उज्ज्वल-नील वर्णवाले सिन्धुदेशीय* अच्छी जातिके घोड़ोंने शीघ्रतापूर्वक 
रणभूमिमें पहुँचाया ।। 

मल्लिकाक्षा: पद्मवर्णा बाह्लिजाता: स्वलंकृता: ।। २४ ।। 

शूरं शिखण्डिन: पुत्रम॒क्षदेवमुदावहन्‌ । 

शिखण्डीके शूरवीर पुत्र ऋक्षदेवको पद्मकेः समान वर्ण और निर्मल नेत्रवाले 
बाह्विकः देशके सजे-सजाये घोड़ोंने रणभूमिमें पहुँचाया || २४३ ।। 

रुक्मभाण्डप्रतिच्छन्ना: कौशेयसदृशा हरा: ।। २५ ।। 

क्षमावन्तो5वहन्‌ संख्ये सेनाबिन्दुमरिंदमम्‌ । 

सोनेके आभूषणों तथा कवचोंसे सुशोभित रेशमके समान श्वैत-पीत 
रोमवाले सहनशील घोड़ोंने शत्रुओंका दमन करनेवाले सेनाबिन्दुको युद्धभूमिमें 
पहुँचाया || २५३ || 

युवानमवहन्‌ युद्धे क्रौज्चवर्णा हयोत्तमा: || २६ ।। 

काश्यस्याभिभुव: पुत्र सुकुमारं महारथम्‌ । 

क्रौंचवर्णक< उत्तम घोड़ोंने काशिराज अभिभूके सुकुमार एवं युवा पुत्रको, 
जो महारथी वीर था, युद्धभूमिमें पहुँचाया || २६३ ।। 

श्वेतास्तु प्रतिविन्ध्यं तं कृष्णग्रीवा मनोजवा: । 

यन्तुः प्रेष्यकरा राजन्‌ राजपुत्रमुदावहन्‌ ।। २७ ।। 


राजन्‌! मनके समान वेगशाली तथा काली गर्दनवाले श्वेतवर्णके घोड़े, जो 
सारथिकी आज्ञा माननेवाले थे, राजकुमार प्रतिविन्ध्यको रणमें ले गये || २७ ।। 

सुतसोम॑ तु यः सौम्यं पार्थ: पुत्रमजीजनत्‌ । 

माषपुष्पसवर्णास्तमवहन्‌ वाजिनो रणे ।। २८ ।। 

कुन्तीकुमार भीमसेनने जिस सौम्यरूपवाले पुत्र सुतसोमको जन्म दिया था, 
उसे उड़दके फूलकी भाँति सफेद और पीले रंगवाले घोड़ोंने रणक्षेत्रमें 
पहुँचाया ।। 

सहस्रसोमप्रतिमो बभूव 

पुरे कुरूणामुदयेन्दुनाम्नि । 
तस्मिंजात: सोमसंक्रन्दम ध्ये 
यस्मात्‌ तस्मात्‌ सुतसोमो5भवत्‌ सः ।। २९ |। 

कौरवोंके उदयेन्दु नामक पुर (इन्द्रप्रस्थ) में सोमाभिषव (सोमरस निकालने) 
के दिन सहस्रों चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान्‌ वह बालक उत्पन्न हुआ था, 
इसलिये उसका नाम सुतसोम रखा गया थ ।। २९ ।। 

नाकुलिं तु शतानीकं शालपुष्पनिभा हया: । 

आदित्यतरुणप्रख्या: श्लाघनीयमुदावहन्‌ ।। ३० ।। 

नकुलके स्पृहणीय पुत्र शतानीकको शालपुष्पके समान रक्त-पीतवर्णवाले 
और बालसूर्यके समान कान्तिमान्‌ अश्व रणभूमिमें ले गये || ३० ।। 

काज्चनापिहितैरयोक्त्रैर्मयूरग्रीवसंनि भा: । 

द्रौपदेयं नरव्याप्र॑ श्रुतर्माणमाहवे ।। ३१ ।। 

मोरकी गर्दनके समान नीले रंगवाले घोड़ोंने सुनहरी रस्सियोंसे आबद्ध हो 
द्रौपदीपुत्र सहदेवकुमार पुरुषसिंह श्रुतकर्माको युद्धभूमिमें पहुँचाया ।। ३१ ।। 

श्रुतकीर्ति श्रुतनिधिं द्रौपदेयं हयोत्तमा: । 

ऊहूुः पार्थसमं युद्धे चाषपत्रनिभा हया: ।। ३२ ।। 

इसी प्रकार युद्धमें अर्जुनकी समानता करनेवाले, शास्त्रज्ञानके भण्डार 
द्रौपदीनन्दन अर्जुनकुमार श्रुतकीर्तिकों नीलकण्ठकी पाँखके समान रंगवाले 
उत्तम घोड़े रणक्षेत्रमें ले गये || ३२ ।। 

यमाहुरध्यर्धगुणं कृष्णात्‌ पार्थाच्च संयुगे । 

अभिमन्युं पिशज्ास्तं कुमारमवहन्‌ रणे ।। ३३ ।। 

जिसे युद्धमें श्रीकृष्ण और अर्जुनसे ड्योढ़ा बताया गया है, उस सुभद्राकुमार 
अभिमन्युको रणक्षेत्रमें कपिलवर्णवाले घोड़े ले गये || ३३ ।। 

एकस्तु धार्तराष्ट्रेभ्य:ः पाण्डवान्‌ य: समाश्रित: । 

त॑ बृहन्तो महाकाया युयुत्सुमवहन्‌ रणे ।। ३४ ।। 


पलालकाण्डवर्णस्तु वार्थक्षेमिं तरस्विनम्‌ । 

ऊहुः सुतुमुले युद्धे हया: कृष्णा: स्वलंकृता: ।। ३५ || 

आपके पुत्रोंमेंसे जो एक युयुत्सु पाण्डवोंकी शरणमें जा चुके हैं, उन्हें 
पुआलके डंठलके समान रंगवाले, विशालकाय एवं बृहद्‌ अश्रोंने युद्धभूमिमें 
पहुँचाया। उस भयंकर युद्धमें काले रंगके सजे-सजाये घोड़ोंने वृद्धक्षेमके 
वेगशाली पुत्रको युद्धभूमिमें पहुँचाया ।। 

कुमारं शितिपादास्तु रुक्मचित्रैरुरच्छदे: । 

सौचित्तिमवहन्‌ युद्धे यन्तुः प्रेष्यकरा हया: ।। ३६ ।। 

सुचित्तके प्रत्र कुमार सत्यधृतिको सुवर्णमय विचित्र कवचोंसे सुसज्जित 
और काले रंगके पैरोंवाले, सारथिकी इच्छाके अनुसार चलनेवाले उत्तम घोड़ोंने 
युद्धक्षेत्रमें उपस्थित किया ।। ३६ ।। 

रुक्मपीठावकीण्स्तु कौशेयसदृशा हया: । 

सुवर्णमालिन: क्षान्ता: श्रेणिमन्तमुदावहन्‌ ।। ३७ ।। 

सुनहरी पीठसे युक्त, रेशमके समान रोमवाले, सुवर्णमालाधारी तथा 
सहनशक्तिसे सम्पन्न घोड़ोंने श्रेणिमान्‌को युद्धमें पहुँचाया || ३७ ।। 

रुक्ममालाधरा: शूरा हेमपृष्ठा: स्वलंकृता: । 

काशिराजं नरश्रेष्ठ श्लाघनीयमुदावहन्‌ ।। ३८ ।। 

सुवर्णमाला धारण करनेवाले शूरवीर और सुवर्ण रंगके पृष्ठभागवाले सजे- 
सजाये घोड़े स्पृहणीय नरश्रेष्ठ काशिराजको रणभूमिमें ले गये || ३८ ।। 

अस्त्राणां च धनुर्वेदे बाह्े वेदे च पारगम्‌ । 

त॑ सत्यधृतिमायान्तमरुणा: समुदावहन्‌ ।। ३९ ।। 

अस्त्रोंके ज्ञानमें, धनुर्वेदमें तथा ब्राह्मवेदमें भी पारंगत पूर्वोक्त सत्यधृतिको 
अरुणवर्णके अश्रोंने युद्धक्षेत्रमें उपस्थित किया ।। ३९ || 

यः स पाञ्चालसेनानीद्रोणमंशमकल्पयत्‌ । 

पारावतसवर्णस्त धृष्टद्युम्नमुदावहन्‌ ।। ४० ।। 

जो पांचालोंके सेनापति हैं, जिन्होंने द्रोणाचार्यको अपना भाग निश्चित कर 
रखा था, उन धृष्टद्युम्नको कबूतरके समान रंगवाले घोड़ोंने युद्धभूमिमें 
पहुँचाया ।। 

तमन्वयात्‌ सत्यधृतिः सौचित्तियुद्धदुर्मद: । 

श्रेणिमान्‌ वसुदानश्च पुत्र: काश्यस्य चाभिभू: ।। ४१ ।। 

उनके पीछे सुचित्तके पुत्र युद्धदुर्मद सत्यधृति, श्रेणिमान, वसुदान- और 
काशिराजके पुत्र अभिभू चल रहे थे || ४१ ।। 

युक्तै: परमकाम्बोजैर्जवनैहेममालिभि: । 


भीषयन्तो द्विषत्सैन्यं यमवैश्रवणोपमा: ।। ४२ |। 

ये सब-के-सब यम और कुबेरके समान पराक्रमी योद्धा वेगशाली, 
सुवर्णमालाओंसे अलंकृत एवं सुशिक्षित, उत्तम काबुली घोड़ोंद्वारा शत्रुसेनाको 
भयभीत करते हुए धृष्टद्युम्मका अनुसरण कर रहे थे || ४२ ।। 

प्रभद्रकास्तु काम्बोजा: षट्सहस्राण्युदायुधा: । 

नानावर्णहयै: श्रेष्ठेहेमवर्णरथध्वजा: ।। ४३ ।। 

शरव्रातैर्विंधुन्वन्त: शत्रून्‌ विततकार्मुका: । 

समानमृत्यवो भूत्वा धृष्टद्युम्न॑ समन्वयु: ।। ४४ ।। 

इनके सिवा छ: हजार काम्बोजदेशीय प्रभद्रक नामवाले योद्धा हथियार 
उठाये, भाँति-भाँतिके श्रेष्ठ घोड़ोंसे जुते हुए सुनहरे रंगके रथ और ध्वजासे 
सम्पन्न हो धनुष फैलाये अपने बाणसमूहोंद्वारा शत्रुओंको भयसे कम्पित करते 
हुए सब समानरूपसे मृत्युको स्वीकार करनेके लिये उद्यत हो धृष्टद्युम्नके पीछे- 
पीछे जा रहे थे || ४३-४४ ।। 

बभ्रकौशेयवर्णसस्तु सुवर्णवरमालिन: । 

ऊहुरम्लानमनसश्रेकितानं हयोत्तमा: ।। ४५ ।। 

नेवले तथा रेशमके समान रंगवाले (पिंगल-गौर-वर्णके) उत्तम अश्व, जो 
सुन्दर सुवर्णकी मालासे विभूषित तथा प्रसन्नचित्तवाले थे, चेकितानको 
युद्धस्थलमें ले गये || ४५ ।। 

इन्द्रायुधसवर्णस्तु कुन्तिभोजो हयोत्तमै: । 

आयात्‌ सदश्वै: पुरुजिन्मातुल: सव्यसाचिन: ।। ४६ ।। 

अर्जुनके मामा पुरुजित्‌ कुन्तिभोज इन्द्रधनुषके समान रंगवाले उत्तम 
श्रेणीके सुन्दर अश्वोंद्वारा उस युद्धभूमिमें आये ।। ४६ ।। 

अन्तरिक्षसवर्णस्तु तारकाचित्रिता इव | 

राजानं रोचमानं ते हया: संख्ये समावहन्‌ ।। ४७ ।। 

राजा रोचमानको ताराओंसे चित्रित अन्तरिक्षके समान चितकबरे घोड़ोंने 
युद्धभूमिमें पहुँचाया || ४७ ।। 

कर्बुरा: शितिपादास्तु स्वर्णजालपरिच्छदा: । 

जारासंधधि हया: श्रेष्ठा: सहदेवमुदावहन्‌ ।। ४८ ।। 

जरासंधके पुत्र सहदेवको काले पैरोंवाले चितकबरे श्रेष्ठ घोड़े, जो सोनेकी 
जालीसे विभूषित थे, रणभूमिमें ले गये || ४८ ।। 

ये तु पुष्करनालस्य समवर्णा हयोत्तमा: | 

जवे श्येनसमाश्रित्रा: सुदामानमुदावहन्‌ ।। ४९ ।। 


कमलके नालकी भाँति श्वेतवर्णवाले और श्येन पक्षीके समान वेगशाली 
उत्तम एवं विचित्र अश्व सुदामाको लेकर रणक्षेत्रमें उपस्थित हुए ।। ४९ ।। 

शशलोहितवर्णस्तु पाण्डुरोदूगतराजय: । 

पाज्चाल्यं गोपते: पुत्र सिंहसेनमुदावहन्‌ ।। ५० ।। 

जिनके रंग खरगोशके समान और लोहित हैं तथा जिनके अंगोंमें श्वेत-पीत 
रोमावलियाँ सुशोभित होती हैं, वे घोड़े उन गोपतिपुत्र पांचालराजकुमार 
सिंहसेनको- युद्धस्थलमें ले गये थे || ५० ।। 

पज्चालानां नरव्याप्रो यः ख्यातो जनमेजय: । 

तस्य सर्षपपुष्पाणां तुल्यवर्णा हयोत्तमा: ।। ५१ ।। 

पांचालोंमें विख्यात जो पुरुषसिंह जनमेजय हैं, उनके उत्तम घोड़े सरसोंके 
फूलोंके समान पीले रंगके थे ।। 

माषवर्णाश्व जवना बृहन्तो हेममालिन: । 

दधिपृष्ठाश्चित्रमुखा: पाज्चाल्यमवहन्‌ द्रुतम्‌ ।। ५२ ।। 

उड़दके समान रंगवाले, स्वर्णमालाविभूषित, दधिके समान श्वेत पृष्ठभागसे 
युक्त और चितकबरे मुखवाले वेगशाली विशाल अश्व पांचालराजकुमारको 
संग्रामभूमिमें शीघ्रतापूर्वक ले गये || ५२ ।। 

शुराश्व भद्रकाश्नैव शरकाण्डनिभा हया: । 

पद्मकिज्जल्कवर्णाभा दण्डधारमुदावहन्‌ ।। ५३ ।। 

शूर, सुन्दर मस्तकवाले, सरकण्डेके पोरुओंके समान श्वेत-गौर तथा 
कमलके केसरकी भाँति कान्तिमान्‌ घोड़े दण्डधारको रणभूमिमें ले 
गये ।। ५३ ।। 

रासभारुणवर्णाभा: पृष्ठतो मूषिकप्रभा: । 

वल्गन्त इव संयत्ता व्याप्रदत्तमुदावहन्‌ ।। ५४ ।। 

गदहेके समान मलिन एवं अरुणवर्णवाले, पृष्ठभागमें चूहेके समान श्याम- 
मलिन कान्ति धारण करनेवाले तथा विनीत घोड़े व्याप्रदत्तको युद्धमें उछलते- 
कूदते हुए-से ले गये ।। ५४ ।। 

हरय: कालकाश्षित्राश्चित्रमाल्यविभूषिता: । 

सुधन्वानं नरव्यात्रं पाउचाल्यं समुदावहन्‌ ।। ५५ ।। 

काले मस्तकवाले, विचित्र वर्ण तथा विचित्र मालाओंसे विभूषित घोड़े 
पांचालदेशीय पुरुषसिंह सुधन्‍्वाको लेकर रणभूमिमें उपस्थित हुए || ५५ ।। 

इन्द्राशनिसमस्पर्शा इन्द्रगोपकसंनिभा: । 

काये चित्रान्तराश्रित्राश्षित्रायुधमुदावहन्‌ ।। ५६ ।। 


इन्द्रके वज़के समान जिनका स्पर्श अत्यन्त दुःसह है, जो वीरबहूटीके 
समान लाल रंगवाले हैं, जिनके शरीरमें विचित्र चिह्न शोभा पाते हैं तथा जो 
देखनेमें भी अद्धुत हैं, वे घोड़े चित्रायुधको युद्धभूमिमें ले गये ।। 

बिभ्रतो हेममालास्तु चक्रवाकोदरा हया: । 

कोसलाधिपते: पुत्र॑ सुक्षत्रे वाजिनो5वहन्‌ ।। ५७ ।। 

सुवर्णजी माला धारण किये चक्रवाकके उदरके समान कुछ-कुछ 
श्वैतवर्णवाले घोड़े कोसलनरेशके पुत्र सुक्षत्रको युद्धमें ले गये || ५७ ।। 

शबलास्तु बृहन्तो<श्वा दान्ता जाम्बूनदस्रज: । 

युद्धे सत्यधृतिं क्षैमिमवहन्‌ प्रांशव: शुभा: ।। ५८ ।। 

चितकबरे, विशालकाय, वशगमें किये हुए, सुवर्णकी मालासे विभूषित तथा 
ऊँचे कदवाले सुन्दर अअभ्रोंने क्षेमकुमार सत्यधृतिको युद्धभूमिमें 
पहुँचाया ।। ५८ ।। 

एकवर्णेन सर्वेण ध्वजेन कवचेन च | 

अश्वैश्न धनुषा चैव शुक्लै: शुक्लो न्यवर्तत ।। ५९ || 

जिनके ध्वज, कवच और धनुष--ये सब कुछ एक ही रंगके थे, वे राजा 
शुक्ल शुक्लवर्णके अअश्रोंद्वारा युद्धके मैदानमें लौट आये ।। ५९ ।। 

समुद्रसेनपुत्र॑ तु सामुद्रा रुद्रतेजसम्‌ । 

अथवा: शशाड्कसदृशा श्वन्द्रसेनमुदावहन्‌ ।। ६० ।। 

समुद्रसेनके पुत्र, भयानक तेजसे युक्त चन्द्रसेनको चन्द्रमाके समान सफेद 
रंगवाले समुद्री घोड़ोंने युद्धभूमिमें पहुँचाया || ६० ।। 

नीलोत्पलसवर्णस्तु तपनीयविभूषिता: । 

शैब्यं चित्ररथं संख्ये चित्रमाल्या3वहन्‌ हया: ।। ६१ ।। 

नील-कमलके समान रंगवाले, सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित विचित्र 
मालाओंवाले अश्व विचित्र रथसे युक्त राजा शैब्यको युद्धस्थलमें ले 
गये ।। ६१ ।। 

कलायपुष्पवर्णस्तु श्वेतलोहितराजय: । 

रथसेनं हयश्रेष्ठा: समूहुर्युद्धदुर्मदम्‌ ।। ६२ ।। 

जिनके रंग केरावके फ़ूलके समान हैं, जिनकी रोमराजि श्वेतलोहित वर्णकी 
है, ऐसे श्रेष्ठ घोड़ोंने रणदुर्मद रथसेनको संग्रामभूमिमें पहुँचाया || ६२ ।। 

यं तु सर्वमनुष्येभ्य: प्राहु: शूरतरं नूपम्‌ 

त॑ पटच्चरहन्तारं शुकवर्णाउवहन्‌ हया: ।। ६३ ।। 

जिन्हें सब मनुष्योंस अधिक शूरवीर नरेश कहा जाता है, जो चोरों और 
लुटेरोंका नाश करनेवाले हैं, उन समुद्रप्रान्‍्नके अधिपतिको तोतेके समान 


रंगवाले घोड़े रणभूमिमें ले गये || ६३ ।। 

चित्रायुधं चित्रमाल्यं चित्रवर्मायुधध्वजम्‌ । 

ऊहु: किंशुकपुष्पाणां समवर्णा हयोत्तमा: ।। ६४ ।। 

जिनके माला, कवच, अस्त्र-शस्त्र और ध्वज सब कुछ विचित्र हैं, उन राजा 
चित्रायुधको- पलाशके फूलोंके समान लाल रंगवाले उत्तम घोड़े संग्राममें ले 
गये ।। ६४ ।। 

एकवर्णेन सर्वेण ध्वजेन कवचेन च । 

धनुषा रथवाहैश्व नीलै्नीलो5भ्यवर्तत ।। ६५ ।। 

जिनके ध्वज, कवच और धनुष सब एक रंगके थे, वे राजा नील अपने रथमें 
जुते हुए नील रंगके घोड़ोंद्वारा रणक्षेत्रमें उपस्थित हुए ।। ६५ ।। 

नानारूपै रत्नचिट्रैर्वरूथरथकार्मुकै: । 

वाजिध्वजपताक्‌शभिश्षिन्रैश्षित्रो5भ्यवर्तत ।। ६६ ।। 

जिनके रथका आवरण, रथ तथा धनुष नाना प्रकारके रत्नोंसे जटित एवं 
अनेक रूपवाले थे, जिनके घोड़े, ध्वजा और पताकाएँ भी विचित्र प्रकारकी थीं, 
वे राजा चित्र चितकबरे घोड़ोंद्वारा युद्धके मैदानमें आये ।। 

ये तु पुष्करपर्णस्य तुल्यवर्णा हयोत्तमा: । 

ते रोचमानस्यथ सुतं हेमवर्णमुदावहन्‌ ।। ६७ ।। 

जिनके रंग कमलपत्रके समान थे, वे उत्तम घोड़े रोचमानके पुत्र हेमवर्णको 
रणभूमिमें ले गये || ६७ ।। 

योधाश्व भद्रकाराश्न शरदण्डानुदण्डय: । 

श्वेताण्डा: कुक्कुटाण्डाभा दण्डकेतुं हया&वहन्‌ ।। ६८ ।। 

युद्ध करनेमें समर्थ, कल्याणमय कार्य करनेवाले, सरकण्डेके समान श्वैत- 
गौर पीठवाले, श्वेत अण्डकोशधारी तथा मुर्गीके अण्डेके समान सफेद घोड़े 
दण्डकेतुको युद्धस्थलमें ले गये ।। ६८ ।। 

केशवेन हते संख्ये पितर्यथ नराधिपे । 

भिन्ने कपाटे पाण्ड्यानां विद्रुतेषु च बन्धुषु || ६९ ।। 

भीष्मादवाप्य बास्त्राणि द्रोणाद्‌ रामात्‌ कृपात्‌ तथा । 

अस्त्रै: समत्वं सम्प्राप्प रुक्मिकर्णार्जुनाच्युतै: ।। ७० ।। 

इयेष द्वारकां हन्तुं कृत्स्नां जेतुं च मेदिनीम्‌ 

निवारितस्तत: प्राजै: सुहृद्धिर्हितकाम्यया ।। ७१ |। 

वैरानुबन्धमुत्सज्य स्वराज्यमनुशास्ति यः । 

स सागरध्वज: पाण्ड्यश्रन्द्रश्नरश्मिनिभैर्ठयै: ।। ७२ ।। 

वैडूर्यजालसंछन्नैर्वीर्यद्रविणमाश्रित: । 


दिव्यं विस्फाययंश्चापं द्रोणमभ्यद्रवद्‌ बली ॥। ७३ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके हाथोंसे जब युद्धमें पाण्ड्यदेशके राजा तथा वर्तमान 
नरेशके पिता मारे गये, पाण्ड्यराजधानीका फाटक तोड़-फोड़ दिया गया और 
सारे बन्धु-बान्धव भाग गये, उस समय जिसने भीष्म, द्रोण, परशुराम तथा 
कृपाचार्यसे अस्त्रविद्या सीखकर उसमें रुकमी, कर्ण, अर्जुन और श्रीकृष्णकी 
समानता प्राप्त कर ली; फिर द्वारकाको नष्ट करने और सारी पृथ्वीपर विजय 
पानेका संकल्प किया; यह देख विद्वान्‌ सुहृदोंने हितकी कामना रखकर जिसे 
वैसा दुःसाहस करनेसे रोक दिया और अब जो वैरभाव छोड़कर अपने राज्यका 
शासन कर रहा है और जिसके रथपर सागरके चिह्नसे युक्त ध्वजा फहराती है, 
पराक्रमरूपी धनका आश्रय लेनेवाले उस बलवान राजा पाण्ड्यने अपने दिव्य 
धनुषकी टंकार करते हुए वैदूर्यमणिकी जालीसे आच्छादित तथा चन्द्रकिरणोंके 
समान श्वेत घोड़ोंद्वारा द्रोणाचार्यपर धावा किया || ६९--७३ ।। 

आटरूषकवर्णाभा हया: पाण्ड्यानुयायिनाम्‌ | 

अवहन्‌ रथमुख्यानामयुतानि चतुर्दश ।। ७४ ।। 

वासक-पुष्पोंके समान रंगवाले घोड़े राजा पाण्ड्यके पीछे चलनेवाले एक 
लाख चालीस हजार श्रेष्ठ रथोंका भार वहन कर रहे थे ।। ७४ ।। 

नानावर्णेन रूपेण नानाकृतिमुखा हया: । 

रथचक्रध्वजं वीर॑ घटोत्कचमुदावहन्‌ ।। ७५ ।। 

अनेक प्रकारके रंग-रूपसे युक्त विभिन्न आकृति और मुखवाले घोड़े रथके 
पहियेके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले वीर घटोत्कचको रणभूमिमें ले गये || ७५ ।। 

भारतानां समेतानामुत्सूज्यैको मतानि यः । 

गतो युधिष्ठिरं भक्त्या त्यक्त्वा सर्वमभीप्सितम्‌ ।। ७६ ।। 

लोहिताक्ष॑ महाबाहुं बृहन्तं तमरट्टजा: । 

महासत्त्वा महाकाया: सौवर्णस्यन्दने स्थितम्‌ । ७७ |। 

जो एकत्र हुए सम्पूर्ण भरतवंशियोंके मतोंका परित्याग करके अपने सम्पूर्ण 
मनोरथोंको छोड़कर केवल भक्तिभावसे युधिष्ठिरके पक्षमें चले गये, उन लाल 
नेत्र और विशाल भुजावाले राजा बृहन्तको, जो सुवर्णमय रथपर बैठे हुए थे, 
अरट्टदेशके महापराक्रमी, विशालकाय और सुनहरे रंगवाले घोड़े रणभूमिमें ले 
गये || ७६-७७ ।। 

सुवर्णवर्णा धर्मज्ञमनीकस्थं युधिष्ठिरम्‌ 

राजश्रेष्ठ हयश्रेष्ठा: सर्वतः पृष्ठतो5न्वयु: ।। ७८ ।। 

धर्मके ज्ञाता तथा सेनाके मध्यभागमें विद्यमान नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिरको चारों 
ओरसे घेरकर सुवर्णके समान रंगवाले श्रेष्ठ घोड़े उनके साथ-साथ चल रहे 


थे ।। ७८ || 

वर्णरुच्चावचैरन्यै: सदक्चानां प्रभद्रका: । 

संन्यवर्तन्त युद्धाय बहवो देवरूपिण: ।। ७९ ।। 

अन्य भिन्न-भिन्न प्रकारके वर्णोसे युक्त सुन्दर अश्वोंका आश्रय ले प्रभद्रक 
नामवाले देवताओं-जैसे रूपवान्‌ बहुसंख्यक प्रभद्रकगण युद्धके लिये लौट 
पड़े || ७९ || 

ते यत्ता भीमसेनेन सहिता: काउचनध्वजा: । 

प्रत्यदृश्यन्त राजेन्द्र सेन्द्रा इव दिवौकस: ।। ८० ।। 

राजेन्द्र! भीमसेनसहित पूरी सावधानीसे युद्धके लिये उद्यत हुए ये सुवर्णमय 
ध्वजवाले राजालोग इन्द्रसहित देवताओंके समान दृष्टिगोचर होते थे || ८० ।। 

अत्यरोचत तानू्‌ सर्वान्‌ धृष्टद्युम्न: समागतान्‌ | 

सर्वाण्यति च सैन्यानि भारद्वाजो व्यरोचत ।। ८१ ।। 

वहाँ एकत्र हुए उन सब राजाओंकी अपेक्षा धृष्टद्यम्मनकी अधिक शोभा हो 
रही थी और समस्त सेनाओंसे ऊपर उठकर भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य सुशोभित 
हो रहे थे || ८१ ।। 

अतीव शुशुभे तस्य ध्वज: कृष्णाजिनोत्तर: | 

कमण्डलुर्महाराज जातरूपमय: शुभ: ।। ८२ ।। 

महाराज! काले मृगचर्म और कमण्डलुके चिह्नसे युक्त उनका सुवर्णमय 
सुन्दर ध्वज अत्यन्त शोभा पा रहा था ॥। ८२ ।। 

ध्वजं तु भीमसेनस्य वैदूर्यमणिलोचनम्‌ । 

भ्राजमानं महासिंहं राजन्तं दृष्टटानहम्‌ ।। ८३ ।। 

वैदूर्यमणिमय नेत्रोंसे सुशोभित महासिंहके चिह्लसे युक्त भीमसेनकी 
चमकीली ध्वजा फहराती हुई बड़ी शोभा पा रही थी। उसे मैंने देखा 
था ।। ८३ || 

ध्वजं तु कुरुराजस्य पाण्डवस्य महौजस: । 

दृष्टवानस्मि सौवर्ण सोम॑ ग्रहगणान्वितम्‌ ।। ८४ ।। 

महातेजस्वी कुरुराज पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरकी सुवर्णमयी ध्वजाको मैंने 
चन्द्रमा तथा ग्रहगणोंके चिह्नसे सुशोभित देखा है ।। ८४ ।। 

मृदज्जौ चात्र विपुलौ दिव्यौ नन्दोपनन्दकौ । 

यन्त्रेणाहन्यमानौ च सुस्वनौ हर्षवर्धनी ।। ८५ ।। 

इस ध्वजामें नन्‍्द-उपनन्द नामक दो विशाल एवं दिव्य मृदंग लगे हुए हैं। वे 
यन्त्रके द्वारा बिना बजाये बजते हैं और सुन्दर शब्दका विस्तार करके सबका 
हर्ष बढ़ाते हैं । ८५ ।। 


शरभं पृष्ठसौवर्ण नकुलस्य महाध्वजम्‌ । 

अपश्याम रथे>त्युग्रं भीषयाणमवस्थितम्‌ ।। ८६ ।। 

नकुलकी विशाल ध्वजा शरभके चिह्नसे युक्त तथा पृष्ठभागमें सुवर्णमयी है। 
हमने देखा, वह अत्यन्त भयंकर रूपसे उनके रथपर फहराती और सबको 
भयभीत करती थी ।। ८६ ।। 

हंसस्तु राजत: श्रीमान्‌ ध्वजे घण्टापताकवान्‌ । 

सहदेवस्य दुर्धर्षो द्विषतां शोकवर्धन: ।। ८७ ।। 

सहदेवकी ध्वजामें घंटा और पताकाके साथ चाँदीके बने सुन्दर हंसका चिह्न 
था। वह दुर्धर्ष ध्वज शत्रुओंका शोक बढ़ानेवाला था ।। ८७ ।। 

पज्चानां द्रौपदेयानां प्रतिमा ध्वजभूषणम्‌ | 

धर्ममारुतशक्राणामश्रिनो श्ष महात्मनो: ।। ८८ ।। 

क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा महात्मा अश्विनीकुमारोंकी प्रतिमाएँ पाँचों 
द्रौपदीपुत्रोंके ध्वजोंकी शोभा बढ़ाती थीं ।। 

अभिमन्यो: कुमारस्य शार्ज्गपक्षी हिरण्मय: । 

रथे ध्वजवरो राजंस्तप्तचामीकरोज्ज्वल: ।। ८९ |। 

राजन! कुमार अभिमन्युके रथका श्रेष्ठ ध्वज तपाये हुए सुवर्णसे निर्मित 
होनेके कारण अत्यन्त प्रकाशमान था। उसमें सुवर्णमय शार्हुपक्षीका चिह्न 
था।। 

घटोत्कचस्य राजेन्द्र ध्वजे गृश्रो व्यरोचत । 

अश्वाश्न॒ कामगास्तस्य रावणस्य पुरा यथा ॥। ९० ।। 

राजेन्द्र! राक्षस घटोत्कचकी ध्वजामें गीध शोभा पाता था। पूर्वकालमें 
रावणके रथकी भाँति उसके रथमें भी इच्छानुसार चलनेवाले घोड़े जुते हुए 
थे।। ९० ।। 

माहेन्द्रं च धरनुर्दिव्यं धर्मराजे युधिष्छिरे । 

वायव्यं भीमसेनस्य धर्नुर्दिव्यमभून्रप ।। ९१ ।। 

राजन! धर्मराज युधिष्ठिरके पास महेन्द्रका दिया हुआ दिव्य धनुष शोभा 
पाता था। इसी प्रकार भीमसेनके पास वायु देवताका दिया हुआ दिव्य धनुष 
था ।। ९१ || 

त्रैलोक्यरक्षणार्थाय ब्रह्मणा सृष्टमायुधम्‌ । 

तद्‌ दिव्यमजरं चैव फाल्गुनार्थाय वै धनु: ॥। ९२ ।। 

तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीनी जिस आयुधकी सृष्टि की थी, वह 
कभी जीर्ण न होनेवाला दिव्य गाण्डीव धनुष अर्जुनको प्राप्त हुआ था ।। ९२ ।। 

वैष्णवं नकुलायाथ सहदेवाय चाश्विजम्‌ । 


घटोत्कचाय पौलस्त्य॑ं धरनुर्दिव्यं भयानकम्‌ ।। ९३ ।। 
नकुलको वैष्णव तथा सहदेवको अश्विनीकुमार-सम्बन्धी धनुष प्राप्त था 
तथा घटोत्कचके पास पौलस्त्य नामक भयानक दिव्य धनुष विद्यमान 
था ।। ९३ || 
रौद्रमाग्नेयकौबेरं याम्यं गिरिशमेव च । 
पज्चानां द्रौपदेयानां धनूरत्नानि भारत ।। ९४ ।। 
भरतनन्दन! पाँचों द्रौपदीपुत्रोंके दिव्य धनुषरत्न क्रमश: रुद्र, अग्नि, कुबेर, 
यम तथा भगवान्‌ शंकरसे सम्बन्ध रखनेवाले थे || ९४ ।। 
रौद्रं धनुर्वरं श्रेष्ठ लेभे यद्‌ रोहिणीसुत: । 
तत्‌ तुष्ट: प्रददौ राम: सौभद्राय महात्मने ।। ९५ ।। 
रोहिणीनन्दन बलरामने जो रुद्रसम्बन्धी श्रेष्ठ धनुष प्राप्त किया था, उसे 
उन्होंने संतुष्ट होकर महामना सुभद्राकुमार अभिमन्युको दे दिया था || ९५ |। 
एते चान्ये च बहवो ध्वजा हेमविभूषिता: । 
तत्रादृश्यन्त शूराणां द्विषतां शोकवर्धना: ।। ९६ ।। 
ये तथा और भी बहुत-सी राजाओंकी सुवर्णभूषित ध्वजाएँ वहाँ दिखायी 
देती थीं, जो शत्रुओंका शोक बढ़ानेवाली थीं || ९६ ।। 
तदभूद्‌ ध्वजसम्बाधमकापुरुषसेवितम्‌ । 
द्रोणानीकं महाराज पटे चित्रमिवार्पितम्‌ ।। ९७ ।। 
महाराज! उस समय वीर पुरुषोंसे भरी हुई द्रोणाचार्यकी वह ध्वजविशिष्ट 
सेना पटमें अंकित किये हुए चित्रके समान प्रतीत होती थी ।। ९७ ।। 
शुश्रुवुर्नामगोत्राणि वीराणां संयुगे तदा । 
द्रोणमाद्रवतां राजन्‌ स्वयंवर इवाहवे ।। ९८ ।। 
राजन! उस समय युद्धस्थलमें ट्रोणाचार्यपर आक्रमण करनेवाले वीरोंके 
नाम और गोत्र उसी प्रकार सुनायी पड़ते थे, जैसे स्वयंवरमें सुने जाते 
हैं ।। ९८ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि हयध्वजादिकथने 
त्रयोविंशो 5 ध्याय: ।। २३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें अश्ष और ध्वज 
आदिका वर्णनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २३ ॥। 


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३. नीलकण्ठी टीकामें अश्व-शास्त्रके अनुसार घोड़ोंके रंग और लक्षण आदिका परिचय 
दिया गया है। उसमेंसे कुछ आवश्यक बातें यहाँ यथास्थान उद्धृत की जाती हैं। सारंगका रंग 
सूचित करनेवाला रंग इस प्रकार है-- 

सितनीलारुणो वर्ण: सारंगसदृशश्व सः । 
२. कबूतरका रंग बतानेवाला वचन यों मिलता है-- 
पारावतकपोताभ: सितनीलसमन्वयात्‌ | 
3. काम्बोज (काबुल)-के घोड़ोंका लक्षण-- 
महाललाटजघनस्कन्धवक्षोजवा हया: । दीर्घग्रीवायता हस्वमुष्का: काम्बोजका: 
स्मृता: ।। 

जिनके ललाट, जाँघें, कंधे, छाती और वेग महान्‌ होते हैं, गर्दन लम्बी और चौड़ी होती है 
तथा अण्डकोष बहुत छोटे होते हैं, वे काबुली घोड़े माने गये हैं। 

$. जिस घोड़ेके ललाटके मध्यभागमें ताराके समान श्वेत चिह्न हो, उसके उस चिह्लका नाम 
ललाम है। उससे युक्त अश्व भी ललाम ही कहलाता है। यथा-- 

श्वेत ललाटमध्यस्थं तारारूपं हयस्य यत्‌ | ललाम॑ चापि 
तत्प्राहुर्ललामो<श्वस्तदन्वित: ।। 

२. हरि” का लक्षण इस प्रकार दिया गया है-- 

सकेशराणि रोमाणि सुवर्णाभानि यस्य तु । हरि: स वर्णतो<श्वस्तु 
पीतकौशेयसंनिभ: ।। 

जिसकी गर्दनके बड़े-बड़े बाल और शरीरके रोएँ सुनहरे रंगके हों, जो रंगमें रेशमी 
पीताम्बरके समान जान पड़ता हो, वह घोड़ा “हरि' कहलाता है। 

३. सिंधु देशके घोड़ोंकी गर्दन लम्बी, मूत्रेन्द्रिय मुँहउतक पहुँचनेवाली, आँखे बड़ी-बड़ी, कद 
ऊँचा तथा रोएँ सूक्ष्म होते हैं। सिंधी घोड़े बड़े बलिष्ठ होते हैं, जैसा कि बताया गया है-- 
दीर्घग्रीवा मुखालम्बमेहना: पृथुलोचना: । महान्तस्तनुरोमाणो बलिन: सैन्धवा हया: ।। 

२. पद्मवर्णका परिचय इस प्रकार दिया गया है-- 

सितरक्तसमायोगात्‌ पद्मवर्ण: प्रकीर्त्यते । 
सफेद और लाल रंगोंके सम्मिश्रणसे जो रंग होता है, वह पद्मवर्ण कहलाता है। 

3. बाह्लिक देशके घोड़े भी प्राय: काबुली घोड़ोंके समान ही होते हैं। उनमें विशेषता इतनी 

ही है कि उनका पीठभाग काम्बोजदेशीय घोड़ोंकी अपेक्षा बड़ा होता है। 
जैसा कि निम्नांकित वचनसे स्पष्ट है-- 
काम्बोजसमसंस्थाना बाह्ठविजाताश्न वाजिन: । विशेष: पुनरेतेषां दीर्घपृष्ठाड्गतोच्यते ।। 
४. जिनके रोएँ तथा केसर (गर्दनके बाल) सफेद होते हैं, त्वचा, गुह्म॒भाग, नेत्र, ओठ और 
खुर काले होते हैं, ऐसे घोड़ोंको महर्षियोंने क्रौंचवर्णका बताया है। यथा-- 
सितलोमकेसराढ्या: कृष्णत्वग्गुह्दलोचनोष्ठखुरा: । ये स्युर्मुनिभिर्वाहा निर्दिष्टा: 
क्रौज्चवर्णास्ति ।। 
> ये वसुदान २१।५५ में मारे गये वसुदानसे भिय्न हैं। इन्हें कहीं-कहीं “काश्य'बताया गया है। सम्भाव है, 
ये ही काशिराज हों। 


> यद्यपि सिंहसेन और व्याप्रदत्तके मारे जानेका वर्णन (१६।३७ में) आ चुका है। तथापि यहाँ घोड़ोंके 
वर्णनके प्रसंगमें संजयने सामान्यतः सबके घोड़ोंका उल्लेख कर दिया है। मृत्युसे पहले वे दोनों वैसे ही 
घोड़ोंपर आरूढ हो रणभूमिमें पधारे थे। 


- इन्हींका वर्णन पहले श्लोक ५६ में भी आ चुका है। 


चतुर्विशो$ध्याय: 


धृतराष्ट्रका अपना खेद प्रकाशित करते हुए युद्धके समाचार 
पूछना 


धृतराष्ट उवाच 

व्यथयेयुरिमे सेनां देवानामपि संजय । 

आहवे ये न्यवर्तन्त वृकोदरमुखा नृपा: ॥। १ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! भीमसेन आदि जो-जो नरेश युद्धमें लौटकर आये थे, 
ये तो देवताओंकी सेनाको भी पीड़ित कर सकते हैं ।। १ ।। 

सम्प्रयुक्त: किलैवायं दिष्टर्भवति पूरुष: । 

तस्मिन्नेव च सर्वार्था: प्रदृश्यन्ते पृथग्विधा: ।। २ ।। 

निश्चय ही यह मनुष्य दैवसे प्रेरित होता है। सबके पृथक्‌-पृथक्‌ सम्पूर्ण मनोरथ दैवपर 
ही अवलम्बित दिखायी देते हैं ।। २ ।। 

दीर्घ विप्रोषित: कालमरण्ये जटिलो5जिनी । 

अज्ञातश्वैव लोकस्य विजहार युधिष्िर: ।। ३ ।। 

स एव महतीं सेनां समावर्तयदाहवे । 

किमन्यद्‌ दैवसंयोगान्मम पुत्रस्य चाभवत्‌ ।। ४ ।। 

जो राजा युधिष्छिर दीर्घकालतक जटा और मृगचर्म धारण करके वनमें रहे और कुछ 
कालतक लोगोंसे अज्ञात रहकर भी विचरे हैं, वे ही आज रणभूमिमें विशाल सेना जुटाकर 
चढ़ आये हैं, इसमें मेरे तथा पुत्रोंके दैवयोगके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? ।। 

युक्त एव हि भाग्येन ध्रुवमुत्पद्यते नर: । 

स तथा<55कृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति ।। ५ ।। 

निश्चय ही मनुष्य भाग्यसे युक्त होकर ही जन्म ग्रहण करता है। भाग्य उसे उस 
अवस्थामें भी खींच ले जाता है, जिसमें वह स्वयं नहीं जाना चाहता ।। ५ ।। 

द्यूतव्यसनमासाद्य क्लेशितो हि युधिष्ठिर: । 

स पुनर्भागधेयेन सहायानुपलब्धवान्‌ ।। ६ ।। 

हमने द्यूतके संकटमें डालकर युधिष्ठिरको भारी क्लेश पहुँचाया था, परंतु उन्होंने 
भाग्यसे पुनः बहुतेरे सहायकोंको प्राप्त कर लिया है ।। ६ ।। 

अद्य मे केकया लब्धा: काशिका: कोसलाश्ष ये । 

चेदयश्नापरे वड़ा मामेव समुपाश्रिता: ।। ७ ।। 

पृथिवी भूयसी तात मम पार्थस्य नो तथा । 


इति मामब्रवीत्‌ सूत मन्दो दुर्योधन: पुरा ।। ८ ।। 

सूत संजय! आजसे बहुत पहलेकी बात है, मूर्ख दुर्योधनने मुझसे कहा था कि 
“पिताजी! इस समय केकय, काशी, कोसल तथा चेदिदेशके लोग मेरी सहायताके लिये आ 
गये हैं। दूसरे वंगवासियोंने भी मेरा ही आश्रय लिया है। तात! इस भूमण्डलका बहुत बड़ा 
भाग मेरे साथ है, अर्जुनके साथ नहीं है” ।। ७-८ ।। 

तस्य सेनासमूहस्य मध्ये द्रोण: सुरक्षित: । 

निहतः पार्षतेनाजी किमन्यद्‌ भागधेयत: ।। ९ ।। 

उसी विशाल सेनासमूहके मध्य सुरक्षित हुए द्रोणाचार्यको युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्नने मार 
डाला, इसमें भाग्यके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? ।। ९ ।। 

मध्ये राज्ञां महाबाहुं सदा युद्धाभिनन्दिनम्‌ । 

सर्वस्त्रिपारगं द्रोणं कथं मृत्युरुपेयिवान्‌ ॥। १० ।। 

राजाओंके बीचमें सदा युद्धका अभिनन्दन करनेवाले सम्पूर्ण अस्त्र-विद्याके पारंगत 
विद्वान्‌ महाबाहु द्रोणाचार्यको कैसे मृत्यु प्राप्त हुई? || १० ।। 

समनुप्राप्तकृच्छोी 5हं मोहं परममागत: । 

भीष्मद्रोणौ हतीौ श्रुत्वा नाहं जीवितुमुत्सहे ।। ११ ।। 

मुझपर महान्‌ संकट आ पहुँचा है। मेरी बुद्धिपर अत्यन्त मोह छा गया है। मैं भीष्म 
और द्रोणाचार्यको मारा गया सुनकर जीवित नहीं रह सकता ।। ११ ।। 

यन्मां क्षत्ताब्रवीत्‌ तात प्रपश्यन्‌ पुत्रगृद्धिनम्‌ । 

दुर्योधनेन तत्‌ सर्व प्राप्त सूत मया सह ।। १२ ।। 

तात! मुझे अपने पुत्रोंके प्रति अत्यन्त आसक्त देखकर विदुरने मुझसे जो कुछ कहा 
था, मेरे साथ दुर्योधनको वह सब प्राप्त हो रहा है ।। १२ ।। 

नृशंसं तु परं नु स्यात्‌ त्यक्त्वा दुर्योधनं यदि । 

पुत्रशेषं चिकीर्षेयं कृत्स्नं न मरणं व्रजेत्‌ । १३ ।। 

यदि मैं दुर्योधनको त्यागकर शेष पुत्रोंकी रक्षा करना चाहूँ तो यह अत्यन्त निष्ठरताका 
कार्य अवश्य होगा, परंतु मेरे सारे पुत्रोंकी तथा अन्य सब लोगोंकी भी मृत्यु नहीं 
होगी ।। १३ ।। 

यो हि धर्म परित्यज्य भवत्यर्थपरो नर: । 

सोअस्माच्च हीयते लोकात्‌ क्षुद्रभावं च गच्छति ।। १४ ।। 

जो मनुष्य धर्मका परित्याग करके अर्थपरायण हो जाता है, वह इस लोकसे (लौकिक 
स्वार्थसे) भ्रष्ट हो जाता है और नीच गतिको प्राप्त होता है ।। १४ ।। 

अद्य चाप्यस्य राष्ट्रस्य हतोत्साहस्य संजय । 

अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति ।। १५ ।। 


संजय! आज इस राष्ट्रका उत्साह भंग हो गया। प्रधानके मारे जानेसे अब मुझे 
किसीका जीवन शेष रहता नहीं दिखायी देता || १५ ।। 

कथं स्यादवशेषो हि धुर्ययोरभ्यतीतयो: । 

यौ नित्यमुपजीवाम: क्षमिणौ पुरुषर्षभौ ।। १६ ।। 

हमलोग सदा जिन सर्वसमर्थ पुरुषसिंहोंका आश्रय लेकर जीवन धारण करते थे, उन 
धुरंधर वीरोंके इस लोकसे चले जानेपर अब हमारी सेनाका कोई भी सैनिक कैसे जीवित 
बच सकता है ।। १६ ।। 

व्यक्तमेव च मे शंस यथा युद्धमवर्तत । 

के<्युध्यन्‌ के व्यपाकुर्वन्‌ के क्षुद्रा: प्राद्रवन्‌ भयात्‌ ।। १७ ।। 

संजय! वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, सब साफ-साफ मुझसे बताओ। कौन-कौन वीर 
युद्ध करते थे, कौन किसको परास्त करते थे और कौन-कौन-से क्षुद्र सैनिक भयके कारण 
युद्धके मैदानसे भाग गये थे ।। 

धनंजयं च मे शंस यद्‌ यच्चक्रे रथर्षभ: । 

तस्माद्‌ भयं नो भूयिष्ठं भ्रातृव्याच्च वृकोदरात्‌ ।। १८ ।। 

धनंजय अर्जुनके विषयमें भी मुझे बताओ। रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने क्या-क्या किया था। 
मुझे उनसे तथा शत्रुस्वरूप भीमसेनसे अधिक भय लगता है || १८ ।॥। 

यथा<<सीच्च निवृत्तेषु पाण्डवेयेषु संजय । 

मम सैन्यावशेषस्य संनिपात: सुदारुण: ।। १९ ।। 

संजय! पाण्डव-सैनिकोंके पुनः युद्धभूमिमें लौट आनेपर मेरी शेष सेनाके साथ जिस 
प्रकार उनका अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, वह कहो ।। १९ ।। 

कथं च वो मनस्तात निवृत्तेष्वडभवत्‌ तदा । 

मामकानां च ये शूरा: के कांस्तत्र न्यवारयन्‌ ।। २० ।। 

तात! पाण्डव-सैनिकोंके लौटनेपर तुमलोगोंके मनकी कैसी दशा हुई? मेरे पुत्रोंकी 
सेनामें जो शूरवीर थे, उनमेंसे किन लोगोंने शत्रुपक्षके किन वीरोंको रोका था? | २० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये चतुर्विशो5ध्याय: ।। 
२४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक 
चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २४ ॥। 


ऑपन--माजल बछ। अकाल 


पज्चविशो< ध्याय: 
कौरव-पाण्डव-सैनिकोंके द्वन्द-युद्ध 


संजय उवाच 

महद्‌ भैरवमासीज्न: संनिवृत्तेषु पाण्डुषु । 

दृष्टवा द्रोणं छाद्यमानं तैर्भास्करमिवाम्बुदै: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! पाण्डव-सैनिकोंके लौटनेपर जैसे बादलोंसे सूर्य ढक जाते 
हैं, उसी प्रकार उनके बाणोंसे द्रोणाचार्य आच्छादित होने लगे। यह देखकर हमलोगोंने 
उनके साथ बड़ा भयंकर संग्राम किया ।। १ ।। 

तैश्वोद्धूतं रजस्तीव्रमवर्चक्रे चमूं तव । 

ततो हतममंसस्‍्याम द्रोणं दृष्टिपथे हते ॥। २ ।। 

उन सैनिकोंद्वारा उड़ायी हुई तीव्र धूलने आपकी सारी सेनाको ढक दिया। फिर तो 
हमारी दृष्टिका मार्ग अवरुद्ध हो गया और हमने समझ लिया कि द्रोण मारे गये ।। २ ।। 

तांस्तु शूरान्‌ महेष्वासान्‌ क्रूरं कर्म चिकीर्षत: । 

दृष्टवा दुर्योधनस्तूर्ण स्वसैन्यं समचूचुदत्‌ ।। ३ ।। 

उन महाथनुर्थधर शूरवीरोंको क्रूर कर्म करनेके लिये उत्सुक देख दुर्योधनने तुरंत ही 
अपनी सेनाको इस प्रकार आज्ञा दी-- || ३ ।। 

यथाशक्ति यथोत्साहं यथासत्त्वं नराधिपा: । 

वारयध्वं यथायोगं पाण्डवानामनीकिनीम्‌ ।। ४ ।। 

“नरेश्वरो! तुम सब लोग अपनी शक्ति, उत्साह और बलके अनुसार यथोचित उपायद्वारा 
पाण्डवोंकी सेनाको रोको” ।। ४ ।। 

ततो दुर्मर्षणो भीममभ्यगच्छत्‌ सुतस्तव । 

आराद्‌ दृष्टवा किरन्‌ बाणैर्जिघ्क्षुस्तस्य जीवितम्‌ ।। ५ ।। 

तब आपके पुत्र दुर्मरषणने भीमसेनको अपने पास ही देखकर उनके प्राण लेनेकी 
इच्छासे बाणोंकी वर्षा करते हुए उनपर आक्रमण किया ।। ५ |। 

त॑ं बाणैरवतस्तार क्रुद्धो मृत्युरिवाहवे । 

तं च भीमो5तुदद्‌ बाणैस्तदा55सीत्‌ तुमुलं महत्‌ ।। ६ ।। 

उसने क्रोधमें भरी हुई मृत्युके समान युद्धस्थलमें बाणोंद्वारा भीमसेनको ढक दिया। 
साथ ही भीमसेनने भी अपने बाणोंद्वारा उसे गहरी चोट पहुँचायी। इस प्रकार उन दोनोंमें 
महाभयंकर युद्ध होने लगा ।। ६ ।। 

त ईश्वरसमादिष्टा: प्राज्ञा: शूरा: प्रहारिण: । 

राज्यं मृत्युभयं त्यक्त्वा प्रत्यतिष्ठन्‌ परान्‌ युधि ।। ७ ।। 


अपने स्वामी राजा दुर्योधनकी आज्ञा पाकर वे प्रहार करनेमें कुशल बुद्धिमान्‌ शूरवीर 
राज्यको और मृत्युके भयको छोड़कर युद्धस्थलमें शत्रुओंका सामना करने लगे ।। ७ ।। 

कृतवर्मा शिने: पौत्रं द्रोणं प्रेप्सुं विशाम्पते । 

पर्यवारयदायान्तं शूरं समरशोभिनम्‌ ।। ८ ।। 

प्रजानाथ! द्रोणको अपने वशमें करनेकी इच्छासे आगे बढ़ते हुए संग्राममें शोभा 
पानेवाले शूरवीर सात्यकिको कृतवर्माने रोक दिया ।। ८ ।। 

त॑ शैनेय: शख्रातै: क्रुद्ध: क़ुद्धमवारयत्‌ । 

कृतवर्मा च शैनेयं मत्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। ९ ।। 

तब क्रोधमें भरे हुए सात्यकिने कुपित हुए कृतवर्माको अपने बाणसमूहोंद्वारा आगे 
बढ़नेसे रोका और कृतवर्माने सात्यकिको। ठीक उसी तरह, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे 
मतवाले गजराजको रोक देता है ।। 

सैन्धव: क्षत्रवर्माणमायान्तं निशितै: शरै: । 

उग्रधन्वा महेष्वासं यत्तो द्रोणादवारयत्‌ ।। १० ।। 

भयंकर धनुष धारण करनेवाले सिंधुराज जयद्रथने महाधनुर्धर क्षत्रवर्माको अपने तीखे 
बाणोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक द्रोणाचार्यकी ओर आनेसे रोक दिया ।। १० ।। 

क्षत्रवर्मा सिन्धुपतेश्छित्त्वा केतनकार्मुके । 

नाराचैर्दशभि: क्रुद्धः सर्वमर्मस्वताडयत्‌ ।। ११ ।। 

क्षत्रवर्माने कुपित हो सिंधुराज जयद्रथके ध्वज और धनुष काटकर दस नाराचोंद्वारा 
उसके सभी मर्मस्थानोंमें चोट पहुँचायी || ११ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सैन्धव: कृतहस्तवत्‌ । 

विव्याध क्षत्रवर्माणं रणे सर्वायसै: शरै: ।। १२ ।। 

तब सिंधुराजने दूसरा धनुष लेकर सिद्धहस्त पुरुषकी भाँति सम्पूर्णतः लोहेके बने हुए 
बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें क्षत्रवर्माको घायल कर दिया ।। १२ |। 

युयुत्सुं पाण्डवार्थाय यतमानं महारथम्‌ | 

सुबाहुर्भारतं शूरं यत्तो द्रोणादवारयत्‌ ।। १३ ।। 

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके हितके लिये प्रयत्न करनेवाले भरतवंशी महारथी शूरवीर 
युयुत्सुको सुबाहुने प्रयत्नपूर्वक द्रोणाचार्यकी ओर आनेसे रोक दिया ।। 

सुबाहो: सथनुर्बाणावस्यत: परिघोपमौ । 

युयुत्सु: शितपीता भ्यां क्षुरा भ्यामच्छिनद्‌भुजी ।। १४ ।। 

तब युयुत्सुने प्रहार करते हुए सुबाहुकी परिघके समान मोटी एवं धनुष-बाणोंसे युक्त 
दोनों भुजाओंको अपने तीखे और पानीदार दो छूरोंद्वारा काट गिराया ।। 

राजानं पाण्डवश्रेष्ठ॑ धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्‌ । 

वेलेव सागर क्षुब्ध॑ मद्रराट्‌् समवारयत्‌ ।। १५ ।। 


पाण्डवश्रेष्ठ धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरको मद्रराज शल्यने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे 
क्षुब्ध महासागरको तटकी भूमि रोक देती है ।। १५ ।। 

तं धर्मराजो बहुभिम्मर्मभिद्धिरवाकिरत्‌ । 

मद्रेशस्तं चतुःषष्ट्या शरैरविद्ध्वानदद्‌ भूशम्‌ ।। १६ ।। 

धर्मराज युधिष्ठिरने शल्यपर बहुत-से मर्मभेदी बाणोंकी वर्षा की। तब मद्रराज भी 
चौंसठ बाणोंद्वारा युधिष्ठिरको घायल करके जोर-जोरसे गर्जना करने लगे || १६ ।। 

तस्य नानदत: केतुमुच्चकर्त च कार्मुकम्‌ । 

क्षुराभ्यां पाण्डवो ज्येष्ठस्तत उच्चुक्रुशुर्जना: | १७ ।। 

तब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरने दो छुरोंद्वारा गर्जना करते हुए राजा शल्यके ध्वज और 
धनुषको काट डाला। यह देख सब लोग हर्षसे कोलाहल कर उठे ।। १७ ।। 

तथैव राजा बाह्लीको राजान द्रुपदं शरै: । 

आद्रवन्तं सहानीक: सहानीकं न्‍्यवारयत्‌ ।। १८ ।। 

इसी प्रकार अपनी सेनासहित राजा बाह्लीकने सैनिकोंके साथ धावा करते हुए राजा 
द्रपदको अपने बाणोंद्वारा रोक दिया ।। १८ ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ घोरं वृद्धयो: सहसेनयो: । 

यथा महायूथपयोर्दििपयो: सम्प्रभिन्नयो: ।। १९ ।। 

जैसे मदकी धारा बहानेवाले दो विशाल गजयूथपतियोंमें लड़ाई होती है, उसी प्रकार 
सेनासहित उन दोनों वृद्ध नरेशोंमें बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराट मत्स्यमार्च्छताम्‌ । 

सहसैन्यौ सहानीकं यथेन्द्राग्नी पुरा बलिम्‌ ।। २० ।। 

अवन्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्दने अपनी सेनाओंको साथ लेकर विशाल 
वाहिनीसहित मत्स्यराज विराटपर उसी प्रकार धावा किया, जैसे पूर्वकालमें अग्नि और 
इन्द्रने राजा बलिपर आक्रमण किया था ।। 

तदुत्पिज्जलकं युद्धमासीद्‌ देवासुरोपमम्‌ । 

मत्स्यानां केकयै: सार्धमभीताश्वरथद्विपम्‌ ।। २१ ।। 

उस समय मत्स्यदेशीय सैनिकोंका केकयदेशीय योद्धाओंके साथ देवासुर-संग्रामके 
समान अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ। उसमें हाथी, घोड़े और रथ सभी निर्भय होकर एक- 
दूसरेसे लड़ रहे थे || २१ ।। 

नाकुलिं तु शतानीकं भूतकर्मा सभापति: । 

अस्यन्तमिषुजालानि यान्तं द्रोणादवारयत्‌ ।। २२ ।। 

नकुलका पुत्र शतानीक बाण-समूहोंकी वर्षा करता हुआ द्रोणाचार्यकी ओर बढ़ रहा 
था। उस समय भूतकर्मा सभापतिने उसे द्रोणकी ओर आनेसे रोक दिया ।। 

ततो नकुलदायादस्त्रिभिर्भल्लै: सुसंशितै: । 


चक्रे विबाहुशिरसं भूतकर्माणमाहवे ।। २३ ।। 

तदनन्तर नकुलके पुत्रने तीन तीखे भललोंद्वारा युद्धमें भूतकर्माकी बाहु तथा मस्तक 
काट डाले ।। २३ ।। 

सुतसोम॑ तु विक्रान्तमायान्तं तं शरौधिणम्‌ । 

द्रोणायाभिमुखं वीर॑ विविंशतिरवारयत्‌ ।। २४ ।। 

पराक्रमी वीर सुतसोम बाण-समूहोंकी बौछार करता हुआ द्रोणाचार्यके सम्मुख आ रहा 
था। उसे विविंशतिने रोक दिया || २४ ।। 

सुतसोमस्तु संक्रुद्ध: स्वपितृव्यमजिद्दागै: । 

विविंशतिं शरैर्भित्त्वा नाभ्यवर्तत दंशित: ।। २५ ।। 

तब सुतसोमने अत्यन्त कुपित हो अपने चाचा विविंशतिको सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा 
घायल कर दिया और स्वयं एक वीर पुरुषकी भाँति कवच बाँधे सामने खड़ा रहा || २५ ।। 

अथ भीमरथ: शाल्वमाशुगैरायसै: शितै: । 

षड्भि: साश्चव॒नियन्तारमनयद्‌ यमसादनम्‌ ।। २६ ।। 

तदनन्तर भीमरथने छः: तीखे लोहमय शीघ्रगामी बाणोंद्वारा सारथिसहित शाल्वको 
यमलोक पहुँचा दिया ।। 

श्रुतकर्माणमायान्तं मयूरसदृशै्हयै: । 

चैत्रसेनिर्महाराज तव पौत्रं न्‍्यवारयत्‌ || २७ ।। 

महाराज! श्रुतकर्मा मोरके समान रंगवाले घोड़ोंपर आ रहा था। उस आपके पौत्र 
श्रुतकर्माको चित्रसेनके पुत्रने रोका || २७ ।। 

तौ पौत्रौ तव दुर्धर्षो परस्परवधैषिणौ । 

पितृणामर्थसिद्धयर्थ चक्रतुर्युद्धमुत्तमम्‌ ।। २८ ।। 

आपके दोनों दुर्जय पौत्र एक-दूसरेके वधकी इच्छा रखकर अपने पितृगणोंका मनोरथ 
सिद्ध करनेके लिये अच्छी तरह युद्ध करने लगे ।। २८ ।। 

तिष्ठन्तमग्रे तं दृष्टवा प्रतिविन्ध्यं महाहवे । 

द्रौणिर्मानं पितुः कुर्वन्‌ मार्गणै: समवारयत्‌ ।। २९ ।। 

उस महासमसमें प्रतिविन्ध्यको द्रोणाचार्यके सामने खड़ा देख पिताका सम्मान करते 
हुए अश्वत्थामाने बाणोंद्वारा रोक दिया || २९ |। 

त॑ क्रुद्धें प्रतिविव्याथ प्रतिविन्ध्य: शितै: शरै: । 

सिंहलाड्गूललक्ष्माणं पितुरर्थे व्यवस्थितम्‌ ।। ३० ।। 

जिसके ध्वजमें सिंहके पूँछका चिह्न था और जो पिताकी इष्ट सिद्धिके लिये खड़ा था, 
उस क्रोधमें भरे हुए अश्वत्थामाको प्रतिविन्ध्यने अपने पैने बाणोंद्वारा बींध डाला || ३० ।। 

प्रवपन्निव बीजानि बीजकाले नरर्षभ । 

द्रौणायनिद्रौपदेयं शरवर्षैरवाकिरत्‌ ।। ३१ ।। 


नरश्रेष्ठ! तब द्रोणपुत्र भी द्रौपदीकुमार प्रतिविन्ध्यपर बाणोंकी वर्षा करने लगा, मानो 
किसान बीज बोनेके समयपर खेतमें बीज डाल रहा हो ।। ३१ ।। 

आर्जुनिं श्रुतकीर्ति तु द्रौपदेयं महारथम्‌ । 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं दौःशासनिरवारयत्‌ ।। ३२ ।। 

तदनन्तर अर्जुनपुत्र द्रौपदीकुमार महारथी श्रुतकीर्तिको द्रोणाचार्यके सामने जाते देख 
दुःशासनके पुत्रने रोका ।। 

तस्य कृष्णसम: कार्ष्णिस्त्रिभिर्भल्लै: सुसंशितै: । 

धनुर्ध्वजं च सूतं च छित्त्वा द्रोणान्तिकं ययौ ।। ३३ ।। 

तब अर्जुनके समान पराक्रमी अर्जुनकुमार तीन अत्यन्त तीखे भल्लोंद्वारा 
दुःशासनपुत्रके धनुष, ध्वज और सारथिके टुकड़े-टुकड़े करके द्रोणाचार्यके समीप जा 
पहुँचा || ३३ ।। 

यस्तु शूरतमो राजन्नुभयो: सेनयोर्मत: । 

त॑ पटच्चरहन्तारं लक्ष्मण: समवारयत्‌ ।। ३४ ।। 

राजन! जो दोनों सेनाओंमें सबसे अधिक शूरवीर माना जाता था, डाकू और लुटेरोंको 
मारनेवाले उस समुद्री प्रान्तोंके अधिपतिको दुर्योधनपुत्र लक्ष्मणने रोका ।। 

स लक्ष्मणस्येष्वसनं छित्त्वा लक्ष्म च भारत । 

लक्ष्मणे शरजालानि विसृजन्‌ बह्बशोभत ।। ३५ ।। 

भारत! तब वह लक्ष्मणके धनुष और ध्वजचिह्लको काटकर उसके ऊपर बाण- 
समूहोंकी वर्षा करता हुआ बहुत शोभा पाने लगा ।। ३५ |। 

विकर्णस्तु महाप्राज्ञो याज्ञसेनिं शिखण्डिनम्‌ । 

पर्यवारयदायान्तं युवानं समरे युवा || ३६ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ नवयुवक विकर्णने युवावस्थासे सम्पन्न ट्रपदकुमार शिखण्डीको युद्धमें 
आगे बढ़नेसे रोका ।। 

ततस्तमिषुजालेन याज्ञसेनि: समावृणोत्‌ । 

विधूय तद्‌ बाणजालं बभौ तव सुतो बली ।। ३७ ।। 

तब शिखण्डीने अपने बाण-समूहसे विकर्णको आच्छादित कर दिया। आपका बलवान्‌ 
पुत्र उस सायक-जालको छित्न-भिन्न करके बड़ी शोभा पाने लगा ।। ३७ ।। 

अड्ढदो$भिमुखं वीरमुत्तमौजसमाहवे । 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं शरौघेण न्यवारयत्‌ ।। ३८ ।। 

अंगदने वीर उत्तमौजाको अपने और द्रोणाचार्यके सामने आते देख युद्धस्थलमें अपने 
बाणसमुदायकी वर्षासे रोक दिया ।। ३८ ।। 

स सम्प्रहारस्तुमुलस्तयो: पुरुषसिंहयो: । 

सैनिकानां च सर्वेषां तयोश्ष प्रीतिवर्धन: ।। ३९ ।। 


उन दोनों पुरुषसिंहोंमें बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया। वह संग्राम समस्त सैनिकोंकी तथा 
उन दोनोंकी भी प्रसन्नताको बढ़ा रहा था || ३९ |। 

दुर्मुखस्तु महेष्वासो वीरं पुरुजितं बली । 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं वत्सदन्तैरवारयत्‌ ।। ४० ।। 

महाधनुर्धर बलवान्‌ दुर्मुखने द्रोणाचार्यके सामने जाते हुए वीर पुरुजित॒को वत्सदन्तोंके 
प्रहारद्वारा रोक दिया || ४० ।। 

स दुर्मुखं भ्रुवोर्मध्ये नाराचेना भ्यताडयत्‌ । 

तस्य तद्‌ विबभौ वकक्‍त्रं सनालमिव पड़कजम्‌ ।। ४१ ।। 

तब पुरुजितने एक नाराचद्वारा दुर्मुखपर उसकी दोनों भौंहोंके मध्यभागमें प्रहार किया। 
उस समय दुर्मुखका मुख मृणालयुक्त कमलके समान सुशोभित हुआ ।। 

कर्णस्तु केकयान्‌ भ्रातूनू पजच लोहितकध्वजान्‌ । 

द्रोणायाभिमुखं यातान्‌ शरवर्षैरवारयत्‌ ।। ४२ ।। 

कर्णने लाल रंगकी ध्वजासे सुशोभित पाँचों भाई केकयराजकुमारोंको द्रोणाचार्यके 
सम्मुख जाते देख उन्हें बाणोंकी वर्षसे रोक दिया ।। ४२ ।। 

ते चैनं भृशसंतप्ता: शरवर्षरवाकिरन्‌ । 

स च तांश्छादयामास शरजालै: पुन: पुन: ।। ४३ ।। 

तब वे अत्यन्त संतप्त हो कर्णपर बाणोंकी झड़ी लगाने लगे और कर्णने भी अपने 
बाणोंके समूहसे उन्हें बार-बार आच्छादित कर दिया ।। ४३ ।। 

नैव कर्णो न ते पञ्च ददृशुर्बाणसंवृता: । 

साश्व॒सूतध्वजरथा: परस्परशराचिता: ।। ४४ ।। 

कर्ण तथा वे पाँचों राजकुमार एक-दूसरेके बरसाये हुए बाण-समूहोंसे व्याप्त एवं 
आच्छादित होकर घोड़े, सारथि, ध्वज तथा रथसहित अदृश्य हो गये थे || ४४ ।। 

पुत्रास्ते दुर्जयश्वैव जयश्न विजयश्व ह । 

नीलकाश्यजयत्सेनांस्त्रयस्त्रीन्‌ प्रत्यवारयन्‌ ।। ४५ ।। 

राजन्‌! आपके तीन पुत्र दुर्जय, जय और विजयने नील, काश्य तथा जयत्सेन--इन 
तीनोंको रोक दिया ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ घोरमीक्षितृप्रीतिवर्धनम्‌ । 

सिंहव्याप्रतरक्षूणां यथर्क्षमहिषर्ष भै: ।। ४६ ।। 

उन सबमें भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो सिंह, व्याप्र और तेंदुओं (जर्खों)-का रीछों, भैसों 
तथा साँड़ोंके साथ होनेवाले युद्धके समान दर्शकोंके हर्षको बढ़ानेवाला था || ४६ ।। 

क्षेमधूर्तिबृहन्तौ तु भ्रातरौ सात्वतं युधि । 

द्रोणायाभिमुखं यान्तं शरैस्तीक्ष्णैस्ततक्षतु: ।। ४७ ।। 


क्षेमधूर्ति और बृहन्त--ये दोनों भाई युद्धमें द्रोणाचार्यके सामने जाते हुए सात्यकिको 
अपने पैने बाणोंद्वारा घायल करने लगे || ४७ ।। 

तयोस्तस्य च तद्‌ युद्धमत्यद्भुतमिवाभवत्‌ । 

सिंहस्य द्विपमुख्याभ्यां प्रभिन्नाभ्यां यथा वने ।। ४८ ।। 

जैसे वनमें दो मदस्रावी गजराजोंके साथ एक सिंहका युद्ध हो रहा हो, उसी प्रकार उन 
दोनों भाइयों तथा सात्यकिका युद्ध अत्यन्त अद्भुत-सा हो रहा था ।। 

राजानं तु तथम्बष्ठमेकं युद्धाभिनन्दिनम्‌ । 

चेदिराज: शरानस्यन्‌ क्रुद्धो द्रोणादवारयत्‌ ।। ४९ ।। 

युद्धका अभिनन्दन करनेवाले राजा अम्बष्ठको क्रोधमें भरे हुए चेदिराजने बाणोंकी वर्षा 
करते हुए द्रोणाचार्यके पास आनेसे रोक दिया ।। ४९ ।। 

ततोअसम्बष्ठोडस्थिभेदिन्या निरभिद्यच्छलाकया । 

स त्यक्त्वा सशरं चापं रथाद्‌ भूमिमुपागमत्‌ ।। ५० ।। 

तब अम्बष्ठने हड्डियोंको छेद देनेवाली शलाकाद्वारा चेदिराजको विदीर्ण कर दिया। वे 
बाणसहित धनुषको त्यागकर रथसे पृथ्वीपर गिर पड़े || ५० ।। 

वार्थक्षेमिं तु वा्ष्णेयं कृप: शारद्वत: शरै: । 

अक्षुद्र: क्षुद्रकैदोणात्‌ क्रुद्धसबज-्पजमवारयत्‌ ।। ५१ ।। 

शरद्वानके पुत्र श्रेष्ठ कृपाचार्यने क्रोधमें भरे हुए वृष्णिवंशी वार्थक्षेमिको अपने 
बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यके पास आनेसे रोका ।। ५१ ।। 

युध्यन्तौ कृपवार्ष्णेयौ येडपश्यंश्रित्रयोधिनौ । 

ते युद्धासक्तमनसो नानयां बुबुधिरे क्रियाम्‌ ।। ५२ ।। 

कृपाचार्य और वृष्णिवंशी वीर वार्थक्षेमि विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले थे। जिन लोगोंने 
उन दोनोंको युद्ध करते देखा, उनका मन उसीमें आसक्त हो गया। उन्हें दूसरी किसी 
क्रियाका भान नहीं रहा ।। ५२ ।। 

सौमदत्तिस्तु राजानं मणिमन्तमतन्द्रितम्‌ । 

पर्यवारयदायान्तं यशो द्रोणस्य वर्धयन्‌ ।। ५३ ।। 

सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाने द्रोणाचार्यका यश बढ़ाते हुए उनपर आक्रमण करनेवाले 
आलस्यरहित राजा मणिमान्‌को रोक दिया ।। ५३ ।। 

स सैमदत्तेस्त्वरितश्रित्रेष्वसनकेतने । 

पुनः पताकां सूतं च छत्र॑ं चापातयद्‌ रथात्‌ ।। ५४ ।। 

तब उन्होंने तुरंत ही शूरिश्रवाके विचित्र धनुष, ध्वजा-पताका, सारथि और छत्रको 
रथसे काट गिराया ।। ५४ ।। 

अथाप्लुत्य रथात्‌ तूर्ण यूपकेतुरमित्रहा । 

साश्व॒सूतध्वजरथं तं चकर्त वरासिना ।। ५५ || 


यह देख यूपके चिह्नसे सुशोभित ध्वजवाले शत्रुसूदन भूरिश्रवाने तुरंत ही रथसे कूदकर 
लंबी तलवारसे घोड़े, सारथि, ध्वज एवं रथसहित राजा मणिमान्‌को काट डाला ।। ५५ || 

रथं च स्वं समास्थाय धनुरादाय चापरम्‌ | 

स्वयं यच्छन्‌ हयान्‌ राजन्‌ व्यधमत्‌ पाण्डवीं चमूम्‌ ।। ५६ ।। 

राजन! तत्पश्चात्‌ भूरिश्रवा अपने रथपर बैठकर स्वयं ही घोड़ोंकों काबूमें रखता हुआ 
दूसरा धनुष हाथमें ले पाण्डव-सेनाका संहार करने लगा ।। ५६ ।। 

पाण्ड्यमिन्द्रमिवायान्तमसुरान्‌ प्रति दुर्जयम्‌ । 

समर्थ: सायकौचैन वृषसेनो न्‍्यवारयत्‌ ।। ५७ ।। 

जैसे इन्द्र असुरोंपर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्यपर धावा करनेवाले दुर्जय 
वीर पाण्ड्यको शक्तिशाली वीर वृषसेनने अपने सायकसमूहसे रोक दिया ।। ५७ ।। 

गदापरिघनिस्त्रिंशपट्टिशायोघनोपलै: । 

कडड्रैर्भुशुण्डीभि: प्रासैस्तोमरसायकै: ।। ५८ ।। 

मुसलैर्मुद्गरैश्वक्रैर्भिन्दिपालपर श्वथै: । 

पांसुवाताग्निसलिलैर्भस्मलोष्ठतृणद्रुमै: ।। ५९ ।। 

आतुदन्‌ प्ररुजन्‌ भज्जन्‌ निध्नन्‌ विद्रावयन्‌ क्षिपन्‌ | 

सेनां विभीषयन्नायाद्‌ द्रौणप्रेप्सुर्घटोत्कच: ।॥ ६० ।। 

तत्पश्चात्‌ गदा, परिघ, खड़्ग, पट्टिश, लोहेके घन, पत्थर, कडंगर, भुशुण्डि, प्रास, 
तोमर, सायक, मुसल, मुदगर, चक्र, भिन्दिपाल, फरसा, धूल, हवा, अग्नि, जल, भस्म, 
मिट्टीके ढेले, तिनके तथा वृक्षोंसे कौरव-सेनाको पीड़ा देता, शत्रुओंका अंग-भंग करता, 
तोड़ता-फोड़ता, मारता-भगाता, फेंकता एवं सारी सेनाको भयभीत करता हुआ घटोत्कच 
वहाँ ट्रोणाचार्यको पकड़नेके लिये आया || ५८--६० ।। 

तं तु नानाप्रहरणैर्नानायुद्धविशेषणै: । 

राक्षसं राक्षस: क्रुद्ध: समाजघ्ने हुलम्बुष: ।। ६१ ।। 

उस समय उस राक्षसको क्रोधमें भरे हुए अलम्बुष नामक राक्षसने ही अनेकानेक 
युद्धोंमें उपयोगी नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी ।। 

तयोस्तदभवद्‌ युद्ध रक्षोग्रामणिमुख्ययो: । 

तादृग्‌ यादृक्‌ पुरावृत्तं शम्बरामरराजयो: ।। ६२ ।। 

उन दोनों श्रेष्ठ राक्षसयूथपतियोंमें वैसा ही युद्ध हुआ, जैसा कि पूर्वकालमें शम्बरासुर 
तथा देवराज इन्द्रमें हुआ था ।। ६२ ।। 

(भारद्वाजस्तु सेनानयं धृष्टद्युम्नं महारथम्‌ । 

तमेव राजन्नायान्तमतिक्रम्य परान्‌ रिपून्‌ ।। 

महता शरजालेन किरन्तं शत्रुवाहिनीम्‌ । 

अवारयन्महाराज सामात्यं सपदानुगम्‌ ।। 


महाराज! भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यने देखा कि पाण्डव-सेनापति महारथी धूृष्टद्युम्न 
दूसरे शत्रुओंको लाँधकर अपने मन्त्रियों तथा सेवकोंसहित मेरी ही ओर आ रहा है और 
शत्रुसेनापर बाणोंका भारी जाल-सा बिखेर रहा है, तब उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर उसे 
रोका। 

अथान्ये पार्थिवा राजन्‌ बहुत्वान्नातिकीर्तिता: । 

समसज्जन्त सर्वे ते यथायोगं यथाबलम्‌ ।। 

राजन! इसी प्रकार अन्य सब राजा भी अपने बल और साधनोंके अनुसार शत्रुओंके 
साथ भिड़ गये। उनकी संख्या बहुत होनेके कारण सबके नामोंका उल्लेख नहीं किया गया 
है। 

हयैहयांस्तथा जग्मु: कुञ्जरैरेव कुञ्जरा: । 

पदातय: पदातीभी रथैरेव महारथा: ।। 

अकुर्वन्नार्यकर्माणि तत्रैव पुरुषर्षभा: । 

कुलवीर्यानुरूपाणि संसृष्टा श्न॒ परस्परम्‌ ।।) 

घोड़ोंसे घोड़े, हाथियोंसे हाथी, पैदलोंसे पैदल तथा बड़े-बड़े रथोंसे महान्‌ रथ जूझ रहे 
थे। उस युद्धमें पुरुष-शिरोमणि वीर अपने कुल और पराक्रमके अनुरूप एक-दूसरेसे 
भिड़कर आर्यजनोचित कर्म कर रहे थे। 

एवं द्वन्द्शशतान्यासन्‌ रथवारणवाजिनाम्‌ । 

पदातीनां च भद्रं ते तव तेषां च संकुले ।। ६३ ।। 

महाराज! आपका कल्याण हो। इस प्रकार आपके और पाण्डवोंके उस भयंकर 
संग्राममें रथ, हाथी, घोड़ों और पैदल सैनिकोंके सैकड़ों द्वद्दध आपसमें युद्ध कर रहे 
थे ।। ६३ ।। 

नैतादृशो दृष्टपूर्व: संग्रामो नैव च श्रुतः । 

द्रोणस्याभावभावे तु प्रसक्तानां यथाभवत्‌ ।। ६४ ।। 

द्रोणाचार्यके वध और संरक्षणमें लगे हुए पाण्डव तथा कौरव-सैनिकोंमें जैसा संग्राम 
हुआ था, ऐसा पहले कभी न तो देखा गया है और न सुना ही गया है ।। ६४ ।। 

इदं घोरमिदं चित्रमिदं रौद्रमिति प्रभो । 

तत्र युद्धान्यदृश्यन्त प्रततानि बहूनि च ।। ६५ ।। 

प्रभो! वहाँ भिन्न-भिन्न दलोंमें बहुत-से विस्तृत युद्ध दृष्टिगोचर हो रहे थे, जिन्हें देखकर 
दर्शक कहते थे “यह घोर युद्ध हो रहा है, यह विचित्र संग्राम दिखायी देता है और यह 
अत्यन्त भयंकर मारकाट हो रही है! || ६५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वन्द्ययुद्धे पज्चविंशो5ध्याय: ।। २५ 
|। 


इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें द्वद्धयुद्धविषयक पचीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। २५ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ७० श्लोक हैं।) 


अपन बक। ] अति्ऑशाए:< 


षड्विशो<5ध्याय: 


भीमसेनका भगदत्तके हाथीके साथ युद्ध, हाथी और 
भगदत्तका भयानक पराक्रम 


धृतराष्ट्र रवाच 

तेष्वेवं संनिवत्तेषु प्रत्युद्यातेषु भागश: । 

कथं युयुधिरे पार्था मामकाश्न तरस्विन: ।। १ ।। 

किमर्जुनश्वाप्पकरोत्‌ संशप्तकबलं प्रति | 

संशप्तका वा पार्थस्य किमकुर्वत संजय ।। २ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! इस प्रकार जब सैनिक पृथक्‌-पृथक्‌ युद्धके लिये लौटे और 
कौरव-योद्धा आगे बढ़कर सामना करनेके लिये उद्यत हुए, उस समय मेरे तथा कुन्तीके 
वेगशाली पुत्रोंने आपसमें किस प्रकार युद्ध किया? संशप्तकोंकी सेनापर चढ़ाई करके 
अर्जुनने क्या किया? अथवा संशप्तकोंने अर्जुनका क्या कर लिया? ।॥। १-२ ।। 

संजय उवाच 

तथा तेषु निवृत्तेषु प्रत्युद्यातेषु भागश: । 

स्वयमभ्यद्रवद्‌ भीम॑ नागानीकेन ते सुत: ।। ३ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! इस प्रकार जब पाण्डव-सैनिक पृथक्‌-पृथक्‌ युद्धके लिये 
लौटे और कौरव-योद्धा आगे बढ़कर सामना करनेके लिये उद्यत हुए, उस समय आपके पुत्र 
दुर्योधनने हाथियोंकी सेना साथ लेकर स्वयं ही भीमसेनपर आक्रमण किया ।। ३ ।। 

स नाग इव नागेन गोवृषेणेव गोवृष: । 

समाहूत: स्वयं राज्ञा नागानीकमुपाद्रवत्‌ ।। ४ ।। 

जैसे हाथीसे हाथी और साँड़से साँड़ भिड़ जाता है, उसी प्रकार राजा दुर्योधनके 
ललकारनेपर भीमसेन स्वयं ही हाथियोंकी सेनापर टूट पड़े || ४ ।। 

स युद्धकुशल: पार्थो बाहुवीर्येण चान्वित: । 

अभिनत्‌ कुञ्जरानीकमचिरेणैव मारिष ।। ५ ।। 

आदरणीय नरेश! कुन्तीकुमार भीमसेन युद्धमें कुशल तथा बाहुबलसे सम्पन्न हैं। 
उन्होंने थोड़ी ही देरमें हाथियोंकी उस सेनाको विदीर्ण कर डाला ।। ५ ।। 

ते गजा गिरिसंकाशा: क्षरन्त: सर्वतो मदम्‌ । 

भीमसेनस्य नाराचैविंमुखा विमदीकृता: ।। ६ ।। 

वे पर्वतके समान विशालकाय हाथी सब ओर मदकी धारा बहा रहे थे; परंतु भीमसेनके 
नाराचोंसे विद्ध होनेपर उनका सारा मद उतर गया। वे युद्धसे विमुख होकर भाग 


चले ।। ६ |। 

विधमेदभ्रजालानि यथा वायु: समुद्धत: । 

व्यधमत्‌ तान्यनीकानि तथैव पवनात्मज: || ७ ।। 

जैसे जोरसे उठी हुई वायु मेघोंकी घटाको छिलन्न-भिन्न कर डालती है, उसी प्रकार 
पवनपुत्र भीमसेनने उन समस्त गजसेनाओंको तहस-नहस कर डाला ।। 





स तेषु विसृजन्‌ बाणान्‌ भीमो नागेष्वशोभत । 

भुवनेष्विव सर्वेषु गभस्तीनुदितो रवि: ।। ८ ।। 

जैसे उदित हुए सूर्य समस्त भुवनोंमें अपनी किरणोंका विस्तार करते हैं, उसी प्रकार 
भीमसेन उन हाथियोंपर बाणोंकी वर्षा करते हुए शोभा पा रहे थे ।। 

ते भीमबाणाभिहता: संस्यूता विबभुर्गजा: । 

गभस्तिभिरिवार्कस्य व्योम्नि नानाबलाहका: ।। ९ || 

वे भीमके बाणोंसे मारे जाकर परस्पर सटे हुए हाथी आकाशमें सूर्यकी किरणोंसे गुँथे 
हुए नाना प्रकारके मेघोंकी भाँति शोभा पा रहे थे ।। ९ ।। 

तथा गजानां कदन॑ कुर्वाणमनिलात्मजम्‌ । 

क्रुद्धों दुर्योधनो5भयेत्य प्रत्यविध्यच्छितै: शरै: ।। १० ।। 

इस प्रकार गजसेनाका संहार करते हुए पवनपुत्र भीमसेनके पास आकर क्रोधमें भरे 
हुए दुर्योधनने उन्हें पैने बाणोंसे बींध डाला ।। १० ।। 

तत: क्षणेन क्षितिपं क्षतजप्रतिमेक्षण: । 

क्षयं निनीषुर्निशितैर्भीमो विव्याध पत्रिभि: ।। ११ ।। 


यह देख भीमसेनकी आँखें खूनके समान लाल हो गयीं। उन्होंने क्षणभरमें राजा 
दुर्योधनका नाश करनेकी इच्छासे पंखयुक्त पैने बाणोंद्वारा उसे बींध डाला ।। ११ ।। 
स शराचितसर्वाड्ि: क्रुद्धों विव्याध पाण्डवम्‌ | 
नाराचैरर्करश्म्याभैर्भीमसेनं स्मयजन्निव ।। १२ ।। 
दुर्योधनके सारे अंग बाणोंसे व्याप्त हो गये थे। अतः उसने कुपित होकर सूर्यकी 
किरणोंके समान तेजस्वी नाराचोंद्वारा पाण्डुनन्दन भीमसेनको मुसकराते हुए-से घायल कर 
दिया ।। १२ ।। 
तस्य नागं मणिमयं रत्नचित्रध्वजे स्थितम्‌ । 
भल्‍ल्लाभ्यां कार्मुकं चैव क्षिप्रं चिच्छेद पाण्डव: || १३ ।। 
राजन्‌! उसके रत्ननिर्मित विचित्र ध्वजके ऊपर मणिमय नाग विराजमान था। उसे 
पाण्डुनन्दन भीमने शीघ्र ही दो भल्लोंसे काट गिराया और उसके धनुषके भी टुकड़े-टुकड़े 
कर दिये ।। १३ ।। 
दुर्योधनं पीड्यमानं दृष्टवा भीमेन मारिष । 
चुक्षो भयिषुरभ्यागादड़ो मातड़मास्थित: ।। १४ ।। 
आर्य! भीमसेनके द्वारा दुर्योधनको पीड़ित होते देख क्षोभमें डालनेकी इच्छासे मतवाले 
हाथीपर बैठे हुए राजा अंग उनका सामना करनेके लिये आ गये ।। १४ ।। 
तमापतत्तं नागेन्द्रमम्बुदप्रतिमस्वनम्‌ । 
कुम्भान्तरे भीमसेनो नाराचैरार्दयद्‌ भूशम्‌ ।। १५ ।। 
वह गजराज मेघके समान गर्जना करनेवाला था। उसे अपनी ओर आते देख भीमसेनने 
उसके कुम्भस्थलमें नाराचोंद्वारा बड़ी चोट पहुँचायी || १५ ।। 
तस्य कायं विनिर्भिद्य 
न्यमज्जद्‌ धरणीतले । 
ततः पपात द्विरदो 
वज्ाहत इवाचल: ।। १६ ।। 
भीमसेनका नाराच उस हाथीके शरीरको विदीर्ण करके धरतीमें समा गया, इससे वह 
गजराज वज्के मारे हुए पर्वतकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा | १६ ।। 
तस्यावर्जितनागस्य 
म्लेच्छस्याध: पतिष्यत: । 
शिरश्रिच्छेद भल्लेन 
क्षिप्रकारी वृकोदर: ।। १७ ।। 
वह म्लेच्छजातीय अंग हाथीसे अलग नहीं हुआ था। उस हाथीके साथ-साथ वह नीचे 
गिरना ही चाहता था कि शीघ्रकारी भीमसेनने एक भल्लके द्वारा उसका सिर काट 
दिया ।। १७ ।। 


तस्मिन्‌ निपतिते वीरे सम्प्राद्रवत सा चमू: । 

सम्भ्रान्ताश्वद्धिपरथा पदातीनवमृदू्नती ।। १८ ।। 

उस वीरके धराशायी होते ही उसकी वह सारी सेना भागने लगी। घोड़े, हाथी तथा रथ 
सभी घबराहटमें पड़कर इधर-उधर चक्कर काटने लगे। वह सेना अपने ही पैदल 
सिपाहियोंको रौंदती हुई भाग रही थी ।। १८ ।। 

तेष्वनीकेषु भग्नेषु विद्रवत्सु समन्‍्तत:ः । 

प्राग्ज्योतिषस्ततो भीमं कुज्जरेण समाद्रवत्‌ ।। १९ ।। 

इस प्रकार उन सेनाओंके व्यूह भंग होने तथा चारों ओर भागनेपर प्राग्ज्योतिषपुरके 
राजा भगदत्तने अपने हाथीके द्वारा भीमसेनपर धावा किया ।। १९ |। 

येन नागेन मघवानजयद्‌ू दैत्यदानवान्‌ । 

तदन्वयेन नागेन भीमसेनमुपाद्रवत्‌ ॥। २० ।। 

इन्द्रने जिस ऐरावत हाथीके द्वारा दैत्यों और दानवोंपर विजय पायी थी, उसीके वंशमें 
उत्पन्न हुए गजराजपर आरूढ़ हो भगदत्तने भीमसेनपर चढ़ाई की थी || २० ।। 

स नागप्रवरो भीम॑ सहसा समुपाद्रवत्‌ । 

चरणाभ्यामथो द्वाभ्यां संहतेन करेण च ।। २१ ।। 

वह गजराज अपने दो पैरों तथा सिकोड़ी हुई सूँड़के द्वारा सहसा भीमसेनपर टूट 
पड़ा || २१ |। 

व्यावृत्तनयन: क्रुद्ध: प्रमथन्निव पाण्डवम्‌ । 

वृकोदररथं साश्वमविशेषमचूर्णयत्‌ ।। २२ ।। 

उसके नेत्र सब ओर घूम रहे थे। वह क्रोधमें भरकर पाण्डुनन्दन भीमसेनको मानो मथ 
डालेगा, इस भावसे भीमसेनके रथकी ओर दौड़ा और उसे घोड़ोंसहित सामान्यतः: चूर्ण कर 
दिया ।। २२ ।। 





पद्धयां भीमो5प्यथो धावंस्तस्य गात्रेष्वलीयत । 
जानन्नञज्जलिकावेध॑ नापाक्रामत पाण्डव: || २३ || 


भीमसेन पैदल दौड़कर उस हाथीके शरीरमें छिप गये। पाण्डुपुत्र भीम अंजलिकावेधर 
जानते थे। इसलिये वहाँसे भागे नहीं || २३ ।। 

गात्रा भ्यन्तरगो भूत्वा करेणाताडयन्मुहु: । 

लालयामास तं नागं वधाकाड्क्षिणमव्ययम्‌ ।। २४ ।। 

वे उसके शरीरके नीचे होकर हाथसे बारंबार थपथपाते हुए वधकी आकांक्षा रखनेवाले 
उस अविनाशी गजराजको लाड़-प्यार करने लगे ।। २४ ।। 

कुलालचक्रवन्नागस्तदा तूर्णमथा भ्रमत्‌ । 

नागायुतबल: श्रीमान्‌ कालयानो वृकोदरम्‌ ।। २५ ।। 

उस समय वह हाथी तुरंत ही कुम्हारके चाकके समान सब ओर घूमने लगा। उसमें दस 
हजार हाथियोंका बल था। वह शोभायमान गजराज भीमसेनको मार डालनेका प्रयत्न कर 
रहा था || २५ || 

भीमो<पि निष्क्रम्य ततः सुप्रतीकाग्रतो5भवत्‌ । 

भीम॑ करेणावनम्य जानुभ्यामभ्यताडयत्‌ ।। २६ ।। 

भीमसेन भी उसके शरीरके नीचेसे निकलकर उस हाथीके सामने खड़े हो गये। उस 
समय हाथीने अपनी सूँड़से गिराकर उन्हें दोनों घुटनोंसे कुचल डालनेका प्रयत्न किया ।। 

ग्रीवायां वेष्टयित्वैनं स गजो हन्तुमैहत । 

करवेष्टं भीमसेनो भ्रमं दत्त्वा व्यमोचयत्‌ ।। २७ ।। 


इतना ही नहीं, उस हाथीने उन्हें गलेमें लपेटकर मार डालनेकी चेष्टा की। तब भीमसेन 
उसे भ्रममें डालकर उसकी सूँड़के लपेटसे अपने-आपको छुड़ा लिया ।। २७ ।। 

पुनर्गात्राणि नागस्य प्रविवेश वृकोदर: । 

यावत्‌ प्रतिगजायातं स्वबले प्रत्यवैक्षत || २८ ।। 

तदनन्तर भीमसेन पुनः उस हाथीके शरीरमें ही छिप गये और अपनी सेनाकी ओरसे 
उस हाथीका सामना करनेके लिये किसी दूसरे हाथीके आगमनकी प्रतीक्षा करने 
लगे ।। २८ ।। 

भीमो<पि नागगात्रेभ्यो विनि:सृत्यापयाज्जवात्‌ । 

ततः सर्वस्य सैन्यस्य नाद: समभवन्महान्‌ ।। २९ ।। 

थोड़ी देर बाद भीम हाथीके शरीरसे निकलकर बड़े वेगसे भाग गये। उस समय सारी 
सेनामें बड़े जोरसे कोलाहल होने लगा ।। २९ |। 

अहो धिड़ निहतो भीम: कुञज्जरेणेति मारिष | 

तेन नागेन संत्रस्ता पाण्डवानामनीकिनी ।। ३० ।। 

सहसाभ्यद्रवद्‌ राजन्‌ यत्र तस्थौ वृकोदर: । 

आर्य! उस समय सबके मुँहसे यही बात निकल रही थी--'अहो! इस हाथीने 
भीमसेनको मार डाला, यह कितनी बुरी बात है।” राजन! उस हाथीसे भयभीत हो 
पाण्डवोंकी सारी सेना सहसा वहीं भाग गयी, जहाँ भीमसेन खड़े थे || ३०६ ।। 

ततो युधिषिरो राजा हतं मत्वा वृकोदरम्‌ ।। ३१ ।। 

भगदत्तं सपाज्चाल्य: सर्वतः समवारयत्‌ । 

तब राजा युधिष्ठिरने भीमसेनको मारा गया जानकर पांचालदेशीय सैनिकोंको साथ ले 
भगदत्तको चारों ओरसे घेर लिया ।। ३१६ ।। 

त॑ रथं रथिनां श्रेष्ठा: परिवार्य परंतपा: ।। ३२ ।। 

अवाकिरन्‌ शरैस्तीक्ष्पः शतशो5थ सहस्रश: । 

शत्रुओंको संताप देनेवाले वे श्रेष्ठ रथी उन महारथी भगदत्तको सब ओरसे घेरकर उनके 
ऊपर सैकड़ों और हजारों पैने बाणोंकी वर्षा करने लगे || ३२६ ।। 

स विघातं पृषत्कानामड्कुशेन समाहरन्‌ ॥। ३३ ।। 

गजेन पाण्डुपञ्चालान्‌ व्यधमत्‌ पर्वतेश्वर: । 

पर्वतराज भगदत्तने उन बाणोंके प्रहारका अंकुशद्वारा निवारण किया और हाथीको 
आगे बढ़ाकर पाण्डव तथा पांचाल योद्धाओंको कुचल डाला || ३३३ || 

तदद्भुतमपश्याम भगदत्तस्य संयुगे ।। ३४ ।। 

तथा वृद्धस्य चरितं कुञ्जरेण विशाम्पते । 


प्रजानाथ! उस युद्धस्थलमें हाथीके द्वारा बूढ़े राजा भगदत्तका हमलोगोंने अद्भुत 
पराक्रम देखा || ३४६ ।। 

ततो राजा दशार्णानां प्राग्ज्योतिषमुपाद्रवत्‌ ।। ३५ ।। 

तिर्यग्यातेन नागेन समदेनाशुगामिना । 

तत्पश्चात्‌ दशार्णराजने मदस्रावी, शीघ्रगामी तथा तिरछी दिशा (पार्श्चभाग)-की ओरसे 
आक्रमण करनेवाले गजराजके द्वारा भगदत्तपर धावा किया ।। 

तयोरयुद्धं समभवन्नागयोर्भीमरूपयो: ।। ३६ ।। 

सपक्षयो: पर्वतयोर्यथा सद्रुमयो: पुरा । 

वे दोनों हाथी बड़े भयंकर रूपवाले थे। उन दोनोंका युद्ध वैसा ही प्रतीत हुआ, जैसा 
कि पूर्वकालमें पंखयुक्त एवं वृक्षावलीसे विभूषित दो पर्वतोंमें युद्ध हुआ करता था || ३६६ 

|| 


प्राग्ज्योतिषपतेरनाग: संनिवृत्यापसृत्य च ।। ३७ ।। 

पाश्वें दशार्णाधिपतेर्भित्वा नागमपातयत्‌ । 

प्राग्ज्योतिषनरेशके हाथीने लौटकर और पीछे हटकर दशार्णराजके हाथीके पार्श्वभागमें 
गहरा आघात किया और उसे विदीर्ण करके मार गिराया ।। ३७३ ।। 

तोमरै: सूर्यरश्म्याभैर्भगदत्तो5थ सप्तभि: ।। ३८ ।। 

जघान द्विरदस्थं त॑ शत्रु प्रचलितासनम्‌ । 

तत्पश्चात्‌ राजा भगदत्तने सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले सात तोमरोंद्वारा हाथीपर 
बैठे हुए शत्रु दशार्णगजको, जिसका आसन विचलित हो गया था, मार डाला ।। ३८३ ।। 

व्यवच्छिद्य तु राजानं भगदत्तं युधिष्ठिर: ॥। ३९ ।। 

रथानीकेन महता सर्वतः पर्यवारयत्‌ | 

तब युधिष्ठिरने राजा भगदत्तको अपने बाणोंसे घायल करके विशाल रथसेनाके द्वारा 
सब ओरसे घेर लिया ।। ३९३ ।। 

स कुणज्जरस्थो रथिभि: शुशुभे सर्वतो वृत: ।। ४० ।। 

पर्वते वनमध्यस्थो ज्वलन्निव हुताशन: । 

जैसे वनके भीतर पर्वतके शिखरपर दावानल प्रज्वलित हो रहा हो, उसी प्रकार सब 
ओर रथियोंसे घिरकर हाथीकी पीठपर बैठे हुए राजा भगदत्त सुशोभित हो रहे थे || ४० ३ 

|| 

मण्डंल सर्वतः श्लिष्टं रथिनामुग्रधन्विनाम्‌ ।। ४१ ।। 

किरतां शरवर्षाणि स नाग: पर्यवर्तत । 

बाणोंकी वर्षा करते हुए भयंकर धनुर्धर रथियोंका मण्डल उस हाथीपर सब ओरसे 
आक्रमण कर रहा था और वह हाथी चारों ओर चक्कर काट रहा था ।। ४१३ ।। 


ततः प्राग्ज्योतिषो राजा परिगृहर महागजम्‌ ।। ४२ ।। 

प्रेषयामास सहसा युयुधानरथं प्रति । 

उस समय प्राग्ज्योतिषपुरके राजाने उस महान्‌ गजराजको सब ओरसे काबूमें करके 
सहसा सात्यकिके रथकी ओर बढ़ाया || ४२३ || 

शिने: पौत्रस्य तु रथं परिगृहा महाद्विप: ।। ४३ ।। 

अभिनिक्षेप वेगेन युयुधानस्त्वपाक्रमत्‌ । 

युयुधान (सात्यकि) अपने रथको छोड़कर दूर हट गये और उस महान्‌ गजराजने 
शिनिपौत्र सात्यकिके उस रथको सूँड़से पकड़कर बड़े वेगसे फेंक दिया ।। ४३ $ ।। 

बृहतः सैन्धवानश्वान्‌ समुत्थाप्याथ सारथि: ।। ४४ ।। 

तस्थौ सात्यकिमासाद्य सम्प्लुतस्तं रथं प्रति । 

तदनन्तर सारथिने अपने रथके विशाल सिंधी घोड़ोंकों उठाकर खड़ा किया और 
कूदकर रथपर जा चढ़ा। फिर रथसहित सात्यकिके पास जाकर खड़ा हो गया ।। ४४ ३ ।। 

स तु लब्ध्वान्तरं नागस्त्वरितो रथमण्डलात्‌ ।। ४५ ।। 

निश्चक्राम ततः सर्वान्‌ परिचिक्षेप पार्थिवान्‌ 

इसी बीचमें अवसर पाकर वह गजराज बड़ी उतावलीके साथ रथोंके घेरेसे पार निकल 
गया और समस्त राजाओंको उठा-उठाकर फेंकने लगा || ४५३ ।। 

ते त्वाशुगतिना तेन त्रास्यमाना नरर्षभा: ।। ४६ ।। 

तमेकं द्विरदं संख्ये मेनिरे शतशो द्विपान्‌ | 

उस शीघ्रगामी गजराजसे डराये हुए नरश्रेष्ठ नरेश युद्धस्थलमें उस एकको ही सैकड़ों 
हाथियोंके समान मानने लगे || ४६३ ।। 

ते गजस्थेन काल्यन्ते भगदत्तेन पाण्डवा: | ४७ ।। 

ऐरावतस्थेन यथा देवराजेन दानवा: । 

जैसे देवराज इन्द्र ऐगावत हाथीपर बैठकर दानवोंका नाश करते हैं, उसी प्रकार अपने 
हाथीकी पीठपर बैठे हुए राजा भगदत्त पाण्डव-सैनिकोंका संहार कर रहे थे || ४७६ ।। 

तेषां प्रद्रवतां भीम: पज्चालानामितस्तत: ।। ४८ ।। 

गजवाजिकृत: शब्द: सुमहान्‌ समजायत । 

उस समय इधर-उधर भागते हुए पांचाल-सैनिकोंके हाथी-घोड़ोंका महान्‌ भयंकर 
चीत्कार शब्द प्रकट हुआ || ४८६ ।। 

भगदत्तेन समरे काल्यमानेषु पाण्डुषु || ४९ ।। 

प्राग्ज्योतिषमभिक्रुद्ध: पुनर्भीम: समभ्ययात्‌ । 

भगदत्तके द्वारा समरभूमिमें पाण्डव-सैनिकोंके खदेड़े जानेपर भीमसेन कुपित हो पुनः 
प्राग्ज्योतिषके स्वामी भगदत्तपर चढ़ आये || ४९६ ।। 


तस्याभिद्रवतो वाहान्‌ हस्तमुक्तेन वारिणा ।। ५० ।। 

सिक्‍त्वा व्यत्रासयन्नागस्ते पार्थमहरंस्तत: । 

उस समय आक्रमण करनेवाले भीमसेनके घोड़ोंपर उस हाथीने सूँड़से जल छोड़कर 
उन्हें भयभीत कर दिया। फिर तो वे घोड़े भीमसेनको लेकर दूर भाग गये || ५० ३ ।। 

ततस्तमभ्ययात्‌ तूर्ण रुचिपर्वाउ55कृतीसुत: ।। ५१ ।। 

समघ्नज्छरवर्षेण रथस्थो5न्तकसंनिभ: । 

तब आकृतीपुत्र रुचिपर्वने तुरंत ही उस हाथीपर आक्रमण किया। वह रथपर बैठकर 
साक्षात्‌ यमराजके समान जान पड़ता था। उसने बाणोंकी वर्षासे उस हाथीको गहरी चोट 
पहुँचायी ।। ५१ $ ।। 

ततः स रुचिपर्वाणं शरेणानतपर्वणा ।॥। ५२ ।। 

सुपर्वा पर्वतपतिर्निन्ये वैवस्वतक्षयम्‌ । 

यह देख जिनके अंगोंकी जोड़ सुन्दर है उन पर्वतराज भगदत्तने झुकी हुई गाँठवाले 
बाणके द्वारा रुचिपर्वाको यमलोक पहुँचा दिया || ५२३ ।। 

तस्मिन्‌ निपतिते वीरे सौभद्रो द्रौपदीसुत: ।॥ ५३ ।। 

चेकितानो धृष्टकेतुर्युयुत्सुश्चार्दयन्‌ द्विपम्‌ । 

त एन॑ शरधाराभिर्धाराभिरिव तोयदा: || ५४ ।। 

सिषिचुर्भरवान्‌ नादान्‌ विनदन्तो जिघांसव: । 

उस वीरके मारे जानेपर अभिमन्यु, द्रौपदीकुमार, चेकितान, धृष्टकेतु तथा युयुत्सुने भी 
उस हाथीको पीड़ा देना आरम्भ किया। ये सब लोग उस हाथीको मार डालनेकी इच्छासे 
विकट गर्जना करते हुए अपने बाणोंकी धारासे सींचने लगे, मानो मेघ पर्वतको जलकी 
धारासे नहला रहे हों || ५३-५४ ई ।। 

ततः पाष्ण्यड्कुशाड्गुष्ठै: कृतिना चोदितो द्विप: ।। ५५ |। 

प्रसारितकर: प्रायात्‌ स्तब्धकर्णेक्षणो द्रुतम्‌ । 

सो<धिष्ठाय पदा वाहान्‌ युयुत्सो: सूतमारुजत्‌ ।। ५६ ।। 

तदनन्तर विद्वान्‌ राजा भगदत्तने अपने पैरोंकी एँड़ी, अंकुश एवं अंगुष्ठसे प्रेरित करके 
हाथीको आगे बढ़ाया। फिर तो अपने कानोंको खड़े करके एकटक आँखोंसे देखते हुए सूँड़ 
फैलाकर उस हाथीने शीघ्रतापूर्वक धावा किया और युयुत्सुके घोड़ोंको पैरोंसे दबाकर उनके 
सारथिको मार डाला || ५५-५६ || 

युयुत्सुस्तु रथाद्‌ राजन्नपाक्रामत्‌ त्वरान्वित: । 

ततः: पाण्डवयोधास्ते नागराजं शरैर्द्रूतम्‌ ।। ५७ ।। 

सिषिचुर्भरवान्‌ नादान्‌ विनदन्तो जिघांसव: । 


राजन! युयुत्सु बड़ी उतावलीके साथ रथसे उतरकर दूर चले गये थे। तत्पश्चात्‌ पाण्डव- 
योद्धा उस गजराजको शीघ्रतापूर्वक मार डालनेकी इच्छासे भैरव-गर्जना करते हुए अपने 
बाणोंकी वर्षद्वारा उसे सींचने लगे || ५७३ ।। 

पुत्रस्तु तव सम्भ्रान्त: सौभद्रस्याप्लुतो रथम्‌ ।। ५८ ।। 

स कुञ्जरस्थो विसृजन्निषूनरिषु पार्थिव: । 

बभौ रश्मीनिवादित्यो भुवनेषु समुत्सूजन्‌ ।। ५९ ।। 

उस समय घबराये हुए आपके पुत्र युयुत्सु अभिमन्युके रथपर जा बैठे। हाथीकी 
पीठपर बैठे हुए राजा भगदत्त शत्रुओंपर बाण-वर्षा करते हुए सम्पूर्ण लोकोंमें अपनी 
किरणोंका विस्तार करनेवाले सूर्यके समान शोभा पा रहे थे || ५८-५९ ।। 

तमार्जुनि्द्धादिशभिरयुयुत्सुर्दशभि: शरै: | 

त्रिभिस्त्रिभिद्रौपदेया धृष्टकेतुश्च विव्यधु: ।। ६० ।। 

अर्जुनकुमार अभिमन्युने बारह, युयुत्सुने दस और द्रौपदीके पुत्रों तथा धृष्टकेतुने तीन- 
तीन बाणोंसे भगदत्तके उस हाथीको घायल कर दिया ।। ६० ।। 

सो<5तियत्नार्पितिर्बाणैराचितो द्विरदो बभौ | 

संस्यूत इव सूर्यस्य रश्मिभिर्जलदो महान्‌ ।। ६१ ।। 

अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक चलाये हुए उन बाणोंसे हाथीका सारा शरीर व्याप्त हो रहा था। 
उस अवस्थामें वह सूर्यकी किरणोंमें पिरोये हुए महामेघके समान शोभा पा रहा 
था ।। ६१ ।। 

नियन्तुः शिल्पयत्नाभ्यां प्रेरितोडरिशरार्दित: । 

परिचिक्षेप तान्‌ नाग: स रिपून्‌ सव्यदक्षिणम्‌ ।। ६२ ।। 

महावतके कौशल और प्रयत्नसे प्रेरित होकर वह हाथी शत्रुओंके बाणोंसे पीड़ित 
होनेपर भी उन विपक्षियोंको दायें-बायें उठाकर फेंकने लगा ।। ६२ ।। 

गोपाल इव दण्डेन यथा पशुगणान्‌ वने । 

आवेष्टयत तां सेनां भगदत्तस्तथा मुहुः ।। ६३ ।। 

जैसे ग्वाला जंगलमें पशुओंको डंडेसे हाँकता है, उसी प्रकार भगदत्तने पाण्डव-सेनाको 
बार-बार घेर लिया ।। ६३ ।। 

क्षिप्रं श्येनाभिपन्नानां वायसानामिव स्वन: । 

बभूव पाण्डवेयानां भृशं विद्रवतां स्वन: ।। ६४ ।। 

जैसे बाज पक्षीके चंगुलमें फँसे हुए अथवा उसके आक्रमणसे त्रस्त हुए कौओंमें शीघ्र 
ही काँव-काँवका कोलाहल होने लगता है, उसी प्रकार भागते हुए पाण्डव योद्धाओंका 
आर्तनाद जोर-जोरसे सुनायी दे रहा था || ६४ ।। 

स नागराज: प्रवराड्कुशाहतः 

पुरा सपक्षो5द्रिवरो यथा नृप । 


भयं तदा रिपुषु समादधद्‌ू भृशं 
वणिग्जनानां क्षुभितो यथार्णव: ।। ६५ ।। 
नरेश्वरर उस समय विशाल अंकुशकी मार खाकर वह गजराज पूर्वकालके पंखधारी 
श्रेष्ठ पर्वतकी भाँति शत्रुओंको उसी प्रकार अत्यन्त भयभीत करने लगा, जैसे विद्षुब्ध 
महासागर व्यापारियोंको भयमें डाल देता है ।। ६५ ।। 
ततो ध्वनिर्दिरदरथाश्वपार्थिवै- 
भ॑याद्‌ द्रवद्धिर्जनितो5ति भैरव: । 
क्षितिं वियद्‌ द्यां विदिशो दिशस्तथा 
समावृणोत्‌ पार्थिव संयुगे तत: ।। ६६ ।। 
महाराज! तदनन्तर भयसे भागते हुए हाथी, रथ, घोड़े तथा राजाओंने वहाँ अत्यन्त 
भयंकर आर्तनाद फैला दिया। उनके उस भयंकर शब्दने युद्धस्थलमें पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग 
तथा दिशा-विदिशाओंको सब ओरसे आच्छादित कर दिया ।। ६६ ।। 
स तेन नागप्रवरेण पार्थिवो 
भृशं जगाहे द्विषतामनीकिनीम्‌ । 
पुरा सुगुप्तां विबुधैरिवाहवे 
विरोचनो देववरूथिनीमिव ।। ६७ ।। 
उस गजराजके द्वारा राजा भगदत्तने शत्रुओंकी सेनामें अच्छी तरह प्रवेश किया। जैसे 
पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके समय देवताओंद्वारा सुरक्षित देव-सेनामें विरोचनने प्रवेश किया 
था ।। ६७ || 
भृशं ववौ ज्वलनसखो वियद्‌ रज: 
समावृणोन्मुहुरपि चैव सैनिकान्‌ । 
तमेकनागं गणशो यथा गजान्‌ 
समन्ततो द्रुतमथ मेनिरे जना: ।। ६८ ।। 
उस समय वहाँ बड़े चोरसे वायु चलने लगी। आकाशगमें धूल छा गयी। उस धूलने 
समस्त सैनिकोंको ढक दिया। उस समय सब लोग चारों ओर दौड़ लगानेवाले उस एकमात्र 
हाथीको हाथियोंके झुंड-सा मानने लगे || ६८ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि भगदत्तयुद्धे षड्विंशो5ध्याय: ।। 
२६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्मा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें भयदत्तका युद्धाविषयक 
छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २६ ॥/ 


अपना बा | अप्--र- 


- हाथीके निचले भागमें कोई ऐसा स्थान होता है, जिसमें दोनों हाथोंके द्वारा थपथपानेसे हाथीको सुख मिलता है। इस 
अवस्थामें वह महावतके मारनेपर भी टस-से-मस नहीं होता। भीमसेन इस कलाको जानते थे। इसीका नाम 
'अंजलिकावेध' है। 


सप्तविशो<्ध्याय: 


अर्जुनका संशप्तक-सेनाके साथ भयंकर युद्ध और उसके 
अधिकांश भागका वध 


संजय उवाच 

यन्मां पार्थस्य संग्रामे कर्माणि परिपृच्छसि । 

तच्छुणुष्व महाबाहो पार्थो यदकरोद्‌ रणे ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाबाहो! आप जो मुझसे युद्धमें अर्जुनके पराक्रम पूछ रहे हैं, उन्हें 
बताता हूँ। अर्जुनने रणक्षेत्रमें जो कुछ किया था, वह सुनिये ।। १ ।। 

रजो दृष्टवा समद्धभूतं श्रुव्वा च गजनि:स्वनम्‌ । 

भगदत्ते विकुर्वाणे कौन्तेय: कृष्णमब्रवीत्‌ ।। २ ।॥। 

भगदत्तके विचित्र रूपसे युद्ध करते समय वहाँ धूल उड़ती देखकर और हाथीके 
चिग्घाड़नेका शब्द सुनकर कुन्तीनन्दन अर्जुनने श्रीकृष्णसे कहा-- ।। २ ।। 

यथा प्राग्ज्योतिषो राजा गजेन मधुसूदन । 

त्वरमाणो विनिष्क्रान्तो ध्रुवं तस्यैष नि:ःस्वन: ।। ३ ।। 

“मधुसूदन! राजा भगदत्त अपने हाथीपर सवार जिस प्रकार उतावलीके साथ युद्धके 
लिये निकले थे, उससे जान पड़ता है निश्चय ही यह महान्‌ कोलाहल उन्हींका है || ३ ।। 

इन्द्रादनवर: संख्ये गजयानविशारद: । 

प्रथमो गजयोधानां पृथिव्यामिति मे मति: ।। ४ ।। 

“मेरा तो यह विश्वास है कि वे युद्धमें इन्द्रसे कम नहीं है। भगदत्त हाथीकी सवारीमें 
कुशल और गजारोही योद्धाओंमें इस पृथ्वीपर सबसे प्रधान हैं ।। ४ ।। 

स चापि द्विरदश्रेष्ठ;: सदा5प्रतिगजो युधि । 

सर्वशस्त्रातिग: संख्ये कृतकर्मा जितक्लम: ।। ५ ।। 

“और उनका वह गजश्रेष्ठ सुप्रतीक भी युद्धमें अपना शानी नहीं रखता है। वह सब 
शास्त्रोंका उल्लंघन करके युद्धमें अनेक बार पराक्रम प्रकट कर चुका है। उसने परिश्रमको 
जीत लिया है ।। ५ ।। 

सह: शस्त्रनिपातानामग्निस्पर्शस्य चानघ । 

स पाण्डवबलं सर्वमद्यैको नाशयिष्यति ।। ६ ।। 

“अनघ! वह सम्पूर्ण शस्त्रोंके आघात तथा अग्निके स्पर्शको भी सह सकनेवाला है। 
आज वह अकेला ही समस्त पाण्डव-सेनाका विनाश कर डालेगा ।। ६ ।। 

न चावाभ्यामृतेडन्यो$स्ति शक्तस्तं प्रतिबाधितुम्‌ । 


त्वरमाणस्ततो याहि यतः प्राग्ज्योतिषाधिप: ।। ७ ।। 

“हम दोनोंके सिवा दूसरा कोई नहीं है, जो उसे बाधा देनेमें समर्थ हो। अत: आप 
शीघ्रतापूर्वक वहीं चलिये, जहाँ प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्त विद्यमान हैं ।। ७ ।। 

दृप्तं संख्ये द्विघषबलादू्‌ वयसा चापि विस्मितम्‌ । 

अद्यैनं प्रेषयिष्यामि बलहन्तु: प्रियातिथिम्‌ ।। ८ ।। 

“अपने हाथीके बलसे युद्धमें घमंड दिखानेवाले और अवस्थामें भी बड़े होनेका 
अहंकार रखनेवाले इन राजा भगदत्तको मैं देवराज इन्द्रका प्रिय अतिथि बनाकर स्वर्गलोक 
भेज दूँगा' ।। ८ ।। 

वचनादथ कृष्णस्तु प्रययौ सव्यसाचिन: । 

दीर्यते भगदत्तेन यत्र पाण्डववाहिनी ।। ९ ।। 

सव्यसाची अर्जुनके इस वचनसे प्रेरित हो श्रीकृष्ण उस स्थानपर रथ लेकर गये, जहाँ 
भगदत्त पाण्डव-सेनाका संहार कर रहे थे ।। ९ ।। 

त॑ प्रयान्तं ततः पश्चादाह्वययन्तो महारथा: । 

संशप्तका: समारोहन्‌ सहस््राणि चतुर्दश ।। १० ।। 

अर्जुनको जाते देख पीछेसे चौदह हजार संशप्तक महारथी उन्हें ललकारते हुए चढ़ 
आये ।। १० ।। 

दशैव तु सहस्राणि त्रिगर्तनां महारथा: । 

चत्वारि च सहस््राणि वासुदेवस्य चानुगा: ।। ११ ।। 

उनमें दस हजार महारथी तो त्रिगर्तदेशके थे और चार हजार भगवान्‌ श्रीकृष्णके सेवक 
(नारायणी-सेनाके सैनिक) थे ।। ११ ॥। 

दीर्यमाणां चमूं दृष्टवा भगदत्तेन मारिष । 

आहूयमानस्य च तैरभवद्धृदयं द्विधा ।। १२ ।। 

आर्य! राजा भगदत्तके द्वारा अपनी सेनाको विदीर्ण होती देखकर तथा पीछेसे 
संशप्तकोंकी ललकार सुनकर उनका हृदय दुविधामें पड़ गया ।। १२ ।। 

कि नु श्रेयस्करं कर्म भवेदद्येति चिन्तयन्‌ । 

इह वा विनिवर्तेयं गच्छेयं वा युधिष्ठिरम्‌ ।। १३ ।। 

वे सोचने लगे--आज मेरे लिये कौन-सा कार्य श्रेयस्कर होगा। यहाँसे संशप्तकोंकी 
ओर लौट चलूँ अथवा युधिष्छिरके पास जाऊँ ।। १३ ।। 

तस्य बुद्धया विचार्यवमर्जुनस्य कुरूद्वह । 

अभवद्‌ भूयसी बुद्धि: संशप्तकवधे स्थिरा ।। १४ ।। 

कुरुश्रेष्ठ! बुद्धिसे इस प्रकार विचार करनेपर अर्जुनके मनमें यह भाव अत्यन्त दृढ़ हुआ 
कि संशप्तकोंके वधका ही प्रयत्न करना चाहिये ।। १४ ।। 

स संनिवृत्त: सहसा कपिप्रवरकेतन: । 


एको रथसहस्राणि निहन्तुं वासवी रणे ।। १५ ।। 

श्रेष्ठ वानरचिह्से सुशोभित ध्वजावाले इन्द्रकुमार अर्जुन उपर्युक्त बात सोचकर सहसा 
लौट पड़े। वे रणक्षेत्रमें अकेले ही हजारों रथियोंका संहार करनेको उद्यत थे ।। १५ ।। 

सा हि दुर्योधनस्यासीन्मति: कर्णस्य चो भयो: । 

अर्जुनस्य वधोपाये तेन द्वैधमकल्पयत्‌ ।। १६ ।। 

अर्जुनके वधका उपाय सोचते हुए दुर्योधन और कर्ण दोनोंके मनमें यही विचार उत्पन्न 
हुआ था। इसीलिये उसने युद्धको दो भागोंमें बाँट दिया || १६ ।। 

स तु दोलायमानो< भूद द्वैधीभावेन पाण्डव: । 

वधेन तु नराग्रयाणामकरोत्‌ तां मृषा तदा ।। १७ ।। 

पाण्डुनन्दन अर्जुन एक बार दुविधामें पड़कर चंचल हो गये थे, तथापि नरश्रेष्ठ 
संशप्तक वीरोंके वधका निश्चय करके उन्होंने उस दुविधाको मिथ्या कर दिया था ।। 

ततः शतसहस््राणि शराणां नतपर्वणाम्‌ | 

असृजन्नर्जुने राजन्‌ संशप्तकमहारथा: ।। १८ ।। 

राजन्‌! तदनन्तर संशप्तक महारथियोंने अर्जुनपर झुकी हुई गाँठवाले एक लाख 
बाणोंकी वर्षा की ।। १८ ।। 

नैव कुन्तीसुत: पार्थो नैव कृष्णो जनार्दन: । 

न हया न रथो राजन दृश्यन्ते सम शरैश्षिता: ।। १९ ।। 

महाराज! उस समय न तो कुन्तीकुमार अर्जुन, न जनार्दन श्रीकृष्ण, न घोड़े और न रथ 
ही दिखायी देते थे। सब-के-सब वहाँ बाणोंके ढेरसे आच्छादित हो गये थे | १९ ।। 

तदा मोहमनुप्राप्त: सिष्विदे हि जनार्दन: । 

ततस्तान्‌ प्रायशः पार्थों ब्रह्मास्त्रेण निजध्निवान्‌ | २० ।। 

उस अवस्थामें भगवान्‌ जनार्दन पसीने-पसीने हो गये। उनपर मोह-सा छा गया। यह 
देख अर्जुनने ब्रह्मास्त्रसे उन सबको अधिकांशमें नष्ट कर दिया || २० ।। 

शतश: पाणयश्शकछिन्ना: सेषुज्यातलकार्मुका: । 

केतवो वाजिन: सूता रथिनश्वापतन्‌ क्षितौ || २१ ।। 

सैकड़ों भुजाएँ बाण, प्रत्यंचा और धनुषसहित कट गयीं। ध्वज, घोड़े, सारथि और रथी 
सभी धराशायी हो गये ।। २१ ।। 

ट्रुमाचलाग्राम्बुधरै: समकाया: सुकल्पिता: । 

हतारोहा:ः क्षितौ पेतुर्द्धिपा: पार्थशराहता: ।। २२ ।। 

वृक्ष, पर्वत-शिखर और मेघोंके समान विशाल एवं ऊँचे शरीरवाले, सजे-सजाये हाथी, 
जिनके सवार पहले ही मार दिये गये थे, अर्जुनके बाणोंसे आहत होकर पृथ्वीपर गिर 
पड़े ।। २२ ।। 

विप्रविद्धकुथा नागाश्छिन्नभाण्डा: परासव: । 


सारोहास्तु रणे पेतुर्मथिता मार्गणैर्भूशम्‌ ।। २३ ।। 

उस रणक्षेत्रमें बहुत-से हाथी अर्जुनके बाणोंसे मथित होकर सवारोंसहित प्राणशून्य 
होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। उस समय उनके झूल चिथड़े-चिथड़े होकर दूर जा पड़े थे और 
उनके आभूषणोंके भी टुकड़े-टुकड़े हो गये थे ।। 

सर्थ्िप्रासासिनखरा: समुद्गरपरश्वधा: । 

विच्छिन्ना बाहव: पेतुर्न॒णां भल्‍्लै: किरीटिना ।। २४ ।। 

किरीटधारी अर्जुनके भललनामक बाणोंसे ऋष्टि, प्रास, खड़ग, नखर, मुद्गर और 
फरसोंसहित वीरोंकी भुजाएँ कटकर गिर गयीं ।। २४ ।। 

बालादित्याम्बुजेन्दूनां तुल्यरूपाणि मारिष । 

संच्छिन्नान्यर्जुनशरै: शिरांस्युर्व्या प्रपेदिरे || २५ ।। 

आर्य! योद्धाओंके मस्तक, जो बालसूर्य, कमल और चन्द्रमाके समान सुन्दर थे, 
अर्जुनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न हो पृथ्वीपर गिर पड़े || २५ ।। 

जज्वालालंकृता सेना पत्रिभि: प्राणिभोजनै: । 

नानारूपैस्तदामित्रान्‌ क्रुद्धे निध्नति फाल्गुने | २६ ।। 

जब क्रोधमें भरे हुए अर्जुन नाना प्रकारके प्राणनाशक बाणोंद्वारा शत्रुओंका नाश करने 
लगे, उस समय आशभूषणोंसे विभूषित हुई संशप्तकोंकी सारी सेना जलने लगी ।। २६ ।। 

क्षोभयन्तं तदा सेनां द्विरदं नलिनीमिव । 

धनंजयं भूतगणा: साधु साधथ्वित्यपूजयन्‌ ।। २७ ।। 

जैसे हाथी कमलोंसे भरे हुए सरोवरको मथ डालता है, उसी प्रकार अर्जुनको सारी 
सेनाका विनाश करते देख सब प्राणी 'साधु-साधु” कहकर अर्जुनकी प्रशंसा करने 
लगे ।। २७ ।। 

दृष्टवा तत्‌ कर्म पार्थस्य वासवस्येव माधव: । 

विस्मयं परमं गत्वा प्राज्जलिस्तमुवाच ह ।। २८ ।। 

इन्द्रके समान अर्जुनका वह पराक्रम देख भगवान्‌ श्रीकृष्ण अत्यन्त आश्वर्यमें पड़कर 
हाथ जोड़े हुए बोले-- ।। २८ ।। 

कर्मतत्‌ पार्थ शक्रेण यमेन धनदेन च । 

दुष्करं समरे यत्‌ ते कृतमद्येति मे मति: ॥। २९ ।। 

'पार्थ! मेरा ऐसा विश्वास है कि आज समर-भूमिमें तुमने जो कार्य किया है, यह इन्द्र, 
यम और कुबेरके लिये भी दुष्कर है ।। २९ ।। 

युगपच्चैव संग्रामे शतशशो5थ सहसत्रश: । 

पतिता एव मे दृष्टा: संशप्तकमहारथा: ।। ३० ।। 

“इस संग्राममें मैंने सैकड़ों और हजारों संशप्तक महारथियोंको एक साथ ही गिरते 
देखा है” || ३० ।। 


संशप्तकांस्ततो हत्वा भूयिष्ठा ये व्यवस्थिता: । 

भगदत्ताय याहीति कृष्णं पार्थो&भ्यनोदयत्‌ ।। ३१ ।। 

इस प्रकार वहाँ खड़े हुए संशप्तक योद्धाओंमेंसे अधिकांशका वध करके अर्जुनने 
भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा--“अब भगदत्तके पास चलिये” ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि संशप्तकवधे सप्तविंशो5ध्याय: ।। 
२७ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें संशप्तकोंका वधविषयक 
सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २७ ॥ 


अष्टाविशोश् ध्याय: 


संशप्तकोंका संहार करके अर्जुनका कौरव-सेनापर 
आक्रमण तथा भगदत्त और उनके हाथीका पराक्रम 


संजय उवाच 

यियासतस्तत: कृष्ण: पार्थस्याश्वान्‌ मनोजवान्‌ | 

सम्प्रैषीद्धेमसंछन्नान्‌ द्रोणानीकाय सत्वरन्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर द्रोणकी सेनाके समीप जानेकी इच्छावाले 
अर्जुनके सुवर्णभूषित एवं मनके समान वेगशाली अश्वोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़ी 
उतावलीके साथ द्रोणाचार्यकी सेनातक पहुँचनेके लिये हाँका || १ ।। 

त॑ प्रयान्तं कुरुश्रेष्ठ स्वान्‌ भ्रातृन्‌ द्रोणतापितान्‌ | 

सुशर्मा भ्रातृभि: सार्ध युद्धार्थी पृष्ठतोडन्वयात्‌ ।। २ ।॥। 

द्रोणाचार्यके सताये हुए अपने भाइयोंके पास जाते हुए कुरुश्रेष्ठ अर्जुनको भाइयोंसहित 
सुशमनि युद्धकी इच्छासे ललकारा और पीछेसे उनपर आक्रमण किया ।। २ ।। 

ततः श्वेतहयः कृष्णमब्रवीदजितं जय: । 

एष मां भ्रातृभि: सार्थ सुशर्मा55ह्वयतेडच्युत ।। ३ ।। 

तब श्वेतवाहन अर्जुनने अपराजित श्रीकृष्णसे इस प्रकार कहा, “अच्युत! यह 
भाइयोंसहित सुशर्मा मुझे पुनः युद्धके लिये बुला रहा है ।। ३ ।। 

दीर्यते चोत्तरेणैव तत्‌ सैन्यं मधुसूदन । 

द्वैधीभूतं मनो मेड्द्य कृतं संशप्तकैरिदम्‌ ।। ४ ।। 

“उधर उत्तर दिशाकी ओर अपनी सेनाका नाश किया जा रहा है। मधुसूदन! इन 
संशप्तकोंने आज मेरे मनको दुविधामें डाल दिया है || ४ ।। 

कि नु संशप्तकान्‌ हन्मि स्वान्‌ रक्षाम्यहितार्दितान्‌ । 

इति मे त्वं मतं वेत्सि तत्र कि सुकृतं भवेत्‌ ।। ५ ।। 

'क्या मैं संशप्तकोंका वध करूँ अथवा शत्रुओंद्वारा पीड़ित हुए अपने सैनिकोंकी रक्षा 
करूँ। इस प्रकार मेरा मन संकल्प-विकल्पमें पड़ा है, सो आप जानते ही हैं। बताइये, अब 
मेरे लिये क्या करना अच्छा होगा” ।। ५ ।। 

एवमुक्तस्तु दाशार्ह: स्यन्दनं प्रत्यवर्तयत्‌ । 

येन त्रिगर्ताधिपति: पाण्डवं समुपाह्दयत्‌ ।। ६ ।। 

अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने रथको उसी ओर लौटाया, जिस 
ओससे त्रिगर्तराज सुशर्मा उन पाण्डुकुमारको युद्धके लिये ललकार रहा था ।। ६ ।। 


ततोडर्जुनः सुशर्माणं विद्धवा सप्तभिराशुगै: । 

ध्वजं धनुश्नास्य तथा क्षुराभ्यां समकृन्तत ।। ७ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनने सुशर्माको सात बाणोंसे घायल करके दो छुरोंद्वारा उसके ध्वज और 
धनुषको काट डाला |। ७ |। 

त्रिगर्ताधिपतेश्लापि भ्रातरं पड़भिराशुगै: । 

साश्वं ससूतं त्वरित: पार्थ: प्रैषीद्‌ यमक्षयम्‌ ।। ८ ।। 

साथ ही त्रिगर्तमजके भाईको भी छः: बाण मारकर अर्जुनने उसे घोड़े और 
सारथिसहित तुरंत यमलोक भेज दिया ।। ८ ।। 

ततो भुजगसंकाशां सुशर्मा शक्तिमायसीम्‌ | 

चिक्षेपार्जुनमादिश्य वासुदेवाय तोमरम्‌ ।। ९ |। 

तदनन्तर सुशर्माने सर्पके समान आकृतिवाली लोहेकी बनी हुई एक शक्तिको अर्जुनके 
ऊपर चलाया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णपर तोमरसे प्रहार किया ।। ९ ।। 

शक्ति त्रिभि: शरैश्छित्त्वा तोमरं त्रिभिरजुन: । 

सुशर्माणं शरव्रातैर्मोहयित्वा न्यवर्तयत्‌ ।। १० ।। 

अर्जुनने तीन बाणोंद्वारा शक्ति तथा तीन बाणोंद्वारा तोमरको काटकर सुशर्माको अपने 
बाणसमूहोंद्वारा मोहित करके पीछे लौटा दिया || १० ।। 

त॑ वासवमिवायान्तं भूरिवर्ष शरौघधिणम्‌ | 

राजंस्तावकसैन्यानां नोग्रं कश्चिदवारयत्‌ ।। ११ ।। 

राजन! इसके बाद वे इन्द्रके समान बाण-समूहोंकी भारी वर्षा करते हुए जब आपकी 
सेनापर आक्रमण करने लगे, उस समय आपके सैनिकोंमेंसे कोई भी उन उमग्ररूपधारी 
अर्जुनको रोक न सका ।। ११ || 

ततो धनंजयो बाणै: सवनिव महारथान्‌ । 

आयाद्‌ विनिषघ्नन्‌ कौरव्यान्‌ दहन्‌ कक्षमिवानल: ।। १२ ।। 

तत्पश्चात्‌ जैसे अग्नि घास-फूँसके समूहको जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन अपने 
बाणोंद्वारा समस्त कौरव महारथियोंको क्षत-विक्षत करते हुए वहाँ आ पहुँचे || १२ ।। 

तस्य वेगमसहां त॑ कुन्तीपुत्रस्य धीमत: । 

नाशबवनुवंस्ते संसोढुं स्पर्शमग्नेरिव प्रजा: ।। १३ ।। 

परम बुद्धिमान्‌ कुन्तीपुत्रके उस असहा वेगको कौरव-सैनिक उसी प्रकार नहीं सह 
सके, जैसे प्रजा अग्निका स्पर्श नहीं सहन कर पाती ।। १३ ।। 

संवेष्टयन्ननीकानि शरवर्षेण पाण्डव: । 

सुपर्णपातवद्‌ राजन्नायात्‌ प्राग्ज्योतिषं प्रति ॥। १४ ।। 

राजन! अर्जुनने बाणोंकी वर्षसे कौरव-सेनाओंको आच्छादित करते हुए गरुड़के 
समान वेगसे भगदत्तपर आक्रमण किया ।। १४ ।। 


यत्‌ तदानामयज्जिष्णुर्भरतानामपापिनाम्‌ । 

धनु: क्षेमकरं संख्ये द्विषतामश्रुवर्धनम्‌ ।। १५ ।। 

तदेव तव पुत्रस्य राजन्‌ दुर्द्यृतदेविन: । 

कृते क्षत्रविनाशाय धनुरायच्छदर्जुन: ।। १६ ।। 

महाराज! विजयी अर्जुनने युद्धमें शत्रुओंकी अश्रुधाराको बढ़ानेवाले जिस धनुषको 
कभी निष्पाप भरतवंशियोंका कल्याण करनेके लिये नवाया था, उसीको कपटटद्यूत 
खेलनेवाले आपके पुत्रके अपराधके कारण सम्पूर्ण क्षत्रियोंका विनाश करनेके लिये हाथमें 
लिया ।। १५-१६ || 

तथा विक्षो भ्यमाणा सा पार्थेन तव वाहिनी । 

व्यशीर्यत महाराज नौरिवासाद्य पर्वतम्‌ ।। १७ ।। 

नरेश्वर! कुन्तीकुमार अर्जुनके द्वारा मथी जाती हुई आपकी वाहिनी उसी प्रकार छिजन्न- 
भिन्न होकर बिखर गयी, जैसे नाव किसी पर्वतसे टकराकर टूक-टूक हो जाती है ।। १७ ।। 

ततो दशसहस्राणि न्यवर्तन्त धनुष्मताम्‌ | 

मतिं कृत्वा रणे क्रूरां वीरा जयपराजये ।। १८ ।। 

तदनन्तर दस हजार धनुर्धर वीर जय अथवा पराजयके हेतुभूत युद्धका क्रूरतापूर्ण 
निश्चय करके लौट आये ।। १८ ।। 

व्यपेतहृदयत्रासा आवत्र॒ुस्तं महारथा: | 

आर्च्छत्‌ पार्थो गुरु भारं सर्वभारसहो युधि ।। १९ ।। 

उन महारथियोंने अपने हृदयसे भयको निकालकर अर्जुनको वहाँ घेर लिया। युद्धमें 
समस्त भारोंको सहन करनेवाले अर्जुनने उनसे लड़नेका भारी भार भी अपने ही ऊपर ले 
लिया ।। १९ || 

यथा नलवन क्रुद्धः प्रभिन्न: षष्टिहायन: । 

मृदनीयात्‌ तद्वदायस्त: पार्थो5मृद्नाच्चमूं तव ।। २० |। 

जैसे साठ वर्षका मदस्रावी हाथी क्रोधमें भरकर नरकुलोंके जंगलको रौंदकर धूलमें 
मिला देता है, उसी प्रकार प्रयत्नशील पार्थने आपकी सेनाको मटियामेट कर 
दिया || २० ।। 

तस्मिन्‌ प्रमथिते सैन्ये भगदत्तो नराधिप: । 

तेन नागेन सहसा धनंजयमुपाद्रवत्‌ ।। २१ ।। 

उस सेनाके मथ डाले जानेपर राजा भगदत्तने उसी सुप्रतीक हाथीके द्वारा सहसा 
धनंजयपर धावा किया ।। 

त॑ रथेन नरव्याप्र: प्रत्यगृह्नाद्‌ धनंजय: । 

स संनिपातस्तुमुलो बभूव रथनागयो: ।। २२ ।। 


नरश्रेष्ठ अर्जुनने रथके द्वारा ही उस हाथीका सामना किया। रथ और हाथीका वह 
संघर्ष बड़ा भयंकर था ।। 

कल्पिताभ्यां यथाशास्त्रं रथेन च गजेन च । 

संग्रामे चेरतुर्वीरी भगदत्तधनंजयौ ।। २३ ।। 

शास्त्रीय विधिके अनुसार निर्मित और सुसज्जित रथ तथा सुशिक्षित हाथीके द्वारा 
वीरवर अर्जुन और भगदत्त संग्रामभूमिमें विचरने लगे || २३ ।। 

ततो जीमूतसंकाशाजन्नागादिन्द्र इव प्रभु: । 

अभ्यवर्षच्छरौघेण भगदत्तो धनंजयम्‌ ॥। २४ ।। 

तदनन्तर इन्द्रके समान शक्तिशाली राजा भगदत्त अर्जुनपर मेघ-सदृश हाथीसे 
बाणसमूहरूपी जलराशिकी वर्षा करने लगे || २४ ।। 

स चापि शरवर्ष तं शरवर्षेण वासवि: । 

अप्राप्तमेव चिच्छेद भगदत्तस्य वीर्यवान्‌ ।। २५ ।। 

इधर पराक्रमी इन्द्रकुमार अर्जुनने अपने बाणोंकी वृष्टिसे भगदत्तकी बाण-वर्षाको 
अपने पासतक पहुँचनेके पहले ही छिन्न-भिन्न कर दिया || २५ ।। 

ततः प्राग्ज्योतिषो राजा शरवर्ष निवार्य तत्‌ 

शरैर्जघ्ने महाबाहुं पार्थ कृष्णं च मारिष ।। २६ ।। 

आर्य! तदनन्तर प्राग्ज्योतिषनरेश राजा भगदत्तने भी विपक्षीकी उस बाण-वर्षाका 
निवारण करके महाबाहु अर्जुन और श्रीकृष्णको अपने बाणोंसे घायल कर दिया ।। 

ततस्तु शरजालेन महताभ्यवकीर्य तौ । 

चोदयामास तं नागं वधायाच्युतपार्थयो: ।। २७ ।। 

फिर उनके ऊपर बाणोंका महान्‌ जाल-सा बिछाकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंके 
वधके लिये उस गजराजको आगे बढ़ाया || २७ |। 

तमापतत्तं द्विरदं दृष्टवा क्रुद्धमिवान्तकम्‌ | 

चक्रेडपसव्यं त्वरित: स्यन्दनेन जनार्दन: ।। २८ ।। 

क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान उस हाथीको आक्रमण करते देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने 
तुरंत ही रथद्वारा उसे अपने दाहिने कर दिया ।। २८ ।। 

त॑ प्राप्तमपि नेयेष परावृत्तं महाद्विपम्‌ 

सारोहें मृत्युसात्कर्तु स्मरन्‌ धर्म धनंजय: ।। २९ ।। 

यद्यपि वह महान्‌ गजराज आक्रमण करते समय अपने बहुत निकट आ गया था, तो 
भी अर्जुनने धर्मका स्मरण करके सवारोंसहित उस हाथीको मृत्युके अधीन करनेकी इच्छा 
नहीं की- ।। २९ |। 

स तु नागो द्विपरथान्‌ हयांश्षामृद्य मारिष | 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय ततः क्रुद्धो धनंजय: ।। ३० ।। 


आदरणीय महाराज! उस हाथीने बहुत-से हाथियों, रथों और घोड़ोंको कुचलकर 
यमलोक भेज दिया। यह देख अर्जुनको बड़ा क्रोध हुआ ।। ३० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि भगदत्तयुद्धे अष्टाविंशो5ध्याय: ।। 
२८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें भयदत्तका युद्धाविषयक 
अद्वाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २८ ॥। 


अपना बछ। | अत-४#-#क+ 


- भगदत्तके हाथीने जब आक्रमण किया, उस समय श्रीकृष्ण रथको बगलमें हटाकर उसके आघातसे बच गये। 
अर्जुनने हाथीके सवारोंको सचेत नहीं किया था; उस दशामें हाथीको मारना युद्धके लिये स्वीकृत नियमके विरुद्ध होता। 
उसमें नियम था--“समाभाष्य प्रहर्तव्यम'--'विपक्षीको सावधान करके उसके ऊपर प्रहार करना चाहिये।” इसीलिये 
अर्जुनने धर्मका विचार करके उसे उस समय नहीं मारा। 


एकोनत्रिशो<ड ध्याय: 


अर्जुन और भगदत्तका युद्ध, श्रीकृष्णद्वारा भगदत्तके 
वैष्णवास्त्रसे अर्जुनकी रक्षा तथा अर्जुनद्वारा हाथीसहित 
भगदत्तका वध 


धृतराष्ट उवाच 

तथा क्रुद्ध/ किमकरोद्‌ भगदत्तस्य पाण्डव: । 

प्राग्ज्योतिषो वा पार्थस्य तन्‍्मे शंस यथातथम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! उस समय क्रोधमें भरे हुए पाण्डुकुमार अर्जुनने भगदत्तका 
और भगदत्तने अर्जुनका क्या किया? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ ।। १ ।। 

संजय उवाच 

प्राग्ज्योतिषेण संसक्तावुभौ दाशार्हपाण्डवौ । 

मृत्युदंष्टान्तिकं प्राप्ती सर्वभूतानि मेनिरे |। २ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! भगदत्तसे युद्धमें उलझे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंको 
समस्त प्राणियोंने मौतकी दाढ़ोंमें पहुँचा हुआ ही माना ॥। २ ।। 

तथा तु शरवर्षाणि पातयत्यनिशं प्रभो । 

गजस्कन्धान्महाराज कृष्णयो: स्यन्दनस्थयो: ।। ३ ।। 

शक्तिशाली महाराज! हाथीकी पीठसे भगदत्त रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनपर 
निरन्तर बाणोंकी वर्षा कर रहे थे || ३ ।। 

अथ कार्ष्णयसैर्बाणै: पूर्णकार्मुकनि:सूतै: । 

अविध्यद्‌ देवकीपुत्र हेमपुड्खै: शिलाशितै: ।॥। ४ ।। 

उन्होंने धनुषको पूर्णरूपसे खींचकर छोड़े हुए लोहेके बने और शानपर चढ़ाकर तेज 
किये हुए सुवर्णमय पंखयुक्त बाणोंसे देवकीपुत्र श्रीकृष्णको घायल कर दिया ।। ४ ।। 

अग्निस्पर्शसमास्तीक्ष्णा भगदत्तेन चोदिता: । 

निर्भिद्य देवकीपुत्र क्षितिं जग्मु: सुवासस: ।। ५ ।। 

भगदत्तके चलाये हुए अग्निके सस्पशके समान तीक्ष्ण और सुन्दर पंखवाले बाण 
देवकीपुत्र श्रीकृष्णके शरीरको छेदकर धरतीमें समा गये ।। ५ ।। 

तस्य पार्थोीं धनुश्छित्त्वा परिवारं निहत्य च । 

लालयजन्निव राजानं भगदत्तमयोधयत्‌ ।। ६ ।। 

तब अर्जुनने राजा भगदत्तका धनुष काटकर उनके परिवारको मार डाला और उन्हें 
लाड़ लड़ाते हुए-से उनके साथ युद्ध आरम्भ किया ।। ६ ।। 


सोडर्करश्मिनिभांस्ती क्ष्णांस्तोमरान्‌ वै चतुर्दश । 

अप्रेषयत्‌ सव्यसाची द्विधैकैकमथाच्छिनत्‌ ।। ७ ।। 

भगदत्तने सूर्यकी किरणोंके समान तीखे चौदह तोमर चलाये, परंतु सव्यसाची अर्जुनने 
उनमेंसे प्रत्येकके दो-दो टुकड़े कर डाले ।। ७ ।। 

ततो नागस्य तद्‌ वर्म व्यधमत्‌ पाकशासनि: । 

शरजालेन महता तद्‌ू व्यशीर्यत भूतले ।। ८ ।। 

तब इन्द्रकुमारने भारी बाण-वर्षके द्वारा उस हाथीके कवचको काट डाला, जिससे 
कवच जीर्ण-शीर्ण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ८ ।। 

शीर्णवर्मा स तु गज: शरै: सुभृशमर्दित: । 

बभौ धारानिपाताक्तो व्यभ्र: पर्वतराडिव ।। ९ |। 

कवच कट जानेपर हाथीको बाणोंके आघातसे बड़ी पीड़ा होने लगी। वह खूनकी 
धारासे नहा उठा और बादलोंसे रहित एवं (गैरिकमिश्रित) जलधारासे भीगे हुए गिरिराजके 
समान शोभा पाने लगा ।। ९ |। 

ततः प्राग्ज्योतिष: शक्ति हेमदण्डामयस्मयीम्‌ । 

व्यसृजद्‌ वासुदेवाय द्विधा तामर्जुनो5च्छिनत्‌ ।। १० ।। 

तब भगदत्तने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको लक्ष्य करके सुवर्णमय दण्डसे युक्त लोहमयी 
शक्ति चलायी। परंतु अर्जुनने उसके दो टुकड़े कर डाले ।। १० ।। 

ततश्छत्र॑ ध्वजं चैव छित्त्वा राज्ञो3र्जुन: शरै: । 

विव्याध दशभिस्तूर्णमुत्स्मयन्‌ पर्वतेश्वरम्‌ ।। ११ ।। 

तदनन्तर अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा राजा भगदत्तके छत्र और ध्वजको काटकर 
मुसकराते हुए दस बाणोंद्वारा तुरंत ही उन पर्वतेश्वरको बींध डाला ।। ११ ।। 

सो5तिविद्धो<र्जुनशरै: सुपुड्खै: कड्कपत्रिभि: | 

भगदत्तस्ततः क्रुद्ध: पाण्डवस्य जनाधिप: || १२ ।। 

अर्जुनके कंकपत्रयुक्त सुन्दर पाँखवाले बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल हो राजा भगदत्त उन 
पाण्डुपुत्रपर कुपित हो उठे |। १२ ।। 

व्यसृजत्‌ तोमरान्‌ मूर्श्नि श्वेताश्वस्पोन्ननाद च । 

तैरर्जुनस्थ समरे किरीटं परिवर्तितम्‌ ।। १३ ।। 

उन्होंने श्वेतवाहन अर्जुनके मस्तकपर तोमरोंका प्रहार किया और जोरसे गर्जना की। 
उन तोमरोंने समरभूमिमें अर्जुनके किरीटको उलट दिया ।। १३ ।। 

परिवृत्तं किरीटं तद्‌ यमयन्नेव पाण्डव: । 

सुदृष्ट: क्रियतां लोक इति राजानमब्रवीत्‌ ।। १४ ।। 

उलटे हुए किरीटको ठीक करते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनने भगदत्तसे कहा--“राजन्‌! अब 
इस संसारको अच्छी तरह देख लो” ।। १४ ।। 


एवमुक्तस्तु संक्रुद्ध: शरवर्षेण पाण्डवम्‌ । 

अभ्यवर्षत्‌ सगोविन्दं धनुरादाय भास्वरम्‌ ।। १५ ।। 

अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगदत्तने अत्यन्त कुपित हो एक तेजस्वी धनुष हाथमें लेकर 
श्रीकृष्णसहित अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी || १५ ।। 

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा तूणीरान्‌ संनिकृत्य च । 

त्वरमाणो द्विसप्तत्या सर्वमर्मस्वताडयत्‌ ।। १६ ।। 

अर्जुनने उनके धनुषको काटकर उनके तूणीरोंके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर तुरंत 
ही बहत्तर बाणोंसे उनके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें गहरी चोट पहुँचायी ।। 

विद्धस्ततो5तिव्यथितो वैष्णवास्त्रमुदीरयन्‌ । 

अभिमन्त्रयाड्कुशं क्रुद्धो व्यसूजत्‌ पाण्डवोरसि ।। १७ ।। 

उन बाणोंसे घायल हो अत्यन्त पीड़ित होकर भगदत्तने वैष्णवास्त्र प्रकट किया। उसने 
कुपित हो अपने अंकुशको ही वैष्णवास्त्रसे अभिमन्त्रित करके पाण्डुनन्दन अर्जुनकी छाती 
पर छोड़ दिया ।। १७ ।। 





उरसा प्रतिजग्राह पार्थ संच्छाद्य केशव: ।। १८ ।। 

भगदत्तका छोड़ा हुआ वह अस्त्र सबका विनाश करनेवाला था। भगवान्‌ श्रीकृष्णने 
अर्जुनको ओटमें करके स्वयं ही अपनी छातीपर उसकी चोट सह ली ।। १८ ।। 

वैजयन्त्यभवन्माला तदस्त्रं केशवोरसि । 


पद्मकोशविचित्राब्या सर्वर्तुकुसुमोत्कटा ।। १९ |। 

ज्वलनार्केन्दुवर्णाभा पावकोज्ज्वलपल्लवा । 

तया पद्मपलाशिन्या वातकम्पितपत्रया || २० |। 

शुशुभे5 भ्यधिकं शौरिरतसीपुष्पसंनिभ: । 

(केशव: केशिमथन: शार्ड्रधन्वारिमर्दन: । 

संध्याभ्रेरिव संछन्न: प्राव॒ट्काले नगोत्तम: ।।) 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी छातीपर आकर वह अस्त्र वैजयन्ती मालाके रूपमें परिणत हो 
गया। वह माला कमलकोशकी विचित्र शोभासे युक्त तथा सभी ऋतुओंके पुष्पोंसे सम्पन्न 
थी। उससे अग्नि, सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रभा फैल रही थी। उसका एक-एक दल 
अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। कमलदलोंसे सुशोभित तथा हवासे हिलते हुए 
दलोंवाली उस वैजयन्ती मालासे तीसीके फूलोंके समान श्यामवर्णवाले केशिहन्ता, 
शूरसेननन्दन, शार्ज्रधन्वा, शत्रुसूदन भगवान्‌ केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो 
वर्षाकालमें संध्याके मेघोंसे आच्छादित श्रेष्ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो || १९-२० $ ।। 

ततोडर्जुन: क्लान्तमना: केशवं प्रत्यभाषत ।। २१ ।। 

अयुध्यमानस्तुरगान्‌ संयन्तास्मीति चानघ । 

इत्युक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्रतिज्ञां स्वां न रक्षसि ।। २२ ।। 

यद्यहं व्यसनी वा स्यामशक्तो वा निवारणे । 

ततस्त्वयैवं कार्य स्यान्न तत्कार्य मयि स्थिते ॥। २३ ।। 

उस समय अर्जुनके मनमें बड़ा क्लेश हुआ। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार 
कहा--“अनघ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ोंको काबूमें रखूँगा-- 
केवल सारथिका काम करूँगा; किंतु कमलनयन! आप वैसी बात कहकर भी अपनी 
प्रतिज्ञाका पालन नहीं कर रहे हैं। यदि मैं संकटमें पड़ जाता अथवा अस्त्रका निवारण 
करनेमें असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होता। जब मैं युद्धके 
लिये तैयार खड़ा हूँ, तब आपको ऐसा नहीं करना चाहिये || २१--२३ ।। 

सबाण: सथनुश्चाहं ससुरासुरमानुषान्‌ । 

शक्तो लोकानिमाजउ्जेतुं तच्चापि विदितं तव ॥। २४ ।। 

“आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथमें धनुष और बाण हो तो मैं देवता, 
असुर और मनुष्योंसहित इन सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पा सकता हूँ ।। २४ ।। 

ततोडर्जुनं वासुदेव: प्रत्युवाचार्थवद्‌ वच: । 

शृणु गुह्ामिदं पार्थ पुरा वृत्तं यथानघ ।। २५ ।। 

तब वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनसे ये रहस्यपूर्ण वचन कहे--“अनघ! 
कुन्तीनन्दन! इस विषयमें यह गोपनीय रहस्यकी बात सुनो, जो पूर्वकालमें घटित हो चुकी 
है ।। २५ || 


चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यत: । 

आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमादथे ।। २६ ।। 

“मैं चार स्वरूप धारण करके सदा सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये उद्यत रहता हूँ। 
अपनेको ही यहाँ अनेक रूपोंमें विभक्त करके समस्त संसारका हित-साधन करता 
हूँ ।। २६ ।। 

एका मूर्तिस्तपश्चर्या कुरुते मे भुवि स्थिता । 

अपरा पश्यति जगत्‌ कुर्वाणं साध्वसाधुनी || २७ ।। 

“मेरी एक मूर्ति इस भूमण्डलपर (बदरिकाश्रममें नर-नारायणके रूपमें) स्थित हो 
तपश्चर्या करती है। दूसरी (परमात्मस्वरूपा) मूर्ति शुभाशुभकर्म करनेवाले जगत्‌को 
साक्षीरूपसे देखती रहती है ।। २७ ।। 

अपरा कुरुते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता । 

शेते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्रिकम्‌ ।। २८ ।। 

“तीसरी मूर्ति (मैं स्वयं जो) मनुष्यलोकका आश्रय ले नाना प्रकारके कर्म करती है और 
चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्र युगोंतक एकार्णवके जलमें शयन करती है ।। २८ ।। 

यासौ वर्षसहसान्ते मूर्तिरुत्तिष्ठते मम । 

वराहें भ्यो वरान्‌ श्रेष्ठांस्तस्मिन्‌ काले ददाति सा ।। २९ |। 

“सहस्रयुगके पश्चात्‌ मेरा वह चौथा स्वरूप जब योगनिद्रासे उठता है, उस समय वर 
पानेके योग्य श्रेष्ठ भक्तोंको उत्तम वर प्रदान करता है ।। २९ ।। 

तं तु कालमनुप्राप्तं विदित्वा पृथिवी तदा । 

अयाचत वरं यन्मां नरकार्थाय तच्छुणु || ३० ।। 

“एक बार जब कि वही समय प्राप्त था, पृथ्वीदेवीने अपने पुत्र नरकासुरके लिये मुझसे 
जो वर माँगा, उसे सुनो || ३० ।। 

देवानां दानवानां च अवध्यस्तनयोडस्तु मे । 

उपेतो वैष्णवास्त्रेण तन्मे त्वं दातुमहसि ।। ३१ ।। 

“मेरा पुत्र वैष्णवास्त्रसे सम्पन्न होकर देवताओं और दानवोंके लिये अवध्य हो जाय, 
इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्त्र प्रदान करें! || ३१ ।। 

एवं वरमहं श्रुत्वा जगत्यास्तनये तदा । 

अमोघमस्त्रं प्रायच्छ॑ वैष्णवं परमं पुरा || ३२ ।। 

“उस समय पृथ्वीके मुँहसे अपने पुत्रके लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैंने पूर्वकालमें 
अपना परम उत्तम अमोघ वैष्णव-अस्त्र उसे दे दिया ।। ३२ ।। 

अवोचं चैतदस्त्रं वै हमोघं भवतु क्षमे । 

नरकस्याभिरक्षार्थ नैनं कश्नचिद्‌ वधिष्यति ।। ३३ ।। 


“उसे देते समय मैंने कहा--“वसुधे! यह अमोघ वैष्णवास्त्र नरकासुरकी रक्षाके लिये 
उसके पास रहे। फिर उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकेगा ।। ३३ ।। 

अनेनास्त्रेण ते गुप्त: सुत: परबलार्दन: । 

भविष्यति दुराधर्ष: सर्वलोकेषु सर्वदा | ३४ ।। 

“इस अस्त्रसे सुरक्षित रहकर तुम्हारा पुत्र शत्रुओंकी सेनाको पीड़ित करनेवाला और 
सदा सम्पूर्ण लोकोंमें दुर्धर्ष बना रहेगा” ।। ३४ ।। 

तथेत्युक्त्वा गता देवी कृतकामा मनस्विनी । 

स चाप्यासीद्‌ दुराधर्षो नरक: शत्रुतापन: ।। ३५ || 

“तब 'जो आज्ञा” कहकर मनस्विनी पृथ्वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयी। वह नरकासुर 
भी (उस अस्त्रको पाकर) शत्रुओंको संताप देनेवाला तथा अत्यन्त दुर्जय हो गया ।। ३५ ।। 

तस्मात्‌ प्राग्ज्योतिषं प्राप्तं तदस्त्रं पार्थ मामकम्‌ | 

नास्यावध्योडस्ति लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष ।। ३६ ।। 

'पार्थ! नरकासुरसे वह मेरा अस्त्र इस प्राग्ज्योतिषनरेश भगदत्तको प्राप्त हुआ। आर्य! 
इन्द्र तथा रुद्रसहित तीनों लोकोंमें कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो इस अस्त्रके लिये अवध्य 
हो ।। ३६ |। 

तन्मया त्वत्कृते चैतदन्‍्यथा व्यपनामितम्‌ । 

विमुक्तं परमास्त्रेण जहि पार्थ महासुरम्‌ ।। ३७ ।। 

“अतः मैनें तुम्हारी रक्षाके लिये उस अस्त्रको दूसरे प्रकारसे उसके पाससे हटा दिया है। 
पार्थ! अब वह महान्‌ असुर उस उत्कृष्ट अस्त्रसे वंचित हो गया है। अतः तुम उसे मार 
डालो || ३७ ।। 

वैरिणं जहि दुर्धर्ष भगदत्तं सुरद्विषम्‌ 

यथाहं जघध्निवान्‌ पूर्व हितार्थ नरकं तथा ।। ३८ ।। 

“दुर्जय वीर भगदत्त तुम्हारा वैरी और देवताओंका द्रोही है। अत: तुम उसका वध कर 
डालो; जैसे कि मैंने पूर्वकालमें लोकहितके लिये नरकासुरका संहार किया था” || ३८ ।। 

एवमुक्तस्तदा पार्थ: केशवेन महात्मना । 

भगदत्तं शितैर्बाणै: सहसा समवाकिरत्‌ ।। ३९ || 

महात्मा केशवके ऐसा कहनेपर कुन्तीकुमार अर्जुन उसी समय भगदत्तपर सहसा पैने 
बाणोंकी वर्षा करने लगे || ३९ ।। 

ततः पार्थो महाबाहुरसम्भ्रान्तो महामना: । 

कुम्भयोरन्तरे नागं नाराचेन समार्पयत्‌ ।। ४० ।। 

तत्पश्चात्‌ महाबाहु महामना पार्थने बिना किसी घबराहटके हाथीके कुम्भस्थलमें एक 
नाराचका प्रहार किया || ४० ।। 

स समासाद्य तं नागं बाणो वज्ञ इवाचलम्‌ | 


अभ्यगात्‌ सह पुड्खेन वल्मीकमिव पन्नग: ।। ४१ ।। 

वह नाराच उस हाथीके मस्तकपर पहुँचकर उसी प्रकार लगा, जैसे वज्र पर्वतपर चोट 
करता है। जैसे सर्प बाँबीमें समा जाता है, उसी प्रकार वह बाण हाथीके कुम्भस्थलमें 
पंखसहित घुस गया ।। ४१ ।। 

स करी भगदत्तेन प्रेर्यमाणो मुहुर्मुहुः । 

न करोति वचस्तस्य दरिद्रस्येव योषिता ।। ४२ ।। 

वह हाथी बारंबार भगदत्तके हाँकनेपर भी उनकी आज्ञाका पालन नहीं करता था, जैसे 
दुष्टा स्त्री अपने दरिद्र स्वामीकी बात नहीं मानती है || ४२ ।। 

सतु विष्ट भ्य गात्राणि दन्ताभ्यामवनिं ययौ । 

नदन्नार्तस्वनं प्राणानुत्ससर्ज महाद्विप: ।। ४३ ।। 

उस महान्‌ गजराजने अपने अंगोंको निश्लेष्ट करके दोनों दाँत धरतीपर टेक दिये और 
आर्तस्वरसे चीत्कार करके प्राण त्याग दिये || ४३ ।। 

ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशव: । 

अयं महत्तर: पार्थ पलितेन समावृतः ।। ४४ ।। 

वलीसंछज्ननयन: शूर: परमदुर्जय: । 

अक्ष्णोरुन्मीलनार्थाय बद्धपट्टो हासौ नृप: ।। ४५ ।। 

तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णने गाण्डीवधारी अर्जुनसे कहा--“कुन्तीनन्दन! यह भगदत्त 
बहुत बड़ी अवस्थाका है। इसके सारे बाल पक गये हैं और ललाट आदि अंगोंमें झुर्रियाँ पड़ 
जानेके कारण पलकें झपी रहनेसे इसके नेत्र प्राय: बंद-से रहते हैं। यह शूरवीर तथा अत्यन्त 
दुर्जय है। इस राजाने अपने दोनों नेत्रोंको खुले रखनेके लिये पलकोंको कपड़ेकी पट्टीसे 
ललाटमें बाँध रखा है” || ४४-४५ ।। 

देववाक्यात्‌ प्रचिच्छेद शरेण भृशमर्जुन: । 

छिन्नमात्रें3शुके तस्मिन्‌ रुद्धनेत्रो बभूव सः: ।। ४६ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके कहनेसे अर्जुनने बाण मारकर भगदत्तके सिरकी पट्टी अत्यन्त 
छिन्न-भिन्न कर दी। उस पट्टीके कटते ही भगदत्तकी आँखें बंद हो गयीं ।। 

तमोमयं जगन्मेने भगदत्त: प्रतापवान्‌ । 

ततक्नन्द्रार्थबिम्बेन बाणेन नतपर्वणा ।। ४७ ।। 

बिभेद हृदयं राज्ञों भगदत्तस्य पाण्डव: | 

फिर तो प्रतापी भगदत्तको सारा जगत्‌ अन्धकारमय प्रतीत होने लगा। उस समय 
झुकी हई गाँठवाले एक अर्धचन्द्राकार बाणके द्वारा पाण्डुनन्दन अर्जुनने राजा भगदत्तके 
वक्ष:स्थलको विदीर्ण कर दिया || ४७३६ ।। 

स भिन्नहृदयो राजा भगदत्त: किरीटिना ।। ४८ ।। 

शरासनं शरांश्वैव गतासु: प्रमुमोच ह । 


शिरसस्तस्य विश्रष्टं पपात च वरांशुकम्‌ । 
नालताडनविश्रष्टं पलाशं नलिनादिव ।। ४९ ।। 
किरीट्धारी अर्जुनके द्वारा हृदय विदीर्ण कर दिये जानेपर राजा भगदत्तने प्राणशून्य हो 
अपने धनुष-बाण त्याग दिये। उनके सिरसे पगड़ी और पट्टीका वह सुन्दर वस्त्र खिसककर 
गिर गया, जैसे कमलनालके ताडनसे उसका पत्ता टूटकर गिर जाता है || ४८-४९ ।। 
स हेममाली तपनीयभाण्डात्‌ 
पपात नागाद्‌ गिरिसंनिकाशात्‌ | 
सुपुष्पितो मारुतवेगरुग्णो 
महीधराग्रादिव कर्णिकार: ।। ५० || 
सोनेके आभूषणोंसे विभूषित उस पर्वताकार हाथीसे सुवर्णमालाधारी भगदत्त पृथ्वीपर 
गिर पड़े, मानो सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित कनेरका वृक्ष हवाके वेगसे टूटकर पर्वतके शिखरसे 
नीचे गिर पड़ा हो || ५० ।। 
निहत्य तं नरपतिमिन्द्रविक्रमं 
सखायमिन्द्रस्य तदैन्द्रिराहवे । 
ततो<परांस्तव जयकाड्क्षिणो नरान्‌ 
बभज्ज वायुर्बलवान्‌ द्रमानिव ।। ५१ ।। 
राजन! इस प्रकार इन्द्रकुमार अर्जुनने इन्द्रके सखा तथा इन्द्रके समान ही पराक्रमी 
राजा भगदत्तको युद्धमें मारकर आपकी सेनाके अन्य विजयाभिलाषी वीर पुरुषोंको भी 
उसी प्रकार मार गिराया, जैसे प्रबल वायु वृक्षोंको उखाड़ फेंकती है ।। ५१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि भगदत्तवधे एकोनत्रिंशो5ध्याय: ।। 
२९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें भगदत्तवधविषयक 
उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५२ “लोक हैं।) 


अपन क्रात छा अर: 





अर्जुनके द्वारा भगदत्तका वध 


त्रिशो&्थ्याय: 


अर्जुनके द्वारा वृषबक और अचलका वध, शकुनिकी माया 
और उसकी पराजय तथा कौरव-सेनाका पलायन 


संजय उवाच 

प्रियमिन्द्रस्य सततं सखायममितौजसम्‌ | 

हत्वा प्राग्ज्योतिषं पार्थ: प्रदक्षिणमवर्तत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जो सदा इन्द्रके प्रिय सखा रहे हैं, उन अमित तेजस्वी 
प्राग्ज्योतिषपुरनरेश भगदत्तको मारकर अर्जुन दाहिनी ओर घूमे ।। १ ।। 

ततो गान्धारराजस्य सुतौ परपुरंजयौ । 

अर्देतामर्जुनं संख्ये भ्रातरौ वृषकाचलौ ।। २ ।। 

उधरसे गान्धारराज सुबलके दो पुत्र शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले वृषक्र और अचल 
दोनों भाई आ पहुँचे और युद्धमें अर्जुनको पीड़ित करने लगे ।। २ ।। 

तौ समेत्यार्जुनं वीरौ पुर: पश्चाच्च धन्विनौ । 

अविध्येतां महावेगैर्निशितैराशुगैर्भुशम्‌ ।। ३ ।। 

उन दोनों धनुर्धर वीरोंने अर्जुनपर आगे और पीछेसे भी आक्रमण करके अत्यन्त 
वेगशाली पैने बाणोंद्वारा उन्हें बहुत घायल कर दिया ।। ३ ।। 

वृषकस्य हयान्‌ सूतं धनुश्छत्र॑ रथं ध्वजम्‌ । 

तिलशो व्यधमत्‌ पार्थ: सौबलस्य शितै: शरै: || ४ ।। 

तब कुन्तीकुमार अर्जुनने अपने तीखे बाणोंद्वारा सुबलपुत्र वृषकके घोड़ों, सारथि, रथ, 
धनुष, छत्र और ध्वजाको तिल-तिल करके काट डाला ।। ४ ।। 

ततोडर्जुन: शख्रातैर्नानाप्रहरणैरपि । 

गान्धारानाकुलांश्वक्रे सौबलप्रमुखान्‌ पुन: ।। ५ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनने अपने बाणसमूहों तथा नाना प्रकारके आयुधोंद्वारा सुबलपुत्र आदि 
समस्त गान्धारोंको पुन: व्याकुल कर दिया ।। ५ |। 

ततः पञ्चशतान्‌ वीरान्‌ गान्धारानुद्यतायुधान्‌ | 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्रुद्धो बाणैर्धनं॑जय: ।। ६ ।। 

फिर क्रोधमें भरे हुए धनंजयने हथियार उठाये हुए पाँच सौ गान्धारदेशीय वीरोंको 
अपने बाणोंसे मारकर यमलोक भेज दिया ।। ६ ।। 

हताश्वात तु रथात्‌ तूर्णमवतीर्य महाभुज: । 

आरुरोह रथं भ्रातुरन्यच्च धनुराददे ७ ।। 


महाबाहु वृषक उस अश्वहीन रथसे शीघ्र उतरकर अपने भाई अचलके रथपर जा चढ़ा। 
फिर उसने अपने हाथमें दूसरा धनुष ले लिया || ७ ।। 

तावेकरथमारूढौ भ्रातरौ वृषकाचलौ । 

शरवर्षेण बीभत्सुमविध्येतां मुहुर्मुहु: ।। ८ ।। 

इस प्रकार एक रथपर बैठे हुए वे दोनों भाई वृषक और अचल बारंबार बाणोंकी वर्षासे 
अर्जुनको घायल करने लगे ।। ८ ।। 

श्यालौ तव महात्मानौ राजानौ वृषकाचलौ | 

भृशं विजषघ्नतुः पार्थमिन्द्रं वृत्रबलाविव ।। ९ ।। 

महाराज! आपके दोनों साले महामनस्वी राजकुमार वृषक और अचल, इन्द्रको 
वृत्रासुर तथा बलासुरके समान, अर्जुनको अत्यन्त घायल करने लगे ।। ९ ।। 

लब्धलक्ष्यौ तु गान्धारावहतां पाण्डवं पुन: । 

निदाघवार्षिकौ मासौ लोकं घर्माशुभिर्यथा ।। १० ।। 

जैसे गर्मीके दो महीने सूर्यकी उष्ण किरणोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंको संतप्त करते रहते हैं, 
उसी प्रकार वे दोनों भाई गान्धारराजकुमार लक्ष्य वेधनेमें सफल होकर पाण्डुपुत्र अर्जुनपर 
बारंबार आघात करने लगे ।। १० ।। 

तौ रथस्थौ नरव्यात्रौ सजानौ वृषकाचलौ । 

संश्लिष्टाड्ौ स्थितो राजन्‌ जघानैकेषुणा<र्जुन: ।। ११ ।। 

राजन! वे नरश्रेष्ठ राजकुमार वृूषक और अचल रथपर एक-दूसरेसे सटकर खड़े थे। 
उसी अवस्थामें अर्जुनने एक ही बाणसे उन दोनोंको मार डाला ।। ११ ।। 

तौ रथात्‌ सिंहसंकाशौ लोहिताक्षौ महाभुजौ । 

राजन्‌ सम्पेततुर्वीरी सोदर्यावेकलक्षणौ ।। १२ ।। 

महाराज! वे दोनों वीर परस्पर सगे भाई होनेके कारण एक-जैसे लक्षणोंसे युक्त थे। 
दोनों ही सिंहके समान पराक्रमी, लाल नेत्रोंवाले तथा विशाल भुजाओंसे सुशोभित थे। वे 
दोनों एक ही साथ रथसे पृथ्वीपर गिर पड़े ।। १२ ।। 

तयोर्भूमिं गतौ देहौ रथाद्‌ बन्धुजनप्रियौ । 

यशो दश दिश: पुण्यं गमयित्वा व्यवस्थितौ ।। १३ ।। 

उन दोनों भाइयोंके शरीर उनके बन्धुजनोंके लिये अत्यन्त प्रिय थे। वे अपने पवित्र 
यशको दसों दिशाओंमें फैलाकर रथसे भूतलपर गिरे और वहीं स्थिर हो गये ।। 

दृष्टवा विनिहतौ संख्ये मातुलावपलायिनौ । 

भृशं मुमुचुरश्रूणि पुत्रास्तव विशाम्पते ।। १४ ।। 

प्रजानाथ! युद्धसे पीठ न दिखानेवाले अपने दोनों मामाओंको युद्धमें मारा गया देख 
आपके सभी पुत्र अपने नेत्रोंसे आँसुओंकी अत्यन्त वर्षा करने लगे ।। १४ ।। 

निहतौ भ्रातरौ दृष्टवा मायाशतविशारद: । 


कृष्णौ सम्मोहयन्‌ मायां विदधे शकुनिस्तत: ।। १५ ।। 

अपने दोनों भाइयोंको मारा गया देख सैकड़ों मायाओंके प्रयोगमें निपुण शकुनिने 
श्रीकृष्ण और अर्जुनको मोहित करते हुए उनके प्रति मायाका प्रयोग किया ।। १५ ।। 

लगुडायोगुडाश्मान: शतघ्न्यश्न॒ सशक्तय: । 

गदापरिघनिस्त्रिंशशूलमुद्गरपट्टिशा: ।। १६ ।। 

सकम्पनर्टिनखरा मुसलानि परश्चधा: । 

क्षुरा: क्षुरप्रनालीका वत्सदन्तास्थिसन्धय: ।। १७ ।। 

चक्राणि विशिखा: प्रासा विविधान्यायुधानि च । 

प्रपेतु: शतशो दिवग्भ्य: प्रदिग्भ्यश्चार्जुनं प्रति | १८ ।॥। 

फिर तो अर्जुनके ऊपर दंडे, लोहेके गोले, पत्थर, शतघ्नी, शक्ति, गदा, परिघ, खड़्ग, 
शूल, मुदगर, पट्टिश, कम्पन, ऋष्टि, नखर, मुसल, फरसे, छूरे, क्षुरप्र, नालीक, वत्सदन्त, 
अस्थिसंधि, चक्र, बाण, प्रास तथा अन्य नाना प्रकारके सैकड़ों अस्त्र-शस्त्र सम्पूर्ण दिशाओं 
और विदिशाओंसे आ-आकर पड़ने लगे ।। १६--१८ ।। 

खरोष्टमहिषा: सिंहा व्याप्रा: सूमरचित्रका: । 

ऋक्षा: शालावृका गृध्रा: कपयश्न सरीसूपा: ।। १९ |। 

विविधानि च रक्षांसि क्षुधितान्यर्जुनं प्रति । 

संक्रुद्धान्यभ्यधावन्त विविधानि वयांसि च ।। २० ।। 

गदहे, ऊँट, भैंसे, सिंह, व्याप्र, रोझ, चीते, रीक्ष, कुत्ते, गीध, बन्दर, साँप तथा नाना 
प्रकारके भूखे राक्षस एवं भाँति-भाँतिके पक्षी अत्यन्त कुपित हो अर्जुनपर धावा करने 
लगे ।। १९-२० ।। 

ततो दिव्यास्त्रविच्छूर: कुन्तीपुत्रो धनंजय: । 

विसृजन्निषुजालानि सहसा तान्यताडयत्‌ ।। २१ ।। 

तदनन्तर दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता शूरवीर कुन्तीपुत्र धनंजय सहसा बाणसमूहोंकी वर्षा करते 
हुए उन सबको मारने लगे ।। २१ ।। 

ते हन्यमाना: शूरेण प्रवरै: सायकैर्दूढै: । 

विरुवन्तो महारावान्‌ विनेशु: सर्वतो हता: ॥। २२ ।। 

शूरवीर अर्जुनके सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ सायकोंद्वारा मारे जाते हुए वे समस्त हिंसक पशु सब 
ओरसे घायल हो घोर चीत्कार करते हुए वहीं नष्ट हो गये || २२ ।। 

ततस्तम: प्रादुरभूदर्जुनस्य रथं प्रति । 

तस्माच्च तमसो वाच: क्रूरा: पार्थम भर्त्सयन्‌ ॥ २३ ।। 

तदनन्तर अर्जुनके रथके समीप अन्धकार प्रकट हुआ और उस अंधकारसे क्रूरतापूर्ण 
बातें कानोंमें, पड़कर अर्जुनको डाँट बताने लगीं ।। २३ ।। 

तत्‌ तमो भैरवं घोरं भयकर्त महाहवे । 


उत्तमास्त्रेण महता ज्यौतिषेणार्जुनोडवधीत्‌ ।। २४ ।। 

उस महासमरमें प्रकट हुए उस भयदायक घोर एवं भयानक अंधकारको अर्जुनने अपने 
विशाल उत्तम ज्योतिर्मय अस्त्रद्वारा नष्ट कर दिया ।। २४ ।। 

हते तस्मिज्जलौघास्तु प्रादुरासन्‌ भयानका: । 

अम्भसस्तस्य नाशार्थमादित्यास्त्रमथार्जुन: || २५ ।। 

प्रायुद्धक्ताम्भस्ततस्तेन प्रायशो<स्त्रेण शोषितम्‌ | 

उस अंधकारका निवारण हो जानेपर बड़े भयंकर जलप्रवाह प्रकट होने लगे। तब 
अर्जुनने उस जलके निवारणके लिये आदित्यास्त्रका प्रयोग किया। उस अस्त्रने वहाँका सारा 
जल सोख लिया || २५३ || 

एवं बहुविधा माया: सौबलस्य कृता: कृता: ।। २६ ।। 

जघानास्त्रबलेनाशु प्रहसन्नर्जुनस्तदा । 

इस प्रकार सुबलपुत्र शकुनिके द्वारा बारंबार प्रयुक्त हुई नाना प्रकारकी मायाओंको उस 
समय अर्जुनने अपने अस्त्रबलसे हँसते-हँसते शीघ्र ही नष्ट कर दिया ।। २६३ ।। 

तदा हतासु मायासु त्रस्तो$र्जुनशराहत: ।। २७ ।। 

अपायाज्जवनैरश्वै: शकुनि: प्राकृतो यथा । 

तब मायाओंका नाश हो जानेपर अर्जुनके बाणोंसे आहत एवं भयभीत होकर शकुनि 
अधम मनुष्योंकी भाँति तेज चलनेवाले घोड़ोंके द्वारा भाग खड़ा हुआ ।। २७३ ।। 

ततोरर्जुनो<स्त्रविच्छैघर्यं दर्शयन्नात्मनो5रिषु |। २८ ।। 

अभ्यवर्षच्छरौघेण कौरवाणामनीकिनीम्‌ । 

तदनन्तर अस्त्रोंके ज्ञाता अर्जुन शत्रुओंको अपनी फुर्ती दिखाते हुए कौरव-सेनापर 
बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे || २८३ ।। 

सा हन्यमाना पार्थेन तव पुत्रस्य वाहिनी ।। २९ ।। 

द्ैधीभूता महाराज गड़्जेवासाद्य पर्वतम्‌ | 

महाराज! अर्जुनके द्वारा मारी जाती हुई आपके पुत्रकी विशाल सेना उसी प्रकार दो 
भागोंमें बट गयी, मानो गंगा किसी विशाल पर्वतके पास पहुँचकर दो धाराओंमें विभक्त हो 
गयी हों ।। २९६ ।। 

द्रोणमेवान्वपद्यन्त केचित्‌ तत्र नरर्षभा: ।। ३० ।। 

केचिद्‌ दुर्योधन राजन्नर्धमाना: किरीटिना । 

राजन! किरीटधारी अर्जुनसे पीड़ित हो आपकी सेनाके कितने ही नरश्रेष्ठ द्रोणाचार्यके 
पीछे जा छिपे और कितने ही सैनिक राजा दुर्योधनके पास भाग गये ।। ३०६ ।। 

नापश्याम ततत्त्वेनं सैन्ये वै रजसावृते ।। ३१ ।। 

गाण्डीवस्य च निर्घोष: श्रुतो दक्षिणतो मया । 


महाराज! उस समय हमलोग उड़ती हुई धूलराशिसे व्याप्त हुई सेनामें कहीं अर्जुनको 
देख नहीं पाते थे। मुझे तो दक्षिण दिशाकी ओर केवल उनके धनुषकी टंकार सुनायी देती 
थी ।। ३१६ || 

शड्खदुन्दुभिनिर्घोषं वादित्राणां च निः:स्वनम्‌ ।। ३२ ।। 

गाण्डीवस्य तु निर्घोषो व्यतिक्रम्यास्पृशद्‌ दिवम्‌ । 

शंख और दुन्दुभियोंकी ध्वनि, वाद्योंके शब्द तथा गाण्डीव धनुषके गम्भीर घोष 
आकाशको लाँघकर स्वर्गतक जा पहुँचे || ३२३ ।। 

ततः: पुनर्दक्षिणत: संग्रामश्चित्रयोधिनाम्‌ ।। ३३ ।। 

सुयुद्ध चार्जुनस्यासीदहं तु द्रोणमन्वियाम्‌ । 

तत्पश्चात्‌ पुनः दक्षिण दिशामें विचित्र युद्ध करनेवाले योद्धाओंका अर्जुनके साथ बड़ा 
भारी युद्ध होने लगा और मैं द्रोणाचार्यके पास चला गया ।। ३३ $ ।। 

यौधिष्ठटिरा भ्यनीकानि प्रहरन्ति ततस्तत: ।। ३४ ।। 

नानाविधान्यनीकानि पुत्राणां तव भारत । 

अर्जुनो व्यधमत्‌ काले दिवीवाभ्राणि मारुत: ।। ३५ ।। 

भरतनन्दन! युधिष्ठिरकी सेनाके सैनिक इधर-उधरसे घातक प्रहार कर रहे थे। जैसे 
वायु आकाशमें बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार उस समय अर्जुन आपके 
पुत्रोंकी विभिन्न सेनाओंका विनाश करने लगे ।। ३४-३५ ।। 

त॑ वासवमिवायान्तं भूरिवर्ष शरौघधिणम्‌ | 

महेष्वासा नरव्यात्रा नोग्रं केचिदवारयन्‌ ।। ३६ ।। 

इन्द्रकी भाँति बाणरूपी जलराशिकी अत्यन्त वर्षा करनेवाले भयंकर वीर अर्जुनको 
आते देख कोई भी महाधनुर्धर पुरुषसिंह कौरव योद्धा उन्हें रोक न सके || ३६ ।। 

ते हन्यमाना: पार्थन त्वदीया व्यथिता भृशम्‌ | 

स्वानेव बहवो जष्नुर्विद्रवन्तस्ततस्तत: ।। ३७ ।। 

अर्जुनकी मार खाकर आपके सैनिक अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। उनमेंसे बहुतेरे जो 
इधर-उधर भागते समय अपने ही पक्षके योद्धाओंको मार डालते थे ।। ३७ ।। 

तेडर्जुनेन शरा मुक्ता: कड्कपत्रास्तनुच्छिद: । 

शलभा इव सम्पेतु: संवृण्बाना दिशो दश ।। ३८ ।। 

अर्जुनके द्वारा छोड़े हुए कंकपक्षसे युक्त बाण विपक्षी वीरोंके शरीरोंको छेद डालनेवाले 
थे। वे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करते हुए टिड्डीदलके समान वहाँ सब ओर गिरने 
लगे ।। ३८ ।। 

तुरगं रथिनं नागं पदातिमपि मारिष । 

विनिर्भिद्य क्षितिं जम्मुर्वल्मीकमिव पन्नगा: ।। ३९ |। 


आर्य! वे बाण घोड़े, रथी, हाथी और पैदल सैनिकोंको भी विदीर्ण करके उसी प्रकार 
धरतीमें समा जाते थे, जैसे सर्प बाँबीमें प्रवेश कर जाते हैं ।। ३९ ।। 
न च द्वितीयं व्यसृजत्‌ कुण्जराश्वनरेषु सः । 
पृथगेकशरारुग्णा निपेतुस्ते गतासव: ।। ४० ।। 
हाथी, घोड़े और मनुष्योंपर अर्जुन दूसरा बाण नहीं छोड़ते थे। वे सब-के-सब पृथक्‌- 
पृथक्‌ एक ही बाणसे घायल हो प्राणशून्य होकर धरतीपर गिर पड़ते थे ।। ४० ।। 
हतैर्मनुष्यर्द्धिरदेश्व सर्वतः 
शराभिसूष्टे श्न हयैनिपातितै: । 
तदा श्वगोमायुबलाभिनादितं 
विचित्रमायोधशिरो बभूव तत्‌ ।। ४१ ।। 
बाणोंके आघातसे घायल होकर ढेर-के-ढेर मनुष्य मरे पड़े थे। चारों ओर हाथी 
धराशायी हो रहे थे और बहुत-से घोड़े मार डाले गये थे। उस समय कुत्तों और गीदड़ोंके 
समूहसे कोलाहलपूर्ण होकर वह युद्धका प्रमुख भाग अद्भुत प्रतीत हो रहा था || ४१ ।। 
पिता सुतं त्यजति सुहृद्वरं सुहृत्‌ 
तथैव पुत्र: पितरं शरातुर: । 
स्वरक्षणे कृतमतयस्तदा जना- 
स्त्यजन्ति वाहानपि पार्थपीडिता: ।। ४२ ।। 
वहाँ पिता पुत्रको त्याग देता था, सुहृद्‌ अपने श्रेष्ठ सुहृदको छोड़ देता था तथा पुत्र 
बाणोंके आघातसे आतुर होकर अपने पिताको भी छोड़कर चल देता था। उस समय 
अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हुए सब लोग अपने-अपने प्राण बचानेकी ओर ध्यान देकर 
सवारियोंको भी छोड़कर भाग जाते थे ।। ४२ ।। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि शकुनिपलायने त्रिंशोडध्याय: ।। 
३० || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें शक़ुनिका पलायनविषयक 
तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३० ॥। 


अपन बछ। है २ >> 


एकत्रिशो< ध्याय: 


कौरव-पाण्डव-सेनाओंका घमासान युद्ध तथा 
अभश्रत्थामाके द्वारा राजा नीलका वध 


धृतराष्ट्र रवाच 

तेष्वनीकेषु भग्नेषु पाण्डुपुत्रेण संजय | 

चलितानां द्रुतानां च कथमासीन्मनो हि व: ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! पाण्डुपुत्र अर्जुनके द्वारा पराजित हो जब सारी सेनाएँ भाग 
खड़ी हुईं, उस समय विचलित हो पलायन करते हुए तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था हो 
रही थी? ।। १ ।। 

अनीकानां प्रभग्नानामवस्थानमपश्यताम्‌ । 

दुष्करं प्रतिसंधानं तन्ममाचक्ष्व संजय ।। २ ।॥। 

भागती हुई सेनाओंको जब अपने ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं दिखायी देता हो, उस 
समय उन सबको संगठित करके एक स्थानपर ले आना बड़ा कठिन काम होता है। अतः 
संजय! तुम मुझे वह सब समाचार ठीक-ठीक बताओ ।। २ ।। 

संजय उवाच 

तथापि तव पुत्रस्य प्रियकामा विशाम्पते । 

यश: प्रवीरा लोकेषु रक्षन्तो द्रोणमन्वयु: ।। ३ ।। 

संजयने कहा--प्रजानाथ! यद्यपि सेनाओंमें भगदड़ पड़ गयी थी, तथापि बहुत-से 
विश्वविख्यात वीरोंने आपके पुत्रका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर अपने यशकी रक्षा करते 
हुए उस समय द्रोणाचार्यका साथ दिया ।। ३ ।। 

समुद्यतेषु चास्त्रेषु सम्प्राप्ते च युधिष्ठिरे । 

अकुर्वन्नार्यकर्माणि भैरवे सत्यभीतवत्‌ ।। ४ ।। 

अन्तरं भीमसेनस्य प्रापतन्नमितौजस: । 

सात्यकेश्वचैव वीरस्य धृष्टद्युम्नस्य वा विभो ॥। ५ ।। 

प्रभो! वह भयंकर संग्राम छिड़ जानेपर समस्त योद्धा निर्भय-से होकर आर्यजनोचित्त 
पुरुषार्थ प्रकट करने लगे। जब सब ओरसे हथियार उठे हुए थे और राजा युधिष्ठिर सामने 
आ पहुँचे थे, उस दशामें भीमसेन, सात्यकि अथवा वीर धृष्टद्युम्मकी असावधानीका लाभ 
उठाकर अमिततेजस्वी कौरवयोद्धा पाण्डव-सेनापर टूट पड़े || ४-५ ।। 

द्रोणं द्रोणमिति क्रूरा: पडचाला: समचोदयन्‌ । 

मा द्रोणमिति पुत्रास्ते कुरून्‌ सर्वानचोदयन्‌ ।। ६ ।। 


क्रूर स्वभाववाले पांचालसैनिक एक-दूसरेको प्रेरित करने लगे, अरे! द्रोणाचार्यको 
पकड़ लो, द्रोणाचार्यको बंदी बना लो और आपके पुत्र समस्त कौरवोंको आदेश दे रहे थे 
कि देखना, द्रोणाचार्यको शत्रु पकड़ न पावें ।। ६ ।। 

द्रोणं द्रोणमिति होके मा द्रोणमिति चापरे । 

कुरूणां पाण्डवानां च द्रोणद्यूतमवर्तत ।। ७ ।। 

एक ओरसे आवाज आती थी “द्रोणको पकड़ो, द्रोणको पकड़ो।” दूसरी ओरसे उत्तर 
मिलता, “द्रोणाचार्यको कोई नहीं पकड़ सकता।” इस प्रकार द्रोणाचार्यको दाँवपर रखकर 
कौरव और पाण्डवोंमें युद्धका जूआ आरम्भ हो गया था || ७ ।। 

यं यं प्रमथते द्रोण: पञ्चालानां रथव्रजम्‌ | 

तत्र तत्र तु पाज्चाल्यो धृष्टद्युम्नो5भ्यवर्तत ।। ८ ।। 

पांचालोंके जिस-जिस रथसमुदायको द्रोणाचार्य मथ डालनेका प्रयत्न करते, वहाँ-वहाँ 
पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न उनका सामना करनेके लिये आ जाता था ।। ८ ।। 

तथा भागविपर्यसे: संग्रामे भैरवे सति । 

वीरा: समासदन्‌ वीरान्‌ कुर्वन्तो भैरवं रवम्‌ ।। ९ ।। 

इस प्रकार भागविपर्ययद्वारा भयंकर संग्राम आरम्भ होनेपर भैरव-गर्जना करते हुए 
उभय पक्षके वीरोंने विपक्षी वीरोंपर आक्रमण किया ।। ९ ।। 

अकम्पनीया: शत्रूणां बभूवुस्तत्र पाण्डवा: | 

अकम्पयन्ननीकानि स्मरन्त: क्लेशमात्मन: ।। १० ।। 

उस समय पाण्डवोंको शत्रुदलके लोग विचलित न कर सके। वे अपनेको दिये गये 
क्लेशोंको याद करके आपके सैनिकोंको कँपा रहे थे |। १० ।। 

ते त्वमर्षवशं प्राप्ता हवीमन्‍त: सत्त्वचोदिता: । 

त्यक्त्वा प्राणान्‌ न्यवर्तन्त घ्नन्तो द्रोणं महाहवे ।। ११ ।। 

पाण्डव लज्जाशील, सत्त्वगुणसे प्रेरित और अमर्षके अधीन हो रहे थे। वे प्राणोंकी 
परवा न करके उस महान्‌ समरमें द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये लौट रहे थे || ११ ।। 

अयसामिव सम्पात: शिलानामिव चाभवत्‌ | 

दीव्यतां तुमुले युद्धे प्राणेमिततेजसाम्‌ ।। १२ ।। 

उस भयंकर युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर खेलनेवाले अमिततेजस्वी वीरोंका संघर्ष 
लोहों तथा पत्थरोंके परस्पर टकरानेके समान भयंकर शब्द करता था ।। १२ ।। 

नतु स्‍्मरन्ति संग्राममपि वृद्धास्तथाविधम्‌ । 

दृष्टपूर्व महाराज श्रुतपूर्वमथापि वा ।। १३ ।। 

महाराज! बड़े-बूढ़े लोग भी पहलेके देखे अथवा सुने हुए किसी भी वैसे संग्रामका 
स्मरण नहीं करते हैं ।। १३ ।। 

प्राकम्पतेव पृथिवी तस्मिन्‌ वीरावसादने । 


निवर्तता बलौघेन महता भारपीडिता ।। १४ ।। 

वीरोंका विनाश करनेवाले उस युद्धमें लौटते हुए विशाल सैनिकसमूहके महान्‌ भारसे 
पीड़ित हो यह पृथ्वी काँपने-सी लगी ।। १४ ।। 

घूर्णतो5पि बलौघस्य दिवं स्तब्ध्वेव नि:स्वन: । 

अजाततशधत्रोस्तत्सैन्यमाविवेश सुभैरव: ।। १५ ।। 

वहाँ सब ओर चक्कर काटते हुए सैन्यसमूहका अत्यन्त भयंकर कोलाहल आकाशको 
स्तब्ध-सा करके अजातशत्रु युधिष्ठिरकी सेनामें व्याप्त हो गया ।। १५ ।। 

समासाद्य तु पाण्डूनामनीकानि सहस्रश: । 

द्रोणेन चरता संख्ये प्रभग्नानि शितै: शरै: ।। १६ ।। 

रणभूमिमें विचरते हुए द्रोणाचार्यने पाण्डव-सेनामें प्रवेश करके अपने तीखे बाणोंद्वारा 
सहस्रों सैनिकोंके पाँव उखाड़ दिये ।। १६ ।। 

तेषु प्रमथ्यमानेषु द्रोणेनाद्भुतकर्मणा । 

पर्यवारयदासाद्य द्रोणं सेनापति: स्वयम्‌ ।। १७ ।। 

अद्भुत पराक्रम करनेवाले द्रोणाचार्यके द्वारा जब उन सेनाओंका मन्थन होने लगा, उस 
समय स्वयं सेनापति धृष्टद्युम्नने द्रोणके पास पहुँचकर उन्हें रोका || १७ ।। 

तदद्भुतम भूद्‌ युद्ध द्रोणपाउचालयोस्तथा । 

नैव तस्योपमा काचिदिति मे निश्चिता मति: ॥। १८ ।। 

वहाँ द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नमें अद्भुत युद्ध होने लगा, जिसकी कहीं कोई तुलना नहीं 
थी, यह मेरा निश्चित मत है || १८ ।। 

ततो नीलो5नलप्रख्यो ददाह कुरुवाहिनीम्‌ । 

शरस्फुलिड्जश्चापार्चिर्दहन्‌ कक्षमिवानल: ।। १९ |। 

तदनन्तर अग्निके समान कान्तिमान्‌ नील बाणरूपी चिनगारियों तथा धनुषरूपी 
लपटोंका विस्तार करते हुए कौरव-सेनाको दग्ध करने लगे, मानो आग घास-फूसके ढेरको 
जला रही हो ।। १९ |। 

त॑ दहन्तमनीकानि द्रोणपुत्र: प्रतापवान्‌ । 

पूर्वाभिभाषी सुश्लक्ष्णं स्मयमानो5भ्यभाषत ।। २० ।। 

राजा नीलको कौरव-सेनाका दहन करते देख प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने, जो पहले 
स्वयं ही वार्तालाप आरम्भ करनेवाला था, मुसकराते हुए मधुर वचनोंमें कहा-- || २० ।। 

नील किं बहुभिर्दग्वैस्तव योधे: शरार्चिषा । 

मयैकेन हि युध्यस्व क्रुद्ध: प्रहर चाशु माम्‌ ।। २१ ।। 

“नील! तुमको बाणोंकी ज्वालासे इन बहुत-से योद्धाओंको दग्ध करनेसे क्या लाभ? 
तुम अकेले मुझसे ही युद्ध करो और कुपित होकर मेरे ऊपर शीघ्र प्रहार करो” || २१ ।। 

तं पद्मनिकराकारं पद्मपत्रनिभेक्षणम्‌ | 


व्याकोशपदञ्माभमुखो नीलो विव्याध सायकै: ॥। २२ ।। 

नीलका मुख विकसित कमलके समान कान्तिमान्‌ था। उन्होंने पद्मसमूहकी-सी 
आकृति तथा कमल-दलके सदृश नेत्रोंवाले अश्वत्थामाको अपने बाणोंसे बींध 
डाला ।। २२ || 

तेनापि विद्ध:ः सहसा दौणिर्भल्लै: शितैस्त्रिभि: । 

धनुर्ध्वजं च छत्र॑ं च द्विषतः स न्यकृन्तत ।। २३ ।। 

उनके द्वारा घायल होकर अभश्वत्थामाने सहसा तीन तीखे भल्लोंद्वारा अपने शत्रु नीलके 
धनुष, ध्वज तथा छत्रको काट डाला ।। २३ ।। 

स प्लुतः स्यन्दनात्तस्मान्नीलश्चर्मवरासि भृत्‌ । 

द्रौणायने: शिर: कायाद्धतुमैच्छत्‌ पतत्रिवत्‌ ।। २४ ।। 

तब नील ढाल और सुन्दर तलवार हाथमें लेकर उस रथसे कूद पड़े। जैसे पक्षी किसी 
मनचाही वस्तुको लेनेके लिये झपट्टा मारता है, उसी प्रकार नीलने भी अश्व॒त्थामाके धड़से 
उसका सिर उतार लेनेका विचार किया ।। २४ ।। 

तस्योन्नतांसं सुनसं शिर: कायात्‌ सकुण्डलम्‌ | 

भल्लेनापाहरद्‌ द्रौणि: स्मयमान इवानघ ।। २५ ।। 

निष्पाप नरेश! उस समय अभश्व॒त्थामाने मुसकराते हुए-से भलल मारकर उसके द्वारा 
नीलके ऊँचे कंधों, सुन्दर नासिकाओं तथा कुण्डलोंसहित मस्तकको धड़से काट 
गिराया ।। २५ ।। 

सम्पूर्णचन्द्राभमुख: पद्मपत्रनिभेक्षण: । 

प्रांशुरुत्पलपत्राभो निहतो न्यपतद्‌ भुवि ॥। २६ ।। 

पूर्णचन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ मुख और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रवाले राजा 
नील बड़े ऊँचे कदके थे। उनकी अंगकान्ति नीलकमल-दलके समान श्याम थी। वे 
अश्वत्थामाद्वारा मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े || २६ ।। 

ततः प्रविव्यथे सेना पाण्डवी भूशमाकुला । 

आचार्यपुत्रेण हते नीले ज्वलिततेजसि ।। २७ ।। 

आचार्यपुत्रके द्वारा प्रजजलित तेजवाले राजा नीलके मारे जानेपर पाण्डव-सेना अत्यन्त 
व्याकुल और व्यथित हो उठी ।। २७ ।। 

अचिन्तयंश्न ते सर्वे पाण्डवानां महारथा: । 

कथं नो वासविस्त्रायाच्छत्रुभ्य इति मारिष ॥। २८ ।। 

आर्य! उस समय समस्त पाण्डव महारथी यह सोचने लगे कि इन्द्रकुमार अर्जुन 
शत्रुओंके हाथसे हमारी रक्षा कैसे कर सकते हैं? ।। २८ ।। 

दक्षिणेन तु सेनाया: कुरुते कदनं बली । 

संशप्तकावशेषस्यथ नारायणबलस्य च ।। २९ |। 


वे बलवान्‌ अर्जुन तो इस सेनाके दक्षिण भागमें बचे-खुचे संशप्तकों और नारायणी 
सेनाके सैनिकोंका संहार कर रहे हैं || २९ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि नीलवधे एकत्रिंशो5ध्याय: ।। ३३ 
|। 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें नीलवधविषयक इकतीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ३१ ॥ 


द्वात्रिशोड्थध्याय: 


कौरव-पाण्डव-सेनाओंका घमासान युद्ध, भीमसेनका 
कौरव महारथियोंके साथ संग्राम, भयंकर संहार, 
पाण्डवोंका द्रोणाचार्यपर आक्रमण, अर्जुन और कर्णका 
युद्ध, कर्णके भाइयोंका वध तथा कर्ण और सात्यकिका 
संग्राम 
संजय उवाच 

प्रतिघातं तु सैन्यस्य नामृष्यत वृकोदर: । 

सो<भ्याहनद्‌ गुरुं षष्ट्या कर्ण च दशभि: शरै: ।। १ || 

संजय कहते हैं--महाराज! अपनी सेनाका वह विनाश भीमसेनसे नहीं सहा गया। 
उन्होंने गुर्देवको साठ और कर्णको दस बाणोंसे घायल कर दिया ।। १ ।। 

तस्य द्रोण: शितैर्बाणैस्तीक्ष्णधारैरजिद्वागै: । 

जीवितान्तमभिप्रेप्सुर्मर्माण्याशु जघान ह ।। २ ।। 

तब द्रोणाचार्यने सीधे जानेवाले, तीखी धारसे युक्त पैने बाणोंद्वारा शीघ्रतापूर्वक 
भीमसेनके मर्मस्थानोंपर आघात किया। वे भीमसेनके प्राणोंका अन्त कर देना चाहते 
थे।।२।। 

आनन्तर्यमभिप्रेप्सु: षड्विंशत्या समार्पयत्‌ । 

कर्णो द्वादशभिर्बाणैरश्वृत्थामा च सप्तभि: ।। ३ || 

इस आधघात-प्रतिघातको निरन्तर जारी रखनेकी इच्छासे द्रोणाचार्यने भीमसेनको 
छब्बीस, कर्णने बारह और अश्व॒त्थामाने सात बाण मारे || ३ ।। 

षड्भिद्दुर्योधनो राजा तत एनमथाकिरत्‌ । 

भीमसेनो<पि तानू सर्वान्‌ प्रत्यविध्यन्महाबल: ।। ४ ।। 

तदनन्तर राजा दुर्योधनने उनके ऊपर छ: बाणोंद्वारा प्रहार किया। फिर महाबली 
भीमसेनने उन सबको अपने बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। ४ ।। 

द्रोणं पडचाशतेषूणां कर्ण च दशभि: शरै: | 

दुर्योधन द्वादशभिद्रौणिमष्टाभिराशुगै: ।। ५ ।। 

उन्होंने द्रोणको पचास, कर्णको दस, दुर्योधनको बारह और अश्व॒त्थामाको आठ बाण 
मारे || ५ ।। 

आयावं तुमुलं॑ कुर्वन्नभ्यवर्तत तान्‌ रणे । 

तस्मिन्‌ संत्यजति प्राणान्‌ मृत्युसाधारणीकृते ।। ६ ।। 


अजातशणत्रुस्तान्‌ योधान्‌ भीम॑ त्रातेत्यचोदयत्‌ । 

ते ययुर्भीमसेनस्य समीपममितौजस: ।। ७ ।। 

तत्पश्चात्‌ भयंकर गर्जना करते हुए भीमने रणक्षेत्रमें उन सबका सामना किया। 
भीमसेन मृत्युके तुल्य अवस्थामें पहुँच गये थे और अपने प्राणोंका परित्याग करना चाहते 
थे। उसी समय अजातशत्रु युधिष्ठिरने अपने योद्धाओंको यह कहकर आगे बढ़नेकी आज्ञा 
दी कि “तुम सब लोग भीमसेनकी रक्षा करो।” यह सुनकर वे अमित तेजस्वी वीर भीमसेनके 
समीप चले ।। ६-७ ।। 

युयुधानप्रभृतयो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ | 

ते समेत्य सुसंरब्धा: सहिता: पुरुषर्षभा: ।। ८ ।। 

महेष्वासवरैर्गुप्ता द्रोणानीकं बिभित्सव: । 

समापेतुर्महावीर्या भीमप्रभूतयो रथा: ।। ९ ।। 

सात्यकि आदि महार॒थी तथा पाण्डुकुमार माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव--ये सभी पुरुषश्रेष्ठ 
वीर परस्पर मिलकर एक साथ अत्यन्त क्रोधमें भरकर बड़े-बड़े धनुर्धरोंसे सुरक्षित हो 
द्रोणाचार्यकी सेनाको विदीर्ण कर डालनेकी इच्छासे उसपर टूट पड़े। वे भीम आदि सभी 
महारथी अत्यन्त पराक्रमी थे ।। ८-९ ।। 

तान्‌ प्रत्यगृह्नादव्यग्रो द्रोणोडपि रथिनां वर: । 

महारथानतिबलान्‌ वीरान्‌ समरयोधिन: ।। १० ।। 

उस समय रथियोंमें श्रेष्ठ आचार्य द्रोणने घबराहट छोड़कर उन अत्यन्त बलवान्‌ 
समरभूमिमें युद्ध करनेवाले महारथी वीरोंको रोक दिया ।। १० ।। 

बाहां मृत्युभयं कृत्वा तावकान्‌ पाण्डवा ययु: । 

सादिन: सादिनो<भ्यघ्नंस्तथैव रथिनो रथान्‌ ।। ११ ।। 

परंतु पाण्डववीर मौतके भयको बाहर छोड़कर आपके सैनिकोंपर चढ़ आये। 
घुड़सवार घुड़सवारोंको तथा रथारोही योद्धा रथियोंको मारने लगे || ११ ।। 

आसीच्छक्त्यासिसम्पातो युद्धमासीत्‌ परश्वधै: । 

प्रकृष्टमसियुद्धं च बभूव कटुकोदयम्‌ ।। १२ ।। 

उस युद्धमें शक्ति और खड़्गोंके घातक प्रहार हो रहे थे। फरसोंसे मार-काट हो रही 
थी। तलवार खीचंकर उसके द्वारा ऐसा भयंकर युद्ध हो रहा था कि उसका कटु परिणाम 
प्रत्यक्ष सामने आ रहा था ।। १२ ।। 

कुण्जराणां च सम्पाते युद्धमासीत्‌ सुदारुणम्‌ । 

अपतत्‌ कुज्जरादन्यो हयादन्यस्त्ववाकृशिरा: ।। १३ ।। 

हाथियोंके संघर्षमें अत्यन्त दारुण संग्राम होने लगा। कोई हाथीसे गिरता था तो कोई 
घोड़ेसे ही औंधे सिर धराशायी हो रहा था ।। १३ ।। 

नरो बाणविनिर्भिन्नो रथादन्यक्ष मारिष । 


तत्रान्यस्य च सम्मर्दे पतितस्य विवर्मण: ।। १४ ।। 

शिर: प्रध्वंसयामास वक्षस्याक्रम्प कुज्जर: । 

आर्य! उस युद्धमें कितने मनुष्य बाणोंसे विदीर्ण होकर रथसे नीचे गिर जाते थे। कितने 
ही योद्धा कवचशून्य हो धरतीपर गिर पड़ते थे और सहसा कोई हाथी उनकी छातीपर पैर 
रखकर उनके मस्तकको भी कुचल देता था ।। १४३ ।। 

अपरांश्चापरे5मृद्नन्‌ वारणा: पतितान्‌ नरान्‌ । १५ ।। 

विषाणैश्चावनिं गत्वा व्यभिन्दन्‌ रथिनो बहून्‌ । 

दूसरे हाथियोंने भी दूसरे बहुत-से गिरे हुए मनुष्यों-को अपने पैरोंसे रौंद डाला। अपने 
दाँतोंसे धरतीपर आघात करके बहुत-से रथियोंको चीर डाला || १५६ ।। 

नरान्त्रै: केचिदपरे विषाणालग्नसंश्रयै: ।। १६ ।। 

बभ्रमु: समरे नागा मृद्नन्त: शतशो नरान्‌ । 

कितने ही गजराज अपने दाँतोंमें लगी हुई मनुष्योंकी आँतें लिये समरभूमिमें सैकड़ों 
योद्धाओंको कुचलते हुए चक्कर लगा रहे थे ।। १६३६ ।। 

कार्ष्णायसतनुत्राणान्‌ नराश्वरथकुञ्जरान्‌ ।। १७ ।। 

पतितान्‌ पोथयाज्चक्रुर्द्धिपा: स्थूलनलानिव । 

काले रंगके लोहमय कवच धारण करके रणभूमिमें गिरे हुए कितने ही मनुष्यों, रथों, 
घोड़ों और हाथियोंको बड़े-बड़े गजराजोंने मोटे नरकुलोंके समान रौंद डाला || १७३ ।। 

गृध्रपत्राधिवासांसि शयनानि नराधिपा: ।। १८ ।। 

ह्वीमन्‍्त: कालसम्पर्कात्‌ सुदुःखान्यनुशेरते । 

बड़े-बड़े राजा कालसंयोगसे अत्यन्त दुःखदायिनी तथा गीधकी पाँखरूपी बिछौनोंसे 
युक्त शय्याओंपर लज्जापूर्वक सो रहे थे ।। १८३ ।। 

हन्ति स्मात्र पिता पुत्र रथेनाभ्येत्य संयुगे ।। १९ ।। 

पुत्रश्न पितरं मोहान्निर्मर्यादमवर्तत । 

वहाँ पिता रथके द्वारा युद्धके मैदानमें आकर पुत्रका ही वध कर डालता था और पुत्र 
भी मोहवश पिताके प्राण ले रहा था। इस प्रकार वहाँ मर्यादाशून्य युद्ध हो रहा था ।। १९३ 

|| 

रथो भग्नो ध्वजश्शकछ्िन्नश्छत्रमुर्व्या निपातितम्‌ ।। २० ।। 

युगार्थ छिन्नमादाय प्रदुद्राव तथा हयः । 

कितने ही रथ टूट गये, ध्वज कट गये, छत्र पृथ्वीपर गिरा दिये गये और जूए खण्डित 
हो गये। उन खण्डित हुए आधे जूओंको ही लेकर घोड़े तेजीसे भाग रहे थे || २०६ ।। 

सासिर्बाहुर्निपतित: शिरश्छिन्न॑ं सकुण्डलम्‌ ।। २१ ।। 

गजेनाक्षिप्य बलिना रथ: संचूर्णित: क्षितौ | 


कितने ही वीरोंकी भुजाएँ तलवारसहित काट गिरायी गयीं, कितनोंके कुण्डलमण्डित 
मस्तक धड़से अलग कर दिये गये। कहीं किसी बलवान्‌ हाथीने रथको उठाकर फेंक दिया 
और वह पृथ्वीपर गिरकर चूर-चूर हो गया || २१३ ।। 

रथिना ताडितो नागो नाराचेनापतत्‌ क्षितौ ।। २२ ।। 

सारोहश्चापतद्‌ वाजी गजेनाभ्याहतो भूशम्‌ | 

निर्मर्यादं महद्‌ युद्धमवर्तत सुदारुणम्‌ ।। २३ ।। 

किसी रथीने नाराचके द्वारा गजराजपर आघात किया और वह धराशायी हो गया। 
किसी हाथीके वेगपूर्वक आघात करनेपर सवारसहित घोड़ा धरतीपर ढेर हो गया। इस 
प्रकार वहाँ मर्यादाशून्य अत्यन्त भयंकर एवं महान्‌ युद्ध होने लगा ।। २२-२३ ।। 

हा तात हा पुत्र सखे क्वासि तिष्ठ क्व धावसि । 

प्रहराहर जहोन॑ स्मितक्ष्वेडितगर्जितै: । २४ ।। 

इत्येवमुच्चरन्ति सम श्रूयन्ते विविधा गिर: । 

उस समय सभी सैनिक “हा तात! हा पुत्र! सखे! तुम कहाँ हो? ठहरो, कहाँ भागे जा 
रहे हो? मारो, लाओ, इसका वध कर डालो'--इस प्रकारकी बातें कह रहे थे। हास्य, 
उछल-कूद और गर्जनाके साथ उनके मुखसे नाना प्रकारकी बातें सुनायी देती थीं ।। २४ ई 

|| 

नरस्याश्वस्य नागस्य समसज्जत शोणितम्‌ ।। २५ ।। 

उपाशाम्यद्‌ रजो भौमं भीरून्‌ कश्मलमाविशत्‌ । 

मनुष्य, घोड़े और हाथीके रक्त एक-दूसरेसे मिल रहे थे। उस रक्तप्रवाहसे वहाँकी 
उड़ती हुई भयंकर धूल शान्त हो गयी। उस रक्तराशिको देखकर भीरु पुरुषोंपर मोह छा 
जाता था || २५६ || 

चक्रेण चक्रमासाद्य वीरो वीरस्य संयुगे ।। २६ ।। 

अतीतेषुपथे काले जहार गदया शिर: । 

किसी वीरने अपने चक्रके द्वारा शत्रुपक्षीय वीरके चक्रका निवारण करके युद्धमें 
बाणप्रहारके योग्य अवसर न होनेके कारण गदासे ही उसका सिर उड़ा दिया || २६३ ।|। 

आसीतू्‌ केशपरामर्शों मुष्टियुद्धं च दारुणम्‌ ।। २७ ।। 

नर्खैर्दन्तैश्न शूराणामद्वीपे द्वीपमिच्छताम्‌ । 

कुछ लोगोंमें एक-दूसरेके केश पकड़कर युद्ध होने लगा। कितने ही योद्धाओं में अत्यन्त 
भयंकर मुक्कोंकी मार होने लगी। कितने ही शूरवीर उस निराश्रय स्थानमें आश्रय ढूँढ़ रहे थे 
और नखों तथा दाँतोंसे एक-दूसरेको चोट पहुँचा रहे थे || २७३ ।। 

तत्राच्छिद्यत शूरस्य सखड्‌गो बाहुरुद्यतः ।। २८ ।। 

सथधनुश्चापरस्यापि सशर: साड्कुशस्तथा । 


आक्रोशदन्यमन्यो>त्र तथान्यो विमुखो<द्रवत्‌ ।। २९ ।। 

उस युद्धमें एक शूरवीरकी खड्गसहित ऊपर उठी हुई भुजा काट डाली गयी। दूसरेकी 
भी धनुष-बाण और अंकुशसहित बाँह खण्डित हो गयी। वहाँ एक सैनिक दूसरेको पुकारता 
था और दूसरा युद्धसे विमुख होकर भागा जा रहा था ।। २८-२९ ।। 

अन्य: प्राप्तस्य चान्यस्य शिर: कायादपाहरत्‌ । 

सशब्दमद्रवच्चान्य: शब्दादन्यो5त्रसद्‌ भृशम्‌ ।। ३० ।। 

किसी दूसरे वीरने सामने आये हुए अन्य योद्धाके मस्तकको धड़से अलग कर दिया। 
यह देख कोई तीसरा वीर बड़े जोरसे कोलाहल करता हुआ भागा। उसके उस आर्तनादसे 
एक अन्य योद्धा अत्यन्त डर गया ।। ३० ।। 

स्वानन्यो5थ परानन्यो जघान निशितै: शरै: | 

गिरिशृड्रोपमश्चात्र नाराचेन निपातित: ।। ३१ ।। 

मातड़ो न्यपतद्‌ भूमौ नदीरोध इवोष्णगे । 

कोई अपने ही सैनिकोंको और कोई शत्रु-योद्धाओंको अपने तीखे बाणोंसे मार रहा 
था। उस युद्धमें पर्वत शिखरके समान विशालकाय हाथी नाराचसे मारा जाकर वर्षाकालमें 
नदीके तटकी भाँति धरतीपर गिरा और ढेर हो गया || ३१३६ ।। 

तथैव रथिनं नाग: क्षरन्‌ गिरिरिवारुजन्‌ ।। ३२ ।। 

अभ्यतिष्ठत्‌ पदा भूमौ सहाश्वं सहसारथिम्‌ | 

झरने बहानेवाले पर्वतकी भाँति किसी मदस्रावी गजराजने सारथि और अश्वोंसहित 
रथीको पैरोंसे भूमिपर दबाकर उन सबको कुचल डाला || ३२६ |। 

शूरान्‌ प्रहरतो दृष्टवा कृतास्त्रान्‌ रुधिरोक्षितान्‌ ।। ३३ ।। 

बहूनप्याविशन्मोहो भीरून्‌ हृदयदुर्बलान्‌ | 

अस्त्र-विद्यामें निपुण और खूनसे लथपथ हुए शूरवीरोंको परस्पर प्रहार करते देख 
बहुत-से दुर्बल हृदयवाले भीरु मनुष्योंके मनमें मोहका संचार होने लगा || ३३ ३ ।। 

सर्वमाविग्नमभवतन्न प्राज्ञायत किड्चन ।। ३४ ।। 

सैन्येन रजसा ध्वस्तं निर्मर्यादमवर्तत । 

उस समय सेनाद्वारा उड़ायी हुई धूलसे व्याप्त होकर सारा जनसमूह उद्विग्न हो रहा था, 
किसीको कुछ नहीं सूझता था। उस युद्धमें किसी भी नियम या मर्यादाका पालन नहीं हो 
रहा था ।। ३४३ || 

ततः: सेनापति: शीघ्रमयं काल इति ब्रुवन्‌ ।। ३५ ।। 

नित्याभित्वरितानेव त्वरयामास पाण्डवान्‌ | 

तब सेनापति धूृष्टद्युम्नने यही उपयुक्त अवसर है, ऐसा कहते हुए सदा शीघ्रता 
करनेवाले पाण्डवोंको और भी जल्दी करनेके लिये प्रेरित किया || ३५६ ।। 


कुर्वन्त: शासनं तस्य पाण्डवा बाहुशालिन: ।। ३६ ।। 

सरो हंसा इवापेतुर्घ्नन्तो द्रोणरथं प्रति । 

तदनन्तर अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले पाण्डव सेनापतिकी आज्ञाका पालन 
करनेके लिये वहाँ द्रोणाचार्यके रथपर प्रहार करते हुए उसी प्रकार टूट पड़े, जैसे बहुत-से 
हंस किसी सरोवरपर सब ओरसे उड़कर आते हैं || ३६३ ।। 

गृह्नीताद्रवतान्योन्यं विभीता विनिकृन्तत ।। ३७ ।। 

इत्यासीत्‌ तुमुल: शब्दो दुर्धर्षस्य रथं प्रति । 

उस समय दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्यके रथके समीप सब ओरसे यही भयानक आवाज आने 
लगी कि “दौड़ो, पकड़ो और निर्भय होकर शत्रुओंको काट डालो” || ३७३ ।। 

ततो द्रोण: कृप: कर्णो द्रौणी राजा जयद्रथ:ः ।। ३८ ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ शल्यश्वैतान्‌ न्यवारयन्‌ । 

तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, राजा जयद्रथ, अवन्तीके राजकुमार विन्द 
और अनुविन्द तथा राजा शल्यने मिलकर इन आक्रमणकारियोंको रोका || ३८३ ।। 

ते त्वार्यधर्मसंरब्धा दुर्निवारा दुरासदा: ।। ३९ ।। 

शरार्ता न जहुद्रोणं पज्चाला: पाण्डवैः सह । 

वे पाण्डवोंसहित पाउ्चालवीर आर्यधर्मके अनुसार विजयके लिये प्रयत्नशील थे। उन्हें 
रोकना या पराजित करना बहुत कठिन था। वे बाणोंसे पीड़ित होनेपर भी द्रोणाचार्यको 
छोड़ न सके ।। ३९६ ।। 

ततो द्रोणो$तिसंक्रुद्धो विसृजज्छतश: शरान्‌ ।। ४० ।। 

चेदिपज्चालपाण्डूनामकरोत्‌ कदनं महत्‌ । 

यह देख अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्यने सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करके चेदि, पांचाल 
तथा पाण्डव-योद्धाओंका महान्‌ संहार आरम्भ किया ।। ४० $ ।। 

तस्य ज्यातलनिर्घोष: शुश्रुवे दिक्षु मारिष || ४१ ।। 

वज्संहादसंकाशस्त्रासयन्‌ मानवान्‌ बहून्‌ | 

आर्य! उनके धनुषकी प्रत्यंचाका गम्भीर घोष सम्पूर्ण दिशाओंमें सुनायी देता था। वह 
वज्रकी गर्जनाके समान घोर शब्द बहुसंख्यक मनुष्योंको भयभीत कर रहा था || ४१३ || 

एतस्मिन्नन्तरे जिष्णुर्जित्वा संशप्तकान्‌ बहून्‌ ।। ४२ ।। 

अभ्ययात्‌ तत्र यत्रासौ द्रोण: पाण्डून्‌ प्रमर्दति । 

इसी समय अर्जुन बहुत-से संशप्तकोंपर विजय प्राप्त करके उस स्थानपर आये, जहाँ 
आचार्य द्रोण पाण्डव-सैनिकोंका मर्दन कर रहे थे || ४२३ ।। 

ताञ्छरौघान्‌ महावर्तान्‌ शोणितोदान्‌ महाह्ददान्‌ ।। ४३ ।। 

तीर्ण: संशप्तकान्‌ हत्वा प्रत्यदृश्यत फाल्गुन: । 


संशप्तक योद्धा महान्‌ सरोवरोंके समान थे, बाणोंके समूह ही उनके जल-प्रवाह थे, 
धनुष ही उनमें उठी हुई बड़ी-बड़ी भँवरोंके समान जान पड़ते थे तथा प्रवाहित होनेवाला 
रक्त ही उन सरोवरोंका जल था। अर्जुन संशप्तकोंका वध करके उन महान्‌ सरोवरोंके पार 
होकर वहाँ आते दिखायी दिये थे || ४३ $ ।। 

तस्य कीर्तिमतो लक्ष्म सूर्यप्रतिमतेजस: ।। ४४ ।। 

दीप्यमानमपश्याम तेजसा वानरध्वजम्‌ | 

सूर्यके समान तेजस्वी एवं यशस्वी अर्जुनके चिह्नस्वरूप वानरध्वजको हमने दूरसे ही 
देखा, जो अपने दिव्य तेजसे उद्धासित हो रहा था ।। ४४ ई ।। 

संशप्तकसमुद्रं तमुच्छोष्यास्त्रगभस्तिभि: ।। ४५ ।। 

स पाण्डवयुगान्तार्क: कुरूनप्यभ्यतीतपत्‌ । 

वे पाण्डुवंशके प्रलयकालीन सूर्य अपनी अस्त्रमयी किरणोंसे उस संशप्तकरूपी 
समुद्रको सोखकर कौरव-सैनिकोंको भी संतप्त करने लगे || ४५३ ।। 

प्रददाह कुरून्‌ सर्वानर्जुन: शस्त्रतेजसा ।। ४६ ।। 

युगान्ते सर्वभूतानि धूमकेतुरिवोत्थित: । 

जैसे प्रलयकालमें प्रकट हुई अग्नि सम्पूर्ण भूतोंको दग्ध कर देती है, उसी प्रकार 
अर्जुनने अपने अस्त्र-शस्त्रोंके तेजसे समस्त कौरव-सैनिकोंको जलाना आरम्भ किया ।। ४६ 
हे || 

तेन बाणसहस्रौघैर्गजाश्वरथयोधिन: || ४७ ।। 

ताड्यमानाः क्षितिं जम्मुर्मुक्तकेशा: शरार्दिता: । 

हाथी, घोड़े तथा रथपर आरूढ़ होकर युद्ध करनेवाले बहुत-से योद्धा अर्जुनके सहस्तरों 
बाणसमूहोंसे आहत एवं पीड़ित हो बाल खोले हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ।। 

केचिदार्तस्वनं चक्रु्विनेशुरपरे पुन: ।। ४८ ।। 

पार्थबाणहता: केचितन्निपेतुर्विगतासव: । 

कोई आर्तनाद करने लगे, कोई नष्ट हो गये, कोई अर्जुनके बाणोंसे मारे जाकर 
प्राणशून्य हो पृथ्वीपर गिर पड़े || ४८३ ।। 

तेषामुत्पतितान्‌ कांश्चित्‌ पतितांश्व पराड़मुखान्‌ ।। ४९ ।। 

न जघानार्जुनो योधान्‌ योधव्रतमनुस्मरन्‌ । 

उन योद्धाओंमेंसे जो लोग रथसे कूद पड़े थे या धरतीपर गिर गये थे अथवा युद्धसे 
विमुख होकर भाग चले थे, उन सबको एक वीर सैनिकके लिये निश्चित नियमका निरन्तर 
स्मरण रखते हुए अर्जुनने नहीं मारा ।। 

ते विकीर्णरथाश्षित्रा: प्रायशश्न॒ पराड्मुखा: ।। ५० ।। 

कुरव: कर्ण कर्णेति हाहेति च विचुक्रुशु: । 


कौरव-सैनिकोंके रथ टूट-फ़ूटकर बिखर गये। उनकी विचित्र अवस्था हो गयी। वे प्रायः: 
युद्धसे विमुख हो गये और “हा कर्ण, हा कर्ण” कहकर पुकारने लगे ।। ५० ई ।। 

तमाधिरथिराक्रन्दं विज्ञाय शरणैषिणाम्‌ ।। ५१ ।। 

मा भैछ्टेति प्रतिश्रुत्य ययावभिमुखो<र्जुनम्‌ । 

तब अधिरथपुत्र कर्णने उन शरणार्थी सैनिकोंकी करुण पुकार सुनकर 'डरो मत” इस 
प्रकार उन्हें आश्वासन देकर अर्जुनका सामना करनेके लिये प्रस्थान किया ।। ५१ ३ ।। 

स भारतरथश्रेष्ठ: सर्वभारतहर्षण: ।। ५२ ।। 

प्रादुश्चक्रे तदाग्नेयमस्त्रमस्त्रविदां वर: । 

उस समय अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, भरतवंशियोंके श्रेष्ठ महारथी तथा सम्पूर्ण भारतीय 
सेनाका हर्ष बढ़ानेवाले कर्णने आग्नेयास्त्र प्रकट किया || ५२३ || 

तस्य दीप्तशरौघस्य दीप्तचापधरस्य च ।। ५३ ।। 

शरौघाञ्छरजालेन विदुधाव धनंजय: । 

प्रजवलित बाणसमूह तथा देदीप्यमान धनुष धारण करनेवाले कर्णके उन बाणसमूहोंको 
अर्जुनने अपने बाणोंके समुदायद्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया || ५३३ || 

तथैवाधिरथिस्तस्य बाणाज्ज्वलिततेजस: ।। ५४ ।। 

अस्त्रमस्त्रेण संवार्य प्राणदद्‌ विसृजज्छरान्‌ । 

उसी प्रकार अधिरथकुमार कर्णने भी प्रज्वलित तेजवाले अर्जुनके बाणोंका तथा उनके 
प्रत्येक अस्त्रका अपने अस्त्रोंद्रारा निवारण करके बाणोंकी वर्षा करते हुए बड़े जोरसे 
सिंहनाद किया || ५४ $ || 

धृष्टद्युम्नश्व॒ भीमश्च सात्यकिश्न महारथ: ।। ५५ || 

विव्यधु: कर्णमासाद्य त्रिभिस्त्रिभिरजिद्वागै: । 

इसी समय धृष्टद्युम्न, भीम तथा महारथी सात्यकिने भी कर्णके पास पहुँचकर उसे 
तीन-तीन बाणोंसे घायल कर दिया ।। ५५३ ।। 

अर्जुनास्त्र तु राधेय: संवार्य शरवृष्टिभि: ।। ५६ ।। 

तेषां त्रयाणां चापानि चिच्छेद विशिखैस्त्रिभि: । 

तब राधानन्दन कर्णने अपने बाणोंकी वर्षद्वारा अर्जुनके बाणोंका निवारण करके 
अपने तीन बाणोंद्वारा धृष्टद्युम्न आदि तीनों वीरोंके धनुषोंको भी काट दिया || ५६३६ ।। 

ते निकृत्तायुधा: शूरा निर्विषा भुजगा इव ॥। ५७ || 

रथशक्ती: समुत्क्षिप्प भृशं सिंहा इवानदन्‌ । 

अपने धनुष कट जानेपर विषहीन भुजंगमोंके समान उन शूरवीरोंने रथ-शक्तियोंको 
ऊपर उठाकर सिंहोंके समान भयंकर गर्जना की || ५७६ ।। 

ता भुजाग्रैर्महावेगा निसृष्टा भुजगोपमा: ।। ५८ ।। 


दीप्यमाना महाशक्‍त्यो जग्मुराधिरथिं प्रति । 

उनके हाथोंसे छूटी हुई वे अत्यन्त वेगशालिनी सर्पाकार महाशक्तियाँ अपनी प्रभासे 
प्रकाशित होती हुई कर्णकी ओर चलीं || ५८ $ || 

ता निकृत्य शरव्रातैस्त्रिभिस्त्रिभिरजिद्वागै: ।। ५९ ।। 

ननाद बलवान्‌ कर्ण: पार्थाय विसृजज्छरान्‌ । 

परंतु बलवान्‌ कर्णने सीधे जानेवाले तीन-तीन बाणसमूहोंद्वारा उन शक्तियोंके टुकड़े- 
टुकड़े करके अर्जुनपर बाणोंकी वर्षा करते हुए सिंहनाद किया ।। ५९३ ।। 

अर्जुनश्नापि राधेयं विद्ध्वा सप्तभिराशुगै: । ६० ।। 

कर्णादवरजं बाणैर्जघान निशितै: शरै: | 

अर्जुनने भी राधानन्दन कर्णको सात शीघ्रगामी बाणोंद्वारा बीधकर अपने पैने बाणोंसे 
उसके छोटे भाईको मार डाला || ६० $ || 

ततः शत्रुंजयं हत्वा पार्थ: षड़भिरजिह्यगै:ः ।। ६१ ।। 

जहार सद्यो भल्लेन विपाटस्य शिरो रथात्‌ | 

तत्पश्चात्‌ सीधे जानेवाले छः सायकोंद्वारा शत्रुंजयका संहार करके एक भल्लद्वारा 
रथपर बैठे हुए विपाटका मस्तक तत्काल काट गिराया ।। ६१ ई || 

पश्यतां धार्तराष्ट्राणामेकेनैव किरीटिना ।। ६२ ।। 

प्रमुखे सूतपुत्रस्य सोदर्या निहतास्त्रय: । 

इस प्रकार धुृतराष्ट्रपुत्रोंके देखते-देखते एकमात्र अर्जुनने युद्धके मुहानेपर सूतपुत्र 
कर्णके तीन भाइयोंका वध कर डाला ।। ६२ $ ।। 

ततो भीम: समुत्पत्य स्वरथाद्‌ वैनतेयवत्‌ ।। ६३ ।। 

वरासिना कर्णपक्षान्‌ जघान दश पञ्च च | 

तदनन्तर भीमसेनने गरुड़की भाँति अपने रथसे उछलकर उत्तम खड्गद्वारा कर्णपक्षके 
पंद्रह योद्धाओंको मार डाला || ६३ ३ ।। 

पुनस्तु रथमास्थाय धनुरादाय चापरम्‌ ।। ६४ ।। 

विव्याध दशभ्ि: कर्ण सूतमश्चांश्व॒ पठचभि: । 

फिर भी उन्होंने अपने रथपर बैठकर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और दस बाणोंद्वारा 
कर्णको तथा पाँच बाणोंसे उसके सारथि और घोड़ोंको भी घायल कर दिया ।। ६४ $ || 

धृष्टद्युम्नो5प्यसिवरं चर्म चादाय भास्वरम्‌ ।। ६५ ।। 

जघान चन्द्रवर्माणं बृहत्क्षत्रं च नैषधम्‌ । 

धष्टद्युम्नने भी श्रेष्ठ खड़ग और चमकीली ढाल लेकर चन्द्रवर्मा तथा निषधराज 
बृहत्क्षतका काम तमाम कर दिया ।। ६५३ ।। 

ततः स्वरथमास्थाय पाज्चाल्योडन्यच्च कार्मुकम्‌ ।। ६६ ।। 


आदाय कर्ण विव्याध त्रिसप्तत्या नदन्‌ रणे | 

तदनन्तर पाञ्चालराजकुमार धृष्टद्युम्नने अपने रथपर बैठकर दूसरा धनुष ले रणक्षेत्रमें 
गर्जना करते हुए तिहत्तर बाणोंद्वारा कर्णको बींध डाला ।। ६६ ६ ।|। 

शैनेयो<5प्यन्यदादाय धनुरिन्दुसमझुति: ।। ६७ ।। 

सूतपुत्र॑ चतुःषष्ट्या विद्ध्वा सिंह इवानदत्‌ | 

तत्पश्चात्‌ चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ सात्यकिने भी दूसरा धनुष हाथमें लेकर सूतपुत्र 
कर्णको चौंसठ बाणोंसे घायल करके सिंहके समान गर्जना की ।। ६७३ ।। 

भल्लाभ्यां साधुमुक्ता भ्यां छित्त्वा कर्णस्य कार्मुकम्‌ ।। ६८ ।। 

पुन: कर्ण त्रिभि्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्‌ । 

इसके बाद उन्होंने अच्छी तरह छोड़े हुए दो भल्लोंद्वारा कर्णके धनुषको काटकर पुनः 
तीन बाणोंद्वारा कर्णकी दोनों भुजाओं तथा छातीमें भी चोट पहुँचायी ।। 

ततो दुर्योधनो द्रोणो राजा चैव जयद्रथ: ।। ६९ ।। 

निमज्जमान राधेयमुज्जहु: सात्यकार्णवात्‌ | 

तत्पश्चात्‌ दुर्योधन, द्रोणाचार्य तथा राजा जयद्रथने डूबते हुए राधानन्दन कर्णका 
सात्यकिरूपी समुद्रसे उद्धार किया ।। ६९३ ।। 

पत्त्यश्चरथमातज्ञास्त्वदीया: शतशो5परे || ७० ।। 

कर्णमेवाभ्यधावन्त त्रास्यमाना: प्रहारिण: । 

उस समय आपकी सेनाके अन्य सैकड़ों पैदल, घुड़सवार, रथी और गजारोही योद्धा 
सात्यकिसे संत्रस्त होकर कर्णके ही पीछे दौड़े गये || ७० $ ।। 

धृष्टय्युम्नश्ष भीमश्न सौभद्रोडर्जुन एव च । ७१ ।। 

नकुल: सहदेवश्व सात्यकिं जुगुपू रणे । 

उधर धृष्टद्युम्न, भीमसेन, अभिमन्यु, अर्जुन, नकुल तथा सहदेवने रणक्षेत्रमें सात्यकिका 
संरक्षण आरम्भ किया ।। ७१६ |। 

एवमेष महारौद्र: क्षयार्थ सर्वधन्विनाम्‌ ।। ७२ ।। 

तावकानां परेषां च त्यक्त्वा प्राणानभूद्‌ रण: । 

महाराज! इस प्रकार आपके तथा शत्रुपक्षके सम्पूर्ण धनुर्धरोंके विनाशके लिये उनमें 
परस्पर प्राणोंकी परवा न करके अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा || ७२६ ।। 

पदातिरथनागाश्चा गजाश्वरथपत्तिभि: ।। ७३ || 

रथिनो नागप्त्त्यश्वै रथपत्ती रथद्विपै: | 

पैदल, रथ, हाथी और घोड़े क्रमश: हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंके साथ युद्ध करने 
लगे। रथी हाथियों, पैदलों और घोड़ोंके साथ भिड़ गये। रथी और पैदल सैनिक रथियों और 
हाथियोंका सामना करने लगे || ७३ $ ।। 


अश्लैरश्चा गजैर्नागा रथिनो रथिभि: सह ।। ७४ ।। 
संयुक्ता: समदृश्यन्त पत्तयश्चापि पत्तिभि: । 
घोड़ोंसे घोड़े, हाथियोंसे हाथी, रथियोंसे रथी और पैदलोंसे पैदल जूझते दिखायी दे रहे 
थे ।। ७४६३ || 
एवं सुकलिलं युद्धमासीत्‌ क्रव्यादहर्षणम्‌ । 
महद्विस्तैरभीतानां यमराष्ट्रविवर्धनम्‌ । ७५ ।। 
इस प्रकार उन निर्भीक सैनिकोंका महान्‌ शक्तिशाली विपक्षी योद्धाओंके साथ अत्यन्त 
घमासान युद्ध हो रहा था, जो कच्चा मांस खानेवाले पशु-पक्षियों तथा पिशाचोंके हर्षकी 
वृद्धि और यमराजके राष्ट्रकी समृद्धि करनेवाला था || ७५३ ।। 
ततो हता नररथवाजिकुगञ्जरै- 
रनेकशो द्विपरथपत्तिवाजिन: । 
गजैर्गजा रथिभिरुदायुधा रथा 
हयै्हया: पत्तिगणैश्नल पत्तय: ।। ७६ ।। 
उस समय पैदल, रथी, घुड़सवार और हाथीसवारोंके द्वारा बहुत-से हाथीसवार, रथी, 
पैदल और घुड़सवार मारे गये। हाथियोंने हाथियोंको, रथियोंने शस्त्र उठाये हुए रथियोंको, 
घुड़सवारोंने घुड़सवारोंको और पैदल योद्धाओंने पैदल योद्धाओंको मार गिराया || ७६ ।। 
रथैर्दविपा द्विरदवरैर्महाहया 
हयैर्नरा वररथिभिश्न वाजिन: । 
निरस्तजिल्लादशनेक्षणा: क्षितौ 
क्षयं गता: प्रमथितवर्म भूषणा: ।। ७७ ।। 
रथियोंने हाथियोंको, गजराजोंने बड़े-बड़े घोड़ोंको, घुड़सवारोंने पैदलोंको तथा श्रेष्ठ 
रथियोंने घुड़सवारोंको धराशायी कर दिया। उनकी जिह्ठा, दाँत और नेत्र--ये सब बाहर 
निकल आये थे। कवच और आभूषण टुकड़े टुकड़े होकर पड़े थे। ऐसी अवस्थामें वे सब 
योद्धा पृथ्वीपर गिरकर नष्ट हो गये थे || ७७ ।। 
तथा परैर्बहुकरणैर्वरायुधै- 
हता गता: प्रतिभयदर्शना: क्षितिम्‌ 
विपोथिता हयगजपादताडिता 
भूशाकुला रथमुखनेमिश्रि: क्षता: || ७८ ।। 
शत्रुओंके पास बहुत-से साधन थे। उनके हाथमें उत्तम अस्त्र-शस्त्र थे। उनके द्वारा मारे 
जाकर पृथ्वीपर पड़े हुए सैनिक बड़े भयंकर दिखायी देते थे। कितने ही योद्धा हाथियों और 
घोड़ोंके पैरोंसे आहत होकर धरतीपर गिर पड़ते थे। कितने ही बड़े-बड़े रथोंके पहियोंसे 
कुचलकर क्षत-विक्षत हो अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे || ७८ ।। 
प्रमोदने श्वापदपक्षिरक्षसां 


जनक्षये वर्तति तत्र दारुणे । 
महाबलास्ते कुपिता: परस्परं 
निषूदयन्त: प्रविचेरुरोजसा ।। ७९ ।। 
वहाँ वह भयंकर जनसंहार हिंसक जन्तुओं, पक्षियों तथ राक्षसरोंको आनन्द प्रदान 
करनेवाला था। उसमें कुपित हुए वे महाबली शूरवीर एक-दूसरेको मारते हुए बलपूर्वक 
विचरण कर रहे थे ।। ७९ |। 
ततो बले भृशलुलिते परस्परं 
निरीक्षमाणे रुधिरौघसम्प्लुते । 
दिवाकरे<स्तंगिरिमास्थिते शनै- 
रुभे प्रयाते शिबिराय भारत ।। ८० ।। 
भरतनन्दन! दोनों ओरकी सेनाएँ अत्यन्त आहत होकर खूनसे लथपथ हो एक- 
दूसरीकी ओर देख रही थीं, इतनेहीमें सूर्यदेव अस्ताचलको जा पहुँचे। फिर तो वे दोनों ही 
धीरे-धीरे अपने-अपने शिविरकी ओर चल दीं ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसावहारे 
द्वात्रिंशोड्थ्याय: ।। ३२ ।॥। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत संशप्तकवधपर्वमें बारहवें दिनके युद्धमें 
सेनाका युद्धसें विरत हो अपने शिविरको प्रस्थानविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥ ३२ ॥ 


अपना बछ। है २ >> 


(अभिमन्युवधपर्व) 


त्रयस्त्रिंशो&ध्याय: 


दुर्योधनका उपालम्भ, द्रोणाचार्यकी प्रतिज्ञा और 
अभिमन्युवधके वृत्तान्तका संक्षेपसे वर्णन 


संजय उवाच 

पूर्वमस्मासु भग्नेषु फाल्गुनेनामितौजसा । 

द्रोणे च मोघसंकल्पे रक्षिते च युधिष्िरे || १ ।। 

सर्वे विध्वस्तकवचास्तावका युधि निर्जिता: । 

रजस्वला भृशोद्विग्ना वीक्षमाणा दिशो दश ।। २ ।। 

अवहारं ततः कृत्वा भारद्वाजस्य सम्मते | 

लब्धलक्ष्यै: शरैर्भिन्ना भूशावहसिता रणे ।। ३ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! जब अमित तेजस्वी अर्जुनने पहले ही हम सब लोगोंको 
भगा दिया, द्रोणाचार्यका संकल्प व्यर्थ हो गया तथा राजा युधिष्ठिर सर्वथा सुरक्षित रह गये, 
तब आपके समस्त सैनिक द्रोणाचार्यकी सम्मतिसे युद्ध बंद करके भयसे अत्यन्त उद्विग्न हो 
दसों दिशाओंकी ओर देखते हुए शिविरकी ओर चल दिये। वे सब-के-सब युद्धमें पराजित 
होकर धूलमें भर गये थे। उनके कवच छित्न-भिन्न हो गये थे तथा कभी न चूकनेवाले 
अर्जुनके बाणोंसे विदीर्ण होकर वे रणक्षेत्रमें अत्यन्त उपहासके पात्र बन गये || १--३ ॥। 

श्लाघमानेषु भूतेषु फाल्गुनस्यामितान्‌ गुणान्‌ । 

केशवस्य च सौहार्दे कीर्त्यमाने<र्जुनं प्रति ।। ४ ।। 

समस्त प्राणी अर्जुनके असंख्य गुणोंकी प्रशंसा तथा उनके प्रति भगवान्‌ श्रीकृष्णके 
सौहार्दका बखान कर रहे थे ।। ४ ।। 

अभिशस्ता इवाभूवन्‌ ध्यानमूकत्वमास्थिता: । 

ततः प्रभातसमये द्रोणं दुर्योधनो 5ब्रवीत्‌ ।। ५ ।। 

उस समय आपके महारथीगण कलंकित-से हो रहे थे। वे ध्यानस्थसे होकर मूक हो गये 
थे। तदनन्तर प्रातःकाल दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास जाकर उनसे कुछ कहनेको उद्यत 
हुआ ।। ५ || 

प्रणयादभिमानाच्च द्विषद्वृद्धा च दुर्मना: । 

शृण्वतां सर्वयोधानां संरब्धो वाक्यकोविद: ।। ६ ।। 


शत्रुओंके अभ्युदयसे वह मन-ही-मन बहुत दुःखी हो गया था। द्रोणाचार्यके प्रति उसके 
हृदयमें प्रेम था। उसे अपने शौर्यपर अभिमान भी था। अतः अत्यन्त कुपित हो बातचीतमें 
कुशल राजा दुर्योधनने समस्त योद्धाओंके सुनते हुए इस प्रकार कहा-- ।। ६ ।। 

नूनं वयं वध्यपक्षे भवतो द्विजसत्तम । 

तथा हि नाग्रही: प्राप्तं समीपेडद्य युधिष्ठिरम्‌ ।। ७ ।। 

द्विजश्रेष्ठ! निश्चय ही हमलोग आपकी दृष्टिमें शत्रुवर्गके अन्तर्गत हैं। यही कारण है कि 
आज आपने अत्यन्त निकट आनेपर भी राजा युधिष्ठिरको नहीं पकड़ा है || ७ ।। 

इच्छतस्ते न मुच्येत चक्षु:प्राप्तो रणे रिपु: । 

जिधघृक्षतो रक्ष्यमाण: सामरैरपि पाण्डवै: ।। ८ ।। 

'रणक्षेत्रमें कोई शत्रु आपके नेत्रोंके समक्ष आ जाय और उसे आप पकड़ना चाहें तो 
सम्पूर्ण देवताओंके साथ रहे सारे पाण्डव उसकी रक्षा क्‍यों न कर रहे हों, निश्चय ही वह 
आपसे छूटकर नहीं जा सकता ।। ८ ।। 

वरं दत्त्वा मम प्रीतः पश्चाद्‌ विकृतवानसि । 

आशाभड़ूं न कुर्वन्ति भक्तस्यार्या: कंचन ।। ९ |। 

“आपने प्रसन्न होकर पहले तो मुझे वर दिया और पीछे उसे उलट दिया; परंतु श्रेष्ठ 
पुरुष किसी प्रकार भी अपने भक्तकी आशा भंग नहीं करते हैं” ।। ९ ।। 

ततो<प्रीतस्तथोक्त: सन्‌ भारद्वाजो<ब्रवीन्नपम्‌ । 

नाईसे मां तथा ज्ञातुं घटमानं तव प्रिये ।। १० ।। 

दुर्योधनके ऐसा कहनेपर द्रोणाचार्यको तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। वे दुःखी होकर 
राजासे इस प्रकार बोले--'राजन्‌! तुमको मुझे इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग करनेवाला नहीं 
समझना चाहिये। मैं अपनी पूरी शक्ति लगाकर तुम्हारा प्रिय करनेकी चेष्टा कर रहा 
हूँ ।। १० ।। 

ससुरासुरगन्धर्वा: सयक्षोरगराक्षसा: । 

नाल॑ लोका रणे जेतुं पाल्यमानं किरीटिना ।। ११ ।। 





“परंतु एक बात याद रखो, किरीटधारी अर्जुन रणक्षेत्रमें जिसकी रक्षा कर रहे हों, उसे 
देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण लोक भी नहीं जीत 
सकते ।। ११ ।। 

विश्वसृग्‌ यत्र गोविन्द: पृतनानीस्तथार्जुन: । 

तत्र कस्य बल क्रामेदन्यत्र त्यम्बकात्‌ प्रभो: ।। १२ ।॥। 

“जहाँ जगत्स्रष्टा भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा अर्जुन सेनानायक हों, वहाँ भगवान्‌ शंकरके 
सिवा दूसरे किस पुरुषका बल काम कर सकता है ।। १२ ।। 

सत्यं तात ब्रवीम्यद्य नैतज्जात्वन्यथा भवेत्‌ । 

अद्यैकं प्रवरं कंचित्‌ पातयिष्ये महारथम्‌ ।। १३ ।। 

“तात! आज मैं एक सच्ची बात कहता हूँ, यह कभी झूठी नहीं हो सकती। आज मैं 
पाण्डवपक्षके किसी श्रेष्ठ महारथीको अवश्य मार गिराऊँगा ।। १३ ।। 

तं च व्यूहं विधास्यामि यो<भेट्यस्त्रिदशैरपि । 

योगेन केनचिद्‌ राजन्नर्जुनस्त्वपनीयताम्‌ ।। १४ ।। 

“राजन! आज उस व्यूहका निर्माण करूँगा, जिसे देवता भी तोड़ नहीं सकते; परंतु 
किसी उपायसे अर्जुनको यहाँसे दूर हटा दो ।। १४ ।। 

न ह्वाज्ञातमसाध्यं वा तस्य संख्ये5स्ति किंचन । 

तेन हुपात्तं सकल॑ सर्वज्ञानमितस्तत: ।। १५ ।। 

'युद्धके सम्बन्धमें कोई ऐसी बात नहीं है, जो अर्जुनके लिये अज्ञात अथवा असाध्य 
हो। उन्होंने इधर-उधरसे युद्धविषयक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है” || १५ ।। 

द्रोणेन व्याहते त्वेवे संशप्तकगणा: पुनः । 


आह्वयन्नर्जुनं संख्ये दक्षिणामभितो दिशम्‌ ।। १६ ।। 

द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर पुनः संशप्तकगणोंने दक्षिण दिशामें जा अर्जुनको युद्धके 
लिये ललकारा ।। १६ |। 

ततोडअर्जुनस्याथ परै: सार्थ समभवद्‌ रण: । 

तादृशो यादृशो नान्य: श्रुतो दृष्टो5पि वा क्वचित्‌ ।। १७ ।। 

वहाँ अर्जुनका शत्रुओंके साथ ऐसा घोर संग्राम हुआ, जैसा दूसरा कोई कहीं न तो देखा 
गया है और न सुना ही गया है ।। १७ ।। 

तत्र द्रोणेन विहितो व्यूहो राजन्‌ व्यरोचत । 

चरन्‌ मध्यंदिने सूर्य: प्रतपन्निव दुर्दूश: ।। १८ ।। 

राजन! उस समय वहाँ द्रोणाचार्यने जिस व्यूहका निर्माण किया, वह मध्याह्नकालमें 
विचरते हुए सूर्यकी भाँति शत्रुओंको संताप देता-सा सुशोभित हो रहा था। उसे जीतना तो 
दूर रहा, उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी अत्यन्त कठिन था ।। १८ ।। 

त॑ चाभिमन्युर्वचनात्‌ पितुर्ज्येष्ल्थ भारत । 

बिभेद दुर्भिदं संख्ये चक्रव्यूहमनेकधा ।। १९ ।। 

भारत! यद्यपि उस चक्रव्यूहका भेदन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था तो भी वीर 
अभिमन्युने अपने ताऊ युधिष्ठिरकी आज्ञासे उस व्यूहका बारंबार भेदन किया ।। १९ |। 

स कृत्वा दुष्करं कर्म हत्वा वीरान्‌ सहस्रश: । 

षट्सु वीरेषु संसक्तो दौःशासनिवशं गत: ।॥ २० ।। 

अभिमन्युने वह दुष्कर कर्म करके सहस्रों वीरोंका वध किया और अन्तमें छः वीरोंके 
साथ अकेला ही उलझकर दु:शासनपुत्रके हाथसे मारा गया || २० ।। 

सौभद्र: पृथिवीपाल जहौ प्राणान्‌ परंतप: । 

वयं परमसंद्ृष्टा: पाण्डवा: शोककर्शिता: । 

सौभद्रे निहते राजन्नवहारमकुर्महि ॥। २१ ।। 

भूपाल! शत्रुओंको संताप देनेवाले सुभद्राकुमारने जब प्राण त्याग दिये, उस समय 
हमलोगोंको बड़ा हर्ष हुआ और पाण्डव शोकसे व्याकुल हो गये। राजन! सुभद्रा-कुमारके 
मारे जानेपर हमलोगोंने युद्ध बंद कर दिया ।। २१ ।। 

धृतराष्ट उवाच 

पुत्रं पुरुषसिंहस्य संजयाप्राप्तयौवनम्‌ । 

रणे विनिहतं श्रुत्वा भृशं मे दीर्यते मन: । २२ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! पुरुषसिंह अर्जुनका वह पुत्र अभी युवावस्थामें भी नहीं पहुँचा 
था। उसे युद्धमें मारा गया सुनकर मेरा हृदय अत्यन्त विदीर्ण हो रहा है । २२ ।। 

दारुण: क्षत्रधर्मोडयं विहितो धर्मकर्तृभिः । 


यत्र राज्येप्सव: शूरा बाले शस्त्रमपातयन्‌ ।। २३ ।। 

धर्मशास्त्रके निर्माताओंने यह क्षत्रिय-धर्म अत्यन्त कठोर बनाया है, जिसमें स्थित 
होकर राज्यके लोभी शूर-वीरोंने एक बालकपर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया || २३ ।। 

बालमत्यन्तसुखिनं विचरन्तमभीतवत्‌ | 

कृतास्त्रा बहवो जष्नुरब्रूहि गावल्गणे कथम्‌ ।। २४ ।। 

संजय! वह अत्यन्त प्रसन्न रहनेवाला बालक जब निर्भय-सा होकर युद्धमें विचर रहा 
था, उस समय अस्त्रविद्याके पारंगत बहुसंख्यक शूरवीरोंने उसका वध कैसे किया? यह मुझे 
बताओ ।। २४ ।। 

बिभित्सता रथानीकं सौभद्रेणामितौजसा । 

विक्रीडितं यथा संख्ये तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। २५ ।। 

संजय! अमित तेजस्वी सुभद्राकुमारने युद्धके मैदानमें रथियोंकी सेनाको विदीर्ण 
करनेकी इच्छासे जिस प्रकार युद्धका खेल किया था, वह सब मुझे बताओ ।। २५ ।। 

संजय उवाच 

यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सौभद्रस्य निपातनम्‌ | 

तत्‌ ते कार्त्स्न्येन वक्ष्यामि शूणु राजन्‌ समाहित: ।। २६ ।। 

संजयने कहा--राजेन्द्र! आप जो मुझसे सुभद्राकुमारके मारे जानेका वृत्तान्त पूछ रहे 
हैं, वह सब मैं आपको पूर्णरूपसे बताऊँगा। राजन्‌! आप एकाग्रचित्त होकर सुनें ।। २६ ।। 

विक्रीडितं कुमारेण यथानीकं बिभित्सता । 

आरुग्णाश्न यथा वीरा दुः:साध्याश्वापि विप्लवे ।। २७ ।। 

आपकी सेनाके व्यूहका भेदन करनेकी इच्छासे कुमार अभिमन्युने जिस प्रकार 
रणक्रीड़ा की थी और उस प्रलयंकर संग्राममें जैसे-जैसे दुर्जय वीरोंके भी पाँव उखाड़ दिये 
थे, वह सब बता रहा हूँ || २७ ।। 

दावाग्न्यभिपरीतानां भूरिगुल्मतृणद्रुमे । 

वनौकसामिवारण्ये त्वदीयानामभूद्‌ भयम्‌ ।। २८ ।। 

जैसे प्रचुर लता-गुल्म, घास-पात और वृक्षोंसे भरे हुए वनमें दावानलसे घिरे हुए 
वनवासियोंको महान्‌ भयका सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अभिमन्युसे आपके 
सैनिकोंको अत्यन्त भय प्राप्त हुआ था ।। २८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युवधसंक्षेपकथने 
त्रयस्त्रिंशो 5ध्याय: ।। ३३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमन्युवधका संक्षेपसे 
वर्णनविषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ३३ || 


भीकम (2 अमान 


चतुस्त्रिंशो 5 ध्याय: 


संजयके द्वारा अभिमन्युकी प्रशंसा, द्रोणाचार्यद्वारा 
चक्रव्यूहका निर्माण 


संजय उवाच 

समरे>्त्युग्रकर्माण: कर्मभिव्यज्जितश्रमा: । 

सकृष्णा: पाण्डवा: पञ्च देवैरपि दुरासदा: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! श्रीकृष्णसहित पाँचों पाण्डव देवताओंके लिये भी दुर्जय हैं। 
वे समरभूमिमें अत्यन्त भयंकर कर्म करनेवाले हैं। उनके कर्मोद्वारा ही उनका परिश्रम 
अभिव्यक्त होता है || १ ।। 

सत्त्वकर्मान्वयैर्बुद्धा कीर्त्या च यशसा श्रिया । 

नैव भूतो न भविता नैव तुल्यगुण: पुमान्‌ ।। २ ।। 

सत्त्वगुण, कर्म, कुल, बुद्धि, कीर्ति, यश और श्रीके द्वारा युधिष्ठिरके समान पुरुष दूसरा 
कोई न तो हुआ है और न होनेवाला ही है ॥। २ ।। 

सत्यधर्मरतो दान्तो विप्रपूजादिभिग्गुणै: । 

सदैव त्रिदिवं प्राप्तो राजा किल युधिषछिर: ।। ३ ।। 

कहते हैं, राजा युधिष्ठिर सत्यधर्मपरायण और जितेन्द्रिय होनेके साथ ही ब्राह्मण-पूजन 
आदि सदगुणोंके द्वारा सदा ही स्वर्गलोकको प्राप्त हैं ।। ३ ।। 

युगान्ते चान्तको राजन्‌ जामदम्न्यश्न वीर्यवान्‌ 

रथस्थो भीमसेनश्व कथ्यन्ते सदृशास्त्रय: ।। ४ ।। 

राजन! प्रलयकालके यमराज, पराक्रमी परशुराम और रथपर बैठे हुए भीमसेन--ये 
तीनों एक समान कहे जाते हैं ।। ४ ।। 

प्रतिज्ञाकर्मदक्षस्य रणे गाण्डीवधन्चन: । 

उपमां नाधिगच्छामि पार्थस्य सदृशीं क्षिती ।। ५ ।। 

रणभूमिमें प्रतिज्ञापूर्वक कर्म करनेमें कुशल, गाण्डीवधारी कुन्तीकुमार अर्जुनके लिये 
तो मुझे इस पृथ्वीपर कोई उनके योग्य उपमा ही नहीं मिलती है ।। ५ ।। 

गुरुवात्सल्यमत्यन्तं नैभृत्यं विनयो दम: । 

नकुले<प्रातिरूप्यं च शौर्य च नियतानि षट्‌ ॥। ६ ।। 

बड़े भाईके प्रति अत्यन्त भक्ति, अपने पराक्रमको प्रकाशित न करना, विनयशीलता, 
इन्द्रिय-संयम, उपमा-रहित रूप तथा शौर्य--ये नकुलमें छः: गुण निश्चितरूपसे निवास करते 


हैं ।। ६ ।। 


श्रुतगाम्भीर्यमाधुर्यसत्यरूपपराक्रमै: । 

सदृशो देवयोरवीर: सहदेव: किलाब्विनो: ।। ७ ।। 

वेदाध्ययन, गम्भीरता, मधुरता, सत्य, रूप और पराक्रमकी दृष्टिसे वीर सहदेव सर्वथा 
अश्विनीकुमारोंके समान हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है ।। ७ ।। 

ये च कृष्णे गुणा: स्फीता: पाण्डवेषु च ये गुणा: । 

अभिमन्यौ किलैकस्था दृश्यन्ते गुणसंचया: ।। ८ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णमें जो उज्ज्वल गुण हैं तथा पाण्डवोंमें जो उज्ज्वल गुण विद्यमान हैं, 
वे समस्त गुणसमुदाय अभिमन्युमें निश्चय ही एकत्र हुए दिखायी देते थे ।। ८ ।। 

युधिष्ठिरस्य वीर्येण कृष्णस्य चरितेन च । 

कर्मभिर्भीमसेनस्य सदृशो भीमकर्मण: ।। ९ ।। 

युधिष्ठिरके पराक्रम, श्रीकृष्णके उत्तम चरित्र एवं भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनके 
वीरोचित कर्मोके समान ही अभिमन्युके भी पराक्रम, चरित्र और कर्म थे || ९ ।। 

धनंजयस्य रूपेण विक्रमेण श्रुतेन च । 

विनयात्‌ सहदेवस्य सदृशो नकुलस्य च ।। १० ।। 

वह रूप, पराक्रम और शास्त्रज्ञानमें अर्जुनके समान तथा विनयशीलतामें नकुल और 
सहदेवके तुल्य था || १० ।। 

धृतराष्ट उवाच 

अभिमन्युमहं सूत सौभद्रमपराजितम्‌ । 

श्रोतुमिच्छामि कार्त्स्येन कथमायोधने हत: ।। ११ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--सूत! मैं किसीसे भी पराजित न होनेवाले सुभद्राकुमार अभिमन्युके 
विषयमें सारा वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ। वह युद्धमें कैसे मारा गया? ।। ११ ।। 

संजय उवाच 

स्थिरो भव महाराज शोकं धारय दुर्धरम्‌ 

महान्तं बन्धुनाशं ते कथयिष्यामि तच्छुणु || १२ ।। 

संजयने कहा--महाराज! स्थिर हो जाइये और जिसे धारण करना कठिन है, उस 
शोकको अपने हृदयमें ही रोके रखिये। मैं आपसे बन्धु-बान्धवोंके महान्‌ विनाशका वर्णन 
करूँगा, उसे सुनिये ।। १२ ।। 

चक्रव्यूह़ो महाराज आचार्येणाभिकल्पित: । 

तत्र शक्रोपमा: सर्वे राजानो विनिवेशिता: ।। १३ ।। 

राजन! आचार्य द्रोणने जिस चक्रव्यूहका निर्माण किया था, उसमें इन्द्रके समान 
पराक्रम प्रकट करनेवाले समस्त राजाओंका समावेश कर रखा था ।। १३ ।। 

आरास्थानेषु विन्यस्ता: कुमारा: सूर्यवर्चस: । 


संघातो राजपुत्राणां सर्वेषामभवत्‌ तदा ।। १४ ।। 

उसमें आरोंके स्थानमें सूर्यके समान तेजस्वी राजकुमार खड़े किये गये थे। उस समय 
वहाँ समस्त राजकुमारोंका समुदाय उपस्थित हो गया था ।। १४ ।। 

कृताभिसमया: सर्वे सुवर्णविकृतध्वजा: । 

रक्ताम्बर धरा: सर्वे सर्वे रक्तविभूषणा: ।। १५ ।। 

उन सबने प्राणोंके रहते युद्धसे विमुख न होनेकी प्रतिज्ञा कर ली थी। उन सबकी 
ध्वजाएँ सुवर्णमयी थीं, सबने लाल वस्त्र धारण कर रखे थे और सबके आभूषण भी लाल 
रंगके ही थे || १५ ।। 

सर्वे रक्तपताकाश्ष सर्वे वै हेममालिन: । 

चन्दनागुरुदिग्धाड़ा ख्रग्विण: सूक्ष्मवासस: ।। १६ ।। 

सबके रथोंपर लाल रंगकी पताकाएँ फहरा रही थीं, सबने सोनेकी मालाएँ पहन रखी 
थीं, सबके अंगोंमें चच्द्रद और अगुरुका लेप किया गया था और सभी फूलोंके गजरों तथा 
महीन वस्त्रोंसे सुशोभित थे ।। १६ ।। 

सहिता: पर्यधावन्त कार्ष्णि प्रति युयुत्सव: । 

तेषां दश सहस्राणि बभूवुर्दृडधन्विनाम्‌ ।। १७ ।। 

वे सब एक साथ युद्धके लिये उत्सुक होकर अर्जुनपुत्र अभिमन्युकी ओर दौड़े। सुदृढ़ 
धनुष धारण करनेवाले उन आक्रमणकारी वीरोंकी संख्या दस हजार थी ।। १७ ।। 

पौत्रं तव पुरस्कृत्य लक्ष्मणं प्रियदर्शनम्‌ । 

अन्योन्यसमदु:खास्ते अन्योन्यसमसाहसा: ।। १८ ।। 

उन्होंने आपके प्रियदर्शन पौत्र लक्ष्मणको आगे करके धावा किया था। उन सबने एक- 
दूसरेके दुःखको समान समझा था और वे परस्पर समानभावसे साहसी थे ।। १८ ॥। 

अन्योनयं स्पर्थमानाश्न अन्योन्यस्य हिते रता: । 

दुर्योधनस्तु राजेन्द्र सैन्यमध्ये व्यवस्थित: ।। १९ ।। 

वे एक-दूसरेसे होड़ लगाये रखते थे और आपसमें एक-दूसरेके हित-साधनमें तत्पर 
रहते थे। राजेन्द्र! राजा दुर्योधन सेनाके मध्यभागमें विराजमान था ।। १९ |। 

कर्णदु:शासनकृपैर्वृतो राजा महारथै: । 

देवराजोपम: श्रीमाञ्छवेतच्छत्राभिसंवृत: ।। २० ।। 

उसके ऊपर श्वेतच्छत्र तना हुआ था। वह कर्ण, दुःशासन तथा कृपाचार्य आदि 
महारथियोंसे घिरकर देवराज इन्द्रके समान शोभा पा रहा था || २० ।। 

चामरव्यजनाक्षेपैरुदयन्निव भास्कर: । 

प्रमुखे तस्य सैन्यस्य द्रोणो5वस्थितनायक: ।। २१ ।। 

उसके दोनों ओर चँवर और व्यजन डुलाये जा रहे थे। वह उदयकालके सूर्यकी भाँति 
प्रकाशित हो रहा था। उस सेनाके अग्रभागमें सेनापति द्रोणाचार्य खड़े थे ।। 


सिन्धुराजस्तथातिष्ठ च्छीमान्‌ मेरुरिवाचल: । 

सिन्धुराजस्य पार्श्वस्था अश्वत्थामपुरोगमा: ।। २२ ।। 

वहीं सिंधुराज श्रीमान्‌ राजा जयद्रथ भी मेरु पर्वतकी भाँति खड़ा था। उसके पार्श्च 
भागमें अश्वत्थामा आदि महारथी विद्यमान थे || २२ ।। 

सुतास्तव महाराज त्रिंशत्त्रिदशसंनिभा: । 

गान्धारराज: कितव: शल्यो भूरिश्रवास्तथा ।। २३ ।। 

पार्श्वत: सिन्धुराजस्य व्यराजन्त महारथा: । 

महाराज! देवताओंके समान शोभा पानेवाले आपके तीस पुत्र, जुआरी गान्धारराज 
शकुनि, शल्य तथा भूरिश्रवा--ये महारथी वीर सिंधुराज जयद्रथके पार्श्रभागमें सुशोभित हो 
रहे थे || २३ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध तुमुलं लोमहर्षणम्‌ ॥। २४ ।। 

तावकानां परेषां च मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्‌ ।। २५ ।। 

तदनन्तर “मरनेपर ही युद्धसे निवृत्त होंगे” ऐसा निश्चय करके आपके और शशत्रुपक्षके 
योद्धाओंमें अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला 
था || २४-२५ |। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि चक्रव्यूहनिर्माणे 
चतुस्त्रिंशो 5 ध्याय: ।। ३४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें चक्रव्यूहका निर्माणविषयक 
चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३४ ॥। 


पम्प बछ। अंक 


पजञ्चत्रिशो<ड्ध्याय: 


युधिष्ठटिर और अभिमन्युका संवाद तथा व्यूहभेदनके लिये 
अभिमन्युकी प्रतिज्ञा 


संजय उवाच 

तदनीकमनाधृुष्यं भारद्वाजेन रक्षितम्‌ | 

पार्था: समभ्यवर्तन्त भीमसेनपुरोगमा: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! द्रोणाचार्यके द्वारा सुरक्षित उस दुर्धर्ष सेनाका भीमसेन 
आदि कुन्तीपुत्रोंने डटकर सामना किया ।। १ ।। 

सात्यकिश्रेकितानश्च धृष्टद्युम्नश्न पार्षत: । 

कुन्तिभोज श्च विक्रान्तो टद्रपदश्च॒ महारथ: ।। २ ।। 

आर्जुनि: क्षत्रधर्मा च बृहत्क्षत्रश्न वीर्यवान्‌ । 

चेदिपो धृष्टकेतुश्न माद्रीपुत्रो घटोत्कच: ।। ३ ।। 

युधामन्युश्न विक्रान्त: शिखण्डी चापराजित: । 

उत्तमौजाश्र दुर्धर्षो विराटश्व॒ महारथ: ।। ४ ।। 

द्रौपदेयाश्व॒ संरब्धा: शैशुपालिश्न वीर्यवान्‌ । 

केकयाश्व महावीर्या: सृञज्जयाश्व॒ सहस्रश: ।। ५ ।। 

एते चान्ये च सगणा: कृतास्त्रा युद्धदुर्मदा: । 

समभ्यधावन्‌ सहसा भारद्वाजं युयुत्सव: ।। ६ ।। 

सात्यकि, चेकितान, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, पराक्रमी कुन्तिभोज, महारथी द्रुपद, 
अभिमन्यु, क्षत्रधर्मा, शक्तिशाली बृहत्क्षत्र, चेदिराज धृष्टकेतु, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, 
घटोत्कच, पराक्रमी युधामन्यु, किसीसे परास्त न होनेवाला वीर शिखण्डी, दुर्धर्षवीर 
उत्तमौजा, महारथी विराट, क्रोधमें भरे हुए द्रौपदीपुत्र, बलवान्‌ शिशुपालकुमार, 
महापराक्रमी केकयराजकुमार तथा सहस्रों सूंजयवंशी क्षत्रिय--ये तथा और भी 
अस्त्रविद्यामें पारंगत एवं रणदुर्मद बहुत-से शूरवीर अपने दलबलके साथ वहाँ उपस्थित थे। 
इन सबने युद्धकी अभिलाषासे द्रोणाचार्यपर सहसा धावा किया || २--६ || 

समीपे वर्तमानांस्तान्‌ भारद्वाजो$तिवीर्यवान्‌ | 

असम्भ्रान्त: शरौघेण महता समवारयत्‌ ।। ७ ।। 

भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य बड़े पराक्रमी थे। शत्रुओंके आक्रमणसे उन्हें तनिक भी 
घबराहट नहीं हुई। उन्होंने अपने समीप आये हुए पाण्डव-वीरोंको बाणसमूहोंकी भारी वृष्टि 
करके आगे बढ़नेसे रोक दिया || ७ || 


महौघ: सलिलस्येव गिरिमासाद्य दुर्भिदम्‌ । 

द्रोणं ते नाभ्यवर्तन्त वेलामिव जलाशया: ।॥। ८ ।। 

जैसे दुर्भेद्य पर्वतके पास पहुँचकर जलका महान्‌ प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है तथा जिस 
प्रकार सम्पूर्ण जलाशय (समुद्र) अपनी तटभूमिको नहीं लाँघ पाते, उसी प्रकार वे पाण्डव- 
सैनिक द्रोणाचार्यके अत्यन्त निकट न पहुँच सके ।। ८ ।। 

पीड्यमाना: शरै राजन्‌ द्रोणचापविनि:सृतै: । 

न शेकुः प्रमुखे स्थातुं भारद्वाजस्य पाण्डवा: ।। ९ || 

राजन! द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर पाण्डववीर उनके 
सामने नहीं ठहर सके || ९ ।। 

तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्य भुजयोब्बलम्‌ | 

यदेनं नाभ्यवर्तन्त पज्चाला: सृजजयै: सह ।। १० ।। 

उस समय हमलोगोंने द्रोणाचार्यकी भुजाओंका वह अद्भुत बल देखा, जिससे कि 
सूंजयोंसहित सम्पूर्ण पांचालवीर उनके सामने टिक न सके ।। १० ।। 





तमायान्तमभिक्षुद्धं द्रोणं दृष्टवा युधिष्ठिर: । 

बहुधा चिन्तयामास द्रोणस्य प्रतिवारणम्‌ ।। ११ ।। 

क्रोधमें भरे हुए उन्हीं द्रोणाचार्यको आते देख राजा युधिष्ठछिरने उन्हें रोकनेके उपायपर 
बारंबार विचार किया || ११ ।। 

अशक्यं तु तमन्येन द्रोणं मत्वा युधिष्ठिर: । 

अविषटहां गुरु भारं सौभद्रं समवासृजत्‌ ।। १२ ।। 

इस समय द्रोणाचार्यका सामना करना दूसरेके लिये असम्भव जानकर युधिष्ठिरने वह 
दुःसह एवं महान्‌ भार सुभद्राकुमार अभिमन्युपर रख दिया ।। १२ ।। 

वासुदेवादनवरं फाल्गुनाच्चामितौजसम्‌ | 

अब्रवीत्‌ परवीरघ्नमभिमन्युमिदं वच: ।। १३ ।। 

अमिततेजस्वी अभिमन्यु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे किसी बातमें कम नहीं 
था, वह शत्रुवीरोंका संहार करनेमें समर्थ था; अतः उससे युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा 
-- || १३ || 

एत्य नो नार्जुनो गहेंद्‌ यथा तात तथा कुरु । 

चक्रव्यूहस्य न वयं विद्यो भेदं कथंचन ।। १४ ।। 

“तात संशप्तकोंके साथ युद्ध करके लौटनेपर अर्जुन जिस प्रकार हमलोगोंकी निन्‍्दा न 
करें (हमें असमर्थ न बतावें), वैसा कार्य करो। हमलोग तो किसी तरह भी चक्रव्यूहके 
भेदनकी प्रक्रियाको नहीं जानते हैं ।। 

त्वं वार्जुनो वा कृष्णो वा भिन्द्यात्‌ प्रद्युम्न एव वा । 

चक्रव्यूहं महाबाहो पञचमो नोपपद्यते ।। १५ ।। 

“महाबाहो! तुम, अर्जुन, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न--ये चार पुरुष ही चक्रव्यूहका भेदन 
कर सकते हो। पाँचवाँ कोई योद्धा इस कार्यके योग्य नहीं है || १५ ।। 

अभिमन्यो वरं तात याचतां दातुमर्हसि । 

पितृणां मातुलानां च सैन्यानां चैव सर्वश: ।। १६ ।। 

“तात अभिमन्यु! तुम्हारे पिता और मामाके पक्षके समस्त योद्धा तथा सम्पूर्ण सैनिक 
तुमसे याचना कर रहे हैं। तुम्हीं इन्हें वर देनेके योग्य हो ।। १६ ।। 

धनंजयो हि नस्तात गर्हयेदेत्य संयुगात्‌ 

क्षिप्रमस्त्रं समादाय द्रोणानीकं विशातय ।। १७ ।। 

“तात! यदि हम विजयी नहीं हुए तो युद्धसे लौटनेपर अर्जुन निश्चय ही हमलोगोंको 
कोसेंगे, अतः शीघ्र अस्त्र लेकर तुम द्रोणाचार्यकी सेनाका विनाश कर डालो” ।। १७ ।। 

अभिमनयुरवाच 


द्रोणस्य दृढमत्युग्रमनीकप्रवरं युधि | 


पितृणां जयमाकाडुृक्षन्नवगाहे5विलम्बितम्‌ ।। १८ ।। 





अभिमन्युने कहा--महाराज! मैं अपने पितृ-वर्गकी विजयकी अभिलाषासे 
युद्धस्थलमें द्रोणाचार्यकी अत्यन्त भयंकर, सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ सेनामें शीघ्र ही प्रवेश करता 
हूँ ।। १८ ।। 

उपदिष्टो हि मे पित्रा योगोडनीकविशातने । 

नोत्सहे हि विनिर्गन्तुमहं कस्यांचिदापदि ।। १९ |। 

पिताजीने मुझे चक्रव्यूहको भेदनकी विधि तो बतायी है; परंतु किसी आपत्तिमें पड़ 
जानेपर मैं उस व्यूहसे बाहर नहीं निकल सकता ।। १९ || 

युधिष्ठिर उदाच 

भिन्ध्यनीकं युधां श्रेष्ठ द्वारं संजनयस्व न: । 

वयं त्वानुगमिष्यामो येन त्वं तात यास्यसि ।। २० ।। 

युधिष्ठिर बोले-योद्धाओंमें श्रेष्ठ वीर! तुम व्यूहका भेदन करो और हमारे लिये द्वार 
बना दो! तात! फिर तुम जिस मार्गसे जाओगे, उसीके द्वारा हम भी तुम्हारे पीछे-पीछे चले 
चलेंगे || २० ।। 

धनंजयसमं युद्धे त्वां वयं तात संयुगे । 

प्रणिधायानुयास्यामो रक्षन्त: सर्वतोमुखा: ।। २१ ।। 

बेटा! हमलोग युद्धस्थलमें तुम्हें अर्जुनके समान मानते हैं। हम अपना ध्यान तुम्हारी ही 
ओर रखकर सब ओरसे तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ ही चलेंगे || २१ ।। 

भीम उवाच 


अहं त्वानुगमिष्यामि धृष्टद्युम्नो5थ सात्यकि: । 

पज्चाला: केकया मत्स्यास्तथा सर्वे प्रभद्रका: ॥। २२ ।। 

भीमसेन बोले--बेटा! मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। धृष्टद्युम्न, सात्यकि, पांचालदेशीय 
योद्धा, केकय-राजकुमार, मत्स्य देशके सैनिक तथा समस्त प्रभद्रकगण भी तुम्हारा 
अनुसरण करेंगे | २२ ।। 

सकृद्‌ भिन्न त्वया व्यूहं तत्र तत्र पुन: पुनः । 

वयं प्रध्वंसयिष्यामो निघ्नमाना वरान्‌ वरान्‌ | २३ ।। 

तुम जहाँ-जहाँ एक बार भी व्यूह तोड़ दोगे, वहाँ-वहाँ हमलोग मुख्य-मुख्य योद्धाओंका 
वध करके उस व्यूहको बारंबार नष्ट करते रहेंगे || २३ ।। 

अभिमन्युरुवाच 


अहमेतत्‌ प्रवेक्ष्यामि द्रोणानीकं दुरासदम्‌ । 

पतड़ इव संक्रुद्धो ज्वलितं जातवेदसम्‌ ।। २४ ।। 

अभिमन्युने कहा--जैसे पतंग जलती हुई आगमें कूद पड़ता है, उसी प्रकार मैं भी 
कुपित हो द्रोणाचार्यके दुर्गम सैन्य-व्यूहमें प्रवेश करूँगा ।। २४ ।। 

तत्‌ कर्माद्य करिष्यामि हित॑ यद्‌ वंशयोर्द्धयो: । 

मातुलस्य च यत्‌ प्रीतिं करिष्यति पितुश्च मे ।। २५ ।। 

आज मैं वह पराक्रम करूँगा, जो पिता और माता दोनोंके कुलोंके लिये हितकर होगा 
तथा वह मामा श्रीकृष्ण तथा पिता अर्जुन दोनोंको प्रसन्न करेगा || २५ ।। 

शिशुनैकेन संग्रामे काल्यमानानि संघश: । 

द्रक्ष्यन्ति सर्वभूतानि द्विषत्सैन्यानि वै मया ।। २६ ।। 

यद्यपि मैं अभी बालक हूँ तो भी आज समस्त प्राणी देखेंगे कि मैंने अकेले ही समूह- 
के-समूह शत्रुसैनिकोंका युद्धमें संहार कर डाला है || २६ ।। 

नाहं पार्थेन जात: स्यां न च जात: सुभद्रया । 

यदि मे संयुगे कश्चिज्जीवितो नाद्य मुच्यते ।। २७ ।। 

यदि आज मेरे साथ युद्ध करके कोई भी सैनिक जीवित बच जाय तो मैं अर्जुनका पुत्र 
नहीं और सुभद्राकी कोखसे मेरा जन्म नहीं ।। २७ ।। 

यदि चैकरथेनाहं समग्रं क्षत्रमण्डलम्‌ | 

न करोम्यष्टधा युद्धे न भवाम्यर्जुनात्मज: ।। २८ ।। 

यदि मैं युद्धमें एकमात्र रथकी सहायतासे सम्पूर्ण क्षत्रियमण्डलके आठ टुकड़े न कर दूँ 
तो अर्जुनका पुत्र नहीं ।। 

युधिछिर उवाच 
एवं ते भाषमाणस्य बल॑ सौभद्र वर्धताम्‌ 


यत्‌ समुत्सहसे भेत्तुं द्रोणानीकं दुरासदम्‌ ।। २९ ।। 
युधिष्ठिरने कहा--सुभद्रानन्दन! ऐसी ओजस्वी बातें कहते हुए तुम्हारा बल निरन्तर 
बढ़ता रहे; क्योंकि तुम द्रोणाचार्यके दुर्गम सैन्यमें प्रवेश करनेका उत्साह रखते हो ।। २९ ।। 
रक्षितं पुरुषव्याप्रैर्महेष्वासैर्महाबलै: । 
साध्यरुद्रमरुत्तुल्यैर्वस्वग्न्यादित्यविक्रमै: । ३० ॥। 
द्रोणाचार्यकी सेना उन महाबली महाथनुर्धर पुरुषसिंह वीरों द्वारा सुरक्षित है, जो कि 
साध्य, रुद्र तथा मरुद्गणोंके समान बलवान्‌ और वसु, अग्नि एवं सूर्यके समान पराक्रमी 
हैं ।। ३० ।। 
संजय उवाच 
तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा स यन्तारमचोदयत्‌ । 
सुमित्रा श्वान्‌ रणे क्षिप्रं द्रोणानीकाय चोदय ।। ३१ || 
संजय कहते हैं--राजन्‌! महाराज युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर अभिमन्युने अपने 
सारथिको यह आज्ञा दी--'सुमित्र! तुम शीघ्र ही घोड़ोंको रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यकी सेनाकी 
ओर हाँक ले चलो || ३१ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युप्रतिज्ञायां 
पउ्चत्रिंशो 5 ध्याय: ॥। ३५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें आभिमनन्‍्युकी 
प्रतिज्ञाविषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३५ ॥। 


अपन काल बछ। | अड--#क+ 


षट्त्रिशो5ध्याय: 


अभिमन्युका उत्साह तथा उसके द्वारा कौरवोंकी चतुरंगिणी 
सेनाका संहार 


संजय उवाच 

सौभद्रस्तद्‌ वच: श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमत: । 

अचोदयत यन्तारं द्रोणानीकाय भारत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--भारत! बुद्धिमान्‌ युधिष्ठिरका पूर्वोक्त वचन सुनकर सुभद्राकुमार 
अभिमन्युने अपने सारथि-को द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर चलनेका आदेश दिया ।। १ ।। 

तेन संचोद्यमानस्तु याहि याहीति सारथि: । 

प्रत्युवाच ततो राजन्नभिमन्युमिदं वच: ।। २ ।॥। 

राजन्‌! “चलो, चलो” ऐसा कहकर अभिमन्युके बारंबार प्रेरित करनेपर सारथिने उससे 
इस प्रकार कहा-- || २ ।। 

अतिभारोथयमायुष्मन्नाहितस्त्वयि पाण्डवै: । 

सम्प्रधार्य क्षणं बुद्धा ततस्त्वं योद्धुमहसि ।। ३ ।। 

'आयुष्मन्‌! पाण्डवोंने आपके ऊपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है। पहले आप 
क्षणभर रुककर बुद्धिपूर्वक अपने कर्तव्यका निश्चय कर लीजिये। उसके बाद युद्ध 
कीजिये ।। ३ ।। 

आचार्यो हि कृती द्रोण: परमास्त्रे कृतश्रम: । 

अत्यन्तसुखसंवृद्धस्त्वं चायुद्धविशारद: ।। ४ ।। 

'द्रोणाचार्य अस्त्रविद्याके विद्वान हैं और उत्तम अस्त्रोंके अभ्यासके लिये उन्होंने विशेष 
परिश्रम किया है। इधर आप अत्यन्त सुख एवं लाड़-प्यारमें पले हैं। युद्धकी कलामें आप 
उनके-जैसे विज्ञ नहीं हैं! || ४ ।। 








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है. | ॥! ४ है उस पक * हि ० 


ततो$भिमन्यु: प्रहसन्‌ सारथिं वाक्यमत्रवीत्‌ । 

सारथे को न्वयं द्रोण: समग्रं क्षत्रमेव वा || ५ ।। 

ऐरावतगतं शक्रं सहामरगणैरहम्‌ | 

अथवा रुद्रमीशानं सर्वभूतगणार्चितम्‌ । 

योधयेयं रणमुखे न मे क्षत्रेड्द्य विस्मय: ।। ६ ।। 

तब अभिमन्युने हँसते-हँसते सारथिसे इस प्रकार कहा--'सारथे! इन द्रोणाचार्य अथवा 
सम्पूर्ण क्षत्रिय-मण्डलकी तो बात ही क्‍या, मैं तो ऐरावत पर चढ़े हुए सम्पूर्ण देवगणों-सहित 
इन्द्रके अथवा समस्त प्राणियोंद्वारा पूजित एवं सबके ईश्वर रुद्रदेवके साथ भी सामने खड़ा 
होकर युद्ध कर सकता हूँ। अत: इस समय इस क्षत्रियसमूहके साथ युद्ध करनेमें मुझे आज 
कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है ।। ५-६ ।। 

न ममैतद्‌ द्विषत्सैन्यं कलामहति षोडशीम्‌ | 

अपि विश्वजितं विष्णु मातुलं प्राप्प सूतज ।। ७ ।। 

पितरं चार्जुनं युद्धे न भीर्मामुपयास्यति । 

'शत्रुओंकी यह सारी सेना मेरी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। सूतनन्दन! 
विश्वविजयी विष्णुस्वरूप मामा श्रीकृष्णको तथा पिता अर्जुनको भी युद्धमें विपक्षीके रूपमें 
सामने पाकर मुझे भय नहीं होगा” ।। ७३ ।। 

अभिमन्युश्व तां वाचं कदर्थीकृत्य सारथे: ।॥। ८ ।। 

याहीत्येवाब्रवीदेनं द्रोणानीकाय मा चिरम्‌ | 

अभिमन्युने सारथिके पूर्वोक्त कथनकी अवहेलना करके उससे यही कहा--“तुम शीघ्र 
द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर चलो” ।। ८६ ।। 


ततः संनोदयामास हयानाशु त्रिहायनान्‌ ।। ९ ।। 

नातिहृष्टमना: सूतो हेमभाण्डपरिच्छदान्‌ । 

तब सारथिने सुवर्णमय आभूषणोंसे भूषित तथा तीन वर्षकी अवस्थावाले घोड़ोंको 
शीघ्र आगे बढ़ाया। उस समय उसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था | ९६ ।। 

ते प्रेषिता: सुमित्रेण द्रोणानीकाय वाजिन: ।। १० |। 

द्रोणमभ्यद्रवन्‌ राजन्‌ महावेगपराक्रमम्‌ । 

राजन! सारथि सुमित्रद्वारा द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर हाँके हुए वे घोड़े महान्‌ वेगशाली 
और पराक्रमी द्रोणकी ओर दौड़े || १०६ ।। 

तमुदीक्ष्य तथा<<यान्तं सर्वे द्रोणपुरोगमा: । 

अभ्यवर्तन्त कौरव्या: पाण्डवाश्व तमन्वयु: ।। ११ ।। 

अभिमन्युको इस प्रकार आते देख द्रोणाचार्य आदि कौरव-वीर उनके सामने आकर 
खड़े हो गये और पाण्डव-योद्धा उनका अनुसरण करने लगे ।। ११ ।। 

स कर्णिकारप्रवरोच्छित ध्वज: 

सुवर्णवर्मार्जुनिरर्जुनादू वर: । 
युयुत्सया द्रोणमुखान्‌ महारथान्‌ 
समासदत्‌ सिंहशिशुर्यथा द्विपान्‌ । १२ ।। 

अभिमन्युके ऊँचे एवं श्रेष्ठ ध्वजपर कर्णिकारका चिह्न बना हुआ था। उसने सुवर्णका 
कवच धारण कर रखा था। वह अर्जुनकुमार अपने पिता अर्जुनसे भी श्रेष्ठ वीर था। जैसे 
सिंहका बच्चा हाथियोंपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अभिमन्युने युद्धकी इच्छासे द्रोण 
आदि महारथियोंपर धावा किया ।। १२ ।। 

ते विंशतिपदे यत्ता: सम्प्रहारं प्रचक्रिरे । 

आसीद्‌ गाज् इवावर्तो मुहूर्तमुदधाविव ।। १३ ।। 

अभिमन्यु बीस पग ही आगे बढ़े थे कि सामना करनेके लिये उद्यत हुए द्रोणाचार्य आदि 
योद्धा उनपर प्रहार करने लगे। उस समय उस सैन्यसागरमें अभिमन्युके प्रवेश करनेसे दो 
घड़ीतक सेनाकी वही दशा रही, जैसी कि समुद्रमें गंगाकी भँवरोंसे युक्त जलराशिके 
मिलनेसे होती है ।। १३ ।। 

शूराणां युध्यमानानां निघ्नतामितेरतरम्‌ । 

संग्रामस्तुमुलो राजन्‌ प्रावर्तत सुदारुण: ।। १४ ।। 

राजन! युद्धमें तत्पर हो एक-दूसरेपर घातक प्रहार करते हुए उन शूरवीरोंमें अत्यन्त 
दारुण एवं भयंकर संघर्ष होने लगा ।। १४ ।। 

प्रवर्तमाने संग्रामे तस्मिन्नतिभयंकरे । 

द्रोणस्य मिषतो व्यूहं भित्वा प्राविशदार्जुनि: ।। १५ ।। 


वह अति भयंकर संग्राम चल ही रहा था कि द्रोणाचार्यके देखते-देखते अर्जुनकुमार 
अभिमन्यु व्यूह तोड़कर भीतर घुस गया ।। १५ ।। 

(तदभेद्यमनाधृष्य॑ द्रोणानीकं सुदुर्जयम्‌ । 

भित्त्वा$<र्जुनिरसम्भ्रान्तो विवेशाचिन्त्यविक्रम: ।।) 

अभिमन्युका पराक्रम अचिन्त्य था। उसने बिना किसी घबराहटके द्रोणाचार्यके अत्यन्त 
दुर्जय एवं दुर्धर्ष सैन्य-व्यूहको भंग करके उसके भीतर प्रवेश किया। 

त॑ प्रविष्टं विनिघ्नन्तं शत्रुसंघान्‌ महाबलम्‌ । 

हस्त्यश्वरथपत्त्यौघा: परिवद्रुरुदायुधा: ।। १६ ।। 

व्यूहके भीतर घुसकर शत्रुसमूहोंका विनाश करते हुए महाबली अभिमन्युको हाथोंमें 
अस्त्र-शस्त्र लिये गजारोही, अश्वारोही, रथी और पैदल योद्धाओंके भिन्न-भिन्न दलोंने चारों 
ओरसे घेर लिया ।। १६ ।। 

नानावादित्रनिनदै: &्ष्वेडितोत्क्ुष्टगर्जितै: । 

हुंकारैः सिंहनादैश्व तिष्ठ तिछ्ठेति नि:स्वनै: ।। १७ ।। 

घोरैहलहलाशब्दैर्मा गास्तिष्ठैह्ि मामिति । 

असावहममुत्रेति प्रवदन्तो मुहुर्मुहु: ।। १८ ।। 

बंहितै: सिंजितैहासि: करनेमिस्वनैरपि । 

संनादयन्तो वसुधामभिदुद्रवुराजुनिम्‌ ।। १९ ।। 

नाना प्रकारके वाद्योंकी ध्वनि, कोलाहल, ललकार, गर्जना, हुंकार, सिंहनाद, “ठहरो, 
ठहरो” की आवाज और घोर हलहला शब्दके साथ “न जाओ, खड़े रहो, मेरे पास आओ, 
तुम्हारा शत्रु मैं तो यहाँ हूँ” इत्यादि बातें बारंबार कहते हुए वीर सैनिक हाथियोंके चिग्घाड़, 
घुँघुरुओंकी रुनझुन, अट्टाहास, हाथोंकी तालीके शब्द तथा पहियोंकी घर्घराहटसे सारी 
वसुधाको गुँजाते हुए अर्जुनकुमारपर टूट पड़े ।। १७--१९ ।। 

तेषामापततां वीर: शीघ्रयोधी महाबल: । 

क्षिप्रास्त्रो न्यवधीद्‌ राजन्‌ मर्मज्ञो मर्मभेदिभि: || २० ।। 

राजन! महाबली वीर अभिमन्यु शीघ्रतापूर्वक युद्ध करनेमें कुशल, जल्दी-जल्दी अस्त्र 
चलानेवाला और शशत्रुओंके मर्मस्थानोंको जाननेवाला था। वह अपनी ओर आते हुए शत्रु 
सैनिकोंका मर्मभेदी बाणोंद्वारा वध करने लगा ।। २० ।। 

ते हन्यमाना विवशा नानालिऊ्लेः शितै: शरै: । 

अभिपेतु: सुबहुश: शलभा इव पावकम्‌ ॥। २१ ।। 

नाना प्रकारके चिह्लोंसे सुशोभित पैने बाणोंकी मार खाकर वे बहुसंख्यक कौरववीर 
विवश हो धरतीपर गिर पड़े, मानो ढेर-के-ढेर फतिंगे जलती आगमें पड़ गये हों ।। २१ ।। 

ततस्तेषां शरीरैश्व॒ शरीरावयवैश्व सः । 

संतस्तार क्षितिं क्षिप्रं कुशै्वेदिमिवाध्वरे || २२ ।। 


जैसे यज्ञमें वेदीके ऊपर कुश बिछाये जाते हैं, उसी प्रकार अभिमन्युने तुरंत ही 
शत्रुओंके शरीरों तथा विभिन्न अवयवोंके द्वारा सारी रणभूमिको पाट दिया ।। २२ ।। 

बद्धगोधाड्गुलित्राणानू सशरासनसायकान्‌ | 

सासिचर्माड्कुशाभीषून्‌ सतोमरपरश्चधान्‌ ।। २३ ।। 

सगदायोगुडप्रासान्‌ सर्ितोमरपट्टिशान्‌ | 

सभिन्दिपालपरिघान्‌ सशक्तिवरकम्पनान्‌ ।। २४ ।। 

सप्रतोदमहाशड्खान्‌ सकुन्तान्‌ सकचग्रहान्‌ । 

समुद्गरक्षेपणीयान्‌ सपाशपरिघोपलान्‌ ।। २५ || 

सकेयूराज्गदान्‌ बाहून्‌ हृद्यगगन्धानुलेपनान्‌ 

संचिच्छेदार्जुनिस्तूर्ण त्॒वदीयानां सहस्रश: ।। २६ ।। 

महाराज! अर्जुनकुमार अभिमन्युने आपके सहस्रों सैनिकोंकी उन भुजाओंको तुरंत 
काट डाला, जिनमें मनोहर सुगन्धयुक्त चन्दनका लेप लगा हुआ था। वीरोंकी उन भुजाओंमें 
गोहके चमड़ेसे बने हुए दस्ताने बँधे हुए थे। धनुष और बाण शोभा पाते थे। किन्हीं 
भुजाओंमें ढाल, तलवार, अंकुश और बागडोर दिखायी देती थीं। किन्हींमें तोमर और फरसे 
शोभा पाते थे। किन्हींमें गदा, लोहेकी गोलियाँ, प्रास, ऋष्टि, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, 
परिघ, श्रेष्ठ शक्ति, कम्पन, प्रतोद, महाशंख और कुन्त दृष्टिगोचर हो रहे थे। किन्हीं-किन्हीं 
भुजाओंने शत्रुओंकी चोटियाँ पकड़ रखी थीं। किन्हींमें मुदूगर फेंकनेयोग्य अन्यान्य अस्त्र, 
पाश, परिघ तथा प्रस्तरखण्ड दिखायी देते थे। वीरोंकी वे सभी भुजाएँ केयूर और अंगद 
आदि आभूषणोंसे विभूषित थीं ।। २३--२६ ।। 

तैः स्फुरद्धिर्महाराज शुशुभे भू: सुलोहितै: । 

पज्चास्यै: पन्नगैश्छिन्नैर्गरुडेनेव मारिष ।। २७ ।। 

आदरणीय महाराज! खूनसे लथपथ होकर तड़पती हुई उन भुजाओंसे इस पृथ्वीकी 
वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे गरुड़के द्वारा छिन्न-भिन्न किये हुए पाँच मुखवाले सर्पोंके 
शरीरोंसे आच्छादित हुई वसुधा सुशोभित होती है || २७ ।। 

सुनासाननकेशान्तैरब्रणैश्वारुकुण्डलै: । 

संदष्टौष् पुटै: क्रोधात्‌ क्षरद्धि: शोणितं बहु ।। २८ ।। 

स चारुमुकुटोष्णीषैर्मणिरत्नविभूषितै: । 

विनालनलिनाकारैर्दिवाकरशशिप्रभै: ।। २९ ।। 

हितप्रियंवदैः काले बहुभि: पुण्यगन्धिभि: । 

द्विषच्छिरोभि: पृथिवीं स वै तस्तार फाल्गुनि: ।। ३० ।। 

जिनमें सुन्दर नासिका, सुन्दर मुख और सुन्दर केशान्त भागकी अद्भुत शोभा हो रही 
थी, जिनमें फोड़े-फुंसी या घावके चिह्न नहीं थे, जो मनोहर कुण्डलोंसे प्रकाशित हो रहे थे, 
जिनके ओषछ्ठपुट क्रोधके कारण दाँतों तले दबे हुए थे, जो अधिकाधिक रक्तकी धारा बहा 


रहे थे, जिनके ऊपर मनोहर मुकुट और पगड़ीकी शोभा होती थी, जो मणिरत्नमय 
आभूषणोंसे विभूषित थे, जिनकी प्रभा सूर्य और चन्द्रमाके समान जान पड़ती थी, जो बिना 
नालके प्रफुल्ल कमलके समान प्रतीत होते थे, जो समय-समयपर हित एवं प्रियकी बातें 
बताते थे, जिनकी संख्या बहुत अधिक थी तथा जो पवित्र सुगन्धसे सुवासित थे, शत्रुओंके 
उन मस्तकोंद्वारा अभिमन्युने वहाँकी सारी पृथ्वीको पाट दिया || २८--३० ॥। 





अभिमन्युके द्वारा कौरव-सेनाके प्रमुख वीरोंका संहार 


गन्धर्वनगराकारान्‌ विधिवत्‌ कल्पितान्‌ रथान्‌ । 
वीषामुखान द्वित्रिवेणून्‌ न्यस्तदण्डकबन्धुरान्‌ ।। ३१ ।। 
विजड्घाकूबरांस्तत्र विनेमिदशनानपि | 
विचक्रोपस्करोपस्थान्‌ भग्नोपकरणानपि ।। ३२ ।। 
प्रपातितोपस्तरणान्‌ हतयोधान्‌ सहस्रश: । 
शरैविशकलीकुर्वन्‌ दिक्षु सर्वास्वदृश्यत ।। ३३ ।। 


इसी प्रकार अभिमन्यु अपने बाणोंसे शत्रुओंके गन्धर्वनगरके समान विशाल तथा 
विधिपूर्वक सुसज्जित बहुसंख्यक रथोंके टुकड़े-टुकड़े करता हुआ सम्पूर्ण दिशाओंमें 
दृष्टिगोचर हो रहा था। उन रथोंके प्रधान ईषादण्ड नष्ट हो गये थे। त्रिवेणु चूर-चूर हो गये थे। 
स्तम्भदण्ड उखड़ गये थे। उसके बन्धन टूट गये थे। जंघा (नीचेका स्थान) और कूबर 
(जूएका आधारभूत काष्ठ) टूट-फ़ूट गये थे। पहियोंके ऊपरी भाग और अरे चौपट कर दिये 
गये थे। पहिये, रथकी सजावटके समान और बैठकें नष्ट-भ्रष्ट हो गयी थीं। सारी सामग्री 
तथा रथके अवयव चूर-चूर हो गये थे। रथकी छतरी और आवरणको गिरा दिया गया था 
तथा उन रथोंके समस्त योद्धा मार डाले गये थे। इस तरह सहसोरों रथोंकी धज्जियाँ उड़ गयी 
थीं ।। ३१--३३ ।। 

पुनर्दधिपान्‌ द्विपारोहान्‌ वैजयन्त्यड्कुशध्वजान्‌ । 

तूणान्‌ वर्माण्यथो कक्ष्या ग्रैवेयांश्व॒ सकम्बलान्‌ ।। ३४ ।। 

घण्टा:शुण्डाविषाणाग्रान्‌ छत्रमाला: पदानुगान्‌ । 

शरैरनिशितधाराग्रै: शात्रवाणामशातयत्‌ ।। ३५ ।। 

रथोंका संहार करके अभिमन्युने पुनः तीखी धारवाले बाणोंद्वारा शत्रुओंके हाथियों, 
गजारोहियों, उनके झंडों, अंकुशों, ध्वजाओं, तूणीरों, कवचों, रस्सों, कण्ठाभूषणों, झूलों, 
घंटों, सूँड़ों, दाँतों, छत्रों, मालाओं और पादरक्षकों को भी काट डाला || ३४-३५ || 

वनायुजानू्‌ पर्वतीयान्‌ काम्बोजानथ बाह्लिकान्‌ | 

स्थिरबालधिकर्णाक्षाञ्जवनान्‌ साधुवाहिन: ।। ३६ ।। 

आरूढाज्गशिक्षितैर्योधै: शकक्‍्त्यृष्टिप्रासयोधिभि: । 

विध्वस्तचामरमुखान्‌ विप्रविद्धप्रकीर्णकान्‌ ।। ३७ ।। 

निरस्तजिद्दानयनान्‌ निष्कीर्णान्त्रयकृद्घनान्‌ । 

हतारोहांश्छिन्नघण्टान्‌ क्रव्यादगणमोदकान्‌ ।। ३८ ।। 

निकृत्तचर्मकवचान्‌ शकृन्मूत्रासृगाप्लुतान्‌ । 

निपातयजन्नश्ववरांस्तावकान्‌ स व्यरोचत ।। ३९ ।। 

एको विष्णुरिवाचिन्त्यं कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ | 


राजन्‌! आपके वनायुज, पर्वतीय, काम्बोज तथा बाह्लिक देशीय श्रेष्ठ घोड़ोंको, जो 
पूँछ, कान और नेत्रोंको निश्चल करके दौड़नेवाले, वेगवान्‌ और अच्छी तरह सवारीका काम 
देनेवाले थे तथा जिनके ऊपर शक्ति, ऋष्टि एवं प्रासद्वारा युद्ध करनेवाले सुशिक्षित योद्धा 
सवार थे, धराशायी करता हुआ अकेला वीर अभिमन्यु एकमात्र भगवान्‌ विष्णुकी भाँति 
अचिन्त्य एवं दुष्कर कर्म करके बड़ी शोभा पा रहा था। उन घोड़ोंके मस्तक और गर्दनके 
चँवरके समान बड़े-बड़े बाल और मुख बाणोंके आघातसे नष्ट हो गये थे। वे सब-के-सब 
घायल हो गये थे। कितने ही अश्वोंके सिर छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये थे। कितनोंकी 
जिह्ना और नेत्र बाहर निकल आये थे। आँत और जिगरके टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। उन 
सबके सवार मार डाले गये थे। उनके गलेके घुँघचुरू कटकर गिर गये थे। वे घोड़े मृत्युके 
अधीन होकर मांसभक्षी प्राणियोंका हर्ष बढ़ा रहे थे। उनके चमड़े और कवच टूक-टूक हो 
गये थे और वे मल-मूत्र तथा रक्तमें डूबे हुए थे || ३६--३९ $ ।। 

तथा निर्मथितं तेन त्यड्रं तव बल॑ महत्‌ ।। ४० ।। 

यथासुरबल घोरें त्रयम्बकेण महौजसा । 

जैसे महान्‌ तेजस्वी त्रिनेत्रधारी भगवान्‌ रुद्रने असुरोंकी सेनाको मथ डाला था, उसी 
प्रकार अभिमन्युने रथ, हाथी और घोड़े--इन तीन अंगोंसे युक्त आपकी विशाल सेनाको 
रौंद डाला || ४० $ || 

कृत्वा कर्म रणे5सहां परैरार्जुनिराहवे ॥। ४१ ।। 

अभिनच्च पदात्योघांस्त्वदीयानेव सर्वश: । 

इस प्रकार अर्जुनकुमार अभिमन्युने रणक्षेत्रमें शत्रुओंके लिये असहा पराक्रम करके 
आपके पैदल योद्धाओंके समूहोंका सभी प्रकारसे विनाश आरम्भ किया || ४१३ ।। 

एवमेकेन तां सेनां सौभद्रेण शितै: शरै: ॥। ४२ ।। 

भृशं विप्रहतां दृष्टवा स्कन्देनेवासुरीं चमूम्‌ । 

त्वदीयास्तव पुत्राश्न॒ वीक्षमाणा दिशो दश ।। ४३ ।। 

संशुष्कास्याश्षलन्नेत्रा: प्रस्विन्ना रोमहर्षिण: । 

पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये ।। ४४ ।। 

जैसे कार्तिकेयने असुरोंकी सेनाको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था, उसी प्रकार एकमात्र 
सुभद्राकुमार अभिमन्युने अपने तीखे बाणोंद्वारा समस्त कौरव-सेनाको अत्यन्त छिलन्न-भिन्न 
कर डाला है; यह देखकर आपके पुत्र और सैनिक भयभीत हो दसों दिशाओंकी ओर देखने 
लगे। उनके मुख सूख गये थे, नेत्र चंचल हो उठे थे, सारे अंगोंमें पसीना हो आया था और 
उनके रोंगटे खड़े हो गये थे। अब वे भागनेमें उत्साह दिखाने लगे। शत्रुओंको जीतनेके लिये 
उनके मनमें तनिक भी उत्साह नहीं रह गया था ।। ४२--४४ ।। 

गोत्रनामभिरन्योन्यं क्रन्दन्तो जीवितैषिण: । 

हतान्‌ पुत्रान्‌ पितृन्‌ भ्रातृन्‌ बन्धून्‌ सम्बन्धिनस्तथा ।। ४५ ।। 


प्रातिष्ठन्त समुत्सृज्य त्वरयन्तो हयद्विपान्‌ ।। ४६ ।। 

वे जीवनकी इच्छा रखकर अपने-अपने सगे-सम्बन्धियोंके गोत्र और नामका उच्चारण 
करके एक-दूसरेके लिये क्रन्दन कर रहे थे। उस समय आपके सैनिक इतने डर गये थे कि 
वहाँ मारे गये अपने पुत्रों, पितृतुल्य सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं तथा नातेदारोंको भी छोड़कर 
अपने घोड़ों और हाथियोंको उतावलीके साथ हाँकते हुए रणभूमिसे पलायन कर 
गये ।। ४५-४६ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे 
षट्त्रिंशो5ध्याय: ॥। ३६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें आभिमन्युका 
पराक्रमविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३६ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४७ “लोक हैं।) 


ऑपन-आ प्रात बछ। अकाल 


सप्तत्रिशो5्ध्याय: 


अभिमन्युका पराक्रम, उसके द्वारा अश्मकपुत्रका वध, 
शल्यका मूर्च्छित होना और कौरव-सेनाका पलायन 


संजय उवाच 

तां प्रभग्नां चमूं दृष्टवा सौभद्रेणामितौजसा । 

दुर्योधनो भृशं क्रुद्ध: स्वयं सौभद्रमभ्ययात्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! अमिततेजस्वी सुभद्राकुमार अभिमन्युने कौरव-सेनाको मार 
भगाया है, यह देखकर अत्यन्त क्रोधमें भरा हुआ दुर्योधन स्वयं सुभद्राकुमारका सामना 
करनेके लिये आया ।। १ ।। 

ततो राजानमावृत्तं सौभद्रं प्रति संयुगे । 

दृष्टवा द्रोणो5ब्रवीद्‌ योधान्‌ परीप्सध्वं नराधिपम्‌ ।। २ ।। 

उस युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनको अभिमन्युकी ओर लौटते देख द्रोणाचार्यने समस्त 
योद्धाओंसे कहा--'वीरो! कौरव-नरेशकी सब ओरसे रक्षा करो || २ ।। 

पुराभिमन्युर्लक्ष्यं न: पश्यतां हन्ति वीर्यवान्‌ । 

तमाद्रवत मा भैष्ट क्षिप्रं रक्षत कौरवम्‌ ।। ३ ।। 

“बलवान अभिमन्यु हमारे देखते-देखते अपने लक्ष्यभूत राजा दुर्योधनको पहले ही मार 
डालेगा; अतः तुम सब लोग दौड़ो, भय न करो, शीघ्र ही कुरुवंशी दुर्योधनकी रक्षा 
करो” ।॥। ३ ।। 

ततः कृतज्ञा बलिन: सुहदो जितकाशिन: । 

त्रास्यमाना भयाद्‌ वीरं परिवद्रुस्तवात्मजम्‌ ।। ४ ।। 

महाराज! तदनन्तर अस्त्र-शिक्षामें निपुण, बलवान, हितैषी और विजयशाली 
योद्धाओंने (रक्षाके लिये) आपके वीर पुत्रको चारों ओरसे घेर लिया; यद्यपि वे अभिमन्युके 
भयसे बहुत डरते थे ।। ४ ।। 

द्रोणो द्रौणि: कृप: कर्ण: कृतवर्मा च सौबल: । 

बृहद्धलो मद्रराजो भूरिभ्भूरिश्रवा: शल: ।। ५ ।। 

पौरवो वृषसेनश्न विसृजन्त: शिताञ्छरान्‌ | 

सौभद्रंं शरवर्षण महता समवाकिरन्‌ ।। ६ ।। 

द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, कृतवर्मा, सुबलपुत्र शकुनि, बृहद्वल, मद्रराज शल्य, 
भूरि, भूरिश्रवा, शल, पौरव तथा वृषसेन--ये अभिमन्युपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे। 
इन्होंने महान्‌ बाण-वर्षद्वारा अभिमन्युको आच्छादित कर दिया ।। ५-६ |। 


सम्मोहयित्वा तमथ दुर्योधनममोचयन्‌ । 

आस्याद्‌ ग्रासमिवाक्षिप्तं ममृषे नार्जुनात्मज: ।। ७ ।। 

इस प्रकार उसे मोहित करके इन वीरोंने दुर्योधनको छुड़ा लिया। तब मानो मुँहसे ग्रास 
छिन गया हो, यह मानकर अर्जुनकुमार अभिमन्यु इसे सहन न कर सका ।। 

ताञ्छरौघेण महता साश्वसूतान्‌ महारथान्‌ | 

विमुखीकृत्य सौभद्र: सिंहनादमथानदत्‌ ।। ८ ।। 

अतः अपनी भारी बाण-वर्षासे उन महारथियोंको उनके सारथि और घोड़ोंसहित 
युद्धसे विमुख करके सुभद्राकुमारने सिंहके समान गर्जना की ।। ८ ।। 

तस्य नादं ततः श्रुत्वा सिंहस्येवामिषैषिण: । 

नामृष्यन्त सुसंरब्धा: पुनद्रोणमुखा रथा: ।। ९ ।। 

मांस चाहनेवाले सिंहके समान अभिमन्युकी वह गर्जना सुनकर अत्यन्त क्रोधमें भरे 
हुए द्रोण आदि महारथी न सह सके ।। ९ |। 

त एन॑ कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष । 

व्यसृजन्निषुजालानि नानालिजड्रानि सड्घश: ।। १० ।। 

आर्य! तब उन महारथियोंने रथसेनाद्वारा उसे कोष्ठमें आबद्ध-सा करके उसके ऊपर 
नाना प्रकारके चिह्नवाले समूह-के-समूह बाण बरसाने आरम्भ किये ।। 

तान्यन्तरिक्षे चिच्छेद पौत्रस्ते निशितै: शरैः । 

तांश्वैव प्रतिविव्याध तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ११ ।। 

परंतु आपके उस वीर पौत्रने अपने पैने बाणोंद्वारा शत्रुओंके उन सायकसमूहोंको 
आकाशमें ही काट दिया और उन सभी महारथियोंको घायल भी कर डाला-यह एक 
अद्भुत-सी बात हुई || ११ ।। 

ततस्ते कोपितास्तेन शरैराशीविषोपमै: । 

परिवत्र॒र्जिघांसन्त: सौभद्रमपराजितम्‌ ।। १२ ।। 

तब अभिमन्युसे चिढ़े हुए उन योद्धाओंने विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंद्वारा 
किसीसे परास्त न होनेवाले सुभद्राकुमारको मार डालनेकी इच्छा रखकर उसे घेर 
लिया ।। १२ ।। 

समुद्रमिव पर्यस्तं त्वदीयं तं बलार्णवम्‌ | 

दधारैको<<र्जुनिर्बाणैवेलेव भरतर्षभ ।। १३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उस समय जैसे सब ओरसे उछलते हुए समुद्रको तटभूमि रोक लेती है, उसी 
प्रकार आपके सैन्य-सागरको एकमात्र अर्जुनकुमारने आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। 

शूराणां युध्यमानानां निघ्नतामितरेतरम्‌ । 

अभिमन्यो: परेषां च नासीत्‌ कश्चित्‌ पराड्मुख: ।। १४ ।। 


उस समय एक-दूसरेपर प्रहार करते हुए युद्धपरायण विपक्षी वीरों तथा अभिमन्युमें 
कोई भी युद्धसे विमुख नहीं हुआ ।। १४ ।। 

तस्मिंस्तु घोरे संग्रामे वर्तमाने भयंकरे । 

दुःसहो नवभिर्बाणैरभिमन्युमविध्यत ।। १५ ।। 

दुःशासनो द्वादशभि: कृप: शारद्वतस्त्रिभि: | 

द्रोणस्तु सप्तदशभि: शरैराशीविषोपमै: ।। १६ ।। 

इस प्रकार वह भयंकर एवं घोर संग्राम चल रहा था। उसमें आपके पुत्र दुःसहने नौ, 
दुःशासनने बारह, शरद्वानके पुत्र कृपाचार्यने तीन और द्रोणाचार्यने विषधर सर्पके समान 
भयंकर सत्रह बाणोंसे अभिमन्युको बींध डाला ।। 

विविंशतिस्तु सप्तत्या कृतवर्मा च सप्तभि: । 

बृहद्धलस्तथाष्टाभिरश्वृत्थामा च सप्तभि: ।। १७ || 

भूरिश्रवास्त्रिभिर्बाणि्मद्रेश: षड्भिराशुगै: । 

द्वाभ्यां शराभ्यां शकुनिस्त्रिभि्दुर्योधनो नृप: ।। १८ ।। 

इसी प्रकार विविंशतिने सत्तर, कृतवर्माने सात, बृहद्धलने आठ, अभश्वत्थामाने सात, 
भूरिश्रवाने तीन, मद्रराज शल्यने छः, शकुनिने दो और राजा दुर्योधनने तीन बाणोंसे 
अभिमन्युको घायल कर दिया ।। १७-१८ ।। 

सतुतान्‌ प्रतिविव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिद्ागै: । 

नृत्यन्निव महाराज चापहस्त: प्रतापवान्‌ ।। १९ |। 

महाराज! उस समय धनुष हाथमें लिये प्रतापी अभिमन्युने जैसे नाच रहा हो, इस 
प्रकार सब ओर घूम-घूमकर उन सब महारथियोंको तीन-तीन बाणोंसे घायल कर 
दिया ।। १९ || 

ततो$भिमन्यु: संक्रुद्धस्त्रास्यमानस्तवात्मजै: । 

विदर्शयन्‌ वै सुमहच्छिक्षौरसकृतं बलम्‌ ।। २० ।। 

तब आपके सभी पुत्रोंने मिलकर अभिमन्युको त्रास देना आरम्भ किया, फिर तो वह 
क्रोधसे जल उठा और अपनी अस्त्र-शिक्षा तथा हृदयका महान्‌ बल दिखाने लगा ।। 

गरुडानिलरंहोभिरययन्तुर्वाक्यकरैह्यै: । 

दान्तैरश्मकदायादस्त्वरमाणो हावारयत्‌ ।। २१ ।। 

विव्याध दशभिर्बाणैस्तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ । 

इतनेमें ही अश्मकके पुत्रने सारथिके आदेशका पालन करनेवाले, गरुड और वायुके 
समान वेगशाली सुशिक्षित घोड़ोंद्वारा बड़ी तेजीसे वहाँ आकर अभिमन्युको रोका और दस 
बाण मारकर उसे घायल कर दिया, साथ ही इस प्रकार कहा--'अरे! खड़ा रह, खड़ा 
रह” ।। २१३ || 

तस्याभिमन्युर्दशभिह्यान्‌ सूतं ध्वजं शरै: || २२ ।। 


बाहू धनु: शिरश्नोव्या स्मयमानो5 भ्यपातयत्‌ | 

तब अभिमन्युने मुसकराकर अश्मकपुत्रके घोड़ों, सारथि, ध्वज, भुजाओं, धनुष तथा 
मस्तकको भी दस बाणोंसे पृथ्वीपर काट गिराया || २२६ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ हते वीरे सौभद्रेणाश्मकेश्वरे ।। २३ ।। 

संचचाल बलं॑ सर्व पलायनपरायणम्‌ । 

सुभद्राकुमार अभिमन्युके द्वारा वीर अश्मक-राजकुमारके मारे जानेपर सारी सेना 
विचलित हो भागने लगी ।। 

तत:ः कर्ण: कृपो द्रोणो द्रौणिगान्धारराट्शल: ।। २४ ।। 

शल्यो भूरिश्रवा: क्राथ: सोमदत्तो विविंशति: । 

वृषसेन: सुषेणश्च कुण्डभेदी प्रतर्दन: ॥। २५ ।। 

वृन्दारको ललित्थश्न प्रबाहुर्दीर्धलोचन: । 

दुर्योधनश्व संक्रुद्ध: शरवर्षरवाकिरन्‌ ।। २६ ।। 

तदनन्तर कर्ण, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, गान्धारराज शकुनि, शल, शल्य, 
भूरिश्रवा, क्राथ, सोमदत्त, विविंशति, वृषसेन, सुषेण, कुण्डभेदी, प्रतर्दन, वृन्दारक, 
ललित्थ, प्रबाहु, दीर्घलोचन तथा अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए दुर्योधनने अभिमन्युपर बाणोंकी 
वर्षा आरम्भ कर दी ।। 

सो&5तिविद्धो महेष्वासैरभिमन्युरजिद्ागै: । 

शरमादत्त कर्णाय वर्मकायावभेदिनम्‌ ।। २७ ।। 

इन महाथनुर्धर वीरोंके चलाये हुए बाणोंसे अत्यन्त घायल होकर अभिमन्युने कर्णको 
लक्ष्य करके एक ऐसा बाण हाथमें लिया, जो उसके कवच और कायाको विदीर्ण कर 
डालनेवाला था || २७ ।। 

तस्य भित्त्वा तनुत्राणं देहं निर्भिद्य चाशुग: । 

प्राविशद्‌ धरणीं वेगाद्‌ वल्मीकमिव पन्नग: ॥। २८ ।। 

जैसे सर्प बाँबीमें घुस जाता है, उसी प्रकार अभिमन्युका छोड़ा हुआ वह बाण कर्णके 
शरीर और कवचको विदीर्ण करके बड़े वेगसे धरतीमें समा गया ।। २८ ।। 

स तेनातिप्रहारेण व्यथितो विद्वलजन्निव । 

संचचाल रणे कर्ण: क्षितिकम्पे यथाचल: ।। २९ ।। 

जैसे भूकम्प होनेपर पर्वत भी हिलने लगता है, उसी प्रकार उस अत्यन्त गहरे आघातसे 
व्यथित एवं विद्वल-सा होकर कर्ण उस रणभूमिमें विचलित हो उठा ।। २९ |। 

तथान्यैर्निशितैर्बाणै: सुषेणं दीर्घलोचनम्‌ । 

कुण्डभेदिं च संक्रुद्धस्त्रिभिस्त्रीनवधीद्‌ बली ।। ३० ।। 

फिर बलवान्‌ अभिमन्युने अत्यन्त कुपित होकर दूसरे तीन पैने बाणोंद्वारा सुषेण, 
दीर्घलोचन तथा कुण्डभेदी--इन तीन वीरोंको घायल कर दिया ।। ३० ।। 


कर्णस्तं पञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्‌ । 

अश्वत्थामा च विंशत्या कृतवर्मा च सप्तभि: ।। ३१ ।। 

तब कर्णने पचीस, अश्व॒त्थामाने बीस तथा कृतवर्माने सात नाराचोंद्वारा अभिमन्युको 
गहरी चोट पहुँचायी || ३१ ।। 

स शराचितसर्वाड्ि: क्रुद्ध: शक्रात्मजात्मज: । 

विचरन्‌ ददृशे सैन्ये पाशहस्त इवान्तक: ।। ३२ ।। 

उस समय इन्द्रकुमार अर्जुनके पुत्र अभिमन्युके सम्पूर्ण अंगोंमें बाण-ही-बाण व्याप्त हो 
रहे थे, वह क्रोधमें भरे हुए पाशधारी यमराजके समान शत्रुसेनामें विचरता दिखायी देता 
था ।। ३२ || 

शल्यं च शरवर्षेण समीपस्थमवाकिरत्‌ | 

उदक्रोशन्महाबाहुस्तव सैन्यानि भीषयन्‌ ।। ३३ ।। 

राजा शल्य अभिमन्युके पास ही खड़े थे, अतः वह महाबाहु वीर उनपर बाणोंकी वर्षा 
करने लगा। उसने आपकी सेनाको भयभीत करते हुए बड़े जोरसे गर्जना की ।। ३३ ।। 

ततः स विद्धो<स्त्रविदा मर्मभिद्धिरजिदह्ागै: | 

शल्यो राजन्‌ रथोपस्थे निषसाद मुमोह च ।। ३४ ।। 

राजन! अस्त्रवेत्ता अभिमन्युके चलाये हुए मर्मभेदी बाणोंद्वारा घायल होकर राजा शल्य 
रथकी बैठकमें धम्मसे बैठ गये और मूर्छित हो गये ।। ३४ ।। 

तं हि दृष्टवा तथा विद्ध॑ सौभद्रेण यशस्विना । 

सम्प्राद्रवच्चमू: सर्वा भारद्वाजस्य पश्यत: ॥। ३५ ।। 

यशस्वी सुभद्राकुमारके द्वारा घायल किये हुए शल्यको इस प्रकार भय हुआ देख 
द्रोणाचार्यके देखते-देखते उनकी सारी सेना रणभूमिसे भाग चली ।। ३५ |। 





सम्प्रेक्ष्य तं महाबाहुं रुक्मपुड्खै: समावृतम्‌ । 
त्वदीया: प्रपलायन्ते मृगा: सिंहार्दिता इव ।। ३६ ।। 
महाबाहु शल्यको अभिमन्युके सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे व्याप्त हुआ देख आपके 
सभी सैनिक सिंहके सताये हुए मृगोंकी भाँति जोर-जोरसे भागने लगे || ३६ ।। 
स तु रणयशसाभिपूज्यमान: 
पितृसुरचारणसिद्धयक्षसंघै: । 
अवनितलगतैश्व भूतसड्चै- 
रतिविबभौ हुतभुग्यथा<55ज्यसिक्त: ।। ३७ ।। 
देवताओं, पितरों, चारणों, सिद्धों तथा यक्षसमूहों एवं भूतलवर्ती भूतसमुदायोंसे 
प्रशंसित होकर युद्धविषयक सुयशसे प्रकाशित होनेवाला अभिमन्यु घृतकी धारासे 
अभिषिक्त हुए अग्निदेवके समान अत्यन्त शोभा पाने लगा ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे 
सप्तत्रिंशोडध्याय: ।। ३७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिगन्युवधपर्वमें आभिमन्युपराक्रमविषयक 
सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३७ ॥। 


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अष्टात्रिशो& ध्याय: 


अभिमन्युके द्वारा शल्यके भाईका वध तथा द्रोणाचार्यकी 
रथसेनाका पलायन 


धृतराष्ट उवाच 

तथा प्रमथमानं तं महेष्वासानजिदह्ागै: । 

आर्जुनिं मामका: संख्ये के त्वेने समवारयन्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! अर्जुनकुमार अभिमन्यु जब इस प्रकार अपने बाणोंद्वारा 
बड़े-बड़े धनुर्धरोंको मथ रहा था, उस समय मेरे पक्षके किन योद्धाओंने उसे युद्धमें रोका 
था? ।। १ ।। 

संजय उवाच 

शृणु राजन्‌ कुमारस्य रणे विक्रीडितं महत्‌ । 

बिभित्सतो रथानीकं भारद्वाजेन रक्षितम्‌ ।। २ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! रणक्षेत्रमें कुमार अभिमन्यु-की विशाल रणक्रीड़ाका वर्णन 
सुनिये। वह द्रोणाचार्य-द्वारा सुरक्षित रथियोंकी सेनाको विदीर्ण करना चाहता था ।। २ ।। 

मद्रेशं सादितं दृष्टवा सौभद्रेणाशुगै रणे । 

शल्यादवरज: क्रुद्ध: किरन्‌ बाणान्‌ समभ्ययात्‌ ।। ३ ।। 

सुभद्राकुमारने रणभूमिमें अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा घायल करके मद्रराज शल्यको 
धराशायी कर दिया, यह देखकर उनका छोटा भाई कुपित हो बाणोंकी वर्षा करता हुआ 
अभिमन्युपर चढ़ आया ।। ३ ।। 

स विद्ध्वा दशभिर्बाणै: साश्वयन्तारमार्जुनिम्‌ । 

उदक्रोशन्महाशब्दं तिष्ठ तिछ्ेति चाब्रवीत्‌ ।। ४ ।। 

उसने दस बाणोंद्वारा घोड़े और सारथिसहित अभिमन्युको क्षत-विक्षत करके बड़े 
जोरसे गर्जना की और कहा--'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४ ।। 

तस्यार्जुनि: शिरोग्रीवं पाणिपादं धनुर्हयान्‌ । 

छत्र॑ ध्वजं नियन्तारं त्रिवेणुं तल्पमेव च ।। ५ ।। 

चक्र युगं च तूणीरं हानुकर्ष च सायकै: । 

पताकां चक्रगोप्तारौ सर्वोपकरणानि च ।। ६ ।। 

लघुहस्त: प्रचिच्छेद ददृशे तं न कश्नन । 

स पपात क्षितौ क्षीण: प्रविद्धाभरणाम्बर: ।। ७ ।। 

वायुनेव महाशैल: सम्भग्नोडमिततेजसा । 


तब शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले अर्जुनकुमारने अपने सायकोंद्वारा शल्यके भाईके 
मस्तक, ग्रीवा, हाथ, पैर, धनुष, अश्व, छत्र, ध्वज, सारथि, त्रिवेणु, तल्प (शय्या), पहिये, 
जूआ, तरकश, अनुकर्ष, पताका, चक्ररक्षक तथा अन्य समस्त उपकरणोंको काट डाला। 
उस समय कोई भी उसे देख न सका। जैसे वायुके वेगसे कोई महान्‌ पर्वत टूटकर गिर पड़े, 
उसी प्रकार अमिततेजस्वी अभिमन्युका मारा हुआ वह शल्यराजका भाई छिन्न-भिन्न होकर 
पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके वस्त्र और आभूषणोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये थे || ५--७ ६ ।। 

अनुगास्तस्य वित्रस्ता: प्राद्रवन्‌ सर्वतो दिश: ।। ८ ।। 

आर्जुने: कर्म तद्‌ दृष्टवा सम्प्रणेदु: समनन्‍्ततः । 

नादेन सर्वभूतानि साधु साध्विति भारत ।। ९ ।। 

उसके सेवक भयभीत होकर सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये। भारत! अर्जुनकुमारके उस 
अद्भुत पराक्रमको देखकर समस्त प्राणी साधुवाद देते हुए सब ओर हर्षध्वनि करने 
लगे ।। ८-९ ।। 

शल्यश्रातर्यथारुग्णे बहुशस्तस्य सैनिका: । 

कुलाधिवासनामानि श्रावयन्तो<र्जुनात्मजम्‌ ।। १० ।। 

अभ्यधावन्त संक़्रुद्धा विविधायुधपाणय: । 

शल्यके भाईके मारे जानेपर उसके बहुत-से सैनिक अपने कुल और निवासस्थानके 
नाम सुनाते हुए कुपित हो हाथोंमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये अर्जुनकुमार अभिमन्युकी 
ओर दौड़े || १०३ || 

रथैरश्लैगगजैश्नान्ये पद्धिश्षान्ये बलोत्कटा: ।। १३ ।। 

बाणशब्देन महता रथनेमिस्वनेन च । 

हुंकारै: क्ष्वेडितोत्क्रुष्टे: सिंहनादैः सगर्जिते: ।। १२ ।। 

ज्यातलत्रस्वनैरन्ये गर्जन्तो$र्जुननन्दनम्‌ । 

ब्रुवन्तश्न न नो जीवन्‌ मोक्ष्यसे जीवितादिति ।। १३ ।। 

कितने ही वीर रथ, घोड़े और हाथीपर सवार होकर आये। दूसरे बहुत-से प्रचण्ड 
बलशाली योद्धा पैदल ही दौड़ पड़े। बाणोंकी सनसनाहट, रथके पहियोंकी जोर-जोरसे 
होनेवाली घर्घराहट, हुंकार, कोलाहल, ललकार, सिंहनाद, गर्जना, धनुषकी टंकार तथा 
हस्तत्राणके चट-चट शब्दके साथ गर्जन-तर्जन करते हुए अन्यान्य बहुत-से योद्धा 
अर्जुनकुमार अभिमन्युपर यह कहते हुए टूट पड़े, “अब तू हमारे हाथसे जीवित नहीं छूट 
सकता। तुझे जीवनसे ही हाथ धोना पड़ेगा” || ११--१३ ॥। 

तांस्तथा ब्रुवतो दृष्टवा सौभद्र: प्रहसन्निव । 

यो योअस्मै प्राहरत्‌ पूर्व त॑ तं विव्याध पत्रिभि: ।। १४ ।। 

उनको ऐसा कहते देख सुभद्राकुमार अभिमन्यु मानो जोर-जोरसे हँसने लगा और 
जिस-जिस योद्धाने उसपर पहले प्रहार किया, उस-उसको उसने भी अपने पंखयुक्त 


बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। १४ ।। 

संदर्शयिष्यन्नस्त्राणि विचित्राणि लघूनि च | 

आर्जुनि: समरे शूरो मृदुपूर्वमयुध्यत ।। १५ ।। 

शूरवीर अर्जुनकुमारने समरांगणमें अपने विचित्र एवं शीघ्रगामी अस्त्रोंका प्रदर्शन करते 
हुए पहले मृदुभावसे ही युद्ध किया ।। १५ ।। 

वासुदेवादुपात्तं यदस्त्रं यच्च धनंजयात्‌ | 

अदर्शयत तत्‌ कार्ष्णि: कृष्णाभ्यामविशेषवत्‌ ।। १६ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे अभिमन्युने जो-जो अस्त्र प्राप्त किये थे, उनका उन्हीं 
दोनोंकी भाँति वह युद्धस्थलमें प्रदर्शन करने लगा ।। १६ ।। 

दूरमस्य गुरु भारं साध्वसं च पुन: पुनः । 

संदधद्‌ विसजंश्रेषून्‌ निर्विशेषमदृश्यत ।। १७ ।। 

भारी भार और भय उससे दूर हो गया था। वह बारंबार बाणोंका संधान करता और 
छोड़ता हुआ एक-सा दिखायी देता था ।। १७ ।। 

चापमण्डलमेवास्य विस्फुरद्‌ दिक्ष्वदृश्यत । 

सुदीप्तस्य शरत्काले सवितुर्मण्डलं यथा ।॥। १८ ।। 

जैसे शरद्‌-ऋतुमें अत्यन्त प्रकाशित होनेवाले सूर्यदेवका मण्डल दृष्टिगोचर होता है, 
उसी प्रकार अभिमन्युका मण्डलाकार धनुष ही सम्पूर्ण दिशाओंमें उद्भधासित होता दिखायी 
देता था || १८ ।। 

ज्याशब्द: शुश्रुवे तस्य तलशब्दश्न दारुण: । 

महाशनिमुच: काले पयोदस्येव नि:स्वनः ।। १९ ।। 

उसके धनुषकी प्रत्यंचा और हथेलीका शब्द वर्षाकालमें महान्‌ वज्र गिरानेवाले मेघकी 
गर्जनाके समान भयंकर सुनायी पड़ता था || १९ ।। 

ह्वीमानमर्षी सौभद्रो मानकृत्‌ प्रियदर्शन: । 

सम्मिमानयिषुर्वीरानिष्वस्त्रै श्चाप्पयुध्यत ।। २० ।। 

लज्जाशील, अमर्षी, दूसरोंको मान देनेवाला और देखनेमें प्रिय लगनेवाला 
सुभद्राकुमार अभिमन्यु विपक्षी वीरोंका सम्मान करनेकी इच्छासे धनुष-बाणोंद्वारा युद्ध 
करता रहा ।। २० ।। 

मृदुर्भूत्वा महाराज दारुण: समपद्यत । 

वर्षाभ्यतीतो भगवाञ्छरदीव दिवाकर: ।। २१ ।। 

महाराज! जैसे वर्षाकाल बीतनेपर शरत्कालमें भगवान्‌ सूर्य प्रचण्ड हो उठते हैं, उसी 
प्रकार अभिमन्यु पहले मृदु होकर अन्तमें शत्रुओंके लिये अति उग्र हो उठा ।। २१ ।। 

शरान्‌ विचित्रान्‌ सुबहून्‌ रुक्मपुड्खाज्छिलाशितान्‌ | 

मुमोच शतश:ः क्रुद्धो गभस्तीनिव भास्कर: ।। २२ ।। 


जैसे सूर्य अपनी सहस्रों किरणोंको सब ओर बिखेर देते हैं, उसी प्रकार क्रोधमें भरा 
हुआ अभिमन्यु सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखसे युक्त सैकड़ों विचित्र एवं 
बहुसंख्यक बाणोंकी वर्षा करने लगा || २२ ।। 

क्षुपप्रैर्वत्सदन्तैश्व विपाठैश्व महायशा: । 

नाराचैरर्थचन्द्रा भैर्भल्लैररजलिकैरपि ।। २३ ।। 

अवाकिरद्‌ रथानीकं भारद्वाजस्य पश्यत: । 

ततस्तत्सैन्यमभवद्‌ विमुखं शरपीडितम्‌ ।। २४ ।। 

उस महायशणस्वी वीरने द्रोणाचार्यके देखते-देखते उनकी रथसेनापर क्षुरप्र, वत्सदन्त, 
विपाठ, नाराच, अर्धचन्द्राकार बाण, भल्‍ल एवं अंजलिक आदिकी वर्षा आरम्भ कर दी। 
इससे उन बाणोंद्वारा पीड़ित हुई वह सेना युद्धले विमुख होकर भाग चली ।। २३-२४ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे 
आष्टात्रिंशो 5 ध्याय: ।। ३८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें आभिमन्यु-पराक्रमविषयक 
अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३८ ॥। 


अपना बा | अफड-#-कात जा 


एकोनचत्वारिशोड ध्याय: 


द्रोणाचार्यके द्वारा अभिमन्युके पराक्रमकी प्रशंसा तथा 
दुर्योधनके आदेशसे दुःशासनका अभिमन्युके साथ युद्ध 
आरम्भ करना 


धृतराष्ट उवाच 

द्वैधीभवति मे चित्तं द्विया तुष्ट्या च संजय । 

मम पुत्रस्य यत्‌ सैन्यं सौभद्र: समवारयत्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! सुभद्राकुमारने मेरे पुत्रकी सेनाको जो आगे बढ़नेसे रोक 
दिया, इसे सुनकर लज्जा और प्रसन्नतासे मेरे चित्तकी दो अवस्थाएँ हो रही हैं ।। १ ।। 

विस्तरेणैव मे शंस सर्व गावल्गणे पुन: । 

विक्रीडितं कुमारस्य स्कन्दस्येवासुरै: सह ।। २ ।। 

गवल्गणनन्दन! जैसे कुमार कार्तिकेयने असुरोंके साथ रणक्रीड़ा की थी, उसी प्रकार 
कुमार अभिमन्युने जो युद्धका खेल किया था, वह सब मुझसे विस्तारपूर्वक कहो ।। 

संजय उवाच 

हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि विमर्दमतिदारुणम्‌ । 

एकस्य च बहूनां च यथा5<सीत्‌ तुमुलो रण: ।। ३ ।। 

संजयने कहा--महाराज! मैं अत्यन्त खेदके साथ आपको उस अत्यन्त भयंकर 
नरसंहारका वृत्तान्त बता रहा हूँ, जिसके लिये एक वीरका बहुत-से महारथियोंके साथ 
तुमुल युद्ध हुआ था ।। ३ ।। 

अभिमन्यु: कृतोत्साह: कृतोत्साहानरिंदमान्‌ | 

रथस्थो रथिन: सर्वास्तावकानभ्यवर्षयत्‌ ।। ४ ।। 

अभिमन्यु युद्धके लिये उत्साहसे भरा था। वह रथपर बैठकर आपके उत्साहभरे 
शत्रुदमन समस्त रथारोहियोंपर बाणोंकी वर्षा करने लगा ।। ४ ।। 

द्रोणं कर्ण कृपं शल्यं द्रौ्णिं भोजं बृहदूबलम्‌ । 

दुर्योधनं सौमदत्ति शकुनिं च महाबलम्‌ ।। ५ ।। 

नानानूपान्‌ नृपसुतान्‌ सैन्यानि विविधानि च । 

अलातचक्रवत्‌ सर्वाश्वरन्‌ बाणै: समार्पयत्‌ ।। ६ ।। 

द्रोण, कर्ण, कृप, शल्य, अश्वत्थामा, भोजवंशी कृतवर्मा, बृहद्‌बल, दुर्योधन, भूरिश्रवा, 
महाबली शकुनि, अनेकानेक नरेश, राजकुमार तथा उनकी विविध प्रकारकी सेनाओंपर 
अभिमन्यु अलातचक्रकी भाँति चारों ओर घूमकर बाणोंका प्रहार कर रहा था ।। ५-६ ।। 


निध्नन्नमित्रान्‌ सौभद्र: परमास्त्रै: प्रतापवान्‌ | 

अदर्शयत तेजस्वी दिक्षु सर्वासु भारत ।। ७ ।। 

भारत! प्रतापी एवं तेजस्वी वीर सुभद्राकुमार अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा शत्रुओंका नाश 
करता हुआ सम्पूर्ण दिशाओंमें दृष्टिगोचर हो रहा था || ७ ।। 

तद्‌ दृष्टवा चरितं तस्य सौभद्रस्यामितौजस: । 

समकम्पन्त सैन्यानि त्वदीयानि सहस्रश: ।। ८ ।। 

अमिततेजस्वी अभिमन्युका वह चरित्र देखकर आपके सहस्रों सैनिक भयसे काँपने 
लगे ।। ८ ।। 

अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो भारद्वाज: प्रतापवान्‌ | 

हर्षेणोत्फुल्लनयन: कृपमाभाष्य सत्वरम्‌ ।। ९ |। 

घट्टयन्निव मर्माणि पुत्रस्य तव भारत । 

अभिमन्युं रणे दृष्टवा तदा रणविशारदम्‌ ।। १० ।। 

तदनन्तर परम बुद्धिमान्‌ और प्रतापी वीर द्रोणाचार्यके नेत्र हर्षसे खिल उठे। भारत! 
उन्होंने युद्धविशारद अभिमन्युको युद्धमें स्थित देखकर आपके पुत्रके मर्मस्थलपर चोट 
करते हुए-से उस समय तुरंत ही कृपाचार्यको सम्बोधित करके कहा-- ।। ९-१० ।। 

एष गच्छति सौभद्र: पार्थानां प्रथितो युवा । 

नन्दयन्‌ सुहृदः सर्वान्‌ राजानं च युधिष्ठिरम्‌ | ११ ।। 

नकुलं सहदेवं च भीमसेनं च पाण्डवम्‌ | 

बन्धून्‌ सम्बन्धिनश्चान्यान्‌ मध्यस्थान्‌ सुहृदस्तथा ।। १२ ।। 

“यह पार्थकुलका प्रसिद्ध तरुण वीर सुभद्राकुमार अभिमन्यु अपने समस्त सुहृदोंको, 
राजा युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा पाण्डुपुत्र भीमसेनको, अन्यान्य भाई-बन्धुओं 
सम्बन्धियों तथा मध्यस्थ सुहृदोंको भी आनन्द प्रदान करता हुआ जा रहा है ।। ११-१२ ।। 

नास्य युद्धे सम॑ मन्ये कंचिदन्यं धनुर्थरम्‌ । 

इच्छन्‌ हन्यादिमां सेनां किमर्थमपि नेच्छति ।। १३ ।। 

“मैं दूसरे किसी धनुर्धर वीरको युद्धभूमिमें इसके समान नहीं मानता। यदि यह चाहे तो 
इस सारी सेनाको नष्ट कर सकता है; परंतु न जाने यह क्यों ऐसा चाहता नहीं है” || १३ ।। 

द्रोणस्य प्रीतिसंयुक्तं श्रुत्वा वाक्‍्यं तवात्मज: । 

आर्जुनिं प्रति संक्रुद्धो द्रोणं दृष्टवा स्मयन्निव || १४ ।। 

अथ दुर्योधन: कर्णमत्रवीद्‌ बाह्लिकं नृप: । 

दुःशासन मद्रराजं तांस्तथान्यान्‌ महारथान्‌ ॥। १५ ।। 

अभिमन्युके सम्बन्धमें ट्रोणाचार्यका यह प्रीतियुक्त वचन सुनकर आपका पुत्र राजा 
दुर्योधन क्रोधमें भर गया और द्रोणाचार्यक्री ओर देखकर मुसकराता हुआ-सा कर्ण, 
बाह्लिक, दुःशासन, मद्रराज शल्य तथा अन्य महारथियोंसे बोला-- || १४-१५ |। 


सर्वमूर्धाभिषिक्तानामाचार्यों ब्रह्म॒वित्तम: । 

अर्जुनस्य सुतं मूढं नायं हन्तुमिहेच्छति ।। १६ ।। 

ये सम्पूर्ण मूर्धाभिषिक्त राजाओंके आचार्य तथा सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता द्रोण अर्जुनके इस 
मूढ़ पुत्रको मारना नहीं चाहते हैं || १६ ।। 

न हास्य समरे युद्धोेदन्‍तको5प्याततायिन: । 

किमज़् पुनरेवान्यो मर्त्य: सत्यं ब्रवीमि व: ।। १७ ।। 

'प्रिय सैनिको! मैं आपलोगोंसे सच्ची बात कहता हूँ। यदि ये युद्धमें मारनेके लिये उद्यत 
हो जायूँ तो इनके सामने यमराज भी युद्ध नहीं कर सकता; फिर दूसरा कोई मनुष्य तो 
इनके सामने टिक ही कैसे सकता है? ।। 

अर्जुनस्य सुतं त्वेष शिष्यत्वादभिरक्षति । 

शिष्या: पुत्राश्न दयितास्तदपत्यं च धर्मिणाम्‌ ।। १८ ।। 

'परंतु ये अर्जुनके पुत्रकी रक्षा करते हैं; क्योंकि अर्जुन इनके शिष्य हैं। शिष्य और पुत्र 
तो प्रिय होते ही हैं। उनकी संतानें भी धर्मात्मा पुरुषोंको प्रिय जान पड़ती हैं ।। १८ ।। 

संरक्ष्यमाणो द्रोणेन मन्यते वीर्यमात्मन: । 

आत्मसम्भावितो मूढस्तं प्रमथ्नीत मा चिरम्‌ ।। १९ ।। 

“यह द्रोणाचार्यसे रक्षित होनेके कारण अपने बल और पराक्रमपर अभिमान कर रहा 
है। यह मूर्ख अभिमन्यु आत्मश्लाघा करनेवाला है। तुम सब लोग मिलकर इसे शीघ्र ही मथ 
डालो” ।। १९ || 

एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सात्वतीपुत्रमभ्ययु: । 

संरब्धास्ते जिघांसन्तो भारद्वाजस्य पश्यत: ।। २० ।। 

राजा दुर्योधनके ऐसा कहनेपर सब वीर अत्यन्त कुपित हो सुभद्राकुमार अभिमन्युको 
मार डालनेकी इच्छासे द्रोणाचार्यके देखते-देखते उसपर टूट पड़े || २० ।। 

दुःशासनस्तु तच्छूत्वा दुर्योधनवचस्तदा । 

अब्रवीत्‌ कुरुशार्दूल दुर्योधनमिदं वच: ।। २१ ।। 

कुरुश्रेष्ठ उस समय दुर्योधनके उपर्युक्त वचनको सुनकर दुःशासनने उससे यह बात 
कही-- || २१ ।। 

अहमेनं हनिष्यामि महाराज ब्रवीमि ते । 

मिषतां पाण्डुपुत्राणां पजचालानां च पश्यताम्‌ ।। २२ ।। 

“महाराज! मैं आपसे (प्रतिज्ञापूर्वक) कहता हूँ। मैं पांचालों और पाण्डवोंके देखते- 
देखते इस अभिमन्युको मार डालूँगा || २२ ।। 

ग्रसिष्याम्यद्य सौभद्रं यथा राहुर्दिवाकरम्‌ । 

उत्क्कुश्य चाब्रवीद्‌ वाक्‍्यं कुरुराजमिदं पुन: ।। २३ ।। 


'जैसे राहु सूर्यपर ग्रहण लगाता है, उसी प्रकार आज मैं सुभद्राकुमार अभिमन्युको ग्रस 
लूँगा।। इतना कहकर उसने जोर-जोरसे गर्जना करके पुनः कुरुराज दुर्योधनसे इस प्रकार 
कहा-- || २३ ।। 

श्रुत्वा कृष्णौ मया ग्रस्तं सौभद्रमतिमानिनौ । 

गमिष्यत: प्रेतलोक॑ जीवलोकान्न संशय: ।। २४ ।। 

“सुभद्राकुमार अभिमन्युको मेरे द्वारा कालकवलित हुआ सुनकर अत्यन्त अभिमानी 
श्रीकृष्ण और अर्जुन इस जीवलोकसे प्रेतलोकको चले जायँगे--इसमें संशय नहीं 
है || २४ ।। 

तौ च श्रुत्वा मृतौ व्यक्त पाण्डो: क्षेत्रोद्भवा: सुता: । 

एकाह्वा ससुद्॒द्वर्गा: क्लैब्याद्धास्यन्ति जीवितम्‌ ।। २५ ।। 

“उन दोनोंको मरा हुआ सुनकर पाण्डुके क्षेत्रमें उत्पन्न हुए ये चारों पाण्डव कायरतावश 
अपने सुहृदवर्गके साथ एक ही दिन प्राण त्याग देंगे || २५ ।। 

तस्मादस्मिन्‌ हते शत्रौ हता: सर्वेडहितास्तव । 

शिवेन मां ध्याहि राजन्नेष हन्मि रिपूंस्तव ।। २६ ।। 

“अतः इस अपने शत्रु अभिमन्युके मारे जानेपर आपके सारे दुश्मन स्वतः नष्ट हो 
जायँगे। राजन्‌! आप मेरा कल्याण मनाइये। मैं अभी आपके शत्रुओंका नाश किये देता 
हूँ! ।। २६ |। 

एवमुक्‍क्त्वानदद्‌ राजन पुत्रो दुःशासनस्तव । 

सौभद्रमभ्ययात्‌ क्रुद्ध: शरवर्षरवाकिरन्‌ ।। २७ ।। 

महाराज! ऐसा कहकर आपका पुत्र दुःशासन जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। वह 
क्रोधमें भरकर सुभद्राकुमारपर बाणोंकी वर्षा करता हुआ उसके सामने गया ।। २७ ।। 

तमतिक्ुद्धमायान्तं तव पुत्रमरिंदम: । 

अभिमन्यु: शरैस्तीक्ष्णै: षड्विंशत्या समार्पयत्‌ ।। २८ ।। 

आपके पुत्रको अत्यन्त कुपित हो आते देख शत्रुसूदून अभिमन्युने छब्बीस पैने 
बाणोंद्वारा उसे घायल कर दिया ।। २८ ।। 

दुःशासनस्तु संक्रुद्धः प्रभिन्न इव कुड्जर: । 

अयोधयत सौभद्रमभिमन्युश्न तं रणे ।। २९ ।। 

मदकी धारा बहानेवाले गजराजके समान क्रोधमें भरा हुआ दुःशासन उस रफक्षेत्रमें 
अभिमन्युसे और अभिमन्यु दुःशासनसे युद्ध करने लगे || २९ ।। 

तौ मण्डलानि चित्राणि रथाभ्यां सव्यदक्षिणम्‌ । 

चरमाणावयुध्येतां रथशिक्षाविशारदौ ।। ३० ।। 

रथयुद्धकी शिक्षामें निपुण वे दोनों योद्धा अपने रथोंद्वारा दायें-बायें विचित्र मण्डलाकार 
गतिसे विचरते हुए युद्ध करने लगे ।। ३० ।। 


अथ पणवमृदड्डदुन्दुभीनां 
क्रकचमहानकभेरिझर्झराणाम्‌ । 
निनदमतिभूृशं नराः प्रचक्रु- 
लवणजलोद्धवर्सिहनादमिश्रम्‌ ।। ३१ ।। 
उस समय बाजे बजानेवाले लोग ढोल, मृदंग, दुन्दुभि, क्रकच, बड़ी ढोल, भेरी और 
झाँझके अत्यन्त भयंकर शब्द करने लगे। उसमें शंख और सिंहनादकी भी ध्वनि मिली हुई 
थी ।। ३१ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि दु:ःशासनयुद्धे 
एकोनचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ३९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें दुःशासनयुद्धाविषयक 
उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ३९ ॥। 


अपन का बछ। | अत---#क+ 


चत्वारिशो<5 ध्याय: 
अभिमन्युके द्वारा द:ःशासन और कर्णकी पराजय 


संजय उवाच 

(तत: समभवद्‌ युद्ध तयो: पुरुषसिंहयो: । 

तस्मिन्‌ काले महाबाहु: सौभद्र: परवीरहा ।। 

सशरं कार्मुकं छित्त्वा लाघवेन व्यपातयत्‌ । 

दुःशासनं शरैघोरै: संततक्ष समन्तत: ।।) 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर उन दोनों पुरुषसिंहोंमें घोर युद्ध होने लगा। उस 
समय शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबाहु सुभद्राकुमारने बड़ी फुर्तीके साथ दुःशासनके 
बाणसहित धनुषको काट गिराया और उसे अपने भयंकर बाणोंद्वारा सब ओरसे क्षत-विक्षत 
कर दिया ।। 

शरविक्षतगात्र तु प्रत्यमित्रमवस्थितम्‌ । 

अभिमन्यु: स्मयन्‌ धीमान्‌ दुःशासनमथाब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

इसके बाद बुद्धिमान्‌ अभिमन्यु किंचित्‌ मुसकराकर सामने विपक्षमें खड़े हुए 
दुःशासनसे, जिसका शरीर बाणोंसे अत्यन्त घायल हो गया था, इस प्रकार कहा-- ।। १ ॥। 

दिष्ट्या पश्यामि संग्रामे मानिनं शूरमागतम्‌ । 

निष्ठर॑ त्यक्तर्थर्माणमाक्रोशनपरायणम्‌ ।॥। २ ।। 

“बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मैं युद्धमें सामने आये हुए और अपनेको शूरवीर 
माननेवाले तुझ अभिमानी, निष्ठुर, धर्मत्यागी और दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहनेवाले शत्रुको 
प्रत्यक्ष देख रहा हूँ || २ ।। 

यत्‌ सभायां त्वया राज्ञो धृतराष्ट्रस्य शृण्वत: । 

कोपित: परुषैर्वाक्यैर्थर्मराजो युधिछ्िर: || ३ ।। 

जयोन्मत्तेन भीमश्न बह्चबद्धं प्रभाषित: । 

अक्षकूटं समाश्रित्य सौबलस्यात्मनो बलम्‌ ।। ४ ।। 

तत्‌ त्वयेदमनुप्राप्तं तस्य कोपान्महात्मन: । 

'ओ मूर्ख! तूने द्यूतक्रीडामें विजय पानेसे उन्‍्मत्त होकर सभामें राजा धृतराष्ट्रके सुनते 
हुए जो अपने निष्ठुर वचनोंद्वारा धर्मराज युधिष्ठिरको कुपित किया था और शकुनिके 
आत्मबल--जूएमें छल-कपटका आश्रय लेकर जो भीमसेनके प्रति बहुत-सी अंट-संट बातें 
कही थीं, इससे उन महात्मा धर्मराजको जो क्रोध हुआ, उसीका यह फल है कि तुझे आज 
यह दुर्दिन प्राप्त हुआ है ।। ३-४ ई ।। 

परवित्तापहारस्य क्रोधस्याप्रशमस्य च ।। ५ ।। 


लोभस्य ज्ञाननाशस्य द्रोहस्यात्याहितस्थ च । 

पितृणां मम राज्यस्य हरणस्योग्रधन्विनाम्‌ ।। ६ ।। 

तत्‌ त्वयेदमनुप्राप्तं प्रकोपाद्‌ वै महात्मनाम्‌ । 

“दूसरोंके धनका अपहरण, क्रोध, अशान्ति, लोभ, ज्ञानलोप, द्रोह, दुःसाहसपूर्ण बर्ताव 
तथा मेरे उग्र धनुर्धर पितरोंके राज्यका अपहरण--इन सभी बुराइयोंके फलस्वरूप उन 
महात्मा पाण्डवोंके क्रोधसे तुझे आज यह बुरा दिन प्राप्त हुआ है ।। ५-६६ ।। 

स तस्योग्रमधर्मस्य फल प्राप्रुहि दुर्मते | ७ ।। 

शासितास्म्यद्य ते बाणै: सर्वसैन्यस्य पश्यत: । 

अद्याहमनृणस्तस्य कोपस्य भविता रणे ॥। ८ ।। 

“दुर्मते! तू अपने उस अधर्मका भयंकर फल प्राप्त कर। आज मैं सारी सेनाओंके 
देखते-देखते अपने बाणोंद्वारा तुझे दण्ड दूँगा। आज मैं युद्धमें उन महात्मा पितरोंके उस 
क्रोधका बदला चुकाकर उऋण हो जाऊँगा ।। ७-८ ।। 

अमर्षिताया: कृष्णाया: काड्क्षितस्य च मे पितु: । 

अद्य कौरव्य भीमस्य भवितास्म्यनृणो युधि ॥। ९ ।। 

“कुरुकुलकलंक! आज रोषमें भरी हुई माता कृष्णा तथा पितृतुल्य (ताऊ) भीमसेनका 
अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करके इस युद्धमें उनके ऋणसे उऋण हो जाऊँगा ।। ९ ।। 

न हि मे मोक्ष्यसे जीवन्‌ यदि नोत्सृजसे रणम्‌ | 

एवमुकक्‍्त्वा महाबाहुर्बाणं दुःशासनान्तकम्‌ ।। १० ।। 

संदधे परवीरघ्न: कालाग्न्यनिलवर्चसम्‌ | 

'यदि तू युद्ध छोड़कर भाग नहीं जायगा तो आज मेरे हाथसे जीवित नहीं छूट सकेगा।” 
ऐसा कहकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले महाबाहु अभिमन्युने काल, अग्नि और वायुके 
समान तेजस्वी बाणका संधान किया, जो दुःशासनके प्राण लेनेमें समर्थ था || १०३ ।। 

तस्योरस्तूर्णमासाद्य जन्रुदेशे विभिद्य तम्‌ ।। ११ ।। 

जगाम सह पुड्खेन वल्मीकमिव पन्नग: । 

अथैनं पज्चविंशत्या पुनरेव समार्पयत्‌ ।। १२ ।। 

वह बाण तुरंत ही उसके वक्ष:स्थलपर पहुँचकर उसके गलेकी हँसलीको विदीर्ण करता 
हुआ पंखसहित भीतर घुस गया, मानो कोई सर्प बाँबीमें समा गया हो। तत्पश्चात्‌ 
अभिमन्युने दुःशासनको पचीस बाण और मारे ।। ११-१२ ।। 

शरैरग्निसमस्पर्शैराकर्णसमचोदितै: । 

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।। १३ ।। 

दुःशासनो महाराज कश्मलं चाविशन्महत्‌ | 


धनुषको कानतक खींचकर चलाये हुए उन बाणोंद्वारा, जिनका स्पर्श अग्निके समान 
दाहक था, गहरी चोट खाकर दु:ःशासन व्यथित हो रथकी बैठकमें बैठ गया। महाराज! उस 
समय उसे भारी मूर्च्छा आ गयी || १३३ ।। 

सारथिस्त्वरमाणस्तु दःशासनमचेतनम्‌ ।। १४ ।। 

रणमध्यादपोवाह सौभद्रशरपीडितम्‌ | 

तब अभिमन्युके बाणोंसे पीड़ित एवं अचेत हुए दुःशासनको सारथि बड़ी उतावलीके 
साथ युद्धस्थलसे बाहर हटा ले गया ।। १४३ ।। 

पाण्डवा द्रौपदेयाश्न विराटश्न॒ समीक्ष्य तम्‌ ।। १५ ।। 

पज्चाला: केकयाश्रैव सिंहनादमथानदन्‌ । 

उस समय पाण्डव, पाँचों द्रौपदीकुमार, राजा विराट, पांचाल और केकय दुःशासनको 
पराजित हुआ देख जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे || १५६ ।। 

वादित्राणि च सर्वाणि नानालिड्रानि सर्वश: ।। १६ ।। 

प्रावादयन्त संहृष्टा: पाण्डूनां तत्र सैनिका: | 

अपश्यन्‌ स्मयमानाश्न सौभद्रस्य विचेष्टितम्‌ ।। १७ ।। 

पाण्डवोंके सैनिक वहाँ हर्षमें भरकर नाना प्रकारके सभी रणवाद्य बजाने लगे और 
मुसकराते हुए वे सुभद्राकुमारका पराक्रम देखने लगे || १६-१७ ।। 

अत्यन्तवैरिणं दृप्तं दृष्टवा शत्रुं पपाजितम्‌ । 

धर्ममारुतशक्राणामश्रिनो: प्रतिमास्तथा ।। १८ ।। 

धारयन्तो ध्वजाग्रेषु द्रौपदेया महारथा: । 

सात्यकिश्रेकितानश्च धृष्टद्ुम्नशिखण्डिनौ ।। १९ ।। 

केकया धृष्टकेतुश्व मत्स्या: पज्चालसृज्जया: । 

पाण्डवाश्च मुदा युक्ता युधिष्ठिरपुरोगमा: ।। २० ।। 

अभ्यद्रवन्त त्वरिता द्रोणानीकं॑ बिभित्सव: । 

घमंडमें भरे हुए अपने कट्टर शत्रुको पराजित हुआ देख अपनी ध्वजाओंके अग्रभागमें 
धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनीकुमारोंकी प्रतिमा धारण करनेवाले महारथी द्रौपदीकुमार, 
सात्यकि, चेकितान, धृष्टद्युम्मन, शिखण्डी, केकय-राजकुमार, धृष्टकेतु, मत्स्य, पांचाल, 
सूंजय तथा युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े हर्षके साथ उतावले होकर द्रोणाचार्यके व्यूहका 
भेदन करनेकी इच्छासे उसपर टूट पड़े || १८--२० ३ ।। 

ततो5भवन्महायुद्ध॑ त्वदीयानां परै: सह ।। २१ ।। 

जयमाकाड्क्षमाणानां शूराणामनिवर्तिनाम्‌ | 

तदनन्तर विजयकी अभिलाषा रखकर युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले आपके शूरवीर 
सैनिकोंका शत्रुओंके साथ महान्‌ युद्ध होने लगा || २१ ३ ।। 


तथा तु वर्तमाने वै संग्रामेडतिभयंकरे ।। २२ ।। 

दुर्योधनो महाराज राधेयमिदमब्रवीत्‌ । 

महाराज! जब इस प्रकार अत्यन्त भयंकर संग्राम हो रहा था, उस समय दुर्योधनने 
राधापुत्र कर्णसे यों कहा-- || २२६ ।। 

पश्य दुःशासनं वीरमभिमन्युवशं गतम्‌ ।। २३ ।। 

प्रतपन्तमिवादित्यं निध्नन्तं शात्रवान्‌ रणे । 

“कर्ण! देखो, वीर दु:ःशासन सूर्यके समान शत्रु-सैनिकोंको संतप्त करता हुआ युद्धमें 
उन्हें मार रहा था, इसी अवस्थामें वह अभिमन्युके वशमें पड़ गया है ।। 

अथ चैते सुसंरब्धा: सिंहा इव बलोत्कटा: ।। २४ ।। 

सौभद्रमुद्यतास्त्रातुम भ्यधावन्त पाण्डवा: । 

“इधर ये क्रोधमें भरे हुए पाण्डव सुभद्राकुमारकी रक्षा करनेके लिये उद्यत हो प्रचण्ड 
बलशाली सिंहोंके समान धावा कर चुके हैं" || २४६ ।। 

ततः कर्ण: शरैस्तीक्ष्णैरभिमन्युं दुरासदम्‌ ।। २५ ।। 

अभ्यवर्षत संक्रुद्धः पुत्रस्य हितकृत्‌ तव । 

यह सुनकर आपके पुत्रका हित करनेवाला कर्ण अत्यन्त क्रोधमें भरकर दुर्द्धर्ष वीर 
अभिमन्युपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगा || २५३ || 

तस्य चानुचरांस्ती&णैर्विव्याध परमेषुभि: ।। २६ ।। 

अवज्ञापूर्वकं शूर: सौभद्रस्य रणाजिरे । 

शूरवीर कर्णने समरांगणमें सुभद्राकुमारके सेवकोंको भी तीखे एवं उत्तम बाणोंद्वारा 
अवहेलनापूर्वक बींध डाला || २६३ ।। 

अभिमन्युस्तु राधेयं त्रिसप्तत्या शिलीमुखै: ।। २७ ।। 

अविध्यत्‌ त्वरितो राजन द्रोणं प्रेप्सुमहामना: । 

राजन्‌! उस समय महामनस्वी अभिमन्युने द्रोणाचार्यके समीप पहुँचनेकी इच्छा रखकर 
तुरंत ही तिहत्तर बाणोंद्वारा कर्णको घायल कर दिया ।। २७३ ।। 

तं तथा नाशकत्‌ वक्िद्‌ द्रोणाद्‌ वारयितुं रथी ।। २८ ।। 

आरुजन्तं रथव्रातान्‌ वजहस्तात्मजात्मजम्‌ | 

कोई भी रथी रथसमूहोंको नष्ट-भ्रष्ट करते हुए इन्द्रकुमार अर्जुनके उस पुत्रको 
द्रोणाचार्यकी ओर जानेसे रोक न सका || २८६ ।। 

तत: कर्णो जयप्रेप्सुर्मानी सर्वधनुष्मताम्‌ ।। २९ |। 

सौभद्रंं शतशो<विध्यदुत्तमास्त्राणि दर्शयन्‌ । 

सोस्‍स्त्रैरस्त्रविदां श्रेष्ठोी रामशिष्य: प्रतापवान्‌ ।। ३० ।। 

समरे शत्रुदुर्थर्षमभिमन्युमपीडयत्‌ । 


विजय पानेकी इच्छा रखनेवाला, सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें मानी, अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ, 
परशुरामजीके शिष्य और प्रतापी वीर कर्णने अपने उत्तम अस्त्रोंका प्रदर्शन करते हुए 
सैकड़ों बाणोंद्वारा शत्रुदुर्जय सुभद्राकुमार अभिमन्युको बींध डाला और समरांगणमें उसे 
पीड़ा देना आरम्भ किया || २९-३० |। 

स तथा पीड्यमानस्तु राधेयेनास्त्रवृष्टिभि: ।। ३१ ।। 

समरे5मरसंकाश: सौभद्रो न व्यशीर्यत । 

कर्णके द्वारा उसकी अस्त्रवर्षसे पीड़ित होनेपर भी देवतुल्य अभिमन्यु समरभूमिमें 
शिथिल नहीं हुआ || ३१६ || 

ततः शिलाशितैस्ती&णैर्भल्लैरानतपर्वभि: ।। ३२ ।। 

छित्त्वा धनूंषि शूराणामार्जुनि: कर्णमार्दयत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनकुमारने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए झुकी हुई गाँठवाले तीखे 
भल्‍लोंद्वारा शूरवीरोंके धनुष काटकर कर्णको सब ओरसे पीड़ा दी || ३२६ ।। 

धनुर्मण्डलनिर्मुक्ते: शरैराशीविषोपमै: ।। ३३ ।। 

सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव । 

उसने मुसकराते हुए-से अपने मण्डलाकार धनुषसे छूटे हुए विषधर सर्पोके समान 
भयानक बाणोंद्वारा छत्र, ध्वज, सारथि और घोड़ोंसहित कर्णको शीघ्र ही घायल कर 
दिया || ३३३ || 

कर्णोडपि चास्य चिक्षेप बाणान्‌ संनतपर्वण: ।। ३४ ।। 

असम्भ्रान्तश्न तान्‌ सर्वानिगृह्नात्‌ फाल्गुनात्मज: । 

कर्णने भी उसके ऊपर झुकी हुई गाँठवाले बहुत-से बाण चलाये; परंतु अर्जुनकुमारने 
उन सबको बिना किसी घबराहटके सह लिया || ३४३ ।। 

ततो मुहूर्तात्‌ कर्णस्य बाणेनैकेन वीर्यवान्‌ ।। ३५ ।। 

सध्वजं कार्मुकं वीरश्छित्त्वा भूमावपातयत्‌ । 

तदनन्तर दो ही घड़ीमें पराक्रमी वीर अभिमन्युने एक बाण मारकर कर्णके ध्वजसहित 
धनुषको पृथ्वीपर काट गिराया ।। ३५६ ।। 

ततः कृच्छूगतं कर्ण दृष्टवा कर्णादनन्तर: || ३६ ।। 

सौभद्रम भ्ययात्‌ तूर्ण दृढमुद्यम्य कार्मुकम्‌ । 

तत उच्चुक्रुशु: पार्थास्तिषां चानुचरा जना: । 

वादित्राणि च संजघ्नु: सौभद्रे चापि तुष्ठवु: ।। ३७ ।। 

कर्णको संकटमें पड़ा देख उसका छोटा भाई सुदृढ़ धनुष हाथमें लेकर तुरंत ही 
सुभद्राकुमारका सामना करनेके लिये आ पहुँचा। उस समय कुन्तीके सभी पुत्र और उनके 


अनुगामी सैनिक जोर-जोरसे गरजने, बाजे बजाने और अभिमन्युकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने 
लगे ।। ३६-३७ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि कर्णदुःशासनपरा भवे 
चत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें कर्ण तथा दुःशायनकी 
पराजयविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४० ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं।) 


ऑपन--#ह< बक। ] अत्शफाय: 


एकचत्वारिशो< ध्याय: 


अभिमन्युके द्वारा कर्णके भाईका वध तथा कौरव-सेनाका 
संहार और पलायन 


संजय उवाच 

सो5तिगर्जन्‌ धनुष्पाणिज्यां विकर्षन्‌ पुनः पुन: । 

तयोर्महात्मनोस्तूर्ण रथान्तरमवापतत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! कर्णका वह भाई हाथमें धनुष ले अत्यन्त गरजता और 
प्रत्यंचाको बार-बार खींचता हुआ तुरंत ही उन दोनों महामनस्वी वीरोंके रथोंके बीचमें आ 
पहुँचा ।। १ |। 

सो<विध्यद्‌ दशभिर्बाणैरभिमन्युं दुरासदम्‌ । 

सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव ।। २ ।। 

उसने मुसकराते हुए-से दस बाण मारकर दुर्जय वीर अभिमन्युको छत्र, ध्वजा, सारथि 
और घोड़ोंसहित शीघ्र ही घायल कर दिया ।। २ ।। 

पितृपैतामहं कर्म कुर्वाणमतिमानुषम्‌ । 

दृष्टवार्दितं शरै: कार्ष्णि त्वदीया हृषिता5भवन्‌ ।। ३ |। 

अपने पिता-पितामहोंके अनुसार मानवीय शक्तिसे बढ़कर पराक्रम प्रकट करनेवाले 
अर्जुनकुमार अभिमन्युको उस समय बाणोंसे पीड़ित देखकर आपके सैनिक हर्षसे खिल 
उठे ॥। ३ ।। 

तस्याभिमन्युरायम्य स्मयन्नेकेन पत्रिणा । 

शिर: प्रच्यावयामास तद्रथात्‌ प्रापतद्‌ भुवि ।। ४ ।। 

कर्णिकारमिवाधूतं वातेनापतितं नगात्‌ | 

तब अभिमन्युने मुसकराते हुए-से अपने धनुषको खींचकर एक ही बाणसे कर्णके 
भाईका मस्तक धड़से अलग कर दिया। उसका वह सिर रथसे नीचे पृथ्वीपर गिर पड़ा, 
मानो वायुके वेगसे हिलकर उखड़ा हुआ कनेरका वृक्ष पर्ववशिखरसे नीचे गिर गया हो ।। ४ 


५ 
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442 


भ्रातरं निहतं दृष्टवा राजन्‌ कर्णो व्यथां ययौ ।। ५ ।। 

विमुखीकृत्य कर्ण तु सौभद्र: कड़कपत्रिभि: | 

अन्यानपि महेष्वासांस्तूर्णमेवाभिदुद्रुवे || ६ ।। 

राजन्‌! अपने भाईको मारा गया देख कर्णको बड़ी व्यथा हुई। इधर सुभद्राकुमार 
अभिमन्युने गीधकी पाँखवाले बाणोंद्वारा कर्णको युद्धसे भगाकर दूसरे-दूसरे महाधनुर्धर 
वीरोंपर भी तुरंत ही धावा किया ।। ५-६ |। 

ततस्तद्‌ू विततं सैन्यं हस्त्यश्वरथपत्तिमत्‌ । 

क्रुद्धोडभिमन्युरभिनत्‌ तिग्मतेजा महारथ: ।। ७ ।। 

उस समय क्रोधमें भरे हुए प्रचण्ड तेजस्वी महारथी अभिमन्युने हाथी, घोड़े, रथ और 
पैदलोंसे युक्त उस विशाल चतुरंगिणी सेनाको विदीर्ण कर डाला || ७ ।। 

कर्णस्तु बहुभिर्बाणैर््यमानो5$भिमन्युना । 

अपायाज्जवनैरश्वैस्ततो $नीकम भज्यत ।। ८ ।। 

अभिमन्युके चलाये हुए बहुसंख्यक बाणोंसे पीड़ित हुआ कर्ण अपने वेगशाली 
घोड़ोंकी सहायतासे शीघ्र ही रणभूमिसे भाग गया। इससे सारी सेनामें भगदड़ मच 
गयी ।। ८ ।। 

शलभैरिव चाकाशे धाराभिरिव चावृते । 

अभिमन्यो: शरै राजन न प्राज्ञायत किंचन ।। ९ ।। 

राजन्‌! उस दिन अभिमन्युके बाणोंसे सारा आकाशमण्डल इस प्रकार आच्छादित हो 
गया था, मानो टिड्डीदलोंसे अथवा वर्षाकी धाराओंसे व्याप्त हो गया हो। उस आकाशमें 
कुछ भी सूझता नहीं था || ९ ।। 


तावकानां तु योधानां वध्यतां निशितै: शरैः । 

अन्यत्र सैन्धवाद्‌ राजन्‌ न सम कश्चिदतिष्ठत ।। १० ।। 

महाराज! पैने बाणोंद्वारा मारे जाते हुए आपके योद्धाओंमेंसे सिंधुराज जयद्रथको 
छोड़कर दूसरा कोई वहाँ ठहर न सका ।। १० ।। 

सौभद्रस्तु तत: शड्खं प्रध्माप्य पुरुषर्षभ: । 

शीघ्रमभ्यपतत्‌ सेनां भारतीं भरतर्षभ ।। ११ ।। 

भरतश्रेष्ठ] तब पुरुषप्रवर सुभद्राकुमार अभिमन्युने शंख बजाकर पुनः शीघ्र ही 
भारतीय सेनापर धावा किया ।। 

स कक्षेडग्निरिवोत्सृष्टो निर्दहंस्तरसा रिपून्‌ | 

मध्ये भारतसैन्यानामार्जुनि: पर्यवर्तत ।। १२ ।। 

सूखे जंगलमें छोड़ी हुई आगके समान वेगसे शत्रुओंको दग्ध करता हुआ अभिमन्यु 
कौरव-सेनाके बीचमें विचरने लगा || १२ ।। 

रथनागाश्वमनुजानर्दयन्‌ निशितै: शरै: । 

सम्प्रविश्याकरोद्‌ भूमिं कबन्धगणसंकुलाम्‌ ।। १३ ।। 

उस सेनामें प्रवेश करके उसने अपने तीखे बाणोंद्वारा रथों, हाथियों, घोड़ों और पैदल 
मनुष्योंको पीड़ित करते हुए सारी रणभूमिको बिना मस्तकके शरीरोंसे पाट दिया ।। १३ ।। 

सौभद्रचापप्रभवैर्निकृत्ता: परमेषुभि: । 

स्वानेवाभिमुखान्‌ घ्नन्तः प्राद्रवन्‌ जीवितार्थिन: ।। १४ ।। 

सुभद्राकुमारके धनुषसे छूटे हुए उत्तम बाणोंसे क्षत-विक्षत हो आपके सैनिक अपने 
जीवनकी रक्षाके लिये सामने आये हुए अपने ही पक्षके योद्धाओंको मारते हुए भाग 
चले ।। १४ ।। 

ते घोरा रौद्रकर्माणो विपाठा बहव: शिता: । 

निघ्नन्तो रथनागाश्चान्‌ जग्मुराशु वसुंधराम्‌ ।। १५ ।। 

अभिमन्युके वे भयंकर कर्म करनेवाले, घोर, तीक्ष्ण और बहुसंख्यक विपाठ नामक 
बाण आपके रथों, हाथियों और घोड़ोंको नष्ट करते हुए शीघ्र ही धरतीमें समा जाते 
थे।। १५ |। 

सायुधा: साड्गुलित्राणा: सगदा: साड्दा रणे । 

दृश्यन्ते बाहवश्छिन्ना हेमाभरणभूषिता: ।। १६ ।। 

उस युद्धमें आयुध, दस्ताने, गदा और बाजूबंदसहित वीरोंकी सुवर्णभूषण-भूषित 
भुजाएँ कटकर गिरी दिखायी देती थीं ।। १६ ।। 

शराक्षापानि खड्गाश्न शरीराणि शिरांसि च | 

सकुण्डलानि स्रग्वीणि भूमावासन्‌ सहस्रशः ।। १७ ।। 


उस युद्धभूमिमें धनुष, बाण, खड्ग, शरीर तथा हार और कुण्डलोंसे विभूषित मस्तक 
सहस्रोंकी संख्यामें छिन्न-भिन्न होकर पड़े थे || १७ |। 

सोपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डैश्व बन्धुरै: । 

अक्षविमिथितैश्नक्रैर्बहुधा पतितैर्युगै: ।। १८ ।। 

शक्तिचापासिभिश्रैव पतितैश्न महाध्वजै: । 

चर्मचापशरैश्लैव व्यवकीर्ण: समन्तत: ।। १९ || 

निहतै: क्षत्रियैरश्वेर्वरिणैश्व विशाम्पते । 

अगम्यरूपा पृथिवी क्षणेनासीत्‌ सुदारुणा || २० || 

आवश्यक सामग्री, बैठक, ईषादण्ड, बन्धुर, अक्ष, पहिए और जूए चूर-चूर और टुकड़े- 
टुकड़े होकर गिरे थे। शक्ति, धनुष, खड़्ग, गिरे हुए विशाल ध्वज, ढाल और बाण भी छिज्न- 
भिन्न होकर सब ओर बिखरे पड़े थे। प्रजानाथ! बहुत-से क्षत्रिय, घोड़े और हाथी भी मारे 
गये थे। इन सबके कारण वहाँकी भूमि क्षणभरमें अत्यन्त भयंकर और अगम्य हो गयी 
थी || १८--२० ।। 

वध्यतां राजपुत्राणां क्रन्दतामितरेतरम्‌ । 

प्रादुरासीन्महाशब्दो भीरूणां भयवर्धन: ।। २१ ।। 

बाणोंकी चोट खाकर परस्पर क्रन्दन करते हुए राजकुमारोंका महान्‌ शब्द सुनायी 
पड़ता था, जो कायरोंका भय बढ़ानेवाला था || २१ ।। 

स शब्दो भरतश्रेष्ठ दिश: सर्वा व्यनादयत्‌ । 

सौभद्रश्नाद्रवत्‌ सेनां घ्नन्‌ वराश्वरथद्विपान्‌ ।। २२ ।। 

भरतश्रेष्ठ। वह शब्द सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित कर रहा था। सुभद्राकुमार श्रेष्ठ 
घोड़ों, रथों और हाथियोंका संहार करता हुआ कौरव-सेनापर टूट पड़ा था | २२ ।। 

कक्षमग्निरिवोत्सृष्टो निर्दहंस्तरसा रिपून्‌ | 

मध्ये भारतसैन्यानामार्जुनि: प्रत्यदृश्यत ।। २३ ।। 

सूखे जंगलमें छोड़ी हुई आगकी भाँति अर्जुनकुमार अभिमन्यु वेगसे शत्रुओंको दग्ध 
करता हुआ कौरव-सेनाओंके बीचमें दृष्टिगोचर हो रहा था ।। २३ ।। 

विचरन्तं दिश: सर्वा: प्रदिशश्चापि भारत । 

तं॑ तदा नानुपश्याम: सैन्ये च रजसा5<वृते ।। २४ ।। 

भारत! धूलसे आच्छादित हुई सेनाके भीतर सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओंमें विचरते 
हुए अभिमन्युको उस समय हमलोग देख नहीं पाते थे ।। २४ ।। 

आददानं गजाश्चानां नृणां चायूंषि भारत । 

क्षणेन भूय: पश्याम: सूर्य मध्यंदिने यथा ।। २५ ।। 

अभिमन्युं महाराज प्रतपन्तं द्विषद्गणान्‌ । 

स वासवसम: संख्ये वासवस्यात्मजात्मज: । 


अभिमन्युर्महाराज सैन्यमध्ये व्यरोचत ।। २६ ।। 

(यथा पुरा वल्लिसुतो5सुरसैन्येषु वीर्यवान्‌ ।) 

भरतनन्दन! हाथियों, घोड़ों और पैदलसैनिकोंकी आयुको छीनते हुए अभिमन्युको 
हमने क्षणभरमें दोपहरके सूर्यकी भाँति शत्रुसेनाको पुनः तपाते देखा था। महाराज! 
इन्द्रकुमार अर्जुनका वह पुत्र युद्धमें इन्द्रके समान पराक्रमी जान पड़ता था। जैसे पूर्वकालमें 
पराक्रमी कुमार कार्तिकेय असुरोंकी सेनामें उसका संहार करते हुए सुशोभित होते थे, उसी 
प्रकार अभिमन्यु कौरव-सेनामें विचरता हुआ शोभा पा रहा था ।। २५-२६ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे 
एकचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिगनन्‍्युवधपर्वमें आभिमन्युका 
पराक्रमविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४१ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका $ “लोक मिलाकर कुल २६६ “लोक हैं।) 


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द्विचत्वारिशोड ध्याय: 


अभिमन्युके पीछे जानेवाले पाण्डवोंको जयद्रथका वरके 
प्रभावसे रोक देना 


धृतराष्ट उवाच 

बालमत्यन्तसुखिनं स्वबाहुबलदर्पितम्‌ । 

युद्धेषु कुशलं वीरं कुलपुत्र॑ तनुत्यजम्‌ ।। १ ।। 

गाहमानमनीकानि सदश्नैश्न त्रिहायनै: । 

अपि यौधिष्ठिरात्‌ सैन्यात्‌ कश्चिदन्‍्वपतद्‌ बली ॥। २ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! अत्यन्त सुखमें पला हुआ वीर बालक अभिमन्यु युद्धमें कुशल 
था। उसे अपने बाहुबलपर गर्व था। वह उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके कारण अपने शरीरको 
निछावर करके युद्ध कर रहा था। जिस समय वह तीन सालकी अवस्थावाले उत्तम घोड़ोंके 
द्वारा मेरी सेनाओंमें प्रवेश कर रहा था, उस समय युधिष्ठिरकी सेनासे क्या कोई बलवान्‌ 
वीर उसके पीछे-पीछे व्यूहके भीतर आ सका था? ।। 

संजय उवाच 

युधिष्ठिरो भीमसेन: शिखण्डी सात्यकिर्यमौ । 

धृष्टद्युम्नो विराटश्न द्रपदश्च सकेकय: ।। ३ ।। 

धृष्टकेतुश्व संरब्धो मत्स्याश्वाभ्यपतन्‌ रणे । 

तेनैव तु पथा यान्तः पितरो मातुलै: सह ।। ४ ।। 

अभ्यद्रवन्‌ परीप्सन्तो व्यूढानीका: प्रहारिण: । 

संजयने कहा--राजन! युधिष्ठिर, भीमसेन, शिखण्डी, सात्यकि, नकुल-सहदेव, 
धष्टद्युम्न, विराट, द्रपद, केकय-राजकुमार, रोषमें भरा हुआ धृष्टकेतु तथा मत्स्यदेशीय योद्धा 
--ये सब-के-सब युद्धस्थलमें आगे बढ़े। अभिमन्युके ताऊ, चाचा तथा मामागण अपनी 
सेनाको व्यूहद्वारा संगठित करके प्रहार करनेके लिये उद्यत हो अभिमन्युकी रक्षाके लिये 
उसीके बनाये हुए मार्गसे व्यूहमें जानेके उद्देश्यसे एक साथ दौड़ पड़े || ३-४३ ।। 

तान्‌ दृष्टवा द्रवत: शूरांस्त्ववीया विमुखा5भवन्‌ ।। ५ ।। 

ततस्तद्‌ विमुखं दृष्टवा तव सूनोर्महद्‌ बलम्‌ । 

जामाता तव तेजस्वी संस्तम्भयिषुराद्रवत्‌ ।। ६ ।। 

उन शूरवीरोंको आक्रमण करते देख आपके सैनिक भाग खड़े हुए। आपके पुत्रकी 
विशाल सेनाको रणसे विमुख हुई देख उसे स्थिरतापूर्वक स्थापित करनेकी इच्छासे आपका 
तेजस्वी जामाता जयद्रथ वहाँ दौड़ा हुआ आया ।। ५-६ ।। 


सैन्धवस्य महाराज पुत्रो राजा जयद्रथ: । 

स पुत्रगृद्धिन: पार्थान्‌ सहसैन्यानवारयत्‌ ।। ७ ।। 

महाराज! सिंधुनरेशके पुत्र राजा जयद्रथने अपने पुत्रको बचानेकी इच्छा रखनेवाले 
कुन्तीकुमारोंकोी सेनासहित आगे बढ़नेसे रोक दिया || ७ ।। 

उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यमस्त्रमुदीरयन्‌ । 

वार्थक्षत्रिरुपासेधत्‌ प्रवणादिव कुज्जर: ।। ८ ।। 

जैसे हाथी नीची भूमिमें आकर वहींसे शत्रुका निवारण करता है, उसी प्रकार भयंकर 
एवं महान्‌ धनुष धारण करनेवाले वृद्धक्षत्रकुमार जयद्रथने दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करके 
शत्रुओंकी प्रगति रोक दी ।। ८ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

अतिभारमहं मन्ये सैन्धवे संजयाहितम्‌ । 

यदेक: पाण्डवान क्रुद्धान्‌ पुत्रप्रेप्सूनवारयत्‌ ।। ९ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! मैं तो समझता हूँ, सिंधुराज जयद्रथपर यह बहुत बड़ा भार 
आ पड़ा था, जो अकेले होनेपर भी उसने पुत्रकी रक्षाके लिये उत्सुक एवं क्रोधमें भरे हुए 
पाण्डवोंको रोका ।। ९ |। 

अत्यद्भुतमहं मन्ये बल॑ शौर्य च सैन्धवे । 

तस्य प्रब्रूहि मे वीर्य कर्म चाग्र्यं महात्मन: ।। १० ।। 

सिंधुराजमें ऐसे बल और शौर्यका होना मैं अत्यन्त आश्चर्यकी बात मानता हूँ। महामना 
जयद्रथके बल और श्रेष्ठ पराक्रमका मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन करो ।। 

किं दत्तं हुतमिष्टं वा कि सुतप्तमथो तप: । 

सिंधुराजो हि येनैक: पाण्डवान्‌ समवारयत्‌ ।। ११ ।। 

सिंधुराजने कौन-सा ऐसा दान, होम, यज्ञ अथवा उत्तम तप किया था, जिससे वह 
अकेला ही समस्त पाण्डवोंको रोकनेमें समर्थ हो सका ।। ११ ।। 

(दमो वा ब्रह्मचर्य वा सूत यच्चास्य सत्तम । 

देवं कतममाराध्य विष्णुमीशानमब्जजम्‌ ।। 

सिन्धुराट्‌ तनये सक्तान्‌ क्रुद्ध: पार्थानवारयत्‌ | 

नैवं कृतं महत्‌ कर्म भीष्मेणाज्ञासिषं तथा ।।) 

साधुशिरोमणे सूत! जयद्रथमें जो इन्द्रियसंयम अथवा ब्रह्मचर्य हो, वह बताओ। विष्णु, 
शिव अथवा ब्रह्मा किस देवताकी आराधना करके सिन्धुराजने अपने पुत्रकी रक्षामें तत्पर 
हुए पाण्डवोंको क्रोधपूर्वक रोक दिया? भीष्मने भी ऐसा महान्‌ पराक्रम किया हो, उसका 
पता मुझे नहीं है। 


संजय उवाच 


द्रौपदीहरणे यत्‌ तद्‌ भीमसेनेन निर्जित: । 

मानात्‌ स तप्तवान्‌ राजा वरार्थी सुमहत्‌ तप: ।। १२ ।। 

संजयने कहा--महाराज! द्रौपदीहरणके प्रसंगमें जो जयद्रथको भीमसेनसे पराजित 
होना पड़ा था, उसीसे अभिमानवश अपमानका अनुभव करके राजाने वर प्राप्त करनेकी 
इच्छा रखकर बड़ी भारी तपस्या की ।। १२ ।। 

इन्द्रियाणीद्धरियार्थेभ्य: प्रियेभ्य: संनिवर्त्य सः । 

क्षुत्पिपासातपसह: कृशो धमनिसंततः ।। १३ ।। 

प्रिय लगनेवाले विषयोंकी ओरसे सम्पूर्ण इन्द्रियोंको हटाकर भूख-प्यास और धूपका 
कष्ट सहन करता हुआ जयद्रथ अत्यन्त दुर्बल हो गया। उसके शरीरकी नस-नाड़ियाँ 
दिखायी देने लगीं ।। १३ ।। 

देवमाराधयच्छर्व॑ गृणन्‌ ब्रह्म सनातनम्‌ । 

भक्तानुकम्पी भगवांस्तस्य चक्रे ततो दयाम्‌ ।। १४ ।। 

स्वप्रान्तेडप्यथ चैवाह हर: सिन्धुपते: सुतम्‌ । 

वरं वृणीष्व प्रीतो5स्मि जयद्रथ किमिच्छसि ।। १५ ।। 

वह सनातन ब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ शंकरकी स्तुति करता हुआ उनकी आराधना करने 
लगा। तब भक्तोंपर दया करनेवाले भगवानने उसपर कृपा की और स्वप्रमें जयद्रथको दर्शन 
देकर उससे कहा--'जयद्रथ! तुम क्या चाहते हो? वर माँगो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न 
हूँ” ।। १४-१५ |। 

एवमुक्तस्तु शर्वेण सिन्धुराजो जयद्रथ: । 

उवाच प्रणतो रुद्रं प्राजजलिरनियतात्मवान्‌ ।। १६ ।। 

भगवान्‌ शंकरके ऐसा कहनेपर सिंधुराज जयद्रथने अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें 
रखकर उन रुद्रदेवको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा-- ।। १६ || 





पाण्डवेयानहं संख्ये भीमवीर्यपराक्रमान्‌ | 

वारयेयं रथेनैक: समस्तानिति भारत ।। १७ ।। 

एवमुक्तस्तु देवेशो जयद्रथमथाब्रवीत्‌ | 

ददामि ते वरं सौम्य विना पार्थ धनंजयम्‌ ।। १८ ।। 

वारयिष्यसि संग्रामे चतुरः पाण्डुनन्दनान्‌ । 

एवमस्त्विति देवेशमुक्त्वाबुद्धात पार्थिव: ।। १९ ।। 

'प्रभो! मैं युद्धमें भयंकर बल-पराक्रमसे सम्पन्न समस्त पाण्डवोंको अकेला ही रथके 
द्वारा परास्त करके आगे बढ़नेसे रोक दूँ"। भारत! उसके ऐसा कहनेपर देवेश्वर भगवान्‌ 
शिवने जयद्रथसे कहा--'सौम्य! मैं तुम्हें वर देता हूँ। तुम कुन्तीपुत्र अर्जुनको छोड़कर शेष 
चार पाण्डवोंको (एक दिन) युद्धमें आगे बढ़नेसे रोक दोगे।” तब देवेश्वर महादेवसे 
“एवमस्तु' कहकर राजा जयद्रथ जाग उठा ।। १७--१९ || 

स तेन वरदानेन दिव्येनास्त्रबलेन च । 

एक: संवारयामास पाण्डवानामनीकिनीम्‌ ।। २० ।। 

उसी वरदानसे अपने दिव्य अस्त्र-बलके द्वारा जयद्रथने अकेले ही पाण्डवोंकी सेनाको 
रोक दिया ।। २० ।। 

तस्य ज्यातलघोषेण क्षत्रियान्‌ भयमाविशत्‌ | 

परांस्तु तव सैन्यस्य हर्ष: परमको5भवत्‌ ।। २१ || 


उसके धनुषकी टंकार सुनकर शत्रुपक्षके क्षत्रियोंके मनमें भय समा गया; परंतु आपके 
सैनिकोंको बड़ा हर्ष हुआ || २१ ।। 

दृष्टवा तु क्षत्रिया भारं सैन्धवे सर्वमाहितम्‌ । 

उत्क्कुश्याभ्यद्रवन्‌ राजन्‌ येन यौधिष्ठिरं बलम्‌ ।। २२ ।। 

राजन! उस समय सारा भार जयद्रथके ही ऊपर पड़ा देख आपके क्षत्रियवीर 
कोलाहल करते हुए जिस ओर युधिष्ठिरकी सेना थी, उसी ओर टूट पड़े ।। २२ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि जयद्रथयुद्धे द्विचत्वारिंशो 5ध्याय: 
॥| ४२ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें जयद्रथयुद्धविषयक 
बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं।) 


ऑपन-आ प्रात | अर: 


त्रिचत्वारिशो<्ध्याय: 


पाण्डवोंके साथ जयद्रथका युद्ध और व्यूहद्वारको रोक 
रखना 


संजय उवाच 

यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सिन्धुराजस्य विक्रमम्‌ । 

शृणु तत्‌ सर्वमाख्यास्थे यथा पाण्डूनयोधयत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजेन्द्र! आप मुझसे जो सिंधुराज जयद्रथके पराक्रमका समाचार 
पूछ रहे हैं, वह सब सुनिये। उसने जिस प्रकार पाण्डवोंके साथ युद्ध किया था, वह सारा 
वृत्तान्त बताऊँगा ।। १ |। 

तमूहुवाजिनो वश्या: सैन्धवा: साधुवाहिन: । 

विकुर्वाणा बृहन्तो5श्वा: श्वसनोपमरंहस: ।। २ ।। 

सारथिके वशमें रहकर अच्छी तरह सवारीका काम देनेवाले, वायुके समान वेगशाली 
तथा नाना प्रकारकी चाल दिखाते हुए चलनेवाले सिंधुदेशीय विशाल अश्व जयद्रथको वहन 
करते थे ।। २ ।। 

गन्धर्वनगराकारं विधिवत्कल्पितं रथम्‌ । 

तस्याभ्यशो भयत्‌ केतुर्वाराहो राजतो महान्‌ ।। ३ ।। 

विधिपूर्वक सजाया हुआ उसका रथ गन्धर्वनगरके समान जान पड़ता था। उसका 
रजतनिर्मित एवं वाराह-चिह्नसे युक्त महान्‌ ध्वज उसके रथकी शोभा बढ़ा रहा था ।। ३ ।। 

श्वैतच्छत्रपताकाभि क्षामरव्यजनेन च । 

स बभौ राजलिजड्लैस्तैस्तारापतिरिवाम्बरे || ४ ।। 

श्वेत छत्र, पताका, चँवर और व्यजन--इन राजचिह्वोंसे वह आकाशकमें चन्द्रमाकी भाँति 
सुशोभित हो रहा था ।। ४ ।। 

मुक्तावज़मणिस्वर्णर्भूषितं तदयस्मयम्‌ । 

वरूथं विबभौ तस्य ज्योतिर्भि: खमिवावृतम्‌ ।। ५ ।। 

उसके रथका मुक्ता, मणि, सुवर्ण तथा हीरोंसे विभूषित लोहमय आवरण नक्षत्रोंसे 
व्याप्त हुए आकाशके समान सुशोभित होता था ।। ५ ।। 

स विस्फार्य महच्चापं किरजन्निषुगणान्‌ बहून्‌ । 

तत्‌ खण्डं पूरयामास यद्‌ व्यदारयदार्जुनि: ।। ६ ।। 

उसने अपना विशाल धनुष फैलाकर बहुत-से बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए व्यूहके उस 
भागको योद्धाओंद्वारा भर दिया, जिसे अभिमन्युने तोड़ डाला था ।। 


स सात्यकिं त्रिभिबाणिरष्टभिश्न वृकोदरम्‌ । 

धृष्टय्युम्नं तथा षष्ट्या विराट दशभि: शरै: ।। ७ ।। 

द्रुपदं पज्चभिस्ती3्ष्णै: सप्तभिश्न शिखण्डिनम्‌ | 

केकयान्‌ पज्चविंशत्या द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभि: ।। ८ ।। 

युधिष्टिरं तु सप्तत्या तत: शेषानपानुदत्‌ । 

इषुजालेन महता तदद्धभुतमिवाभवत्‌ ।। ९ ।। 

उसने सात्यकिको तीन, भीमसेनको आठ, धृष्टद्युम्नको साठ, विराटको दस, ट्रुपदको 
पाँच, शिखण्डीको सात, केकयराजकुमारोंको पचीस, द्रौपदीपुत्रोंकी तीन-तीन तथा 
युधिष्ठिरको सत्तर तीखे बाणोंद्वारा घायल कर दिया। तत्पश्चात्‌ बाणोंका बड़ा भारी जाल-सा 
बिछाकर उसने शेष सैनिकोंकों भी पीछे हटा दिया। यह एक अद्भुत-सी बात थी | ७-- 
९ || 

अथास्य शितपीतेन भल्लेनादिश्य कार्मुकम्‌ 

चिच्छेद प्रहसन्‌ राजा धर्मपुत्र: प्रतापवान्‌ ।। १० ।। 

तब प्रतापी राजा धर्मपुत्र युधिष्ठिने एक तीखे और पानीदार भल्लके द्वारा उसके 
धनुषको काटनेकी घोषणा करके हँसते-हँसते काट डाला || १० ।। 

अक्ष्णोनिमिषमात्रेण सो5न्यदादाय कार्मुकम्‌ | 

विव्याध दशभि: पार्थ तांश्षैवान्यांस्त्रिभिस्त्रिभि: ।। ११ ।। 


न"पैपपपपमपपभै।शणजजज-ज- कई प"+/फ/त7एक्‍शन्‍क। - पा: 
ल्‍्ः ना श्र 


नह रा 
ः 





उस समय जयद्रथने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथमें लेकर युधिष्ठिरको दस तथा 
अन्य वीरोंको तीन-तीन बाणोंसे बींध डाला || ११ ।। 

तत्‌ तस्य लाघवं ज्ञात्वा भीमो भल्लैस्त्रिभिस्त्रिभि: | 

धनुर्ध्वजं च च्छत्र॑ च क्षितौ क्षिप्रमपातयत्‌ ।। १२ ।। 

उसकी इस फुर्तीको देख और समझकर भीमसेनने तीन-तीन भल्लोंद्वारा उसके धनुष, 
ध्वज और छत्रको शीघ्र ही पृथ्वीपर काट गिराया ।। १२ ।। 

सोडन्यदादाय बलवान्‌ सज्यं कृत्वा च कार्मुकम्‌ । 

भीमस्यापातयत्‌ केतु धनुरश्चांश्ष मारिष ।। १३ ।। 

आर्य! तब उस बलवान वीरने दूसरा धनुष ले उसपर प्रत्यंचा चढ़ाकर भीमके धनुष, 
ध्वज और घोड़ोंको धराशायी कर दिया ।। १३ ।। 

स हताश्चादवप्लुत्य च्छिन्नधन्वा रथोत्तमात्‌ | 

सात्यकेराप्लुतो यान गिर्यग्रमिव केसरी ।। १४ ।। 


धनुष कट जानेपर अपने अश्वहीन उत्तम रथसे कूदकर भीमसेन सात्यकिके रथपर जा 
बैठे, मानो कोई सिंह पर्वतके शिखरपर जा चढ़ा हो ।। १४ ।। 

ततस्त्वदीया: संहृष्टा: साधु साध्विति वादिन: । 

सिन्धुराजस्य तत्‌ कर्म प्रेक्ष्याश्रद्धेयमद्भुतम्‌ ।। १५ ।। 

सिंधुराजके उस अद्भुत पराक्रमको, जो सुननेपर विश्वास करनेयोग्य नहीं था, प्रत्यक्ष 
देख आपके सभी सैनिक अत्यन्त हर्षमें भरकर उसे साधुवाद देने लगे ।। १५ ।। 

संक्रुद्धान्‌ पाण्डवानेको यद्‌ दधारास्त्रतेजसा । 

तत्‌ तस्य कर्म भूतानि सर्वाण्येवाभ्यपूजयन्‌ ।। १६ ।। 

जयद्रथने अकेले ही अपने अस्त्रोंके तेजसे जो क्रोधमें भरे हुए पाण्डवोंको रोक लिया, 
उसके उस पराक्रमकी सभी प्राणी प्रशंसा करने लगे ।। १६ ।। 

सौभद्रेण हतै: पूर्व सोत्तरायोधिभिर्दिपै: । 

पाण्डूनां दर्शित: पन्था: सैन्धवेन निवारित: ।। १७ ।। 

सुभद्राकुमार अभिमन्युने पहले गजारोहियोंसहित बहुत-से गजराजोंको मारकर व्यूहमें 
प्रवेश करनेके लिये जो पाण्डवोंको मार्ग दिखा दिया था, उसे जयद्रथने बंद कर दिया ।। 

यतमानास्तु ते वीरा मत्स्यपञ्चालकेकया: । 

पाण्डवाश्नान्वपद्यन्त प्रतिशेकुर्न सैन्धवम्‌ ॥। १८ ।। 

वे वीर मत्स्य, पांचाल, केकय तथा पाण्डव बारंबार प्रयत्न करके व्यूहपर आक्रमण 
करते थे; परंतु सिंधुराजके सामने टिक नहीं पाते थे ।। १८ ।। 

यो यो हि यतते भेत्तुं द्रोणानीकं तवाहितः । 

त॑ तमेव वर प्राप्य सैन्धव: प्रत्यवारयत्‌ ।। १९ ।। 

आपका जो-जो शत्रु द्रोणाचार्यके व्यूहको तोड़नेका प्रयत्न करता, उसी-उसी श्रेष्ठ 
वीरके पास पहुँचकर जयद्रथ उसे रोक देता था ।। १९ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि जयद्रथयुद्धे त्रिचत्वारिंशो 5 ध्याय: 

|| ४३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वरमें जयद्रथका युद्धविषयक 
तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४३ ॥। 


ऑपन-मा_ज बछ। ऑफर 


चतुश्नत्वारिशो< ध्याय: 


अभिमन्युका पराक्रम और उसके द्वारा वसातीय आदि 
अनेक योद्धाओंका वध 


संजय उवाच 

सैन्धवेन निरुद्धेषु जयगृद्धिषु पाण्डुषु । 

सुघोरमभवदसयुद्ध॑ त्वदीयानां परै: सह ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! विजयकी अभिलाषा रखनेवाले पाण्डवोंको जब सिंधुराज 
जयद्रथने रोक दिया, उस समय आपके सैनिकोंका शत्रुओंके साथ बड़ा भयंकर युद्ध 
हुआ ।। १ || 

प्रविश्याथार्जुनि: सेनां सत्यसंधो दुरासद: । 

व्यक्षो भयत तेजस्वी मकर: सागरं यथा ॥। २ ।। 

तदनन्तर सत्यप्रतिज्ञ दुर्धष और तेजस्वी वीर अभिमन्युने आपकी सेनाके भीतर 
घुसकर इस प्रकार तहलका मचा दिया, जैसे बड़ा भारी मगर समुद्रमें हलचल पैदा कर देता 
है।। २ ।। 

त॑ तथा शरवर्षेण क्षोभयन्तमरिन्दमम्‌ । 

यथा प्रधाना: सौभद्रमभ्ययू रथसत्तमा: ।। ३ ।। 

इस प्रकार बाणोंकी वर्षासे कौरवसेनामें हलचल मचाते हुए शत्रुदमन सुभद्राकुमारपर 
आपकी सेनाके प्रधान-प्रधान महारथियोंने एक साथ आक्रमण किया ।। ३ ।। 

तेषां तस्य च सम्मर्दो दारुग: समपद्यत | 

सृजतां शरवर्षाणि प्रसक्तममितौजसाम्‌ ।। ४ ।। 

उस समय अति तेजस्वी कौरव योद्धा परस्पर सटे हुए बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। उनके 
साथ अभिमन्युका भयंकर युद्ध होने लगा ।। ४ ।। 

रथव्रजेन संरुद्धस्तैरमित्रैस्तथा5<र्जुनि: । 

वृषसेनस्य यन्तारं हत्वा चिच्छेद कार्मुकम्‌ । ५ ।। 

यद्यपि शत्रुओंने अपने रथसमूहके द्वारा अर्जुनकुमार अभिमन्युको सब ओरसे घेर 
लिया था, तो भी उसने वृषसेनके सारथिको घायल करके उसके धनुषको भी काट 
डाला || ५ || 

तस्य विव्याध बलवान्‌ शरैरश्वानजिद्दागै: । 

वातायमानैरथ तैरश्वैरपह्तो रणात्‌ ।। ६ ।। 


तब बलवान वृषसेन अपने सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा अभिमन्युके घोड़ोंको बींधने 
लगा। इससे उसके घोड़े हवाके समान वेगसे भाग चले। इस प्रकार उन अअश्रोंद्वारा वह 
रणभूमिसे दूर पहुँचा दिया गया ।। ६ ।। 

तेनान्तरेणाभिमन्योर्यन्तापासारयद्‌ रथम्‌ । 

रथव्रजास्ततो हृष्टा: साधु साथ्विति चुक्कुशु: ।। ७ ।॥। 

अभिमन्युके कार्यमें इस प्रकार विघ्न आ जानेसे वृषसेनका सारथि अपने रथको वहाँसे 
दूर हटा ले गया। इससे वहाँ जुटे हुए रथियोंके समुदाय हर्षमें भरकर “बहुत अच्छा, बहुत 
अच्छा” कहते हुए कोलाहल करने लगे ।। ७ ।। 

तं॑ सिंहमिव संक्रुद्धं प्रमथ्नन्तं शरैररीन्‌ । 

आरादायान्तमभ्येत्य वसातीयो< भ्ययाद्‌ द्रुतम्‌ ।। ८ ।। 

तदनन्तर सिंहके समान अत्यन्त क्रोधमें भरकर अपने बाणोंद्वारा शत्रुओंको मथते हुए 
अभिमन्युको समीप आते देख वसातीय तुरंत वहाँ उपस्थित हो उसका सामना करनेके लिये 
गया ।। ८ ।। 

सो5भिमन्युं शरै:षष्ट्या रुक्मपुड्खैरवाकिरत्‌ । 

अब्रवीच्च न मे जीवज्जीवतो युधि मोक्ष्यसे || ९ ।। 

उसने अभिमन्युपर सुवर्णमय पंखवाले साठ बाण बरसाये और कहा--“अब तू मेरे 
जीते-जी इस युद्धमें जीवित नहीं छूट सकेगा, ।। ९ ।। 

तमयस्मयवर्माणमिषुणा दूरपातिना । 

विव्याध हृदि सौभद्र: स पपात व्यसु: क्षितौ ।। १० ।। 

तब अभिमन्युने लोहमय कवच धारण करनेवाले वसातीयको दूरतकके लक्ष्यको मार 
गिरानेवाले बाणद्वारा उसकी छातीमें चोट पहुँचायी, जिससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वीपर 
गिर पड़ा ।। १० |। 

वसातीयं हत॑ दृष्टवा क्रुद्धा: क्षत्रियपुड़वा: । 

परिवत्रुस्तदा राजंस्तव पौत्रं जिघांसव: ।। ११ ।। 

राजन! वसातीयको मारा गया देख क्रोधमें भरे हुए क्षत्रियशिरोमणि वीरोंने आपके पौजत्र 
अभिमन्युको मार डालनेकी इच्छासे उस समय चारों ओरसे घेर लिया ।। ११ ।। 

विस्फारयन्तक्षापानि नानारूपाण्यनेकश: । 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ रौद्रं सौभद्रस्यारिभि: सह ।। १२ ।। 

वे अपने नाना प्रकारके धनुषोंकी बारंबार टंकार करने लगे। सुभद्राकुमारका शत्रुओंके 
साथ वह बड़ा भयंकर युद्ध हुआ ।। १२ ।। 

तेषां शरान्‌ सेष्वसनान्‌ शरीराणि शिरांसि च | 

सकुण्डलानि ख्ग्वीणि क्रुद्धश्चिच्छेद फाल्गुनि: ।। १३ ।। 


उस समय अर्जुनकुमारने कुपित होकर उनके धनुष, बाण, शरीर तथा हार और 
कुण्डलोंसे युक्त मस्तकोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।। १३ ।। 

सखडूगा: साड््‌गुलित्राणा: सपट्टिशपरश्व धा: । 

अदृश्यन्त भुजाश्छिन्ना हेमाभरणभूषिता: ।। १४ ।। 

सोनेके आभूषणोंसे विभूषित उनकी भुजाएँ खड्ग, दस्ताने, पट्टिश और फरसोंसहित 
कटी दिखायी देने लगीं || १४ ।। 

स्रग्भिरा भरणैर्वस्त्रै: पातितैश्न महाभुजै: । 

वर्मभिश्नर्मभिहरिर्मुकुटैश्छत्रचामरै: ।। १५ ।। 

उपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरै: । 

अक्षेविमिथितैश्वक्रैर्भग्नैश्व बहुधा युगैः । १६ ।। 

अनुकर्ष: पताकाभिस्तथा सारथिवाजिभि: । 

रथैश्न भग्नैनगिश्ष हतै: की्णाभवन्मही ।। १७ ।। 

काटकर गिराये हुए हार, आभूषण, वस्त्र, विशाल भुजा, कवच, ढाल, मनोहर मुकुट, 
छत्र, चँवर, आवश्यक सामग्री, रथकी बैठक, ईषादण्ड, बन्धुर, चूर-चूर हुई धुरी, टूटे हुए 
पहिये, टूक-टूक हुए जूए, अनुकर्ष, पताका, सारथि, अश्व, टूटे हुए रथ और मरे हुए 
हाथियोंसे वहाँकी सारी पृथ्वी आच्छादित हो गयी थी || १५--१७ ।। 

निहतै: क्षत्रिय: श्रै्नानाजनपदेश्वरै: । 

जयगृद्धैर्व॒ता भूमिर्दारुणा समपद्यत ।। १८ ।। 

विजयकी अभिलाषा रखनेवाले विभिन्न जनपदोंके स्वामी क्षत्रियवीर उस युद्धमें मारे 
गये। उनकी लाशोंसे पटी हुई पृथ्वी बड़ी भयानक जान पड़ती थी ।। १८ ।। 

दिशो विचरतस्तस्य सर्वाश्च प्रदिशस्तथा । 

रणे5भिमन्यो: क्रुद्धस्य रूपमन्तरधीयत ।। १९ ।। 

उस रफणक्षेत्रमें कुृपित होकर सम्पूर्ण दिशा-विदिशाओंमें विचरते हुए अभिमन्युका रूप 
अदृश्य हो गया था ।। १९ |। 

काज्चनं यद्यदस्यासीद्‌ वर्म चाभरणानि च । 

धनुषश्च शराणां च तदपश्याम केवलम्‌ ॥। २० ।। 

उसके कवच, आभूषण, धनुष और बाणके जो-जो अवयव सुवर्णमय थे, केवल 
उन्हींको हम दूरसे देख पाते थे ।। 

त॑ तदा नाशकत्‌ वक्रिच्चक्षुभ्यामभिवीक्षितुम्‌ । 

आददानं शरैरयोधान्‌ मध्ये सूर्यमिव स्थितम्‌ ।। २१ ।। 

अभिमन्यु जिस समय बाणोंद्वारा योद्धाओंके प्राण ले रहा था और व्यूहके मध्यभागमें 
सूर्यके समान खड़ा था, उस समय कोई वीर उसकी ओर आँख उठाकर देखनेका साहस 
नहीं कर पाता था || २१ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युपराक्रमे 
चतुश्नत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिगनन्‍्युवधपर्वमें आभिमन्युका 
पराक्रमविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४४ ॥। 


अपन क्रात बछ। हर: 


पजञज्चचत्वारिशो< ध्याय: 


हल ३8 के द्वारा सत्यश्रवा, क्षत्रियसमूह, रुक्मरथ तथा 
उसके मित्रगणों और सैकड़ों राजकुमारोंका वध और 
दुर्योधनकी पराजय 


संजय उवाच 

आददानस्तु शूराणामायुंष्यभवदार्जुनि: । 

अन्तकः सर्वभूतानां प्राणान्‌ काल इवागते ॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! मृत्युकाल उपस्थित होनेपर जैसे यमराज समस्त प्राणियोंके 
प्राण हर लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुनकुमार अभिमन्यु भी वीरोंकी आयुका अपहरण करते 
हुए उनके लिये यमराज ही हो गये थे ।। १ ।। 

स शक्र इव विक्रान्त: शक्रसूनो: सुतो बली । 

अभिमन्युस्तदानीक॑ लोडयन्‌ समदृश्यत ।। २ ।। 

इन्द्रकुमार अर्जुनका बलवान पुत्र अभिमन्यु इन्द्रके समान पराक्रमी था। वह उस समय 
सारे व्यूहका मन्थन करता दिखायी देता था ।। २ ।। 

प्रविश्यैव तु राजेन्द्र क्षत्रियेन्द्रान्‍लकोपम: । 

सत्यश्रवसमादत्त व्याप्रो मृगमिवोल्बण: ।। ३ ।। 

राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणियोंके लिये यमराजके समान अभिमन्युने उस सेनामें प्रवेश 
करते ही जैसे उन्मत्त व्याप्र हरिणको दबोच लेता है, उसी प्रकार सत्यश्रवाको ले 
बैठा ।। ३ ।। 

सत्यश्रवसि चाक्षिप्ते त्वरमाणा महारथा: । 

प्रगृह्य विपुलं शस्त्रमभिमन्युमुपाद्रवन्‌ ।। ४ ।। 

सत्यश्रवाके मारे जानेपर उन सभी महारथियोंने प्रचुर अस्त्र-शस्त्र लेकर बड़ी 
उतावलीके साथ अभिमन्युपर आक्रमण किया ।। ४ ।। 

अहं पूर्वमहं पूर्वमिति क्षत्रियपुड़वा: । 

स्पर्धमाना: समाजम्मुर्जिघांसन्तो<र्जुनात्मजम्‌ ।। ५ ।। 

वे सभी क्षत्रियशिरोमणि “पहले मैं, पहले मैं” इस प्रकार परस्पर होड़ लगाते हुए 
अर्जुनकुमारको मार डालनेकी इच्छासे आगे बढ़े ।। ५ ।। 

क्षत्रियाणामनीकानि प्रद्रुतान्यभिधावताम्‌ । 

जग्रास तिमिरासाद्य क्षुद्रमत्स्यानिवार्णवे ॥। ६ ।। 


उस समय धावा करनेवाले क्षत्रियोंकी उन आगे बढ़ती हुई सेनाओंको अभिमन्युने उसी 
प्रकार कालका ग्रास बना लिया, जैसे महासागरमें तिमि नामक महामत्स्य छोटे-छोटे 
मत्स्योंको निगल जाता है ।। ६ ।। 

ये केचन गतास्तस्य समीपमपलायिन: । 

न ते प्रतिन्यवर्तन्त समुद्रादिव सिन्धव: ।। ७ ।। 

युद्धसे न भागनेवाले जो कोई शूरवीर उस सयम अभिमन्युके पास गये, वे फिर नहीं 
लौटे। जैसे समुद्रमें मिली हुई नदियाँ फिर वहाँसे लौट नहीं पाती हैं || ७ ।। 

महाग्राहगृहीतेव वातवेगभयार्दिता । 

समकम्पत सा सेना विश्रष्टा नौरिवार्णवे ।। ८ ।॥। 

जिसका समुद्रमें मार्ग भूल गया हो, जो वायुके वेगसे भयाक्रान्त हो रही हो तथा जिसे 
किसी बहुत बड़े ग्राहने पकड़ लिया हो--ऐसी नौका जैसे डगमगाने लगती है, उसी प्रकार 
वह सेना अभिमन्युके भयसे काँप रही थी ।। ८ ।। 

अथ रुक्‍्मरथो नाम मद्रेश्वरसुतो बली | 

त्रस्तामाश्वासयन्‌ सेनामत्रस्तो वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ९ ।। 

इसी समय मद्रराजका बलवान पुत्र रुक्मरथ आकर अपनी डरी हुई सेनाको आश्वासन 
देता हुआ निर्भय होकर बोला-- ।। ९ |। 

अलं त्रासेन व: शूरा नैष कश्रनिन्मयि स्थिते । 

अहमेन ग्रहीष्यामि जीवग्राहं न संशय: ।। १० ।। 

'शूरवीरो! तुम्हें डरनेकी कोई आवश्यकता नहीं। यह अभिमन्यु मेरे रहते कुछ भी नहीं 
है। मैं अभी इसे जीतेजी पकड़ लूँगा। इसमें संशय नहीं है” || १० ।। 

एवमुकक्‍्त्वा तु सौभद्रमभिदुद्राव वीर्यवान्‌ । 

सुकल्पितेनोह्म॒मान: स्यन्दनेन विराजता ।। १३१ ।। 

ऐसा कहकर पराक्रमी रुक्मरथ सुन्दर सजे-सजाये तेजस्वी रथपर आखरूढ़ हो 
सुभद्राकुमार अभिमन्युकी ओर दौड़ा ।। ११ ।। 

सो5भिमन्युं त्रिभिर्बाणैरविंद्ध्वा वक्षस्यथानदत्‌ | 

त्रिभिश्ष दक्षिणे बाहौ सव्ये च निशितैस्त्रिभि: ।। १२ ।। 

उसने अभिमन्युकी छातीमें तीन बाण मारकर सिंहनाद किया। फिर तीन बाण दाहिनी 
और तीन तीखे बाण बायीं भुजामें मारे | १२ ।। 

स तस्येष्वसनं छित्त्वा फाल्गुनि: सव्यदक्षिणौ | 

भुजौ शिरश्र स्वक्षिभ्रु क्षितौ क्षिप्रमपातयत्‌ ।। १३ ।। 

तब अर्जुनकुमारने रुक्मरथका धनुष काटकर उसकी बायीं-दायीं भुजाओंको तथा 
सुन्दर नेत्र एवं भौंहोंसे सुशोभित मस्तकको भी तुरंत ही पृथ्वीपर काट गिराया ।। १३ ।। 

दृष्टवा रुक्मरथं रुग्णं पुत्र शल्यस्य मानिनम्‌ । 


जीवग्राहं जिघृक्षन्तं सौभद्रेण यशस्विना ।। १४ ।। 

संग्रामदुर्मदा राजन्‌ राजपुत्रा: प्रहारिण: । 

वयस्या: शल्यपुत्रस्य सुवर्णविकृतध्वजा: ।। १५ ।। 

तालमात्राणि चापानि विकर्षन्तो महाबला: । 

आर्जुनिं शरवर्षेण समन्तात्‌ पर्यवारयन्‌ ।। १६ ।। 

राजन! राजा शल्यके अभिमानी पुत्र रुक्मरथको जो अभिमन्युको जीते-जी पकड़ना 
चाहता था, यशस्वी सुभद्राकुमारके द्वारा मारा गया देख शल्यपुत्रके बहुत-से मित्र 
राजकुमार, जो प्रहार करनेमें कुशल और युद्धमें उनन्‍्मत्त होकर लड़नेवाले थे, 
अर्जुनकुमारको चारों ओरसे घेरकर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उनके ध्वज सुवर्णके बने हुए 
थे, वे महाबली वीर चार हाथके धनुष खींच रहे थे || १४--१६ ।। 

शूरै: शिक्षाबलोपेतैस्तरुणैरत्यमर्षणै: । 

दृष्टवैकं समरे शूरं सौभद्रमपराजितम्‌ ।। १७ ।। 

छाद्यमानं शखव्रातै्ष्टो दुर्योधनो 5भवत्‌ । 

वैवस्वतस्य भवनं गत॑ होनममन्यत ।। १८ ।। 

शिक्षा और बलसे सम्पन्न, तरुण अवस्थावाले, अत्यन्त अमर्षशील और शूरवीर 
राजकुमारोंद्वारा, किसीसे परास्त न होनेवाले शौर्यसम्पन्न सुभद्राकुमारको अकेले ही 
समरांगणमें बाणसमूहोंसे आच्छादित होते देख राजा दुर्योधनको बड़ा हर्ष हुआ। उसने यह 
मान लिया कि अब अभिमन्यु यमराजके लोकमें पहुँच गया ।। १७-१८ ।। 

सुवर्णपुड्खैरिषुभिननानालिड्लैः सुतेजनै: । 

अदृश्यमार्जुनिं चक्रु्निमेषात्‌ ते नृूपात्मजा: ।। १९ ।। 

उन राजकुमारोंने सोनेके पंखवाले नाना प्रकारके चिह्लोंसे सुशोभित और पैने 
बाणोंद्वारा अर्जुनकुमार अभिमन्युको पलक मारते-मारते अदृश्य कर दिया ।। १९ ।। 

ससूताश्चध्वजं तस्य स्यन्दनं तं च मारिष । 

आचितं समपश्याम श्वाविधं शललैरिव ।। २० || 

आर्य! सारथि, घोड़े और ध्वजसहित अभिमन्युके उस रथको मैंने उसी प्रकार बाणोंसे 
व्याप्त देखा, जैसे साही (सेह)-का शरीर काँटोंसे भरा रहता है ।। २० ।। 

स गाढविद्ध: क्रुद्धश्न तोत्रैर्गज इवार्दित: । 

गान्धर्वमस्त्रमायच्छद्‌ रथमायां च भारत ।। २१ ।। 

भारत! बाणोंसे गहरी चोट खाकर अभिमन्यु अंकुशसे पीड़ित हुए गजराजकी भाँति 
कुपित हो उठा। उसने गान्धर्वास्त्रका प्रयोग किया और रथमाया (रथयुद्धकी शिक्षामें 
निपुणता) प्रकट की || २१ ।। 

अर्जुनेन तपस्तप्त्वा गन्धर्वेभ्यो यदाह्नतम्‌ । 

तुम्बुरुप्रमुखेभ्यो वै तेनामोहयताहितान्‌ ।। २२ ।। 


अर्जुनने तपस्या करके तुम्बुरु आदि गन्धर्वोंसे जो अस्त्र प्राप्त किया था, उसीसे 
अभिमन्युने अपने शत्रुओंको मोहित कर दिया ।। २२ || 

एकधा शतधा राजन्‌ दृश्यते सम सहस्रधा । 

अलातचक्रवत्‌ संख्ये क्षिप्रमस्त्राणि दर्शयन्‌ ।। २३ ।। 

राजन! वह शीघ्रतापूर्वक अस्त्रसंचालनका कौशल दिखाता हुआ युद्धमें अलातचक्रकी 
भाँति एक, शत तथा सहसौरों रूपोंमें दृष्टिगोचर होता था ।। २३ ।। 

रथचर्यास्त्रिमायाभिमोहयित्वा परंतप: । 

बिभेद शतथा राजन्‌ शरीराणि महीक्षिताम्‌ ।। २४ ।। 

महाराज! शत्रुओंको संताप देनेवाले अभिमन्युने रथचर्या तथा अस्त्रोंकी मायासे मोहित 
करके राजाओंके शरीरोंके सौ-सौ टुकड़े कर दिये || २४ ।। 

प्राणा: प्राणभृतां संख्ये प्रेषितानि शितै: शरै: । 

राजन प्रापुरमुं लोक॑ शरीराण्यवनिं ययु: ।। २५ ।। 

राजन! उस युद्धस्थलमें उसके पैने बाणोंसे प्रेरित हुए प्राणधारियोंके शरीर तो पृथ्वीपर 
गिर पड़े, परंतु प्राण परलोकमें जा पहुँचे || २५ ।। 

धनूंष्यश्वान्‌ नियन्तृश्व ध्वजान्‌ बाहूंश्व साड्भदान्‌ । 

शिरांसि च शितैर्बाणैस्तेषां चिच्छेद फाल्गुनि: ।। २६ ।। 

अर्जुनकुमारने अपने तीखे बाणोंद्वारा उनके धनुष, घोड़े, सारथि, ध्वज, अंगदयुक्त बाहु 
तथा मस्तक भी काट डाले || २६ ।। 

चूतारामो यथा भग्न: पड्चवर्ष: फलोपग: । 

राजपुत्रशतं तद्धत्‌ सौभद्रेण निपातितम्‌ ।। २७ ।। 

जैसे पाँच वर्षोका लगाया हुआ आमका बाग, जो फल देनेके योग्य हो गया हो, काट 
दिया जाय, उसी प्रकार सैकड़ों राजकुमारोंको सुभद्राकुमारने वहाँ मार गिराया || २७ ।। 

क्रुद्धाशीविषसंकाशान्‌ सुकुमारान्‌ सुखोचितान्‌ । 

एकेन निहतान्‌ दृष्टवा भीतो दुर्योधनो5भवत्‌ ।। २८ ।। 

क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पोके समान भयंकर तथा सुख भोगनेके योग्य उन सुकुमार 
राजकुमारोंको एकमात्र अभिमन्युद्वारा मारा गया देख दुर्योधन भयभीत हो गया ।। २८ ।। 

रथिन: कुण्जरानश्वान्‌ पदातींश्वापि मज्जतः । 

दृष्टवा दुर्योधन: क्षिप्रमुपायात्‌ तममर्षित: ।। २९ ।। 

रथियों, हाथियों, घोड़ों और पैदलोंको भी अभिमन्यु-रूपी समुद्रमें डूबते देख अमर्षमें 
भरे हुए दुर्योधनने शीघ्र ही उसपर धावा किया || २९ ।। 

तयो: क्षणमिवापूर्ण: संग्राम: समपद्यत । 

अथाभवत्‌ ते विमुख: पुत्र: शरशताहत: ।। ३० ॥। 


उन दोनोंमें एक क्षणतक अधूरा-सा युद्ध हुआ। इतनेहीमें आपका पुत्र दुर्योधन सैकड़ों 
बाणोंसे आहत होकर वहाँसे भाग गया ।। ३० ।। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि दुर्योधनपराजये 
पज्चचत्वारिंशो5 ध्याय: ।। ४५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें दुर्योधनकी पराजयविषयक 
पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ४५ ॥। 


ऑपनआक्राता बछ। अर: 


षट्चत्वारिशो5 ध्याय: 


अभिमन्युके द्वारा लक्ष्मण तथा क्राथपुत्रका वध और 
सेनासहित छ: महारथियोंका पलायन 


धृतराष्ट उवाच 

यथा वदसि मे सूत एकस्य बहुभि: सह । 

संग्रामं तुमुलं घोरं जयं चैव महात्मन: ।। १ ।। 

अश्रद्धेयमिवाश्चर्य सौभद्रस्याथ विक्रमम्‌ । 

किं तु नात्यद्धुतं तेषां येषां धर्मो व्यपाश्रय: ॥। २ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--सूत! जैसा कि तुम बता रहे हो, अकेले महामना अभिमन्युका बहुत- 
से योद्धाओंके साथ अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ और उसमें विजय भी उसीकी हुई-- 
सुभद्राकुमारका यह पराक्रम आश्चर्यजनक है। उसपर सहसा विश्वास नहीं होता; परंतु जिन 
लोगोंका धर्म ही आश्रय है, उनके लिये यह कोई अत्यन्त अद्भुत बात नहीं है ।। १-२ ।। 

दुर्योधने च विमुखे राजपुत्रशते हते । 

सौभगद्रे प्रतिपत्तिं कां प्रत्यपद्यन्त मामका: ।। ३ ।। 

संजय! जब दुर्योधन भाग गया और सैकड़ों राजकुमार मारे गये, उस समय मेरे पुत्रोंने 
सुभद्राकुमारका सामना करनेके लिये क्या उपाय किया? ।। ३ ॥। 

संजय उवाच 

संशुष्कास्याश्षलन्नेत्रा: प्रस्विन्ञा लोमहर्षणा: । 

पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये ।। ४ ।। 

संजयने कहा--महाराज! आपके सभी सैनिकोंके मुँह सूख गये थे, आँखें भयसे 
चंचल हो रही थीं, सारे अंग पसीने-पसीने हो रहे थे और रोंगटे खड़े हो गये थे। वे भागनेमें 
ही उत्साह दिखा रहे थे। शत्रुओंको जीतनेका उत्साह उनके मनमें तनिक भी नहीं 
था | ४ ।। 

हतान्‌ भ्रातृन्‌ पितृन्‌ पुत्रान्‌ सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्‌ | 

उत्सृज्योत्सृज्य संजग्मुस्त्वरयन्तो हयद्विपान्‌ ।। ५ ।। 

वे युद्धमें मारे गये भाइयों, पितरों, पुत्रों, सुहृदों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बान्धवोंको 
छोड़-छोड़कर अपने घोड़े और हाथियोंको उतावलीके साथ हाँकते हुए भाग रहे थे || ५ ।। 

तान्‌ प्रभग्नांस्तथा दृष्टवा द्रोणो द्रौणिर्बृहद्धल: । 

कृपो दुर्योधन: कर्ण: कृतवर्माथ सौबल: ।। ६ ।। 

अभ्यधावन्‌ सुसंक्रुद्धा: सौभद्रमपराजितम्‌ । 


ते तु पौत्रेण ते राजन्‌ प्रायशो विमुखीकृता: ।। ७ ।। 

राजन्‌! उन सबको भागते देख द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, बृहदबल, कृपाचार्य, दुर्योधन, 
कर्ण, कृतवर्मा और शकुनि--ये सब अत्यन्त क्रोधमें भरकर अपराजित वीर अभिमन्युपर 
टूट पड़े; परंतु आपके उस पौत्र अभिमन्युने उन सबको प्राय: युद्धसे भगा दिया ।। ६-७ ।। 


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एकस्तु सुखसंवृद्धो बाल्याद्‌ दर्पाच्च निर्भय: । 

इष्वस्त्रविन्महातेजा लक्ष्मणो5<र्जुनिमभ्ययात्‌ ।। ८ ।। 

उस समय सुखमें पला हुआ, थरनुर्वेदका ज्ञाता, एकमात्र महातेजस्वी लक्ष्मण अपने 
बालस्वभाव तथा अभिमानके कारण निर्भय हो अभिमन्युके सामने आ गया ।। ८ ।। 

तमन्वगेवास्य पिता पुत्रगृद्धी न्‍्यवर्तत । 

अनुदुर्योधनं चान्ये न्यवर्तन्त महारथा: ।॥। ९ ।। 

पुत्रकी रक्षा चाहनेवाला पिता दुर्योधन भी उसीके साथ-साथ लौट पड़ा। फिर 
दुर्योधनके पीछे दूसरे महारथी लौट आये ।। ९ ।। 

तं॑ तेडभिषिषिचुर्बाणैमेंघा गिरिमिवाम्बुभि: । 

स तु तान्‌ प्रममाथैको विष्वग्वातो यथाम्बुदान्‌ ।। १० ।। 

जैसे बादल किसी पर्वतको अपने जलकी धाराओंसे सींचते हैं, उसी प्रकार वे महारथी 
अभिमन्युपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। जैसे चारों ओरसे बहनेवाली हवा (चौवाई) 
बादलोंको उड़ा देती है, उसी प्रकार अकेले अभिमन्युने उन सबको मथ डाला ।। १० ।। 

पौत्रं तव च दुर्धर्ष लक्ष्मणं प्रियदर्शनम्‌ 

पितु: समीपे तिष्ठन्तं शूरमुद्यतकार्मुकम्‌ ।। ११ ।। 


अत्यन्तसुखसंवृद्ध॑ धनेश्वरसुतोपमम्‌ । 

आससाद रणे कार्ष्ण्मित्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। १२ ।। 

राजन्‌! आपका प्रियदर्शन पौत्र लक्ष्मण बड़ा दुर्धर्ष वीर था। वह धनुष उठाये अपने 
पिताके ही पास खड़ा था। अत्यन्त सुखमें पला हुआ वह वीर कुबेरके पुत्रके समान जान 
पड़ता था। जैसे मतवाला हाथी किसी मदोनन्‍्मत्त गजराजसे भिड़ जाय, उसी प्रकार 
अर्जुनकुमारने लक्ष्मणपर आक्रमण किया ।। ११-१२ ।। 

लक्ष्मणेन तु संगम्य सौभद्र: परवीरहा । 

शरै: सुनिशितैस्ती६णैर्बाह्वोरुरसि चार्पित: ।। १३ ।। 

लक्ष्मणसे भिड़नेपर उसके द्वारा शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सुभद्राकुमारकी भुजाओं 
और छातीमें अत्यन्त तीखे बाणोंद्वारा प्रहार किया गया ।। १३ ॥। 

संक़रुद्धो वै महाराज दण्डाहत इवोरग: । 

पौत्रस्तव महाराज तव पौत्रमभाषत ।। १४ ।। 

महाराज! उस प्रहारसे लाठीकी चोट खाये हुए सर्पके समान अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए 
आपके पौत्र अभिमन्युने आपके दूसरे पौत्र लक्ष्मणसे कहा-- || १४ ।। 

सुदृष्ट: क्रियतां लोको हामुं लोक॑ गमिष्यसि । 

पश्यतां बान्धवानां त्वां नयामि यमसादनम्‌ ॥। १५ ।। 

“लक्ष्मण! इस संसारको अच्छी तरह देख लो। अब शीघ्र ही परलोककी यात्रा करोगे। 
इन बान्धव-जनोंके देखते-देखते मैं तुम्हें यमलोक पहुँचाये देता हूँ” ।। 

एवमुक्त्वा ततो भल्लं सौभद्र: परवीरहा । 

उद्धबर्ह महाबाहुर्निर्मुक्तोरगसंनिभम्‌ ।। १६ ।। 

ऐसा कहकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबाहु सुभद्राकुमारने केंचुलसे निकले हुए 
सर्पके समान एक भल्लको तरकससे निकाला ।। १६ || 

स तस्य भुजनिर्मुक्तो लक्ष्मणस्य सुदर्शनम्‌ । 

सुनसं सुभ्रु केशान्तं शिरो5हार्षीत्‌ सकुण्डलम्‌ ।। १७ ।। 

अभिमन्युके हाथोंसे छूटे हुए उस भल्लने लक्ष्मणके देखनेमें सुन्दर, सुधड़ नासिका, 
मनोहर भौंह, सुन्दर केशान्तभाग और रुचिर कुण्डलोंसे युक्त मस्तकको धड़से अलग कर 
दिया ।। १७ ।। 

लक्ष्मणं निहतं दृष्टवा हाहेत्युच्चुक्रुशुर्जना: । 

ततो दुर्योधन: क्रुद्धः प्रिये पुत्रे निपातिते ।। १८ ।। 

घ्नतैनमिति चुक्रोश क्षत्रियान्‌ क्षत्रियर्षभ: । 

लक्ष्मणको मारा गया देख सब लोग जोर-जोरसे हाहाकार करने लगे। अपने प्यारे 
पुत्रके मारे जानेपर क्षत्रियशिरोमणि दुर्योधन कुपित हो उठा और समस्त क्षत्रियोंसे बोला 
--अहो! इस अभिमन्युको मार डालो” ।। 


ततो द्रोण: कृप: कर्णों द्रोणपुत्रो बृहद्धल: ॥ १९ ।। 

कृतवर्मा च हार्दिक्य: षड्‌ रथा: पर्यवारयन्‌ । 

तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहदबल और हृदिकपुत्र कृतवर्मा--इन 
छ: महारथियोंने अभिमन्युको घेर लिया || १९३ ।। 

तांस्तु विद्ध्वा शितैर्बाणैविमुखीकृत्य चार्जुनि: ।। २० ।। 

वेगेनाभ्यपतत्‌ क्रुद्ध: सैन्धवस्य महद्‌ बलम्‌ | 

यह देख अर्जुनकुमारने अपने पैने बाणोंद्वारा उन सबको घायल करके भगा दिया और 
क्रोधमें भरकर बड़े वेगसे जयद्रथकी विशाल सेनापर धावा किया || २०३ ।। 

आवल्रुस्तस्य पन्थानं गजानीकेन दंशिता: ।। २१ ।। 

कलिलज्जश्न निषादाश्न क्राथपुत्रश्न वीर्यवान्‌ । 

उस समय कलिंगदेशीय सैनिक, निषादगण तथा पराक्रमी क्राथपुत्र--इन सबने कवच 
धारण करके गजसेनाके द्वारा अभिमन्युका रास्ता रोक दिया |। २१६ || 

तत्‌ प्रसक्तमिवात्यर्थ युद्धमासीद्‌ विशाम्पते ॥। २२ ।। 

ततस्तत्‌ कुण्जरानीकं व्यधमद्‌ धृष्टमार्जुनि: । 

यथा वायुर्नित्यगतिर्जलदान्‌ शतशोडम्बरे ।। २३ ।। 

प्रजानाथ! तब वहाँ अत्यन्त निकटसे घोर युद्ध आरम्भ हो गया। अर्जुनकुमारने पैने 
बाणोंद्वारा उस धृष्ट गजसेनाको उसी प्रकार नष्ट कर दिया, जैसे सदागति वायु आकाशमें 
सैकड़ों मेघखण्डोंको छिन्न-भिन्न कर देती है || २२-२३ ।। 

ततः क्राथ: शरख्रातैरार्जुनिं समवाकिरत्‌ । 

अथेतरे संनिवृत्ता: पुनद्रोणमुखा रथा: ।। २४ ।। 

तदनन्तर क्राथने अर्जुनकुमार अभिमन्युपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। इतनेहीमें 
द्रोण आदि दूसरे महारथी भी पुनः लौट आये ।। २४ ।। 

परमास्त्राणि धुन्वाना: सौभद्रमभिदुद्रुवु: । 

तान्‌ निवार्यार्जुनिर्बाणै: क्राथपुत्रमथार्दयत्‌ ।। २५ ।। 

उन सबने अपने उत्तम अस्त्रोंका प्रयोग करते हुए सुभद्राकुमारपर आक्रमण किया। 
अभिमन्युने अपने बाणोंद्वारा उन सबका निवारण करके क्राथपुत्रको अधिक पीड़ा 
दी ।। २५ |। 

शरौघेणाप्रमेयेण त्वरमाणो जिघांसया । 

सभरनुर्बाणकेयूरो बाहू समुकुर्ट शिर: ।। २६ ।। 

सच्छत्रध्वजयन्तारं रथं चाश्वान्‌ न्यपातयत्‌ | 

फिर उसने असंख्य बाणसमूहोंद्वारा क्राथपुत्रको मार डालनेकी इच्छासे जल्दी करते 
हुए उसकी धनुष-बाणों और केयूरसहित दोनों भुजाओं, मुकुटमण्डित मस्तक, छत्र, ध्वज 
और सारथिसहित रथ तथा घोड़ोंको भी मार गिराया || २६३६ ।। 





कुलशीलश्रुतिबलै: कीर्त्या चास्त्रबलेन च | 

युक्ते तस्मिन्‌ हते वीरा: प्रायशो विमुखा5भवन्‌ ।। २७ ।। 

कुल, शील, शास्त्रज्ञान, बल, कीर्ति तथा अस्त्र-बलसे सम्पन्न उस वीर क्राथपुत्रके मारे 
जानेपर आपकी सेनाके प्रायः सभी शूरवीर सैनिक युद्ध छोड़कर भाग गये ।। २७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि लक्ष्मणवधे षट्चत्वारिंशो<ध्याय: 
॥| ४६ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें लक्ष्मणवधविषयक 
छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४६ ॥/ 


नी ्राय्ण ह्यु # 5: 


सप्तचत्वारिशो<्ध्याय: 


अभिमन्युका पराक्रम, छ: महारथियोंके साथ घोर युद्ध और 
उसके द्वारा वन्दारक तथा दस हजार अन्य राजाओंके 
सहित कोसलनरेश बृहद्धलका वध 


धृतराष्ट्र रवाच 

तथा प्रविष्टं तरुणं सौभद्रमपराजितम्‌ । 

कुलानुरूपं कुर्वाणं संग्रामेष्वपलायिनम्‌ ।। १ ।। 

आजानेयै: सुबलिभिरययन्तमश्रैस्त्रिहायनै: । 

प्लवमानमिवाकाशे के शूरा: समवारयन्‌ ।। २ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! कभी पराजित न होनेवाला तथा युद्धमें पीठ न दिखानेवाला 
तरुण, सुभद्राकुमार अभिमन्यु जब इस प्रकार जयद्रथकी सेनामें प्रवेश करके अपने कुलके 
अनुरूप पराक्रम प्रकट कर रहा था और तीन वर्षकी अवस्थावाले अच्छी जातिके बलवान्‌ 
घोड़ोंद्वारा मानो आकाशमें तैरता हुआ आक्रमण करता था, उस समय किन शूरवीरोंने उसे 
रोका था? ।। 

संजय उवाच 

अभिमन्यु: प्रविश्यैतांस्तावकान्‌ निशितै: शरै: । 

अकरोत्‌ पार्थिवान्‌ सर्वान्‌ विमुखान्‌ पाण्डुनन्दन: ।। ३ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! पाण्डुकुलनन्दन अभिमन्युने उस सेनामें प्रविष्ट होकर आपके 
इन सभी राजाओंको अपने तीखे बाणोंद्वारा युद्धसे विमुख कर दिया ।। ३ ।। 

तं तु द्रोण: कृप: कर्णो द्रौणिश्व स बृहद्धलः । 

कृतवर्मा च हार्दिक्य: षड्‌ रथा: पर्यवारयन्‌ ।। ४ ।। 

तब द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बृहद्बल और हृदिकपुत्र कृतवर्मा--इन छ: 
महारथियोंने उसे चारों ओरसे घेर लिया ।। ४ ।। 

दृष्टवा तु सैन्धवे भारमतिमात्रं समाहितम्‌ । 

सैन्यं तव महाराज युधिष्ठिरमुपाद्रवत्‌ ।। ५ ।। 

महाराज! सिंधुराज जयद्रथपर बहुत भार आया देख आपकी सेनाने राजा युधिष्ठिरपर 
धावा किया ।। ५ |। 

सौभद्रमितरे वीरमभ्यवर्षन्‌ शराम्बुभि: । 

तालमात्राणि चापानि विकर्षन्तो महाबला: ।। ६ ।। 


तथा कुछ अन्य महाबली योद्धाओंने अपने चार हाथके धनुष खींचते हुए वहाँ 
सुभद्राकुमार वीर अभिमन्युपर बाणरूपी जलकी वर्षा प्रारम्भ कर दी ।। ६ ।। 

तांस्तु सर्वान्‌ महेष्वासान्‌ सर्वविद्यासु निष्ठितान्‌ 

व्यष्टम्भयद्‌ रणे बाणै: सौभद्र: परवीरहा ।। ७ ।। 

परंतु शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अभिमन्युने सम्पूर्ण विद्याओंमें प्रवीण उन समस्त 
महाधनुर्धरोंको रणक्षेत्रमें अपने बाणोंद्वारा स्तब्ध कर दिया ।। ७ ।। 

द्रोणं पजचाशताविध्यद्‌ विंशत्या च बृहद्धलम्‌ । 

अशीत्या कृतवर्माणं कृप॑ षष्ट्या शिलीमुखै: ।। ८ ।। 

रुक्मपुड्खैर्महावेगैराकर्णसमचोदितै: । 

अविध्यद्‌ दशभिर्बाणैरश्वत्थामानमार्जुनि: ।। ९ ।। 

अर्जुनकुमार अभिमन्युने द्रोणको पचास, बृहद्धलको बीस, कृतवर्माको अस्सी, 
कृपाचार्यको साठ और अअभश्वत्थामाको कानतक खींचकर छोड़े हुए स्वर्णमय पंखयुक्त, 
महावेगशाली दस बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। 

स कर्ण कर्णिना कर्णे पीतेन च शितेन च । 

फाल्गुनिर्दविषतां मध्ये विव्याध परमेषुणा || १० ।। 

अर्जुनकुमारने शत्रुओंके मध्यमें खड़े हुए कर्णके कानमें पानीदार पैने और उत्तम 
बाणद्वारा गहरी चोट पहुँचायी || १० ।। 

पातयित्वा कृपस्याशभ्चांस्तथो भौ पार्ष्णिसारथी । 

अथैनं दशभिर्बाणै: प्रत्यविध्यत्‌ स्तनान्तरे ।। ११ ।। 

कृपाचार्यके चारों घोड़ों तथा उनके दो पार्श्वरक्षकोंको धराशायी करके छातीमें दस 
बाणोंद्वारा प्रहार किया ।। 

ततो वृन्दारकं वीरं कुरूणां कीर्तिवर्धनम्‌ । 

पुत्राणां तव वीराणां पश्यतामवधीद्‌ बली ।। १२ ।। 

तदनन्तर बलवान्‌ अभिमन्युने कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले वीर वृन्दारकको आपके 
वीर पुत्रोंके देखते-देखते मार डाला || १२ ।। 

त॑ द्रौणि: पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत्‌ । 

वरं वरममित्राणामारुजन्तमभीतवत्‌ ।। १३ ।। 

तब शत्रुदलके प्रधान-प्रधान वीरोंका बेखटके वध करते हुए अभिमन्युको अश्वत्थामाने 
पचीस बाण मारे ।। 

सतु बाणै: शितैस्तूर्ण प्रत्यविध्यत मारिष । 

पश्यतां धार्तराष्ट्राणाम श्वत्थामानमार्जुनि: ।। १४ ।। 

आर्य! अर्जुनकुमारने भी आपके पुत्रोंके देखते-देखते तुरंत ही अश्व॒त्थामाको पैने 
बाणोंद्वारा बींध डाला ।। 


षष्ट्या शराणां त॑ द्रौणिस्तिग्मधारै: सुतेजनै: । 

उग्रै्नाकम्पयद्‌ विद्ध्वा मैनाकमिव पर्वतम्‌ ।। १५ ।। 

तब द्रोणपुत्रने तीखी धारवाले तेज और भयंकर साठ बाणोंद्वारा अभिमन्युको बींध 
डाला; परंतु बींधकर भी वह मैनाक पर्वतके समान स्थित अभिमन्युको कम्पित न कर 
सका || १५ || 

स तु द्रौणिं त्रिसप्तत्या हेमपुड्खैरजिद्ागै: । 

प्रत्यविध्यन्महातेजा बलवानपकारिणम्‌ ॥। १६ ।। 

महातेजस्वी बलवान्‌ अभिमन्युने सुवर्णमय पंखसे युक्त तिहत्तर बाणोंद्वारा अपने 
अपकारी अभश्र॒ृत्थामाको पुन: घायल कर दिया ।। १६ |। 

तस्मिन्‌ द्रोणो बाणशतं पुत्रगृद्धी न्यपातयत्‌ | 

अश्वत्थामा तथाष्टौ च परीप्सन्‌ पितरं रणे ।। १७ ।। 

तब अपने पुत्रके प्रति स्नेह रखनेवाले द्रोणाचार्यने अभिमन्युको सौ बाण मारे। साथ ही 
अश्वत्थामाने भी अपने पिताकी रक्षा करते हुए रणक्षेत्रमें उसपर आठ बाण 
चलाये ।। १७ ।। 

कर्णो द्वाविंशतिं भल्लान्‌ कृतवर्मा च विंशतिम्‌ । 

बृहद्बलस्तु पञ्चाशत्‌ कृप: शारद्वतो दश ॥। १८ ।। 

तत्पश्चात्‌ कर्णने बाईस, कृतवर्मने बीस, बृहदबलने पचास तथा शरद्वानके पुत्र 
कृपाचार्यने अभिमन्युको दस भल्ल मारे ।। १८ ।। 

तांस्तु प्रत्यवधीत्‌ सर्वान्‌ दशभिर्दशभि: शरै: । 

तैर््मान: सौभद्र: सर्वतो निशितै: शरै: ।। १९ ।। 

उन सबके चलाये हुए तीखे बाणोंद्वारा सब ओरसे पीड़ित हुए सुभद्राकुमारने उन 
सभीको दस-दस बाणोंसे घायल कर दिया ।। १९ || 

त॑ं कोसलानामधिप: कर्णिनाताडयद्धुदि । 

स तस्याश्चान्‌ ध्वजं चाप॑ सूतं चापातयत्‌ क्षितौ || २० ।। 

तत्पश्चात्‌ कोसलनरेश बृहदबलने एक बाणद्वारा अभिमन्युकी छातीमें चोट पहुँचायी। 
यह देख अभिमन्युने उनके चारों घोड़ों तथा ध्वज, धनुष एवं सारथिको भी पृथ्वीपर मार 
गिराया || २० ।। 

अथ कोसलराजस्तु विरथ: खड्गचर्मभृत्‌ । 

इयेष फाल्गुने: कायाच्छिरो हर्तु सकुण्डलम्‌ ।। २१ ।। 

रथहीन होनेपर कोसलनरेशने हाथमें ढाल और तलवार ले ली तथा अभिमन्युके 
शरीरसे उसके कुण्डलयुक्त मस्तकको काट लेनेका विचार किया ।। २१ ।। 

स कोसलानामधिपं राजपुत्र बृहद्धलम्‌ । 

हृदि विव्याध बाणेन स भिन्नहृदयो5पतत्‌ ।। २२ ।। 


इतनेहीमें अभिमन्युने एक बाणद्वारा कोसलनरेश राजपुत्र बृहद्धलके हृदयमें गहरी चोट 
पहुँचायी। इससे उनका वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया और वे गिर पड़े || २२ ।। 

बभज्ज च सहस्राणि दश राज्ञां महात्मनाम्‌ | 

सृजतामशिवा वाच: खड्गकार्मुकधारिणाम्‌ ।। २३ ।। 

इसके बाद अशुभ वचन बोलनेवाले तथा खड्ग एवं धनुष धारण करनेवाले दस हजार 
महामनस्वी राजाओंका भी उसने संहार कर डाला ।। २३ ।। 

तथा बृहद्बलं हत्वा सौभद्रो व्यचरद्‌ रणे । 

व्यष्टम्भयन्महेष्वासो योधांस्तव शराम्बुभि: || २४ ।। 

इस प्रकार महाधनुर्धर अभिमन्यु बृहदबलका वध करके आपके योद्धाओंको अपने 
बाणरूपी जलकी वर्षसे स्तब्ध करता हुआ रणक्षेत्रमें विचरने लगा || २४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि बृहद्धलवधे 
सप्तचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें ब॒हद्धलवधविषयक 
सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४७ ॥। 


०: बछ। अकाल ज 


अष्टचत्वारिशो<् ध्याय: 


अभिमन्युद्वारा हैक भोज और कर्णके मन्त्री आदिका 
वध एवं छ: के साथ घोर युद्ध और उन 
महारथियोंद्वारा अभिमन्युके धनुष, रथ, ढाल और 
तलवारका नाश 


संजय उवाच 

स कर्ण कर्णिना कर्णे पुनर्विव्याध फाल्गुनि: । 

शरै: पञ्चाशता चैनमविध्यत्‌ कोपयन्‌ भूशम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर अर्जुनकुमार अभिमन्युने एक बाणद्दारा कर्णके 
कानमें पुनः चोट पहुँचायी और उसे क्रोध दिलाते हुए उसने पचास बाण मारकर अत्यन्त 
घायल कर दिया ।। १ |। 

प्रतिविव्याध राधेयस्तावद्धिरथ त॑ पुन: । 

शरैराचितसर्वाड्रो बह्नशोभत भारत ।। २ ।॥। 

भरतनन्दन! तब राधापुत्र कर्णने भी अभिमन्युको उतने ही बाणोंसे बींध डाला। उसका 
सारा अंग बाणोंसे व्याप्त होनेके कारण वह बड़ी शोभा पा रहा था ।| २ ।। 

कर्ण चाप्यकरोत्‌ क्रुद्धो रुधिरोत्पीडवाहिनम्‌ | 

कर्णोडपि विबभौ शूर: शरैश्छिन्नोडसृगाप्लुत: ।। ३ ।। 

(संध्यानुगतपर्यन्त: शरदीव दिवाकर: ।) 

फिर क्रोधमें भरे हुए अभिमन्युने कर्णको भी बाणोंसे क्षत-विक्षत करके उसे रक्तकी 
धारा बहानेवाला बना दिया। उस समय शूरवीर कर्ण भी बाणोंसे छिन्न-भिन्न और खूनसे 
लथपथ हो बड़ी शोभा पाने लगा, मानो शरत्कालका सूर्य संध्याके समय सम्पूर्णरूपसे लाल 
दिखायी दे रहा हो ।। ३ ।। 

तावुभौ शरचित्राड्रौ रुधिरेण समुक्षितौ | 

बभूवतुर्महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ ।। ४ ।। 

उन दोनोंके शरीर बाणोंसे व्याप्त होनेके कारण विचित्र दिखायी देते थे। दोनों ही रक्तसे 
भींग गये तथा वे दोनों महामनस्वी वीर फूलोंसे भरे हुए पलाश-वृक्षके समान प्रतीत होते 
थे।। ४ ।। 

अथ कर्णस्य सचिवान्‌ षट्‌ शूरांश्रित्रयोधिन: । 

साश्वसूतध्वजरथान्‌ सौभद्रो निजघान ह ।। ५ ।। 


तदनन्तर सुभद्राकुमारने कर्णके विचित्र युद्ध करनेवाले छ: शूरवीर मन्त्रियोंको उनके 
घोड़े, सारथि, रथ तथा ध्वजसहित मार डाला ।। ५ || 

तथेतरान्‌ महेष्वासान्‌ दशभिर्दशभि: शरै: । 

प्रत्यविध्यदसम्भ्रान्तस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ६ ।। 

इतना ही नहीं, उसने बिना किसी घबराहटके दस-दस बाणोंद्वारा अन्य महाधनुर्धरोंको 
भी आहत कर दिया। वह अद्भुत-सी बात थी ।। ६ ।। 

मागधस्य तथा पुत्र हत्वा षड़भिरजिद्वागै: । 

साश्वं ससूतं तरुणमश्वकेतुमपातयत्‌ ।। ७ ।। 

इसी प्रकार उसने मगधराजके तरुण पुत्र अश्वकेतुको छ: बाणोंद्वारा मारकर उसे घोड़ों 
और सारथिसहित रथसे नीचे गिरा दिया || ७ ।। 

मार्तिकावतकं भोजं तत: कुज्जरकेतनम्‌ | 

क्षुरप्रेण समुन्मथ्य ननाद विसृजन्‌ शरान्‌ ।। ८ ।। 

तत्पश्चात्‌ हाथीके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले मार्तिकावतक नरेश भोजको एक क्षुरप्रद्वारा 
नष्ट करके अभिमन्युने बाणोंकी वर्षा करते हुए सिंहनाद किया ।। ८ ।। 

तस्य दौ:शासनिर्विद्ध्वा चतुर्भिश्नतुरों हयान्‌ । 

सूतमेकेन विव्याध दशभिश्चार्जुनात्मजम्‌ ।। ९ |। 

तब दुःशासनकुमारने चार बाणोंद्वारा अभिमन्युके चारों घोड़ोंको घायल करके एकसे 
सारथिको और दस बाणोंद्वारा स्वयं अभिमन्युको बींध डाला ।। ९ |। 

ततो दौःशासरनिं कार्ष्णिविद्ध्वा सप्तभिराशुगै: । 

संरम्भाद्‌ रक्तनयनो वाक्यमुच्चैरथाब्रवीत्‌ । १० ।। 

यह देख अर्जुनकुमारने क्रोधसे लाल आँखें करके सात बाणोंद्वारा दुःशासनपुत्रको बींध 
डाला और उच्च स्वरसे यह बात कही-- ।। १० ।। 

पिता तवाह॒वं त्यक्त्वा गत: कापुरुषो यथा । 

दिष्ट्या त्वमपि जानीषे योर न त्वद्य मोक्ष्यसे ।। १३ ।। 

“अरे! तेरा पिता कायरकी भाँति युद्ध छोड़कर भाग गया है। सौभाग्यकी बात है कि तू 
भी युद्ध करना जानता है; किंतु आज तू जीवित नहीं छूट सकेगा” ।। ११ ।। 

एतावदुक्त्वा वचन कर्मारपरिमार्जितम्‌ । 

नाराचं विससर्जास्मै त॑ द्रौणिस्त्रिभिराच्छिनत्‌ ।। १२ ।। 

यह वचन कहकर अभिमन्युने कारीगरके माँजे हुए एक नाराचको दुःशासनपुत्रपर 
चलाया; परंतु अश्वत्थामाने तीन बाण मारकर उसे बीचमें ही काट दिया ।। १२ ।। 

तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा शल्यं त्रेभिरताडयत्‌ । 

त॑ं शल्यो नवभिर्बाणैर्गार्ध्रपत्रैरताडयत्‌ ।। १३ ।। 

हृद्यसम्भ्रान्तवद्‌ राज॑स्तदद्भुतमिवा भवत्‌ । 


तब अर्जुनकुमारने अश्वत्थामाका ध्वज काटकर शल्यको तीन बाण मारे। राजन! 
शल्यने भी मनमें तनिक भी सम्भ्रम या घबराहटका अनुभव न करते हुए-से गीधके पंखसे 
युक्त नौ बाणोंद्वारा अभिमन्युको आहत कर दिया। वह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। १३३ ।। 

तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा हत्वोभौ पार्ष्णिसारथी ।। १४ ।। 

त॑ विव्याधायसै: षड्भि: सोपाक्रामद्‌ रथान्तरम्‌ | 

उस समय अभिमन्युने शल्यके ध्वजको काटकर उनके दोनों पार्श्वरक्षकोंको भी मार 
डाला और उनको भी लोहेके बने हुए छः: बाणोंसे बींध दिया; फिर तो शल्य भागकर दूसरे 
रथपर चले गये ।। १४६ ।। 

शत्रुंजयं चन्द्रकेतुं मेघवेगं सुवर्चसम्‌ ।। १५ ।। 

सूर्यभासं च पज्चैतान्‌ हत्वा विव्याध सौबलम्‌ | 

त॑ सौबलस्त्रिभिविंद्ध्वा दुर्योधनमथाब्रवीत्‌ ।। १६ ।। 

तत्पश्चात्‌ शत्रुंजय, चन्द्रकेतु, मेघवेग, सुवर्चा और सूर्यभास--इन पाँच वीरोंको मारकर 
अभिमन्युने सुबलपुत्र शकुनिको भी घायल कर दिया। तब शकुनिने भी तीन बाणोंसे 
अभिमन्युको घायल करके दुर्योधनसे इस प्रकार कहा-- ।। १५-१६ ।। 

सर्व एनं विमथ्नीम: पुरैकैकं हिनस्ति नः । 

अथाब्रवीत्‌ पुनद्रोणं कर्णो वैकर्तनो रणे ।। १७ ।। 

“राजन! यह एक-एकके साथ युद्ध करके हमें मारे, इसके पहले ही हम सब लोग 
मिलकर इस अभिमन्युको मथ डालें।” तदनन्तर विकर्तनपुत्र कर्णने रणक्षेत्रमें पुनः 
द्रोणाचार्यसे पूछा-- ।। १७ ।। 

पुरा सर्वान्‌ प्रमथ्नाति ब्रूहस्य वधमाशु न: । 

ततो द्रोणो महेष्वास: सर्वास्तान्‌ प्रत्यभाषत ।। १८ ।। 

“आचार्य! अभिमन्यु हमलोगोंको मार डाले' इसके पहले ही हमें शीघ्र यह बताइये कि 
इसका वध किस प्रकार होगा?” तब महाधनुर्धर द्रोणाचार्यने उन सबसे कहा-- ।। १८ ।। 

अस्ति वास्यान्तरं किंचित्‌ कुमारस्यथाथ पश्यत । 

अण्वप्यस्यान्तरं हाद्य चरत: सर्वतोदिशम्‌ ।। १९ |। 

“देखो, क्या इस कुमार अभिमन्युमें कहीं कोई दुर्बलता या छिठद्र है? सम्पूर्ण दिशाओंमें 
विचरते हुए अभिमन्युमें आज कोई छोटा-सा भी छिटद्र हो तो देखो || १९ ।। 

शीघ्रतां नरसिंहस्य पाण्डवेयस्य पश्यत । 

धनुर्मण्डलमेवास्य रथमार्गेषु दृश्यते |। २० ।। 

संदधानस्य विशिखान्‌ शीघ्रं चैव विमुज्चत: । 

“इस पुरुषसिंह पाण्डवपुत्रकी शीघ्रता तो देखो। शीघ्रतापूर्वक बाणोंका संधान करते 
और छोड़ते समय रथके मार्गोंमें इसके धनुषका मण्डलमात्र दिखायी देता है || २०६ ।। 

आरुजन्नपि मे प्राणान्‌ मोहयन्नपि सायकैः ।। २१ ।। 


प्रहर्षषति मां भूय: सौभद्र: परवीरहा । 

अति मां नन्दयत्येष सौभद्रो विचरन्‌ रणे ।। २२ ।। 

'शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला सुभद्राकुमार अभिमन्यु यद्यपि अपने बाणोंद्वारा मेरे 
प्राणोंको अत्यन्त वष्ट दे रहा है, मुझे मूर्च्छित किये देता है, तथापि बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा 
रहा है। रणक्षेत्रमें विचरता हुआ सुभद्राका यह पुत्र मुझे अत्यन्त आनन्दित कर रहा 
है ।। २१-२२ ।। 

अन्तरं यस्य संरब्धा न पश्यन्ति महारथा: । 

अस्यतो लघुहस्तस्य दिश: सर्वा महेषुभि: ।। २३ |। 

न विशेषं प्रपश्यामि रणे गाण्डीवधन्चन: । 

'क्रोधमें भरे हुए महारथी इसके छिद्रको नहीं देख पाते हैं। यह शीघ्रतापूर्वक हाथ 
चलाता हुआ अपने महान्‌ बाणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त कर रहा है। मैं युद्धस्थलमें 
गाण्डीवधारी अर्जुन और इस अभिमन्युमें कोई अन्तर नहीं देख पाता हूँ” ।। २३ $ ।। 

अथ कर्ण: पुनद्रोणमाहार्जुनिशराहत: ।। २४ ।। 

स्थातव्यमिति तिष्ठामि पीड्यमानो5भिमन्युना । 

तदनन्तर कर्णने अभिमन्युके बाणोंसे आहत होकर पुनः द्रोणाचार्यसे कहा--“आचार्य! 
मैं अभिमन्युके बाणोंसे पीड़ित होता हुआ भी केवल इसलिये यहाँ खड़ा हूँ कि युद्धके 
मैदानमें डटे रहना ही क्षत्रियका धर्म है (अन्यथा मैं कभी भाग गया होता) || २४६ ।। 

तेजस्विन: कुमारस्य शरा: परमदारुणा: ॥। २५ || 

क्षिण्वन्ति हृदयं मेडद्य घोरा: पावकतेजस: । 

तमाचार्यो5ब्रवीत्‌ कर्ण शनकै: प्रहसन्निव ।। २६ ।। 

“तेजस्वी कुमार अभिमन्युके ये अत्यन्त दारुण और अग्निके समान तेजस्वी घोर बाण 
आज मेरे वक्ष:स्थलको विदीर्ण किये देते हैं।! यह सुनकर द्रोणाचार्य ठहाका मारकर हँसते 
हुए-से धीरे-धीरे कर्णसे इस प्रकार बोले--- || २५-२६ ।। 

अभेद्यमस्य कवचं युवा चाशुपराक्रम: । 

उपदिष्टा मया चास्य पितु: कवचधारणा ।। २७ ।। 

तामेष निखिलां वेत्ति ध्रुवं परपुरंजय: । 

शक्यं त्वस्य धनुश्छेत्तुं ज्यां च बाणैः समाहितैः ।। २८ ।। 

“कर्ण! अभिमन्युका कवच अभेद्य है। यह तरुण वीर शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट 
करनेवाला है। मैंने इसके पिताको कवच धारण करनेकी विधि बतायी है। शत्रुनगरीपर 
विजय पानेवाला यह वीर कुमार निश्चय ही वह सारी विधि जानता है (अत: इसका कवच 
तो अभेद्य ही है); परंतु मनोयोगपूर्वक चलाये हुए बाणोंसे इसके धनुष और प्रत्यंचाको 
काटा जा सकता है ।। २७-२८ ।। 

अभीषुंश्व हयांश्वनैव तथोभौ पार्ष्णिसारथी । 


एतत्‌ कुरु महेष्वास राधेय यदि शक्‍्यते ।। २९ ।। 

'साथ ही इसके घोड़ोंकी वागडोरोंको, घोड़ोंको तथा दोनों पार्श्वरक्षकोंको भी नष्ट किया 
जा सकता है। महाधनुर्धर राधापुत्र! यदि कर सको तो यही करो ।। २९ ।। 

अथैनं विमुखीकृत्य पश्चात्‌ प्रहरणं कुरु । 

सथनुष्को न शक्‍्यो5यमपि जेतुं सुरासुरै: ।। ३० ।। 

“अभिमन्युको युद्धसे विमुख करके पीछे इसके ऊपर प्रहार करो, धनुष लिये रहनेपर 
तो इसे सम्पूर्ण देवता और असुर भी जीत नहीं सकते ।। ३० ।। 

विरथं विधनुष्कं च कुरुष्वैनं यदीच्छसि । 

तदाचार्यवच: श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनस्त्वरन्‌ ।। ३१ ।। 

अस्यतो लघुहस्तस्य पृषत्कैर्धनुराच्छिनत्‌ । 

अश्वानस्यावधीद्‌ भोजो गौतम: पार्ष्णिसारथी ।। ३२ ।। 

“यदि तुम इसे परास्त करना चाहते हो तो इसके रथ और धनुषको नष्ट कर दो।' 
आचार्यकी यह बात सुनकर विकर्तनपुत्र कर्णने बड़ी उतावलीके साथ अपने बाणोंद्वारा 
शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाते हुए अस्त्रोंका प्रयोग करनेवाले अभिमन्युके धनुषको काट दिया। 
भोजवंशी कृतवर्माने उसके घोड़े मार डाले और कृपाचार्यने दोनों पार्श्वरक्षकोंका काम 
तमाम कर दिया ।। ३१-३२ ।। 

शेषास्तु च्छिन्नधन्वानं शरवर्षरवाकिरन्‌ । 

त्वरमाणास्त्वराकाले विरथं षण्महारथा: ।। ३३ ।। 

शरवर्षरकरुणा बालमेकमवाकिरन्‌ । 

शेष महारथी धनुष कट जानेपर अभिमन्युके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। इस 
प्रकार शीघ्रता करनेके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले छः निर्दय महारथी एक रथहीन 
बालकपर बाणोंकी बौछार करने लगे || ३३३ ।। 

स च्छिन्नथधन्वा विरथ: स्वधर्ममनुपालयन्‌ ।। ३४ ।। 

खड्गचर्म धर: श्रीमानुत्पपात विहायसा । 

धनुष कट जाने और रथ नष्ट हो जानेपर तेजस्वी वीर अभिमन्यु अपने धर्मका पालन 
करते हुए ढाल और तलवार हाथमें लेकर आकाशमें उछल पड़ा ।। ३४३ ।। 

मार्गे: सकौशिकाद्यैश्व लाघवेन बलेन च ।। ३५ ।। 

आर्जुनिर्व्यचरद्‌ व्योम्नि भृशं वै पक्षिराडिव । 

अर्जुनकुमार अभिमन्यु कौशिक आदि मार्गों (पैतरों) द्वारा तथा शीघ्रकारिता और बल- 
पराक्रमसे पक्षिराज गरुड़की भाँति भूतलकी अपेक्षा आकाशमें ही अधिक विचरण करने 
लगा ॥। ३५३ || 

मय्येव निपतत्येष सासिरित्यूर्थ्वदृष्टय: ॥। ३६ ।। 

विव्यधुस्तं महेष्वासं समरे छिद्रदर्शिन: । 


समरांगणमें छिद्र देखनेवाले योद्धा 'जान पड़ता है यह मेरे ही ऊपर तलवार लिये टूटा 
पड़ता है” इस आशंकासे ऊपरकी ओर दृष्टि करके महाधनुर्धर अभिमन्युको बींधने 
लगे || ३६३६ || 

तस्य द्रोणो$च्छिनन्मुष्टी खड्गं मणिमयत्सरुम्‌ ।। ३७ ।। 

क्षुरप्रेण महातेजास्त्वरमाण: सपत्नजित्‌ | 

उस समय शत्रुओंपर विजय पानेवाले महातेजस्वी द्रोणाचार्यने शीघ्रता करते हुए एक 
क्षुप्रके द्वारा अभिमन्युकी मुद्ठीमें स्थित हुए मणिमय मूठसे युक्त खड़गको काट 
डाला || ३७३ || 

राधेयो निशितैर्बाणिव्यधमच्चर्म चोत्तमम्‌ || ३८ ।। 

व्यसिचर्मेषुपूर्णाड़: सो<न्तरिक्षात्‌ पुन: क्षितिम्‌ । 

आस्थितश्षक्रमुद्यम्य द्रोणं क्रुद्धो& भ्यधावत ।। ३९ ।। 

राधानन्दन कर्णने अपने पैने बाणोंद्वारा उसके उत्तम ढालके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। 
ढाल और तलवारसे वंचित हो जानेपर बाणोंसे भरे हुए शरीरवाला अभिमन्यु पुनः 
आकाशसे पृथ्वीपर उतर आया और चक्र हाथमें ले कुपित हो द्रोणाचार्ेुकी ओर 
दौड़ा ।। ३८-३९ ।। 





अभिमन्युपर अनेक महारथियोंद्वारा एक साथ प्रहार 


स चक्ररेणूज्ज्वलशोभिताडज्रे 
बभावतीवोज्ज्वलचक्रपाणि: । 
रणे5भिमन्यु: क्षणमास रौद्र: 
स वासुदेवानुकृतिं प्रकुर्वन्‌ । ४० ।। 
अभिमन्युका शरीर चक्रकी प्रभासे उज्ज्वल तथा धूलराशिसे सुशोभित था। उसके 
हाथमें तेजोमय उज्ज्वल चक्र प्रकाशित हो रहा था। इससे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। 
उस रफणक्षेत्रमें चक्रधारणद्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णतणा अनुकरण करता हुआ अभिमन्यु 
क्षणभरके लिये बड़ा भयंकर प्रतीत होने लगा || ४० ।। 
ख्रुतर॒ुधिरकृतैकरागवत्त्रो 
भ्रुकुटिपुटाकुटिलो5तिसिंहनाद: । 
प्रभुरमितबलो रणे5भिमन्यु- 
नपवरमध्यगतो भृशं व्यराजत्‌ ।। ४१ ।। 
अभिमन्युके वस्त्र उसके शरीरसे बहनेवाले एकमात्र रुधिरके रंगमें रँग गये थे। भौंहें 
टेढ़ी होनेसे उसका मुख-मण्डल सब ओरसे कुटिल प्रतीत होता था और वह बड़े जोर- 
जोरसे सिंहनाद कर रहा था। ऐसी अवस्थामें प्रभावशाली अनन्त बलवान्‌ अभिमन्यु उस 
रणक्षेत्रमें पूर्वोक्त नरेशोंके बीचमें खड़ा होकर अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था || ४१ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युविरथकरणे 
अष्टचत्वारिंशो5ध्याय: ।। ४८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें आभिमन्युको रथह्दीन 
करनेसे सम्बन्ध रखनेवाला अड़्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४८ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ श्लोक मिलाकर कुल ४१ ६ “लोक हैं।) 


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एकोनपज्चाशत्तमो<ड्ध्याय: 


अभिमन्युका कालिकेय, वसाति और कैकय रथियोंको मार 
डालना एवं छ: महारथियोंके सहयोगसे अभिमन्युका वध 
और भागती हुई अपनी सेनाको युधिष्ठिरका आश्वासन देना 


संजय उवाच 

विष्णो: स्वसुर्नन्दकर: स विष्ण्वायुधभूषण: । 

रराजातिरथ: संख्ये जनार्दन इवापर: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्राको आनन्दित करनेवाला 
तथा श्रीकृष्णके ही समान चक्ररूपी आयुधसे सुशोभित होनेवाला अतिरथी वीर अभिमन्यु 
उस युद्धस्थलमें दूसरे श्रीकृष्णके समान प्रकाशित हो रहा था ।। १ ।। 

मारुतोद्धूतकेशान्तमुद्यतारिवरायुधम्‌ । 

वपु: समीक्ष्य पृथ्वीशा दुःसमीक्ष्यं सुरैरपि || २ ।। 

तच्चक्रं भृशमुद्विग्ना: संचिच्छिदुरनेकधा । 

हवा उसके केशान्तभागको हिला रही थी। उसने अपने हाथमें चक्रनामक उत्तम आयुध 
उठा रखा था। उस समय उसके शरीर और उस चक्रको--जिसकी ओर दृष्टिपात करना 
देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन था--देखकर समस्त भूपालगण अत्यन्त उद्विग्न हो 
उठे और उन सबने मिलकर उस चक्रके टुकड़े-टुकड़े कर दिये || २६ ।। 

महारथस्तत: कार्ष्णि: संजग्राह महागदाम्‌ ।। ३ || 

विधनुःस्यन्दनासिस्तैर्विचक्रश्चारिभि: कृत: । 

अभिमन्युर्गदापाणिर श्वृत्थामानमार्दयत्‌ ।। ४ ।। 

तब महारथी अभिमन्युने एक विशाल गदा हाथमें ले ली। शत्रुओंने उसे धनुष, रथ, 
खड्ग और चक्रसे भी वंचित कर दिया था। इसलिये गदा हाथमें लिये हुए अभिमन्युने 
अश्वत्थामापर धावा किया ।। ३-४ ।। 

स गदामुद्यतां दृष्टवा ज्वलन्तीमशनीमिव । 

अपाक्रामद्‌ रथोपस्थाद्‌ विक्रमांस्त्रीन्‌ नरर्षभ: ।। ५ ।। 

प्रजजलित वज़्के समान उस गदाको ऊपर उठी हुई देख नरश्रेष्ठ अश्वत्थामा अपने 
रथकी बैठकसे तीन पग पीछे हट गया ।। ५ ।। 





तस्याश्वान्‌ गदया हत्वा तथोभौ पार्ष्णिसारथी । 

शराचिताड्: सौभद्र: श्वाविद्वत्‌ समदृश्यत ।। ६ ।। 

उस गदासे अभश्र॒ृत्थामाके चारों घोड़ों तथा दोनों पार्श्वरक्षकोंको मारकर बाणोंसे भरे हुए 
शरीरवाला सुभद्राकुमार साहीके समान दिखायी देने लगा ।। ६ ।। 

ततः सुबलदायादं कालिकेयमपोथयत्‌ | 

जघान चास्यानुचरान्‌ गान्धारान्‌ सप्तसप्ततिम्‌ ।। ७ ।। 

तदनन्तर उसने सुबलपुत्र कालिकेयको मार गिराया और उसके पीछे चलनेवाले 
सतहत्तर गान्धारोंका भी संहार कर डाला || ७ |। 

पुनश्चैव वसातीयाज्जघान रथिनो दश । 

केकयानां रथान्‌ सप्त हत्वा च दश कुञ्जरान्‌ ॥। ८ ।। 

दौ:शासनिरथं साश्वं गदया समपोथयत्‌ । 

इसके बाद दस वसातीय रथियोंको मार डाला। केकयोंके सात रथों और दस 
हाथियोंको मारकर दुःशासनकुमारके घोड़ोंसहित रथको भी गदाके आघातसे चूर-चूर कर 
डाला ।। ८$ || 

ततो दौ:शासनि: क्रुद्धो गदामुद्यम्य मारिष ॥। ९ ।। 

अभिदुद्राव सौभद्रं तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ | 

आर्य! इससे दुःशासनपुत्र कुपित हो गदा हाथमें लेकर अभिमन्युकी ओर दौड़ा और 
इस प्रकार बोला--“अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ९३ ।। 

तावुद्यतगदौ वीरावन्योन्यवधकाड्क्षिणौ ।। १० ।। 

भ्रातृव्यौ सम्प्रजह्वाते पुरेव ऋयम्बकान्धकौ । 


वे दोनों वीर एक-दूसरेके शत्रु थे। अतः गदा हाथमें लेकर एक-दूसरेका वध करनेकी 
इच्छासे परस्पर प्रहार करने लगे। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकालमें भगवान्‌ शंकर और 
अन्धकासुर परस्पर गदाका आघात करते थे ।। 

तावन्योन्यं गदाग्राभ्यामाहत्य पतितौ क्षितौ ।। ११ ।। 

इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टी रणमध्ये परंतपौ । 

शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों वीर रणक्षेत्रमें गदाके अग्रभागसे एक-दूसरेको चोट 
पहुँचाकर नीचे गिराये हुए दो इन्द्र-ध्वजोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़े ।। 

दौ:शासनिरथोत्थाय कुरूणां कीर्तिवर्धन: ।। १२ ।। 

उत्तिष्ठमानं सौभद्रं गदया मूर्थ््यताडयत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले दुःशासनपुत्रने पहले उठकर उठते हुए 
सुभद्राकुमारके मस्तकपर गदाका प्रहार किया || १२३ ।। 

गदावेगेन महता व्यायामेन च मोहित: ।। १३ ।। 

विचेता न्‍न्यपतद्‌ भूमौ सौभद्र: परवीरहा । 

एवं विनिहतो राजन्नेको बहुभिराहवे ।। १४ ।। 

गदाके उस महान्‌ वेग और परिश्रमसे मोहित होकर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाला 
अभिमन्यु अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। राजन! इस प्रकार उस युद्धस्थलमें बहुत-से 
योद्धाओंने मिलकर एकाकी अभिमन्युको मार डाला || १३-१४ ।। 

क्षोभयित्वा चमूं सर्वां नलिनीमिव कुञ्जर: । 

अशोभत हतो वीरो व्याधैर्वनगजो यथा ।॥। १५ ।। 

जैसे हाथी कभी सरोवरको मथ डालता है, उसी प्रकार सारी सेनाको क्षुब्ध करके 
व्याधोंके द्वारा जंगली हाथीकी भाँति मारा गया वीर अभिमन्यु वहाँ अद्भुत शोभा पा रहा 
था ।। १५ || 

त॑ं तथा पतितं शूरं तावका: पर्यवारयन्‌ । 

दावं दग्ध्वा यथा शान्तं पावकं शिशिरात्यये ।। १६ ।। 

विमृद्य नगशृज्भजाणि संनिवृत्तमिवानिलम्‌ । 

अस्तंगतमिवादित्यं तप्त्वा भारतवाहिनीम्‌ ।। १७ ।। 

उपप्लुतं यथा सोम॑ संशुष्कमिव सागरम्‌ | 

पूर्णचन्द्रा भवदनं काकपक्षवृताक्षिकम्‌ ।। १८ ।। 

त॑ भूमौ पतितं दृष्टवा तावकास्ते महारथा: । 

मुदा परमया युक्ताश्रुक्रुशु: सिंहवन्मुहु: । १९ ।। 

इस प्रकार रणभूमिमें गिरे हुए शूरवीर अभिमन्युको आपके सैनिकोंने चारों ओरसे घेर 
लिया। जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें जंगलको जलाकर आग बुझ गयी हो, जिस प्रकार वायु वृक्षोंकी 
शाखाओंको तोड़-फोड़कर शान्त हो रही हो, जैसे संसारको संतप्त करके सूर्य अस्ताचलको 


चले गये हों, जैसे चन्द्रमापर ग्रहण लग गया हो तथा जैसे समुद्र सूख गया हो, उसी प्रकार 
समस्त कौरव-सेनाको संतप्त करके पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाला अभिमन्यु पृथ्वीपर 
पड़ा था; उसके सिरके बड़े-बड़े बालों (काकपक्ष)-से उसकी आँखें ढक गयी थीं। उस 
दशामें उसे देखकर आपके महारथी बड़ी प्रसन्नताके साथ बारंबार सिंहनाद करने 
लगे ।। १६--१९ |। 

आसीत्‌ परमको हर्षस्तावकानां विशाम्पते । 

इतरेषां तु वीराणां नेत्रेभ्य: प्रापतज्जलम्‌ ।। २० ।। 

प्रजानाथ! आपके पुत्रोंको तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु पाण्डववीरोंके नेत्रोंसे आँसू बहने 
लगा || २० |। 

अन्तरिक्षे च भूतानि प्राक्रोशन्त विशाम्पते । 

दृष्टवा निपतितं वीरं च्युतं चन्द्रमिवाम्बरात्‌ | २१ ।। 

महाराज! उस समय अन्तरिक्षमें खड़े हुए प्राणी आकाशसे गिरे हुए चन्द्रमाके समान 
वीर अभिमन्युको रणभूमिमें पड़ा देख उच्च स्वरसे आपके महारथियोंकी निन्‍दा करने 
लगे | २१ ।। 

द्रोणकर्णमुखै: षड्भिर्धार्तराष्ट्रमहारथै: । 

एको<यं निहतः शेते नैष धर्मो मतो हि न: ।। २२ ।। 

ट्रोण और कर्ण आदि छ: कौरव महारथियोंके द्वारा असहाय अवस्थामें मारा गया यह 
एक बालक यहाँ सो रहा है। हमारे मतमें यह धर्म नहीं है || २२ ।। 

तस्मिन्‌ विनिहते वीरे बह्नशो भत मेदिनी । 

द्यौर्यथा पूर्णचन्द्रेण नक्षत्रणणमालिनी ।। २३ ।। 

वीर अभिमन्युके मारे जानेपर वह रणभूमि पूर्ण चन्द्रमासे युक्त तथा नक्षत्रमालाओंसे 
अलंकृत आकाशकी भाँति बड़ी शोभा पा रही थी ।। २३ ।। 

रुक्मपुड्खैश्न सम्पूर्णा रुधिरौघपरिप्लुता । 

उत्तमान्जैश्व शूराणां भ्राजमानै: सकुण्डलै: ।। २४ ।। 

विचिन्रैश्व॒ परिस्तोभै: पताकाभिश्न संवृता । 

चामरैश्न कुथाभिश्र प्रविद्धैश्नाम्बरोत्तमै: ।। २५ ।। 

तथाश्वनरनागानामलंकारैश्व सुप्रभे: । 

खडगै: सुनिशितै: पीतैनिर्मुक्तिर्भुजगैरिव ।। २६ ।। 

चापैश्न विविधैश्छिन्नै: शक्‍्त्यृष्टिप्रासकम्पनै: । 

विविधैश्वायुधैश्वान्यै: संवृता भूरशो भत ।। २७ ।। 

सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे वहाँकी भूमि भरी हुई थी। रक्तकी धाराओंमें डूबी हुई थी। 
शूरवीरोंके कुण्डल-मण्डित तेजस्वी मस्तकों, हाथियोंके विचित्र झूलों, पताकाओं, चामरों, 
हाथीकी पीठपर बिछाये जानेवाले कम्बलों, इधर-उधर पड़े हुए उत्तम वस्त्रों, हाथी, घोड़े 


और मनुष्योंके चमकीले आभूषणों, केंचुलसे निकले हुए सर्पोके समान पैने और पानीदार 
खड़गों, भाँति-भाँतिके कटे हुए धनुषों, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, कम्पन तथा अन्य नाना प्रकारके 
आयुधोंसे आच्छादित हुई रणभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही थी || २४--२७ ।। 

वाजिभिश्षापि निर्जीवै: श्वसद्धि: शोणितो क्षितै: । 

सारोहैरविषमा भूमि: सौभद्रेण निपातितैः ।। २८ ।। 

सुभद्राकुमार अभिमन्युके द्वारा मार गिराये हुए रक्तस्नात निर्जीव और सजीव घोड़ों 
और घुड़सवारोंके कारण वह भूमि विषम एवं दुर्गम हो गयी थी ।। २८ ।। 

साड्कुशै: समहामात्रै: सवर्मायुधकेतुभि: । 

पर्वतैरिव विध्वस्तैर्विशिखैर्मथितैर्गजै: ।। २९ ।। 

पृथिव्यामनुकीर्णैश्न व्यश्वसारथियोधिभि: । 

हृदैरिव प्रक्षुभितैर्हतनागै रथोत्तमै: । ३० ।। 

पदातिसंघैश्न हतैर्विविधायुध भूषणै: । 

भीरूणां त्रासजननी घोररूपाभवन्मही ।। ३१ ।। 

अंकुश, महावत, कवच, आयुध और ध्वजाओंसहित बड़े-बड़े गजराज बाणोंद्वारा 
मथित होकर भहराये हुए पर्वतोंके समान जान पड़ते थे। जिन्होंने बड़े-बड़े गजराजोंको मार 
डाला था, वे श्रेष्ठ रथ घोड़े, सारथि और योद्धाओंसे रहित हो मथे गये सरोवरोंके समान चूर- 
चूर होकर पृथ्वीपर बिखरे पड़े थे। नाना प्रकारके आयुधों और आभूषणोंसे युक्त पैदल 
सैनिकोंके समूह भी उस युद्धमें मारे गये थे। इन सबके कारण वहाँकी भूमि अत्यन्त 
भयानक तथा भीरु पुरुषोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली हो गयी थी ।। २९-३१ ।। 

तं॑ दृष्टवा पतितं भूमौ चन्द्रार्कसदृशद्युतिम्‌ 

तावकानां परा प्रीति: पाण्डूनां चाभवद्‌ व्यथा ।। ३२ ।। 

चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिमान्‌ अभिमन्युको पृथ्वीपर पड़ा देख आपके पुत्रोंको 
बड़ी प्रसन्नता हुई और पाण्डवोंकी अन्तरात्मा व्यथित हो उठी ।। ३२ ।। 

अभिमन्यौ हते राजन्‌ शिशुके<प्राप्तयौवने । 

सम्प्राद्रवच्चमू: सर्वा धर्मराजस्य पश्यत: ।। ३३ ।। 

राजन! जो अभी युवावस्थाको प्राप्त नहीं हुआ था, उस बालक अभिमन्युके मारे 
जानेपर धर्मराज युधिष्ठिरके देखते-देखते उनकी सारी सेना भागने लगी ।। ३३ ।। 

दीर्यमाणं बल॑ दृष्टवा सौभद्रे विनिपातिते । 

अजातशशत्रुस्तान्‌ वीरानिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ३४ ।। 

सुभद्राकुमारके धराशायी होनेपर अपनी सेनामें भगदड़ पड़ी देख अजातशत्रु 
युधिष्ठिरने अपने पक्षके उन वीरोंसे यह वचन कहा-- ।। ३४ ॥। 

स्वर्गमेष गत: शूरो यो हतो न पराड्मुख: । 

संस्तम्भयत मा भैष्ट विजेष्यामो रणे रिपून्‌ ।। ३५ ।। 


“यह शूरवीर अभिमन्यु जो प्राणोंपर खेल गया, परंतु युद्धमें पीठ न दिखा सका, निश्चय 
ही स्वर्गलोकमें गया है। तुम सब लोग धैर्य धारण करो। भयभीत न होओ। हमलोग 
रणक्षेत्रमें शत्रुओंको अवश्य जीतेंगे” || ३५ ।। 

इत्येवं स महातेजा दु:खितेभ्यो महाद्युति: । 

धर्मराजो युधां श्रेष्ठो ब्रवन्‌ दुः:खमपानुदत्‌ ।। ३६ ।। 

महातेजस्वी और परम कान्तिमान्‌ योद्धाओंमें श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरने अपने दुःखी 
सैनिकोंसे ऐसा कहकर उनके दुःखका निवारण किया ।। ३६ ।। 

युद्धे ह्ाशीविषाकारान्‌ राजपुत्रान्‌ रणे रिपून्‌ | 

पूर्व निहत्य संग्रामे पश्चादार्जुनिर भ्ययात्‌ ।। ३७ ।। 

युद्धमें विषधर सर्पके समान भयंकर शत्रुरूप राजकुमारोंको पहले मारकर पीछेसे 
अर्जुनकुमार अभिमन्यु स्वर्गलोकमें गया था ।। ३७ ।। 

हत्वा दश सहस्राणि कौसल्यं च महारथम्‌ । 

कृष्णार्जुनसम: कार्ष्णि: शक्रलोकं गतो ध्रुवम्‌ ।। ३८ ।। 

दस हजार रथियों और महारथी कोसलनरेश बृहद्वधलको मारकर श्रीकृष्ण और अर्जुनके 
समान पराक्रमी अभिमन्यु निश्चय ही इन्द्रलोकमें गया है ।। ३८ ।। 

रथाश्वनरमातड़ान्‌ विनिहत्य सहख्रश: । 

अवितृप्त: स संग्रामादशोच्य: पुण्यकर्मकृत्‌ । 

गत: पुण्यकृतां लोकान्‌ शाश्चतान्‌ पुण्यनिर्जितान्‌ ।। ३९ ।। 

रथ, घोड़े, पैदल और हाथियोंका सहस्रोंकी संख्यामें संहार करके भी वह युद्धसे तृप्त 
नहीं हुआ था। पुण्यकर्म करनेके कारण अभिमन्यु शोकके योग्य नहीं है। वह पुण्यात्माओंके 
पुण्योपार्जित सनातन लोकोंमें जा पहुँचा है ।। ३९ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि अभिमन्युवधे 
एकोनपज्चाशत्तमो5 ध्याय: ।। ४९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें अभिमनन्‍्युवधविषयक 
उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ४९ ॥ 


ऑपन--माज छा अकाल 


पजञ्चाशत्तमो<्ध्याय: 


तीसरे (तेरहवें) दिनके युद्धकी समाप्तिपर सेनाका 
शिविरको प्रस्थान एवं रणभूमिका वर्णन 


संजय उवाच 
वयं तु प्रवरं हत्वा तेषां तैः शरपीडिता: । 
निवेशायाभ्युपायाम: सायाह्वे रुधिरोक्षिता: ।। १ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! हमलोग शत्रुओंके उस प्रमुख वीरका वध करके उनके 
बाणोंसे पीड़ित हो संध्याके समय शिविरमें विश्रामके लिये चले आये। उस समय 
हमलोगोंके शरीर रक्तसे भीग गये थे ।। १ ।। 
निरीक्षमाणास्तु वयं परे चायोधनं शनै: । 
अपयाता महाराज ग्लानिं प्राप्ता विचेतस: ।। २ ।। 
महाराज! हम और शत्रुपक्षके लोग युद्धस्थलको देखते हुए धीरे-धीरे वहाँसे हट गये। 
पाण्डवदलके लोग अत्यन्त शोकग्रस्त हो अचेत हो रहे थे || २ ।। 
ततो निशाया दिवसस्य चाशिव: 
शिवारुतै: संधिरवर्तताद्भधुत: । 
कुशेशयापीडनिभे दिवाकरे 
विलम्बमाने<स्तमुपेत्य पर्वतम्‌ ।। ३ ।। 
उस समय जब सूर्य अस्ताचलपर पहुँचकर ढल रहे थे, कमलनिर्मित मुकुटके समान 
जान पड़ते थे। दिन और रात्रिकी संधिरूप वह अद्भुत संध्या सियारिनोंके भयंकर शब्दोंसे 
अमंगलमयी प्रतीत हो रही थी ।। ३ ।। 
वरासिशव्त्यूष्टिवरूथचर्मणां 
विभूषणानां च समाक्षिपन्‌ प्रभा: । 
दिव॑ं च भूमिं च समानयत्निव 
प्रियां तनुं भानुरुपैति पावकम्‌ ।। ४ ।। 
सूर्यदेव श्रेष्ठ तलवार, शक्ति, ऋष्टि, वरूथ, ढाल और आभूषणोंकी प्रभाको छीनते तथा 
आकाश और पृथ्वीको समान अवस्थामें लाते हुए-से अपने प्रिय शरीर--अग्निमें प्रवेश कर 
रहे थे || ४ ।। 
महाभ्रकूटाचलश्‌ज्जञसंनिभै- 
गजैरनेकैरिव वज्रपातितै: । 
स वैजयन्त्यड्कुशवर्मयन्तृभि- 


न्पातितैर्नष्टगतिक्षिता क्षिति: ।। ५ ।। 
महान्‌ मेघोंके समुदाय तथा पर्वतशिखरोंके समान विशालकाय बहुसंख्यक हाथी इस 
प्रकार पड़े थे, मानो वज्से मार गिराये गये हों। वैजयन्ती पताका, अंकुश, कवच और 
महावतोंसहित धराशायी किये गये उन गजराजोंकी लाशोंसे सारी धरती पट गयी थी, 
जिसके कारण वहाँ चलने-फिरनेका मार्ग बंद हो गया था ।। ५ ।। 
हतेश्वरैश्वूर्णितपत्त्युपस्करै- 
हताश्वसूतैर्विपताककेतुभि: । 
महारथीैर्भू: शुशुभे विचूर्णिति: 
पुरैरिवामित्रहतैर्नराधिप ।। ६ ।। 
नरेश्वर! शत्रुओंके द्वारा तहस-नहस किये गये विशाल नगरोंके समान बड़े-बड़े रथ चूर- 
चूर होकर गिरे थे। उनके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे तथा ध्वजा-पताकाएँ नष्ट कर 
दी गयी थीं। इसी प्रकार उनके सवार मरे पड़े थे, पैदल सैनिक तथा युद्धसम्बन्धी अन्य 
उपकरण चूर-चूर हो गये थे। इन सबके द्वारा उस रणभूमिकी अद्भुत शोभा हो रही 
थी।। ६।। 
रथाश्ववृन्दै: सह सादिभिष॑तै: 
प्रविद्धभाण्डा भरणै: पृथग्विधै: । 
निरस्तजिह्दादशनान्त्रलोचनै- 
र्धरा बभौ घोरविरूपदर्शना ।। ७ ।। 
रथों और अश्वोंके समूह सवारोंके साथ नष्ट हो गये थे। भिन्न-भिन्न प्रकारके भाण्ड और 
आभूषण छित्न-भिन्न होकर पड़े थे। मनुष्यों और पशुओंकी जिह्ठा, दाँत, आँत और आँखें 
बाहर निकल आयी थीं। इन सबसे वहाँकी भूमि अत्यन्त घोर और विकराल दिखायी देती 
थी ।। ७।। 
प्रविद्धवर्माभरणाम्बरायुधा 
विपन्नहस्त्यश्वरथानुगा नरा: | 
महार्हशय्यास्तरणोचितास्तदा 
क्षितावनाथा इव शेरते हता: ॥। ८ ।। 
योद्धाओंके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध छिन्न-भिन्न हो गये। हाथी, घोड़े तथा 
रथोंका अनुसरण करनेवाले पैदल मनुष्य अपने प्राण खोकर पड़े थे। जो राजा और 
राजकुमार बहुमूल्य शय्याओं तथा बिछौनोंपर शयन करनेके योग्य थे, वे ही उस समय मारे 
जाकर अनाथकी भाँति पृथ्वीपर पड़े थे ।। ८ ।। 
अतीव हृष्टा: श्वशृूगालवायसा 
बका: सुपर्णाश्च वृकास्तरक्षव: । 
वयांस्यसृक्पान्यथ रक्षसां गणा: 


पिशाचसंघाश्व सुदारुणा रणे ॥। ९ ।। 
कुत्ते, सियार, कौए, बगुले, गरुड़, भेड़िये, तेंदुए, रक्त पीनेवाले पक्षी, राक्षसरोंके समुदाय 
तथा अत्यन्त भयंकर पिशाचगण उस रणभूमिमें बहुत प्रसन्न हो रहे थे |। ९ ।। 
त्वचो विनिर्भिद्य पिबन्‌ वसामसृक्‌ 
तथैव मज्जा: पिशितानि चाश्रुवन्‌ । 
वपां विलुम्पन्ति हसन्ति गान्ति च 
प्रकर्षमाणा: कुणपान्यनेकश: ।। १० ।। 
वे मृतकोंकी त्वचा विदीर्ण करके उनके वसा तथा रक्तको पी रहे थे, मज्जा और मांस 
खा रहे थे, चर्बियोंको काटकर चबा लेते थे तथा बहुत-से मृतकोंको इधर-उधर खींचते हुए 
वे हँसते और गीत गाते थे ।। १० ।। 
शरीरसंघातवहा हा[सृग्जला 
रथोडुपा कुज्जरशैलसड्कटा । 
मनुष्यशीर्षोपलमांसकर्दमा 
प्रविद्धनानाविधशस्त्रमालिनी ।। ११ ।। 
भयावहा वैतरणीव दुस्तरा 
प्रवर्तिता योधवरैस्तदा नदी । 
उवाह मध्येन रणाजिरे भृशं 
भयावहा जीवमृतप्रवाहिनी ।। १२ ।। 
उस समय श्रेष्ठ योद्धाओंने रणभूमिमें रक्तकी नदी बहा दी, जो वैतरणीके समान दुष्कर 
एवं भयंकर प्रतीत होती थी। उसमें जलकी जगह रक्तकी ही धारा बहती थी। ढेर-के-ढेर 
शरीर उसमें बह रहे थे। उसमें तैरते हुए रथ नावके समान जान पड़ते थे। हाथियोंके शरीर 
वहाँ पर्वतकी चट्टानोंके समान व्याप्त हो रहे थे। मनुष्योंकी खोपड़ियाँ प्रस्तरखण्डोंके समान 
और मांस कीचड़के समान जान पड़ते थे। वहाँ टूटे-फूटे पड़े हुए नाना प्रकारके शस्त्रसमूह 
मालाओंके समान प्रतीत होते थे। वह अत्यन्त भयंकर नदी रणक्षेत्रके मध्यभागमें बहती 
और मृतकों तथा जीवितोंको भी बहा ले जाती थी ।। ११-१२ ।। 
पिबन्ति चाश्नन्ति च यत्र दुर्देशा: 
पिशाचसंघास्तु नदन्ति भैरवा: । 
सुनन्दिता: प्राणभृतां क्षयड्करा: 
समानभक्षा: श्वशृगालपक्षिण: ।। १३ || 
जिनकी ओर देखना भी कठिन था, ऐसे भयंकर पिशाचसमूह वहाँ खाते-पीते और 
गर्जना करते थे। समस्त प्राणियोंका विनाश करनेवाले वे पिशाच बहुत ही प्रसन्न थे। कुत्तों, 
सियारों और पक्षियोंको भी समानरूपसे भोजनसामग्री प्राप्त हुई थी || १३ ।। 
तथा तदायोधनमुमग्रदर्शनं 


निशामुखे पितृपतिराष्ट्रवर्धनम्‌ । 
निरीक्षमाणा: शनकैर्जहुर्नरा: 
समुत्थिता नृत्तकबन्धसंकुलम्‌ ।। १४ ।। 
प्रदोषकालमें यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाली वह युद्धभूमि बड़ी भयंकर दिखायी 
देती थी। वहाँ सब ओर नाचते हुए कबन्ध (धड़) व्याप्त हो रहे थे। यह सब देखते हुए उभय 
पक्षके योद्धाओंने वहाँसे धीरे-धीरे चलकर उस युद्धस्थलको त्याग दिया ।। १४ ।। 
अपेतविध्वस्तमहार्ह भूषणं 
निपातितं शक्रसमं महाबलम्‌ । 
रणे5भिमन्युं ददृुशुस्तदा जना 
व्यपोढहव्यं सदसीव पावकम्‌ ।। १५ ।। 
उस समय लोगोंने देखा, इन्द्रके समान महाबली अभिमन्यु रणक्षेत्रमें गिरा दिया गया 
है। उसके बहुमूल्य आभूषण छिलन्न-भिन्न होकर शरीरसे दूर जा पड़े हैं और वह यज्ञवेदीपर 
हविष्यरहित अग्निके समान निस्तेज हो गया है ।। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि तृतीयदिवसावहारे 
समरभूमिवर्णने पञ्चाशत्तमो<5ध्याय: ।। ५० || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वरमें तीसरे दिनके युद्धें सेनाके 
शिविरमें प्रस्थान करते समय समरभूमिका वर्णनविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥। ५० ॥/ 


अपना बछ। है २ >> 


एकपज्चाशत्तमो< ध्याय: 
युधिष्ठिरका विलाप 


संजय उवाच 

हते तस्मिन्‌ महावीर्ये सौभद्रे रथयूथपे । 

विमुक्तरथसंनाहा: सर्वे निक्षिप्तकार्मुका: || १ ।। 

उपोपविष्टा राजानं परिवार्य युधिष्ठिरम्‌ । 

तदेव युद्ध ध्यायन्त: सौभद्रगतमानसा: ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! महापराक्रमी रथयूथपति सुभद्राकुमार अभिमन्युके मारे 
जानेपर समस्त पाण्डव महारथी रथ और कवचका त्याग कर और धनुषको नीचे डालकर 
राजा युधिष्ठिरको चारों ओरसे घेरकर उनके पास बैठ गये। उन सबका मन सुभद्राकुमार 
अभिमन्युमें ही लगा था और वे उसी युद्धका चिन्तन कर रहे थे ।। १-२ ।। 

ततो युधिष्ठिरो राजा विललाप सुदुःखित: । 

अभिमन्यौ हते वीरे भ्रातुः पुत्रे महारथे ॥। ३ ।। 

उस समय राजा युधिष्ठिर अपने भाईके वीर पुत्र महारथी अभिमन्युके मारे जानेके 
कारण अत्यन्त दुःखी हो विलाप करने लगे-- ।। ३ ।। 

(एष जित्वा कृपं शल्यं राजानं च सुयोधनम्‌ | 

द्रोणं द्रौर्णिं महेष्वासं तथैवान्यान्‌ महारथान्‌ ।।) 

द्रोणानीकमसम्बाधं मम प्रियचिकीर्षया । 

(हत्वा शत्रुगणान्‌ वीरानेष शेते निपातित:ः । 

कृतास्त्रान्‌ युद्धकुशलान्‌ महेष्वासान्‌ महारथान्‌ ।। 

कुलशीलगुणैर्युक्ताछ्छूरान्‌ विख्यातपौरुषान्‌ । 

द्रोणेन विहितं व्यूहमभेद्यममरैरपि ।। 

अदृष्टपूर्वमस्माभि: चक्र चक्रायुधप्रिय: ।) 

भित्त्वा व्यूहं प्रविष्टोडढसौ गोमध्यमिव केसरी ।। ४ ।। 

“अहो! कृपाचार्य, शल्य, राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य, महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा अन्य 
महारथियोंको जीतकर, मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे द्रोणाचार्यके निर्बाध सैन्यव्यूहको विनष्ट 
करके वीर शत्रुसमूहोंका संहार करनेके पश्चात्‌ यह पुत्र अभिमन्यु मार गिराया गया और अब 
रणक्षेत्रमें सो रहा है! जो अस्त्रविद्याके विद्वान, युद्धकुशल, कुल-शील और गुणोंसे युक्त, 
शूरवीर तथा अपने पराक्रमके लिये प्रसिद्ध थे, उन महाधनुर्धर महारथियोंको परास्त करके 
देवताओंके लिये भी जिसका भेदन करना असम्भव है तथा हमने जिसे पहले कभी 
देखातक नहीं था, उस द्रोणनिर्मित चक्रव्यूहका भेदन करके चक्रधारी श्रीकृष्णका प्यारा 


भानजा वह अभिमन्यु उसके भीतर उसी प्रकार प्रवेश कर गया, जैसे सिंह गौओंके झुंडमें 
घुस जाता है || ४ ।। 

(विक्रीडितं रणे तेन निघ्नता वै परान्‌ वरान्‌ ।) 

यस्य शूरा महेष्वासा: प्रत्यनीकगता रणे । 

प्रभग्ना विनिवर्तन्ते कृतास्त्रा युद्धदुर्मदा: ।। ५ ।। 

“उसने रणक्षेत्रमें प्रमुख-प्रमुख शत्रुवीरोंका वध करते हुए अद्भुत रणक्रीडा की थी। 
युद्धमें उसके सामने जानेपर शत्रुपक्षके अस्त्रविद्याविशारद युद्धदुर्मद और महान धनुर्धर 
शूरवीर भी हतोत्साह हो भाग खड़े होते थे ।। ५ ।। 

अत्यन्तशत्रुरस्माकं येन दुःशासन: शरै: | 

क्षिप्रं हभिमुख: संख्ये विसंज्ञो विमुखीकृत: ।। ६ ।। 

स तीर्त्वा दुस्तरं वीरो द्रोणानीकमहार्णवम्‌ । 

प्राप्प दौ:शासनिं कार्ष्णि: प्राप्तो वैवस्वतक्षयम्‌ ।। ७ ।। 

“जिस वीर अर्जुनकुमारने युद्धस्थलमें हमारे अत्यन्त शत्रु द:ःशासनको सामने आनेपर 
शीघ्र ही अपने बाणोंसे अचेत करके भगा दिया, वही महासागरके समान दुस्तर द्रोणसेनाको 
पार करके भी दुःशासनपुत्रके पास जाकर यमलोकमें पहुँच गया ।। ६-७ ।। 

कथं द्रक्ष्यामि कौन्तेयं सौभद्रे निहते$र्जुनम्‌ 

सुभद्रां वा महाभागां प्रियं पुत्रमपश्यतीम्‌ ।। ८ ।। 

“सुभद्राकुमार अभिमन्युके मार दिये जानेपर अब मैं कुन्तीकुमार अर्जुनकी ओर आँख 
उठाकर कैसे देखूँगा? अथवा अपने प्रियपुत्रको अब नहीं देख पानेवाली महाभागा सुभद्राके 
सामने कैसे जाऊँगा? ।। ८ ।। 

किंस्विद्‌ वयमपेतार्थमश्लिष्टमसमञ्जसम्‌ । 

तावुभौ प्रतिवक्ष्यामो हृषीकेशधनंजयौ ।। ९ ।। 

“हाय! हमलोग भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंके सामने किस प्रकार यह 
अनर्थपूर्ण, असंगत और अनुचित वृत्तान्त कह सकेंगे ।। ९ ।। 

अहमेव सुभद्राया: केशवार्जुनयोरपि । 

प्रियकामो जयाकाडुक्षी कृतवानिदमप्रियम्‌ ।। १० ।। 

“मैंने ही अपने प्रिय कार्यकी इच्छा, विजयकी अभिलाषा रखकर सुभद्रा, श्रीकृष्ण और 
अर्जुनका यह अप्रिय कार्य किया है | १० ।। 

न लुब्धो बुध्यते दोषॉल्लोभान्मोहात्‌ प्रवर्तते । 

मधुलिप्सुर्हि नापश्यं प्रपातमहमीदृशम्‌ ।। ११ ।। 

“लोभी मनुष्य किसी कार्यके दोषको नहीं समझता।' वह लोभ और मोहके वशीभूत 
होकर उसमें प्रवृत्त हो जाता है। मैंने मधुके समान मधुर लगनेवाले राज्यको पानेकी लालसा 
रखकर यह नहीं देखा कि इसमें ऐसे भयंकर पतनका भय है ।। ११ ।। 


यो हि भोज्ये पुरस्कार्यो यानेषु शयनेषु च । 

भूषणेषु च सो<स्माभिर्बालो युधि पुरस्कृत: ।। १२ ।। 

“हाय! जिस सुकुमार बालकको भोजन और शयन करने, सवारीपर चलने तथा भूषण, 
वस्त्र पहननेमें आगे रखना चाहिये था, उसे हमलोगोंने युद्धमें आगे कर दिया ।। 

कथं हि बालस्तरुणो युद्धानामविशारद: । 

सदश्च इव सम्बाधे विषमे क्षेममर्हति ।। १३ ।। 

“वह तरुणकुमार अभी बालक था। युद्धकी कलामें पूरा प्रवीण नहीं हुआ था। फिर 
गहन वनमें फँसे हुए सुन्दर अश्वकी भाँति वह उस विषम संग्राममें कैसे सकुशल रह सकता 
था? ।। १३ || 

नो चेद्धि वयमप्येनं महीमनु शयीमहि । 

बीभत्सो: कोपदीप्तस्य दग्धा: कृपणचक्षुषा ।। १४ ।। 

“यदि हमलोग अभिमन्युके साथ ही उस रणदक्षेत्रमें शयन न कर सके तो अब क्रोधसे 
उत्तेजित हुए अर्जुनके शोकाकुल नेत्रोंसे हमें अवश्य दग्ध होना पड़ेगा ।। १४ ।। 

अलुब्धो मतिमान्‌ ह्वीमान्‌ क्षमावान्‌ रूपवान्‌ बली । 

वपुष्मान्‌ मानकृद्‌ वीर: प्रिय: सत्यपराक्रम: ।। १५ ।। 

यस्य श्लाघन्ति विबुधा: कर्माण्यूजितकर्मण: | 

निवातकवचाज्जघ्ने कालकेयांश्व वीर्यवान्‌ । १६ ।। 

महेन्द्रशत्रवो येन हिरण्यपुरवासिन: । 

अक्ष्णोनिमिषमात्रेण पौलोमा: सगणा हता: ।। १७ ।। 

परेभ्यो5प्यभयार्थिभ्यो यो ददात्यभयं विभु: । 

तस्यास्माभिन शकितत्त्रातुमप्यात्मजो बली ।। १८ ।। 

“जो लोभरहित, बुद्धिमान, लज्जाशील, क्षमावान्‌, रूपवान, बलवान, सुन्दर 
शरीरधारी, दूसरोंको मान देनेवाले, प्रीतिपात्र, वीर तथा सत्यपराक्रमी हैं, जिनके कर्मोकी 
देवतालोग भी प्रशंसा करते हैं, जिनके कर्म सबल एवं महान्‌ हैं, जिन पराक्रमी वीरने 
निवातकवचों तथा कालकेय नामक दैत्योंका विनाश किया था, जिन्होंने आँखोंकी पलक 
मारते-मारते हिरण्यपुरनिवासी इन्द्रशत्रु पौलोम नामक दानवोंका उनके गणोंसहित संहार 
कर डाला था तथा जो सामर्थ्यशाली अर्जुन अभयकी इच्छा रखनेवाले शत्रुओंको भी 
अभयदान देते हैं, उन्हींके बलवान्‌ पुत्रकी भी हमलोग रक्षा नहीं कर सके || १५--१८ ।। 

भयं तु सुमहत्‌ प्राप्तं धार्तराष्ट्रानू महाबलान्‌ | 

पार्थ: पुत्रवधात्‌ क्रुद्ध/ कौरवाज्शोषयिष्यति ।। १९ ।। 

“अहो! महाबली धूृतराष्ट्रपुत्रोपर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है; क्योंकि अपने पुत्रके 
वधसे कुपित हुए कुन्तीकुमार अर्जुन कौरवोंको सोख लेंगे--उनका मूलोच्छेद कर 
डालेंगे || १९ |। 


क्षुद्र: क्षुद्रसहायश्न स्वपक्षक्षयमातुर: । 

व्यक्त दुर्योधनो दृष्टयवा शोचन्‌ हास्यति जीवितम्‌ ॥। २० ।। 

“दुर्योधन नीच है। उसके सहायक भी ओछे स्वभावके हैं, अतः वह निश्चय ही (अर्जुनके 
हाथों) अपने पक्षका विनाश देखकर शोकसे व्याकुल हो जीवनका परित्याग कर 
देगा || २० ।। 

न मे जय: प्रीतिकरो न राज्यं 

न चामरत्वं न सुरैः: सलोकता । 
इमं समीक्ष्याप्रतिवीर्यपौरुषं 
निपातितं देववरात्मजात्मजम्‌ ।। २१ ।। 

“जिसके बल और पुरुषार्थकी कहीं तुलना नहीं थी, देवेन्द्रकुमार अर्जुनके पुत्र इस 
अभिमन्युको रणक्षेत्रमें मारा गया देख अब मुझे विजय, राज्य, अमरत्व तथा देवलोककी 
प्राप्ति भी प्रसन्न नहीं कर सकती' ।। २१ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि युधिष्ठिरप्रलापे 
एकपज्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५१ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें युधिष्टिप्रलापविषयक 
इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५१ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं) 


अपर बक। हक २ 2 


द्विपञ्चाशत्तमो<5 ध्याय: 


विलाप करते हुए युधिष्ठिरके पास व्यासजीका आगमन 
और अकम्पन-नारद-संवादकी प्रस्तावना करते हुए मृत्युकी 
उत्पत्तिका प्रसंग आरम्भ करना 


संजय उवाच 

अथैनं विलपन्तं त॑ कुन्तीपुत्र॑ युधिष्ठिरम्‌ । 

कृष्णद्वैपायनस्तत्र आजगाम महानृषि: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार विलाप करते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके पास वहाँ 
महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी आये ।। १ ॥। 

अर्चयित्वा यथान्यायमुपविष्टं युधिष्ठिर: । 

अब्रवीच्छोकसंतप्तो भ्रातु: पुत्रवधेन च ।। २ ।। 

उस समय युधिष्ठिरने उनकी यथायोग्य पूजा की और जब वे बैठ गये, तब भतीजेके 
वधसे शोकसंतप्त हो युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले-- ।। २ ।। 

अधर्मयुक्तैर्बहुभि: परिवार्य महारथै: । 

युध्यमानो महेष्वासै: सौभद्रो निहतो रणे ।। ३ ।। 

“मुने! बहुत-से अधर्मपरायण महाधनुर्धर महारथियोंने चारों ओरसे घेरकर रफक्षेत्रमें 
युद्ध करते हुए सुभद्राकुमार अभिमन्युको असहायावस्थामें मार डाला है || ३ ।। 

बालश्न बालबुद्धिश्न सौभद्र: परवीरहा । 

अनुपायेन संग्रामे युध्यमानो विशेषत: ।। ४ ।। 

'शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला अभिमन्यु अभी बालक था; बालोचित बुद्धिसे युक्त था। 
विशेषत: संग्राममें वह उपयुक्त साधनोंसे रहित होकर युद्ध कर रहा था ।। ४ ।। 

मया प्रोक्त: स संग्रामे द्वारं संजनयस्व नः । 

प्रविष्टेड भ्यन्तरे तस्मिन्‌ सैन्धवेन निवारिता: ।। ५ ।। 

“मैंने युद्धस्थलमें उससे कहा था कि तुम व्यूहमें हमारे प्रवेशके लिये द्वार बना दो। तब 
वह द्वार बनाकर भीतर प्रविष्ट हो गया और जब हमलोग उसी द्वारसे व्यूहमें प्रवेश करने 
लगे, उस समय सिंधुराज जयद्रथने हमें रोक दिया ।। 

ननु नाम समं युद्धमेष्टव्यं युद्धजीविभि: । 

इदं चैवासमं युद्धमीदृशं यत्‌ कृतं परै: ।। ६ ।। 


'युद्धजीवी क्षत्रियोंको अपने समान साधनसम्पन्न वीरके साथ युद्ध करनेकी इच्छा 
करनी चाहिये। शत्रुओंने जो अभिमन्युके साथ इस प्रकार युद्ध किया है, यह कदापि समान 
नहीं है ।। ६ ।। 

तेनास्मि भृशसंतप्त: शोकबाष्पसमाकुल: । 

शमं नैवाधिगच्छामि चिन्तयान: पुनः पुनः ।। ७ ।। 

“इसीलिये मैं अत्यन्त संतप्त हूँ, शोकाश्रुओंसे मेरे नेत्र भरे हुए हैं। मैं बारंबार चिन्तामग्न 
होकर शान्ति नहीं पा रहा हूँ! ।। ७ ।। 

संजय उवाच 

तं तथा विलपन्तं वै शोकव्याकुलमानसम्‌ | 

उवाच भगवान्‌ व्यासो युधिष्ठिरमिदं वच: ।। ८ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार शोकसे व्याकुलचित्त होकर विलाप करते हुए 
राजा युधिष्ठिरसे भगवान्‌ वेदव्यासने इस प्रकार कहा ।। ८ ।। 


व्यास उवाच 


युधिष्ठिर महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद | 

व्यसनेषु न मुहान्ति त्वादृशा भरतर्षभ ॥। ९ ।। 

व्यासजी बोले--सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ, परम बुद्धिमान, भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! 
तुम्हारे-जैसे पुरुष संकटके समय मोहित नहीं होते हैं ।। ९ ।। 

स्वर्गमेष गत: शूर: शत्रून्‌ हत्वा बहून्‌ रणे 

अबालसदूशं कर्म कृत्वा वै पुरुषोत्तम: ।। १० ।। 

यह पुरुषोत्तम अभिमन्यु शूरवीर था। इसने रणक्षेत्रमें अबालोचित पराक्रम करके 
बहुत-से शत्रुओंको मारकर स्वर्गलोककी यात्रा की है ।। १० ।। 

अनतिक्रमणीयो वै विधिरेष युधिष्छिर । 

देवदानवगन्धर्वान्‌ मृत्युर्हदरति भारत ।। ११ ।। 

भरतनन्दन युधिष्ठिर! यह विधाताका विधान है। इसका कोई भी उल्लंघन नहीं कर 
सकता। मृत्यु देवताओं, दानवों तथा गन्धर्वोंके भी प्राण हर लेती है ।। 

युधिछिर उवाच 


इमे वै पृथिवीपाला: शेरते पृथिवीतले । 

निहता: पृतनामध्ये मृतसंज्ञा महाबला: ।। १२ ।। 

युधिष्ठिर बोले--मुने! ये महाबली भूपालगण सेनाके मध्यमें मारे जाकर “मृत” नाम 
धारण करके पृथ्वीपर सो रहे हैं || १२ ।। 

नागायुतबलाश्षान्ये वायुवेगबलास्तथा । 


त एते निहता: संख्ये तुल्यरूपा नरैर्नरा: ।। १३ ।। 

इनमेंसे कितने ही राजा दस हजार हाथियोंके समान बलवान्‌ थे तथा कितनोंके वेग 
और बल वायुके समान थे। ये सब मनुष्य एक समान रूपवाले हैं, जो दूसरे मनुष्योंद्वारा 
युद्धमें मार डाले गये हैं ।। १३ ।। 

नैषां पश्यामि हन्तारं प्राणिनां संयुगे क्वचित्‌ । 

विक्रमेणोपसम्पन्नास्तपोबलसमन्विता: ।। १४ ।। 

इन प्राणशक्तिसम्पन्न वीरोंका युद्धमें कहीं कोई वध करनेवाला मुझे नहीं दिखायी देता 
था; क्‍योंकि ये सब-के-सब पराक्रमसे सम्पन्न और तपोबलसे संयुक्त थे ।। 

जेतव्यमिति चान्योन्यं येषां नित्यं हदि स्थितम्‌ । 

अथ चेमे हताः: प्राज्ञा: शेरते विगतायुष: ।। १५ ।। 

जिनके हृदयमें सदा एक-दूसरेको जीतनेकी अभिलाषा रहती थी, वे ही ये बुद्धिमान्‌ 
नरेश आयु समाप्त होनेपर युद्धमें मारे जाकर धरतीपर सो रहे हैं ।। १५ ।। 

मृता इति च शब्दो<यं वर्तते च ततो<र्थवत्‌ । 

इमे मृता महीपाला: प्रायशो भीमविक्रमा: ।। १६ ।। 

अतः इनके विषयमें “मृत” शब्द सार्थक हो रहा है। ये भयंकर पराक्रमी भूमिपाल प्राय: 
“मर गये” कहे जाते हैं ।। 

निश्चेष्टा निरभीमाना: शूरा: शत्रुवशंगता: । 

राजपुत्राश्व संरब्धा वैश्वानरमुखं गता: ।। १७ ।। 

ये शूरवीर राजकुमार चेष्टा और अभिमानसे रहित हो शत्रुओंके अधीन हो गये थे। वे 
कुपित होकर बाणोंकी आगमें कूद पड़े थे |। १७ ।। 

अत्र मे संशय: प्राप्त: कुतः संज्ञा मृता इति । 

कस्य मृत्यु: कुतो मृत्यु: केन मृत्युरिमा: प्रजा: ।। १८ ।। 

हरत्यमरसंकाश तनमे ब्रूहि पितामह । 

मुझे संदेह होता है कि इन्हें 'मर गये” ऐसा क्‍यों कहा जाता है? मृत्यु किसकी होती है? 
किस निमित्तसे होती है? तथा वह किसलिये इन प्रजाओं (प्राणियों) का अपहरण करती 
है? देवतुल्य पितामह! ये सब बातें आप मुझे बताइये ।। १८ $ ।। 

संजय उवाच 

त॑ं तथा परिपृच्छन्तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

आश्वासनमिदं वाक्यमुवाच भगवानृषि: ।। १९ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार पूछते हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिससे मुनिवर भगवान्‌ 
व्यासने यह आश्वासनजनक वचन कहा ।। १९ || 

व्यास उवाच 


अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्‌ । 

अकम्पनस्य कथितं नारदेन पुरा नृप ॥। २० ।। 

व्यासजी बोले--नरेश्वर! जानकार लोग इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका दृष्टान्त 
दिया करते हैं। वह इतिहास पूर्वकालमें नारदजीने राजा अकम्पनसे कहा था || २० ।। 

स चापि राजा राजेन्द्र पुत्रव्यसनमुत्तमम्‌ । 

अप्रसह्यृतमं लोके प्राप्तवानिति मे मति: ।। २१ ।। 

राजेन्द्र! राजा अकम्पनको भी अपने पुत्रकी मृत्युका बड़ा भारी शोक प्राप्त हुआ था, 
जो मेरे विचारमें सबसे अधिक असहा दुःख है ।। २१ ।। 

तदहं सम्प्रवक्ष्यामि मृत्यो: प्रभवमुत्तमम्‌ । 

ततस्त्वं मोक्ष्यसे दुःखात्‌ स्नेहबन्धनसंश्रयात्‌ ।। २२ ।। 

इसलिये मैं तुम्हें मृत्युकी उत्पत्तिका उत्तम वृत्तान्त बताऊँगा, उसे सुनकर तुम स्नेह- 
बन्धनके कारण होनेवाले दुःखसे छूट जाओगे ।। २२ ।। 

समस्तपापराशिष्नं शृणु कीर्तयतो मम । 

धन्यमाख्यानमायुष्यं शोकषघ्नं पुष्टिवर्धनम्‌ ।। २३ ।। 

पवित्रमरिसंघघ्नं मड़लानां च मड़लम्‌ । 

यथैव वेदाध्ययनमुपाख्यानमिदं तथा ।। २४ ।। 

यह उपाख्यान समस्त पापराशिका नाश करने-वाला है। मैं इसका वर्णन करता हूँ, 
सुनो। यह धन और आयुको बढ़ानेवाला, शोकनाशक, पपुष्टिवर्धक, पवित्र, शत्रुसमूहका 
निवारक और मंगलकारी कार्योंमें सबसे अधिक मंगलकारक है। जैसे वेदोंका स्वाध्याय 
पुण्यदायक होता है, उसी प्रकार यह उपाख्यान भी है ।। 

श्रवणीयं महाराज प्रातर्नित्यं नृपोत्तमै: । 

पुत्रानायुष्मतो राज्यमीहमानै: श्रियं तथा ॥। २५ ।। 

महाराज! दीर्घायु पुत्र, राज्य और धन-सम्पत्ति चाहनेवाले श्रेष्ठ राजाओंको प्रतिदिन 
प्रातःकाल इस इतिहासका श्रवण करना चाहिये ।। २५ ।। 

पुरा कृतयुगे तात आसीद्‌ राजा हाुकम्पन: । 

स शत्रुवशमापतन्नो मध्ये संग्राममूर्थनि || २६ ।। 

तात! प्राचीनकालकी बात है, सत्ययुगमें अकम्पन नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे। वे 
युद्धमें शत्रुओंके वशमें पड़ गये || २६ ।। 

तस्य पुत्रो हरिनाम नारायणसमो बले । 

श्रीमान्‌ कृतास्त्रो मेधावी युधि शक्रोपमो बली ।। २७ ।। 

राजाके एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बलमें भगवान्‌ नारायणके समान था। 
वह अस्त्रविद्यामें पारंगत, मेधावी, श्रीसम्पन्न तथा युद्धमें इन्द्रके तुल्य पराक्रमी था ।। 

स शत्रुभि: परिवृतो बहुधा रणमूर्थनि । 


व्यस्थन्‌ बाणसहस््राणि योधेषु च गजेषु च ।। २८ ।। 

वह रणक्षेत्रमें शत्रुओंद्वारा घिर जानेपर शत्रुपक्षेके योद्धाओं और गजारोहियोंपर 
बारंबार सहस्रों बाणोंकी वर्षा करने लगा || २८ ।। 

स कर्म दुष्करं कृत्वा संग्रामे शत्रुतापन: । 

शन्रुभिर्निहतः संख्ये पृतनायां युधिछ्ठिर || २९ ।। 

युधिष्ठिर! वह शत्रुओंको संताप देनेवाला वीर राजकुमार संग्राममें दुष्कर पराक्रम 
दिखाकर अन्तमें शत्रुओंके हाथसे वहाँ सेनाके बीचमें मारा गया || २९ ।। 

स राजा प्रेतकृत्यानि तस्य कृत्वा शुचान्वित: । 

शोचन्नहनि रात्रौ च नालभत्‌ सुखमात्मन: ।। ३० |। 

राजा अकम्पनको बड़ा शोक हुआ। वे पुत्रका अन्त्येष्टि संस्कार करके दिन-रात उसीके 
शोकमें मग्न रहने लगे। उनकी अन्तरात्माको (थोड़ा-सा भी) सुख नहीं मिला || ३० ।। 

तस्य शोकं विदित्वा तु पुत्रव्यसनसम्भवम्‌ । 

आजगामाथ देवर्षिनरिदो5स्थ समीपतः ।। ३१ ।। 

राजा अकम्पनको अपने पुत्रकी मृत्युसे महान्‌ शोक हो रहा है, यह जानकर देवर्षि 
नारद उनके समीप आये ।। ३१ ।॥। 

स तु राजा महाभागो दृष्ट्वा देवर्षिसत्तमम्‌ | 

पूजयित्वा यथान्यायं कथामकथयत्‌ तदा ॥। ३२ ।। 








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उस समय महाभाग राजा अकम्पनने देवर्षिप्रवर नारदजीको आया देख उनकी 
यथायोग्य पूजा करके उनसे अपने पुत्रकी मृत्युका वृत्तान्त कहा ।। ३२ ।। 

तस्य सर्व समाचष्ट यथावृत्तं नरेश्वर: । 

शत्रुभिर्विजयं संख्ये पुत्रस्य च वधं तथा ।। ३३ ।। 

राजाने क्रमश: शत्रुओंकी विजय और युद्धस्थलमें अपने पुत्रके मारे जानेका सब 
समाचार उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया ।। ३३ ।। 

मम पुत्रो महावीर्य इन्द्रविष्णुसमद्युति: । 

शत्रुभिरबहुभि: संख्ये पराक्रम्य हतो बली ।। ३४ ।। 

(वे बोले--) <देवर्षे! मेरा पुत्र इन्द्र और विष्णुके समान तेजस्वी, महापराक्रमी और 
बलवान था; परंतु युद्धमें बहुत-से शत्रुओंने मिलकर एक साथ पराक्रम करके उसे मार 
डाला है ।। ३४ ।। 

क एष मृत्युर्भगवन्‌ किंवीर्यबलपौरुष: । 

एतदिच्छामि तत्त्वेन श्रोतुं मतिमतां वर ।। ३५ |। 

“भगवन्‌! यह मृत्यु क्या है? इसका वीर्य, बल और पौरुष कैसा है? बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ 
महर्षे! मैं यह सब यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ || ३५ ।। 

तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा नारदो वरद: प्रभु: । 

आख्यानमिदमाचष्ट पुत्रशोकापहं महत्‌ ।। ३६ ।। 

राजाकी यह बात सुनकर वर देनेमें समर्थ एवं प्रभावशाली नारदजीने यह 
पुत्रशोकनाशक उत्तम उपाख्यान कहना आरम्भ किया ।। ३६ |। 

नारद उवाच 

शृणु राजन्‌ महाबाहो आख्यानं बहुविस्तरम्‌ । 

यथावृत्तं श्रुतं चैव मयापि वसुधाधिप ।। ३७ ।। 

नारदजी बोले--पृथ्वीपते! तुम्हारे पुत्रकी मृत्यु जिस प्रकार घटित हुई है, वह सब 
वृत्तान्त मैंने भी यथार्थरूपसे सुन लिया है। महाबाहु नरेश! अब मैं तुम्हारे सामने एक बहुत 
विस्तृत कथा आरम्भ करता हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो || ३७ ।। 

प्रजा: सृष्टवा तदा ब्रह्मा आदिसगे पितामह: । 

असंद्वतं महातेजा दृष्टवा जगदिदं प्रभु: ॥। ३८ ।॥। 

तस्य चिन्ता समुत्पन्ना संहारं प्रति पार्थिव । 

चिन्तयन्न हासौ वेद संहारं वसुधाधिप ।। ३९ ।। 

आदिसृष्टिके समय महातेजस्वी एवं शक्तिशाली पितामह ब्रह्माने जब प्रजावर्गकी सृष्टि 
की थी, उस समय संहारकी कोई व्यवस्था नहीं की थी, अतः इस सम्पूर्ण जगत्‌को 
प्राणियोंसे परिपूर्ण एवं मृत्युरहित देख प्राणियोंके संहारके लिये चिन्तित हो उठे। राजन! 


पृथ्वीपते! बहुत सोचने-विचारनेपर भी ब्रह्माजीको प्राणियों-के संहारका कोई उपाय नहीं 
ज्ञात हो सका ।। ३८-३९ ।। 

तस्य रोषान्महाराज खेभ्योडग्निरुदतिष्ठत । 

तेन सर्वा दिशो व्याप्ता: सान्तर्देशा दिधक्षता ।। ४० ।। 

महाराज! उस समय क्रोधवश ब्रह्माजीके श्रवण-नेत्र आदि इन्द्रियोंसे अग्नि प्रकट हो 
गयी। वह अग्नि इस जगत्‌को दग्ध करनेकी इच्छासे सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं 
(कोणों)-में फैल गयी || ४० ।। 

ततो दिवं भुवं चैव ज्वालामालासमाकुलम्‌ | 

चराचरं जगत्‌ सर्व ददाह भगवान्‌ प्रभु: ।। ४१ ।। 

ततो हतानि भूतानि चराणि स्थावराणि च । 

महता क्रोधवेगेन त्रासयन्निव वीर्यवान्‌ ।। ४२ ।। 

तदनन्तर आकाश और पृथ्वीमें सब ओर आगकी प्रचण्ड लपटें व्याप्त हो गयीं। दाह 
करनेमें समर्थ एवं अत्यन्त शक्तिशाली भगवान्‌ अग्निदेव महान्‌ क्रोधके वेगसे सबको त्रस्त- 
से करते हुए सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को दग्ध करने लगे। इससे बहुत-से स्थावर-जंगम प्राणी 
नष्ट हो गये || ४१-४२ ।। 

ततो रुद्रो जटी स्थाणुर्निशाचरपतिह्हर: । 

जगाम शरणं देवं ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्‌ ।। ४३ ।। 

तत्पश्चात्‌ राक्षसोंके स्वामी जटाधारी दुःखहारी स्थाणु नामधारी भगवान्‌ रुद्र परमेष्ठी 
भगवान्‌ ब्रह्माजीकी शरणमें गये ।। ४३ ।। 

तस्मिन्नापतिते स्थाणौ प्रजानां हितकाम्यया । 

अब्रवीत्‌ परमो देवो ज्वलजन्निव महामुनि: ।। ४४ ।। 

प्रजावर्गके हितकी इच्छासे भगवान्‌ रुद्रके आनेपर परमदेव महामुनि ब्रह्माजी अपने 
तेजसे प्रज्वलित होते हुए-से इस प्रकार बोले-- ।। ४४ ।। 

कि कुर्म: काम॑ कामा्ह कामाज्जातो<सि पुत्रक | 

करिष्यामि प्रियं सर्व ब्रूहि स्थाणो यदिच्छसि ।। ४५ ।। 

“अपने अभीष्ट मनोरथको प्राप्त करनेयोग्य पुत्र! तुम मेरे मानसिक संकल्पसे उत्पन्न 
हुए हो। मैं तुम्हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ? स्थाणो! तुम जो कुछ चाहते हो, बतलाओ। 
मैं तुम्हारा सम्पूर्ण प्रिय कार्य करूँगा" || ४५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि द्विपञ्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें बावनवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥/ ५२ ॥। 


प्याज बछ। -ज्:डि 


त्रिपञज्चाशत्तमोड्ध्याय: 


शंकर और ब्रह्माका संवाद, मृत्युकी उत्पत्ति तथा उसे 
समस्त प्रजाके संहारका कार्य सौंपा जाना 


स्थायुरुवाच 


प्रजासर्गनिमित्तं हि कृतो यत्नस्त्वया विभो । 

त्वया सृष्ट श्र वृद्धाश्व भूतग्रामा: पृथग्विधा: ।। १ ।। 

स्थाणु (रुद्रदेव)-ने कहा--प्रभो! आपने प्रजाकी सृष्टिके लिये स्वयं ही यत्न किया 
है। आपने ही नाना प्रकारके प्राणिसमुदायकी सृष्टि एवं वृद्धि की है ।। १ ।। 

तास्तवेह पुनः: क्रोधात्‌ प्रजा दहान्ति सर्वश: । 

ता दृष्टत्वा मम कारुण्यं प्रसीद भगवन्‌ प्रभो ।। २ ।। 

आपकी वे ही सारी प्रजाएँ पुनः: आपके ही क्रोधसे यहाँ दग्ध हो रही हैं। इससे उनके 
प्रति मेरे हृदयमें करूणा भर आयी है। अत: भगवन्‌! प्रभो! आप उन प्रजाओंपर कृपादृष्टि 
करके प्रसन्न होइये ।। २ ।। 

ब्रह्मोवाच 


संहर्तु न च मे काम एतदेवं भवेदिति । 

पृथिव्या हितकामं तु ततो मां मन्युराविशत्‌ ।। ३ ।। 

ब्रह्माजी बोले--रुद्र! मेरी इच्छा यह नहीं है कि इस प्रकार इस जगतका संहार हो। 
वसुधाके हितके लिये ही मेरे मनमें क्रोधका आवेश हुआ था ।। ३ ।। 

इयं हि मां सहा देवी भारार्ता समचूचुदत्‌ । 

संहारार्थ महादेव भारेणाभिहता सती ।। ४ ।। 

महादेव! इस पृथ्वीदेवीने भारसे पीड़ित होकर मुझे जगतके संहारके लिये प्रेरित किया 
था। यह सती-साध्वी देवी महान्‌ भारसे दबी हुई थी ।। ४ ।। 

ततो<हं नाधिगच्छामि तथा बहुविधं तदा । 

संहारमप्रमेयस्य ततो मां मन्युराविशत्‌ ।। ५ ।। 

मैंने अनेक प्रकारसे इस अनन्त जगत्‌के संहारके उपायपर विचार किया, परंतु मुझे 
कोई उपाय सूझ न पड़ा। इसीलिये मुझमें क्रोधका आवेश हो गया ।। ५ ।। 


रुद्र उ्वाच 


संहारार्थ प्रसीदस्व मा रुषो वसुधाधिप । 
मा प्रजा: स्थावराश्नैव जंगमाश्न व्यनीनश: ।। ६ ।। 


रुद्रने कहा--वसुधाके स्वामी पितामह! आप रोष न कीजिये। जगतका संहार बंद 
करनेके लिये प्रसन्न होइये। इन स्थावर-जंगम प्राणियोंका विनाश न कीजिये ।। 

तव प्रसादाद्‌ भगवन्निदं वर्तेत्‌ त्रिधा जगत्‌ । 

अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते ।। ७ ।। 

भगवन्‌! आपकी कृपासे यह जगत्‌ भूत, भविष्य और वर्तमान--तीन रूपोंमें विभक्त 
हो जाय | ७ |। 

भगवन्‌ क्रोधसंदीप्त: क्रोधादग्निमवासृजत्‌ । 

स दहत्यश्मकूटानि द्रुमांश्न सरितस्तथा ।। ८ ।। 

प्रभो! आपने क्रोधसे प्रज्वलित होकर क्रोधपूर्वक जिस अग्निकी सृष्टि की है, वह 
पर्वत-शिखरों, वृक्षों और सरिताओंको दग्ध कर रही है ।। ८ ।। 

पल्वलानि च सर्वाणि सर्वाश्विव तृपोलपान्‌ । 

स्थावरं जड़मं चैव नि:शेषं कुरुते जगत्‌ ।। ९ ।। 

तदेतद्‌ भस्मसाद्धूतं जगत्‌ स्थावरजज्भमम्‌ 

प्रसीद भगवन्‌ स त्वं रोषो न स्याद्‌ वरो मम ।। १० ।। 

यह समस्त छोटे-छोटे जलाशयों, सब प्रकारके तृण और लताओं तथा स्थावर और 
जंगम जगत्‌को सम्पूर्णरूपसे नष्ट कर रही है। इस प्रकार यह सारा चराचर जगत्‌ जलकर 
भस्म हो गया। भगवन्‌! आप प्रसन्न होइये। आपके मनमें रोष न हो, यही मेरे लिये आपकी 
ओरसे वर प्राप्त हो ।। ९-१० ।। 

सर्वे हि सृष्टा नश्यन्ति तव देव कथंचन । 

तस्मान्निवर्ततां तेजस्त्वय्येवेदं प्रलीयताम्‌ ॥। ११ ।। 

देव! आपके रचे हुए समस्त प्राणी किसी-न-किसी रूपमें नष्ट होते चले जा रहे हैं; अतः 
आपका यह तेजस्वरूप क्रोध जगत्‌के संहारसे निवृत्त हो आपमें ही विलीन हो 
जाय || ११ ।। 

तत्‌ पश्य देव सुभृशं प्रजानां हितकाम्यया । 

यथेमे प्राणिन: सर्वे निवर्तेरंस्तथा कुरु ।। १२ ।। 

प्रभो! आप प्रजावर्गके अत्यन्त हितकी इच्छासे इनकी ओर कृपापूर्ण दृष्टिसे देखिये, 
जिससे ये समस्त प्राणी नष्ट होनेसे बच जाये, वैसा कीजिये ।। १२ ।। 

अभावं नेह गच्छेयुरुत्सन्नजनना: प्रजा: । 

आदिदेव नियुक्तो5स्मि त्वया लोकेषु लोककृत्‌ ।। १३ ।। 

संतानोंका नाश हो जानेसे इस जगत्‌के सम्पूर्ण प्राणियोंका अभाव न हो जाय। 
आदिदेव! आपने सम्पूर्ण लोकोंमें मुझे लोकस्रष्टाके पदपर नियुक्त किया है ।। 

मा विनश्येज्जगन्नाथ जगत्‌ स्थावरजड्रमम्‌ | 

प्रसादाभिमुखं देवं तस्मादेवं ब्रवीम्पहम्‌ ।। १४ ।। 


जगन्नाथ! यह चराचर जगत्‌ नष्ट न हो, इसीलिये सदा कृपा करनेको उद्यत रहनेवाले 
प्रभुके सामने मैं ऐसी प्रार्थना कर रहा हूँ ।। १४ ।। 


नारद उवाच 


श्रुत्वा हि वचन देव: प्रजानां हितकारणे | 

तेज: संधारयामास पुनरेवान्तरात्मनि | १५ ।। 

नारदजी कहते हैं--राजन्‌! प्रजाके हितके लिये महादेवका यह वचन सुनकर भगवान्‌ 
ब्रह्माने पुन: अपनी अन्तरात्मामें ही उस तेज (क्रोध)-को धारण कर लिया ।। १५ |। 

ततोअग्निमुपसंहत्य भगवॉललोकसत्कृत: । 

प्रवृत्त च निवृत्तं च कथयामास वै प्रभु: ।। १६ ।। 

तब विश्ववन्दित भगवान्‌ ब्रह्माने उस अग्निका उपसंहार करके मनुष्योंके लिये प्रवृत्ति 
(कर्म) और निवृत्ति (ज्ञान) मार्गोंका उपदेश दिया ।। १६ ।। 

उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तथा । 

प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यो गोभ्यो नारी महात्मन: ।। १७ ।। 

कृष्णरक्ता तथा पिड़्रक्तजिद्दास्यलोचना । 

कुण्डलाभ्यां च राजेन्द्र तप्ताभ्यां तप्तभूषणा ।। १८ ।। 

उस क्रोधाग्निका उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्माजीकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे एक नारी 
प्रकट हुई, जो काले और लाल रंगकी थी। उसकी जिह्ढला, मुख और नेत्र पीले और लाल 
रंगके थे। राजेन्द्र! वह तपाये हुए सोनेके कुण्डलोंसे सुशोभित थी और उसके सभी 
आभूषण तप्त सुवर्णके बने हुए थे || १७-१८ ।। 

सा निःसृत्य तथा खेभ्यो दक्षिणां दिशमाश्रिता । 

स्मयमाना च सावेक्ष्य देवी विश्वेश्वरावुभी ।। १९ ।। 

वह उनकी इन्द्रियोंसे निकलकर दक्षिण दिशामें खड़ी हुई और उन दोनों देवताओं एवं 
जगदीश्वरोंकी ओर देखकर मन्द-मन्द मुसकराने लगी ।। १९ ।। 

तामाहूय तदा देवो लोकादिनिधनेश्वर: । 

(उक्तवान्‌ मधुरं वाक्‍्यं सान्त्वयित्वा पुन: पुनः ।) 

मृत्यो इति महीपाल जहि चेमा: प्रजा इति ॥। २० ।। 

महीपाल! उस समय सम्पूर्ण लोकोंके आदि और अन्तके स्वामी ब्रह्माजीने उस नारीको 
अपने पास बुलाकर उसे बारंबार सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें “मृत्यो” (हे मृत्यु) कह 
करके पुकारा और कहा--“तू इन समस्त प्रजाओंका संहार कर ।। २० ।। 











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त्वं हि संहारबुद्धाथ प्रादुर्भूता रुषो मम । 

तस्मात्‌ संहर सर्वास्त्वं प्रजाः:सजडपण्डिता: ।। २१ ।। 

मम त्वं हि नियोगेन ततः श्रेयो हुवाप्स्यसि । 

'देवि! तू संहारबुद्धिसे मेरे रोषद्वारा प्रकट हुई है, इसलिये मूर्ख और पण्डित सभी 
प्रजाओंका संहार करती रह, मेरी आज्ञासे तुझे यह कार्य करना होगा। इससे तू कल्याण 
प्राप्त करेगी” |। २१३ ।। 

एवमुक्ता तु सा तेन मृत्यु: कमललोचना ।। २२ |। 

दध्यौ चात्यर्थमबला प्ररुरोद च सुस्वरम्‌ । 

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह मृत्युनामवाली कमललोचना अबला अत्यन्त चिन्तामग्न 
हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी ।। २२६ ।। 

पाणिशथ्यां प्रतिजग्राह तान्यश्रूणि पितामह: । 

सर्वभूतहितार्थाय तां चाप्यनुनयत्‌ तदा ।। २३ ।। 


पितामह ब्रह्माने उसके उन आँसुओंको समस्त प्राणियोंके हितके लिये अपने दोनों 
हाथोंमें ले लिया और उस नारीको भी अनुनयसे प्रसन्न किया ।। २३ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि मृत्युकथने 
त्रिपज्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५३ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें मृत्युवर्णणविषयक 
तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ह “लोक मिलाकर कुल २३३६ “लोक हैं) 


भीस्न्आा+ज (2) आमने 


चतु:पञ्चाशत्तमो< ध्याय: 


मृत्युकी घोर तपस्या, ब्रह्माजीके द्वारा उसे वरकी प्राप्ति 
तथा नारद-अकम्पन-संवादका उपसंहार 


नारद उवाच 


विनीय दुःखमबला आत्मन्येव प्रजापतिम्‌ । 

उवाच प्राज्जलिर्भूत्वा लतेवावर्जिता पुनः ।। १ ॥। 

नारदजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वह अबला अपने भीतर ही उस दुःखको 
दबाकर झुकायी हुई लताके समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्माजीसे बोली ।। 


मृत्युरुवाच 

त्वया सृष्टा कथं नारी ईदृशी वदतां वर । 

क्रूरं कर्माहितं कुर्या तदेव किमु जानती ।॥। २ ।। 

मृत्युने कहा--वक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रजापते! आपने मुझे ऐसी नारीके रूपमें क्यों उत्पन्न 
किया? मैं जान-बूझकर वही क्रूरतापूर्ण अहितकर कर्म कैसे करूँ? ।। २ ।। 

बिभेम्यहमधर्माद्धि प्रसीद भगवन्‌ प्रभो । 

प्रियान्‌ पुत्रान्‌ वयस्यांश्व भ्रातृन्‌ मातृ: पितृन्‌ पतीन्‌ ॥। ३ ।। 

अपध्यास्यन्ति मे देव मृतेष्वेभ्यो बिभेम्यहम्‌ । 

भगवन्‌! मैं पापसे डरती हूँ। प्रभो! मुझपर प्रसन्न होइये। जब मैं लोगोंके प्यारे पुत्रों, 
मित्रों, भाइयों, माताओं, पिताओं तथा पतियोंको मारने लगूँगी, देव! उस समय उनके 
सम्बन्धी इन लोगोंके मेरे द्वारा मारे जानेपर सदा मेरा अनिष्ट-चिन्तन करेंगे। अतः मैं इन 
सबसे बहुत डरती हूँ ।। ३ ३ || 

कृपणानां हि रुदतां ये पतन्त्यश्रुबिन्दव: ।। ४ ।। 

तेभ्यो5हं भगवन्‌ भीता शरणं त्वाहमागता । 

भगवन! रोते हुए दीन-दुःखी प्राणियोंके नेत्रोंसे जो आँसुओंकी बूँदें गिरती हैं, उनसे 
भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें आयी हूँ ।। ४६ ।। 

यमस्य भवन देव गच्छेयं न सुरोत्तम ।। ५ ।। 

कायेन विनयोपेता मूर्थ्नोदग्रनखेन च । 

एतदिच्छाम्यहं काम॑ त्वत्तो लोकपितामह ।। ६ ।। 

देव! सुरश्रेष्ठ लोकपितामह! मैं शरीर और मस्तकको झुकाकर, हाथ जोड़कर 
विनीतभावसे आपकी शरणागत होकर केवल इसी अभिलाषाकी पूर्ति चाहती हूँ कि मुझे 
यमराजके भवनमें न जाना पड़े ।। ५-६ ।। 


इच्छेयं त्वत्प्रसादाद्धि तपस्तप्तुं प्रजेश्वर । 

प्रदिशेमं वरं देव त्वं महां भगवन्‌ प्रभो ॥। ७ ।। 

प्रजेश्वर! मैं आपकी कृपासे तपस्या करना चाहती हूँ। देव! भगवन्‌! प्रभो! आप मुझे 
यही वर प्रदान करें || ७ ।। 

त्वया हरक्ता गमिष्यामि धेनुकाश्रममुत्तमम्‌ | 

तत्र तप्स्थे तपस्तीव्रं तवैवाराधने रता ।। ८ ।। 

आपकी आज्ञा लेकर मैं उत्तम धेनुकाश्रमको चली जाऊँगी और वहाँ आपकी ही 
आराधनामें तत्पर रहकर कठोर तपस्या करूँगी ।। ८ ।। 

न हि शक्ष्यामि देवेश प्राणान्‌ प्राणभृतां प्रियान्‌ 

हर्तु विलपमानानामधमदिभिरक्ष माम्‌ ।। ९ ।। 

देवेश्वर! मैं रोते-विलखते प्राणियोंके प्यारे प्राणोंका अपहरण नहीं कर सकूँगी, आप 
इस अधर्मसे मुझे बचावें ।। ९ ।। 

ब्रह्मोवाच 


मृत्यो संकल्पितासि त्वं प्रजासंहारहेतुना । 

गच्छ संहर सर्वस्त्विं प्रजा मा ते विचारणा ।। १० ।। 

ब्रद्माजीने कहा--मृत्यो! प्रजाके संहारके लिये ही मेरे द्वारा संकल्पपूर्वक तेरी सृष्टि 
की गयी है। जा, तू सारी प्रजाका संहार कर। तेरे मनमें कोई अन्यथा विचार नहीं होना 
चाहिये ।। १० ।॥। 

भविता त्वेतदेवं हि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्‌ | 

भव त्वनिन्दिता लोके कुरुष्व वचनं मम ।। ११ ।। 

यह बात इसी प्रकार होनेवाली है। इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। तू 
लोकमें निन्दित न हो, मेरी आज्ञाका पालन कर ॥। ११ |। 


नारद उवाच 


एवमुक्ता भवत्‌ प्रीता प्राउ्जलिर्भगवन्मुखी । 

संहारे नाकरोद्‌ बुद्धि प्रजानां हितकाम्यया ।। १२ ।। 

नारदजी कहते हैं--राजन! भगवान्‌ ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर उन्हींकी ओर मुँह 
करके हाथ जोड़े खड़ी हुई वह नारी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई; परंतु उसने प्रजाके 
हितकी कामनासे संहार-कार्यमें मन नहीं लगाया ।। १२ ।। 

तृष्णीमासीत्‌ तदा देव: प्रजानामीश्ररेश्वर: । 

प्रसाद चागमत्‌ क्षिप्रमात्मनैव प्रजापति: ।। १३ ।। 

तब प्रजेश्वरोंके भी स्वामी भगवान्‌ ब्रह्मा चुप हो गये। फिर वे भगवान्‌ प्रजापति तुरंत 
अपने-आप ही प्रसन्नताको प्राप्त हुए ।। १३ ।। 


स्मयमानश्न देवेशो लोकान्‌ सर्वानवेक्ष्य च । 

लोकास्त्वासन्‌ यथापूर्व दृष्टास्तेनापमन्युना ।। १४ ।। 

देवेश्वर ब्रह्मा सम्पूर्ण लोकोंकी ओर देखकर मुसकराये। उन्होंने क्रोधशून्य होकर देखा, 
इसलिये वे सभी लोक पहलेके समान हरे-भरे हो गये ।। १४ ।। 

निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते । 

सा कन्यापि जगामाथ समीपात्‌ तस्य धीमतः ।। १५ ।। 

उन अपराजित भगवान्‌ ब्रह्माका रोष निवृत्त हो जानेपर वह कन्या भी उन परम 
बुद्धिमान देवेश्वरके निकटसे अन्यत्र चली गयी ।। १५ ।। 

अपसत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तदा । 

त्वरमाणा च राजेन्द्र मृत्युर्थेनुकमभ्यगात्‌ ।। १६ ।। 

राजेन्द्र! उस समय प्रजाका संहार करनेके विषयमें कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँसे 
हट गयी और बड़ी उतावलीके साथ धेनुकाश्रममें जा पहुँची ।। १६ ।। 

सा तत्र परमं तीव्र चचार व्रतमुत्तमम्‌ । 

सा तदा होकपादेन तस्थौ पद्मानि षोडश ।। १७ || 

पज्च चाब्दानि कारुण्यात्‌ प्रजानां तु हितैषिणी । 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य: प्रियेभ्य: संनिवर्त्य सा ।। १८ ।॥। 

उसने वहाँ अत्यन्त कठोर और उत्तम व्रतका पालन आरम्भ किया। उस समय वह 
दयावश प्रजावर्गका हित करनेकी इच्छासे अपनी इन्द्रियोंको प्रिय विषयोंसे हटाकर 
इक्कीस पद्म वर्षोतक एक पैरपर खड़ी रही ।। १७-१८ ।। 

ततस्त्वेकेन पादेन पुनरन्यानि सप्त वै । 

तस्थौ पद्मानि षट्‌ चैव सप्त चैकं च पार्थिव ।। १९ ।। 

नरेश्वर! तदनन्तर पुनः अन्य इक्कीस पद्म वर्षोतक वह एक पैरसे खड़ी होकर तपस्या 
करती रही ।। १९ ।। 

ततः पद्मायुतं तात मृगैः सह चचार सा | 

पुनर्गत्वा ततो नन्‍्दां पुण्यां शीतामलोदकाम्‌ ।। २० ।। 

अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैक॑ च सानयत्‌ । 

तात! इसके बाद दस हजार पद्म वर्षोतक वह मृगोंके साथ विचरती रही, फिर शीतल 
एवं निर्मल जलवाली पुण्यमयी नन्दानदीमें जाकर उसके जलमें उसने आठ हजार वर्ष 
व्यतीत किये || २०६ ।। 

धारयित्वा तु नियमं नन्दायां वीतकल्मषा ।। २१ ।। 

सा पूर्व कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैधिता । 

तत्र वायुजलाहारा चचार नियमं पुन: ।। २२ ।। 


इस प्रकार नन्दानदीमें नियमोंके पालनपूर्वक रहकर वह निष्पाप हो गयी। तदनन्तर 
व्रत-नियमोंसे सम्पन्न हो मृत्यु पहले पुण्यमयी कौशिकीनदीके तटपर गयी और वहाँ वायु 
तथा जलका आहार करती हुई पुन: कठोर नियमोंका पालन करने लगी ।। २१-२२ ।। 

पज्चगज्जासु सा पुण्या कन्या वेतसकेषु च । 

तपोविशेषैर्बहुभि: कर्षयद्‌ देहमात्मन: ।। २३ ।। 

उस पवित्र कन्याने पंचगंगामें तथा वेतसवनमें बहुत-सी भिन्न-भिन्न तपस्याओंद्वारा 
अपने शरीरको अत्यन्त दुर्बल कर दिया ।। २३ || 

ततो गत्वा तु सा गड़ां महामेरुं च केवलम्‌ । 

तस्थौ चाश्मेव निश्चेष्टा प्रणायामपरायणा ।। २४ ।। 

इसके बाद वह गंगाजीके तट और प्रमुख तीर्थ महामेरुके शिखरपर जाकर प्राणायाममें 
तत्पर हो प्रस्तर-मूर्तिकी भाँति निश्चेष्ट भावसे बैठी रही ।। २४ ।। 

पु]नर्हिमवतो मूर्थ्नि यत्र देवा: पुरायजन्‌ । 

तत्राड़ुगुछ्ेन सा तस्थौ निखर्व परमा शुभा ।। २५ ।। 

फिर हिमालयके शिखरपर जहाँ पहले देवताओंने यज्ञ किया था, वहाँ वह परम 
शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षोतक अँगूठेके बलपर खड़ी रही || २५ ।। 

पुष्करेष्वथ गोकर्णे नैमिषे मलये तथा । 

अपाकर्षत्‌ स्वकं देहं नियमैर्मानसप्रियै: ।। २६ ।। 

तदनन्तर पुष्कर, गोकर्ण, नैमिषारण्य तथा मलयाचलके तीर्थोमें रहकर मनको प्रिय 
लगनेवाले नियमोंद्वारा उसने अपने शरीरको अत्यन्त क्षीण कर दिया ।। २६ |। 

अनन्यदेवता नित्यं दृढभक्ता पितामहे | 

तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास धर्मत: ।। २७ ।। 

दूसरे किसी देवतामें मन न लगाकर वह सदा पितामह ब्रह्मामें ही सुदृढ़ भक्तिभाव 
रखती थी। उस कन्याने अपने धर्माचरणसे पितामहको संतुष्ट कर लिया ।। २७ ।। 

ततस्तामब्रवीत्‌ प्रीतो लोकानां प्रभवो5व्यय: । 

सौम्येन मनसा राजन प्रीत: प्रीतमनास्तदा ।। २८ ।। 

राजन्‌! तब लोकोंकी उत्पत्तिके कारणभूत अविनाशी ब्रह्मा उस समय मन-ही-मन 
अत्यन्त प्रसन्न हो सौम्य हृदयसे प्रीतिपूर्वक उससे बोले-- ।। २८ ।। 

मृत्यो किमिदमत्यन्तं तपांसि चरसीति ह । 

ततोअब्रवीत्‌ पुनर्मुत्युर्भगवन्तं पितामहम्‌ ।। २९ ।। 

“मृत्यो! तू किसलिये इस प्रकार अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही है?” तब मृत्युने 
भगवान्‌ पितामहसे फिर इस प्रकार कहा-- ।। २९ || 

नाहं हन्यां प्रजा देव स्वस्थाशक्षाक्रोशतीस्तथा । 

एतदिच्छामि सर्वेश त्वत्तो वरमहं प्रभो ।। ३० ।। 


“देव! प्रभो! सर्वेश्वर! मैं आपसे यही वर पाना चाहती हूँ कि मुझे रोती-चिल्लाती हुई 
स्वस्थ प्रजाओंका वध न करना पड़े ।। ३० ।॥। 

अधर्मभयभीतास्मि ततो5हं तप आस्थिता | 

भीतायास्तु महाभाग प्रयच्छाभयमव्यय ।। ३१ ।। 

“महाभाग! मैं अधर्मके भयसे बहुत डरती हूँ, इसीलिये तपस्यामें लगी हुई हूँ। 
अविनाशी परमेश्वर! मुझ भयभीत अबलाको अभय-दान दीजिये ।। ३१ ।। 

आर्ता चानागसी नारी याचामि भव मे गति: । 

तामब्रवीत्‌ ततो देवो भूतभव्यभविष्यवित्‌ ।। ३२ ।। 

“नाथ! मैं एक निरपराध नारी हूँ और आपके सामने आर्तभावसे याचना करती हूँ, आप 
मेरे आश्रयदाता हों।” तब भूत, भविष्य और वर्तमानके ज्ञाता भगवान्‌ ब्रह्माने उससे कहा 
-- || ३२ || 

अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संहरन्त्या इमा: प्रजा: । 

मया चोक्तं मृषा भद्रे भविता न कथंचन ।। ३३ ।। 

“मृत्यो! इन प्रजाओंका संहार करनेसे तुझे अधर्म नहीं होगा। भटद्रे! मेरी कही हुई बात 
किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती ।। ३३ ।। 

तस्मात्‌ संहर कल्याणि प्रजा: स्वश्चितुर्विधा: । 

धर्म: सनातनकश्ष त्वां सर्वथा पावयिष्यति ।। ३४ ।। 

“इसलिये कल्याणि! तू चार श्रेणियोंमें विभाजित समस्त प्राणियोंका संहार कर। 
सनातनधर्म तुझे सब प्रकारसे पवित्र बनाये रखेगा ।। ३४ ।। 

लोकपालो यमश्नैव सहाया व्याधयदश्ष ते | 

अहं च विबुधाश्रैव पुनर्दास्थाम ते वरम्‌ ।। ३५ ।। 

यथा त्वमेनसा मुक्ता विरजा: ख्यातिमेष्यसि । 

“लोकपाल, यम तथा नाना प्रकारकी व्याधियाँ तेरी सहायता करेंगी। मैं और सम्पूर्ण 
देवता तुझे पुनः वरदान देंगे, जिससे तू पापमुक्त हो अपने निर्मल स्वरूपसे विख्यात 
होगी” || ३५३ || 

सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरिदं विभुम्‌ ।। ३६ ।। 

पुनरेवाब्रवीद्‌ वाक्‍्यं प्रसाद्य शिरसा तदा । 

महाराज! उनके ऐसा कहनेपर मृत्यु हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भगवान्‌ ब्रह्माको 
प्रसन्न करके उस समय पुनः यह वचन बोली-- ।। ३६३६ ।। 

यद्येवमेतत्‌ कर्तव्यं मया न स्याद्‌ विना प्रभो || ३७ ।। 

तवाज्ञा मूर्थ्नि मे न्‍्यस्ता यत्‌ ते वक्ष्यामि तच्छुणु । 


'प्रभो! यदि इस प्रकार यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा मैंने 
शिरोधार्य कर ली है, परंतु इसके विषयमें मैं आपसे जो कुछ कहती हूँ, उसे (ध्यान देकर) 
सुनिये || ३७३ ।। 

लोभ: क्रोधो<भ्यसूयेष्या द्रोहो मोहश्न देहिनाम्‌ ।। ३८ ।। 

अद्वीक्षान्योन्यपरुषा देहं भिन्द्यु: पृथग्विधा: । 

“लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्या, द्रोह, मोह, निर्लज्जता और एक-दूसरेके प्रति कही हुई 
कठोर वाणी--ये विभिन्न दोष ही देहधारियोंकी देहका भेदन करें' || ३८ ई ।। 

ब्रह्मोवाच 


तथा भविष्यते मृत्यो साधु संहर भो: प्रजा: । 
अधर्मस्ते न भविता नापध्यास्याम्यहं शुभे ।। ३९ ।। 
ब्रह्माजीने कहा--मृत्यो! ऐसा ही होगा। तू उत्तम रीतिसे प्राणियोंका संहार कर। 
शुभे! इससे तुझे पाप नहीं लगेगा और मैं भी तेरा अनिष्ट-चिन्तन नहीं करूँगा ।। ३९ ।। 
यान्यश्रुबिन्दूनि करे ममासं- 
स्ते व्याधय: प्राणिनामात्मजाता: । 
ते मारयिष्यन्ति नरान्‌ गतासून्‌ 
नाधर्मस्ते भविता मा सम भैषी: || ४० ।। 
तेरे आँसुओंकी बूँदें, जिन्हें मैंने हाथमें ले लिया था, प्राणियोंके अपने ही शरीरोंसे उत्पन्न 
हुई व्याधियाँ बनकर गतायु प्राणियोंका नाश करेंगी। तुझे अधर्मकी प्राप्ति नहीं होगी; 
इसलिये तू भय न कर || ४० ।। 
नाधर्मस्ते भविता प्राणिनां वै 
त्वं वै धर्मस्त्वं हि धर्मस्य चेशा । 
धर्म्या भूत्वा धर्मनित्या धरित्री 
तस्मात्‌ प्राणान्‌ सर्वथेमान्‌ नियच्छ ।। ४१ ।। 
निश्चय ही, तुझे पाप नहीं लगेगा। तू प्राणियोंका धर्म और उस धर्मकी स्वामिनी होगी। 
अतः सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाली और धर्मानुकूल जीवन बितानेवाली धरित्री होकर इन 
समस्त जीवोंके प्राणोंका नियन्त्रण कर ।। ४१ ।। 
सर्वेषां वै प्राणिनां कामरोषौ 
संत्यज्य त्वं संहरस्वेह जीवान्‌ । 
एवं धर्मस्त्वां भविष्यत्यनन्तो 
मिथ्यावृत्तान्‌ मारयिष्यत्यधर्म: ।। ४२ ।। 
काम और क्रोधका परित्याग करके इस जगत्‌के समस्त प्राणियोंके प्राणोंका संहार 
कर। ऐसा करनेसे तुझे अक्षय धर्मकी प्राप्ति होगी। मिथ्याचारी पुरुषोंको तो उनका अधर्म 


ही मार डालेगा ।। ४२ ।। 
तेनात्मानं पावयस्वात्मना त्वं 
पापे55त्मानं मज्जयिष्यन्त्यसत्यात्‌ । 
तस्मात्‌ काम॑ रोषमप्यागतं त्वं 
संत्यज्यान्त: संहरस्वेति जीवान्‌ ।। ४३ ।। 
तू धर्मांचरणद्वारा स्वयं ही अपने-आपको पवित्र कर। असत्यका आश्रय लेनेसे प्राणी 
स्वयं अपने-आपको पापपंकमें डुबो लेंगे। इसलिये अपने मनमें आये हुए काम और 
क्रोधका त्याग करके तू समस्त जीवोंका संहार कर ।। ४३ ।। 
नारद उवाच 


सा वै भीता मृत्युसंज्ञोपदेशा- 
च्छापाद्‌ भीता बाढमित्यब्रवीत्‌ तम्‌ 
साच प्राणं प्राणिनामन्तकाले 
कामक्रोधौ त्यज्य हरत्यसक्ता ।। ४४ ।। 
नारदजी कहते हैं--राजन्‌! वह मृत्यु नामवाली नारी ब्रह्माजीके उस उपदेशसे और 
विशेषतः उनके शापके भयसे भीत होकर उनसे बोली--“बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा 
स्वीकार है'। वही मृत्यु अन्तकाल आनेपर काम और क्रोधका परित्याग करके 
अनासक्तभावसे समस्त प्राणियोंके प्राणोंका अपहरण करती है ।। ४४ ।। 
मृत्युस्त्वेषां व्याधयस्तत्प्रसूता 
व्याधी रोगो रुज्यते येन जन्तु: । 
सर्वेषां च प्राणिनां प्रायणान्ते 
तस्माच्छोकं मा कृथा निष्फलं त्वम्‌ ।। ४५ ।। 
यही प्राणियोंकी मृत्यु है, इसीसे व्याधियोंकी उत्पत्ति हुई है। व्याधि नाम है रोगका, 
जिससे प्राणी रुग्ण होता है (उसका स्वास्थ्य भंग होता है)। आयु समाप्त होनेपर सभी 
प्राणियोंकी मृत्यु इसी प्रकार होती है। अत: राजन! तुम व्यर्थ शोक न करो ।। ४५ ।। 
सर्वे देवा: प्राणिभि: प्रायणान्ते 
गत्वा वृत्ता: संनिवृत्तास्तथैव । 
एवं सर्वे प्राणिनस्तत्र गत्वा 
वृत्ता देवा मर्त्यवद्‌ राजसिंह ।। ४६ ।। 
आयुके अन्तमें सारी इन्द्रियाँ प्राणियोंके साथ परलोकमें जाकर स्थित होती हैं और 
पुनः उनके साथ ही इस लोकमें लौट आती हैं। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार सभी प्राणी देवलोकमें 
जाकर वहाँ देवस्वरूपमें स्थित होते हैं तथा वे कर्मदेवता मनुष्योंकी भाँति भोगोंकी समाप्ति 
होनेपर पुनः: इस लोकमें लौट आते हैं || ४६ ।। 


वायुर्भीमो भीमनादो महौजा 
भेत्ता देहान्‌ प्राणिनां सर्वगोडसौ । 
नो वा<<वृतिं नैव वृत्ति कदाचित्‌ 
प्राप्रोत्युग्रोडनन्ततेजोविशिष्ट: ।। ४७ ।। 
भयंकर शब्द करनेवाला महान्‌ बलशाली भयानक प्राणवायु प्राणियोंके शरीरोंका ही 
भेदन करता है (चेतन आत्माका नहीं, क्योंकि) वह सर्वव्यापी, उग्र प्रभावशाली और अनन्त 
तेजसे सम्पन्न है। उसका कभी आवागमन नहीं होता ।। ४७ ।। 
सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टा- 
स्तस्मात्‌ पुत्र मा शुचो राजसिंह । 
स्वर्ग प्राप्तो मोदते ते तनूजो 
नित्यं रम्यान्‌ वीरलोकानवाप्य ।। ४८ ।। 
राजसिंह! सम्पूर्ण देवता भी मर्त्य (मरणधर्मा) नामसे विभूषित हैं, इसलिये तुम अपने 
पुत्रके लिये शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें जा पहुँचा है और नित्य रमणीय वीर- 
लोकोंमें रहकर आनन्दका अनुभव करता है ।। ४८ ।। 
त्यक्त्वा दुःखं संगत: पुण्यकृद्धि- 
रेषा मृत्युर्देवदिष्टा प्रजानाम्‌ । 
प्राप्त काले संहरन्ती यथावत्‌ 
स्वयं कृता प्राणहरा प्रजानाम्‌ ।। ४९ ।। 
वह दुःखका परित्याग करके पुण्यात्मा पुरुषोंसे जा मिला है। प्राणियोंके लिये यह मृत्यु 
भगवानकी ही दी हुई है; जो समय आनेपर यथोचितरूपसे (प्रजाजनोंका) संहार करती है। 
प्रजावर्गके प्राण लेनेवाली इस मृत्युको स्वयं ब्रह्माजीने ही रचा है ।। ४९ ।। 
आत्मानं वै प्राणिनो घ्नन्ति सर्वे 
नैतान्‌ मृत्युर्दण्डपाणिह्िनस्ति । 
तस्मान्मृतान्‌ नानुशोचन्ति धीरा 
मृत्यु ज्ञात्वा निश्चयं ब्रह्मसृष्टम्‌ । 
इत्थं सृष्टिं देवक्लृप्तां विदित्वा 
पुत्रान्नष्टाच्छठोकमाशु त्यजस्व ।। ५० ।। 
सब प्राणी स्वयं ही अपने-आपको मारते हैं। मृत्यु हाथमें डंडा लेकर इनका वध नहीं 
करती है। अत: धीर पुरुष मृत्युको ब्रह्माजीका रचा हुआ निश्चित विधान समझकर मरे हुए 
प्राणियोंके लिये कभी शोक नहीं करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजीकी बनायी हुई सारी सृष्टिको 
ही मृत्युके वशीभूत जानकर तुम अपने पुत्रके मर जानेसे प्राप्त होनेवाले शोकका शीघ्र 
परित्याग कर दो || ५० ।। 


दैपायन उवाच 


एतच्छुत्वार्थवद्‌ वाक्यं नारदेन प्रकाशितम्‌ । 

उवाचाकम्पनो राजा सखायं नारदं तथा ॥। ५१ ।। 

व्यासजी कहते हैं--युधिष्ठटिर! नारदजीकी कही हुई यह अर्थभरी बात सुनकर राजा 
अकम्पन अपने मित्र नारदसे इस प्रकार बोले-- ।। ५१ ।। 

व्यपेतशोक: प्रीतो5स्मि भगवन्नृषिसत्तम । 

श्र॒त्वेतिहासं त्वत्तस्तु कृतार्थो5स्म्यभिवादये || ५२ ।। 

“भगवन्‌! मुनिश्रेष्ठी आपके मुँहसे यह इतिहास सुनकर मेरा शोक दूर हो गया। मैं प्रसन्न 
और कृतार्थ हो गया हूँ और आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ ।। ५२ ।। 

तथोक्तो नारदस्तेन राज्ञा ऋषिवरोत्तम: | 

जगाम नन्दनं शीघ्र देवर्षिरमितात्मवान्‌ ।। ५३ |। 

राजा अकम्पनके इस प्रकार कहनेपर ऋषियोंमें श्रेष्ठठटम अमितात्मा देवर्षि नारद शीघ्र 
ही नन्‍न्दन वनको चले गये ।। ५३ ।। 

पुण्यं यशस्यं स्वर्ग्य च धन्यमायुष्यमेव च । 

अस्येतिहासस्य सदा श्रवर्ण श्रावणं तथा ।। ५४ ।। 

जो इस इतिहासको सदा सुनता और सुनाता है, उसके लिये यह पुण्य, यश, स्वर्ग, धन 
तथा आयु प्रदान करनेवाला है ।। ५४ ।। 

एतदर्थपदं श्रुत्वा तदा राजा युधिष्छिर । 

क्षत्रधर्म च विज्ञाय शूराणां च परां गतिम्‌ ।। ५५ ।। 

सम्प्राप्तोडसौ महावीर्य: स्वर्गलोकं॑ महारथ: । 

युधिष्ठि! उस समय महारथी महापराक्रमी राजा अकम्पन इस उत्तम अर्थको प्रकाशित 
करनेवाले वृत्तान्तको सुनकर तथा क्षत्रियधर्म एवं शूरवीरोंकी परम गतिके विषयमें जानकर 
यथासमय स्वर्गलोकको प्राप्त हुए ।। ५५ ।। 

अभिमन्यु: परान्‌ हत्वा प्रमुखे सर्वधन्विनाम्‌ ।। ५६ ।। 

युध्यमानो महेष्वासो हत: सो$भिमुखो रणे । 

असिना गदया शक्‍त्या धनुषा च महारथ: । 

विरजा: सोमसूनु: स पुनस्तत्र प्रलीयते | ५७ ।। 

महाधनुर्धर अभिमन्यु पूर्वजन्ममें चन्द्रमाका पुत्र था, वह महारथी वीर समरांगणमें 
समस्त धनुर्थरोंके सामने शत्रुओंका वध करके खड्ग, शक्ति, गदा और धनुषद्वारा सम्मुख 
युद्ध करता हुआ मारा गया है तथा दुःखरहित हो पुनः चन्द्रलोकमें ही चला गया 
है || ५६-५७ ।। 

तस्मात्‌ परां धृतिं कृत्वा भ्रातृभि: सह पाण्डव | 

अप्रमत्त: सुसंनद्धः शीघ्र योद्धुमुपाक्रम ।। ५८ ।। 


अतः पाण्डुनन्दन! तुम भाइयोंसहित उत्तम धैर्य धारण करके प्रमाद छोड़कर 
भलीभाँति कवच आदिसे सुसज्जित हो पुनः शीघ्र ही युद्धके लिये तैयार हो जाओ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रणेपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि मृत्युप्रजापतिसंवादे 
चतुः:पञ्चाशत्तमो5ध्याय: ।। ५४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें यृत्युप्रजापतिसंवादाविषयक 
चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५४ ॥/ 


अपना बछ। | अत-४-णक+ 


पञ्चपज्चाशत्तमो< ध्याय: 


षोडशराजकीयोपाख्यानका आरम्भ, नारदजीकी कृपासे 
राजा सूंजयको पुत्रकी प्राप्ति, दस्युओंद्वारा उसका वध 
तथा पुत्रशोकसंतप्त सृंजयको नारदजीका मरुत्तका चरित्र 
सुनाना 
सज्जय उवाच 
श्र॒त्वा मृत्युसमुत्पत्ति कर्माण्यनुपमानि च | 
धर्मराज: पुनर्वाक्‍्यं प्रसाद्यनमथाब्रवीत्‌ ।। १ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! मृत्युकी उत्पत्ति और उसके अनुपम कर्म सुनकर धर्मराज 
युधिष्ठिरने पुनः व्यासजीको प्रसन्न करके उनसे यह बात कही ।। १ ।। 
युधिछिर उवाच 


गुरव: पुण्यकर्माण: शक्रप्रतिमविक्रमा: । 

स्थाने राजर्षयो ब्रद्मन्ननघा: सत्यवादिन: || २ ।। 

युधिष्ठिर बोले--ब्रह्मन! इन्द्रके समान पराक्रमी, श्रेष्ठ, पुण्यकर्मा, निष्पाप तथा 
सत्यवादी राजर्षिगण अपने योग्य उत्तम स्थान (लोक)-में निवास करते हैं || २ ।। 

भूय एव तु मां तथ्यैर्वचोभिरभिबृंहय । 

राजर्षीणां पुराणानां समाश्वासय कर्मभि: ।। ३ ।। 

अतः आप पुनः उन प्राचीन राजर्षियोंके सत्कर्मोंका बोध करानेवाले अपने यथार्थ 
वचनोंद्वारा मेरा सौभाग्य बढ़ाइये और मुझे आश्वासन दीजिये ।। ३ ।। 

कियन्त्यो दक्षिणा दत्ता: कैश्व दत्ता महात्मभि: । 

राजर्षिशि: पुण्यकृद्धिस्तद्‌ भवान्‌ प्रत्रवीतु मे | ४ ।। 

पूर्वालके किन-किन महामनस्वी पुण्यात्मा राजर्षियोंने यज्ञोंमें कितनी-कितनी 
दक्षिणाएँ दी थीं। यह सब आप मुझे बताइये || ४ ।। 

व्यास उवाच 


शैब्यस्य नृपते: पुत्र: सृूज्जया नाम नामतः । 

सखायौ तस्य चैवोभौ ऋषी पर्वतनारदौ || ५ ।। 

व्यासजीने कहा--राजन्‌! राजा शैब्यके सूंजय नामसे प्रसिद्ध एक पुत्र था। उसके 
पर्वत और नारद--ये दो ऋषि मित्र थे || ५ ।। 

तौ कदाचिद्‌ गृहं तस्य प्रविष्टौ तद्दिदृक्षया । 


विधिवच्चार्चितौ तेन प्रीतौ तत्रोषतु: सुखम्‌ ।। ६ ।। 

एक दिन वे दोनों महर्षि सूंजयसे मिलनेके लिये उसके घर पधारे। उसने विधिपूर्वक 
उनकी पूजा की और वे दोनों वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे ।। ६ ।। 

त॑ कदाचित्‌ सुखासीनं ताभ्यां सह शुचिस्मिता । 

दुहिताभ्यागमत्‌ कन्या सृञ्जयं वरवर्णिनी ।। ७ ।। 

एक समय उन दोनों ऋषियोंके साथ राजा सूंजय सुखपूर्वक बैठे थे। उसी समय पवित्र 
मुसकानवाली परम सुन्दरी सूंजयकी कुमारी पुत्री वहाँ आयी || ७ ।। 

तयाभिवादित: कन्यामभ्यनन्दद्‌ यथाविधि । 

तत्सलिज्ञाभिराशीर्भिरिष्टाभिरभित: स्थिताम्‌ ।। ८ ।। 

आकर उसने राजाको प्रणाम किया। राजाने उसके अनुरूप अभीष्ट आशीर्वाद देकर 
अपने पार्श्रभागमें खड़ी हुई उस कन्याका विधिपूर्वक अभिनन्दन किया ।। ८ ।। 

तां निरीक्ष्याब्रवीद्‌ वाक्‍्यं पर्वत: प्रहसन्निव । 

कस्येयं चड्चलापाज़ी सर्वलक्षणसम्मता ।। ९ || 

तब महर्षि पर्वतने उस कन्याकी ओर देखकर हँसते हुए-से कहा--'राजन्‌! यह समस्त 
शुभ लक्षणोंसे सम्मानित चंचल कटाक्षवाली कन्या किसकी पुत्री है? ।। ९ ।। 

उताहो भा: स्विदर्कस्य ज्वलनस्य शिखा त्वियम्‌ । 

श्रीह्ीी: कीर्तिर्धति: पुष्टि: सिद्धिश्नन्द्रमस: प्रभा ।। १० ।। 

“अहो! यह सूर्यकी प्रभा है या अग्निदेवकी शिखा अथवा श्री, ही, कीर्ति, धृति, पुष्टि, 
सिद्धि या चन्द्रमाकी प्रभा है?” ।। १० ।। 

एवं ब्रुवाणं देवर्षि नृपति: सृजजयोडब्रवीत्‌ | 

ममेयं भगवन्‌ कन्या मत्तो वरमभीप्सति ।। ११ ।। 

इस प्रकार पूछते हुए देवर्षि पर्वतसे राजा सृंजयने कहा--“भगवन्‌! यह मेरी कन्या है, 
जो मुझसे वर प्राप्त करना चाहती है” || ११ ।। 

नारदस्त्वब्रवीदेनं देहि महमिमां नूप । 

भार्यार्थ सुमहच्छेय: प्राप्तुं चेदिच्छसे नूप ।। १२ ।। 

इसी समय नारदजी राजासे बोले--“नरेश्वर! यदि तुम परम कल्याण प्राप्त करना 
चाहते हो तो अपनी इस कन्याको धर्मपत्नी बनानेके लिये मुझे दे दो” || १२ ।। 

ददानीत्येव संहृष्ट: सृज्जय: प्राह नारदम्‌ । 

पर्वतस्तु सुसंक्रुद्धो नारदं वाक्यमब्रवीत्‌ ॥। १३ ।। 

तब सूंजयने अत्यन्त प्रसन्न होकर नारदजीसे कहा--'दे दूँगा"! यह सुनकर पर्वत 
अत्यन्त कुपित हो नारदजीसे बोले-- ।। १३ ।। 

ह्ृदयेन मया पूर्व वृतां वै वृतवानसि । 

यस्माद्‌ वृता त्वया विप्र मा गा: स्वर्ग यथेप्सया ।। १४ ।। 


“ब्रह्मन! मैंने मन-ही-मन पहले ही जिसका वरण कर लिया था, उसीका तुमने वरण 
किया है। अतः तुमने मेरी मनोनीत पत्नीको वर लिया है, इसलिये अब तुम इच्छानुसार 
स्वर्गमें नहीं जा सकते” ।। १४ ।। 

एवमुक्तो नारदस्तं प्रत्युवाचोत्तरं वच: । 

मनोवाग्बुद्धिसम्भाषा दत्ता चोदकपूर्वकम्‌ ।। १५ ।। 

पाणिग्रहणमन्त्राश्न प्रथितं वरलक्षणम्‌ । 

न त्वेषा निश्चिता निष्ठा निष्ठा सप्तपदी स्मृता || १६ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर नारदजीने उन्हें यह उत्तर दिया--'मनसे संकल्प करके, 
वाणीद्वारा प्रतिज्ञा करके, बुद्धिके द्वारा पूर्ण निश्चयके साथ, परस्पर सम्भाषणपूर्वक तथा 
संकल्पका जल हाथमें लेकर जो कन्यादान किया जाता है, वरके द्वारा जो कनन्‍्याका 
पाणिग्रहण होता है और वैदिक मन्त्रके पाठ किये जाते हैं, यही विधि-विधान कन्या- 
परिग्रहके साधकरूपसे प्रसिद्ध है; परंतु इतनेसे ही पाणिग्रहणकी पूर्णताका निश्चय नहीं 
होता है। उसकी पूर्ण निष्ठा तो सप्तपदी ही मानी गयी है ।। १५-१६ ।। 

अनुत्पन्ने च कार्यार्थे मां त्वं व्याहृतवानसि । 

तस्मात्‌ त्वमपि न स्वर्ग गमिष्यसि मया विना ।। १७ ।। 

“अतः इस कन्याके ऊपर पतिरूपसे तुम्हारा अधिकार नहीं हुआ है--ऐसी अवस्थामें 
भी तुमने मुझे शाप दे दिया है, इसलिये तुम भी मेरे बिना स्वर्ग नहीं जा सकोगे” || १७ ।। 

अन्योन्यमेवं शप्त्वा वै तस्थतुस्तत्र तौ तदा । 

अथ सोऊपि नृपो विप्रान्‌ पानाच्छादनभोजनै: ।। १८ ।। 

पुत्रकाम: परं शक्‍्त्या यत्नाच्चोपाचरच्छुचि: । 

इस प्रकार एक-दूसरेको शाप देकर वे दोनों उस समय वहीं ठहर गये। इधर राजा 
सूंजयने पुत्रकी इच्छासे पवित्र हो पूरी शक्ति लगाकर बड़े यत्नसे भोजन, पीनेयोग्य पदार्थ 
तथा वस्त्र आदि देकर ब्राह्मणोंकी आराधना की || १८६ ।। 

तस्य प्रसन्ना विप्रेन्द्राः: कदाचित्‌ पुत्रमीप्सव: ।। १९ ।। 

तपःस्वाध्यायनिरता वेदवेदाड्रपारगा: । 

सहिता नारदं प्राहुर्देहास्मै पुत्रमीप्सितम्‌ ।। २० ।। 

एक दिन राजापर प्रसन्न होकर उन्हें पुत्र देनेकी इच्छावाले सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण, जो 
तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्न रहनेवाले तथा वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान्‌ थे, एक साथ 
नारदजीसे बोले--'देवर्षी). आप इन राजा सृंजयको अभीष्ट पुत्र प्रदान 
कीजिये” ।। १९-२० ।। 

तथेत्युक्त्वा द्विजैरुक्त: सृञ्जयं नारदो<ब्रवीत्‌ । 

तुभ्यं प्रसन्ना राजर्षे पुत्रमीप्सन्ति ब्राह्मणा: ।। २१ ।। 


ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर नारदजीने “तथास्तु” कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर 
लिया। फिर वे सूंजयसे इस प्रकार बोले--'राजर्षे! ये ब्राह्मणलोग प्रसन्न होकर तुम्हारे लिये 
अभीष्ठ पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं || २१ ।। 

वरं वृणीष्व भद्रं ते यादृशं पुत्रमीप्सितम्‌ । 

तथीक्तः प्राञ्जली राजा पुत्र॑ वव्रे गुणान्वितम्‌ ।। २२ ।। 

यशस्विनं कीर्तिमन्तं तेजस्विनमरिंदमम्‌ । 

यस्य मूत्र पुरीषं च क्लेद: स्वेदश्न॒ काउचनम्‌ ॥। २३ ।। 

(सर्व भवेत्‌ प्रसादाद्‌ वै तादृशं तनयं वृणे । 

“तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें जैसा पुत्र अभीष्ट हो, उसके लिये वर माँगो”। नारदजीके 
ऐसा कहनेपर राजाने हाथ जोड़कर उनसे एक सदगुणसम्पन्न, यशस्वी, कीर्तिमान, तेजस्वी 
तथा शत्रुदमन पुत्र माँगा। वह बोला--'मुने! मैं ऐसे पुत्रकी याचना करता हूँ, जिसका मल, 
मूत्र, थूक और पसीना सब कुछ आपके कृपाप्रसादसे सुवर्णमय हो जाय” || २२-२३ ३ ।। 

व्यास उवाच 


तथा भविष्यतीत्युक्ते जज्ञे तस्येप्सित: सुतः ।। 

काजञ्चनस्याकर: श्रीमान्‌ प्रसादाच्च सुकाड्क्षित: । 

अपतत्‌ तस्य नेत्रा भ्यां रुदतस्तस्य नेत्रजम्‌ ।।) 

सुवर्णष्ठीविरित्येव॑ं तस्य नामाभवत्‌ कृतम्‌ | 

तस्मिन्‌ वरप्रदानेन वर्धयत्यमितं धनम्‌ ।। २४ ।। 

व्यासजी कहते हैं--राजन्‌! तब मुनिने कहा--'ऐसा ही होगा'। उनके ऐसा कहनेपर 
राजाको मनोवांछित पुत्र प्राप्त हुआ। मुनिके प्रसादसे वह शोभाशाली पुत्र सुवर्णकी खान 
निकला। राजा वैसा ही पुत्र चाहते थे। रोते समय उसके नेत्रोंसे सुवर्णमय आँसू गिरता था। 
इसीलिये उस पुत्रका नाम सुवर्णष्ठीवी प्रसिद्ध हो गया। वरदानके प्रभावसे वह अनन्त 
धनराशिकी वृद्धि करने लगा ।। २४ ।। 

कारयामास नृपति: सौवर्ण सर्वमीप्सितम्‌ । 

गृहप्राकारदुर्गाणि ब्राह्मणावसथान्यपि ।। २५ ।। 

शय्यासनानि यानानि स्थाली पिठरभाजनम्‌ | 

तस्य राज्ञोडपि यद्‌ वेश्म बाह्मयाश्नोपस्कराश्व ये ।। २६ ।। 

सर्व तत्‌ काज्चनमयं कालेन परिवर्धितम्‌ । 

राजाने घर, परकोटे, दुर्ग एवं ब्राह्मणोंके निवासस्थान सारी अभीष्ट वस्तुएँ सोनेकी 
बनवा लीं। शय्या, आसन, सवारी, बटलोई, थाली, अन्य बर्तन, उस राजाका महल तथा 
बाह्य उपकरण--ये सब कुछ सुवर्णमय बन गये थे, जो समयके अनुसार बढ़ रहे 
थे || २५-२६६ ।। 


अथ दस्युगणा: श्रुत्वा दृष्टवा चैनं तथाविधम्‌ ।। २७ ।। 

सम्भूय तस्य नृपते: समारब्धारिचकीर्षितुम्‌ । 

तदनन्तर लुटेरोंने राजाके वैभवकी बात सुनकर तथा उन्हें वैसा ही सम्पन्न देखकर 
संगठित हो उनके यहाँ लूटपाट आरम्भ कर दी || २७३ ।। 

केचित्‌ तत्राब्रुवन्‌ राज्ञ: पुत्र गृहल्लीम वै स्‍्वयम्‌ ।। २८ ।। 

सो5स्याकर: काउचनस्य तस्य यत्नं चरामहे । 

उन डाकुओंमेंसे कोई-कोई इस प्रकार बोले--“हम सब लोग स्वयं इस राजाके पुत्रको 
अधिकारमें कर लें; क्योंकि वही इस सुवर्णकी खान है। अतः हम उसीको पकड़नेका यत्न 
करें! || २८६ || 

ततस्ते दस्यवो लुब्धा: प्रविश्य नृपतेर्गृहम्‌ ।। २९ ।। 

राजपुत्रं तथा जहु: सुवर्णष्ठीविनं बलात्‌ । 

तब उन लोभी लुटेरोंने राजमहलमें प्रवेश करके राजकुमार सुवर्णष्ठीवीको बलपूर्वक हर 
लिया || २९३ || 

गृहौनमनुपायज्ञा नीत्वारण्यमचेतस: ।। ३० ।। 

हत्वा विशस्य चापश्यन्‌ लुब्धा वसु न किउ्चन । 

तस्य प्राणैर्विमुक्तस्य नष्ट तद्‌ वरदं वसु || ३१ ।। 

योग्य उपायको न जाननेवाले उन विवेकशून्य डाकुओंने उसे वनमें ले जाकर मार डाला 
और उसके शरीरके टुकड़े-टुकड़े करके देखा, परंतु उन्हें थोड़ा-सा भी धन नहीं दिखायी 
दिया। उसके प्राणशून्य होते ही वह वरदायक वैभव नष्ट हो गया ।। ३०-३१ ।। 

दस्यवश्व तदान्योन्यं जघ्नुर्मूर्ता विचेतस: । 

हत्वा परस्परं नष्टा: कुमार चाद्भुतं भुवि ।। ३२ ।। 

असम्भाव्यं गता घोरं नरकं दुष्टकारिण: । 

उस समय वे विचारशून्य मूर्ख एवं दुराचारी दस्यु भूमण्डलके उस अद्भुत और असम्भव 
कुमारका वध करके परस्पर एक-दूसरेको मारने लगे। इस प्रकार मार-पीट करके वे भी नष्ट 
हो गये और भयंकर नरकमें पड़ गये ।। ३२ ६ ।। 

त॑ दृष्टवा निहतं पुत्र वरदत्तं महातपा: ।। ३३ ।। 

विललाप सुदु:खार्तो बहुधा करुणं नृपः । 

मुनिके वरसे प्राप्त हुए उस पुत्रको मारा गया देख वे महातपस्वी नरेश अत्यन्त दुःखसे 
आतुर हो नाना प्रकारसे करूणाजनक विलाप करने लगे ।। ३३३ ।। 

विलपन्तं निशम्याथ पुत्रशोकहतं नृपम्‌ ।। ३४ ।। 

प्रत्यदृश्यत देवर्षिनरिदस्तस्य संनिधौ | 


पुत्रशोकसे पीड़ित हुए राजा सूंजय विलाप कर रहे हैं--यह सुनकर देवर्षि नारद उनके 
समीप दिखायी दिये ।। 
उवाच चैन दुःखार्त विलपन्तमचेतसम्‌ ।। ३५ ।। 
सृञ्जयं नारदो<शभ्येत्य तन्निबोध युधिष्िर । 
युधिष्ठिर! दुःखसे पीड़ित हो अचेत होकर विलाप करते हुए राजा सूंजयके निकट 
आकर नारदजीने जो कुछ कहा था, वह सुनो ।। ३५३ ।|। 
(नारद उवाच 


त्यज शोकं॑ महाराज वैक्लव्यं त्यज बुद्धिमन्‌ । 

न मृत: शोचतो जीवेन्मुह्मतो वा जनाधिप ।। 

नारदजी बोले--महाराज! शोकका त्याग करो! बुद्धिमान्‌ नरेश! व्याकुलता छोड़ो! 
जनेश्वर! कोई कितना ही शोक क्‍यों न करे या दु:खसे मूर्च्छित क्यों न हो जाय, इससे मरा 
हुआ मनुष्य जीवित नहीं हो सकता। 

त्यज मोहं नृपश्रेष्ठ न हि मुहान्ति त्वद्विधा: । 

धीरो भव महाराज ज्ञानवृद्धोडसि मे मतः ।।) 

नृपश्रेष्ठ! मोह त्याग दो! तुम्हारे-जैसे पुरुष मोहित नहीं होते हैं। महाराज! धैर्य धारण 
करो! मैं तुम्हें ज्ञानमें बढ़ा-चढ़ा मानता हूँ। 

कामानामवितृप्तस्त्वं सृूजजयेह मरिष्यसि ।। ३६ ।। 

यस्य चैते वयं गेहे उषिता ब्रह्म॒वादिन: । 

सूंजय! जिसके घरमें ये हम-जैसे ब्रह्मवादी मुनि निवास करते हैं, वह तुम भी यहाँ एक 
दिन भोगोंसे अतृप्त रहकर ही मर जाओगे ।। ३६३६ ।। 

आविक्षितं मरुत्तं च मृतं सृज्जय शुश्रुम ।। ३७ ।। 

संवर्तो याजयामास स्पर्धया वै बृहस्पते: । 

यस्मै राजर्षये प्रादाद्‌ धनं स भगवान्‌ प्रभु: ।। ३८ ।। 

हैमं हिमवतः पादं यियक्षोविविधै: स वै । 

यस्य सेन्द्राउईमरगणा बृहस्पतिपुरोगमा: ।। ३९ ।। 

देवा विश्वसृज: सर्वे यजनान्ते समासते । 

यज्ञवाटस्य सौवर्णा: सर्वे चासन्‌ परिच्छदा: ।। ४० ।। 

यस्य सर्व तदा हाुन्न॑ मनो5भिप्रायगं शुचि । 

कामतो बुभुजुर्विप्रा: सर्वे चान्नार्थिनो द्विजा: ।। ४१ ।। 

पयो दधि घृत॑ क्षौद्रं भक्ष्य भोज्यं च शोभनम्‌ । 

यस्य यज्ञेषु सर्वेषु वासांस्याभरणानि च ।। ४२ ।। 

ईप्सितान्युपतिष्ठ न्ते प्रहृष्टान्‌ वेदपारगान्‌ । 


मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्याभवन्‌ गृहे ।। ४३ ।। 

आविक्षितस्य राजर्षेविश्वेदेवाः: सभासद: । 

यस्य वीर्यवतो राज्ञ: सुवृष्ट्या सस्यसम्पद: ।। ४४ ।। 

हविर्भिस्तर्पिता येन सम्यक्‌ क्लूप्तैर्दिवौकस: । 

ऋषीणां च पितृणां च देवानां सुखजीविनाम्‌ ॥। ४५ ।। 

ब्रह्मचर्यश्रुतिमुखे: सर्वैदनिश्च सर्वदा । 

शयनासनयानानि स्वर्णराशीश्व दुस्त्यजा: ।। ४६ ।। 

तत्‌ सर्वममितं वित्तं दत्तं विप्रेभ्य इच्छया । 

सो<नुध्यातस्तु शक्रेण प्रजा: कृत्वा निरामया: | ४७ ।। 

श्रद्धधानो जिताँललोकान्‌ गत: पुण्यदुहो$क्षयान्‌ । 

सूंजय! अविक्षितके पुत्र राजा मरुत्त भी मर गये, ऐसा हमने सुना है। बृहस्पतिजीके 
साथ स्पर्धा रखनेके कारण उनके भाई संवर्तने जिन राजर्षि मरुत्तका यज्ञ कराया था, 
भाँति-भाँतिके यज्ञोंद्वारा भगवानका यजन करनेकी इच्छा होनेपर जिन्हें साक्षात्‌ भगवान्‌ 
शंकरने प्रचुर धनराशिके रूपमें हिमालयका एक सुवर्णमय शिखर प्रदान किया तथा 
प्रतिदिन यज्ञकार्यके अन्तमें जिनकी सभामें इन्द्र आदि देवता और बृहस्पति आदि समस्त 
प्रजापतिगण सभासदके रूपमें बैठा करते थे, जिनके यज्ञमण्डपकी सारी सामग्रियाँ 
सोनेकी बनी हुई थीं, जिनके यहाँ उन दिनों सब प्रकारका अन्न, मनकी इच्छाके अनुरूप 
और पवित्र रूपमें उपलब्ध होता था और सभी भोजनार्थी ब्राह्मण एवं द्विज जहाँ अपनी 
इच्छाके अनुसार दूध, दही, घी, मधु एवं सुन्दर भक्ष्य-भोज्य पदार्थ भोजन करते थे, जिनके 
सम्पूर्ण यज्ञोंमें प्रसन्नतासे भरे हुए वेदोंके पारंगत दिद्वान्‌ ब्राह्यगोंको अपनी रुचिके अनुसार 
वस्त्र एवं आभूषण प्राप्त होते थे, जिन अविक्षितकुमार (राजर्षि मरुत्त)-के घरमें मरुद॒गण 
रसोई परोसनेका काम करते थे और विश्वेदेवणण सभासद्‌ थे, जिन पराक्रमी नरेशके 
राज्यमें उत्तम वृष्टिके कारण खेतीकी उपज बहुत होती थी, जिन्होंने उत्तम विधिसे समर्पित 
किये हुए हविष्योंद्वारा देवताओंको तृप्त किया था, जो ब्रह्मचर्यपालन और वेदपाठ आदि 
सत्कर्मोंद्वारा तथा सब प्रकारके दानोंसे सदा ऋषियों, पितरों एवं सुखजीवी देवताओंको भी 
संतुष्ट करते थे तथा जिन्होंने इच्छानुसार ब्राह्मणोंको शय्या, आसन, सवारी और दुस्त्यज 
स्वर्णणशशि आदि वह सारा अपरिमित धन दान कर दिया था, देवराज इन्द्र जिनका सदा शुभ 
चिन्तन करते थे, वे श्रद्धालु नरेश मरुत्त अपनी प्रजाको नीरोग करके अपने सत्कर्मोंद्वारा 
जीते हुए पुण्यफलदायक अक्षय लोकोंमें चले गये || ३७--४७ ३ ।। 

सप्रज: सनृपामात्य: सदारापत्यबान्धव: ।। ४८ ।। 

यौवनेन सहस्राब्दं मरुत्तो राज्यमन्वशात्‌ । 

राजा मरुत्तने युवावस्थामें रहकर प्रजा, मन्त्री, धर्मपत्नी, पुत्र और भाइयोंके साथ एक 
हजार वर्षोतक राज्यशासन किया था ।। ४८ ई ।। 


स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया || ४९ ।। 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। ५० ।। 

वैत्य सुृंजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य--इन चारों बातोंमें राजा मरुत्त तुमसे 
बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। तुम्हारे पुत्रने न तो कोई यज्ञ किया था 
और न उसमें कोई उदारता ही थी। अत: उसको लक्ष्य करके तुम चिन्ता न करो-- 
नारदजीने राजा सूंजयसे यही बात कही || ४९-५० ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
पञ्चपज्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर ५४ श्लोक हैं) 


ऑपन-- मा बछ। अप ऋाल 


षट्पज्चाशत्तमो< ध्याय: 
राजा सुहोत्रकी दानशीलता 


नारद उवाच 
सुहोत्रं नाम राजानं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 
एकवीरमशकक्‍यं तममरैरभिवीक्षितुम्‌ ।। १ ।। 
नारदजी कहते हैं--'सूंजय! राजा सुहोत्रकी भी मृत्यु सुनी गयी है। वे अपने समयके 
अद्वितीय वीर थे। देवता भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकते थे ।। १ ।। 
यः प्राप्य राज्यं धर्मेण ऋत्विग्ब्रह्मपुरोहितान्‌ । 
अपृच्छदात्मन: श्रेय: पृष्टवा तेषां मते स्थित: ।। २ ।। 
उन्होंने धर्मके अनुसार राज्य पाकर ऋत्विजों, ब्राह्मणों तथा पुरोहितोंसे अपने 
कल्याणका उपाय पूछा और पूछकर वे उनकी सम्मतिके अनुसार चलते रहे || २ ।। 
प्रजानां पालन धर्मो दानमिज्या द्विषज्जय: । 
एतत्‌ सुहोत्रो विज्ञाय धर्मेणैच्छद्‌ धनागमम्‌ ।। ३ ।। 
प्रजापालन, धर्म, दान, यज्ञ और शत्रुओंपर विजय पाना--इन सबको राजा सुहोत्रने 
अपने लिये श्रेयस्कर जानकर धर्मके द्वारा ही धन पानेकी अभिलाषा की ।। ३ ।। 
धर्मेणाराधयन्‌ देवान्‌ 
बाणै: शत्रूज्जयंस्तथा । 
सर्वाण्यपि च भूतानि 
स्वगुणैरप्यरञज्जयत्‌ ।। ४ ।। 
यो भुक्त्वेमां वसुमतीं 
म्लेच्छाटविकवर्जिताम्‌ । 
यस्मै ववर्ष पर्जन्यो 
हिरण्यं परिवत्सरान्‌ ।। ५ ।। 
उन्होंने इस पृथ्वीको म्लेच्छों तथा तस्करोंसे रहित करके इसका उपभोग किया और 
धर्माचरणद्वारा देवताओंकी आराधना तथा बाणोंद्वारा शत्रुओंपर विजय करते हुए अपने 
गुणोंसे समस्त प्राणियोंका मनोरंजन किया था, उनके लिये मेघने अनेक वर्षोतक सुवर्णकी 
वर्षा की थी ।। ४-५ ।। 
हैरण्यास्तत्र वाहिन्य: स्वैरिण्यो व्यवहन्‌ पुरा । 
ग्राहान्‌ कर्कटकांश्वैव मत्स्यांश्व विविधान्‌ बहून्‌ ।। ६ ।। 
राजा सुहोत्रके राज्यमें पहले स्वच्छन्द गतिसे बहनेवाली स्वर्णरससे भरी हुई सरिताएँ 
सुवर्णमय ग्राहों, केकड़ों, मत्स्यों तथा नाना प्रकारके बहुसंख्यक जल-जन्तुओंको अपने 


भीतर बहाया करती थीं ।। ६ ।। 

कामान्‌ वर्षति पर्जन्यो रूप्याणि विविधानि च । 

सौवर्णान्यप्रमेयाणि वाप्यक्ष॒ क्रोशसम्मिता: ।। ७ ।। 

मेघ अभीष्ट वस्तुओंकी तथा नाना प्रकारके रजत और असंख्य सुवर्णकी वर्षा करते थे। 
उनके राज्यमें एक-एक कोसकी लंबी-चौड़ी बावलियाँ थीं || ७ ।। 

सहस्र॑ वामनान्‌ कुब्जान्‌ नक्रानू मकरकच्छपान्‌ । 

सौवर्णान्‌ विहितान्‌ दृष्टवा ततो5स्मयत वै तदा ।। ८ ।। 

उनमें सहसौरों नाटे-कुबड़े ग्राह, मगर और कछुए रहते थे, जिनके शरीर सुवर्णके बने हुए 
थे। उन्हें देखकर राजाको उन दिनों बड़ा विस्मय होता था ॥। ८ ।। 

तत्‌ सुवर्णमपर्यन्तं राजर्षि: कुरुजाड़ले । 

ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्म॒णेभ्यो हरमन्यत ।। ९ ।। 

राजर्षि सुहोत्रने कुरुजांगल देशमें यज्ञ किया और उस विशाल यज्ञमें अपनी अनन्त 
सुवर्णराशि ब्राह्मणोंको बाँट दी ।। ९ ।। 





सो<श्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च । 

पुण्यै: क्षत्रिययज्ैश्व प्रभूतवरदक्षिणै: ।। १० ।। 

उन्होंने एक हजार अश्वमेध, सौ राजसूय तथा बहुत-सी श्रेष्ठ दक्षिणावाले अनेक 
पुण्यमय क्षत्रिय-यज्ञोंका अनुष्ठान किया था || १० ।। 

काम्यनैमित्तिकाजस्रैरिष्टां गतिमवाप्तवान्‌ | 

स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया || ११ ।। 


पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 
अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्वैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १२ ।। 
राजाने नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य यज्ञोंके निरन्तर अनुष्ठानसे मनोवांछित गति प्राप्त 
कर ली। श्वैत्य सूंजय! वे भी तुमसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य--इन चारों कल्याणकारी 
विषयोंमें बहुत बढ़े-चढ़े थे। तुम्हारे पुत्रसे भी वे अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, 
तब तुम्हें अपने पुत्रके लिये अनुताप नहीं करना चाहिये; क्योंकि तुम्हारे पुत्रने न तो कोई 
यज्ञ किया था और न उसमें दाक्षिण्य (उदारताका गुण) ही था। नारदजीने राजा सूंजयसे 
यही बात कही ।। ११-१२ |। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
षट्पञज्चाशत्तमो<ध्याय: ।। ५६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५६ ॥/ 


अपना बछ। | अर-क्रा् 


सप्तपजञ्चाशत्तमो< ध्याय: 
राजा पौरवके अद्भुत दानका वृत्तान्त 


नारद उवाच 

राजानं पौरवं वीरं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

सहस््र॑ यः सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्‌ ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सृंजय! हमने वीर राजा पौरवकी भी मृत्यु हुई सुनी है, जिन्होंने 
दस लाख श्वेत घोड़ोंका दान किया था ।। १ ।। 

तस्याश्वमेधे राजर्षेदेशाद्देशात्‌ समीयुषाम्‌ । 

शिक्षाक्षरविधिज्ञानां नासीत्‌ संख्या विपश्चिताम्‌ ।। २ ॥। 

उन राजर्षिके अश्वमेध-यज्ञमें देश-देशसे आये हुए शिक्षाशास्त्र, अक्षर (विभिन्न देशोंकी 
लिपि) और यज्ञविधिके ज्ञाता विद्वानोंकी गिनती नहीं थी ।। २ ।। 

वेदविद्याव्रतस्नाता वदान्या: प्रियदर्शना: । 

सुभिक्षाच्छादनगृहा: सुशय्यासनभोजना: ।। ३ ।। 

वेदविद्याके अध्ययनका व्रत पूर्ण करके स्नातक बने हुए उदार और प्रियदर्शन 
पण्डितजन राजासे उत्तम अन्न, वस्त्र, गृह, सुन्दर शय्या, आसन और भोजन पाते 
थे।।३।। 

नटनर्तकगन्धर्व: पूर्णकैर्वर्धमानकै: । 

नित्योद्योगैश्ष क्रीडद्धिस्तत्र सम परिहर्षिता: ।। ४ ।॥। 

नित्य उद्योगशील एवं खेल-कूद करनेवाले नट, नर्तक और गन्धर्वगण कुक्कुटकी-सी 
आकृतिवाले आरतीके प्यालोंसे अपनी कला दिखाकर उक्त दिद्वानोंका मनोरंजन एवं 
हर्षवर्द्धन करते रहते थे ।। ४ ।। 

यज्ञे यज्ञे यथाकालं दक्षिणा: सो5त्यकालयत्‌ | 

द्विपा दशसहस्राख्या: प्रमदा: काउचनप्रभा: ।। ५ ।। 

सध्वजा: सपताकाश्च रथा हेममयास्तथा । 

यः: सहस्र॑ं सहस्नाणि कन्या हेमविभूषिता: ।। ६ ।। 

राजा पौरव प्रत्येक यज्ञमें यथासमय प्रचुर दक्षिणा बाँटते थे। उन्होंने स्वर्णकी-सी 
कान्तिवाले दस हजार मतवाले हाथी, ध्वजा और पताकाओंसहित सुवर्णमय बहुत-से रथ 
तथा एक लाख स्वर्णभूषित कन्याओंका दान किया था || ५-६ |। 

धूर्युजाश्वगजारूढा: सगृहक्षेत्रगोशता: । 

शतं शतसहस्राणि स्वर्णमालिमहात्मनाम्‌ ।। ७ ।। 

गवां सहस्रानुचरान्‌ दक्षिणामत्यकालयत्‌ | 


वे कन्याएँ रथ, अश्व एवं हाथियोंपर आरूढ़ थीं। उनके साथ ही उन्होंने सौ-सौ घर, क्षेत्र 
और गौएँ प्रदान की थीं। राजाने सुवर्णमालामण्डित विशालकाय एक करोड़ गाय-बैलों और 
उनके सहस्रों अनुचरोंको दक्षिणारूपसे दान किया था | ७३ || 

हेमशृड्ग्यो रौप्यखुरा: सवत्सा: कांस्यदोहना: ।। ८ ।। 

दासीदासखरोष्टराश्व प्रादादाजाविकं बहु । 

सोनेके सींग, चाँदीके खुर और कांसेके दुग्ध-पात्रवाली बहुत-सी बछड़ेसहित गौएँ तथा 
दास, दासी, गदहे, ऊँट एवं बकरी और भेड़ आदि भारी संख्यामें दान किये ।। ८३ ।। 

रत्नानां विविधानां च विविधांश्चान्नपर्वतान्‌ ।। ९ ।। 

तस्मिन्‌ संवितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्‌ । 

उस विशाल यज्ञमें नाना प्रकारके रत्नों तथा भाँति-भाँतिके अन्नोंके पर्वत-समान ढेर 
उन्होंने दक्षिणारूपमें दिये | ९६ ।। 

तत्रास्य गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जना: ।। १० ।। 

उस यज्ञके सम्बन्धमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले लोग इस प्रकार गाथा गाते हैं 
-- || १० || 

अड्गस्य यजमानस्य स्वधर्माधिगता: शुभा: । 

गुणोत्तरास्तु क्रतवस्तस्यासन्‌ सार्वकामिका: ।। ११ ।। 

“यजमान अंगनरेशके सभी यज्ञ स्वधर्मके अनुसार प्राप्त और शुभ थे। वे उत्तरोत्तर 
गुणवान्‌ और सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि करनेवाले थे” || ११ ।। 

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्वैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १२ ।। 

सूंजय! राजा पौरव धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य--इन चारों बातोंमें तुमसे बढ़कर थे 
और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। श्वैत्य सृंजय! जब वे भी मर गये, तब तुम यज्ञ 
और दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। नारदजीने राजा सूंजयसे यही बात 
कही ।। १२ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
सप्तपञ्चाशत्तमोडध्याय: ॥। ५७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो- 
पाख्यानविषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५७ ॥ 


ऑपन-साज बक। अऑि-छऋाय 


अष्टपञज्चाशत्तमो< ध्याय: 
राजा शिबिके यज्ञ और दानकी महत्ता 


नारद उवाच 


शिबिमौशीनरं चापि मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

य इमां पृथिवीं सर्वा चर्मवत्‌ पर्यवेष्टयत्‌ ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वीको चमड़ेकी भाँति लपेट लिया 
था, (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था) वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने 
सुना है ।। १ ।। 

साद्रिद्वीपार्णववनां रथघोषेण नादयन्‌ । 

स शिबिर्व रिपून्‌ नित्यं मुख्यान्‌ निध्नन्‌ सपत्नजित्‌ ॥। २ ।। 

राजा शिबिने पर्वत, द्वीप, समुद्र और वनोंसहित इस पृथ्वीको अपने रथकी 
घरघराहटसे प्रतिध्वनित करते हुए प्रधान-प्रधान शत्रुओंको मारकर सदा ही अपने 
विपक्षियोंपर विजय प्राप्त की थी ।। २ ।। 

तेन यज्जैर्बहुविधैरिष्टं पर्याप्तदक्षिणै: । 

स राजा वीर्यवान्‌ धीमानवाप्य वसु पुष्कलम्‌ ।। ३ ।। 

सर्वमूर्धाभिषिक्तानां सम्मत: सो5भवद्‌ युधि । 

अयजयच्चाश्वमेधैर्यों विजित्य पृथिवीमिमाम्‌ ।। ४ ।। 

उन्होंने प्रचुर दक्षिणाओंसे युक्त नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। वे पराक्रमी 
और बुद्धिमान्‌ नरेश पर्याप्त धन पाकर युद्धमें सम्पूर्ण मूर्धाभिषिक्त राजाओंकी दृष्टिमें 
सम्माननीय वीर हो गये थे। उन्होंने इस पृथ्वीको जीतकर अनेक अश्वमेध-यज्ञ किये थे ।। 

निरर्गलैर्बहुफलैर्निष्ककोटिसहस्रद: । 

हस्त्यश्वपशुभिथरर्धान्यिर्मगैगोंडजाविभिस्तथा ।। ५ ।। 

विविधां पृथिवीं पुण्यां शिबि्राह्मणसात्करोत्‌ । 

उनके वे यज्ञ प्रचुर फल देनेवाले थे और सदा निर्बाध-रूपसे चलते रहते थे। उन्होंने 
सहस्रकोटि स्वर्णमुद्राओंका दान किया था। राजा शिबिने हाथी, घोड़े, मृग, गौ, भेड़ और 
बकरी आदि पशुओं तथा धान्योंसहित नाना प्रकारके पवित्र भूखण्ड ब्राह्मणोंक अधीन कर 
दिये थे || ५६ ।। 

यावत्यो वर्षतो धारा यावत्यो दिवि तारका: ।। ६ ।। 

यावत्य: सिकता गाड्ग्यो यावन्मेरोर्महोपला: । 

उदन्वति च यावन्ति रत्नानि प्राणिनोडपि च ।। ७ ।। 

तावतीरददद गा वै शिबिरौशीनरो<थ्वरे । 


बरसते हुए मेघसे जितनी धाराएँ गिरती हैं, आकाशमें जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, 
गंगाके किनारे जितने बालूके कण हैं, सुमेरु पर्वतमें जितने स्थूल प्रस्तरखण्ड हैं तथा 
महासागरमें जितने रत्न और प्राणी निवास करते हैं, उतनी गौएँ उशीनरपुत्र शिबिने यज्ञमें 
ब्राह्मणोंको दी थीं ।। ६-७३ ।। 

नो यन्तारं धुरस्तस्य कज्चिदन्यं प्रजापति: ।। ८ ।। 

भूतं भव्यं भवन्तं वा नाध्यगच्छन्नरोत्तमम्‌ | 

प्रजापतिने भी अपनी सृष्टिमें भूत, भविष्य और वर्तमान कालके किसी भी दूसरे 
नरश्रेष्ठ राजाको ऐसा नहीं पाया जो शिबिके कार्यभारको सँभाल सकता हो ।। 

तस्यासन्‌ विविधा यज्ञा: सर्वकामै: समन्विता: ।। ९ || 

हेमयूपासनगृहा हेमप्राकारतोरणा: । 

उन्होंने नाना प्रकारके बहुत-से यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण की 
जाती थीं। उन यज्ञोंमें यज्ञस्तम्भ, आसन, गृह, परकोटे और दरवाजे सुवर्णके बने हुए 
थे।। ९६ ।। 

शुचि स्वाद्वन्नपानं च ब्राह्मणा: प्रयुतायुता: ।। १० ।। 

नानाभक्ष्यै: प्रियकथा: पयोदधिमहाह्दा: । 

तस्यासन्‌ यज्ञवाटेषु नद्यः शुभ्रान्नपर्वता: ।। ११ ।। 

उन यज्ञोंमें खाने-पीनेकी वस्तुएँ पवित्र और स्वादिष्ट होती थीं। वहाँ दूध-दहीके बड़े- 
बड़े सरोवर बने हुए थे। वहाँ हजारों और लाखों ब्राह्मण भाँति-भाँतिके खाद्य पदार्थ पाकर 
प्रसन्नता प्रकट करनेवाली बातें कहते थे। उनकी यज्ञशालाओंमें पीनेयोग्य पदार्थोकी नदियाँ 
बहती थीं और शुद्ध अन्नके पर्वतोंके समान ढेर लगे रहते थे || १०-११ ।। 

पिबत स्नात खादध्वमिति यद्‌ रोचते जना: । 

यस्मै प्रादाद्‌ वरं रुद्रस्तुष्ट: पुण्येन कर्मणा ।। १२ ।। 

अक्षयं ददतो वित्तं श्रद्धा कीर्तिस्तथा किया: । 

यथोक्तमेव भूतानां प्रियत्वं स्वर्गमुत्तमम्‌ ।। १३ ।। 

वहाँ सबके लिये यह घोषणा की जाती थी कि 'सज्जनो! स्नान करो और जिसकी 
जैसी रुचि हो उसके अनुसार अन्न-पान लेकर खूब खाओ-पीओ”। भगवान्‌ शिवने राजा 
शिबिके पुण्यकर्मसे प्रसन्न होकर उन्हें यह वर दिया था कि राजन! सदा दान करते रहनेपर 
भी तुम्हारा धन क्षीण नहीं होगा, तुम्हारी श्रद्धा, कीर्ति और पुण्यकर्म भी अक्षय होंगे। तुम्हारे 
कहनेके अनुसार ही सब प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अन्तमें तुम्हें उत्तम स्वर्गलोककी प्राप्ति 
होगी ।। १२-१३ ।। 


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एतॉल्लब्ध्वा वरानिष्टान्‌ 
शिबि: काले दिव॑ गत: । 
स चेन्ममार सृज्जय 
चतुर्भद्रतरस्त्वया ।। १४ ।। 
पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं 
मा पुत्रमनुतप्यथा: । 
अयज्वानमदाक्षिण्य- 
मभ्ि श॥वैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १५ ।। 
इन अभीष्ट वरोंको पाकर राजा शिबि समय आनेपर स्वर्गलोकमें गये। सूंजय! वे 
तुम्हारी अपेक्षा पूर्वोक्त चारों बातोंमें बहुत बढ़े-चढ़े थे। तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा 
थे। श्वित्यनन्दन! जब वे शिबि भी मर गये, तब तुम्हें यज्ञ और दानसे रहित अपने पुत्रके 
लिये इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये। नारदजीने राजा सूंजयसे यही बात कही ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
अष्टपज्चाशत्तमोड ध्याय: ।। ५८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक जद्ठावनवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥/ ५८ ॥ 


भनीप्स््ज्ल्िसज (9) नीला 


एकोनषशष्टितमो< ध्याय: 


भगवान्‌ श्रीरामका चरित्र 


नारद उवाच 

रामं दाशरथिं चैव मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यं प्रजा अन्वमोदन्त पिता पुत्रानिवौरसान्‌ ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीराम भी यहाँसे परमधामको चले 
गये थे, यह मेरे सुननेमें आया है। उनके राज्यमें सारी प्रजा निरन्तर आनन्दमग्न रहती थी। 
जैसे पिता अपने औरस पुत्रोंका पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजाका स्नेहपूर्वक 
संरक्षण करते थे ।। १ ।। 

असंख्येया गुणा यस्मिन्नासन्नमिततेजसि । 

यश्षतुर्दश वर्षाणि निदेशात्‌ पितुरच्युत: ॥। २ ।। 

वने वनितया सार्धमवसल्लक्ष्मणाग्रज: । 

वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण विद्यमान थे। अपनी मर्यादासे कभी च्युत 
न होनेवाले लक्ष्मणके बड़े भाई श्रीरामने पिताकी आज्ञासे चौदह वर्षोतक अपनी पत्नी 
सीता (और भाई लक्ष्मण) के साथ वनमें निवास किया था || २३ || 

जघान च जनस्थाने राक्षसान्‌ मनुजर्षभ: ।। ३ ।। 

तपस्विनां रक्षणार्थ सहस््राणि चतुर्दश । 

नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने जनस्थानमें तपस्वी मुनियोंकी रक्षाके लिये चौदह हजार 
राक्षसोंका वध किया था । ३६ ।। 

तत्रैव वसतस्तस्य रावणो नाम राक्षस: ।। ४ ।। 

जहार भार्या वैदेहीं सम्मोहौनं सहानुजम्‌ । 

वहीं रहते समय लक्ष्मणसहित श्रीरामको मोहमें डालकर रावण नामक राक्षसने उनकी 
पत्नी विदेहनन्दिनी सीताको हर लिया ।। ४ $ ।। 

(रामां ह॒तां राक्षसेन भार्या श्रुत्वा जटायुष: । 

आतुर: शोकसंतप्तो5गच्छद्‌ रामो हरी श्वरम्‌ ।। 

अपनी मनोरमा पत्नीके राक्षसद्वारा हर लिये जानेका समाचार जटायुके मुखसे सुनकर 
श्रीरामचन्द्रजी आतुर एवं शोकसंतप्त हो वानरराज सुग्रीवके पास गये। 

तेन राम: सुसड्भम्य वानरैश्व महाबलै: । 

आजगामोददथे: पारं सेतुं कृत्वा महार्णवे ।। 

सुग्रीवसे मिलकर श्रीरामने (उनके साथ मित्रता की और) महाबली वानरोंको साथ ले 
महासागरमें पुल बाँधकर समुद्रको पार किया। 


तत्र हत्वा तु पौलस्त्यान्‌ ससुहृदूगणबान्धवान्‌ | 

मायाविनं महाघोरं रावणं लोककण्टकम्‌ ।।) 

तमागस्कारिणं राम: पौलस्त्यमजितं परै: ।। ५ ।। 

जघान समरे क्रुद्धः पुरेव तयम्बको5न्धकम्‌ | 

वहाँ पुलस्त्यवंशी राक्षसोंको उके सुहृदों और बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर श्रीरामने 
अपने प्रधान अपराधी अत्यन्त घोर मायावी लोककंटक पुलस्त्यनन्दन रावणको, जो 
दूसरोंके द्वारा कभी जीता नहीं गया था, कुपित होकर समरभूमिमें मार डाला। ठीक उसी 
तरह, जैसे पूर्वकालमें भगवान्‌ शंकरने अन्धकासुरको मारा था ।। ५३ || 

सुरासुरैरवध्यं तं देवब्राह्मणकण्टकम्‌ ।। ६ ।। 

जघान स महाबाहु: पौलस्त्यं सगणं रणे । 

जो देवताओं और असुरोंके लिये भी अवध्य था, देवताओं और ब्राह्मणोंके लिये 
कण्टकरूप उस पुलस्त्यवंशी रावणका रणक्षेत्रमें महाबाहु श्रीरामचन्द्रजीने उसके 
दलबलसहित संहार कर डाला || ६६ || 

(हत्वा तत्र रिपुं संख्ये भार्यया सह सज्भतः । 

लड्केश्वरं च चक्रे स धर्मात्मानं विभीषणम्‌ ।। 

इस प्रकार वहाँ युद्धस्थलमें अपने वैरी रावणका वध करके वे धर्मपत्नी सीतासे मिले। 
तत्पश्चात्‌ धर्मात्मा विभीषणको उन्होंने लंकाका राजा बना दिया। 

भार्यया सह संयुक्तस्ततो वानरसेनया । 

अयोध्यामागतो वीर: पुष्पकेण विराजता ।। 

तदनन्तर वीर श्रीरामचन्द्रजी अपनी पत्नी तथा वानर-सेनाके साथ शोभाशाली 
पुष्पकविमानके द्वारा अयोध्यामें आये। 

तत्र राजन प्रविष्ट: स अयोध्यायां महायशा: । 

मातृूर्वयस्यान्‌ सचिवानृत्विज: सपुरोहितान्‌ ।। 

शुश्रूषमाण: सतत मन्सत्रिभिश्चाभिषेचित: । 

राजन! अयोध्यामें प्रवेश करके महायशस्वी श्रीराम वहाँ माताओं, मित्रों, मन्त्रियों, 
ऋत्विजों तथा पुरोहितोंकी सेवामें सदैव संलग्न रहने लगे। फिर मन्त्रियोंने उनका 
राज्याभिषेक कर दिया ।। 

विसृज्य हरिराजानं हनुमन्तं सहाड्भदम्‌ ।। 

भ्रातरं भरतं वीर शत्रुघ्नं चैव लक्ष्मणम्‌ । 

पूजयन्‌ परया प्रीत्या वैदेहा चाभिपूजित: ।। 

चतुःसागरपर्यन्तां पृथिवीमन्वशासत ।।) 

स प्रजानुग्रहं कृत्वा त्रिदशैरभिपूजित: ।। ७ ।। 


इसके बाद वानरराज सुग्रीव, हनुमान्‌ और अंगदको विदा करके अपने वीर भ्राता 
भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मणका आदर करते हुए विदेहनन्दिनी सीताद्वारा परम प्रेमपूर्वक 
सम्मानित हो श्रीरामचन्द्रजीने चारों समुद्रोंतककी सारी पृथ्वीका शासन किया और समस्त 
प्रजाओंपर अनुग्रह करके वे देवताओंद्वारा सम्मानित हुए ।। ७ ।। 

व्याप्य कृत्स्नं जगत्‌ कीर्त्या सुरर्षिगणसेवित: । 

स प्राप्य विधिवद्‌ राज्यं सर्वभूतानुकम्पक: ।। ८ ।। 

आजहार महायज्ञं प्रजा धर्मेण पालयन्‌ | 

निरर्गलं राजसूयमश्चमेधं च तं विभुः ।। ९ ।। 

आजहार सुरेशस्य हविषा मुदमाहरत्‌ । 

अन्यैश्न विविधैर्यज्ञैरीजे बहुगुणैर्नूप: ।॥ १० ।। 

देवर्षिगणोंसे सेवित श्रीरामने विधिपूर्वक राज्य पाकर अपनी कीर्तिसे सम्पूर्ण जगत्‌को 
व्याप्त कर दिया और समस्त प्राणियोंपर अनुग्रह करते हुए वे धर्मपूर्वक प्रजाका पालन 
करने लगे। भगवान्‌ श्रीरामने निर्बाधरूपसे राजसूय और अश्वमेध-यज्ञका अनुष्ठान किया 
और देवराज इन्द्रको हविष्यसे तृप्त करके उन्हें अत्यन्त आनन्द प्रदान किया। राजा रामने 
नाना प्रकारके दूसरे-दूसरे यज्ञ भी किये थे, जो अनेक गुणोंसे सम्पन्न थे || ८-१० ।। 

क्षुत्पिपासेडजयदू राम: सर्वरोगांश्व देहिनाम्‌ । 

सततं गुणसम्पन्नो दीप्पमान: स्वतेजसा | ११ ।। 

श्रीरामचन्द्रजीने भूख और प्यासको जीत लिया था। सम्पूर्ण देहधारियोंके रोगोंको नष्ट 
कर दिया था। वे उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हो सदैव अपने तेजसे प्रकाशित होते थे ।। 

अति सर्वाणि भूतानि रामो दाशरथिर्बभौ | 

ऋषीणां देवतानां च मानुषाणां च सर्वश: ।। १२ ।। 

पृथिव्यां सहवासो भूद्‌ रामे राज्यं प्रशासति । 

दशरथनन्दन श्रीराम (अपने महान्‌ तेजके कारण) सम्पूर्ण प्राणियोंसे बढ़कर शोभा 
पाते थे। श्रीरामके राज्यशासन करते समय ऋषि, देवता और मनुष्य सभी एक साथ इस 
पृथ्वीपर निवास करते थे ।। १२६ ।। 

नाहीयत तदा प्राण: प्राणिनां न तदन्‍्यथा ।। १३ ।। 

प्राणो5पान: समानक्ष रामे राज्यं प्रशासति । 

उस समय उनके राज्य शासनकालनमें प्राणियोंके प्राय, अपान और समान आदि 
प्राणवायुका क्षय नहीं होता था; इस नियममें कोई हेर-फेर नहीं था ।। १३६ ।। 

पर्यदीप्यन्त तेजांसि तदानर्थाश्व नाभवन्‌ ।। १४ ।। 

दीर्घायुष: प्रजा: सर्वा युवा न म्रियते तदा । 


(यज्ञों अथवा अग्निहोत्र-गृहोंमें) सब ओर अग्निदेव प्रज्वलित होते रहते थे। उन दिनों 
किसी प्रकारका अनर्थ नहीं होता था। सारी प्रजा दीर्घायु होती थी। किसी युवककी मृत्यु 
नहीं हुआ करती थी || १४ ३ ।। 

वेदैश्वतुर्भि: सुप्रीता: प्राप्तुवन्ति दिवौकस: ।। १५ ।। 

हव्यं कव्यं च विविध॑ निष्पूर्त हुतमेव च । 

चारों वेदोंके स्वाध्यायसे प्रसन्न हुए देवता तथा पितृगण नाना प्रकारके हव्य और कव्य 
प्राप्त करते थे। सब ओर इष्ट (यज्ञ-यागादि) और पूर्त (वापी, कूप, तडाग और वृक्षारोपण 
आदि) का अनुष्ठान होता रहता था ।। 

अदंशमशका देशा नष्टव्यालसरीसूपा: ।। १६ ।। 

नाप्सु प्राणभृतां मृत्युनाकाले ज्वलनो5दहत्‌ । 

श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें किसी भी देशमें डाँस और मच्छरोंका भय नहीं था। साँप और 
बिच्छू नष्ट हो गये थे। जलमें पड़नेपर भी किसी प्राणीकी मृत्यु नहीं होती थी। चिताकी 
अग्निने किसी भी मनुष्यको असमयमें नहीं जलाया था (केसीकी अकालमृत्यु नहीं हुई 
थी) ।। १६३ ।। 

अधर्मरुचयो लुब्धा मूर्खा वा नाभवंस्तदा ।। १७ ।। 

शिष्टेष्टयज्ञकर्माण: सर्वे वर्णास्तदाभवन्‌ | 

उन दिनों लोग अधर्ममें रुचि रखनेवाले, लोभी और मूर्ख नहीं होते थे। उस समय सभी 
वर्णके लोग अपने लिये शास्त्रविहित यज्ञ-यागादि कर्मोंका अनुष्ठान करते थे || १७६ ।। 

स्वथां पूजां च रक्षोभिर्जनस्थाने प्रणाशिताम्‌ ।। १८ ।। 

प्रादान्निहत्य रक्षांसि पितृदेवेभ्य ईश्वर: । 

जनस्थानमें राक्षसोंने जो पितरों और देवताओंकी पूजा-अर्चा नष्ट कर दी थी, उसे 
भगवान्‌ श्रीरामने राक्षसोंको मारकर पुनः प्रचलित किया और पितरोंको श्राद्धका तथा 
देवताओंको यज्ञका भाग दिया ।। १८६ ।। 

सहस़पुत्रा: पुरुषा दशवर्षशतायुष: ।। १९ |। 

न च ज्येष्ठा: कनिष्ठे भ्यस्तदा श्राद्धान्यकारयन्‌ | 

श्रीरामके राज्यकालमें एक-एक मनुष्यके हजार-हजार पुत्र होते थे और उनकी आयु 
भी एक-एक सहस्र वर्षोकी होती थी। बड़ोंको अपने छोटोंका श्राद्ध नहीं करना पड़ता 
था | १९६ || 

(न तस्करा वा व्याधिर्वा विविधोपद्रवा: क्वचित्‌ । 

अनावृष्टिभयं चात्र दुर्भिक्षो व्याधय: क्वचित्‌ ।। 

सर्व प्रसन्नमेवासीदत्यन्तसुखसंयुतम्‌ । 

एवं लोको<5भवत् सर्वो रामे राज्यं प्रशासति ।।) 


श्रीरामके राज्यमें कहीं भी चोर, नाना प्रकारके रोग और भाँति-भाँतिके उपद्रव नहीं थे। 
दुर्भिक्ष, व्याधि और अनावृष्टिका भय भी कहीं नहीं था। सारा जगत्‌ अत्यन्त सुखसे सम्पन्न 
और प्रसन्न ही दिखायी देता था। इस प्रकार श्रीरामके राज्य करते समय सब लोग बहुत 
सुखी थे। 

श्यामो युवा लोहिताक्षो मत्तमातड़विक्रम: ।। २० ।। 

आजानुबाहु: सुभुज: सिंहस्कन्धो महाबल: । 

दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।। २३ ।। 

सर्वभूतमन:कान्तो रामो राज्यमकारयत्‌ । 

भगवान्‌ श्रीरामकी श्यामसुन्दर छवि, तरुण अवस्था और कुछ-कुछ अरुणाई लिये 
बड़ी-बड़ी आँखें थीं। उनकी चाल मतवाले हाथी-जैसी थी, भुजाएँ सुन्दर और घुटनोंतक 
लंबी थीं। कंधे सिंहके समान थे। उनमें महान्‌ बल था। उनकी कान्ति समस्त प्राणियोंके 
मनको मोह लेनेवाली थी। उन्होंने ग्यारह हजार वर्षोतक राज्य किया था | २०-२१ ३ ।। 

रामो रामो राम इति प्रजानामभवत्‌ कथा ।॥। २२ ।। 

रामाद्‌ रामं जगदभूदू रामे राज्यं प्रशासति । 

श्रीरामचन्द्रजीके राज्य-शासन-कालमें समस्त प्रजाओंमें “राम, राम, राम” यही चर्चा 
होती थी। श्रीरामके कारण सारा जगत्‌ ही राममय हो रहा था ।। २२६ ।। 

चतुर्विधा: प्रजा राम: स्वर्ग नीत्वा दिवं गत: ॥। २३ ।। 

आत्मानं सम्प्रतिष्ठाप्य राजवंशमिहाष्टधा । 

फिर समयानुसार अपने और भाइयोंके अंशभूत दो-दो पुत्रोंद्वारा आठ प्रकारके 
राजवंशकी स्थापना करके उन्होंने चारों वर्णोकी प्रजाको अपने धाममें भेजकर स्वयं भी 
सदेह परमधामको गमन किया ।। २३३ ।। 

स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया ।। २४ ।। 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। २५ ।। 

वैत्य सृंजय! वे श्रीरामचन्द्रजी धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य चारों बातोंमें तुमसे बहुत 
बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी यहाँ नहीं रह सके, तब 
दूसरोंकी तो बात ही क्‍या है? अतः तुम यज्ञ एवं दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये 
शोक न करो। नारदजीने राजा सूंजयसे यही बात कही ।। २४-२५ ।। 


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इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
एकोनषष्टितमो5 ध्याय: ।। ५९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ५९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०३ श्लोक मिलाकर कुल ३५६ *लोक हैं) 


शीशना ह्न अ्ीस्जनी: 


षष्टितमो< ध्याय: 
राजा भगीरथका चरित्र 


नारद उवाच 

भगीरथं च राजानं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

(परित्राणाय पूर्वेषां येन गड्जावतारिता । 

यस्येन्द्रो बाहुवीर्येण प्रीतो राज्ञो महात्मन: ।। 

योअश्वमेधशतैरीजे समाप्तवरदक्षिणै: । 

हविर्मन्त्रान्नसम्पन्नै्देवानामादधान्मुदम्‌ ।। 

यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कट: । 

असुराणां सहस््राणि बहूनि च सुरेश्वर: ।। 

अजयदू बाहुवीर्येण भगवॉल्लोकपूजित: ।) 

येन भागीरथी गड़ा चयनै: काज्चनैश्विता ।। १ || 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! हमारे सुननेमें आया है कि राजा भगीरथ भी मर गये, 
जिन्होंने अपने पूर्वजोंका उद्धार करनेके लिये इस भूतलपर गंगाजीको उतारा था। जिन 
महामना नरेशके बाहुबलसे इन्द्र बहुत प्रसन्न थे, जिन्होंने प्रचुर एवं उत्तम दक्षिणासे युक्त 
हविष्य, मन्त्र और अन्नसे सम्पन्न सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया और देवताओंका 
आनन्द बढ़ाया, जिनके महान्‌ यज्ञमें इन्द्र सोमरस पीकर मदोन्मत्त हो उठे थे तथा जिनके 
यहाँ रहकर लोकपूजित भगवान्‌ देवेन्द्रने अपने बाहुबलसे अनेक सहस्र असुरोंको पराजित 
किया, उन्हीं राजा भगीरथने यज्ञ करते समय गंगाके दोनों किनारोंपर सोनेकी ईंटोंके घाट 
बनवाये थे ।। 

यः: सहस्र॑ं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिता: । 

राज्ञश्न राजपुत्रांश्व ब्राह्मणेभ्यो हूमन्यत ।। २ ।। 

इतना ही नहीं, उन्होंने कितने ही राजाओं तथा राजपुत्रोंकी जीतकर उनके यहाँसे 
सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित दस लाख कन्याएँ लाकर उन्हें ब्राह्मणोंको दान किया 
था।।२।। 

सर्वा रथगता: कन्या रथा: सर्वे चतुर्युजः । 

रथे रथे शतं नागा: सर्वे वै हेममालिन: ।। ३ ।। 





वे सभी कन्याएँ रथोंमें बैठी थीं। उन सभी रथोंमें चार-चार घोड़े जुते थे। प्रत्येक रथके 
पीछे सोनेके हारोंसे अलंकृत सौ-सौ हाथी चलते थे ।। ३ ।। 

सहसमप्रचाश्चैकैकं गजानां पृष्ठतोडन्वयु: । 

अश्वे अश्वे शतं गावो गवां पश्चादजाविकम्‌ ।। ४ ।। 

एक-एक हाथीके पीछे हजार-हजार घोड़े जा रहे थे और एक-एक घोड़ेके साथ सौ-सौ 
गौएँ एवं गौओंके पीछे भेड़ और बकरियोंके झुंड चलते थे ।। ४ ।। 

तेनाक्रान्ता जलौघेन दक्षिणा भूयसीर्ददत्‌ । 

उपद्वरेडतिव्यथिता तस्याड़के निषसाद ह ।। ५ ।। 

राजा भगीरथ गंगाके तटपर भूयसी (प्रचुर) दक्षिणा देते हुए निवास करते थे। अतः 
उनके संकल्पकालिक जलप्रवाहसे आक्रान्त होकर गंगादेवी मानो अत्यन्त व्यथित हो उठीं 
और समीपवर्ती राजाके अंकमें आ बैठीं ।। ५ ।। 

तथा भागीरथी गड्ढा उर्वशी चाभवत्‌ पुरा । 

दुहितृत्वं गता राज्ञ: पुत्रत्वमगमत्‌ तदा ॥। ६ ।। 

इस प्रकार भगीरथकी पुत्री होनेसे गंगाजी भागीरथी कहलायीं और उनके ऊरुपर 
बैठनेके कारण उर्वशी नामसे प्रसिद्ध हुईं। राजाके पुत्रीभावको प्राप्त होकर उनका नरकसे 
त्राण करनेके कारण वे उस समय पुत्रभावको भी प्राप्त हुईं ।। ६ ।। 

तां तु गाथां जगुः प्रीता गन्धर्वा: सूर्यवर्चस: । 

पितृदेवमनुष्याणां शृण्वतां वल्गुवादिन: ।। ७ ।। 

सूर्यके समान तेजस्वी और मधुरभाषी गन्धर्वोने प्रसन्न होकर देवताओं, पितरों और 
मनुष्योंके सुनते हुए यह गाथा गायी थी ।। ७ ।। 

भगीरथं यजमानमैक्ष्वाकुं भूरिदक्षिणम्‌ । 


गड्जा समुद्रगा देवी वव्रे पितरमी श्वरम्‌ ।। ८ ।। 

यज्ञ करते समय भूयसी दक्षिणा देनेवाले इक्ष्वाकुवंशी ऐश्वर्यशशाली राजा भगीरथको 
समुद्रगामिनी गंगादेवीने अपना पिता मान लिया था ।। ८ ।। 

तस्य सेन्द्रै: सुरगणैर्देवर्यय: स्वलड्कृत: । 

सम्यक्परिगृहीतश्न शान्तविध्नो निरामय: ।। ९ ।। 

इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने उनके यज्ञको सुशोभित किया था। उसमें प्राप्त हुए 
हविष्यको भलीभाँति ग्रहण करके उसके विघ्नोंको शान्त करते हुए उसे निर्बाधरूपसे पूर्ण 
किया था ।। ९ |। 

यो य इच्छेत विप्रो वै यत्र यत्रात्मन: प्रियम्‌ । 

भगीरथस्तदा प्रीतस्तत्र तत्राददद्‌ वशी ।। १० ।। 

जिस-जिस ब्राह्मणने जहाँ-जहाँ अपने मनको प्रिय लगनेवाली जिस-जिस वस्तुको 
पाना चाहा, जितेन्द्रिय राजाने वहीं-वहीं प्रसन्नतापूर्वक वह वस्तु उसे तत्काल समर्पित 
की |। 

नादेयं ब्राह्मणस्यासीद्‌ यस्य यत्स्यात्‌ प्रियं धनम्‌ । 

सोडपि विप्रप्रसादेन ब्रह्मलोक॑ गतो नूप: ।। ११ ।। 

उनके पास जो भी प्रिय धन था, वह ब्राह्मणके लिये अदेय नहीं था। राजा भगीरथ 
ब्राह्मणोंकी कृपासे ब्रह्मलोकको प्राप्त हुए ।। ११ ।। 

येन याती मखमुखौ दिशाशाविह पादपा: | 

तेनावस्थातुमिच्छन्ति तं गत्वा राजमी श्वरम्‌ ।। १२ ।। 

शत्रुओंकी दशा और आशाका हनन करनेवाले सूंजय! राजा भगीरथने यज्ञोंमें प्रधान 
ज्ञानयज्ञ और ध्यानयज्ञको ग्रहण किया था। इसलिये किरणोंका पान करनेवाले महर्षिगण 
भी उस ब्रह्मलोकमें जितेन्द्रिय राजा भगीरथके निकट जाकर उसी स्थानपर रहनेकी इच्छा 
करते थे ।। 

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: ।। १३ ।। 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ । 

वैत्य सुंजय! वे भगीरथ उपर्युक्त चारों बातोंमें तुमसे बहुत बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्रकी 
अपेक्षा उनका पुण्य बहुत अधिक था। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरोंकी तो बात 
ही क्या है? अतः तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। 
नारदजीने राजा सूंजयसे यही बात कही ।। १३ ६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये षष्टितमो<थध्याय: 
॥॥ ६० || 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ३ श्लोक मिलाकर कुल १७ श्लोक हैं) 


न्््स्न्िताय् धन्य नील 


एकषेष्टितमो< ध्याय: 
राजा दिलीपका उत्त्कर्ष 


नारद उवाच 

दिलीपं चेदैलविलं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यस्य यज्ञशतेष्वासन्‌ प्रयुतायुतशो द्विजा: । 

तन्त्रज्ञानार्थसम्पन्ना यज्वान: पुत्रपौत्रिण: ।। १ ।॥। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! इलविलाके पुत्र राजा दिलीपकी भी मृत्यु सुनी गयी है, 
जिनके सौ यज्ञोंमें लाखों ब्राह्मण नियुक्त थे। वे सभी ब्राह्मण वेदोंके कर्मकाण्ड और 
ज्ञानकाण्डके तात्पर्यको जाननेवाले, यज्ञकर्ता तथा पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न थे || १ ।। 

य इमां वसुसम्पूर्णा वसुधां वसुधाधिप: । 

ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मुणेभ्यो हमन्यत ।। २ ॥। 

पृथ्वीपति दिलीपने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञमें धन-धान्यसे सम्पन्न इस सारी 
पृथ्वीको ब्राह्मणोंके लिये दान कर दिया था ।। २ ।। 

दिलीपस्य तु यज्ञेषु कृत: पन्था हिरण्मय: । 

तं धर्म इव कुर्वाणा: सेन्द्रा देवा: समागमन्‌ ।। ३ ।। 

राजा दिलीपके यज्ञोंमें सोनेकी सड़कें बनायी गयी थीं। इन्द्र आदि देवता मानो धर्मकी 
प्राप्तिके लिये उन्हें अलंकृत करते हुए उनके यहाँ पधारते थे ।। ३ ।। 

सहस्र॑ यत्र मातड़् गच्छन्ति पर्वतोपमा: । 

सौवर्ण चाभवत्‌ सर्व सद: परमभास्वरम्‌ ।। ४ ।। 


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वहाँ पर्वतोंके समान विशालकाय सहस्रों गजराज विचरा करते थे। राजाका 
सभामण्डप सोनेका बना हुआ था, जो सदा देदीप्यमान रहता था ।। ४ ।। 

रसानां चाभवन्‌ कुल्या भक्ष्याणां चापि पर्वता: । 

सहस्रव्यामा नृपते यूपाश्चासन्‌ हिरण्मया: ।॥। ५ || 

वहाँ रसकी नहरें बहती थीं और अन्नके पहाड़ों-जैसे ढेर लगे हुए थे। राजन्‌! उनके 
यज्ञमें सहस्र व्याम-विस्तृत सुवर्णमय यूप सुशोभित होते थे ।। ५ ।। 

चषालं प्रचषालं च यस्य यूपे हिरण्मये । 

नृत्यन्तेडप्सरसस्तस्य षट्‌ सहस्राणि सप्त च ।। ६ ।। 

उनके यूपमें सुवर्णमय >चषाल और प्रचषाल लगे हुए थे। उनके यहाँ तेरह हजार 
अप्सराएँ नृत्य करती थीं ।। 

यत्र वीणां वादयति प्रीत्या विश्वावसु: स्वयम्‌ । 

सर्वभूतान्यमन्यन्त राजानं सत्यशीलिनम्‌ ।। ७ ।। 

उस समय वहाँ साक्षात्‌ गन्धर्वराज विश्वावसु प्रेमपूर्वक वीणा बजाते थे। समस्त प्राणी 
राजा दिलीपको सत्यवादी मानते थे ।। ७ ।। 

रागखाण्डवभोज्यैश्व मत्ता: पथिषु शेरते । 

तदेतदद्धुतं मन्‍्ये अन्यैर्न सदृशं नृपैः ।। ८ ।। 

यदप्सु युध्यमानस्य चक्रे न परिपेततु: । 

उनके यहाँ आये हुए अतिथि 'रागखाण्डव” नामक मोदक और विविध भोज्यपदार्थ 
खाकर मतवाले हो सड़कोंपर लेट जाते थे। मेरे मतमें उनके यहाँ यह एक अद्भुत बात थी, 


जिसकी दूसरे राजाओंसे तुलना नहीं हो सकती थी। राजा दिलीप युद्ध करते समय जलमें 
भी चले जाते तो उनके रथके पहिये वहाँ डूबते नहीं थे ।। 

राजानं दृढ्धन्वानं 

दिलीप॑ सत्यवादिनम्‌ ।। ९ ।। 
येडपश्यन्‌ भूरिदाक्षिण्यं 
तेडपि स्वर्गजितो नरा: । 

सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले सत्यवादी राजा दिलीपका जो 
लोग दर्शन कर लेते थे, वे मनुष्य भी स्वर्गलोकके अधिकारी हो जाते थे ।। 

पज्च शब्दा न जीर्यन्ति खट्वाड्गस्य निवेशने ।। १० ।। 

स्वाध्यायघोषो ज्याघोष: पिबताश्नीत खादत । 

खटवांग (दिलीप)-के भवनमें ये पाँच प्रकारके शब्द कभी बंद नहीं होते थे--वेद- 
शास्त्रोंके स्वाध्यायका शब्द, धनुषकी प्रत्यंचाकी ध्वनि तथा अतिथियोंके लिये कहे 
जानेवाले 'खाओ, पीओ और अन्न ग्रहण करो” ये तीन शब्द || १० $ ।। 

स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया || ११ ।। 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १२ ।॥ 

वैत्य सुंजय! वे दिलीप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य--इन चारों कल्याणकारी गुणोंमें 
तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे, तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब 
औरोंकी क्‍या बात है? अतः जिसने कभी यज्ञ नहीं किया, दक्षिणाएँ नहीं बाँटीं, अपने उस 
पुत्रके लिये तुम शोक न करो--इस प्रकार नारदजीने कहा ।। ११-१२ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
एकषष्टितमो5ध्याय: ।। ६१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ६१ ॥ 


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> यज्ञीय यूप या स्तम्भके ऊपर लगाये जानेवाले काठके छल्लेको “चषाल' कहते हैं, इसीका उत्कृष्ट रूप 'प्रचषाल' है। 


द्विषष्टितमो< ध्याय: 


राजा मान्धाताकी महत्ता 


नारद उवाच 


मान्धाता चेद्यौवनाश्वो मृत: सृञ्जय शुश्रुम 

देवासुरमनुष्याणां त्रैलोक्यविजयी नृप: ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! युवनाश्वके पुत्र राजा मान्धाता भी मरे थे, यह सुना गया 
है। वे देवता, असुर और मनुष्य--तीनों लोकोंमें विजयी थे ।। १ ।। 

य॑ं देवावश्चिनौ गर्भात्‌ पितुः पूर्व चकर्षतु: । 

मृगयां विचरन्‌ राजा तृषितः क्लान्तवाहन: ।। २ ।। 

पूर्वकालमें दोनों अश्विनीकुमार नामक देवताओंने उन्हें पिताके पेटसे निकाला था। एक 
समयकी बात है, राजा युवनाश्व वनमें शिकार खेलनेके लिये विचर रहे थे। वहाँ उनका घोड़ा 
थक गया और उन्हें भी प्यास लग गयी ।। २ ।। 

धूमं दृष्टवागमत्‌ सत्र पृषदाज्यमवाप स: | 

त॑ दृष्टवा युवनाश्वस्य जठरे सूनुतां गतम्‌ ।। ३ ।। 

गर्भाद्धि जह्वतुर्देवावश्वचिनौ भिषजां वरौ | 

इतनेमें दूरसे उठता हुआ धूआँ देखकर वे उसी ओर चले और एक यज्ञमण्डपमें जा 
पहुँचे। वहाँ एक पात्रमें रखे हुए घृतमिश्रित अभिमन्त्रित जलको उन्होंने पी लिया। उस 
जलको युवनाश्वके पेटमें पुत्ररूपमें परिणत हुआ देख वैद्योंमें श्रेष्ठ अश्विनीकुमार नामक 
देवताओंने उसे पिताके गर्भसे बाहर निकाला || ३६ ।। 

त॑ं दृष्टवा पितुरुत्सज़े शयानं देववर्चसम्‌ ।। ४ ।। 

अन्योन्यमन्रुवन्‌ देवा: कमयं धास्यतीति वै । 

मामेवायं धयत्वग्रे इति ह स्माह वासव: ।। ५ || 

देवताके समान तेजस्वी उस शिशुको पिताकी गोदमें शयन करते देख देवता आपसमें 
कहने लगे, यह किसका दूध पीयेगा? यह सुनकर इन्द्रने कहा--यह पहले मेरा ही दूध 
पीये ।। ४-५ ।। 

ततो<ड्गुलिभ्यो हीन्द्रस्य प्रादुरासीत्‌ पयो5मृतम्‌ । 

मां धास्यतीति कारुण्याद्‌ यदिन्द्रो हन्वकम्पयत्‌ ।। ६ ।। 

तस्मात्तु मान्धातेत्येवं नाम तस्याद्भधुतं कृतम्‌ । 

तदनन्तर इन्द्रकी अंगुलियोंसे अमृतमय दूध प्रकट हो गया; क्योंकि इन्द्रने करूणावश 
'मां धास्यति” (मेरा दूध पीयेगा) ऐसा कहकर उसपर कृपा की थी, इसलिये उसका 
'मान्धाता' यह अद्भुत नाम निश्चित कर दिया गया || ६३६ || 


ततस्तु धारां पयसो घृतस्य च महात्मन: ।। ७ ।। 

तस्यास्ये यौवनाश्व॒स्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत्‌ । 

अपिबत्‌ पाणिमिन्द्रस्य स चाप्यल्वाभ्यवर्धत ।। ८ ।। 

तत्पश्चात्‌ महामना मान्धाताके मुखमें इन्द्रके हाथने दूध और घीकी धारा बहायी। वह 
बालक इन्द्रका हाथ पीने लगा और एक ही दिनमें बहुत बढ़ गया ।। ७-८ ।। 

सो5भवद्‌ द्वादशसमो द्वादशाहेन वीर्यवान्‌ । 

इमां च पृथिवीं कृत्स्नामेकाह्नला स व्यजीजयत्‌ ।। ९ ।। 

वह पराक्रमी राजकुमार बारह दिनोंमें ही बारह वर्षोकी अवस्थावाले बालकके समान 
हो गया। (राजा होनेपर) मान्धाताने एक ही दिनमें इस सारी पृथ्वीको जीत लिया ।। ९ |। 

धर्मात्मा धृतिमान्‌ वीर: सत्यसंधो जितेन्द्रिय: । 

जनमेजयं सुधन्वानं गयं पूरुं बृहद्रथम्‌ ।। १० ।। 

असितं च नृगं चैव मान्धाता मनुजो5जयत्‌ | 

वे धर्मात्मा, धैर्यवान, शूरवीर, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। मानव मान्धाताने 
जनमेजय, सुधन्वा, गय, पूरु, बृहद्रथ, असित और नृगको भी जीत लिया ।। १०३ ।। 

उदेति च यतः सूर्यो यत्र च प्रतितिष्ठति ॥। ११ ।। 

तत्‌ सर्व यौवनाश्चस्य मान्धातु: क्षेत्रमुच्यते । 

सूर्य जहाँसे उदय होते थे और जहाँ जाकर अस्त होते थे, वह सारा-का-सारा प्रदेश 
युवनाश्वपुत्र मान्धाताका क्षेत्र (राज्य) कहलाता था ।। ११६ ।। 

सो<श्वमेधशतैरिष्टवा राजसूयशतेन च ।। १२ ।। 

अदददू रोहितान्‌ मत्स्यान्‌ ब्राह्मणेभ्यो विशाम्पते । 

हैरण्यान्‌ यो जनोत्सेधानायतान्‌ शतयोजनम्‌ ।। १३ ।। 

राजन! उन्होंने सौ अश्वमेध और सौ राजसूय-यज्ञोंका अनुष्ठान करके सौ योजन 
विस्तृत रोहितक, मत्स्य तथा हिरण्यमय (सोनेकी खानोंसे युक्त) जनपदोंको, जो लोगोंमें 
ऊँची भूमिके रूपमें प्रसिद्ध थे, ब्राह्मणोंको दे दिया ।। १२-१३ ।। 

बहुप्रकारान्‌ सुस्वादून्‌ भक्ष्यभोज्यान्नपर्वतान्‌ । 

अतिरिक्तं ब्राह्मणे भ्यो भुज्जानो हीयते जन: ॥। १४ ।। 

अनेक प्रकारके सुस्वादु भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके पर्वत भी उन्होंने ब्राह्मणोंको दे दिये। 
ब्राह्मणोंक भोजनसे भी जो अन्न बच गया, उसे दूसरे लोगोंको दिया गया। उस अन्नको 
खानेवाले लोगोंकी ही वहाँ कमी रहती थी। अन्न कभी नहीं घटता था ।। १४ ।। 

भक्ष्यानज्नपाननिचया: शुशुभुस्त्वन्नपर्वता: । 

घृतह्दा: सूपकूपा: दधिफेना गुडोदका: ।। १५ ।। 

रुरुधु: पर्वतान्‌ नद्यो मधुक्षीरवहा: शुभा: । 


वहाँ भक्ष्य-भोज्य अन्न और पीनेयोग्य पदार्थोंकी अनेक राशियाँ संचित थीं। अन्नके तो 
पहाड़ों-जैसे ढेर सुशोभित होते थे। उन पर्वतोंको मधु और दूधकी सुन्दर नदियाँ घेरे हुए थीं। 
पर्वतोंके चारों ओर घीके कुण्ड और दालके कुएँ भरे थे। वहाँ कई नदियोंमें फेनकी जगह 
दही और जलके स्थानमें गुड़के रस बहते थे ।। १५३ ।। 

देवासुरा नरा यक्षा गन्धर्वोरगपक्षिण: ।। १६ ।। 

विप्रास्तत्रागताश्चासन्‌ वेदवेदाड़पारगा: । 

ब्राह्मणा ऋषयश्चापि नासंस्तत्राविपश्चित: ।। १७ ।। 

वहाँ देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, नाग, पक्षी तथा वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान्‌ 
ब्राह्मण एवं ऋषि भी पधारे थे; किंतु वहाँ कोई मनुष्य ऐसे नहीं थे जो विद्वान न 
हों ।। १६-१७ ।। 

समुद्रान्तां वसुमतीं वसुपूर्णा तु सर्वतः । 

सतां ब्राह्मणसात्कृत्वा जगामास्तं तदा नृप: ।। १८ ।। 

उस समय राजा मान्धाता सब ओरसे धन-धान्यसे सम्पन्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वीको 
ब्राह्मणोंके अधीन करके सूर्यके समान अस्त हो गये ।। १८ ।। 

गत: पुण्यकृतां लोकान्‌ व्याप्य स्ववशसा दिश: । 

स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया || १९ ।। 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। २० ।। 

उन्होंने अपने सुयशसे सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त करके पुण्यात्माओंके लोकोंमें 
पदार्पण किया। श्वैत्य सूंजय! वे पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे 
और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब औरोंकी क्या बात है। 
अतः तुम यज्ञ और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने 
कहा ।। १९-२० || 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
द्विषष्टितमो5 ध्याय: ।। ६२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ६२ ॥। 


#द१-3८5>> हम # 


त्रिषप्टितमो5 ध्याय: 
राजा ययातिका उपाख्यान 


नारद उवाच 

ययातिं नाहुष॑ चैव मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

राजसूयशतैरिष्टवा सो5श्वमेधशतेन च ।। १ ।। 

पुण्डरीकसहस्रेण वाजपेयशतैस्तथा । 

अतिरात्रसहस्रेण चातुर्मास्यैश्व कामत: । 

अग्निष्टोमैश्व विविधै: सत्रैश्व॒ प्राज्यदक्षिणै: ।। २ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! नहुषनन्दन राजा ययातिकी भी मृत्यु हुई थी, यह मैंने 
सुना है। राजाने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, एक हजार पुण्डरीक याग, सौ वाजपेय-यज्ञ, एक 
सहस्र अतिरात्र याग तथा अपनी इच्छाके अनुसार चातुर्मास्य और अग्निष्टोम आदि नाना 
प्रकारके प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। 

अब्राह्माणानां यद्‌ वित्त पृथिव्यामस्ति किंचन । 

तत्‌ सर्व परिसंख्याय ततो ब्राह्मणसात्करोत्‌ ।। ३ ।। 

इस पृथ्वीपर ब्राह्मणद्रोहियोंक पास जो कुछ धन था, वह सब उनसे छीनकर उन्होंने 
ब्राह्मणोंक अधीन कर दिया ।। ३ ।। 

सरस्वती पुण्यतमा नदीनां 

तथा समुद्रा: सरित: साद्रयश्न । 
ईजानाय पुण्यतमाय राज्ञे 
घृतं पयो दुदुहुनाहुषाय ।। ४ ।। 

नदियोंमें परम पवित्र सरस्वती नदी, समुद्रों, पर्वतों तथा अन्य सरिताओं ने यज्ञमें लगे 
हुए परम पुण्यात्मा राजा ययातिको घी और दूध प्रदान किये || ४ ।। 

व्यूढे देवासुरे युद्धे कृत्वा देवसहायताम्‌ । 

चतुर्धा व्यभजत्‌ सर्वा चतुर्भ्य: पृथिवीमिमाम्‌ ।। ५ ।। 

यज्ञैर्ननाविधैरिष्टवा प्रजामुत्पाद्य चोत्तमाम्‌ । 

देवयान्यां चौशनस्यां शर्मिष्ठायां च धर्मत: ।। ६ ।। 

देवारण्येषु सर्वेषु विजहारामरोपम: । 

आत्मन: कामचारेण द्वितीय इव वासव: ।। ७ ।। 

देवासुरसंग्राम छिड़ जानेपर उन्होंने देवताओंकी सहायता करके नाना प्रकारके 
यज्ञोंद्वारा परमात्माका यजन किया और इस सारी पृथ्वीको चार भागोंमें विभक्त करके उसे 
ऋत्विज, अध्वर्यु, होता तथा उदगाता--इन चार प्रकारके ब्राह्मणोंको बाँट दिया। फिर 


शुक्रकन्या देवयानी और दानवराजकी पुत्री शर्मिष्ठाके गर्भसे धर्मतः उत्तम संतान उत्पन्न 
करके वे देवोपम नरेश दूसरे इन्द्रकी भाँति समस्त देवकाननोंमें अपनी इच्छाके अनुसार 
विहार करते रहे || ५--७ ।। 

यदा नाभ्यगमच्छान्तिं कामानां सर्ववेदवित्‌ । 

ततो गाथामिमां गीत्वा सदार: प्राविशद्‌ वनम्‌ ।। ८ ।। 

जब भोगोंके उपभोगसे उन्हें शान्ति नहीं मिली, तब सम्पूर्ण वेदोंके ज्ञाता राजा ययाति 
निम्नांकित गाथाका गान करके अपनी पत्नियोंके साथ वनमें चले गये ।। ८ ।। 

यत्‌ पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय: । 

नालमेकस्य तत्‌ सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्‌ ।। ९ ।। 

वह गाथा इस प्रकार है--इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्री आदि 
भोग्य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्यको भी संतोष करानेके लिये पर्याप्त नहीं हैं; ऐसा 
समझकर मनको शान्त करना चाहिये ।। ९ ।। 

एवं कामान्‌ परित्यज्य ययातिर्धुतिमेत्य च । 

पूरुं राज्ये प्रतिष्ठाप्प प्रयातो वनमी श्वर: ।। १० ।। 

इस प्रकार ऐश्वर्यशाली राजा ययातिने धैर्यका आश्रय ले कामनाओंका परित्याग करके 
अपने पुत्र पूरुको राज्यसिंहासनपर बिठाकर वनको प्रस्थान किया ।। १० ।। 

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। ११ ।॥ 

वैत्य सूंजय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य--इन चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे 
बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, 
तब औरोंकी तो बात ही क्‍या है? अतः तुम अपने उस पुत्रके लिये शोक न करो, जिसने न 
तो यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही दी थी। ऐसा नारदजीने कहा ।। ११ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
त्रिषष्टितमो5 ध्याय: ।। ६३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६३ ॥ 


अपन का बछ। | अत---#क्र- 


चतु:षष्टितमो<5 ध्याय: 
राजा अम्बरीषका चरित्र 


नारद उवाच 

नाभागमम्बरीषं च मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यः सहस्रं सहस्राणां राज्ञां चैकस्त्वयोधयत्‌ ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! मैंने सुना है कि नाभागके पुत्र राजा अम्बरीष भी मृत्युको 
प्राप्त हुए थे, जिन्होंने अकेले ही दस लाख राजाओंसे युद्ध किया था ।। 

जिगीषमाणा: संग्रामे समन्ताद्‌ वैरिणो<भ्ययु: । 

अस्त्रयुद्धविदो घोरा: सृजन्तश्चाशिवा गिर: । २ ।। 

राजाके शत्रुओंने उन्हें युद्धमें जीतनेकी इच्छासे चारों ओरसे उनपर आक्रमण किया 
था। वे सब अस्त्रयुद्धकी कलामें निपुण और भयंकर थे तथा राजाके प्रति अभद्र वचनोंका 
प्रयोग कर रहे थे || २ ।। 

बललाघवशिक्षाभिस्तेषां सो<स्त्रबलेन च । 

छत्रायुधध्वजरथांश्छित्त्वा प्रासान्‌ गतव्यथ: ।। ३ ।। 

परंतु राजा अम्बरीषको इससे तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उन्होंने शारीरिक बल, अस्त्र- 
बल, हाथोंकी फुर्ती और युद्धसम्बन्धी शिक्षाके द्वारा शत्रुओंके छत्र, आयुध, ध्वजा, रथ और 
प्रासोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।। ३ ।। 

त एन॑ मुक्तसंनाहा: प्रार्थयन्‌ जीवितैषिण: । 

शरण्यमीयु: शरणं तवास्म इति वादिन: ।॥। ४ ।। 

तब वे शत्रु अपने प्राण बचानेके लिये कवच खोलकर उनसे प्रार्थना करने लगे और हम 
सब प्रकारसे आपके हैं; ऐसा कहते हुए उन शरणदाता नरेशकी शरणमें चले गये ।। ४ ।। 

स तु तान्‌ वशगान्‌ कृत्वा जित्वा चेमां वसुन्धराम्‌ । 

ईजे यज्ञशतैरिष्टर्यथाशास्त्रं तथानघ ।। ५ ।। 

अनघ! इस प्रकार उन शत्रुओंको वशीभूत करके इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय पाकर 
उन्होंने शास्त्रविधिके अनुसार सौ अभीष्ट यज्ञोंका अनुष्ठान किया ।। ५ ।। 

बुभुजु: सर्वसम्पन्नमन्नमन्ये जना: सदा | 

तस्मिन यज्ञे तु विप्रेन्द्रा: संतृप्ता: परमार्चिता: ।। ६ ।। 

उन सज्ञोमें श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा अन्य लोग भी सदा सर्वगुणसम्पन्न अन्न भोजन करते और 
अत्यन्त आदर-सत्कार पाकर अत्यन्त संतुष्ट होते थे || ६ ।। 





मोदकान्‌ पूरिकापूपान्‌ स्वादपूर्णाश्व॒ शष्कुली: । 

करम्भान्‌ पृथुमृद्वीका अन्नानि सुकृतानि च ।। ७ ।। 

सूपान्‌ मैरेयकापूपान्‌ रागखाण्डवपानकान्‌ । 

मृष्टान्नानि सुयुक्तानि मृदूनि सुरभीणि च ।। ८ ।। 

घृतं मधु पयस्तोयं दधीनि रसवन्ति च । 

फल मूलं च सुस्वादु द्विजास्तत्रोपभुज्जते ।। ९ ।। 

लड्डू, पूरी, पुए, स्वादिष्ट कचौड़ी, करम्भ, मोटे मुनक्के, तैयार अन्न, मैरेयक, अपूप, 
रागखाण्डव, पानक, शुद्ध एवं सुन्दर ढंगसे बने हुए मधुर और सुगन्धित भोज्य पदार्थ, घी, 
मधु, दूध, जल, दही, सरस वस्तुएँ तथा सुस्वादु फल, मूल वहाँ ब्राह्मणगलोग भोजन करते 
थे || ७--९ || 

मादनीयानि पापानि विदित्वा चात्मन: सुखम्‌ । 

अपिबन्त यथाकामं पानपा गीतवादितै: ॥। १० ।। 

मादक वस्तुएँ पापजनक होती हैं, यह जानकर भी पीनेवाले लोग अपने सुखके लिये 
गीत और वाद्योंके साथ इच्छानुसार उनका पान करते थे ।। १० ।। 

तत्र सम गाथा गायन्ति क्षीबा हृष्टा: पठन्ति च । 

नाभागस्तुतिसंयुक्ता ननृतुश्चन सहस्रश: ।। ११ ।। 


पीकर मतवाले बने हुए सहस्रों मनुष्य वहाँ हर्षमें भरकर गाथा गाते, अम्बरीषकी 
स्तुतिसे युक्त कविताएँ पढ़ते और नृत्य करते थे ।। ११ ।। 

तेषु यज्ञेष्वम्बरीषो दक्षिणामत्यकालयत्‌ | 

राज्ञां शतसहस्राणि दश प्रयुतयाजिनाम्‌ ।। १२ ।। 

उन यज्ञोंमें राजा अम्बरीषने दस लाख यज्ञकर्ता ब्राह्मणोंको दक्षिणाके रूपमें दस लाख 
राजाओंको ही दे दिया था || १२ ।। 

हिरण्यकवचान्‌ सर्वान्‌ श्वेतच्छत्रप्रकीर्णकान्‌ । 

हिरण्यस्यन्दनारूढान्‌ सानुयात्रपरिच्छदान्‌ ।। १३ ।। 

वे सब राजा सोनेके कवच धारण किये, श्वेत छत्र लगाये, सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए 
तथा अपने अनुगामी सेवकों और आवश्यक सामग्रियोंसे सम्पन्न थे || १३ ।। 

ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्‌ । 

मूर्धाभिषिक्तांश्व नृपान्‌ राजपुत्रशतानि च ।। १४ ।। 

सदण्डकोशनिचयान  ब्राह्मणे भ्यो हमन्यत । 

उस विस्तृत यज्ञमें यजमान अम्बरीषने उन मूर्धथाभिषिक्त नरेशों और सैकड़ों 
राजकुमारोंको दण्ड और खजानों-सहित ब्राह्मणोंके अधीन कर दिया || १४३ ।। 

नैवं पूर्वे जनाश्नक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे ।। १५ ।। 

यदम्बरीषो नृपति: करोत्यमितदक्षिण: । 

इत्येवमनुमोदन्ते प्रीता यस्य महर्षय: ।। १६ ।। 

महर्षिलोग उनके ऊपर प्रसन्न होकर उनके कार्योका अनुमोदन करते हुए कहते थे कि 
असंख्य दक्षिणा देनेवाले राजा अम्बरीष जैसा यज्ञ कर रहे हैं, वैसा न तो पहलेके राजाओंने 
किया और न आगे कोई करेंगे ।। 

स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १७ ।॥ 

वैत्य सृंजय! वे पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे 
पुत्रकी अपेक्षा भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरोंकी तो 
बात ही क्‍या है? अतः तुम यज्ञ और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। 
ऐसा नारदजीने कहा ।। १७ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
चतु:षष्टितमो5 ध्याय: ।। ६४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो- 
पाख्यानविषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६४ ॥। 


भीकम (2 अमान 


पज्चषष्टितमो< ध्याय: 
राजा शशबिन्दुका चरित्र 


नारद उवाच 

शशबिन्दुं च राजानं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

ईजे स विविधीर्यज्जै: श्रीमान्‌ सत्यपराक्रम: ।। १ | 

नारदजी कहते हैं--सृंजय! मेरे सुननेमें आया है कि राजा शशबिन्दुकी भी मृत्यु हो 
गयी थी। उन सत्यपराक्रमी श्रीमान्‌ नरेशने नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान किया 
था।। १॥। 

तस्य भार्यासहसत्राणां शतमासीन्महात्मन: । 

एकैकस्यां च भारयायां सहस्रं तनया5भवन्‌ ।। २ ।। 

महामना शशबिन्दुके एक लाख स्त्रियाँ थीं और प्रत्येक स्त्रीके गर्भसे एक-एक हजार 
पुत्र उत्पन्न हुए थे || २ ।। 

ते कुमारा: पराक्रान्ता: सर्वे नियुतयाजिन: । 

राजान: क्रतुभिर्मुख्यैरीजाना वेदपारगा: ।। ३ ।। 

वे सभी राजकुमार अत्यन्त पराक्रमी और वेदोंके पारंगत विद्वान्‌ थे। वे राजा होनेपर 
दस लाख यज्ञ करनेका संकल्प ले प्रधान-प्रधान यज्ञोंका अनुष्ठान कर चुके थे ।। ३ ।। 

हिरण्यकवचा: सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विन: । 

सर्वेडश्चवमेधैरीजाना: कुमारा: शशबिन्दव: || ४ ।। 

शशबिन्दुके उन सभी पुत्रोंने सोनेके कवच धारण कर रखे थे। वे सब उत्तम धनुर्धर थे 
और अश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान कर चुके थे ।। ४ ।। 

तानश्रमेथधे राजेन्द्रो ब्राह्मणेभ्योडददत्‌ पिता । 

शतं शतं रथगजा एकैकं पृष्ठतो<न्वयु: ।। ५ ।। 

पिता महाराज शशबिन्दुने अश्वमेध-यज्ञ करके उसमें अपने वे सभी पुत्र ब्राह्मणोंको दे 
डाले। एक-एक राजकुमारके पीछे सौ-सौ रथ और हाथी गये थे ।। 

राजपुत्र॑ तदा कन्यास्तपनीयस्वलंकृता: । 

कन्यां कन्यां शतं नागा नागे नागे शतं रथा: ।। ६ ।। 

उस समय प्रत्येक राजकुमारके साथ सुवर्ण-भूषित सौ-सौ कन्याएँ थीं। एक-एक 
कन्याके पीछे सौ-सौ हाथी और प्रत्येक हाथीके पीछे सौ-सौ रथ थे ।। ६ ।। 





रथे रथे शतं चाश्वा बलिनो हेममालिन: । 

अश्वे अश्वे गोसहस्रं गवां पज्चाशदाविका: ।। ७ |। 

हर एक रथके साथ सोनेके हारोंसे विभूषित सौ-सौ बलवान अश्व थे। प्रत्येक अश्वके 
पीछे हजार-हजार गौएँ तथा एक-एक गायके पीछे पचास-पचास भेड़ें थीं ।। ७ ।। 

एतद्‌ धनमपर्याप्तमश्वमेधे महामखे । 

शशबिन्दुर्महा भागो ब्राह्मणे भ्यो हमन्यत ।। ८ ।। 

यह अपार धन महाभाग शशबिन्दुने अपने अश्वमेध नामक महायजञ्ञमें ब्राह्मणोंके लिये 
दान किया था ।। ८ ।। 

वार्क्षश्व॒ यूपा यावन्त अश्वमेधे महामखे । 

ते तथैव पुनश्चान्ये तावनन्‍त: काउ्चना5भवन्‌ ।। ९ |। 

उनके महायज्ञ अश्वमेधमें जितने काष्ठके यूप थे, वे तो ज्यों-के-त्यों थे ही, फिर उतने ही 
और सुवर्णमय यूप बनाये गये थे ।। ९ ।। 

भक्ष्यानज्नपाननिचया: पर्वता: क्रोशमुच्छिता: । 

तस्याश्वमेधे निर्वत्ते राज्ञ: शिष्टास्त्रयोदश ।। १० ।। 

उस यज्ञमें भक्ष्य-भोज्य अन्न-पानके पर्वतोंके समान एक कोस ऊँचे ढेर लगे हुए थे। 
राजाका अश्वमेध-यज्ञ पूरा हो जानेपर अन्नके तेरह पर्वत बच गये थे ।। 

तुष्टपुष्टजनाकीर्णा शान्तविघध्नामनामयाम्‌ । 

शशबिन्दुरिमां भूमिं चिरं भुक्त्वा दिवं गत: ।। ११ ।। 

शशबिन्दुके राज्यकालमें यह पृथ्वी हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरी थी। यहाँ कोई विघ्न-बाधा 
और रोग-व्याधि नहीं थी। शशबिन्दु इस वसुधाका दीर्घकालतक उपभोग करके अन्तमें 
स्वर्गलोकको चले गये ।। ११ ।। 


स चेन्ममार सृञज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १२ ।॥ 

वैत्य सुंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रोंसे तो 
बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है? अतः तुम 
यज्ञ और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने 
कहा ।। १२ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
पज्चषष्टितमो5 ध्याय: ।। ६५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ६५ ॥/ 


अपन कराता बछ। अर: 


षट्षष्टितमो<5 ध्याय: 
राजा गयका चरित्र 


नारद उवाच 

गयं चामूर्तरयसं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यो वै वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनो5भवत्‌ ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सृंजय! राजा अमूर्तरयके पुत्र गयकी भी मृत्यु सुनी गयी है। राजा 
गयने सौ वर्षोतक नियमपूर्वक अग्निहोत्र करके होमावशिष्ट अन्नका ही भोजन 
किया ।। १ |। 

तस्मै हान्निर्वरं प्रादात्‌ ततो वत्रे वरं गय: । 

तपसा ब्रह्मचर्येण व्रतेन नियमेन च ।। २ ।। 

गुरूणां च प्रसादेन वेदानिच्छामि वेदितुम्‌ | 

स्वधर्मेणाविहिंस्यान्यान्‌ धनमिच्छामि चाक्षयम्‌ ।। ३ ।। 

विप्रेषु ददतश्चैव श्रद्धा भवतु नित्यश: । 

अनन्यासु सवर्णासु पुत्रजन्म च मे भवेत्‌ ।। ४ ।। 

अन्न मे ददत: श्रद्धा धर्मे मे रमतां मन: । 

अविष्नं चास्तु मे नित्यं धर्मकार्येषु पावक ।। ५ ।। 

इससे प्रसन्न होकर अग्निदेवने उन्हें वर देनेकी इच्छा प्रकट की। (अग्निदेवकी आज्ञासे) 
गयने उनसे यह वरदान माँगा--“मैं तप, ब्रह्मचर्य, व्रत, नियम और गुरुजनोंकी कृपासे 
वेदोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। दूसरोंको कष्ट पहुँचाये बिना अपने धर्मके अनुसार 
चलकर अक्षय धन पाना चाहता हूँ। ब्राह्मणोंको दान देता रहूँ और इस कार्यमें प्रतिदिन मेरी 
अधिकाधिक श्रद्धा बढ़ती रहे। अपने ही वर्णकी पतिव्रता कन्याओंसे मेरा विवाह हो और 
उन्हींके गर्भसे मेरे पुत्र उत्पन्न हों। अन्नदानमें मेरी श्रद्धा बढ़े तथा धर्ममें ही मेरा मन लगा 
रहे। अग्निदेव! मेरे धर्मसम्बन्धी कार्योमें कभी कोई विघ्न न आवे” ॥। २--५ ।। 

तथा भविष्यतीत्युक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत । 

गयो ह्ाावाप्य तत्‌ सर्व धर्मेणारीनजीजयत्‌ ।। ६ ।। 

'ऐसा ही होगा” यों कहकर अग्निदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा गयने वह सब कुछ 
पाकर धर्मसे ही शत्रुओंपर विजय पायी ।। ६ ।। 

स दर्शपौर्णमासाभ्यां कालेष्वाग्रयणेन च । 

चातुर्मास्यैश्न विविधैर्यज्नैशज्ञावाप्तदक्षिणै: ।। ७ ।। 

अयजच्छुद्धया राजा परिसंवत्सरान्‌ शतम्‌ । 


राजाने यथासमय सौ वर्षोतक बड़ी श्रद्धाके साथ दर्श, पौर्णमास, आग्रयण और 
चातुर्मास्य आदि नाना प्रकारके यज्ञ किये तथा उनमें प्रचुर दक्षिणा दी || ७३ ।। 

गवां शतसहस्राणि शतमश्चशतानि च ।। ८ || 

शतं निष्कसहस्राणि गवां चाप्ययुतानि षट्‌ । 

उत्थायोत्थाय स प्रादात्‌ परिसंवत्सरान्‌ शतम्‌ ।। ९ |। 

वे सौ वर्षोतक प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर एक लाख साठ हजार गौ, दस हजार अभ्व 
तथा एक लाख स्वर्णमुद्रा दान करते थे || ८-९ ।। 

नक्षत्रेषु च सर्वेषु ददन्नक्षत्रदक्षिणा: | 

ईजे च विविधीैर्यज्ञैर्यथा सोमो5ज्रिरा यथा ।। १० ।। 

वे सोम और अंगिराकी भाँति सम्पूर्ण नक्षत्रोंमें नक्षत्र-दक्षिणा देते हुए नाना प्रकारके 
यज्ञोंद्वारा भगवानका यजन करते थे ।। १० ।। 

सौवर्णा पृथिवीं कृत्वा य इमां मणिशर्कराम्‌ | 

विप्रेभ्य: प्राददद्‌ राजा सो<श्चवमेथे महामखे ।। ११ ।। 

राजा गयने अश्वमेध नामक महायज्ञमें मणिमय रेतवाली सोनेकी पृथ्वी बनवाकर 
ब्राह्मणोंको दान की थी ।। 

जाम्बूनदमया यूपा: सर्वे रत्नपरिच्छदा: । 

गयस्यासन्‌ समृद्धास्तु सर्वभूतमनोहरा: ।। १२ ।। 

गयके यज्ञमें सम्पूर्ण यूप जाम्बूनद नामक सुवर्णके बने हुए थे। उन्हें रत्नोंसे विभूषित 
किया गया था। वे समृद्धिशाली यूप सम्पूर्ण प्राणियोंके मनको हर लेते थे ।। 

सर्वकामसमृद्धं च प्रादादन्न॑ गयस्तदा । 

ब्राह्मणेभ्य: प्रहष्टेभ्य: सर्वभूतेभ्य एव च ।। १३ ।। 

राजा गयने यज्ञ करते समय हर्षसे उललसित हुए ब्राह्मणों तथा अन्य समस्त 
प्राणियोंको सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न उत्तम अन्न दिया था ।। १३ ।। 

स समुद्रवनद्वीपनदीनदवनेषु च । 

नगरेषु च राष्ट्रेषु दिवि व्योम्नि च येडवसन्‌ ।। १४ ।। 

भूतग्रामाश्न विविधा: संतृप्ता यज्ञसम्पदा | 

गयस्य सदृशो यज्ञो नास्त्यन्य इति तेडब्रुवन्‌ ।। १५ ।। 

समुद्र, वन, द्वीप, नदी, नद, कानन, नगर, राष्ट्र आकाश तथा स्वर्गमें जो नाना प्रकारके 
प्राणिसमुदाय रहते थे, वे उस यज्ञकी सम्पत्तिसे तृप्त होकर कहने लगे, राजा गयके समान 
दूसरे किसीका यज्ञ नहीं हुआ है ।। 

षट्त्रिंशद्‌ योजनायामा त्रिंशदू योजनमायता । 

पश्चात्‌ पुरश्नतुर्विशद्‌ वेदी ह्यासीद्धिरण्मयी ।। १६ ।। 

गयस्य यजमानस्य मुक्तावज्मणिस्तृता । 


प्रादात्‌ स ब्राह्मणेभ्यो5थ वासांस्याभरणानि च ।। १७ |। 

यथोक्ता दक्षिणाश्षान्या विप्रेभ्यो भूरिदक्षिण: । 

यजमान गयके यज्ञमें छत्तीस योजन लम्बी, तीस योजन चौड़ी और आगे-पीछे (अर्थात्‌ 
नीचेसे ऊपरको) चौबीस योजन ऊँची सुवर्णमयी वेदी बनवायी गयी थी-। उसके ऊपर हीरे- 
मोती एवं मणिरत्न बिछाये गये थे। प्रचुर दक्षिणा देनेवाले गयने ब्राह्मणोंको वस्त्र, आभूषण 
तथा अन्य शास्त्रोक्त दक्षिणाएँ दी थीं ।। १६-१७ ३ ।। 

यत्र भोजनशिष्टस्य पर्वता: पञज्चविंशति: ।। १८ ।। 

कुल्या: कुशलवाहिन्यो रसानाम भवंस्तदा । 

वस्त्राभरणगन्धानां राशयश्च पृथग्विधा: ।। १९ |। 

उस यज्ञमें खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नके पचीस पर्वत शेष थे। रसोंको कौशलपूर्वक 
प्रवाहित करनेवाली कितनी ही छोटी-छोटी नदियाँ तथा वस्त्र, आभूषण और सुगन्धित 
पदार्थोंकी विभिन्न राशियाँ भी उस समय शेष रह गयी थीं ।। १८-१९ ।। 

यस्य प्रभावाच्च गयस्त्रिषु लोकेषु विश्रुत: । 

वटश्चाक्षय्यकरण: पुण्य॑ ब्रह्मसरश्ष॒ तत्‌ ।। २० ।। 

उस यज्ञके प्रभावसे राजा गय तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये। साथ ही पुण्यको अक्षय 
करनेवाला अक्षयवट तथा पवित्र तीर्थ ब्रह्ममसरोवर भी उनके कारण प्रसिद्ध हो 
गये ।। २० ।। 





स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया । 
पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 


अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। २१ ।। 

वैत्य सृंजय! वे धर्म-ज्ञानादि चारों कल्याणकारी गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और 
तुम्हारे पुत्रसे भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरोंके लिये क्या कहना 
है? अतः तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये अनुताप न करो। ऐसा 
नारदजीने कहा ।। २१ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
षट्षष्टितमो5ध्याय: ।। ६६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ६६ ॥। 


ऑपन- मा बछ। अफ->-जआकऋ्ाज 


- एक विद्वान व्याख्याकारने ऐसे स्थलोंमें योजनका अर्थ 'बित्ता' माना है। इसके अनुसार वह वेदी १८ हाथ लंबी १५ 
हाथ चौड़ी और १२ हाथ ऊँची थी। 


सप्तषष्टितमो< ध्याय: 
राजा रन्तिदेवकी महत्ता 


नारद उवाच 
सांकृतिं रन्तिदेवं च मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यस्य द्विशतसाहस्रा आसन्‌ सूदा महात्मन: ।। १ ।। 

गृहानभ्यागतान्‌ विप्रानतिथीन्‌ परिवेषका: । 

पक्‍्वापक्वं दिवारात्र॑ वरान्नममृतोपमम्‌ ।। २ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! सुना है कि संकृतिके पुत्र रन्तिदेव भी जीवित नहीं रह 
सके। उन महामना नरेशके यहाँ दो लाख रसोइये थे, जो घरपर आये हुए ब्राह्मण 
अतिथियोंको अमृतके समान मधुर कच्चा-पक्का उत्तम अन्न दिन-रात परोसते रहते 
थे || १-२ ।। 

न्यायेनाधिगतं वित्तं ब्राह्मणेभ्यो हमन्यत । 

वेदानधीत्य धर्मेण यश्षक्रे द्विषतो वशे ।। ३ ।। 

उन्होंने ब्राह्मणोंको न्यायपूर्वक प्राप्त हुए धनका दान किया और चारों वेदोंका अध्ययन 
करके धर्मके द्वारा समस्त शत्रुओंको अपने वशमें कर लिया ।। ३ ।। 

ब्राह्मणेभ्यो ददन्निष्कान्‌ सौवर्णान्‌ स प्रभावत: । 

तुभ्यं निष्कं तुभ्यं निष्कमिति ह सम प्रभाषते ॥। ४ ।। 

ब्राह्मणोंको सोनेके चमकीले निष्क देते हुए वे बार-बार प्रत्येक ब्राह्मणसे यही कहते थे 
कि यह निष्क तुम्हारे लिये है, यह निष्क तुम्हारे लिये है ।। ४ ।। 

तुभ्यं तुभ्यमिति प्रादान्निष्कान्‌ निष्कान्‌ सहस्रश: । 

ततः पुनः समाश्चास्य निष्कानेव प्रयच्छति ।। ५ ।। 

“तुम्हारे लिये, तुम्हारे लिये” कहकर वे हजारों निष्क दान किया करते थे। इतनेपर भी 
जो ब्राह्मण पाये बिना रह जाते, उन्हें पुनः आश्वासन देकर वे बहुत-से निष्क ही देते 
थे।। ५।। 

अल्पं दत्तं मयाद्येति निष्ककोटिं सहस्रश: । 

एकाह्वा दास्यति पुन: को<न्यस्तत्‌ सम्प्रदास्यति ।। ६ ।। 

राजा रन्तिदेव एक दिनमें सहस्रों कोटि निष्क दान करके भी यह खेद प्रकट किया 
करते थे कि आज मैंने बहुत कम दान किया; ऐसा सोचकर वे पुनः दान देते थे। भला दूसरा 
कौन इतना दान दे सकता है? ।। ६ ।। 

द्विजपाणिवियोगेन दुःखं मे शाश्व॒तं महत्‌ । 

भविष्यति न संदेह एवं राजाददद्‌ वसु |। ७ ।। 


ब्राह्मणोंके हाथका वियोग होनेपर मुझे सदा महान्‌ दु:ख होगा, इसमें संदेह नहीं है। यह 
विचारकर राजा रन्तिदेव बहुत धन दान करते थे ।। ७ ।। 

सहस्रशश्न सौवर्णान्‌ वृषभान्‌ गोशतानुगान्‌ | 

साष्टे शतं सुवर्णानां निष्कमाहुर्धन॑ तथा ।। ८ ।। 

सूंजय! एक हजार सुवर्णके बैल, प्रत्येकके पीछे सौ-सौ गायें और एक सौ आठ 
स्वर्णमुद्राएँ--इतने धनको निष्क कहते हैं ।। ८ ।। 

अध्यर्धमासमददद्‌ ब्राह्मणे भ्य: शतं समा: । 

अग्निहोत्रोपकरणं यज्ञोपकरणं च यत्‌ ।। ९ ।। 

राजा रन्तिदेव प्रत्येक पक्षमें ब्राह्मणोंको (करोड़ों) निष्क दिया करते थे। इसके साथ 
अग्निहोत्रके उपकरण और यज्ञकी सामग्री भी होती थी। उनका यह नियम सौ वर्षोंतक 
चलता रहा ।। ९ || 

ऋषिभ्य: करकान्‌ कुम्भान्‌ स्थाली: पिठरमेव च । 

शयनासनयानानि प्रासादांश्ष गृहाणि च ।। १० ।। 

वक्षांश्व विविधान्‌ दद्यादन्नानि च धनानि च | 

सर्व सौवर्णमेवासीद्‌ रन्तिदेवस्थ धीमत: ।। ११ ।। 

वे ऋषियोंको करवे, घड़े, बटलोई, पिठर, शय्या, आसन, सवारी, महल और घर, 
भाँति-भाँतिके वृक्ष तथा अन्न-धन दिया करते थे। बुद्धिमान्‌ रन्तिदेवकी सारी देय वस्तुएँ 
सुवर्णमय ही होती थीं ।। १०-११ ।। 





तत्रास्य गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जना: । 
रन्तिदेवस्य तां दृष्टवा समृद्धिमतिमानुषीम्‌ ।। १२ ।। 


राजा रन्तिदेवकी वह अलौकिक समृद्धि देखकर पुराणवेत्ता पुरुष वहाँ इस प्रकार 
उनकी यशोगाथा गाया करते थे ।। १२ ।। 
नैतादृशं दृष्टपूर्व कुबेरसदनेष्वपि । 
धनं च पूर्यमाणं न: कि पुनर्मनुजेष्विति ।। १३ ।। 
हमने कुबेरके भवनमें भी पहले कभी ऐसा (रन्तिदेवके समान) भरा-पूरा धनका भंडार 
नहीं देखा है; फिर मनुष्योंके यहाँ तो हो ही कैसे सकता है? ।। 
व्यक्त वस्वोकसारेयमित्यूचुस्तत्र विस्मिता: । 
वास्तवमें रन्तिदेवकी समृद्धिका सारतत्त्व उनका सुवर्णमय राजभवन और स्वर्णराशि 
ही है। इस प्रकार विस्मित होकर लोग उस गाथाका गान करने लगे ।। १३ ६ || 
सांकृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमतिथिवसेत्‌ ।। १४ ।। 
आलकभ्यन्त तदा गाव: सहसत्राण्येकविंशति: । 
संकृतिपुत्र रन्तिदेवके यहाँ जिस रातमें अतिथियोंका समुदाय निवास करता था, उस 
समय वहाँ इकक्‍्कीस हजार गौएँ छूकर दान की जाती थीं || १४ ६ ।। 
तत्र सम सूदा: क्रोशन्ति 
सुमृष्टमणिकुण्डला: ।। १५ ।। 
सूप॑ं भूयिष्ठमश्री ध्वं 
नाद्य मासं यथा पुरा । 
वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार-पुकारकर कहते थे, आपलोग 
खूब दाल और कढ़ी खाइये। यह आज जैसी स्वादिष्ट बनी है, वैसी पहले एक महीनेतक 
नहीं बनी थी || १५३ || 
रन्तिदेवस्य यत्‌ किंचित्‌ 
सौवर्णमभवत्‌ तदा ।। १६ ।। 
तत्‌ सर्व वितते यज्ञे ब्राह्मणे भ्यो हरमन्यत । 
उन दिनों राजा रन्तिदेवके पास जो कुछ भी सुवर्णमयी सामग्री थी, वह सब उन्होंने 
उस विस्तृत यज्ञमें ब्राह्मणोंको बाँट दी || १६३ ।। 
प्रत्यक्ष तस्य हव्यानि प्रतिगृह्नन्ति देवता: ।। १७ ।। 
कव्यानि पितर: काले सर्वकामान्‌ द्विजोत्तमा: । 
उनके यज्ञमें देवता और पितर प्रत्यक्ष दर्शन देकर यथासमय हव्य और कव्य ग्रहण 
करते थे तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थोंको पाते थे ।। 
स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया || १८ ।। 
पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 
अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्रैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १९ ।। 


वैत्य सृंजय! वे रन्तिदेव चारों कल्याणमय गुणोंमें तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे 
पुत्रकी अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरोंकी क्‍या बात है। 
अतः तुम यज्ञ और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने 
कहा || १८-१९ || 

इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
सप्तषष्टितमो5ध्याय: ।। ६७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो- 
पाख्यानविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६७ ॥। 


अपन का छा | अफड-एक्रा् 


अष्टषष्टितमो< ध्याय: 
राजा भरतका चरित्र 


नारद उवाच 

दौष्यन्तिं भरतं चापि मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

कर्माण्यसुकराण्यन्यै: कृतवान्‌ यः शिशुर्वने ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! दुष्यन्तपुत्र राजा भरतकी भी मृत्यु हुई सुनी गयी है, 
जिन्होंने शैशवावस्थामें ही वनमें ऐसे-ऐसे कर्म किये थे, जो दूसरोंके लिये सर्वथा दुष्कर 
है।। १।। 

हिमावदातान्‌ यः सिंहान्‌ नखदंष्टायुधान्‌ बली । 

निर्वीर्यास्तरसा कृत्वा विचकर्ष बबन्ध च ।। २ ।। 

बलवान्‌ भरत बाल्यावस्थामें ही नखों और दाढ़ोंसे प्रहार करनेवाले बरफके समान 
सफेद रंगके सिंहोंको अपने बाहुबलके वेगसे पराजित एवं निर्बल करके उन्हें खींच लाते 





क्रूरांश्नोग्रतरान्‌ व्याप्रान्‌ दमित्वा चाकरोद्‌ वशे । 


मन:शिला इव शिला: संयुक्ता जतुराशिभि: ।। ३ |। 

वे अत्यन्त भयंकर और क्रूर स्वभाववाले व्याप्रोंका दमन करके उन्हें अपने वशमें कर 
लेते थे। मैनसिलके समान पीली और लाक्षाराशिसे संयुक्त लाल रंगकी बड़ी-बड़ी 
शिलाओंको वे सुगमतापूर्वक हाथसे उठा लेते थे ।। ३ ।। 

व्यालादींश्वातिबलवान्‌ सुप्रतीकान्‌ गजानपि । 

दंष्टासु गृह्ा विमुखान्‌ शुष्कास्यानकरोद्‌ वशे ।। ४ ।। 

अत्यन्त बलवान्‌ भरत सर्प आदि जन्तुओंको और सुप्रतीक जातिके गजराजोंके भी 
दाँत पकड़ लेते और उनके मुख सुखाकर उन्हें विमुख करके अपने अधीन कर लेते 
थे।। ४ ।। 

महिषानप्यतिबलो बलिनो विचकर्ष ह । 

सिंहानां च सुदृप्तानां शतान्याकर्षयद्‌ बलात्‌ ।। ५ ।। 

भरतका बल असीम था। वे बलवान भैंसों और सौ-सौ गर्वीले सिंहोंको भी बलपूर्वक 
घसीट लाते थे ।। ५ ।। 

बलिन: सूमरान्‌ खड्गान्‌ नानासत्त्वानि चाप्युत । 

कृच्छुप्राणं वने बद्ध्वा दमयित्वाप्पवासृजत्‌ ।। ६ ।। 

बलवान सामरों, गेंड़ों तथा अन्य नाना प्रकारके हिंसक जन्तुओंको वे वनमें बाँध लेते 
और उनका दमन करते-करते उन्हें अधमरा करके छोड़ते थे ।। ६ ।। 

त॑ सर्वदमनेत्याहुरद्धिजास्तेनास्य कर्मणा । 

त॑ प्रत्यषेधज्जननी मा सत्त्वानि विजीजहि ।। ७ ।। 

उनके इस कर्मसे ब्राह्मणोंने उनका नाम सर्वदमन रख दिया। माता शकुन्तलाने 
भरतको मना किया कि तू जंगली जीवोंको सताया न कर || ७ ।। 

सो<श्वमेधशतेनेष्टवा यमुनामनु वीर्यवान्‌ | 

त्रिशताश्वान्‌ सरस्वत्यां गज़्ामनु चतुःशतान्‌ ।। ८ ।। 

सो<श्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च । 

पुनरीजे महायज्ञै: समाप्तवरदक्षिणै: ।। ९ ।। 

पराक्रमी महाराज भरत जब बड़े हुए, तब उन्होंने यमुनाके तटपर सौ, सरस्वतीके 
तटपर तीन सौ और गंगाजीके किनारे चार सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करके पुनः उत्तम 
दक्षिणाओंसे सम्पन्न एक हजार अश्वमेध और सौ राजसूय महायज्ञोंद्वारा भगवानका यजन 
किया ।। ८-९ || 

अग्निष्टोमातिरात्राभ्यामिष्टवा विश्वजिता अपि | 

वाजपेयसहस्राणां सहसैश्न सुसंवृतैः ।। १० ।। 

इष्ट्वा शाकुन्तलो राजा तर्पयित्वा द्विजान्‌ धनै: । 

सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ ।। ११ ।। 


जाम्बूनदस्य शुद्धस्य कनकस्य महायशा: । 

इसके बाद भरतने अग्निष्टोम और अतिरात्र याग करके विश्वजित्‌ नामक यज्ञ किया। 
तत्पश्चात्‌ सर्वथा सुरक्षित दस लाख वाजपेय यज्ञोंद्वारा भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना 
करके महायशस्वी शकुन्तलाकुमार राजा भरतने धनद्वारा ब्राह्मणोंको तृप्त करते हुए 
आचार्य कण्वको विशुद्ध जम्बूनद सुवर्णके बने हुए एक हजार कमल भेंट किये ।। १०-११ 
कल | 

यस्य यूप: शतव्याम: परिणाहेन काउ्चन: ।। १२ |। 

समागम्य द्विजै: सार्ध सेन्द्रैदेवै: समुच्छित: । 

इन्द्र आदि देवताओंने वहाँ ब्राह्मणोंक साथ मिलकर राजा भरतके यज्ञमें सोनेके बने 
हुए सौ व्याम (चार सौ हाथ) लंबे सुवर्णमय यूपका आरोपण किया ।। १२३ ।। 

अलंकृतान्‌ राजमानान्‌ सर्वरत्नैर्मनोहरै: ।। १३ ।। 

हैरण्यानश्चान्‌ द्विरदान्‌ रथानुष्टानजाविकम्‌ | 

दासीदासं धन धान्यं गा: सवत्सा: पयस्विनी: ।। १४ ।। 

ग्रामान्‌ गृहांश्व क्षेत्राणि विविधांश्व॒ परिच्छदान्‌ । 

कोटीशतायुतांश्वैव ब्राह्मणेभ्यो हमन्यत ।। १५ ।। 

चक्रवर्ती हृदीनात्मा जितारिहाजित: परै: | 

शत्रुविजयी, दूसरोंसे पराजित न होनेवाले अदीनचित्त चक्रवर्ती सम्राट्‌ भरतने 
ब्राह्मणोंको सम्पूर्ण मनोहर रत्नोंसे विभूषित, कान्तिमान्‌ एवं सुवर्णशोभित घोड़े, हाथी, रथ, 
ऊँट, बकरी, भेड़, दास, दासी, धन-धान्य, दूध देनेवाली सवत्सा गायें, गाँव, घर, खेत तथा 
वस्त्राभूषण आदि नाना प्रकारकी सामग्री एवं दस लाख कोटि स्वर्णमुद्राएँ दी थीं ।। १३-- 
१५३ || 

स चेन्ममार सृज्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया ।। १६ ।। 

पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

अयज्वानमदाक्षिण्यमश्रि श्वैत्येत्युदाहरत्‌ ।। १७ ।। 

वैत्य सुंजय! चारों कल्याणकारी गुणोंमें वे तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्रसे भी 
अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मृत्युसे बच न सके, तब दूसरे कैसे बच सकते हैं? अतः 
तुम यज्ञ और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने कहा ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
अष्टषष्टितमो<5 ध्याय: ।। ६८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ६८ ॥। 


ऑपन--माजल बछ। ःिअ 


एकोनसप्ततितमो<ध्याय: 
राजा पृथुका चरित्र 


नारद उवाच 

पृथुं वैन्यं च राजानं मृतं सृज्जय शुश्रुम । 

यमभ्यषिज्चन्‌ साम्राज्ये राजसूये महर्षय: ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सूंजय! वेनके पुत्र राजा पृथु भी जीवित नहीं रह सके; यह हमने 
सुना है। महर्षियोंने राजसूययज्ञमें उन्हें सम्राट्के पदपर अभिषिक्त किया था || १ ।। 

यत्नतः प्रथितेत्यूचु: सर्वानभिभवन्‌ पृथु: । 

क्षतान्नस्त्रास्यते सर्वानित्येवं क्षत्त्रियोड$भवत्‌ ।। २ ।॥। 

“ये समस्त शत्रुओंको पराजित करके अपने प्रयत्नसे प्रथित (विख्यात) होंगेट--ऐसा 
महर्षियोंने कहा था। इसलिये वे “पृथु” कहलाये। ऋषियोंने यह भी कहा कि “ये क्षतसे 
हमारा त्राण करेंगे", इसलिये वे क्षत्रिय” इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध हुए || २ ।। 

पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्टवा रक्ता: स्मेति यदब्रुवन्‌ । 

ततो राजेति नामास्थ अनुरागादजायत ।। ३ ।। 

वेनकुमार पृथुकोी देखकर प्रजाने कहा, हम इनमें अनुरक्त हैं। इसलिये उस 
प्रजारंजनजनित अनुरागके कारण उनका नाम 'राजा' हुआ || ३ ।। 

अकृष्टपच्या पृथिवी आसीदू वैन्यस्य कामधुक्‌ । 

सर्वा: कामदुघा गाव: पुटके पुटके मधु ।। ४ ।। 

वेननन्दन पृथुके लिये यह पृथ्वी कामधेनु हो गयी थी। उनके राज्यमें बिना जोते ही 
पृथ्वीसे अनाज पैदा होता था। उस समय सभी गौएँ कामधेनुके समान थीं। पत्ते-पत्तेमें मधु 
भरा रहता था ।। ४ ।। 

आसनू्‌ हिरण्मया दर्भा: सुखस्पर्शा: सुखावहा: । 

तेषां चीराणि संवीता: प्रजास्तेष्वेव शेरते ।। ५ ।। 

कुश सुवर्णमय होते थे। उनका स्पर्श कोमल था और वे सुखद जान पड़ते थे। उन्हींके 
चीर बनाकर प्रजा उनसे अपना शरीर ढकती थी तथा उन कुशोंकी ही चटाइयोंपर सोती 
थी।। ५।। 

फलान्यमृतकल्पानि स्वादूनि च मधूनि च । 

तेषामासीत्‌ तदाहारो निराहाराश्च नाभवन्‌ ।। ६ ।। 

वृक्षोंक फल अमृतके समान मधुर और स्वादिष्ट होते थे। उन दिनों उन फलोंका ही 
आहार किया जाता था। कोई भी भूखा नहीं रहता था ।। ६ ।। 

अरोगा: सर्वसिद्धार्था मनुष्या हुकुतो भया: । 


न्यवसन्त यथाकामं वृक्षेषु च गुहासु च ।। ७ ।। 

सभी मनुष्य नीरोग थे। सबकी सारी इच्छाएँ पूर्ण होती थीं और उन्हें कहींसे भी कोई 
भय नहीं था। वे अपनी इच्छाके अनुसार वृक्षोंके नीचे और पर्वतोंकी गुफाओंमें निवास 
करते थे || ७ ।। 

प्रविभागो न राष्ट्राणां पुराणां चाभवत्‌ तदा । 

यथासुखं यथाकामं तथैता मुदिता: प्रजा: ।। ८ ।। 

उस समय राष्ट्रों और नगरोंका विभाग नहीं था। सबको इच्छानुसार सुख और भोग 
प्राप्त थे। इससे यह सारी प्रजा प्रसन्न थी ।। ८ ।। 

तस्य संस्तम्भिता हयाप: समुद्रमभियास्यत: । 

पर्वताश्न ददुर्मार्ग ध्वजभड़श्च नाभवत्‌ ।। ९ ।। 

राजा पृथु जब समुद्रमें यात्रा करते थे, तब पानी थम जाता था और पर्वत उन्हें जानेके 
लिये मार्ग दे देते थे। उनके रथकी ध्वजा कभी खण्डित नहीं हुई थी || ९ ।। 

त॑ वनस्पतय: शैला देवासुरनरोरगा: । 

सप्तर्षय: पुण्यजना गन्धर्वाप्सरसोडपि च ।। १० ।। 

पितरश्न॒ सुखासीनमभिगम्येदमन्रुवन्‌ । 

सम्राडसि क्षत्रियोडसि राजा गोप्ता पितासि न: ।। ११ ।। 

देहास्मभ्यं महाराज प्रभु: सन्नीप्सितान्‌ वरान्‌ । 

यैर्वयं शाश्वतीस्तृप्तीर्वर्तयिष्पामहे सुखम्‌ ।। १२ ।। 

एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए राजा पृथुके पास वनस्पति, पर्वत, देवता, असुर, मनुष्य, 
सर्प, सप्तर्षि, पुण्यजन (यक्ष), गन्धर्व, अप्सरा तथा पितरोंने आकर इस प्रकार कहा 
--“महाराज! तुम हमारे सम्राट हो, क्षत्रिय हो तथा राजा, रक्षक और पिता हो। तुम हमें 
अभीष्ट वर दो, जिससे हमलोग अनन्त कालतक तृप्ति और सुखका अनुभव करें। तुम ऐसा 
करनेमें समर्थ हो” || १०--१२ ।। 

तथेत्युक्त्वा पृथुर्वैन्यो गृहीत्वा55जगवं धनु: । 

शरांक्षाप्रतिमान्‌ घोरांश्चिन्तयित्वाब्रवीन्महीम्‌ ।। १३ ।। 

“बहुत अच्छा” ऐसा ही होगा, यह कहकर वेनकुमार पृथुने अपना आजगव नामक 
धनुष और जिनकी कहीं तुलना नहीं थी, ऐसे भयंकर बाण हाथमें ले लिये और कुछ 
सोचकर पृथ्वीसे कहा-- ।। १३ ।। 

एह्ोहि वसुके क्षिप्रं क्षरैभ्य: काड्क्षितं पय: । 

ततो दास्यामि भद्रं ते अन्नं यस्य यथेप्सितम्‌ ॥। १४ ।। 

“वसुधे! तुम्हारा कल्याण हो। आओ-आओ., इन प्रजाजनोंके लिये शीघ्र ही मनोवांछित 
दूधकी धारा बहाओ। तब मैं जिसका जैसा अभीष्ट अन्न है, उसे वैसा दे सकूँगा” ।। १४ ।। 

वसुधोवाच 


दुहितृत्वेन मां वीर संकल्पयितुमर्हसि । 

तथेत्युक्त्वा पृथु: सर्व विधानमकरोद्‌ वशी ।। १५ ।। 

वसुधा बोली--वीर! तुम मुझे अपनी पुत्री मान लो, तब जितेन्द्रिय राजा पृथुने 
“तथास्तु' कहकर वहाँ सारी आवश्यक व्यवस्था की ।। १५ ।। 

ततो भूतनिकायास्तां वसुधां दुदुहुस्तदा । 

तां वनस्पतय: पूर्व समुन्तस्थुर्दूधुक्षव: ।। १६ ।। 

तदनन्तर प्राणियोंके समुदायने उस समय वसुधाको दुहना आरम्भ किया। सबसे पहले 
दूधकी इच्छावाले वनस्पति उठे ।। १६ ।। 

सातिष्ठद्‌ वत्सला वत्सं दोग्धूपात्राणि चेच्छती । 

वत्सो5भूत्‌ पुष्पित: शाल: प्लक्षो दोग्धाभवत्‌ तदा ।। १७ ।। 

छिन्नप्ररोहणं दुग्धं पात्रमौदुम्बरं शुभम्‌ । 

उस समय गोरूपधारिणी पृथ्वी वात्सल्य-स्नेहसे परिपूर्ण हो बछड़े, दुहनेवाले और 
दुग्धपात्रकी इच्छा करती हुई खड़ी हो गयी। वनस्पतियोंमेंसे खिला हुआ शालवृक्ष बछड़ा हो 
गया। पाकरका पेड़ दुहनेवाला बन गया। गूलर सुन्दर दुग्धपात्रका काम देने लगा। कटनेपर 
पुन: पनप जाना यही दूध था ।। १७६ ।। 

उदय: पर्वतो वत्सो मेरुदोग्थधा महागिरि: ।। १८ ।। 

रत्नान्योषधयो दुग्धं पात्रमश्ममयं तथा । 

पर्वतोंमें उदयाचल बछड़ा, महागिरि मेरु दुहनेवाला, रतन और ओषधि दूध तथा प्रस्तर 
ही दुग्धपात्र था ।। 

दोग्धा चासीत्‌ तदा देवो दुग्धमूर्जस्करं प्रियम्‌ ।। १९ ।। 

देवताओंमें भी उस समय कोई दुहनेवाला और कोई बछड़ा बन गया। उन्होंने 
पुष्टिकारक अमृतमय प्रिय दूध दुह लिया ।। १९ ।। 

असुरा दुदुहुर्मायामामपात्रे तु ते तदा । 

दोग्धा द्विमूर्धा तत्रासीद्‌ वत्सश्चासीद्‌ विरोचन: | २० |। 

असुरोंने कच्चे बर्तनमें मायामय दूधका ही दोहन किया। उस समय द्विमूर्धा दुहनेवाला 
और विरोचन बछड़ा बना था ।॥। २० |। 

कृषिं च सस्यं च नरा दुदुहुः पृथिवीतले । 

स्वायम्भुवो मनुर्वत्सस्तेषां दोग्धाभवत्‌ पृथु: ।। २१ ।। 

भूतलके मनुष्योंने कृषिकर्म और खेतीकी उपजको ही दूधके रूपमें दुह्ा। उनके 
बछड़ेके स्थानपर स्वायम्भू मनु थे और दुहनेका कार्य पृथुने किया | २१ ।। 

अलाबुपात्रे च तथा विष दुग्धा वसुंधरा । 

धृतराष्ट्रो5भवद्‌ दोग्धा तेषां वत्सस्तु तक्षक: ॥। २२ ।। 


सर्पोने तुम्बीके बर्तनमें पृथ्वीसे विषका दोहन किया। उनकी ओरसे दुहनेवाला धृतराष्टर 
और बछड़ा तक्षक था ।। 

सप्तर्षिभिव्रह्य दुग्धा तथा चाक्लिष्टकर्मभि: । 

दोग्धा बृहस्पति: पात्र छन्‍्दो वत्सश्न॒ सोमराट्‌ ।। २३ ।। 

अक्लिष्टकर्मा सप्तर्षियोंने ब्रह्म (वेद एवं तप)-का दोहन किया। उनके दोग्धा बृहस्पति, 
पात्र छन्दर और बछड़ा राजा सोम थे ।। २३ ।। 

अन्तर्धान॑ चामपात्रे दुग्धा पुण्यजनैर्विराट्‌ । 

दोग्धा वैश्रवणस्तेषां वत्सश्चवासीद्‌ वृषध्वज: ।। २४ ।। 

यक्षोंने कच्चे बर्तनमें पृथ्वीसे अन्तर्धान विद्याका दोहन किया। उनके दोग्धा कुबेर और 
बछड़ा महादेवजी थे ।। २४ ।। 

पुण्यगन्धान्‌ पद्मपात्रे गन्धर्वाप्सरसो5दुहन्‌ । 

वत्सश्रित्ररथस्तेषां दोग्धा विश्वरुचि: प्रभु: ।॥ २५ ।। 

गन्धर्वों और अप्सराओंने कमलके पात्रमें पवित्र गन्धको ही दूधके रूपमें दुहा। उनका 
बछड़ा चित्ररथ और दुहनेवाले गन्धर्वराज विश्वरुचि थे || २५ ।। 

स्वधां रजततपात्रेषु दुदुहु:ः पितरश्व॒ ताम्‌ । 

वत्सो वैवस्वतस्तेषां यमो दोग्धान्तकस्तदा ।। २६ ।। 

पितरोंने पृथ्वीसे चाँदीके पात्रमें स्‍्वधारूपी दूधका दोहन किया। उस समय उनकी 
ओरसे वैवस्वत यम बछड़ा और अन्तक दुहनेवाले थे || २६ ।। 

एवं निकायैस्तैर्दुग्धा पयो<भीष्ट हि सा विराट्‌ 

यैर्वर्तयन्ति ते हााद्य पात्रैर्वत्सैशज्ष नित्यश: ।। २७ ।। 

सूंजय! इस प्रकार सभी प्राणियोंने बछड़ों और पात्रोंकी कल्पना करके पृथ्वीसे अपने 
अभीष्ट दूधका दोहन किया था, जिससे वे आजतक निरन्तर जीवन-निर्वाह करते 
हैं || २७ ।। 

यज्जैश्न विविधैरिष्टवा पृथुर्वैन्य: प्रतापवान्‌ | 

संतर्पयित्वा भूतानि सर्व: कामैर्मन:प्रियै: । २८ ।। 

तदनन्तर प्रतापी वेनकुमार पृथुने नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा यजन करके मनको प्रिय 
लगनेवाले सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराकर सब प्राणियोंको तृप्त किया ।। 

हैरण्यानकरोदू राजा ये केचित्‌ पार्थिवा भुवि | 

तान्‌ ब्राह्मणे भ्य: प्रायच्छदश्वमे थे महामखे ।॥ २९ ।। 

भूतलपर जो कोई भी पार्थिव पदार्थ हैं, उनकी सोनेकी आकृति बनवाकर राजा पृथुने 
महायज्ञ अश्रमेधमें उन्हें ब्राह्यगोंको दान किया ।। २९ ।। 





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षष्टिनागसहस्राणि षष्टिनागशतानि च । 
सौवर्णानकरोद्‌ राजा ब्राह्माणेभ्यश्व॒ तान्‌ ददौ ।। ३० ।। 
राजाने छाछठ हजार सोनेके हाथी बनवाये और उन्हें ब्राह्मणोंकोी दे दिया || ३० ।। 
इमां च पृथिवीं सर्वा 
मणिरत्नविभूषिताम्‌ | 
सौवर्णीमकरोद्‌ राजा 
ब्राह्मणेभ्यश्ष॒ तां ददौ ।। ३१ ।। 
राजा पृथुने इस सारी पृथ्वीकी भी मणि तथा रत्नोंसे विभूषित सुवर्णमयी प्रतिमा 
बनवायी और उसे ब्राह्मणोंको दे दिया || ३१ ।। 
स चेन्ममार सृज्जय 
चतुर्भद्रतरस्त्वया । 
पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तुभ्यं 
मा पुत्रमनुतप्यथा: । 
अयज्वानमदाक्षिण्य- 
म्ति श्वेत्येत्युदाहरत्‌ ।। ३२ ।। 
वैत्य संजय! चारों कल्याणकारी गुणोंमें वे तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्रसे 
भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तब दूसरोंकी क्या गिनती है? अतः तुम 
यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो। ऐसा नारदजीने 
कहा ।। ३२ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
एकोनसप्ततितमो<5 ध्याय: ।। ६९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो- 
पाख्यानविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ६९ ॥ 


नआऔशा-<> ड-ण का 


सप्ततितमो<ध्याय: 
परशुरामजीका चरित्र 


नारद उवाच 


रामो महातपा: शूरो वीरलोकनमस्कृत: । 

जामदग्न्यो5प्यतियशा अवितृप्तो मरिष्यति ।। १ ।। 

नारदजी कहते हैं--सृंजय! महातपस्वी शूरवीर, वीरजनवन्दित महायशस्वी 
जमदग्निनन्दन परशुरामजी भी अतृप्त अवस्थामें ही मौतके मुखमें चले जायँगे ।। १ ।। 

यः स्माद्यमनुपर्येति भूमिं कुर्वन्निमां सुखाम्‌ । 

न चासीदू विक्रिया यस्य प्राप्य श्रियमनुत्तमाम्‌ ।। २ ।। 

जिन्होंने इस पृथ्वीको सुखमय बनाते हुए आदि युगके धर्मका जहाँ निरन्तर प्रचार 
किया था तथा परम उत्तम सम्पत्तिको पाकर भी जिनके मनमें किसी प्रकारका विकार नहीं 
आया ॥। २ ॥। 

यः क्षत्रियै: परामृष्टे वत्से पितरि चाब्रुवन्‌ । 

ततो<वधीत्‌ कार्तवीर्यमजितं समरे परै: ।। ३ ।। 

जब क्षत्रियोंने गायके बछड़ेको पकड़ लिया और पिता जमदग्निको मार डाला, तब 
जिन्होंने मौन रहकर ही समरभूमिमें दूसरोंसे कभी पराजित न होनेवाले कृतवीर्यकुमार 
अर्जुनका वध किया था ।। ३ ।। 

क्षत्रियाणां चतु:ःषष्टिमयुतानि सहस्रश: । 

तदा मृत्यो: समेतानि एकेन धनुषाजयत्‌ ।। ४ ।। 

उस समय मरने-मारनेका निश्चय करके एकत्र हुए चौसठ करोड़ क्षत्रियोंको उन्होंने 
एकमात्र धनुषके द्वारा जीत लिया || ४ ।। 

ब्रह्मद्विषां चाथ तस्मिन्‌ सहस््राणि चतुर्दश । 

पुनरन्यानि जग्राह दन्तक़््रं जघान ह ।। ५ ।। 

उसी युद्धके सिलसिलेमें परशुरामजीने चौदह हजार दूसरे ब्रह्मद्रोहियोंका दमन किया 
और दन्तक़्ूर नामक राजाको भी मार डाला ।। ५ || 

सहस्र मुसलेनाहन्‌ सहस्रमसिनावधीत्‌ | 

उद्बन्धनात्‌ सहस्नं च सहस्रमुदके धृतम्‌ ।। ६ ।। 

उन्होंने एक सहस्र क्षत्रियोंको मूसलसे मार गिराया, एक सहस्र राजपूतोंको तलवारसे 
काट डाला, फिर एक सहस क्षत्रियोंको वृक्षोंकी शाखाओंमें फाँसीपर लटकाकर मार डाला 
और पुन: एक सहसख्रको पानीमें डुबो दिया ।। ६ ।। 

दन्तान्‌ भड़क्त्वा सहस्नस्य कर्णान्‌ नासान्यकृन्तत । 


ततः सप्तसहस्राणां कट्धूपमपाययत्‌ ।। ७ ।। 

एक सहस्र राजपूतोंके दाँत तोड़कर नाक और कान काट डाले तथा सात हजार 
राजाओंको कड़वा धूप पिला दिया || ७ |। 

शिष्टान्‌ बद्ध्वा च हत्वा वै तेषां मूर्थ्नि विभिद्य च । 

गुणावतीमुत्तरेण खाण्डवाद्‌ दक्षिणेन च | 

गिर्यन्ते शतसाहस्रा हैहया: समरे हता: ।। ८ ।। 

सरथाश्वगजा वीरा निहतास्तत्र शेरते | 

पितुर्वधामर्षितेन जामदग्न्येन धीमता ।। ९ ।। 

शेष क्षत्रियोंको बाँधकर उनका वध कर डाला। उनमेंसे कितनोंके ही मस्तक विदीर्ण 
कर डाले। गुणावतीसे उत्तर और खाण्डव वनसे दक्षिण पर्वतके निकटवर्ती प्रदेशमें लाखों 
हैहयवंशी क्षत्रिय वीर पिताके वधसे कुपित हुए बुद्धिमान्‌ परशुरामजीके द्वारा समरभूमिमें 
मारे गये। वे अपने रथ, घोड़े और हाथियोंसहित मारे जाकर वहाँ धराशायी हो 
गये ।। ८-९ ।। 

निजघ्ने दशसाहस्रान्‌ राम: परशुना तदा । 

न ह्मृष्यत ता वाचो यास्तैर्भूशमुदीरिता: ।। १० ।। 

भूगो रामाभिधावेति यदाक्रन्दन्‌ द्विजोत्तमा: । 

परशुरामजीने उस समय अपने फरसेसे दस हजार क्षत्रियोंको काट डाला। 
आश्रमवासियोंने आर्तभावसे जो बातें कही थीं, वहाँके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने 'भूगुवंशी परशुराम! 
दौड़ो, बचाओ' इस प्रकार कहकर जो करुण क्रन्दन किया था, उनकी वह कातर पुकार 
परशुरामजीसे नहीं सही गयी ।। १० ६ ।। 

ततः काश्मीरदरदान्‌ कुन्तिक्षुद्रकमालवान्‌ ।। ११ ।। 

अड़वड़कलिड्रांश्न विदेहांस्ताम्रनलिप्तकान्‌ | 

रक्षोवाहान्‌ वीतिहोत्रांस्त्रिगर्तान्‌ मार्तिकावतान्‌ ।। १२ ।। 

शिबीनन्यांश्व राजन्यान्‌ देशान्‌ देशान्‌ू सहस्रशः । 

निजघान शितैर्बाणैर्जामदग्न्य: प्रतापवान्‌ ।। १३ ।। 

तदनन्तर प्रतापी परशुरामने काश्मीर, दरद, कुन्ति, क्षुद्रक, मालव, अंग, वंग, कलिंग, 
विदेह, ताम्रलिप्त, रक्षोवाह, वीतिहोत्र, त्रिगर्त, मार्तिकावत, शिबि तथा अन्य सहसों देशोंके 
क्षत्रियोंका अपने तीखे बाणोंद्वारा संहार किया || ११--१३ ।। 

कोटीशतसहस््राणि क्षत्रियाणां सहस्रश: । 

इन्द्रगोपकवर्णस्य बन्धुजीवनिभस्य च ।। १४ ।। 

रुधिरस्य परीवाहै: पूरयित्वा सरांसि च | 

सर्वनिष्टादश द्वीपान्‌ वशमानीय भार्गव: ॥। १५ ।। 

ईजे क्रतुशतै: पुण्यै: समाप्तवरदक्षिणै: । 


सहस्रों और लाखों कोटि क्षत्रियोंके इन्द्रगोप (वीर-बहूटी) नामक कीट तथा बन्धुजीव 
(दुपहरिया)-पुष्पके समान रंगवाले रक्तकी धाराओंसे भृगुनन्दन परशुरामने कितने ही 
तालाब भर दिये और समस्त अठारह द्वीपोंको अपने वशमें करके उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त 
सौ पवित्र यज्ञोंका अनुष्ठान किया || १४-१५६३ ।। 

वेदीमष्टनलोत्सेधां सौवर्णा विधिनिर्मिताम्‌ ।। १६ ।। 

सर्वरत्नशतै: पूर्णा पताकाशतमालिनीम्‌ । 

ग्राम्यारण्यै: पशुगणै: सम्पूर्णां च महीमिमाम्‌ ।। १७ ।। 

रामस्य जामदग्न्यस्य प्रतिजग्राह कश्यप: । 

उस यज्ञमें विधिपूर्वक बत्तीस हाथ ऊँची सोनेकी वेदी बनायी गयी थी, जो सब प्रकारके 
सैकड़ों रत्नोंसे परिपूर्ण और सौ पताकाओंसे सुशोभित थी। जमदग्निनन्दन परशुरामकी 
उस वेदीको तथा ग्रामीण और जंगली पशुओंसे भरी-पूरी इस पृथ्वीको भी महर्षि कश्यपने 
दक्षिणारूपसे ग्रहण किया || १६-१७ $ ।। 

ततः शतसहस्राणि द्विपेन्द्रान हेमभूषणान्‌ ।। १८ ।। 

निर्दस्युं पृथिवीं कृत्वा शिष्टेष्टजनसंकुलाम्‌ | 

कश्यपाय ददौ रामो हयमेथे महामखे ।। १९ ।। 

उस समय परशुरामजीने लाखों गजराजोंको सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करके तथा 
पृथ्वीको चोर-डाकुओंसे सूनी और साधु पुरुषोंसे भरी-पूरी करके महायज्ञ अश्वमेधमें 
कश्यपजीको दे दिया || १८-१९ ।। 

त्रि:सप्तकृत्व: पृथिवीं कृत्वा नि:क्षत्रियां प्रभु: 

इष्ट्वा क्रतुशतैर्वीरो ब्राह्मणेभ्यो हुमन्यत ।। २० ।। 

वीर एवं शक्तिशाली परशुरामजीने इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य करके 
सैकड़ों यज्ञोंद्वार भगवानूका यजन किया और इस वसुधाको ब्राह्मणोंके अधिकारमें दे 
दिया || २० ।। 

सप्तद्वीपां वसुमतीं मारीचो<वगृह्नत द्विज: । 

राम॑ प्रोवाच निर्गच्छ वसुधातो ममाज्ञया ।। २१ ।। 

ब्रह्मर्षि कश्यपने जब सातों द्वीपोंसे युक्त यह पृथ्वी दानमें ले ली, तब उन्होंने 
परशुरामजीसे कहा--“अब तू मेरी आज्ञासे इस पृथ्वीसे निकल जाओ” (और कहीं अन्यत्र 
जाकर रहो) ।। २१ ।। 

स कश्यपस्य वचनात्‌ प्रोत्सार्य सरितां प्रतिम्‌ । 

इषुपाते युधां श्रेष्ठ: कुर्वन्‌ ब्राह्मणशासनम्‌ ।। २२ ।। 

अध्यावसद्‌ गिरिश्रेष्ठ॑ं महेन्द्र पर्वतोत्तमम्‌ । 


कश्यपके इस आदेशसे योद्धाओंमें श्रेष्ठ परशुरामने जितनी दूर बाण फेंका जा सकता 
है, समुद्रको उतनी ही दूर पीछे हटाकर ब्राह्मणकी आज्ञाका पालन करते हुए उत्तम पर्वत 
गिरिश्रेष्ठ महेन्द्रपर निवास किया || २२६ ।। 

एवं गुणशतैर्युक्तो भूगूणां कीर्तिवर्धन: ।। २३ ।। 

जामदग्न्यो ह्ृतियशा मरिष्यति महाद्युति: । 

इस प्रकार भूगुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले महायशस्वी, महातेजस्वी और सैकड़ों गुणोंसे 
सम्पन्न जमदग्निनन्दन परशुराम भी एक-न-एक दिन मरेंगे ही || २३६ ।। 

त्वया चतुर्भद्रतर: पुत्रात्‌ पुण्यतरस्तव ।। २४ ।। 

अयज्वानमदाक्षिण्यं मा पुत्रमनुतप्यथा: । 

सूंजय! चारों कल्याणकारी गुणोंमें वे तुमसे श्रेष्ठ और तुम्हारे पुत्रसे अधिक पुण्यात्मा 
हैं। अतः तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणासे रहित अपने पुत्रके लिये शोक न करो ।। २४ $ई 

|| 

एते चतुर्भद्रतरास्त्वया भद्रशताधिका: । 

मृता नरवरश्रेष्ठ मरिष्यन्ति च सृूजजय ।। २५ ।। 

नरश्रेष्ठ संजय! अबतक जिन लोगोंका वर्णन किया गया है, ये चतुर्विध कल्याणकारी 
गुणोंमें तो तुमसे बढ़कर थे ही, तुम्हारी अपेक्षा उनमें सैकड़ों मंगलकारी गुण अधिक भी थे; 
तथापि वे मर गये और जो विद्यमान हैं, वे भी मरेंगे ही || २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
सप्ततितमो<5ध्याय: ।। ७० || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमनन्‍्युवधपर्वमें षोडशराजकीयो- 
पाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७० ॥ 


अपना बछ। है २ >> 


एकसप्ततितमो<्ध्याय: 


नारदजीका सृंजयके पुत्रको जीवित करना और 
व्यासजीका युधिष्ठदिरको समझाकर अनन्‍्तर्धान होना 


व्यास उवाच 


पुण्यमाख्यानमायुष्यं श्रुत्वा षोडशराजकम्‌ । 

अव्याहरन्नरपतिस्तूष्णीमासीत्‌ स सृज्जय: ।। १ ।। 

व्यासजी कहते हैं--राजन्‌! इन सोलह राजाओंका पवित्र एवं आयुकी वृद्धि 
करनेवाला उपाख्यान सुनकर राजा सूंजय कुछ भी नहीं बोलते हुए मौन रह गये ।। १ ।। 

तमब्रवीत्‌ तथा55सीन॑ नारदो भगवानृषि: । 

श्रुतं कीर्तयतो महां गृहीतं ते महाद्युते || २ ।॥। 

उन्हें इस प्रकार चुपचाप बैठे देख भगवान्‌ नारदमुनिने उनसे पूछा--“महातेजस्वी 
नरेश! मैंने जो कुछ कहा है, उसे तुमने सुना और समझा है न?” ।। २ ।। 

आहोस्विदन्ततो नष्ट श्राद्ध शूद्रीपताविव । 

स एवमुक्तः प्रत्याह प्राउजलि: सृज्जयस्तदा ।। ३ ।। 

“अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि जैसे शूद्रजातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मणको 
दिया हुआ श्राद्धका दान नष्ट (निष्फल) हो जाता है, उसी प्रकार मेरा यह सारा कहना 
अन्ततोगत्वा व्यर्थ हो गया हो।” उनके इस प्रकार पूछनेपर उस समय सूंजयने हाथ जोड़कर 
उत्तर दिया-- || ३ || 

238 48 त्वा महाबाहो धन्यमाख्यानमुत्तमम्‌ | 

| पुराणानां यज्वनां दक्षिणावताम्‌ ।। ४ ।। 

विस्मयेन हते शोके तमसीवार्कतेजसा । 

विपाप्मास्म्यव्यथोपेतो ब्रूहि कि करवाण्यहम्‌ ॥। ५ ।। 

“महाबाहु महर्षे! यज्ञ करने और दक्षिणा देनेवाले प्राचीन राजर्षियोंका यह परम उत्तम 
सराहनीय उपाख्यान सुनकर मुझे ऐसा विस्मय हुआ है कि उसने मेरा सारा शोक हर लिया 
है। ठीक उसी तरह, जैसे सूर्यका तेज सारा अन्धकार हर लेता है। अब मैं पाप (दुःख) और 
व्यथासे शून्य हो गया हूँ। बताइये, आपकी किस आज्ञाका पालन करूँ” || ४-५ || 

नारद उवाच 


दिष्टयापह्वतशोक स्त्वं वृणीष्वेह यदिच्छसि । 
तत्‌ तत्‌ प्रपत्स्यसे सर्व न मृषावादिनो वयम्‌ ।। ६ ।। 


नारदजीने कहा--राजन्‌! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा शोक दूर हो गया। अब 
तुम्हारी जो इच्छा हो, यहाँ मुझसे माँग लो। तुम्हारी वह सारी अभिलषित वस्तु तुम्हें प्राप्त हो 
जायगी। हमलोग झूठ नहीं बोलते हैं ।। ६ ।। 

यसुञ्जय उवाच 

एतेनैव प्रतीतो<हं प्रसन्नो यद्भवान्‌ मम । 

प्रसन्नो यस्य भगवान्‌ न तस्यास्तीह दुर्लभम्‌ । ७ ।। 

सृंजयने कहा--मुने! आप मुझपर प्रसन्न हैं, इतनेसे ही मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। जिसपर आप 
प्रसन्न हों, उसे इस जगत्‌में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।। ७ ।। 

नारद उवाच 

मृतं ददानि ते पुत्र दस्युभिर्निहतं वृथा । 

उद्धृत्य नरकात्‌ कष्टात्‌ पशुवत्‌ प्रोक्षितं यथा ।। ८ ।। 

नारदजीने कहा--राजन्‌! लुटेरोंने तुम्हारे पुत्रको प्रोक्षित पशुकी भाँति व्यर्थ ही मार 
डाला है। तुम्हारे उस मरे हुए पुत्रको मैं कष्टप्रद नरकसे निकालकर तुम्हें पुन: वापस दे रहा 
हूँ ।। ८ ।। 

व्यास उवाच 

प्रादुरासीत्‌ ततः पुत्र: सृज्जयस्याद्भुतप्रभ: । 

प्रसन्नेनर्षिणा दत्त: कुबेरतनयोपम: ।। ९ |। 

व्यासजी कहते हैं--युधिष्ठि!! नारदजीके इतना कहते ही सूंजयका अदभुत 
कान्तिमान्‌ पुत्र वहाँ प्रकट हो गया। उसे ऋषिने प्रसन्न होकर राजाको दिया था। वह देखनेमें 
कुबेरके पुत्रके समान जान पड़ता था ।। ९ |। 

ततः संगम्य पुत्रेण प्रीतिमानभवन्नूप: । 

ईजे च क्रतुभि: पुण्यै: समाप्तवरदक्षिणै: || १० ।। 

अपने उस पुत्रसे मिलकर राजा सूंजयको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उत्तम दक्षिणाओंसे 
युक्त पुण्यमय यज्ञोंद्वारा भगवानका यजन किया || १० ।। 

अकृतार्थश्न भीतश्न न च सान्नाहिको हतः । 

अयज्वा त्वनपत्यश्व ततोडसौ जीवित: पुन: । ११ ।। 

सूंजयका पुत्र कवच बाँधकर युद्धमें लड़ता हुआ नहीं मारा गया था। उसे अकृतार्थ 
और भयभीत अवस्थामें अपने प्राणोंका त्याग करना पड़ा था। वह यज्ञकर्मसे रहित और 
संतानहीन भी था। इसलिये नारदजीने पुनः उसे जीवित कर दिया था ।। ११ ।। 

शूरो वीर: कृतार्थश्न प्रताप्पारीन्‌ू सहस्रश: । 

अभिमन्युर्गतो वीर: पृतनाभिमुखो हत: ।। १२ ।। 


परंतु शूरवीर अभिमन्यु तो कृतार्थ हो चुका है। वह वीर शत्रुसेनाके सम्मुख युद्धतत्पर 
हो सहस्रों वैरियोंको संतप्त करके मारा गया और स्वर्गलोकमें जा पहुँचा है ।। 
ब्रह्मचर्येण यान्‌ कांक्षित्‌ प्रज्ञया च श्रुतेन च । 
इष्टैश्न क्रतुभिययान्ति तांस्ते पुत्रो5क्षयान्‌ गत: ।। १३ ।। 
पुण्यात्मा पुरुष ब्रह्मचर्यपालन, उत्तम ज्ञान, वेदशास्त्रोंके स्वाध्याय तथा यज्ञोंके 
अनुष्ठानसे जिन किन्हीं लोकोंमें जाते हैं, उन्हीं अक्षय लोकोंमें तुम्हारा पुत्र अभिमन्यु भी 
गया है ।। १३ ।। 
विद्वांस: कर्मभि: पुण्यै: स्वर्गमीहन्ति नित्यश: । 
नतु स्वर्गादयं लोक: काम्यते स्वर्गवासिभि: ।। १४ ।। 
विद्वान्‌ पुरुष पुण्यकर्मोद्वारा सदा स्वर्गलोकमें जानेकी इच्छा करते हैं; परंतु स्वर्गवासी 
पुरुष स्वर्गसे इस लोकमें आनेकी कामना नहीं करते हैं ।। १४ ।। 
तस्मात्‌ स्वर्गगतं पुत्रमर्जुनस्य हतं रणे | 
न चेहानयितुं शक्‍्यं किंचिदप्राप्पमीहितम्‌ ।। १५ ।। 
अर्जुनका पुत्र युद्धमें मारे जानेके कारण स्वर्गलोकमें गया हुआ है। अतः उसे यहाँ नहीं 
लाया जा सकता। कोई अप्राप्य वस्तु केवल इच्छा करनेमात्रसे नहीं सुलभ हो 
सकती ।। १५ |। 
यां योगिनो ध्यानविविक्तदर्शना: 
प्रयान्ति यां चोत्तमयज्विनो जना: । 
तपोभिरिद्धैरनुयान्ति यां तथा 
तामक्षयां ते तनयो गतो गतिम्‌ ॥। १६ ।। 
जिन्होंने ध्यानके द्वारा पवित्र ज्ञानमयी दृष्टि प्राप्त कर ली है, वे योगी निष्कामभावसे 
उत्तम यज्ञ करनेवाले पुरुष तथा अपनी उज्ज्वल तपस्याओंद्वारा तपस्वी मुनि जिस अक्षय 
गतिको पाते हैं, तुम्हारे पुत्रने भी वही गति प्राप्त की है ।। १६ ।। 
अन्तात्‌ पुनर्भावगतो विराजते 
राजेव वीरो हामृतात्मरश्मिभि: । 
तामैन्दवीमात्मतनु द्विजोचितां 
गतो5भिमन्युर्न स शोकमर्हति ।। १७ ।। 
वीर अभिमन्यु मृत्युके पश्चात्‌ पुनः पूर्वढभावको प्राप्त होकर चन्द्रमासे उत्पन्न अपने 
द्विजोचित शरीरमें प्रतेष्ठित हो अपनी अमृतमयी किरणोंसे राजा सोमके समान प्रकाशित 
हो रहा है। अत: उसके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।। १७ ।। 
एवं ज्ञात्वा स्थिरो भूत्वा जहारीन्‌ धैर्यमाप्रुहि । 
जीवन्त एव न: शोच्या न तु स्वर्गगतो5नघ ।। १८ ।। 


राजन! ऐसा जानकर सुस्थिर हो धैर्यका आश्रय लो और उत्साहपूर्वक शत्रुओंका वध 
करो। अनघ! हमें इस संसारमें जीवित पुरुषोंके लिये ही शोक करना चाहिये। जो स्वर्गमें 
चला गया है, उसके लिये शोक करना उचित नहीं है ।। १८ ।। 

शोचतो हि महाराज अघमेवाभिवर्धते । 

तस्माच्छोकं परित्यज्य श्रेयसे प्रयतेद्‌ बुध: ।। १९ ।। 

प्रहर्षमभिमानं च सुखप्राप्तिंच चिन्तयन्‌ | 

महाराज! शोक करनेसे केवल दुःख ही बढ़ता है। अतः दिद्दान्‌ पुरुष उत्कृष्ट हर्ष, 
अतिशय सम्मान और सुख-प्राप्तिका चिन्तन करते हुए शोकका परित्याग करके अपने 
कल्याणके लिये ही प्रयत्न करे |। १९३ ।। 

एतद्‌ बुद्ध्वा बुधा: शोक॑ न शोक: शोक उच्यते ।। २० ।। 

यही सब सोच-समझकर ज्ञानवान्‌ पुरुष शोक नहीं करते हैं। शोकको शोक नहीं कहते 
हैं (उसका अनुभव करनेवाला मन ही शोकरूप होता है) ।। २० ।। 

एवं विद्वान्‌ समुन्तिष्ठ प्रयतो भव मा शुच: । 

श्रुतस्ते सम्भवो मृत्योस्तपांस्यनुपमानि च ।। २१ ।। 

राजन्‌! ऐसा जानकर तुम युद्धके लिये उठो। मन और इन्द्रियोंको संयममें रखो तथा 
शोक न करो। तुमने मृत्युकी उत्पत्ति और उसकी अनुपम तपस्याका वृत्तान्त सुन लिया 
है ।। २१ || 

सर्वभूतसमत्वं च चज्चलाश्व विभूतय: । 

सृञ्जयस्य तु त॑ पुत्र मृतं संजीवितं पुन: ।। २२ ।। 

मृत्यु सम्पूर्ण प्राणियोंको समभावसे प्राप्त होती है और धन-ऐश्वर्य चंचल है--यह बात 
भी जान ली है। सूंजयका पुत्र मरा और पुनः जीवित हुआ, यह कथा भी तुमने सुन ही ली 
है ।। २२ ।। 

एवं विद्वान्‌ महाराज मा शुच: साधयाम्यहम्‌ । 

एतावदुक्त्वा भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।। २३ ।। 

महाराज! यह सब तुम जानते हो। अत: शोक न करो। अब मैं अपनी साधनामें लग 
रहा हूँ। ऐसा कहकर भगवान्‌ व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये || २३ ।। 

वागीशाने भगवति व्यासे व्यभ्रनभ:प्रभे । 

गते मतिमतां श्रेष्ठे समाश्वास्य युधिछ्चिरम्‌ ।। २४ ।। 

पूर्वेषां पार्थिवेन्द्राणां महेन्द्रप्रतिमौजसाम्‌ । 

न्यायाधिगतवित्तानां तां श्र॒ुत्वा यज्ञसम्पदम्‌ ।। २५ ।। 

सम्पूज्य मनसा विद्वान्‌ विशोको5भूद्‌ युधिष्ठिर: । 

पुनश्चाचिन्तयद्‌ दीन: किंस्विद्‌ वक्ष्ये धनंजयम्‌ ।। २६ ।। 


बिना बादलके आकाशकी-सी कान्तिवाले, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वागीश्वर भगवान्‌ व्यास 
जब युधिष्ठिरको आश्वासन देकर चले गये, तब देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी और न्यायसे 
धन प्राप्त करनेवाले प्राचीन राजाओंके उस यज्ञ-वैभवकी कथा सुनकर दिद्दान्‌ युधिष्ठिर 
मन-ही-मन उनके प्रति आदरकी भावना करते हुए शोकसे रहित हो गये। तदनन्तर फिर 
दीनभावसे यह सोचने लगे कि अर्जुनसे मैं क्या कहूँगा || २४--२६ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये 
एकसप्ततितमो<ध्याय: ।। ७३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्वमें 
षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक इकह त्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७१ ॥। 


अपन रा< बक। | अकाल 


(प्रतिज्ञापर्व) 


द्विसप्ततितमो< ध्याय: 
अभिमन्युकी मृत्युके कारण अर्जुनका विषाद और क्रोध 


(धृतराष्ट्र वाच 

अथ संशप्तकै: सार्ध युध्यमाने धनंजये । 

अभिमनयौ हते चापि बाले बलवतां वरे ।। 

महर्षिसत्तमे याते युधिष्ठिरपुरोगमा: । 

पाण्डवा: किमथाकार्षु: शोकेन हतचेतस: ।। 

कथं संशप्तकेभ्यो वा निवृत्तो वानरध्वज: । 

केन वा कथित: तस्य प्रशान्त: सुतपावक: ।। 

एतन्मे शंस तत्त्वेन सर्वमेवेह संजय ।) 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जब अर्जुन संशप्तकोंके साथ युद्ध कर रहे थे, जब 
बलवानोंमें श्रेष्ठ बालक अभिमन्यु मारा गया और जब महर्षियोंमें श्रेष्ठ व्यास (युधिष्ठिरको 
सान्त्वना देकर) चले गये, तब शोकसे व्याकुल चित्तवाले युधिष्ठिर और अन्य पाण्डवोंने क्या 
किया? कपिध्वज अर्जुन संशप्तकोंकी ओरसे कैसे लौटे तथा किसने उनसे कहा कि तुम्हारा 
अग्निके समान तेजस्वी पुत्र सदाके लिये शान्त हो गया। इन सब बातोंको तुम यथार्थरूपसे 
मुझे बताओ। 

संजय उवाच 

तस्मिन्नहनि निर्वत्ति घोरे प्राणभृतां क्षये । 

आदित्येउस्तं गते श्रीमान्‌ संध्याकाल उपस्थिते ।। १ ।। 

व्यपयातेषु वासाय सर्वेषु भरतर्षभ । 

हत्वा संशप्तकव्रातान्‌ दिव्यैरस्त्रै: कपिध्वज: ।। २ ।। 

प्रायात्‌ स शिबिरं जिष्णुर्जैत्रमास्थाय तं रथम्‌ । 

गच्छन्नेव च गोविन्द साश्रुकण्ठो5भ्यभाषत ।। ३ ।। 

संजय बोले--भरतश्रेष्ठ! प्राणधारियोंका संहार करनेवाले उस भयंकर दिनके बीत 
जानेपर जब सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये और संध्याकाल उपस्थित हुआ, उस समय 
समस्त सैनिक जब शिविरमें विश्रामके लिये चल दिये, तब विजयशील श्रीमान्‌ कपिध्वज 
अर्जुन अपने दिव्यास्त्रोंद्रारा संशप्तकसमूहोंका वध करके अपने उस विजयी रथपर बैठे हुए 


शिविरकी ओर चले। चलते-चलते ही वे अश्रुगदुगदकण्ठ हो भगवान्‌ गोविन्दसे इस प्रकार 
बोले--- | १--३ || 





कि नु मे हृदयं त्रसस्‍्तं वाक्‌ च सज्जति केशव । 

स्पन्दन्ति चाप्यनिष्टानि गात्र॑ं सीदति चाप्युत ।। ४ ।। 

“केशव! न जाने क्‍यों आज मेरा हृदय धड़क रहा है, वाणी लड़खड़ा रही है, अनिष्ट- 
सूचक बायें अंग फड़क रहे हैं और शरीर शिथिल होता जा रहा है ।। ४ ।। 

अनिष्ट चैव मे श्लिष्टं हृदयान्नापसर्पति । 

भुवि ये दिक्षु चात्युग्रा उत्पातास्त्रासयन्ति माम्‌ ।। ५ ।। 

“मेरे हृदयमें अनिष्टकी चिन्ता घुसी हुई है, जो किसी प्रकार वहाँसे निकलती ही नहीं है। 
पृथ्वीपर तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें होनेवाले भयंकर उत्पात मुझे डरा रहे हैं ।। ५ ।। 

बहुप्रकारा दृश्यन्ते सर्व एवाघशंसिन: । 

अपि स्वस्ति भवेद्‌ राज्ञ: सामात्यस्य गुरोर्मम ।। ६ ।। 

“ये उत्पात अनेक प्रकारके दिखायी देते हैं और सब-के-सब भारी अमंगलकी सूचना दे 
रहे हैं। क्या मेरे पूज्य भ्राता राजा युधिष्ठिर अपने मन्त्रियोंसहित सकुशल होंगे?” ।। ६ ।। 

वायुदेव उवाच 

व्यक्त शिवं तव भ्रातु: सामात्यस्य भविष्यति । 

मा शुच: किज्चिदेवान्यत्‌ तत्रानिष्टं भविष्यति ।। ७ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--अर्जुन] शोक न करो। मुझे स्पष्ट जान पड़ता है कि 
मन्त्रियोंसहित तुम्हारे भाईका कल्याण ही होगा। इस अपशकुनके अनुसार कोई दूसरा ही 


अनिष्ट हुआ होगा ।। ७ ।। 
संजय उवाच 

ततः संध्यामुपास्यैव वीरो वीरावसादने । 

कथयन्तौ रणे वृत्तं प्रयाता रथमास्थितौ ।। ८ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वे दोनों वीर उस वीरसंहारक रणभूमिमें संध्या- 
वन्दन करके पुन: रथपर बैठकर युद्ध॒सम्बन्धी बातें करते हुए आगे बढ़े ।। ८ ।। 

ततः स्वशिबिरं प्राप्तौ हतानन्दं हतत्विषम्‌ । 

वासुदेवोर<्'्जुनश्वैव कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ । ९ ।। 

फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन जो अत्यन्त दुष्कर कर्म करके आ रहे थे, अपने शिविरके 
निकट आ पहुँचे। उस समय वह शिविर आनन्दशून्य और श्रीहीन दिखायी देता था ।। ९ ।। 

ध्वस्ताकारं समालक्ष्य शिबिरं परवीरहा । 

बीभत्सुरब्रवीत्‌ कृष्णमस्वस्थहृदयस्तत: ।। १० ।। 

अपनी छावनीको विध्वस्त हुई-सी देखकर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनका हृदय 
चिन्तित हो उठा। अतः वे भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले-- ।। १० ।। 

नदन्ति नाद्य तूर्याणि मड़ल्यानि जनार्दन | 

मिश्रा दुन्दुभिनिर्घोषै: शड्खाश्चाडम्बरै: सह ।। ११ ।। 

“जनार्दन! आज इस शिविरमें मांगलिक बाजे नहीं बज रहे हैं। दुन्दुभिनाद तथा 
तुरहीके शब्दोंके साथ मिली हुई शंखध्वनि भी नहीं सुनायी देती है ।। ११ ।। 

वीणा नैवाद्य वाद्यन्ते शम्पातालस्वनै: सह । 

मड़ल्यानि च गीतानि न गायन्ति पठन्ति च ।। १२ ।। 

स्तुतियुक्तानि रम्याणि ममानीकेषु बन्दिन: । 

“ढाक और करतारकी ध्वनिके साथ आज वीणा भी नहीं बज रही है। मेरी सेनाओंमें 
वन्दीजन न तो मंगलगीत गा रहे हैं और न स्तुतियुक्त मनोहर श्लोकोंका ही पाठ करते 
हैं ।। १२३ || 

योधाश्चापि हि मां दृष्टवा निवर्तन्ते हधोमुखा: ।। १३ ।। 

कर्माणि च यथापूर्व कृत्वा नाभिवदन्ति माम्‌ । 

अपि स्वस्ति भवेदद्य भ्रातृभ्यो मम माधव ।। १४ ।। 

“मेरे सैनिक मुझे देखकर नीचे मुख किये लौट जाते हैं। पहलेकी भाँति अभिवादन 
करके मुझसे युद्धका समाचार नहीं बता रहे हैं। माधव! क्या आज मेरे भाई सकुशल 
होंगे?” ।। १३-१४ ।। 

न हि शुद्ध्यति मे भावो दृष्टवा स्वजनमाकुलम्‌ । 

अपि पाज्चालराजस्य विराटस्य च मानद ।। १५ ।। 


सर्वेषां चैव योधानां सामग्रयं स्यान्ममाच्युत । 

“आज इन स्वजनोंको व्याकुल देखकर मेरे हृदयकी आशंका नहीं दूर होती है। 
दूसरोंको मान देनेवाले अच्युत श्रीकृष्ण! राजा द्रुपद, विराट तथा मेरे अन्य सब योद्धाओंका 
समुदाय तो सकुशल होगा न? ।। १५३६ || 

न च मामद्य सौभद्र: प्रह्ष्टो ग्रातृभि: सह । 

रणादायान्तुमुचितं प्रत्युद्याति हसन्निव ।। १६ ।। 

“आज प्रतिदिनकी भाँति सुभद्राकुमार अभिमन्यु अपने भाइयोंके साथ हर्षमें भरकर 
हँसता हुआ-सा युद्धसे लौटते हुए मेरी उचित अगवानी करने नहीं आ रहा है (इसका क्या 
कारण है?)' ॥ १६ ।। 

संजय उवाच 

एवं संकथयन्तौ तौ प्रविष्टोी शिबिरं स्‍्वकम्‌ । 

ददृशाते भृशास्वस्थान्‌ पाण्डवान्‌ नष्टचेतस: ।। १७ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार बातें करते हुए उन दोनोंने शिविरमें पहुँचकर 
देखा कि पाण्डव अत्यन्त व्याकुल और हतोत्साह हो रहे हैं ।। १७ ।। 

दृष्टवा क्षातृश्व पुत्रांक्ष विमना वानरध्वज: । 

अपश्यंश्वैव सौभद्रमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। १८ ।। 

भाइयों तथा पुत्रोंको इस अवस्थामें देख और सुभद्राकुमार अभिमन्युको वहाँ न पाकर 
कपिध्वज अर्जुनका मन अत्यन्त उदास हो गया तथा वे इस प्रकार बोले-- || १८ ।। 

मुखवर्णोडप्रसन्नो व: सर्वेषामेव लक्ष्यते । 

न चाभिमन्युं पश्यामि न च मां प्रतिनन्दथ ।। १९ ।। 

“आज आप सभी लोगोंके मुखकी कान्ति अप्रसन्न दिखायी दे रही है, इधर मैं 
अभिमन्युको नहीं देख पाता हूँ और आपलोग भी मुझसे प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप नहीं कर 
रहे हैं || १९ ।। 

मया श्रुतश्न द्रोणेन चक्रव्यूहो विनिर्मित: । 

न च वस्तस्य भेत्तास्ति विना सौभद्रमर्भकम्‌ ।। २० ।। 

“मैंने सुना है कि आचार्य द्रोणने चक्रव्यूहककी रचना की थी। आपलोगोंमेंसे बालक 
अभिमन्युके सिवा दूसरा कोई उस व्यूहका भेदन नहीं कर सकता था ।। २० ।। 

न चोपदिष्टस्तस्यासीन्मयानीकाद्‌ विनिर्गम: । 

कच्चिन्न बालो युष्माभि: परानीकं प्रवेशित: ।। २१ ।। 

'परंतु मैंने उसे उस व्यूहसे निकलनेका ढंग अभी नहीं बताया था। कहीं ऐसा तो नहीं 
हुआ कि आपलोगोंने उस बालकको शत्रुके व्यूहमें भेज दिया हो? || २१ ।। 

भित्त्वानीकं महेष्वास: परेषां बहुशो युधि | 


कच्चिन्न निहत: संख्ये सौभद्र: परवीरहा ।। २२ ।। 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला महाधनुर्धर सुभद्राकुमार अभिमन्यु युद्धमें शत्रुओंके उस 
व्यूहका अनेकों बार भेदन करके अन्तमें वहीं मारा तो नहीं गया? ।। २२ ।। 

लोहिताक्ष॑ महाबाहुं जात॑ सिंहमिवाद्रिषु । 

उपेन्द्रसदृशं ब्रूत कथमायोधने हत: ।। २३ ।। 

'पर्वतोंमें उत्पन्न हुए सिंहके समान लाल नेत्रोंवाले, श्रीकृष्णतुल्य पराक्रमी महाबाहु 
अभिमन्युके विषयमें आपलोग बतावें। वह युद्धमें किस प्रकार मारा गया? ।। २३ ।। 

सुकुमारं महेष्वासं वासवस्यात्मजात्मजम्‌ | 

सदा मम प्रियं ब्रूत कथमायोधने हतः ।। २४ ।। 

“इन्द्रके पौत्र तथा मुझे सदा प्रिय लगनेवाले सुकुमार शरीर महाधनुर्धर अभिमन्युके 
विषयमें बताइये। वह युद्धमें कैसे मारा गया? ।। २४ ।। 

सुभद्राया: प्रियं पुत्र द्रौपद्या: केशवस्य च । 

अम्बायाश्ष प्रियं नित्यं कोडवधीत्‌ कालमोहित: ।। २५ ।। 

“सुभद्रा और द्रौपदीके प्यारे पुत्र अभिमन्युको, जो श्रीकृष्ण और माता कुन्तीका सदा 
दुलारा रहा है, किसने कालसे मोहित होकर मारा है? ।। २५ ।। 

सदृशो वृष्णिवीरस्य केशवस्य महात्मन: । 

विक्रमश्रुतमाहात्म्यै: कथमायोधने हत: ।। २६ ।। 

*वृष्णिकुलके वीर महात्मा केशवके समान पराक्रमी, शास्त्रज्ष और महत्त्वशाली 
अभिमन्यु युद्धमें किस प्रकार मारा गया है? ।। २६ ।। 

वार्ष्णेयीदयितं शूरं मया सततलालितम्‌ । 

यदि पुत्र न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्‌ ।। २७ ।। 

“सुभद्राके प्राणप्यारे शूरवीर पुत्रको, जिसको मैंने सदा लाड़-प्यार किया है, यदि नहीं 
देखूँगा तो मैं भी यमलोक चला जाऊँगा ।। २७ ।। 

मृदुकुज्चितकेशान्तं बालं बालमृगेक्षणम्‌ | 

मत्तद्विरदविक्रान्ते शालपोतमिवोद्गतम्‌ ।। २८ ।। 

स्मिताभिभाषिणं शान्तं गुरुवाक्यकरं सदा | 

बाल्ये5प्यतुलकर्माणं प्रियवाक्यममत्सरम्‌ ।। २९ ।। 

महोत्साहं महाबाहुं दीर्घधाजीवलोचनम्‌ । 

भक्तानुकम्पिनं दान्तं न च नीचानुसारिणम्‌ ।। ३० ।। 

कृतज्ञं ज्ञानसम्पन्नं कृतास्त्रमनिवर्तिनम्‌ | 

युद्धाभिनन्दिनं नित्यं द्विषतां भयवर्धनम्‌ ।। ३१ ।। 

स्वेषां प्रियहिते युक्त पितृणां जयगृद्धिनम्‌ । 

न च पूर्व प्रह्तारिं संग्रामे नष्टसम्भ्रमम्‌ ।। ३२ ।। 


यदि पुत्र न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्‌ । 

“जिसके केशप्रान्त कोमल और घुँघराले थे, दोनों नेत्र मृगछौनेके समान चंचल थे, 
जिसका पराक्रम मतवाले हाथीके समान और शरीर नूतन शालवृक्षके समान ऊँचा था, जो 
मुसकराकर बातें करता था, जिसका मन शान्त था, जो सदा गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन 
करता था, बाल्यावस्थामें भी जिसके पराक्रमकी कोई तुलना नहीं थी, जो सदा प्रिय वचन 
बोलता और किसीसे ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता था, जिसमें महान्‌ उत्साह भरा था, जिसकी 
भुजाएँ बड़ी-बड़ी और दोनों नेत्र विकसित कमलके समान सुन्दर एवं विशाल थे, जो 
भक्तजनोंपर दया करता, इन्द्रियोंको वशमें रखता और नीच पुरुषोंका साथ कभी नहीं 
करता था, जो कृतज्ञ, ज्ञानवान्‌, अस्त्र-विद्यामें पारंगत, युद्धसे मुँह न मोड़नेवाला, युद्धका 
अभिनन्दन करनेवाला तथा सदा शत्रुओंका भय बढ़ानेवाला था, जो स्वजनोंके प्रिय और 
हितमें तत्पर तथा अपने पितृकुलकी विजय चाहनेवाला था, संग्राममें जिसे कभी घबराहट 
नहीं होती थी और जो शत्रुपर पहले प्रहार नहीं करता था, अपने उस पुत्र बालक 
अभिमन्युको यदि नहीं देखूँगा तो मैं भी यमलोककी राह लूँगा | २८--३२ ६ ।। 

रथेषु गण्यमानेषु गणितं त॑ं महारथम्‌ ।। ३३ ।। 

मयाध्यर्धगुणं संख्ये तरुणं बाहुशालिनम्‌ । 

प्रद्युम्नस्य प्रियं नित्यं केशवस्य ममैव च ।। ३४ ।। 

यदि पुत्र न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्‌ । 

'“रथियोंकी गणना होते समय जो महारथी गिना गया था, जिसे युद्धमें मेरी अपेक्षा 
ड्यौढ़ा समझा जाता था तथा अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाला जो तरुण वीर 
प्रद्यम्नको, श्रीकृष्णको और मुझे भी सदैव प्रिय था, उस पुत्रको यदि मैं नहीं देखूँगा तो 
यमराजके लोकमें चला जाऊँगा ।। ३३-३४ ई ।। 

सुनसं सुललाटान्तं स्वक्षिभ्रृद्शनच्छदम्‌ ।। ३५ ।। 

अपश्यतस्तद्वदनं का शान्तिहदयस्य मे । 

“जिसकी नासिका, ललाटपटप्रान्त, नेत्र, भौंह तथा ओषछ्ठ--ये सभी परम सुन्दर थे, 
अभिमन्युके उस मुखको न देखनेपर मेरे हृदयमें क्या शान्ति होगी? ।। ३५३ ।। 

तन्त्रीस्वनसुखं रम्यं पुंस्कोकिलसमध्वनिम्‌ ।। ३६ ।। 

अशृण्वतः स्वनं तस्य का शान्ति्दयस्य मे । 

“अभिमन्युका स्वर वीणाकी ध्वनिके समान सुखद, मनोहर तथा कोयलकी काकलीके 
तुल्य मधुर था। उसे न सुननेपर मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी? ।। ३६६ ।। 

रूप॑ चाप्रतिमं तस्य त्रिदशैश्षापि दुर्लभम्‌ ।। ३७ ।। 

अपश्यतो हि वीरस्य का शान्तिहदयस्य मे । 


“उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। देवताओंके लिये भी वैसा रूप दुर्लभ है। यदि 
वीर अभिमन्युके उस रूपको नहीं देख पाता हूँ तो मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी? ।। ३७ 
न ! 

अभिवादनदक्ष॑ तं पितृणां वचने रतम्‌ ।। ३८ ।। 

नाद्याहं यदि पश्यामि का शान्तिहदयस्य मे । 

“प्रणाम करनेमें कुशल और पितृवर्गकी आज्ञाका पालन करनेमें तत्पर अभिमन्युको 
यदि आज मैं नहीं देखता हूँ तो मेरे हृदयको कया शान्ति मिलेगी? ।। ३८३ ।। 

सुकुमार: सदा वीरो महाहशयनोचित: ।। ३९ |। 

भूमावनाथवच्छेते नूनं नाथवतां वर: । 

“जो सदा बहुमूल्य शय्यापर सोनेके योग्य और सुकुमार था, वह सनाथशिरोमणि वीर 
अभिमन्यु आज निश्चय ही अनाथकी भाँति पृथ्वीपर सो रहा है || ३९३ ।। 

शयानं समुपासन्ति यं पुरा परमस्त्रिय: ।। ४० ।। 

तमद्य विप्रविद्धाड़मुपासन्त्यशिवा: शिवा: । 

“आजसे पहले सोते समय परम सुन्दरी स्त्रियाँ जिसकी उपासना करती थीं, अपने 
क्षत-विक्षत अंगोंसे पृथ्वीपर पड़े हुए उस अभिमन्युके पास आज अमंगलजनक शब्द 
करनेवाली सियारिनें बैठी होंगी || ४० ३ ।। 

यः पुरा बोध्यते सुप्त: सूतमागधवन्दिभि: ।। ४१ ।। 

बोधयन्त्यद्य त॑ नूनं श्वापदा विकृतैः स्वनै: । 

“जिसे पहले सो जानेपर सूत, मागध और बन्दीजन जगाया करते थे, उसी 
अभिमन्युको आज निश्चय ही हिंसक जन्तु अपने भयंकर शब्दोंद्वारा जगाते होंगे ।। ४१३ 

|| 

छत्रच्छायासमुचितं तस्य तद्‌ वदनं शुभम्‌ ।। ४२ ।। 

नूनमद्य रजोध्वस्तं रणरेणु: करिष्यति । 

“उसका वह सुन्दर मुख सदा छत्रकी छायामें रहने योग्य था; परंतु आज युद्धभूमिमें 
उड़ती हुई धूल उसे आच्छादित कर देगी || ४२६ ।। 

हा पुत्रकावितृप्तस्य सतत पुत्रदर्शने || ४३ ।। 

भाग्यहीनस्य कालेन यथा मे नीयसे बलात्‌ । 

हा पुत्र! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ। निरन्तर तुम्हें देखते रहनेपर भी मुझे तृप्ति नहीं होती 
थी, तो भी काल आज बलपूर्वक तुम्हें मुझसे छीनकर लिये जा रहा है || ४३ ६ ।। 

सा च संयमनी नूनं सदा सुकृतिनां गति: ।। ४४ ।। 

स्वभाभि भासिता रम्या त्वयात्यर्थ विराजते । 


“निश्चय ही वह संयमनी पुरी सदा पुण्यवानोंका आश्रय है; जो आज अपनी प्रभासे 
प्रकाशित और मनोहारिणी होती हुई भी तुम्हारे द्वारा अत्यन्त उद्भधासित हो उठी होगी ।। ४४ 
कल | 

नूनं वैवस्वतश्न त्वां वरुणश्व प्रियातिथिम्‌ ।। ४५ ।। 

शतक्रतुर्धनेशश्व प्राप्तमर्चन्त्यभीरुकम्‌ । 

“अवश्य ही आज वैवस्वत यम, वरुण, इन्द्र और कुबेर वहाँ तुम-जैसे निर्भय वीरको 
अपने प्रिय अतिथिके रूपमें पाकर तुम्हारा बड़ा आदर-सत्कार करते होंगे” || ४५३ ।|। 

एवं विलप्य बहुधा भिन्नपोतो वणिग्‌ यथा ।। ४६ ।। 

दुःखेन महता<5<विष्टो युधिष्ठिरमपृच्छत । 

इस प्रकार बारंबार विलाप करके टूटे हुए जहाजवाले व्यापारीकी भाँति महान्‌ दुःखसे 
व्याप्त हो अर्जुनने युधिष्ठिरसे इस प्रकार पूछा-- || ४६३ ।। 

कच्चित्स कदन कृत्वा परेषां कुरुनन्दन ।। ४७ ।। 

स्वर्गतो$भिमुख: संख्ये युध्यमानो नरभै: | 

“कुरुनन्दन! क्‍या उन श्रेष्ठ वीरोंके साथ युद्ध करता हुआ अभिमन्यु रणभूमिमें 
शत्रुओंका संहार करके सम्मुख मारा जाकर स्वर्गलोकमें गया है? ।। ४७३ ।। 

स नून॑ बहुभियत्तिर्युध्यमानो नरर्षभै: ।। ४८ ।। 

असहाय: सहायार्थी मामनुध्यातवान्‌ ध्रुवम्‌ | 

“अवश्य ही बहुत-से श्रेष्ठ एवं सावधानीके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध करनेवाले योद्धाओंके 
साथ अकेले लड़ते हुए अभिमन्युने सहायताकी इच्छासे मेरा बारंबार स्मरण किया 
होगा ।। ४८३ || 

पीड्यमान: शरैस्ती&णै: कर्णद्रोणकृपादिभि: ।। ४९ ।। 

नानालिज्ैः सुधौताग्रैर्मम पुत्रो5ल्पचेतन: । 

इह मे स्यात्‌ परित्राणं पितेति स पुनः पुन: ।। ५० ।। 

इत्येवं विलपन्‌ मन्ये नृशंसैर्भुवि पातित: । 

“जब कर्ण, द्रोण और कृपाचार्य आदिने चमकते हुए अग्रभागवाले नाना प्रकारके तीखे 
बाणोंद्वारा मेरे पुत्रको पीड़ित किया होगा और उसकी चेतना मन्द होने लगी होगी, उस 
समय अभिमन्युने बारंबार विलाप करते हुए यह कहा होगा कि यदि यहाँ मेरे पिताजी होते 
तो मेरे प्राणोंकी रक्षा हो जाती। मैं समझता हूँ, उसी अवस्थामें उन निर्दयी शत्रुओंने उसे 
पृथ्वीपर मार गिराया होगा ।। ४९-५० # ।। 

अथवा मत्प्रसूत: स स्वस्रीयो माधवस्य च ।। ५१ ।। 

सुभद्रायां च सम्भूतो न चैवं वक्तुमहति । 


अथवा वह मेरा पुत्र, श्रीकृष्णका भानजा था, सुभद्राकी कोखसे उत्पन्न हुआ था; 
इसलिये ऐसी दीनतापूर्ण बात नहीं कह सकता था ।। ५१३ ।। 

वज्सारमयं नूनं हृदयं सुदृढे मम ।। ५२ ।। 

अपश्यतो दीर्घबाहुं रक्ताक्ष॑ यन्न दीर्यते । 

“निश्चय ही मेरा यह हृदय अत्यन्त सुदृढ़ एवं वज़्सारका बना हुआ है, तभी तो लाल 
नेत्रोंवाले महाबाहु अभिमन्युको न देखनेपर भी यह फट नहीं जाता है ।। ५२३ ।। 

कथं बाले महेष्वासा नृशंसा मर्मभेदिन: ।। ५३ ।। 

स्वस्रीये वासुदेवस्य मम पुत्रेडक्षिपन्‌ शरान्‌ 

उन क्रूरकर्मा महान्‌ धनुर्धरोंने श्रीकृष्णके भानजे और मेरे बालक पुत्रपर मर्मभेदी 
बाणोंका प्रहार कैसे किया? ।। ५३ ह ।। 

यो मां नित्यमदीनात्मा प्रत्युद्गम्याभिनन्दति ।। ५४ ।। 

उपायान्तं रिपून्‌ हत्वा सोड्द्य मां कि न पश्यति । 

“जब मैं शत्रुओंको मारकर शिविरको लौटता था, उस समय जो प्रतिदिन प्रसन्नचित्त हो 
आगे बढ़कर मेरा अभिनन्दन करता था, वह अभिमन्यु आज मुझे क्‍यों नहीं देख रहा 
है? || ५४३ || 

नूनं स पातितः शेते धरण्यां रुधिरोक्षित: ।। ५५ ।। 

शोभयन्‌ _मेदिनीं गात्रैरादित्य इव पातित: । 

“निश्चय ही शत्रुओंने उसे मार गिराया है और वह खूनसे लथपथ होकर धरतीपर पड़ा 
सो रहा है एवं आकाशसे नीचे गिराये हुए सूर्यकी भाँति वह अपने अंगोंसे इस भूमिकी 
शोभा बढ़ा रहा है || ५५३ || 

सुभद्रामनुशोचामि या पुत्रमपलायिनम्‌ ।। ५६ ।। 

रणे विनिहतं श्रुत्वा शोकार्ता वै विनड्क्ष्यति । 

“मुझे बारंबार सुभद्राके लिये शोक हो रहा है, जो युद्धसे मुँह न मोड़नेवाले अपने वीर 
पुत्रको रणभूमिमें मारा गया सुनकर शोकसे आतुर हो प्राण त्याग देगी || ५६३ ।। 

सुभद्रा वक्ष्यते कि मामभिमन्युमपश्यती ।। ५७ ।। 

द्रौपदी चैव दुःखातें ते च वक्ष्यामि कि नन्‍्वहम्‌ । 

अभिमन्युको न देखकर सुभद्रा मुझे क्या कहेगी? द्रौपदी भी मुझसे किस प्रकार 
वार्तालाप करेगी? इन दोनों दुःखकातर देवियोंको मैं क्या जवाब दूँगा? || ५७३ ।। 
वज्सारमयं नूनं हृदयं यन्न यास्यति ।। ५८ ।। 

सहस्रधा वधू दृष्टवा रुदतीं शोककर्शिताम्‌ | 

“निश्चय ही मेरा हृदय वज़्सारका बना हुआ है, जो शोकसे कातर हुई बहू उत्तराको 
रोती देखकर सहखसों टुकड़ोंमें विदीर्ण नहीं हो जाता? ।| ५८३ ।। 


दृप्तानां धार्तराष्ट्राणां सिंहनादो मया श्रुतः ।। ५९ ।। 

युयुत्सुश्नापि कृष्णेन श्रुतो वीरानुपालभन्‌ | 

“मैंने घमंडमें भरे हुए धृतराष्ट्रपुत्रोंका सिंहनाद सुना है और श्रीकृष्णने यह भी सुना है 
कि युयुत्सु उन कौरववीरोंको इस प्रकार उपालम्भ दे रहा था | ५९३६ ।। 

अशवनुवन्तो बीभत्सुं बाल॑ हत्वा महारथा: || ६० ।। 

कि मोदध्वमधर्मज्ञा: पाण्डवं दृश्यतां बलम्‌ | 

'युयुत्सु कह रहा था, धर्मको न जाननेवाले महारथी कौरवो! अर्जुनपर जब तुम्हारा वश 
न चला, तब तुम एक बालककी हत्या करके क्‍यों आनन्द मना रहे हो? कल पाण्डवोंका 
बल देखना ।। ६० ह ।। 

कि तयोरविप्रियं कृत्वा केशवार्जुनयोर्मुधे ।। ६१ ।। 

सिंहवन्नदथ प्रीता: शोककाल उपस्थिते । 

'रणक्षेत्रमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका अपराध करके तुम्हारे लिये शोकका अवसर 
उपस्थित है, ऐसे समयमें तुमलोग प्रसन्न होकर सिंहनाद कैसे कर रहे हो? ।। ६१३ ।। 

आगमिष्यति व: क्षिप्रं फलं पापस्य कर्मण: ।। ६२ ।। 

अधर्मो हि कृतस्तीव्र: कथं स्यादफलश्रिरम्‌ । 

“तुम्हारे पापकर्मका फल तुम्हें शीघ्र ही प्राप्त होगा। तुमलोगोंने घोर पाप किया है। 
उसका फल मिलनेमें अधिक विलम्ब कैसे हो सकता है? ।। ६२३ ।। 

इति तान्‌ परिभाषन वै वैश्यापुत्रो महामति: ।। ६३ ।। 

अपायाच्छस्त्रमुत्सूज्य कोपदुःखसमन्वित: । 

*राजा धृतराष्ट्रकी वैश्यजातीय पत्नीका परम बुद्धिमान्‌ पुत्र युयुत्सु कोप और दुःखसे 
युक्त हो कौरवोंसे उपर्युक्त बातें कहकर शस्त्र त्यागककर चला आया है' ।। 

किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया कृष्ण रणे मम ।। ६४ ।। 

अधाक्षं तानहं क्रूरांस्तदा सर्वान्‌ महारथान्‌ | 

“श्रीकृष्ण! आपने रणक्षेत्रमें ही यह बात मुझसे क्यों नहीं बता दी? मैं उसी समय उन 
समस्त क़ूर महारथियोंको जलाकर भस्म कर डालता” || ६४ $ || 

संजय उवाच 

पुत्रशोकार्दितं पार्थ ध्यायन्तं साश्रुलोचनम्‌ ।। ६५ ।। 

निगृहा वासुदेवस्तं पुत्राधिभिरभिप्लुतम्‌ । 

मैवमित्यब्रवीत्‌ कृष्णस्तीव्रशोकसमन्वितम्‌ ।। ६६ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! इस प्रकार अर्जुनको पुत्रशोकसे पीड़ित और उसीका 
चिन्तन करते हुए नेत्रोंसे आँसू बहाते देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें पकड़कर सँभाला। वे 


पुत्रवियोगके कारण होनेवाली गहरी मनोव्यथामें डूबे हुए थे और तीव्र शोक उन्हें संतप्त कर 
रहा था। भगवान्‌ बोले--'मित्र! ऐसे व्याकूुल न होओ ।। ६५-६६ ।। 

सर्वेषामेष वै पन्था: शूराणामनिवर्तिनाम्‌ । 

क्षत्रियाणां विशेषेण येषां युद्धेन जीविका ।। ६७ ।। 

'युद्धमें पीठ न दिखानेवाले सभी शूरवीरोंका यही मार्ग है। विशेषतः उन क्षत्रियोंको, 
जिनकी युद्धसे जीविका चलती है, इस मार्गसे जाना ही पड़ता है || ६७ ।। 

एषा वै युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्‌ । 

विहिता सर्वशास्त्रज्जैगतिर्मतिमतां वर ।। ६८ ।। 

“बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वीर! जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते हैं, उन युद्धपरायण शूरवीरोंके 
लिये सम्पूर्ण शास्त्रज्ञोंने यही गति निश्चित की है ।। ६८ ।। 

ध्र॒ुवं हि युद्धे मरणं शूराणामनिवर्तिनाम्‌ । 

गत: पुण्यकृतां लोकानभिमन्युर्न संशय: ॥। ६९ ।। 

'पीछे पैर न हटानेवाले शूरवीरोंका युद्धमें मरण अवश्यम्भावी है। अभिमन्यु पुण्यात्मा 
पुरुषोंके लोकमें गया है, इसमें संशय नहीं है ।। ६९ ।। 

एतच्च सर्ववीराणां काड्क्षितं भरतर्षभ | 

संग्रामेडभिमुखो मृत्यु प्राप्तुयादिति मानद || ७० |। 

“दूसरोंको मान देनेवाले भरतश्रेष्ठ! संग्राममें सम्मुख युद्ध करते हुए वीरको मृत्युकी 
प्राप्ति हो, यही सम्पूर्ण शूरवीरोंका अभीष्ट मनोरथ हुआ करता है ।। ७० ।। 

सच वीरान्‌ रणे हत्वा राजपुत्रान्‌ महाबलान्‌ | 

वीरैराकाड्ृक्षितं मृत्युं सम्प्राप्तोडभिमुखं रणे ।। ७१ ।। 

“अभिमन्युने रणक्षेत्रमें महाबली वीर राजकुमारोंका वध करके वीर पुरुषोंद्वारा 
अभिलपफित संग्राममें सम्मुख मृत्यु प्राप्त की है ।। ७१ ।। 

मा शुचः पुरुषव्याप्र पूर्वरेष सनातन: । 

धर्मकृद्धि: कृतो धर्म: क्षत्रियाणां रणे क्षय: ।। ७२ ।। 

'पुरुषसिंह! शोक न करो। प्राचीन धर्मशास्त्रकारोंने संग्राममें वध होना क्षत्रियोंका 
सनातनधर्म नियत किया है ॥। ७२ ।। 

इमे ते भ्रातर: सर्वे दीना भरतसत्तम । 

त्वयि शोकसमादविष्टे नृपाश्व सुह्दस्तव ।। ७३ ।। 

“भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे शोकाकुल हो जानेसे ये तुम्हारे सभी भाई, नरेशगण तथा सुहृद्‌ दीन 
हो रहे हैं | ७३ ।। 

एतांश्व वचसा साम्ना समाश्वासय मानद । 

विदितं वेदितव्यं ते न शोक॑ कर्तुमहसि || ७४ ।। 


“मानद! इन सबको अपने शान्तिपूर्ण वचनसे आश्वासन दो। तुम्हें जाननेयोग्य तत्त्वका 
ज्ञान हो चुका है। अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये” ।। ७४ ।। 

एवमाश्वासित: पार्थ: कृष्णेनादभुतकर्मणा । 

ततोअब्रवीत्‌ तदा भ्रातृन्‌ सर्वान्‌ पार्थ: सगद्गदान्‌ ।। ७५ ।। 

अदभुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णके इस प्रकार समझाने-बुझानेपर अर्जुन उस समय 
वहाँ गदगद कण्ठवाले अपने सब भाइयोंसे बोले-- || ७५ |। 

स दीर्घबाहु: पृथ्वंसो दीर्घधजीवलोचन: । 

अभिमन्युर्यथावृत्त: श्रोतुमिच्छाम्यहं तथा ।। ७६ ।। 

“मोटे कंधों, बड़ी भुजाओं तथा कमलसदृश विशाल नेत्रोंवाला अभिमन्यु संग्राममें जिस 
प्रकार लड़ा था, वह सब वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूँ ।। ७६ ।। 

सनागस्यन्दनहयान  द्रक्ष्यध्वं निहतान्‌ मया । 

संग्रामे सानुबन्धांस्तान्‌ मम पुत्रस्य वैरिण: || ७७ ।। 

“कल आपलोग देखेंगे कि मेरे पुत्रके वैरी अपने हाथी, रथ, घोड़े और सगे- 
सम्बन्धियोंसहित युद्धमें मेरे द्वारा मार डाले गये || ७७ ।। 

कथं च व: कृतास्त्राणां सर्वेषां शस्त्रपाणिनाम्‌ । 

सौभद्रो निधनं गच्छेद्‌ वज्जिणापि समागत: || ७८ ।। 

“आप सब लोग अस्त्रविद्याके पण्डित और हाथमें हथियार लिये हुए थे। सुभद्राकुमार 
अभिमन्यु साक्षात्‌ वज्रधारी इन्द्रसे भी युद्ध करता हो तो भी आपके सामने कैसे मारा जा 
सकता था? ।। ७८ ।। 

यद्येवमहमज्ञास्यमशक्तान्‌ रक्षणे मम । 

पुत्रस्य पाण्डुपञ्चालान्‌ मया गुप्तो भवेत्‌ तत: ।। ७९ ।। 

“यदि मैं ऐसा जानता कि पाण्डव और पांचाल मेरे पुत्रकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं तो मैं 
स्वयं उसकी रक्षा करता ।। ७९ ।। 

कथं च वो रथस्थानां शरवर्षाणि मुज्चताम्‌ । 

नीतो>भिमन्युर्निधनं कदर्थीकृत्य व: परैः ।॥ ८० ।। 

“आपलोग रथपर बैठे हुए बाणोंकी वर्षा कर रहे थे तो भी शत्रुओंने आपकी अवहेलना 
करके कैसे अभिमन्युको मार डाला? || ८० ।। 

अहो व: पौरुषं नास्ति न च वो<5स्ति पराक्रम: । 

यत्राभिमन्यु: समरे पश्यतां वो निपातित: ।। ८१ ।। 

“अहो! आपलोगोंमें पुरुषार्थ नहीं है और पराक्रम भी नहीं है; क्योंकि समरभूमिमें 
आपलोगोंके देखते-देखते अभिमन्यु मार डाला गया ।। ८१ ।। 

आत्मानमेव गर्हैयं यदहं वै सुदुर्बलान्‌ । 

युष्मानाज्ञाय निर्यातों भीरूनकृतनिश्चयान्‌ | ८२ ।। 


“मैं अपनी ही निन्‍्दा करूँगा; क्योंकि आपलोगोंको अत्यन्त दुर्बल, डरपोक और सुदृढ़ 
निश्चयसे रहित जानकर भी मैं (अभिमन्युको आपलोगोंके भरोसे छोड़कर) अन्यत्र चला 
गया ।। ८२ || 

आहोस्विद्‌ भूषणार्थाय वर्म शस्त्रायुधानि व: । 

वाचस्तु वक्तुं संसत्सु मम पुत्रमरक्षताम्‌ ।। ८३ ।। 

“अथवा आपलोगोंके ये कवच और अस्त्र-शस्त्र क्या शरीरका आभूषण बनानेके लिये 
हैं? मेरे पुत्रकी रक्षा न करके वीरोंकी सभामें केवल बातें बनानेके लिये हैं?” ।। 

एवमुक्‍त्वा ततो वाक्यं तिष्ठ॑श्नापवरासिमान्‌ । 

न स्माशक्यत बीभत्सु: केनचित्प्रसमीक्षितुम्‌ ।। ८४ ।। 

ऐसा कहकर फिर अर्जुन धनुष और श्रेष्ठ तलवार लेकर खड़े हो गये। उस समय कोई 
उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सका || ८४ ।। 

तमन्तकमिव क्रुद्ध॑ निःश्वसन्तं मुहुर्मुहुः । 

पुत्रशोकाभिसंतप्तमश्रुपूर्णमुखं तदा ।। ८५ ।। 

वे यमराजके समान कुपित हो बारंबार लंबी साँसें छोड़ रहे थे। उस समय पुत्रशोकसे 
संतप्त हुए अर्जुनके मुखयर आँसुओंकी धारा बह रही थी || ८५ ।। 

न भाषितुं शक्नुवन्ति द्रष्ट॑ वा सुहृदो &र्जुनम्‌ । 

अन्यत्र वासुदेवाद्वा ज्येष्ठाद्वा पाण्डुनन्दनात्‌ ।। ८६ ।। 

उस अवस्थामें वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण अथवा ज्येष्ठ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको 
छोड़कर दूसरे सगे-सम्बन्धी न तो उनसे कुछ बोल सकते थे और न तो देखनेका ही साहस 
करते थे || ८६ ।। 

सर्वास्ववस्थासु हितावर्जुनस्य मनोनुगौ । 

बहुमानात्‌ प्रियत्वाच्च तावेनं वक्तुमर्हत: ।। ८७ ।। 

श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर सभी अवस्थाओंमें अर्जुनके हितैषी और उनके मनके अनुकूल 
चलनेवाले थे; क्योंकि अर्जुनके प्रति उनका बड़ा आदर और प्रेम था। अतः वे ही दोनों इनसे 
उस समय कुछ कहनेका अधिकार रखते थे ।। ८७ ।। 

ततस्तं पुत्रशोकेन भूशं पीडितमानसम्‌ | 

राजीवलोचनं क्रुद्धं राजा वचनमत्रवीत्‌ ।। ८८ ।। 

तदनन्तर मन-ही-मन पुत्रशोकसे अत्यन्त पीड़ित हुए क्रोधभरे कमलनयन अर्जुनसे 
राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार कहा-- || ८८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनकोपे द्विसप्ततितमो<ध्याय: ।। 
७२ || 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अजुनकोपविषयक बहत्तरवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ६ श्लोक मिलाकर कुल ९१३ “लोक हैं।) 


न२्््य्न्नितास श््यु नी नल 


त्रिसप्ततितमो< ध्याय: 


युधिष्ठिरके मुखसे अभिमन्युवधका वृत्तान्त सुनकर 
अर्जुनकी जयद्रथको मारनेके लिये शपथपूर्ण प्रतिज्ञा 


युधिछिर उवाच 


त्वयि याते महाबाहो संशप्तकबल प्रति । 

प्रयत्नमकरोत्‌ तीव्रमाचार्यो ग्रहणे मम ।। १ ।। 

युधिष्ठिर बोले--महाबाहो! जब तुम संशप्तक सेनाके साथ युद्धके लिये चले गये, उस 
समय आचार्य द्रोणने मुझे पकड़नेके लिये घोर प्रयत्न किया ।। १ ।। 

व्यूढानीका वयं द्रोणं वारयाम: सम सर्वश: । 

प्रतिव्यूह्ू रथानीकं यतमानं तथा रणे ।। २ ।। 

वे रथोंकी सेनाका व्यूह बनाकर बारंबार उद्योग करते थे और हमलोग रणक्षेत्रमें अपनी 
सेनाको व्यूहाकारमें संघटित करके सब प्रकारसे द्रोणाचार्यको आगे बढ़नेसे रोक देते 
थे।।२॥। 

स वार्यमाणो रथिभिममयि चापि सुरक्षिते | 

अस्मानभिजगामाशु पीडयन्‌ निशितै: शरै: ।। ३ ।। 

जब रथियोंके द्वारा आचार्य रोक दिये गये और मैं सर्वथा सुरक्षित रह गया, तब उन्होंने 
अपने तीखे बाणोंद्वारा हमें पीड़ा देते हुए हमलोगोंपर तीव्र वेगसे आक्रमण किया ।। ३ ॥। 

ते पीड्यमाना द्रोणेन द्रोणानीक॑ न शकक्‍्नुम: । 

प्रतिवीक्षितुमप्याजौ भेत्तुं तत्‌ कुत एव तु ।। ४ ।। 

द्रोणाचार्यसे पीड़ित होनेके कारण हमलोग उनके सैन्यव्यूहकी ओर आँख उठाकर देख 
भी नहीं सकते थे; फिर युद्धभूमिमें उसका भेदन तो कर ही कैसे सकते थे? ।। ४ ।। 

वयं त्वप्रतिमं वीर्ये सर्वे सौभद्रमात्मजम्‌ । 

उक्तवन्त: सम तं तात भिन्ध्यनीकमिति प्रभो ।। ५ ।। 

तब हम सब लोग अनुपम पराक्रमी अपने पुत्र सुभद्रानन्दन अभिमन्युसे बोले--“तात! 
तुम इस व्यूहका भेदन करो; क्योंकि तुम ऐसा करनेमें समर्थ हो” || ५ ।। 

स तथा नोदितोडस्माभि: सदश्च इव वीर्यवान्‌ | 

असहामपि त॑ भार वोढुमेवोपचक्रमे ।। ६ ।। 

हमारे इस प्रकार आज्ञा देनेपर उस पराक्रमी वीरने अच्छे घोड़ेकी भाँति उस असहा 
भारको भी वहन करनेका ही प्रयत्न किया ।। ६ |। 

स तवास्त्रोपदेशेन वीर्येण च समन्वित: । 


प्राविशत्‌ तद्धलं बाल: सुपर्ण इव सागरम्‌ ।। ७ ।। 

तुम्हारे दिये हुए अस्त्र-विद्याके उपदेश और पराक्रमसे सम्पन्न बालक अभिमन्युने उस 
सेनामें उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे गरुड़ समुद्रमें घुस जाते हैं ।। 

तेडनुयाता वयं वीरं सात्वतीपुत्रमाहवे । 

प्रवेष्टकामास्तेनैव येन स प्राविशच्चमूम्‌ ।। ८ ।। 

तत्पश्चात्‌ हमलोग रणक्षेत्रमें वीर सुभद्राकुमार अभिमन्युके पीछे उस व्यूहमें प्रवेश 
करनेकी इच्छासे चले। हम भी उसी मार्गसे उसमें घुसना चाहते थे, जिसके द्वारा उसने 
शत्रुसेनामें प्रवेश किया था ।। ८ ।। 

ततः सैन्धवको राजा क्षुद्रस्तात जयद्रथ: । 

वरदानेन रुद्रस्य सर्वान्‌ न: समवारयत्‌ ।। ९ ।। 

तात! ठीक इसी समय नीच सिंधुनरेश राजा जयद्रथने सामने आकर भगवान्‌ शंकरके 
दिये हुए वरदानके प्रभावसे हम सब लोगोंको रोक दिया ।। ९ ।। 

ततो द्रोण: कृप: कर्णो द्रौणि: कौसल्य एव च । 

कृतवर्मा च सौभद्रंं षड्‌ रथा: पर्यवारयन्‌ ।। १० ।। 

तदनन्तर द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्व॒त्थामा, बृहद्बल और कृतवर्मा--इन छ: 
महारथियोंने सुभद्राकुमारको चारों ओरसे घेर लिया ।। १० ।। 

परिवार्य तु तैः सर्वेर्युधि बालो महारथै: । 

यतमानः: परं शक्‍्त्या बहुभिर्विरथीकृत: ।। ११ ।। 

घिरा होनेपर भी वह बालक पूरी शक्ति लगाकर उन सबको जीतनेका प्रयत्न करता 
रहा; तथापि वे संख्यामें अधिक थे, अत: उन समस्त महारथियोंने उसे घेरकर रथहीन कर 
दिया ।। ११ ।। 

ततो दौ:शासनि: क्षिप्रं तथा तैर्विरथीकृतम्‌ । 

संशयं परमं प्राप्य दिष्टान्तेनाभ्ययोजयत्‌ ।। १२ ।। 

तत्पश्चात्‌ दुःशासनपुत्रने अभिमन्युके प्रहारसे भारी प्राणसंकटमें पड़कर पूर्वोक्त 
महारथियोंद्वारा रथहीन किये हुए अभिमन्युको शीघ्र ही (गदाके आघातसे) मार 
डाला ।। १२ |। 

स तु हत्वा सहस्राणि नराश्वरथदन्तिनाम्‌ 

अष्टौ रथसहस्राणि नव दन्तिशतानि च ।। १३ ।। 

राजपुत्रसहसे द्वे वीरांश्वालक्षितान्‌ बहून्‌ । 

बृहद्धलं च राजानं स्वर्गेणाजौ प्रयोज्य ह ।। १४ ।। 

ततः परमधर्मात्मा दिष्टान्तमुपजग्मिवान्‌ । 


इसके पहले उसने हजारों हाथी, रथ, घोड़े और मनुष्योंको मार डाला था। आठ हजार 
रथों और नौ सौ हाथियोंका संहार किया था। दो हजार राजकुमारों तथा और भी बहुत-से 
अलक्षित वीरोंका वध करके राजा बृहद्वलको भी युद्धस्थलमें स्वर्गलोकका अतिथि बनाया। 
इसके बाद परम धर्मात्मा अभिमन्यु स्वयं मृत्युको प्राप्त हुआ ।। १३-१४ $ ।। 

(गतःसुकृतिनां लोकान्‌ ये च स्वर्गजितां शुभा: । 

अदीनस्त्रासयउछत्रून्‌ नन्दयित्वा च बान्धवान्‌ ।। 

असतवृज्ञाम विश्राव्य पितृणां मातुलस्य च | 

वीरो दिष्टान्तमापन्न: शोचयन्‌ बान्धवान्‌ बहून्‌ ।। 

ततः सम शोकसंतप्ता भवताद्य समेयुष: ।) 

वह पुण्यात्माओंके लोकोंमें गया है। अपने पुण्यके बलसे स्वर्गलोकपर विजय पानेवाले 
धर्मात्मा पुरुषोंको जो शुभ लोक सुलभ होते हैं, वे ही उसे भी प्राप्त हुए हैं। उसने कभी 
युद्धमें दीनता नहीं दिखायी। वह वीर शत्रुओंको त्रास और बान्धवोंको आनन्द प्रदान करता 
हुआ अपने पितरों और मामाके नामको बारंबार विख्यात करके अपने बहुसंख्यक 
बन्धुओंको शोकमें डालकर मृत्युको प्राप्त हुआ है। तभीसे हमलोग शोकसे संतप्त हैं और 
इस समय तुमसे हमारी भेंट हुई है। 

एतावदेव निर्वृत्तमस्माकं शोकवर्धनम्‌ ।। १५ ।। 

स चैवं पुरुषव्यात्र: स्वर्गलोकमवाप्तवान्‌ | 

यही हमलोगोंके लिये शोक बढ़ानेवाली घटना घटित हुई है। पुरुषसिंह अभिमन्यु इस 
प्रकार स्वर्गलोकमें गया है || १५६ ।। 

ततोडर्जुनो वच:ः श्रुत्वा धर्मराजेन भाषितम्‌ । १६ ।। 

हा पुत्र इति निः:श्वस्य व्यथितो न्‍्यपतद्‌ भुवि । 

धर्मराज युधिष्ठिरकी कही हुई यह बात सुनकर अर्जुन व्यथासे पीड़ित हो लंबी साँस 
खींचते हुए “हा पुत्र” कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। १६६ ।। 

विषण्णवदना: सर्वे परिवार्य धनंजयम्‌ ।। १७ ।। 

नेत्रैरनिमिषैद्दीना: प्रत्यवैक्षन्‌ परस्परम्‌ । 

उस समय सबके मुखपर विषाद छा गया। सब लोग अर्जुनको घेरकर दु:खी हो 
एकटक नेत्रोंसे एक-दूसरेकी ओर देखने लगे || १७६ ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञां वासवि: क्रोधमूर्च्छित: ॥। १८ ।। 

कम्पमानो ज्वरेणेव नि:श्वसंश्व मुहुर्महु: । 

पार्णिं पाणौ विनिष्थिष्य श्वसमानो<घश्रुनेत्रवान्‌ ।। १९ ।। 

उन्मत्त इव विप्रेक्षन्निदं वचनमत्रवीत्‌ | 


तदनन्तर इन्द्रपुत्र अर्जुन होशमें आकर क्रोधसे व्याकुल हो मानो ज्वरसे काँप रहे हों-- 
इस प्रकार बारंबार लंबी साँस खींचते और हाथपर हाथ मलते हुए नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे 
और उन्मत्तके समान देखते हुए इस तरह बोले-- || १८-१९ ६ ।। 

अजुन उवाच 

सत्यं वः प्रतिजानामि श्वो5स्मि हन्ता जयद्रथम्‌ । 

न चेद्‌ वधभयाद्‌ भीतो धार्तराष्ट्रान्‌ प्रहास्यति || २० ।। 

न चास्मान्‌ शरणं गच्छेत्‌ कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्‌ | 

भवन्तं वा महाराज श्वो5स्मि हनता जयद्रथम्‌ ।। २१ ।। 

अर्जुनने कहा--मैं आपलोगोंके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कल 
जयद्रथको अवश्य मार डालूँगा। महाराज! यदि वह मारे जानेके भयसे डरकर 
धृतराष्ट्रपुत्रोंकी छोड़ नहीं देगा, मेरी, पुरुषोत्तम श्रीकृष्णकी अथवा आपकी शरणमें नहीं आ 
जायगा तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा || २०-२१ ।। 

धार्तराष्ट्रप्रियकरं मयि विस्मृतसौहृदम्‌ । 

पापं बालवधे हेतु श्वो5स्मि हनता जयद्रथम्‌ ।। २२ ।। 

जो धृतराष्ट्रके पुत्रोंका प्रिय कर रहा है, जिसने मेरे प्रति अपना सौहार्द भुला दिया है 
तथा जो बालक अभिमन्युके वधमें कारण बना है, उस पापी जयद्रथको कल अवश्य मार 
डालूँगा || २२ ।। 

रक्षमाणाशक्ष तं संख्ये ये मां योत्स्यन्ति केचन । 

अपि द्रोणकृपौ राजन्‌ छादयिष्यामि ताउछरै: ।। २३ ।। 

राजन! युद्धमें जयद्रथकी रक्षा करते हुए जो कोई मेरे साथ युद्ध करेंगे, वे द्रोणाचार्य 
और कृपाचार्य ही क्यों न हों, उन्हें अपने बाणोंके समूहसे आच्छादित कर दूँगा ।। २३ ।। 

यद्येतदेवं संग्रामे न कुर्या पुरुषर्षभा: । 

मा सम पुण्यकृतां लोकानू प्राप्तुयां शूरसम्मतान्‌ ।। २४ ।। 

पुरुषश्रेष्ठ वीरो! यदि संग्रामभूमिमें मैं ऐसा न कर सकूँ तो पुण्यात्मा पुरुषोंके उन 
लोकोंको, जो शूरवीरोंको प्रिय हैं, न प्राप्त करूँ: ।। २४ ।। 

ये लोका ४8४६ | ये चापि पितृघातिनाम्‌ । 

गुरुदारगतानां ये पिशुनानां च ये सदा || २५ ।। 

साधूनसूयतां ये च ये चापि परिवादिनाम्‌ । 

ये च निक्षेपहर्त॒णां ये च विश्वासघातिनाम्‌ ।। २६ ।। 

भुक्तपूर्वा स्त्रियं ये च विन्दतामघशंसिनाम्‌ | 

ब्रह्मघ्नानां च ये लोका ये च गोघातिनामपि ॥। २७ ।। 

पायसं वा यवान्नं वा शाकं कूसरमेव वा । 


संयावापूपमांसानि ये च लोका वृथाश्रताम्‌ ।। २८ ।। 

तानन्हायाधिगच्छेयं न चेद्धन्यां जयद्रथम्‌ । 

माता-पिताकी हत्या करनेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, गुरु-पत्नीगामी और 
चुगलखोरोंको जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, साधुपुरुषोंकी निन्दा करनेवालों और दूसरोंको 
कलंक लगानेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, धरोहर हड़पने और विश्वासघात 
करनेवालोंको जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, दूसरेके उपभोगमें आयी हुई स्त्रीको ग्रहण 
करनेवाले, पापकी बातें करनेवाले, ब्रह्महत्यारे और गोघातियोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, 
खीर, यवान्न, साग, खिचड़ी, हलवा, पूआ आदिको बलिवैश्वदेव किये बिना ही खानेवाले 
मनुष्योंको जो लोक प्राप्त होते हैं, यदि मैं कल जयद्रथका वध न कर डालूँ तो मुझे भी 
तत्काल उन्हीं लोकोंको जाना पड़े || २५--२८ $ || 





वेदाध्यायिनमत्यर्थ संशितं वा द्विजोत्तमम्‌ ।। २९ |। 

अवमन्यमानो यान्‌ याति वृद्धान्‌ साधून्‌ गुरूंस्तथा | 

स्पृशतो ब्राह्माणं गां च पादेनाग्निं च या भवेत्‌ ।। ३० ।। 

या>प्सु श्लेष्म पुरीषं च मूत्र वा मुडचतां गति: । 

तां गच्छेयं गतिं कष्टां न चेद्धन्यां जयद्रथम्‌ ।। ३१ ।। 

वेदोंका स्वाध्याय अथवा अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्यणगकी तथा 
बड़े-बूढ़ों, साधु-पुरुषों और गुरुजनोंकी अवहेलना करनेवाला पुरुष जिन नरकोंमें पड़ता है, 
ब्राह्मण, गौ और अग्निको पैरसे छूनेवाले पुरुषकी जो गति होती है तथा जलमें थूक अथवा 
मल-मूत्र छोड़नेवालोंकी जो दुर्गति होती है, यदि मैं कल जयद्रथको न मारूँ तो उसी 
कष्टदायिनी गतिको मैं भी प्राप्त करूं ।। २९--३१ ।। 

नग्नस्यथ स्नायमानस्य या च वन्ध्यातिथेर्गति: । 

उत्कोचिनां मृषोक्तीनां वज्चकानां च या गति: ।। ३२ ।। 

आत्मापहारिणां या च या च मिथ्याभिशंसिनाम्‌ | 

भृत्यै: संदिश्यमानानां पुत्रदाराश्रितैस्तथा ।। ३३ || 

असंविभज्य क्षुद्राणां या गतिर्मिष्टमश्नताम्‌ । 

तां गच्छेयं गतिं घोरां न चेद्धन्यां जयद्रथम्‌ ।। ३४ ।। 

नंगे नहानेवाले तथा अतिथिको भोजन दिये बिना ही उसे असफल लौटा देनेवाले 
पुरुषकी जो गति होती है; घूसखोर, असत्यवादी तथा दूसरोंके साथ वंचना (ठगी) 
करनेवालोंकी जो दुर्गति होती है; आत्माका हनन करनेवाले, दूसरोंपर झूठे दोषारोपण 
करनेवाले, भृत्योंकी आज्ञाके अधीन रहनेवाले तथा स्त्री, पुत्र एवं आश्रित जनोंके साथ 
यथायोग्य बँटवारा किये बिना ही अकेले मिष्टान्न उड़ानेवाले क्षुद्र पुरुषोंको जिस घोर नारकी 
गतिकी प्राप्ति होती है, यदि मैं कल जयद्रथको न मारूँ तो मुझे भी वही दुर्गति प्राप्त 
हो ।। ३२--३४ ।। 

संश्रितं चापि यस्त्यक्त्वा साधुं तद्गबचने रतम्‌ । 

न बिभर्ति नृशंसात्मा निन्दते चोपकारिणम्‌ ।। ३५ ।। 

अह्ति प्रातिवेश्याय श्राद्ध यो न ददाति च | 

अनर्ह भ्यश्ष यो दद्याद्‌ वृषलीपतये तथा ।। ३६ ।। 

मद्यपो भिन्नमर्याद: कृतघ्नो भर्त॒निन्दक: । 

तेषां गतिमियां क्षिप्रं न चेद्धन्यां जयद्रथम्‌ ।। ३७ ।। 

जो नृशंस स्वभावका मनुष्य शरणागत, साधुपुरुष तथा आज्ञापालनमें तत्पर रहनेवाले 
पुरुषको त्यागकर उसका भरण-पोषण नहीं करता, जो उपकारीकी निन्दा करता है, 
पड़ोसमें रहनेवाले योग्य व्यक्तिको श्राद्धका दान नहीं देता और अयोग्य व्यक्तियोंको तथा 
शूद्राके स्वामी ब्राह्मणको देता है, जो मद्य पीनेवाला, धर्म-मर्यादाको तोड़नेवाला, कृतघ्न 


और स्वामीकी निन्‍्दा करनेवाला है--इन सभी लोगोंको जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसीको मैं 
भी शीघ्र ही प्राप्त करूँ; यदि कल जयद्रथका वध न कर डालूँ || ३५--३७ ।। 

भुज्जानानां तु सव्येन उत्सज़े चापि खादताम्‌ | 

पालाशमासनं चैव तिन्दुकैर्दन्तधावनम्‌ ।। ३८ ।। 

ये चावर्जयतां लोका: स्वपतां च तथोषसि । 

जो बायें हाथसे भोजन करते हैं, गोदमें रखकर खाते हैं, जो पलासके आसनका और 
तेंदूकी दातुनका त्याग नहीं करते तथा उष:कालमें सोते हैं, उनको जो नरकलोक प्राप्त होते 
हैं (वे ही मुझे भी मिले; यदि मैं जयद्रथको न मार डालूँ) ।। ३८३ ।। 

शीतभीताश्ष ये विप्रा रणभीताश्ष क्षत्रिया: ।। ३९ ।। 

एककूपोदकग्रामे वेदध्वनिविवर्जिते । 

षण्मासं तत्र वसतां तथा शास्त्र विनिन्दताम्‌ ।। ४० ।। 

दिवामैथुनिनां चापि दिवसेषु च शेरते । 

अगारदाहिनां चैव गरदानां च ये मता: ।। ४१ ।। 

अग्न्यातिथ्यविहीनाश्न गोपानेषु च विघ्नदा: । 

रजस्वलां सेवयन्त: कन्यां शुल्केन दायिन: ।। ४२ |। 

या च वै बहुयाजिनां ब्राह्मणानां श्ववृत्तिनाम्‌ । 

आस्यमैथुनिकानां च ये दिवा मैथुने रता: ।। ४३ ।। 

ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य यो वै लोभाद्‌ ददाति न । 

तेषां गतिं गमिष्यामि श्वो न हन्यां जयद्रथम्‌ ।। ४४ ।। 

जो ब्राह्मण होकर सर्दीसे और क्षत्रिय होकर युद्धसे डरते हैं, जिस गाँवमें एक ही 
कुएँका जल पीया जाता हो और जहाँ कभी वेदमन्त्रोंकी ध्वनि न हुई हो, ऐसे स्थानोंमें जो 
छः: महीनोंतक निवास करते हैं, जो शास्त्रकी निन्दामें तत्पर रहते, दिनमें मैथुन करते और 
सोते हैं, जो दूसरोंके घरोंमें आग लगाते और दूसरोंको जहर दे देते हैं, जो कभी अग्निहोत्र 
और अतिथि-सत्कार नहीं करते तथा गायोंके पानी पीनेमें विघ्न डालते हैं, जो रजस्वला 
सत्रीका सेवन करते और शुल्क लेकर कन्या देते हैं, जो बहुतोंकी पुरोहिती करते, ब्राह्मण 
होकर सेवा-वृत्तिसे जीविका चलाते, मुँहमें मैथुन करते अथवा दिनमें स्त्री-सहवास करते हैं, 
जो ब्राह्मणको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश नहीं देते हैं, उन सबको जिन लोकों 
अथवा दुर्गतिकी प्राप्ति होती है, उन्हींको मैं भी प्राप्त होऊँ; यदि कलतक जयद्रथको न मार 
डालूँ || ३९--४४ ।। 

धर्मादपेता ये चान्ये मया नात्रानुकीर्तिता: । 

ये चानुकीर्तितास्तेषां गतिं क्षिप्रमवाप्तुयाम्‌ू ।। ४५ ।। 

यदि व्युष्टामिमां रात्रि श्वो न हन्यां जयद्रथम्‌ । 


ऊपर जिन पापियोंका नाम मैंने गिनाया है तथा जिन दूसरे पापियोंका नाम नहीं 
गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसीको शीघ्र ही मैं भी प्राप्त करूँ; यदि यह रात 
बीतनेपर कल जयद्रथको न मार डालूँ || ४५६ ।। 
इमां चाप्यपरां भूय: प्रतिज्ञां मे निबोधत ।। ४६ ।। 
यद्यस्मिन्नहते पापे सूर्योडस्तमुपयास्यति । 
इहैव सम्प्रवेशहं ज्वलितं जातवेदसम्‌ ।। ४७ ।। 
अब आपलोग पुनः मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुन लें। यदि इस पापी जयद्रथके मारे 
जानेसे पहले ही सूर्यदेव अस्ताचलको पहुँच जायूँगे तो मैं यहीं प्रजजलित अग्निमें प्रवेश कर 
जाऊँगा ।। ४६-४७ ।। 
असुरसुरमनुष्या: पक्षिणो वोरगा वा 
पितृरजनिचरा वा ब्रह्म॒देवर्षयो वा । 
चरमचरमपीद यत्परं चापि तस्मात्‌ 
तदपि ममरिपु त॑ रक्षितुं नैव शक्ता: ।। ४८ ।। 
देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, नाग, पितर, निशाचर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचर जगत्‌ 
तथा इसके परे जो कुछ है, वह--ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु जयद्रथकी रक्षा नहीं कर 
सकते ।। ४८ ।। 
यदि विशति रसातलं तदग्र्यं 
वियदपि देवपुरं दिते: पुरं वा 
तदपि शरशतैरहं प्रभाते 
भूशमभिमन्युरिपो: शिरोडभिहर्ता ।। ४९ |। 
यदि जयद्रथ पातालमें घुस जाय या उससे भी आगे बढ़ जाय अथवा आकाश, 
देवलोक या दैत्योंके नगरमें जाकर छिप जाय तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणोंसे 
अभिमन्युके उस घोर शत्रुका सिर अवश्य काट लूँगा ।। 
एवमुकक्‍्त्वा विचिक्षेप गाण्डीवं सव्यदक्षिणम्‌ । 
तस्य शब्दमतिक्रम्य धनु:शब्दोडस्पृशद्‌ दिवम्‌ ।। ५० || 
ऐसा कहकर अर्जुनने दाहिने और बायें हाथसे भी गाण्डीव धनुषकी टंकार की। उसकी 
ध्वनि दूसरे शब्दोंको दबाकर सम्पूर्ण आकाशमें गूँज उठी ।। ५० ।। 
अर्जुनेन प्रतिज्ञाते पाउ्चजन्यं जनार्दन: । 
प्रदथ्मौ तत्र संक्रुद्धों देवदत्तं च फाल्गुन: ।। ५१ ।। 
अर्जुनके इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेनेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अत्यन्त कुपित होकर 
पांचजन्य शंख बजाया। इधर अर्जुनने भी देवदत्त नामक शंखको फूँका ।। ५१ ।। 
स पाज्चजन्यो<च्युतवक्त्रवायुना 
भृशं सुपूर्णोदरनि:सृत ध्वनि: । 


जगत्‌ सपातालवियद्दिगीश्ररं 
प्रकम्पयामास युगात्यये यथा ।। ५२ |। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके मुखकी वायुसे भीतरी भाग भर जानेके कारण अत्यन्त भयंकर 
ध्वनि प्रकट करनेवाले पांचजन्यने आकाश, पाताल, दिशा और दिक्पालोंसहित सम्पूर्ण 
जगत्‌को कम्पित कर दिया, मानो प्रलयकाल आ गया हो ।। ५२ ।। 

ततो वादित्रघोषाश्न प्रादुरासन्‌ सहस्रश: । 

सिंहनादश्न पाण्डूनां प्रतिज्ञाते महात्मना || ५३ ।। 

महामना अर्जुनने जब उक्त प्रतिज्ञा कर ली, उस समय पाण्डवोंके शिविरमें अनेक 
बाजोंके हजारों शब्द और पाण्डव वीरोंका सिंहनाद भी सब ओर गूँजने लगा ।। ५३ ।। 


(भीम उवाच 


प्रतिज्ञोद्भधवशब्देन कृष्णशड्खस्वनेन च । 
निहतो धार्तराष्ट्रोड्य सानुबन्ध: सुयोधन: ।। 
भीमसेनने कहा--अर्जुन! तुम्हारी प्रतिज्ञाके शब्दसे और भगवान्‌ श्रीकृष्णके इस 
शंखनादसे मुझे विश्वास हो गया कि यह धुृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अपने सगे-सम्बन्धियोंसहित 
अवश्य मारा जायगा। 
अथ मृदिततमाग्र्यदाममाल्यं 
तव सुतशोकमयं च रोषजातम्‌ । 
व्यपनुदति महाप्रभावमेत- 
न्नरवर वाक्यमिदं महार्थमिष्टम्‌ ।।) 
नरश्रेष्ठ तुम्हारा यह वचन महान्‌ अर्थसे युक्त और मुझे अत्यन्त प्रिय है। यह अत्यन्त 
प्रभावशाली वाक्य तुम्हारे पुत्रशोकमय उस रोष-समूहका निवारण कर रहा है, जिसने 
तुम्हारे गलेके सुन्दर पुष्पहारको मसल डाला था। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनप्रतिज्ञायां त्रिसप्ततितमो<ध्याय: 
|| ७३ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अजुनप्रतिज्ञाविषयक तिहत्तरवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७३ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ ३ श्लोक मिलाकर कुल ५७३ श्लोक हैं।) 


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चतु:ःसप्ततितमो< ध्याय: 


जयद्रथका भय तथा दुर्योधन और द्रोणाचार्यका उसे 
आश्वासन देना 


संजय उवाच 

श्रुत्वा तु तं महाशब्दं पाण्डूनां जयगृद्धिनाम्‌ 

चारै: प्रवेदिते तत्र समुत्थाय जयद्रथ: ।। १ ।। 

शोकसम्मूढहृदयो दुःखेनाभिपरिप्लुत: । 

मज्जमान इवागाधे विपुले शोकसागरे ॥। २ ।। 

जगाम समितिं राज्ञां सैन्धवो विमृशन्‌ बहु । 

स तेषां नरदेवानां सकाशे पर्यदेवयत्‌ ॥। ३ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सिंधुराज जयद्रथने जब विजयाभिलाषी पाण्डवोंका वह 
महान्‌ शब्द सुना और गुप्तचरोंने आकर जब अर्जुनकी प्रतिज्ञाका समाचार निवेदन किया, 
तब वह सहसा उठकर खड़ा हो गया, उसका हृदय शोकसे व्याकुल हो गया। वह दुःखसे 
व्याप्त हो शोकके विशाल एवं अगाध महासागरमें ड्ूबता हुआ-सा बहुत सोच-विचारकर 
राजाओंकी सभामें गया और उन नरदेवोंके समीप रोने-बिलखने लगा ।। १--३ ।। 

अभिमन्यो: पितुर्भीत: सब्रीडो वाक्यमब्रवीत्‌ | 

योडसौ पाण्डो: किल क्षेत्रे जात: शक्रेण कामिना ।। ४ ।। 

स निनीष ति दुर्बुद्धिर्मा किलैकं यमक्षयम्‌ | 

तत्‌ स्वस्ति वो<स्तु यास्यामि स्वगृहं जीवितेप्सया ।। ५ ।। 

जयद्रथ अभिमन्युके पितासे बहुत डर गया था, इसलिये लज्जित होकर बोला 
--'राजाओ! कामी इन्द्रने पाण्डुकी पत्नीके गर्भसे जिसको जन्म दिया है, वह दुर्बृद्धि 
अर्जुन केवल मुझको ही यमलोक भेजना चाहता है; यह बात सुननेमें आयी है। अतः 
आपलोगोंका कल्याण हो। अब मैं अपने प्राण बचानेकी इच्छासे अपनी राजधानीको चला 
जाऊँगा || ४-५ || 

अथवास्त्रप्रतिबलास्त्रात मां क्षत्रियर्षभा: । 

पार्थेन प्रार्थितं वीरास्ते संदत्त ममाभयम्‌ ।। ६ ।। 

“अथवा क्षत्रियशिरोमणि वीरो! आपलोग अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानमें अर्जुनके समान ही 
शक्तिशाली हैं। उधर अर्जुनने मेरे प्राण लेनेकी प्रतिज्ञा की है। इस अवस्थामें आप मेरी रक्षा 
करें और मुझे अभयदान दें ।। ६ ।। 

द्रोणदुर्योधनकृपा: कर्णमद्रेशबाह्लिका: । 


दुःशासनादय: शक्तास्त्रातुं मामन्तकार्दितम्‌ ।। ७ ।। 

किमड़ पुनरेकेन फाल्गुनेन जिघांसता । 

न त्रायेयुर्भवन्तो मां समस्‍्ता: पतय: क्षिते: ।। ८ ।। 

“ट्रोणाचार्य, दुर्योधन, कृपाचार्य, कर्ण, मद्रराज शल्य, बाह्नीक तथा दुःशासन आदि वीर 
मुझे यमराजके संकटसे भी बचानेमें समर्थ हैं। प्रिय नरेशगण! फिर जब अकेला अर्जुन ही 
मुझे मारनेकी इच्छा रखता है तो उसके हाथसे आप समस्त भूपतिगण मेरी रक्षा क्यों नहीं 
कर सकते हैं ।। ७-८ ।। 

प्रहर्ष पाण्डवेयानां श्रुत्वा मम महद्‌ भयम्‌ | 

सीदन्ति मम गात्राणि मुमूर्षोरिव पार्थिवा: ।। ९ ।। 

“राजाओ! पाण्डवोंका हर्षनाद सुनकर मुझे महान्‌ भय हो रहा है। मरणासन्न मनुष्यकी 
भाँति मेरे सारे अंग शिथिल होते जा रहे हैं ।। ९ ।। 

वधो नूनं॑ प्रतिज्ञातो मम गाण्डीवधन्चना । 

तथा हि हृष्टा: क्रोशन्ति शोककाले सम पाण्डवा: ।। १० ।। 

“निश्चय ही गाण्डीवधारी अर्जुनने मेरे वधकी प्रतिज्ञा कर ली है, तभी शोकके समय भी 
पाण्डव योद्धा बड़े हर्षके साथ गर्जना करते हैं ।। १० ।। 

तन्न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसा: । 

उत्सहन्ते5न्यथाकर्तु कुत एव नराधिपा: ।। ११ ।। 

“उस प्रतिज्ञाको देवता, गन्धर्व, असुर, नाग तथा राक्षस भी पलट नहीं सकते हैं। फिर 
ये नरेश उसे भंग करनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं? ।। ११ ।। 

तस्मान्मामनुजानीत भद्रं वो5स्तु नरर्षभा: । 

अदर्शनं गमिष्यामि न मां द्रक्ष्यन्ति पाण्डवा: ।। १२ ।। 

“अतः नरश्रेष्ठ वीरोी! आपका कल्याण हो। आपलोग मुझे जानेकी आज्ञा दें। मैं अदृश्य 
हो जाऊँगा। पाण्डव मुझे नहीं देख सकेंगे” || १२ ।। 

एवं विलपमानं तं भयाद्‌ व्याकुलचेतसम्‌ । 

आत्मकार्यगरीयस्त्वाद्‌ राजा दुर्योधनो5ब्रवीत्‌ ।। १३ ।। 

भयसे व्याकुलचित्त होकर विलाप करते हुए जयद्रथसे राजा दुर्योधनने अपने कार्यकी 
गुरुताका विचार करके इस प्रकार कहा-- ।। १३ ।। 





न भेतव्यं नरव्याप्र को हि त्वां पुरुषर्षभ । 

मध्ये क्षत्रियवीराणां तिष्ठन्तं प्रार्थयेद्‌ युधि || १४ ।। 

'पुरुषसिंह! नरश्रेष्ठ! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। युद्धस्थलमें इन क्षत्रिय वीरोंके 
बीचमें खड़े रहनेपर कौन तुम्हें मारनेकी इच्छा कर सकता है? ।। १४ ।। 

अहं वैकर्तन: कर्णश्नित्रसेनो विविंशति: । 

भूरिश्रवा: शल: शल्यो वृषसेनो दुरासद: ।। १५ ।। 

पुरुमित्रो जयो भोज: काम्बोजश्च सुदक्षिण: । 

सत्यव्रतो महाबाहुर्विकर्णो दुर्मुखश्च॒ ह ।। १६ ।। 

दुःशासन: सुबाहुश्च कालिज्ञश्चाप्युदायुध: । 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ द्रोणो द्रौणिश्व॒ सौबल: ।। १७ ।। 

एते चान्ये च बहवो नानाजनपदेश्वरा: । 

ससैन्यास्त्वाभियास्यन्ति व्येतु ते मानसो ज्वर: ।। १८ ।। 

“मैं, सूर्यपुत्र कर्ण, चित्रसेन, विविंशति, भूरिश्रवा, शल, शल्य, दुर्धर्ष वीर वृषसेन, 
पुरुमित्र, जय, भोज, काम्बोजराज सुदक्षिण, सत्यव्रत, महाबाहु विकर्ण, दुर्मुख, दुःशासन, 
सुबाहु, अस्त्र-शस्त्रधारी कलिंगराज, अवन्तीके दोनों राजकुमार विन्द और अनुविन्द, द्रोण, 
अश्वत्थामा और शकुनि--ये तथा और भी बहुत-से नरेश जो विभिन्न देशोंके अधिपति हैं, 
अपनी सेनाके साथ तुम्हारी रक्षाके लिये चलेंगे। अतः तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी 
चाहिये || १५--१८ ।। 

त्वं चापि रथिनां श्रेष्ठ: स्वयं शूरोडमितद्युते । 

स कथं पाण्डवेयेभ्यो भयं पश्यसि सैन्धव ।। १९ ।। 


“अमित तेजस्वी सिंधुराज! तुम स्वयं भी तो रथियोंमें श्रेष्ठ शूरवीर हो, फिर पाण्डुके 
पुत्रोंसे अपने लिये भय क्‍यों देख रहे हो? ।। १९ ।। 

अक्षौहिण्यो दशैका च मदीयास्तव रक्षणे । 

यत्ता योत्स्यन्ति मा भैस्त्वं सैन्धव व्येतु ते भयम्‌ ।। २० ।। 

“मेरी “ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ तुम्हारी रक्षाके लिये उद्यत होकर युद्ध करेंगी; अतः 
सिंधुराज! तुम भय मत मानो। तुम्हारा भय निकल जाना चाहिये” || २० ।। 

संजय उवाच 

एवमाश्वासितो राजनू्‌ पुत्रेण तव सैन्धव: । 

दुर्योधनेन सहितो द्रोणं रात्रावुपागमत्‌ ।। २१ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधनके आश्वासन देनेपर जयद्रथ 
उसके साथ रात्रिके समय द्रोणाचार्यके पास गया ।। २१ ।। 

उपसंग्रहणं कृत्वा द्रोणाय स विशाम्पते । 

उपोपविश्य प्रणत: पर्यपृच्छदिदं तदा ।। २२ ।। 

महाराज! उस समय उसने द्रोणाचार्यके चरण छूकर विधिपूर्वक प्रणाम किया और 
पास बैठकर प्रणतभावसे इस प्रकार पूछा-- ।। २२ ।। 

निमित्ते दूरपातित्वे लघुत्वे दृढवेधने । 

मम ब्रवीतु भगवान्‌ विशेष फाल्गुनस्थ च ।। २३ ।। 

“दूरतक बाण चलानेमें, लक्ष्य वेधनेमें, हाथकी फुर्तीमें तथा अचूक निशाना मारनेमें 
मुझमें और अर्जुनमें कितना अन्तर है, यह पूज्य गुरुदेव मुझे बतावें || २३ ।। 

विद्याविशेषमिच्छामि ज्ञातुमाचार्य तत्त्वतः । 

अर्जुनस्यात्मनश्वैव याथातथ्यं॑ प्रचक्ष्य मे । २४ ।। 

“आचार्य! मैं अर्जुकी और अपनी विद्याविषयक विशेषताको ठीक-ठीक जानना 
चाहता हूँ। आप मुझे यथार्थ बात बताइये' || २४ ।। 

द्रोण उदाच 

सममाचार्यकं तात तव चैवार्जुनस्य च । 

योगाद्‌ दुःखोषितत्वाच्च तस्मात्त्वतोडधिको<र्जुन: ॥। २५ ।। 

द्रोणाचार्यने कहा--तात! यद्यपि तुम्हारा और अर्जुनका आचार्यत्व मैंने समानरूपसे 
ही किया है, तथापि सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंकी प्राप्ति एवं अभ्यास और क्लेशसहनकी दृष्टिसे 
अर्जुन तुमसे बढ़े-चढ़े हैं || २५ ।। 

नतुते युधि संत्रास: कार्य: पार्थात्‌ कथठ्चन | 

अहं हि रक्षिता तात भयात्त्वां नात्र संशय: ।। २६ ।। 

न हि मद्वाहुगुप्तस्य प्रभवन्त्यमरा अपि | 


व्यूहयिष्यामि त॑ व्यूहं यं पार्थो न तरिष्यति ।। २७ ।। 

वत्स! तो भी तुम्हें युद्धमें किसी प्रकार भी अर्जुनसे डरना नहीं चाहिये; क्‍योंकि मैं 
उनके भयसे तुम्हारी रक्षा करनेवाला हूँ--इसमें संशय नहीं है। मेरी भुजाएँ जिसकी रक्षा 
करती हों, उसपर देवताओंका भी जोर नहीं चल सकता। मैं ऐसा व्यूह बनाऊँगा, जिसे 
अर्जुन पार नहीं कर सकेंगे || २६-२७ ।। 

तस्माद्‌ युद्ध्यस्व मा भैस्त्वं स्वधर्ममनुपालय । 

पितृपैतामहं मार्गमनुयाहि महारथ || २८ ।। 

इसलिये तुम डरो मत। उत्साहपूर्वक युद्ध करो और अपने क्षत्रिय-धर्मका पालन करो। 
महारथी वीर! अपने बाप-दादोंके मार्गपर चलो || २८ ।। 

अधीत्य विधिवद्‌ वेदानग्नयः सुहुतास्त्वया । 

इष्टं च बहुभिय॑ज्ञिर्न ते मृत्युर्भयडकर: ।। २९ ।। 

तुमने वेदोंका विधिपूर्वक अध्ययन करके भलीभाँति अग्निहोत्र किया है। बहुत-से 
यज्ञोंका अनुष्ठान भी कर लिया है। तुम्हें तो मृत्युका भय करना ही नहीं चाहिये ।। 

दुर्लभं मानुषैर्मन्दैर्महा भाग्यमवाप्य तु । 

भुजवीर्यारजिताॉल्लोकान्‌ दिव्यान्‌ प्राप्स्यस्यनुत्तमान्‌ ।। ३० ।। 

जो मन्दभागी मनुष्योंके लिये दुर्लभ है, रणक्षेत्रमें मृत्युरूप उस परम सौभाग्यको पाकर 
तुम अपने बाहुबलसे जीते हुए परम उत्तम दिव्य लोकोंमें पहुँच जाओगे ।। ३० ।। 

कुरव: पाण्डवाश्वैव वृष्णयोडन्ये च मानवा: । 

अहं च सह पुत्रेण अश्चुवा इति चिन्त्यताम्‌ ।। ३१ ।। 

कौरव-पाण्डव, वृष्णिवंशी योद्धा, अन्य मनुष्य तथा पुत्रसहित मैं--ये सभी अस्थिर 
(नाशवान) हैं--ऐसा चिन्तन करो ।। ३१ ।। 

पययिण वयं सर्वे कालेन बलिना हता: । 

परलोकं गमिष्याम: स्वैः स्वै: कर्मभिरन्विता: ।। ३२ ।। 

बारी-बारीसे हम सभी लोग बलवान्‌ कालके हाथों मारे जाकर अपने-अपने शुभाशुभ 
कर्मोके साथ परलोकमें चले जायँगे || ३२ ।। 

तपस्तप्त्वा तु यॉल्लोकान प्राप्तुवन्ति तपस्विन: । 

क्षत्रधर्मश्रिता वीरा: क्षत्रिया: प्राप्तुवन्ति तान्‌ ।। ३३ |। 

तपस्वीलोग तपस्या करके जिन लोकोंको पाते हैं, क्षत्रिय-धर्मका आश्रय लेनेवाले वीर 
क्षत्रिय उन्हें अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं ।। ३३ ।। 

एवमाश्वासितो राजा भारद्वाजेन सैन्धव: । 

अपानुदद्‌ भयं पार्थाद्‌ युद्धाय च मनो दधे ॥। ३४ ।। 

द्रोणाचार्यके इस प्रकार आश्वासन देनेपर राजा जयद्रथने अर्जुनका भय छोड़ दिया 
और युद्ध करनेका विचार किया ।। ३४ ।। 


ततः प्रहर्ष: सैन्यानां तवाप्यासीद्‌ विशाम्पते । 
वादित्राणां ध्वनिश्षोग्र: सिंहनादरवै: सह ।। ३५ ।। 
महाराज! तदनन्तर आपकी सेनामें भी हर्षध्वनि होने लगी, सिंहनादके साथ-साथ 
रणवाद्योंकी भयंकर ध्वनि गूँज उठी ।। ३५ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि जयद्रथाश्वासे चतु:ःसप्ततितमो< ध्याय: 
॥॥ ७४ |। 


इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापवमें जयद्रथको आश्वासनविषयक 
चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७४ ॥ 


ऑपनआक्राा छा अ-क्ाञ 


> यद्यपि अब दुर्योधनके पास पूरी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ नहीं रह गयी थीं; तथापि ग्यारह भागोंमें विभक्त उन 
सेनाओंमेंसे जो लोग शेष बचे थे, उन्हींको लेकर यहाँ “ग्यारह अक्षौहिणी” का उल्लेख किया गया है। 


पञ्चसप्ततितमोब ध्याय: 


श्रीकृष्णका अर्जुनको कौरवोंके जयद्रथकी रक्षाविषयक 
उद्योगका समाचार बताना 


संजय उवाच 

प्रतिज्ञाते तु पार्थेन सिन्धुराजवधे तदा । 

वासुदेवो महाबाहुर्धन॑ंजयमभाषत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जब अर्जुनने सिंधुराज जयद्रथके वधकी प्रतिज्ञा कर ली, 
उस समय महाबाहु भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा-- ।। १ ।। 

भ्रातृणां मतमज्ञाय त्वया वाचा प्रतिश्रुतम्‌ । 

सैन्धवं चास्मि हन्तेति तत्साहसमिदं कृतम्‌ ।। २ ।। 

“धनंजय! तुमने अपने भाइयोंका मत जाने बिना ही जो वाणीद्वारा यह प्रतिज्ञा कर ली 
कि मैं सिंधुराज जयद्रथको मार डालूगा, यह तुमने दुःसाहसपूर्ण कार्य किया है ।। २ ।। 

असम्मन्त्रय मया सार्धमतिभारो<यमुद्यत: । 

कथं तु सर्वलोकस्य नावहास्या भवेमहि ।॥। ३ ।। 

“मेरे साथ सलाह किये बिना ही तुमने यह बड़ा भारी भार उठा लिया। ऐसी दशामें हम 
सम्पूर्ण लोकोंके उपहासपात्र कैसे नहीं बनेंगे? ।। ३ ।। 

धार्तराष्ट्रस्य शिबिरे मया प्रणिहिताश्षरा: । 

त इमे शीघ्रमागम्य प्रवृत्ति वेदयन्ति नः ।। ४ ।। 

“मैंने दुर्योधनके शिविरमें अपने गुप्तचर भेजे थे। वे शीघ्र ही वहाँसे लौटकर अभी-अभी 
वहाँका समाचार मुझे बता गये हैं ।। ४ ।। 

त्वया वै सम्प्रतिज्ञाते सिन्धुराजवधे प्रभो । 

सिंहनाद: सवादित्र: सुमहानिह तै: श्रुतः ।। ५ ।। 

“शक्तिशाली अर्जुन! जब तुमने सिंधुराजके वधकी प्रतिज्ञा की थी, उस समय यहाँ 
रणवाद्योंके साथ-साथ महान्‌ सिंहनाद किया गया था, जिसे कौरवोंने सुना था || ५ ।। 

तेन शब्देन वित्रस्ता धार्तराष्ट्रा: ससैन्धवा: । 

नाकस्मात्‌ सिंहनादो5यमिति मत्वा व्यवस्थिता: ।। ६ ।। 

“उस शब्दसे जयद्रथसहित सभी धूृतराष्ट्रपुत्र संत्रस्त हो उठे। वे यह सोचकर कि यह 
सिंहनाद अकारण नहीं हुआ है, सावधान हो गये ।। ६ ।। 

सुमहान्‌ शब्दसम्पात: कौरवाणां महाभुज । 

आसीज्नागाश्रपत्तीनां रथघोषश्ष भैरव: ।। ७ ।। 


“महाबाहो! फिर तो कौरवोंके दलमें भी बड़े जोरका कोलाहल मच गया। हाथी, घोड़े, 
पैदल तथा रथ-सेनाओंका भयंकर घोष सब ओर गूँजने लगा ।। ७ ।। 

अभिमन्योर्व॑धं श्रुत्वा ध्रुवमार्तों धनंजय: । 

रात्रौ निर्यास्यति क्रोधादिति मत्वा व्यवस्थिता: ।। ८ ।। 

“वे यह समझकर युद्धके लिये उद्यत हो गये कि अभिमन्युके वधका वृत्तान्त सुनकर 
अर्जुनको अवश्य ही महान्‌ कष्ट हुआ होगा; अतः वे क्रोध करके रातमें ही युद्धके लिये 
निकल पड़ेंगे ।। ८ ।। 

तैर्यतद्धिरियं सत्या श्रुता सत्यवतस्तव । 

प्रतिज्ञा सिन्धुराजस्य वधे राजीवलोचन ।। ९ ।। 

“कमलनयन! युद्धके लिये तैयार होते-होते उन कौरवोंने सदा सत्य बोलनेवाले तुम्हारी 
जयद्रथ-वधविषयक वह सच्ची प्रतिज्ञा सुनी || ९ ।। 

ततो विमनस: सर्वे त्रस्ता: क्षुद्रमृगा इव । 

आसन्‌ सुयोधनामात्या: स च राजा जयद्रथ: ।। १० ।। 

'फिर तो दुर्योधनके मन्त्री और स्वयं राजा जयद्रथ--से सब-के-सब (सिंहसे डरे हुए) 
क्षुद्र मुगोंके समान भयभीत और उदास हो गये ।। १० ।। 

अथोत्थाय सहामात्यैर्दीन: शिबिरमात्मन: । 

आयात्‌ सौवीरसिन्धूनामी श्वरो भूशदु:खित: ।। ११ ।। 

“तदनन्तर सिंधुसौवीरदेशका स्वामी जयद्रथ अत्यन्त दुःखी और दीन हो मन्त्रियोंसहित 
उठकर अपने शिविरमें आया ।। ११ ।। 

स मन्त्रकाले सम्मन्त्रय सर्वा नैःश्रेयसीं क्रियाम्‌ | 

सुयोधनमिदं वाक्यमब्रवीद्‌ राजसंसदि ।। १२ |। 

“उसने मन्त्रणाके समय अपने लिये श्रेयस्कर सिद्ध होनेवाले समस्त कार्योके सम्बन्धमें 
मन्त्रियोंसे परामर्श करके राजसभामें आकर दुर्योधनसे इस प्रकार कहा-- ।। १२ ।। 

मामसौ पुत्रहन्तेति श्वोडईभियाता धनंजय: । 

प्रतिज्ञातो हि सेनाया मध्ये तेन वधो मम ।। १३ ।। 

“राजन! मुझे अपने पुत्रका घातक समझकर अर्जुन कल सबेरे मुझपर आक्रमण 
करनेवाला है; क्योंकि उसने अपनी सेनाके बीचमें मेरे वधकी प्रतिज्ञा की है ।। १३ ।। 

तां न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसा: । 

उत्सहन्तेडन्यथा कर्तु प्रतिज्ञां सव्यसाचिन: ।। १४ ।। 

'सव्यसाची अर्जुनकी उस प्रतिज्ञाको देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षस भी 
अन्यथा नहीं कर सकते ।। १४ ।। 

ते मां रक्षत संग्रामे मा वो मूर्ध्नि धनंजय: । 

पदं कृत्वा55प्रुयाल्लक्ष्यं तस्मादत्र विधीयताम्‌ ।। १५ ।। 


“अतः आपलोग संग्राममें मेरी रक्षा करें। कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन आपलोगोंके 
सिरपर पैर रखकर अपने लक्ष्यतक पहुँच जाय; अत: इसके लिये आप आवश्यक व्यवस्था 
करें ।। १५ ।। 

अथ रक्षा न मे संख्ये क्रियते कुरुनन्दन । 

अनुजानीहि मां राजन्‌ गमिष्यामि गृहान्‌ प्रति | १६ ।। 

“कुरुनन्दन! यदि आप युद्धमें मेरी रक्षा न कर सकें तो मुझे आज्ञा दें; राजन! मैं अपने 
घर चला जाऊँगा ।। १६ |। 

एवमुक्तस्त्ववाक्‌ृशीर्षो विमना: स सुयोधन: । 

श्रुत्वा तं समय॑ तस्य ध्यानमेवान्वपद्यत ।। १७ ।। 

“जयद्रथके ऐसा कहनेपर दुर्योधन अपना सिर नीचे किये मन-ही-मन बहुत दुःखी हो 
गया और तुम्हारी उस प्रतिज्ञाको सुनकर उसे बड़ी भारी चिन्ता हो गयी ।। १७ ।। 

तमार्तमभिसंप्रेक्ष्य राजा किल स सैन्धव: । 

मृदु चात्महितं चैव साक्षेपमिदमुक्तवान्‌ ।। १८ ।। 

“दुर्योधनको उद्विग्नचित्त देखकर सिन्धुराज जयद्रथने व्यंग्य करते हुए कोमल वाणीमें 
अपने हितकी बात इस प्रकार कही-- ।। १८ ।। 

नेह पश्यामि भवतां तथावीर्य धनुर्धरम्‌ । 

योअर्जुनस्यास्त्रमस्त्रेण प्रतिहन्यान्महाहवे ।। १९ ।। 

“राजन! आपकी सेनामें किसी भी ऐसे पराक्रमी धनुर्धरको नहीं देखता, जो उस 
महायुद्धमें अपने अस्त्रद्वारा अर्जुनके अस्त्रका निवारण कर सके ।। १९ |। 

वासुदेवसहायस्य गाण्डीवं धुन्वतो धनु: । 

कोडर्जुनस्थाग्रतस्तिछेत्‌ साक्षादपि शतक्रतु: ।। २० ।। 

'श्रीकृष्णके साथ आकर गाण्डीव धनुषका संचालन करते हुए अर्जुनके सामने कौन 
खड़ा हो सकता है? साक्षात्‌ इन्द्र भी तो उसका सामना नहीं कर सकते ।। २० ।। 

महेश्वरो5पि पार्थेन श्रूयते योधित: पुरा । 

पदातिना महावीर्यों गिरौ हिमवति प्रभु: ।। २१ ।। 

“मैंने सुना है कि पूर्वकालमें हिमालयपर्वतपर पैदल अर्जुनने महापराक्रमी भगवान्‌ 
महेश्वरके साथ भी युद्ध किया था || २१ ।। 

दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम्‌ | 

जघानैकरथेनैव देवराजप्रचोदित: ।॥ २२ ।। 

“देवराज इन्द्रकी आज्ञा पाकर उसने एकमात्र रथकी सहायतासे हिरण्यपुरवासी सहस्रों 
दानवोंका संहार कर डाला था || २२ ।। 

समायुक्तो हि कौन्तेयो वासुदेवेन धीमता । 

सामरानपि लोकांस्त्रीन्‌ हन्यादिति मतिर्मम || २३ ।। 


“मेरा तो ऐसा विश्वास है कि परम बुद्धिमान्‌ वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके साथ रहकर 
कुन्तीकुमार अर्जुन देवताओंसहित तीनों लोकोंको नष्ट कर सकता है ।। २३ ।। 

सो5हमिच्छाम्यनुज्ञातं रक्षितुं वा महात्मना । 

द्रोणेन सहपुत्रेण वीरेण यदि मन्यसे ।। २४ ।। 

“इसलिये मैं यहाँसे चले जानेकी अनुमति चाहता हूँ। अथवा यदि आप ठीक समझें तो 
पुत्रसहित वीर महामना द्रोणाचार्यके द्वारा मैं अपनी रक्षाका आश्वासन चाहता हूँ” ।। २४ ।। 

स राज्ञा स्वयमाचार्यो भृशमत्रार्थितो<र्जुन । 

संविधान च विहित॑ं रथाश्च॒ किल सज्जिता: ।। २५ ।। 

“अर्जुन! तब राजा दुर्योधनने स्वयं ही आचार्य द्रोणसे जयद्रथकी रक्षाके लिये बड़ी 
प्रार्थना की है। अतः उसकी रक्षाका पूरा प्रबन्ध कर लिया गया है तथा रथ भी सजा दिये 
गये हैं || २५ ।। 

कर्णो भूरिश्रवा द्रौणिर्वषसेनश्व दुर्जय: । 

कृपश्च मद्रराजश्न षडेते5स्य पुरोगमा: || २६ ।। 

“कलके युद्धमें कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, दुर्जय वीर वृषसेन, कृपाचार्य और मद्रराज 
शल्य--ये छः महारथी उसके आगे रहेंगे” || २६ ।। 

शकट: पद्मकश्चार्धो व्यूहो द्रोणेन निर्मित: । 

पद्मकर्णिकमध्यस्थ: सूचीपाश्चे जयद्रथ: ।। २७ ।। 

स्थास्यते रक्षितो वीरै: सिंधुराट्‌ स सुदुर्मद: । 

“ट्रोणाचार्यने ऐसा व्यूह बनाया है, जिसका अगला आधा भाग शकटके आकारका है 
और पिछला कमलके समान। कमलव्यूहके मध्यकी कर्णिकाके बीच सूचीव्यूहके पार्श्व 
भागमें युद्धदुर्मद सिन्धुराज जयद्रथ खड़ा होगा और अन्यान्य वीर उसकी रक्षा करते 
रहेंगे | २७६ ।|। 

धनुष्यस्त्रे च वीर्ये च प्राणे चैव तथौरसे ।। २८ ।। 

अविषद्वुतमा होते निश्चिता: पार्थ षड्‌ रथा: । 

एतानजित्वा षड्‌ रथान्‌ नैव प्राप्यो जयद्रथ: ।। २९ ।। 

'पार्थ! ये पूर्व निश्चित छः महारथी धनुष, बाण, पराक्रम, प्राणशक्ति तथा मनोबलमें 
अत्यन्त असहा माने गये हैं। इन छः महारथियोंको जीते बिना जयद्रथको प्राप्त करना 
असम्भव है || २८-२९ || 

तेषामेकैकशो वीर्य षण्णां त्वमनुचिन्तय । 

सहिता हि नरव्यापत्र न शक्‍्या जेतुमज्जसा ।। ३० ।। 

'पुरुषसिंह! पहले तुम इन छ: महारथियोंमें एक-एकके बल-पराक्रमका विचार करो। 
फिर जब ये छ: एक साथ होंगे, उस समय इन्हें सुगमतासे नहीं जीता जा सकता || ३० ।। 

भूयस्तु मन्त्रयिष्यामि नीतिमात्महिताय वै । 


मन्त्रज्जै: सचिवै: सार्ध सुहृद्धि: कार्यसिद्धये ।। ३१ ।। 
“अब मैं पुनः अपने हितका ध्यान रखते हुए कार्यकी सिद्धिके लिये मन्त्रज्ञ मन्त्रियों 
और हितैषी सुहृदोंके साथ सलाह करूँगा” ।। ३१ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये पजचसप्ततितमो< ध्याय: 
॥| ७५ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक पचहत्तरवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७५ ॥ 


अपना बछ। ] अतणऑशा: 


षट्सप्ततितमो<ध्याय: 
अर्जुनके वीरोचित वचन 


अजुन उवाच 
षड्‌ रथान्‌ धार्तराष्ट्रस्य मन्यसे यान्‌ बलाधिकान्‌ | 
तेषां वीर्य ममार्थेन न तुल्यमिति मे मति: ।। १ ।। 
अस्त्रमस्त्रेण सर्वेषामेतेषां मधुसूदन । 
मया द्रक्ष्यसि निर्भिन्नं जयद्रथवधैषिणा ।। २ ।। 
अर्जुन बोले--मधुसूदन! दुर्योधनके जिन छः महारथियोंको आप बलमें अधिक मानते 
हैं, उनका पराक्रम मेरे आधेके बराबर भी नहीं है, ऐसा मेरा विश्वास है। जयद्रथके वधकी 
इच्छासे मेरे युद्ध करते समय आप देखेंगे कि मैंने इन सबके अस्त्रोंको अपने अस्त्रसे काट 
गिराया है ।। 
द्रोणस्य मिषतश्चाहं सगणस्य विलप्यत: । 
मूर्धानं सिन्धुराजस्य पातयिष्यामि भूतले ।। ३ ।। 
मैं द्रोणाचार्यके देखते-देखते अपने सैनिकोंसहित विलाप करते हुए सिन्धुराज 
जयद्रथका मस्तक पृथ्वीपर गिरा दूँगा ।। ३ ।। 
यदि साध्याश्र रुद्राक्ष वसवश्च सहाश्चिन: । 
मरुतश्न सहेन्द्रेण विश्वेदेवा: सहेश्वरा: ।। ४ ।। 
पितर: सहगन्धर्वा: सुपर्णा: सागराद्रय: । 
द्यौर्वियत्‌ पृथिवी चेयं दिशश्व॒ सदिगीश्वरा: ॥ ५ ।। 
ग्रामारण्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च । 
त्रातार: सिन्धुराजस्य भवन्ति मधुसूदन ।। ६ ।। 
तथापि बाणैनिहितं श्वो द्रष्टासि रणे मया । 
सत्येन च शपे कृष्ण तथैवायुधमालभे ।। ७ ।। 
मधुसूदन श्रीकृष्ण! यदि साध्य, रुद्र, वसु, अश्विनीकुमार, इन्द्रसहित मरुद्गण, 
विश्वेदेव, देवेश्वरगण, पितर, गन्धर्व, गरुड़, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग, आकाश, यह पृथ्वी, दिशाएँ, 
दिक्पाल, गाँवों तथा जंगलोंमें निवास करनेवाले प्राणी और सम्पूर्ण चराचर जीव भी 
सिन्धुराज जयद्रथकी रक्षाके लिये उद्यत हो जायेँ तो भी मैं सत्यकी शपथ खाकर और 
अपना धनुष छूकर कहता हूँ कि कल युद्धमें आप मेरे बाणोंद्वारा जयद्रथको मारा गया 
देखेंगे || ४--७ ।। 
यस्तु गोप्ता महेष्वासस्तस्य पापस्य दुर्मते: । 
तमेव प्रथमं द्रोणमभियास्यामि केशव ।। ८ ।। 


केशव! उस दुर्बुद्धि पापी जयद्रथकी रक्षाका बीड़ा उठाये हुए जो महाधनुर्धर आचार्य 
द्रोण हैं, पहले उन्हींपर आक्रमण करूँगा ।। ८ ।। 

तस्मिन्‌ द्यूतमिदं बद्धं मन्यते स सुयोधन: । 

तस्मात्‌ तस्यैव सेनाग्रं भित्त्वा यास्यामि सैन्धवम्‌ ।। ९ |। 

दुर्योधन आचार्यपर ही इस युद्धरूपी द्यूतको आबद्ध (अवलम्बित) मानता है; अतः 
उसीकी सेनाके अग्रभागका भेदन करके मैं सिन्धुराजके पास जाऊँगा ।। ९ |। 

द्रशसि श्वो महेष्वासान्‌ नाराचैस्तिग्मतेजितै: । 

शृज्भराणीव गिरेव॑जैर्दार्यमाणान्‌ मया युधि ।। १० ।। 

जैसे इन्द्र अपने वद्धद्वारा पर्वतोंके शिखरोंको विदीर्ण कर देते हैं, उसी प्रकार कल 
युद्धमें मैं अच्छी तरह तेज किये हुए नाराचोंद्वारा बड़े-बड़े धनुर्धरोंको चीर डालूँगा; यह आप 
देखेंगे || १० ।। 

नरनागाश्चदेहेभ्यो विस्नरविष्पति शोणितम्‌ । 

पतदृभ्य: पतितेभ्यश्व विभिन्नेभ्य: शितै: शरै: ।। ११ ।। 

मेरे तीखे बाणोंद्वारा विदीर्ण होकर गिरते और गिरे हुए मनुष्य, हाथी और घोड़ोंके 
शरीरोंसे खूनकी धारा बह चलेगी ।। ११ ।। 

गाण्डीवप्रेषिता बाणा मनोडनिलसमा जवे । 

ननागाश्चवान्‌ विदेहासून्‌ कर्तरिश्न सहस्रश: ।। १२ ।। 

गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाण मन और वायुके समान वेगशाली होते हैं। वे शत्रुओंके 
सहस्रों हाथी-घोड़े और मनुष्योंको शरीर और प्राणोंसे शून्य कर देंगे ।। १२ ।। 

यमात्‌ कुबेरादू वरुणादिन्द्राद्‌ रुद्राच्व यन्मया | 

उपात्तमस्त्रं घोरं तद्‌ द्रष्टारोडत्र नरा युधि ।। १३ ।। 

यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा रुद्रसे मैंने जो भयंकर अस्त्र प्राप्त किये हैं, उन्हें कलके 
युद्धमें सब लोग देखेंगे || १३ ।। 

ब्राह्मेणास्त्रेण चास्त्राणि हन्यमानानि संयुगे | 

मया द्रष्टासि सर्वेषां सैन्धवस्याभिरक्षिणाम्‌ ।। १४ ।। 

जयद्रथके समस्त रक्षकोंद्वारा छोड़े हुए अस्त्रोंको मैं युद्धमें ब्रह्मास्त्रद्वारा काट डालूँगा, 
यह आप देखेंगे ।। १४ ।। 

शरवेगसमुत्कृत्तै राज्ञां केशव मूर्थभि: । 

आस्तीर्यमाणां पृथिवीं द्रष्टासि श्वो मया युधि ।। १५ ।। 

केशव! कलके युद्धमें आप देखेंगे कि इस पृथ्वीपर मेरे बाणोंके वेगसे कटे हुए 
राजाओंके मस्तक बिछ गये हैं || १५ ।। 

क्रव्यादांस्तर्पयिष्यामि द्रावयिष्यामि शात्रवान्‌ । 

सुहृदो नन्दयिष्यामि प्रमथिष्यामि सैन्धवम्‌ ।। १६ ।। 


कल मैं मांसभोजी प्राणियोंको तृप्त कर दूँगा, शत्रु-सैनिकोंको मार भगाऊँगा, सुहृदोंको 
आनन्द प्रदान करूँगा और सिन्धुराज जयद्रथको मथ डालूँगा ।। १६ ।। 

बह्दागस्कृत्‌ कुसम्बन्धी पापदेशसमुद्धव: । 

मया सैन्धवको राजा हतः स्वान्‌ शोचयिष्यति ।। १७ ।। 

सिन्धुराज जयद्रथ पापपूर्ण प्रदेशमें उत्पन्न हुआ है। उसने बहुत-से अपराध किये हैं। 

वह एक दुष्ट सम्बन्धी है। अतः कल मेरे द्वारा मारा जाकर अपने सुजनोंको शोकमें निमग्न 
कर देगा ।। १७ ।। 

सर्वक्षीरान्नभोक्तारं पापाचारं रणाजिरे | 

मया सराजकं बाणैभिन्न द्रक्ष्यसि सैन्धवम्‌ ।। १८ ।। 

सदा सब प्रकारसे दूध-भात खानेवाले पापाचारी जयद्रथको रणांगणमें आप 
राजाओंसहित मेरे बाणोंद्वारा विदीर्ण हुआ देखेंगे || १८ ।। 

तथा प्रभाते कर्तास्मि यथा कृष्ण सुयोधन: । 

नान्यं धनुर्थरं लोके मंस्यते मत्समं युधि ।। १९ ।। 

श्रीकृष्ण! मैं कल सबेरे ऐसा युद्ध करूँगा, जिससे दुर्योधन रणक्षेत्रके भीतर संसारके 
दूसरे किसी धनुर्धरको मेरे समान नहीं मानेगा ।। १९ ।। 

गाण्डीवं च धर्नुर्दिव्यं योद्धा चाहं नरर्षभ । 

त्वंच यन्ता हृषीकेश कि नु स्यथादजितं मया ।। २० ।। 

नरश्रेष्ठ हृषीकेश! जहाँ गाण्डीव-जैसा दिव्य धनुष है, मैं योद्धा हूँ और आप सारथि हैं, 
वहाँ मैं किसको नहीं जीत सकता? ।। २० ।। 

तव प्रसादाद्‌ भगवन्‌ किमिवास्ति रणे मम । 

अविषहां हृषीकेश कि जानन्‌ मां विगर्हसे ॥। २१ ।। 

भगवन्‌! आपकी कृपासे इस युद्धस्थलमें कौन-सी ऐसी शक्ति है, जो मेरे लिये असहा 
हो। हृषीकेश! आप यह जानते हुए भी क्‍यों मेरी निन्‍्दा करते हैं? | २१ ।। 

यथा लक्ष्म स्थिरं चन्द्रे समुद्रे च यथा जलम्‌ । 

एवमेतां प्रतिज्ञां मे सत्यां विद्धि जनार्दन ।। २२ ।। 

जनार्दन! जैसे चन्द्रमामें काला चिह्न स्थिर है, जैसे समुद्रमें जलकी सत्ता सुनिश्चित है, 
उसी प्रकार आप मेरी इस प्रतिज्ञाको भी सत्य समझें ।। २२ ।। 

मावमंस्था ममास्त्राणि मावमंस्था भनुर्दढम्‌ | 

मावमंस्था बल बाद्वोर्मावमंस्था धनंजयम्‌ ॥। २३ ।। 

प्रभो! आप मेरे अस्त्रोंका अनादर न करें। मेरे इस सुदृढ़ धनुषकी अवहेलना न करें। इन 
दोनों भुजाओंके बलका तिरस्कार न करें और अपने इस सखा धनंजयका अपमान न 
करें ।। २३ ।। 

तथाभियामि संग्रामं न जीयेयं जयामि च । 


तेन सत्येन संग्रामे हतं विद्धि जयद्रथम्‌ ।। २४ ।। 

मैं संग्राममें इस प्रकार चलूँगा, जिससे कोई मुझे जीत न सके, वरं मैं ही विजयी होऊँ। 
इस सत्यके प्रभावसे आप रणक्षेत्रमें जयद्रथको मारा गया ही समझें ।। 

ध्रुवं वै ब्राह्मणे सत्यं ध्रुवा साधुषु संनति: । 

श्रीर्धुवापि च यज्ञेषु ध्रुवो नारायणे जय: ।। २५ ।। 

जैसे ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मणमें सत्य, साधुपुरुषोंमें नम्रता और यज्ञोंमें लक्ष्मीका होना ध्रुव सत्य 
है, उसी प्रकार जहाँ आप नारायण विद्यमान हैं, वहाँ विजय भी अटल है || २५ ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्‍क्त्वा हृषीकेशं स्वयमात्मानमात्मना | 

संदिदेशार्जुनो नर्दन्‌ वासवि: केशवं प्रभुम्‌ ।। २६ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इन्द्रकुमार अर्जुनने गर्जना करते हुए इस प्रकार उपर्युक्त 
बातें कहकर सम्पूर्ण इन्द्रियोंक नियनन्‍्ता तथा सब कुछ करनेमें समर्थ अपने आत्मस्वरूप 
भगवान्‌ श्रीकृष्णको स्वयं ही मनसे सोचकर इस प्रकार आदेश दिया-- ।। २६ ।। 

यथा प्रभातां रजनीं कल्पित: स्याद्‌ रथो मम | 

तथा कार्य त्वया कृष्ण कार्य हि महदुद्यतम्‌ ।। २७ ।। 

“श्रीकृष्ण! आप ऐसा प्रबन्ध कर लें कि कल सबेरा होते ही मेरा रथ तैयार हो जाय; 
क्योंकि हमलोगोंपर महान्‌ कार्यभार आ पड़ा है” || २७ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वण्यर्जुनवाक्ये घट्सप्ततितमो5ध्याय: ।। ७६ 
|| 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अरजुनवाक्यविषयक छिद्वत्तरवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ७६ ॥ 


अपना बछ। | अफ---रू- >> 


सप्तसप्ततितमो<ध्याय: 


नाना प्रकारके अशुभसूचक उत्पात, कौरव-सेनामें भय 
और श्रीकृष्णका अपनी बहिन सुभद्राको आश्वासन देना 


संजय उवाच 

तां निशां दुःखशोकार्तो नि:श्वसन्ताविवोरगौ । 

निद्रां नैवोपलेभाते वासुदेवधनंजयौ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! दुःख और शोकसे पीड़ित हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन सर्पोंके 
समान लंबी साँस खींच रहे थे। उन दोनोंको उस रातमें नींद नहीं आयी ।। १ ।। 

नरनारायणोौ क्रुद्धौ ज्ञात्वा देवा: सवासवा: । 

व्यथिताश्रिन्तयामासु: किंस्विदेतद्‌ भविष्यति ।। २ ।। 

नर और नारायणको कुपित जान इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता व्यथित हो चिन्ता करने 
लगे; यह क्या होनेवाला है? ।। २ ।। 

ववुश्व॒ दारुणा वाता रूक्षा घोराभिशंसिन: । 

सकबन्धस्तथा<5<दित्ये परिधि: समदृश्यत ।। ३ ।। 

रूक्ष, भयसूचक एवं दारुण वायु बहने लगी। (दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर) सूर्यमण्डलमें 
कबन्धयुक्त घेरा देखा गया ।। ३ ।। 

शुष्काशन्यश्न निष्पेतु: सनिर्घाता: सविद्युत: । 

चचाल चापि पृथिवी सशैलवनकानना ।। ४ ।। 

बिना वर्षके ही वज्र गिरने लगे। आकाशमें बिजलीकी चमकके साथ भयंकर गर्जना 
होने लगी। पर्वत, वन और काननोंसहित पृथ्वी काँपने लगी ।। ४ ।। 

चुक्षुभुश्न महाराज सागरा मकरालया: । 

प्रतिस्त्रोत: प्रवृत्ताश्न॒ तथा गन्तुं समुद्रगा: ।। ५ ।। 

महाराज! ग्राहोंके निवासस्थान समुद्रोंमें ज्वार आ गया। समुद्रगामिनी नदियाँ उलटी 
धारामें बहकर अपने उद्गमकी ओर जाने लगीं ।। ५ ।। 

रथाश्वनरनागानां प्रवृत्तमधरोत्तरम्‌ । 

क्रव्यादानां प्रमोदार्थ यमराष्ट्रविवृद्धये ।। ६ ।। 

मांसभक्षी प्राणियोंके आनन्द और यमराजके राज्यकी वृद्धिके लिये रथ, घोड़े, मनुष्य 
और हाथियोंके नीचे-ऊपरके ओषछ्ठ फड़कने लगे ।। ६ ।। 

वाहनानि शकुृम्मूत्रे मुमुचू रुरुदुश्न ह । 

तान्‌ दृष्टवा दारुणान्‌ सर्वनुत्पाताँललोमहर्षणान्‌ ।। ७ ।। 


सर्वे ते व्यथिता: सैन्यास्त्वदीया भरतर्षभ । 

श्रुत्वा महाबलस्योग्रां प्रतिज्ञां सव्यसाचिन: ।। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ! हाथी, घोड़े आदि वाहन मल-मूत्र करने और रोने लगे। उन सब भयंकर एवं 
रोमांचकारी उत्पातोंको देखकर और महाबली सव्यसाची अर्जुनकी उस भयंकर प्रतिज्ञाको 
सुनकर आपके सभी सैनिक व्यथित हो उठे ।। ७-८ ।। 

अथ कृष्णं महाबाहुरब्रवीत्‌ पाकशासनि: । 

आश्वासय सुभद्रां त्वं भगिनीं स्नुषया सह ।। ९ ।। 

स्‍्नुषां चास्या वयस्याश्व विशोका: कुरु माधव । 

साम्ना सत्येन युक्तेन वचसा55श्वासय प्रभो || १० ।। 

इधर इन्द्रकुमार महाबाहु अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा--“माधव! आप पुत्रवधू 
उत्तरासहित अपनी बहिन सुभद्राको धीरज बँधाइये। उत्तरा और उसकी सखियोंका शोक 
दूर कीजिये। प्रभो! शान्तिपूर्ण, सत्य और युक्तियुक्त वचनोंद्वारा इन सबको आश्वासन 
दीजिये” ।। ९-१० ।। 

ततोडर्जुनगृहं गत्वा वासुदेव: सुदुर्मना: । 

भगिनीं पुत्रशोकार्तामाश्वचासयत दुःखिताम्‌ ।। ११ ।। 

तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण अत्यन्त उदास मनसे अर्जुनके शिविरमें गये और पुत्रशोकसे 
पीड़ित हुई अपनी दुखिया बहिनको आश्वासन देने लगे ।। ११ ।। 


वायुदेव उवाच 


मा शोकं कुरु वार्ष्णेयि कुमारं प्रति सस्नुषा । 

सर्वेषां प्राणिनां भीरु निष्ैषा कालनिर्मिता ।। १२ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--वृष्णिनन्दिनी! तुम और पुत्रवधू उत्तरा कुमार अभिमन्युके 
लिये शोक न करो। भीरु! काल एक दिन सभी प्राणियोंकी ऐसी ही अवस्था कर देता 
है ।। १२ ।। 


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कुले जातस्य धीरस्य क्षत्रियस्य विशेषत: । 

सदृशं मरणं होतत्‌ तव पुत्रस्य मा शुच: ।। १३ ।। 

तुम्हारा पुत्र उत्तम कुलमें उत्पन्न धीर-वीर और विशेषत: क्षत्रिय था। यह मृत्यु उसके 
योग्य ही हुई है; इसलिये शोक न करो ।। १३ ।। 

दिष्ट्या महारथो धीर: पितुस्तुल्यपराक्रम: । 

क्षात्रेण विधिना प्राप्तो वीराभिलषितां गतिम्‌ ।। १४ ।। 

यह सौभाग्यकी बात है कि पिताके तुल्य पराक्रमी धीर महारथी अभिमन्यु क्षत्रियोचित 
कर्तव्यका पालन करके उस उत्तम गतिको प्राप्त हुआ है, जिसकी वीर पुरुष अभिलाषा 
करते हैं ।। १४ ।। 

जित्वा सुबहुश: शत्रून्‌ प्रेषयित्वा च मृत्यवे । 

गत: पुण्यकृतां लोकान्‌ सर्वकामदुहो$क्षयान्‌ ।। १५ ।। 

वह बहुत-से शत्रुओंको जीतकर और बहुतोंको मृत्युके लोकमें भेजकर पुण्यात्माओंको 
प्राप्त होनेवाले उन अक्षय लोकोंमें गया है, जो सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले 
हैं ।। १५ ।। 

तपसा ब्रह्मचर्येण श्रुतेन प्रज्ञयापि च । 


सन्‍्तो यां गतिमिच्छन्ति तां प्राप्तस्तव पुत्रक: ।। १६ ।। 

तपस्या, ब्रह्मचर्य, शास्त्रज्ञान और सदबुद्धिके द्वारा साधुपुरुष जिस गतिको पाना चाहते 
हैं, वही गति तुम्हारे पुत्रको भी प्राप्त हुई है ।। १६ ।। 

वीरसूर्वीरपत्नी त्वं वीरजा वीरबान्धवा । 

मा शुचस्तनयं भद्रे गत: स परमां गतिम्‌ । १७ ।। 

सुभद्रे! तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या और वीर भाइयोंकी बहिन हो। तुम पुत्रके 
लिये शोक न करो। वह उत्तम गतिको प्राप्त हुआ है ।। १७ ।। 

प्राप्स्यते चाप्पसौ पाप: सैन्धवो बालघातक: । 

अस्यावलेपस्य फलं ससुहृद्गणबान्धव: ।। १८ ।। 

व्युष्टायां तु वरारोहे रजन्यां पापकर्मकृत्‌ । 

न हि मोक्ष्यति पार्थात्‌ स प्रविष्टो5प्पमरावतीम्‌ ।। १९ |। 

वरारोहे! बालककी हत्या करानेवाला वह पापकर्मा पापी सिंधुराज जयद्रथ रात 
बीतनेपर प्रातःकाल होते ही अपने सुहृदों और बन्धु-बान्धवोंसहित इस अपराधका फल 
पायेगा। वह अमरावतीपुरीमें जाकर छिप जाय तो भी अर्जुनके हाथसे उसका छुटकारा 
नहीं होगा ।। १८-१९ || 

श्वरः शिर: श्रोष्यसे तस्य सैन्धवस्य रणे हृतम्‌ । 

समन्तपज्चकाद्‌ बाहूं विशोका भव मा रुद: || २० ।। 

तुम कल ही सुनोगी कि रणक्षेत्रमें जयद्रथका मस्तक काट लिया गया है और वह 
समन्तपंचक क्षेत्रसे बाहर जा गिरा है। अत: शोक त्याग दो और रोना बंद करो || २० ।। 

क्षत्रधर्म पुरस्कृत्य गत: शूरः सतां गतिम्‌ । 

यां गतिं प्राप्तुयामेह ये चान्ये शस्त्रजीविन: ।। २१ ।। 

शूरवीर अभिमन्युने क्षत्रिय-धर्मको आगे रखकर सत्पुरुषोंकी गति पायी है, जिसे 
हमलोग और इस संसारके दूसरे शस्त्रधारी क्षत्रिय भी पाना चाहते हैं | २१ ।। 

व्यूढोरस्को महाबाहुरनिवर्ती रथप्रणुत्‌ । 

गतस्तव वरारोहे पुत्र: स्वर्ग ज्वरं जहि ।। २२ ।। 

सुन्दरी! चौड़ी छाती और विशाल भुजाओंसे सुशोभित युद्धसे पीछे न हटनेवाला तथा 
शत्रुपक्षेके रथियोंपर विजय पानेवाला तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें गया है। तुम चिन्ता 
छोड़ो ।। २२ ।। 

अनुयातश्च पितरं मातृपक्षं च वीर्यवान्‌ 

सहस्रशो रिपून्‌ हत्वा हत: शूरो महारथ: ॥। २३ ।। 

बलवान, शूरवीर और महारथी अभिमन्यु पितृकुल तथा मातृकुलकी मर्यादाका 
अनुसरण करते हुए सहस्रों शत्रुओंको मारकर मरा है || २३ ।। 

आश्वासय स्नुषां राज्ञि मा शुच: क्षत्रिये भृशम्‌ । 


श्र: प्रियं न कक विशोका भव नन्दिनि ॥। २४ ।। 
रानी बहिन! चिन्ता छोड़ो और बहूको धीरज बँधाओ। अपने कुलको 
आनन्दित करनेवाली क्षत्रियकन्ये! कल अत्यन्त प्रिय समाचार सुनकर शोकरहित हो 
जाओ ।। २४ ।। 
यत्‌ पार्थेन प्रतिज्ञातं तत्‌ तथा न तदन्यथा । 
चिकीर्षितं हि ते भर्तुर्न भवेज्जातु निष्फलम्‌ ।। २५ ।। 
अर्जुनने जिस बातके लिये प्रतिज्ञा कर ली है, वह उसी रूपमें पूर्ण होगी। उसे कोई 
पलट नहीं सकता। तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं, वह कभी निष्फल नहीं 
होता || २५ ।। 
यदि च मनुजपन्नगा: पिशाचा 
रजनिचरा: पतगाः सुरासुराश्न । 
रणगतमभियान्ति सिन्धुराजं॑ 
न स भविता सह तैरपि प्रभाते ।। २६ ।। 
यदि मनुष्य, नाग, पिशाच, निशाचर, पक्षी, देवता और असुर भी रणक्षेत्रमें आये हुए 
सिंधुराज जयद्रथकी सहायताके लिये आ जायँ तो भी वह कल उन सहायकोंके साथ ही 
जीवनसे हाथ धो बैठेगा ।। २६ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि सुभद्राश्चासने सप्तसप्ततितमो<ध्याय: 
॥| ७७ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें सुभद्राको श्रीकृष्णका 
आश्वासनविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७७ ॥। 


ऑपन-माज बछ। डे 


अष्टसप्ततितमो< ध्याय: 
सुभद्राका विलाप और श्रीकृष्णका सबको आश्वासन 


संजय उवाच 

एतच्छुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मन: । 

सुभद्रा पुत्रशोकार्ता विललाप सुदु:खिता ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! महात्मा केशवका यह कथन सुनकर पुत्रशोकसे व्याकुल 
और अत्यन्त दुः:खित हुई सुभद्रा इस प्रकार विलाप करने लगी-- ।। १ ।। 

हा पुत्र मम मन्दाया: कथमेत्यासि संयुगे | 

निधन प्राप्तवांस्तात पितुस्तुल्यपराक्रम: ।। २ ।। 

हा पुत्र! हा बेटा अभिमन्यु! तुम मुझ अभागिनीके गर्भमें आकर क्रमश: पिताके तुल्य 
पराक्रमी होकर युद्धमें मारे कैसे गये? ।। २ ।। 

कथमिन्दीवरश्यामं सुदष्ट्रं चारुलोचनम्‌ । 

मुखं ते दृश्यते वत्स गुण्ठितं रणरेणुना ।। ३ ।। 

“वत्स! नील कमलके समान श्याम, सुन्दर दन्तपंक्तियोंसे सुशोभित, मनोहर नेत्रोंवाला 
तुम्हारा मुख आज युद्धकी धूलसे आच्छादित होकर कैसा दिखायी देता होगा? ।। ३ ।। 

नूनं शूरं निपतितं त्वां पश्यन्त्यनिवर्तिनम्‌ । 

सुशिरोग्रीवबाद्वंसं व्यूढोरस्क॑ नतोदरम्‌ ।। ४ ।। 

चारूपचितसर्वःा्िं स्वक्षं शस्त्रक्षताचितम्‌ | 

भूतानि त्वां निरीक्षन्ते नूनं चन्द्रमिवोदितम्‌ ।। ५ ।। 

“बेटा! तुम शूरवीर थे। युद्धसे कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। मस्तक, ग्रीवा, बाहु और 
कंधे आदि तुम्हारे सभी अंग सुन्दर थे, छाती चौड़ी थी, उदर एवं नाभिदेश नीचा था, समस्त 
अंग मनोहर और हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विशेषतः नेत्र बड़े सुन्दर थे तथा तुम्हारे सारे 
अंग शस्त्रजनित आघातसे व्याप्त थे। इस दशामें तुम धरतीपर पड़े होगे और निश्चय ही 
समस्त प्राणी उदय होते हुए चन्द्रमाके समान तुम्हें देख रहे होंगे || ४-५ ।। 

शयनीयं पुरा यस्य स्पर्थ्यास्तरणसंवृतम्‌ । 

भूमावद्य कथं शेषे विप्रविद्ध: सुखोचित: ।। ६ ।। 

“हाय! पहले जिसके शयन करनेके लिये बहुमूल्य बिछौनेसे ढकी हुई शय्या बिछायी 
जाती थी, वही बेटा अभिमन्यु सुख भोगनेके योग्य होकर भी आज बाणविद्ध शरीरसे 
भूतलपर कैसे सो रहा होगा? ।। ६ ।। 

यो<न्वास्यत पुरा वीरो वरस्त्रीभिर्महाभुज: । 

कथमन्वास्यते सो5द्य शिवाभि: पतितो मृथे ॥ ७ ।। 


“जिस महाबाहु वीरके पास पहले सुन्दरी स्त्रियाँ बैठा करती थीं, वही आज युद्धभूमिमें 
पड़ा होगा और उसके आस-पास सियारिनें बैठी होंगी; यह सब कैसे सम्भव 
हुआ?” ॥। ७ ।। 

यो<स्तूयत पुरा हृष्टे: सूतमागधवन्दिभि: । 

सोड्द्य क्रव्यादगणैघोरिविनदद्धिरुपास्यते | ८ ।। 

“पहले हर्षमें भरे हुए सूत, मागध और वन्दीजन जिसकी स्तुति किया करते थे, उसीकी 
आज विकट गर्जना करते हुए भयंकर मांसभक्षी जन्तुओंके समुदाय उपासना करते 
होंगे ।। ८ ।। 

पाण्डवेषु च नाथेषु वृष्णिवीरेषु वा विभो । 

पज्चालेषु च वीरेषु हत: केनास्थनाथवत्‌ ।। ९ ।। 

'शक्तिशाली पुत्र! तुम्हारे रक्षक पाण्डवों, वृष्णिवीरों तथा पांचालवीरोंके होते हुए भी 
तुम्हें अनाथकी भाँति किसने मारा? ।। ९ |। 

अतृप्तदर्शना पुत्र दर्शनस्य तवानघ । 

मन्दभाग्या गमिष्यामि व्यक्तमद्य यमक्षयम्‌ ।। १० ।। 

“बेटा! तुम्हें देखनेके लिये मेरी आँखें तरस रही हैं, इनकी प्यास नहीं बुझी। अनघ! 
कितनी मन्दभागिनी हूँ। निश्चय ही आज मैं यमलोकको चली जाऊँगी ।। १० ।। 

विशालाक्षं सुकेशान्तं चारुवाक्यं सुगन्धि च । 

तव पुत्र कदा भूयो मुखं द्रक्ष्यामि निर्व्रणम्‌ ।। ११ ।। 

“वत्स! बड़े-बड़े नेत्र, सुन्दर केशप्रान्त, मनोहर वाक्य और उत्तम सुगंधसे युक्त तुम्हारा 
घावरहित सुन्दर मुख मैं फिर कब देख पाऊँगी? ।। ११ ।। 

धिग्‌ बल॑ भीमसेनस्य धिक्‌ पार्थस्य धनुष्मताम्‌ | 

धिग्‌ वीर्य वृष्णिवीराणां पञ्चालानां च धिग्‌ बलम्‌ ।। १२ ।। 

'भीमसेनके बलको धिक्‍कार है, अर्जुनके धनुष-धारणको धिककार है, वृष्णिवंशी 
वीरोंके पराक्रमको धिक्कार है तथा पांचालोंके बलको भी धिककार है! ।। 

धिक्केकयांस्तथा चेदीन्‌ मत्स्यांश्नैवाथ सृञ्जयान्‌ । 

ये त्वां रणगतं वीरं न शेकुरभिरक्षितुम्‌ ।। १३ ।। 

“केकय, चेदि तथा मत्स्यदेशके वीरों और सूंजयवंशी क्षत्रियोंको भी धिक्कार है, जो 
युद्धमें गये हुए तुम-जैसे वीरकी रक्षा न कर सके ।। १३ ।। 

अद्य पश्यामि पृथिवीं शून्यामिव हतत्विषम्‌ । 

अभिमन्युमपश्यन्ती शोकव्याकुललोचना ।। १४ ।। 

“अभिमन्युको न देखनेके कारण मेरे नेत्र शोकसे व्याकुल हो रहे हैं। आज मुझे सारी 
पृथ्वी सूनी एवं कान्तिहीन-सी दिखायी देती है ।। १४ ।। 

स्वस्त्रीयं वासुदेवस्य पुत्र गाण्डीवधन्चन: । 


कथं त्वातिरथं वीर द्रक्ष्याम्पद्य निपातितम्‌ ।। १५ ।। 

“वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके भानजे और गाण्डीवधारी अर्जुनके अतिरथी वीर पुत्र 
अभिमन्युको आज मैं धरतीपर पड़ा हुआ कैसे देख सकूँगी? ।। १५ ।। 

एह्ोहि तृषितो वत्स स्तनौ पूर्णो पिबाशु मे । 

अड्कमारुह्ा मन्दाया हातृप्तायाश्न दर्शने || १६ ।। 

“बेटा! आओ, आओ । तुम्हें प्यास लगी होगी। तुम्हें देखनेके लिये प्यासी हुई मुझ 
अभागिनी माताकी गोदमें बैठकर मेरे दूधसे भरे हुए इन स्तनोंको शीघ्र पी लो ।। १६ ।। 

हा वीर दृष्टो नष्टश्न धनं स्वप्न इवासि मे । 

अहो हानित्यं मानुष्यं जलबुदबुदचउ्चलम्‌ ।। १७ ।। 

“हा वीर! तुम सपनेमें मिले हुए धनकी भाँति मुझे दिखायी दिये और नष्ट हो गये। 
अहो! यह मनुष्यजीवन पानीके बुलबुलेके समान चंचल एवं अनित्य है ।। १७ ।। 

इमां ते तरुणीं भार्या तवाधिभिरभिप्लुताम्‌ । 

कथं संधारयिष्यामि विवत्सामिव धेनुकाम्‌ ।। १८ ।। 

“बेटा! तुम्हारी यह तरुणी पत्नी तुम्हारे विरहशोकमें डूबी हुई है। जिसका बछड़ा खो 
गया हो, उस गायकी भाँति व्याकुल है। मैं इसे कैसे धीरज बँधाऊँगी? ।। १८ ।। 

(उत्तरामुत्तमां जात्या सुशीलां प्रियभाषिणीम्‌ । 

शनकै: परिरभ्यैनां स्नुषां मम यशस्विनीम्‌ ।। 

सुकुमारी विशालाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम्‌ । 

बालपल्लवतन्वज्ीं मत्तमात्तड़गामिनीम्‌ ।। 

बिम्बाधरोष्ठीमबलामभिमन्यो प्रहर्षय ।) 

“यह उत्तरा जातिसे उत्तम, सुशीला, प्रियभाषिणी, यशस्विनी तथा मेरी प्यारी बहू है। 
यह सुकुमारी है। इसके नेत्र बड़े-बड़े और मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति परम मनोहर है। 
इसके अंग नूतन पललवोंके समान कृश हैं। यह मतवाले हाथीके समान मन्दगतिसे 
चलनेवाली है। इसके ओठ बिम्बफलके समान लाल हैं। बेटा अभिमन्यु! तुम मेरी इस 
बहूको धीरे-धीरे हृदयसे लगाकर आनन्दित करो। 

अहो हाकाले प्रस्थानं कृतवानसि पुत्रक । 

विहाय फलकाले मां सुगृद्धां तव दर्शने ।। १९ ।। 

“अहो वत्स! जब पुत्रके होनेका फल मिलनेका समय आया है, तब तुम मुझे अपने 
दर्शनोंके लिये भी तरसती हुई छोड़कर असमयमें ही चल बसे ।। १९ ।। 

नूनं गति: कृतान्तस्य प्राजैरपि सुदुर्विदा । 

यत्र त्वं केशवे नाथे संग्रामेडनाथवद्धत: ।॥ २० ।॥। 

“निश्चय ही कालकी गति बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी अत्यन्त दुर्बोध है, जिसके अधीन 
होकर तुम श्रीकृष्ण-जैसे संरक्षकके रहते हुए संग्रामभूमिमें अनाथकी भाँति मारे 


गये ।। २० ।॥। 

यज्वनां दानशीलानां ब्राह्मणानां कृतात्मनाम्‌ 

चरितत्रह्वाचर्याणां पुण्यतीर्थावगाहिनाम्‌ ।। २१ ।। 

कृतज्ञानां वदान्यानां गुरुशुश्रूषिणामपि । 

सहस्रदक्षिणानां च या गतिस्तामवाप्रुहि || २२ ।। 

“वत्स! यज्ञकर्ता, दानी, जितेन्द्रिय, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्यतीर्थोमें 
नहानेवाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवा-परायण और सहस्रोंकी संख्यामें दक्षिणा देनेवाले 
धर्मात्मा पुरुषोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले ।। 

या गतिर्युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्‌ | 

हत्वारीन्‌ निहतानां च संग्रामे तां गतिं ब्रज ।। २३ ।। 

'संग्राममें युद्धतत्पर हो कभी पीछे पैर न हटानेवाले और शत्रुओंको मारकर मरनेवाले 
शूरवीरोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले | २३ ।। 

गोसहस्रप्रदातृणां क्रतुदानां च या गति: । 

नैवेशिकं चाभिमतं ददतां या गति: शुभा ।। २४ ।। 

'सहस्र गोदान करनेवाले, यज्ञके लिये दान देनेवाले तथा मनके अनुरूप सब 
सामग्रियोंसहित निवासस्थान प्रदान करनेवाले पुरुषोंको जो शुभ गति प्राप्त होती है, वही 
तुम्हें भी मिले || २४ ।। 

ब्राह्मणेभ्य: शरण्येभ्यो निधिं निदधतां च या । 

या चापि न्यस्तदण्डानां तां गतिं व्रज पुत्रक ।। २५ ।। 

“जो शरणागतवत्सल ब्राह्मणोंके लिये निधि स्थापित करते हैं तथा किसी भी प्राणीको 
दण्ड नहीं देते, उन्हें जिस गतिकी प्राप्ति होती है, बेटा! वही गति तुम्हें भी प्राप्त 
हो ।। २५ || 

ब्रह्मचर्येण यां यान्ति मुनय: संशितब्रता: । 

एकपनन्यश्व यां यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक ।। २६ ।। 

“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनि ब्रह्मचर्यके द्वारा जिस गतिको पाते हैं और 
पतिव्रता स्त्रियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, बेटा! वही गति तुम्हें भी सुलभ 
हो ।। २६ |। 

राज्ञां सुचरितैर्या च गतिर्भवति शाश्वती । 

चतुराश्रमिणां पुण्यै: पावितानां सुरक्षितै: ।। २७ ।। 

दीनानुकम्पिनां या च सततं संविभागिनाम्‌ | 

पैशुन्याच्च निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक || २८ ।। 

"पुत्र! सदाचारके पालनसे राजाओंको तथा सुरक्षित पुण्यके प्रभावसे पवित्र हुए चारों 
आश्रमोंके लोगोंको जो सनातन गति प्राप्त होती है; दीनोंपर दया करनेवाले, उत्तम 


वस्तुओंको घरमें बाँटकर उपयोगमें लेनेवाले तथा चुगलीसे दूर रहनेवाले लोगोंको जो गति 
प्राप्त होती है, वही गति तुम्हें भी मिले || २७-२८ ।। 

व्रतिनां धर्मशीलानां गुरुशुश्रूषिणामपि । 

अमोघातिथिनां या च तां गतिं व्रज पुत्रक ।। २९ ।। 

“वत्स! व्रतपरायण, धर्मशील, गुरुसेवक एवं अतिथिको निराश न लौटानेवाले लोगोंको 
जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह तुम्हें भी प्राप्त हो || २९ ।। 

कृच्छेषु या धारयतामात्मानं व्यसनेषु च । 

गति: शोकाग्निदग्धानां तां गतिं व्रज पुत्रक ।। ३० ।। 

“बेटा! जो लोग भारी-से-भारी कठिनाइयोंमें और संकटोंमें पड़नेपर तथा शोकाग्निसे 
दग्ध होनेपर भी धैर्य धारण करके अपने-आपको स्थिर रखते हैं, उन्हें मिलनेवाली गतिको 
तुम भी प्राप्त करो || ३० ।। 

मातापित्रोश्व शुश्रूषां कल्पयन्तीह ये सदा । 

स्वदारनिरतानां च या गतिस्तामवाप्लुहि || ३१ ।। 

जो सदा इस जगत्‌में माता-पिताकी सेवा करते हैं और अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखते 
हैं, उनकी जैसी गति होती है, वही तुम्हें भी प्राप्त हो || ३१ ।। 

ऋतुकाले स्वकां भार्या गच्छतां या मनीषिणाम्‌ | 

परस्त्री भ्यो निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ।। ३२ ।। 

“पुत्र! ऋतुकालमें अपनी स्त्रीसे सहवास करते हुए परायी स्त्रियोंसे सदा दूर रहनेवाले 
मनीषी पुरुषोंको जो गति प्राप्त होती है, वही तुम्हें भी मिले || ३२ ।। 

साम्ना ये सर्वभूतानि पश्यन्ति गतमत्सरा: । 

नारुंतुदानां क्षमिणां या गतिस्तामवाप्रुहि ।। ३३ ।। 

“जो ईर्ष्या-द्वेषसे दूर रहकर समस्त प्राणियोंको समभावसे देखते हैं तथा जो किसीके 
मर्मस्थानको वाणीद्वारा चोट नहीं पहुँचाते एवं सबके प्रति क्षमाभाव रखते हैं, उनकी जो 
गति होती है, उसीको तुम भी प्राप्त करो || ३३ ।। 

मधुमांसनिवृत्तानां मदाद्‌ दम्भात्‌ तथानृतात्‌ । 

परोपतापत्यक्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ।। ३४ ।। 

पुत्र! जो मद्य और मांसका सेवन नहीं करते, मद, दम्भ और असत्यसे अलग रहते 
और दूसरोंको संताप नहीं देते हैं, उन्हें मिलनेवाली सदगति तुम्हें भी प्राप्त हो || ३४ ।। 

ह्वीमन्त: सर्वशास्त्रज्ञा ज्ञानतृप्ता जितेन्द्रिया: । 

यां गतिं साधवो यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक ।। ३५ ।। 

“बेटा! सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, लज्जाशील, ज्ञानसे परितृप्त, जितेन्द्रिय श्रेष्पपुरुष जिस 
गतिको पाते हैं, उसीको तुम भी प्राप्त करो” | ३५ ।। 

एवं विलपतीं दीनां सुभद्रां शोककर्शिताम्‌ 


अन्वपद्यत पाज्चाली वैराटीसहितां तदा ।। ३६ ।। 

इस प्रकार उत्तरासहित विलाप करती हुई दीन-दुःखी एवं शोकसे दुर्बल सुभद्राके पास 
उस समय द्रौपदी भी आ पहुँची || ३६ ।। 

ता: प्रकामं रुदित्वा च विलप्य च सुदुःखिता: । 

उन्मत्तवत्‌ तदा राजन्‌ विसंज्ञान्यपतन्‌ क्षितौ ।। ३७ ।। 

राजन्‌! वे सब-की-सब अत्यन्त दुःखी हो इच्छानुसार रोती और विलाप करती हुई 
पगली-सी हो गयीं और मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं || ३७ ।। 

सोपचारस्तु कृष्णश्न दुःखितां भृशदु:खित: । 

सिक्‍त्वाम्भसा समाश्चास्य तत्तदुक्त्वा हितं वच: ।। ३८ ।। 

विसंज्ञकल्पां रुदतीं मर्मविद्धां प्रवेषतीम्‌ । 

भगिनीं पुण्डरीकाक्ष इदं वचनमत्रवीत्‌ ।। ३९ ।। 

तब कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण अत्यन्त दुःखी हो उन सबको होशमें लानेके लिये 
उपचार करने लगे। उन्होंने अपनी दु:खिनी बहिन सुभद्रापर जल छिड़ककर नाना प्रकारके 
हितकर वचन कहते हुए उसे आश्वासन दिया। पुत्र-शोकसे मर्माहत हो वह रोती हुई काँप 
रही थी और अचेत-सी हो गयी थी। उस अवस्थामें भगवानने उससे कहा-- || ३८-३९ ।। 

सुभद्रे मा शुच:ः पुत्र पाउ्चाल्याश्वासयोत्तराम्‌ । 

गतो5भिमन्यु: प्रथितां गतिं क्षत्रियपुज्रव: ।। ४० ।। 

“सुभद्रे! तुम पुत्रके लिये शोक न करो। द्रुपदकुमारी! तुम उत्तराको धीरज बँधाओ। वह 
क्षत्रियशिरोमणि सर्वश्रेष्ठ गतिको प्राप्त हुआ है ।। ४० ।। 

ये चान्येडपि कुले सन्ति पुरुषा नो वरानने । 

सर्वे ते तां गति यान्तु हभिमन्योर्यशस्विन: ।। ४१ ।। 

'सुमुखि! हमारी इच्छा तो यह है कि हमारे कुलमें और भी जितने पुरुष हैं, वे सब 
यशस्वी अभिमन्युकी ही गति प्राप्त करें || ४१ ।। 

कुर्याम तद्‌ वयं कर्म क्रियासु सुहृदश्च नः । 

कृतवान्‌ यादृगद्यैकस्तव पुत्रो महारथ: ।। ४२ ।। 

“तुम्हारे महारथी पुत्रने अकेले ही आज जैसा पराक्रम किया है, उसे हम और हमारे 
सुहृद्‌ भी कार्यरूपमें परिणत करें" || ४२ ।। 

एवमाश्चास्य भगिनीं द्रौपदीमपि चोत्तराम्‌ । 

पार्थस्यैव महाबाहु: पार्श्वमागादरिंदम: ।। ४३ ।। 

इस प्रकार अपनी बहिन सुभद्रा, उत्तरा तथा द्रौपदीको आश्वासन देकर शत्रुदमन 
महाबाहु श्रीकृष्ण पुनः अर्जुनके ही पास चले आये ।। ४३ ।। 

ततो<भ्यनुज्ञाय नृपान्‌ कृष्णो बन्धूंस्तथार्जुनम्‌ । 

विवेशान्त:पुरे राजंस्ते च जम्मुर्यथालयम्‌ ।। ४४ ।। 


राजन! तदनन्तर श्रीकृष्ण राजाओं, बन्धुजनों तथा अर्जुनसे अनुमति ले अन्तःपुरमें 
गये और वे राजालोग भी अपने-अपने शिविरमें चले गये || ४४ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि सुभद्राप्रविलापे अष्टसप्ततितमो<ध्याय: 
॥| ७८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें सुभद्रा-विलापविषयक 
अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ७८ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २३ “लोक मिलाकर कुल ४६३ *लोक हैं।) 


भीस्नआ+ज (2) आसमान 


एकोनाशीतितमो< ध्याय: 


श्रीकृष्णका अर्जुनकी विजयके लिये रात्रिमें भगवान 
शिवका किया करवाना, जागते हुए पाण्डव-सैनिकोंकी 
अर्जुनके लिये शुभाशंसा तथा अर्जुनकी सफलताके लिये 
श्रीकृष्णके दारुकके प्रति उत्साहभरे वचन 


संजय उवाच 

ततोअर्जुनस्य भवन प्रविश्याप्रतिमं विभु: । 

स्पृष्टवाम्भ: पुण्डरीकाक्ष: स्थण्डिले शुभलक्षणे ।। १ ।। 

संतस्तार शुभां शय्यां दर्भवैदूर्यसंनिभै: । 

ततो माल्येन विधिवल्लाजैर्गन्धै: सुमज्रलै: २ ।। 

अलंचकार तां शय्यां परिवार्यायुधोत्तमै: । 

ततः स्पृष्टोदके पार्थे विनीता: परिचारका: ।। ३ ।। 

दर्शयन्तो$न्तिके चक्रुर्नैंशं त्रैयम्बक॑ बलिम्‌ । 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनके अनुपम 
भवनमें प्रवेश करके जलका स्पर्श किया और शुभ लक्षणोंसे युक्त वेदीपर वैदूर्यमणिके 
सदृश कुशोंकी सुन्दर शय्या बिछायी। तत्पश्चात्‌ विधिपूर्वक परम मंगलकारी अक्षत, गन्ध 
एवं पुष्पमाला आदिसे उस शय्याको सजाया। उसके चारों ओर उत्तम आयुध रख दिये। 
इसके बाद जब अर्जुन आचमन कर चुके, तब विनीत (सुशिक्षित) परिचारकोंने उन्हें दिखाते 
हुए उनके निकट ही भगवान्‌ शंकरका निशीथ-पूजन किया ।। १--३ ई || 

ततः प्रीतमना: पार्थो गन्धमाल्यैश्न माधवम्‌ ।। ४ ।। 

अलंकृत्योपहारं त॑ नैशं तस्मै न्यवेदयत्‌ । 

स्मयमानस्तु गोविन्द: फाल्गुन॑ प्रत्यभाषत ।। ५ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनने प्रसन्नचित्त होकर श्रीकृष्णको गन्ध और मालाओंसे अलंकृत करके 
रात्रिका वह सारा उपहार उन्हींको समर्पित किया। तब मुसकराते हुए भगवान्‌ गोविन्द 
अर्जुनसे बोले-- || ४-५ ।। 

सुप्यतां पार्थ भद्रें ते कल्याणाय व्रजाम्पहम्‌ | 

स्थापयित्वा ततो द्वाःस्थान्‌ 8 श्चात्तायुधान्‌ नरान्‌ ।। ६ ।। 

दारुकानुगत: श्रीमान्‌ विवेश शिबिरं स्वकम्‌ | 


“कुन्तीकुमार! तुम्हारा कल्याण हो। अब शयन करो। मैं तुम्हारे कल्याण-साधनके लिये 
ही जा रहा हूँ" ऐसा कहकर वहाँ अस्त्र-शस्त्र लिये हुए मनुष्योंको द्वारपाल एवं रक्षक नियुक्त 
करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण दारुकके साथ अपने शिविरमें चले गये ।। ६६ ।। 

शिश्ये च शयने शुभ्रे बहुकृत्यं विचिन्तयन्‌ ।। ७ ।। 

पार्थाय सर्व भगवान्‌ शोकदुःखापहं विधिम्‌ । 

व्यदधात्‌ पुण्डरीकाक्षस्तेजोद्युतिविवर्धनम्‌ ।। ८ ॥। 

योगमास्थाय युक्तात्मा सर्वेषामीश्ररेश्वर: । 

श्रेयस्काम: पृथुयशा विष्णुर्जिष्णुप्रियंकर: ।। ९ ।। 

वहाँ बहुत-से कार्योंका चिन्तन करते हुए उन्होंने शुभ्र शय्यापर शयन किया। 
कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनका यश महान्‌ है। वे 
विष्णुरूप गोविन्द अर्जुनका प्रिय करनेवाले हैं और सदा उनके कल्याणकी कामना रखते 
हैं। उन युक्तात्मा श्रीहरिने उत्तम योगका आश्रय ले अर्जुनके लिये वह सारा विधि-विधान 
सम्पन्न किया, जो उनके शोक और दुःखको दूर करनेवाला तथा तेज और कान्तिको 
बढ़ानेवाला था || ७--९ || 

न पाण्डवानां शिबिरे कश्ित्‌ सुष्वाप तां निशाम्‌ । 

प्रजागर: सर्वजनं हााविवेश विशाम्पते ।। १० ।। 

राजन्‌! उस रातमें पाण्डवोंके शिविरमें कोई नहीं सोया। सब लोगोंमें जागरणका 
आवेश हो गया था ।। १० ।। 

पुत्रशोकाभिततप्तेन प्रतिज्ञातो महात्मना । 

सहसा सिन्धुराजस्य वधो गाण्डीवधन्चना ।। ११ ।। 

तत्‌ कथं नु महाबाहुर्वासवि: परवीरहा । 

प्रतिज्ञां सफलां कुर्यादेति ते समचिन्तयन्‌ ।। १२ ।। 

सब लोग इसी चिन्तामें पड़े थे कि पुत्रशोकसे संतप्त हुए गाण्डीवधारी महामना 
अर्जुनने सहसा सिंधुराज जयद्रथके वधकी प्रतिज्ञा कर ली है। शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले 
वे महाबाहु इन्द्रकुमार अपनी उस प्रतिज्ञाको कैसे सफल करेंगे? ।। ११-१२ ।। 

कष्ट हीदं व्यवसितं पाण्डवेन महात्मना । 

पुत्रशोकाभिततप्तेन प्रतिज्ञा महती कृता ।। १३ ।। 

सच राजा महावीर्य: पारयत्वर्जुन: स ताम्‌ । 

भ्रातरश्चापि विक्रान्ता बहुलानि बलानि च ।। १४ ।। 

महामना पाण्डवने यह बड़ा कष्टप्रद निश्चय किया है। उन्होंने पुत्रशोकसे संतप्त होकर 
बड़ी भारी प्रतिज्ञा कर ली है। उधर राजा जयद्रथका पराक्रम भी महान्‌ है। तथापि अर्जुन 
अपनी उस प्रतिज्ञाको पूरी कर लेंगे; क्योंकि उनके भाई भी बड़े पराक्रमी हैं और उनके 
पास सेनाएँ भी बहुत हैं || १३-१४ ।। 


धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सर्व तस्मै निवेदितम्‌ । 

स हत्वा सैन्धवं संख्ये पुनरेतु धनंजय: ।। १५ ।। 

धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने जयद्रथको सब बातें बता दी होंगी। अर्जुन युद्धमें सिंधुराज 
जयद्रथको मारकर पुन: सकुशल लौट आवें (यही हमारी शुभ कामना है) ।। १५ ।। 

जित्वा रिपुगणांश्वैव पारयत्वर्जुनो व्रतम्‌ । 

श्वो5हत्वा सिन्धुराजं वै धूमकेतु प्रवेक्ष्यति ।। १६ ।। 

न हासावनृतं कर्तुमलं पार्थो धनंजय: । 

धर्मपुत्र: कथं राजा भविष्यति मृते$र्जुने ।। १७ ।। 

अर्जुन शत्रुओंको जीतकर अपना व्रत पूरा करें। यदि वे कल सिंधुराजको न मार सके 
तो अग्निमें प्रवेश कर जायँगे। कुन्तीकुमार धनंजय अपनी बात झूठी नहीं कर सकते। यदि 
अर्जुन मर गये तो धर्मपुत्र युधिष्ठिर कैसे राजा होंगे? ।। १६-१७ ।। 

तस्मिन्‌ हि विजय: कृत्स्न: पाण्डवेन समाहित: । 

यदि नोड<स्ति कृतं किज्चिद्‌ यदि दत्त हुतं यदि ।। १८ ।। 

फलेन तस्य सर्वस्य सव्यसाची जयत्वरीन्‌ । 

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने अर्जुनपर ही सारा विजयका भार रख दिया। यदि हमलोगोंका 
किया हुआ कुछ भी सत्कर्म शेष हो, यदि हमने दान और होम किये हों तो हमारे उन सभी 
शुभकर्मोंके फलसे सव्यसाची अर्जुन अपने शत्रुओंपर विजय प्राप्त करें || १८३ || 

एवं कथयतां तेषां जयमाशंसतां प्रभो || १९ ।। 

कृच्छेण महता राजन्‌ रजनी व्यत्यवर्तत । 

राजन! प्रभो! इस प्रकार बातें करते और अर्जुनकी विजय चाहते हुए उन सभी 
सैनिकोंकी वह रात्रि महान्‌ कष्टसे बीती थी || १९३ ।। 

तस्यां रजन्यां मध्ये तु प्रतिबुद्धो जनार्दन: ।। २० ।॥। 

स्मृत्वा प्रतिज्ञां पार्थस्य दारुक॑ प्रत्यभाषत । 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस रात्रिके मध्यकालमें जाग उठे और अर्जुनकी प्रतिज्ञाको स्मरण 
करके दारुकसे बोले-- || २०३ |। 

अर्जुनेन प्रतिज्ञातमार्तेन हतबन्धुना ।। २१ ।। 

जयद्रथं वधिष्यामि श्वोभूत इति दारुक । 

“दारुक! अपने पुत्र अभिमन्युके मारे जानेसे शोकार्त होकर अर्जुनने यह प्रतिज्ञा कर 
ली है कि मैं कल जयद्रथका वध कर डालूँगा' ।। २१६ ।। 

तत्तु दुर्योधन: श्रुत्वा मन्सत्रिभिर्मन्त्रयिष्यति ।। २२ ।। 

यथा जयद्रथं पार्थो न हन्यादिति संयुगे । 


“यह सब सुनकर दुर्योधन अपने मन्त्रियोंक साथ ऐसी मन्त्रणा करेगा” जिससे अर्जुन 
समरभूमिमें जयद्रथको मार न सकें || २२३६ ।। 

अक्षौहिण्यो हि ता: सर्वा रक्षिष्यन्ति जयद्रथम्‌ ।। २३ ।। 

द्रोणश्न॒ सह पुत्रेण सर्वास्त्रविधिपारग: । 

“वे सारी अक्षौहिणी सेनाएँ जयद्रथकी रक्षा करेंगी तथा सम्पूर्ण अस्त्र-विधिके पारंगत 
विद्वान्‌ द्रोणाचार्य भी अपने पुत्र अश्वत्थामाके साथ उसकी रक्षामें रहेंगे ।। २३ ई ।। 

एको वीर: सहस्राक्षो दैत्यदानवदर्पहा ।। २४ ।। 

सो<पि त॑ नोत्सहेताजौ हन्तुं द्रोणेन रक्षितम्‌ 

“त्रिलोकीके एकमात्र वीर हैं सहसखनेत्रधारी इन्द्र, जो दैत्यों और दानवोंके भी दर्पका 
दलन करनेवाले हैं; परंतु वे भी द्रोणाचार्यसे सुरक्षित जयद्रथको युद्धमें मार नहीं 
सकते || २४३ || 

सो हं श्वस्तत्‌ करिष्यामि यथा कुन्तीसुतो<र्जुन: ।। २५ ।। 

अप्राप्ते5स्तं दिनकरे हनिष्यति जयद्रथम्‌ । 

“अतः मैं कल वह उद्योग करूँगा, जिससे कुन्तीपुत्र अर्जुन सूर्यदेवके अस्त होनेसे पहले 
जयद्रथको मार डालेंगे || २५३ ।। 

न हि दारा न मित्राणि ज्ञातयो न च बान्धवा: ।। २६ ।। 

कश्चिदन्य: प्रियतर: कुन्तीपुत्रान्ममार्जुनात्‌ | 

“मुझे स्त्री, मित्र, कुटुम्बीजन, भाई-बन्धु तथा दूसरा कोई भी कुन्तीपुत्र अर्जुनसे अधिक 
प्रिय नहीं है ।। २६६ ।। 

अनर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक ।। २७ ।। 

उदीक्षितुं न शक्तो5हं भविता न च तत्‌ तथा । 

“दारुक! मैं अर्जुनसे रहित इस संसारको दो घड़ी भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही 
नहीं सकता (कि मेरे रहते अर्जुनका कोई अनिष्ट हो) ।। २७६ ।। 

अहं विजित्य तान्‌ सर्वान्‌ सहसा सहयद्विपान्‌ ।। २८ ।। 

अर्जुनार्थे हनिष्पामि सकर्णान्‌ ससुयोधनान्‌ । 

“मैं अर्जुनके लिये हाथी, घोड़े, कर्ण और दुर्योधनसहित उन समस्त शत्रुओंको जीतकर 
सहसा उनका संहार कर डालूँगा | २८३ ।। 

श्वो निरीक्षन्तु मे वीर्य त्रयो लोका महाहवे ।। २९ ।। 

धनंजयार्थे समरे पराक्रान्तस्य दारुक । 

“दारुक! कलके महासमरमें तीनों लोक धनंजयके लिये युद्धमें पराक्रम प्रकट करते हुए 
मेरे बल और प्रभावको देखें ।। २९ ६ ।। 

श्वो नरेन्द्रसहस्राणि राजपुत्रशतानि च ।। ३० ।। 


साश्रृद्धिपरथान्याजौ विद्रविष्यामि दारुक । 

“दारुक! कल युद्धमें मैं सहस्नों राजाओं तथा सैकड़ों राजकुमारोंको उनके घोड़े, हाथी 
एवं रथोंसहित मार भगाऊँगा ।। ३० ३ ।। 

श्वेस्तां चक्रप्रमथितां द्रक्ष्य्से नूपवाहिनीम्‌ ।। ३१ ।। 

मया क्ुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्‌ । 

“तुम कल देखोगे कि मैंने समरांगणमें कुपित होकर पाण्डुपुत्र अर्जुनके लिये सारी 
राजसेनाको चक्रसे चूर-चूर करके धरतीपर मार गिराया है |। ३१३ ।। 

श्र: सदेवा: सगन्धर्वा: पिशाचोरगराक्षसा: ।। ३२ ।। 

ज्ञास्यन्ति लोका: सर्वे मां सुहृंदे सव्यसाचिन: । 

“कल देवता, गन्धर्व, पिशाच, नाग तथा राक्षस आदि समस्त लोक यह अच्छी तरह 
जान लेंगे कि मैं सव्यसाची अर्जुनका हितैषी मित्र हूँ || ३२ ३ ।। 

यस्तं द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्तं चानु स मामनु ।। ३३ ।। 

इति संकल्प्यतां बुद्धया शरीरार्द्ध ममार्जुन: । 

“जो अर्जुनसे द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो अर्जुनका अनुगामी है, 
वह मेरा अनुगामी है, तुम अपनी बुद्धिसे यह निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर 
है ।। ३३३ || 

यथा त्वं मे प्रभातायामस्यां निशि रथोत्तमम्‌ ।। ३४ ।। 

कल्पयित्वा यथाशास्त्रमादाय व्रज संयत: । 

“कल प्रातःकाल तुम शास्त्रविधिके अनुसार मेरे उत्तम रथको सुसज्जित करके 
सावधानीके साथ लेकर युद्धस्थलमें चलना ।। ३४ ई ।। 

गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्ति चक्र धनु: शरान्‌ । ३५ ।। 

आरोप्य वै रथे सूत सर्वोपकरणानि च । 

स्थानं च कल्पयित्वाथ रथोपस्थे ध्वजस्य मे ।। ३६ ।। 

वैनतेयस्य वीरस्यथ समरे रथशोभिन: । 

'सूत! कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति, चक्र, धनुष, बाण तथा अन्य सब आवश्यक 
सामग्रियोंको रथपर रखकर उसके पिछले भागमें समरांगणमें रथपर शोभा पानेवाले वीर 
विनतानन्दन गरुड़के चिह्नवाले ध्वजके लिये भी स्थान बना लेना || ३५-३६३ || 

छत्र॑ जाम्बूनदैजलैरकींज्वलनसप्रभै: ।। ३७ ।। 

विश्वकर्मकृतर्दिव्यैरश्वानपि विभूषितान्‌ 

बलाहकं मेघपुष्पं शैब्यं सुग्रीवमेव च ।। ३८ ।। 

युक्तान्‌ वाजिवरान्‌ यत्त: कवची तिष्ठ दारुक । 


“दारुक! साथ ही उसमें छत्र लगाकर अग्नि और सूर्यके समान प्रकाशित होनेवाले तथा 
विश्वकर्माके बनाये हुए दिव्य सुवर्णमय जालोंसे विभूषित मेरे चारों श्रेष्ठ घोड़ों--बलाहक, 
मेघपुष्प, शैब्य तथा सुग्रीवको जोत लेना और स्वयं भी कवच धारण करके तैयार 
रहना || ३७-३८ ३ || 

पाञ्चजन्यस्य निर्घोषमार्षभेणैव पूरितम्‌ ।। ३९ ।। 

श्रुत्वा च भैरवं नादमुपेयास्त्वं जवेन माम्‌ | 

“पाज्चजन्य शंखका ऋषभ स्वरसे बजाया हुआ शब्द और भयंकर कोलाहल सुनते ही 
तुम बड़े वेगसे मेरे पास पहुँच जाना ।। ३९३ ।। 

एकाह्वाहममर्ष च सर्वदु:खानि चैव ह ।। ४० ।। 

भ्रातुः पैतृष्वसेयस्य व्यपनेष्यामि दारुक | 

“दारुक! मैं अपनी बुआजीके पुत्र भाई अर्जुनके सारे दुःख और अमर्षको एक ही 
दिनमें दूर कर दूँगा || ४० ६ ।। 

सर्वोपायैर्यतिष्यामि यथा बीभत्सुराहवे ।। ४१ ।। 

पश्यतां धार्तराष्ट्राणां हनिष्यति जयद्रथम्‌ । 

“सभी उपायोंसे ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे अर्जुन युद्धमें धृतराष्ट्रपुत्रोंक देखते-देखते 
जयद्रथको मार डालें ।। 

यस्य यस्य च बीभत्सुर्वधे यत्नं करिष्यति । 

आशंसे सारथे तत्र भवितास्य ध्रुवो जय: ।। ४२ ।। 

'सारथे! कल अर्जुन जिस-जिस वीरके वधका प्रयत्न करेंगे, मैं आशा करता हूँ, वहाँ- 
वहाँ उनकी निश्चय ही विजय होगी” ।। ४२ ।। 

दारुक उवाच 

जय एव ध्रुवस्तस्य कुत एव पराजय: । 

यस्य त्वं पुरुषव्याप्र सारथ्यमुपजग्मिवान्‌ ।। ४३ ।। 

दारुक बोला--पुरुषसिंह! आप जिनके सारथि बने हुए हैं, उनकी विजय तो निश्चित 
है ही। उनकी पराजय कैसे हो सकती है? ।। ४३ ।। 

एवं चैतत्‌ करिष्यामि यथा मामनुशाससि । 

सुप्रभातामिमां रात्रिं जयाय विजयस्य हि ।। ४४ ।। 

अर्जुनकी विजयके लिये कल सबेरे जो कुछ करनेकी आप मुझे आज्ञा देते हैं, उसे उसी 
रूपमें मैं अवश्य पूर्ण करूँगा ।। ४४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि कृष्णदारुकसम्भाषणे 
एकोनाशीतितमो<ध्याय: ।। ७९ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें श्रीकृष्ण और दारुककी 
बातचीतविषयक उजन्नासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ७९ ॥ 


ऑपन--माज छा जज :: 


अशीतितमोब<्ध्याय: 


अर्जुनका स्वप्रमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ शिवजीके 
समीप जाना और उनकी स्तुति करना 


संजय उवाच 

कुन्तीपुत्रस्तु तं मन्त्र स्मरन्नेव धनंजय: । 

प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्‌ मुमोहाचिन्त्यविक्रम: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इधर अचिन्त्य पराक्रमशाली कुन्तीपुत्र अर्जुन अपनी 
प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये (वनवासकालमें व्यासजीके बताये हुए शिवसम्बन्धी) मन्त्रका 
चिन्तन करते-करते नींदसे मोहित हो गये ।। १ ।। 

तं॑ तु शोकेन संतप्तं स्वप्ने कपिवरध्वजम्‌ । 

आससाद महातेजा ध्यायन्तं गरुडथ्वज: ।। २ ।। 

उस समय स्वप्रमें महातेजस्वी गरुड़ध्वज भगवान्‌ श्रीकृष्ण शोकसंतप्त हो चिन्तामें 
पड़े हुए कपिध्वज अर्जुनके पास आये ।। २ ।। 

प्रत्युत्थानं च कृष्णस्य सर्वावस्थो धनंजय: । 

न लोपयति धर्मात्मा भक्त्या प्रेम्णा च सर्वदा ।। ३ ।। 

धर्मात्मा धनंजय किसी भी अवस्थामें क्‍यों न हों, सदा प्रेम और भक्तिके साथ खड़े 
होकर श्रीकृष्णका स्वागत करते थे। अपने इस नियमका वे कभी लोप नहीं होने देते 
थे।।३।। 

प्रत्युत्थाय च गोविन्द स तस्मा आसन ददौ । 

न चासने स्वयं बुद्धि बीभत्सुर्व्यद्धात्‌ तदा ।। ४ ।। 

अर्जुनने खड़े होकर गोविन्दको बैठनेके लिये आसन दिया और स्वयं उस समय किसी 
आसनपर बैठनेका विचार उन्होंने नहीं किया ।। ४ ।। 

ततः कृष्णो महातेजा जानन्‌ पार्थस्य निश्चयम्‌ । 

कुन्तीपुत्रमिदं वाक्यमासीन: स्थितमब्रवीत्‌ ।। ५ ।। 

तब महातेजस्वी श्रीकृष्ण पार्थके इस निश्चयकों जानकर अकेले ही आसनपर बैठ गये 
और खड़े हुए कुन्तीकुमारसे इस प्रकार बोले-- ।। ५ ।। 

मा विषादे मन: पार्थ कृथा: कालो हि दुर्जय: । 

काल: सर्वाणि भूतानि नियच्छति परे विधौ ।। ६ ।। 

“कुन्तीनन्दन! तुम अपने मनको विषादमें न डालो; क्योंकि कालपर विजय पाना 
अत्यन्त कठिन है। काल ही समस्त प्राणियोंको विधाताके अवश्यम्भावी विधानमें प्रवृत्त कर 


देता है ।। ६ ।। 

किमर्थ च विषादस्ते तद्‌ ब्रूहि द्विपदां वर । 

न शोच्यं विदुषां श्रेष्ठ शोक: कार्यविनाशन: ॥। ७ ।॥। 

“मनुष्योंमें श्रेष्ठ अर्जुन! बताओ तो सही, तुम्हें किसलिये विषाद हो रहा है? विद्वद्वर! 
तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि शोक समस्त कर्मोंका विनाश करनेवाला है ।। ७ ।। 

यत्‌ तु कार्य भवेत्‌ कार्य कर्मणा तत्‌ समाचर । 

हीनचेष्टस्य यः: शोक: स हि शत्रुर्धनंजय ।। ८ ।। 

'जो कार्य करना हो, उसे प्रयत्नपूर्वक करो। धनंजय! उद्योगहीन मनुष्यका जो शोक है, 
वह उसके लिये शत्रुके समान है || ८ ।। 

शोचन्‌ नन्दयते शत्रून्‌ कर्शयत्यपि बान्धवान्‌ । 

क्षीयते च नरस्तस्मान्न त्वं शोचितुमहसि ।। ९ ।। 

'शोक करनेवाला पुरुष अपने शत्रुओंको आनन्दित करता और बन्धु-बान्धवोंको 
दुःखसे दुर्बल बनाता है। इसके सिवा वह स्वयं भी शोकके कारण क्षीण होता जाता है। 
अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये' ।। ९ ।। 

इत्युक्तो वासुदेवेन बीभत्सुरपराजित: । 

आबभाषे तदा विद्वानिदं वचनमर्थवत्‌ ।। १० ।। 

वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर किसीसे पराजित न होनेवाले विद्वान्‌ 
अर्जुनने यह अर्थयुक्त वचन उस समय कहा-- ।। १० |। 

मया प्रतिज्ञा महती जयद्रथवधे कृता । 

श्वो5स्मि हन्ता दुरात्मानं पुत्रध्नमिति केशव ।। ११ ।। 

“केशव! मैंने जयद्रथ-वधके लिये यह भारी प्रतिज्ञा कर ली है कि कल मैं अपने पुत्रके 
घातक दुरात्मा सिंधुराजको अवश्य मार डालूँगा ।। ११ ।। 

मत्प्रतिज्ञाविघातार्थ धार्तराष्ट्री: किलाच्युत । 

पृष्ठतः सैन्धव: कार्य: सर्वैर्गुप्तो महारथै: ।। १२ ।। 

'परंतु अच्युत! धृतराष्ट्रपक्षेके सभी महारथी मेरी प्रतिज्ञा भंग करनेके लिये 
सिंधुराजको निश्चय ही सबसे पीछे खड़े करेंगे और वह उन सबके द्वारा सुरक्षित होगा ।। 

दश चैका च ता: कृष्ण अक्षौहिण्य: सुदुर्जया: । 

हतावशेषास्तत्रेमा हन्‍त माधव संख्यया ।। १३ ।। 

ताभि: परिवृत: संख्ये सर्वैश्वेव महारथै: । 

कथं शकक्‍्येत संद्रष्टं दुरात्मा कृष्ण सैन्धव: ।। १४ ।। 

“माधव! श्रीकृष्ण! कौरवोंकी वे ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ, जो अत्यन्त दुर्जय हैं और 
उनमें मरनेसे बचे हुए जितने सैनिक विद्यमान हैं, उनसे तथा पूर्वोक्त सभी महारथियोंसे 
युद्धस्थलमें घिरे होनेपर दुरात्मा सिंधुराजको कैसे देखा जा सकता है? ।। १३-१४ ।। 


प्रतिज्ञापारणं चापि न भविष्यति केशव । 

प्रतिज्ञायां च हीनायां कथं जीवेत मद्विध: ।। १५ ।। 

“केशव! ऐसी अवस्थामें प्रतिज्ञाकी पूर्ति नहीं हो सकेगी और प्रतिज्ञा भंग होनेपर मेरे- 
जैसा पुरुष कैसे जीवन धारण कर सकता है? ।। १५ ।। 

दुःखोपायस्य मे वीर विकाडुशक्षा परिवर्तते । 

द्रुतं च याति सविता तत एतद्‌ ब्रवीम्यहम्‌ ।। १६ ।। 

“वीर! अब इस कष्टसाध्य (जयद्रथवधरूपी कार्य)-की ओरसे मेरी अभिलाषा 
परिवर्तित हो रही है। इसके सिवा इन दिनों सूर्य जल्दी अस्त हो जाते हैं; इसलिये मैं ऐसा 
कह रहा हूँ" ।। १६ ।। 

शोकस्थानं तु तच्छुत्वा पार्थस्य द्विजकेतन: । 

संस्पृश्याम्भस्तत: कृष्ण: प्राढमुख: समवस्थित: ।। १७ ।। 

इदं वाक्‍्यं महातेजा बभाषे पुष्करेक्षण: । 

हितार्थ पाण्डुपुत्रस्य सैन्धवस्य वधे कृती ।। १८ ।। 

अर्जुके शोकका आधार क्‍या है, यह सुनकर महातेजस्वी विद्वान्‌ गरुड़ध्वज 
कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण आचमन करके पूर्वाभिमुख होकर बैठे और पाण्बुपुत्र 
अर्जुनके हित तथा सिंधुराज जयद्रथके वधके लिये इस प्रकार बोले-- ।। १७-१८ ।। 

पार्थ पाशुपतं नाम परमास्त्रं सनातनम्‌ | 

येन सर्वान्‌ मृधे दैत्यान्‌ जघ्ने देवो महेश्वर: ।। १९ ।। 

'पार्थ! पाशुपत नामक एक परम उत्तम सनातन अस्त्र है, जिससे युद्धमें भगवान्‌ 
महेश्वरने समस्त दैत्योंका वध किया था ।। १९ || 

यदि तद्‌ विदितं तेडद्य श्वो हन्तासि जयद्रथम्‌ | 

अथनज्ञातं प्रपद्यस्व मनसा वृषभध्वजम्‌ ।। २० ।। 

त॑ देव॑ं मनसा ध्यात्वा जोषमास्व धनंजय । 

ततस्तस्य प्रसादात्‌ त्वं भक्त: प्राप्स्सि तन्महत्‌ ।। २१ ।। 

“यदि वह अस्त्र आज तुम्हें विदित हो तो तुम अवश्य कल जयद्रथको मार सकते हो 
और यदि तुम्हें उसका ज्ञान न हो तो मन-ही-मन भगवान्‌ वृषभध्वज (शिव)-की शरण लो। 
धनंजय! तुम मनमें उन महादेवजीका ध्यान करते हुए चुपचाप बैठ जाओ। तब उनके दया- 
प्रसादसे तुम उनके भक्त होनेके कारण उस महान्‌ अस्त्रको प्राप्त कर लोगे” || २०-२१ ।। 

ततः: कृष्णवच: श्रुत्वा संस्पृश्याम्भो धनंजय: । 

भूमावासीन एकाग्रो जगाम मनसा भवम्‌ ॥। २२ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर अर्जुन जलका आचमन करके धरतीपर एकाग्र 
होकर बैठ गये और मनसे महादेवजीका चिन्तन करने लगे || २२ ।। 

ततः प्रणिहितो ब्राह्मे मुहूर्ते शुभलक्षणे । 


आत्मानमर्जुनो5पश्यद्‌ गगने सहकेशवम्‌ ।। २३ ।। 

तब शुभ लक्षणोंसे युक्त ब्राह्म मुहूर्तमें ध्यानस्थ होनेपर अर्जुनने अपने-आपको भगवान्‌ 
श्रीकृष्णके साथ आकाशमें जाते देखा ।। २३ ।। 

पुण्यं हिमवतः पादं मणिमन्तं च पर्वतम्‌ । 

ज्योतिर्भिश्न समाकीर्ण सिद्धचारणसेवितम्‌ ।। २४ ।। 

पवित्र हिमालयके शिखर तथा तेज:पुंजसे व्याप्त एवं सिद्धों और चारणोंसे सेवित 
मणिमान्‌ पर्वतको भी देखा || २४ ।। 

वायुवेगगति: पार्थ: खं भेजे सहकेशव: । 

केशवेन गृहीतः स दक्षिणे विभुना भुजे ॥। २५ ।। 

उस समय अर्जुन भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ वायुवेगके समान तीव्रगतिसे आकाशमें 
बहुत ऊँचे उठ गये। भगवान्‌ केशवने उनकी दाहिनी बाँह पकड़ रखी थी || २५ ।। 

प्रेक्षमाणो बहून्‌ भावान्‌ जगामाद्धभधुतदर्शनान्‌ । 

उदीच्यां दिशि धर्मात्मा सो5पश्यच्छवेतपर्वतम्‌ ।। २६ ।। 

तत्पश्चात्‌ धर्मात्मा अर्जुनने अद्भुत दिखायी देनेवाले बहुत-से पदार्थोंको देखते हुए 
क्रमश: उत्तर-दिशामें जाकर श्वेत पर्वतका दर्शन किया ।। २६ ।। 

कुबेरस्य विहारे च नलिनीं पद्मभूषिताम्‌ । 

सरिच्छेष्ठां च तां गड्जां वीक्षमाणो बहूदकाम्‌ ।। २७ ।। 

इसके बाद उन्होंने कुबेरके उद्यानमें कमलोंसे विभूषित सरोवर तथा अगाध जलराशिसे 
भरी हुई सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाका अवलोकन किया || २७ ।। 

सदा पुष्पफलैव॑क्षैरुपेतां स्फटिकोपलाम्‌ । 

सिंहव्याप्रसमाकीर्णा नानामृगसमाकुलाम्‌ ।। २८ ।। 

गंगाके तटपर स्फटिकमणिमय पत्थर सुशोभित होते थे। सदा फूल और फलोंसे भरे 
हुए वृक्षसमूह वहाँकी शोभा बढ़ा रहे थे। गंगाके उस तटप्रान्तमें बहुत-से सिंह और व्याप्र 
विचरण करते थे। नाना प्रकारके मृग वहाँ सब ओर भरे हुए थे || २८ ।। 

पुण्याश्रमवतीं रम्यां मनोज्ञाण्डजसेविताम्‌ । 

मन्दरस्य प्रदेशांश्व॒ किन्नरोदुगीतनादितान्‌ ।। २९ |। 

अनेक पवित्र आश्रमोंसे युक्त और मनोहर पक्षियोंसे सेवित रमणीय गंगानदीका दर्शन 
करते हुए आगे बढ़नेपर उन्हें मन्दराचलके प्रदेश दिखायी दिये, जो किन्नरोंके उच्चस्वरसे 
गाये हुए मधुर गीतोंसे मुखरित हो रहे थे || २९ ।। 

हेमरूप्यमयै: शृज्ैननौषधिविदीपितान्‌ | 

तथा मन्दारवृक्षैश्न पुष्पितिरपशोभितान्‌ ॥। ३० |। 

सोने और चाँदीके शिखर तथा फूलोंसे भरे हुए पारिजातके वृक्ष उन पर्वतीय प्रान्तोंकी 
शोभा बढ़ा रहे थे तथा भाँति-भाँतिकी तेजोमयी ओषधियाँ वहाँ अपना प्रकाश फैला रही 


थीं ।। ३० ।। 

स्निग्धाञ्जनचयाकारं सम्प्राप्त: कालपर्वतम्‌ | 

ब्रह्मतुज़ं नदीक्षान्यास्तथा जनपदानपि ।। ३१ ।। 

वे क्रमशः आगे बढ़ते हुए स्निग्ध कज्जलराशिके समान आकारवाले काल पर्वतके 
समीप जा पहुँचे। फिर ब्रह्मतुंग पर्वत, अन्यान्य नदियों तथा बहुत-से जनपदोंको भी उन्होंने 
देखा ।॥। ३१ ।। 

स तुडूं शतशुड्ूं च शर्यातिवनमेव च । 

पुण्यमश्वशिर:स्थानं स्थानमाथर्वणस्य च ॥। ३२ ।। 

वृषदंशं च शैलेन्द्रं महामन्दरमेव च । 

अप्सरोभि: समाकीर्ण किन्नरैश्ञोपशोभितम्‌ ।। ३३ ।। 

तदनन्तर क्रमशः: उच्चतम शतशुंग, शर्यातिवन, पवित्र अश्वशिर:स्थान, आथर्वण 
मुनिका स्थान और गिरिराज वृषदंशका अवलोकन करते हुए वे महा-मन्दराचलपर जा 
पहुँचे, जो अप्सराओंसे व्याप्त और किन्नरोंसे सुशोभित था ।। ३२-३३ ।। 

तस्मिन्‌ शैले व्रजन्‌ पार्थ: सकृष्ण: समवैक्षत । 

शुभे: प्रस्रवणैर्जुष्टां हेमधातुविभूषिताम्‌ ।। ३४ ।। 

चन्द्ररश्मिप्रकाशाड़ीं पृथिवीं पुरमालिनीम्‌ | 

उस पर्वतके ऊपरसे जाते हुए श्रीकृष्णसहित अर्जुनने नीचे देखा कि नगरों एवं गाँवोंके 
समुदायसे सुशोभित, सुवर्णमय धातुओंसे विभूषित तथा सुन्दर झरनोंसे युक्त पृथ्वीके 
सम्पूर्ण अंग चन्द्रमाकी किरणोंसे प्रकाशित हो रहे हैं || ३४३ ।। 

समुद्रांक्षाद्भुताकारानपश्यद्‌ बहुलाकरान्‌ ॥। ३५ ।। 

वियद्‌ द्यां पृथिवीं चैव तथा विष्णुपदं व्रजन्‌ । 

विस्मित: सह कृष्णेन क्षिप्तो बाण इवाभ्यगात्‌ ॥। ३६ ।। 

बहुत-से रत्नोंकी खानोंसे युक्त समुद्र भी अद्भुत आकारमें दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस 
प्रकार पृथ्वी, अन्तरिक्ष और आकाशका एक साथ दर्शन करके आश्वर्यचकित हुए अर्जुन 
श्रीकृष्णके साथ विष्णुपद (उच्चतम आकाश)-में यात्रा करने लगे। वे धनुषसे चलाये हुए 
बाणके समान आगे बढ़ रहे थे || ३५-३६ ।। 

ग्रहनक्षत्रसोमानां सूर्यग्न्योश्व॒ समत्विषम्‌ । 

अपश्यत तदा पार्थो ज्वलन्तमिव पर्वतम्‌ ।। ३७ ।। 

तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुनने एक पर्वतको देखा, जो अपने तेजसे प्रज्वलित-सा हो 
रहा था। ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और अग्निके समान उसकी प्रभा सब ओर फैल रही 
थी ।। ३७ ।। 

समासाद्य तु तं शैलं शैलाग्रे समवस्थितम्‌ । 

तपोनित्यं महात्मानमपश्यद्‌ वृषभध्वजम्‌ ।। ३८ ।। 


उस पर्वतपर पहुँचकर अर्जुनने उसके एक शिखरपर खड़े हुए नित्य तपस्यापरायण 
परमात्मा भगवान्‌ वृषभध्वजका दर्शन किया ।। ३८ ।। 

सहस्रमिव सूर्याणां दीप्यमानं स्वतेजसा । 

शूलिनं जटिलं गौरं वल्कलाजिनवाससम्‌ ।। ३९ || 

वे अपने तेजसे सहस्रों सूर्योके समान प्रकाशित हो रहे थे। उनके हाथमें त्रिशूल, 
मस्तकपर जटा और श्रीअंगोंपर वल्कल एवं मृगचर्मके वस्त्र शोभा पा रहे थे। उनकी कान्ति 
गौरवर्णकी थी ।। ३९ ।। 

नयनानां सहस्रश्न विचित्राड़ं महौजसम्‌ । 

पार्वत्या सहित देवं भूतसंघैश्व भास्वरै: ।। ४० ।। 

सहसोौरं नेत्रोंसे युक्त उनके श्रीविग्रहकी विचित्र शोभा हो रही थी। वे तेजस्वी महादेव 
अपनी धर्मपत्नी पार्ववीजीके साथ विराजमान थे और तेजोमय शरीरवाले भूतोंके समुदाय 
उनकी सेवामें उपस्थित थे || ४० ।। 

गीतवादित्रसंनादैहासथलास्यसमन्वितम्‌ । 

वल्गितास्फोटितोकत्क्रुष्टी: पुण्यैर्गन्धैश्ष सेवितम्‌ ।। ४१ ।। 

उनके सम्मुख गीतों और वाद्योंकी मधुर ध्वनि हो रही थी। हास्य-लास्य (नृत्य)-का 
प्रदर्शन किया जा रहा था। प्रमथगण उछल-कूदकर बाहें फैलाकर और उच्चस्वरसे बोल- 
बोलकर अपनी कलाओंसे भगवान्‌का मनोरंजन करते थे। उनकी सेवामें पवित्र, सुगन्धित 
पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे || ४१ ।। 





अर्जुनका स्वप्रदर्शन 


स्तूयमान स्तवैर्दिव्यैऑऋषिभिव्रह्यवादिभि: । 

गोप्तारं सर्वभूतानामिष्वासधरमच्युतम्‌ ।। ४२ ।। 

ब्रह्मवादी महर्षिगण दिव्य स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति कर रहे थे। अपनी महिमासे कभी 
च्युत न होनेवाले वे समस्त प्राणियोंके रक्षक भगवान्‌ शिव धनुष धारण किये हुए (अद्भुत 
शोभा पा रहे) थे | ४२ ।। 

वासुदेवस्तु तं दृष्टया जगाम शिरसा क्षितिम्‌ | 

पार्थेन सह धर्मात्मा गृणन्‌ ब्रह्म सनातनम्‌ ।। ४३ ।। 

अर्जुनसहित धर्मात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णने उन्हें देखते ही वहाँकी पृथ्वीपर माथा 
टेककर प्रणाम किया और उन सनातन ब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ शिवकी स्तुति करने 
लगे ।। ४३ ।। 

लोकादिं विश्वकर्माणमजमीशानमव्ययम्‌ । 

मनस: परम॑ योनिं खं वायुं ज्योतिषां निधिम्‌ ।। ४४ ।। 

स्रष्टारं वारिधाराणां भुवश्च प्रकृतिं पराम्‌ 

देवदानवयक्षाणां मानवानां च साधनम्‌ ॥। ४५ ।। 

योगानां च परं धाम दृष्टं ब्रह्मविदां निधिम्‌ । 

चराचरस्य स्रष्टारं प्रतिहर्तारमेव च ।। ४६ ।। 

कालकोपं महात्मानं शक्रसूर्यगुणोदयम्‌ । 

ववन्दे तं तदा कृष्णो वाड्मनोबुद्धिकर्मभि: ।। ४७ ।। 

वे जगत्‌के आदि कारण, लोकस्रष्टा, अजन्मा, ईश्वर, अविनाशी, मनकी उत्पत्तिके 
प्रधान कारण, आकाश एवं वायुस्वरूप, तेजके आश्रय, जलकी सृष्टि करनेवाले, पृथ्वीके 
भी परम कारण, देवताओं, दानवों, यक्षों तथा मनुष्योंके भी प्रधान कारण, सम्पूर्ण योगोंके 
परम आश्रय, ब्रह्मवेत्ताओंकी प्रत्यक्ष निधि, चराचर जगत्‌की सृष्टि और संहार करनेवाले 
तथा इन्द्रके ऐश्वर्य आदि और सूर्यदेवके प्रताप आदि गुणोंको प्रकट करनेवाले परमात्मा थे। 
उनके क्रोधमें कालका निवास था। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने मन, वाणी, बुद्धि और 
क्रियाओंद्वारा उनकी वन्दना की || ४४--४७ ।। 

य॑ प्रपद्यन्ति विद्वांस: सूक्ष्माध्यात्मपदैषिण: । 

तमजं कारणात्मानं जग्मतु: शरणं भवम्‌ ।। ४८ ।। 

सूक्ष्म अध्यात्मपदकी अभिलाषा रखनेवाले विद्वान्‌ जिनकी शरण लेते हैं, उन्हीं 
कारणस्वरूप अजन्मा भगवान्‌ शिवकी शरणमें श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गये || ४८ ।। 

अर्जुनश्वापि तं देवं॑ भूयो भूयो5प्यवन्दत । 

ज्ञात्वा तं सर्वभूतादिं भूतभव्यभवोद्धवम्‌ ।। ४९ ।। 

अर्जुनने भी उन्हें समस्त भूतोंका आदि कारण और भूत, भविष्य एवं वर्तमान जगत्‌का 
उत्पादक जानकर बारंबार उन महादेवजीके चरणोंमें प्रणाम किया ।। ४९ ।। 


ततस्तावागतौ दृष्टवा नरनारायणावुभौ । 

सुप्रसन्नमना: शर्व: प्रोवाच प्रहसन्निव ।। ५० ।। 

उन दोनों नर और नारायणको वहाँ आया देख भगवान्‌ शंकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त 
होकर हँसते हुए-से बोले-- || ५० ।। 

स्वागतं वो नरश्रेष्ठावुत्तिछ्ठेतां गतक्लमौ । 

किं च वामीप्सितं वीरौ मनस: क्षिप्रमुच्यताम्‌ ।। ५१ ।। 

“नरश्रेष्ठो! तुम दोनोंका स्वागत है। उठो, तुम्हारा श्रम दूर हो। वीरो! तुम दोनोंके मनकी 
अभीष्ट वस्तु क्या है? यह शीघ्र बताओ ।। ५१ ।। 

येन कार्येण सम्प्राप्ती युवां तत्‌ साधयामि किम्‌ | 

व्रियतामात्मन: श्रेयस्तत्‌ सर्व प्रददानि वाम्‌ ।। ५२ ।। 

“तुम दोनों जिस कार्यसे यहाँ आये हो, वह क्‍या है? मैं उसे सिद्ध कर दूँगा। अपने लिये 
कल्याणकारी वस्तुको माँगो। मैं तुम दोनोंको सब कुछ दे सकता हूँ ।। 

ततस्तद्‌ू वचन श्रुत्वा प्रत्युत्थाय कृताञउ्जली । 

वासुदेवार्जुनौ शर्व तुष्टवाते महामती ।। ५३ ।। 

भक्‍त्या स्तवेन दिव्येन महात्मानावनिन्दितो ।। ५४ ।। 

भगवान्‌ शंकरकी यह बात सुनकर अनिन्दित महात्मा परम बुद्धिमान्‌ श्रीकृष्ण और 
अर्जुन हाथ जोड़कर खड़े हो गये और दिव्य स्तोत्रद्वारा भक्तिभावसे उन भगवान्‌ शिवकी 
स्तुति करने लगे || ५३-५४ ।। 


कृष्णाजुनावूचतुः 

नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च । 

पशूनां पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ।। ५५ ।। 

श्रीकृष्ण और अर्जुन बोले--भव (सबकी उत्पत्ति करनेवाले), शर्व (संहारकारी), रुद्र 
(दुःख दूर करनेवाले>), वरदाता, पशुपति (जीवोंके पालक), सदा उग्ररूपमें रहनेवाले और 
जटाजूटधारी भगवान्‌ शिवको नमस्कार है || ५५ |। 

महादेवाय भीमाय त> यम्बकाय च शान्तये । 

ईशानाय मखध्नाय नमो स्त्वन्धकघातिने ।। ५६ ।। 

महान्‌ देवता, भयंकर रूपधारी, तीन नेत्र धारण करनेवाले, शान्तिस्वरूप, सबका 
शासन करनेवाले, दक्षयज्ञनाशक तथा अन्धकासुरका विनाश करनेवाले भगवान्‌ शंकरको 
प्रणाम है ।। ५६ ।। 

कुमारगुरवे तुभ्यं नीलग्रीवाय वेधसे । 

पिनाकिने हविष्याय सत्याय विभवे सदा ।। ५७ || 


प्रभो! आप कुमार कार्तिकेयके पिता, कण्ठमें नील चिह्न धारण करनेवाले, लोकस्रष्टा, 
पिनाकधारी, हविष्यके अधिकारी, सत्यस्वरूप और सर्वत्र व्यापक हैं, आपको सदैव 
नमस्कार है ।। ५७ ।। 

विलोहिताय धूम्राय व्याधायानपराजिते । 

नित्यनीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यचक्षुषे || ५८ ।। 

हन्त्रे गोप्ज्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे । 

अचिन्त्यायाम्बिकाभत्रे सर्वदेवस्तुताय च ।। ५९ ।। 

वृषध्वजाय मुण्डाय जलिने ब्रह्मचारिणे | 

तप्यमानाय सलिले ब्रह्मण्यायाजिताय च ।॥। ६० ।। 

विश्वात्मने विश्वसजे विश्वमावृत्य तिष्ठते । 

नमो नमस्ते सेव्याय भूतानां प्रभवे सदा || ६१ ।। 

विशेष लोहित एवं धूम्रवर्णवाले, मृगव्याधस्वरूप, समस्त प्राणियोंको पराजित 
करनेवाले, सर्वदा नीलकेश धारण करनेवाले, त्रिशूलधारी, दिव्यलोचन, संहारक, पालक, 
त्रिनेत्रधारी, पापरूपी मृगोंके बधिक, हिरण्यरेता (अग्नि), अचिन्त्य, अम्बिकापति, सम्पूर्ण 
देवताओंद्वारा प्रशंसित, वृषभ-चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले, मुण्डित मस्तक, 
जटाधारी, ब्रह्मचारी, जलमें तप करनेवाले, ब्राह्मणभक्त, अपराजित, विश्वात्मा, विश्वस्रष्टा, 
विश्वको व्याप्त करके स्थित, सबके सेवन करनेयोग्य तथा सदा समस्त प्राणियोंकी 
उत्पत्तिके कारणभूत आप भगवान्‌ शिवको बारंबार नमस्कार है || ५८--६१ ।। 

ब्रह्मवक्त्राय सर्वाय शड़कराय शिवाय च | 

नमोस्तु वाचस्पतये प्रजानां पतये नम: ।। ६२ ।। 

ब्राह्मण जिनके मुख हैं, उन सर्वस्वरूप कल्याणकारी भगवान्‌ शिवको नमस्कार है। 
वाणीके अधीश्वर और प्रजाओंके पालक आपको नमस्कार है ।। ६२ ।। 

नमो विश्वस्य पतये महतां पतये नम: । 

नमः सहस्रशिरसे सहस्रभुजमृत्यवे ।। ६३ ।। 

सहस्रनेत्रपादाय नमो5संख्येयकर्मणे । 

विश्वके स्वामी और महापुरुषोंके पालक भगवान्‌ शिवको नमस्कार है, जिनके सहस्रों 
सिर और सहसों भुजाएँ हैं, जो मृत्युस्वरूप हैं, जिनके नेत्र और पैर भी सहस्रोंकी संख्यामें 
हैं तथा जिनके कर्म असंख्य हैं, उन भगवान्‌ शिवको नमस्कार है ।। ६३ ३ ।। 

नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च । 

भक्तानुकम्पिने नित्यं सिध्यतां नो वर: प्रभो ।। ६४ ।। 

सुवर्णके समान जिनका रंग है, जो सुवर्णमय कवच धारण करते हैं, उन आप 
भक्तवत्सल भगवानको मेरा नित्य नमस्कार है। प्रभो! हमारा अभीष्ट वर सिद्ध हो ।। 


संजय उवाच 
एवं स्तुत्वा महादेवं वासुदेव: सहार्जुन: । 
प्रसादयामास भवं तदा ह्[स्त्रोपलब्धये || ६५ ।। 
संजय कहते हैं--इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके उस समय अर्जुनसहित 
भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाशुपतास्त्रकी प्राप्तिके लिये भगवान्‌ शंकरको प्रसन्न किया || ६५ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनस्वप्ने अशीतितमो5ध्याय: ।। ८० 
|। 


इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अजुनिस्वप्रविषयक अस्सीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८० ॥ 


नऔशा-<> ड-ण का 


- रुर्दु:खं तद्‌ द्रावयति इति रुद्र: । 


एकाशीतितमो<ध्याय: 
अर्जुनको स्वप्रमें ही पुनः पाशुपतास्त्रकी प्राप्ति 


संजय उवाच 

ततः पार्थ: प्रसन्नात्मा प्राउजलिवुषभध्वजम्‌ | 

ददर्शोत्फुल्लनयन: समस्तं तेजसां निधिम्‌ ॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुनने प्रसन्नचित्त हो हाथ जोड़कर 
समस्त तेजोंके भण्डार भगवान्‌ वृषभध्वजका हर्षोत्फुल्ल नेत्रोंसे दर्शन किया ।। 

त॑ चोपहारं सुकृतं नैशं नैत्यकमात्मना । 

ददर्श तयम्बका भ्याशे वासुदेवनिवेदितम्‌ ।। २ ।। 

उन्होंने अपने द्वारा समर्पित किये हुए रात्रिकालके उस नैत्यिक उपहारको, जिसे 
श्रीकृष्णको निवेदित किया था, भगवान्‌ त्रिनेत्रधारी शिवके समीप रखा हुआ देखा ।। 

ततो5भिपूज्य मनसा कृष्णं शर्व च पाण्डव: । 

इच्छाम्यहं दिव्यमस्त्रमित्यभाषत शड्करम्‌ ।। ३ ।। 

तब पाण्डुपुत्र अर्जुनने मन-ही-मन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और शिवकी पूजा करके भगवान्‌ 
शंकरसे कहा--'प्रभो! मैं आपसे दिव्य अस्त्र प्राप्त करना चाहता हूँ ।। 

ततः पार्थस्य विज्ञाय वरार्थे वचनं तदा । 

वासुदेवार्जुनौ देव: स्मपमानो5भ्यभाषत || ४ ।। 

उस समय अर्जुनका वर-प्राप्तिके लिये वह वचन सुनकर महादेवजी मुसकराने लगे 
और श्रीकृष्ण तथा अर्जुनसे बोले-- || ४ ।। 

स्वागतं वां नरश्रेष्टी विज्ञातं मनसेप्सितम्‌ । 

येन कामेन सम्प्राप्ती भवद्धयां तं॑ ददाम्यहम्‌ ।। ५ ।। 

“नरश्रेष्ठी तुम दोनोंका स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे विदित है। तुम दोनों जिस 
कामनासे यहाँ आये हो, उसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ || ५ ।। 

सरो<मृतमयं दिव्यम भ्याशे शरत्रुसूदनौ । 

तत्र मे तद्‌ धर्नुर्दिव्यं शरश्न निहित: पुरा ।। ६ ।। 

येन देवारय: सर्वे मया युधि निपातिता: । 

तत आनीयतां कृष्णौ सशरं धनुरुत्तमम्‌ । ७ ।। 

शत्रुसूदन वीरो! यहाँ पास ही दिव्य अमृतमय सरोवर है, वहीं पूर्वकालमें मेरा वह दिव्य 
धनुष और बाण रखा गया था, जिसके द्वारा मैंने युद्धमें सम्पूर्ण देव-शत्रुओंकी मार गिराया 
था। कृष्ण! तुम दोनों उस सरोवरसे बाणसहित वह उत्तम धनुष ले आओ' ।। ६-७ ।। 

तथेत्युक्त्वा तु तौ वीरौ सर्वपारिषदैः सह । 


प्रस्थितौ तत्सरो दिव्यं दिव्यैश्वर्यशतैर्युतम्‌ ।। ८ ।। 

निर्दिष्ट यद्‌ वृषाड्केण पुण्यं सर्वार्थसाधकम्‌ | 

तौ जग्मतुरसम्भ्रान्ती नरनारायणावृषी ।। ९ ।। 

तब “बहुत अच्छा” कहकर वे दोनों वीर भगवान्‌ शंकरके पार्षदगणोंके साथ सैकड़ों 
दिव्य ऐश्वर्योंसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले उस पुण्यमय दिव्य 
सरोवरकी ओर प्रस्थित हुए, जिसकी ओर जानेके लिये महादेवजीने स्वयं ही संकेत किया 
था। वे दोनों नर-नारायण ऋषि बिना किसी घबराहटके वहाँ जा पहुँचे ।। 

ततस्तौ तत्‌ सरो गत्वा सूर्यमण्डलसंनिभम्‌ । 

नागमन्तर्जले घोरं ददृशाते<र्जुनाच्युती ।। १० ।। 

उस सरोवरके तटपर पहुँचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनोंने जलके भीतर एक भयंकर 
नाग देखा, जो सूर्यमण्डलके समान प्रकाशित हो रहा था ।। १० ।। 

द्वितीयं चापरं नागं सहस्रशिरसं वरम्‌ । 

वमन्तं विपुला ज्वाला ददृशातेडग्निवर्चसम्‌ ।। ११ ।। 

वहीं उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी और सहस्र फणोंसे युक्त दूसरा श्रेष्ठ नाग भी देखा, 
जो अपने मुखसे आगकी प्रचण्ड ज्वालाएँ उगल रहा था ।। ११ ।। 

ततः कृष्णश् पार्थश्च संस्पृश्याम्भ: कृताञ्जली । 

तौ नागावुपतस्थाते नमस्यन्तौ वृषध्वजम्‌ ।। १२ ।। 

तब श्रीकृष्ण और अर्जुन जलसे आचमन करके हाथ जोड़ भगवान्‌ शंकरको प्रणाम 
करते हुए उन दोनों नागोंके निकट खड़े हो गये ।। १२ ।। 

गृणन्तौ वेदविद्वांसौ तद्‌ ब्रह्म शतरुद्रियम्‌ 

अप्रमेयं प्रणमतो गत्वा सर्वात्मना भवम्‌ ।। १३ ।। 

वे दोनों ही वेदोंके विद्वान्‌ थे। अतः उन्होंने शतरुद्री मन्त्रोंका पाठ करते हुए साक्षात्‌ 
ब्रह्मस्वरूप अप्रमेय शिवकी सब प्रकारसे शरण लेकर उन्हें प्रणाम किया ।। १३ ।। 

ततस्तौ रुद्रमाहात्म्याद्धित्वा रूप॑ महोरगौ । 

भधनुर्बाणश्न शत्रुघ्नं तद्‌ द्वन्डे समपद्यत ।। १४ ।। 

तदनन्तर भगवान्‌ शंकरकी महिमासे वे दोनों महानाग अपने उस रूपको छोड़कर दो 
शत्रुनाशक धनुष-बाणके रूपमें परिणत हो गये ।। १४ ।। 

तौ तज्जगृहतुः प्रीतौ धनुर्बाणं च सुप्रभम्‌ । 

आजतद्नतुर्महात्मानौ ददतुश्न महात्मने ।। १५ ।। 

उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस प्रकाशमान धनुष 
और बाणको हाथमें ले लिया। फिर वे उन्हें महादेवजीके पास ले आये और उन्हीं महात्माके 
हाथोंमें अर्पित कर दिया ।। १५ ।। 

ततः पार्श्वाद्‌ वृषाड्कस्य ब्रह्मचारी न्यवर्तत । 


पिड्ञाक्षस्तपस: क्षेत्र बलवान्‌ नीललोहित: ।। १६ ।। 

तब भगवान्‌ शंकरके पार्श्रभागसे एक ब्रह्मचारी प्रकट हुआ, जो पिंगल नेत्रोंसे युक्त, 
तपस्याका क्षेत्र, बलवान्‌ तथा नील-लोहित वर्णका था ।। १६ ।। 

स तद्‌ गृहा धनुःश्रेष्ठ तस्थौ स्थानं समाहितः । 

विचकर्षाथ विधिवत्‌ सशरं धनुरुत्तमम्‌ ।। १७ ।। 

वह एकाग्रचित्त हो उस श्रेष्ठ धनुषको हाथमें लेकर एक धनुर्धरको जैसे खड़ा होना 
चाहिये, वैसे खड़ा हुआ। फिर उसने बाणसहित उस उत्तम धनुषको विधिपूर्वक खींचा ।। 





तस्य मौर्वी च मुष्टिं च स्थान चालक्ष्य पाण्डव: । 

श्र॒त्वा मन्त्र भवप्रोक्त जग्राहाचिन्त्यविक्रम: ।। १८ ।। 

उस समय अचिन्त्य पराक्रमी पाण्डुपुत्र अर्जुनने उसका मुद्ठीसे धनुष पकड़ना, 
धनुषकी डोरीको खींचना और विशेष प्रकारसे उसका खड़ा होना--इन सब बातोंकी ओर 
लक्ष्य रखते हुए भगवान्‌ शंकरके द्वारा उच्चारित मन्त्रको सुनकर मनसे ग्रहण कर 
लिया ।। १८ ।। 

स सरस्येव तं बाणं मुमोचातिबल: प्रभु: । 

चकार च पुनर्वीरस्तस्मिन्‌ सरसि तद्‌ धनुः ॥। १९ ।। 

तत्पश्चात्‌ अत्यन्त बलशाली वीर भगवान्‌ शिवने उस बाणको उसी सरोवरमें छोड़ 
दिया। फिर उस धनुषको भी वहीं डाल दिया ।। १९ |। 

ततः प्रीतं भवं ज्ञात्वा स्मृतिमानर्जुनस्तदा । 


वरमारण्यके दत्तं दर्शन शड्करस्य च ।। २० ।। 

मनसा चिन्तयामास तन्‍मे सम्पद्यतामिति | 

तब स्मरणशक्तिसे सम्पन्न अर्जुनने भगवान्‌ शंकरको अत्यन्त प्रसन्न जानकर वनवासके 
समय जो भगवान्‌ शंकरका दर्शन और वरदान प्राप्त हुआ था, उसका मन-ही-मन चिन्तन 
किया और यह इच्छा की कि मेरा वह मनोरथ पूर्ण हो || २० ६ ।। 

तस्य तन्मतमाज्ञाय प्रीत: प्रादाद्‌ वरं भव: ।। २१ ।। 

तच्च पाशुपतं घोरें प्रतिज्ञायाश्व॒ पारणम्‌ । 

उनके इस अभिप्रायको जानकर भगवान्‌ शंकरने प्रसन्न हो वरदानके रूपमें वह घोर 
पाशुपत अस्त्र, जो उनकी प्रतिज्ञाकी पूर्ति करानेवाला था, दे दिया || २१६ ।। 

ततः पाशुपतं दिव्यमवाप्य पुनरीश्वरात्‌ ।। २२ ।। 

संहृष्टरोमा दुर्धर्ष: कृतं कार्यममन्यत । 

भगवान्‌ शंकरसे उस दिव्य पाशुपतास्त्रको पुनः प्राप्त करके दुर्धर्ष वीर अर्जुनके 
शरीरमें रोमांच हो आया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब मेरा कार्य पूर्ण हो 
जायगा | २२३ || 

ववन्दतुश्च संहृष्टौ शिरोभ्यां तं महेश्वरम्‌ ।। २३ ।। 

अनुज्ञातौ क्षणे तस्मिन्‌ भवेनार्जुनकेशवौ । 

प्राप्तौी स्‍्वशिबिरं वीरी मुदा परमया युतौ ।। २४ ।। 

फिर तो अत्यन्त हर्षमें भरे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महापुरुषोंने मस्तक नवाकर 
भगवान महेश्वरको प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले उसी क्षण वे दोनों वीर बड़ी 
प्रसन्नताके साथ अपने शिविरको लौट आये ।। २३-२४ ।। 

तथा भवेनानुमतौ महासुरनिघातिना । 

इन्द्राविष्णू यथा प्रीती जम्भस्य वधकाड्क्षिणौ || २५ ।। 

जैसे पूर्वकालमें जम्भासुरके वधकी इच्छा रखनेवाले इन्द्र और विष्णु महासुरविनाशक 
भगवान्‌ शंकरकी अनुमति पाकर प्रसन्नतापूर्वक लौटे थे, उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन 
भी आनन्दित होकर अपने शिविरमें आये ।। २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनस्य पुन: पाशुपतास्त्रप्राप्तौ 
एकाशीतितमो<ध्याय: ॥। ८१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापवरमें अर्जुनको पुनः पाशुपतासत्रकी 
प्राप्तिविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८१ ॥ 


ऑपन-माज बक। |: 


द्रयशीतितमो< ध्याय: 


युधिष्ठटिरका प्रात:काल उठकर स्नान और नित्यकर्म आदिसे 
निवत्त हो ब्राह्मणोंको दान देना, वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो 
सिंहासनपर बैठना और वहाँ पधारे हुए भगवान्‌ 
श्रीकृष्णका पूजन करना 


संजय उवाच 

तयो: संवदतोरेवं कृष्णदारुकयोस्तथा । 

सात्यगाद्‌ रजनी राजन्नथ राजा<न्वबुध्यत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इधर श्रीकृष्ण और दारुकमें पूर्वोक्त प्रकारसे बातें हो ही रही 
थीं कि वह रात बीत गयी। दूसरी ओर राजा युधिष्ठिर भी जाग गये ।। १ ।। 

पठन्ति पाणिस्वनिका मागधा मधुपर्किका: । 

वैतालिकाश्न सूताश्न तुष्टवुः पुरुषर्षभम्‌ ।। २ ।। 

उस समय हाथसे ताली देकर गीत गानेवाले तथा मांगलिक वस्तुओंको प्रस्तुत 
करनेवाले सूत, मागध और वैतालिक जन पुरुषश्रेष्ठ युधिष्ठिरकी स्तुति करने लगे || २ ।। 

नर्तकाश्चाप्यनृत्यन्त जगुर्गीतानि गायका: । 

कुरुवंशस्तवार्थानि मधुरं रक्तकण्ठिन: ।। ३ ।। 

नर्तक नाचने और रागयुक्त कण्ठवाले गायक कुरुकुलकी स्तुतिसे युक्त मधुर गीत गाने 
लगे |। ३ ।। 

मृदज्भा झर्झरा भेरय: पणवानकगोमुखा: । 

आडब्बराश्न शड्खाश्न दुन्दुभ्यश्ष महास्वना: ।। ४ || 

एवमेतानि सर्वाणि तथान्यान्यपि भारत । 

वादयन्ति सुसंहृष्टा: कुशला: साधुशिक्षिता: ।। ५ ।। 

भारत! सुशिक्षित एवं कुशल वादक अत्यन्त हर्षमें भरकर मृदंग, झाँझ, भेरी, पणव, 
आनक, गोमुख, आउडम्बर, शंख और बड़े जोरसे बजनेवाली दुन्दुभियाँ तथा दूसरे प्रकारके 
वाद्योंको भी बजाने लगे || ४-५ ।। 

समेघसमनिर्घोषो महान्‌ शब्दो5स्पृशद्‌ दिवम्‌ । 

पार्थिवप्रवरं सुप्तं युधिष्ठिरमबोधयत्‌ ।। ६ ।। 

वाद्योंका वह मेघके समान गम्भीर एवं महान्‌ घोष आकाशतक फैल गया। उस ध्वनिने 
सोये हुए नृपश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिरको जगा दिया ।। ६ ।। 

प्रतिबुद्ध: सुखं सुप्तो महाहें शयनोत्तमे । 


उत्थायावश्यकार्यार्थ ययौ स्नानगृहं नृूप: ।॥ ७ ।। 

बहुमूल्य एवं उत्तम शय्यापर सुखपूर्वक सोकर जगे हुए राजा युधिष्ठिर वहाँसे उठकर 
आवश्यक कार्यके लिये स्नान करने गये ।। ७ ।। 

ततः शुक्लाम्बरा: स्नातास्तरुणा: शतमष्ट च | 

स्‍्नापका: काउ्चनै: कुम्भै: पूर्ण: समुपतस्थिरे ।। ८ ।। 

वहाँ स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण किये हुए एक सौ आठ युवक सोनेके घड़ोंमें जल 
भरकर उन्हें नहलानेके लिये उपस्थित हुए ।। ८ ।। 

भद्रासने सूपविष्ट: परिधायाम्बरं लघु । 

सस्नौ चन्दनसंयुक्तै: पानीयैरभिमन्त्रितै: । ९ ।। 

उस समय एक हलका वस्त्र पहनकर राजा युधिष्छिर भद्रासन (चौकी)-पर बैठ गये और 
चन्दनयुक्त मन्त्रपूत जलसे स्नान करने लगे ।। ९ |। 





उत्सादित: कषायेण बलवडद्धिः सुशिक्षितै: । 

आप्लुत: साधिवासेन जलेन स सुगन्धिना ।। १० ।। 

सबसे पहले बलवान्‌ तथा सुशिक्षित पुरुषोंने सर्वोषधि आदिद्वारा तैयार किये हुए 
उबटनसे उनके शरीरको अच्छी तरह मला, फिर उन्होंने अधिवासित एवं सुगन्धित जलसे 
स्नान किया ।। १० ।। 

राजहंसनिभं प्राप्य उष्णीषं शिथिलार्पितम्‌ | 


जलक्षयनिमित्त॑ वै वेष्टयामास मूर्थनि ।। ११ ।। 

तत्पश्चात्‌ राजहंसके समान सफेद ढीलीढाली पगड़ी लेकर माथेका जल सुखानेके लिये 
उसे मस्तकपर लपेट लिया ।। ११ ।। 

हरिणा चन्दनेनाड्रमुपलिप्य महाभुज: । 

स्रग्वी चाक्लिष्टवसन: प्राड्मुख: प्राउजलि: स्थित: ।। १२ ।। 

फिर वे महाबाहु युधिष्ठिर अपने सारे अंगोंमें हरिचन्दनका अनुलेपन करके नूतन वस्त्र 
और पुष्पमाला धारण किये हाथ जोड़े पूर्वांभिमुख होकर बैठ गये ।। १२ ।। 

जजाप जप्यं कौन्तेय: सतां मार्गमनुछित: । 

तत्राग्निशरणं दीप्तं प्रविवेश विनीतवत्‌ ।। १३ ।। 

सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने जपनेयोग्य गायत्री मनन्‍्त्रका जप 
किया और प्रज्वलित अग्निसे प्रकाशित अग्निशालामें विनीतभावसे प्रवेश किया ।। १३ ।। 

समिद्धिः सपवित्राभिरग्निमाहुतिभिस्तथा । 

मन्त्रपूताभिररचिर त्वा निश्चक्राम गृहात्‌ ततः ।। १४ ।। 

वहाँ पवित्री (कुशके दो पत्तों)-सहित समिधाओं तथा मन्त्रपूत आहुतियोंसे अग्निदेवकी 
पूजा करके वे उस अग्निहोत्रगृहसे बाहर निकले ।। १४ ।। 

द्वितीयां पुरुषव्याप्र: कक्ष्यां निर्गम्य पार्थिव: । 

ततो वेदविदो वृद्धानपश्यद्‌ ब्राह्मणर्षभान्‌ ।। १५ ।। 

फिर शिविरकी दूसरी ड्योढ़ी पार करके पुरुषसिंह राजा युधिष्िरने वेदवेत्ता वृद्ध 
ब्राह्मण-शिरोमणियोंको देखा ।। १५ ।। 

दान्तान्‌ वेदव्रतस्नातान्‌ स्‍सनातानवभृथेषु च । 

सहस्रानुचरान्‌ सौरान्‌ सहस्र॑ चाष्ट चापरान्‌ ।। १६ ।। 

वे सब-के-सब जितेन्द्रिय, वेदाध्ययनके व्रतमें निष्णात, यज्ञान्तस्नानसे पवित्र तथा 
सूर्यदेवके उपासक थे। वे संख्यामें एक हजार आठ थे और उनके साथ एक सहस्र अनुचर 
थे।। १६ |। 

अक्षतै: सुमनोभिश्व वाचयित्वा महाभुज: । 

तान्‌ द्विजान्‌ मधुसर्पिरभभ्या फलै: श्रेष्ठे: सुमज्लै: ।। १७ ।। 

प्रादात्‌ काज्चनमेकैकं निष्कं विप्राय पाण्डव: । 

तब महाबाहु पाण्बुपुत्र युधिष्ठिरने अक्षत-फ़ूल देकर उन ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराया 
और उनमेंसे प्रत्येक ब्राह्मणको मधु, घी एवं श्रेष्ठ मांगलिक फलोंके साथ एक-एक स्वर्णमुद्रा 
प्रदान की || १७६ ।। 

अलंकृतं चाश्वशतं वासांसीश श्र दक्षिणा: ।। १८ ।। 

तथा गा: कपिला दोग्ध्री: सवत्सा: पाण्डुनन्दन: । 

हेमशुज्रा रौप्यखुरा दत्त्वा चक्रे प्रदक्षिणम्‌ ।। १९ ।। 


इसके सिवा उन पाण्डुनन्दनने ब्राह्मणोंको सजे-सजाये सौ घोड़े, उत्तम वस्त्र, 
इच्छानुसार दक्षिणा और बछड़ोंसहित दूध देनेवाली बहुत-सी कपिला गौएँ दीं। उन गौओंके 
सींगोंमें सोने और खुरोंमें चाँदी मढ़े हुए थे। उन सबको देकर युधिष्ठिरने उन (गौओं एवं 
ब्राह्मणों)-की परिक्रमा की ।। १८-१९ |। 

स्वस्तिकान्‌ वर्धमानांश्व नन्द्यावर्ताश्न काज्चनान्‌ | 

माल्यं च जलकुम्भांश्व ज्वलितं च हुताशनम्‌ ।। २० ।। 

पूर्णान्यक्षतपात्राणि रुचकं रोचनास्तथा । 

स्वलंकृता: शुभा: कन्या दधिसर्पिर्मधूदकम्‌ ।। २१ ।। 

मड़ल्यान्‌ पक्षिणश्रैव यच्चान्यदपि पूजितम्‌ | 

दृष्टवा स्पृष्टवा च कौन्तेयो बाह्यां कक्ष्यां ततो5गमत्‌ ।। २२ ।। 

तत्पश्चात्‌ सोनेके बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुहवाले अर्घपात्र, माला, जलसे भरे 
हुए कलश, प्रज्वलित अग्नि, अक्षतसे भरे हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणोंसे 
विभूषित सुन्दरी कन्याएँ, दही, घी, मधु, जल, मांगलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त 
वस्तुएँ हैं, उन सबको देखकर और उनमेंसे कुछका स्पर्श करके कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने 
बाहरी ड्योढीमें प्रवेश किया || २०--२२ ।। 

ततस्तस्यां महाबाहोस्तिष्ठत: परिचारका: । 

सौवर्ण सर्वतोभद्रं मुक्तावैदूर्यमण्डितम्‌ ।। २३ ।। 

परार्घ्यास्तरणास्तीर्ण सोत्तरच्छदमृद्धिमत्‌ । 

विश्वकर्मकृतं दिव्यमुपजहुर्वरासनम्‌ ।। २४ ।। 

उस डायोढ़ीमें खड़े हुए महाबाहु युधिष्ठिरके सेवकोंने उनके लिये सोनेका बना हुआ एक 
सर्वतोभद्र नामक श्रेष्ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जड़ी हुई थी। उसपर 
बहुमूल्य बिछौना बिछा हुआ था। उसके ऊपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं 
समृद्धिशाली सिंहासन साक्षात्‌ विश्वकर्माका बनाया हुआ था ।। २३-२४ ।। 

तत्र तस्योपविष्टस्य भूषणानि महात्मन: । 

उपाजहुर्महाहणि प्रेष्या: शुभ्रीाणि सर्वश: ।। २५ ।। 

वहाँ बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिरको उनके सेवकोंने सब प्रकारके उज्ज्वल एवं 
बहुमूल्य आभूषण भेंट किये || २५ ।। 

मुक्ताभरणवेषस्य कौन्तेयस्य महात्मन: । 

रूपमासीन्महाराज द्विषतां शोकवर्धनम्‌ ।। २६ ।। 

महाराज! मुक्तामय आभूषणोंसे विभूषित वेशवाले महात्मा कुन्तीनन्दनका स्वरूप उस 
समय शत्रुओंका शोक बढ़ा रहा था ।। २६ ।। 

चामरैश्वन्द्ररश्म्या भै्हेमदण्डै: सुशो भनै: । 

दोधूयमानै: शुशुभे विद्युद्धिरिव तोयद: ।। २७ ।। 


चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेत तथा सुवर्णमय दण्डवाले सुन्दर शोभाशाली अनेक 
चँवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिरकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियोंसे 
मेघ सुशोभित होता है || २७ ।। 

संस्तूयमान: सूतैश्न वन्द्यमानश्न वन्दिभि: । 

उपगीयमानो गन्धर्वैरास्ते सम कुरुनन्दन: ।। २८ ।। 

उस समय सूतगण स्तुति करते थे, वन्दीजन वन्दना कर रहे थे और गन्धर्वगण उनके 
सुयशके गीत गाते थे। इन सबसे घिरे हुए युधिष्ठिर वहाँ सिंहासनपर विराजमान 
थे ।। २८ ।। 

ततो मुहूर्तादासीत्‌ तु स्यन्दनानां स्वनो महान्‌ । 

नेमिघोषश्न रथिनां खुरघोषश्न वाजिनाम्‌ ।। २९ ।। 

तदनन्तर दो ही घड़ीमें रथोंका महान्‌ शब्द गूँज उठा। रथियोंके रथोंके पहियोंकी 
घरघराहट और घोड़ोंकी टापोंके शब्द सुनायी देने लगे || २९ ।। 

ह्रादेन गजघण्टानां शड्खानां निनदेन च । 

नराणां पदशब्दैश्व॒ कम्पतीव सम मेदिनी ।। ३० ।। 

हाथियोंके घंटोंकी घनघनाहट, शंखोंकी ध्वनि तथा पैदल चलनेवाले मनुष्योंके पैरोंकी 
धमकसे यह पृथ्वी काँपती-सी जान पड़ती थी ।। ३० ।। 

ततः शुद्धान्तमासाद्य जानुभ्यां भूतले स्थित: । 

शिरसा वन्दनीयं तमभिवाद्य जनेश्वरम्‌ ।। ३१ ।। 

कुण्डली बद्धनिस्त्रिंश: संनद्धकवचो युवा । 

अभिप्रणम्य शिरसा द्वा:स्थो धर्मात्मजाय वै ॥। ३२ ।। 

न्यवेदयद्धूषीकेशमुपयान्तं महात्मने । 

इसी समय कानोंमें कुण्डल पहने, कमरमें तलवार बाँधे और वक्ष:स्थलपर कवच धारण 
किये एक तरुण द्वारपालने उस ड्योढ़ीके भीतर प्रवेश करके धरतीपर दोनों घुटने टेक दिये 
और वन्दनीय महाराज युधिष्ठिरको मस्तक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिरसे प्रणाम 
करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिरको यह सूचना दी कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पधार रहे 
हैं ।। ३१-३२ ३ || 

सोअब्रवीत्‌ पुरुषव्याप्र: स्वागतेनैव माधवम्‌ ।। ३३ ।। 

अर्घ्य चैवासनं चास्मै दीयतां परमार्चितम्‌ । 

तब पुरुषसिंह युधिष्ठिरने द्वारपालसे कहा--“तुम माधवको स्वागतपूर्वक ले आओ और 
उन्हें अर्घ्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो” ।। ३३३६ ।। 

ततः प्रवेश्य वाष्णेयमुपवेश्य वरासने । 

पूजयामास विधिवद्‌ धर्मराजो युधिष्िर: ।। ३४ ।। 


तब द्वारपालने भगवान्‌ श्रीकृष्णको भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसनपर बैठा दिया। 
तत्पश्चात्‌ धर्मराज युधिष्ठिरने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि युधिष्ठिरसज्जतायां 
दयशीतितमो<्ध्याय: ।। ८२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें युधिष्ठिरके सुसज्जित होनेसे 
सम्बन्ध रखनेवाला बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ८२ ॥ 


अपना छा | अत-४-#क+ 


तग्रय्शीतितमो<ध्याय: 


अर्जुनकी प्रतिज्ञाको सफल बनानेके लिये युधिष्ठिरकी 
श्रीकृष्णसे प्रार्थना और श्रीकृष्णका उन्हें आश्वासन देना 


संजय उवाच 

ततो युधिष्छिरो राजा प्रतिनन्द्य जनार्दनम्‌ । 

उवाच परमप्रीत: कौन्तेयो देवकीसुतम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिरने अत्यन्त प्रसन्न हो 
देवकीनन्दन जनार्दनका अभिनन्दन करके पूछा-- ।। १ ।। 

सुखेन रजनी व्युष्टा कच्चित्‌ ते मधुसूदन । 

कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत ।। २ ॥। 

“मधुसूदन! क्या आपकी रात सुखपूर्वक बीती है? अच्युत! क्या आपकी सम्पूर्ण 
ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न हैं?” ।। २ ।। 

वासुदेवो5पि तद्युक्त पर्यपृच्छद्‌ युधिष्ठिरम्‌ । 

ततश्न प्रकृती: क्षत्ता न्यवेदयदुपस्थिता: ।। ३ ।। 

तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनसे समयोचित प्रश्न किये। तत्पश्चात्‌ सेवकने आकर 
सूचना दी कि मन्त्री, सेनापति आदि उपस्थित हैं ।। ३ ।। 

अनुज्ञातश्व राज्ञा स प्रावेशयत तं जनम्‌ । 

विराटं भीमसेनं च धृष्टद्युम्नं च सात्यकिम्‌ ।। ४ ।। 

चेदिपं धृष्टकेतुं च द्रुपदं च महारथम्‌ | 

शिखण्डिनं यमौ चैव चेकितानं सकेकयम्‌ ।। ५ ।। 

युयुत्सुं चैव कौरव्यं पाञ्चाल्यं चोत्तमौजसम्‌ । 

युधामन्युं सुबाहुं च द्रौपदेयांश्व॒ सर्वश: ।। ६ ।। 

उस समय महाराजकी अनुमति पाकर विराट, भीमसेन, धृष्टद्युम्न, सात्यकि, चेदिराज 
धृष्टकेतु, महारथी ट्रपद, शिखण्डी, नकुल, सहदेव, चेकितान, केकयराजकुमार, कुरुवंशी 
युयुत्सु, पांचालवीर उत्तमौजा, युधामन्यु, सुबाहु तथा द्रौपदीके पाँचों पुत्र--इन सब लोगोंको 
द्वारपाल भीतर ले आया ।। ४--६ ।। 

एते चान्ये च बहव: क्षत्रिया: क्षत्रियर्षभम्‌ । 

उपतस्थुर्महात्मानं विविशुश्चासने शुभे ।। ७ ।। 

ये तथा और भी बहुत-से क्षत्रियशिरोमणि महात्मा युधिष्ठिरकी सेवामें उपस्थित हुए 
और सुन्दर आसनपर बैठे ।। ७ ।। 


एकस्मिन्नासने वीरावुपविष्टौ महाबलौ । 

कृष्णश्न युयुधानश्व महात्मानौ महाद्युती ॥। ८ ।। 

महाबली और महातेजस्वी महात्मा श्रीकृष्ण और सात्यकि ये दोनों वीर एक ही 
आसनपर बैठे थे || ८ ।। 

ततो युधिष्ठिरस्तेषां शृण्वतां मधुसूदनम्‌ | 

अब्रवीत्‌ पुण्डरीकाक्षमाभाष्य मधुरं वच: ।। ९ ।। 

तब युधिष्ठिरने उन सब लोगोंके सुनते हुए कमलनयन भगवान्‌ मधुसूदनको सम्बोधित 
करके मधुर वाणीमें कहा-- ।। ९ ।। 

एकं॑ त्वां वयमाश्रित्य सहस्राक्षमिवामरा: । 

प्रार्थयामो जयं युद्धे शाश्वतानि सुखानि च ।। १० ।। 

'प्रभो! जैसे देवता इन्द्रका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार हमलोग एकमात्र आपका सहारा 
लेकर युद्धमें विजय और शाश्वत सुख पाना चाहते हैं || १० ।। 

त्वं हि राज्यविनाशं च द्विषद्धिश्न निराक्रियाम्‌ 

क्लेशांश्व विविधान्‌ कृष्ण सर्वास्तानपि वेद न: ।। ११ ।। 

“श्रीकृष्ण! शत्रुओंने जो हमारे राज्यका नाश करके हमारा तिरस्कार किया और भाँति- 
भाँतिके क्लेश दिये, उन सबको आप अच्छी तरह जानते हैं ।। ११ ।। 

त्वयि सर्वेश सर्वेषामस्माकं भक्तवत्सल | 

सुखमायत्तमत्यर्थ यात्रा च मधुसूदन ।। १२ ।। 

“भक्तवत्सल सर्वेश्वर! मधुसूदन! हम सब लोगोंका सुख और जीवन-निर्वाह पूर्णरूपसे 
आपके ही अधीन है ।। १२ ।। 

स तथा कुरु वार्ष्णेय यथा त्वयि मनो मम । 

अर्जुनस्य यथा सत्या प्रतिज्ञा स्थाच्चिकीर्षिता ।। १३ ।। 

4वार्ष्णेय! हमारा मन आपमें ही लगा हुआ है। अतः आप ऐसा करें, जिससे अर्जुनकी 
अभीष्ट प्रतिज्ञा सत्य होकर रहे ।। १३ ।। 

स भवांस्तारयत्वस्माद्‌ दुःखामर्षमहार्णवात्‌ । 

पार तितीर्षतामद्य प्लवो नो भव माधव ।॥। १४ ।। 

“माधव! आज इस दु:ख और अमर्षके महासागरसे पार होनेकी इच्छावाले हम सब 
लोगोंके लिये आप नौका बन जाइये। आप ही इस संकटसे हमारा उद्धार कीजिये ।। १४ ।। 

न हि तत्‌ कुरुते संख्ये रथी रिपुवधोद्यत: । 

यथा वै कुरुते कृष्ण सारथिर्यत्नमास्थित: ।। १५ ।। 

'श्रीकृष्ण! संग्राममें शत्रुवधके लिये उद्यत हुआ रथी भी वैसा कार्य नहीं कर पाता, 
जैसा कि प्रयत्नशील सारथि कर दिखाता है ।। १५ ।। 

यथैव सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीन्‌ जनार्दन । 


तथैवास्मान्‌ महाबाहो वृजिनात्‌ त्रातुमहसि ।। १६ ।। 

“महाबाहु जनार्दन! जैसे आप वृष्णिवंशियोंको सम्पूर्ण आपत्तियोंसे बचाते हैं, उसी 
प्रकार हमारी भी इस संकटसे रक्षा कीजिये ।। १६ ।। 

त्वमगाधे5प्लवे मग्नान्‌ पाण्डवान्‌ कुरुसागरे । 

समुद्धर प्लवो भूत्वा शड्खचक्रगदाधर ।। १७ ।। 

'शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले परमेश्वर! नौकारहित अगाध कौरव-सागरमें 
निमग्न पाण्डवोंका आप स्वयं ही नौका बनकर उद्धार कीजिये ।। १७ ।। 

नमस्ते देवदेवेश सनातन विशातन । 

विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम || १८ ।। 

'शत्रुनाशक! सनातन देवदेवेश्वर! विष्णो! जिष्णो! हरे! कृष्ण! वैकुण्ठ! पुरुषोत्तम! 
आपको नमस्कार है ॥। १८ ।। 

नारदस्त्वां समाचख्यौ पुराणमृषिसत्तमम्‌ | 

वरदं शार््रिणं श्रेष्ठ तत्‌ सत्यं कुरू माधव ।। १९ ।। 

“माधव! देवर्षि नारदने बताया है कि आप शार्कह््धनुष धारण करनेवाले, सर्वोत्तम 
वरदायक, पुरातन ऋषिश्रेष्ठ नारायण हैं, उनकी वह बात सत्य कर दिखाइये ।। १९ ।। 

इत्युक्त: पुण्डरीकाक्षो धर्मराजेन संसदि । 

तोयमेघस्वनो वागम्मी प्रत्युवाच युधिछ्िरम्‌ ।। २० ।। 

उस राजसभामें धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर उत्तम वक्ता कमलनयन भगवान्‌ 
श्रीकृष्णने सजल मेघके समान गम्भीर वाणीमें उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया || २० ।। 


वायुदेव उवाच 


सामरेष्वपि लोकेषु सर्वेषु न तथाविध: । 

शरासनधर: कश्चिद्‌ यथा पार्थो धनञज्जय: ॥। २१ || 

श्रीकृष्ण बोले--राजन्‌! देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें कोई भी वैसा धनुर्धर नहीं है, 
जैसे आपके भाई कुन्तीकुमार धनंजय हैं || २१ ।। 

वीर्यवानस्त्रसम्पन्न: पराक्रान्तो महाबल: । 

युद्धशौण्ड: सदामर्षी तेजसा परमो नृणाम्‌ ।। २२ ।। 

वे शक्तिशाली, अस्त्रज्ञानसम्पन्न, पराक्रमी, महाबली, युद्धकुशल, सदा अमर्षशील और 
मनुष्योंमें परम तेजस्वी हैं || २२ ।। 

स युवा वृषभस्कन्धो दीर्घबाहुर्महाबल: । 

सिंहर्षभगति: श्रीमान्‌ द्विषतस्ते हनिष्यति ।। २३ ।। 

अर्जुनके कंधे वृषभके समान सुषुष्ट हैं, भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, उनकी चाल भी श्रेष्ठ 
सिंहके सदृश है, वे महान्‌ बलवान्‌ युवक और श्रीसम्पन्न हैं, अतः आपके शत्रुओंको अवश्य 


मार डालेंगे || २३ ।। 

अहं च तत्‌ करिष्यामि यथा कुन्तीसुतो<र्जुन: । 

धार्तराष्ट्रस्य सैन्यानि धक्ष्यत्यग्निरिवेन्धनम्‌ ।। २४ ।। 

मैं भी वही करूँगा, जिससे कुन्तीपुत्र अर्जुन दुर्योधनकी सारी सेनाओंको उसी प्रकार 
जला डालेंगे, जैसे आग ईंधनको जलाती है ।। २४ ।। 

अद्य तं॑ पापकर्माणि क्षुद्रें सौ भद्रघातिनम्‌ । 

अपुनर्दर्शनं मार्गमिषुशि: क्षेप्स्यतेडर्जुन: ।। २५ ।। 

आज सुभद्राकुमार अभिमन्युकी हत्या करनेवाले उस नीच पापी जयद्रथको अर्जुन 
अपने बाणोंद्वारा उस मार्गपर डाल देंगे, जहाँ जानेपर उस जीवका पुनः: इस लोकमें दर्शन 
नहीं होता || २५ || 

तस्याद्य गृध्रा: श्येनाश्न चण्डगोमायवस्तथा । 

भक्षयिष्यन्ति मांसानि ये चान्ये पुरुषादका: ।। २६ ।। 

आज गीध, बाज, क्रोधमें भरे हुए गीदड़ तथा अन्य नरभक्षी जीव-जन्तु जयद्रथका 
मांस खायेंगे | २६ ।। 

यद्यस्य देवा गोप्तार: सेन्द्रा: सर्वे तथाप्यसौ । 

राजधानीं यमस्याद्य हत: प्राप्स्यति संकुले ।। २७ ।। 

यदि इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी उसकी रक्षाके लिये आ जायँ तथापि वह आज 
संग्राममें मारा जाकर यमराजकी राजधानीमें अवश्य जा पहुँचेगा || २७ ।। 

निहत्य सैन्धवं जिष्णुरद्य त्वामुपयास्यति । 

विशोको विज्वरो राजन्‌ भव भूतिपुरस्कृत: ।। २८ ।। 

राजन! आज विजयशील अर्जुन जयद्रथको मारकर ही आपके पास आयेंगे, आप 
ऐश्वर्यसे सम्पन्न रहकर शोक और चिन्ताको त्याग दीजिये ।। २८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये ऋ%यशीतितमो<ध्याय: ।। 
८३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक तिरासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८३ ॥ 


हि ही बक। हि मा 


चतुरशीतितमो< ध्याय: 


युधिष्ठिरका अर्जुनको आशीर्वाद, कद हक का स्वप्न सुनकर 

समस्त सुहृदोंकी प्रसन्नता, सात्यकि और श्रीकृष्णके साथ 

रथपर बैठकर अर्जुनकी रणयात्रा तथा अर्जुनके कहनेसे 
सात्यकिका युधिष्ठिरकी रक्षाके लिये जाना 


संजय उवाच 

तथा तु वदतां तेषां प्रादुरासीद्‌ धनंजय: । 

दिदृक्षुर्भरतश्रेष्ठ राजानं ससुह्ददूगणम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! इस प्रकार उन लोगोंमें बातचीत हो ही रही थी कि 
सुहृदोंसहित भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरका दर्शन करनेकी इच्छासे अर्जुन वहाँ आ गये ।। १ ॥। 

त॑ निविष्टं शुभां कक्ष्यामभिवन्द्याग्रत: स्थितम्‌ | 

तमुत्थायार्जुन॑ प्रेम्णा सस्वजे पाण्डवर्षभ: ।। २ ।॥। 

उस सुन्दर ड्योढ़ीमें प्रवेश करके राजाको प्रणाम करनेके पश्चात्‌ उनके सामने खड़े हुए 
अर्जुनको पाण्डव-दश्रेष्ठ युधिष्ठिरने उठकर प्रेमपूर्वक हृदयसे लगा लिया ।। 

मूर्थ्नि चैनमुपाप्राय परिष्वज्य च बाहुना । 

आशिष: परमा: प्रोच्य स्मयथमानो5भ्यभाषत ।। ३ ।। 

उनका मस्तक सूँघकर और एक बाँहसे उनका आलिंगन करके उन्हें उत्तम आशीर्वाद 
देते हुए राजाने मुसकराकर कहा-- || ३ || 

व्यक्तमर्जुन संग्रामे ध्रुवस्ते विजयो महान्‌ । 

यादगूपा च ते च्छाया प्रसन्नश्च जनार्दन: ।। ४ ।। 

“अर्जुन! आज संग्राममें तुम्हें निश्चय ही महान्‌ विजय प्राप्त होगी, यह बात स्पष्टरूपसे 
दृष्टिगोचर हो रही है; क्योंकि इसीके अनुरूप तुम्हारे मुखकी कान्ति है और भगवान्‌ 
श्रीकृष्ण भी प्रसन्न हैं! |। ४ ।। 

तमब्रवीत्‌ ततो जिष्णुर्महदा श्चर्यमुत्तमम्‌ । 

दृष्टवानस्मि भद्रं ते केशवस्य प्रसादजम्‌ ।। ५ ।। 

“तब विजयशील अर्जुनने उनसे कहा--राजन्‌! आपका कल्याण हो। आज मैंने बहुत 
उत्तम और आश्चर्यजनक स्वप्न देखा है। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे ही वैसा स्वप्न प्रकट 
हुआ था” || ५ || 

ततस्तत्‌ कथयामास यथा दृष्टं धनंजय: । 

आश्चासनार्थ सुदह्ददां ऋ्यम्बकेण समागमम्‌ ।। ६ ।। 


यों कहकर अर्जुन अपने सुहृदोंके आश्वासनके लिये जिस प्रकार भगवान्‌ शंकरसे 
मिलनका स्वप्न देखा था, वह सब कह सुनाया ।। ६ ।। 

ततः शिरोभिरवरनिं स्पृष्टवा सर्वे च विस्मिता: । 

नमस्कृत्य वृषाड्काय साधु साधथ्वित्यथाब्रुवन्‌ ।। ७ ।। 

यह स्वप्न सुनकर वहाँ आये हुए सब लोग आश्चर्यचकित हो उठे और सबने धरतीपर 
मस्तक टेककर भगवान्‌ शंकरको प्रणाम करके कहा--“यह तो बहुत अच्छा हुआ, बहुत 
अच्छा हुआ' || ७ |। 

अनुज्ञातास्ततः सर्वे सुहृदो धर्मसूनुना । 

त्वरमाणा: सुसंनद्धा हृष्टा युद्धाय निर्ययु: ॥। ८ ।। 

तदनन्तर धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी आज्ञा लेकर कवच धारण किये हुए समस्त सुहृद्‌ हर्षमें 
भरकर शीतघ्रतापूर्वक वहाँसे युद्धके लिये निकले ।। ८ ।। 

अभिवाद्य तु राजानं युयुधानाच्युतार्जुना: । 

हृष्टा विनिर्ययुस्ते वै युधिष्ठिरनिवेशनात्‌ ।। ९ ।। 

तत्पश्चात्‌ राजा युधिष्ठिरको प्रणाम करके सात्यकि, श्रीकृष्ण और अर्जुन बड़े हर्षके 
साथ उनके शिविरसे बाहर निकले ।। ९ ।। 

रथेनैकेन दुर्धर्षा युयुधानजनार्दनौ । 

जग्मतु: सहितौ वीरावर्जुनस्य निवेशनम्‌ ।। १० ।। 

दुर्धर्ष वीर सात्यकि और श्रीकृष्ण एक रथपर आरूढ़ हो एक साथ अर्जुनके शिविरमें 
गये ।। १० ।। 

तत्र गत्वा हृषीकेश: कल्पयामास सूतवत्‌ । 

रथं रथवरस्याजौ वानरर्षभलक्षणम्‌ ।। ११ ।। 

वहाँ पहुँचकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने एक सारथिके समान रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनके 
वानरश्रेष्ठ हनुमानके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले रथको युद्धके लिये सुसज्जित किया ।। ११ ।। 

स मेघसमनिर्घोषस्तप्तकाउचनसप्रभ: । 

बभौ रथवर: क्लृप्त: शिशुर्दिवसकृद्‌ यथा ।। १२ ।। 

मेघके समान गम्भीर घोष करनेवाला और तपाये हुए सुवर्णके समान प्रभासे उद्धासित 
होनेवाला वह सजाया हुआ श्रेष्ठ रथ प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहा 
था ।। १२ || 

ततः पुरुषशार्दूल: सज्जं सज्जपुर:सर: । 

कृताद्विकाय पार्थाय न्यवेदयत तं॑ रथम्‌ ।। १३ ।। 

तदनन्तर युद्धके लिये सुसज्जित पुरुषोंमें सर्वश्रेष्ठ पुरुषसिंह श्रीकृष्णने नित्य-कर्म 
सम्पन्न करके बैठे हुए अर्जुनको यह सूचित किया कि रथ तैयार है ।। १३ ।। 

त॑ं तु लोकवरः पुंसां किरीटी हेमवर्मभृत्‌ । 


चापबाणधरो वाहूं प्रदक्षिणमवर्तत ।। १४ ।। 

तब पुरुषोंमें श्रेष्ठ लोकप्रवर अर्जुनने सोनेके कवच और किरीट धारण करके धनुष- 
बाण लेकर उस रथकी परिक्रमा की ।। १४ ।। 

तपोविद्यावयोवृद्धैः क्रियावद्धिर्जितिन्द्रियै: । 

स्तूयमानो जयाशीर्भिरारुरोह महारथम्‌ ॥। १५ ।। 

उस समय तपस्या, विद्या तथा अवस्थामें बड़े-बूढ़े, क्रियाशील, जितेन्द्रिय ब्राह्मण उन्हें 
विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए उनकी स्तुति-प्रशंसा कर रहे थे। उनकी की हुई वह स्तुति 
सुनते हुए अर्जुन उस विशाल रथपर आरूढ़ हुए ।। १५ ।। 

जैत्रै: सांग्रामिकैर्मन्त्रै: पूर्वमेव रथोत्तमम्‌ 

अभिमन्त्रितमर्चिष्मानुदयं भास्करो यथा ।। १६ ।। 

उस उत्तम रथको पहलेसे ही विजयसाधक युद्धसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित किया 
गया था। उसपर आरूढ़ हुए तेजस्वी अर्जुन उदयाचलपर चढ़े हुए सूर्यके समान जान पड़ते 
थे।। १६ |। 

स रथे रथिनां श्रेष्ठ काड्चने काज्चनावृत: । 

विबभौ विमलोडर्चिष्मान्‌ मेराविव दिवाकर: ।। १७ ।। 

सुवर्णमय कवचसे आवृत हो उस स्वर्णमय रथपर आरूढ़ हुए रथियोंमें श्रेष्ठ उज्ज्वल 
कान्तिधारी तेजस्वी अर्जुन मेरु पर्वतपर प्रकाशित होनेवाले सूर्यके समान शोभा पा रहे 
थे।। १७ |। 

अन्वारुरुह्तुः पार्थ युयुधानजनार्दनौ | 

शर्यातिर्यज्ञमायान्तं यथेन्द्रं देवमश्विनौ ।। १८ ।। 

अर्जुनके बैठनेके बाद सात्यकि और श्रीकृष्ण भी उस रथपर आरूढ़ हो गये, मानो 
राजा शर्यातिके यज्ञमें आते हुए इन्द्रदेवके साथ दोनों अश्विनीकुमार आ रहे हों ।। १८ ।। 

अथ जग्राह गोविन्दो रश्मीन्‌ रश्मिविदां वर: । 

मातलिवरासवस्येव वृत्रं हन्तुं प्रयास्यत: ।। १९ ।। 

उन घोड़ोंकी रास पकड़नेकी कलामें सर्वश्रेष्ठ भगवान्‌ गोविन्दने रथकी बागडोर अपने 
हाथमें ले ली, ठीक उसी प्रकार जैसे, वृत्रासुरका वध करनेके लिये जानेवाले इन्द्रके रथकी 
बागडोर मातलिने पकड़ी थी ।। १९ |। 

स ताभ्यां सहित: पार्थो रथप्रवरमास्थित: । 

सहितो बुधशुक्रा भ्यां तमो निघ्नन्‌ यथा शशी ॥। २० ।। 

सात्यकि और श्रीकृष्ण दोनोंके साथ उस श्रेष्ठ रथपर बैठे हुए अर्जुन बुध और शुक्रके 
साथ स्थित हुए अन्धकारनाशक चन्द्रमाके समान जान पड़ते थे ।। २० ।। 

सैन्धवस्य वध प्रेप्सु: प्रयात: शत्रुपूगहा । 

सहाम्बुपतिमित्रा भ्यां यथेन्द्रस्तारकामये ।। २१ ।। 


शत्रुसमूहका नाश करनेवाले अर्जुन जब सात्यकि और श्रीकृष्णके साथ सिंधुराज 
जयद्रथका वध करनेकी इच्छासे प्रस्थित हुए, उस समय वरुण और मित्रके साथ तारकामय 
संग्राममें जानेवाले इन्द्रके समान सुशोभित हुए ।। २१ ।। 

ततो वादित्रनिर्धोषिर्माड्रल्यैश्व स्तवैः शुभै: । 

प्रयान्तमर्जुनं वीर॑ मागधाश्वैव तुष्टवु: ।॥ २२ ।। 

तदनन्तर रणवाद्योंके घोष तथा शुभ एवं मांगलिक स्तुतियोंके साथ यात्रा करते हुए वीर 
अर्जुनकी मागधजन स्तुति करने लगे || २२ ।। 

सजयाशी: सपुण्याह: सूतमागधनि:स्वन: । 

युक्तो वादित्रघोषेण तेषां रतिकरो5भवत्‌ ।। २३ ।। 

विजयसूचक आशीर्वाद तथा पुण्याहवाचनके साथ सूत, मागध एवं वन्दीजनोंका शब्द 
रणवाद्योंकी ध्वनिसे मिलकर उन सबकी प्रसन्नताको बढ़ा रहा था || २३ || 

तमनुप्रयतो वायु: पुण्यगन्धवह: शुभ: । 

ववीौ संहर्षयन्‌ पार्थ द्विषतश्चापि शोषयन्‌ ।। २४ ।। 

अर्जुनके प्रस्थान करनेपर पीछेसे मंगलमय पवित्र एवं सुगन्धयुक्त वायु बहने लगी, जो 
अर्जुनका हर्ष बढ़ाती हुई उनके शत्रुओंका शोषण कर रही थी ।। २४ ।। 

ततस्तस्मिन्‌ क्षणे राजन्‌ विविधानि शुभानि च । 

प्रादुरासन्‌ निमित्तानि विजयाय बहूनि च । 

पाण्डवानां त्वदीयानां विपरीतानि मारिष ।। २५ ।। 

माननीय महाराज! उस समय बहुत-से ऐसे शुभ शकुन प्रकट हुए, जो पाण्डवोंकी 
विजय और आपके सैनिकोंकी पराजयकी सूचना दे रहे थे || २५ ।। 

दृष्टवार्जुनो निमित्तानि विजयाय प्रदक्षिणम्‌ 

युयुधानं महेष्वासमिदं वचनमत्रवीत्‌ ।। २६ ।। 

अर्जुनने अपने दाहिने प्रकट होनेवाले उन विजयसूचक शुभ लक्षणोंको देखकर 
महाधनुर्धर सात्यकिसे इस प्रकार कहा-- ।। २६ |। 

युयुधानाद्य युद्धे मे दृश्यते विजयो श्लुव: । 

यथा हीमानि लिड्डनि दृश्यन्ते शिनिपुड़व ।। २७ ।। 

'शिनिप्रवर युयुधान! आज जैसे ये शुभ लक्षण दिखायी देते हैं, उनसे युद्धमें मेरी 
निश्चित विजय दृष्टिगोचर हो रही है” || २७ ।। 

सो<हं तत्र गमिष्यामि यत्र सैन्धवको नृपः । 

यियासुर्यमलोकाय मम वीर्य प्रतीक्षते || २८ ।। 

“अतः मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ सिंधुराज जयद्रथ यमलोकमें जानेकी इच्छासे मेरे 
पराक्रमकी प्रतीक्षा कर रहा है ।। २८ ।। 

यथा परमकं कृत्यं सैन्धवस्थ वधो मम । 


तथैव सुमहत्‌ कृत्यं धर्मराजस्य रक्षणम्‌ ।। २९ ।। 

“मेरे लिये सिंधुराज जयद्रथका वध जैसे अत्यन्त महान्‌ कार्य है, उसी प्रकार 
धर्मराजकी रक्षा भी परम महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है ।। २९ ।। 

स त्वमद्य महाबाहो राजानं परिपालय । 

यथैव हि मया गुप्तस्त्वया गुप्तो भवेत्‌ तथा | ३० ।। 

“महाबाहो! आज तुम्हीं राजा युधिष्ठिरकी सब ओरसे रक्षा करो। जिस प्रकार वे मेरे 
द्वारा सुरक्षित होते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा भी उनकी सुरक्षा हो सकती है || ३० ।। 

न पश्यामि च त॑ लोके यस्त्वां युद्धे पराजयेत्‌ । 

वासुदेवसमं युद्धे स्वयमप्यमरेश्वर: ।। ३१ ।। 

“मैं संसारमें ऐसे किसी वीरको नहीं देखता, जो युद्धमें तुम्हें पपाजित कर सके। तुम 
संग्रामभूमिमें साक्षात्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णके समान हो। साक्षात्‌ देवराज इन्द्र भी तुम्हें नहीं 
जीत सकते || ३१ ।। 

त्वयि चाहं पराश्चस्तः प्रद्युम्ने वा महारथे । 

शवनुयां सैन्धवं हन्तुमनपेक्षो नरर्षभ ।। ३२ ।। 

“नरश्रेष्ठ) इस कार्यके लिये मैं तुमपर अथवा महारथी प्रद्युम्मपर ही पूरा भरोसा करता 
हूँ। सिंधुराज जयद्रथका वध तो मैं किसीकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही कर सकता 
हूँ || ३२ ।। 

मय्यपेक्षा न कर्तव्या कथंचिदपि सात्वत । 

राजन्येव परा गुप्ति: कार्या सर्वात्मना त्वया ।। ३३ ।। 

'सात्वतवीर! तुम किसी प्रकार भी मेरा अनुसरण न करना। तुम्हें सब प्रकारसे राजा 
युधिष्ठिरकी ही पूर्णरूपसे रक्षा करनी चाहिये ।। ३३ ।। 

न हि यत्र महाबाहुर्वासुदेवो व्यवस्थित: । 

किंचिद्‌ व्यापद्यते तत्र यत्राहमपि च ध्रुवम्‌ ।। ३४ ।। 

“जहाँ महाबाहु भगवान्‌ श्रीकृष्ण विराजमान हैं और मैं भी उपस्थित हूँ, वहाँ अवश्य ही 
कोई कार्य बिगड़ नहीं सकता है” ॥। ३४ ।। 

एवमुक्तस्तु पार्थेन सात्यकि: परवीरहा । 

तथेत्युक्त्वागमत्‌ तत्र यत्र राजा युधिष्ठिर: || ३५ ।। 

अर्जुनके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सात्यकि “बहुत अच्छा” कहकर 
जहाँ राजा युधिष्छिर थे, वहीं चले गये || ३५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अर्जुनवाक्ये चतुरशीतितमो<ध्याय: ।। 
८४ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत प्रतिज्ञापर्वमें अजुनवाक्यविषयक चौरासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८४ ॥ 


ऑपन--माजल छा जि 


(जयद्रथवधपर्व) 


पजञ्चाशीतितमो<ध्याय: 
धृतराष्ट्रका विलाप 


धृतराष्ट उवाच 

श्वोभूते किमकार्षुस्ते दुःखशोकसमन्विता: । 

अभिमन्यौ हते तत्र के वायुध्यन्त मामका: ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! अभिमन्युके मारे जानेपर दुःख और शोकमें डूबे हुए 
पाण्डवोंने सबेरा होनेपर क्या किया? तथा मेरे पक्षवाले योद्धाओंमेंसे किन लोगोंने युद्ध 
किया? ।। १ || 

जानन्तस्तस्य कर्माणि कुरव: सव्यसाचिन: । 

कथं तत्‌ किल्बिषं कृत्वा निर्भया ब्रूहि मामका: ।। २ ।। 

सव्यसाची अर्जुनके पराक्रमको जानते हुए भी मेरे पक्षवाले कौरव योद्धा उनका 
अपराध करके कैसे निर्भय रह सके? यह बताओ ।। २ ।। 

पुत्रशोकाभिसंतप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्‌ । 

आयान्तं पुरुषव्याप्रं कथं ददृशुराहवे ।। ३ ।। 

पुत्रशोकसे संतप्त हो क्रोधमें भरे हुए प्राणान्तकारी मृत्युके समान आते हुए पुरुषसिंह 
अर्जुनकी ओर मेरे पुत्र युद्धमें कैसे देख सके? ।। ३ ।। 

कपिराजध्वजं संख्ये विधुन्वानं महद्‌ धनु: । 

दृष्टवा पुत्रपरिद्यूनं किमकुर्वत मामका: ।। ४ ।। 

जिनकी ध्वजामें कपिराज हनुमान्‌ विराजमान हैं, उन पुत्रवियोगसे व्यथित हुए 
अर्जुनको युद्धस्थलमें अपने विशाल धनुषकी टंकार करते देख मेरे पुत्रोंने क्या 
किया? ।। ४ ।। 

कि नु संजय संग्रामे वृत्तं दुर्योधन प्रति । 

परिदेवो महानद्य श्रुतो मे नाभिनन्दनम्‌ ।। ५ ।। 

संजय! संग्रामभूमिमें दुर्योधनपर क्या बीता है? इन दिनों मैंने महान्‌ विलापकी ध्वनि 
सुनी है। आमोद-प्रमोदके शब्द मेरे कानोंमें नहीं पड़े हैं ।। ५ ।। 

बभूवुर्ये मनोग्राह्या: शब्दा: श्रुतिसुखावहा: । 

न श्रूयन्तेड्द्य सर्वे ते सैन्धवस्य निवेशने ।। ६ ।। 


पहले सिंधुराजके शिविरमें जो मनको प्रिय लगनेवाले और कानोंको सुख देनेवाले शब्द 
होते रहते थे, वे सब अब नहीं सुनायी पड़ते हैं |। ६ ।। 

स्तुवतां नाद्य श्रूयन्ते पुत्राणां शिबिरे मम । 

सूतमागधसंघानां नर्तकानां च सर्वश: ।। ७ ।। 

मेरे पुत्रोंके शिविरमें अब स्तुति करनेवाले सूतों, मागधों एवं नर्तकोंके शब्द सर्वथा नहीं 
सुनायी पड़ते हैं || ७ ।। 

शब्देन नादिताभी क्षणम भवद्‌ _यत्र मे श्रुति: । 

दीनानामद्य तं शब्दं न शुणोमि समीरितम्‌ ।। ८ ।। 

जहाँ मेरे कान निरन्तर स्वजनोंके आनन्द-कोलाहलसे गूँजते रहते थे, वहीं आज मैं 
अपने दीन-दु:खी पुत्रोंके द्वारा उच्चारित वह हर्षसूचक शब्द नहीं सुन रहा हूँ ।। 

निवेशने सत्यधृते: सोमदत्तस्य संजय । 

आसीनोऊहं पुरा तात शब्दमश्रौषमुत्तमम्‌ ।। ९ ।। 

तात संजय! पहले मैं यथार्थ धैर्यशाली सोमदत्तके भवनमें बैठा हुआ उत्तम शब्द सुना 
करता था ।। ९ |। 

तदद्य पुण्यहीनो5हमार्तस्वरनिनादितम्‌ । 

निवेशनं गतोत्साहं पुत्राणां मम लक्षये ।। १० ।। 

परंतु आज पुण्यहीन मैं अपने पुत्रोंके घरको उत्साहशून्य एवं आर्तनादसे गूँजता हुआ 
देख रहा हूँ ।। 

विविंशतेर्दुर्मुखस्य चित्रसेनविकर्णयो: । 

अन्‍्येषां च सुतानां मे न तथा श्रूयते ध्वनि: ।। ११ ।। 

विविंशति, दुर्मुख, चित्रसेन, विकर्ण तथा मेरे अन्य पुत्रोंके घरोंमें अब पूर्ववत्‌ आनन्दित 
ध्वनि नहीं सुनी जाती है ।। ११ ।। 

ब्राह्म॒णा: क्षत्रिया वैश्या यं शिष्या: पर्युपासते । 

द्रोणपुत्रं महेष्वासं पुत्राणां मे परायणम्‌ ।। १२ ।। 

वितण्डालापसंलापैद्रूतवादित्रवादितै: । 

गीतैश्न विविधैरिष्टे रमते यो दिवानिशम्‌ ।। १३ ।। 

उपास्यमानो बहुभि: कुरुपाण्डवसात्वतै: । 

सूत तस्य गृहे शब्दो नाद्य द्रौणे्यथा पुरा || १४ ।। 

सूत संजय! मेरे पुत्रोंके परम आश्रय जिस महाथनुर्थर द्रोणपुत्र अश्वत्थामाकी ब्राह्मण, 
क्षत्रिय और वैश्य सभी जातियोंके शिष्य उपासना (निकट रहकर सेवा) करते रहे हैं, जो 
वितण्डावाद, भाषण, पारस्परिक बातचीत, द्रुतस्वरमें बजाये हुए वाद्योंके शब्दों तथा भाँति- 
भाँतिके अभीष्ट गीतोंसे दिन-रात मन बहलाया करता था, जिसके पास बहुत-से कौरव, 


पाण्डव और सात्वतवंशी वीर बैठा करते थे, उस अश्वत्थामाके घरमें आज पहलेके समान 
हर्षसूचक शब्द नहीं हो रहा है ।। १२--१४ ।। 

द्रोणपुत्र॑ महेष्वासं गायना नर्तकाश्न ये । 

अत्यर्थमुपतिष्ठन्ति तेषां न श्रूयते ध्वनि: ।। १५ ।। 

महाधनुर्धर द्रोणपुत्रकी सेवामें जो गायक और नर्तक अधिक उपस्थित होते थे, उनकी 
ध्वनि अब नहीं सुनायी देती है ।। १५ ।। 

विन्दानुविन्दयो: सायं शिबिरे यो महाध्वनि: ।। १६ ।। 

श्रूयते सोडद्य न तथा केकयानां च वेश्मसु । 

नित्यं प्रमुदितानां च तालगीतस्वनो महान्‌ ॥। १७ ।। 

नृत्यतां श्रूयते तात गणानां सोउद्य न स्वनः । 

विन्द और अनुविन्दके शिविरमें संध्याके समय जो महान्‌ शब्द सुनायी पड़ता था, वह 
अब नहीं सुननेमें आता है। तात सदा आनन्दित रहनेवाले केकयोंके भवनोंमें झुंड-के-झुंड 
नर्तकोंका ताल स्वरके साथ गीतका जो महान्‌ शब्द सुनायी पड़ता था, वह अब नहीं सुना 
जाता है || १६-१७ ६ || 

सप्त तन्तून्‌ वितनन्‍्वाना याजका यमुपासते ।। १८ ।। 

सौमदत्तिं श्रुतनिधिं तेषां न श्रूयते ध्वनि: । 

वेद-विद्याके भण्डार जिस सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवाके यहाँ सातों यज्ञोंका अनुष्ठान 
करनेवाले याजक सदा रहा करते थे, अब वहाँ उन ब्राह्मणोंकी आवाज नहीं सुनायी देती 
है ।। १८३ || 

ज्याघोषो ब्रह्मघोषश्न तोमरासिरथध्वनि: ।। १९ ।। 

द्रोणस्यासीदविरतो गृहे तं न शृणोम्यहम्‌ । 

द्रोणाचार्यके घरमें निरन्तर धनुषकी प्रत्यंचाका घोष, वेदमन्त्रोंके उच्चारणकी ध्वनि 
तथा तोमर, तलवार एवं रथके शब्द गूँजते रहते थे; परंतु अब मैं वहाँ वहाँ वह शब्द नहीं 
सुन रहा हूँ ।। १९३ ।। 

नानादेशसमुत्थानां गीतानां यो5भवत्‌ स्वन: ।। २० |। 

वादित्रनादितानां च सोडउ्द्य न श्रूयते महान्‌ । 

नाना प्रदेशोंसे आये हुए लोगोंके गाये हुए गीतोंका और बजाये हुए बाजोंका भी जो 
महान्‌ शब्द श्रवण-गोचर होता था, वह अब नहीं सुनायी देता है || २०३६ ।। 

यदा प्रभृत्युपप्लव्याच्छान्तिमिच्छठ्जनार्दन: ।। २१ ।। 

आगत: सर्वभूतानामनुकम्पार्थमच्युत: । 

ततो5हमन्लुवं सूत मन्द दुर्योधनं तदा ।। २२ ।। 

संजय! जब अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान्‌ जनार्दन समस्त 
प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये शान्ति स्थापित करनेकी इच्छा लेकर उपप्लव्यसे 


हस्तिनापुरमें पधारे थे, उस समय मैंने अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधनसे इस प्रकार कहा था 
-- || २१-२२ || 

वासुदेवेन तीर्थन पुत्र संशाम्य पाण्डवै: । 

कालप्राप्तमहं मन्ये मा त्वं दुर्योधनातिगा: ।। २३ ।। 

“बेटा! भगवान्‌ श्रीकृष्णको साधन बनाकर पाण्डवोंके साथ संधि कर लो। मैं इसीको 
समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम इसे टालो मत ।। २३ ।। 

शमं चेद्‌ याचमान॑ त्वं प्रत्याख्यास्यसि केशवम्‌ | 

हितार्थमभिजल्पन्तं न तवास्ति रणे जय: ।। २४ ।। 

“भगवान्‌ श्रीकृष्ण तुम्हारे हितकी ही बात कहते हैं और स्वयं संधिके लिये याचना कर 
रहे हैं। ऐसी दशामें यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो युद्धमें तुम्हारी विजय नहीं 
होगी” ।। २४ ।। 

प्रत्याचष्ट स दाशार्हमृषभं सर्वधन्विनाम्‌ । 

अनुनेयानि जल्पन्तमनयान्नान्वपद्यत || २५ || 

परंतु उसने सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बात माननेसे इनकार कर दिया। 
यद्यपि वे अनुनयपूर्ण वचन बोलते थे, तथापि दुर्योधनने अन्यायवश उन्हें नहीं 
माना ।। २५ || 

(कर्णदुःशासनमते सौबलस्य च दुर्मते: । 

प्रत्याख्यातो महाबाहुः कुलान्तकरणेन मे ।।) 

कर्ण, दुःशासन और खोटी बुद्धिवाले शकुनिके मतमें आकर मेरे कुलका नाश 
करनेवाले दुर्योधनने महाबाहु श्रीकृष्णका तिरस्कार कर दिया। 

ततो दुःशासनस्यैव कर्णस्य च मतं द्वयो: । 

अन्ववर्तत मां हित्वा कृष्ट: कालेन दुर्मति: ॥। २६ ।। 

फिर तो कालसे आदृष्ट हुए दुर्बुद्धि दुर्योधनने मुझे छोड़कर दुःशासन और कर्ण इन्हीं 
दोनोंके मतका अनुसरण किया ।। २६ ।। 

न हाहं द्यूतमिच्छामि विदुरो न प्रशंसति । 

सैन्धवो नेच्छति द्यूतं भीष्मो न द्यूतमिच्छति ।। २७ ।। 

मैं जूआ खेलना नहीं चाहता था, विदुर भी उसकी प्रशंसा नहीं करते थे, सिंधुराज 
जयद्रथ भी जूआ नहीं चाहते थे और भीष्मजी भी द्यूतकी अभिलाषा नहीं रखते 
थे।। २७ |। 

शल्यो भूरिश्रवाश्वैव पुरुमित्रो जयस्तथा । 

अश्वत्थामा कृपो द्रोणो द्यूतं नेच्छन्ति संजय ।। २८ ।। 

संजय! शल्य, भूरिश्रवा, पुरुमित्र, जय, अश्व॒त्थामा, कृपाचार्य और द्रोणाचार्य भी जूआ 
होने नहीं देना चाहते थे || २८ ।। 


एतेषां मतमादाय यदि वर्तेत पुत्रक: । 

सज्ञातिमित्र: ससुहृच्चिरं जीवेदनामय: ।। २९ ।। 

यदि बेटा दुर्योधन इन सबकी राय लेकर चलता तो भाई-बन्धु, मित्र और सुहृदोंसहित 
दीर्घकालतक नीरोग एवं स्वस्थ रहकर जीवन धारण करता ।। २९ |। 

श्लक्ष्णा मधुरसम्भाषा ज्ञातिबन्धुप्रियंवदा: । 

कुलीना: सम्मता: प्राज्ञा: सुखं प्राप्स्यन्ति पाण्डवा: || ३० ।। 

'पाण्डव सरल, मधुरभाषी, भाई-बन्धुओंके प्रति प्रिय वचन बोलनेवाले, कुलीन, 
सम्मानित और दिद्दान्‌ हैं; अतः उन्हें सुखकी प्राप्ति होगी || ३० ॥। 

धमपिक्षी नरो नित्यं सर्वत्र लभते सुखम्‌ | 

प्रेत्यभावे च कल्याण प्रसादं प्रतिपद्यते || ३१ ।। 

“धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला मनुष्य सदा सर्वत्र सुखका भागी होता है। मृत्युके पश्चात्‌ 
भी उसे कल्याण एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है ।। ३१ ।। 

अहंस्ति पृथिवीं भोक्तुं समर्था: साधनेडपि च । 

तेषामपि समुद्रान्ता पितृपैतामही मही ।। ३२ ।। 

'पाण्डव पृथ्वीका राज्य भोगनेमें और उसे प्राप्त करनेमें भी समर्थ हैं। यह समुद्रपर्यन्त 
पृथ्वी उनके बाप-दादोंकी भी है || ३२ ।। 

नियुज्यमाना: स्थास्यन्ति पाण्डवा धर्मवर्त्मनि । 

सन्ति मे ज्ञातयस्तात येषां श्रोष्यन्ति पाण्डवा: ।। ३३ ।। 

“तात! पाण्डवोंको यदि आदेश दिया जाय तो वे उसे मानकर सदा धर्ममार्गपर ही स्थिर 
रहेंगे। मेरे अनेक ऐसे भाई-बन्धु हैं, जिनकी बात पाण्डव सुनेंगे || ३३ ।। 

शल्यस्य सोमदत्तस्य भीष्मस्य च महात्मन: । 

द्रोणस्याथ विकर्णस्य बाह्लीकस्य कृपस्य च ।। ३४ ।। 

अन्‍्येषां चैव वृद्धानां भरतानां महात्मनाम्‌ | 

त्वदर्थ ब्रुवतां तात करिष्यन्ति वचो हि ते ।। ३५ ।। 

“वत्स! शल्य, सोमदत्त, महात्मा भीष्म, द्रोणाचार्य, विकर्ण, बाह्नीक, कृपाचार्य तथा 
अन्य जो बड़े-बूढ़े महामना भरतवंशी हैं, वे यदि तुम्हारे लिये उनसे कुछ कहेंगे तो पाण्डव 
उनकी बात अवश्य मानेंगे ।। ३४-३५ ।। 

कं वा त्वं मन्यसे तेषां यस्तान्‌ ब्रूयादतो5न्यथा । 

कृष्णो न धर्म संजहाात्‌ सर्वे ते हि तदन्‍्वया: ।। ३६ ।। 

“बेटा दुर्योधन! तुम उपर्युक्त व्यक्तियोंमेंसे किसको ऐसा मानते हो जो पाण्डवोंके 
विषयमें इसके विपरीत कह सके। श्रीकृष्ण कभी धर्मका परित्याग नहीं कर सकते और 
समस्त पाण्डव उन्हींके मार्गका अनुसरण करनेवाले हैं ।। ३६ ।। 

मयापि चोक्तास्ते वीरा वचन धर्मसंहितम्‌ । 


नान्यथा प्रकरिष्यन्ति धर्मात्मानो हि पाण्डवा: ।। ३७ |। 

“मेरे कहनेपर भी वे मेरे धर्मयुक्त वचनकी अवहेलना नहीं करेंगे; क्योंकि वीर पाण्डव 
धर्मात्मा हैं! || ३७ ।। 

इत्यहं विलपन्‌ सूत बहुश: पुत्रमुक्तवान्‌ | 

न च मे श्रुतवान्‌ मूढो मन्‍्ये कालस्य पर्ययम्‌ ।। ३८ ।। 

सूत! इस प्रकार विलाप करते हुए मैंने अपने पुत्र दुर्योधनसे बहुत कुछ कहा, परंतु उस 
मूर्खने मेरी एक नहीं सुनी। अतः मैं समझता हूँ कि कालचक्रने पलटा खाया है ।। ३८ ।। 

वृकोदरार्जुनौ यत्र वृष्णिवीरश्न सात्यकि: । 

उत्तमौजाश्च पाज्चाल्यो युधामन्युश्न दुर्जय: ।। ३९ ।। 

धृष्टद्युम्नश्न दुर्धर्ष: शिखण्डी चापराजित: । 

अश्मका: केकयार्नैव क्षत्रधर्मा च सौमकि: ।। ४० ।। 

चैद्यश्न॒ चेकितानश्न पुत्र: काश्यस्य चाभिभू: । 

द्रौपदेया विराटश्न द्रपदश्ष महारथ: ।। ४१ ।। 

यमौ च पुरुषव्याप्रौ मन्त्री च मधुसूदन: । 

क एताज्जातु युध्येत लोके5स्मिन्‌ वै जिजीविषु: ।। ४२ ।। 

जिस पक्षमें भीमसेन, अर्जुन, वृष्णिवीर सात्यकि, पांचालवीर उत्तमौजा, दुर्जय 
युधामन्यु, दुर्धर्ष धृष्टद्युम्म, अपराजित वीर शिखण्डी, अश्मक, केकयराजकुमार, सोमकपुत्र 
क्षत्रधर्मा, चेदिराज धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराजके पुत्र अभिभाू, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, राजा 
विराट और महारथी ट्रुपद हैं, जहाँ पुरुषसिंह नकुल, सहदेव और मन्त्रदाता मधुसूदन हैं, 
वहाँ इस संसारमें कौन ऐसा वीर है, जो जीवित रहनेकी इच्छा रखकर इन वीरोंके साथ 
कभी युद्ध करेगा || ३९--४२ ।। 

दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणान्‌ प्रसहेद्‌ वा परान्‌ मम । 

अन्यो दुर्योधनात्‌ कर्णाच्छकुने श्वापि सौबलात्‌ ।। ४३ ।। 

दुःशासनचतुर्थानां नान्यं पश्यामि पठ्चमम्‌ । 

अथवा दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चौथे दुःशासनके सिवा मैं पाँचवें किसी 
ऐसे वीरको नहीं देखता, जो दिव्यास्त्र प्रकट करनेवाले मेरे इन शत्रुओंका वेग सह 
सके ।। ४३ $ ।। 

येषामभीषुहस्त: स्याद्‌ विष्वक्सेनो रथे स्थित: ।। ४४ ।। 

संनद्धश्नार्जुनो योद्धा तेषां नास्ति पराजय: । 

रथपर बैठे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण हाथोंमें बागडोर लेकर जितना सारथ्य करते हैं तथा 
जिनकी ओरसे कवचधारी अर्जुन युद्ध करनेवाले हैं, उनकी कभी पराजय नहीं हो 
सकती ।। ४४६ ।। 

तेषामथ विलापानां नाय॑ दुर्योधन: स्मरेत्‌ ।। ४५ ।। 


हतौ हि पुरुषव्याप्रौ भीष्मद्रोणौ त्वमात्थ वै | 

संजय! यह दुर्योधन मेरे उन विलापोंको कभी याद नहीं करेगा। तुम कहते हो कि 
'पुरुषसिंह भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये” || ४५३ ।। 

तेषां विदुरवाक्यानामुक्तानां दीर्घदर्शनात्‌ ।। ४६ ।। 

दृष्टवेमां फलनिर्व॑त्ति मनन्‍्ये शोचन्ति पुत्रका: । 

सेनां दृष्टवाभिभूतां मे शैनेयेनार्जुनेन च ।। ४७ ।। 

विदुरने भविष्यमें होनेवाली दूरतककी घटनाओंको ध्यानमें रखकर जो बातें कही थीं, 
उन्हींके अनुसार इस समय हमें यह फल मिल रहा है। इसे देखकर मैं यह समझता हूँ कि 
मेरे पुत्र सात्यकि और अर्जुनके द्वारा अपनी सेनाका संहार देखते हुए शोक कर रहे 
होंगे || ४६-४७ ।। 

शून्यान्‌ दृष्टवा रथोपस्थान्‌ मन्ये शोचन्ति पुत्रका: । 

हिमात्यये यथा कक्ष शुष्क॑ वातेरितो महान्‌ ।। ४८ ।। 

अनि्निर्दहेत्‌ तथा सेनां मामिकां स धनंजय: । 

आचक्ष्व मम तत्‌ सर्व कुशलो हासि संजय: ।। ४९ ।। 

बहुत-से रथोंकी बैठकोंको रथियोंसे शून्य देखकर मेरे पुत्र शोकमें डूब गये होंगे; ऐसा 
मेरा विश्वास है। जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें वायुका सहारा पाकर बढ़ी हुई अग्नि सूखे घासको चला 
डालती है, उसी प्रकार अर्जुन मेरी सेनाको दग्ध कर डालेंगे। संजय! तुम कथा कहनेमें 
कुशल हो; अतः युद्धका सारा समाचार मुझसे कहो || ४८-४९ ।। 

यदुपायात सायाह्रे कृत्वा पार्थस्य किल्बिषम्‌ | 

अभिमन्यौ हते तात कथमासीन्मनो हि व: ।। ५० ।। 

तात! जब तुमलोग अभिमन्युके मारे जानेपर अर्जुनका महान्‌ अपराध करके 
सायंकालमें शिविरको लौटे थे, उस समय तुम्हारे मनकी क्या अवस्था थी? ।। ५० ।। 

न जातु तस्य कर्माणि युधि गाण्डीवधन्चन: । 

अपकृत्य महत्‌ तात सोढुं शक्ष्यन्ति मामका: ।। ५१ ।। 

तात! गाण्डीवधारी अर्जुनका महान्‌ अपकार करके मेरे पुत्र युद्धमें उनके पराक्रमको 
कभी नहीं सह सकेंगे ।। 

किन्नु दुर्योधन: कृत्यं कर्ण: कृत्यं किमब्रवीत्‌ । 

दुःशासन: सौबलश्न तेषामेवं गतेष्वपि ।। ५२ ।। 

उस समय उनकी ऐसी अवस्था होनेपर भी दुर्योधनने कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया? 
कर्ण, दुःशासन तथा शकुनिने क्या करनेकी सलाह दी? ।। ५२ ।। 

सर्वेषां समवेतानां पुत्राणां मम संजय । 

यद्‌ वृत्तं तात संग्रामे मन्दस्यापनयैर्भूशम्‌ ।। ५३ ।। 

लोभानुगस्य दुर्बुद्धेः क्रोधेन विकृतात्मन: । 


राज्यकामस्य मूढस्य रागोपहतचेतस: । 

दुर्नीतं वा सुनीतं॑ वा तन्ममाचक्ष्व संजय ।। ५४ ।। 

तात संजय! युद्धमें मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधनके अत्यन्त अन्यायसे एकत्र हुए मेरे अन्य सभी 
पुत्रोंपर जो कुछ बीता था तथा लोभका अनुसरण करनेवाले, क्रोधसे विकृत चित्तवाले, 
रागसे दूषित हृदयवाले, राज्यकामी मूढ़ और दुर्बुद्धि दुर्योधनने जो न्याय अथवा अन्याय 
किया हो, वह सब मुझसे कहो ।। ५३-५४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्ये 
पज्चाशीतितमो<ध्याय: ।। ८५ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक 
पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५५ “लोक हैं।) 


ऑपन-आ प्रात बछ। अं काज 


षडशीतितमोब< ध्याय: 
संजयका धृतराष्ट्रको उपालम्भ 


संजय उवाच 

हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि सर्व प्रत्यक्षदर्शिवान्‌ । 

शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा तव ह्पनयो महान्‌ ॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! मैंने सब कुछ प्रत्यक्ष देखा है, वह सब आपको अभी 
बताऊँगा। स्थिर होकर सुननेकी इच्छा कीजिये। इस परिस्थितिमें आपका महान्‌ अन्याय ही 
कारण है ।। १ ।। 

गतोदके सेतुबन्धो यादृक्‌ तादृगयं तव । 

विलापो निष्फलो राजन्‌ मा शुचो भरतर्षभ ।। २ ।। 

भरतश्रेष्ठ राजन्‌! जैसे पानी निकल जानेपर वहाँ पुल बाँधना व्यर्थ है, उसी प्रकार इस 
समय आपका यह विलाप भी निष्फल है। आप शोक न कीजिये ।। २ ॥। 

अनतिक्रमणीयो<यं कृतान्तस्याद्भुतो विधि: । 

मा शुचो भरतश्रेष्ठ दिष्टमेतत्‌ पुरातनम्‌ ।। ३ ।। 

कालके इस अद्भुत विधानका उल्लंघन करना असम्भव है। भरतभूषण! शोक त्याग 
दीजिये। यह सब पुरातन प्रारब्धका फल है ।। ३ ।। 

यदि त्वं हि पुरा द्यूतात्‌ कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

निवर्तयेथा: पुत्रांश्व न त्वां व्यसनमात्रजेत्‌ ।। ४ ।। 

यदि आप कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर तथा अपने पुत्रोंको पहले ही जूएसे रोक देते तो 
आपपर यह संकट नहीं आता ।। ४ || 

युद्धकाले पुन: प्राप्ते तदैव भवता यदि । 

निवर्तिता: स्यु: संरब्धा न त्वां व्यसनमाव्रजेत्‌ ।। ५ ।। 

फिर जब युद्धका अवसर आया, उसी समय यदि आपने क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रोंको 
बलपूर्वक रोक दिया होता तो आपपर यह संकट नहीं आ सकता था ।। 

दुर्योधनं चाविधेयं बध्नीतेति पुरा यदि । 

कुरूनचोदयिष्यस्त्वं न त्वां व्यसनमाव्रजेत्‌ ।। ६ ।। 

यदि आप पहले ही कौरवोंको यह आज्ञा दे देते कि इस दुर्विनीत दुर्योधनको कैद कर 
लो तो आपपर यह संकट नहीं आता ।। ६ ।। 

तत्‌ ते बुद्धिव्यभीचारमुपलप्स्यन्ति पाण्डवा: । 

पज्चाला वृष्णय: सर्वे ये चान्येडपि नराधिपा: ।। ७ ।। 


आपकी बुद्धिके वैपरीत्यका फल पाण्डव, पांचाल, समस्त वृष्णिवंशी तथा अन्य जो- 
जो नरेश हैं, वे सभी भोगेंगे || ७ ।। 

स कृत्वा पितृकर्म त्वं पुत्र संस्थाप्य सत्पथे । 

वर्तेथा यदि धर्मेण न त्वां व्यसनमात्रजेत्‌ ।। ८ ।। 

यदि आपने अपने पुत्रको सन्मार्गमें स्थापित करके पिताके कर्तव्यका पालन करते हुए 
धर्मके अनुसार बर्ताव किया होता तो आपपर यह संकट नहीं आता ।। ८ ।। 

त्वं तु प्राज्ञतमो लोके हित्वा धर्म सनातनम्‌ | 

दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्चवान्वगा मतम्‌ ।। ९ ।। 

आप संसारमें बड़े बुद्धिमान समझे जाते हैं तो भी आपने सनातनधर्मका परित्याग 
करके दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके मतका अनुसरण किया है | ९ ।। 

तत्‌ तं विलपितं सर्व मया राजन्‌ निशामितम्‌ । 

अर्थ निविशमानस्य विषमिश्र॑ यथा मधु ।। १० ।। 

राजन! आप स्वार्थमें सने हुए हैं। आपका यह सारा विलाप-कलाप मैंने सुन लिया। यह 
विषमिश्रित मधुके समान ऊपरसे ही मीठा है (इसके भीतर घातक कठटुता भरी हुई 
है) ।। १० ।। 

नामन्यत तदा कृष्णो राजानं पाण्डवं पुरा । 

न भीष्म नैव च द्रोणं यथा त्वां मन्यतेडच्युत: ।। ११ ।। 

अपनी महिमासे च्युत न होनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण पहले आपका जैसा सम्मान करते 
थे, वैसा उन्होंने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीष्म तथा द्रोणाचार्यका भी समादर नहीं किया 
है ।। ११ || 

अजानातू स यदा तु त्वां राजधर्मादधश्ष्युतम्‌ । 

तदाप्रभृति कृष्णस्त्वां न तथा बहु मन्यते ।। १२ ।। 

परंतु जबसे श्रीकृष्णने यह जान लिया है कि आप राजोचित धर्मसे नीचे गिर गये हैं, 
तबसे वे आपका उस तरह अधिक आदर नहीं करते हैं || १२ ।। 

परुषाण्युच्यमानांश्व यथा पार्थनुपेक्षसे । 

तस्यानुबन्ध: प्राप्तस्त्वां पुत्राणां राज्यकामुक ।। १३ ।। 

पुत्रोंकोी राज्य दिलानेकी अभिलाषा रखनेवाले महाराज! कुन्तीके पुत्रोंको कठोर बातें 
(गालियाँ) सुनायी जाती थीं और आप उनकी उपेक्षा करते थे। आज उसी अन्यायका फल 
आपको प्राप्त हुआ है || १३ ।। 

पितृपैतामहं राज्यमपवृत्तं तदानघ । 

अथ पार्थरजितां कृत्स्नां पृथिवीं प्रत्यपद्यथा: ।। १४ ।। 

निष्पाप नरेश! आपने उन दिनों बाप-दादोंके राज्यको तो अपने अधिकारमें कर ही 
लिया था; फिर दुन्तीके पुत्रोंद्वारा जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वीका विशाल साम्राज्य भी हड़प 


लिया ।। १४ ।। 

पाण्डुना निर्जितं राज्यं कौरवाणां यशस्तथा । 

ततश्चाप्यधिकं भूय: पाण्डवैर्धर्मचारिभि: ।। १५ ।। 

राजा पाणए्डुने भूमण्डलका राज्य जीता और कौरवोंके यशका विस्तार किया था। फिर 
धर्मपरायण पाण्डवोंने अपने पितासे भी बढ़-चढ़कर राज्य और सुयशका प्रसार किया 
है ।। १५ || 

तेषां तत्‌ तादृशं कर्म त्वामासाद्य सुनिष्फलम्‌ | 

यत्‌ पित्र्याद्‌ भ्रंशिता राज्यात्‌ त्वयेहामिषगृद्धिना ।। १६ ।। 

परंतु उनका वैसा महान्‌ कर्म भी आपको पाकर अत्यन्त निष्फल हो गया; क्योंकि 
आपने राज्यके लोभमें पड़कर उन्हें अपने पैतृक राज्यसे भी वंचित कर दिया ।। 

यत्‌ पुनर्युद्धकाले त्वं पुत्रान्‌ गर्हयसे नूप । 

बहुधा व्याहरन्‌ दोषान्‌ न तदद्योपपद्यते || १७ ।। 

नरेश्वरर आज जब युद्धका अवसर उपस्थित है, ऐसे समयमें जो आप अपने पुत्रोंके 
नाना प्रकारके दोष बताते हुए उनकी निन्दा कर रहे हैं यह इस समय आपको शोभा नहीं 
देता है ।। १७ || 

न हि रक्षन्ति राजानो युध्यन्तो जीवितं रणे । 

चमूं विगाहा पार्थानां युध्यन्ते क्षत्रियर्षभा: ।। १८ ।। 

राजालोग रणक्षेत्रमें युद्ध करते हुए अपने जीवनकी रक्षा नहीं कर रहे हैं। वे 
क्षत्रियशिरोमणि नरेश पाण्डवोंकी सेनामें घुसकर युद्ध करते हैं || १८ ।। 

यां तु कृष्णार्जुनौ सेनां यां सात्यकिवृकोदरौ । 

रक्षेरन्‌ को नु तां युध्येच्चमूमन्यत्र कौरवै: ।। १९ ।। 

श्रीकृष्ण, अर्जुन, सात्यकि तथा भीमसेन जिस सेनाकी रक्षा करते हों, उसके साथ 
कौरवोंके सिवा दूसरा कौन युद्ध कर सकता है? ।। १९ ।। 

येषां योद्धा गुडाकेशो येषां मन्त्री जनार्दन: । 

येषां च सात्यकिर्योद्धा येषां योद्धा वृकोदर: ।। २० || 

को हि तान्‌ विषहेद्‌ योद्धूं मर्त्यधर्मा धनुर्धर: । 

अन्यत्र कौरवेयेभ्यो ये वा तेषां पदानुगा: ।। २१ ।। 

जिनके योद्धा गुडाकेश अर्जुन हैं, जिनके मन्त्री भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं तथा जिनकी 
ओरससे युद्ध करनेवाले योद्धा सात्यकि और भीमसेन हैं, उनके साथ कौरवों तथा उनके 
चरण-चिह्लोंपर चलनेवाले अन्य नरेशोंको छोड़कर दूसरा कौन मरणथधर्मा धनुर्धर युद्ध 
करनेका साहस कर सकता है? ।। २०-२१ ।। 

यावत्‌ तु शक्‍्यते कर्तुमन्तरजैर्जनाधिपै: । 

क्षत्रधर्मरतै: शूरैस्तावत्‌ कुर्वन्ति कौरवा: ॥। २२ ।। 


अवसरको जाननेवाले, क्षत्रिय-धर्मपरायण, शूरवीर राजालोग जितना कर सकते हैं, 
कौरवपक्षी नरेश उतना पराक्रम करते हैं ।। २२ ।। 

यथा तु पुरुषव्याघ्रैर्युद्धं परमसंकटम्‌ । 

कुरूणां पाण्डवै: सार्ध तत्‌ सर्व शृणु तत्त्वतः ।। २३ ।। 

पुरुषसिंह पाण्डवोंके साथ कौरवोंका जिस प्रकार अत्यन्त संकटपूर्ण युद्ध हुआ है, वह 
सब आप ठीक-ठीक सुनिये ।। २३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संजयवाक्ये षडशीतितमो< ध्याय: 
।। ८६ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संजयवाक्यविषयक 
छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८६ ॥। 


सप्ताशीतितमोब ध्याय: 


कौरव-सैनिकोंका उत्साह तथा आचार्य द्रोणके द्वारा 
चक्रशकटवब्यूहका निर्माण 


संजय उवाच 

तस्यां निशायां व्युष्टायां द्रोण: शस्त्रभूतां वर: । 

स्वान्यनीकानि सर्वाणि प्राक्रामद्‌ व्यूहितुं ततः ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! वह रात बीतनेपर प्रात:काल शणस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यने 
अपनी सारी सेनाओंका व्यूह बनाना आरम्भ किया || १ || 

शूराणां गर्जतां राजन संक्रुद्धानाममर्षिणाम्‌ | 

श्रूयन्ते सम गिरक्षित्रा: परस्परवधैषिणाम्‌ ।। २ ।। 

राजन! उस समय अत्यन्त क्रोधमें भरकर एक-दूसरेके वधकी इच्छासे गर्जना 
करनेवाले अमर्षशील शूरवीरोंकी विचित्र बातें सुनायी देती थीं || २ ।। 

विस्फार्य च धरनूंष्यन्ये ज्या: परे परिमृज्य च । 

विनिःश्वसन्तः प्राक्रोशन्‌ क्वेदानीं स धनंजय: ।। ३ ।। 

कोई धनुष खींचकर और कोई प्रत्यंचापर हाथ फेरकर रोषपूर्ण उच्छवास लेते हुए 
चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे कि इस समय वह अर्जुन कहाँ है? ।। ३ ।। 

विकोशान्‌ सुत्सरूनन्ये कृतथारान्‌ समाहितान्‌ | 

पीतानाकाशसंकाशानसीन्‌ केचिच्च चिक्षिपु: ।। ४ ।। 

कितने ही योद्धा आकाशके समान निर्मल पानीदार, सँभालकर रखी हुई, सुन्दर मूठ 
और तेजधारवाली तलवारोंको म्यानसे निकालकर चलाने लगे ।। ४ ।। 

चरन्तस्त्वसिमार्गाश्व धरनुर्मार्गाश्न॒ शिक्षया । 

संग्राममनस: शूरा दृश्यन्ते सम सहस्रश: ।। ५ ।। 

मनमें संग्रामके लिये पूर्ण उत्साह रखनेवाले सहस्रों शूरवीर अपनी शिक्षाके अनुसार 
खड्गयुद्ध और धरनुर्युद्धके मार्गों (पैतरों)-का प्रदर्शन करते दिखायी देते थे ।। ५ ।। 

सघण्टाश्वन्दनादिग्धा: स्वर्णवज्विभूषिता: । 

समुत्क्षिप्य गदा श्षान्ये पर्यपृच्छन्त पाण्डवम्‌ ।। ६ ।। 

दूसरे बहुत-से योद्धा घंटानादसे युक्त, चन्दनचर्चित तथा सुवर्ण एवं हीरोंसे विभूषित 
गदाएँ ऊपर उठाकर पूछते थे कि पाण्डुपुत्र अर्जुन कहाँ है? ।। ६ ।। 

अन्ये बलमदोन्मत्ता: परिघैर्बाहुशालिन: । 

चक्र: सम्बाधमाकाशमुच्छितेन्द्रध्वजोपमै: ।॥ ७ ।। 


अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले कितने ही योद्धा अपने बलके मदसे उन्मत्त हो 
ऊँचे फहराते हुए इन्द्र-ध्वजके समान उठे हुए परिघोंसे सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त कर रहे 
थे।।७।। 

नानाप्रहरणैश्नान्ये विचित्रस्रगलड्कृता: । 

संग्राममनस: शूरास्तत्र तत्र व्यवस्थिता: || ८ ।। 

दूसरे शूरवीर योद्धा विचित्र मालाओंसे अलंकृत हो नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये 
मनमें युद्धके लिये उत्साहित होकर जहाँ-तहाँ खड़े थे || ८ ।। 

क्वार्जुन: क्व स गोविन्द: क्व च मानी वृकोदर: । 

क्व च ते सुद्ददस्तेषामाह्नयन्ते रणे तदा ।। ९ ।। 

वे उस समय रफक्षेत्रमें शत्रुओंको ललकारते हुए इस प्रकार कहते थे, कहाँ है अर्जुन? 
कहाँ हैं श्रीकृष्ण? कहाँ है घमंडी भीमसेन? और कहाँ हैं उनके सारे सुहृद ।। ९ ।। 

तत: शड्खमुपाध्माय त्वरयन्‌ वाजिन: स्वयम्‌ | 

इतस्ततस्तान्‌ रचयन्‌ द्रोणश्चरति वेगित: ।॥ १० ।। 

तदनन्तर द्रोणाचार्य शंख बजाकर स्वयं ही अपने घोड़ोंको उतावलीके साथ हाँकते 
और उन सैनिकोंका व्यूह-निर्माण करते हुए इधर-उधर बड़े वेगसे विचर रहे थे || १० ।। 

तेष्वनीकेषु सर्वेषु स्थितेष्वाहवनन्दिषु । 

भारद्वाजो महाराज जयद्रथमथाब्रवीत्‌ ।। ११ ।। 

महाराज! युद्धसे प्रसन्न होनेवाले उन समस्त सैनिकोंके व्यूहबद्ध हो जानेपर 
द्रोणाचार्यने जयद्रथसे कहा-- || ११ ।। 

त्वं चैव सौमदत्तिश्ष कर्णश्षैव महारथ: । 

अश्र॒त्थामा च शल्यश्न वृषसेन: कृपस्तथा ।। १२ ।। 

शतं चाश्वसहस्राणां रथानामयुतानि षट्‌ । 

द्विरदानां प्रभिन्नानां सहस्राणि चतुर्दश ।। १३ ।। 

पदातीनां सहस्राणि दंशितान्येकविंशति: । 

गव्यूतिषु त्रिमात्रासु मामनासाद्य तिष्ठत ।। १४ ।। 

“राजन! तुम, भूरिश्रवा, महारथी कर्ण, अश्व॒त्थामा, शल्य, वृषसेन तथा कृपाचार्य, एक 
लाख घुड़सवार, साठ हजार रथ, चौदह हजार मदस्रावी गजराज तथा इकक्‍्कीस हजार 
कवचधारी पैदल सैनिकोंको साथ लेकर मुझसे छ: कोसकी दूरीपर जाकर डटे रहो ।। १२ 
-१४ || 

तत्रस्थं त्वां न संसोदुं शक्ता देवा: सवासवा: | 

कि पुन: पाण्डवा: सर्वे समाश्वसिहि सैन्धव ।। १५ ।। 

'सिंधुराज! वहाँ रहनेपर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारा सामना नहीं कर सकते; 
फिर समस्त पाण्डव तो कर ही कैसे सकते हैं? अतः तुम धैर्य धारण करो” ।। १५ ।। 


एवमुक्तः समाश्वस्त: सिन्धुराजो जयद्रथः । 

सम्प्रायात्‌ सह गान्धारैरवृतस्तैश्व महारथै: ।। १६ ।। 

वर्मिभि: सादिभिययत्तै: प्रासपाणिभिरास्थितै: । 

उनके ऐसा कहनेपर सिंधुराज जयद्रथको बड़ा आश्वासन मिला। वह गान्धार 
महारथियोंसे घिरा हुआ युद्धके लिये चल दिया। कवचधारी घुड़सवार हाथोंमें प्रास लिये पूरी 
सावधानीके साथ उन्हें घेरे हुए चल रहे थे || १६६ ।। 

चामरापीडिन: सर्वे जाम्बूनदविभूषिता: ।। १७ ।। 

जयद्रथस्य राजेन्द्र हया: साधुप्रवाहिन: । 

ते चैव सप्तसाहस्रास्त्रिसाहस्राक्ष सैन्धवा: ।। १८ ।। 

राजेन्द्र! जयद्रथके घोड़े सवारीमें बहुत अच्छा काम देते थे। वे सब-के-सब चवँरकी 
कलँगीसे सुशोभित और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित थे। उन सिंधुदेशीय अश्वोंकी 
संख्या दस हजार थी || १७-१८ ।। 

मत्तानां सुविरूढानां हस्त्यारोहैरविशारदै: । 

नागानां भीमरूपाणां वर्मिणां रौद्रकर्मिणाम्‌ ।। १९ ।। 

अध्यर्थेन सहस्रेण पुत्रो दुर्मर्षणस्तव । 

अग्रतः सर्वसैन्यानां युध्यमानो व्यवस्थित: ।। २० ।। 

जिनपर युद्धकुशल हाथीसवार आरूढ थे, ऐसे भयंकर रूप तथा पराक्रमवाले डेढ़ 
हजार कवचधारी मतवाले गजराजोंके साथ आकर आपका पुत्र दुर्मर्षण युद्धके लिये उद्यत 
हो सम्पूर्ण सेनाओंके आगे खड़ा हुआ || १९-२० |। 

ततो दुःशासनश्वैव विकर्णश्र॒ तवात्मजौ । 

सिन्धुराजार्थसिद्धयर्थमग्रानीके व्यवस्थितौ || २१ ।। 

तत्पश्चात्‌ आपके दो पुत्र दःशासन और विकर्ण सिन्धुराज जयद्रथके अभीष्ट अर्थकी 
सिद्धिके लिये सेनाके अग्रभागमें खड़े हुए |। २१ ।। 

दीर्घो द्वादश गव्यूति: पश्चार्थे पज्च विस्तृत: । 

व्यूहस्तु चक्रशकटो भारद्वाजेन निर्मित: ।। २२ ।। 

आचार्य द्रोणने चक्रगर्भ शकटव्यूहका निर्माण किया था, जिसकी लम्बाई बारह गव्यूति 
(चौबीस कोस) थी और पिछले भागकी चौड़ाई पाँच गव्यूति (दस कोस) थी ।। 

नानानृपतिभिवीरिस्तत्र तत्र व्यवस्थितै: । 

रथाश्चवगजपत्त्योघैद्रोणेन विहित: स्वयम्‌ ।। २३ ।। 

यत्र-तत्र खड़े हुए अनेक नरपतियों तथा हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल 
सैनिकोंद्वारा द्रोणाचार्यने स्वयं उस व्यूहकी रचना की थी || २३ ।। 

पश्चार्थे तस्य पद्मस्तु गर्भव्यूह: सुदुर्भिद: । 

सूची पद्मस्य गर्भस्थो गूढो व्यूह: कृत: पुन: ॥। २४ ।। 


उस चक्रशकटव्यूहके पिछले भागमें पद्म नामक एक गर्भव्यूह बनाया गया था, जो 
अत्यन्त दुर्भद्य था। उस पद्यव्यूहके मध्यभागमें सूची नामक एक गूढ़ व्यूह और बनाया गया 
था ।। २४ ।। 

एवमेतं महाव्यूहं व्यूह[ द्रोणो व्यवस्थित: । 

सूचीमुखे महेष्वास: कृतवर्मा व्यवस्थित: ।। २५ ।। 

इस प्रकार इस महाव्यूहकी रचना करके द्रोणाचार्य युद्धके लिये तैयार खड़े थे। 
सूचीमुख व्यूहके प्रमुख भागमें महाधनुर्धर कृतवर्मा खड़ा किया गया था ।। २५ ।। 

अनन्तरं च काम्बोजो जलसंधश्ष्‌ मारिष । 

दुर्योधनश्न कर्णश्व तदनन्तरमेव च ।। २६ ।। 

आर्य! कृतवर्मके पीछे काम्बोजराज और जलसंध खड़े हुए, तदनन्तर दुर्योधन और 
कर्ण स्थित हुए || २६ ।। 

ततः शतसहस््राणि योधानामनिवर्तिनाम्‌ । 

व्यवस्थितानि सर्वाणि शकटे मुखरक्षिणाम्‌ ।। २७ ।। 

तत्पश्चात्‌ युद्धमें पीठ न दिखानेवाले एक लाख योद्धा खड़े हुए थे। वे सबके सब 
शकटणव्यूहके प्रमुख भागकी रक्षाके लिये नियुक्त थे || २७ ।। 

तेषां च पृष्ठतो राजा बलेन महता वृतः । 

जयद्रथस्ततो राजा सूचीपाशश्वे व्यवस्थित: ।। २८ ।। 

उनके पीछे विशाल सेनाके साथ स्वयं राजा जयद्रथ सूचीव्यूहके पार्श्रभागमें खड़ा 
था || २८ ।। 

शकटस्य तु राजेन्द्र भारद्वाजो मुखे स्थित: । 

अनु तस्याभवद्‌ भोजो जुगोपैनं ततः स्वयम्‌ ।। २९ ।। 

राजेन्द्र! उस शकटव्यूहके मुहानेपर भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य थे और उनके पीछे भोज 
था, जो स्वयं आचार्यकी रक्षा करता था ।। २९ |। 

श्वेतवर्माम्बरोष्णीषो व्यूढोरस्को महाभुज: । 

भधनुर्विस्फारयन्‌ द्रोणस्तस्थौ क्रुद्ध इवान्तक: ।। ३० ।। 

ट्रोणाचार्यका कवच श्वेत रंगका था। उनके वस्त्र और उष्णीष (पगड़ी) भी श्वेत ही थे। 
छाती चौड़ी और भुजाएँ विशाल थीं। उस समय धनुष खींचते हुए द्रोणाचार्य वहाँ क्रोधमें 
भरे हुए यमराजके समान खड़े थे ।। ३० ।। 

पताकिनं शोणहयं वेदिकृष्णाजिन ध्वजम्‌ । 

द्रोणस्यप रथमालोक्य प्रहृष्टा: कुरवो5भवन्‌ ।। ३१ ।। 

उस समय वेदी और काले मृगचर्मके चिह्नसे युक्त ध्वजवाले, पताकासे सुशोभित और 
लाल घोड़ोंसे जुते हुए द्रोणाचार्यके रथको देखकर समस्त कौरव बड़े प्रसन्न हुए || ३१ ।। 

सिद्धचारणसंघानां विस्मय: सुमहानभूत्‌ । 


द्रोणेन विहितं दृष्ट्वा व्यूहं क्षुब्धार्णवोपमम्‌ ।। ३२ ।। 
द्रोणाचार्यद्वारा रचित वह महाव्यूह क्षुब्ध महासागरके समान जान पड़ता था। उसे 
देखकर सिद्धों और चारणोंके समुदायोंको महान्‌ विस्मय हुआ ।। ३२ ।। 
सशैलसागरवनां नानाजनपदाकुलाम्‌ । 
ग्रसेद्‌ व्यूह: क्षितिं सर्वामिति भूतानि मेनिरे ॥। ३३ ।। 
उस समय समस्त प्राणी ऐसा मानने लगे कि वह व्यूह पर्वत, समुद्र और काननोंसहित 
अनेकानेक जनपदोंसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीको अपना ग्रास बना लेगा ।। ३३ ।। 
बहुरथमनुजाश्चपत्तिनागं 
कम प्‌ । 
अहितह्ृदयभेदनं महद्‌ 
शकटमवेक्ष्य कृतं ननन्द राजा ।। ३४ ।। 
बहुत-से रथ, पैदल मनुष्य, घोड़े और हाथियोंसे परिपूर्ण, भयंकर कोलाहलसे युक्त एवं 
शत्रुओंके हृदयको विदीर्ण करनेमें समर्थ, अद्भुत और समयके अनुरूप बने हुए उस महान्‌ 
शकटव्यूहको देखकर राजा दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ ।। ३४ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कौरवव्यूहनिर्माणे 
सप्ताशीतितमो<5ध्याय: ॥। ८७ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कौरव-सेनाके व्यूहका 
निर्माणविषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ८७ ॥। 


ऑपन-- मा बछ। अकाल 


अष्टाशीतितमो<् ध्याय: 


कौरव-सेनाके लिये अपशकुन, दुर्मर्षणका अर्जुनसे 
लड़नेका उत्साह तथा अर्जुनका रणभूमिमें प्रवेश एवं 
शंखनाद 


संजय उवाच 

ततो व्यूकेष्वनीकेषु समुत्क्ुष्टेषु मारिष । 

ताड्यमानासु भेरीषु मृदज्गेषु नदत्सु च ।। १ ।। 

अनीकानां च संह्वादे वादित्राणां च निःस्वने । 

प्रध्मापितेषु शड्खेषु संनादे लोमहर्षणे ।। २ ।। 

अभिहारयत्सु शनकैर्भरतेषु युयुत्सुषु । 

रौद्रे मुहूर्तो सम्प्राप्ते सब्यसाची व्यदृश्यत ।। ३ ।॥। 

संजय कहते हैं--आर्य! जब इस प्रकार कौरव-सेनाओंकी व्यूह-रचना हो गयी, युद्धके 
लिये उत्सुक सैनिक कोलाहल करने लगे, नगाड़े पीटे जाने लगे, मृदंग बजने लगे, 
सैनिकोंकी गर्जनाके साथ-साथ रणवाद्योंकी तुमुल ध्वनि फैलने लगी, शंख फूँके जाने लगे, 
रोमांचकारी शब्द गूँजने लगा और युद्धके इच्छुक भरतवंशी वीर जब कवच धारण करके 
धीरे-धीरे प्रहारके लिये उद्यत होने लगे, उस समय उग्र मुहूर्त आनेपर युद्धभूमिमें सव्यसाची 
अर्जुन दिखायी दिये || १--३ ।। 

बलानां वायसानां च पुरस्तात्‌ सव्यसाचिन: । 

बहुलानि सहस्राणि प्राक्रीडंस्तत्र भारत ।। ४ ।। 

भारत! वहाँ सव्यसाची अर्जुनके सम्मुख आकाशमें कई हजार कौए और वायस क्रीडा 
करते हुए उड़ रहे थे ।। ४ ।। 

मृगाश्न घोरसंनादा: शिवाश्लाशिवदर्शना: । 

दक्षिणेन प्रयातानामस्माकं प्राणदंस्तथा ।। ५ ।। 

और जब हमलोग आगे बढ़ने लगे, तब भयंकर शब्द करनेवाले पशु और अशुभ 
दर्शनवाले सियार हमारे दाहिने आकर कोलाहल करने लगे ।। ५ ।। 

(लोकक्षये महाराज यादृशास्तादृशा हि ते | 

अशिवा धार॑राष्ट्राणां शिवा: पार्थस्य संयुगे ।।) 

महाराज! उस लोक-संहारकारी युद्धमें जैसे-तैसे अपशकुन प्रकट होने लगे, जो 
आपके पुत्रोंक लिये अमंगलकारी और अर्जुनके लिये मंगलकारी थे। 

सनिर्घाता ज्वलन्त्यश्व पेतुरुल्का: सहस्रश: । 


चचाल च मही कृत्स्ना भये घोरे समुत्थिते ।। ६ ।। 

महान्‌ भय उपस्थित होनेके कारण आकाशसे भयंकर गर्जनाके साथ सहस्रों जलती 
हुई उल्काएँ गिरने लगीं और सारी पृथ्वी काँपने लगी ।। ६ ।। 

विष्वग्वाता: सनिर्घाता रूक्षा: शर्करवर्षिण: । 

ववुरायाति कौन्तेये संग्रामे समुपस्थिते ।। ७ ।। 

अर्जुनके आने और संग्रामका अवसर उपस्थित होनेपर रेतकी वर्षा करनेवाली विकट 
गर्जन-तर्जनके साथ रूखी एवं चौवाई हवा चलने लगी || ७ ।। 

नाकुलिश्न शतानीको धृष्टय्युम्नश्न पार्षत: । 

पाण्डवानामनीकानि प्राज्ञौ तौ व्यूहतुस्तदा ।। ८ ।। 

उस समय नकुलपुत्र शतानीक और ट्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न--इन दोनों बुद्धिमान्‌ वीरोंने 
पाण्डव सैनिकोंके व्यूहका निर्माण किया ।। ८ ।। 

ततो रथसहस्रेण द्विरदानां शतेन च । 

त्रिभिरश्वसहसौैश्ष पदातीनां शतै: शतै: ।। ९ ।। 

अध्यर्धमात्रे धनुषां सहस्रे तनयस्तव । 

अग्रतः सर्वसैन्यानां स्थित्वा दुर्मर्षणो5ब्रवीत्‌ ।। १० ।। 

तदनन्तर एक हजार रथी, सौ हाथीसवार, तीन हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल 
सैनिकोंके साथ आकर अर्जुनसे डेढ़ हजार धनुषकी दूरीपर स्थित हो समस्त कौरव 
सैनिकोंके आगे होकर आपके पुत्र दुर्मर्षणने इस प्रकार कहा-- ।। ९-१० ।। 

अद्य गाण्डीवधन्वानं तपन्तं युद्धदुर्मदम्‌ । 

अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम्‌ ॥। १३१ ।। 

“जिस प्रकार तटभूमि समुद्रको आगे बढ़नेसे रोकती है, उसी प्रकार आज मैं युद्धमें 
उन्मत्त होकर लड़नेवाले शत्रु-संतापी गाण्डीवधारी अर्जुनको रोक दूँगा ।। ११ ।। 

अद्य पश्यन्तु संग्रामे धनंजयममर्षणम्‌ । 

विषक्तं मयि दुर्धर्षमश्मकूटमिवाश्मनि ।। १२ ।। 

“आज सब लोग देखें, जैसे पत्थर दूसरे प्रस्तरसमूहसे टकराकर रह जाता है, उसी 
प्रकार अमर्षशील दुर्धर्ष अर्जुन युद्धस्थलमें मुझसे भिड़कर अवरुद्ध हो जायँगे ।। १२ ।। 

तिष्ठ ध्वं रथिनो यूय॑ संग्राममभिकड्क्षिण: । 

युध्यामि संहतानेतान्‌ यशो मान॑ च वर्धयन्‌ ।। १३ ।। 

'संग्रामकी इच्छा रखनेवाले रथियो! आपलोग चुपचाप खड़े रहें। मैं कौरवकुलके यश 
और मानकी वृद्धि करता हुआ आज इन संगठित होकर आये हुए शत्रुओंके साथ युद्ध 
करूँगा” ।। १३ ।। 

एवं ब्रुवन्महाराज महात्मा स महामति: । 

महेष्वासैर्व॒तो राजन्‌ महेष्वासो व्यवस्थित: ।। १४ ।। 


राजन्‌! महाराज! ऐसा कहता हुआ वह महामनस्वी महाबुद्धिमान्‌ एवं महाधनुर्धर 
दुर्मर्षण बड़े-बड़े धनुर्धरोंसे घिरकर युद्धके लिये खड़ा हो गया ।। १४ ।। 

ततो<न्तक इव क्रुद्ध: सवज्ञ इव वासव: । 

दण्डपाणिरिवासहा मृत्यु: कालेन चोदित: ।। १५ ।। 

शूलपाणिरिवाक्षोभ्यो वरुण: पाशवानिव । 

युगान्ताग्निरिवार्चिष्मान्‌ प्रधक्ष्यन्‌ वै पुनः प्रजा: । १६ ।। 

क्रोधामर्षबलोद्धूतो निवातकवचान्तक: । 

जयो जेता स्थित: सत्ये पारयिष्यन्‌ महाव्रतम्‌ ।। १७ ।। 

आमुक्तकवच: खड्गी जाम्बूनदकिरीटभृत्‌ । 

शुभ्रमाल्याम्बरधर: स्वड्भदश्चारुकुण्डल: ।। १८ ।। 

रथप्रवरमास्थाय नरो नारायणानुग: । 

विधुन्वन्‌ गाण्डिवं संख्ये बभौ सूर्य इवोदित: ।। १९ ।। 

तत्पश्चात्‌ क्रोधमें भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, दण्डधारी असह्य अन्तक, कालप्रेरक 
मृत्यु, किसीसे भी क्षुब्ध न होनेवाले त्रिशूलधारी रुद्र, पाशधारी वरुण तथा पुनः समस्त 
प्रजाको दग्ध करनेके लिये उठे हुए ज्वालाओंसे युक्त प्रलयकालीन अग्निदेवके समान दुर्धर्ष 
वीर अर्जुन युद्धस्थलमें अपने श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो गाण्डीव धनुषकी टंकार करते हुए 
नवोदित सूर्यके समान प्रकाशित होने लगे। वे क्रोध, अमर्ष और बलसे प्रेरित होकर आगे 
बढ़ रहे थे। उन्होंने ही पूर्वकालमें निवातकवच नामक दानवोंका संहार किया था। वे जय 
नामके अनुसार ही विजयी होते थे। सत्यमें स्थित होकर अपने महान्‌ व्रतको पूर्ण करनेके 
लिये उद्यत थे। उन्होंने कवच बाँध रखा था। मस्तकपर जाम्बूनद सुवर्णका बना हुआ किरीट 
धारण किया था। उनके कमरमें तलवार लटक रही थी। वे नरस्वरूप अर्जुन नारायणस्वरूप 
भगवान्‌ श्रीकृष्णका अनुसरण करते हुए सुन्दर अंगदों (बाजूबन्द) और मनोहर कुण्डलोंसे 
सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने श्वेत माला और श्वेत वस्त्र पहन रखे थे || १५--१९ ।। 

सो5ग्रानीकस्य महत इषुपाते धनंजय: । 

व्यवस्थाप्य रथं राजन्‌ शड्खं दध्मौ प्रतापवान्‌ ।। २० ।। 

राजन! प्रतापी अर्जुनने अपने सामने खड़ी हुई विशाल शत्रुसेनाके सम्मुख, जितनी 
दूरसे बाण मारा जा सके उतनी ही दूरीपर अपने रथको खड़ा करके शंख बजाया || २० ।। 





अथ कृष्णो5प्यसम्भ्रान्त: पार्थेन सह मारिष | 

प्राध्मापयत्‌ पाउचजन्यं शड्खं प्रवरमोजसा ।। २१ ।। 

आर्य! तब श्रीकृष्णने भी अर्जुनके साथ बिना किसी घबराहटके अपने श्रेष्ठ शंख 
पांचजन्यको बलपूर्वक बजाया ।। २१ ।। 

तयो: शड्खप्रणादेन तव सैन्ये विशाम्पते । 

आसन संहृष्टरोमाण: कम्पिता गतचेतस: ।। २२ ।। 

प्रजानाथ! उन दोनोंके शंखनादसे आपकी सेनाके समस्त योद्धाओंके रोंगटे खड़े हो 
गये, सब लोग काँपते हुए अचेत-से हो गये || २२ ।। 

यथा त्रस्यन्ति भूतानि सर्वाण्यशनिनि:स्वनात्‌ । 

तथा शड्खप्रणादेन वित्रेसुस्तव सैनिका: ।। २३ ।। 

जैसे वज़्की गड़गड़ाहटसे सारे प्राणी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार उन दोनों वीरोंकी 
शंखध्वनिसे आपके समस्त सैनिक संत्रस्त हो उठे || २३ ।। 

प्रसुखुवु: शकृन्मूत्रं वाहनानि च सर्वश: । 

एवं सवाहनं सर्वमाविग्नम भवद्‌ बलम्‌ ।। २४ ।। 

सेनाके सभी वाहन भयके मारे मल-मूत्र करने लगे। इस प्रकार सवारियोंसहित सारी 
सेना उद्धिग्न हो गयी ।। 


सीदन्ति सम नरा राजन्‌ शड्खशब्देन मारिष | 

विसंज्ञाश्नाभवन्‌ केचित्‌ केचिद्‌ राजन्‌ वितत्रसु: ।। २५ ।। 

आदरणीय महाराज! अपनी सेनाके सब मनुष्य वह शंखनाद सुनकर शिथिल हो गये। 
नरेश्वर! कितने ही तो मूर्च्छिंत हो गये और कितने ही भयसे थर्रा उठे ।। 

ततः कपिर्महानादं सह भूतैर्ध्वजालयै: । 

अकरोद्‌ व्यादितास्यश्न भीषयंस्तव सैनिकान्‌ ।। २६ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनकी थ्वजामें निवास करनेवाले भूतगणोंके साथ वहाँ बैठे हुए 
हनूमानजीने मुँह बाकर आपके सैनिकोंको भयभीत करते हुए बड़े जोरसे गर्जना की ।। 

ततः शड्खाश्न भेर्यश्व मृदड़ाश्चानकै: सह । 

पुनरेवाभ्यहन्यन्त तव सैन्यप्रहर्षणा: ।। २७ ।। 

तब आपकी सेनामें भी पुनः मृदंग और ढोलके साथ शंख तथा नगाड़े बज उठे, जो 
आपके सैनिकोंके हर्ष और उत्साहको बढ़ानेवाले थे || २७ |। 

नानावादित्रसंह्वादैः क्षेडितास्फोटिताकुलै: । 

सिंहनादै: समुत्क्तु्टै: समाधूतैर्महारथै: ॥। २८ ।। 

तम्मिंस्तु तुमुले शब्दे भीरूणां भयवर्धने । 

अतीव ह्वष्टो दाशार्हमब्रवीत्‌ पाकशासनि: ।। २९ |। 

नाना प्रकारके रणवाद्योंकी ध्वनिसे, गर्जन-तर्जन करनेसे, ताल ठोंकनेसे, सिंहनादसे 
और महारथियोंके ललकारनेसे जो शब्द होते थे, वे सब मिलकर भयंकर हो उठे और भीरु 
पुरुषोंके हृदयमें भय उत्पन्न करने लगे। उस समय अत्यन्त हर्षमें भरे हुए इन्द्रपुत्र अर्जुनने 
भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा ।। २८-२९ |। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अर्जुनरणप्रवेशे 
अष्टाशीतितमो<ध्याय: ।। ८८ ।॥। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अजुनका रणभूमिमें 
प्रवेशविषयक अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ८८ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३० “लोक हैं।) 


ऑपन-माज बछ। अति ऋाण 


एकोननवतितमो<ध्याय: 


अर्जुनके द्वारा दुर्मरषणकी गजसेनाका संहार और समस्त 
सैनिकोंका पलायन 


अजुन उवाच 

चोदयाश्वान्‌ हृषीकेश यत्र दुर्मर्षण: स्थित: । 

एतदू भित्त्वा गजानीकं प्रवेक्ष्याम्यरिवाहिनीम्‌ ।। १ ।। 

अर्जुन बोले--हृषीकेश! जहाँ दुर्मर्षण खड़ा है, उसी ओर घोड़ोंको बढ़ाइये। मैं उसकी 
इस गजसेनाका भेदन करके शत्रुओंकी विशाल वाहिनीमें प्रवेश करूँगा ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्तो महाबाहु: केशव: सव्यसाचिना । 

अचोदयद्धयांस्तत्र यत्र दुर्मर्षण: स्थित: ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सव्यसाची अर्जुनके ऐसा कहनेपर महाबाह श्रीकृष्णने, जहाँ 
दुर्मषण खड़ा था, उसी ओर घोड़ोंको हाँका ।। २ ।। 

स सम्प्रहारस्तुमुल: सम्प्रवृत्त: सुदारुण: । 

एकस्य च बहूनां च रथनागनरक्षय: ।। ३ ।। 

उस समय एक वीरका बहुत-से योद्धाओंके साथ बड़ा भयंकर घमासान युद्ध छिड़ 
गया, जो रथों, हाथियों और मनुष्योंका संहार करनेवाला था ।। ३ ।। 

ततः सायकवर्षेण पर्जन्य इव वृष्टिमान्‌ । 

परानवाकिरत्‌ पार्थ: पर्वतानिव नीरद: || ४ ।। 

तदनन्तर अर्जुन बाणोंकी वर्षा करते हुए जल बरसानेवाले मेघके समान प्रतीत होने 
लगे। जैसे मेघ पानीकी वर्षा करके पर्वतोंको आच्छादित कर देता है, उसी प्रकार अर्जुनने 
अपनी बाण-वर्षसे शत्रुओंको ढक दिया ।। ४ ।। 

ते चापि रथिन: सर्वे त्वरिता: कृतहस्तवत्‌ । 

अवाकिरन्‌ बाणजालैस्तत्र कृष्णधनंजयौ ।। ५ ।। 

उधर उन समस्त कौरव रथियोंने भी सिद्धहस्त पुरुषोंकी भाँति शीघ्रतापूर्वक अपने 
बाणसमूहोंद्वारा वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनको आच्छादित कर दिया ।। ५ ।। 

ततः क्रुद्धों महाबाहुर्वार्यमाण: परैर्युधि । 

शिरांसि रथिनां पार्थ: कायेभ्योडपाहरच्छरै: ।। ६ ।। 

उस समय युद्धस्थलमें शत्रुओंके द्वारा रोके जानेपर महाबाहु अर्जुन कुपित हो उठे और 
अपने बाणोंद्वारा रथियोंके मस्तकोंको उनके शरीरोंसे काटकर गिराने लगे ।। ६ ।। 


उदभ्रान्तनयनैर्वक्त्रै: संदष्टौष्ठपुटै: शुभै: । 

सकुण्डलशिरस्त्राणैर्वसुधा समकीर्यत ।। ७ ।॥। 

कुण्डल और टोपोंसहित उन रथियोंके घूमते हुए नेत्रों तथा दाँतोंद्वारा चबाये जाते हुए 
ओठोंवाले सुन्दर मुखोंसे सारी रणभूमि पट गयी ।। ७ ।। 

पुण्डरीकवनानीव विध्वस्तानि समन्तत: । 

विनिकीर्णानि योधानां वदनानि चकाशिरे ॥। ८ ।। 

सब ओर बिखरे हुए योद्धाओंके मुख कटकर गिरे हुए कमल-समूहोंके समान 
सुशोभित होने लगे ।। ८ ।। 

तपनीयतनुत्राणा: संसिक्ता रुधिरेण च । 

संसक्ता इव दृश्यन्ते मेघसंघा: सविद्युत: ।। ९ ।। 

सुवर्णमय कवच धारण किये और खूनसे लथपथ हो एक-दूसरेसे सटे हुए हताहत 
योद्धाओंके शरीर विद्युत्सहित मेघसमूहोंके समान दिखायी देते थे ।। ९ ।। 

शिरसां पततां राजन्‌ शब्दो5भूद्‌ वसुधातले । 

कालेन परिपकवानां तालानां पततामिव ।। १० ।। 

राजन्‌! कालसे परिपक्व हुए ताड़के फलोंके पृथ्वीपर गिरनेसे जैसा शब्द होता है, उसी 
प्रकार रणभूमिमें कटकर गिरते हुए योद्धाओंके मस्तकोंका शब्द होता था || १० ।। 

ततः कबन्धं किंचित्‌ तु धनुरालम्ब्य तिष्ठति । 

किंचित्‌ खड्गं विनिष्कृष्य भुजेनोद्यम्य तिषछतति ।। ११ ।। 

कोई-कोई कबन्ध (बिना सिरका धड़) धनुष लेकर खड़ा था और कोई तलवार 
खींचकर उसे हाथमें उठाये खड़ा हुआ था ॥। ११ ।। 

पतितानि न जानन्ति शिरांसि पुरुषर्षभा: । 

अमृष्यमाणा: संग्रामे कौन्तेयं जयगृद्धिन: ।। १२ ।। 

संग्राममें विजयकी अभिलाषा रखनेवाले कितने ही श्रेष्ठ पुरुष कुन्तीपुत्र अर्जुनके प्रति 
अमर्षशील होकर यह भी न जान पाये कि उनके मस्तक कब कटकर गिर गये ।। १२ ।। 

हयानामुत्तम ज्ैश्व हस्तेहस्तैश्न मेदिनी । 

बाहुभिश्न शिरोभिश्नल वीराणां समकीर्यत ।। १३ ।। 

घोड़ोंके मस्तकों, हाथियोंकी सूँड़ों और वीरोंकी भुजाओं तथा सिरोंसे सारी रणभूमि 
आच्छादित हो गयी थी ।। १३ ।। 

अयं पार्थ: कुतः पार्थ एष पार्थ इति प्रभो । 

तव सैन्येषु योधानां पार्थभूतमिवाभवत्‌ ।। १४ ।। 

प्रभो! आपकी सेनाओंके समस्त योद्धाओंकी दृष्टिमें सब ओर अर्जुनमय-सा हो रहा 
था। वे बार-बार “यह अर्जुन है, कहाँ अर्जुन है? यह अर्जुन है' इस प्रकार चिल्ला उठते 
थे।। १४ ।। 


अन्योन्यमपि चाजघ्नुरात्मानमपि चापरे । 

पार्थभूतममन्यन्त जगत्‌ कालेन मोहिता: ।। १५ ।। 

बहुत-से दूसरे सैनिक आपसमें ही एक-दूसरेपर तथा अपने ऊपर भी प्रहार कर बैठते 
थे। वे कालसे मोहित होकर सारे संसारको अर्जुनमय ही मानने लगे ।। 

निष्टनन्तः: सरुधिरा विसंज्ञा गाढवेदना: । 

शयाना बहवो वीरा: कीर्तयन्त: स्वबान्धवान्‌ ।। १६ ।। 

बहुत-से वीर रक्तसे भीगे शरीरसे धराशायी होकर गहरी वेदनाके कारण कराहते हुए 
अपनी चेतना खो बैठते थे और कितने ही योद्धा धरतीपर पड़े-पड़े अपने बन्धु-बान्धवोंको 
पुकार रहे थे || १६ ।। 





श्रीकृष्ण और अर्जुनका दुर्मर्षणकी गजसेनामें प्रवेश 


सभिन्दिपाला: सप्रासा: सशक्त्यूष्टिपरश्वधा: । 
सनिर्व्यूहा: सनिस्त्रिंशा: सशरासनतोमरा: ।। १७ || 
सबाणवर्माभरणा: सगदा: साड्भदा रणे | 


महाभुजगसंकाशा बाहव: परिघोपमा: ।। १८ ।। 

उद्वेष्टन्ति विचेष्टन्ति संचेष्टन्ति च सर्वश: । 

वेग॑ कुर्वन्ति संरब्धा निकृत्ता: परमेषुभि: ।। १९ ।। 

अर्जुनके श्रेष्ठ बाणोंसे कटी हुई वीरोंकी परिघके समान मोटी और महान्‌ सर्पके समान 
दिखायी देनेवाली भिन्दिपाल, प्रास, शक्ति, ऋष्टि, फरसे, निर्व्यूह, खड्ग, धनुष, तोमर, 
बाण, कवच, आभूषण, गदा और भुजबंद आदिसे युक्त भुजाएँ आवेशमें भरकर अपना 
महान्‌ वेग प्रकट करती, ऊपरको उछलती, छटपटाती और सब प्रकारकी चेष्टाएँ करती 
थीं ।। १७--१९ |। 

यो यः सम समरे पार्थ प्रतिसंचरते नर: । 

तस्य तस्यान्तको बाण: शरीरमुपसर्पति ।। २० ।। 

जो-जो मनुष्य उस समरांगणमें अर्जुनका सामना करनेके लिये चलता था, उस-उसके 
शरीरपर प्राणान्तकारी बाण आ गिरता था ।। २० |। 

नृत्यतो रथमार्गेषु धनुर्व्यायच्छतस्तथा । 

न वश्षित्‌ तत्र पार्थस्य ददृशेडन्तरमण्वपि ।। २१ ।। 

अर्जुन वहाँ इस प्रकार निरन्तर रथके मार्गोंपर विचरते और खींच रहे थे कि उस समय 
कोई भी उनपर प्रहार करनेका धनुषको थोड़ा-सा भी अवसर नहीं देख पाता था ।। २१ ।। 

यत्तस्य घटमानस्य क्षिप्रं विक्षिपत: शरान्‌ | 

लाघवात्‌ पाण्डुपुत्रस्य व्यस्मयन्त परे जना: ।। २२ ।। 

पाणए्डुपुत्र अर्जुन पूर्ण सावधान हो विजय पानेकी चेष्टा करते और शीघ्रतापूर्वक बाण 
चलाते थे। उस समय उनकी फुर्ती देखकर दूसरे लोगोंको बड़ा आश्वर्य होता था ।। 

हस्तिनं हस्तियन्तारमश्वमाश्चिकमेव च । 

अभिनत्‌ फाल्गुनो बाणौ रथिनं च ससारथिम्‌ ।। २३ ।। 

अर्जुनने हाथी और महावतको, घोड़े और घुड़सवारको तथा रथी और सारथिको भी 
अपने बाणोंसे विदीर्ण कर डाला || २३ ।। 

आवर्तमानमावृत्तं युध्यमानं च पाण्डव: । 

प्रमुखे तिष्ठटमानं च न किंचिन्न निहन्ति सः ।। २४ ।। 

जो लौटकर आ रहे थे, जो आ चुके थे, जो युद्ध करते थे और जो सामने खड़े थे-- 
इनमेंसे किसीको भी पाण्डुकुमार अर्जुन मारे बिना नहीं छोड़ते थे | २४ ।। 

यथोदयन्‌ वै गगने सूर्यो हन्ति महत्‌ तमः । 

तथार्जुनो गजानीकमवधीत्‌ कड्कपत्रिभि: | २५ |। 

जैसे आकाशमें उदित हुआ सूर्य महान्‌ अन्धकारको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार 
अर्जुनने कंककी पाँखवाले बाणोंद्वारा उस गजसेनाका संहार कर डाला || २५ || 

हस्तिभि: पतितैर्भिन्नैस्तव सैन्यमदृश्यत । 


अन्तकाले यथा भूमिर्व्यवकीर्णा महीधरै: ।। २६ ।। 

राजन! बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर धरतीपर पड़े हुए हाथियोंसे आपकी सेना वैसी ही 
दिखायी देती थी, जैसे प्रलयकालमें यह पृथ्वी इधर-उधर बिखरे हुए पर्वतोंसे आच्छादित 
देखी जाती है || २६ ।। 

यथा मध्यन्दिने सूर्यो दुष्प्रेक्ष्य: प्राणिभि: सदा । 

तथा धनंजय: क्रुद्धो दुष्प्रेक्ष्यो युधि शत्रुभि: ॥। २७ ।। 

जैसे दोपहरके सूर्यकी ओर देखना समस्त प्राणियोंके लिये सदा ही कठिन होता है, 
उसी प्रकार उस युद्धस्थलमें कुपित हुए अर्जुनकी ओर शत्रुलोग बड़ी कठिनाईसे देख पाते 
थे।। २७ |। 

तत्‌ तथा तव पुत्रस्य सैन्यं युधि परंतप । 

प्रभग्नं द्रतमाविग्नमतीव शरपीडितम्‌ ।। २८ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! इस प्रकार उस युद्धस्थलमें अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित 
हुई आपके पुत्रकी सेनाके पाँव उखड़ गये और वह अत्यन्त उद्विग्न हो तुरंत ही वहाँसे भाग 
चली || २८ ।। 

मारुतेनेव महता मेघानीकं व्यदीर्यत । 

प्रकाल्यमानं तत्‌ सैन्यं नाशकत्‌ प्रतिवीक्षितुम्‌ ।। २९ ।। 

जैसे बड़े वेगसे उठी हुई वायु बादलोंके समूहको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार 
दुर्मीषणकी सेनाका व्यूह टूट गया और वह अर्जुनके खदेड़नेपर इस प्रकार जोर-जोरसे 
भागने लगी कि उसे पीछे फिरकर देखनेका भी साहस न हुआ ।। २९ ।। 

प्रतोदैश्वापकोटीभिहुड्कारैः साधुवाहितै: । 

कशापाष्ण्यभिषातैश्न वाग्भिरुग्राभिरेव च ।। ३० | 

चोदयन्तो हयांस्तूर्ण पलायन्ते सम तावका: । 

सादिनो रथिनश्वैव पत्तयश्चार्जुनादिता: ।। ३१ ।। 

अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हुए आपके पैदल, घुड़सवार और रथी सैनिक चाबुक, 
धनुषकी कोटि, हुंकार, हाँकनेकी सुन्दर कला, कोड़ोंके प्रहार, चरणोंके आघात तथा 
भयंकर वाणीद्वारा अपने घोड़ोंको बड़ी उतावलीके साथ हाँकते हुए भाग रहे 
थे ।। ३०-३१ ।। 

पा्ष्ण्यड्गुष्ठाड्कुशैर्नागं चोदयन्तस्तथा परे । 

शरै: सम्मोहिताश्चान्ये तमेवाभिमुखा ययु: । 

तव योधा हतोत्साहा विभ्रान्तमनसस्तदा ।। ३२ || 

दूसरे गजारोही सैनिक अपने पैरोंके अँगूठों और अंकुशोंद्वारा हाथियोंको हाँकते हुए 
रणभूमिसे पलायन कर रहे थे। कितने ही योद्धा अर्जुनके बाणोंसे मोहित होकर उन्हींके 


सामने चले जाते थे। उस समय आपके सभी योद्धाओंका उत्साह नष्ट हो गया था और 
मनमें बड़ी भारी घबराहट पैदा हो गयी थी ।। ३२ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अर्जुनयुद्धे एकोननवतितमो<ध्याय: 
॥। ८९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अर्जुनयुद्धविषयक नवासीवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ८९ ॥ 


अपना बछ। | अफड-४#--का+ 


नवतितमो< ध्याय: 


अर्जुनके बाणोंसे हताहत होकर सेनासहित दुःशासनका 
पलायन 


धृतराष्ट उवाच 

तस्मिन्‌ प्रभग्ने सैन्याग्रे वध्यमाने किरीटिना । 

के तु तत्र रणे वीरा:ः प्रत्युदीयुर्धनंजयम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! किरीटधारी अर्जुनकी मार खाकर उस अग्रगामी सैन्यदलके 
पलायन कर जानेपर वहाँ रणक्षेत्रमें किन वीरोंने अर्जुनपर धावा किया था? ।। १ ।। 

आहोस्विच्छकटबव्यूहं प्रविष्टा मोघनिश्चया: । 

द्रोणमाश्रित्य तिष्ठन्तं प्राकारमकुतो भयम्‌ ।। २ ।। 

अथवा ऐसा तो नहीं हुआ कि अपना मनोरथ सफल न होनेपर वे परकोटेकी भाँति 
खड़े हुए द्रोणाचार्यका आश्रय लेकर सर्वथा निर्भय शकटव्यूहमें घुस गये हों ।। २ ।। 

संजय उवाच 

तथार्जुनेन सम्भग्ने तस्मिंस्तव बलेडनघ । 

हतवीरे हतोत्साहे पलायनकृतक्षणे ।। ३ ।। 

पाकशासनिनाभीक्षणं वध्यमाने शरोत्तमै: | 

नतत्र वक्चित्‌ संग्रामे शशाकार्जुनमी क्षितुम्‌ ।। ४ ।। 

संजयने कहा--निष्पाप नरेश! जब इन्द्रपुत्र अर्जुनने पूर्वोक्त प्रकारसे आपकी सेनाके 
वीरोंको मारकर उसे हतोत्साह एवं भागनेके लिये विवश कर दिया, सभी सैनिक पलायन 
करनेका ही अवसर देखने लगे तथा उनके ऊपर निरन्तर श्रेष्ठ बाणोंकी मार पड़ने लगी, उस 
समय वहाँ संग्राममें कोई भी अर्जुनकी ओर आँख उठाकर देख न सका ।। ३-४ ।। 

ततस्तव सुतो राजन्‌ दृष्टवा सैन्यं तथागतम्‌ | 

दुःशासनो भशं क्ुद्धों युद्धायार्जुनमभ्यगात्‌ ।। ५ ।। 

राजन! सेनाकी वह दुरवस्था देखकर आपके पुत्र दुःशासनको बड़ा क्रोध हुआ और 
वह युद्धके लिये अर्जुनके सामने जा पहुँचा ।। ५ ।। 

स काजञ्चनविचित्रेण कवचेन समावृत: । 

जाम्बूनदशिरस्त्राण: शूरस्तीव्रपराक्रम: ।। ६ ।। 

उसने अपने-आपको सुवर्णमय विचित्र कवचके द्वारा ढक लिया था, उसके मस्तकपर 
जाम्बूनद सुवर्णका बना हुआ शिरस्त्राण (टोप) शोभा पा रहा था। वह दुःसह पराक्रम 
करनेवाला शूरवीर था ।। ६ ।। 


नागानीकेन महता ग्रसन्निव महीमिमाम्‌ | 

दुःशासनो महाराज सव्यसाचिनमावृणोत्‌ ॥। ७ ।। 

महाराज! दुःशासनने अपनी विशाल गजसेनाद्वारा अर्जुनको इस प्रकार चारों ओरसे 
घेर लिया, मानो वह सारी पृथ्वीको ग्रस लेनेके लिये उद्यत हो ॥। ७ ।। 

ह्रादेन गजघण्टानां शड्खानां निनदेन च । 

ज्याक्षेपनिनदैश्वैव विरावेण च दन्तिनाम्‌ ।। ८ ।। 

भूर्दिशश्वान्तरिक्षं च शब्देनासीत्‌ समावृतम्‌ । 

स मुहूर्त प्रतिभयो दारुण: समपद्यत ।। ९ ।। 

हाथियोंके घंटोंकी ध्वनि, शंखनाद, धनुषकी टंकार और गजराजोंके चिग्घाड़नेके 
शब्दसे पृथ्वी, दिशाएँ तथा आकाश--ये सभी गूँज उठे थे। उस समय दुःशासन दो घड़ीके 
लिये अत्यन्त भयंकर एवं दारुण हो उठा ।। ८-९ |। 

तान्‌ दृष्टवा पततस्तृूणमड्कुशैरभिचोदितान्‌ । 

व्यालम्बहस्तान्‌ संरब्धान्‌ सपक्षानिव पर्वतान्‌ ।। १० ।। 

सिंहनादेन महता नरसिंहो धनंजय: । 

गजानीकममित्राणामभीतो व्यधमच्छरै: ।। ११ ।। 

महावतोंद्वारा अंकुशोंसे हाँके जानेपर लम्बी सूँड़ उठाये और क्रोधमें भरे, पंखधारी 
पर्वतोंके समान उन हाथियोंको बड़े वेगसे अपने ऊपर आते देख मनुष्योंमें सिंहके समान 
पराक्रमी अर्जुनने बड़े जोरसे सिंहनाद करके शत्रुओंकी उस गजसेनाका बिना किसी भयके 
बाणोंद्वारा संहार कर डाला ।। १०-११ ।। 

महोर्मिणमिवोद्धूतं श्वसनेन महार्णवम्‌ । 

किरीटी तद्‌ गजानीकं प्राविशन्‍्मकरो यथा || १२ ।। 

वायुद्वारा ऊपर उठाये हुए ऊँची-ऊँची तरंगोंसे युक्त महासागरके समान उस गजसैन्यमें 
किरीटधारी अर्जुनने मकरके समान प्रवेश किया ।। १२ ।। 

काष्ठातीत इवादित्य: प्रतपन्‌ स युगक्षये । 

ददृशे दिक्षु सर्वासु पार्थ: परपुरंजय: ।। १३ ।। 

जैसे प्रलयकालमें सूर्यदेव सीमाका उल्लंघन करके तपने लगते हैं, उसी प्रकार 
शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले अर्जुन सम्पूर्ण दिशाओंमें असीम पराक्रम करते हुए 
दिखायी देने लगे ।। १३ ।। 

खुरशब्देन चाश्वानां नेमिघोषेण तेन च । 

तेन चोत्कृष्टशब्देन ज्यानिनादेन तेन च ।। १४ ।। 

नानावादित्रशब्देन पाज्चजन्यस्वनेन च । 

देवदत्तस्य घोषेण गाण्डीवनिनदेन च ।। १५ ।। 

मन्दवेगा नरा नागा बभूवुस्ते विचेतस: । 


शरैराशीविषस्पर्श्निर्भिन्ना: सव्यसाचिना ।। १६ ।। 

घोड़ोंकी टापोंके शब्दसे, रथके पहियोंकी उस घरघराहटसे, उच्चस्वरसे किये जानेवाले 
गर्जन-तर्जनकी उस आवाजसे, धनुषकी प्रत्यंचाकी उस टंकारसे, भाँति-भाँतिके वाद्योंकी 
ध्वनिसे, पांचजन्यके हुंकारसे, देवदत्त नामक शंखके गम्भीर घोषसे तथा गाण्डीवकी टंकार- 
ध्वनिसे मनुष्यों और हाथियोंके वेग मन्द पड़ गये और वे सब-के-सब भयके मारे अचेत हो 
गये। सव्यसाची अर्जुनने विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंद्वारा उन्हें विदीर्ण कर 
दिया ।। १४--१६ ।। 

ते गजा विशिखैस्ती&णैर्युधि गाण्डीवचोदितै: । 

अनेकशतसाहसी: सर्वाज्भिषु समर्पिता: ।। १७ ।। 

गाण्डीव धनुषद्वारा चलाये हुए लाखों तीखे बाण युद्ध-स्थलमें खड़े हुए उन हाथियोंके 
सम्पूर्ण अंगोंमें बिंध गये थे ।। 

आरावं परम॑ कृत्वा वध्यमाना: किरीटिना । 

निपेतुरनिशं भूमौ छिन्नपक्षा इवाद्रय: ।। १८ ।। 

अर्जुनके बाणोंकी मार खाकर बड़े चोरसे चीत्कार करके वे हाथी पंख कटे हुए 
पर्वतोंके समान पृथ्वीपर निरन्तर गिर रहे थे || १८ ।। 

अपरे दन्तवेष्टेषु कुम्भेषु च कटेषु च । 

शरै: समर्पिता नागा: क्रौज्चवद्‌ व्यनदन्‌ मुहुः ।। १९ ।। 

कुछ दूसरे गजराज नीचेके ओठढोंमें, कुम्भस्थलोंमें और कनपटियोंमें बाणोंसे छिद 
जानेके कारण कुरर पक्षीके समान बारंबार आर्तनाद कर रहे थे || १९ ।। 

गजस्कन्धगतानां च पुरुषाणां किरीटिना । 

छिद्यन्ते चोत्तमाड़ानि भल्लै: संनतपर्वभि: ।। २० || 

किरीटधारी अर्जुन झुकी हुई गाँठवाले भलल नामक बाणोंद्वारा हाथीकी पीठपर बैठे 
हुए पुरुषोंके मस्तक भी धड़ाधड़ काटते जा रहे थे || २० ।। 





सकुण्डलानां पततां शिरसां धरणीतले । 

पद्मानामिव संघातै: पार्थश्चक्रे निवेदनम्‌ ॥। २१ ।। 

पृथ्वीपर गिरते हुए कुण्डलयुक्त मस्तक कमलपुष्पोंके ढेरके समान जान पड़ते थे, 
मानो अर्जुनने उन मस्तकोंके रूपमें पृथ्वीको पद्मके समूह भेंट किये हों || २१ ।। 

यन्त्रबद्धा विकवचा व्रणार्ता रुधिरोक्षिता: । 

भ्रमत्सु युधि नागेषु मनुष्या विललम्बिरे || २२ ।। 

युद्धके मैदानमें चक्कर काटते हुए हाथियोंपर बहुत-से मनुष्य इस प्रकार लटक रहे थे, 
मानो उन्हें किसी यन्त्रसे वहाँ जड़ दिया गया हो। उनके कवच नष्ट हो गये थे। वे घावसे 
पीड़ित और खूनसे लथपथ हो रहे थे ।। 

केचिदेकेन बाणेन सुयुक्तेन सुपत्रिणा । 

द्वौ त्रयश्न विनिर्भिन्ना निपेतुर्थरणीतले ।। २३ ।। 

कुछ हाथी तो अच्छी तरहसे चलाये हुए सुन्दर पंखयुक्त एक ही बाणद्दारा दो-दो तीन- 
तीनकी संख्यामें एक साथ विदीर्ण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ते थे || २३ ।। 

अतिदिद्धाश्न नाराचैर्वमन्तो रुधिरं मुखै: । 

सारोहा न्‍्यपतन्‌ भूमौ द्रुमवन्‍्त इवाचला: ।। २४ ।। 


सवारोंसहित कितने ही हाथी नाराचोंसे अत्यन्त घायल होकर मुँहसे रक्त वमन करते 
हुए वृक्षयुक्त पर्वतोंके समान धराशायी हो रहे थे || २४ ।। 

मौर्वी ध्वजं धनुश्वैव युगमीषां तथैव च । 

रथिनां कुट्टयामास भल्लै: संनतपर्वभि: ।। २५ ।। 

तदनन्तर अर्जुनने झुकी हुई गाँठवाले भल्लोंद्वारा रथियोंकी प्रत्यंचा, ध्वजा, धनुष, 
जुआ तथा ईषादण्डके टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।| २५ ।। 

न संदधन्‌ न चाकर्षन्‌ न विमुज्चन्‌ न चोद्वहन्‌ । 

मण्डलेनैव धनुषा नृत्यन्‌ पार्थ: सम दृश्यते ।। २६ ।। 

उस समय अर्जुन मण्डलाकार धनुषके साथ सब ओर नृत्य करते हुए-से दृष्टिगोचर हो 
रहे थे। वे कब धनुषपर बाणोंको रखते, कब प्रत्यंचा खींचते, कब बाण छोड़ते और कब 
उन्हें तरकशसे निकालते हैं, यह कोई नहीं देख पाता था ।। २६ ।। 

अतिदिद्धाश्न नाराचैर्वमन्तो रुधिरं मुखै: । 

मुहूर्तान्न्यपतन्नन्ये वारणा वसुधातले ।। २७ ।। 

दो ही घड़ीमें और भी बहुत-से हाथी नाराचोंकी मारसे अत्यन्त क्षत-विक्षत होकर मुँहसे 
रक्त वमन करते हुए धरतीपर लोटने लगे ।। २७ ।। 

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्तत:ः । 

अदृश्यन्त महाराज तस्मिन्‌ परमसंकुले ।। २८ ।। 

महाराज! उस अत्यन्त भयानक युद्धमें चारों ओर असंख्य कबन्ध (धड़) उठे दिखायी 
देते थे । २८ ।। 

सचापा: साड्गुलित्राणा: सखड्गा: साड्रदा रणे | 

अदृश्यन्त भूजाश्छिन्ना हेमाभरणभूषिता: ।। २९ ।। 

वीरोंकी कटी हुई स्वर्णमय आभूषणोंसे विभूषित भुजाएँ धनुष, दस्ताने, तलवार और 
भुजबन्दोंसहित कटकर रणभूमिमें पड़ी दिखायी देती थीं || २९ ।। 

सूपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरै: । 

चक्रैविमथितैरक्षैर्भग्नैश्न बहुधा युगे || ३० ।। 

चर्मचापधरैश्रैव व्यवकीर्णस्ततस्तत: । 

स्रग्भिराभरणैर्वस्त्रै: पतितैश्न महाध्वजै: ।। ३१ ।। 

निहतैववरिणैरश्रैः क्षत्रियैश्न निपातितै: । 

अदृश्यत मही तत्र दारुणप्रतिदर्शना ।। ३२ ।। 

सुन्दर उपकरणों, बैठकों, ईषादण्ड, बन्धनरज्जुओं और पहियोंसहित रथ चूर-चूर हो 
रहे थे। उनके धुरे टूट गये थे और जूए टुकड़े-टुकड़े होकर पड़े थे। बहुत-सी ढालों और 
धनुषोंको लिये-दिये वे टूटे हुए रथ इधर-उधर बिखरे पड़े थे। बहुत-से हार, आभूषण, वस्त्र 
और बड़े-बड़े ध्वज धरतीपर गिरे हुए थे। अनेक हाथी और घोड़े मारे गये थे तथा बहुत-से 


क्षत्रिय भी धराशायी कर दिये गये थे। इन सबके कारण वहाँकी भूमि देखनेमें अत्यन्त 
भयंकर जान पड़ती थी || ३०--३२ ।। 

एवं दुःशासनबलं वध्यमानं किरीटिना । 

सम्प्राद्रवन्महाराज व्यथितं सहनायकम्‌ ।॥। ३३ ।। 

महाराज! इस प्रकार किरीटधारी अर्जुनकी मार खाकर अत्यन्त व्यथित हुई 
दुःशासनकी सेना अपने नायकसहित भाग चली ।। ३३ ।। 

ततो दुःशासनस्त्रस्त: सहानीक: शरार्दित: | 

द्रोणं त्रातारमाकाड्क्षन्‌ शकटब्यूहमभ्यगात्‌ ।। ३४ ।। 

तब अर्जुनके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित और भयभीत हो सेनाओंसहित दु:ःशासन अपने 
रक्षक द्रोणाचार्यके आश्रयमें जानेकी इच्छा रखकर शकटबव्यूहके भीतर घुस गया ।। ३४ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुःशासनसैन्यपराभवे 
नवतितमो<ध्याय: ।। ९० ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुःशासनकी सेनाका 
पराभवविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९० ॥। 


अपन का छा | अड-#-रू- 


एकनवतितमो<ध्याय: 


अर्जुन और द्रोणाचार्यका वार्तालाप तथा युद्ध एवं 
द्रोणाचार्यको छोड़कर आगे बढ़े हुए अर्जुनका कौरव- 
सैनिकोंद्वारा प्रतिरोध 


संजय उवाच 

दुःशासनबल हत्वा सव्यसाची महारथ: । 

सिन्धुराजं परीप्सन्‌ वै द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! दुःशासनकी सेनाका संहार करके सव्यसाची महारथी 
अर्जुनने सिन्धुराज जयद्रथको पानेकी इच्छा रखकर द्रोणाचार्यकी सेनापर धावा 
किया ।। १ |। 

स तु द्रोणं समासाद्य व्यूहस्य प्रमुखे स्थितम्‌ । 

कृताञ्जलिरिदं वाक्‍्यं कृष्णस्यानुमते5ब्रवीत्‌ ।। २ ।। 

व्यूहके मुहानेपर खड़े हुए आचार्य द्रोणके पास पहुँचकर अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी 
अनुमति ले हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-- ॥। २ ।। 

शिवेन ध्याहि मां ब्रह्मन्‌ स्वस्ति चैव वदस्व मे । 

भवत्प्रसादादिच्छामि प्रवेष्टूं दुर्भिदां चमूम्‌ ।। ३ ।। 

“ब्रह्म! आप मेरा कल्याण चिन्तन कीजिये। मुझे स्वस्ति कहकर आशीर्वाद दीजिये। 
मैं आपकी कृपासे ही इस दुर्भद्य सेनाके भीतर प्रवेश करना चाहता हूँ ।। ३ ।। 

भवान्‌ पितृसमो महां धर्मराजसमोडपि च । 

तथा कृष्णसमश्वैव सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ४ ।। 

“आप मेरे लिये पिता पाण्डु, भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर तथा सखा श्रीकृष्णके समान हैं। 
यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ ।। ४ ।। 

अश्वत्थामा यथा तात रक्षणीयस्त्वयानघ । 

तथाहमपि ते रक्ष्य: सदैव द्विजसत्तम ।। ५ ।। 

“तात! निष्पाप द्विजश्रेष्ठ! जैसे अश्वत्थामा आपके लिये रक्षणीय हैं, उसी प्रकार मैं भी 
सदैव आपसे संरक्षण पानेका अधिकारी हूँ ।। ५ ।। 

तव प्रसादादिच्छेयं सिन्धुराजानमाहवे । 

निहन्तुं द्विपदां श्रेष्ठ प्रतिज्ञां रक्ष मे प्रभो । ६ ।। 

“नरश्रेष्ठ! मैं आपके प्रसादसे इस युद्धमें सिन्धुराज जयद्रथको मारना चाहता हूँ। प्रभो! 
आप मेरी इस प्रतिज्ञाकी रक्षा कीजिये" || ६ ।। 


संजय उवाच 

एवमुक्तस्तदाचार्य: प्रत्युवाच स्मयन्निव । 

मामजित्वा न बीभत्सो शक्‍्यो जेतुं जयद्रथ: ।। ७ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! अर्जुनके ऐसा कहनेपर उस समय द्रोणाचार्यने उन्हें हँसते 
हुए-से उत्तर दिया--'अर्जुन! मुझे पराजित किये बिना जयद्रथको जीतना असम्भव 
है! ७ |। 

एतावदुक्त्वा तं द्रोण: शरब्रातैरवाकिरत्‌ । 

सरथाश्चथध्वजं ती&णै: प्रहसन्‌ वै ससारथिम्‌ ।। ८ ।। 

अर्जुनसे इतना ही कहकर द्रोणाचार्यने हँसते-हँसते रथ, घोड़े, ध्वज तथा सारथिसहित 
उनके ऊपर तीखे बाणसमूहोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ८ ।। 

ततोड्र्जुन:ः शर्रातान्‌ द्रोणस्थावार्य सायकैः । 

द्रोणमभ्यद्रवद्‌ बाणै्घोररूपैर्महत्तरै: ।। ९ ।। 

तब अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यके बाण-समूहोंका निवारण करके बड़े-बड़े 
भयंकर बाणोंद्वारा उनपर आक्रमण किया ।। ९ |। 

विव्याध चरणे द्रोणमनुमान्य विशाम्पते | 

क्षत्रधर्म समास्थाय नवभि: सायकै: पुन: ।। १० ।। 

प्रजानाथ! उन्होंने द्रोणाचार्यका समादर करते हुए क्षत्रियधर्मका आश्रय ले पुनः नौ 
बाणोंद्वारा उनके चरणोंमें आघात किया ।। १० ।। 

तस्येषूनिषुभिश्कित्त्वा द्रोणो विव्याध तावुभौ । 

विषाग्निज्वलितप्रख्यैरिषुभि: कृष्णपाण्डवौ ।। ११ || 

द्रोणाचार्यने अपने बाणोंद्वारा अर्जुनके उन बाणोंको काटकर प्रज्वलित विष एवं 
अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनोंको घायल कर दिया ।। 

इयेष पाण्डवस्तस्य बाणैश्छेत्तुं शरासनम्‌ | 

तस्य चिन्तयतस्त्वेवं फाल्गुनस्य महात्मन: ।। १२ |। 

द्रोण: शरैरसम्भ्रान्तो ज्यां चिच्छेदाशु वीर्यवान्‌ 

विव्याध च हयानस्य ध्वजं सारथिमेव च ।। १३ ।। 

तब पाण्डुनन्दन अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यके धनुषको काट देनेकी इच्छा 
की। महामना अर्जुन अभी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि पराक्रमी द्रोणाचार्यने बिना 
किसी घबराहटके अपने बाणोंद्वारा शीघ्र ही उनके धनुषकी प्रत्यंचा काट डाली और 
अर्जुनके घोड़ों, ध्वज और सारथिको भी बींध डाला ।। १२-१३ ।। 

अर्जुनं च शरैवीर: स्मयमानो5भ्यवाकिरत्‌ । 

एतस्मिन्नन्तरे पार्थ: सज्यं कृत्वा महद्‌ धनु: ।। १४ ।। 

विशेषयिष्यन्नाचार्य सर्वास्त्रविदुषां वर: । 


मुमोच षट्शतान्‌ बाणान्‌ गृहीत्वैकमिव द्रुतम्‌ ।। १५ ।। 

इतना ही नहीं, वीर द्रोणाचार्यने मुसकराकर अर्जुनको अपने बाणोंकी वर्षसे 
आच्छादित कर दिया। इसी बीचमें सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ कुन्तीकुमार अर्जुनने अपने 
विशाल धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ा दी और आचार्यसे बढ़कर पराक्रम दिखानेकी इच्छासे तुरंत 
छ: सौ बाण छोड़े। उन बाणोंको उन्होंने इस प्रकार हाथमें ले लिया था, मानो एक ही बाण 
हो ।। १४-१५ || 

पुन: सप्तशतानन्यान्‌ सहस््रन॑ चानिवर्तिन: । 

चिक्षेपायुतशश्नान्यांस्ते5घ्नन्‌ द्रोणस्प तां चमूम्‌ ।। १६ ।। 

तत्पश्चात्‌ सात सौ और फिर एक हजार ऐसे बाण छोड़े जो किसी प्रकार प्रतिहत 
होनेवाले नहीं थे। तदनन्तर अर्जुनने दस-दस हजार बाणोंद्वारा प्रहार किया। उन सभी 
बाणोंने द्रोणाचार्यकी उस सेनाका संहार कर डाला ।। १६ ।। 

तै: सम्यगस्तैर्बलिना कृतिना चित्रयोधिना । 

मनुष्यवाजिमातज्ज विद्धा: पेतुर्गतासव: ।। १७ ।। 

विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले अस्त्रवेत्ता महाबली अर्जुनके द्वारा भलीभाँति चलाये हुए 
उन बाणोंसे घायल हो बहुत-से मनुष्य, घोड़े और हाथी प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर 
पड़े |। १७ ।। 

विसूताश्वध्वजा: पेतु: संछिन्नायुधजीविता: । 

रथिनो रथमुख्येभ्य: सहसा शरपीडिता: ।। १८ ।। 

अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हुए बहुतेरे रथी सारथि, अश्व, ध्वज, अस्त्र-शस्त्र और प्राणोंसे 
भी वंचित हो सहसा श्रेष्ठ रथोंसे नीचे जा गिरे || १८ ।। 

चूर्णिताक्षिप्तदग्धानां वजानिलहुताशनै: । 

तुल्यरूपा गजाः: पेतुर्गियग्राम्बुदवेश्मनाम्‌ ।। १९ ।। 

वज्रके आघातसे चूर-चूर हुए पर्वतों, वायुके द्वारा संचालित हुए भयंकर बादलों तथा 
आगममें जले हुए गृहोंके समान रूपवाले बहुत-से हाथी धराशायी हो रहे थे ।। 

पेतुरश्वसहस््राणि प्रहतान्यर्जुनेषुभि: | 

हंसा हिमवत: पृष्ठे वारिविप्रहता इव ।। २० ।। 

अर्जुनके बाणोंसे मारे गये सहस्रों घोड़े रणभूमिमें उसी प्रकार पड़े थे, जैसे वर्षाकि 
जलसे आहत हुए बहुत-से हंस हिमालयकी तलहटीमें पड़े हुए हों || २० ।। 

रथाश्वद्विपपत्त्योधा: सलिलौघा इवाद्धभुता: । 

युगान्तादित्यरश्म्याभै: पाण्डवास्त्रशरैर्हता: ।। २१ ।। 

प्रलयकालके सूर्यकी किरणोंके समान अर्जुनके तेजस्वी बाणोंद्वारा मारे गये रथ, घोड़े, 
हाथी और पैदलोंके समूह सूर्यकिरणोंद्वारा सोखे गये अद्भुत जलप्रवाहके समान जान पड़ते 
थे।। २१ ।। 


त॑ पाण्डवादित्यशरांशुजालं 
कुरुप्रवीरान्‌ युधि निष्टपन्तम्‌ । 
स द्रोणमेघः शरवृष्टिवेगै: 
प्राच्छादयन्मेघ इवार्करश्मीन्‌ ।। २२ ।। 

जैसे बादल सूर्यकी किरणोंको छिपा देता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यरूपी मेघने अपनी 
बाण-वर्षके वेगसे अर्जुनरूपी सूर्यके इस बाणरूपी किरणसमूहको आच्छादित कर दिया, 
जो युद्धमें मुख्य-मुख्य कौरव वीरोंको संतप्त कर रहा था ।। २२ ।। 

अथात्यर्थ विसृष्टेन द्विषतामसुभोजिना । 

आजलेने वक्षसि द्रोणो नाराचेन धनंजयम्‌ ।। २३ ।। 

तत्पश्चात्‌ शत्रुओंके प्राण लेनेवाले एक नाराचका प्रहार करके द्रोणाचार्यने अर्जुनकी 
छातीमें गहरी चोट पहुँचायी || २३ ।। 

स विद्वलितसर्वाड्: क्षितिकम्पे यथाचल: । 

धेर्यमालम्ब्य बीभत्सुद्रोणं विव्याध पत्रिभि: ।। २४ ।। 

उस आधघातसे अर्जुनका सारा शरीर विह्लल हो गया, मानो भूकम्प होनेपर पर्वत हिल 
उठा हो। तथापि अर्जुनने धैर्य धारण करके पंखयुक्त बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल कर 
दिया || २४ ।। 

द्रोणस्तु पञचभिर्बाणैर्वासुदेवमताडयत्‌ । 

अर्जुन च त्रिसप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभि: शरै: ।। २५ ।। 

फिर द्रोणने भी पाँच बाणोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णको, तिहत्तर बाणोंसे अर्जुनको और तीन 
बाणोंद्वारा उनके ध्वजको भी चोट पहुँचायी || २५ ।। 

विशेषयिष्यन्‌ शिष्यं च द्रोणो राजन्‌ पराक्रमी । 

अदृश्यमर्जुनं चक्रे निमेषाच्छरवृष्टिभि: ॥। २६ ।। 

राजन! पराक्रमी द्रोणाचार्यने अपने शिष्य अर्जुनसे अधिक पराक्रम प्रकट करनेकी 
इच्छा रखकर पलक मारते-मारते अपने बाणोंकी वर्षद्वारा अर्जुनको अदृश्य कर 
दिया ।। २६ |। 

प्रसक्तान्‌ पततो<द्राक्ष्म भारद्वाजस्य सायकान्‌ | 

मण्डलीकृतमेवास्य धनुश्नादृश्यताद्भुतम्‌ ।। २७ ।। 

हमने देखा, द्रोणाचार्यके बाण परस्पर सटे हुए गिरते थे। उनका अद्भुत धनुष सदा 
मण्डलाकार ही दिखायी देता था || २७ ।। 

ते भ्ययु: समरे राजन्‌ वासुदेवधनंजयौ । 

द्रोणसृष्टा: सुबहव: कड्कपत्रपरिच्छदा: || २८ ।। 

राजन! उस समरांगणमें द्रोणाचार्यके छोड़े हुए कंकपत्रविभूषित बहुत-से बाण 
श्रीकृष्ण और अर्जुनपर पड़ने लगे || २८ ।। 


तद्‌ दृष्टवा तादृशं युद्ध द्रोणपाण्डवयोस्तदा । 

वासुदेवो महाबुद्धि: कार्यवत्तामचिन्तयत्‌ । २९ |। 

उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुनका वैसा युद्ध देखकर परम बुद्धिमान्‌ वसुदेवनन्दन 
श्रीकृष्णने मन-ही-मन कर्तव्यका निश्चय कर लिया ।। २९ ।। 

ततोडब्रवीद्‌ वासुदेवो धनंजयमिदं वच: । 

पार्थ पार्थ महाबाहो न नः कालात्ययो भवेत्‌ ॥। ३० ।। 

द्रोणमुत्सूज्य गच्छाम: कृत्यमेतन्महत्तरम्‌ । 

तत्पश्चात्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनसे इस प्रकार बोले--'अर्जुन! अर्जुन! महाबाहो! हमारा 
अधिक समय यहाँ न बीत जाय, इसलिये द्रोणाचार्यको छोड़कर आगे चलें; यही इस समय 
सबसे महान्‌ कार्य है” || ३०३ ।। 

पार्थश्षाप्यब्रवीत्‌ कृष्णं यथेष्टमिति केशवम्‌ ।। ३१ ।। 

ततः प्रदक्षिणं कृत्वा द्रोणं प्रायान्महाभुजम्‌ । 

परिवृत्तश्न बीभत्सुरगच्छद्‌ विसृजन्‌ शरान्‌ ।। ३२ ।। 

तब अर्जुनने भी सच्चिदानन्दस्वरूप केशवसे कहा-- 'प्रभो! आपकी जैसी रुचि हो, 
वैसा कीजिये।” तत्पश्चात्‌ अर्जुन महाबाहु द्रोणाचार्यकी परिक्रमा करके लौट पड़े और 
बाणोंकी वर्षा करते हुए आगे चले गये ।। ३१-३२ ।। 

ततोडब्रवीत्‌ स्वयं द्रोण: क्वेदं पाण्डव गम्यते । 

ननु नाम रणे शत्रुमजित्वा न निवर्तसे ।। ३३ ।। 

यह देख द्रोणाचार्यने स्वयं कहा--'पाण्डुनन्दन! तुम इस प्रकार कहाँ चले जा रहे हो? 
तुम तो रणक्षेत्रमें शत्रुको पराजित किये बिना कभी नहीं लौटते थे” || ३३ ।। 

अजुन उवाच 

गुरुर्भवान्‌ न मे शत्रु: शिष्य: पुत्रसमो5स्मि ते । 

न चास्ति स पुमॉल्लोके यस्त्वां युधि पराजयेत्‌ ।। ३४ ।। 

अर्जुन बोले--ब्रह्मन! आप मेरे गुरु हैं। शत्रु नहीं हैं। मैं आपका पुत्रके समान प्रिय 
शिष्य हूँ। इस जगत्‌में ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो युद्धमें आपको पराजित कर 
सके ।। ३४ ।। 

संजय उवाच 

एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर्जयद्रथवधोत्सुक: । 

त्वरायुक्तो महाबाह॒स्त्वत्सैन्यं समुपाद्रवत्‌ ।। ३५ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहते हुए महाबाहु अर्जुनने जयद्रथ-वधके लिये 
उत्सुक हो बड़ी उतावलीके साथ आपकी सेनापर धावा किया || ३५ |। 

त॑ चक्ररक्षौ पाउ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ । 


अन्वयातां महात्मानौ विशन्तं तावकं बलम्‌ ॥। ३६ ।। 

आपकी सेनामें प्रवेश करते समय उनके पीछे-पीछे पांचाल वीर महामना युधामन्यु 
और उत्तमौजा चक्र-रक्षक होकर गये ।। ३६ ।। 

ततो जयो महाराज कृतवर्मा च सात्वतः । 

काम्बोजश्च श्रुतायुश्न धनंजयमवारयन्‌ ।। ३७ ।। 

महाराज! तब जय, सात्वतवंशी कृतवर्मा, काम्बोज-नरेश तथा श्रुतायुने सामने आकर 
अर्जुनको रोका ।। ३७ ।। 

तेषां दश सहस्राणि रथानामनुयायिनाम्‌ । 

अभीषाहा: शूरसेना: शिबयो5थ वसातय: ।। ३८ ।। 

मावेल्लका ललित्थाक्ष केकया मद्रकास्तथा । 

नारायणाक्ष्‌ गोपाला: काम्बोजानां च ये गणा: ।। ३९ ।। 

कर्णेन विजिता: पूर्व संग्रामे शूरसम्मता: । 

भारद्वाजं पुरस्कृत्य हृष्टात्मानो<र्जुनं प्रति ।। ४० ।। 

इनके पीछे दस हजार रथी, अभीषाह, शूरसेन, शिबि, वसाति, मावेल्लक, ललित्थ, 
केकय, मद्रक, नारायण नामक गोपालगण तथा काम्बोजदेशीय सैनिकगण भी थे। इन 
सबको पूर्वकालमें कर्णने रणभूमिमें जीतकर अपने अधीन कर लिया था। ये सब-के-सब 
शूरवीरोंद्वारा सम्मानित योद्धा थे और प्रसन्नचित्त हो द्रोणाचार्यको आगे करके अर्जुनपर चढ़ 
आये थे || ३८--४० ।। 

पुत्रशोकाभिसंतप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्‌ । 

त्यजन्तं तुमुले प्राणान्‌ संनद्धं चित्रयोधिनम्‌ ।। ४१ ।। 

गाहमानमनीकानि मातड़्मिव यूथपम्‌ | 

महेष्वासं पराक्रान्तं नरव्याप्रमवारयन्‌ ।। ४२ ।। 

अर्जुन पुत्रशोकसे संतप्त एवं कुपित हुए प्राणान्तक मृत्युके समान प्रतीत होते थे। वे 
उस भयंकर युद्धमें अपने प्राणोंको निछावर करनेके लिये उद्यत, कवच आदिसे सुसज्जित 
और विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले थे। जैसे यूथयति गजराज गजसमूहमें प्रवेश करता है, 
उसी प्रकार आपकी सेनाओंमें घुसते हुए महाधनुर्धर परम पराक्रमी उन नरश्रेष्ठ अर्जुनको 
पूर्वोक्त योद्धाओंने आकर रोका ।। ४१-४२ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध तुमुलं लोमहर्षणम्‌ । 

अन्योनयं वै प्रार्थयतां योधानामर्जुनस्थ च ।। ४३ ।। 

तदनन्तर एक-दूसरेको ललकारते हुए कौरव-योद्धाओं तथा अर्जुनमें रोमांचकारी एवं 
भयंकर युद्ध छिड़ गया ।। ४३ ।। 

जयद्रथवधरप्रेप्सुमायान्तं पुरुषर्षभम्‌ । 

न्यवारयन्त सहिता: क्रिया व्याधिमिवोत्थितम्‌ ।। ४४ ।। 


जैसे चिकित्साकी क्रिया उभड़ते हुए रोगको रोक देती है, उसी प्रकार जयद्रथका वध 
करनेकी इच्छासे आते हुए पुरुषश्रेष्ठ अर्जुनको समस्त कौरव-वीरोंने एक साथ मिलकर रोक 
दिया || ४४ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणातिक्रमे एकनवतितमो< ध्याय: 
॥॥ ९१ |। 
इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोणातिक्रमण-विषयक 
इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९१ ॥ 


अपन बछ। हक २ >> 


द्विनवतितमो< ध्याय: 


अर्जुनका द्रोणाचार्य और कृतवर्माके साथ युद्ध करते | है 
कौरव-सेनामें प्रवेश तथा श्रुतायुधका अपनी गदासे 
सुदक्षिणका अर्जुनद्वारा वध 


संजय उवाच 

संनिरुद्धस्तु तैः पार्थो महाबलपराक्रम: । 

द्रुतं समनुयातश्न द्रोणेन रथिनां वर: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--रथियोंमें श्रेष्ठ एवं महान्‌ बल और पराक्रमसे सम्पन्न अर्जुन जब उन 
कौरव सैनिकोंद्वारा रोक दिये गये, उस समय द्रोणाचार्यने भी तुरंत ही उनका पीछा 
किया ।। १ ॥। 

किरन्निषुगणांस्तीक्ष्णान्‌ स रश्मीनिव भास्कर: । 

तापयामास तत्‌ सैन्यं देहं व्याधिगणो यथा ।। २ ।। 

जैसे रोगोंका समुदाय शरीरको संतप्त कर देता है, उसी प्रकार अर्जुनने कौरवोंकी उस 
सेनाको अत्यन्त संताप दिया। जैसे सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंका प्रसार करते हैं, उसी 
प्रकार वे तीखे बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे ।। २ ।। 

अश्वो विद्धो रथश्छिन्न: सारोह: पातितो गज: । 

छत्राणि चापविद्धानि रथाश्षक्रैविना कृता: । ३ ।। 

उन्होंने घोड़ोंको घायल कर दिया, रथके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, गजारोहियोंसहित 
हाथीको मार गिराया, छत्र इधर-उधर बिखेर दिये तथा रथोंको पहियोंसे सूना कर 
दिया ।। ३ ।। 

विद्रुतानि च सैन्यानि शरारतानि समन्ततः । 

इत्यासीत्‌ तुमुल॑ युद्ध न प्राज्ायत किज्चन ।। ४ ।। 

उनके बाणोंसे पीड़ित होकर सारे सैनिक सब ओर भाग चले। वहाँ इस प्रकार भयंकर 
युद्ध हो रहा था कि किसीको कुछ भी भान नहीं हो रहा था ।। ४ ।। 

तेषां संयच्छतां संख्ये परस्परमजिह्ागै: । 

अर्जुनो ध्वजिनीं राजन्नभी क्ष्णं समकम्पयत्‌ ।। ५ ।। 

राजन! उस युद्धस्थलमें कौरव-सैनिक एक-दूसरेको काबूमें रखनेका प्रयत्न करते थे 
और अर्जुन अपने बाणोंद्वारा उनकी सेनाको बारंबार कम्पित कर रहे थे || ५ ।। 

सत्यां चिकीर्षमाणस्तु प्रतिज्ञां सत्यसंगर: । 

अभ्यद्रवद्‌ रथश्रेष्ठ शोणाश्र श्वेतवाहन: ।। ६ ।। 


सत्यप्रतिज्ञ श्वेतवाहन अर्जुनने अपनी प्रतिज्ञा सच्ची करनेकी इच्छासे लाल घोड़ोंवाले 
रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यपर धावा किया ।। ६ ।। 

त॑ द्रोण: पञ्चविंशत्या मर्मभिद्धिरजिद्मगै: । 

अन्तेवासिनमाचार्यों महेष्वासं समार्पयत्‌ ।। ७ ।। 

उस समय आचार्य द्रोणने अपने महाधनुर्धर शिष्य अर्जुनको पचीस मर्मभेदी बाणोंद्वारा 
घायल कर दिया ।। ७ ।। 

त॑ तूर्णमिव बीभत्सु: सर्वशस्त्रभृतां वर: । 

अभ्यधावदिषूनस्यन्निषुवेगविघातकान्‌ ॥। ८ ।। 

तब सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने भी तुरंत ही उनके बाणोंके वेगका विनाश 
करनेवाले भल्‍्लोंका प्रहार करते हुए उनपर आक्रमण किया ।। ८ ।॥। 

तस्याशुक्षिप्तान्‌ भल्लान्‌ हि भल्लै: संनतपर्वभि: | 

प्रत्यविध्यदमेयात्मा ब्रह्मास्त्रं समुदीरयन्‌ ।। ९ ।। 

अमेय आत्मबलसे सम्पन्न द्रोणाचार्यने अर्जुनके तुरंत चलाये हुए उन भल्‍ल्लोंको झुकी 
हुई गाँठवाले भल्लोंद्वारा ही काट दिया और ब्रह्मास्त्र प्रकट किया ।। ९ ।। 

तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्याचार्यकं॑ युधि । 

यतमानो युवा नैनं प्रत्यविध्यद्‌ यदर्जुन: ।। १० ।। 

उस युद्धस्थलमें द्रोणाचार्यकी अद्भुत अस्त्रशिक्षा हमने देखी कि नवयुवक अर्जुन 
प्रयत्नशील होनेपर भी उन्हें अपने बाणोंद्वारा चोट न पहुँचा सके ।। १० ।। 

क्षरत्रिव महामेघो वारिधारा: सहस्रश: । 

द्रोणमेघ: पार्थशैलं ववर्ष शरवृष्टिभि: ।। ११ ।। 

जैसे महान्‌ मेघ झलकी सहमसौरों धाराएँ बरसाता रहता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यरूपी 
मेघने अर्जुनरूपी पर्वतपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी ।। ११ ।। 

अर्जुन: शरवर्ष तद्‌ ब्रह्मास्त्रेणेव मारिष । 

प्रतिजग्राह तेजस्वी बाणैर्बाणान्‌ निशातयन्‌ ।। १२ ।। 

पूजनीय नरेश! उस समय अपने बाणोंद्वारा उनके बाणोंको काटते हुए तेजस्वी अर्जुनने 
भी ब्रह्मास्त्रद्वारा ही आचार्यकी उस बाण-वर्षाको रोका ॥। १२ ।। 

द्रोणस्तु पठ्चविंशत्या श्वेतवाहनमार्दयत्‌ । 

वासुदेवं च सप्तत्या बाह्वोरुगसि चाशुगै: ।। १३ ।। 

तब द्रोणाचार्यने पचीस बाण मारकर श्वेतवाहन अर्जुनको पीड़ित कर दिया। साथ ही 
श्रीकृष्णकी भुजाओं तथा वक्ष:स्थलमें भी उन्होंने सत्तर बाण मारे || १३ ।। 

पार्थस्तु प्रहसन्‌ धीमानाचार्य सशरौधिणम्‌ | 

विसृजन्तं शितान्‌ बाणानवारयत त॑ युधि ।। १४ ।। 


परम बुद्धिमान्‌ अर्जुनने हँसते हुए ही युद्धस्थलमें तीखे बाणोंकी बौछार करनेवाले 
द्रोणाचार्यको उनकी बाण-वर्षासहित रोक दिया ।। १४ ।। 

अथ तौ वध्यमानौ तु द्रोणेन रथसत्तमौ । 

आवर्जयेतां दुर्धर्ष युगान्ताग्निमिवोत्थितम्‌ ।। १५ ।। 

तदनन्तर द्रोणाचार्यके द्वारा घायल किये जाते हुए वे दोनों रथिश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और 
अर्जुन उस समय प्रलयकालकी अग्निके समान उठे हुए उन दुर्धर्ष आचार्यको छोड़कर 
अन्यत्र चल दिये ।। १५ ।। 

वर्जयन्‌ निशितान्‌ बाणान्‌ द्रोणचापविनि:सृतान्‌ । 

किरीटमाली कौन्तेयो भोजानीकं व्यशातयत्‌ ।। १६ ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए तीखे बाणोंका निवारण करते हुए किरीटधारी 
कुन्तीकुमार अर्जुनने कृतवर्माकी सेनाका संहार आरम्भ किया ।। १६ ।। 

सो<न्‍्तरा कृतवर्माणं काम्बोजं च सुदक्षिणम्‌ । 

अभ्ययाद्‌ वर्जयन्‌ द्रोणं मैनाकमिव पर्वतम्‌ ।। १७ ।। 

वे मैनाक पर्वतकी भाँति अविचल भावसे स्थित द्रोणाचार्यको छोड़ते हुए कृतवर्मा तथा 
काम्बोजराज सुदक्षिणके बीचसे होकर निकले ।। १७ ।। 

ततो भोजो नरव्याप्रो दुर्धर्ष कुरुसत्तमम्‌ | 

अविध्यत्‌ तूर्णमव्यग्रो दशभि: कड्कपत्रिभि: ॥। १८ ।। 

तब पुरुषसिंह कृतवर्माने कुरुकुलके श्रेष्ठ एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुनको कंकपत्रयुक्त दस 
बाणोंद्वारा तुरंत ही घायल कर दिया। उस समय उसके मनमें तनिक भी व्यग्रता नहीं 
हुई || १८ ।। 

तमर्जुन: शतेनाजौ राजन्‌ विव्याध पत्रिणाम्‌ | 

पुनश्नान्यैस्त्रिभिर्बाणैमोहयजन्निव सात्वतम्‌ ।। १९ |। 

राजन! अर्जुनने कृतवर्माको उस युद्धस्थलमें सौ बाणोंद्वारा बींध डाला। फिर उसे 
मोहित-सा करते हुए उन्होंने तीन बाण और मारे ।। १९ ।। 

भोजस्तु प्रहसन्‌ पार्थ वासुदेवं॑ च माधवम्‌ । 

एकैकं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्‌ ।। २० ।। 

तब कृतवर्माने भी हँसकर कुन्तीकुमार अर्जुन और मधुवंशी भगवान्‌ वासुदेवमेंसे 
प्रत्येकको पचीस-पचीस बाण मारे ।। २० ।। 

तस्यार्जुनो धनुश्कछित्त्वा विव्याधैनं त्रिसप्तभि: । 

शरैरग्निशिखाकारे: क्रुद्धाशीविषसंनिभै: ।। २१ ।। 

यह देख अर्जुनने उसके धनुषको काटकर क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान 
भयंकर और आगकी लपटोंके समान तेजस्वी इक्कीस बाणोंद्वारा उसे भी घायल कर 
दिया ।। २१ ।। 


अथान्यद्‌ धनुरादाय कृतवर्मा महारथ: । 

पज्चभि: सायकैस्तूर्ण विव्याधोरसि भारत ।। २२ ।। 

भारत! तब महारथी कृतवर्माने दूसरा धनुष लेकर तुरंत ही पाँच बाणोंसे अर्जुनकी 
छातीमें चोट पहुँचायी ।। 

पुनश्न निशितैर्बाणै: पार्थ विव्याध पठ्चभि: । 

त॑ पार्थो नवभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ।। २३ ।। 

फिर पाँच तीखे बाण और मारकर अर्जुनको घायल कर दिया। यह देख अर्जुनने 
कृतवर्माकी छातीमें नौ बाण मारे || २३ ।। 

दृष्टवा विषक्त कौन्तेयं कृतवर्मरथं प्रति । 

चिन्तयामास वार्ष्णेयो न न: कालात्ययो भवेत्‌ ।। २४ ।। 

कुन्तीकुमार अर्जुनको कृतवर्माके रथसे उलझे हुए देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने मन-ही- 
मन सोचा कि हमलोगोंका अधिक समय यहीं न व्यतीत हो जाय ।। २४ ।। 

ततः कृष्णो<ब्रवीत्‌ पार्थ कृतवर्मणि मा दयाम्‌ | 

कुरु सम्बन्धकं हित्वा प्रमथ्यैनं विशातय ।। २५ ।। 

तत्पश्चात्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा--“तुम कृतवर्मापर दया न करो। इस समय सम्बन्धी 
होनेका विचार छोड़कर इसे मथकर मार डालो” || २५ || 

ततः स कृतवर्माणं मोहयित्वार्जुन: शरै: । 

अभ्यगाज्जवनैरश्वै:ः काम्बोजानामनीकिनीम्‌ ।। २६ ।। 

तब अर्जुन अपने बाणोंद्वारा कृतवर्माको मूर्च्छिंत करके अपने वेगशाली घोड़ोंद्वारा 
काम्बोजोंकी सेनापर आक्रमण करने लगे ।। २६ ।। 

अमर्षितस्तु हार्दिक्य: प्रविष्टे श्वेतवाहने । 

विधुन्वन्‌ सशरं चाप॑ पाञ्चाल्याभ्यां समागत: || २७ ।। 

श्वेतवाहन अर्जुनके व्यूहमें प्रवेश कर जानेपर कृतवर्माको बड़ा क्रोध हुआ। वह 
बाणसहित धनुषको हिलाता हुआ पांचालराजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजासे भिड़ 
गया ।। २७ ।। 

चक्ररक्षौ तु पाञज्चाल्यावर्जुनस्य पदानुगौ | 

पर्यवारयदायान्तौ कृतवर्मा रथेषुभि: ।। २८ ।। 

वे दोनों पांचाल वीर अर्जुनके चक्ररक्षक होकर उनके पीछे-पीछे जा रहे थे। कृतवर्माने 
अपने रथ और बाणोंद्वारा वहाँ आते हुए उन दोनों वीरोंको रोक दिया ।। २८ ।। 

तावविध्यत्‌ ततो भोज: कृतवर्मा शितै: शरै: । 

त्रिभिरेव युधामन्युं चतुर्भि श्चोत्तमौजसम्‌ ।। २९ |। 

भोजवंशी कृतवर्माने अपने तीन तीखे बाणोंद्वारा युधामन्युको और चार बाणोंसे 
उत्तमौजाको घायल कर दिया ।। २९ || 


तावप्येनं विविधतुर्दशभिर्दशभि: शरैः । 

त्रिभिरेव युधामन्युरुत्तमौजास्त्रिभिस्तथा ।। ३० ।। 

तब उन दोनोंने भी कृतवर्माको दस-दस बाणोंसे बींध दिया। फिर युधामन्युने तीन और 
उत्तमौजाने भी तीन बाणोंद्वारा उसे चोट पहुँचायी || ३० ।। 

संचिच्छिदतुरप्यस्य ध्वजं कार्मुकमेव च । 

अथान्यद्‌ धनुरादाय हार्दिक्य: क्रोधमूर्च्छित: ।। ३१ ।। 

कृत्वा विधनुषौ वीरौ शरवर्षैरवाकिरत्‌ । 

तावन्ये धनुषी सज्ये कृत्वा भोजं विजघ्नतु: ।। ३२ ।। 

साथ ही उन्होंने कृतवर्मेके ध्वज और धनुषको भी काट डाला। यह देख कृतवर्मा 
क्रोधसे मूर्च्छिंत हो उठा और उसने दूसरा धनुष हाथमें लेकर उन दोनों वीरोंके धनुष काट 
दिये। तत्पश्चात्‌ वह उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगा। इसी तरह वे दोनों पांचाल वीर भी 
दूसरे धनुषोंपर डोरी चढ़ाकर भोजवंशी कृतवर्माको चोट पहुँचाने लगे || ३१-३२ ।। 

तेनान्तरेण बीभत्सुर्विवेशामित्रवाहिनीम्‌ । 

न लेभाते तु तौ द्वारं वारितौ कृतवर्मणा ।। ३३ ।। 

धार्तराष्ट्रेष्चनीकेषु यतमानौ नरर्षभौ । 

इसी बीचमें अवसर पाकर अर्जुन शत्रुओंकी सेनामें घुस गये। परंतु कृतवर्माद्वारा रोक 
दिये जानेके कारण वे दोनों नरश्रेष्ठ युधामन्यु और उत्तमौजा प्रयत्न करनेपर भी आपके 
पुत्रोंकी सेनामें प्रवेश करनेका द्वार न पा सके ।। ३३६ ।। 

अनीकान्यर्दयन्‌ युद्धे त्वरित: श्वेतवाहन: ।। ३४ ।। 

नावधीत्‌ कृतवर्माणं प्राप्तमप्यरिष्‌दन: । 

शत घोड़ोंवाले शत्रुसूदन अर्जुन उस युद्धस्थलमें बड़ी उतावलीके साथ शत्रु-सेनाओंको 
पीड़ा दे रहे थे। परंतु उन्होंने (सम्बन्धका विचार करके) कृतवर्माको सामने पाकर भी मारा 
नहीं ।। ३४ ६ ।। 

त॑ दृष्टवा तु तथा यान्तं शूरो राजा श्रुतायुध: ।। ३५ ।। 

अभ्यद्रवत्‌ सुसंक्रुद्धों विधुन्चानो महद्‌ धनु: । 

अर्जुनको इस प्रकार आगे बढ़ते देख शूरवीर राजा श्रुतायुध अत्यन्त कुपित हो उठे 
और अपना विशाल धनुष हिलाते हुए उनपर टूट पड़े || ३५६ ।। 

स पार्थ त्रिभिरानर्छत्‌ सप्तत्या च जनार्दनम्‌ ।। ३६ |। 

क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन पार्थकेतुमताडयत्‌ । 

उन्होंने अर्जुनको तीन और श्रीकृष्णको सत्तर बाण मारे। फिर अत्यन्त तीखे क्षुरप्रसे 
अर्जुनकी ध्वजापर प्रहार किया || ३६३ || 

ततोडअर्जुनो नवत्या तु शराणां नतपर्वणाम्‌ ॥। ३७ ।। 

आजपघान भशं क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम्‌ । 


तब अर्जुनने अत्यन्त कुपित होकर अंकुशोंसे महान्‌ गजराजको पीड़ित करनेकी भाँति 
झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंसे राजा श्रुतायुधको चोट पहुँचायी || ३७३ ।। 

स तन्न ममृषे राजन्‌ पाण्डवेयस्य विक्रमम्‌ ।। ३८ ।। 

अथैनं सप्तसप्तत्या नाराचानां समार्पयत्‌ । 

राजन्‌! उस समय राजा श्रुतायुध पाण्डुकुमार अर्जुनके उस पराक्रमको न सह सके। 
अतः उन्होंने अर्जुनको सतहत्तर बाण मारे ।। ३८६ ।। 

तस्यार्जुनो धनुश्छित्त्वा शरावापं निकृत्य च ।। ३९ ।। 

आजयपघानोरसि क्रुद्ध: सप्तभिननतपर्वभि: । 

तब अर्जुनने उनका धनुष काटकर उनके तरकशके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। फिर 
कुपित हो झुकी हुई गाँठवाले सात बाणोंद्वारा उनकी छातीपर प्रहार किया ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय स राजा क्रोधमूर्च्छित: ।॥ ४० ।। 

वासविं नवभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्‌ । 

फिर तो राजा श्रुतायुधने क्रोधसे अचेत होकर दूसरा धनुष हाथमें लिया और इन्द्रकुमार 
अर्जुनकी भुजाओं तथा वक्ष:स्थलमें नौ बाण मारे || ४० ६ || 

ततोअर्जुन: स्मयन्नेव श्रुतायुधमरिंदम: ।। ४१ ।। 

शरैरनेकसाहसै: पीडयामास भारत | 

भारत! यह देख शत्रुदमन अर्जुनने मुसकराते हुए ही श्रुतायुधको कई हजार बाण 
मारकर पीड़ित कर दिया ।। 

अश्वांश्वास्यावधीत्‌ तूर्ण सारथथिं च महारथ: ।। ४२ ।। 

विव्याध चैनं सप्तत्या नाराचानां महाबल: । 

साथ ही उन महारथी एवं महाबली वीरने उनके घोड़ों और सारथिको भी शीघ्रतापूर्वक 
मार डाला और सत्तर नाराचोंसे श्रुतायुधको भी घायल कर दिया ।। ४२३ ।। 

हताश्चं रथमुस्तृज्य स तु राजा श्रुतायुध: ।। ४३ ।। 

अभ्यद्रवद्‌ रणे पार्थ गदामुद्यम्य वीर्यवान्‌ । 

घोड़ोंके, मारे जानेपर पराक्रमी राजा श्रुतायुध उस रथको छोड़कर हाथमें गदा ले 
समरांगणमें अर्जुनपर टूट पड़े || ४३ | ।। 

वरुणस्यात्मजो वीर: स तु राजा श्रुतायुध: ।। ४४ ।। 

पर्णाशा जननी यस्य शीततोया महानदी । 

वीर राजा श्रुतायुध वरुणके पुत्र थे। शीतसलिला महानदी पर्णाशा उनकी माता 
थी || ४४३ || 

तस्य माताब्रवीद्‌ राजन्‌ वरुण पुत्रकारणात्‌ ।। ४५ ।। 

अवध्यो<यं भवेल्लोके शत्रूणां तनयो मम । 


राजन्‌! उनकी माता पर्णाशा अपने पुत्रके लिये वरुणसे बोली--'प्रभो! मेरा यह पुत्र 
संसारमें शत्रुओंके लिये अवध्य हो' || ४५३ ।। 

वरुण स्त्वब्रवीत्‌ प्रीतो ददाम्यस्मै वरं हितम्‌ ।। ४६ ।। 

दिव्यमस्त्रं सुतस्तेडयं येनावध्यो भविष्यति । 

तब वरुणने प्रसन्न होकर कहा--“मैं इसके लिये हितकारक वरके रूपमें यह दिव्य 
अस्त्र प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा तुम्हारा यह पुत्र अवध्य होगा || ४६६ ।। 

नास्ति चाप्यमरत्वं वै मनुष्यस्य कथंचन ।। ४७ ।। 

सर्वेणावश्यमर्तव्यं जातेन सरितां वरे । 

'सरिताओंमें श्रेष्ठ पर्णाशे! मनुष्य किसी प्रकार भी अमर नहीं हो सकता। जिन लोगोंने 
यहाँ जन्म लिया है, उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है || ४७३ ।। 

दुर्धर्षस्त्वेष शत्रूणां रणेषु भविता सदा ।। ४८ ।। 

अस्त्रस्यास्य प्रभावाद्‌ वै व्येतु ते मानसो ज्वरः । 

“तुम्हारा यह पुत्र इस अस्त्रके प्रभावसे रणक्षेत्रमें शत्रुओंके लिये सदा ही दुर्धर्ष होगा। 
अतः तुम्हारी मानसिक चिन्ता निवृत्त हो जानी चाहिये” || ४८ ३ ।। 

इत्युक्त्वा वरुण: प्रादाद्‌ गदां मन्त्रपुरस्कृताम्‌ ।। ४९ ।। 

यामासाद्य दुराधर्ष: सर्वलोके श्रुतायुध: । 

ऐसा कहकर वरुणदेवने श्रुतायुधको मन्त्रोपदेशपूर्वक वह गदा प्रदान की, जिसे पाकर 
वे सम्पूर्ण जगत्‌में दुर्जय वीर माने जाते थे || ४९६ ।। 

उवाच चैनं भगवान्‌ पुनरेव जलेश्वर: ।। ५० ।। 

अयुध्यति न मोक्तव्या सा त्वय्येव पतेदिति । 

हन्यादेषा प्रतीपं हि प्रयोक्तारमपि प्रभो ।। ५१ ।। 

गदा देकर भगवान्‌ वरुणने उनसे पुनः कहा--“वत्स! जो युद्ध न कर रहा हो, उसपर 
इस गदाका प्रहार न करना; अन्यथा यह तुम्हारे ऊपर ही आकर गिरेगी। शक्तिशाली पुत्र! 
यह गदा प्रतिकूल आचरण करनेवाले प्रयोक्ता पुरुषको भी मार सकती है” || ५०-५१ ।। 

न चाकरोत्‌ स ठठद्दाक्यं प्राप्ते काले श्रुतायुध: । 

स तया वीरघातिन्या जनार्दनमताडयत्‌ ।। ५२ || 

परंतु काल आ जानेपर श्रुतायुधने वरुणदेवके उक्त आदेशका पालन नहीं किया। 
उन्होंने उस वीरघातिनी गदाके द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णको चोट पहुँचायी || ५२ ।। 

प्रतिजग्राह तां कृष्ण: पीनेनांसेन वीर्यवान्‌ | 

नाकम्पयत शौरिं सा विन्ध्यं गिरिमिवानिल: ।। ५३ ।। 

पराक्रमी श्रीकृष्णने अपने हृष्ट-पुष्ट कंधेपर उस गदाका आघात सह लिया। परंतु जैसे 
वायु विन्ध्यपर्वतको नहीं हिला सकती है, उसी प्रकार वह गदा श्रीकृष्णको कम्पित न कर 


सकी ।। ५३ ।। 

प्रत्युद्यान्ती तमेवैषा कृत्येव दुरधिष्ठिता । 

जघान चास्थितं वीरं श्रुतायुधममर्षणम्‌ ।। ५४ ।। 

जैसे दोषयुक्त आभिचारिक क्रियासे उत्पन्न हुई कृत्या उसका प्रयोग करनेवाले 
यजमानका ही नाश कर देती है, उसी प्रकार उस गदाने लौटकर वहाँ खड़े हुए अमर्षशील 
वीर श्रुतायुधको मार डाला || ५४ ।। 

हत्वा श्रुतायुधं वीर॑ धरणीमन्वपद्यत । 

गदां निवर्तितां दृष्टवा निहतं च श्रुतायुधम्‌ ।। ५५ ।। 

हाहाकारो महांस्तत्र सैन्यानां समजायत । 

वीर श्रुतायुधका वध करके वह गदा धरतीपर जा गिरी। लौटी हुई उस गदाको और 
उसके द्वारा मारे गये वीर श्रुतायुधको देखकर वहाँ आपकी सेनाओंमें महान्‌ हाहाकार मच 
गया || ५५३ || 

स्वेनास्त्रेण हतं दृष्टवा श्रुतायुधमरिंदमम्‌ ।। ५६ ।। 

अयुध्यमानाय ततः केशवाय नराधिप । 

क्षिप्ता श्रुतायुधेनाथ तस्मात्‌ तमवधीद्‌ गदा ।। ५७ ।। 

नरेश्वर! शत्रुदमन श्रुतायुधको अपने ही अस्त्रसे मारा गया देख यह बात ध्यानमें आयी 
कि श्रुतायुधने युद्ध न करनेवाले श्रीकृष्णपर गदा चलायी है। इसीलिये उस गदाने उन्हींका 
वध किया है ।। ५६-५७ || 

यथोक्तं वरुणेनाजी तथा स निधनं गत: । 

व्यसुश्चाप्पपतद्‌ भूमौ प्रेक्षतां सर्वधन्विनाम्‌ ।। ५८ ।। 

वरुणदेवने जैसा कहा था, युद्धभूमिमें श्रुतायुधकी उसी प्रकार मृत्यु हुई। वे सम्पूर्ण 
धनुर्धरोंके देखते-देखते प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ५८ ।। 

पतमानस्तु स बभौ पर्णाशाया: प्रिय: सुतः । 

स भग्न इव वातेन बहुशाखो वनस्पति: ।। ५९ ।। 

गिरते समय पर्णाशाके प्रिय पुत्र श्रुतायुध आँधीके उखाड़े हुए अनेक शाखाओंवाले 
वृक्षके समान प्रतीत हो रहे थे |। ५९ ।। 

ततः सर्वाणि सैन्यानि सेनामुख्याश्न सर्वश: । 

प्राद्रवन्त हतं दृष्टवा श्रुतायुधमरिंदमम्‌ ।। ६० ।। 

शत्रुसूदन श्रुतायुधको इस प्रकार मारा गया देख सारे सैनिक और सम्पूर्ण सेनापति 
वहाँसे भाग खड़े हुए ।। ६० ।। 

तत: काम्बोजराजस्य पुत्र: शूर: सुदक्षिण: । 

अभ्ययाज्जवनैरश्वै: फाल्गुनं शत्रुसूदनम्‌ ।। ६१ ।। 


तत्पश्चात्‌ काम्बोजराजका शूरवीर पुत्र सुदक्षिण वेगशाली अअभ्रोंद्वारा शत्रुसूदन 
अर्जुनका सामना करनेके लिये आया ।। ६१ ।। 

तस्य पार्थ: शरान्‌ सप्त प्रेषयामास भारत । 

ते त॑ शूरं विनिर्भिद्य प्राविशनू धरणीतलम्‌ ।। ६२ ।। 

भारत! अर्जुनने उसके ऊपर सात बाण चलाये। वे बाण उस शूरवीरके शरीरको विदीर्ण 
करके धरतीमें समा गये ।। ६२ ।। 

सो5तिविद्ध: शरैस्ती&णैगाण्डीवप्रेषितैर्मुथे । 

अर्जुन प्रतिविव्याध दशभि: कड्कपत्रिभि: ।। ६३ ।। 

गाण्डीव धनुषद्वारा छोड़े हुए तीखे बाणोंसे अत्यन्त घायल होनेपर सुदक्षिणने उस 
रणक्षेत्रमें कंककी पाँखवाले दस बाणोंद्वारा अर्जुनको क्षत-विक्षत कर दिया ।। ६३ ।। 

वासुदेवं त्रिभिविद्ध्वा पुन: पार्थ च पञ्चभि: । 

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा केतुं चिच्छेद मारिष ।। ६४ ।। 

वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको तीन बाणोंसे घायल करके उसने अर्जुनपर पुनः पाँच 
बाणोंका प्रहार किया। आर्य! तब अर्जुनने उसका धनुष काटकर उसकी ध्वजाके टुकड़े- 
टुकड़े कर दिये ।। ६४ ।। 

भल्लाभ्यां भृशतीक्ष्णाभ्यां तं च विव्याध पाण्डव: । 

स तु पार्थ त्रिभिविंद्ध्वा सिंहनादमथानदत्‌ ।। ६५ || 

इसके बाद पाण्डुकुमार अर्जुनने दो अत्यन्त तीखे भल्‍्लोंसे सुदक्षिणको बींध डाला। 
फिर सुदक्षिण भी तीन बाणोंसे पार्थको घायल करके सिंहके समान दहाड़ने लगा ।। ६५ ।। 

सर्वपारशवीं चैव शक्ति शूर: सुदक्षिण: । 

सघपण्टां प्राहिणोद्‌ घोरां क्रुद्धो गाण्डीवधन्चने || ६६ ।। 

शूरवीर सुदक्षिणने कुपित होकर पूर्णतः लोहेकी बनी हुई घण्टायुक्त भयंकर शक्ति 
गाण्डीवधारी अर्जुनपर चलायी ।। ६६ ।। 

सा ज्वलन्ती महोल्केव तमासाद्य महारथम्‌ | 

सविस्फुलिज्ञा निर्भिद्य निपषात महीतले ।। ६७ ।। 

वह बड़ी भारी उल्काके समान प्रज्वलित होती और चिनगारियाँ बिखेरती हुई महारथी 
अर्जुनके पास जा उनके शरीरको विदीर्ण करके पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। ६७ ।। 

शक्‍्त्या त्वभिहतो गाढढं मूर्च्डयाभिपरिप्लुत: । 

समाश्वास्य महातेजा: सृक्किणी परिलेलिहन्‌ ।। ६८ ।। 

त॑ चतुर्दशभि: पार्थों नाराचै: कड्कपत्रिभि: | 

साश्चवध्वजधनु:सूतं विव्याधाचिन्त्यविक्रम: ।। ६९ ।। 

उस शक्तिके द्वारा गहरी चोट खाकर महातेजस्वी अर्जुन मूर्च्छित हो गये, फिर धीरे-धीरे 
सचेत हो अपने मुखके दोनों कोनोंको जीभसे चाटते हुए अचिन्त्य पराक्रमी पार्थने कंकके 


पाँखवाले चौदह नाराचोंद्वारा घोड़े, ध्वज, धनुष और सारथिसहित सुदक्षिणको घायल कर 
दिया ।। ६८-६९ || 

रथं चान्ये: सुबहुभिश्चक्रे विशकलं शरै: । 

सुदक्षिणं तं काम्बोजं मोघसंकल्पविक्रमम्‌ || ७० ।। 

बिभेद हृदि बाणेन पृथुधारेण पाण्डव: । 

फिर दूसरे बहुत-से बाणोंद्वारा उसके रथको टूक-टूक कर दिया और काम्बोजराज 
सुदक्षिणके संकल्प एवं पराक्रमको व्यर्थ करके पाण्डुपुत्र अर्जुनने मोटी धारवाले बाणसे 
उसकी छाती छेद डाली || ७०३ ।। 

स भिजन्नवर्मा स्रस्ताड़ प्रभ्रष्टमुकुटाज्द: ।। ७१ ।। 

पपाताभिमुख: शूरो यन्त्रमुक्त इव ध्वज: । 

इससे उसका कवच फट गया, सारे अंग शिथिल हो गये, मुकुट और बाजूबंद गिर गये 
तथा शूरवीर सुदक्षिण मशीनसे फेंके गये ध्वजके समान मुँहके बल गिर पड़ा || ७१३ ।। 

गिरे: शिखरज: श्रीमान्‌ सुशाख: सुप्रतिछ्तित: ।। ७२ ।। 

निर्भग्न इव वातेन कर्णिकारो हिमात्यये । 

शेते सम निहतो भूमौ काम्बोजास्तरणोचित: ।। ७३ ।। 

जैसे सर्दी बीतनेके बाद पर्वतके शिखरपर उत्पन्न हुआ सुन्दर शाखाओंसे युक्त, 
सुप्रतिष्ठित एवं शोभासम्पन्न कनेरका वृक्ष वायुके वेगसे टूटकर गिर जाता है, उसी प्रकार 
काम्बोजदेशके मुलायम बिछौनोंपर शयन करनेके योग्य सुदक्षिण वहाँ मारा जाकर पृथ्वीपर 
सो रहा था ।। 

महाहाभरणोपेत: सानुमानिव पर्वत: । 

सुदर्शनीयस्ताम्राक्ष: कर्णिना स सुदक्षिण: ।। ७४ ।। 

पुत्र: काम्बोजराजस्य पार्थेन विनिपातित: । 

बहुमूल्य आभूषणोंसे विभूषित एवं शिखरयुक्त पर्वतके समान सुदर्शनीय अरुण 
नेत्रोंवाले काम्बोज-राजकुमार सुदक्षिणको अर्जुनने एक ही बाणसे मार गिराया था ।। ७४ $ई 

|| 

धारयन्नग्निसंकाशां शिरसा काज्चनीं स्रजम्‌ ।। ७५ |। 

अशोभत महाबाहुर्व्यसुर्भूमी निपातित: । 

अपने मस्तकपर अग्निके समान दमकते हुए सुवर्णमय हारको धारण किये महाबाहु 
सुदक्षिण यद्यपि प्राणशून्य करके पृथ्वीपर गिराया गया था, तथापि उस अवस्थामें भी 
उसकी बड़ी शोभा हो रही थी || ७५३ ।। 

ततः सर्वाणि सैन्यानि व्यद्रवन्त सुतस्य ते । 

हतं श्रुतायुधं दृष्टवा काम्बोजं च सुदक्षिणम्‌ ।। ७६ ।। 


तदनन्तर श्रुतायुध तथा काम्बोजराजकुमार सुदक्षिणको मारा गया देख आपके पुत्रकी 
सारी सेनाएँ वहाँसे भागने लगीं || ७६ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि श्रुतायुधसुदक्षिणव थे 
द्विनवतितमो<ध्याय: ।। ९२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें श्रुतायुध और युदाक्षिणका 
वधविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९२ ॥। 


अपना बछ। | अत्-४-#कात 


त्रिनवतितमो<्थ्याय: 


अर्जुनद्वारा श्रुतायु, अच्युतायु, नियतायु, दीर्घायु, म्लेच्छ- 
सैनिक और अम्बष्ठ आदिका वध 


संजय उवाच 

हते सुदक्षिणे राजन्‌ वीरे चैव श्रुतायुथे । 

जवेनाभ्यद्रवन्‌ पार्थ कुपिता: सैनिकास्तव ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! काम्बोजराज सुदक्षिण और वीर श्रुतायुधके मारे जानेपर 
आपके सारे सैनिक कुपित हो बड़े वेगसे अर्जुनपर टूट पड़े ।। १ ।। 

अभीषाहा: शूरसेना: शिबयो5थ वसातय: । 

अभ्यवर्षस्ततो राजन्‌ शरवर्षर्धन॑जयम्‌ ।। २ ।। 

महाराज! वहाँ अभीषाह, शूरसेन, शिबि और वसाति-देशीय सैनिकगण अर्जुनपर 
बाणोंकी वर्षा करने लगे || २ ।। 

तेषां षष्टिशतानन्यान्‌ प्रामथ्नात्‌ पाण्डव: शरै: | 

ते सम भीता: पलायन्ते व्याप्रात्‌ क्षुद्रमृूगा इव ।। ३ ।। 

उस समय पाण्डुकुमार अर्जुनने उपर्युक्त सेनाओंके छः हजार सैनिकों तथा अन्य 
योद्धाओंको भी अपने बाणोंद्वारा मथ डाला। जैसे छोटे-छोटे मृग बाघसे डरकर भागते हैं, 
उसी प्रकार वे अर्जुनसे भयभीत हो वहाँसे पलायन करने लगे ।। ३ ।। 

ते निवृत्ता: पुनः पार्थ सर्वतः पर्यवारयन्‌ । 

रणे सपत्नान्‌ निध्नन्तं जिगीषन्तं परान्‌ युधि ।। ४ ।। 

उस समय अर्जुन रणक्षेत्रमें शत्रुओंपर विजय पानेकी इच्छासे उनका संहार कर रहे थे। 
यह देख उन भागे हुए सैनिकोंने पुनः: लौटकर पार्थको चारों ओरसे घेर लिया || ४ ।। 

तेषामापततां तूर्ण गाण्डीवप्रेषितै: शरै: । 

शिरांसि पातयामास बाहूंश्वापि धनंजय: ।। ५ ।। 

उन आक्रमण करनेवाले योद्धाओंके मस्तकों और भुजाओंको अर्जुनने गाण्डीव- 
धनुषद्वारा छोड़े हुए बाणोंसे तुरंत ही काट गिराया ।। ५ ।। 

शिरोभशि: पातितैस्तत्र भूमिरासीज्निरन्तरा | 

अभ्रच्छायेव चैवासीदू ध्वाड्क्षगृभ्रबलैर्युधि ।। ६ ।। 

वहाँ गिराये हुए मस्तकोंसे वह रणभूमि ठसाठस भर गयी थी और उस युद्धस्थलमें 
कौओं तथा गीधोंकी सेनाके आ जानेसे वहाँ मेघकी छाया-सी प्रतीत होती थी ।। ६ ।। 

तेषु तूत्साद्यमानेषु क्रोधामर्षसमन्वितौ । 


श्रुतायुश्नाच्युतायुश्न धनंजयमयुध्यताम्‌ ।। ७ ।। 

इस प्रकार जब उन समस्त सैनिकोंका संहार होने लगा, तब श्रुतायु तथा अच्युतायु--ये 
दो वीर क्रोध और अमर्षमें भरकर अर्जुनके साथ युद्ध करने लगे ।। ७ ।। 

बलिनौ स्पर्धिनौ वीरौ कुलजौ बाहुशालिनौ । 

तावेनं शरवर्षाणि सव्यदक्षिणमस्थताम्‌ ।। ८ ।। 

वे दोनों बलवान अर्जुनसे स्पर्धा रखनेवाले, वीर, उत्तम कुलमें उत्पन्न और अपनी 
भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले थे। उन दोनोंने अर्जुनपर दायें-बायेंसे बाण बरसाना आरम्भ 
किया || ८ ।। 

त्वरायुक्तौ महाराज प्रार्थयानौ महद्‌ यश: । 

अर्जुनस्य वधरप्रेप्सू पुत्रार्थे तव धन्विनौ ।। ९ ।। 

महाराज! वे दोनों वीर महान्‌ यशकी अभिलाषा रखते हुए आपके पुत्रके लिये अर्जुनके 
वधकी इच्छा रखकर हाथमें धनुष ले बड़ी उतावलीके साथ बाण चला रहे थे || ९ ।। 

तावर्जुनं सहस्त्रेण पत्रिणां नतपर्वणाम्‌ । 

पूरयामासतु: क्रुद्धो तटागं जलदौ यथा ।। १० ।। 

जैसे दो मेघ किसी तालाबको भरते हों, उसी प्रकार क्रोधमें भरे हुए उन दोनों वीरोंने 
झुकी हुई गाँठवाले सहस्रों बाणोंद्वारा अर्जुनको आच्छादित कर दिया || १० ।। 

श्रुतायुश्न ततः क्रुद्धस्तोमरेण धनंजयम्‌ । 

आजघान रथश्रेष्ठ: पीतेन निशितेन च ।। ११ ।। 

फिर रथियोंमें श्रेष्ठ श्रुतायुने कुृपित होकर पानीदार तीखी धारवाले तोमरसे अर्जुनपर 
आघात किया ।। ११ ।। 

सो5तिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुकर्शन: । 

जगाम परम॑ मोहं मोहयन्‌ केशवं रणे ।। १२ ।। 

उस बलवान शत्रुके द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए शत्रुसूदन अर्जुन उस रफक्षेत्रमें 
श्रीकृष्णको मोहित करते हुए स्वयं भी अत्यन्त मूर्च्छित हो गये || १२ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु सो<च्युतायुर्महारथ: । 

शूलेन भृशतीक्ष्णेन ताडयामास पाण्डवम्‌ ॥। १३ ।। 

इसी समय महारथी अच्युतायुने अत्यन्त तीखे शूलके द्वारा पाण्डुकुमार अर्जुनपर प्रहार 
किया ।। १३ ।। 

क्षते क्षारं स हि ददौ पाण्डवस्य महात्मन: । 

पार्थोडपि भृशसंविद्धो ध्वजयष्टिं समाश्रित: ।। १४ ।। 

उसने इस प्रहारद्वारा महामना पाण्डुपुत्र अर्जुनके घावपर नमक छिड़क दिया। अर्जुन 
भी अत्यन्त घायल होकर ध्वज-दण्डके सहारे टिक गये ।। १४ ।। 

ततः सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशाम्पते । 


सिंहनादो महानासीद्धतं मत्वा धनंजयम्‌ ।। १५ ।। 

प्रजानाथ! उस समय अर्जुनको मरा हुआ मानकर आपके सारे सैनिक जोर-जोरसे 
सिंहनाद करने लगे ।। १५ ।। 

कृष्णश्व भृशसंतप्तो दृष्टवा पार्थ विचेतनम्‌ । 

आश्वासयत्‌ सुहसद्याभिवाग्भिस्तत्र धनंजयम्‌ ।। १६ ।। 

अर्जुनको अचेत हुआ देख भगवान्‌ श्रीकृष्ण अत्यन्त संतप्त हो उठे और मनको प्रिय 
लगनेवाले वचनोंद्वारा वहाँ उन्हें आश्वासन देने लगे || १६ ।। 

ततस्तौ रथिनां श्रेष्ठी लब्धलक्ष्यौ धनंजयम्‌ | 

वासुदेवं च वार्ष्णेयं शरवर्ष: समन्तत: ।। १७ ।। 

सचक्रकूबररथं साश्वध्वजपताकिनम्‌ | 

अदृश्य॑ चक्रतुर्युद्धे तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। १८ ।। 

तदनन्तर रथियोंमें श्रेष्ठ श्रुतायु और अच्युतायुने अपना लक्ष्य सामने पाकर अर्जुन तथा 
वृष्णिवंशी श्रीकृष्णपर चारों ओरसे बाण-वर्षा करके चक्र, कूबर, रथ, अश्व, ध्वज और 
पताकासहित उन्हें उस रणक्षेत्रमें अदृश्य कर दिया। वह अद्धभुत-सी बात हो 
गयी ।। १७-१८ ।। 

प्रत्याश्वस्तस्तु बीभत्सु: शनकैरिव भारत । 

प्रेतराजपुरं प्राप्प पुन: प्रत्यागतो यथा ।। १९ ।। 

भारत! फिर अर्जुन धीरे-धीरे सचेत हुए, मानो यमराजके नगरमें पहुँचकर पुनः वहाँसे 
लौटे हों ।। १९ ।। 

संछन्नं शरजालेन रथं दृष्टवा सकेशवम्‌ | 

शत्रू चाभिमुखौ दृष्टवा दीप्यमानाविवानलौ ।। २० ।। 

प्रादुश्चक्रे ततः पार्थ: शाक्रमस्त्रं महारथ: । 

तस्मादासन्‌ सहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्‌ | २१ ।। 

उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णसहित अपने रथको बाणसमूहसे आच्छादित और सामने 
खड़े हुए दोनों शत्रुओंको अग्निके समान देदीप्यमान देखकर महारथी अर्जुनने ऐपन्द्रास्त्र 
प्रकट किया। उससे झुकी हुई गाँठवाले सहस्रों बाण प्रकट होने लगे || २०-२१ ।। 

ते जघ्नुस्तौ महेष्वासौ ताभ्यां मुक्तांश्व सायकान्‌ | 

विचेरुराकाशगता: पार्थबाणविदारिता: ।। २२ ।। 

उन बाणोंने उन दोनों महाधनुर्धरोंको तथा उनके छोड़े हुए सायकोंको भी छिल्न-भिन्न 
कर दिया। अर्जुनके बाणोंसे टुकड़े-टुकड़े होकर उन शत्रुओंके बाण आकाशमें विचरने 
लगे ।। २२ ।। 

प्रतिहत्य शरांस्तूर्ण शरवेगेन पाण्डव: । 

प्रतस्थे तत्र तत्रैव योधयन्‌ वै महारथान्‌ ।। २३ ।। 


अपने बाणोंके वेगसे शत्रुओंके बाणोंको नष्ट करके पाण्डुकुमार अर्जुनने जहाँ-तहाँ 
अन्य महारथियोंसे युद्ध करनेके लिये प्रस्थान किया ।। २३ ।। 

तौ च फाल्गुनबाणौघैर्विबाहुशिरसौ कृतौ । 

वसुधामन्वपद्येतां वातनुन्नाविव द्रुमी ।। २४ ।। 

अर्जुनके उन बाणसमूहोंसे श्रुतायु और अच्युतायुके मस्तक कट गये। भुजाएँ छिज्न- 
भिन्न हो गयीं। वे दोनों आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंके समान धराशायी हो गये ।। 

श्रुतायुषश्च निधन वधश्चैवाच्युतायुष: । 

लोकविस्मापनमभूत्‌ समुद्रस्थेव शोषणम्‌ ।। २५ ।। 

श्रुतायु और अच्युतायुका वह वध समुद्रशोषणके समान सब लोगोंको आश्र॒र्यमें 
डालनेवाला था || २५ ।। 

तयो: पदानुगान्‌ हत्वा पुन: पञ्चाशतं रथान्‌ | 

प्रत्यगाद्‌ भारतीं सेनां निघ्नन्‌ पार्थो वरान्‌ वरान्‌ ।। २६ ।। 

उन दोनोंके पीछे आनेवाले पचास रथियोंको मारकर अर्जुनने श्रेष्ठ-श्रेष्ठ वीरोंको चुन- 
चुनकर मारते हुए पुनः कौरव-सेनामें प्रवेश किया ।। २६ ।। 

श्रुतायुषं च निहतं प्रेक्ष्य चैवाच्युतायुषम्‌ । 

नियतायुश्च संक्रुद्धो दीर्घायुश्विव भारत ।। २७ ।। 

पुत्री तयोर्नरश्रेष्ठी कौन्तेयं प्रतिजग्मतुः । 

किरन्तौ विविधान्‌ बाणान्‌ पितृव्यसनकर्शितौ ।। २८ ।। 

भारत! श्रुतायु तथा अच्युतायुको मारा गया देख उन दोनोंके पुत्र नरश्रेष्ठ नियतायु और 
दीर्घायु पिताके वधसे दु:खी हो अत्यन्त क्रोधमें भरकर नाना प्रकारके बाणोंकी वर्षा करते 
हुए कुन्तीकुमार अर्जुनका सामना करनेके लिये आये ।। २७-२८ ।। 

तावर्जुनो मुहूर्तेन शरै: संनतपर्वभि: । 

प्रैषयत्‌ परमक्रुद्धो यमस्य सदन प्रति ।। २९ ।। 

तब अर्जुनने अत्यन्त कुपित हो झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा दो ही घड़ीमें उन 
दोनोंको यमराजके घर भेज दिया ।। २९ |। 

लोडयन्तमनीकानि द्विप॑ पद्मससरो यथा । 

नाशवनुवन्‌ वारयितु पार्थ क्षत्रियपुड़रवा: ।। ३० ।। 

जैसे हाथी कमलोंसे भरे हुए सरोवरको मथ डालता हो, उसी प्रकार आपकी 
सेनाओंका मन्थन करते हुए पार्थको आपके क्षत्रियशिरोमणि योद्धा रोक न सके ।। 

अड्जास्तु गजवारेण पाण्डवं पर्यवारयन्‌ । 

क्रुद्धा:सहस्रशो राजन्‌ शिक्षिता हस्तिसादिन: ।। ३१ |। 

राजन्‌! इसी समय युद्धविषयक शिक्षा पाये हुए अंगदेशके सहस्रों गजारोही योद्धाओंने 
क्रोधमें भरकर हाथियोंके समूहद्वारा पाण्डुकुमार अर्जुनको सब ओरसे घेर लिया ।। ३१ ।। 


दुर्योधनसमादिष्टा: कुछ्जरै: पर्वतोपमै: । 

प्राच्याश्व दाक्षिणात्याश्व॒ कलिड्गप्रमुखा नूपा: ।। ३२ ।। 

फिर दुर्योधनकी आज्ञा पाकर पूर्व और दक्षिण देशोंके कलिंग आदि नरेशोंने भी 
अर्जुनपर पर्वताकार हाथियोंद्वारा घेरा डाल दिया || ३२ ।। 

तेषामापततां शीघ्र गाण्डीवप्रेषितै: शरै: । 

निचकर्त शिरांस्य॒ग्रो बाहूनपि सुभूषणान्‌ ।। ३३ ।। 

तब उग्ररूपधारी अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छोड़े हुए बाणोंद्वारा उन सारे 
आक्रमणकारियोंके मस्तकों तथा उत्तम भूषणभूषित भुजाओंको भी शीघ्र ही काट 
डाला || ३३ ।। 

तैः शिरोभिममही कीर्णा बाहुभिश्न सहाडुदै: । 

बभौ कनकपाषाणा भुजगैरिव संवृता ॥। ३४ ।। 

उस समय उन मस्तकों और भुजबंदसहित भुजाओंसे आच्छादित हुई वहाँकी भूमि 
सर्पोंसे घिरी हुई स्वर्ण-प्रस्तरयुक्त भूमिके समान शोभा पा रही थी ।। ३४ ।। 

बाहवो विशिखैश्कछिन्ना: शिरांस्युन्मथितानि च । 

पतमानान्यदृश्यन्त द्रुमेभ्य इव पक्षिण: || ३५ ।। 

बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुई भुजाएँ और कटे हुए मस्तक इस प्रकार गिरते दिखायी दे रहे 
थे, मानो वृक्षोंसे पक्षी गिर रहे हों ।। ३५ ।। 

शरै: सहस्रशो विद्धा द्विपा: प्रसृतशोणिता: । 

अदृश्यन्ताद्रय: काले गैरिकाम्बुस्रवा इव ।। ३६ ।। 

सहस्रों बाणोंसे बिंधकर खूनकी धारा बहाते हुए हाथी वर्षाकालमें गेरुमिश्रित जलके 
झरने बहानेवाले पर्वतोंके समान दिखायी देते थे || ३६ ।। 

निहता: शेरते स्मान्ये बीभत्सोर्निशितै: शरै: । 

गजपृष्ठगता म्लेच्छा नानाविकृतदर्शना: ।। ३७ ।। 

अर्जुनके तीखे बाणोंसे मारे जाकर दूसरे-दूसरे म्लेच्छ-सैनिक हाथीकी पीठपर ही लेट 
गये थे। उनकी नाना प्रकारकी आकृति बड़ी विकृत दिखायी देती थी || ३७ ।। 

नानावेषधरा राजन्‌ नानाशस्त्रौघसंवृता: । 

रुधिरेणानुलिप्ताज़ा भान्ति चित्र: शरैर्हता: ।। ३८ ।। 

राजन! नाना प्रकारके वेश धारण करनेवाले तथा अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न 
योद्धा अर्जुनके विचित्र बाणोंसे मारे जाकर अदभुत शोभा पा रहे थे। उनके सारे अंग खूनसे 
लथपथ हो रहे थे ।। ३८ ।। 

शोणितं निर्वमन्ति सम द्विपा: पार्थशराहता: । 

सहस्नशश्किन्नगात्रा: सारोहा: सपदानुगा: ।। ३९ ।। 


सवारों और अनुचरोंसहित सहस्रों हाथी अर्जुनके बाणोंसे आहत हो मुँहसे रक्त वमन 
करते थे। उनके सम्पूर्ण अंग छिन्न-भिन्न हो रहे थे || ३९ ।। 

चुक्रुशुश्व निपेतुश्च बश्रमुश्चापरे दिश: । 

भशं त्रस्ताश्न बहव: स्वानेव ममृदुर्गजा: ।। ४० ।। 

सान्तरायुधिनश्रैव द्विपास्तीक्ष्णविषोपमा: । 

बहुत-से हाथी चिग्घाड़ रहे थे, बहुतेरे धराशायी हो गये थे, दूसरे कितने ही हाथी 
सम्पूर्ण दिशाओंमें चक्कर काट रहे थे और बहुत-से गज अत्यन्त भयभीत हो भागते हुए 
अपने ही पक्षके योद्धाओंको कुचल रहे थे। तीक्ष्ण विषवाले सर्पोके समान भयंकर वे सभी 
हाथी गुप्तास्त्रधारी सैनिकोंसे युक्त थे || ४० ई ।। 

विदन्त्यसुरमायां ये सुघोरा घोरचक्षुष: ।। ४१ ।। 

यवना: पारदाश्वैव शकाश्न सह बाह्लिकै: । 

काकवर्णा दुराचारा: स्त्रीलोला: कलहप्रिया: ।। ४२ ।। 

जो आसुरी मायाको जानते हैं, जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है तथा जो भयानक 
नेत्रोंसे युक्त हैं एवं जो कौओंके समान काले, दुराचारी, स्त्रीलम्पट और कलहप्रिय होते हैं वे 
यवन, पारद, शक और बाह्नलीक भी वहाँ युद्धके लिये उपस्थित हुए ।। ४१-४२ ।। 

द्राविडास्तत्र युध्यन्ते मत्तमातड्भविक्रमा: । 

गोयोनिप्रभवा म्लेच्छा: कालकल्पा: प्रहारिण: ।। ४३ ।। 

मतवाले हाथियोंके समान पराक्रमी द्राविड तथा नन्दिनी गायसे उत्पन्न हुए कालके 
समान प्रहारकुशल म्लेच्छ भी वहाँ युद्ध कर रहे थे || ४३ ।। 

दार्वातिसारा दरदा: पुण्ड्राश्वेव सहस्रश: । 

ते न शक्या: सम संख्यातुं व्रात्या:ःशतसहसत्रश: ।। ४४ ।। 

दार्वातिसार, दरद और पुण्ड्र आदि हजारों लाखों संस्कारशून्य म्लेच्छ वहाँ उपस्थित थे, 
जिनकी गणना नहीं की जा सकती थी ।। ४४ ।। 

अभ्यवर्षन्त ते सर्वे पाण्डवं निशितै: शरै: । 

अवाकिरंश्न ते म्लेच्छा नानायुद्धविशारदा: ।। ४५ ।। 

नाना प्रकारके युद्धोंमें कुशल वे सभी म्लेच्छगण पाण्डुपुत्र अर्जुनपर तीखे बाणोंकी 
वर्षा करके उन्हें आच्छादित करने लगे ।। ४५ ।। 

तेषामपि ससर्जाशु शरवृष्टिं धनंजय: । 

सृष्टिस्तथाविधा हवासीच्छलभानामिवायति: ।। ४६ ।। 

तब अर्जुनने उनके ऊपर भी तुरंत बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ की। उनकी वह बाण-वृष्टि 
टिड्डी-दलोंकी सृष्टि-सी प्रतीत होती थी ।। ४६ ।। 

अभ्रच्छायामिव शरै: सैन्ये कृत्वा धनंजय: । 

मुण्डार्थधमुण्डाउ्जटिलानशुचीज्जटिलाननान्‌ ।। ४७ ।। 


म्लेच्छानशातयत्‌ सर्वान्‌ समेतानस्त्रतेजसा । 

बाणोंद्वारा उस विशाल सेनापर बादलोंकी छाया-सी करके अर्जुनने अपने अस्त्रके 
तेजसे मुण्डित, अर्धमुण्डित, जटाधारी, अपवित्र तथा दाढ़ीभरे मुखवाले उन समस्त 
म्लेच्छोंका, जो वहाँ एकत्र थे, संहार कर डाला || ४७३ ।। 

शरैश्ष॒ शतशो विद्धास्ते संघा गिरिचारिण: । 

प्राद्रवन्त रणे भीता गिरिगह्वदरवासिन: ।। ४८ ।। 

उस समय पर्वतोंपर विचरने और पर्वतीय कन्दराओंमें निवास करनेवाले सैकड़ों 
म्लेच्छ-संघ अर्जुनके बाणोंसे विद्ध एवं भयभीत हो रणभूमिसे भागने लगे ।। ४८ ।। 

गजाश्वसादिम्लेच्छानां पतितानां शितै: शरै: । 

बला: कंका वृका भूमावपिबन्‌ रुधिरं मुदा || ४९ |। 

अर्जुनके तीखे बाणोंसे मरकर पृथ्वीपर गिरे हुए उन हाथीसवार और घुड़सवार 
म्लेच्छोंका रक्त कौए, बगुले और भेड़िये बड़ी प्रसन्नताके साथ पी रहे थे || ४९ ।। 

पत्त्यश्वरथनागैश्व प्रच्छन्नकृतसंक्रमाम्‌ । 

शरवर्षप्लवां घोरां केशशैवलशाद्धलाम्‌ । 

प्रावर्तयन्नदीमुग्रां शोणितौघतरड्धिणीम्‌ ॥। ५० ।। 

छिन्नाडुलीक्षुद्रमत्स्यां युगान्ते कालसंनिभाम्‌ । 

प्राकरोद्‌ गजसम्बाधां नदीमुत्तरशोणिताम्‌ ।। ५१ ।। 

देहेभ्यो राजपुत्राणां नागाश्चरथसादिनाम्‌ । 

उस समय अर्जुनने वहाँ रक्तकी एक भयंकर नदी बहा दी, जो प्रलयकालकी नदीके 
समान डरावनी प्रतीत होती थी। उसमें पैदल मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंको बिछाकर 
मानो पुल तैयार किया गया था, बाणोंकी वर्षा ही नौकाके समान जान पड़ती थी। केश 
सेवार और घासके समान जान पड़ते थे। उस भयंकर नदीसे रक्त-प्रवाहकी ही तरंगें उठ 
रही थीं। कटी हुई अँगुलियाँ छोटी-छोटी मछलियोंके समान जान पड़ती थीं। हाथी, घोड़े 
और रथोंकी सवारी करनेवाले राजकुमारोंके शरीरोंसे बहनेवाले रक्तसे लबालब भरी हुई 
उस नदीको अर्जुनने स्वयं प्रकट किया था। उसमें हाथियोंकी लाशें व्याप्त हो रही 
थीं ।। ५०-५१ ३ || 

यथास्थलं च निम्नं च न स्याद्‌ वर्षति वासवे ।। ५२ ।। 

तथासीत्‌ पृथिवी सर्वा शोणितेन परिप्लुता । 

जैसे इन्द्रके वर्षा करते समय ऊँचे-नीचे स्थलका भान नहीं होता है, उसी प्रकार वहाँकी 
सारी पृथ्वी रक्तकी धारामें डूबकर समतल-सी जान पड़ती थी || ५२६ ।। 

षट्‌ सहस्रान्‌ हयान्‌ वीरान्‌ पुनर्दशशतान्‌ वरान्‌ ।। ५३ ।। 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्षत्रियान्‌ क्षत्रियर्षभ: । 


क्षत्रियशिरोमणि अर्जुनने वहाँ छः: हजार घुड़सवारों तथा एक हजार श्रेष्ठ शूरवीर 
क्षत्रियोंको मृत्युके लोकमें भेज दिया |। ५३ ई |। 

शरै: सहस््रशो विद्धा विधिवत्कल्पिता द्विपा: ।। ५४ ।। 

शेरते भूमिमासाद्य शैला वज़हता इव । 

विधिपूर्वक सुसज्जित किये गये हाथी सहस्रों बाणोंसे बिंधकर वज्रके मारे हुए पर्वतोंके 
समान धराशायी हो रहे थे ।। ५४३ ।। 

सवाजिरथमातज्न्‌ निध्नन्‌ व्यचरदर्जुन: || ५५ ।। 

प्रभिन्न इव मातज्रो मृदूनन्‌ नलवनं यथा । 

जैसे मदकी धारा बहानेवाला मतवाला हाथी नरकुलके जंगलोंको रौंदता चलता है, 
उसी प्रकार अर्जुन घोड़े, रथ और हाथियोंसहित सम्पूर्ण शत्रुओंका संहार करते हुए 
रणभूमिमें विचर रहे थे | ५५६३ ।। 

भूरिद्रुमलतागुल्मं शुष्केन्धनतृणोलपम्‌ ।। ५६ ।। 

निर्दहेदनलो5रण्यं यथा वायुसमीरित: । 

सेनारण्यं तव तथा कृष्णानिलसमीरित: ।। ५७ ।। 

शरार्चिरदहत्‌ क्रुद्ध: पाण्डवाग्निर्धनंजय: । 

जैसे वायुप्रेरित अग्नि सूखे ईंधन, तृण और लताओंसे युक्त तथा बहुसंख्यक वृक्षों और 
लतागुल्मोंसे भरे हुए जंगलको जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार श्रीकृष्णरूपी वायुसे 
प्रेरित हो बाणरूपी ज्वालाओंसे युक्त पाण्डुपुत्र अर्जुनरूपी अग्निने कुपित होकर आपकी 
सेनारूप वनको दग्ध कर दिया || ५६-५७ $ ।। 

शून्यान्‌ कुर्वन्‌ रथोपस्थान्‌ मानवै: संस्तरन्‌ महीम्‌ ।। ५८ ।। 

प्रानृत्यदिव सम्बाधे चापहस्तो धनंजय: । 

रथकी बैठकोंको सूनी करके धरतीपर मनुष्योंकी लाशोंका बिछौना करते हुए चापधारी 
धनंजय उस युद्धके मैदानमें नृत्य-सा कर रहे थे ।। ५८ $ ।। 

वज्जकल्पै: शरैर्भूमिं कुर्वन्नुत्तरशोणिताम्‌ ।। ५९ ।। 

प्राविशद्‌ भारतीं सेनां संक्रुद्धो वै धनंजय: । 

त॑ं श्रुतायुस्तथाम्बष्ठो ब्रजमानं न्‍न्यवारयत्‌ ।। ६० ।। 

क्रोधमें भरे हुए धनंजयने वज्रोपम बाणोंद्वारा पृथ्वीको रक्तसे आप्लावित करते हुए 
कौरवी सेनामें प्रवेश किया। उस समय सेनाके भीतर जाते हुए अर्जुनको श्रुतायु तथा 
अम्बष्ठने रोका ।। ५९-६० || 

तस्यार्जुन: शरैस्तीक्ष्ण: कडकपत्रपरिच्छदै: | 

न्यपातयद्धयान्‌ शीघ्रं यतमानस्य मारिष ।। ६१ ।। 


मान्यवर! तब अर्जुनने कंककी पाँखोंवाले तीखे बाणोंद्वारा विजयके लिये प्रयत्न 
करनेवाले अम्बष्ठके घोड़ोंको शीघ्र ही मार गिराया ।। ६१ ।। 

धनुश्वास्यापरैश्छित्त्वा शरै: पार्थों विचक्रमे । 

अम्बष्ठस्तु गदां गृह कोपपर्याकुलेक्षण: ।। ६२ ।। 

आससाद रणे पार्थ केशवं च महारथम्‌ । 

फिर दूसरे बाणोंसे उसके धनुषको भी काटकर पार्थने विशेष बल-विक्रमका परिचय 
दिया। तब अम्बष्ठकी आँखें क्रोधसे व्याप्त हो गयीं। उसने गदा लेकर रणक्षेत्रमें महारथी 
श्रीकृष्ण और अर्जुनपर आक्रमण किया || ६२ $ || 

ततः सम्प्रहरन्‌ वीरो गदामुद्यम्य भारत ।। ६३ ।। 

रथमावार्य गदया केशवं समताडयत्‌ | 

भारत! तदनन्तर वीर अम्बष्ठने प्रहार करनेके लिये उद्यत हो गदा उठाये आगे बढ़कर 
अर्जुनके रथको रोक दिया और भगवान्‌ श्रीकृष्णपर गदासे आघात किया ।। ६३ $ ।। 

गदया ताडिठतं दृष्टवा केशवं परवीरहा ।। ६४ ।। 

अर्जुनो5थ भृशं क्रुद्धः सो<म्बष्ठं प्रति भारत । 

भरतनन्दन! शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुन भगवान्‌ श्रीकृष्णको गदासे आहत 
हुआ देख अम्बष्ठके प्रति अत्यन्त कुपित हो उठे ।। ६४ $ ।। 

ततः शरैहेमपुड्खै: सगदं रथिनां वरम्‌ ।। ६५ ।। 

छादयामास समरे मेघ: सूर्यमिवोदितम्‌ । 

फिर तो जैसे बादल उदित हुए सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार अर्जुनने समरांगणमें 
सोनेके पंखवाले बाणोंद्वारा गदासहित रथियोंमें श्रेष्ठ अम्बष्ठकोी आच्छादित कर दिया ।। ६५ 
*॥ 

अथापरै: शरैश्वापि गदां तस्य महात्मन: ।। ६६ ।। 

अचूर्णयत्‌ तदा पार्थस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ | 

तत्पश्चात्‌ दूसरे बहुत-से बाण मारकर अर्जुनने महामना अम्बष्ठकी उस गदाको उसी 
समय चूर-चूर कर दिया। वह अद्भुत-सी घटना हुई ।। ६६३ ।। 

अथ तां पतितां दृष्टवा गृह्मान्यां च महागदाम्‌ ।। ६७ ।। 

अर्जुन वासुदेवं च पुन: पुनरताडयत्‌ । 

उस गदाको गिरी हुई देख अम्बष्ठने दूसरी विशाल गदा ले ली और श्रीकृष्ण तथा 
अर्जुनपर बारंबार प्रहार किया || ६७ ई || 

तस्यार्जुन: क्षुरप्राभ्यां सगदावुद्यतीौ भुजी ।। ६८ ।। 

चिच्छेदेन्द्रध्वजाकारौ शिरक्षान्येन पत्रिणा । 


तब अर्जुनने उसकी गदासहित, इन्द्रध्वजके समान उठी हुई दोनों भुजाओंको दो 
क्षुरप्रोंसे काट डाला और पंखयुक्त दूसरे बाणसे उसके मस्तकको भी काट गिराया ।। 

स पपात हतो राजन्‌ वसुधामनुनादयन्‌ ।। ६९ |। 

इन्द्रध्वज इवोत्सृष्टो यन्त्रनिर्मुक्तबन्धन: । 

राजन! यन्त्रद्वारा बन्धनमुक्त होकर गिरे हुए इन्द्रध्वजके समान वह मरकर पृथ्वीपर 
धमाकेकी आवाज करता हुआ गिर पड़ा || ६९६ ।। 

रथानीकावगाढश्न वारणाश्वशतैर्व॒॑तः । 

अदृश्यत तदा पार्थो घनै: सूर्य इवावृत: ॥। ७० ।। 

उस समय रथियोंकी सेनामें घुसकर सैकड़ों हाथियों और घोड़ोंसे घिरे हुए कुन्तीकुमार 
अर्जुन बादलोंमें छिपे हुए सूर्यके समान दिखायी देते थे || ७० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अम्बष्ठवधे त्रिनवतितमो<ध्याय: ।। 
९३ || 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अम्ब्बवधविषयक तिरानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९३ ॥ 


फट शा+ (0) अमन +- 


चतुर्नवतितमो< ध्याय: 


80069 उपालम्भ सुनकर द्रोणाचार्यका उसके शरीरमें 
दिव्य कवच बाँधकर की अर्जुनके साथ युद्धके लिये 
जना 


संजय उवाच 

ततः प्रविष्टे कौन्तेये सिंधुराजजिघांसया । 

द्रोणानीकं विनिर्भिद्य भोजानीकं च दुस्तरम्‌ ।। १ ।। 

काम्बोजस्य च दायादे हते राजन्‌ सुदक्षिणे । 

श्रुतायुधे च विक्रान्ते निहते सव्यसाचिना ।। २ ।। 

विप्रद्रुतेष्वनीकेषु विध्वस्तेषु समन्‍्तत: । 

प्रभग्नं स्वबलं दृष्ट्‌्वा पुत्रस्ते द्रोणम भ्ययात्‌ ।। ३ ।। 

त्वरन्नेकरथेनैव समेत्य द्रोणमब्रवीत्‌ । 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर जब कुन्तीकुमार अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथका वध 
करनेकी इच्छासे द्रोणाचार्य और कृतवर्माका दुस्तर सेना-व्यूह भेदन करके आपकी सेनामें 
प्रविष्ट हो गये और सव्यसाची अर्जुनके हाथसे जब काम्बोजराजकुमार सुदक्षिण तथा 
पराक्रमी श्रुतायुध मार दिये गये तथा जब सारी सेनाएँ नष्ट-भ्रष्ट होकर चारों ओर भाग खड़ी 
हुईं, उस समय अपनी सम्पूर्ण सेनामें भगदड़ मची देख आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी 
उतावलीके साथ एकमात्र रथके द्वारा द्रोणाचार्यके पास गया और उनसे मिलकर इस प्रकार 
बोला-- || १--३ ३ || 

गत: स पुरुषव्याप्र: प्रमथ्यैतां महाचमूम्‌ ।। ४ ।। 

अथ बुद्धया समीक्षस्व किन्नु कार्यमनन्तरम्‌ । 

अर्जुनस्य विघाताय दारुणे5स्मिन्‌ जनक्षये ।। ५ ।। 

यथा स पुरुषव्याप्रो न हन्येत जयद्रथ: । 

तथा विधत्स्व भद्रे ते त्वं हि न: परमा गति: ।। ६ ।। 

“गुरुदेव! पुरुषसिंह अर्जुन हमारी इस विशाल सेनाको मथकर व्यूहके भीतर चला 
गया। अब आप अपनी बुद्धिसे यह विचार कीजिये कि इसके बाद अर्जुनके विनाशके लिये 
क्या करना चाहिये? इस भयंकर नरसंहारमें जिस प्रकार भी पुरुषसिंह जयद्रथ न मारे जायँ, 
वैसा उपाय कीजिये। आपका कल्याण हो। हमारा सबसे बड़ा सहारा आप ही हैं || ४-- 
६।। 


असौ धनंजयान्निर्हि कोपमारुतचोदित: । 

सेनाकक्षं दहति मे वहल्नि:ः कक्षमिवोत्थित: ।। ७ ।॥। 

“जैसे सहसा उठा हुआ दावानल सूखे घास-फूँस अथवा जंगलको जलाकर भस्म कर 
देता है, उसी प्रकार यह धनंजयरूपी अग्नि कोपरूपी प्रचण्ड वायुसे प्रेरित हो मेरे सैन्यरूपी 
सूखे वनको दग्ध किये देती है ।। ७ ।। 

अकिक्रान्ते हि कौन्तेये भित्त्वा सैन्यं परंतप । 

जयद्रथस्य गोप्तार: संशयं परमं गता: ॥। ८ ।। 

'शत्रुओंको संताप देनेवाले आचार्य! जबसे कुन्तीकुमार अर्जुन आपकी सेनाका व्यूह 
भेदकर आपको भी लाँघकर आगे चले गये हैं, तबसे जयद्रथकी रक्षा करनेवाले योद्धा 
महान्‌ संशयमें पड़ गये हैं ।। ८ ।। 

स्थिरा बुद्धिनरिन्द्राणामासीद्‌ ब्रह्म॒विदां वर । 

नातिक्रमिष्यति द्रोणं जातु जीवं धनंजय: ।। ९ ।। 

“ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गुरुदेव! हमारे पक्षके नरेशोंको यह दृढ़ विश्वास था कि अर्जुन 
द्रोणाचार्यके जीते-जी उन्हें लाँधघकर सेनाके भीतर नहीं घुस सकेगा ।। ९ ।। 

योअसौ पार्थो व्यतिक्रान्तो मिषतस्ते महाद्युते । 

सर्व हाद्यातुरं मन्‍्ये नेदमस्ति बल॑ मम ।। १० ।। 

'परंतु महातेजस्वी वीर! आपके देखते-देखते वह कुन्तीकुमार अर्जुन आपको लाँघकर 
जो व्यूहमें घुस गया है, इससे मैं अपनी इस सारी सेनाको व्याकुल और विनष्ट हुई-सी 
मानता हूँ। अब मेरी इस सेनाका अस्तित्व नहीं रहेगा || १० ।। 

जानामि त्वां महाभाग पाण्डवानां हिते रतम्‌ । 

तथा मुह्यामि च ब्रह्मन्‌ कार्यवत्तां विचिन्तयन्‌ ।। ११ ।। 

“ब्रह्मन! महाभाग! मैं यह जानता हूँ कि आप पाण्डवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले हैं; 
इसीलिये अपने कार्यकी गुरुताका विचार करके मोहित हो रहा हूँ ।। ११ ।। 

यथाशक्ति च ते ब्रह्मन्‌ वर्तये वृत्तिमुत्तमाम्‌ । 

प्रीणामि च यथाशक्ति तच्च त्वं नावबुध्यसे ।। १२ ।। 

“विप्रवर! मैं यथाशक्ति आपके लिये उत्तम जीविकावृत्तिकी व्यवस्था करता रहता हूँ 
और अपनी शक्तिभर आपको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता रहता हूँ; परंतु इन सब बातोंको 
आप याद नहीं रखते हैं || १२ ।। 

अस्मान्न त्वं सदा भक्तानिच्छस्यमितविक्रम । 

पाण्डवान्‌ सततं प्रीणास्यस्माकं विप्रिये रतान्‌ ।। १३ ।। 

“अमितपराक्रमी आचार्य! हम आपके चरणोंमें सदा भक्ति रखते हैं तो भी आप हमें 
नहीं चाहते हैं और जो सदा हमलोगोंका अप्रिय करनेमें तत्पर रहते हैं, उन पाण्डवोंको आप 
निरन्तर प्रसन्न रखते हैं ।। १३ ।। 


अस्मानेवोपजीवंस्त्वमस्माकं विप्रिये रत: । 

न हायं त्वां विजानामि मधुदिग्धमिव क्षुरम्‌ ।। १४ ।। 

“हमसे ही आपकी जीविका चलती है तो भी आप हमारा ही अप्रिय करनेमें संलग्न 
रहते हैं। मैं नहीं जानता था कि आप शहदमें डुबोये हुए छुरेके समान हैं ।। १४ ।। 

नादास्यच्चेद्‌ वरं महां भवान्‌ पाण्डवनिग्रहे । 

नावारयिष्यं गच्छन्तमहं सिन्धुपतिं गृहान्‌ ।। १५ ।। 

“यदि आप मुझे अर्जुनको रोके रखनेका वर न देते तो मैं अपने घरको जाते हुए 

सिन्धुराज जयद्रथको कभी मना नहीं करता ।। १५ ।। 

मया त्वाशंसमानेन त्वत्तस्त्राणमबुद्धिना । 

आश्वासित: सिन्धुपतिमोहाद दत्तश्न मृत्यवे ।। १६ ।। 

“मुझ मूर्खने आपसे संरक्षण पानेका भरोसा करके सिन्धुराज जयद्रथको समझा- 
बुझाकर यहीं रोक लिया और इस प्रकार मोहवश मैंने उन्हें मौतके हाथमें सौंप 
दिया ।। १६ ।। 

यमदंष्टान्तरं प्राप्तो मुच्येतापि हि मानव: । 

नार्जुनस्य वशं प्राप्तो मुच्येताजी जयद्रथ: || १७ ।। 

“मनुष्य यमराजकी दाढ़ोंमें पड़कर भले ही बच जाय, परंतु रणभूमिमें अर्जुनके वशमें 
पड़े हुए जयद्रथके प्राण नहीं बच सकते ।। १७ ।। 

स तथा कुरु शोणाश्व यथा मुच्येत सैन्धव: । 

मम चार्तप्रलापानां मा क्रुध: पाहि सैन्धवम्‌ ।। १८ ।। 

“लाल घोड़ोंवाले आचार्य! आप कोई ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे सिन्धुराज जयद्रथ 
मृत्युसे छुटकारा पा सके। मैंने आर्त होनेके कारण जो प्रलाप किये हैं, उनके लिये क्रोध न 
कीजियेगा; जैसे भी हो, सिन्धुराजकी रक्षा कीजिये” ।। १८ ।। 

द्रोण उदाच 

नाभ्यासूयामि ते वाक्यमश्चत्थाम्नासि मे सम: । 

सत्यं तु ते प्रवक्ष्यामि तज्जुषस्व विशाम्पते ।। १९ ।। 

द्रोणाचार्यने कहा--राजन्‌! तुमने जो बात कही है, उसके लिये मैं बुरा नहीं मानता; 
क्योंकि तुम मेरे लिये अश्वत्थामाके समान हो। परंतु जो सच्ची बात है, वह तुम्हें बता रहा हूँ; 
उसे ध्यान देकर सुनो-- ।। १९ ।। 

सारथि: प्रवर: कृष्ण: शीघ्राश्नास्य हयोत्तमा: । 

अल्पं च विवरं कृत्वा तूर्ण याति धनंजय: ॥। २० ।। 

श्रीकृष्ण अर्जुनके श्रेष्ठ सारथि हैं तथा उनके उत्तम घोड़े भी तेज चलनेवाले हैं। इसलिये 
थोड़ा-सा भी अवकाश बनाकर अर्जुन तत्काल सेनामें घुस जाते हैं ।। 


कि न पश्यसि बाणौघान्‌ क्रोशमात्रे किरीटिन: । 

पश्चाद्‌ रथस्य पतितान क्षिप्तान्‌ शीघ्रं हि गच्छत: ।। २१ ।। 

क्या तुम देखते नहीं हो कि मेरे चलाये हुए बाणसमूह शीघ्रगामी अर्जुनके रथके एक 
कोस पीछे पड़े हैं | २१ ।। 

नचाहं शीघ्रयाने5द्य समर्थो वयसान्वित: । 

सेनामुखे च पार्थानामेतद्‌ बलमुपस्थितम्‌ ।। २२ ।। 

मैं बूढ़ा हो गया। अतः अब मैं शीघ्रतापूर्वक रथ चलानेमें असमर्थ हूँ। इधर मेरी सेनाके 
सामने यह कुन्तीकुमारोंकी भारी सेना उपस्थित है || २२ ।। 

युधिष्ठिरश्न मे ग्राह्मो मिषतां सर्वधन्विनाम्‌ । 

एवं मया प्रतिज्ञातं क्षत्रमध्ये महाभुज ।। २३ ।। 

महाबाहो! मैंने क्षत्रियोंके बीचमें यह प्रतिज्ञा की है कि समस्त धनुर्धरोंके देखते-देखते 
युधिष्ठिरको कैद कर लूँगा ।। २३ ।। 

धनंजयेन चोत्सृष्टो वर्तते प्रमुखे नूप । 

तस्माद्‌ व्यूहमुखं हित्वा नाहं योत्स्यामि फाल्गुनम्‌ ।। २४ ।। 

नरेश्वर! इस समय युधिष्छिर अर्जुनसे रहित होकर मेरे सामने खड़े हैं। ऐसी अवस्थामें मैं 
व्यूहका द्वार छोड़कर अर्जुनके साथ युद्ध करनेके लिये नहीं जाऊँगा ।। २४ ।। 

तुल्याभिजनकर्माणं शत्रुमेक॑ सहायवान्‌ । 

गत्वा योधय मा भैस्त्व॑ त्वं हुस्य जगत: पति: ।। २५ ।। 

तुम्हारे शत्रु अर्जुन भी तो तुम्हारे-जैसे ही कुल और पराक्रमसे युक्त हैं। इस समय वे 
अकेले हैं और तुम सहायकोंसे सम्पन्न हो। (वे राज्यसे च्युत हो गये हैं और तुम) इस सम्पूर्ण 
जगतके स्वामी हो। अत: डरो मत। जाकर अर्जुनसे युद्ध करो ।। २५ ।। 

राजा शूर: कृती दक्षो वैरमुत्पाद्य पाण्डवै: । 

वीर स्वयं प्रयाह्वात्र यत्र पार्थो धनंजय: ।। २६ ।। 

तुम राजा, शूरवीर, विद्वान्‌ और युद्धकुशल हो। वीर! तुमने ही पाण्डवोंके साथ वैर 
बाँधा है। अतः जहाँ कुन्तीकुमार अर्जुन गये हैं, वहाँ उनसे युद्ध करनेके लिये स्वयं ही 
शीघ्रतापूर्वक जाओ ।। २६ ।। 

दुर्योधन उवाच 


कथं त्वामप्यतिक्रान्त: सर्वशस्त्रभूृतां बरम्‌ । 

धनंजयो मया शक्‍्य आचार्य प्रतिबाधितुम्‌ ।। २७ ।। 

दुर्योधन बोला--आचार्य! आप सम्पूर्ण शस्त्र-धारियोंमें श्रेष्ठ हैं। जो आपको भी 
लाँघकर आगे बढ़ गया, वह अर्जुन मेरे द्वारा कैसे रोका जा सकता है? ।। 

अपि शकक्‍्यो रणे जेतुं वजहस्त: पुरंदर: । 


नार्जुन: समरे शक्‍यो जेतुं परपुरंजय: ।। २८ ।। 

युद्धमें वज्रधारी इन्द्रकों भी जीता जा सकता है; परंतु समरांगणमें शत्रुओंकी 
राजधानीपर विजय पानेवाले अर्जुनको जीतना असम्भव है ।। २८ ।। 

येन भोज श्र हार्दिक्यो भवांक्ष त्रिदशोपम: । 

अस्त्रप्रतापेन जितौ श्रुतायुश्न निबर्हित: ।। २९ ।। 

सुदक्षिणश्व निहत: स च राजा श्रुतायुध: । 

श्रुतायुश्नाच्युतायुश्न म्लेच्छाश्वायुतशो हता: ।। ३० ।। 

त॑ं कथं पाण्डवं युद्धे दहन्‍्तमिव पावकम्‌ | 

प्रतियोत्स्यामि दुर्धर्ष तमहं शस्त्रकोविदम्‌ ।। ३१ ।। 

जिसने भोजवंशी कृतवर्मा तथा देवताओंके समान तेजस्वी आपको भी अपने अस्त्रके 
प्रतापसे पराजित कर दिया, श्रुतायुका संहार कर डाला, काम्बोजराज सुदक्षिण तथा राजा 
श्रुतायुधको भी मार डाला, श्रुतायु, अच्युतायु तथा सहसरों म्लेच्छ सैनिकोंके भी प्राण ले 
लिये, युद्धमें अग्निके समान शत्रुओंको दग्ध करनेवाले और अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता उस दुर्धर्ष 
वीर पाण्डुपुत्र अर्जुनके साथ मैं कैसे युद्ध कर सकूँगा? ।। २९--३१ ।। 

क्षमं च मन्यसे युद्ध मम तेनाद्य संयुगे । 

परवानस्मि भवति प्रेष्यवद्‌ रक्ष मद्यशः: ।। ३२ ।। 

यदि आज युद्धस्थलमें आप अर्जुनके साथ मेरा युद्ध करना उचित मानते हैं तो मैं एक 
सेवककी भाँति आपकी आज्ञाके अधीन हूँ। आप मेरे यशकी रक्षा कीजिये ।। ३२ ।। 

द्रोण उदाच 

सत्यं वदसि कौरव्य दुराधर्षो धनंजय: । 

अहं तु तत्‌ करिष्यामि यथैनं प्रसहिष्यसि ।। ३३ ।। 

द्रोणाचार्यने कहा--कुरुनन्दन! तुम ठीक कहते हो। अर्जुन अवश्य दुर्जय वीर हैं। 
परंतु मैं एक ऐसा उपाय कर दूँगा, जिससे तुम उनका वेग सह सकोगे ।। ३३ ।। 

अद्भुतं चाद्य पश्यन्तु लोके सर्वधनुर्धरा: । 

विषक्तं त्वयि कौन्तेयं वासुदेवस्य पश्यत: ।। ३४ ।। 

आज संसारके सम्पूर्ण धनुर्धर भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने ही कुन्तीकुमार अर्जुनको 
तुम्हारे साथ युद्धमें उलझे रहनेकी अद्भुत घटना देखें ।। ३४ ॥। 

एष ते कवचं राजंस्तथा बध्नामि काउ्चनम्‌ । 

यथा न बाणा नास्त्राणि प्रहरिष्यन्ति ते रणे ।। ३५ ।। 

राजन! मैं यह सुवर्णमय कवच तुम्हारे शरीरमें इस प्रकार बाँध देता हूँ, जिससे 
युद्धस्थलमें छूटनेवाले बाण और अन्य अस्त्र तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकेंगे || ३५ ।। 

यदि त्वां सासुरसुरा: सयक्षोरगराक्षसा: | 


योधयन्ति त्रयो लोका: सनरा नास्ति ते भयम्‌ ।। ३६ ।। 

यदि मनुष्योंसहित देवता, असुर, यक्ष, नाग, राक्षस तथा तीनों लोकके प्राणी तुमसे युद्ध 
करते हों तो भी आज तुम्हें कोई भय नहीं होगा || ३६ ।। 

न कृष्णो न च कौन्तेयो न चान्य: शस्त्रभृद्‌ रणे | 

शरानर्पयितुं कश्चित्‌ कवचे तव शक्ष्यति ।। ३७ ।। 

इस कवचके रहते हुए श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा दूसरे कोई शणस्त्रधारी योद्धा भी तुम्हें 
बाणोंद्वारा चोट पहुँचानेमें समर्थ न हो सकेंगे || ३७ ।। 

स त्वं कवचमास्थाय क्ुद्धमद्य रणेडर्जुनम्‌ । 

त्वरमाण: स्वयं याहि न त्वासौ विसहिष्यति ।। ३८ ।। 

अतः तुम यह कवच धारण करके शीघ्रतापूर्वक रणक्षेत्रमें कुपित हुए अर्जुनका सामना 
करनेके लिये स्वयं ही जाओ। वे तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे ।। ३८ ।। 

संजय उवाच 

एवमुकक्‍्त्वा त्वरन्‌ द्रोण: स्पृष्टवाम्भा वर्म भास्वरम्‌ । 

आबबन्धाद्भुततमं जपन्‌ मन्त्र यथाविधि ।। ३९ ।। 

रणे तस्मिन्‌ सुमहति विजयाय सुतस्य ते । 

विसिस्मापयिषुलोंकानू्‌ विद्यया ब्रह्मवित्तम: || ४० ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यने अपनी विद्याके 
प्रभावसे सब लोगोंको आश्वर्यमें डालनेकी इच्छा रखते हुए तुरंत आचमन करके उस 
महायुद्धमें आपके पुत्र दुर्योधनकी विजयके लिये उसके शरीरमें विधिपूर्वक मन्त्रजपके 
साथ-साथ वह अत्यन्त तेजस्वी अद्भुत कवच बाँध दिया ।। ३९-४० ।। 

द्रोण उदाच 

करोतु स्वस्ति ते ब्रह्म ब्रह्मा चापि द्विजातय: । 

सरीसूपाश्र ये श्रेष्ठास्तेभ्यस्ते स्वस्ति भारत ।। ४१ ।। 

द्रोणाचार्य बोले--भरतनन्दन! परब्रह्म परमात्मा तुम्हारा कल्याण करें। ब्रह्माजी तथा 
ब्राह्मण तुम्हारा मंगल करें। जो श्रेष्ठ सर्प हैं, उनसे भी तुम्हारा कल्याण हो ।। ४१ ।। 

ययातिर्नाहुषश्वैव धुन्धुमारो भगीरथ: । 

तुभ्यं राजर्षय: सर्वे स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा ।। ४२ ।। 

नहुषपुत्र ययाति, धुन्धुमार और भगीरथ आदि सभी राजर्षि सदा तुम्हारी भलाई 
करें ।। ४२ ।। 

स्वस्ति ते<स्त्वेकपादेभ्यो बहुपादेभ्य एव च । 

स्वस्त्यस्त्वपादकेभ्यश्व नित्यं तव महारणे || ४३ ।। 


इस महायुद्धमें एक पैरवाले, अनेक पैरवाले तथा पैरोंसे रहित प्राणियोंसे तुम्हारा नित्य 
मंगल हो ।। ४३ ।। 

स्वाहा स्वधा शची चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा । 

लक्ष्मीररुन्धती चैव कुरुतां स्वस्ति तेडनघ ।। ४४ ।। 

निष्पाप नरेश! स्वाहा, स्वधा और शची आदि देवियाँ तुम्हारा सदा कल्याण करें। लक्ष्मी 
और अरुन्धती भी तुम्हारा मंगल करें ।। ४४ ।। 

असितो देवलश्चैव विश्वामित्रस्तथाड्रिरा: । 

वसिष्ठ: कश्यपश्चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते नूप ।। ४५ ।। 

नरेश्वरर असित, देवल, विश्वामित्र, अंगिरा, वसिष्ठ तथा कश्यप तुम्हारा भला 
करें ।। ४५ ।। 

धाता विधाता लोकेशो दिशश्च सदिगी श्वरा: । 

स्वस्ति तेडद्य प्रयच्छन्तु कार्तिकेयश्व॒ षण्मुख: || ४६ ।। 

धाता, विधाता, लोकनाथ ब्रह्मा, दिशाएँ, दिक्पाल तथा षडानन कार्तिकेय भी आज 
तुम्हें कल्याण प्रदान करें ।। ४६ ।। 

विवस्वान्‌ भगवान्‌ स्वस्ति करोतु तव सर्वश: । 

दिग्गजाश्वैव चत्वार: क्षितिश्व गगन ग्रहा: ।। ४७ ।। 

भगवान्‌ सूर्य सब प्रकारसे तुम्हारा मंगल करें। चारों दिग्गज, पृथ्वी, आकाश और ग्रह 
तुम्हारा भला करें |। 

अधस्ताद्‌ धरणीं योडसौ सदा धारयते नृप । 

शेषश्व पन्नगश्रेष्ठ: स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु || ४८ ।। 

राजन! जो सदा इस पृथ्वीके नीचे रहकर इसे अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे 
पन्नगश्रेष्ठ भगवान्‌ शेषनाग तुम्हें कल्याण प्रदान करें || ४८ ।। 

गान्धारे युधि विक्रम्य निर्जिता: सुरसत्तमा: | 

पुरा वृत्रेण देत्येन भिन्नदेहा: सहस्रश: ।। ४९ ।। 

गान्धारीनन्दन! प्राचीन कालकी बात है, वृत्रासुरने युद्धमें पराक्रमपूर्वक सहसों श्रेष्ठ 
देवताओंके शरीरको विदीर्ण करके उन्हें परास्त कर दिया था ।। ४९ ।। 

हृततेजोबला: सर्वे तदा सेन्द्रा दिवौकस: । 

ब्रह्माणं शरणं जम्मुर्वत्राद्‌ भीता महासुरात्‌ || ५० ।। 

उस समय तेज और बलसे हीन हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता महान्‌ असुर वृत्रसे 
भयभीत हो ब्रह्माजीकी शरणमें गये || ५० ।। 

देवा ऊचु: 
प्रमर्दितानां वृत्रेण देवानां देवसत्तम | 


गतिर्भव सुरश्रेष्ठ त्राहि नो महतो भयात्‌ ।। ५१ ।। 

देवता बोले--देवप्रवर! सुरश्रेष्ठ! वृत्रासुरने जिन्हें सब प्रकारसे कुचल दिया है, उन 
देवताओंके लिये आप आश्रयदाता हों। महान्‌ भयसे हमारी रक्षा करें ।। 

अथ पाश्चे स्थितं विष्णु शक्रादीं श्व सुरोत्तमान्‌ 

प्राह तथ्यमिदं वाक्‍्यं विषण्णान्‌ सुरसत्तमान्‌ ।। ५२ ।। 

तब अपने पास खड़े हुए भगवान्‌ विष्णु तथा विषादमें भरे हुए इन्द्र आदि श्रेष्ठ 
देवताओंसे ब्रह्माजीने यह यथार्थ बात कही-- || ५२ ।। 

रक्ष्या मे सततं देवा: सहेन्द्रा: सद्विजातय:ः । 

त्वष्ट: सुदुर्धरं तेजो येन वृत्रो विनिर्मितः ।। ५३ ।॥ 

“देवताओ! इन्द्र आदि देवता और ब्राह्मण सदा ही मेरे रक्षणीय हैं। परंतु वृत्रासुरका 
जिससे निर्माण हुआ है, वह त्वष्टा प्रजापतिका अत्यन्त दुर्धर्ष तेज है ।। ५३ ।। 

त्वष्टा पुरा तपस्तप्त्वा वर्षायुतशतं तदा । 

वृत्रो विनिर्मितो देवा: प्राप्यानुज्ञां महेश्वरात्‌ ।। ५४ ।। 

“देवगण! प्राचीन कालमें त्वष्टा प्रजापतिने दस लाख वर्षोतक तपस्या करके भगवान्‌ 
शंकरसे वरदान पाकर वृत्रासुरको उत्पन्न किया था ।। ५४ ।। 

स तस्यैव प्रसादाद्‌ वो हन्यादेव रिपुर्बली । 

नागत्वा शंकरस्थानं भगवान्‌ दृश्यते हर: ॥। ५५ ।। 

“वह बलवान शत्रु भगवान्‌ शंकरके ही प्रसादसे निश्चय ही तुम सब लोगोंको मार 
सकता है। अतः भगवान्‌ शंकरके निवासस्थानपर गये बिना उनका दर्शन नहीं हो 
सकता || ५५ || 

दृष्टवा जेष्यथ वृत्र तं क्षिप्रं गच्छत मन्दरम्‌ | 

यत्रास्ते तपसां योनिर्दक्षयज्ञविनाशन: ।। ५६ ।। 

पिनाकी सर्वभूतेशो भगनेत्रनिपातन: । 

“उनका दर्शन पाकर तुमलोग वृत्रासुरको जीत सकोगे। अतः शीघ्र ही मन्दराचलको 
चलो, जहाँ तपस्याके उत्पत्तिस्थान, दक्षयज्ञविनाशक तथा भगदेवताके नेत्रोंका नाश 
करनेवाले सर्वभूतेश्वर पिनाकधारी भगवान्‌ शिव विराजमान हैं” ।। ५६३६ ।। 

ते गत्वा सहिता देवा ब्रह्म॒णा सह मन्दरम्‌ ।। ५७ ।। 

अपश्यंस्तेजसां राशिं सूर्यकोटिसमप्रभम्‌ । 

“तब एकत्र हुए उन सब देवताओंने ब्रह्माजीके साथ मन्दराचलपर जाकर करोड़ों 
सूर्योके समान कान्तिमान्‌ तेजोराशि भगवान्‌ शिवका दर्शन किया || ५७३ ।। 

सो<ब्रवीत्‌ स्वागत देवा ब्रुत किं करवाण्यहम्‌ ।। ५८ ।। 

अमोघं दर्शन मह्ूं कामप्राप्तिरतो<स्तु व: । 


उस समय भगवान्‌ शिवने कहा--“'देवताओ! तुम्हारा स्वागत है। बोलो, मैं तुम्हारे लिये 
क्या करूँ? मेरा दर्शन अमोघ है। अतः तुम्हें अपने अभीष्ट मनोरथोंकी प्राप्ति हो' ।। 

एवमुक्तास्तु ते सर्वे प्रत्यूचुस्तं दिवौकस: ।। ५९ ।। 

तेजो हूतं नो वृत्रेण गतिर्भव दिवौकसाम्‌ | 

मूर्तीरी क्षस्व नो देव प्रहारैर्जर्जरीकृता: । 

शरणं त्वां प्रपन्ना: सम गतिर्भव महेश्वर ।। ६० ।। 

उनके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता इस प्रकार बोले--'देव! वृत्रासुरने हमारा तेज हर 
लिया है। आप देवताओंके आश्रयदाता हों। महेश्वर! आप हमारे शरीरोंकी दशा देखिये। हम 
वृत्रासुरके प्रहारोंसे जर्जर हो गये हैं, इसलिये आपकी शरणमें आये हैं। आप हमें आश्रय 
दीजिये" ।। ५९-६० ।। 

शर्व उवाच 


विदितं वो यथा देवा: कृत्येयं सुमहाबला । 

त्वष्टस्तेजो भवा घोरा दुर्निवार्याकृतात्मभि: ।। ६१ |। 

भगवान्‌ शिव बोले--देवताओ! तुम्हें विदित हो कि यह प्रजापति त्वष्टाके तेजसे 
उत्पन्न हुई अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर कृत्या है। जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें 
नहीं किया है, ऐसे लोगोंके लिये इस कृत्याका निवारण करना अत्यन्त कठिन है ।। ६१ ।। 

अवश्यं तु मया कार्य साहां सर्वदिवौकसाम्‌ । 

ममेदं गात्रजं शक्र कवचं गृह भास्वरम्‌ ।। ६२ ।। 

तथापि मुझे सम्पूर्ण देवताओंकी सहायता अवश्य करनी चाहिये। अतः इन्द्र! मेरे 
शरीरसे उत्पन्न हुए इस तेजस्वी कवचको ग्रहण करो ।। ६२ ।। 

बधानानेन मन्त्रेण मानसेन सुरेश्वर । 

वधायासुरमुख्यस्य वृत्रस्य सुरघातिन: ।। ६३ ।। 

सुरेश्वर! मेरे बताये हुए इस मन्त्रका मानसिक जप करके असुरमुख्य देवशत्रु वृत्रका 
वध करनेके लिये इसे अपने शरीरमें बाँध लो || ६३ ।। 

द्रोण उदाच 

इत्युक्त्वा वरद: प्रादाद्‌ वर्म तन्मन्त्रमेव च । 

स तेन वर्मणा गुप्त: प्रायाद्‌ वृत्रचमूं प्रति ।। ६४ ।। 

द्रोणाचार्य कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर वरदायक भगवान्‌ शंकरने वह कवच और 
उसका मन्त्र उन्हें दे दिया। उस कवचसे सुरक्षित हो इन्द्र वृत्रासुरकी सेनाका सामना करनेके 
लिये गये ।। ६४ ।। 

नानाविधैश्न शस्त्रौधै: पात्यमानैर्महारणे । 

न संधि: शक्‍्यते भेत्तुं वर्मबन्धस्य तस्य तु ।। ६५ ।। 


उस महान्‌ युद्धमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंक समुदाय उनके ऊपर चलाये गये; परंतु 
उनके द्वारा इन्द्रके उस कवच-बन्धनकी सन्धि भी नहीं काटी जा सकी ।। 

ततो जघान समरे वृत्रं देवपति: स्वयम्‌ । 

तं च मन्त्रमयं बन्धं वर्म चाड्िरसे ददौ ।। ६६ ।। 

तदनन्तर देवराज इन्द्रने स्वयं ही समरांगणमें वृत्रासुरको मार डाला। इसके बाद उन्होंने 
वह कवच तथा उसे बाँधनेकी मन्त्रयुक्त विधि अंगिराको दे दी ।। ६६ ।। 

अड्विराः प्राह पुत्रस्य मन्त्रज्ञस्थ बृहस्पते: । 

बृहस्पतिरथोवाच आग्निवेश्याय धीमते ।। ६७ ।। 

अंगिराने अपने मन्त्रज्ञ पुत्र बृहस्पतिको उसका उपदेश दिया और बृहस्पतिने परम 
बुद्धिमान्‌ आग्निवेश्यको यह विद्या प्रदान की | ६७ ।। 

आनिनिवेश्यो मम प्रादात्‌ तेन बध्नामि वर्म ते । 

तवाद्य देहरक्षार्थ मन्त्रेण नृपसत्तम ।। ६८ ।। 

आग्निवेश्यने मुझे उसका उपदेश किया था। नृपश्रेष्ठ) उसी मन्त्रसे आज तुम्हारे 
शरीरकी रक्षाके लिये मैं यह कवच बाँध रहा हूँ || ६८ ।। 

संजय उवाच 

एवमुकक्‍्त्वा ततो द्रोणस्तव पुत्र॑ महाद्युतिम्‌ । 

पुनरेव वच: प्राह शनैराचार्यपुजड्रव: ।। ६९ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! वहाँ आपके महातेजस्वी पुत्रसे यह प्रसंग सुनाकर 
आचार्यशिरोमणि द्रोणने पुनः धीरेसे यह बात कही-- ।। ६९ |। 

ब्रह्मसूत्रेण बध्नामि कवचं तव भारत । 

हिरण्यगर्भेण यथा बद्धं विष्णो: पुरा रणे || ७० ।। 

'भारत! जैसे पूर्वकालमें रणक्षेत्रमें भगवान्‌ ब्रह्माने श्रीविष्णुके शरीरमें कवच बाँधा था, 
उसी प्रकार मैं भी ब्रह्मसूत्रसे तुम्हारे इस कवचको बाँधता हूँ | ७० ।। 

यथा च ब्रह्माणा बद्धं संग्रामे तारकामये । 

शक्रस्य कवचं दिव्यं तथा बध्नाम्यहं तव ।। ७३ ।। 

“तारकामय संग्राममें ब्रह्माजीने इन्द्रके शरीरमें जिस प्रकार दिव्य कवच बाँधा था, उसी 
प्रकार मैं भी तुम्हारे शरीरमें बाँध रहा हूँ || ७१ ।। 

बद्ध्वा तु कवचं तस्य मन्त्रेण विधिपूर्वकम्‌ | 

प्रेषयामास राजानं युद्धाय महते द्विज: ।॥ ७२ ।। 

इस प्रकार मन्त्रके द्वारा राजा दुर्योधनके शरीरमें विधिपूर्वक कवच बाँधकर विप्रवर 
द्रोणाचार्यने उसे महान्‌ युद्धके लिये भेजा || ७२ ।। 

स संनद्धों महाबाहुराचार्येण महात्मना । 


रथानां च सहस्रेण त्रिगर्तानां प्रहारिणाम्‌ | ७३ ।। 

तथा दन्तिसहस्रेण मत्तानां वीर्यशालिनाम्‌ । 

अश्वानां नियुतेनैव तथान्यैश्व महारथै: ।। ७४ ।। 

वृतः प्रायान्महाबाहुरर्जुनस्य रथं प्रति । 

नानावादित्रघोषेण यथा वैरोचनिस्तथा ।। ७५ ।। 

महामना आचार्यके द्वारा अपने शरीरमें कवच बाँध जानेपर महाबाहु दुर्योधन प्रहार 
करनेमें कुशल एक सहख्र त्रिगर्तदेशीय रथियों, एक सहस््र पराक्रमशाली मतवाले 
हाथीसवारों, एक लाख घुड़सवारों तथा अन्य महारथियोंसे घिरकर नाना प्रकारके 
रणवाद्योंकी ध्वनिके साथ अर्जुनके रथकी ओर चला। ठीक उसी तरह, जैसे राजा बलि 
(इन्द्रके साथ युद्धके लिये) यात्रा करते हैं || ७३--७४ ।। 

ततः शब्दो महानासीत्‌ सैन्यानां तव भारत । 

अगाध॑ प्रस्थितं दृष्टवा समुद्रमिव कौरवम्‌ ।। ७६ ।। 

भारत! उस समय अगाध समुद्रके समान कुरुनन्दन दुर्योधनको युद्धके लिये प्रस्थान 
करते देख आपकी सेनामें बड़े जोरसे कोलाहल होने लगा ।। ७६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनकवचबन्धने 
चतुर्नवतितमो<ध्याय: ।। ९४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वनें दुर्योधनका कवच- 
बन्धनविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९४ ॥ 


व बछ। जि 


पञ्चनवतितमो< ध्याय: 


द्रोण और धृष्टद्युम्नका भीषण संग्राम तथा उभय पक्षके 
प्रमुख वीरोंका परस्पर संकुल युद्ध 
संजय उवाच 

प्रविष्टयोर्महाराज पार्थवाष्णेययो रणे । 

दुर्योधने प्रयाते च पृष्ठतः पुरुषर्षभे ।। १ ।। 

जवेनाभ्यद्रवन्‌ द्रोणं महता नि:स्वनेन च । 

पाण्डवा: सोमकै: सार्ध ततो युद्धमवर्तत ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! उस रफणक्षेत्रमें जब श्रीकृष्ण और अर्जुन कौरव-सेनाके 
भीतर प्रवेश कर गये तथा पुरुषप्रवर दुर्योधन उनका पीछा करता हुआ आगे बढ़ गया, तब 
सोमकोंसहित पाण्डवोंने बड़ी भारी गर्जनाके साथ द्रोणाचार्यपर वेगपूर्वक धावा किया। 
फिर तो वहाँ बड़े जोरसे युद्ध होने लगा ।। १-२ ।। 

तद्‌ युद्धमभवत्‌ तीव्र तुमुलं लोमहर्षणम्‌ । 

कुरूणां पाण्डवानां च व्यूहस्य पुरतो5द्भधुतम्‌ ।। ३ ।। 

व्यूहके द्वारपर होनेवाला कौरवों तथा पाण्डवोंका वह अद्भुत युद्ध अत्यन्त तीव्र एवं 
भयंकर था। उसे देखकर लोगोंके रोंगटे खड़े हो जाते थे ।। ३ ।। 

राजन्‌ कदाचित्नास्माभिद्दष्ट तादूडू न च श्रुतम्‌ । 

यादृड मध्यगते सूर्य युद्धमासीद्‌ विशाम्पते ।। ४ ।। 

राजन! प्रजानाथ! वहाँ मध्याह्नकालमें जैसा वह युद्ध हुआ था, वैसा न तो मैंने कभी 
देखा था और न सुना ही था || ४ ।। 

धृष्टद्युम्नमुखा: पार्था व्यूढानीका: प्रहारिण: । 

द्रोणस्य सैन्यं ते सर्वे शरवर्षैरवाकिरन्‌ ।। ५ |। 

धृष्टद्युम्म आदि पाण्डवपक्षीय सब प्रहारकुशल योद्धा अपनी सेनाका व्यूह बनाकर 
द्रोणाचार्यकी सेनापर बाणोंकी वर्षा करने लगे || ५ ।। 

वयं द्रोणं पुरस्कृत्य सर्वशस्त्रभृतां वरम्‌ । 

पार्षतप्रमुखान्‌ पार्थनिभ्यवर्षाम सायकै: ।। ६ ।। 

उस समय हमलोग सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्यको आगे करके धृष्टद्युम्न आदि 
पाण्डव-सैनिकोंपर बाण-वर्षा कर रहे थे || ६ ।। 

महामेघाविवोदीर्णों मिश्रवातौ हिमात्यये । 

सेनाग्रे प्रचकाशेते रुचिरे रथभूषिते ।। ७ ।। 


रथोंसे विभूषित हुई वे दोनों प्रधान एवं सुन्दर सेनाएँ हेमनतके अन्त (शिशिर)-में उठे 
हुए वायुयुक्त दो महामेघोंके समान प्रकाशित हो रही थीं ।। ७ ।। 

समेत्य तु महासेने चक्रतुर्वेगमुत्तमम्‌ । 

जाह्नवीयमुने नद्यौ प्रावषीवोल्बणोदके ।। ८ ।। 

वे दोनों विशाल सेनाएँ परस्पर भिड़कर विजयके लिये बड़े वेगसे आगे बढ़नेका प्रयत्न 
करने लगीं; मानो वर्षा-ऋतुमें जलकी बाढ़ आनेसे बड़ी हुई गंगा और यमुना दोनों नदियाँ 
बड़े वेगसे मिल रही हों ।। ८ ।। 

नानाशस्त्रपुरोवातो द्विपाश्वरथसंवृतः । 

गदाविद्युन्महारौद्र: संग्रामजलदो महान्‌ ।। ९ ।। 

भारद्वाजानिलोद्धूत: शरधारासहस्रवान्‌ । 

अभ्यवर्षन्महासैन्य: पाण्डुसेनाग्निमुद्धतम्‌ ।। १० ।। 

उस समय महान्‌ सैन्यदलसे संयुक्त एवं हाथी, घोड़े और रथोंसे भरा हुआ वह संग्राम 
महान्‌ मेघके समान जान पड़ता था। नाना प्रकारके शस्त्र पूर्ववात (पुरवैया)-के तुल्य चल 
रहे थे। गदाएँ विद्युतके समान प्रकाशित होती थीं। देखनेमें वह संग्राम-मेघ बड़ा भयंकर 
जान पड़ता था। द्रोणाचार्य वायुके समान उसे संचालित कर रहे थे तथा उससे बाणरूपी 
जलकी सहसोौरों धाराएँ गिर रही थीं और इस प्रकार वह अग्निके समान उठी हुई पाण्डव- 
सेनापर सब ओरसे वर्षा कर रहा था ।। ९-१० |। 

समुद्रमिव घर्मान्ते विशन्‌ घोरो महानिल: । 

व्यक्षो भयदनीकानि पाण्डवानां द्विजोत्तम: ।। ११ ।। 

जैसे ग्रीष्म-ऋतुके अन्तमें बड़े जोरसे उठी हुई भयंकर वायु महासागरमें क्षोभ उत्पन्न 
करके वहाँ ज्वारका दृश्य उपस्थित कर देती है, उसी प्रकार विप्रवर द्रोणाचार्यने पाण्डव- 
सेनामें हलचल मचा दी ।। ११ ।। 

तेडपि सर्वप्रयत्नेन द्रोणमेव समाद्रवन्‌ । 

बिभित्सन्तो महासेतु वार्योघा: प्रबला इव ।। १२ ।। 

पाण्डव-योद्धाओंने भी सारी शक्ति लगाकर द्रोणपर ही धावा किया था; मानो पानीके 
प्रखर प्रवाह किसी महान्‌ पुलको तोड़ डालना चाहते हों ।। १२ ।। 

वारयामास तान्‌ द्रोणो जलौघमचलो यथा । 

पाण्डवान्‌ समरे क्रुद्धान्‌ पज्चलांश्व सकेकयान्‌ ।। १३ ।। 

जैसे सामने खड़ा हुआ पर्वत आती हुर्ह जलराशिको रोक देता है, उसी प्रकार 
समरांगणमें द्रोणाचार्यने कुपित हुए पाण्डवों, पांचालों तथा केकयोंको रोक दिया 
था | १३ || 

अथापरे च राजान: परिवृत्य समन्ततः । 

महाबला रणे शूरा: पञ्चालानन्ववारयन्‌ ।। १४ ।। 


इसी प्रकार दूसरे महाबली शूरवीर नरेश भी उस युद्धस्थलमें सब ओरसे लौटकर 
पांचालोंका ही प्रतिरोध करने लगे || १४ ।। 

ततो रणे नरव्यात्र: पार्षत: पाण्डवै: सह । 

संजघानासकृद्‌ द्रोणं बिभित्सुररिवाहिनीम्‌ ।। १५ ।। 

तदनन्तर रणक्षेत्रमें पाण्डवोंसहित नरश्रेष्ठ धृष्टद्युम्नने शत्रुसेनाके व्यूहका भेदन करनेकी 
इच्छासे द्रोणाचार्यपर बारंबार प्रहार किया || १५ ।। 

यथैव शरवर्षाणि द्रोणो वर्षति पार्षते । 

तथैव शरवर्षाणि धृष्टद्युम्नो5प्यवर्षत ।। १६ ।। 

आचार्य द्रोण धृष्टद्युम्मपर जैसे बाणोंकी वर्षा करते थे, धृष्टद्युम्न भी द्रोणपर वैसे ही 
बाण बरसाते थे ।। १६ ।। 

सनिस्त्रिंशपुरोवात: शक्तिप्रासर्डिसंवृत: । 

ज्याविद्युच्चापसंदह्वादो धृष्टदुम्नबलाहक: ।। १७ ।। 

शरधाराश्मवर्षाणि व्यसृजत्‌ सर्वतो दिशम्‌ | 

निघ्नन्‌ रथवराश्वौघान्‌ प्लावयामास वाहिनीम्‌ ।। १८ ।। 

उस समय धृष्टद्युम्न एक महामेघके समान जान पड़ते थे। उनकी तलवार पुरवैया 
हवाके समान चल रही थी। वे शक्ति, प्रास एवं ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे। उनकी 
प्रत्यंचा विद्युतके समान प्रकाशित होती थी। धनुषकी टंकार मेघगर्जनाके समान जान 
पड़ती थी। उस धृष्टद्युम्नरूपी मेघने श्रेष्ठ रथी और घुड़सवारोंके समूहरूपी खेतीको नष्ट 
करनेके लिये सम्पूर्ण दिशाओंमें बाणरूपी जलकी धारा और अस्त्र-शस्त्ररूपी पत्थर 
बरसाते हुए शत्रु-सेनाको आप्लावित कर दिया ।। १७-१८ ।। 

यं यमार्च्छच्छरैद्रोण: पाण्डवानां रथव्रजम्‌ । 

ततस्तत: शरैद्रोणमपाकर्षत पार्षत: | १९ ।। 

द्रोणाचार्य बाणोंद्वारा पाण्डवोंकी जिस-जिस रथसेनापर आक्रमण करते थे, धृष्टद्युम्न 
तत्काल बाणोंकी वर्षा करके उस-उस ओरसे उन्हें लौटा देते थे || १९ ।। 

तथा तु यतमानस्य द्रोणस्य युधि भारत । 

धृष्टद्युम्न॑ समासाद्य त्रिधा सैन्यमभिद्यत ।। २० ।। 

भारत! युद्धमें इस प्रकार विजयके लिये प्रयत्नशील हुए द्रोणाचार्यकी सेना धृष्टद्युम्नके 
पास पहुँचकर तीन भागोंमें बँट गयी ।। २० ।। 

भोजमेके<भ्यवर्तन्त जलसंधं तथापरे । 

पाण्डवै्न्यमानाश्न द्रोणमेवापरे ययु: ॥। २१ ।। 

पाण्डव-योद्धाओंकी मार खाकर कुछ सैनिक कृतव्माके पास चले गये, दूसरे 
जलसंधके पास भाग गये और शेष सभी योद्धा द्रोणाचार्यका ही अनुसरण करने 
लगे | २१ ।। 


संघट्टयति सैन्यानि द्रोणस्तु रथिनां वर: । 

व्यधमच्चापि तान्यस्य धृष्टद्युम्नो महारथ: ।। २२ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोण बारंबार अपनी सेनाओंको संगठित करते और महारथी धुष्टद्युम्न 
उनकी सब सेनाओंको छित्न-भिन्न कर देते थे | २२ ।। 

धार्रराष्ट्रास्तथाभूता वध्यन्ते पाण्डुसृञ्जयै: । 

अगोपा: पशवो<रण्ये बहुभि: श्वापदैरिव ।। २३ ।। 

जैसे वनमें बिना रक्षकके पशुओंको बहुत-से हिंसक जन्तु मार डालते हैं, उसी प्रकार 
पाण्डव और सूंजय आपके सैनिकोंका वध कर रहे थे || २३ ।। 

काल: सम ग्रसते योधान्‌ धृष्टद्युम्नेन मोहितान्‌ | 

संग्रामे तुमुले तस्मिन्निति सम्मेनिरे जना: ।। २४ ।। 

उस भयंकर संग्राममें सब लोग ऐसा मानने लगे कि काल ही धृष्टद्युम्नके द्वारा 
कौरवयोद्धाओंको मोहित करके उन्हें अपना ग्रास बना रहा है || २४ ।। 

कुनृपस्य यथा राष्ट्र दुर्भिक्षव्याधितस्करै: । 

द्राव्यते तद्गधदापन्ना पाण्डवैस्तव वाहिनी ।। २५ ।। 

जैसे दुष्ट राजाका राज्य दुर्भिक्ष, भाँति-भाँतिकी बीमारी और चोर-डाकुओंके उपद्रवके 
कारण उजाड़ हो जाता है, उसी प्रकार पाण्डव-सैनिकोंद्वारा विपत्तिमें पड़ी हुई आपकी 
सेना इधर-उधर खदेड़ी जा रही थी ।। २५ ।। 

अर्करश्मिविभिश्रेषु शस्त्रेषु कवचेषु च । 

चक्षूंषि प्रत्यहन्यन्त सैन्येन रजसा तथा ।। २६ ।। 

योद्धाओंके अस्त्र-शस्त्रों और कवचोंपर सूर्यकी किरणें पड़नेसे वहाँ आँखें चौंधिया 
जाती थीं और सेनासे इतनी धूल उठती थी कि उससे सबके नेत्र बंद हो जाते थे || २६ ।। 

त्रिधाभूतेषु सैन्येषु वध्यमानेषु पाण्डवै: । 

अमर्षितस्ततो द्रोण: पञ्चालान्‌ व्यधमच्छरै: || २७ ।। 

जब पाण्डवोंके द्वारा मारी जाती हुई कौरव-सेना तीन भागोंमें बँट गयी, तब 
द्रोणाचार्यने अत्यन्त कुपित होकर अपने बाणोंद्वारा पांचालोॉंका विनाश आरम्भ 
किया ।। २७ |। 

मृद्नतस्तान्यनीकानि निध्नतश्चापि सायकै: । 

बभूव रूपं॑ द्रोणस्प कालाग्नेरिव दीप्यत: ।। २८ ।। 

पांचालोंकी उन सेनाओंको रौंदते और बाणोंद्वारा उनका संहार करते हुए द्रोणाचार्यका 
स्वरूप प्रलयकालकी प्रज्वलित अग्निके समान जान पड़ता था ।॥| २८ |॥। 

रथं नागं हयं॑ चापि पत्तिनश्न विशाम्पते । 

एकैकेनेषुणा संख्ये निर्बिभेद महारथ: ।। २९ ।। 


प्रजानाथ! महारथी द्रोणने उस युद्धस्थलमें शत्रुसेनाके प्रत्येक रथ, हाथी, अश्व और 
पैदल सैनिकको एक-एक बाणसे घायल कर दिया ।। २९ |। 

पाण्डवानां तु सैन्येषु नास्ति कश्चित्‌ स भारत । 

दधार यो रणे बाणान्‌ द्रोणचापच्युतान्‌ प्रभो || ३० ।। 

भारत! प्रभो! उस समय पाण्डवोंकी सेनामें कोई ऐसा वीर नहीं था, जो रणक्षेत्रमें 
द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए बाणोंको धैर्यपूर्वक सह सका हो ।। ३० ।। 

तत्‌ पच्यमानमर्केण द्रोणसायकतापितम्‌ | 

बश्राम पार्षत॑ सैन्यं तत्र तत्रैव भारत ।। ३१ ।। 

भरतनन्दन! सूर्यके द्वारा अपनी किरणोंसे पकायी जाती हुई-सी धृष्टद्युम्नकी सेना 
द्रोणाचार्यके बाणोंसे संतप्त हो जहाँ-तहाँ चक्कर काटने लगी ।। ३१ ।। 

तथैव पार्षतेनापि काल्यमानं बलं तव । 

अभवत्‌ सर्वतो दीप्तं शुष्क वनमिवाग्निना ।। ३२ || 

इसी प्रकार धृष्टद्युम्नके द्वारा खदेड़ी जाती हुई आपकी सेना भी सब ओरसे आग लग 
जानेके कारण प्रज्वलित हुए सूखे वनकी भाँति दग्ध हो रही थी || ३२ ।। 

बाध्यमानेषु सैन्येषु द्रोणपार्षतसायकै: । 

त्यक्त्वा प्राणान्‌ परं शक्‍्त्या युध्यन्ते सर्वतोमुखा: ।। ३३ ।। 

द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नके बाणोंद्वारा सेनाओंके पीड़ित होनेपर भी सब लोग प्राणोंका 
मोह छोड़कर पूरी शक्तिसे सब ओर युद्ध कर रहे थे ।। ३३ ।। 

तावकानां परेषां च युध्यतां भरतर्षभ । 

नासीत्‌ कश्चिन्महाराज योज्त्याक्षीत्‌ संयुगं भयात्‌ ।। ३४ ।। 

भरतभूषण! महाराज! वहाँ युद्ध करते हुए आपके और शत्रुओंके योद्धाओंमें कोई 
ऐसा नहीं था, जिसने भयके कारण युद्धका मैदान छोड़ दिया हो ।। ३४ ।। 

भीमसेन तु कौन्तेयं सोदर्या: पर्यवारयन्‌ । 

विविंशतिकश्षित्रसेनो विकर्णश्ष्‌ महारथ: ।। ३५ ।। 

उस समय विविंशति, चित्रसेन तथा महारथी विकर्ण--इन तीनों भाइयोंने कुन्तीपुत्र 
भीमसेनको घेर लिया ।। ३५ ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यी क्षेमधूर्तिश्व वीर्यवान्‌ । 

त्रयाणां तव पुत्राणां त्रय एवानुयायिन: ।। ३६ ।। 

अवन्‍न्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्द तथा पराक्रमी क्षेमधूर्ति--ये तीनों ही आपके 
पूर्वोक्त तीनों पुत्रोंके अनुयायी थे ।। ३६ ।। 

बाह्लीकराजस्तेजस्वी कुलपुत्रो महारथ: । 

सहसेन: सहामात्यो द्रौपदेयानवारयत्‌ ।। ३७ ।। 


उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए तेजस्वी महारथी बाह्लीकराजने सेना और मन्त्रियोंसहित 
जाकर द्रौपदी-पुत्रोंको रोका | ३७ ।। 

शैब्यो गोवासनो राजा योधैर्दशशतावरै: । 

काश्यस्याभि भुव: पुत्र पराक्रान्तमवारयत्‌ ।। ३८ ।। 

शिबिदेशीय राजा गोवासनने कम-से-कम एक सहस्र योद्धा साथ लेकर काशिराज 
अभिभूके पराक्रमी पुत्रका सामना किया ।। ३८ ।। 

अजातशशत्रुं कौन्तेयं ज्वलन्तमिव पावकम्‌ | 

मद्राणामी श्वर: शल्यो राजा राजानमावृणोत्‌ ।। ३९ ।। 

प्रजवलित अग्निके समान तेजस्वी अजातशशत्रु कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरका सामना 
मद्रदेशके स्वामी राजा शल्यने किया ।। ३९ ।। 

दुःशासनस्त्ववस्थाप्य स्वमनीकममर्षण: । 

सात्यकिं प्रत्ययौ क्रुद्ध: शूरो रथवरं युधि ।। ४० ।। 

अमर्षशील शूरवीर दुःशासनने अपनी भागती हुई सेनाको पुनः स्थिरतापूर्वक स्थापित 
करके कुपित हो युद्धस्थलमें रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकिपर आक्रमण किया ।। 

स्वकेनाहमनीकेन संनद्ध: कवचावृत: । 

चतुःशतैर्महेष्वासै श्वेकितानमवारयम्‌ ।। ४१ ।। 

अपनी सेना तथा चार सौ महाथधनुर्धरोंक साथ कवच धारण करके सुसज्जित हो मैंने 
चेकितानको रोका ।। ४१ ।। 

शकुनिस्तु सहानीको माद्रीपुत्रमवारयत्‌ । 

गान्धारकै:ः सप्तशतैश्लापशक्त्यसिपाणिशभि: || ४२ ।। 

सेनासहित शकुनिने माद्रीपुत्र नकुलका प्रतिरोध किया। उसके साथ हाथोंमें धनुष, 
शक्ति और तलवार लिये सात सौ गान्धार-देशीय योद्धा मौजूद थे ।। ४२ ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराट मत्स्यमार्च्छताम्‌ । 

प्राणांस्त्यक्त्वा महेष्वासौ मित्रार्थे भ्युद्यतायुधौ ।। ४३ ।। 

अवन्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्दने मत्स्य-नरेश विराटपर आक्रमण किया। 
उन दोनों महाधनुर्धर वीरोंने प्राणोंका मोह छोड़कर अपने मित्र दुर्योधनके लिये हथियार 
उठाया था ।। ४३ ।। 

शिखण्डिनं याज्ञसेनिं रुन्धानमपराजितम्‌ । 

बाह्लीक: प्रतिसंयत्त: पराक्रान्तमवारयत्‌ ।। ४४ ।। 

किसीसे परास्त न होनेवाले पराक्रमी यज्ञसेन-कुमार शिखण्डीको, जो राह रोककर 
खड़ा था, बाह्लीकने पूर्ण प्रयत्नशील होकर रोका ।। ४४ ।। 

धृष्टय्युम्नं तु पाज्चाल्यं क्रूरै: सार्थ प्रभद्रकै: । 

आवन्त्य: सहसौवीरै: क्रुद्धसरूपमवारयत्‌ ।। ४५ ।। 


अवन्तीके एक दूसरे वीरने क्रूर स्वभाववाले प्रभद्रकों और सौवीरदेशीय सैनिकोंके 
साथ आकर क्रोधमें भरे हुए पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नको रोका ।। 

घटोत्कचं तथा शूरं राक्षसं क्रूरकर्मिणम्‌ । 

अलायुधोडद्रवत्‌ तूर्ण क्रुद्धमायान्तमाहवे ।। ४६ ।। 

क्रोधमें भरकर युद्धके लिये आते हुए क्रूरकर्मा तथा शूरवीर राक्षस घटोत्कचपर 
अलायुधने शीघ्रतापूर्वक आक्रमण किया ।। ४६ ।। 

अलम्बुषं राक्षसेन्द्रे कुन्तिभोजो महारथ: । 

सैन्येन महता युक्त: क्रुद्धसब्पमवारयत्‌ ।। ४७ ।। 

पाण्डवपक्षके महारथी राजा कुन्तिभोजने विशाल सेनाके साथ आकर कुपित हुए 
कौरवपक्षीय राक्षसराज अलम्बुषका सामना किया ।। ४७ ।। 

सैन्धव: पृष्ठतस्त्वासीत्‌ सर्वसैन्यस्य भारत । 

रक्षित: परमेष्वासै: कृपप्रभृतिभी रथै: ।। ४८ ।। 

भरतनन्दन! उस समय सिंधुराज जयद्रथ सारी सेनाके पीछे महाधनुर्धर कृपाचार्य 
आदि रथियोंसे सुरक्षित था ।। 

तस्यास्तां चक्ररक्षौ द्वौ सैन्धवस्य बृहत्तमौ । 

दौणिर्दक्षिणतो राजन्‌ सूतपुत्रश्न वामत: ।। ४९ ।। 

राजन! जयद्रथके दो महान्‌ चक्ररक्षक थे। उसके दाहिने चक्रकी अश्वत्थामा और बायें 
चक्रकी रक्षा सूतपुत्र कर्ण कर रहा था ।। ४९ ।। 

पृष्ठगोपास्तु तस्यासन्‌ सौमदत्तिपुरोगमा: । 

कृपश्च वृषसेनश्व॒ शल: शल्यश्न दुर्जय: ।। ५० ।। 

नीतिमन्तो महेष्वासा: सर्वे युद्धविशारदा: । 

सैन्धवस्य विधायैवं रक्षां युयुधिरे ततः ।। ५१ ।। 

भूरिश्रवा आदि वीर उसके पृष्ठ भागकी रक्षा करते थे। कृप, वृषसेन, शल और दुर्जय 
वीर शल्य--ये सभी नीतिज्ञ, महान्‌ धनुर्धर एवं युद्धकुशल थे और इस प्रकार सिंधुराजकी 
रक्षाका प्रबन्ध करके वहाँ युद्ध कर रहे थे || ५०-५१ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संकुलयुद्धे पजचनवतितमो ध्याय: 

॥| ९५ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संकुलयुद्धाविषयक पंचानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९५ ॥ 


पम्प छा अर: 


षण्णवतितमो< ध्याय: 
दोनों पक्षोंके प्रधान वीरोंका दन्द्ध-युद्ध 


संजय उवाच 

राजन संग्राममाश्चर्य श्रुणु कीर्तयतो मम । 

कुरूणां पाण्डवानां च यथा युद्धमवर्तत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! कौरवों और पाण्डवोंमें जिस प्रकार युद्ध हुआ था, उस 
आश्चर्यमय संग्रामका मैं वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनिये-- ।। १ ।। 

भारद्वाजं समासाद्य व्यूहस्य प्रमुखे स्थितम्‌ । 

अयोधयन्‌ रणे पार्था द्रोणानीकं॑ बिभित्सव: ॥। २ ।। 

व्यूहके द्वारपर खड़े हुए द्रोणाचार्यके पास आकर पाण्डवगण उनकी सेनाके व्यूहका 
भेदन करनेकी इच्छासे रणक्षेत्रमें उनके साथ युद्ध करने लगे ।। २ ।। 

रक्षमाण: स्वकं व्यूहं दोणो5पि सह सैनिकै: । 

अयोधयदू रणे पार्थान्‌ प्रार्थयानो महद्‌ यश: ।। ३ ।। 

द्रोणाचार्य भी महान्‌ यशकी अभिलाषा रखकर अपने व्यूहकी रक्षा करते हुए बहुत-से 
सैनिकोंको साथ लेकर समरांगणमें कुन्तीपुत्रोंके साथ युद्धमें संलग्न हो गये ।। ३ ।। 

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराट दशभि: शरै: । 

आजल्नतुः सुसंक्रुद्धौं तव पुत्रहितैषिणौं ।। ४ ।। 

आपके पुत्रका हित चाहनेवाले अवन्तीके राजकुमार विन्द और अनुविन्दने अत्यन्त 
कुपित हो राजा विराटको दस बाण मारे ।। ४ ।। 

विराटश्न महाराज तावुभौ समरे स्थितौ । 

पराकान्तौ पराक्रम्य योधयामास सानुगौ ।। ५ ।। 

महाराज! राजा विराटने भी समरभूमिमें अनुचरोंसहित खड़े हुए उन दोनों पराक्रमी 
वीरोंके साथ पराक्रमपूर्वक युद्ध किया ।। ५ ।। 

तेषां युद्धं समभवद्‌ दारुणं शोणितोदकम्‌ । 

सिंहस्य द्विपमुख्याभ्यां प्रभिन्नाभ्यां यथा वने ।। ६ ।। 

जैसे वनमें सिंहका दो मदस्रावी महान्‌ हाथियोंके साथ युद्ध हो रहा हो, उसी प्रकार 
विराट और विन्द-अनुविन्दमें बड़ा भयंकर संग्राम होने लगा, जहाँ पानीकी तरह खून बहाया 
जा रहा था || ६ || 

बाह्लीकं रभसं युद्धे याज्ञसेनिर्महाबल: । 

आजल्ने विशिखैस्ती&णैघोरै मर्मास्थिभेदिभि: || ७ ।। 


महाबली शिखण्डीने युद्धस्थलमें वेगशाली बाह्लीकको मर्मस्थानों और हड्डियोंको 
विदीर्ण कर देनेवाले भयंकर तीखे बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी ।। 

बाह्लीको याज्ञसेनिं तु हेमपुड्खै: शिलाशितै: । 

आजयचघान भृशं क्रुद्धो नवभिर्नतपर्वभि: ।। ८ ।। 

इससे बाह्लीक अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने शानपर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखसे 
युक्त और झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणोंद्वारा शिखण्डीको घायल कर दिया ।। ८ ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ घोरं शरशक्तिसमाकुलम्‌ | 

भीरूणां त्रासजननं शूराणां हर्षवर्धनम्‌ ।। ९ ।। 

उन दोनोंके उस युद्धने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। उसमें बाणों और शक्तियोंका 
ही अधिक प्रहार हो रहा था। वह भीरु पुरुषोंके हृदयमें भय और शूरवीरोंके हृदयमें हर्षकी 
वृद्धि करनेवाला था ।। ९ |। 

ताभ्यां तत्र शरैर्मुक्तिरन्तरिक्षं दिशस्तथा । 

अभवत् संवृतं सर्व न प्राज्ञायत किंचन ।। १० ।। 

उन दोनों भाइयोंके छोड़े हुए बाणोंसे वहाँ आकाश और दिशाएँ--सब कुछ व्याप्त हो 
गया। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था ।। १० ।। 

शैब्यो गोवासनो युद्धे काश्यपुत्र॑ महारथम्‌ । 

ससैन्यो योधयामास गज: प्रतिगजं यथा ।। ११ ।। 

शिवबिदेशीय गोवासनने सेनासहित सामने जा काशिराजके महारथी पुत्रके साथ 
रणक्षेत्रमें उसी प्रकार युद्ध किया, जैसे एक हाथी अपने प्रतिद्वन्द्दी दूसरे हाथीके साथ युद्ध 
करता है ।। ११ ।। 

बाह्लीकराज: संक्रुद्धो द्रौषपदेयान्‌ महारथान्‌ । 

मन: पज्चेन्द्रियाणीव शुशुभे योधयन्‌ रणे ।। १२ ।। 

क्रोधमें भरे हुए बाह्लीकराज महारथी द्रौपदीपुत्रोंके साथ रणक्षेत्रमें युद्ध करते हुए उसी 
प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे मन पाँचों इन्द्रियोंसे युद्ध करता हुआ सुशोभित होता 
है ।। १२ ।। 

अयोधयंस्ते सुभृशं तं शरौचै: समन्ततः । 

इन्द्रियार्था यथा देहं शश्वद्‌ देहवतां वर ।। १३ ।। 

देहधारियोंमें श्रेष्ठ महाराज! द्रौपदीके पुत्र भी चारों ओरसे बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए 
वहाँ बाह्नीकराजके साथ उसी प्रकार बड़े वेगसे युद्ध करने लगे, जैसे इन्द्रियोंके विषय 
शरीरके साथ सदा जूझते रहते हैं ।। १३ ।। 

वार्ष्णेयं सात्यकि युद्धे पुत्रो द:ःशासनस्तव । 

आजलस्ने सायकैस्ती &णैर्नवर्भिर्नतपर्वभि: ।। १४ ।। 


आपके पुत्र दुःशासनने युद्धस्थलमें झुकी हुई गाँठवाले नौ तीखे बाणोंद्वारा वृष्णिवंशी 
सात्यकिको घायल कर दिया ।। १४ ।। 

सो5तिविद्धों बलवता महेष्वासेन धन्विना । 

ईषन्मूर्च्छां जगामाशु सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। १५ ।। 

बलवान्‌ एवं महान्‌ धनुर्धर दुःशासनके बाणोंसे अत्यन्त बिंध जानेके कारण 
सत्यपराक्रमी सात्यकिको तुरंत ही थोड़ी-सी मूर्च्छा आ गयी ।। १५ ।। 

समाश्वस्तस्तु वार्ष्णेयस्तव पुत्र महारथम्‌ | 

विव्याध दशभिस्तूर्ण सायकै: कड्कपत्रिभि: ।। १६ ।। 

थोड़ी देरमें स्वस्थ होनेपर सात्यकिने आपके महारथी पुत्र दुःशासनको कंककी 
पाँखवाले दस बाणोंद्वारा तुरंत ही घायल कर दिया ।। १६ ।। 

तावन्योन्यं दृढं विद्धावन्योन्यशरपीडितौ । 

रेजतु: समरे राजन्‌ पुष्पिताविव किंशुकौ ।। १७ ।। 

राजन! वे दोनों एक-दूसरेके बाणोंसे पीड़ित और अत्यन्त घायल हो समरांगणमें दो 
खिले हुए पलाशके वृक्षोंकी भाँति शोभा पाने लगे ।। १७ ।। 

अलम्बुषस्तु संक्रुद्ध: कुन्तिभोजशरार्दित: । 

अशोभत भृशं लक्ष्म्या पुष्पाढ्य इव किंशुक: ।। १८ ।। 

राजा कुन्तिभोजके बाणोंसे पीड़ित हो अत्यन्त क्रोधमें भरा हुआ राक्षस अलम्बुष 
फूलोंसे लदे हुए पलाश वृक्षके समान एक विशेष शोभासे सम्पन्न दिखायी देने 
लगा ।। १८ ।। 

कुन्तिभोजं ततो रक्षो विद्ध्व बहुभिरायसै: । 

अनदद्‌ भैरवं नादं वाहिन्या: प्रमुखे तव ।। १९ ।। 

फिर राक्षसने बहुत-से लोहेके बाणोंद्वारा राजा कुन्तिभोजको घायल करके आपकी 
सेनाके प्रमुख भागमें बड़ी भयंकर गर्जना की ।। १९ ।। 

ततस्तौ समरे शूरो योधयन्तौ परस्परम्‌ । 

ददृशु: सर्वसैन्यानि शक्रजम्भौ यथा पुरा ।। २० ।। 

तदनन्तर सम्पूर्ण सेनाएँ पूर्वकालमें एक-दूसरेसे युद्ध करनेवाले इन्द्र और जम्भासुरके 
समान समरांगणमें परस्पर जूझते हुए उन दोनों शूरवीरोंको देखने लगीं ।। 

शकुनिं रभसं युद्धे कृतवैरं च भारत । 

माद्रीपुत्री च संरब्धौ शरैश्वार्दयतां भूशम्‌ ।। २१ ।। 

भारत! क्रोधमें भरे हुए दोनों माद्रीकुमारोंने पहलेसे वैर बाँधनेवाले और युद्धमें 
वेगपूर्वक आगे बढ़नेवाले शकुनिको अपने बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित किया ।। २१ ।। 

तुमुलः स महान्‌ राजन्‌ प्रावर्तत जनक्षय: । 

त्वया संजनितो>त्यर्थ कणेन च विवर्धित: ॥॥ २२ ।। 


राजन्‌! इस प्रकार वह महाभयंकर जनसंहार चालू हो गया, जिसकी परिस्थितिको 
आपने ही उत्पन्न किया है और कर्णने उसे अत्यन्त बढ़ावा दिया है ।। २२ ।। 

रक्षितस्तव पुत्रैश्न क्रोधमूलो हुताशन: । 

य इमां पृथिवीं राजन्‌ दग्धुं सर्वा समुद्यत: ।। २३ ।। 

महाराज! आपके पुत्रोंने उस क्रोधमूलक वैरकी आगको सुरक्षित रखा है, जो इस सारी 
पृथ्वीको भस्म कर डालनेके लिये उद्यत है ।। २३ ।। 

शकुनि: पाण्डुपुत्राभ्यां कृत: स विमुख: शरै: । 

न सम जानाति कर्तुाव्यं युद्धे किंचित्‌ पराक्रमम्‌ ।। २४ ।। 

पाण्डुकुमार नकुल और सहदेवने अपने बाणोंद्वारा शकुनिको युद्धसे विमुख कर दिया। 
उस समय उसे युद्धविषयक कर्तव्यका ज्ञान न रहा और न कुछ पराक्रमका ही भान 
हुआ || २४ ।। 

विमुखं चैनमालोक्य माद्रीपुत्रो महारथौ | 

ववर्षतु: पुनर्बाणैर्यथा मेघौ महागिरिम्‌ ।। २५ ।। 

उसे युद्धसे विमुख हुआ देखकर भी महारथी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव उसके ऊपर 
पुनः उसी प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, जैसे दो मेघ किसी महान्‌ पर्वतपर जलकी धारा 
बरसा रहे हों || २५ ।। 

स वध्यमानो बहुभि: शरै: संनतपर्वभि: । 

सम्प्रायाज्जवनैरश्वैद्रोणानीकाय सौबल: || २६ ।। 

झुकी हुई गाँठवाले बहुत-से बाणोंकी मार खाकर सुबलपुत्र शकुनि वेगशाली घोड़ोंकी 
सहायतासे द्रोणाचार्यकी सेनाके पास जा पहुँचा ।। २६ ।। 

घटोत्कचस्तथा शूरं राक्षसं तमलायुधम्‌ | 

अभ्ययाद्‌ रभसं युद्धे वेगमास्थाय मध्यमम्‌ ।। २७ ।। 

इधर घटोत्कचने अपने प्रतिद्वन्द्दी शूर राक्षस अलायुधका जो युद्धमें बड़ा वेगशाली था, 
मध्यम वेगका आश्रय ले सामना किया ।। २७ ।। 

तयोर्युद्धे महाराज चित्ररूपमिवाभवत्‌ | 

यादृशं हि पुरा वृत्तं रामरावणयोर्मुधे ॥। २८ ।। 

महाराज! पूर्वकालमें श्रीराम और रावणके युद्धमें जैसी आश्चर्यजनक घटना घटित हुई 
थी, उसी प्रकार उन दोनों राक्षसोंका युद्ध भी विचित्र-सा ही हुआ ।। २८ ।। 

ततो युधिष्रो राजा मद्रराजानमाहवे । 

विद्ध्वा पज्चाशता बाणै: पुनर्विव्याध सप्तभि: || २९ |। 

तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने युद्धमें मद्रराज शल्यको पचास बाणोंसे घायल करके पुनः 
सात बाणोंद्वारा उन्हें बीध डाला ।। २९ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध तयोरत्यद्धुतं नृप । 


यथा पूर्व महद्‌ युद्ध शम्बरामरराजयो: ।। ३० ।। 

नरेश्वर! जैसे पूर्वकालमें शम्बरासुर और देवराज इन्द्रमें महान्‌ युद्ध हुआ था, उसी 
प्रकार उस समय उन दोनोंमें अत्यन्त अद्भुत संग्राम होने लगा || ३० ।। 

विविंशतिक्षित्रसेनो विकर्णश्र तवात्मज: । 

अयोधयन्‌ भीमसेनं महत्या सेनया वृता: ।। ३१ ।। 

आपके पुत्र विविंशति, चित्रसेन और विकर्ण--ये तीनों विशाल सेनाके साथ रहकर 
भीमसेनके साथ युद्ध करने लगे ।। ३१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्वन्द्ययुद्धे षण्णवतितमो<ध्याय: ।। 
९६ || 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्द्धयुद्धविषयक छानबेवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। ९६ ॥ 


अपन प्रा बछ। अं 


सप्तनवतितमो< ध्याय: 


द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नका युद्ध तथा सात्यकिद्धारा 
धृष्टद्युम्नकी रक्षा 


संजय उवाच 

तथा तस्मिन्‌ प्रवत्ते तु संग्रामे लोमहर्षणे । 

कौरवेयांस्त्रिधाभूतान्‌ पाण्डवा: समुपाद्रवन्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! उस रोमांचकारी संग्रामके होते समय वहाँ तीन भागोंमें बाँटे 
हुए कौरवोंपर पाण्डव-सैनिकोंने धावा किया ।। १ ।। 

जलसंध॑ महाबाहुं भीमसेनो< भ्यवर्तत । 

युधिष्ठिर: सहानीक: कृतवर्माणमाहवे ।। २ ।। 

भीमसेनने महाबाहु जलसंधपर आक्रमण किया और सेनासहित युधिष्ठिरने युद्धस्थलमें 
कृतवर्मापर धावा बोल दिया ।। २ ।। 

किरंस्तु शरवर्षाणि रोचमान इवांशुमान्‌ | 

धृष्टद्युम्नो महाराज द्रोणमभ्यद्रवद्‌ रणे ।। ३ ।। 

महाराज! जैसे प्रकाशमान सूर्य सहस्रों किरणोंका प्रसार करते हैं, उसी प्रकार 
धृष्टद्युम्नने बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया ।। 

ततः प्रववृते युद्ध त्वरतां सर्वधन्विनाम्‌ । 

कुरूणां पाण्डवानां च संक्रुद्धानां परस्परम्‌ ।। ४ ।। 

तदनन्तर परस्पर क्रोधमें भरे और उतावले हुए कौरव-पाण्डवपक्षके सम्पूर्ण धनुर्धरोंका 
आपसमें युद्ध होने लगा ।। ४ ।। 

संक्षये तु तथाभूते वर्तमाने महाभये । 

उन्डी भूतेषु सैन्येषु युध्यमानेष्वभीतवत्‌ ।। ५ ।। 

द्रोण: पाउ्चालपुत्रेण बली बलवता सह । 

यदक्षिपत्‌ पृषत्कौघांस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ६ ।। 

इस प्रकार जब महाभयंकर जनसंहार होने लगा और सारे सैनिक निर्भय-से होकर 
बन्द्-युद्ध करने लगे, उस समय बलवान द्रोणाचार्यने शक्तिशाली पांचालराजकुमार 
धृष्टद्युम्मके साथ युद्ध करते हुए जो बाणसमूहोंकी वर्षा आरम्भ की, वह अद्भुत-सी प्रतीत 
होने लगी ।। ५-६ ।। 

पुण्डरीकवनानीव विध्वस्तानि समन्ततः । 

चक्राते द्रोणपाञ्चाल्यौ नृणां शीर्षाण्यनेकश: ।। ७ ।। 


द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नने मनुष्योंके बहुत-से मस्तक काट गिराये, जो चारों ओर नष्ट 
होकर पड़े हुए कमलवनोंके समान जान पड़ते थे || ७ ।। 

विनिकीर्णानि वीराणामनीकेषु समन्तत: । 

वस्त्राभरणशस्त्राणि ध्वजवर्मायुधानि च ॥। ८ ।। 

चारों ओर सेनाओंमें वीरोंके बहुत-से वस्त्र, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, ध्वज, कवच तथा 
आयुध छिन्न-भिन्न होकर बिखरे पड़े थे ।। ८ ।। 

तपनीयततनुत्राणा: संसिक्ता रुधिरेण च | 

संसक्ता इव दृश्यन्ते मेघसंघा: सविद्युत: ।। ९ || 

सुवर्णका कवच बाँधे तथा खूनसे लथपथ हुए सैनिक परस्पर सटे हुए बिजलियोंसहित 
मेघसमूहोंके समान दिखायी देते थे ।। ९ ।। 

कुण्जराश्वनरानन्ये पातयन्ति सम पत्रिभि: | 

तालमात्राणि चापानि विकर्षन्तो महारथा: ।। १० ।। 

बहुत-से दूसरे महारथी चार हाथके धनुष खींचते हुए अपने पंखयुक्त बाणोंद्वारा हाथी, 
घोड़े और पैदल मनुष्योंको मार गिराते थे || १० ।। 

असिचर्माणि चापानि शिरांसि कवचानि च । 

विप्रकीर्यन्त शूराणां सम्प्रहारे महात्मनाम्‌ ।। ११ ।। 

उन महामनस्वी वीरोंके संग्राममें योद्धाओंके खड्ग, ढाल, धनुष, मस्तक और कवच 
कटकर इधर-उधर बिखरे जाते थे ।। ११ ।। 

उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः । 

अदृश्यन्त महाराज तस्मिन्‌ परमसंकुले ।। १२ ।। 

महाराज! उस महाभयानक युद्धमें चारों ओर असंख्य कबन्ध खड़े दिखायी देते 
थे।। १२ |। 

गृध्रा: कड़्का बका: श्येना वायसा जम्बुकास्तथा । 

बहुश: पिशिताशाश्च तत्रादृश्यन्त मारिष ।। १३ ।। 

आर्य! वहाँ बहुत-से गीध, कंक, बगले, बाज, कौए, सियार तथा अन्य मांसभक्षी प्राणी 
दृष्टिगोचर होते थे ।। १३ ।। 

भक्षयन्तश्न मांसानि पिबन्तश्नापि शोणितम्‌ | 

विलुम्पन्तश्न केशांश्व मज्जाश्व बहुधा नूप ॥। १४ ।। 

नरेश्वर! वे मांस खाते, रक्त पीते और केशों तथा मज्जाको बारंबार नोचते थे ।। १४ ।। 

आकर्षन्त: शरीराणि शरीरावयवांस्तथा । 

नराश्वगजसंघानां शिरांसि च ततस्ततः: ।। १५ ।। 

मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियोंके समूहोंके सम्पूर्ण शरीरों और अवयवों एवं मस्तकोंको 
इधर-उधर खींचते थे ।। १५ ।। 


कृतास्त्रा रणदीक्षाभिदीक्षिता रणशालिन: । 

रणे जयं प्रार्थयाना भूशं युयुधिरे तदा ।। १६ ।। 

अस्त्रविद्याके ज्ञाता और युद्धमें शोभा पानेवाले वीर रणयज्ञकी दीक्षा लेकर संग्राममें 
विजय चाहते हुए उस समय बड़े जोरसे युद्ध करने लगे ।। १६ ।। 

असिमार्गान्‌ बहुविधान्‌ विचेरु: सैनिका रणे । 

ऋष्टिभि: शक्तिभि: प्रासै: शूलतोमरपट्टिशै: ।। १७ ।। 

गदाभि: परिधैश्नान्यैरायुथैश्व भुजैरपि । 

अन्योन्यं जष्निरे क्रुद्धा युद्धरड्गरगता नरा: ।। १८ ।। 

समस्त सैनिक उस रफणक्षेत्रमें तलवारके बहुत-से पैंतरे दिखाते हुए विचर रहे थे। 
युद्धकी रंगभूमिमें आये हुए मनुष्य परस्पर कुपित हो एक-दूसरेपर ऋष्टि, शक्ति, प्रास, शूल, 
तोमर, पट्टिश, गदा, परिघ, अन्यान्य आयुध तथा भुजाओंद्वारा चोट पहुँचाते 
थे।। १७-१८ |। 

रथिनो रथिभश्रि: सार्थमश्वचारोहाश्ष सादिभि: | 

मातड़् वरमातज्जैः पदाताश्ष पदातिभि: ।। १९ ।। 

रथी रथियोंके, घुड़सवार घुड़सवारोंके, मतवाले हाथी श्रेष्ठ गजराजोंके और पैदल 
योद्धा पैदलोंके साथ युद्ध कर रहे थे |। १९ ।। 

क्षीबा इवान्ये चोन्मत्ता रज्भेष्विव च वारणा: | 

उच्चुक्रुशु रथान्योन्यं जघ्नुरन्योन्यमेव च ।। २० ।। 

रंगस्थलके समान उस रणक्षेत्रमें अन्य बहुत-से मत्त और उन्मत्त हाथी एक-दूसरेको 
देखकर चिग्घाड़ते और परस्पर आघात-प्रत्याघात करते थे || २० ।। 

वर्तमाने तथा युद्धे निर्मय्यादे विशाम्पते । 

धृष्टद्युम्नो हयानश्वैद्रोणस्य व्यत्यमिश्रयत्‌ ।। २१ ।। 

राजन! जिस समय वह मर्यादाशून्य युद्ध हो रहा था, उसी समय धूृष्टद्युम्नने अपने 
रथके घोड़ोंको द्रोणाचार्यके घोड़ोंसे मिला दिया || २१ ।। 

ते हया: साध्वशोभन्त मिश्रिता वातरंहस: । 

पारावतसवर्णाश्च रक्तशोणाश्च संयुगे ।। २२ ।। 

धृष्टद्युम्नके घोड़ोंका रंग कबूतरके समान था और द्रोणाचार्यके घोड़े लाल थे। उस 
युद्धके मैदानमें परस्पर मिले हुए वे वायुके समान वेगशाली अश्व बड़ी शोभा पा रहे थे ।। 

पारावतसवर्णस्ति रक्तशोणविमिश्रिता: । 

हया: शुशुभिरे राजन्‌ मेघा इव सविद्युत: ।। २३ ।। 

राजन्‌! कबूतरके समान वर्णवाले घोड़े लाल रंगके घोड़ोंस मिलकर बिजलियोंसहित 
मेघोंके समान सुशोभित हो रहे थे || २३ ।। 

धृष्टद्युम्नस्तु सम्प्रेक्ष्य द्रोणमभ्याशमागतम्‌ । 


असिचर्माददे वीरो धनुरुत्सूज्य भारत ।। २४ ।। 

भारत! वीर धृष्टद्युम्नने द्रोणाचार्यको अत्यन्त निकट आया हुआ देख धनुष छोड़कर 
हाथमें ढाल और तलवार ले ली ।। २४ ।। 

चिकीर्षु्दुष्करं कर्म पार्षत: परवीरहा । 

ईषया समत्तिक्रम्य द्रोणस्प रथमाविशत्‌ ।। २५ ।। 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले धृष्टद्युम्न दुष्कर कर्म करना चाहते थे। अतः ईषादण्डके 
सहारे अपने रथको लाँघकर द्रोणाचार्यके रथपर जा चढ़े || २५ ।। 

अतिष्ठद्‌ युगमध्ये स युगसंनहनेषु च । 

जघनार्थेषु चाश्वानां तत्‌ सैन्यान्यभ्यपूजयन्‌ ।। २६ ।। 

वे एक पैर जूएके ठीक बीचमें और दूसरा पैर उस जूएसे सटे हुए (आचार्यके) घोड़ोंके 
पिछले आधे भागोंपर रखकर खड़े हो गये। उनके इस कार्यकी सभी सैनिकोंने भूरि-भूरि 
प्रशंसा की || २६ ।। 

खड्गेन चरतस्तस्य शोणाश्वानधितिष्ठत: । 

न ददर्शान्तरं द्रोणस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। २७ ।। 

लाल घोड़ोंपर खड़े हो तलवार घुमाते हुए धृष्टद्युम्नके ऊपर प्रहार करनेके लिये आचार्य 
द्रोणको थोड़ा-सा भी अवसर नहीं दिखायी दिया। वह अद्भुत-सी बात हुई || २७ ।। 

यथा श्येनस्य पतन वनेष्वामिषगृद्धिन: । 

तथैवासीदभीसारस्तस्य द्रोणं जिघांसत: ।। २८ ।। 

जैसे वनमें मांसकी इच्छा रखनेवाला बाज झपट्टा मारता है, उसी प्रकार द्रोणको मार 
डालनेकी इच्छासे उनपर धृष्टद्युम्मका यह सहसा आक्रमण हुआ था ।। 

तत: शरशतेनास्य शतचन्द्रं समाक्षिपत्‌ । 

दोणो द्रुपदपुत्रस्य खड़्गं च दशभि: शरै: || २९ ।। 

तदनन्तर द्रोणाचार्यने सौ बाण मारकर ट्रुपदकुमारकी ढालको, जिसमें सौ चन्द्राकार 
चिह्न बने हुए थे, काट गिराया और दस बाणोंसे उनकी तलवारके भी टुकड़े-टुकड़े कर 
दिये ।। २९ ।। 

हयांश्वैव चतुःषष्ट्या शराणां जध्निवान्‌ बली | 

ध्वजं क्षत्रं च भल्लाभ्यां तथा तौ पार्ष्णिसारथी ।। ३० ।। 

बलवान्‌ आचार्यने चौंसठ बाणोंसे धृष्टद्युम्नके चारों घोड़ोंको मार डाला। फिर दो 
भल्लोंसे ध्वज और छत्र काटकर उनके दोनों पार्श्वरक्षकोंको भी मार गिराया ।। 

अथास्मै त्वरितो बाणमपरं जीवितान्तकम्‌ | 

आकर्णपूर्ण चिक्षेप वजं वजधरो यथा ।। ३१ ।। 

तदनन्तर तुरंत ही एक दूसरा प्राणान्‍्तकारी बाण कानतक खींचकर उनके ऊपर 
चलाया, मानो वज्रधारी इन्द्रने वज्ञ मारा हो || ३१ ।। 


त॑ चतुर्दशभिस्ती&णैर्बाणैश्विच्छेद सात्यकि: । 

ग्रस्तमाचार्यमुख्येन धृष्टद्युम्नं व्यमोचयत्‌ ।। ३२ ।। 

उस समय सात्यकिने चौदह तीखे बाण मारकर उस बाणको काट डाला और इस 
प्रकार आचार्यप्रवरके चंगुलमें फँसे हुए धृष्टद्यममको बचा लिया ।। ३२ ।। 

सिंहेनेव मृगं ग्रस्तं नरसिंहेन मारिष । 

द्रोणेन मोचयामास पाज्चाल्यं शिनिपुड्भव: ।। ३३ ।। 

पूजनीय नरेश! जैसे सिंहने किसी मृगको दबोच लिया हो, उसी प्रकार नरसिंह 
द्रोणाचार्यने धृष्टद्युम्नको ग्रस लिया था; परंतु शिनिप्रवर सात्यकिने उन्हें छुड़ा 
लिया ।। ३३ ।। 

सात्यकिं प्रेक्ष्य गोप्तारं पाउ्चाल्यं च महाहवे । 

शराणां त्वरितो द्रोण: षड्विंशत्या समार्पयत्‌ ।। ३४ ।। 

उस महासमरमें सात्यकि धृष्टद्युम्नके रक्षक हो गये, यह देखकर द्रोणाचार्यने तुरंत ही 
उनपर छब्बीस बाणोंसे प्रहार किया ।। ३४ ।। 

ततो द्रोणं शिने: पौत्रो ग्रसन्‍तमपि सृजजयान्‌ । 

प्रत्यविध्यच्छितैर्बाणै: षड्विंशत्या स्तनान्तरे ।। ३५ ।। 

तब शिनिके पौत्र सात्यकिने सूंजयोंके संहारमें लगे हुए द्रोणाचार्यकी छातीमें छब्बीस 
तीखे बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी ।। ३५ ।। 

ततः सर्वे रथास्तूर्ण पाञज्चाल्या जयगृद्धिन: । 

सात्वताभिस्‌ते द्रोणे धृष्टद्युम्नमवाक्षिपन्‌ ।। ३६ ।। 

जब द्रोणाचार्य सात्यकिके साथ उलझ गये, तब विजयाभिलाषी समस्त पांचाल रथी 
तुरंत ही धृष्टद्युम्मको अपने रथपर बिठाकर दूर हटा ले गये || ३६ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणधृष्टझुम्नयुद्धे 
सप्तनवतितमो<ध्याय: ।। ९७ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोणाचार्य और धृष्ट्युम्नका 
युद्धविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९७ ॥ 


ऑपन- माल बछ। अ-्-छऋाल 


अष्टनवतितमो< ध्याय: 
द्रोणाचार्य और सात्यकिका अदभुत युद्ध 


धृतराष्ट उवाच 

बाणे तस्मिन्‌ निकत्ते तु धृष्टद्युम्ने च मोक्षिते । 

तेन वृष्णिप्रवीरेण युयुधानेन संजय ।। १ ।। 

अमर्षितो महेष्वास: सर्वशस्त्रभृतां वर: । 

नरव्याप्र: शिने: पौत्रे द्रोण: किमकरोद्‌ युधि ।। २ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जब वृष्णिवंशके प्रमुख वीर युयुधानने आचार्य द्रोणके उस 
बाणको काट दिया और धृष्टद्युम्नको प्राणसंकटसे बचा लिया, तब अमर्षमें भरे हुए सम्पूर्ण 
शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर नरव्याप्र द्रोणाचार्यने उस युद्धस्थलमें सात्यकिके प्रति क्या 
किया? ।। १-२ ।। 

संजय उवाच 

सम्प्रद्रुतः क्रोधविषो व्यादितास्यशरासन: । 

तीक्षणधारेषुदशन: शितनाराचद्दंष्टवान्‌ ।। ३ ।। 

संरम्भामर्षताम्राक्षो महोरग इव श्वसन्‌ | 

संजयने कहा--महाराज! उस समय क्रोध और अमर्षसे लाल आँखें किये द्रोणाचार्यने 
फुफकारते हुए महानागके समान बड़े वेगसे सात्यकिपर धावा किया। क्रोध ही उस 
महानागका विष था, खींचा हुआ धनुष फैलाये हुए मुखके समान जान पड़ता था, तीखी 
धारवाले बाण दाँतोंके समान थे और तेज धारवाले नाराच दाढ़ोंका काम देते थे ।। ३ ३ ।। 

नरवीर: प्रमुदित: शोणैरश्वैर्महाजवै: ।। ४ ।। 

उत्पतद्धिरिवाकाशे क्रामद्धिरिव पर्वतम्‌ 

रुक्मपुड्खाउछरानस्यन्‌ युयुधानमुपाद्रवत्‌ ।। ५ ।। 

हर्षमें भरे हुए नरवीर द्रोणाचार्यने अपने महान्‌ वेगशाली लाल घोड़ोंद्वारा, जो मानो 
आकाशमें उड़ रहे और पर्वतको लाँघ रहे थे, सुवर्णमय पंखवाले बाणोंकी वर्षा करते हुए 
वहाँ युयुधानपर आक्रमण किया ।। ४-५ |। 

शरपातमहावर्ष रथघोषबलाहकम्‌ । 

कार्मुकाकर्षविक्षेपं नाराचबहुविद्युतम्‌ ।। ६ ।। 

शक्तिखड्गाशनिधरं क्रोधवेगसमुत्थितम्‌ । 

द्रोणमेघमनावार्य हयमारुतचोदितम्‌ ।। ७ ।। 


उस समय द्रोणाचार्य अश्वरूपी वायुसे संचालित अनिवार्य मेघके समान हो रहे थे। 
बाणोंका प्रहार ही उनके द्वारा की जानेवाली महावृष्टि था। रथकी घर्घराहट ही मेघकी 
गर्जना थी, धनुषका खींचना ही धारावाहिक वृष्टिका साधन था, बहुत-से नाराच ही विद्युतके 
समान प्रकाशित होते थे, उस मेघने खड़ग और शक्तिरूपी अशनिको धारण कर रखा था 
और क्रोधके वेगसे ही उसका उत्थान हुआ था ।। ६-७ ।। 

दृष्टवैवाभिपतन्तं तं शूर: परपुरंजय: । 

उवाच सूत॑ शैनेय: प्रहसन्‌ युद्धदुर्मद: ।। ८ ।। 

शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले रणदुर्मद शूरवीर सात्यकि द्रोणाचार्यको अपने ऊपर 
आक्रमण करते देख सारथिसे जोर-जोरसे हँसते हुए बोले-- ।। ८ ।। 

एन॑ वैब्राद्माणं शूरं स्वकर्मण्यनवस्थितम्‌ । 

आश्रयं धार्तराष्ट्रस्य राज्ञो दःखभयापहम्‌ ।। ९ ।। 

शीघ्र प्रजवितैरश्वैः प्रत्युद्याहि प्रहृष्टवत्‌ 

आचार्य राजपुत्राणां सततं शूरमानिनम्‌ ।। १० ।। 

'सूत! ये शौर्यसम्पन्न ब्राह्मणदेवता अपने ब्राह्मणोचित कर्ममें स्थिर नहीं हैं। ये 
धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधनके आश्रय होकर उसके दुःख और भयका निवारण करनेवाले हैं। 
समस्त राजकुमारोंके ये ही आचार्य हैं और सदा अपनेको शूरवीर मानते हैं। तुम प्रसन्नचित्त 
होकर अपने वेगशाली अश्रोंद्वारा शीघ्र इनका सामना करनेके लिये चलो” ।। ९-१० ।। 

ततो रजतसंकाशा माधवस्य हयोत्तमा: । 

द्रोणस्पाभिमुखा: शीघ्रमगच्छन्‌ वातरंहस: ।। ११ ।। 

तदनन्तर चाँदीके समान श्वेत रंगवाले और वायुके समान वेगशाली सात्यकिके उत्तम 
घोड़े द्रोणाचार्यके सामने शीघ्रतापूर्वक जा पहुँचे || ११ ।। 

ततस्तौ द्रोणशैनेयौ युयुधाते परंतपौ । 

शरैरनेकसाहसैस्ताडयन्तौ परस्परम्‌ ।। १२ ।। 

फिर तो शत्रुओंको संताप देनेवाले द्रोणाचार्य और सात्यकि एक-दूसरेपर सहस्ंरों 
बाणोंका प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे || १२ ।। 

इषुजालावृतं व्योम चक्रतुः पुरुषर्षभौ । 

पूरयामासतुर्वीरावुभी दश दिश: शरै: || १३ ।। 

उन दोनों पुरुषशिरोमणि वीरोंने आकाशको बाणोंके समूहसे आच्छादित कर दिया 
और दसों दिशाओंको बाणोंसे भर दिया ।। १३ || 

मेघाविवातपापाये धाराभिरितरेतरम्‌ । 

न सम सूर्यस्तदा भाति न ववौ च समीरण: ।। १४ ।। 

जैसे वर्षाकालमें दो मेघ एक-दूसरेपर जलकी धाराएँ गिराते हों, उसी प्रकार वे परस्पर 
बाण-वर्षा कर रहे थे। उस समय न तो सूर्यका पता चलता था और न हवा ही चलती 


थी ।। १४ ।। 

इषुजालावृतं घोरमन्धकारं समन्ततः । 

अनाधृष्यमिवान्येषां शूराणामभवत्‌ तदा ।। १५ ।। 

चारों ओर बाणोंका जाल-सा बिछ जानेके कारण वहाँ घोर अन्धकार छा गया था। उस 
समय अन्य शूरवीरोंका वहाँ पहुँचना असम्भव-सा हो गया ।। १५ ।। 

अन्धकारीकृते लोके द्रोणशैनेययो: शरै: । 

तयो: शीघ्रास्त्रविदुषोद्रोणसात्वतयोस्तदा ।। १६ ।। 

नान्तरं शरवृष्टीनां ददृशे नरसिंहयो: । 

शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेकी कलाको जाननेवाले द्रोणाचार्य तथा सात्वतवंशी 
सात्यकिके बाणोंसे लोकमें अन्धकार छा जानेपर भी उस समय उन दोनों पुरुषसिंहोंकी 
बाण-वर्षामें कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था || १६३ ।। 

इषूणां संनिपातेन शब्दो धाराभिघातज: ।। १७ |। 

शुश्रुवे शक्रमुक्तानामशनीनामिव स्वन: । 

बाणोंके परस्पर टकरानेसे उनकी धारोंके आघात-प्रत्याघातसे जो शब्द होता था, वह 
इन्द्रके छोड़े हुए वज्रास्त्रोंकी गड़गड़ाहटके समान सुनायी पड़ता था ।। 

नाराचैव्यतिविद्धानां शराणां रूपमाबभौ || १८ ।। 

आशीविषविदष्टानां सर्पाणामिव भारत । 

भरतनन्दन! नाराचोंसे अत्यन्त विद्ध हुए बाणोंका स्वरूप विषधर नागोंके डँसे हुए 
सर्पोंके समान जान पड़ता था ।। १८३ ।। 

तयोज्यातलनिर्घोष: शुश्रुवे युद्धशौण्डयो: ।। १९ ।। 

अजसं शैलशुज्भराणां वज्जेणाहन्यतामिव । 

उन दोनों युद्धकुशल वीरोंके धनुषोंकी प्रत्यंचाकी टंकारध्वनि ऐसी सुनायी देती थी, 
मानो पर्वतोंके शिखरोंपर निरन्तर वज़से आघात किया जा रहा हो ।। 

उभयोस्तौ रथौ राजंस्ते चाश्वास्ती च सारथी ।। २० || 

रुक्मपुड्खै: शरैश्छिन्नाश्चित्ररूपा बभुस्तदा । 

राजन! उन दोनोंके वे रथ, वे घोड़े और वे सारथि सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे क्षत- 
विक्षत होकर उस समय विचित्ररूपसे सुशोभित हो रहे थे || २०३ ।। 

निर्मलानामजिद्दानां नाराचानां विशाम्पते ।। २१ ।। 

निर्मुक्ताशीविषा भानां सम्पातो5भूत्‌ सुदारुण: । 

प्रजानाथ! केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोके समान निर्मल और सीधे जानेवाले 
नाराचोंका प्रहार वहाँ बड़ा भयंकर प्रतीत होता था || २१६ ।। 

उभयो: पतिते छत्रे तथैव पतितौ ध्वजी ।। २२ ।। 

उभौ रुधिरसिक्ताड्रावुभौ च विजयैषिणौ । 


दोनोंके छत्र कटकर गिर गये, ध्वज धराशायी हो गये और दोनों ही विजयकी 
अभिलाषा रखते हुए खूनसे लथपथ हो रहे थे || २२६ ।। 

स्रवद्धिः शोणितं गात्रै: प्रखुताविव वारणौ ।। २३ ।। 

अन्योन्यमभ्यविध्येतां जीवितान्तकरै: शरै: । 

सारे अंगोंसे रक्तकी धारा बहनेके कारण वे दोनों वीर मदवर्षी गजराजोंके समान जान 
पड़ते थे। वे एक-दूसरेको प्राणान्तकारी बाणोंसे बेध रहे थे || २३६ ।। 

गर्जितोत्क्रुष्टसंनादा: शड्खदुन्दुभिनि:स्वना: ।। २४ ।। 

उपारमन्‌ महाराज व्याजहार न कश्नन । 

महाराज! उस समय गरजने, ललकारने और सिंहनादके शब्द तथा शंखों और 
दुन्दुभियोंके घोष बंद हो गये थे। कोई बातचीततक नहीं करता था || २४३६ ।। 

तृष्णीम्भूतान्यनीकानि योधा युद्धादुपारमन्‌ ।। २५ ।। 

ददर्श द्वैरथं ताभ्यां जातकौतूहलो जन: । 

सारी सेनाएँ मौन थीं, योद्धा युद्धसे विरत हो गये थे, सब लोग कौतूहलवश उन दोनोंके 
द्वैरथ युद्धका दृश्य देखने लगे || २५३ ।। 

रथिनो हस्तियन्तारो हयारोहा: पदातय: ।। २६ ।। 

अवैक्षन्ताचलैनेंत्रै: परिवार्य नरर्षभौ । 

रथी, महावत, घुड़सवार और पैदल सभी उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंको घेरकर उन्हें 
एकटक नेत्रोंसे निहारने लगे ।। 

हस्त्यनीकान्यतिष्ठन्त तथानीकानि वाजिनाम्‌ ।। २७ ।। 

तथैव रथवाहिन्य: प्रतिव्यूह्मृ व्यवस्थिता: । 

हाथियोंकी सेनाएँ चुपचाप खड़ी थीं, घुड़सवार सैनिकोंकी भी यही दशा थी तथा 
रथसेनाएँ भी व्यूह बनाकर वहाँ स्थिरभावसे खड़ी थीं || २७ ६ ।। 

मुक्ताविद्रुमचित्रैश्ष मणिकाञज्चनभूषितै: ।। २८ ।। 

ध्वजैराभरणैश्षित्रै: कवचैश्न हिरण्मयै: । 

वैजयन्तीपताकाभि: परिस्तोमाड्रकम्बलै: ।। २९ || 

विमलैर्निशितै: शस्त्रैहयानां च प्रकीर्णकै: । 

जातरूपमयीभिश्व राजतीभि श्र मूर्थसु ।। ३० ।। 

गजानां कुम्भमालाभिरर्दन्तवेष्टैक्ष भारत । 

सबलाका: सखट्योता: सैरावतशतह्दा: ।। ३१ || 

अदृश्यन्तोष्णपर्याये मेघानामिव वागुरा: । 


भारत! मोती और मूँगोंसे चित्रित तथा मणियों और सुवर्णोंसे विभूषित ध्वज, विचित्र 
आभूषण, सुवर्णमय कवच, वैजयन्ती, पताका, हाथियोंके झूल और कम्बल, चमचमाते हुए 
तीखे शस्त्र, घोड़ोंकी पीठपर बिछाये जानेवाले वस्त्र, हाथियोंके कुम्भस्थलमें और 
मस्तकोंपर सुशोभित होनेवाली सोने-चाँदीकी मालाएँ तथा दन्तवेष्टन--इन सब वस्तुओंके 
कारण उभयपक्षकी सेनाएँ वर्षाकालमें बगलोंकी पाँति, खद्योत, ऐरावत और बिजलियोंसे 
युक्त मेघसमूहोंके समान दृष्टिगोचर हो रही थीं || २८--३१ ३ ।। 

अपश्यन्नस्मदीयाश्र ते च यौधिष्लिरा: स्थिता: ।। ३२ ।। 

तद्‌ युद्ध युयुधानस्य द्रोणस्य च महात्मन: । 

राजन! हमारी और युधिष्ठिरकी सेनाके सैनिक वहाँ खड़े होकर महामना द्रोण और 
सात्यकिका वह युद्ध देख रहे थे || ३२६ ।। 

विमानाग्रगता देवा ब्रह्मसोमपुरोगमा: ।। ३३ ।। 

सिद्धचारणसंघाश्न विद्याधरमहोरगा: । 

ब्रह्मा और चन्द्रमा आदि सब देवता विमानोंपर बैठकर वहाँ युद्ध देखनेके लिये आये 
थे। उनके साथ ही सिद्धों और चारणोंके समूह, विद्याधर और बड़े-बड़े नागगण भी 
भे ३३६ || 

गतप्रत्यागताक्षेपैश्षित्रैरस्त्रविधातिभि: ।। ३४ ।। 

विविधैर्विस्मयं जग्मुस्तयो: पुरुषसिंहयो: । 

वे सब लोग उन दोनों पुरुषसिंहोंके विचित्र गमन-प्रत्यागमन, आक्षेप तथा नाना 
प्रकारके अस्त्रनिवारक व्यापारोंसे आश्वर्यचकित हो रहे थे || ३४३ ।। 

हस्तलाघवमस्त्रेषु दर्शयन्तौ महाबलौ ।। ३५ ।। 

अन्योन्यमभिविध्येतां शरैस्तौ द्रोणसात्यकी । 

महावीर द्रोणाचार्य और सात्यकि अस्त्र चलानेमें अपने हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए 
बाणोंद्वारा एक-दूसरेको बेध रहे थे | ३५३ ।। 

ततो द्रोणस्य दाशार्ह: शरांश्रिच्छेद संयुगे | ३६ ।। 

पत्रिभि: सुदृढैराशु धनुश्चैव महाद्युते: । 

इसी बीचमें सात्यकिने महातेजस्वी द्रोणाचार्यके धनुष और बाणोंको पंखयुक्त सुदृढ़ 
बाणोंद्वारा युद्धस्थलमें शीघ्र ही काट डाला || ३६३ ।। 

निमेषान्तरमात्रेण भारद्वाजो5परं धनु: ॥। ३७ ।। 

सज्यं चकार तदपि चिच्छेदास्य च सात्यकि: । 

तब भरद्वाजनन्दन द्रोणने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथमें लेकर उसपर प्रत्यंचा 
चढ़ायी; परंतु सात्यकिने उनके उस धनुषको भी काट डाला || ३७३ || 

ततस्त्वरन्‌ पुनद्रोणो धरनुर्हस्तो व्यतिष्ठत ।। ३८ ।। 


सज्यं सज्यं धनुश्चास्य चिच्छेद निशितै: शरै: । 

तब द्रोणाचार्य पुनः बड़ी उतावलीके साथ दूसरा धनुष हाथमें लेकर खड़े हो गये; परंतु 
ज्यों ही वे धनुषपर डोरी चढ़ाते, त्यों ही सात्यकि अपने तीखे बाणोंद्वारा उसे काट देते 
थे।। ३८३ || 

एवमेकशतं छिन्न॑ धनुषां दृढ्धन्विना ।। ३९ ।। 

न चान्तरं तयोर्दष्टं संधाने छेदनेडपि च । 

इस प्रकार सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले सात्यकिने आचार्यके एक सौ धनुष काट 
डाले; परंतु कब वे संधान करते हैं और सात्यकि कब उस धनुषको काट देते हैं, उन दोनोंके 
इस कार्यमें किसीको कोई अन्तर नहीं दिखायी दिया ।। ३९ $ ।। 

ततोअसस्‍्य संयुगे द्रोणो दृष्टवा कर्मातिमानुषम्‌ ।। ४० ।। 

युयुधानस्य राजेन्द्र मनसैतदचिन्तयत्‌ । 

राजेन्द्र! तदनन्तर रणक्षेत्रमें सात्यकिके उस अमानुषिक पराक्रमको देखकर 
द्रोणाचार्यने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया || ४० ई ।। 

एतदस्त्रबलं रामे कार्तवीर्ये धनंजये ।। ४१ ।। 

भीष्मे च पुरुषव्याप्रे यदिदं सात्वतां वरे । 

त॑ चास्य मनसा द्रोण: पूजयामास विक्रमम्‌ ।। ४२ ।। 

सात्वतकुलके श्रेष्ठ वीर सात्यकिमें जो यह अस्त्रबल दिखायी देता है, ऐसा तो केवल 
परशुराममें, कार्तवीर्य अर्जुनमें, धनंजयमें तथा पुरुषसिंह भीष्ममें ही देखा-सुना गया है। 
ट्रोणाचार्यने मन-ही-मन उनके पराक्रमकी बड़ी प्रशंसा की || ४१-४२ ।। 

लाघवं वासवस्येव सम्प्रेक्ष्य द्विजसत्तम: । 

तुतोषास्त्रविदां श्रेष्ठस्तथा देवा: सवासवा: ।। ४३ ।। 

इन्द्रके समान सात्यकिके उस हस्तलाघव तथा पराक्रमको देखकर अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ 
विप्रवर द्रोणाचार्य और इन्द्र आदि देवता भी बड़े प्रसन्न हुए ।। ४३ ।। 

न तामालक्षयामासूुर्लघुतां शीघ्रचारिण: । 

देवाश्न युयुधानस्य गन्धर्वाश्व विशाम्पते ।। ४४ ।। 

सिद्धचारणसंघाश्न विदुद्रोणस्य कर्म तत्‌ । 

प्रजानाथ! रणभूमिमें शीघ्रतापूर्वक विचरनेवाले सात्यकिकी उस फुर्तीको देवताओं, 
गन्धर्वों, सिद्धों और चारणसमूहोंने पहले कभी नहीं देखा था। वे जानते थे कि केवल 
द्रोणाचार्य ही वैसा पराक्रम कर सकते हैं (परंतु उस दिन उन्होंने सात्यकिका पराक्रम भी 
प्रत्यक्ष देख लिया) || ४४ ३ ।। 

ततोन्‍्यद्‌ धनुरादाय द्रोण: क्षत्रियमर्दन: ।। ४५ ।। 

अस्त्रैरस्त्रविदां श्रेष्ठी योधयामास भारत | 


भारत! तत्पश्चात्‌ अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ क्षत्रियसंहारक द्रोणाचार्यने दूसरा धनुष हाथमें 
लेकर विभिन्न अस्त्रोंद्वारा युद्ध आरम्भ किया ।। ४५३ ।। 

तस्यास्त्राण्यस्त्रमायाभि: प्रतिहत्य स सात्यकि: ।। ४६ ।। 

जघान निशितैर्बाणैस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ | 

सात्यकिने अपने अस्त्रोंकी मायासे आचार्यके अस्त्रोंका निवारण करके उन्हें तीखे 
बाणोंसे घायल कर दिया। वह अद्भुत-सी घटना हुई ।। ४६३ ।। 

तस्यातिमानुषं कर्म दृष्टवान्यैरसमं रणे || ४७ ।। 

युक्त योगेन योगज्ञास्तावका: समपूजयन्‌ । 

उस रणक्षेत्रमें सात्यकिके उस युक्तियुक्त अलौकिक कर्मको, जिसकी दूसरोंसे कोई 
तुलना नहीं थी, देखकर आपके रणकौशलवेत्ता सैनिक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने 
लगे || ४७३ || 

यदस्त्रमस्यति द्रोणस्तदेवास्यति सात्यकि: ।। ४८ ।। 

तमाचार्यो5प्यसम्भ्रान्तो डयो धयच्छत्रुतापन: । 

द्रोणाचार्य जिस अस्त्रका प्रयोग करते, उसीका सात्यकि भी करते थे। शत्रुओंको संताप 
देनेवाले आचार्य द्रोण भी घबराहट छोड़कर सात्यकिसे युद्ध करते रहे || ४८३ ।। 

ततः क्रुद्धो महाराज धर्नुर्वेदस्य पारग: ।। ४९ ।। 

वधाय युयुधानस्य दिव्यमस्त्रमुदैरयत्‌ । 

महाराज! तदनन्तर धरनुर्वेदके पारंगत विद्वान्‌ द्रोणाचार्यने कुपित हो सात्यकिके वधके 
लिये एक दिव्यास्त्र प्रकट किया || ४९६ ।। 

तदाग्नेयं महाघोरं रिपुघ्नमुपलक्ष्य स: ।। ५० ।। 

दिव्यमस्त्रं महेष्वासो वारुणं समुदैरयत्‌ । 

शत्रुओंका नाश करनेवाले उस अत्यन्त भयंकर आग्नेयास्त्रकों देखकर महाधनुर्धर 
सात्यकिने भी वारुण नामक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया ।। ५० $ ।। 

हाहाकारो महानासीदू दृष्ट्वा दिव्यास्त्रधारिणौ ।। ५१ ।। 

न विचेरुस्तदाकाशे भूतान्याकाशगाम्यपि । 

उन दोनोंको दिव्यास्त्र धारण किये देख वहाँ महान्‌ हाहाकार मच गया। उस समय 
आकाशचारी प्राणी भी आकाशमें विचरण नहीं करते थे ।। ५१३ ।। 

अस्त्रे ते वारुणाग्नेये ताभ्यां बाणसमाहिते ।। ५२ ।। 

न यावदभ्यपद्येतां व्यावर्तदथ भास्कर: । 

वे वारुण और आग्नेय दोनों अस्त्र उन दोनोंके द्वारा अपने बाणोंमें स्थापित होकर 
जबतक एक-दूसरेके प्रभावसे प्रतिहत नहीं हो गये, तभीतक भगवान्‌ सूर्य दक्षिणसे 
पश्चिमके आकाशमें ढल गये || ५२ $ ।। 


ततो युधिषिरो राजा भीमसेनश्ल पाण्डव: ।। ५३ ।। 

नकुल: सहदेवश्न पर्यरक्षन्त सात्यकिम्‌ | 

तब राजा युधिष्ठिर, पाण्डुकुमार भीमसेन, नकुल और सहदेव सब ओरसे सात्यकिकी 
रक्षा करने लगे || ५३३ || 

धृष्टद्युम्नमुखै: सार्थ विराटश्व सकेकय: ।। ५४ ।। 

मत्स्या: शाल्वेयसेनाश्न द्रोणमाजग्मुरञज्जसा । 

धृष्टद्यम्म आदि वीरोंके साथ विराट, केकयराजकुमार, मत्स्यदेशीय सैनिक तथा 
शाल्वदेशकी सेनाएँ--से सब-के-सब अनायास ही द्रोणाचार्यपर चढ़ आये ।। ५४६ ।। 

दुःशासन पुरस्कृत्य राजपुत्रा: सहस्रश: ।। ५५ || 

द्रोणमभ्युपपद्यन्त सपत्नै: परिवारितम्‌ । 

उधरसे सहस्रों राजकुमार दुःशासनको आगे करके शत्रुओंसे घिरे हुए द्रोणाचार्यके पास 
उनकी रक्षाके लिये आ पहुँचे || ५५३ ।। 

ततो युद्धमभूद्‌ राज॑स्तेषां तव च धन्विनाम्‌ ।। ५६ ।। 

रजसा संवृते लोके शरजालसमावृते । 

राजन! तदनन्तर पाण्डवोंके और आपके धनुर्धरोंका परस्पर युद्ध होने लगा। उस समय 
सब लोग धूलसे आवृत और बाणसमूहसे आच्छादित हो गये थे || ५६३ ।। 

सर्वमाविग्नमभवतन्न प्राज्ञायत किंचन । 

सैन्येन रजसा ध्वस्ते निर्मर्यादमवर्तत ।। ५७ ।। 

वहाँका सब कुछ उद्विग्न हो रहा था। सेनाद्वारा उड़ायी हुई धूलसे ध्वस्त होनेके कारण 
किसीको कुछ ज्ञात नहीं होता था। वहाँ मर्यादाशून्य युद्ध चल रहा था ।। ५७ ।। 

इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणसात्यकियुद्धे 
अष्टनवतितमो< ध्याय: ।। ९८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोण और सात्यकिका 
युद्धविषयक जअद्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९८ ॥। 


न२््च्स्स््तारिस्सि ह्य ;््जाभ्प्ट्ज 


एकोनशततमो<ध्याय: 


अर्जुनके द्वारा तीव्र गतिसे कौरव-सेनामें प्रवेश, विन्द और 
अनुविन्दका वध तथा अद्भुत जलाशयका निर्माण 


संजय उवाच 

(वर्तमाने तदा युद्धे द्रोणस्प सह पाण्डुभि: ।।) 

विवर्तमाने त्वादित्ये तत्रास्तशिखरं प्रति । 

रजसा कीर्यमाणे च मन्दी भूते दिवाकरे ।। १ ।। 

तिष्ठतां युध्यमानानां पुनरावर्ततामपि । 

भज्यतां जयतां चैव जगाम तदह: शनै: ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जब द्रोणाचार्यका पाण्डवोंके साथ युद्ध हो रहा था और सूर्य 
अस्ताचलके शिखरकी ओर ढल चुके थे, उस समय धूलसे आवृत होनेके कारण 
दिवाकरकी रश्मियाँ मन्द दिखायी देने लगी थीं। योद्धाओंमेंसे कोई तो खड़े थे, कोई युद्ध 
करते थे, कोई भागकर पुन: पीछे लौटते थे और कोई विजयी हो रहे थे। इस प्रकार उन सब 
लोगोंका वह दिन धीरे-धीरे बीतता चला जा रहा था ।। १-२ ।। 

तथा तेषु विषक्तेषु सैन्येषु जयगृद्धिषु । 

अर्जुनो वासुदेवश्च सैन्धवायैव जग्मतु: ।। ३ ।। 

विजयकी अभिलाषा रखनेवाली वे समस्त सेनाएँ जब युद्धमें इस प्रकार अनुरक्त हो 
रही थीं, तब अर्जुन और श्रीकृष्ण सिन्धुराज जयद्रथको प्राप्त करनेके लिये ही आगे बढ़ते 
चले गये ।। ३ ।। 

रथमार्गप्रमाणं तु कौन्तेयो निशितै: शरै: । 

चकार यत्र पन्थानं ययौ येन जनार्दन: ।॥। ४ ।। 

कुन्तीकुमार अर्जुन अपने तीखे बाणोंद्वारा वहाँ रथके जानेयोग्य रास्ता बना लेते थे, 
जिससे श्रीकृष्ण रथ लिये आगे बढ़ जाते थे ।। ४ ।। 

यत्र यत्र रथो याति पाण्डवस्य महात्मन: । 

तत्र तत्रैव दीर्यन्ते सेनासतव विशाम्पते ।। ५ ।। 

प्रजानाथ! महामना पाण्डुनन्दन अर्जुनका रथ जहाँ-जहाँ जाता था, वहीं-वहीं आपकी 
सेनामें दरार पड़ जाती थी ।। ५ ।। 

रथशिक्षां तु दाशाहों दर्शयामास वीर्यवान्‌ | 

उत्तमाधममध्यानि मण्डलानि विदर्शयन्‌ ॥। ६ ।। 


दशाह्वंशी परम पराक्रमी भगवान्‌ श्रीकृष्ण उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकारके 
मण्डल दिखाते हुए अपनी उत्तम रथ शिक्षाका प्रदर्शन करते थे ।। ६ ।। 

ते तु नामाड़किता: पीता: कालज्वलनसंनिभा: । 

स्नायुनद्धा: सुपर्वाण: पृथवो दीर्घगामिन: ।। ७ ।। 

वैणवाश्नायसाश्षोग्रा ग्रसन्‍तौ विविधानरीन्‌ | 

रुधिरं पतगै: सार्ध प्राणिनां पपुराहवे ॥। ८ ।। 

अर्जुनके बाणोंपर उनका नाम अंकित था। उनपर पानी चढ़ाया गया था। वे 
कालाग्निके समान भयंकर, ताँतमें बँधे हुए, सुन्दर पंखवाले, मोटे तथा दूरतक जानेवाले थे। 
उनमेंसे कुछ तो बाँसके बने हुए थे और कुछ लोहेके। वे सभी भयंकर थे और नाना 
प्रकारके शत्रुओंका संहार करते हुए पक्षियोंके साथ उड़कर युद्धस्थलमें प्राणियोंका रक्त 
पीते थे || ७-८ ।। 

रथस्थितोडग्रत: क्रोशं यानस्यत्यर्जुन: शरान्‌ । 

रथे क्रोशमतिक्रान्ते तस्य ते घ्नन्ति शात्रवान्‌ ।। ९ ।। 

रथपर बैठे हुए अर्जुन अपने आगे एक कोसकी दूरीतक जिन बाणोंको फेंकते थे, वे 
बाण उनके शत्रुओंका जबतक संहार करते, तबतक उनका रथ एक कोस और आगे निकल 
जाता था || ९ |। 

ताक्ष्यमारुतरंहोभिवाजिभि: साधुवाहिभि: । 

तदागच्छद्धृषीकेश: कृत्स्नं विस्मापयन्‌ जगत्‌ ।। ३१० ।। 

उस समय भगवान्‌ हृषीकेश अच्छी प्रकारसे रथका भार वहन करनेवाले गरुड़ एवं 
वायुके समान वेगशाली घोड़ोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्‌को आश्वर्यचकित करते हुए आगे बढ़ रहे 
थे ।। १० ।। 

न तथा गच्छति रथस्तपनस्य विशाम्पते । 

नेन्द्रस्य न तु रुद्रस्य नापि वैश्रवणस्य च ।। ११ ।। 

प्रजानाथ! सूर्य, इन्द्र, रुद्र तथा कुबेरका भी रथ वैसी तीव्र गतिसे नहीं चलता था, जैसे 
अर्जुनका चलता था ।। ११ || 

नान्यस्य समरे राजन्‌ गतपूर्वस्तथा रथ: । 

यथा ययावर्जुनस्य मनो$भिप्रायशीघ्रग: ।॥ १२ ।। 

राजन! समरभूमिमें दूसरे किसीका रथ पहले कभी उस प्रकार तीव्र गतिसे नहीं चला 
था, जैसे अर्जुनका रथ मनकी अभिलाषाके अनुरूप शीघ्र गतिसे चलता था ।। १२ ।। 

प्रविश्य तु रणे राजन्‌ केशव: परवीरहा । 

सेनामध्ये हयांस्तूर्ण चोदयामास भारत ॥। १३ ।। 

महाराज! भरतनन्दन! शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने रणभूमिमें 
सेनाके भीतर प्रवेश करके अपने घोड़ोंको तीव्र वेगसे हाँका || १३ ।। 


ततस्तस्य रथौघस्य मध्यं प्राप्प हयोत्तमा: । 

कृच्छेण रथमूहुस्तं क्षुत्पिपासासमन्विता: ।। १४ ।। 

तदनन्तर रथियोंके समूहके मध्यभागमें पहुँचकर भूख और प्याससे पीड़ित हुए वे 
उत्तम घोड़े बड़ी कठिनाईसे उस रथका भार वहन कर पाते थे ।। १४ ॥। 

क्षताश्व बहुभि: शस्त्रैर्युद्धशौण्डैरनेकश: । 

मण्डलानि विचित्राणि विचेरुस्ते मुहुर्मुहु: ।। १५ ।। 

युद्धकुशल योद्धाओंने बहुत-से शस्त्रोंद्वारा उन्हें अनेक बार घायल कर दिया और वे 
क्षत-विक्षत हो बारंबार विचित्र मण्डलाकार गतिसे विचरण करते रहे ।। 

हतानां वाजिनागानां रथानां च नरै: सह । 

उपरिष्टादतिक्रान्ता: शैलाभानां सहस्रश: ।। १६ ।। 

रणभूमिमें सहस्रों पर्वताकार हाथी, घोड़े, रथ और पैदल मनुष्य मरे पड़े थे। उन सबको 
अर्जुनके घोड़े ऊपर-ही-ऊपर लाँघ जाते थे ।। १६ ।। 

(श्रमेण महता युक्तासस्‍्ते हया वातरंहस: । 

मन्दवेगगता राजन संवृत्तास्तत्र संयुगे ।।) 

राजन! वे वायुके समान वेगशाली अश्व उस युद्धस्थलमें अधिक परिश्रमसे थक जानेके 
कारण मन्दगतिसे चलने लगे। 

एतस्मिन्नन्तरे वीरावावन्त्यौ भ्रातरौ नूप । 

सहसेनौ समारच्छेतां पाण्डवं क्लान्तवाहनम्‌ ।। १७ ।। 

नरेश्वर! इसी बीचमें अवन्तीके वीर राजकुमार दोनों भाई विन्द और अनुविन्द थके हुए 
घोड़ोंवाले पाण्डुनन्दन अर्जुनका सामना करनेके लिये अपनी सेनाके साथ आये ।। १७ ।। 

तावर्जुनं चतुःषष्ट्या सप्तत्या च जनार्दनम्‌ | 

शराणां च शतैरश्वानविध्येतां मुदान्वितो ।। १८ ।। 

उन दोनोंने अर्जुनको चौंसठ और श्रीकृष्णको सत्तर बाण मारे तथा उनके घोड़ोंको सौ 
बाणोंसे घायल कर दिया। ऐसा करके उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई ।। १८ ।। 

तावर्जुनो महाराज नवभिर्नतपर्वभि: । 

आजलचघान रणे क्रुद्धो मर्मज्ञो मर्मभेदिभि: ।। १९ ।। 

महाराज! मर्मको जाननेवाले अर्जुनने रणक्षेत्रमें कुपित होकर झुकी हुई गाँठवाले नौ 
मर्मभेदी बाणोंद्वारा उन दोनोंको चोट पहुँचायी ।। १९ ।। 

ततस्तौ तु शरौघेण बीभत्सुं सहकेशवम्‌ । 

आच्छादयेतां संरब्धौ सिंहनादं च चक्रतु: ।। २० ।। 

तब उन दोनों भाइयोंने कुपित हो श्रीकृष्णसहित अर्जुनको अपने बाणसमूहोंसे 
आच्छादित कर दिया और बड़े जोरसे सिंहनाद किया ।। २० |। 

तयोस्तु धनुषी चित्रे भल्लाभ्यां श्वेतवाहन: । 


चिच्छेद समरे तूर्ण ध्वजी च कनकोज्ज्वलौ ॥। २१ ।। 

तदनन्तर श्वेत घोड़ोंवाले अर्जुनने समराड्णमें दो बाणोंद्वारा उनके दोनों विचित्र धनुषों 
और सुवर्णके समान प्रकाशित होनेवाले दोनों ध्वजोंको भी तुरंत ही काट डाला ।। २१ ।। 

अथान्ये धनुषी राजन्‌ प्रगृह्म समरे तदा । 

पाण्डवं भृशसंक्रुद्धावर्दयामासतु: शरै: ।। २२ ।। 

राजन! फिर वे दोनों भाई अत्यन्त कुपित हो उठे और उस समय समरांगणमें दूसरे 
धनुष लेकर उन्होंने बाणोंद्वारा पाण्डुकुमार अर्जुनको गहरी पीड़ा दी || २२ ।। 

तयोस्तु भृशसंक्रुद्ध: शराभ्यां पाण्डुनन्दन: । 

धनुषी चिच्छिदे तूर्ण भूय एव धनंजय: ।। २३ ।। 

यह देख पाण्डुनन्दन धनंजय अत्यन्त क्रोधसे जल उठे और दो बाण मारकर तुरंत ही 
उन्होंने उन दोनोंके धनुष पुन: काट डाले ।। २३ || 

तथान्यैर्विशिखैस्तूर्ण रुक्मपुड्खै: शिलाशितै: । 

जघानाश्रचांस्तथा सूतौ पार्ष्णी च सपदानुगौ ।। २४ ।। 

फिर सुवर्णमय पंखोंवाले और शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए दूसरे बाणोंद्वारा उनके 
घोड़ोंको एवं दोनों सारथियों, पार्श्वरक्षकों तथा पदानुगामी सेवकोंको भी शीघ्र ही मार 
डाला | २४ || 

ज्येष्ठस्य च शिर: कायात्‌ क्षुरप्रेण न्‍न्यकृन्तत । 

स पपात हतः पृथ्व्यां वातरुग्ण इव द्रुम: ।। २५ ।। 

इसके बाद एक क्षुरप्रद्वारा बड़े भाई विन्दका मस्तक धड़से काट दिया। विन्द आँधीके 
उखाड़े हुए वृक्षके समान मरकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। २५ ।। 

विन्दं तु निहतं दृष्टवा हानुविन्द: प्रतापवान्‌ | 

हताश्व॑ रथमुत्सृज्य गदां गृह्दु महाबल: ।। २६ ।। 

अभ्यवर्तत संग्रामे भ्रातुर्वधमनुस्मरन्‌ । 

विन्दको मारा गया देख महाबली और प्रतापी अनुविन्द अपने भाईके वधका बारंबार 
चिन्तन करता हुआ अश्वहीन रथको त्यागकर हाथमें गदा ले संग्राम-भूमिमें डटा रहा || २६ 
*॥ 

गदया रथियनां श्रेष्ठो नृत्यन्निव महारथ: ।। २७ ।। 

अनुविन्दस्तु गदया ललाटे मधुसूदनम्‌ | 

स्पृष्टवा नाकम्पयत्‌ क्रुद्धो मैनाकमिव पर्वतम्‌ ।। २८ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ महारथी अनुविन्दने कुपित हो नृत्य-सा करते हुए गदाद्वारा मधुसूदन 
भगवान्‌ श्रीकृष्णके ललाटमें आघात किया; परंतु मैनाकपर्वतके समान श्रीकृष्णको कम्पित 
न कर सका || २७-२८ ।। 

तस्यार्जुन: शरै: षड्भिग्रीवां पादौ भुजी शिर: । 


निचकर्त स संछिज्ञ: पपाताद्रिचयो यथा ।। २९ ।। 

तब अर्जुनने छः: बाणोंद्वारा उसकी गर्दन, दोनों पैरों, दोनों भुजाओं तथा मस्तकको भी 
काट डाला। इस प्रकार छिजन्न-भिन्न होकर वह पर्वतसमूहके समान धराशायी हो 
गया ।। २९ || 

ततस्तौ निहतौ दृष्टवा तयो राजन्‌ पदानुगा: । 

अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धा: किरन्‍त: शतश: शरान्‌ ॥। ३० ।। 

राजन्‌! तब उन दोनों भाइयोंको मारा गया देख उनके सेवकगण अत्यन्त कुपित हो 
अर्जुनपर सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करते हुए टूट पड़े || ३० ।। 

तानर्जुन: शरैस्तूर्ण निहत्य भरतर्षभ । 

व्यरोचत यथा बवल्निदावं दग्ध्वा हिमात्यये ।। ३१ ।। 

भरतश्रेष्ठ! अर्जुन बाणोंद्वारा तुरंत ही उन सबका संहार करके ग्रीष्म-ऋतुमें वनको 
जलाकर प्रकाशित होनेवाले अग्निदेवके समान सुशोभित हुए ।। ३१ ।। 

तयो: सेनामतिक्राम्य कृच्छादिव धनंजय: । 

विबभौ जलवदं हित्वा दिवाकर इवोदित: ।। ३२ ।। 

उन दोनोंकी सेनाका बड़ी कठिनाईसे उल्लंघन करके अर्जुन मेघोंका आवरण भेदकर 
उदित हुए सूर्यके समान प्रकाशित होने लगे || ३२ ।। 

त॑ दृष्टवा कुरवस्त्रस्ता: प्रह्ष्टा श्षाभवन्‌ पुन: । 

अभ्यवर्तन्त पार्थ च समन्ताद्‌ भरचर्षभ ।। ३३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन्हें देखकर कौरव-सैनिक पहले तो भयभीत हुए। फिर प्रसन्न भी हो गये। 
वे चारों ओरसे कुन्तीकुमारका सामना करनेके लिये डट गये ।। ३३ ।। 

भ्रान्तं चैनं समालक्ष्य ज्ञात्वा दूरे च सैन्धवम्‌ । 

सिंहनादेन महता सर्वत: पर्यवारयन्‌ ।। ३४ ।। 

अर्जुनको थका हुआ देख और सिन्धुराज जयद्रथको उनसे बहुत दूर जानकर आपके 
सैनिकोंने महान्‌ सिंहनाद करते हुए उन्हें सब ओरसे घेर लिया ।। ३४ ।। 

तांस्तु दृष्टवा सुसंरब्धानुत्स्मयन्‌ पुरुषर्षभ: । 

शनकैरिव दाशार्हमर्जुनो वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ३५ ।। 

उन सबको क्रोधमें भरा देख पुरुषशिरोमणि अर्जुनने मुसकराते हुए धीरे-धीरे भगवान्‌ 
श्रीकृष्णसे कहा-- ।। ३५ |। 

शरार्दिताश्च ग्लानाश्न हया दूरे च सैन्धव: । 

किमिहानन्तरं कार्य ज्यायिष्ठं तव रोचते ।। ३६ ।। 

'मेरे घोड़े बाणोंसे पीड़ित हो बहुत थक गये हैं और सिन्धुराज जयद्रथ अभी बहुत दूर 
है। अतः इस समय यहाँ कौन-सा कार्य आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है ।। ३६ ।। 

ब्रूहि कृष्ण यथाततच्त्व॑ त्वं हि प्राज्ञतम: सदा । 


भवन्नेत्रा रणे शत्रून्‌ विजेष्यन्तीह पाण्डवा: ।। ३७ ।। 

“श्रीकृष्ण! आप ही सदा सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी हैं। अतः मुझे यथार्थ बात बताइये। आपको 
नायक बनाकर ही पाण्डव इस रणक्षेत्रमें शत्रुओंपर विजयी होंगे || ३७ ।। 

मम त्वनन्तरं कृत्यं यद्‌ वै तत्‌ त्वं निबोध मे । 

हयान्‌ विमुच्य हि सुखं विशल्यान्‌ कुरु माधव ।। ३८ ।। 

“माधव! मेरी दृष्टिमें इस समय जो कर्तव्य है, वह बताता हूँ, आप मुझसे सुनिये। 
घोड़ोंको खोलकर इन्हें सुख पहुँचानेके लिये इनके शरीरसे बाण निकाल दीजिये” ।। ३८ ॥। 

एवमुक्तस्तु पार्थेन केशव: प्रत्युवाच तम्‌ । 

ममाप्येतन्मतं पार्थ यदिदं ते प्रभाषितम्‌ ।। ३९ ।। 

अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया--'पार्थ! तुमने 
इस समय जो बात कही है, यही मुझे भी अभीष्ट है” | ३९ ।। 

अर्जुन उवाच 

अहमावारयिष्यामि सर्वसैन्यानि केशव । 

त्वमप्यत्र यथान्यायं कुरु कार्यमनन्तरम्‌ ।। ४० ।। 

अर्जुन बोले--केशव! मैं इन समस्त सेनाओंको रोक रखूँगा। आप भी यहाँ इस समय 
करनेयोग्य यथोचित कार्य सम्पन्न करें || ४० ।। 

संजय उवाच 

सो<वतीर्य रथोपस्थादसम्भ्रान्तो धनंजय: । 

गाण्डीवं धनुरादाय तस्थौ गिरिरिवाचल: ।। ४१ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! अर्जुन बिना किसी घबराहटके रथकी बैठकसे उतर पड़े 
और गाण्डीव धनुष हाथमें लेकर पर्वतके समान अविचल भावसे खड़े हो गये ।। ४१ ।। 

तमभ्यधावन्‌ क्रोशन्त: क्षत्रिया जयकाड्ृक्षिण: । 

इदं छिद्रमिति ज्ञात्वा धरणीस्थं धनंजयम्‌ ।। ४२ ।। 

धनंजयको धरतीपर खड़ा जान “यही अवसर है” ऐसा कहते हुए विजयाभिलाषी 
क्षत्रिय हल्ला मचाते हुए उनकी ओर दौड़े ।। ४२ ।। 

तमेकं॑ रथवंशेन महता पर्यवारयन्‌ । 

विकर्षन्तश्न॒ चापानि विसृजन्तश्न॒ सायकान्‌ ।। ४३ ।। 

उन सबने महान्‌ रथसमूहके द्वारा एकमात्र अर्जुनको चारों ओर घेर लिया। वे सब-के- 
सब धनुष खींचते और उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा करते थे ।। ४३ ।। 

शस्त्राणि च विचित्राणि क्रुद्धास्तत्र व्यदर्शयन्‌ । 

छादयन्त: शरै: पार्थ मेघा इव दिवाकरम्‌ ।। ४४ ।। 


जैसे बादल सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार बाणोंद्वारा कुन्तीकुमार अर्जुनको 
आच्छादित करते हुए कुपित कौरव-सैनिक वहाँ विचित्र अस्त्र-शस्त्रोंका प्रदर्शन करने 
लगे || ४४ ।। 

अभ्यद्रवन्त वेगेन क्षत्रिया: क्षत्रियर्ष भम्‌ । 

नरसिंहं रथोदारा: सिंहं मत्ता इव द्विपा: ।। ४५ ।। 

जैसे मतवाले हाथी सिंहपर धावा करते हों, उसी प्रकार वे श्रेष्ठ रथी क्षत्रिय 
क्षत्रियशिरोमणि नरसिंह अर्जुनपर बड़े वेगसे टूट पड़े थे || ४५ ।। 

तत्र पार्थस्य भुजयोर्महद्धलमदृश्यत । 

यत्‌ क्रुद्धो बहुला: सेना: सर्वतः समवारयत्‌ ।। ४६ ।। 

उस समय वहाँ अर्जुनकी दोनों भुजाओंका महान्‌ बल देखनेमें आया। उन्होंने कुपित 
होकर उन विशाल सेनाओंको सब ओर जहाँ-की-तहाँ रोक दिया ।। ४६ ।। 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतो विभु: । 

इषुभिरबहुभिस्तूर्ण सर्वानेव समावृणोत्‌ ।। ४७ ।। 

शक्तिशाली अर्जुनने अपने अस्त्रोंद्वारा शत्रुओंके सम्पूर्ण अस्त्रोंका सब ओरसे निवारण 
करके अपने बहुसंख्यक बाणोंद्वारा तुरंत उन सबको ही आच्छादित कर दिया || ४७ ।। 

तत्रान्तरिक्षे बाणानां प्रगाढानां विशाम्पते | 

संघर्षण महार्चिष्मानू पावक: समजायत ।। ४८ ।। 

प्रजानाथ! वहाँ अन्तरिक्षमें ठसाठस भरे हुए बाणोंकी रगड़से भारी लपटोंसे युक्त आग 
प्रकट हो गयी ।। ४८ ।। 

तत्र तत्र महेष्वासै: श्वसद्धिः शोणितोक्षितै: । 

हयैनगिश्न सम्भिन्नैर्नदद्धिश्चवारिकर्षणै: ।। ४९ ।। 

संरब्धैश्वारिभिवीरि: प्रार्थयद्धिर्जयं मृथे । 

एकस्थै॑हुभि: क्रुद्धरूष्मेव समजायत ।। ५० ।। 

तदनन्तर जहाँ-तहाँ हाँफते और खूनसे लथपथ हुए महाथधनुर्थर योद्धाओं, अर्जुनके 
शत्रुनाशक बाणोंद्वारा विदीर्ण हो चीत्कार करते हुए हाथियों और घोड़ों तथा युद्धमें 
विजयकी अभिलाषा लिये रोषावेशमें भरकर एक जगह कुपित खड़े हुए बहुतेरे वीर 
शत्रुओंके जमघटसे उस स्थानपर गर्मी-सी होने लगी || ४९-५० ।। 

शरोर्मिणं ध्वजावर्त नागनक्रं दुरत्ययम्‌ । 

पदातिमत्स्यकलिलं शड्खदुन्दुभिनि:स्वनम्‌ ।। ५१ ।। 

असंख्येयमपारं च रथोर्मिणमतीव च । 

उष्णीषकमठं छत्रपताकाफेनमालिनम्‌ ।। ५२ ।। 

रणसागरमक्षोभ्यं मातज्राड़्शिलाचितम्‌ । 

वेलाभूतस्तदा पार्थ: पत्रिभि: समवारयत्‌ ।। ५३ ।। 


उस समय अर्जुनने उस असंख्य, अपार, दुर्लड्घ्य एवं अक्षोभ्य रण-समुद्रको सीमावर्ती 
तटप्रान्तके समान होकर अपने बाणोंद्वारा रोक दिया। उस रणसागरमें बाणोंकी तरंगें उठ 
रही थीं, फहराते हुए ध्वज भौंरोंके समान जान पड़ते थे, हाथी ग्राह थे, पैदल सैनिक मत्स्य 
और कीचड़के समान प्रतीत होते थे, शंखों और दुन्दुभियोंकी ध्वनि ही उस रणसिन्धुकी 
गम्भीर गर्जना थी, रथ ऊँची-ऊँची लहरोंके समान जान पड़ते थे, योद्धाओंकी पगड़ी और 
टोप कछुओंके समान थे, छत्र और पताकाएँ फेनराशि-सी प्रतीत होती थीं तथा मतवाले 
हाथियोंकी लाशें ऊँचे-ऊँचे शिलाखण्डोंके समान उस सैन्यसागरको व्याप्त किये हुए 
थीं ।। ५१--५३ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

अर्जुने धरणीं प्राप्ते हपहस्ते च केशवे । 

एतदन्तरमासाद्य कथं पार्थो न घातित: ।। ५४ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जब अर्जुन धरतीपर उतर आये और भगवान्‌ श्रीकृष्णने 
घोड़ोंकी चिकित्सामें हाथ लगाया, तब यह अवसर पाकर मेरे सैनिकोंने कुन्तीकुमारका वध 
क्यों नहीं कर डाला? ।। ५४ ।। 

संजय उवाच 

सद्यः पार्थिव पार्थेन निरुद्धा: सर्वपार्थिवा: । 

रथस्था धरणीस्थेन वाक्यमच्छान्दसं यथा ।। ५५ ।। 

संजयने कहा--महाराज! उस समय पार्थने पृथ्वीपर खड़े होकर रथपर बैठे हुए 
समस्त भूपालोंको सहसा उसी प्रकार रोक दिया, जैसे वेदविरुद्ध वाक्य अग्राह्म कर दिया 
जाता है || ५५ || 

स पार्थ: पार्थिवान्‌ सर्वान्‌ भूमिस्थो5पि रथस्थितान्‌ । 

एको निवारयामास लोभ: सर्वगुणानिव ।। ५६ ।। 

अर्जुनने अकेले ही पृथ्वीपर खड़े रहकर भी रथपर बैठे हुए समस्त पृथ्वीपतियोंको 
उसी प्रकार रोक दिया, जैसे लोभ सम्पूर्ण गुणोंका निवारण कर देता है || ५६ ।। 

ततो जनार्दन: संख्ये प्रियं पुरुषसत्तमम्‌ । 

असम्भ्रान्तो महाबाहुरर्जुनं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। ५७ ।। 

तदनन्तर सम्भ्रमरहित महाबाहु भगवान्‌ श्रीकृष्णने युद्धस्थलमें अपने प्रिय सखा 
पुरुषप्रवर अर्जुनसे यह बात कही-- || ५७ ।। 

उदपानमिहाश्वानां नालमस्ति रणे<र्जुन । 

परीप्सन्ते जल॑ चेमे पेयं न त्ववगाहनम्‌ ।। ५८ ।। 

“अर्जुन! यहाँ घोड़ोंके पीनेके लिये पर्याप्त जल नहीं है। ये पीनेयोग्य जल चाहते हैं। 
इन्हें स्नानकी इच्छा नहीं है” || ५८ ।। 


इदमस्तीत्यसम्भ्रान्तो ब्रुवन्नस्त्रेण मेदिनीम्‌ । 

अभिटहत्यार्जुनक्षक्रे वाजिपानं सर: शुभम्‌ ।। ५९ ।। 

“यह रहा इनके पीनेके लिये जल” ऐसा कहकर अर्जुनने बिना किसी घबराहटके 
अस्त्रद्वारा पृथ्वीपर आघात करके घोड़ोंके पीनेयोग्य जलसे भरा हुआ सुन्दर सरोवर उत्पन्न 
कर दिया ।। ५९ || 

हंसकारण्डवाकीर्ण चक्रवाकोपशोभितम्‌ । 

सुविस्तीर्ण प्रसन्नाम्भ: प्रफल्लवरपड्कजम्‌ ।। ६० ।। 

उसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी भरे हुए थे, चक्रवाक उसकी शोभा बढ़ा रहे 
थे। स्वच्छ जलसे युक्त उस विशाल सरोवरमें सुन्दर कमल खिले हुए थे ।। ६० ।। 

कूर्ममत्स्यगणाकीर्णमगाधमृषिसेवितम्‌ । 

आगच्छन्नारदमुनिर्दर्शनार्थ कृतं क्षणात्‌ ।। ६१ ।। 

वह अगाध जलाशय कछुओं और मछलियोंसे भरा था। ऋषिगण उसका सेवन करते 
थे। तत्काल प्रकट किये हुए ऐसी योग्यतावाले उस सरोवरका दर्शन करनेके लिये देवर्षि 
नारदजी वहाँ आये ।। ६१ ।। 

शरवंशं शरस्थूणं शराच्छादनमद्भुतम्‌ । 

शरवेश्माकरोत्‌ पार्थस्त्वष्टेवाद्भुतकर्मकृत्‌ ।। ६२ ।। 

विश्वकमकि समान अद्भुत कर्म करनेवाले अर्जुनने वहाँ बाणोंका एक अद्भुत घर बना 
दिया था, जिनमें बाणोंके ही बाँस, बाणोंके ही खम्भे और बाणोंकी ही छाजन थी ।। 

ततः प्रहस्य गोविन्द: साधु साधथ्वित्यथाब्रवीत्‌ । 

शरवेश्मनि पार्थेन कृते तस्मिन्‌ महात्मना ।। ६३ ।। 

महामना अर्जुनके द्वारा वह बाणमय गृह निर्मित हो जानेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने हँसकर 
कहा--'शाबास अर्जुन, शाबास' || ६३ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि विन्दानुविन्दवधे अर्जुनसरोनिर्माणे 
च एकोनशततमो<ध्याय: ॥। ९९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें विन्द और अनुविन्दका वध 
तथा अर्जुनके द्वार जलाशयका निर्माणविषयक निन्‍्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ९९ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६३ “लोक मिलाकर कुल ६४ ३ “लोक हैं) 


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शततमो< ध्याय: 


श्रीकृष्णके द्वारा अश्वपरिचर्या तथा खा-पीकर हृष्ट-पुष्ट हुए 
अश्वोंद्वारा अर्जुनका पुन: शत्रुसेनापर आक्रमण करते हुए 
जयद्रथकी ओर बढ़ना 


संजय उवाच 

सलिले जनिते तस्मिन्‌ कौन्तेयेन महात्मना । 

निस्तारिते द्विषत्सैन्ये कृते च शरवेश्मनि ।। १ ।। 

वासुदेवो रथात्‌ तूर्णमवतीर्य महाद्युति: । 

मोचयामास तुरगान्‌ विनुन्नान्‌ कड़कपत्रिभि: ॥। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जब महात्मा कुन्तीकुमारने वह जल उत्पन्न कर दिया, 
शत्रुओंकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोक दिया और बाणोंका घर बना दिया, तब महातेजस्वी 
भगवान्‌ श्रीकृष्णने तुरंत ही रथसे उतरकर कंकपत्रयुक्त बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए घोड़ोंको 
खोल दिया ।। १-२ || 





अदृष्टपूर्व तद्‌ दृष्टवा साधुवादों महानभूत्‌ । 

सिद्धचारणसंघानां सैनिकानां च सर्वश: || ३ ।। 

यह अदृष्टपूर्व कार्य देखकर सिद्ध, चारण तथा सैनिकोंके मुखसे निकला हुआ महान्‌ 
साधुवाद सब ओर गूँज उठा ।। ३ ।। 

पदातिन तु कौन्तेयं युध्यमानं महारथा: । 

नाशवनुवन्‌ वारयितुं तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ४ ।। 

पैदल युद्ध करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुनको समस्त महारथी मिलकर भी न रोक सके; 
यह अद्भुत-सी बात हुई ।। ४ ।। 

आपतत्सु रथौधेषु प्रभूतगजवाजिषु । 

नासम्भ्रमत्‌ तदा पार्थस्तदस्य पुरुषानति ।। ५ ।। 

रथियोंके समूह तथा बहुत-से हाथी-घोड़े सब ओरसे उनपर टूट पड़े थे, तो भी उस 
समय कुन्तीकुमार अर्जुनको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उनका यह धैर्य और साहस 
समस्त पुरुषोंसे बढ़-चढ़कर था || ५ |। 

व्यसृजन्त शरौघांस्ते पाण्डवं प्रति पार्थिवा: । 

न चाव्यथत धर्मात्मा वासवि: परवीरहा ।। ६ ।। 

सम्पूर्ण भूपाल पाण्डुनन्दन अर्जुनपर बाणसमूहोंकी वर्षा कर रहे थे, तो भी शत्रुवीरोंका 
संहार करनेवाले इन्द्रकुमार धर्मात्मा पार्थ तनिक भी व्यथित नहीं हुए ।। 

स तानि शरजालानि गदा: प्रासांश्व वीर्यवान्‌ 

आगतानग्रसत्‌ पार्थ: सरित: सागरो यथा ॥। ७ ।। 

उन पराक्रमी कुन्तीकुमारने शत्रुओंके उन बाणसमूहों, गदाओं और प्रासोंको अपने 
पास आनेपर उसी प्रकार ग्रस लिया, जैसे समुद्र सरिताओंको अपनेमें मिला लेता है ।। 

अस्त्रवेगेन महता पार्थो बाहुबलेन च । 

सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणामग्रसत्‌ तान्‌ शरोत्तमान्‌ ।। ८ ।। 

अर्जुनने अस्त्रोंके महान्‌ वेग और बाहुबलसे समस्त राजाधिराजोंके उत्तमोत्तम बाणोंको 
नष्ट कर दिया || ८ ।। 

तत्‌ तु पार्थस्य विक्रान्तं वासुदेवस्थ चो भयो: । 

अपूजयन्‌ महाराज कौरवा महदद्भुतम्‌ ।। ९ ।। 

महाराज! अर्जुन और भगवान्‌ श्रीकृष्ण दोनोंके उस अत्यन्त अद्भुत पराक्रमकी समस्त 
कौरवोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की ।। ९ ।। 

किमद्धुततमं लोके भविताप्यथवा हाभूत्‌ । 

यदश्वान्‌ पार्थगोविन्दौ मोचयामासतू रणे ।। १० ।। 

संसारमें इससे बढ़कर और कोई अत्यन्त अद्भुत घटना क्‍या होगी अथवा हुई होगी कि 
अर्जुन और श्रीकृष्णने उस भयंकर संग्राममें भी घोड़ोंको रथसे खोल दिया ।। १० ।। 


भयं विपुलमस्मासु तावधत्तां नरोत्तमौ | 

तेजो विदधतुश्चोग्रं विस्रब्धौ रणमूर्थनि ।। ११ ।। 

उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंने हमलोगोंमें महान्‌ भय उत्पन्न कर दिया और युद्धके मुहानेपर 
निर्भय और निश्चिन्त होकर अपने भयानक तेजका प्रदर्शन किया ।। 

अथ स्मयन्‌ हृषीकेश: स्त्रीमध्य इव भारत । 

अर्जुनेन कृते संख्ये शरगर्भगृहे तथा ।। १२ ।। 

भरतनन्दन! युद्धस्थलमें अर्जुनके बनाये हुए उस बाणनिर्मित गृहमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण 
उसी प्रकार मुसकराते हुए निर्भय खड़े थे, मानो वे स्त्रियोंके बीचमें हों || १२ ।। 

उपावर्तयदव्यग्रस्तान श्वान्‌ पुष्करेक्षण: । 

मिषतां सर्वसैन्यानां त्वदीयानां विशाम्पते ।। १३ ।। 

प्रजानाथ! कमलनयन श्रीकृष्णने आपके सम्पूर्ण सैनिकोंके देखते-देखते उद्धेगशून्य 
होकर उन घोड़ोंकोी टहलाया ।। १३ ।। 

तेषां श्रमं च ग्लानिं च वमथुं वेपथुं व्रणान्‌ । 

सर्व व्यपानुदत्‌ कृष्ण: कुशलो हाश्वकर्मणि ।। १४ ।। 

घोड़ोंकी चिकित्सा करनेमें कुशल श्रीकृष्णने उनके परिश्रम, थकावट, वमन, कम्पन 
और घाव--सारे कष्टोंको दूर कर दिया ।। १४ ।। 

शल्यानुद्धृत्य पाणिभ्यां परिमृज्य च तान्‌ हयान्‌ । 

उपावर्त्य यथान्यायं पाययामास वारि स: ।। १५ ।। 

उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे बाण निकालकर उन घोड़ोंको मला और यथोचित रूपसे 
टहलाकर उन्हें पानी पिलाया ।। १५ ।। 





स ताल्लब्धोदकान्‌ स्नातान्‌ जग्धान्नान्‌ विगतक्‍्लमान्‌ | 

योजयामास संदृष्ट: पुनरेव रथोत्तमे ।। १६ ।। 

श्रीकृष्णने पानी पिलाकर उन्हें नहलाया, घास और दाने खिलाये तथा जब उनकी सारी 
थकावट दूर हो गयी, तब पुनः उस उत्तम रथमें उन्हें बड़ी प्रसन्नताके साथ जोत 
दिया ।। १६ ।। 

स तं रथवरं शौरि: सर्वशस्त्रभृतां वर: । 

समास्थाय महातेजा: सार्जुन: प्रययौ द्रुतम्‌ ।। १७ ।। 

तदनन्तर सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी श्रीकृष्ण उस उत्तम रथपर 
अर्जुनसहित आरूढ़ हो बड़े वेगसे आगे बढ़े ।। १७ ।। 

रथं रथवरस्याजोौ युक्त लब्धोदकैर्हयै: । 

दृष्टवा कुरुबलश्रेष्ठा: पुनर्विमनसो5भवन्‌ ।। १८ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनके उस रथको समरांगणमें पानी पीकर सुस्ताये हुए घोड़ोंसे जुता 
हुआ देख कौरव-सेनाके श्रेष्ठ वीर फिर उदास हो गये ।। १८ ।। 

विनिः:श्वसन्तस्ते राजन्‌ भग्नदंष्टा इवोरगा: । 


धिगहो धिग्गतः पार्थ: कृष्णश्रेत्यब्रुवन्‌ पृथक्‌ ।। १९ |। 

राजन! टूटे दाँतवाले सर्पोके समान लंबी साँस खींचते हुए वे पृथक्‌-पृथक्‌ कहने लगे 
--“अहो! हमें धिक्कार है, धिक्कार है, अर्जुन और श्रीकृष्ण तो चले गये” ।। १९ ।। 

त्वत्सेना: सर्वतो दृष्टवा लोमहर्षणमद्भुतम्‌ । 

त्वरध्वमिति चाक्रन्दन्‌ नैतदस्तीति चाब्रुवन्‌ ।। २० ।। 

आपकी सम्पूर्ण सेनाएँ वह अद्भुत रोमांचकारी व्यापार देखकर अपने साथियोंको 
पुकार-पुकारकर कहने लगीं--“वीरो! ऐसा नहीं हो सकता। तुम सब लोग शीघ्रतापूर्वक 
उनका पीछा करो” ।। २० ।। 

सर्वक्षत्रस्य मिषतो रथेनैकेन दंशितौ । 

बाल: क्रीडनकेनेव कदर्थीकृत्य नो बलम्‌ ।। २१ ।। 

क्रोशतां यतमानानामसंसक्तौ परंतपौ | 

दर्शयित्वा$5त्मनो वीर्य प्रयातौ सर्वराजसु ।। २२ ।। 

हमलोग चीखते-चिल्लाते तथा रोकनेकी चेष्टा करते ही रह गये; परंतु कुछ न हो सका। 
शत्रुओंको संताप देनेवाले कवचधारी श्रीकृष्ण और अर्जुन हम सब क्षत्रियोंके देखते-देखते 
हमारे बलकी अवहेलना करके एकमात्र रथके द्वारा सम्पूर्ण राजमण्डलीमें अपना पराक्रम 
दिखाकर उसी प्रकार बेरोक-टोक आगे बढ़ गये हैं, जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता हुआ 
निकल जाता है ॥। २१-२२ ।। 

(यथा दैवासुरे युद्धे तृणीकृत्य च दानवान्‌ । 

इन्द्राविष्णू पुरा राजन्‌ जम्भस्य वधकाडुक्षिणौ ।।) 

राजन! पूर्वकालमें जैसे देवासुर-संग्राममें चम्भासुरका वध करनेकी इच्छावाले इन्द्र 
और भगवान्‌ विष्णु दानवोंको तिनकोंके समान तुच्छ मानते हुए आगे बढ़ गये थे (उसी 
प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन जयद्रथको मारनेके लिये बड़े वेगसे अग्रसर हो रहे हैं)। 

तौ प्रयातौ पुनर्दष्टवा तदान्ये सैनिकाब्रुवन्‌ 

त्वरध्वं कुरव: सर्वे वधे कृष्णकिरीटिनो: ।। २३ ।। 

रथयुक्तो हि दाशाहों मिषतां सर्वधन्विनाम्‌ । 

जयद्रथाय यात्येष कदर्थीकृत्य नो रणे ।। २४ ।। 

उन दोनोंको पुनः आगे बढ़ते देख दूसरे सैनिक बोल उठे--“कौरवो! श्रीकृष्ण और 
अर्जुनका वध करनेके लिये तुम सब लोग शीघ्र चेष्टा करो। इस रणक्षेत्रमें रथपर बैठे हुए 
श्रीकृष्ण हमारी अवहेलना करके हम सब थधनुर्धरोंके देखते-देखते जयद्रथकी ओर बढ़े जा 
रहे हैं! || २३-२४ ।। 

तत्र केचिन्मिथो राजन्‌ समभाषन्त भूमिपा: । 

अदृष्टपूर्व संग्रामे तद्‌ दृष्टया महदद्भुतम्‌ ।। २५ ।। 


राजन! वहाँ कुछ भूमिपाल समरांगणमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका वह अत्यन्त अद्भुत 
अदृष्टपूर्व कार्य देखकर आपसमें इस प्रकार बातें करने लगे--- || २५ ।। 

सर्वसैन्यानि राजा च धृतराष्ट्रो5त्ययं गतः । 

दुर्योधनापराधेन क्षत्रं कृत्स्ना च मेदिनी | २६ ।। 

विलयं समनुप्राप्ता तच्च राजा न बुध्यते । 

“एकमात्र दुर्योधनके अपराधसे राजा धृतराष्ट्र तथा उनकी सम्पूर्ण सेनाएँ भारी विपत्तिमें 
फँस गयीं। सारा क्षत्रियसममाज और सम्पूर्ण पृथ्वी विनाशके द्वारपर जा पहुँची है। इस 
बातको राजा धृतराष्ट्र नहीं समझ रहे हैं! || २६३ ।। 

इत्येवं क्षत्रियास्तत्र ब्रुवन्त्यन्ये च भारत ।। २७ ।। 

सिन्धुराजस्य यत्‌ कृत्यं गतस्य यमसादनम्‌ | 

तत्‌ करोतु वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रीडनुपायवित्‌ || २८ ।। 

भारत! इसी प्रकार वहाँ दूसरे क्षत्रिय निम्नांकित बातें कहते थे--'योग्य उपायको न 
जाननेवाले और मिथ्या दृष्टि रखनेवाले राजा धृतराष्ट्र यमलोकमें गये हुए सिन्धुराज 
जयद्रथका जो और्ध्वदैहिक कृत्य है, उसका सम्पादन करें” || २७-२८ ।। 

ततः शीघ्रतरं प्रायात्‌ पाण्डव: सैन्धवं प्रति । 

विवर्तमाने तिग्मांशौ हृष्टे: पीतोदकै्हयै: ।। २९ ।। 

तदनन्तर पानी पीकर हर्ष और उत्साहमें भरे हुए घोड़ोंद्वारा पाण्डुकुमार अर्जुन 
सिन्धुराज जयद्रथकी ओर बड़े वेगसे बढ़ने लगे। उस समय सूर्यदेव अस्ताचलके शिखरकी 
ओर ढलते चले जा रहे थे ।। २९ ।। 

त॑ प्रयान्तं महाबाहुं सर्वशस्त्रभूतां वरम्‌ । 

नाशवनुवन्‌ वारयितुं योधा: क्रुद्धमिवान्तकम्‌ ।। ३० ।। 

जैसे क्रोधमें भरे हुए यमराजको रोकना असम्भव है, उसी प्रकार आगे बढ़ते हुए 
समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुनको आपके सैनिक रोक न सके ।। 

विद्राव्य तु ततः सैन्यं पाण्डव: शत्रुतापन: । 

यथा मृगगणान्‌ सिंह: सैन्धवार्थे व्यलोडयत्‌ ।। ३१ ।। 

जैसे सिंह मृगोंके झुंडको खदेड़ता हुआ उन्हें मथ डालता है, उसी प्रकार शत्रुओंको 
संताप देनेवाले पाण्डुकुमार अर्जुन आपकी सेनाको खदेड़-खदेड़कर मारने और मथने 
लगे ।। ३१ ।। 

गाहमानस्त्वनीकानि तूर्णमश्वानचोदयत्‌ । 

बलाकाभ तु दाशार्ह: पाउ्चजन्यं व्यनादयत्‌ ।। ३२ ।। 

सेनाके भीतर घुसते हुए श्रीकृष्णने तीव्र वेगसे अपने घोड़ोंको आगे बढ़ाया और 
बगुलोंके समान श्वेत रंगवाले अपने पांचजन्य शंखको बड़े जोरसे बजाया ।। ३२ ।। 

कौन्तेयेनाग्रत: सृष्टा न्यपतन्‌ पृष्ठतः शरा: । 


तूर्णात्‌ तूर्णतरं हाश्वा: प्रावहन्‌ वातरंहस: ।। ३३ ।। 

वायुके समान वेगशाली अश्व इतनी तीव्रातितीव्र गतिसे रथको लिये हुए भाग रहे थे कि 
कुन्तीकुमार अर्जुनद्वारा आगेकी ओर फेंके हुए बाण उनके रथके पीछे गिरते थे ।। 

ततो नृपतय: क्रुद्धा: परिवद्रुर्धनंजयम्‌ । 

क्षत्रिया बहवश्चान्ये जयद्रथवधैषिणम्‌ ।। ३४ ।। 

तत्पश्चात्‌ क्रोधमें भरे हुए बहुत-से नरेशों तथा अन्य क्षत्रियोंने जयद्रथवधकी इच्छा 
रखनेवाले अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया ।। ३४ ।। 

सैन्येषु विप्रयातेषु धिष्ठितं पुरुषर्षभम्‌ । 

दुर्योधनो<न्वयात्‌ पार्थ त्वरमाणो महाहवे ।। ३५ ।। 

सेनाओंके सहसा आक्रमण करनेपर पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन कुछ ठहर गये। इसी समय उस 
महासमरमें राजा दुर्योधनने बड़ी उतावलीके साथ उनका पीछा किया ।। ३५ |। 

वातोद्धृतपताकं तं रथ जलदनि:स्वनम्‌ । 

घोरं कपिध्वजं दृष्टवा विषण्णा रथिनो5भवन्‌ ॥। ३६ ।। 

हवा लगनेसे अर्जुनके रथकी पताका फहरा रही थी। उस रथसे मेघकी गर्जनाके समान 
गम्भीर ध्वनि हो रही थी और ध्वजापर वानरवीर हनुमानजी विराजमान थे। उस भयंकर 
रथको देखकर सम्पूर्ण रथी विषादग्रस्त हो गये || ३६ ।। 

दिवाकरे5थ रजसा सर्वतः संवृते भृशम्‌ । 

शरार्ताश्न रणे योधा: शेकु: कृष्णौ न वीक्षितुम्‌ ।। ३७ ।। 

उस समय सब ओर इतनी धूल उड़ रही थी कि सूर्यदेव छिप गये। उस रफक्षेत्रमें 
बाणोंसे पीड़ित हुए सैनिक श्रीकृष्ण और अर्जुनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते 
थे ।। ३७ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सैन्यविस्मये शततमो<ध्याय: ।। 
२१०० |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सेनाविस्मयविषयक सौवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १०० ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३८ श्लोक हैं) 


हि ही बक। हि मा 


एकाधिकशततमो< ध्याय: 


श्रीकृष्ण और अर्जुनको आगे बढ़ा देख कौरव-सैनिकोंकी 
निराशा तथा दुर्योधनका युद्धके लिये आना 


संजय उवाच 

स्रंसन्‍त इव मज्जानस्तावकानां भयान्नूप । 

तौ दृष्टवा समतिक्रान्तो वासुदेवधनंजयौ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--नरेश्वर! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनको सबको लाँघकर आगे बढ़ा 
हुआ देख भयके कारण आपके सैनिकोंकी मज्जा खिसकने लगी ।। १ ।। 

सर्वे तु प्रतिसंरब्धा हीमन्त: सत्त्वचोदिता: । 

स्थिरीभूता महात्मान: प्रत्यगच्छन्‌ धनंजयम्‌ ।। २ ।। 

फिर वे लज्जित हुए समस्त महामनस्वी सैनिक धैर्य और साहससे प्रेरित हो युद्धके 
लिये स्थिरचित्त होकर रोषपूर्वक अर्जुनकी ओर जाने लगे ।। २ ।। 

ये गता: पाण्डवं युद्धे रोषामर्षसमन्विता: । 

तेडद्यापि न निवर्तन्ते सिन्धव: सागरादिव ।। ३ ।। 

जो लोग युद्धमें रोष और अमर्षसे भरकर पाण्डुनन्दन अर्जुनके सामने गये, वे 
समुद्रतक गयी हुई नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे ।। ३ ।। 

असन्तस्तु न्यवर्तन्त वेदेभ्य इव नास्तिका: । 

नरकं भजमानास्ते प्रत्यपद्यन्त किल्बिषम्‌ ।। ४ ।। 

जैसे नास्तिक पुरुष वेदोंसे (उनकी बतायी हुई विधियोंसे) दूर रहते हैं, उसी प्रकार जो 
अधम मनुष्य थे, वे ही अर्जुनके सामने जाकर भी लौट आये (पीठ दिखाकर भाग खड़े 
हुए)। वे नरकमें पड़कर अपने पापका फल भोग रहे होंगे || ४ ।। 

तावतीत्य रथानीकं विमुक्तौ पुरुषर्षभौ । 

ददृशाते यथा राहोरास्यान्मुक्तौ प्रभाकरी ।। ५ ।। 

रथियोंकी सेनाको लाँधकर उनके घेरेसे मुक्त हुए पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन राहुके 
मुँहसे छूटे हुए सूर्य और चन्द्रमाके समान दिखायी दिये ।। ५ ।। 

मत्स्याविव महाजालं विदार्य विगतक्लमौ । 

तथा कृष्णावदृश्येतां सेनाजालं विदार्य तत्‌ ।। ६ ।। 

जैसे दो मत्स्य किसी महाजालको फाड़कर निकल जानेपर क्लैशशून्य हो जाते हैं, 
उसी प्रकार उस सेनासमूहको विदीर्ण करके श्रीकृष्ण और अर्जुन क्लेशरहित दिखायी देते 
थे।।६।। 


विमुक्तौ शस्त्रसम्बाधाद्‌ द्रोणानीकात्‌ सुदुर्भिदात्‌ | 

अदृश्येतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ || ७ ।। 

शस्त्रोंसे भरे हुए आचार्य द्रोणके दुर्भद्य सैन्यव्यूहसे छुटकारा पाकर महात्मा श्रीकृष्ण 
और अर्जुन उदित हुए प्रलयकालके सूर्यके समान दृष्टिगोचर हो रहे थे || ७ ।। 

अस्त्रसम्बाधनिर्मुक्तौ विमुक्तौ शस्त्रसंकटात्‌ | 

अदृश्येतां महात्मानौ शत्रुसम्बाधकारिणौ ।। ८ ।। 

विमुक्तौ ज्वलनस्पर्शान्मकरास्याज्ञषाविव । 

शत्रुओंको संतप्त करनेवाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्निके समान 
दाहक स्पर्शवाले मगरके मुखसे छूटे हुए दो मत्स्योंके समान अस्त्र-शस्त्रोंकी बाधाओं तथा 
संकटोंसे मुक्त दिखायी दे रहे थे || ८६ ।। 

अक्षोभयेतां सेनां तौ समुद्र मकराविव ।। ९ ।। 

तावकास्तव पुत्रा श्च द्रोणानीकस्थयोस्तयो: । 

नैतौ तरिष्यतो द्रोणमिति चक़ुस्तदा मतिम्‌ ।। १० ।। 

जैसे दो मगर समुद्रको क्षुब्ध कर देते हैं, उसी प्रकार उन दोनोंने सारी सेनाको व्याकुल 
कर दिया। आपके सैनिकों तथा पुत्रोंने उस समय द्रोणाचार्यके सैन्यव्यूहमें घुसे हुए श्रीकृष्ण 
और अर्जुनके सम्बन्धमें यह विचार किया था कि ये दोनों द्रोणको नहीं लाँघ 
सकेंगे ।। ९-१० ।। 

तौतु दृष्टवा व्यतिक्रान्तौ द्रोणानीकं महाद्युती । 

नाशशंसुर्महाराज सिन्धुराजस्य जीवितम्‌ ।। ११ ।। 

परंतु महाराज! जब वे दोनों महातेजस्वी वीर द्रोणाचार्यके सैन्यव्यूहको लाँध गये, तब 
उन्हें देखकर आपके पुत्रोंको सिन्धुराजके जीवित रहनेकी आशा नहीं रह गयी ।। ११ ।। 

आशा बलवती राजन्‌ सिन्धुराजस्य जीविते । 

द्रोणहार्दिक्ययो: कृष्णौ न मोक्ष्येते इति प्रभो ।। १२ ।। 

राजन! प्रभो! सब लोगोंको यह सोचकर कि श्रीकृष्ण और अर्जुन द्रोणाचार्य तथा 
कृतवर्मके हाथसे नहीं छूट सकेंगे, सिन्धुराजके जीवनकी आशा प्रबल हो उठी 
थी ।। १२ ।। 

तामाशां विफलीकृत्य संतीर्णो तौ परंतपौ । 

द्रोणानीक॑ महाराज भोजानीकं च दुस्तरम्‌ ।। १३ ।। 

महाराज! शत्रुओंको संताप देनेवाले वे दोनों वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन लोगोंकी उस 
आशाको विफल करके द्रोणाचार्य तथा कृतवर्माकी दुस्तर सेनाको लाँघ गये ।। १३ ।। 

अथ दृष्टवा व्यतिक्रान्ती ज्वलिताविव पावकौ । 

निराशा: सिन्धुराजस्य जीवितं न शशंसिरे ।। १४ ।। 


दो प्रज्वलित अग्नियोंके समान सारी सेनाको लाँधकर खड़े हुए उन दोनों वीरोंको 
सकुशल देख आपके सैनिकोंने निराश होकर सिन्धुराजके जीवनकी आशा त्याग 
दी ।। १४ ।। 

मिथश्ल समभाषेतामभीतौ भयवर्धनौ । 

जयद्रथवधे वाचस्तास्ता: कृष्णधनंजयौ ।। १५ ।। 

दूसरोंका भय बढ़ाने और स्वयं निर्भय रहनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुन आपसमें 
जयद्रथवधके विषयमें इस प्रकार बातें करने लगे-- ।। १५ ।। 

असौ मध्ये कृत: षड्भिर्धार्तराष्ट्र॑महारथै: । 

चक्षुविषयसम्प्राप्तो न मे मोक्ष्यति सैन्धव: ।। १६ ।। 

यद्यपि धृतराष्ट्रके छः महारथी पुत्रोंने जयद्रथको अपने बीचमें छिपा रखा है, तथापि 
यदि वह मेरी आँखोंको दीख गया तो मेरे हाथसे जीवित नहीं बच सकेगा ।। १६ ।। 

यद्यस्य समरे गोप्ता शक्रो देवगणै: सह । 

तथाप्येनं निहंस्थाव इति कृष्णावभाषताम्‌ ।। १७ ।। 

“यदि देवताओंसहित साक्षात्‌ इन्द्र भी समरांगणमें इसकी रक्षा करें, तो भी हम दोनों 
इसे अवश्य मार डालेंगे।” इस प्रकार दोनों कृष्ण आपसमें बात कर रहे थे ।। १७ ।। 

इति कृष्णा महाबाहू मिथो5कथयतां तदा | 

सिन्धुराजमवेक्षन्तौ त्वत्पुत्रा बहु चुक्रुशु: ।। १८ ।। 
सिन्धुराज जयद्रथकी खोज करते हुए महाबाहु श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस समय जब 

आपसमें उपर्युक्त बातें कहीं, तब आपके पुत्र बहुत कोलाहल करने लगे ।। १८ ।। 

अतीत्य मरुधन्वानं प्रयान्तौ तृषितो गजौ । 

पीत्वा वारि समाश्र्‌स्तौ तथैवास्तामरिंदमौ ।। १९ || 

जैसे मरुभूमिको लाँघकर जाते हुए दो प्यासे हाथी पानी पीकर तृप्त एवं संतुष्ट हो गये 
हों, उसी प्रकार शत्रुओंका दमन करनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुन भी शत्रुसेनाको लाँधचकर 
अत्यन्त प्रसन्न हुए थे ।। १९ ।। 

व्याप्रसिंहणजाकीर्णानतिक्रम्य च पर्वतान्‌ । 

वणिजाविव दृश्येतां हीनमृत्यू जरातिगौ ।। २० ।। 

जैसे व्याप्र, सिंह और हाथियोंसे भरे हुए पर्वतोंको लाँधकर दो व्यापारी प्रसन्न दिखायी 
देते हों, उसी प्रकार मृत्यु और जरासे रहित श्रीकृष्ण और अर्जुन भी उस सेनाको लाँधकर 
संतुष्ट दीखते थे || २० ।। 

तथा हि मुखवर्णो5यमनयोरिति मेनिरे । 

तावका वीक्ष्य मुक्त तौ विक्रोशन्ति सम सर्वश: ।। २१ ।। 

द्रोणादाशीविषाकाराज्ज्वलितादिव पावकात्‌ । 

अन्येभ्य: पार्थिवेभ्यक्षु भास्वन्ताविव भास्करौ ।। २२ ।। 


इन दोनोंके मुखकी कान्ति वैसी ही थी, ऐसा सभी सैनिक मान रहे थे। विषधर सर्प 
और प्रज्वलित अग्निके समान भयंकर द्रोणाचार्य तथा अन्य नरेशोंके हाथसे छूटे हुए दो 
प्रकाशमान सूर्योके सदृश श्रीकृष्ण और अर्जुनको वहाँ देखकर आपके समस्त सैनिक सब 
ओरसे कोलाहल मचा रहे थे || २१-२२ ।। 

विमुक्तौ सागरप्रख्याद्‌ द्रोणानीकादरिंदमौ । 

अदृश्येतां मुदा युक्तौ समुत्तीर्यार्णवं यथा ।। २३ ।। 

समुद्रके समान विशाल द्रोणसेनासे मुक्त हुए वे दोनों शत्रुदमन वीर श्रीकृष्ण और 
अर्जुन ऐसे प्रसन्न दिखायी देते थे, मानो महासागर लाँघ गये हों ।। २३ ।। 

अस्त्रौघान्महतो मुक्तौ द्रोणहार्दिक्यरक्षितात्‌ । 

रोचमानावदृश्येतामिन्द्राग्न्यो: सदृशौ रणे || २४ ।। 

द्रोणाचार्य और कृतवर्मद्वारा सुरक्षित महान्‌ अस्त्रसमुदायसे छूटकर वे दोनों वीर 
समरांगणमें इन्द्र और अग्निके समान प्रकाशमान दिखायी देते थे || २४ ।। 

उद्धिन्नरुधिरी कृष्णौ भारद्वाजस्य सायकै: । 

शितैश्नितौ व्यरोचेतां कर्णिकारैरिवाचलौ || २५ ।। 

द्रोणाचार्यके तीखे बाणोंसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके शरीर छिदे हुए थे और उनसे रक्तकी 
धारा बह रही थी। उस समय वे लाल कनेरसे भरे हुए दो पर्वतोंके समान सुशोभित होते 
थे ।। २५ ।। 

द्रोणग्राहह्नदान्मुक्ती शक्त्याशीविषसंकटात्‌ । 

अयःशरोग्रमकरात्‌ क्षत्रियप्रवराम्भस: ।। २६ ।। 

ज्याघोषतलनिर्हादाद्‌ गदानिस्त्रिंशविद्युत: । 

द्रोणास्त्रमेघान्निर्मुक्तौ सूर्येन्दू तिमिरादिव | २७ ।। 

द्रोणाचार्य जिस सैन्य-सरोवरके ग्राहतुल्य जन्तु थे, जो शक्तिरूपी विषधर सर्पोंसे भरा 
था, लोहेके बाण जिसके भीतर भयंकर मगरका भय उत्पन्न करते थे, बड़े-बड़े क्षत्रिय 
जिसमें जलके समान शोभा पाते थे, धनुषकी टंकार जहाँ मेघगर्जनाके समान सुनायी 
पड़ती थी, गदा और खड़्ग जहाँ विद्युतके समान चमक रहे थे और द्रोणाचार्यके बाण ही 
जहाँ मेघ बनकर बरस रहे थे, उससे मुक्त हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन राहुसे छूटे हुए सूर्य और 
चन्द्रमाके समान प्रकाशित हो रहे थे || २६-२७ ।। 

बाहुभ्यामिव संतीर्णो सिन्धुषष्ठा: समुद्रगा: । 

तपान्ते सरितः पूर्णा महाग्राहसमाकुला: ।। २८ ।। 

उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वर्षा-ऋतुमें जलसे लबालब भरी हुई बड़े-बड़े 
ग्राहोंसे व्याप्त समुद्रगामिनी इरावती (रावी), विपाशा (ब्यास), वितस्ता (झेलम), शतद्भू 
(शतलज) और चन्द्रभागा (चनाव)--इन पाँचों नदियोंके साथ छठी सिंधु नदीको श्रीकृष्ण 
और अर्जुनने अपनी भुजाओंसे तैरकर पार किया हो ।। २८ ।। 


इति कृष्णौ महेष्वासौ प्रशस्तौ लोकविश्रुतौ । 

सर्वभूतान्यमन्यन्त द्रोणास्त्रबलवारणात्‌ ।। २९ ।। 

इस प्रकार द्रोणाचार्यके अस्त्र-बलका निवारण करनेके कारण समस्त प्राणी श्रीकृष्ण 
और अर्जुनको लोकविख्यात प्रशस्त गुणयुक्त महाधनुर्धर मानने लगे ।। 

जयद्रथं समीपस्थमवेक्षन्ती जिघांसया । 

रुरुं निपाने लिप्सन्तौ व्यात्राविव व्यतिष्ठताम्‌ ।। ३० ।। 

जैसे पानी पीनेके घाटपर आये हुए रुरुमृगको दबोच लेनेकी इच्छासे दो व्याप्र खड़े हों, 
उसी प्रकार निकटवर्ती जयद्रथको मार डालनेकी इच्छासे उसकी ओर देखते हुए वे दोनों 
वीर खड़े थे ।। ३० ।। 

यथा हि मुखवर्णोडयमनयोरिति मेनिरे । 

तव योधा महाराज हतमेव जयद्रथम्‌ ।। ३१ ।। 

महाराज! उस समय उन दोनोंके मुखपर जैसी समुज्ज्वल कान्ति थी, उसके अनुसार 
आपके योद्धाओंने जयद्रथको मरा हुआ ही माना ।। ३१ ।। 

लोहिताक्षौ महाबाहू संयुक्तौ कृष्णपाण्डवौ | 

सिन्धुराजमभिप्रेक्ष्य हृष्टो व्यनदतां मुहुः ।। ३२ ।। 

एक साथ बैठे हुए लाल नेत्रोंवाले महाबाहु श्रीकृष्ण और अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथको 
देखकर हर्षसे उललसित हो बारंबार गर्जना करने लगे || ३२ ।। 

शौरेरभीषुहस्तस्य पार्थस्य च धनुष्मत: । 

तयोरासीत्‌ प्रभा राजन्‌ सूर्यपावकयोरिव ।। ३३ ।। 

राजन! हाथोंमें बागडोर लिये श्रीकृष्ण और धनुष धारण किये अर्जुन--इन दोनोंकी 
प्रभा सूर्य और अग्निके समान जान पड़ती थी ।। ३३ ।। 

हर्ष एव तयोरासीद्‌ द्रोणानीकप्रमुक्तयो: । 

समीपे सैन्धवं दृष्टवा श्येनयोरामिषं यथा ।। ३४ ।। 

जैसे मांसका टुकड़ा देखकर दो बाजोंको प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यकी 
सेनासे मुक्त हुए उन दोनों वीरोंको अपने पास ही जयद्रथको देखकर सब प्रकारसे हर्ष ही 
हुआ ।। ३४ ।। 

तौ तु सैन्धवमालोक्य वर्तमानमिवान्तिके । 

सहसा पेततुः क्रुद्धौ क्षिप्रं श्येनाविवामिषम्‌ ।। ३५ ।। 

अपने समीप ही खड़े हुए-से सिन्धुराज जयद्रथको देखकर तत्काल वे दोनों वीर कुपित 
हो उसी प्रकार सहसा उसपर टूट पड़े, जैसे दो बाज मांसपर झपट रहे हों ।। ३५ ।। 

तौ दृष्टवा तु व्यतिक्रान्ती हृषीकेशधनंजयौ । 

सिन्धुराजस्य रक्षार्थ पराक्रान्त: सुतस्तव ।। ३६ ।। 


श्रीकृष्ण और अर्जुन सारी सेनाको लाँधकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, यह देखकर 
आपके पुत्र दुर्योधनने सिन्धुराजकी रक्षाके लिये पराक्रम दिखाना आरम्भ किया ।। ३६ ।। 

द्रोणेनाबद्धकवचो राजा दुर्योधनस्तत: । 

ययावेकरथेनाजौ हयसंस्कारवित्‌ प्रभो || ३७ ।। 

प्रभो! घोड़ोंके संस्कारको जाननेवाला राजा दुर्योधन उस समय द्रोणाचार्यके बाँधे हुए 
कवचको धारण करके एकमात्र रथकी सहायतासे युद्धभूमिमें गया था ।। ३७ ।। 

कृष्णपार्थो महेष्वासौ व्यतिक्रम्याथ ते सुत: । 

अग्रतः पुण्डरीकाक्षं प्रतीयाय नराधिप ।। ३८ ।। 

नरेश्वर! महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुनको लाँधचकर आपका पुत्र कमलनयन 
श्रीकृष्णके सामने जा पहुँचा ।। ३८ ।। 

ततः सर्वेषु सैन्येषु वादित्राणि प्रहृष्टवत्‌ । 

प्रावाद्यन्त व्यतिक्रान्ते तव पुत्रे धनंजयम्‌ ।। ३९ ।। 

तदनन्तर आपका पुत्र दुर्योधन जब अर्जुनको भी लाँधकर आगे बढ़ गया, तब सारी 
सेनाओंमें हर्षपूर्ण बाजे बजने लगे || ३९ ।। 

सिंहनादरवाश्वासन्‌ शड्खशब्दविमिश्रिता: । 

दृष्टवा दुर्योधन तत्र कृष्णयो: प्रमुखे स्थितम्‌ ।। ४० ।। 

दुर्योधनको वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनके सामने खड़ा देख शंखोंकी ध्वनिसे मिले हुए 
सिंहनादके शब्द सब ओर गूँजने लगे ।। ४० ।। 

ये च ते सिन्धुराजस्य गोप्तार: पावकोपमा: । 

ते प्राह्ष्पन्त समरे दृष्ट्‌वा पुत्र॑ं तव प्रभो ।। ४१ ।। 

प्रभो! सिन्धुराजकी रक्षा करनेवाले जो अग्निके समान तेजस्वी वीर थे, वे आपके 
पुत्रको समरांगणमें डटा हुआ देख बड़े प्रसन्न हुए || ४१ ।। 

दृष्टवा दुर्योधन कृष्णो व्यतिक्रान्तं सहानुगम्‌ । 

अब्रवीदर्जुनं राजन्‌ प्राप्तकालमिदं वच: ।। ४२ |। 

राजन! सेवकोंसहित दुर्योधन सबको लाँधचकर सामने आ गया--यह देखकर श्रीकृष्णने 
अर्जुनसे यह समयोचित बात कही ।। ४२ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनागमे 
एकाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०१ |। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनका आगमनविषयक 
एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०१ ॥ 


अपना बछ। | अप-#-#रा+ 


द्र्याधेकशततमो< ध्याय: 


श्रीकृष्णका अर्जुनकी प्रशंसापूर्वक उसे प्रोत्साहन देना, 
अर्जुन और दुर्योधनका एक-दूसरेके सम्मुख आना, कौरव- 
सैनिकोंका भय तथा दुर्योधनका अर्जुनको ललकारना 


वायुदेव उवाच 


दुर्योधनमतिक्रान्तमेतं पश्य धनंजय । 

अत्यद्भुतमिमं मन्ये नास्त्यस्य सदृशो रथ: ।। १ ।। 

श्रीकृष्ण बोले--धनंजय! सबको लाँघकर सामने आये हुए इस दुर्योधनको देखो। मैं 
तो इसे अत्यन्त अद्भुत योद्धा मानता हूँ। इसके समान दूसरा कोई रथी नहीं है ।। 

दूरपाती महेष्वास: कृतास्त्रो युद्धदुर्मद: । 

दृढास्त्रश्चित्रयोधी च धार्तराष्ट्री महाबल:ः ।। २ ।। 

यह महाबली धूृतराष्ट्रपुत्र दूरतकके लक्ष्यको मार गिरानेवाला, महान्‌ धनुर्धर, 
अस्त्रविद्यामें निपुण और युद्धमें दुर्मद है। इसके अस्त्र-शस्त्र अत्यन्त सुदृढ़ हैं तथा यह 
विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाला है || २ ।। 

अत्यन्तसुखसंवृद्धों मानितश्च महारथ: । 

कृती च सतत पार्थ नित्य॑ द्वेष्टि च बान्धवान्‌ ।। ३ ।। 

कुन्तीकुमार! महारथी दुर्योधन अत्यन्त सुखसे पला हुआ सम्मानित और दिद्वान्‌ है। 
यह तुम-जैसे बन्धु-बान्धवोंसे नित्य-निरन्तर द्वेष रखता है ।। ३ ।। 

तेन युद्धमहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ । 

अत्र वो द्यूतमायत्तं विजयायेतराय वा ।। ४ ।। 

निष्पाप अर्जुन! मैं समझता हूँ, इस समय इसीके साथ युद्ध करनेका अवसर प्राप्त 
हुआ है। यहाँ तुमलोगोंके अधीन जो रणद्यूत होनेवाला है, वही विजय अथवा पराजयका 
कारण होगा ।। ४ ।। 

अत्र क्रोधविषं पार्थ विमुड्च चिरसम्भृतम्‌ । 

एष मूलमनर्थानां पाण्डवानां महारथ: ।। ५ ।। 

पार्थ! तुम बहुत दिनोंसे सँजोकर रखे हुए अपने क्रोधरूपी विषको इसके ऊपर छोड़ो। 
महारथी दुर्योधन ही पाण्डवोंके सारे अनर्थोंकी जड़ है ।। ५ ।। 

सो<थयं प्राप्तस्तवाक्षेपं पश्य साफल्यमात्मन: । 

कथं हि राजा राज्यार्थी त्वया गच्छेत संयुगम्‌ ।। ६ ।। 


आज यह तुम्हारे बाणोंके मार्गमें आ पहुँचा है। इसे तुम अपनी सफलता समझो; 
अन्यथा राज्यकी अभिलाषा रखनेवाला राजा दुर्योधन तुम्हारे साथ युद्धभूमिमें कैसे उतर 
सकता था? ।। ६ ।। 

दिष्ट्या त्विदानीं सम्प्राप्त एब ते बाणगोचरम्‌ | 

यथायं जीवितं जह्यात्‌ तथा कुरु धनंजय ॥। ७ ।। 

धनंजय! सौभाग्यवश यह दुर्योधन इस समय तुम्हारे बाणोंके पथमें आ गया है। तुम 
ऐसा प्रयत्न करो, जिससे यह अपने प्राणोंको त्याग दे || ७ ।। 

ऐश्वर्यमदसम्मूढो नैष दुःखमुपेयिवान्‌ । 

नच ते संयुगे वीर्य जानाति पुरुषर्षभ ।। ८ ।। 

पुरुषरत्न! ऐश्वर्यके घमंडमें चूर रहनेवाले इस दुर्योधनने कभी कष्ट नहीं उठाया है। यह 
युद्धमें तुम्हारे बल-पराक्रमको नहीं जानता है ।। ८ ।। 

त्वां हि लोकास्त्रय: पार्थ ससुरासुरमानुषा: । 

नोत्सहन्ते रणे जेतुं किमुतिक: सुयोधन: ।। ९ ।। 

पार्थ! देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोक भी रणक्षेत्रमें तुम्हें जीत नहीं सकते। 
फिर अकेले दुर्योधनकी तो औकात ही क्या है? ।। ९ ।। 

स दिष्ट्या समनुप्राप्तस्तव पार्थ रथान्तिकम्‌ । 

जह्ोन॑ त्वं महाबाहो यथा वृत्र पुरंदर: ।। १० ।। 

कुन्तीकुमार! सौभाग्यकी बात है कि यह तुम्हारे रथके निकट आ पहुँचा है। महाबाहो! 
जैसे इन्द्रने वृत्रासुरको मारा था, उसी प्रकार तुम भी इस दुर्योधनको मार डालो || १० ।। 

एष हानर्थ सततं पराक्रान्तस्तवानघ । 

निकृत्या धर्मराजं च द्यूते वज्चितवानयम्‌ ।॥। ११ ।। 

अनघ! यह सदा तुम्हारा अनर्थ करनेमें ही पराक्रम दिखाता आया है। इसने धर्मराज 
युधिष्ठिरको जूएमें छल-कपटसे ठग लिया है ।। ११ ।। 

बहूनि सुनृशंसानि कृतान्येतेन मानद । 

युष्मासु पापमतिना अपापेष्वेव नित्यदा ।। १२ ।। 

मानद! तुमलोग कभी इसकी बुराई नहीं करते थे, तो भी इस पापबुद्धि दुर्योधनने सदा 
तुमलोगोंके साथ बहुत-से क्रूरतापूर्ण बर्ताव किये हैं || १२ ।। 

तमनार्य सदा क्ुद्धं पुरुष कामचारिणम्‌ । 

आर्या युद्धे मतिं कृत्वा जहि पार्थाविचारयन्‌ ।। १३ ।। 

पार्थ! तुम युद्धमें श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय ले बिना किसी सोच-विचारके, सदा क्रोधमें भरे 
रहनेवाले इस स्वेच्छाचारी दुष्ट पुरुषको मार डालो || १३ ।। 

निकृत्या राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव । 

परिक्‍्लेशं च कृष्णाया हृदि कृत्वा पराक्रमम्‌ ।। १४ ।। 


पाण्डुनन्दन! दुर्योधनने छलसे तुमलोगोंका राज्य छीन लिया है, तुम्हें जो वनवासका 
कष्ट भोगना पड़ा है तथा द्रौपदीको जो दुःख और अपमान उठाना पड़ा है--इन सब 
बातोंको मन-ही-मन याद करके पराक्रम करो ।। १४ ।। 

दिष्ट्यैष तव बाणानां गोचरे परिवर्तते । 

प्रतिघाताय कार्यस्य दिष्ट्या च यततेडग्रत: ।। १५ ।। 

सौभाग्यसे ही यह दुर्योधन तुम्हारे बाणोंकी पहुँचके भीतर चक्कर लगा रहा है। यह भी 
भाग्यकी बात है कि यह तुम्हारे कार्यमें बाधा डालनेके लिये सामने आकर प्रयत्नशील हो 
रहा है ।। १५ ।। 

दिष्ट्या जानाति संग्रामे योद्धव्यं हि त्वया सह । 

दिष्ट्या च सफला: पार्थ सर्वे कामा हकामिता: ।। १६ ।। 

पार्थ! भाग्यवश समरांगणमें तुम्हारे साथ युद्ध करना यह अपना कर्तव्य समझता है 
और भाग्यसे ही न चाहनेपर भी तुम्हारे सारे मनोरथ सफल हो रहे हैं ।। १६ ।। 

तस्माज्जहि रणे पार्थ धार्तराष्ट्र कुलाधमम्‌ । 

यथेन्द्रेण हत: पूर्व जम्भो देवासुरे मूथे || १७ ।। 

कुन्तीकुमार! जैसे पूर्वकालमें इन्द्रने देवासुर-संग्राममें जन्मका वध किया था, उसी 
प्रकार तुम रणक्षेत्रमें कुलकलंक धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको मार डालो ।। १७ ।। 

अस्मिन्‌ हते त्वया सैन्यमनाथं भिद्यतामिदम्‌ | 

वैरस्यास्यास्त्ववभूथो मूलं छिन्धि दुरात्मनाम्‌ ।। १८ ।। 

इसके मारे जानेपर अनाथ हुई इस कौरव-सेनाका संहार करो, दुरात्माओंकी जड़ काट 
डालो, जिससे इस वैररूपी यज्ञका अन्त होकर अवभृूथस्नानका अवसर प्राप्त हो || १८ ।। 

संजय उवाच 

त॑ तथेत्यब्रवीत्‌ पार्थ: कृत्यरूपमिदं मम | 

सर्वमन्यदनादृत्य गच्छ यत्र सुयोधन: ।। १९ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तब कुन्तीकुमार अर्जुनने “बहुत अच्छा” कहकर भगवान्‌ 
श्रीकृष्णसे कहा--“यह मेरे लिये सबसे महान्‌ कर्तव्य प्राप्त हुआ है। अन्य सब कार्योंकी 
अवहेलना करके आप वहीं चलिये, जहाँ दुर्योधन खड़ा है ।। १९ ।। 

येनैतद्‌ दीर्घकालं नो भुक्ते राज्यमकण्टकम्‌ | 

अप्यस्य युधि विक्रम्य छिन्द्यां मूर्धानमाहवे ।। २० ।। 

“जिसने दीर्घकालतक हमारे इस अकंटक राज्यका उपभोग किया है, मैं युद्धमें पराक्रम 
करके उस दुर्योधनका मस्तक काट डालूँगा ।। २० ।। 

अपि तस्य हानहाया: परिक्लेशस्य माधव । 

कृष्णाया: शवनुयां गन्तुं पद केशप्रधर्षणे |। २१ ।। 


“माधव! जो क्लेश भोगनेके योग्य नहीं है, उस द्रौपदीका केश पकड़कर जो उसे 
अपमानित किया गया है, उसका बदला इस दुर्योधनको मारकर ही चुका सकता 
हूँ ।। २१ ।। 

(अप्यहं तानि दु:खानि पूर्ववृत्तानि माधव । 

दुर्योधनं रणे हत्वा प्रतिमोक्ष्ये कथंचन ।।) 

“श्रीकृष्ण! समरांगणमें दुर्योधनका वध करके मैं किसी प्रकार उन सभी दु:खोंसे 
छुटकारा पा जाऊँगा, जो पूर्वकालमें भोगने पड़े हैं'। 

इत्येवंवादिनौ कृष्णौ ह्ृष्टौ श्वेतान्‌ हयोत्तमान्‌ | 

प्रेषषामासतु: संख्ये प्रेप्सन्ती तं॑ नराधिपम्‌ ।। २२ ।। 

इस प्रकारकी बातें करते हुए उन दोनों कृष्णोंने युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनको अपना 
लक्ष्य बनानेके लिये हर्षपूर्वक अपने उत्तम सफेद घोड़ोंको उसकी ओर बढ़ाया || २२ ।। 

तयो: समीपं सम्प्राप्य पुत्रस्ते भरतर्षभ । 

न चकार भयं प्राप्ते भये महति मारिष ।। २३ |। 

आर्य! भरतभूषण! आपके पुत्रने उन दोनोंके समीप पहुँचकर महान्‌ भयका अवसर 
प्राप्त होनेपर भी भय नहीं माना ।। २३ ।। 

तदस्य क्षत्रियास्तत्र सर्व एवाभ्यपूजयन्‌ । 

यदर्जुनहृषीकेशौ प्रत्युद्याती न्‍्यवारयत्‌ ।। २४ ।। 

अपने सामने आये हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनको दुर्योधनने जो रोक दिया, उसके इस 
कार्यकी वहाँ सभी क्षत्रियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की || २४ ।। 

ततः सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशाम्पते । 

महानादो हाभूत्‌ तत्र दृष्टया राजानमाहवे ।। २५ ।। 

प्रजानाथ! युद्धस्थलमें राजा दुर्योधनको उपस्थित देख आपकी सारी सेनामें महान्‌ 
सिंहनाद होने लगा || २५ ।। 

तस्मिन्‌ जनसमुन्नादे प्रवृत्ते भैरवे सति । 

कदर्थीकृत्य ते पुत्र: प्रत्यमित्रमवारयत्‌ ।। २६ ।। 

जिस समय वह भयंकर जन-कोलाहल हो रहा था उसी समय आपके पुत्रने अपने 
शत्रुको कुछ भी न समझकर आगे बढ़नेसे रोक दिया || २६ ।। 

आवारितस्तु कौन्तेयस्तव पुत्रेण धन्विना । 

संरम्भमगमद्‌ भूय: स च तस्मिन्‌ परंतप: ।। २७ ।। 

आपके धनुर्धर पुत्र दुर्योधनद्वारा रोके जानेपर शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार 
अर्जुन पुन: उसके ऊपर अत्यन्त कुपित हो उठे ।। २७ ।। 

तौ दृष्टवा पतिसंरब्धौ दुर्योधनधनंजयौ । 

अभ्यवैक्षन्त राजानो भीमरूपा: समन्ततः ।। २८ ।। 


दुर्योधन तथा अर्जुनको परस्पर कुपित देख भयंकर नरेशगण सब ओर खड़े हो 
चुपचाप देखने लगे || २८ ।। 

दृष्टवा तु पार्थ संरब्धं वासुदेव॑ च मारिष । 

प्रहसन्नेव पुत्रस्ते योद्धुकाम: समाह्दयत्‌ ।। २९ ।। 

आर्य! अर्जुन और श्रीकृष्णको अत्यन्त रोषमें भरे देख आपके पुत्रने जोर-जोरसे हँसते 
हुए ही युद्धकी इच्छासे उन दोनोंको ललकारा || २९ |। 

ततः प्रहृष्टो दाशा्: पाण्डवश्ष धनंजय: । 

व्यक्रोशेतां महानादं दश्मतुश्चाम्बुजोत्तमौ || ३० ।। 

तब हर्षमें भरे हुए श्रीकृष्ण और पाण्डुनन्दन अर्जुनने बड़े जोरसे सिंहनाद किया और 
अपने उत्तम शंखोंको बजाया ।। ३० ।। 

तौ हृष्टरूपौ सम्प्रेक्ष्य कौरवेयास्तु सर्वश: । 

निराशा: समपद्यन्त पुत्रस्य तव जीविते ।। ३१ ।। 

उन दोनोंको हर्षोल्लाससे परिपूर्ण देख सम्पूर्ण कौरव-सैनिक आपके पुत्रके जीवनसे 
निराश हो गये ।। 

शोकमापु: परे चैव कुरव: सर्व एव ते । 

अमन्यन्त च पुत्र ते वैश्वानरमुखे हुतम्‌ ।। ३२ ।। 

अन्य सब कौरव भी शोकमग्न हो गये और आपके पुत्रको आगके मुखमें होम दिया 
गया--ऐसा मानने लगे ।। ३२ ।। 

तथा तु दृष्टवा योधास्ते प्रहृष्टो कृष्णपाण्डवौ । 

हतो राजा हतो राजेत्यूचिरे च भयार्दिता: ।। ३३ ।। 

श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार हर्षमग्न देख आपके समस्त सैनिक भयसे पीड़ित 
हो ऐसा कहते हुए कोलाहल करने लगे कि “हाय! राजा दुर्योधन मारे गये, मारे 
गये” ।। ३३ ।। 

जनस्य संनिनादं तु श्र॒त्वा दुर्योधनो<ब्रवीत्‌ । 

व्येतु वो भीरहं कृष्णा प्रेषयिष्यामि मृत्यवे || ३४ ।। 

लोगोंका वह आर्तनाद सुनकर दुर्योधन बोला--“तुमलोगोंका भय दूर हो जाना चाहिये। 
मैं इन दोनों कृष्णोंको मृत्युके घर भेज दूँगा” || ३४ ।। 

इत्युक्त्वा सैनिकान्‌ सर्वान्‌ जयापेक्षी नराधिप: । 

पार्थमाभाष्य संरम्भादिदं वचनमब्रवीत्‌ ।। ३५ ।। 

अपने सम्पूर्ण सैनिकोंसे ऐसा कहकर विजयकी अभिलाषा रखनेवाले राजा दुर्योधनने 
कुन्तीकुमारको सम्बोधित करके क्रोधपूर्वक इस प्रकार कहा-- || ३५ ।। 

पार्थ यच्छिक्षितं ते<स्त्रं दिव्यं पार्थिवमेव च । 

तद्‌ दर्शय मयि क्षिप्रं यदि जातो5सि पाण्डुना ।। ३६ ।। 


'पार्थ! यदि तुम पाण्डुके बेटे हो तो तुमने जो लौकिक एवं दिव्य अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त 
की है, उन सबको मेरे ऊपर शीघ्र दिखाओ ।। ३६ ।। 

यद्‌ बल॑ तव वीर्य च केशवस्य तथैव च । 

तत्‌ कुरुष्व मयि क्षिप्रं पश्यामस्तव पौरुषम्‌ ।। ३७ ।। 

“तुममें और श्रीकृष्णमें जो बल और पराक्रम हो, उसे मेरे ऊपर शीघ्र प्रकट करो। हम 
देखते हैं कि तुममें कितना पुरुषार्थ है ।। ३७ ।। 

अस्मत्परोक्षं कर्माणि कृतानि प्रवदन्ति ते । 

स्वामिसत्कारयुक्तानि यानि तानीह दर्शय ।। ३८ ।। 

“हमारे परोक्षमें लोग स्वामीके सत्कारसे युक्त तुम्हारे किये हुए जिन कर्मोंका वर्णन 
करते हैं, उन्हें यहाँ दिखाओ” ।। ३८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनवचने 
दयथधिकशततमो<्थध्याय: ।। १०२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनवचनविषयक एक सौ 
दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं) 


््ज-्अ ्ःः छा अकाल 


त्रयधिकशततमो<ध्याय: 
दुर्योधन और अर्जुनका युद्ध तथा दुर्योधनकी पराजय 


संजय उवाच 

एवमुकक्‍्त्वार्जुनं राजा त्रिभिमर्मातिगै: शरै: । 

अभ्यविध्यन्महावेगैश्षतुर्भि श्वतुरो हयान्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! अर्जुनसे ऐसा कहकर राजा दुर्योधनने तीन अत्यन्त 
वेगशाली मर्मभेदी बाणोंद्वारा उन्हें बीध डाला और चार बाणोंद्वारा उनके चारों घोड़ोंको भी 
घायल कर दिया ।। १ |। 

वासुदेवं च दशभश्रि: प्रत्यविध्यत्‌ स्तनान्तरे | 

प्रतोद॑ चास्य भल्लेन छित्त्वा भूमावपातयत्‌ ।। २ ।। 

इसी प्रकार दस बाण मारकर उसने श्रीकृष्णकी भी छाती छेद डाली और एक भल्लसे 
उनके चाबुकको काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया ।। २ ।। 

त॑ चतुर्दशभि: पार्थश्रित्रपुड्खै: शिलाशितै: । 

अविध्यत्‌ तूर्णमव्यग्रस्ते चा भ्रश्यन्त वर्मणि ।। ३ ।। 

तब व्यग्रतारहित अर्जुनने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए विचित्र पंखवाले चौदह 
बाणोंद्वारा तुरंत उसे घायल किया; परंतु उनके वे बाण दुर्योधनके कवचपर जाकर फिसल 
गये ।। ३ ।। 

तेषां नैष्फल्यमालोक्य पुनर्नव च पञ्च च । 

प्राहिणोन्निशितान्‌ बाणांस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मण: ।। ४ ।। 

उन्हें निष्फल हुआ देख अर्जुनने पुनः चौदह तीखे बाण चलाये; परंतु वे भी कवचसे 
फिसल गये ।। ४ ।। 

अष्टाविंशांस्तु तान्‌ बाणानस्तान्‌ विप्रेक्ष्य निष्फलान्‌ । 

अब्रवीत्‌ परवीरघ्न: कृष्णो<र्जुनमिदं वच: ।। ५ || 

अर्जुनके चलाये हुए उन अद्वाईस बाणोंको निष्फल हुआ देख शत्रुवीरोंका संहार 
करनेवाले श्रीकृष्णने उनसे इस प्रकार कहा-- ।। ५ ।। 

अदृष्टपूर्व पश्यामि शिलानामिव सर्पणम्‌ | 

त्वया सम्प्रेषिता: पार्थ नार्थ कुर्वन्ति पत्रिण: ।। ६ ।। 

'पार्थ! आज तो मैं प्रस्तरखण्डोंके चलनेके समान ऐसी बात देख रहा हूँ, जिसे पहले 
कभी नहीं देखा था। तुम्हारे चलाये हुए बाण तो कोई काम नहीं कर रहे हैं |। ६ ।। 

कच्चिद्‌ गाण्डीवज: प्राणस्तथैव भरतर्षभ । 


मुशिश्व ते यथापूर्व भुजयोश्व॒ बलं तव ।। ७ ।। 

“भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे गाण्डीव-धनुषकी शक्ति पहले-जैसी ही है न? तुम्हारी मुट्ठी एवं 
बाहुबल भी पूर्ववत्‌ हैं न? ।। ७ ।। 

न वा कच्चिदयं काल: प्राप्त: स्यादद्य पश्चिम: । 

तव चैवास्य शत्रोश्व॒ तनन्‍्ममाचक्ष्व पृच्छत: ।। ८ ।। 

“आज तुम्हारी और तुम्हारे इस शत्रुकी अन्तिम भेंटका समय नहीं आया है क्या? मैं जो 
पूछता हूँ, उसका उत्तर दो ।। ८ ।। 

विस्मयो मे महान्‌ पार्थ तव दृष्टवा शरानिमान्‌ | 

व्यर्थान्‌ निपतितान्‌ संख्ये दुर्योधनरथं प्रति ।। ९ ।। 

“कुन्तीनन्दन! आज युद्धस्थलमें दुर्योधनके रथके पास निष्फल होकर गिरे हुए तुम्हारे 
इन बाणोंको देखकर मुझे महान्‌ आश्चर्य हो रहा है ।। ९ ।। 

वज्राशनिसमा घोरा: परकायावभेदिन: । 

शरा: कुर्वन्ति ते नार्थ पार्थ काद्य विडम्बना | १० ।। 

'पार्थ! वज़ और अशनिके समान भयंकर तथा शत्रुओंके शरीरको विदीर्ण कर देनेवाले 
तुम्हारे वे बाण आज कुछ काम नहीं कर रहे हैं, यह कैसी विडम्बना है?” ।। १० ।। 

अजुन उवाच 

द्रोणेनैषा मति: कृष्ण धार्तराष्ट्रे निवेशिता । 

अभेद्या हि ममास्त्राणामेषा कवचधारणा ।। १३ || 

अर्जुन बोले--श्रीकृष्ण! मेरा तो यह विश्वास है कि दुर्योधनको द्रोणाचार्यने अभेद्य 
कवच बाँधकर उसमें यह अद्भुत शक्ति स्थापित कर दी है। यह कवचधारणा मेरे अस्त्रोंके 
लिये अभेद्य है ।। ११ ।। 

अस्मिन्नन्तहितं कृष्ण त्रैलोक्यमपि वर्मणि । 

एको द्रोणो हि वेदैतदहं तस्माच्च सत्तमात्‌ ।। १२ ।। 

श्रीकृष्ण! इस कवचके भीतर तीनों लोकोंकी शक्ति संनिहित है। एकमात्र आचार्य द्रोण 
ही इस विद्याको जानते हैं और उन्हीं सदगुरुसे सीखकर मैं भी इसे जान पाया हूँ ।। १२ ।। 

न शक्‍्यमेतत्‌ कवचं बाणैर्भत्तुं कथंचन । 

अपि वज्रेण गोविन्द स्वयं मघवता युधि ।। १३ ।। 

इस कवचको किसी प्रकार बाणोंद्वारा विदीर्ण नहीं किया जा सकता। गोविन्द! 
युद्धस्थलमें साक्षात्‌ देवराज इन्द्र अपने वज़से भी इसका विदारण नहीं कर सकते ।। १३ || 

जानंस्त्वमपि वै कृष्ण मां विमोहयसे कथम्‌ । 

यद्‌ वृत्तं त्रिषु लोकेषु यच्च केशव वर्तते ।। १४ ।। 

तथा भविष्यद्‌ यच्चैव तत्‌ सर्व विदितं तव । 


न व्विदं वेद वै कश्चिद्‌ यथा त्वं मधुसूदन ।। १५ ।। 

श्रीकृष्ण! आप यह सब कुछ जानते हुए भी मुझे मोहमें कैसे डाल रहे हैं? केशव! 
तीनों लोकोंमें जो बात हो चुकी है, जो हो रही है तथा जो कुछ आगे होनेवाली है, वह सब 
आपको विदित है। मधुसूदन! इसे आप जैसा जानते हैं, वैसा दूसरा कोई नहीं जानता 
है ।। १४-१५ || 

एष दुर्योधन: कृष्ण द्रोणेन विहितामिमाम्‌ | 

तिष्ठत्यभीतवत्‌ संख्ये बिभ्रत्‌ कवचधारणाम्‌ ।। १६ ।। 

श्रीकृष्ण! द्रोणाचार्यके द्वारा विधिपूर्वक धारण करायी हुई इस कवचधारणाको ग्रहण 
करके यह दुर्योधन युद्धस्थलमें निर्भय-सा खड़ा है || १६ ।। 

यत्त्वत्र विहित॑ कार्य नैष तद्‌ वेत्ति माधव | 

स्त्रीवदेष बिभर्त्येतां युक्तां कवचधारणाम्‌ ।। १७ ।। 

माधव! इसे धारण करनेपर जिस कर्तव्यके पालनका विधान किया गया है, उसे यह 
नहीं जानता है। जैसे स्त्रियाँ गहने पहन लेती हैं, उसी प्रकार यह दूसरेके द्वारा दी हुई इस 
कवचधारणाको अपनाये हुए है ।। १७ ।। 

पश्य बल्ोश्व मे वीर्य धनुषश्न जनार्दन । 

पराजयिष्ये कौरव्यं कवचेनापि रक्षितम्‌ ।। १८ ।। 

जनार्दन! अब आप मेरी भुजाओं और धनुषका बल देखिये। मैं कवचसे सुरक्षित 
होनेपर भी दुर्योधनको पराजित कर दूँगा || १८ ।। 

इदमड्िरसे प्रादाद्‌ देवेशो वर्म भास्वरम्‌ | 

तस्माद्‌ बृहस्पति: प्राप ततः प्राप पुरंदर: ।। १९ ।। 

देवेश्वर! ब्रह्माजीने यह तेजस्वी कवच अंगिराको दिया था। उनसे बृहस्पतिजीने प्राप्त 
किया था। बृहस्पतिजीसे वह इन्द्रको मिला || १९ |। 

पुनर्ददौ सुरपतिर्महां वर्म ससंग्रहम्‌ । 

दैवं यद्यस्य वर्मतद्‌ ब्रह्मणा वा स्वयं कृतम्‌ ।। २० ।। 

नैनं गोप्स्यति दुर्बुद्धिमद्य बाणहतं मया । 

फिर देवराज इन्द्रने विधि एवं रहस्यसहित वह कवच मुझे प्रदान किया। यदि 
दुर्योधनका यह कवच देवताओंद्वारा निर्मित हो अथवा स्वयं ब्रह्माजीका बनाया हुआ हो तो 
भी आज मेरे बाणोंद्वारा मारे गये इस दुर्बुद्धि दुर्योधनको यह बचा नहीं सकेगा | २०३ ।। 

संजय उवाच 
एवमुक्त्वार्जुनो बाणमभिमन्त्रय व्यकर्षयत्‌ ।। २१ ।। 
मानवास्त्रेण मानार्हस्ती क्ष्णावरण भेदिना । 


संजय कहते हैं--राजन! ऐसा कहकर माननीय अर्जुनने कठोर आवरणका भेदन 

करनेवाले मानवास्त्रसे अपने बाणोंको अभिमन्त्रित करके धनुषकी डोरीको खींचा ।। २१३ 
|| 

विकृष्यमाणांस्तेनैव धनुर्मध्यगतान्‌ छरान्‌ ।। २२ ।। 

तानस्यास्त्रेण चिच्छेद दौणि: सर्वास्त्रधातिना । 

धनुषके बीचमें रखकर अर्जुनके द्वारा खींचे जानेवाले उन बाणोंको अभ्वत्थामाने 
सर्वस्त्रधातक अस्त्रके द्वारा काट डाला || २२६ ।। 

तान्‌ निकृत्तानिषून्‌ दृष्टवा दूरतो ब्रह्म॒वादिना ।। २३ ।। 

न्यवेदयत्‌ केशवाय विस्मित: श्वेतवाहन: । 

ब्रह्मवादी अश्वत्थामाके द्वारा दूरसे ही काट दिये गये उन बाणोंको देखकर श्वेतवाहन 
अर्जुन चकित हो उठे और श्रीकृष्णको सूचित करते हुए बोले-- || २३ ई ।। 

नैतदस्त्रं मया शक्यं द्वि: प्रयोक्तुं जनार्दन ।। २४ ।। 

अस्त्र मामेव हन्याद्धि हन्याच्चापि बल॑ मम । 

“जनार्दन! इस अस्त्रका मैं दो बार प्रयोग नहीं कर सकता; क्योंकि ऐसा करनेपर यह 
मुझे ही मार डालेगा और मेरी सेनाका भी संहार कर देगा' ।। २४ ६ ।। 

ततो दुर्योधन: कृष्णौ नवभिर्नवशभि: शरै: ।॥। २५ ।। 

अविध्यत रणे राजन्‌ शरैराशीविषोपमै: । 

राजन्‌! इसी समय दुर्योधनने रणक्षेत्रमें विषधर सर्पके समान भयंकर नौ-नौ बाणोंसे 
श्रीकृष्ण और अर्जुनको घायल कर दिया ।। २५३ ।। 

भूय एवाभ्यवर्षच्च समरे कृष्णपाण्डवौ ।। २६ ।। 

शरवर्षेण महता ततो<5हृष्पन्त तावका: । 

चक्रुर्वादित्रनिनदान्‌ सिंहनादरवांस्तथा ।। २७ ।। 

उसने समरभूमिमें बड़ी भारी बाण-वर्षा करके श्रीकृष्ण और पाण्डुकुमार धनंजयपर 
पुनः बाणोंकी झड़ी लगा दी। इससे आपके सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। वे बाजे बजाने और 
सिंहनाद करने लगे || २६-२७ ।। 

ततः क्रुद्धो रणे पार्थ: सृक्किणी परिसंलिहन्‌ । 

नापश्यच्च ततोअस्याजूं यन्न स्याद्‌ वर्मरक्षितम्‌ । २८ ।। 

तदनन्तर युद्धस्थलमें कुपित हुए अर्जुन अपने मुँहके कोने चाटने लगे। उन्होंने 
दुर्योधनका कोई भी ऐसा अंग नहीं देखा, जो कवचसे सुरक्षित न हो || २८ ।। 

ततो<स्य निशितैर्बाणै: सुमुक्तैरन्‍्तकोपमै: । 

हयांश्वकार निर्देहानुभौ च पार्ष्णिसारथी ।। २९ ।। 

तदनन्तर अर्जुनने अच्छी तरह छोड़े हुए कालोपम तीखे बाणोंद्वारा दुर्योधनके चारों 
घोड़ों और दोनों पृष्ठ-रक्षकोंको मार डाला || २९ |। 


धनुरस्याच्छिनत्‌ तूर्ण हस्तावापं च वीर्यवान्‌ । 

रथं च शकलीकर्तु सव्यसाची प्रचक्रमे ।। ३० ।। 

तत्पश्चात्‌ पराक्रमी सव्यसाची अर्जुनने तुरंत ही उसके धनुष और दस्तानेको काट दिया 
और रथको टूक-टूक करना आरम्भ किया ।। ३० ।। 

दुर्योधनं च बाणाभ्यां तीक्ष्णाभ्यां विरथीकृतम्‌ । 

आविषध्यद्धस्ततलयोरुभयोरर्जुनस्तदा ।। ३१ ।। 

उस समय पार्थने रथहीन हुए दुर्योधनकी दोनों हथेलियोंमें दो पैने बाणोंद्वारा गहरी चोट 
पहुँचायी ।। 

प्रयत्नज्ञो हि कौन्तेयो नखमांसान्तरेषुभि: | 

स वेदनाभिराविग्न: पलायनपरायण: ।। ३२ ।। 

उपायको जाननेवाले कुन्तीकुमारने अपने बाणोंद्वारा दुर्योधनके नखोंके मांसमें प्रहार 
किया। तब वह वेदनासे व्याकुल हो युद्धभूमिसे भाग चला ।। ३२ ।। 

त॑ कृच्छामापदं प्राप्तं दृष्टयवा परमधन्विन: । 

समापेतु: परीप्सन्तो धनंजयशरार्दितम्‌ ॥। ३३ ।। 

धनंजयके बाणोंसे पीड़ित हुए दुर्योधनको भारी विपत्तिमें पड़ा हुआ देख श्रेष्ठ धनुर्धर 
योद्धा उसकी रक्षाके लिये आ पहुँचे ।। ३३ ।। 

त॑ रथैर्बहुसाहस्रै: कल्पितै: कुञ्जरैहयै: । 

पदात्योघैश्व संरब्धै: परिवद्रुर्थन॑जयम्‌ ।। ३४ ।। 

उन्होंने कई हजार रथों, सजे-सजाये हाथियों, घोड़ों तथा रोषमें भरे हुए पैदल 
सैनिकोंद्वारा अर्जुनको चारों ओरसे घेर लिया ।। ३४ ।। 

अथ नार्जुनगोविन्दौ न रथो वा व्यदृश्यत | 

अस्त्रवर्षण महता जनौघैश्वापि संवृती ।। ३५ ।। 

उस समय बड़ी भारी बाण-वर्षा और जनसमुदायसे घिरे हुए अर्जुन, श्रीकृष्ण और 
उनका रथ--इनमेैंसे कोई भी दिखायी नहीं देता था ।। ३५ ।। 

ततोडर्जुनो<स्त्रवीर्येण निजघ्ने तां वरूथिनीम्‌ । 

तत्र व्यज्रीकृता: पेतु: शतशो<5थ रथद्विपा: ॥। ३६ ।। 

तब अर्जुन अपने अस्त्र-बलसे उस कौरव-सेनाका विनाश करने लगे। वहाँ सैकड़ों रथ 
और हाथी अंग-भंग होनेके कारण धराशायी हो गये ।। ३६ ।। 

ते हता हन्यमानाश्र न्यगृह्लंस्तं रथोत्तमम्‌ । 

स रथस्तम्भितस्तस्थौ क्रोशमात्रे समन्‍्तत: ।। ३७ ।। 

उन हताहत होनेवाले कौरव-सैनिकोंने उत्तम रथी अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया। वे 
जयद्रथसे एक कोसकी दूरीपर चारों ओरसे रथसेनाद्वारा घिरे हुए खड़े थे || ३७ ।। 

ततोर्जुनं वृष्णिवीरस्त्वरितो वाक्यमब्रवीत्‌ । 


भनुर्विस्फारयात्यर्थमहं ध्मास्यामि चाम्बुजम्‌ ।। ३८ ।। 

तब वृष्णिवीर श्रीकृष्णने तुरंत ही अर्जुनसे कहा--'तुम जोर-जोरसे धनुषको खींचो 
और मैं अपना शंख बजाऊँगा” ।। ३८ ।। 

ततो विस्फार्य बलवदू गाण्डीवं जध्निवान्‌ रिपून्‌ | 

महता शरवर्षेण तलशब्देन चार्जुन: ।। ३९ ।। 

यह सुनकर अर्जुनने बड़े जोरसे गाण्डीव धनुषको खींचकर हथेलीके चटचट शब्दके 
साथ भारी बाण-वर्षा करते हुए शत्रुओंका संहार आरम्भ किया ।। ३९ |। 

पाञज्चजन्यं च बलवान्‌ दध्मौ तारेण केशव: । 

रजसा ध्वस्तपक्ष्मान्ता: प्रस्विन्ननदनो भूशम्‌ || ४० ।। 

बलवान्‌ केशवने उच्च स्वरसे पांचजन्य शंख बजाया। उस समय उनकी पलकें 
धूलधूसरित हो रही थीं और उनके मुखपर बहुत-सी पसीनेकी बूँदें छा रही थीं || ४० ।। 

(तेनाच्युतोष्ठयुगपूरितमारुतेन 

शंखान्तरोदरविवृद्धविनि:सृतेन । 

नादेन सासुरवियत्सुरलोकपाल- 

मुद्विग्नमीश्वर जगत्‌ स्फुटतीव सर्वम्‌ ।।) 

तस्य शड्खस्य नादेन धनुषो निःस्वनेन च | 

निःसत्त्वाश्न ससत्त्वाश्न क्षितौ पेतुस्तदा जना: ।। ४१ ।। 

“नरेश्वर! भगवान्‌ श्रीकृष्णके दोनों ओठोंसे भरी हुई वायु शंखके भीतरी भागमें प्रवेश 
करके पुष्ट हो जब गम्भीर नादके रूपमें बाहर निकली, उस समय असुरलोक (पाताल), 
अन्तरिक्ष, देवलोक और लोकपालोंसहित सम्पूर्ण जगत्‌ भयसे उद्विग्न हो विदीर्ण होता-सा 
जान पड़ा। उस शंखकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे उद्विग्न हो निर्मल और सबल सभी 
शत्रु-सैनिक उस समय पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ४१ ।। 

तैरविमुक्तो रथो रेजे वाय्वीरित इवाम्बुद: । 

जयद्रथस्य गोप्तारस्तत: क्षुब्धा: सहानुगा: ।। ४२ ।। 

उनके घेरेसे मुक्त हुआ अर्जुनका रथ वायुसंचालित मेघके समान शोभा पाने लगा। 
इससे जयद्रथके रक्षक सेवकोंसहित क्षुब्ध हो उठे || ४२ ।। 

ते दृष्टवा सहसा पार्थ गोप्तार: सैन्धवस्य तु । 

चक्कुर्नादान्‌ महेष्वासा: कम्पयन्तो वसुंधराम्‌ ।। ४३ ।। 

जयद्रथकी रक्षामें नियुक्त हुए महाधनुर्धर वीर सहसा अर्जुनको देखकर पृथ्वीको कँपाते 
हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ।। ४३ ।। 

बाणशब्दरवांश्रोग्रान्‌ विमिश्रान शड्खनिःस्वनै: । 

प्रादुश्चक्रुमहात्मान: सिंहनादरवानपि ।। ४४ ।। 


उन महामनस्वी वीरोंने शंखध्वनिसे मिले हुए बाणजनित भयंकर शब्दों और 
सिंहनादको भी प्रकट किया ।। ४४ ।। 

त॑ श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां समुत्थितम्‌ | 

प्रदध्मतु: शड्खवरौ वासुदेवधनंजयौ ।। ४५ ।। 

आपके सैनिकोंद्वारा किये हुए उस भयंकर कोलाहलको सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने 
अपने श्रेष्ठ शंखोंको बजाया ।। ४५ ।। 

तेन शब्देन महता पूरितेयं वसुंधरा । 

सशैला सार्णवद्वीपा सपाताला विशाम्पते ।। ४६ ।। 

प्रजानाथ! उस महान्‌ शब्दसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और पातालसहित यह सारी पृथ्वी 
गूँज उठी ।। ४६ |। 

स शब्दो भरतश्रेष्ठ व्याप्य सर्वा दिशो दश । 

प्रतिसस्वान तत्रैव कुरुपाण्डवयोर्बले ।। ४७ ।। 

भरतश्रेष्ठ)] वह शब्द सम्पूर्ण दसों दिशाओंमें व्याप्त होकर वहीं कौरव-पाण्डव 
सेनाओंमें प्रतिध्वनित होता रहा ।। 

तावका रथिनस्तत्र दृष्टवा कृष्णधनंजयौ । 

सम्भ्रमं परमं प्राप्तास्त्वरमाणा महारथा: ।। ४८ ।। 

आपके रथी और महारथी वहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनको उपस्थित देख बड़े भारी 
उद्वेगमें पड़कर उतावले हो उठे ।। 

अथ कृष्णौ महाभागौ तावका वीक्ष्य दंशितौ । 

अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धास्तदद्भुतमिवा भवत्‌ ।। ४९ ।। 

आपके योद्धा कवच धारण किये महाभाग श्रीकृष्ण और अर्जुनको आया हुआ देख 
कुपित हो उनकी ओर दौड़े, यह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। ४९ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनपराजये 
त्रयधिकशततमो<ध्याय: ।। १०३ ॥। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधन-पराजयविषयक एक 
सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५० श्लोक हैं) 


अपन क्ा बा 2 


चतुर्राधिकशततमो< ध्याय: 
अर्जुनका कौरव महारथियोंके साथ घोर युद्ध 


संजय उवाच 

तावका हि समीक्ष्यैवं वृष्ण्यन्धककुरूत्तमौ । 

प्रागत्वरन्‌ जिघांसन्तस्तथैव विजय: परान्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! आपके सैनिक इस प्रकार वृष्णि और अन्धकवंशके श्रेष्ठ 
पुरुष श्रीकृष्ण तथा कुरुकुलरत्न अर्जुनको आगे देखकर उनका वध करनेकी इच्छासे 
उतावले हो उठे। इसी प्रकार अर्जुन भी शत्रुओंके वधकी अभिलाषासे शीघ्रता करने 
लगे ।। १ ।। 

सुवर्णचित्रैवैयाप्रै: स्वनवद्धिर्महारथै: । 

दीपयन्तो दिश: सर्वा ज्वलद्धिरिव पावकै: ।। २ ।। 

वे कौरव-सैनिक व्याप्रचर्मसे आच्छादित सुवर्णजटित और गम्भीर घोष करनेवाले 
प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी विशाल रथोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे 
थे।।२।। 

रुक्मपुड्खैश्न दुष्प्रेक्ष्यै: कार्मुकैः पृथिवीपते । 

कूजद्धिरतुलान्‌ नादान्‌ कोपितैस्तुरगैरिव ।। ३ ।। 

पृथ्वीपते! वे सोनेके पंखवाले दुर्लक्ष्य बाणों और क्रोधमें भरे हुए घोड़ोंके समान 
अनुपम टंकारथध्वनि करनेवाले धनुषोंके द्वारा भी समस्त दिशाओंमें दीप्ति बिखेर रहे 
थे।।३।। 

भूरिश्रवा: शल: कर्णो वृषसेनो जयद्रथ: । 

कृपश्च मद्रराजश्च द्रौणिश्व रथिनां वर: ।। ४ ।। 

ते पिबन्त इवाकाशमणश्लैरष्टी महारथा: । 

व्यराजयन्‌ दश दिशो वैयाप्रैहेंमचन्द्रकै: ।। ५ ।। 

भूरिश्रवा, शल, कर्ण, वृषसेन, जयद्रथ, कृपाचार्य, मद्रराज शल्य तथा रथियोंमें श्रेष्ठ 
अश्वत्थामा--ये आठ महारथी व्याप्रचर्मद्वारा आच्छादित तथा सुवर्णमय चन्द्रचिह्रोंसे 
विभूषित अअश्वोंद्वागा आकाशको पीते हुए-से दसों दिशाओंको सुशोभित कर रहे 
थे || ४-५ || 

ते दंशिता: सुसंरब्धा रथैमेंघौघनि:स्वनै: । 

समावृण्वन्‌ दश दिश: पार्थस्य निशितै: शरै: ।। ६ ।। 

कौलूतका हयाश्रित्रा वहन्तस्तान्‌ महारथान्‌ | 

व्यशोभन्त तदा शीघ्रा दीपयन्तो दिशो दश || ७ ।। 


रोषमें भरे हुए उन कवचधारी वीरोंने मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाले रथों और 
पैने बाणोंद्वारा अर्जुनकी दसों दिशाओंको आच्छादित कर दिया। कुलूतदेशके विचित्र एवं 
शीघ्रगामी घोड़े उस समय उन महारथियोंके वाहन बनकर दसों दिशाओंको प्रकाशित करते 
हुए बड़ी शोभा पा रहे थे ।। ६-७ ।। 

आजानेयैर्महावेगैर्नानादेशसमुत्थितै: । 

पर्वतीयैर्नदीजैश्न सैन्धवैश्व हयोत्तमै: ।। ८ ।। 

कुरुयोधवरा राजंस्तव पुत्र परीप्सव: । 

धनंजयरथं शीघ्र सर्वतः समुपाद्रवन्‌ ।। ९ ।। 

राजन! नाना देशोंमें उत्पन्न महान्‌ वेगशाली आजानेयर, पर्वतीयः (पहाड़ी), नदीजई 
(दरियाई) तथा सिंधुदेशीय उत्तम घोड़ोंद्वारा आपके पुत्रकी रक्षाके लिये उत्सुक हुए श्रेष्ठ 
कौरवयोद्धा सब ओरसे शीघ्र ही अर्जुनके रथपर टूट पड़े ।। ८-९ ।। 

ते प्रगृहा महाशड्खान्‌ दश्मु: पुरुषसत्तमा: । 

पूरयन्तो दिवं राजन्‌ पृथिवीं च ससागराम्‌ ।। १० ।। 

नरेश्वर! उन पुरुषप्रवर योद्धाओंने समुद्रसहित पृथ्वी और आकाशको शब्दोंसे व्याप्त 
करते हुए बड़े-बड़े शंख लेकर बजाये ।। १० ।। 

तथैव दध्मतु: शड्खौ वासुदेवधनंजयौ । 

प्रवरी सर्वदेवानां सर्वशड्खवरी भुवि ।। ११ ।। 

इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन भूतलके समस्त शंखोंमें उत्तम 
अपने दिव्य शंख बजाने लगे ।। ११ ।। 

देवदत्तं च कौन्तेय: पाउ्चजन्यं च केशव: । 

शब्दस्तु देवदत्तस्य धनंजयसमीरित: ।। १२ ।। 

पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिशश्वैव समावृणोत्‌ । 

कुन्तीकुमार अर्जुनने देवदत्त नामक शंख बजाया और श्रीकृष्णने पांचजन्य। धनंजयके 
बजाये हुए देवदत्तका शब्द पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त हो गया ।। १२ $ई 

|| 

तथैव पाञ्चजन्योड5पि वासुदेवसमीरित: ।। १३ ।। 

सर्वशब्दानतिक्रम्य पूरयामास रोदसी । 

इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके बजाये हुए पांचजन्यने भी सम्पूर्ण शब्दोंको दबाकर 
अपनी ध्वनिसे पृथ्वी और आकाशको भर दिया ।। १३३ ।। 

तस्मिंस्तथा वर्तमाने दारुणे नादसंकुले ।। १४ ।। 

भीरूणां त्रासजनने शूराणां हर्षवर्धने । 

प्रवादितासु भेरीषु झर्झरिष्वानकेषु च ।। १५ ।। 


मृदज्भेष्वपि राजेन्द्र वाद्यमानेष्वनेकश: । 

महारथा: समाख्याता दुर्योधनहितैषिण: ।। १६ ।। 

अमृष्यमाणास्तं शब्दं क्रुद्धा: परमधन्विन: । 

नानादेश्या महीपाला: स्वसैन्यपरिरक्षिण: || १७ ।। 

अमर्षिता महाशड्खान्‌ द्मुर्वीरा महारथा: । 

कृते प्रतिकरिष्यन्त: केशवस्यार्जुनस्य च ।। १८ ।। 

राजेन्द्र! इस प्रकार जब वहाँ भयंकर शब्द व्याप्त हो गया, जो कायरोंको डराने और 
शूरवीरोंके हर्षको बढ़ानेवाला था, जब मेरी, झाँझ, ढोल और मृदंग आदि अनेक प्रकारके 
बाजे बजने और बजाये जाने लगे, उस समय दुर्योधनका हित चाहनेवाले विख्यात महारथी 
उस शब्दको न सह सकनेके कारण कुपित हो उठे। वे नाना देशोंमें उत्पन्न वीर, महारथी, 
महाधनुर्धर महीपाल, जो अपनी सेनाका संरक्षण कर रहे थे, अमर्षमें भरकर बड़े-बड़े शंख 
बजाने लगे; वे श्रीकृष्ण और अर्जुनके प्रत्येक कार्यका बदला चुकानेको उद्यत थे || १४-- 
१८ || 

बभूव तव तत्‌ सैन्यं शड्खशब्दसमीरितम्‌ | 

उद्विग्नरथनागाश्चवमस्वस्थमिव वा विभो ।। १९ ।। 

प्रभो! आपकी वह सेना शंखके शब्दसे व्याप्त होनेके कारण अस्वस्थ-सी दिखायी देती 
थी। उसके हाथी, घोड़े और रथी सभी उद्विग्न हो उठे थे ।। १९ ।। 

तत्‌ प्रविद्धमिवाकाशं शूरै: शडुखविनादितम्‌ | 

बभूव भूशमुद्विग्नं निर्धातिरिव नादितम्‌ ।। २० ।। 

शूरवीरोंने शंखध्वनिसे आकाशको विद्ध-सा कर डाला। वह वज्रकी गड़गड़ाहटसे 
व्याप्त-सा होकर अत्यन्त उद्वेशजनक हो गया ।। २० ॥। 

स शब्द:सुमहान्‌ राजन्‌ दिश: सर्वा व्यनादयत्‌ । 

त्रासयामास तत्‌ सैन्यं युगान्त इव सम्भूत: ।। २१ ।। 

राजन! प्रलयकालके समान सब ओर फैला हुआ वह महान्‌ शब्द सम्पूर्ण दिशाओंको 
प्रतिध्वनित करने और आपकी सेनाको डराने लगा ।। २१ ।। 

ततो दुर्योधनो5ष्टौ च राजानस्ते महारथा: । 

जयद्रथस्य रक्षार्थ पाण्डवं पर्यवारयन्‌ ॥। २२ ।। 

तदनन्तर दुर्योधन तथा आठ महारथी नरेशोंने जयद्रथकी रक्षाके लिये अर्जुनको घेर 
लिया ।। २२ || 

ततो द्रौणिस्त्रिसप्तत्या वासुदेवमताडयत्‌ । 

अर्जुन च त्रिभिर्भल्लैर्ध्वजमश्वांश्व पडचभि: || २३ ।। 

उस समय अअभश्वत्थामाने भगवान्‌ श्रीकृष्णको तिहत्तर बाण मारे, तीन भल्लोंसे 
अर्जुनको चोट पहुँचायी और पाँचसे उनके ध्वज एवं घोड़ोंको घायल कर दिया ।। २३ ।। 


तमर्जुन: पृषत्कानां शतै: षड़भिरताडयत्‌ । 

अत्यर्थमिव संक्रुद्धः प्रतिविद्धे जनार्दने | २४ ।। 

श्रीकृष्णके घायल हो जानेपर अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे। उन्होंने छः सौ बाणोंद्वारा 
अश्वत्थामाको क्षत-विक्षत कर दिया ।। २४ ।। 

कर्ण च दशभिर्विद्ध्वा वृषसेनं त्रिभिस्तथा । 

शल्यस्य सशरं चापं मुष्टी चिच्छेद वीर्यवान्‌ ।। २५ ।। 

फिर पराक्रमी अर्जुनने दस बाणोंसे कर्णको और तीन बाणोंद्वारा वृषसेनको घायल 
करके राजा शल्यके बाणसहित धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट डाला || २५ ।। 

गृहीत्वा धनुरन्यत्‌ तु शल्यो विव्याध पाण्डवम्‌ । 

भूरिश्रवास्त्रिभिबाणिहेमपुड्खै: शिलाशितै: ।। २६ ।। 

तब शल्यने दूसरा धनुष हाथमें लेकर पाण्डुपुत्र अर्जुनको बींध डाला। भूरिश्रवाने 
सानपर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले तीन बाणोंसे उन्हें घायल कर दिया ।। २६ ।। 

कर्णो द्वात्रिंशता चैव वृषसेनश्व सप्तभि: । 

जयद्रथस्त्रिसप्तत्या कृपश्च दशभि: शरै: ॥। २७ ।। 

मद्रराजश्न दशभिर्विव्यधु: फाल्गुनं रणे । 

फिर कर्णने बत्तीस, वृषसेनने सात, जयद्रथने तिहत्तर, कृपाचार्यने दस तथा मद्रराज 
शल्यने भी दस बाण मारकर रफक्षेत्रमें अर्जुनको बींध डाला || २७६ ।। 

तत: शराणां षष्ट्या तु द्रौणि: पार्थमवाकिरत्‌ ।। २८ ।। 

वासुदेवं च विंशत्या पुनः पार्थ च पञठ्चभि: । 

तत्पश्चात्‌ अश्वत्थामाने अर्जुनपर साठ बाण बरसाये, फिर श्रीकृष्णको बीस और 
अर्जुनको भी पाँच बाण मारे || २८६ || 

प्रहसंस्तु नरव्याप्र: श्वेताश्वः कृष्णसारथि: ।। २९ ।। 

प्रत्यविध्यत्‌ स तान्‌ सर्वान्‌ दर्शयन्‌ पाणिलाघवम्‌ । 

तब श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन श्वेतवाहन पुरुषसिंह अर्जुनने जोर-जोरसे हँसते 
और हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए उन सबको बींधकर बदला चुकाया || २९३ ।। 

कर्ण द्वादशभिवविंद्ध्या वृषसेनं त्रिभि: शरै: ।। ३० ।। 

शल्यस्य सशरं चापं मुष्टिदेशे व्यकृन्तत । 

कर्णको बारह और वृषसेनको तीन बाणोंसे घायल करके राजा शल्यके बाणसहित 
धनुषको मुद्दी पकड़नेकी जगहसे पुनः काट डाला || ३०३ ।। 

सौमदत्तिं त्रिभिविंद्ध्वा शल्यं च दशभि: शरै: || ३१ ।। 

शितैरग्निशिखाकारैद्रौणिं विव्याध चाष्टभि: । 

इसके बाद भूरिश्रवाको तीन और शल्यको दस बाणोंसे बींधकर अग्निकी ज्वालाके 
समान आकारवाले आठ तीखे बाणोंद्वारा अश्वत्थामाको घायल कर दिया ।। 


गौतम॑ं पठ्चविंशत्या सैन्धवं च शतेन ह ।। ३२ ।। 

पुनर्द्रर्णि च सप्तत्या शराणां सो5भ्यताडयत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ कृपाचार्यको पचीस, जयद्रथको सौ तथा अभश्वत्थामाको पुनः उन्होंने सत्तर 
बाण मारे || ३२६ || 

भूरिश्रवास्तु संक्रुद्ध: प्रतोद॑ चिच्छिदे हरे: ।। ३३ ।। 

अर्जुन च त्रिसप्तत्या बाणानामाजघान ह ।॥। ३४ ।। 

भूरिश्रवाने कुपित होकर श्रीकृष्णका चाबुक काट डाला और अर्जुनको तिहत्तर 
बाणोंसे गहरी चोट पहुँचायी || ३३-३४ ।। 

तत: शरशतैस्ती4्णैस्तानरीन्‌ श्वेतवाहन: । 

प्रत्यषेधद्‌ द्रुतं क्रुद्धो महावातो घनानिव ।। ३५ ।। 

तदनन्तर जैसे प्रचण्ड वायु बादलोंको छिलन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार श्वेतवाहन 
अर्जुनने कुपित हो सैकड़ों तीखे बाणोंद्वारा उन शत्रुओंको तुरंत पीछे हटा दिया || ३५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संकुलयुद्धे 
चतुरधिकशततमो<ध्याय: ।। १०४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संकुलयुद्धाविषयक एक सौ 
चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०४ ॥। 


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३. आजानेयका लक्षण इस प्रकार है-गुडगन्धा: काये ये सुश्लक्ष्णा: कान्तितो जितक्रोधा: । सारयुता 
जितेन्द्रिया: क्षुत्त॒डाहितं चापि नो दुःखम्‌ ।॥। जानन्त्याजानेया निर्दिष्टा वाजिनो धीरै: । अर्थात्‌ जिनके शरीरसे 
गुड़की-सी गन्ध आती हो, जो कान्तिसे अत्यन्त चिकने और चमकीले जान पड़ते हों, क्रोधको जीत चुके हों, बलवान्‌ और 
जितेन्द्रिय हों तथा भूख-प्यासके कष्टका अनुभव न करते हों, उन घोड़ोंको धीर पुरुषोंने “आजानेय” कहा है। 

२. पर्वतीय घोड़ोंका लक्षण यों होना चाहिये--वाहास्तु पर्वतीया बलान्विता: स्निग्धकेशाश्न वृत्तखुरा दृढपादा 
महाजवास्ते5तिविख्याता: । अर्थात्‌ अत्यन्त विख्यात 'पर्वतीय' घोड़े बलवान होते हैं, उनके बाल चिकने, टाप गोल, पैर 
सुदृढ़ और वेग महान होते हैं। 

३. नदीज या दरियाई घोड़ोंका लक्षण इस प्रकार है--अश्वाः सकर्णिकारा: क्वचन नदीतीरजा: समुद्दिष्टा: । 
पूर्वार्थेषूदग्रा: पश्चार्थे चानता: किंचित्‌ | कहीं नदीके तटपर उत्पन्न हुए कनेरयुक्त अश्व “नदीज” कहलाते हैं। वे आगेके 
आधे शरीरसे ऊँचे और पिछले आधे शरीरसे कुछ नीचे होते हैं। 


पञ्चाधिकशततमोब< ध्याय: 


अर्जुन तथा कौरव-महारथियोंके ध्वजोंका वर्णन और नौ 
महारथियोंके साथ अकेले अर्जुनका युद्ध 


ध्ृतराष्टर उवाच 

ध्वजान्‌ बहुविधाकारान्‌ भ्राजमानानति श्रिया । 

पार्थानां मामकानां च तान्‌ ममाचक्ष्व संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! मेरे तथा कुन्तीके पुत्रोंके जो नाना प्रकारके ध्वज अत्यन्त 
शोभासे उद्धासित हो रहे थे, उनका मुझसे वर्णन करो ।। १ ॥। 

संजय उवाच 

ध्वजान्‌ बहुविधाकारान्‌ शृणु तेषां महात्मनाम्‌ | 

रूपतो वर्णतश्चैव नामतश्ष निबोध मे । २ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! उन महामनस्वी वीरोंके जो नाना प्रकारकी आकृतिवाले ध्वज 
फहरा रहे थे, उनका रूप-रंग और नाम मैं बता रहा हूँ, सुनिये || २ ।। 

तेषां तु रथमुख्यानां रथेषु विविधा ध्वजा: । 

प्रत्यदृश्यन्त राजेन्द्र ज्वलिता इव पावका: ।। ३ ।। 

राजेन्द्र! उन श्रेष्ठ महारथियोंके रथोंपर भाँति-भाँतिके ध्वज प्रज्वलित अग्निके समान 
तेजस्वी दिखायी देते थे ।। ३ ।। 

काज्चना: काञज्चनापीडा: काञ्चनस्रगलंकृता: । 

काज्चनानीव शुड्राणि काञ्चनस्य महागिरे: ।। ४ ।। 

वे ध्वज सोनेके बने थे। उनके ऊपरी भागको सुवर्णसे ही सजाया गया था। सोनेकी ही 
मालाओंसे वे अलंकृत थे। अतः सुवर्णमय महापर्वत सुमेरुके स्वर्णमय शिखरोंके समान 
सुशोभित होते थे || ४ ।। 

अनेकवर्णा विविधा ध्वजा: परमशोभना: । 

ते ध्वजा: संवृतास्तेषां पताकाभि: समन्ततः ।। ५ ।। 

नानावर्णविरागाभि: शुशुभु: सर्वतो वृता: । 

वे परम शोभासम्पन्न अनेक प्रकारके बहुरंगे ध्वज सब ओरसे नाना रंगकी 
पताकाओंद्वारा घिरकर बड़ी शोभा पाते थे ।। ५३ ।। 

पताकाश्व ततस्तास्तु श्वसनेन समीरिता: ।। ६ ।। 

नृत्यमाना व्यदृश्यन्त रज़्मध्ये विलासिका: । 


उनकी वे पताकाएँ वायुसे संचालित हो रंगमंचपर नृत्य करनेवाली विलासिनियोंके 
समान दिखायी देती थीं ।। 

इन्द्रायुधसवर्णाभा: पताका भरतर्षभ ।। ७ ।। 

दोधूयमाना रथिनां शोभयन्ति महारथान्‌ | 

भरतश्रेष्ठ! इन्द्रधनुषके समान प्रभावाली फहराती हुई पताकाएँ रथियोंके विशाल 
रथोंकी शोभा बढ़ाती थीं ।। 

सिंहलाड्गूलमुग्रास्यं ध्वजं वानरलक्षणम्‌ ।। ८ ।। 

धनंजयस्य संग्रामे प्रत्यदृश्यत भैरवम्‌ । 

उस संग्राममें अर्जुनका भयंकर ध्वज वानरके चिह्से सुशोभित दिखायी देता था। उस 
वानरकी पूँछ सिंहके समान थी और उसका मुख बड़ा ही उग्र था ।। ८३ ।। 

स वानरवरो राजन्‌ पताकाभिरलंकृत: ।। ९ ।। 

त्रासयामास तत्‌ सैन्यं ध्वजो गाण्डीवधन्चन: । 

राजन! श्रेष्ठ वानरसे सुशोभित तथा पताकाओंसे अलंकृत गाण्डीवधारी अर्जुनका वह 
ध्वज आपकी उस सेनाको भयभीत किये देता था ।। ९६ ।। 

तथैव सिंहलाडूगूलं द्रोणपुत्रस्य भारत ।। १० ।। 

ध्वजाग्रं समपश्याम बालसूर्यसमप्रभम्‌ | 

भारत! इसी प्रकार हमलोगोंने द्रोणपुत्र अश्वत्थामा-के श्रेष्ठ ध्वजको प्रातः:कालीन 
सूर्यके समान अरुण कान्तिसे प्रकाशित देखा था। उसमें सिंहकी पूँछका चिह्न था || १०३ 

|| 

काज्चनं पवनोदधूतं शक्रध्वजसमप्रभम्‌ ।। ११ ।। 

नन्दनं कौरवेन्द्राणां द्रौणेलक्ष्म समुच्छितम्‌ 

अश्व॒त्थामाका इन्द्रध्वजके समान प्रकाशमान सुवर्णमय ऊँचा ध्वज वायुकी प्रेरणासे 
फहराता हुआ कौरव-नरेशोंका आनन्द बढ़ा रहा था || ११६ ।। 

हस्तिकक्ष्या पुनर्हमी बभूवाधिरथेर्ध्वज: ।। १२ ।। 

आहवे खं महाराज ददृशे पूरयन्निव । 

अधिरथपुत्र कर्णका ध्वज हाथीकी सुवर्णमयी रस्सीके चिह्नसे युक्त था। महाराज! वह 
संग्राममें आकाशको भरता हुआ-सा दिखायी देता था ।। १२६ ।। 

पताका काज्चनी स्रग्वी ध्वजे कर्णस्य संयुगे | १३ ।। 

नृत्यतीव रथोपस्थे श्वसनेन समीरिता । 

युद्धसस्‍्थलमें कर्णके ध्वजपर सुवर्णमयी मालासे विभूषित पताका वायुसे आन्दोलित हो 
रथकी बैठकपर नृत्य-सा कर रही थी ।। १३ ३ || 

आचार्यस्य तु पाण्डूनां ब्राह्मणस्य तपस्विन: ।। १४ ।। 


गोवृषो गौतमस्यासीत्‌ कृपस्य सुपरिष्कृत: । 

स तेन भ्राजते राजन्‌ गोवृषेण महारथ: ।। १५ ।। 

त्रिपुरघ्नरथो यद्वद्‌ गोवृषेण विराजता । 

पाण्डवोंके आचार्य, तपस्वी ब्राह्मण, गौतमगोत्रीय कृपाचार्यके ध्वजपर एक बैलका 
सुन्दर चिह्न अंकित था। राजन! उनका वह विशाल रथ उस वृषभचिह्नसे बड़ी शोभा पा रहा 
था; ठीक उसी तरह, जैसे त्रिपुरनाशक महादेवजीका रथ सुन्दर वृषभचिह्लसे शोभायमान 
होता था | १४-१५३ || 

मयूरो वृषसेनस्य काउ्चनो मणिरत्नवान्‌ ।। १६ ।। 

व्याहरिष्यन्निवातिष्ठत्‌ सेनाग्रमुपशो भयन्‌ । 

वृषसेनका मणिरत्नविभूषित सुवर्णमय ध्वज मयूर-चिह्नसे युक्त था। वह मयूर सेनाके 
अग्रभागकी शोभा बढ़ाता हुआ इस प्रकार खड़ा था, मानो बोल देगा ।। १६३ ।। 

तेन तस्य रथो भाति मयूरेण महात्मन: ।। १७ ।। 

यथा स्कन्दस्य राजेन्द्र मयूरेण विराजता । 

राजेन्द्र! जैसे स्वामी स्कन्दका रथ सुन्दर मयूर-चिह्लसे शोभित होता है, उसी प्रकार 
महामना वृषसेनका रथ उस मयूरचिह्लसे शोभा पा रहा था ।। १७६३ ।। 

मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेडग्नेशिखामिव || १८ ।। 

सौवर्णी प्रतिपश्याम सीतामप्रतिमां शुभाम्‌ । 

मद्रराज शल्यकी ध्वजाके अग्रभागमें हमने अग्निशिखाके समान उज्ज्वल, सुवर्णमय, 
अनुपम तथा शुभ लक्षणोंसे युक्त एक सीता (हलसे भूमिपर खींची हुई रेखा) देखी 
थी ।। १८३ || 

सा सीता भ्राजते तस्य रथमास्थाय मारिष ।। १९ ।। 

सर्वबीजविरूढेव यथा सीता श्रिया वृता । 

माननीय नरेश! जैसे खेतमें हलकी नोकसे बनी हुई रेखा सभी बीजोंके अंकुरित 
होनेपर शोभासम्पन्न दिखायी देती है, उसी प्रकार मद्रराजके रथका आश्रय ले वह सीता 
(हलद्वारा बनी हुई रेखा) बड़ी शोभा पा रही थी ।। १९६ ।। 

वराह: सिन्धुराजस्य राजतो5भिविराजते ।। २० ।। 

ध्वजाग्रेडलोहितार्काभो हेमजालपरिष्कृत: । 

सिन्धुराज जयद्रथकी ध्वजाके अग्रभागमें उज्ज्वल सूर्यके समान श्वेत कान्तिमान्‌ और 
सोनेकी जालीसे विभूषित चाँदीका बना हुआ वराहचिह्न अत्यन्त सुशोभित हो रहा 
था ।। २०३ || 

शुशुभे केतुना तेन राजतेन जयद्रथ: ।। २१ ।। 

यथा देवासुरे युद्धे पुरा पूषा सम शोभते । 


जैसे पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें पूषा शोभा पाते थे, उसी प्रकार उस रजतनिर्मित 
ध्वजसे जयद्रथकी शोभा हो रही थी || २१३ ।। 

सौमदत्ते: पुनर्यूपो यज्ञशीलस्थ धीमतः ।। २२ ।। 

ध्वज: सूर्य इवाभाति सोमश्नात्र प्रदृश्यते । 

सदा यज्ञमें लगे रहनेवाले बुद्धिमान्‌ भूरिश्रवाके रथमें यूपका चिह्न बना था। वह ध्वज 
सूर्यके समान प्रकाशित होता था और उसमें चन्द्रमाका चिह्न भी दृष्टिगोचर होता था ।। २२ 
ई | 

स यूप: काञउ्चनो राजन सौमदत्तेविराजते ।। २३ ।। 

राजसूये मखश्रेष्ठे यथा यूप: समुच्छित: । 

राजन! जैसे यज्ञोंमें श्रेष्ठ राजसूयमें ऊँचा यूप सुशोभित होता है, भूरिश्रवाका वह 
सुवर्णमय यूप वैसे ही शोभा पा रहा था || २३६ || 

शलस्य तु महाराज राजतो द्विरदो महान्‌ ।। २४ ।। 

केतु: काञ्चनचित्रा ड्रैर्मयूरिरुपशोभित: । 

स केतु: शो भयामास सैन्यं ते भरतर्षभ ।। २५ ।। 

महाराज! शलके ध्वजमें चाँदीका महान्‌ गजराज बना हुआ था। भरतश्रेष्ठ! वह ध्वज 
सुवर्णनिर्मित विचित्र अंगोंवाले मयूरोंसे सुशोभित था और आपकी सेनाकी शोभा बढ़ा रहा 
था || २४-२५ |। 

यथा श्वेतो महानागो देवराजचमूं तथा । 

नागो मणिमयो राज्ञो ध्वज: कनकसंवृत: ।। २६ ।। 

जैसे श्वेत वर्णका महान्‌ ऐरावत हाथी देवराजकी सेनाको सुशोभित करता है, उसी 
प्रकार राजा दुर्योधनका सुवर्णमण्डित ध्वज मणिमय गजराजके चिह्लसे उपलक्षित होता 
था ।। २६ |। 

किंकिणीशतसंह्वादो भ्राजंश्रित्रो रथोत्तमे । 

व्यभ्राजत भृशं राजन्‌ पुत्रस्तव विशाम्पते | २७ ।। 

ध्वजेन महता संख्ये कुरूणामृषभस्तदा । 

प्रजानाथ! वह विचित्र ध्वज दुर्योधनके उत्तम रथपर सैकड़ों क्षुद्रधंटिकाओंकी ध्वनिसे 
शोभायमान था। उस महान्‌ ध्वजसे युद्धस्थलमें आपके पुत्र कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनकी उस समय 
बड़ी शोभा हो रही थी | २७३६ ।। 

नवैते तव वाहिन्यामुच्छिता: परमध्वजा: ।। २८ ।। 

व्यदीपयंस्ते पृतनां युगान्तादित्यसंनिभा: । 

ये नौ उत्तम ध्वज आपकी सेनामें बहुत ऊँचे थे और प्रलयकालके सूर्यके समान अपना 
प्रकाश फैलाते हुए आपकी सेनाको उद्धासित कर रहे थे || २८६ ।। 


दशमस्त्वर्जुनस्यासीदेक एव महाकपि: ।। २९ ।। 

अदीप्यतार्जुनो येन हिमवानिव वह्नलिना । 

दसवाँ ध्वज एकमात्र अर्जुनका ही था, जो विशाल वानरचिह्लसे सुशोभित था। उससे 
अर्जुन उसी प्रकार देदीप्यमान हो रहे थे, जैसे अग्निसे हिमालय पर्वत उद्धासित होता 
है || २९३६ || 

ततदश्रित्राणि शुभ्राणि सुमहान्ति महारथा: ।। ३० ।। 

कार्मुकाण्याददुस्तूर्णमर्जुनार्थे परंतपा: । 

तदनन्तर शत्रुओंको संताप देनेवाले उन सब महारथियोंने अर्जुनको मारनेके लिये तुरंत 
ही विचित्र, चमकीले और विशाल धनुष हाथमें ले लिये || ३० ६ ।। 

तथैव धनुरायच्छत्‌ पार्थ: शत्रुविनाशन: ।। ३१ ।। 

गाण्डीवं दिव्यकर्मा तद्‌ राजन दुर्मन्त्रिते तव । 

राजन! उसी प्रकार दिव्य कर्म करनेवाले शत्रुनाशन पार्थने भी आपकी कुमन्त्रणाके 
फलस्वरूप अपने गाण्डीव धनुषको खींचा || ३१६ || 

तवापराधादू राजानो निहता बहुशो युधि ।। ३२ ।। 

नानादिग्भ्य: समाहूता: सहया: सरथद्विपा: । 

महाराज! आपके अपराधसे उस युद्धसस्‍्थलमें अनेक दिशाओंसे आमन्त्रित होकर आये 
हुए बहुत-से राजा अपने घोड़ों, रथों और हाथियोंसहित मारे गये हैं || ३२६ ।। 

तेषामासीद्‌ व्यतिक्षेपौ गर्जतामितरेतरम्‌ ।। ३३ ।। 

दुर्योधनमुखानां च पाण्डूनामृषभस्य च । 

उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके गर्जना करनेवाले दुर्योधन आदि महारथियों तथा 
पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनमें परस्पर आघात-प्रतिघात होने लगा ।। ३३ $ ।। 

तत्राद्भुतं परं चक्रे कौन्तेयः कृष्णसारथि: ।। ३४ ।। 

यदेको बहुभि: सार्ध समागच्छदभीतवत्‌ | 

वहाँ श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, उन कुन्तीकुमार अर्जुनने यह अत्यन्त अद्भुत पराक्रम 
किया कि अकेले ही बहुतोंके साथ निर्भय होकर युद्ध आरम्भ कर दिया ।। ३४३ ।। 

अशोभत महाबाहुर्गाण्डीवं विक्षिपन्‌ धनु: ।। ३५ ।। 

जिगीषुस्तान्‌ नरव्याप्रो जिघांसुश्च जयद्रथम्‌ । 

उनपर विजय पानेकी इच्छा रखकर जयद्रथके वधकी अभिलाषासे गाण्डीव धनुषको 
खींचते हुए पुरुषसिंह महाबाहु अर्जुनकी बड़ी शोभा हो रही थी || ३५३ ।। 

तत्रार्जुनो नरव्याप्र: शरैर्मुक्तै: सहस्रशः ।। ३६ ।। 

अदृश्यांस्तावकान्‌ योधानू्‌ प्रचक्रे शत्रुतापन: । 


उस समय शत्रुओंको संताप देनेवाले नरव्याप्र अर्जुनने अपने छोड़े हुए सहस्तरों 
बाणोंद्वारा आपके योद्धाओंको अदृश्य कर दिया ।। ३६३ ।। 

ततस्ते5पि नरव्याप्रा: पार्थ सर्वे महारथा: ।। ३७ ।। 

अदृश्यं समरे चक्र: सायकौचै: समन्तत: । 

तब उन सभी पुरुषसिंह महारथियोंने भी समरांगणमें सब ओरसे बाणसमूहोंकी वर्षा 
करके अर्जुनको अदृश्य कर दिया || ३७६ ।। 

संवृते नरसिंहैस्तु कुरूणामृषभे<र्जुने । 

महानासीत्‌ समुद्धूतस्तस्य सैन्यस्य नि:स्वन: ।। ३८ ।। 

जब कुरुश्रेष्ठ अर्जुन उन पुरुषसिंहोंद्वारा घेर लिये गये, तब उस सेनामें महान्‌ कोलाहल 
प्रकट हुआ ।। ३८ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि ध्वजवर्णने 
पजञ्चाधिकशततमो<ध्याय: ।। १०५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें ध्वजवर्णनविषयक एक यो 
पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०५ ॥। 


भी्नआ+ज () अमन 


षर्डाधिकभशततमोब< ध्याय: 


द्रोण और उनकी सेनाके साथ पाण्डव-सेनाका स द्ध 
तथा द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करते समय रथ-भंग 
जानेपर युधिष्ठिरका पलायन 


ध्ृतराष्ट्र उवाच 

अर्जुने सैन्धवं प्राप्ते भारद्वाजेन संवृता: । 

पंचाला: कुरुभि: सार्थ किमकुर्वत संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जब अर्जुन सिन्धुराज जयद्रथके समीप पहुँच गये, तब 
द्रोणाचार्यद्वारा रोके हुए पाड्चाल-सैनिकोंने कौरवोंके साथ क्या किया? ।। १ ।। 

संजय उवाच 

अपराह्न महाराज संग्रामे लोमहर्षणे । 

पज्चालानां कुरूणां च द्रोणद्यूतमवर्तत ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! उस दिन अपराह्न-कालमें, जब रोमांचकारी युद्ध चल रहा 
था, पांचालों और कौरवोंमें द्रोणाचार्यको दाँवपर रखकर द्यूत-सा होने लगा || २ ।। 

पज्चाला हि जिधघांसन्तो द्रोणं संहृष्टचेतस: । 

अभ्यमुजञ्चन्त गर्जन्त: शरवर्षाणि मारिष ।। ३ ।। 

माननीय नरेश! पांचाल-सैनिक द्रोणको मार डालनेकी इच्छासे प्रसन्नचित्त होकर 
गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे ।। ३ ।। 

ततस्तु तुमुलस्तेषां संग्रामो<वर्तताद्भुत: । 

पज्चालानां कुरूणां च घोरो देवासुरोपम: ।। ४ ।। 

तदनन्तर उन पांचालों और कौरवोंमें घोर देवासुर-संग्रामके समान अद्भुत एवं भयंकर 
युद्ध होने लगा | ४ ।। 

सर्वे द्रोणरथं प्राप्प पज्चाला: पाण्डवै: सह । 

तदनीकं बिभित्सन्तो महास्त्राणि व्यदर्शयन्‌ ।। ५ ।। 

समस्त पांचाल पाण्डवोंके साथ द्रोणाचार्यके रथके समीप जाकर उनकी सेनाके 
व्यूहका भेदन करनेकी इच्छासे बड़े-बड़े अस्त्रोंका प्रदर्शन करने लगे || ५ ।। 

द्रोणस्य रथपर्यन्तं रथिनो रथमास्थिता: । 

कम्पयन्तो<भ्यवर्तन्त वेगमास्थाय मध्यमम्‌ ।। ६ ।। 

वे पांचाल रथी रथपर बैठकर मध्यम वेगका आश्रय ले पृथ्वीको कँपाते हुए 
टद्रोणाचार्यके रथके अत्यन्त निकट जाकर उनका सामना करने लगे ॥। ६ ।। 


तमभ्ययादू बृहत्क्षत्र: केकयानां महारथ: । 

प्रवपन्‌ निशितान्‌ बाणान्‌ महेन्द्राशनिसंनिभान्‌ ।। ७ ।। 

केकयदेशके महारथी वीर बृहत्क्षत्रने महेन्द्रके वज़्के समान तीखे बाणोंकी वर्षा करते 
हुए वहाँ द्रोणाचार्यपर धावा किया ।। ७ ।। 

तंतु प्रत्युद्ययौ शीघ्र क्षेमधूर्तिमहायशा: । 

विमुज्चन्‌ निशितान्‌ बाणान्‌ शतशो5थ सहस्रश: ।। ८ ।। 

उस समय महायशस्वी क्षेमधूर्ति सैकड़ों और हजारों तीखे बाण छोड़ते हुए 
शीघ्रतापूर्वक बृहत्क्षत्रका सामना करनेके लिये गये ।। ८ ।। 

धेष्टकेतुश्न चेदीनामृषभोडतिबलोदित: । 

त्वरितो< भ्यद्रवद्‌ द्रोणं महेन्द्र इव शम्बरम्‌ ।। ९ ।। 

अत्यन्त बलसे विख्यात चेदिराज धृष्टकेतुने भी बड़ी उतावलीके साथ द्रोणाचार्यपर 
धावा किया, मानो देवराज इन्द्रने शम्बरासुरपर चढ़ाई की हो ।। ९ ।। 

तमापतन्तं सहसा व्यादितास्यमिवान्तकम्‌ | 

वीरधन्वा महेष्वासस्त्वरमाण: समभ्ययात्‌ ।। १० ।। 

मुँह बाये हुए कालके समान सहसा आक्रमण करनेवाले धृष्टकेतुका सामना करनेके 
लिये महाधनुर्धर वीरधन्वा बड़े वेगसे आ पहुँचे || १० ।। 

युधिष्ठटिरं महाराजं जिगीषुं समवस्थितम्‌ । 

सहानीकं ततो दोणो न्‍्यवारयत वीर्यवान्‌ ॥। ११ ।। 

तदनन्तर पराक्रमी द्रोणाचार्यने विजयकी इच्छासे सेनासहित खड़े हुए महाराज 
युधिष्ठिरको आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। ११ ।। 

नकुलं कुशल युद्धे पराक्रान्तं पराक्रमी । 

अभ्यगच्छत्‌ समायान्तं विकर्णस्ते सुत: प्रभो ।। १२ ।। 

प्रभो! आपके पराक्रमी पुत्र विकर्णने वहाँ आते हुए पराक्रमशाली युद्धकुशल नकुलका 
सामना किया ।। 

सहदेवं तथा<<यान्तं दुर्मुख: शत्रुकर्षण: । 

शरैरनेकसाहस्रै: समवाकिरदाशुगै: ।। १३ ।। 

शत्रुसूदन दुर्मुखने अपने सामने आते हुए सहदेवपर कई हजार बाणोंकी वर्षा 
की ।। १३ ।। 

सात्यकिं तु नरव्याघ्रं व्याप्रदत्तस्त्ववारयत्‌ | 

शरै: सुनिशितैस्तीकषणै: कम्पयन्‌ वै मुहुर्मुहु: ।। १४ ।। 

व्याप्रदत्तने अत्यन्त तेज किये हुए तीखे बाणोंद्वारा बारंबार शत्रुसेनाको कम्पित करते 
हुए वहाँ पुरुषसिंह सात्यकिको आगे बढ़नेसे रोका || १४ ।। 

द्रौपदेयान्‌ नरव्याप्रान्‌ मुडचत: सायकोत्तमान्‌ | 


संरब्धान्‌ रथिन: श्रेष्ठान्‌ सौमदत्तिरवारयत्‌ ।। १५ ।। 

मनुष्योंमें व्याप्रके समान पराक्रमी तथा श्रेष्ठ रथी द्रौपदीके पाँचों पुत्र कुपित होकर 
शत्रुओंपर उत्तम बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। सोमदत्तकुमार शलने उन सबको रोक 
दिया ।। १५ ।। 

भीमसेनं तदा क्रुद्धं भीमरूपो भयानक: । 

प्रत्यवारयदायान्तमार्ष्यशृड्धिर्महारथ: ।। १६ ।। 

भयंकर रूपधारी एवं भयानक महारथी ऋष्यशुंग-कुमार अलम्बुषने उस समय क्रोधमें 
भरकर आते हुए भीमसेनको रोका ।। १६ || 

तयो: समभवद्‌ युद्ध नरराक्षसयोर्मथे । 

यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयोरनप ।। १७ ।। 

राजन! पूर्वकालमें जिस प्रकार श्रीराम और रावणका संग्राम हुआ था, उसी प्रकार उस 
रणक्षेत्रमें मानव भीमसेन तथा राक्षस अलम्बुषका युद्ध हुआ ।। १७ ।। 

ततो युधिष्छिरो द्रोणं नवत्या नतपर्वणाम्‌ | 

आजप्ने भरतगश्रेष्ठ: सर्वमर्मसु भारत ।। १८ ।। 

भरतनन्दन! तदनन्तर भरतभूषण युधिष्ठिरने झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंसे 
द्रोणाचार्यके सम्पूर्ण मर्मस्थानोंमें आधात किया ।। १८ ।। 

त॑ द्रोणग: पञचविंशत्या निजघान स्तनान्तरे । 

रोषितो भरतश्रेष्ठ कौन्तेयेन यशस्विना ।। १९ ।। 

भरतश्रेष्ठ! यशस्वी कुन्तीकुमारके क्रोध दिलानेपर द्रोणाचार्यने उनकी छातीमें पचीस 
बाण मारे ।। १९ || 

भूय एव तु विंशत्या सायकानां समाचिनोत्‌ | 

साश्व॒सूतध्वजं द्रोण: पश्यतां सर्वधन्विनाम्‌ ।। २० ।। 

फिर द्रोणने सम्पूर्ण धनुर्धरोंके देखते-देखते घोड़े, सारथि और ध्वजसहित युधिष्ठिरको 
बीस बाण मारे ।। २० ।। 

तान्‌ शरान्‌ द्रोणमुक्तांस्तु शरवर्षेण पाण्डव: । 

अवारयत धर्मात्मा दर्शयन्‌ पाणिलाघवम्‌ ।। २१ ।। 

धर्मात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने अपने हाथोंकी फुर्ती दिखाते हुए द्रोणाचार्यके छोड़े हुए 
उन बाणोंको अपनी बाण-वर्षाद्वारा रोक दिया ।। २१ ।। 

ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य संयुगे । 

चिच्छेद समरे धन्वी धनुस्तस्य महात्मन: ।। २२ ।। 

तब धनुर्धर द्रोणाचार्य उस युद्धस्थलमें महात्मा धर्मराज युधिष्ठिरपर अत्यन्त कुपित हो 
उठे। उन्होंने समरांगणमें युधिष्ठिरके धनुषको काट दिया || २२ ।। 

अथीनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथ: । 


शरैरनेकसाहसी: पूरयामास सर्वतः ।। २३ ।। 

धनुष काट देनेके पश्चात्‌ महारथी द्रोणाचार्यने बड़ी उतावलीके साथ कई हजार 
बाणोंकी वर्षा करके उन्हें सब ओरसे ढक दिया ।। २३ ।। 

अदृश्यं वीक्ष्य राजानं भारद्वाजस्य सायकै: । 

सर्वभूतान्यमन्यन्त हतमेव युधिषछ्िरम्‌ ।। २४ ।। 

राजा युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके बाणोंसे अदृश्य हुआ देख समस्त प्राणियोंने उन्हें मारा 
गया ही मान लिया ।। २४ ।। 

केचिच्चैनममन्यन्त तथैव विमुखीकृतम्‌ । 

हतो राजेति राजेन्द्र ब्राह्मणेन महात्मना || २५ ।। 

राजेन्द्र! कुछ लोग ऐसा समझते थे कि युधिष्ठिर पराजित होकर भाग गये। कुछ 
लोगोंकी यही धारणा थी कि महामनस्वी ब्राह्मण द्रोणाचार्यके हाथसे राजा युधिष्ठिर मार 
डाले गये ।। २५ ।। 

स कृच्छूं परम॑ प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

त्यक्त्वा तत्‌ कार्मुकं छिन्न॑ भारद्वाजेन संयुगे || २६ ।। 

आददे<न्यद्‌ धर्नुर्दिव्यं भास्वरं वेगवत्तरम्‌ 

इस प्रकार भारी संकटमें पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिरने युद्धमें द्रोणाचार्यके द्वारा काट 
दिये गये उस धनुषको त्यागकर दूसरा प्रकाशमान एवं अत्यन्त वेगशाली दिव्य धनुष धारण 
किया ।| २६६ ।। 

ततस्तान्‌ सायकांस्तत्र द्रोणनुन्नानू सहस्रश: ।। २७ ।। 

चिच्छेद समरे वीरस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ । 

तदनन्तर वीर युधिष्ठिरने समरांगणमें द्रोणाचार्यके चलाये हुए सहस्रों बाणोंके टुकड़े- 
टुकड़े कर डाले। वह अद्भुत-सी बात हुई ।। २७६ ।। 

छित्त्वा तु तान्‌ शरान्‌ राजन्‌ क्रोधसंरक्तलोचन: ।। २८ ।। 

शक्ति जग्राह समरे गिरीणामपि दारिणीम्‌ । 

स्वर्णदण्डां महाघोरामष्टघण्टां भयावहाम्‌ ।। २९ ।। 

राजन्‌! उस समरांगणमें क्रोधसे लाल आँखें किये युधिष्ठिरने द्रोणके उन बाणोंको 
काटकर एक शक्ति हाथमें ली, जो पर्वतोंको भी विदीर्ण कर देनेवाली थी। उसमें सोनेका 
डंडा और आठ घंटियाँ लगी थीं। वह अत्यन्त घोर शक्ति मनमें भय उत्पन्न करनेवाली थी ।। 

समुत्क्षिप्प च तां हृष्टो ननाद बलवद्‌ बली । 

नादेन सर्वभूतानि त्रासयन्निव भारत ।॥। ३० ।। 

भारत! उसे चलाकर हर्षमें भरे हुए बलवान युधिष्ठिरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया। 
उन्होंने उस सिंहनादसे सम्पूर्ण भूतोंमें भय-सा उत्पन्न कर दिया ।। 

शक्ति समुद्यतां दृष्टवा धर्मराजेन संयुगे । 


स्वस्ति द्रोणाय सहसा सर्वभूतान्यथाब्रुवन्‌ ।। ३१ ।। 

युद्धस्थलमें धर्मराजके द्वारा उठायी हुई उस शक्तिको देखकर समस्त प्राणी सहसा 
बोल उठे--'द्रोणाय स्वस्ति (ट्रोणाचार्यका कल्याण हो)” ।। ३१ ।। 

सा राजभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा । 

प्रज्वालयन्ती गगनं दिश: सप्रदिशस्तथा ।। ३२ |। 

द्रोणान्तिकमनुप्राप्ता दीप्तास्या पन्नगी यथा । 

केंचुलसे छूटे हुए सर्पके समान राजाकी भुजाओंसे मुक्त हुई वह शक्ति आकाश, 
दिशाओं तथा विदिशाओं (कोणों)-को प्रकाशित करती हुई जलते मुखवाली नागिनके 
समान द्रोणाचार्यके निकट जा पहुँची || ३२६ ।। 

तामापतन्तीं सहसा दृष्टवा द्रोणो विशाम्पते || ३३ ।। 

प्रादुश्चक्रे ततो ब्राह्ममस्त्रमस्त्रविदां वर: | 

प्रजानाथ! तब सहसा आती हुई उस शक्तिको देखकर अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणने 
ब्रह्मास्त्र प्रकट किया ।। ३३ ह ।। 

तदस्त्रं भस्मसात्कृत्वा तां शक्ति घोरदर्शनाम्‌ ।। ३४ ।। 

जगाम स्यन्दनं तूर्ण पाण्डवस्य यशस्विन: । 

वह अस्त्र भयंकर दीखनेवाली उस शक्तिको भस्म करके तुरंत ही यशस्वी युधिष्ठिरके 
रथकी ओर चला || ३४३ || 

ततो युधिष्छिरो राजा द्रोणास्त्रं तत्‌ समुद्यतम्‌ ।। ३५ ।। 

अशामयन्महाप्रज्ञो ब्रह्मास्त्रेणेव मारिष | 

माननीय नरेश! तब महाप्राज्ञ राजा युधिष्ठिरने द्रोणद्वारा चलाये गये उस ब्रह्मास्त्रको 
ब्रह्मास्त्रद्वारा ही शान्‍्त कर दिया ।। ३५३ ।। 

विद्ध्वा तं च रणे द्रोणं पठ्चभिनतपर्वभि: ।। ३६ ।। 

क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन चिच्छेदास्प महद्‌ धनु: । 

इसके बाद झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यको घायल करके 
तीखे क्षुरप्रसे उनके विशाल धनुषको काट दिया ।। ३६३ ।। 

तदपास्य धनुश्किन्नं द्रोण: क्षत्रियमर्दन: ।। ३७ ।। 

गदां चिक्षेप सहसा धर्मपुत्राय मारिष | 

आर्य! क्षत्रियमर्दन द्रोणने उस कटे हुए धनुषको फेंककर सहसा धर्मपुत्र युधिष्ठिरपर 
गदा चलायी ।। 

तामापतन्तीं सहसा गदां दृष्टवा युधिष्ठिर: ।। ३८ ।। 

गदामेवाग्रहीत्‌ क्रुद्धश्चिक्षेप च परंतप । 


शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! उस गदाको सहसा अपने ऊपर आती देख क्रोधमें 
भरे हुए युधिष्ठिरने भी गदा ही उठा ली और द्रोणाचार्यपर चला दी || ३८ ३ ।। 

ते गदे सहसा मुक्ते समासाद्य परस्परम्‌ ।। ३९ |। 

संघर्षात्‌ पावकं मुक्त्वा समेयातां महीतले । 

एकबारगी छोड़ी हुई वे दोनों गदाएँ एक-दूसरीसे टकराकर संघर्षसे आगकी 
चिनगारियाँ छोड़ती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ीं || ३९३ ।। 








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ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य मारिष || ४० ।। 
चतुर्भिनिशितैस्ती&णै्हयान्‌ जघ्ने शरोत्तमै: । 
माननीय नरेश! तब द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने सानपर चढ़ाकर 
तेज किये हुए चार तीखे एवं उत्तम बाणोंद्वारा धर्मराजके चारों घोड़ोंको मार डाला ।। ४० ई 
|| 
चिच्छेदेकेन भल्लेन धनुश्रैन्द्रध्ध्जोपमम्‌ ।। ४१ ।। 
केतुमेकेन चिच्छेद पाण्डवं चार्दयत्‌ त्रिभि: । 


फिर एक भल्ल चलाकर उनका धनुष काट दिया। एक भल्‍्लसे इन्द्रध्वजके समान 
उनकी ध्वजा खण्डित कर दी और तीन बाणोंसे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको भी पीड़ा 
पहुँचायी || ४१६ ।। 

हताश्चात्‌ तु रथात्‌ तूर्णमवप्लुत्य युधिषछ्िर: ॥। ४२ ।। 

तस्थावूर्ध्वभुजो राजा व्यायुधो भरतर्षभ । 

भरतश्रेष्ठ! जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथसे तुरंत ही कूदकर राजा युधिष्छिर बिना 
आयुधके हाथ ऊपर उठाये धरतीपर खड़े हो गये || ४२६ ।। 

विरथं तं समालोक्य व्यायुधं च विशेषत: ।। ४३ ।। 

द्रोणो व्यमोहयच्छत्रून्‌ सर्वसैन्यानि वा विभो । 

प्रभो! उन्हें रथ और विशेषतः आयुधसे रहित देख द्रोणाचार्यने शत्रुओं तथा उनकी 
सम्पूर्ण सेनाओंको मोहित कर दिया || ४३ ३ ।। 

मुज्चंश्लेषुगणांस्तीक्ष्णाल्लँंघुहस्तो दृढव्रत: ।॥ ४४ ।। 

अभिदुद्राव राजानं सिंहो मृगमिवोल्बण: । 

दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले द्रोणके हाथ बड़ी फुर्तीसे चलते थे। जैसे प्रचण्ड 
सिंह किसी मृगका पीछा करता हो, उसी प्रकार वे तीखे बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए राजा 
युधिष्ठिरकी ओर दौड़े | ४४३ ।। 

तमभिद्रुतमालोक्य द्रोणेनामित्रघातिना ।। ४५ ।। 

हाहेति सहसा शब्द: पाण्डूनां समजायत । 

शत्रुनाशक द्रोणाचार्यके द्वारा युधिष्ठिरका पीछा होता देख पाण्डवदलमें सहसा 
हाहाकार मच गया ।। ४५६ ।। 

हतो राजा हतो राजा भारद्वाजेन मारिष ।। ४६ ।। 

इत्यासीत्‌ सुमहाउ्छब्द: पाण्डुसैन्यस्य भारत । 

भारत! माननीय नरेश! पाण्डुसेनामें यह महान्‌ कोलाहल होने लगा कि *राजा मारे 
गये, राजा मारे गये' ।। 

ततस्त्वरितमारुह्म सहदेवरथं नृप: । 

अपायाज्जवनैरश्वैः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: ।। ४७ ।। 

तदनन्तर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर तुरंत ही सहदेवके रथपर आरूढ़ हो अपने वेगशाली 
घोड़ोंद्वारा वहाँसे हट गये ।। ४७ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरापयाने 
षडधिकशततमो<ध्याय: ।। १०६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्चटिरका पलायनविषयक 
एक सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०६ ॥/ 


भीकम (2 अमान 


सप्ताधिकशततमो< ध्याय: 


कौरव-सेनाके क्षेमधूर्ति, वीरधन्वा, निरमित्र तथा 
व्याप्रदत्तका वध और दुर्मुख एवं विकर्णकी पराजय 


संजय उवाच 

बृहत्क्षत्रमथायान्तं कैकेयं दृढविक्रमम्‌ । 

क्षेमधूर्तिरमहाराज विव्याधोरसि मार्गणै: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर सुदृढ़ पराक्रमी केकयराज बृहत्क्षत्रकों आते 
देख क्षेमधूर्तिने अनेक बाणोंद्वारा उनकी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी ।। 

बृहत्क्षत्रस्तु तं राजा नवत्या नतपर्वणाम्‌ | 

आजजलमेने त्वरितो राजन्‌ द्रोणानीकबिभित्सया || २ ।। 

राजन! तब राजा बृहत्क्षत्रने भी झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंद्वारा तुरंत ही 
द्रोणाचार्यके सैन्यव्यूहका विघटन करनेकी इच्छासे क्षेमधूर्तिको घायल कर दिया ।। २ ।। 

क्षेमधूर्तिस्तु संक्रुद्ध: कैकेयस्य महात्मन: । 

धनुश्चिच्छेद भल्‍लेन पीतेन निशितेन ह ।। ३ ।। 

इससे क्षेमधूर्ति अत्यन्त कुपित हो उठा और उसने पानीदार तीखे भल्लसे महामनस्वी 
केकयराजका धनुष काट डाला | ३ || 

अथीैनं छिन्नधन्वानं शरेणानतपर्वणा । 

विव्याध समरे तूर्ण प्रवरं सर्वधन्विनाम्‌ ।। ४ ।। 

धनुष कट जानेपर समस्त धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ बृहत्क्षत्रकों समरांगणमें झुकी हुई गाँठवाले 
बाणसे उसने तुरंत ही बींध डाला ।। ४ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय बृहत्क्षत्रो हसन्निव । 

व्यश्वसूतरथं चक्रे क्षेमधूर्ति महारथम्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर बृहत्क्षत्रने दूसरा धनुष हाथमें लेकर हँसते-हँसते महारथी क्षेमधूर्तिको घोड़ों, 
सारथि और रथसे हीन कर दिया ।। ५ |। 

ततो5परेण भल्लेन पीतेन निशितेन च । 

जहार नृपते: कायाच्छिरो ज्वलितकुण्डलम्‌ ।। ६ ।। 

इसके बाद दूसरे पानीदार तीखे भल्लसे राजा क्षेमधूर्तिके प्रज्वलित कुण्डलोंवाले 
मस्तकको धड़से अलग कर दिया ॥। ६ ।। 

तच्छिन्नं सहसा तस्य शिर: कुज्चितमूर्थजम्‌ । 

सकिरीटं महीं प्राप्प बभौ ज्योतिरिवाम्बरात्‌ || ७ ।। 


सहसा कटा हुआ घुँघराले बालोंवाला क्षेमधूर्तिका वह मस्तक मुकुटसहित पृथ्वीपर 
गिरकर आकाशसे टूटे हुए तारेके समान प्रतीत हुआ ।। ७ ।। 

त॑ निहत्य रणे हृष्टो बृहत्क्षत्रो महारथः । 

सहसाभ्यपतत सैन्यं तावकं पार्थकारणात्‌ ।। ८ ।। 

रणक्षेत्रमें क्षेमधूर्तिका वध करके प्रसन्न हुए महारथी बृहत्क्षत्र यूधिष्ठिरके हितके लिये 
सहसा आपकी सेनापर टूट पड़े ।। ८ ।। 

धृष्टकेतुं तथा5<यान्तं द्रोणहेतो: पराक्रमी । 

वीरधन्वा महेष्वासो वारयामास भारत ।। ९ |। 

भारत! इसी प्रकार द्रोणाचार्यके हितके लिये महाधनुर्धर पराक्रमी वीरधन्वाने वहाँ आते 
हुए धृष्टकेतुको रोका || ९ ।। 

तौ परस्परमासाद्य शरदंष्टी तरस्विनौ । 

शरैरनेकसाहसैरन्योन्यमभिजघध्नतु: ।। १० ।। 

वे दोनों वेगशाली वीर बाणरूपी दाढ़ोंसे युक्त हो परस्पर भिड़कर अनेक सहस्र 
बाणोंद्वारा एक-दूसरेको चोट पहुँचाने लगे || १० ।। 

तावुभौ नरशार्दूलौ युयुधाते परस्परम्‌ । 

महावने तीव्रमदौ वारणाविव यूथपौ ।। ११ ।। 

महान्‌ वनमें तीव्र मदवाले दो यूथपति गजराजोंके समान वे दोनों पुरुषसिंह परस्पर 
युद्ध करने लगे || ११ ।। 

गिरिगह्वरमासाद्य शार्दूलाविव रोषितौ | 

युयुधाते महावीर्यों परस्परजिघांसया ।। १२ ।। 

दोनों ही महान्‌ पराक्रमी थे और एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छासे रोषमें भरकर 
पर्वतकी गुफामें पहुँचकर लड़नेवाले दो सिंहोंके समान आपसमें जूझ रहे थे || १२ ।। 

तद्‌ युद्धमासीत  तुमुल प्रेक्षणीयं विशाम्पते । 

सिद्धचारणसंघानां विस्मयाद्धुतदर्शनम्‌ ।। १३ ।। 

प्रजानाथ! उनका वह घमासान युद्ध देखने ही योग्य था। वह सिद्धों और 
चारणसमूहोंको भी आश्चर्यजनक एवं अद्भुत दिखायी देता था ।। १३ ॥। 

वीरधन्वा ततः क्रुद्धो धृष्टकेतो: शरासनम्‌ | 

द्विधा चिच्छेद भल्लेन प्रहसन्निव भारत ।। १४ ।। 

भरतनन्दन! तत्पश्चात्‌ वीरधन्वाने कुपित होकर हँसते हुए-से ही एक भल्लद्वारा 
धृष्टकेतुके धनुषके दो टुकड़े कर दिये ।। १४ ।। 

तदुत्सज्य धनुश्छिन्नं चेदिराजो महारथ: । 

शक्ति जग्राह विपुलां हेमदण्डामयस्मयीम्‌ ।। १५ ।। 


महारथी चेदिराज धृष्टकेतुने उस कटे हुए धनुषको फेंककर एक लोहेकी बनी हुई 
स्वर्णदण्डविभूषित विशाल शक्ति हाथमें ले ली ।। १५ ।। 

तां तु शक्ति महावीर्या दोर्भ्यामायम्य भारत । 

चिक्षेप सहसा यत्तो वीरधन्वरथं प्रति । १६ ।। 

भारत! उस अत्यन्त प्रबल शक्तिको दोनों हाथोंसे उठाकर यत्नशील धृष्टकेतुने सहसा 
वीरधन्वाके रथपर उसे दे मारा || १६ ।। 

तया तु वीरघातिन्या शक्‍त्या त्वभिहतो भूशम्‌ । 

निर्भिन्नहदयस्तूर्ण निषपपात रथान्महीम्‌ ।। १७ ।। 

उस वीरघातिनी शक्तिकी गहरी चोट खाकर वीरधन्वाका वक्ष:स्थल विदीर्ण हो गया 
और वह तुरंत ही रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा || १७ ।। 

तस्मिन्‌ विनिहते वीरे त्रैगर्तानां महारथे । 

बल॑ ते5भज्यत विभो पाण्डवेयै: समन्ततः ।। १८ ।। 

प्रभो! त्रिगर्तदेशके उस महारथी वीरके मारे जानेपर पाण्डव-सैनिकोंने चारों ओरसे 
आपकी सेनाको विघटित कर दिया ।। १८ ।। 

सहदेवे तत: षष्टिं सायकान्‌ दुर्मुखोक्षिपत्‌ । 

ननाद च महानादं तर्जयन्‌ पाण्डवं रणे ॥। १९ |। 

तदनन्तर दुर्मुखने रणक्षेत्रमें सहदेवपर साठ बाण चलाये और उन पाण्डुकुमारको डाँट 
बताते हुए बड़े जोरसे गर्जना की ।। १९ ।। 

माद्रेयस्तु ततः क्रुद्धो दुर्मुखं च शितैः शरै: । 

भ्राता भ्रातरमायान्तं विव्याध प्रहसन्निव ।। २० ।। 

यह देख माद्रीकुमार कुपित हो उठे। वे दुर्मुखके भाई लगते थे। उन्होंने अपने पास आते 
हुए भ्राता दुर्मुखको हँसते हुए-से तीखे बाणोंद्वारा बींध डाला ।। २० ।। 

त॑ रणे रभसं दृष्टवा सहदेवं महाबलम्‌ | 

दुर्मुखो नवभिर्बाणैस्ताडयामास भारत ॥। २१ ।। 

भारत! रणक्षेत्रमें महाबली सहदेवका वेग बढ़ता देख दुर्मुखने नौ बाणोंद्वारा उन्हें 
घायल कर दिया ।। २१ ।। 

दुर्मुबस्य तु भल्लेन छित्त्वा केतुं महाबल: । 

जघान चतुरो वाहांश्षतुर्भिनिशितै: शरै: ।। २२ ।। 

तब महाबली सहदेवने एक भल्लसे दुर्मुखकी ध्वजा काटकर चार तीखे बाणोंद्वारा 
उसके चारों घोड़ोंको मार डाला || २२ || 

अथापरेण भल्लेन पीतेन निशितेन ह । 

चिच्छेद सारथे: कायाच्छिरो ज्वलितकुण्डलम्‌ ।। २३ ।। 


फिर दूसरे पानीदार एवं तीखे भल्लसे उसके सारथिके चमकीले कुण्डलवाले 
मस्तकको धड़से काट गिराया ।। 

क्षुरप्रेण च तीक्ष्णेन कौरव्यस्य महद्‌ धनु: । 

सहदेवो रणे छित्त्वा तं च विव्याध पञ्चभि: ।। २४ ।। 

तत्पश्चात्‌ सहदेवने तीखे क्षुरप्रसे समरांगणमें दुर्मुखके विशाल धनुषको काटकर उसे 
भी पाँच बाणोंसे घायल कर दिया ।। २४ ।। 

हताश्चृं तु रथं त्यक्त्वा दुर्मुखो विमनास्तदा । 

आरुरोह रथं राजन्‌ निरमित्रस्थ भारत ।। २५ ।। 

राजन्‌! भरतनन्दन! तब दुर्मुख दुःखी मनसे उस अश्वहीन रथको त्यागकर निरमित्रके 
रथपर जा चढ़ा ।। 

सहदेवस्ततः क्रुद्धो निरमित्रं महाहवे । 

जघान पृतनामध्ये भललेन परवीरहा ।। २६ ।। 

इससे शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले सहदेव कुपित हो उठे और उन्होंने उस महासमरमें 
सेनाके बीचोबीच एक भल्लसे निरमित्रको मार डाला || २६ || 

स पपात रथोपस्थान्निरमित्रो जनेश्वर: । 

त्रिगर्तराजस्य सुतो व्यथयंस्तव वाहिनीम्‌ ।। २७ ।। 

त्रिगर्तराजका पुत्र राजा निरमित्र अपने वियोगसे आपकी सेनाको व्यथित करता हुआ 
रथकी बैठकसे नीचे गिर पड़ा ।। २७ ।। 

त॑ तु हत्वा महाबाहुः सहदेवो व्यरोचत । 

यथा दाशरथी राम: खरं हत्वा महाबलम्‌ ।। २८ ।। 

जैसे पूर्वकालमें दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीराम महाबली खरका वध करके सुशोभित 
हुए थे, उसी प्रकार महाबाहु सहदेव निरमित्रको मारकर शोभा पा रहे थे ।। २८ ।। 

हाहाकारो महानासीत्‌ त्रिगर्तानां जनेश्वर । 

राजपुत्रं हतं दृष्टवा निरमित्र॑ं महारथम्‌ ।। २९ |।। 

नरेश्वर! महारथी राजकुमार निरमित्रको मारा गया देख त्रिगर्तोंके दलमें महान्‌ हाहाकार 
मच गया ।। २९ |। 

नकुलस्ते सुतं राजन्‌ विकर्ण पृथुलोचनम्‌ । 

मुहूर्ताज्जितवॉल्लोके तदद्भुतमिवा भवत्‌ ।। ३० ।। 

राजन! नकुलने विशाल नेत्रोंवाले आपके पुत्र विकर्णको दो ही घड़ीमें पराजित कर 
दिया; यह अद्भुत-सी बात हुई ।। ३० ।। 

सात्यकिं व्याप्रदत्तस्तु शरै: संनतपर्वभि: । 

चक्रे<दृश्यं साश्वसूतं सध्वजं पृतनान्तरे ।। ३१ ।। 


व्याप्रदत्तने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा सेनाके मध्यभागमें घोड़ों, सारथि और 
ध्वजसहित सात्यकिको अदृश्य कर दिया ।। ३१ ।। 

तान्‌ निवार्य शरान्‌ शूर: शैनेय: कृतहस्तवत्‌ | 

साश्व॒सूतध्वजं बाणैरव्याच्रिदत्तमपातयत्‌ ।। ३२ ।। 

तब शूरवीर शिनिनन्दन सात्यकिने सिद्धहस्त पुरुषकी भाँति उन बाणोंका निवारण 
करके अपने बाणोंद्वारा घोड़ों, सारथि और ध्वजसहित व्याप्रदत्तको मार गिराया ।। ३२ ।। 

कुमारे निहते तस्मिन्‌ मागधस्य सुते प्रभो । 

मागधा: सर्वतो यत्ता युयुधानमुपाद्रवन्‌ ।। ३३ ।। 

प्रभो! मगधनरेशके पुत्र राजकुमार व्याप्रदत्तके मारे जानेपर मगधदेशीय वीरोंने सब 
ओरसे प्रयत्नशील होकर युयुधानपर धावा किया ।। ३३ ।। 

विसृजन्त:ः शरांश्वैव तोमरांश्न सहस्रश: । 

भिन्दिपालांस्तथा प्रासान्‌ मुदूगरान्‌ मुसलानपि ।। ३४ ।। 

अयोधयमन्‌ रणे शूरा: सात्वतं युद्धदुर्मदम्‌ । 

वे शूरवीर मागध-सैनिक बहुत-से बाणों, सहस्रों तोमरों, भिन्दिपालों, प्रासों, मुदगरों 
और मूसलोंका प्रहार करते हुए समरांगणमें रणदुर्जय सात्यकिके साथ युद्ध करने 
लगे || ३४६ || 

तांस्तु सर्वानू स बलवान्‌ सात्यकिर्युद्धदुर्मद: ।। ३५ ।। 

नातिकृच्छाद्धसन्नेव विजिग्ये पुरुषर्षभ: । 

बलवान युद्धदुर्मद पुरुषप्रवर सात्यकिने हँसते हुए ही उन सबको अधिक कष्ट उठाये 
बिना ही परास्त कर दिया ।। ३५६ ।। 

मागधान्‌ द्रवतो दृष्टवा हतशेषान्‌ समन्ततः ।। ३६ ।। 

बल॑ ते5भज्यत विभो युयुधानशरार्दितम्‌ । 

प्रभो! मरनेसे बचे हुए मागध-सैनिकोंको चारों ओर भागते देख सात्यकिके बाणोंसे 
पीड़ित हुई आपकी सेनाका व्यूह भंग हो गया ।। ३६३ ।। 

नाशयित्वा रणे सैन्यं त्वदीयं माधवोत्तम: ।। ३७ ।। 

विधुन्वानो धनु: श्रेष्ठ व्यभश्राजत महायशा: । 

इस प्रकार मधुवंशके श्रेष्ठ वीर महायशस्वी सात्यकि रणक्षेत्रमें आपकी सेनाका विनाश 
करके अपने उत्तम धनुषको हिलाते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे || ३७६ ।। 

भज्यमानं बल॑ राजन्‌ सात्वतेन महात्मना ।। ३८ ।। 

नाभ्यवर्तत युद्धाय त्रासितं दीर्घबाहुना । 

राजन! महामना महाबाहु सात्यकिके द्वारा डरायी गयी और तितत-बितर की हुई 
आपकी सेना फिर युद्धके लिये सामने नहीं आयी ।। ३८ ६ ।। 


ततो द्रोणो भृशं क्रुद्ध: सहसोदवृत्य चक्षुषी । 

सात्यकिं सत्यकर्माणं स्वयमेवाभिदुद्रुवे । ३९ ।। 

तब अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्यने सहसा आँखें घुमाकर सत्यकर्मा सात्यकिपर 
स्वयं ही आक्रमण किया ।। ३९ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संकुलयुद्धे 
सप्ताधिकशततमो<ध्याय: ।। १०७ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संकुलयुद्धाविषयक एक सौ 
सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०७ ॥ 


ऑपनआक्राता बछ। अकाल 


अष्टाधिकशततमोब<् ध्याय: 


द्रौपदीपुत्रोंके द्वारा सोमदत्तकुमार शलका वध तथा 
भीमसेनके द्वारा अलम्बुषकी पराजय 


संजय उवाच 

द्रौपदेयान्‌ महेष्वासान्‌ सौमदत्तिमहायशा: । 

एकैकं पज्चभिर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध सप्तभि: ।॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! महायशस्वी शलने महाधनुर्धर द्रौपदीपुत्रोंमेंसे एक-एकको 
पाँच-पाँच बाणोंसे बीधकर पुनः सात बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। १ ।। 

ते पीडिता भृशं तेन रौद्रेण सहसा विभो । 

प्रमूढा नैव विविदुर्म॒धे कृत्यं सम किंचन ।। २ ।। 

प्रभो! उस भयंकर वीरके द्वारा अत्यन्त पीड़ित होनेके कारण वे सहसा मोहित हो यह 
नहीं जान सके कि इस समय युद्धमें हमारा कर्तव्य क्या है? ।। २ ।॥। 

नाकुलिश्व शतानीकः सौमदत्तिं नरर्षभम्‌ । 

द्वाभ्यां विदृध्वानदद्धृष्ट: शराभ्यां शत्रुकर्शन: ।। ३ ।। 

तब नकुलके पुत्र शत्रुसूदन शतानीकने दो बाणोंद्वारा नरश्रेष्ठ शलको घायल करके बड़े 
हर्षके साथ सिंहनाद किया ।। ३ ।। 

तथेतरे रणे यत्तास्त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगै: । 

विव्यधु: समरे तूर्ण सौमदत्तिममर्षणम्‌ ।। ४ ।। 

इसी प्रकार अन्य द्रौपदीपुत्रोंने भी समरांगणमें प्रयत्तशील होकर अमर्षशील शलको 
तुरंत ही तीन-तीन बाणोंद्वारा बींध डाला ।। ४ ।। 

स तान्‌ प्रति महाराज पञ्च चिक्षेप सायकान्‌ | 

एकैकं हृदि चाजघ्ने एकैकेन महायशा: || ५ ।। 

महाराज! तब महायशस्वी शलने उनपर पाँच बाण चलाये, जिनमेंसे एक-एकके द्वारा 
एक-एककी छाती छेद डाली ।। ५ ।। 

ततस्ते भ्रातर: पञ्च शरैर्विद्धा महात्मना । 

परिवार्य रणे वीर विव्यधु: सायकैर्भुशम्‌ ॥ ६ ।। 

फिर महामना शलके बाणोंसे घायल हुए उन पाँचों भाइयोंने उस वीरको रफक्षेत्रमें चारों 
ओरसे घेरकर अपने बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल कर दिया ।। ६ ।। 

आर्जुनिस्तु हयांस्तस्य चतुर्भिनिशितै: शरै: | 

प्रेषयामास संक़ुद्धो यमस्य सदन प्रति ।। ७ ।। 


अर्जुनकुमार श्रुतकीर्तिने अत्यन्त कुपित हो चार तीखे बाणोंद्वारा शलके चारों घोड़ोंको 
यमलोक भेज दिया ।। ७ ।। 

भैमसेनिर्धनुश्छित्त्वा सौमदत्तेरमहात्मन: । 

ननाद बलवन्नादं विव्याध च शितै: शरै: ।। ८ ।। 

फिर भीमसेनके पुत्र सुतसोमने पैने बाणोंद्वारा महामना सोमदत्तकुमारके धनुषको 
काटकर उन्हें भी बींध डाला और बड़े चोरसे गर्जना की ।। ८ ।। 

यौधिष्ठिरिर्ध्वजं तस्य छित्त्वा भूमावपातयत्‌ । 

नाकुलिश्लाथ यन्तारं रथनीडादपाहरत्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर युधिष्छिरकुमार प्रतिविन्ध्यने शलकी ध्वजा काटकर पृथ्वीपर गिरा दी। फिर 
नकुलपुत्र शतानीकने उनके सारथिको मारकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया || ९ ।। 

साहदेविस्तु त॑ ज्ञात्वा भ्रातृभिविमुखीकृतम्‌ | 

क्षुरपप्रेण शिरो राजन्‌ निचकर्त महात्मन: ॥। १० ।। 

राजन! अन्तमें सहदेवकुमारने यह जानकर कि मेरे भाइयोंने शलको युद्धसे विमुख कर 
दिया है, महामनस्वी शलके मस्तकको क्षुरप्रसे काट डाला ।। १० ।। 

तच्छिरो न्यपतद्‌ भूमौ तपनीयविभूषितम्‌ । 

भ्राजयत्‌ तं रणोद्देशं बालसूर्यसमप्रभम्‌ ।। ११ ।। 

सोमदत्तकुमारका प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशमान सुवर्णभूषित वह मस्तक उस 
रणभूमिको प्रकाशित करता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ११ ।। 

सौमदत्ते: शिरो दृष्टवा निहतं तन्महात्मन: । 

वित्रस्तास्तावका राजन प्रदुद्रुवुरनेकथा ।। १२ ।। 

महाराज! महामना शलके मस्तकको कटा हुआ देख आपके सैनिक अत्यन्त भयभीत 
हो अनेक दलोंमें बँटकर भागने लगे ।। १२ ।। 

अलम्बुषस्तु समरे भीमसेनं महाबलम्‌ । 

योधयामास संक्रुद्धो लक्ष्मणं रावणिर्यथा ।। १३ ।। 

तदनन्तर जैसे पूर्वकालमें रावणकुमार मेघनादने लक्ष्मणके साथ युद्ध किया था, उसी 
प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए राक्षस अलम्बुषने महाबली भीमसेनके साथ संग्राम आरम्भ 
किया ।। १३ ।। 

सम्प्रयुद्धौ रणे दृष्टवा तावुभौ नरराक्षसौ । 

विस्मय: सर्वभूतानां प्रहर्ष. समजायत ।। १४ ।। 

उस रणक्षेत्रमें उन दोनों मनुष्य एवं राक्षसको युद्ध करते देख समस्त प्राणियोंको 
अत्यन्त आश्चर्य और हर्ष हुआ ।। १४ ।। 

आर्ष्यशुद्धिं ततो भीमो नवभिर्निशितै: शरै: । 

विव्याध प्रहसन्‌ राजन्‌ राक्षसेन्द्रममर्षणम्‌ ।। १५ ।। 


राजन्‌! फिर भीमसेनने हँसते हुए नौ पैने बाणों-द्वारा ऋष्यशृंगकुमार अमर्षशील 
राक्षसराज अलम्बुषको घायल कर दिया ।। १५ ।। 

तद्‌ रक्ष: समरे विद्धं कृत्वा नादं भयावहम्‌ | 

अभ्यद्रवत्‌ ततो भीम॑ ये च तस्य पदानुगा: ।। १६ ।। 

तब समरांगणमें घायल हुआ वह राक्षस भयंकर गर्जना करके भीमसेनकी ओर दौड़ा। 
उसके सेवकोंने भी उसीका साथ दिया || १६ ।। 

स भीम॑ पज्चभिर्विद्ध्वा शरैः संनतपर्वभि: । 

भैमान्‌ परिजघानाशु रथांस्त्रिशतमाहवे ।। १७ ।। 

उसने झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा भीमसेनको घायल करके उनके साथ आये 
हुए तीन सौ रथियोंका समरभूमिमें शीघ्र ही संहार कर डाला ।। १७ ।। 

पुनश्चतुःशतान्‌ हत्वा भीम॑ विव्याध पत्रिणा | 

सो5तिविद्धस्तथा भीमो राक्षसेन महाबल: ।। १८ ।। 

निपपात रथोपस्थे मूर्च्छयाभिपरिप्लुत: । 

फिर चार सौ योद्धाओंको मारकर भीमसेनको भी एक बाणसे घायल किया। इस 
प्रकार राक्षसके द्वारा अत्यन्त घायल किये जानेपर महाबली भीमसेन मूर्छित हो रथकी 
बैठकमें गिर पड़े || १८६ ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञां मारुति: क्रोधमूर्च्छित: ।। १९ ।। 

विकृष्य कार्मुकं घोरं भारसाधनमुत्तमम्‌ । 

अलम्बुषं शरैस्ती&णैरदयामास सर्वतः ।। २० || 

तदनन्तर पुन: होशमें आकर क्रोधसे व्याकुल हुए वायुपुत्र भीमने भार वहन करनेमें 
समर्थ, उत्तम तथा भयंकर धनुष तानकर पैने बाणोंद्वारा सब ओरसे अलम्बुषको पीड़ित 
कर दिया ।। १९-२० || 

स विद्धो बहुभिर्बाणैनीलाज्जनचयोपम: । 

शुशुभे सर्वतो राजन्‌ प्रफुल्ल इव किंशुक: ।। २१ ।। 

राजन्‌! काले काजलके ढेरके समान वह राक्षस बहुत-से बाणोंद्वारा सब ओरसे घायल 
होकर लहूलुहान हो खिले हुए पलाशके वृक्षके समान सुशोभित होने लगा ।। 

स वध्यमान: समरे भीमचापच्युतै: शरै: । 

स्मरन्‌ भ्रातृवधं चैव पाण्डवेन महात्मना ।। २२ ।। 

घोरं रूपमथो कृत्वा भीमसेनमभाषत । 

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा समरभूमिमें घायल होकर और महात्मा 
पाण्डुकुमार भीमके द्वारा किये गये अपने भाईके वधका स्मरण करके उस राक्षसने भयंकर 
रूप धारण कर लिया और भीमसेनसे कहा-- || २२६ ।। 

तिष्ठेदानीं रणे पार्थ पश्य मे5द्य पराक्रमम्‌ ।। २३ ।। 


बको नाम सुद्दुर्बुद्धे राक्षसप्रवरो बली । 

परोक्षं मम तद्‌ वृत्तं यद्‌ भ्राता मे हतस्त्वया ।। २४ ।। 

'पार्थ! इस समय तुम रणक्षेत्रमें डटे रहो और आज मेरा पराक्रम देखो। दुर्मते! मेरे 
बलवान भाई राक्षसराज बकको जो तुमने मार डाला था, वह सब कुछ मेरी आँखोंकी 
ओटमें हुआ था (मेरे सामने तुम कुछ नहीं कर सकते थे)” ।। २३-२४ ।। 

एवमुक्‍्त्वा ततो भीममन्तर्धानं गतस्तदा । 

महता शरवर्षेण भूशं तं समवाकिरत्‌ ।। २५ ।। 

भीमसेनसे ऐसा कहकर वह राक्षस उसी समय अन्तर्धान हो गया और फिर उनके 
ऊपर बाणोंकी भारी वर्षा करने लगा ।। २५ ।। 

भीमस्तु समरे राजन्नदृश्ये राक्षसे तदा | 

आकाशं पूरयामास शरै: संनतपर्वभि: ।। २६ ।। 

राजन! उस समय समरांगणमें राक्षसके अदृश्य हो जानेपर भीमसेनने झुकी हुई 
गाँठवाले बाणोंद्वारा वहाँके समूचे आकाशको भर दिया ।। २६ ।। 

स वध्यमानो भीमेन निमेषाद्‌ रथमास्थित: । 

जगाम धरणीं चैव क्षुद्र: खं सहसागमत्‌ ।। २७ ।। 

भीमसेनके बाणोंकी मार खाकर राक्षस अलम्बुष पलक मारते-मारते अपने रथपर आ 
बैठा। वह क्षुद्र निशाचर कभी तो धरतीपर आ जाता और कभी सहसा आकाशमें पहुँच 
जाता था ।। २७ || 

उच्चावचानि रूपाणि चकार सुबहूनि च । 

अर्णुर्बृहत्‌ पुन: स्थूलो नादान्‌ मुज्चन्निवाम्बुद: || २८ ।। 

उसने वहाँ छोटे-बड़े बहुत-से रूप धारण किये। वह मेघके समान गर्जना करता हुआ 
कभी बहुत छोटा हो जाता और कभी महान्‌, कभी सूक्ष्मरूप धारण करता और कभी स्थूल 
बन जाता था ॥। २८ || 

उच्चावचास्तथा वाचो व्याजहार समन्ततः । 

निपेतुर्गगनाच्चैव शरधारा: सहस्रश: ।। २९ |। 

इसी प्रकार वहाँ सब ओर घूम-घूमकर वह भिन्न-भिन्न प्रकारकी बोलियाँ भी बोलता 
था। उस समय भीमसेनपर आकाशसे बाणोंकी सहस्रों धाराएँ गिरने लगीं ।। 

शक्तय: कणपा: प्रासा: शूलपट्टिशतोमरा: । 

शतघ्न्य: परिघाश्नैव भिन्दिपाला: परश्च॒धा: ।। ३० ।। 

शिला: खडगा गुडाश्चैव ऋष्टीर्वजाणि चैव ह । 

सा राक्षसविसृष्टा तु शस्त्रवृष्टि: सुदारुणा || ३१ ।। 

जघान पाण्डुपुत्रस्य सैनिकान्‌ रणमूर्थनि । 


शक्ति, कणप, प्रास, शूल, पट्टिश, तोमर, शतघ्नी, परिघ, भिन्दिपाल, फरसे, शिलाएँ, 
खड्ग, लोहेकी गोलियाँ, ऋष्टि और वज्र आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा होने लगी। राक्षसद्वारा 
की हुई उस भयंकर शण्त्रवर्षने युद्धके मुहानेपर पाण्डुपुत्र भीमके बहुत-से सैनिकोंका 
संहार कर डाला || ३०-३१ ह || 

तेन पाण्डवसैन्यानां सूदिता युधि वारणा: ।। ३२ ।। 

हयाश्न बहवो राजन्‌ पत्तयश्न तथा पुनः । 

रथेभ्यो रथिन: पेतुस्तस्य नुन्ना: सम सायकै: ।। ३३ ।। 

राजन! राक्षस अलम्बुषने युद्धस्थलमें पाण्डव-सेनाके बहुत-से हाथियों, घोड़ों और 
पैदल सैनिकोंका बारंबार संहार किया, उसके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर बहुतेरे रथी रथोंसे 
गिर पड़े ।। ३२-३३ |। 

शोणितोदां रथावर्ता हस्तिग्राहसमाकुलाम्‌ । 

छत्रहंसां कर्दमिनीं बाहुपन्नगसंकुलाम्‌ ।। ३४ ।। 

नदीं प्रावर्तयामास रक्षोगणसमाकुलाम्‌ । 

वहन्तीं बहुधा राजंश्वेदिपडणचालसूञ्जयान्‌ ।। ३५ ।। 

उसने युद्धस्थलमें खूनकी नदी बहा दी, जिसमें रक्त ही पानीके समान बहता था, रथ 
भँवरोंके समान जान पड़ते थे, हाथियोंके शरीर उस नदीमें ग्राहके समान सब ओर छा रहे 
थे, छत्र हंसोंका भ्रम उत्पन्न करते थे, वहाँ कीच जम गयी थी, कटी हुई भुजाएँ सर्पोके 
समान सब ओर व्याप्त हो रही थीं। राजन्‌! बारंबार चेदि, पांचाल और सूंजयोंको बहाती हुई 
वह नदी राक्षसोंसे घिरी हुई थी || ३४-३५ ।। 

त॑ तथा समरे राजन्‌ विचरन्तमभीतवत्‌ | 

पाण्डवा भृशसंविग्ना: प्रापश्यंस्तस्य विक्रमम्‌ ।। ३६ ।। 

महाराज! उस निशाचरको समरांगणमें इस प्रकार निर्भय-सा विचरते देख पाण्डव 
अत्यन्त उद्विग्न हो उसका पराक्रम देखने लगे || ३६ ।। 

तावकानां तु सैन्यानां प्रहर्ष: समजायत । 

वादित्रनिनदक्षोग्र: सुमहान्‌ रोमहर्षण: ।। ३७ ।। 

उस समय आपके सैनिकोंको महान्‌ हर्ष हो रहा था। वहाँ रणवाद्योंका रोमांचकारी एवं 
भयंकर शब्द बड़े जोर-जोरसे होने लगा || ३७ || 

त॑ श्रुत्वा निनदं घोरं तव सैन्यस्यथ पाण्डव: । 

नामृष्यत यथा नागस्तलशब्दं समीरितम्‌ ।। ३८ ।। 

आपकी सेनाका वह घोर हर्षनाद सुनकर पाण्डुकुमार भीमसेन नहीं सहन कर सके। 
ठीक उसी तरह, जैसे हाथी ताल ठोंकनेका शब्द नहीं सह सकता ।। ३८ ।। 

ततः क्रोधाभिताम्राक्षो निर्दहन्रिव पावक: । 

संदधे त्वाष्ट्रमस्त्र॑ं स स्वयं त्वष्टेव मारुति: ।। ३९ ।। 


तब वायुकुमार भीमसेनने जलानेको उद्यत हुए अग्निके समान क्रोधसे लाल आँखें 
करके त्वाष्ट नामक अस्त्रका संधान किया, मानो साक्षात्‌ त्वष्टा ही उसका प्रयोग कर रहे 
हों ।। ३९ |। 

तत: शरसहस््राणि प्रादुरासन्‌ समन्ततः । 

तैः शरैस्तव सैन्यस्य विद्रव: सुमहान भूत्‌ ।। ४० ।। 

उससे चारों ओर सहस्रों बाण प्रकट होने लगे। उन बाणोंद्वारा आपकी सेनाका महान्‌ 
संहार होने लगा || ४० ।। 

तदस्त्र॑ प्रेरितं तेन भीमसेनेन संयुगे । 

राक्षसस्य महामायां हत्वा राक्षसमार्दयत्‌ ।। ४१ ।। 

युद्धस्थलमें भीमसेनके द्वारा चलाये हुए उस अस्त्रने राक्षसकी महामायाको नष्ट करके 
उसे गहरी पीड़ा दी ।। 

स वध्यमानो बहुधा भीमसेनेन राक्षस: । 

संत्यज्य समरे भीम॑ द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ ॥। ४२ ।। 

बारंबार भीमसेनकी मार खाकर राक्षसराज अलम्बुष रणक्षेत्रमें उनका सामना छोड़कर 
द्रोणाचार्यकी सेनामें भाग गया ।। ४२ ।। 

तस्मिंस्तु निर्जिते राजन्‌ राक्षसेन्द्रे महात्मना । 

अनादयन्‌ सिंहनादै: पाण्डवा: सर्वतो दिशम्‌ ।। ४३ ।। 

राजन! महामना भीमसेनके द्वारा राक्षसराज अलम्बुषके पराजित हो जानेपर पाण्डव- 
सैनिकोंने सम्पूर्ण दिशाओंको अपने सिंहनादोंसे निनादित कर दिया ।। ४३ ।। 

अपूजयन्‌ मारुतिं च संहृष्टास्ते महाबलम्‌ । 

प्रह्ादं समरे जित्वा यथा शक्रं मरुद्गणा: ।। ४४ ।। 

उन्होंने अत्यन्त हर्षमें भरकर महाबली भीमसेनकी उसी प्रकार भूरि-भूरि प्रशंसा की, 
जैसे मरुदगणोंने समरांगणमें प्रह्नमादको जीतकर आये हुए देवराज इन्द्रकी स्तुति की 
थी || ४४ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अलम्बुषपराजये 
अष्टाधिकशततमो< ध्याय: ।। १०८ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अलग्बुषकी पराजयविषयक 
एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०८ ॥। 


ऑपन--माज बछ। असि<-छऋाल जा 


नवाधिकशततमो<्ध्याय: 


घटोत्कचद्वारा अलम्बुषका वध और पाण्डव-सेनामें हर्ष- 
ध्वनि 


संजय उवाच 

अलनम्बुषं तथा युद्धे विचरन्तमभीतवत्‌ । 

हैडिम्बि: प्रययौ तूर्ण विव्याध निशितै: शरै: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! युद्धमें इस प्रकार निर्भय-से विचरते हुए अलम्बुषके पास 
हिडिम्बाकुमार घटोत्कच बड़े वेगसे जा पहुँचा और उसे अपने तीखे बाणोंद्वारा बींधने 
लगा ।। १ || 

तयो: प्रतिभयं युद्धमासीद्‌ राक्षससिंहयो: । 

कुर्वतोर्विविधा माया: शक्रशम्बरयोरिव ।। २ ।। 

वे दोनों राक्षसोंमें सिंहके समान पराक्रमी थे और इन्द्र तथा शम्बरासुरके समान नाना 
प्रकारकी मायाओंका प्रयोग करते थे। उन दोनोंमें बड़ा भयंकर युद्ध हुआ ।। २ ।। 

अलनम्बुषो भृशं क्रुद्धो घटोत्कचमताडयत्‌ । 

तयोरयुद्धं समभवद्‌ रक्षोग्रामणिमुख्ययो: ।। ३ ।। 

यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयो: प्रभो । 

अलम्बुषने अत्यन्त कुपित होकर घटोत्कचको घायल कर दिया। वे दोनों राक्षस 
समाजके मुखिया थे। प्रभो! जैसे पूर्वकालमें श्रीराम और रावणका संग्राम हुआ था, उसी 
प्रकार उन दोनोंमें भी युद्ध हुआ ।। ३३ ।। 

घटोत्कचस्तु विंशत्या नाराचानां स्तनान्तरे ।। ४ ।। 

अलम्बुषमथो विद्ध्वा सिंहवद्‌ व्यनदन्मुहुः । 

घटोत्कचने बीस नाराचोंद्वारा अलम्बुषकी छातीमें गहरी चोट पहुँचाकर बारंबार सिंहके 
समान गर्जना की ।। ४ $ || 

तथैवालम्बुषो राजन्‌ हैडिम्बिं युद्धदुर्मदम्‌ ।। ५ ।। 

विद्ध्वा विद्ध्वा नदद्धृष्ट:पूरयन्‌ खं समन्ततः । 

राजन! इसी प्रकार अलम्बुष भी युद्धदुर्मद घटोत्कचको बारंबार घायल करके समूचे 
आकाशको हर्षपूर्वक गुँजाता हुआ सिंहनाद करता था ।। ५३ ।। 

तथा तौ भृशसंक्रुद्धौ राक्षसेन्द्री महाबलौ ।। ६ ।। 

निर्विशेषमयुध्येतां मायाभिरितरेतरम्‌ । 


इस प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए वे दोनों महाबली राक्षसराज परस्पर मायाओंको 
प्रयोग करते हुए समानरूपसे युद्ध करने लगे ।। ६३ ।। 

मायाशतसूृजौ नित्यं मोहयन्तौ परस्परम्‌ ।। ७ ।। 

मायायुद्धेषु कुशलौ मायायुद्धमयुध्यताम्‌ । 

वे प्रतिदिन सैकड़ों मायाओंकी सृष्टि करनेवाले थे और दोनों ही मायायुद्धमें कुशल थे। 
अतः एक-दूसरेको मोहित करते हुए मायाद्वारा ही युद्ध करने लगे || ७६ ।। 

यां यां घटोत्कचो युद्धे मायां दर्शयते नूप ।। ८ ।। 

तां तामलम्बुषो राजन्‌ माययैव निजध्निवान्‌ | 

नरेश्वर! घटोत्कच युद्धस्थलमें जो-जो माया दिखाता, उसे अलम्बुष अपनी मायाद्वारा 
ही नष्ट कर देता था ।। 

तं॑ तथा युध्यमानं तु मायायुद्धविशारदम्‌ ।। ९ ।। 

अलम्बुषं राक्षसेन्द्रं दृष्टवाक्रुध्यन्त पाण्डवा: | 

मायायुद्धविशारद राक्षसराज अलम्बुषको इस प्रकार युद्ध करते देख समस्त पाण्डव 
कुपित हो उठे ।। ९६ ।। 

त एनं॑ भृशसंविग्ना: सर्वतः प्रवरा रथै: ॥। १० ।। 

अभ्यद्रवन्त संक्रुद्धा भीमसेनादयो नृप । 

राजन! वे अत्यन्त उद्विग्न हुए भीमसेन आदि श्रेष्ठ वीर क्रोधमें भरकर रथोंद्वारा सब 
ओरसे अलम्बुषपर टूट पड़े || १०३ ।। 

त एन॑ कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष ।। ११ ।। 

सर्वतो व्यकिरन्‌ बाणैरुल्काभिरिव कुञ्जरम्‌ | 

माननीय नरेश! जैसे जलती हुई उल्काओंद्वारा चारों ओरसे घेरकर हाथीपर प्रहार 
किया जाता है, उसी प्रकार रथसमूहके द्वारा अलम्बुषको कोष्ठबद्ध करके वे सब लोग चारों 
ओरसे उसपर बाणोंकी वर्षा करने लगे ।। 

स तेषामस्त्रवेगं तं प्रतिहत्यास्त्रमायया ।। १२ ।। 

तस्माद्‌ रथव्रजान्मुक्तो वनदाहादिव द्विप: । 

उस समय अलम्बुष अपने अस्त्रोंकी मायासे उनके उस महान्‌ अस्त्रवेगको दबाकर 
रथसमूहके उस घेरेसे मुक्त हो गया, मानो कोई गजराज दावानलके घेरेसे बाहर हो गया 
हो ।। १२३ ।। 

स विस्फार्य धनुर्घोरमिन्द्राशनिसमस्वनम्‌ ।। १३ ।। 

मारुतिं पञ्चविंशत्या भैमसेनिं च पठ्चभि: । 

उसने इन्द्रके वज्ञकी भाँति घोर टंकार करनेवाले अपने भयंकर धनुषको तानकर 
भीमसेनको पचीस और उनके पुत्र घटोत्कचको पाँच बाण मारे || १३ ३ ।। 


युधिष्टिरं त्रिभिविद्ध्वा सहदेवं च सप्तभि: ।। १४ ।। 

नकुलं च त्रिसप्तत्या द्रौपदेयांश्व॒ मारिष | 

पज्चभि: पज्चभिर्विद्ध्वा घोरं॑ नादं ननाद ह ॥। १५ ।। 

आर्य! उसने युधिष्ठिरको तीन, सहदेवको सात, नकुलको तिहत्तर और द्रौपदीपुत्रोंको 
पाँच-पाँच बाणोंसे घायल करके घोर गर्जना की ।। १४-१५ ।। 

त॑ भीमसेनो नवभि: सहदेवस्तु पठ्चभि: । 

युधिष्ठिर: शतेनैव राक्षसं प्रत्यविध्यत ।। १६ ।। 

तब भीमसेनने नौ, सहदेवने पाँच और युधिष्छिरने सौ बाणोंसे राक्षस अलम्बुषको घायल 
कर दिया ।। १६ || 

नकुलस्तु चतु:षष्ट्या द्रौपदेयास्त्रिभिस्त्रिभि: । 

हैडिम्बो राक्षसं विद्ध्वा युद्धे पड्चाशता शरै: ।। १७ ।। 

पुनर्विव्याध सप्तत्या ननाद च महाबल: । 

तत्पश्चात्‌ नकुलने चौंसठ और द्रौपदीकुमारोंने तीन-तीन बाणोंसे अलम्बुषको बींध 
डाला। तदनन्तर महाबली हिडिम्बाकुमारने युद्धस्थलमें उस राक्षसको पचास बाणोंसे घायल 
करके पुनः सत्तर बाणोंद्वारा बींध डाला और बड़े जोरसे गर्जना की || १७३ ।। 

तस्य नादेन महता कम्पितेयं वसुंधरा ।। १८ ।। 

सपर्वतवना राजन्‌ सपादपजलाशया | 

राजन्‌! उसके महान्‌ सिंहनादसे वृक्षों, जलाशयों, पर्वतों और वनोंसहित यह सारी 
पृथ्वी काँप उठी ।। 

सो5तिविद्धो महेष्वासै: सर्वतस्तैर्महारथै: ।। १९ ।। 

प्रतिविव्याध तान्‌ सर्वान्‌ पज्चभि: पज्चभि: शरै: | 

उन महाधनुर्थर महारथियोंद्वारा सब ओरसे अत्यन्त घायल होकर बदलेमें अलम्बुषने 
भी पाँच-पाँच बाणोंसे उन सबको वेध दिया ।। १९६ ॥। 

तंक्रुद्धं राक्षसं युद्धे प्रतिक्रुद्धस्तु राक्षस: ।। २० ।। 

हैडिम्बो भरतश्रेष्ठ शरैरविव्याध सप्तभि: । 

भरतश्रेष्ठ) उस युद्धस्थलमें कुपित हुए राक्षस अलम्बुषको क्रोधमें भरे हुए निशाचर 
घटोत्कचने सात बाणोंसे घायल कर दिया || २०३ ।। 

सो5तिविद्धो बलवता राक्षसेन्द्रोी महाबल: ।। २१ ।। 

व्यसृजत्‌ सायकांस्तूर्ण रुक्मपुड्खान्‌ शिलाशितान्‌ | 

बलवान घटोत्कचद्वारा अत्यन्त क्षत-विक्षत होकर उस महाबली राक्षसराजने तुरंत ही 
सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। २१ $ 

|| 
ते शरा नतपर्वाणो विविशू राक्षसं तदा ।। २२ ।। 


रुषिता: पन्नगा यद्धद्‌ गिरिशूड़ं महाबला: । 

जैसे रोषमें भरे हुए महाबली सर्प पर्वतसे शिखरपर चढ़ जाते हैं, उसी प्रकार 
अलम्बुषके वे झुकी हुई गाँठवाले बाण उस समय घटोत्कचके शरीरमें घुस गये || २२ ६ ।। 

ततस्ते पाण्डवा राजन्‌ समन्तान्निशितान्‌ शरान्‌ ।। २३ ।। 

प्रेषयामासुरुद्धिग्ना हैडिम्बश्न घटोत्कच: । 

राजन्‌! तदनन्तर पाण्डव तथा हिडिम्बाकुमार घटोत्कच--सबने उद्विग्न होकर सब 
ओरसे अलम्बुषपर पैने बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी || २३ ३ ।। 

स विध्यमान: समरे पाण्डवैर्जितकाशिभि: || २४ ।। 

मर्त्यधर्ममनुप्राप्त: कर्तव्यं नानवपद्यत | 

विजयसे उल्लसित होनेवाले पाण्डवोंद्वारा समरभूमिमें विद्ध होकर मर्त्यधर्मको प्राप्त 
हुए अलम्बुषसे कुछ भी करते न बना || २४३ || 

तत: समरशौण्डो वै भैमसेनिर्महाबल: ॥। २५ ।। 

समीक्ष्य तदवस्थं तं वधायास्य मनो दे | 

तब समरकुशल महाबली भीमसेनकुमारने अलम्बुषको उस अवस्थामें देखकर मन-ही- 
मन उसके वधका निश्चय किया ।। २५३ ।। 

वेग॑ चक्रे महान्तं च राक्षसेन्द्ररथं प्रति ।। २६ ।। 

दग्धाद्रिकूटशृज्ञाभं भिन्नाउजजनचयोपमम्‌ । 

उसने जले हुए पर्वतशिखर तथा कटे-छटे कोयलेके पहाड़के समान प्रतीत होनेवाले 
राक्षसराज अलम्बुषके रथपर पहुँचनेके लिये महान्‌ वेग प्रकट किया || २६६ ।। 

रथाद्‌ रथमभिद्र॒त्य क्रुद्धों हैडिम्बिराक्षिपत्‌ ।। २७ ।। 

उदबबर्ह रथाच्चापि पन्नगं गरुडो यथा । 

क्रोधमें भरे हुए हिडिम्बाकुमारने अपने रथसे अलम्बुषके रथपर कूदकर उसे पकड़ 
लिया और जैसे गरुड़ सर्पको टाँग लेता है, उसी प्रकार उसने भी अलम्बुषको रथसे उठा 
लिया || २७३ || 

समुत्क्षिप्प च बाहुभ्यामाविध्य च पुनः पुन: ॥। २८ ।। 

निष्पिपेष क्षितौ क्षिप्र॑ पूर्णकुम्भमिवाश्मनि । 

दोनों भुजाओंसे अलम्बुषको ऊपर उठाकर घटोत्कचने बारंबार घुमाया और जैसे 
जलसे भरे हुए घड़ेको पत्थरपर पटक दिया जाय, उसी प्रकार उसे शीघ्र ही पृथ्वीपर दे 
मारा || २८३ || 

बललाघवसम्पन्न: सम्पन्नो विक्रमेण च ।। २९ ।। 

भैमसेनी रणे क्रुद्ध: सर्वसैन्यान्य भीषयत्‌ । 


घटोत्कचमें बल और फुर्ती दोनों विद्यमान थे। वह अद्भुत पराक्रमसे सम्पन्न था। उसने 
रणक्षेत्रमें कुपित होकर आपकी समस्त सेनाओंको भयभीत कर दिया ।। २९३६ ।। 

स विस्फारितसर्वाड्रिश्ूर्णितास्थिविंभीषण: ।। ३० ।। 

घटोत्कचेन वीरेण हत: शालकटड्कट: । 

वीर घटोत्कचके द्वारा मारे गये शालकटंकटाके पुत्र अलम्बुषके सारे अंग फट गये थे। 
उसकी हडियाँ चूर-चूर हो गयी थीं और वह बड़ा भयंकर दिखायी देता था || ३०३ ।। 

ततः सुमनस:ः पार्था हते तस्मिन्‌ निशाचरे || ३१ ।। 

चुक्रुशु: सिंहनादांश्व वासांस्यादुधुवुश्च ह । 

उस निशाचर अल्म्बुषके मारे जानेपर कुन्तीके सभी पुत्र प्रसन्नचित्त हो सिंहनाद करने 
और वस्त्र हिलाने लगे || ३१६ ।। 

तावकाश्च हत॑ दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रे महाबलम्‌ ।। ३२ ।। 

अलनम्बुषं तथा शूरा विशीर्णमिव पर्वतम्‌ । 

हाहाकारमकार्षुश्व सैन्यानि भरतर्षभ ।। ३३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! टूट-फ़ूटकर गिरे हुए पर्वतके समान महाबली राक्षसराज अलम्बुषको मारा 
गया देख आपके शूरवीर योद्धा तथा उनकी सारी सेनाएँ हाहाकार करने लगीं ।। ३२-३३ ।। 

जनाश्च तद्‌ ददृशिरे रक्ष: कौतूहलान्विता: । 

यदृ्च्छया निपतितं भूमावज्भारकं यथा ।। ३४ ।। 

पृथ्वीपर अकस्मात्‌ टूटकर गिरे हुए मंगल ग्रहके समान धराशायी हुए उस राक्षसको 
बहुत-से मनुष्य कौतूहलवश देखने लगे ।। ३४ ।। 

घटोत्कचस्तु तद्धत्वा रक्षो बलवतां वरम्‌ | 

मुमोच बलवतन्नादं बल॑ हत्वेव वासव: ।। ३५ ।। 

जैसे इन्द्रने बलासुरका वध करके महान्‌ सिंहनाद किया था, उसी प्रकार घटोत्कचने 
उस बलवानोंमें श्रेष्ठ अलम्बुषको मारकर बड़े जोरसे गर्जना की ।। ३५ ।। 

(ततो5भिगम्य राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

स्वकमविदयमन्मूर्थधना साञउ्जलिनिपपात ह ।। 

मूर्थ्युपाप्राय तं ज्येष्ठ: परिष्वज्य च पाण्डव: । 

प्रीतो$स्मीत्यब्रवीद्‌ राजन्‌ हर्षादुत्फुल्ललोचन: ।। 

घटोत्कचेन निष्पिष्टे मृते शालकटड्कटे । 

बभूवुर्मुदिता: सर्वे हते तस्मिन्‌ निशाचरे ।।) 

तदनन्तर घटोत्कच धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके पास जाकर हाथ जोड़ मस्तक नवाकर 
अपना कर्म निवेदन करता हुआ उनके चरणोंमें गिर पड़ा। राजन्‌! तब ज्येष्ठ पाण्डवने 
उसका मस्तक सूँघकर उसे हृदयसे लगा लिया और कहा--'वत्स! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न 


हूँ! उस समय युधिष्ठिरके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे। शालकटंकटाके पुत्र राक्षस अलम्बुषको 
जब घटोत्कचने पृथ्वीपर रगड़कर मार डाला, तब सब लोग बहुत प्रसन्न हुए। 
स पूज्यमान: पितृभि: सबान्धवै- 
घटोत्कच: कर्मणि दुष्करे कृते । 
रिपुं निहत्याभिननन्द वै तदा 
हालम्बुषं पक्‍वमलम्बुषं यथा ।। ३६ ।। 
पके हुए अलम्बुष (मुंडीर) फलके समान अपने शत्रु अलम्बुषको मारकर घटोत्कच वह 
दुष्कर पराक्रम करनेके कारण अपने पिता पाण्डवों तथा बन्धु-बान्धवोंसे सम्मानित एवं 
प्रशंसित हो उस समय बड़ी प्रसन्नताका अनुभव करने लगा ।। ३६ ।। 
ततो निनाद: सुमहान्‌ समुत्थित: 
सशड्खनानाविधबाणघोषवान्‌ | 
निशम्य त॑ प्रत्यनदंस्तु पाण्डवा- 
स्‍्ततो ध्वनिर्भुवनमथास्पृशद्‌ भूशम्‌ ।। ३७ ।। 
तत्पश्चात्‌ पाण्डवपक्षमें शंखध्वनि तथा नाना प्रकारके बाणोंकी सनसनाहटके शब्दसे 
मिला हुआ बड़ा भारी आनन्द-कोलाहल प्रकट हुआ। उसे सुनकर समस्त पाण्डव बड़े 
प्रसन्न हुए। वह आनन्दध्वनि जगतमें बहुत दूरतक फैल गयी ।। ३७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अलम्बुषवधे 
नवाधिकशततमोड<ध्याय: ।। १०९ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अलग्बुषवधविषयक एक सौ 
नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १०९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं) 


अपना बछ। आर: 2 


दशाधिकशततमो<् ध्याय: 


द्रोणाचार्य और कं अड काछ 8543 द्ध 2807 
सात्यकिकी प्रशंसा करते हुए सहायताके 
लिये कौरव-सेनामें प्रवेश करनेका आदेश 


घतयद्र उवाच 


भारद्वाजं कथं युद्धे युयुधानो न्यवारयत्‌ । 

संजयाचक्ष्व तत्त्वेन परं कौतूहलं हि मे ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! सात्यकिने युद्धमें द्रोणाचार्यको किस प्रकार रोका? यह 
यथार्थरूपसे बताओ। इसे सुननेके लिये मेरे मनमें महान्‌ कौतूहल हो रहा है ।। १ ।। 

संजय उवाच 

शृणु राजन महाप्राज्ञ संग्रामं लोमहर्षणम्‌ । 

द्रोणस्य पाण्डवै: सार्थ युयुधानपुरोगमै: ।। २ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! महामते! द्रोणाचार्यका सात्यकि आदि पाण्डव-योद्धाओंके 
साथ जो रोमांचकारी संग्राम हुआ था, उसका वर्णन सुनिये ।। २ ।। 

वध्यमानं बल दृष्टवा युयुधानेन मारिष | 

अभ्यद्रवत्‌ स्वयं द्रोण: सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ ।। ३ ।। 

माननीय नरेश! द्रोणाचार्यने जब अपनी सेनाको युयुधानके द्वारा पीड़ित होते देखा, 
तब वे सत्यपराक्रमी सात्यकिपर स्वयं ही टूट पड़े ।। ३ ।। 

तमापतन्तं सहसा भारद्वाजं महारथम्‌ | 

सात्यकि: पज्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत्‌ ।। ४ ।। 

उस समय सहसा आते हुए महारथी द्रोणाचार्यको सात्यकिने पचीस बाण मारे ।। ४ ।। 

द्रोणो5पि युधि विक्रान्तो युयुधानं समाहित: । 

अविध्यत्‌ पज्चभिस्तूर्ण हेमपुड्खै: शरै: शितै: ।। ५ ।। 

तब पराक्रमी द्रोणाचार्यने भी युद्धस्थलमें एकाग्रचित्त हो तुरंत ही सोनेके पंखवाले पाँच 
पैने बाणोंद्वारा युयुधानको घायल कर दिया ।। ५ |। 

ते वर्म भित्त्वा सुदृढं द्विषत्पिशितभोजना: । 

अभ्ययुर्थधरणीं राजन्‌ श्वसन्त इव पन्नगा: ।। ६ ।। 

राजन! द्रोणाचार्यके बाण शत्रुओंके मांस खानेवाले थे। वे सात्यकिके सुदृढ़ कवचको 
छिन्न-भिन्न करके फुफकारते हुए सर्पोंके समान धरतीमें समा गये ।। ६ ।। 

दीर्घबाहुरभिक्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विप: । 


द्रोणं पजचाशताविषध्यन्नाराचैरग्निसंनिभै: ।। ७ ।। 

तब अंकुशकी मार खाये हुए गजराजके समान अत्यन्त कुपित हुए महाबाहु सात्यकिने 
अग्निके समान तेजस्वी पचास नाराचोंद्वारा द्रोणाचार्यको वेध दिया ।। 

भारद्वाजो रणे विद्धो युयुधानेन सत्वरम्‌ । 

सात्यकिं बहुभिर्बाणैर्यतमानमविध्यत ।। ८ ।। 

सात्यकिके द्वारा समरांगणमें घायल हो द्रोणाचार्यने शीघ्र ही बहुत-से बाण मारकर 
विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले सात्यकिको क्षत-विक्षत कर दिया ।। ८ ।। 

ततः क्रुद्धो महेष्वासो भूय एव महाबल: । 

सात्वतं पीडयामास शरेणानतपर्वणा ।। ९ ।। 

तदनन्तर महाथनुर्धर महाबली द्रोणने पुनः कुपित होकर झुकी हुई गाँठवाले एक 
बाणद्वारा सात्यकिको गहरी चोट पहुँचायी ।। ९ ।। 

स वध्यमान: समरे भारद्वाजेन सात्यकि: । 

नान्वपद्यत कर्तव्यं किज्चिदेव विशाम्पते ।। १० ।। 

प्रजानाथ! समरभूमिमें द्रोणाचार्यके द्वारा क्षत-विक्षत होकर सात्यकिसे कुछ भी करते 
नहीं बना || १० ।। 

विषण्णवदनश्चापि युयुधानो5भवन्नूप । 

भारद्वाजं रणे दृष्टवा विसृजन्तं शितान्‌ शरान्‌ ।। ११ ।। 

नरेश्वर! रणक्षेत्रमें पैने बाणोंकी वर्षा करते हुए द्रोणाचार्यको देखकर युयुधानके मुखपर 
विषाद छा गया ।। 

तं तु सम्प्रेक्ष्य ते पुत्रा: सैनिकाश्न विशाम्पते । 

प्रहष्टमणनसो भूत्वा सिंहवद्‌ व्यनदन्‌ मुहुः ।। १२ ।। 

प्रजापालक नरेश! उन्हें उस अवस्थामें देखकर आपके पुत्र और सैनिक प्रसन्नचित्त 
होकर बारंबार सिंहनाद करने लगे || १२ ।। 

त॑ श्रुत्वा निनदं घोरं पीड्यमानं च माधवम्‌ | 

युधिष्ठिरो5ब्रवीद्‌ राजा सर्वसैन्यानि भारत ।। १३ ।। 

भारत! उनकी वह घोर गर्जना सुनकर और सात्यकिको पीड़ित देखकर राजा 
युधिष्ठिरने अपने समस्त सैनिकोंसे कहा-- ।। १३ ।। 

एष वृष्णिवरो वीर: सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

ग्रस्थते युधि वीरेण भानुमानिव राहुणा ।। १४ ।। 

अभिद्रवत गच्छध्वं सात्यकिर्यत्र युध्यते । 

'योद्धाओ! जैसे राहु सूर्यको ग्रस लेता है, उसी प्रकार यह वृष्णिवंशका श्रेष्ठ वीर 
सत्यपराक्रमी सात्यकि युद्धस्थलमें वीर द्रोणाचार्यके द्वारा कालके गालमें जाना चाहता है। 
अतः तुमलोग दौड़ी और वहीं जाओ, जहाँ सात्यकि युद्ध करता है” | १४६ ।। 


धृष्टद्युम्नं च पाउचाल्यमिदमाह जनाधिप: ।। १५ ।। 

अभिद्रव द्रुतं द्रोणं किमु तिष्ठसि पार्षत । 

न पश्यसि भयं द्रोणाद्‌ घोर॑ न: समुपस्थितम्‌ ।। १६ ।। 

इसके बाद राजाने पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नसे इस प्रकार कहा--'ट्रुपदनन्दन! खड़े 
क्यों हो? तुरंत ही द्रोणाचार्यपर धावा करो। क्‍या तुम नहीं देखते कि द्रोणकी ओरसे 
हमलोगोंपर घोर भय उपस्थित हो गया है? ।। १५-१६ ।। 

असौ द्रोणो महेष्वासो युयुधानेन संयुगे । 

क्रीडते सूत्रबद्धेन पक्षिणा बालको यथा ॥। १७ ।। 

“जैसे कोई बालक डोरमें बँधे हुए पक्षीके साथ खेलता है, उसी प्रकार ये महाधनुर्धर 
द्रोण युद्धस्थलमें युयुधानके साथ क्रीड़ा करते हैं || १७ ।। 

तत्रैव सर्वे गच्छन्तु भीमसेनपुरोगमा: । 

त्वयैव सहिता: सर्वे युयुधानरथं प्रति ।। १८ ।। 

“अतः तुम्हारे साथ भीमसेन आदि सभी महारथी वहीं युयुधानके रथके समीप 
जायेँ ।। १८ ।। 

पृष्ठतो$नुगमिष्यामि त्वामहं सहसैनिक: । 

सात्यकिं मोक्षयस्वाद्य यमर्दंष्टान्तरं गतम्‌ ।। १९ ।। 

'फिर मैं भी सम्पूर्ण सैनिकोंके साथ तुम्हारे पीछे-पीछे आऊँगा। इस समय यमराजकी 
दाढ़ोंमें पहुँचे हुए सात्यकिको छुड़ाओ” ।। १९ ।। 

एवमुक्‍्त्वा ततो राजा सर्वसैन्येन भारत । 

अभ्यद्रवद्‌ रणे द्रोणं युयुधानस्य कारणात्‌ ॥। २० ।। 

“भारत! ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिरने उस समय रणक्षेत्रमें युयुधानकी रक्षाके लिये 
अपनी सारी सेनाके साथ द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया ।। २० ।। 

तत्रारावो महानासीद्‌ द्रोणमेकं॑ युयुत्सताम्‌ । 

पाण्डवानां च भद्रें ते सृूज्जयानां च सर्वश: ।। २१ ।। 

राजन्‌! आपका भला हो। अकेले द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे आये हुए 
पाण्डवों और सूंजयोंका वहाँ सब ओर महान्‌ कोलाहल छा गया ।। २१ ।। 

ते समेत्य नरव्यात्रा भारद्वाजं महारथम्‌ | 

अभ्यवर्षन्‌ शरैस्तीक्ष्पै: कड्कबर्हिणवाजितै: ।। २२ ।। 

वे मनुष्योंमें व्याप्रके समान पराक्रमी सैनिक महारथी द्रोणाचार्यके पास जाकर कंक 
और मोरके पंखोंसे युक्त तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे || २२ ।। 

स्मयन्नेव तु तान्‌ वीरान्‌ द्रोण: प्रत्यग्रहीत्‌ स्वयम्‌ । 

अतिथीनागतान्‌ यद्धत्‌ सलिलेनासनेन च ।। २३ |। 

तर्पितास्ते शरैस्तस्य भारद्वाजस्य धन्विन: । 


आतियथेयं गृहं प्राप्पय नृपतेडतिथयो यथा ।। २४ ।। 

राजन्‌! जैसे घरपर आये हुए अतिथियोंका जल और आसन आदिके द्वारा सत्कार 
किया जाता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यने स्वयं उन समस्त आक्रमणकारी वीरोंकी मुसकराते 
हुए ही अगवानी की। जैसे अतिथिसत्कारमें निपुण गृहस्थके घर जाकर अतिथि तृप्त होते 
हैं, उसी प्रकार धनुर्धर द्रोणाचार्यके बाणोंसे उन सबकी यशथेष्ट तृप्ति की गयी ।। २३-२४ ।। 

भारद्वाजं च ते सर्वे न शेकुः प्रतिवीक्षितुम्‌ । 

मध्यंदिनमनुप्राप्तं सहस्रांशुमिव प्रभो ।। २५ ।। 

प्रभो! जैसे दोपहरके प्रचण्ड मार्तण्डकी ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार वे 
समस्त योद्धा भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यकी ओर देखनेमें भी समर्थ न हो सके || २५ ।। 

तांस्तु सर्वान्‌ महेष्वासान्‌ द्रोण: शस्त्रभृतां वर: । 

अतापयच्छरब्रातैर्गभस्तिभिरिवांशुमान्‌ । २६ ।। 

शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य उन समस्त महाधनुर्धरोंको अपने बाणसमूहोंद्वारा उसी 
प्रकार संतप्त करने लगे, जैसे अंशुमाली सूर्य अपनी किरणोंसे जगत्‌को संताप देते 
हैं ।। २६ ।। 

वध्यमाना महाराज पाण्डवा: सृञज्जयास्तथा । 

त्रातारं नाध्यगच्छन्त पड़कमग्ना इव द्विपा: ।। २७ ।। 

महाराज! उस समय द्रोणाचार्यकी मार खाते हुए पाण्डव और सूंजय सैनिक कीचड़में 
फँसे हुए हाथियोंके समान कोई रक्षक न पा सके || २७ ।। 

द्रोणस्य च व्यदृश्यन्त विसर्पन्तो महाशरा: । 

गभस्तय इवार्कस्य प्रतपन्त: समन्ततः ।। २८ ।। 

जैसे सूर्यकी किरणें सब ओर ताप प्रदान करती हुई फैल जाती हैं, उसी प्रकार 
द्रोणाचार्यके विशाल बाण सब ओर फैलते और शत्रुओंको संतप्त करते दिखायी देते थे ।। 

तस्मिन्‌ द्रोणेन निहता: पञ्चाला: पञ्चविंशति: । 

महारथा: समाख्याता धृष्टद्युम्नस्य सम्मता: ।। २९ |। 

उस युद्धमें द्रोणाचार्यके द्वारा पांचालोंके पचीस सुप्रसिद्ध महारथी मारे गये जो 
धृष्टद्युम्नको बहुत ही प्रिय थे || २९ ।। 

पाण्डूनां सर्वसैन्येषु पड्चालानां तथैव च । 

द्रोणं सम ददृशु: शूरं विनिध्नन्तं वरान्‌ वरान्‌ ।। ३० ।। 

लोगोंने देखा, पाण्डवों और पांचालोंकी समस्त सेनाओंमें जो मुख्य-मुख्य योद्धा हैं, 
उन्हें शूरवीर द्रोणाचार्य चुन-चुनकर मार रहे हैं || ३० ।। 

केकयानां शतं हत्वा विद्राव्य च समन्ततः । 

द्रोणस्तस्थौ महाराज व्यादितास्य इवान्तक: ।। ३३ |। 


महाराज! सौ केकययोद्धाओंको मारकर शेष सैनिकोंको चारों ओर खदेड़नेके पश्चात्‌ 
द्रोणाचार्य मुँह बाये हुए यमराजके समान खड़े हो गये ।। ३१ ।। 

पज्चालान्‌ सृञ्जयान्‌ मत्स्यान्‌ केकयांश्व नराधिप । 

द्रोणोड5जयन्महाबाहु: शतशोडथ सहसत्रश: ।। ३२ ।। 

नरेश्वर! महाबाहु द्रोणाचार्यने पांचाल, सृंजय, मत्स्य और केकयोंके सैकड़ों तथा 
सहस्रों वीरोंको परास्त किया || ३२ ।। 

तेषां समभवच्छब्दो विद्धानां द्रोणसायकै: । 

वनौकसामिवारण्ये व्याप्तानां धूम्रकेतुना ।। ३३ ।। 

जैसे घोर जंगलमें दावानलसे व्याप्त हुए वनवासी जन्तुओंकी क्रन्दनध्वनि सुनायी 
पड़ती है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके बाणोंसे घायल हुए उन विपक्षी योद्धाओंका आर्तनाद 
वहाँ श्रवणगोचर होता था ।। ३३ ।। 

तत्र देवा: सगन्धर्वा: पितरश्नाब्रुवन्‌ नृप । 

एते द्रवन्ति पठचाला: पाण्डवाक्ष ससैनिका: ।। ३४ ।। 

नरेश्वरर उस समय वहाँ आकाशमें खड़े हुए देवता, पितर और गन्धर्व कहते थे, ये 
पांचाल और पाण्डव अपने सैनिकोंके साथ भागे जा रहे हैं || ३४ ।। 

त॑ तथा समरे द्रोणं निघ्नन्तं सोमकान्‌ रणे । 

न चाप्यभिययु: केचिदपरे नैव विव्यधु: ।॥ ३५ ।। 

इस प्रकार समरांगणमें सोमकोंका वध करते हुए द्रोणाचार्यके सामने न तो कोई जा 
सके और न कोई उन्हें चोट ही पहुँचा सके ।। ३५ ।। 

वर्तमाने तथा रौद्रे तस्मिन्‌ वीरवरक्षये । 

अशृणोत्‌ सहसा पार्थ: पाउ्चजन्यस्य नि:स्वनम्‌ ।। ३६ ।। 

बड़े-बड़े वीरोंका संहार करनेवाला वह भयंकर संग्राम चल ही रहा था कि सहसा 
कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने पांचजन्यकी ध्वनि सुनी ।। ३६ ।। 

पूरितो वासुदेवेन शड्खराट्‌ स्वनते भृशम्‌ | 

युध्यमानेषु वीरेषु सैन्धवस्याभिरक्षिषु ॥। ३७ || 

नदत्सु धार्तराष्ट्रेषु विजयस्य रथं प्रति । 

गाण्डीवस्य च निर्घोषे विप्रणष्टे समनन्‍्तत:ः ।। ३८ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके फूँकनेपर वह शंखराज पांचजन्य बड़े जोरसे अपनी ध्वनिका 
विस्तार कर रहा था। सिन्धुराज जयद्रथकी रक्षामें नियुक्त हुए वीरगण युद्धमें संलग्न थे। 
अर्जुनके रथके पास आपके पुत्र और सैनिक गरज रहे थे तथा गाण्डीव धनुषकी टंकार सब 
ओरसे दब गयी थी || ३७-३८ ।। 

कश्मलाभिह्ठतो राजा चिन्तयामास पाण्डव: । 

न नूनं स्वस्ति पार्थाय यथा नदति शड्खराट्‌ ।। ३९ ।। 


कौरवाश्न यथा हृष्टा विनदन्ति मुहुर्मुहुः । 

तब पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर मोहके वशीभूत होकर इस प्रकार चिन्ता करने लगे 
--'जिस प्रकार शंखराज पांचजन्यकी ध्वनि हो रही है और जिस तरह कौरव-सैनिक 
बारंबार हर्षनाद कर रहे हैं, उससे जान पड़ता है, निश्चय ही अर्जुनकी कुशल नहीं है” ।। ३९ 
कल | 

एवं स चिन्तयित्वा तु व्याकुलेनान्तरात्मना || ४० ।। 

अजातशशणत्रु: कौन्तेय: सात्वतं प्रत्यभाषत । 

बाष्पगद्गदया वाचा मुहामानो मुहुर्मुहु: । 

कृत्यस्यानन्तरापेक्षी शैनेयं शिनिपुड़वम्‌ ।। ४१ ।। 

ऐसा विचारकर अजातशत्रु कुन्तीकुमार युधिष्ठिरका हृदय व्याकुल हो उठा। वे चाहते थे 
कि जयद्रथवधका कार्य निर्विष्न पूर्ण हो जाय; अतः बारंबार मोहित हो अश्रुगद्गद वाणीमें 
शिनिप्रवर सात्यकिको सम्बोधित करके बोले || ४०-४१ ।। 

युधिष्ठिर उवाच 

यः स धर्म: पुरा दृष्ट: सदूभि: शैनेय शाश्वत: । 

साम्पराये सुद्ृत्कृत्ये तस्य कालोडयमागत:ः ।। ४२ ।। 

युधिष्ठिरे कहा--शैनेय! साधु पुरुषोंने पूर्वकालमें विपत्तिके समय एक सुहृदके 
कर्तव्यके विषयमें जिस सनातन धर्मका साक्षात्कार किया है, आज उसीके पालनका 
अवसर उपस्थित हुआ है ।। ४२ ।। 

सर्वेष्वपि च योधेषु चिन्तयन्‌ शिनिपुड्रव । 

त्वत्त: सुह्तत्तमं कज्चिन्नाभिजानामि सात्यके ।। ४३ ।। 

शिनिप्रवर सात्यके! इस दृष्टिसे विचार करनेपर मैं समस्त योद्धाओंमें किसीको भी 
तुमसे बढ़कर अपना अतिशय सुहृत्‌ नहीं समझ पाता हूँ ।। ४३ ।। 

यो हि प्रीतमना नित्यं यश्नच नित्यमनुव्रतः । 

स कार्य साम्पराये तु नियोज्य इति मे मति: ।। ४४ ।। 

जो सदा प्रसन्नचित्त रहता हो तथा जो नित्य-निरन्तर अपने प्रति अनुराग रखता हो, 
उसीको संकटकालमें किसी महत्त्वपूर्ण कार्यका सम्पादन करनेके लिये नियुक्त करना 
चाहिये, ऐसा मेरा मत है ।। ४४ ।। 

यथा च केशवो नित्यं पाण्डवानां परायणम्‌ | 

तथा त्वमपि वार्ष्णेय कृष्णतुल्यपराक्रम: ।। ४५ ।। 

वार्ष्णेय! जैसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण सदा पाण्डवोंके परम आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम भी 
हो। तुम्हारा पराक्रम भी श्रीकृष्णके समान ही है | ४५ ।। 

सो<हं भारं समाधास्ये त्वयि तं वोढुम्हसि । 


अभिप्रायं च मे नित्यं न वृथा कर्तुमहसि ।। ४६ ।। 

अतः मैं तुमपर जो कार्यभार रख रहा हूँ, उसका तुम्हें निर्वाह करना चाहिये। मेरे 
मनोरथको सदा सफल बनानेकी ही तुम्हें चेष्टा करनी चाहिये || ४६ ।। 

स व्वं भ्रातुर्वयस्यस्य गुरोरपि च संयुगे । 

कुरु कृच्छे सहायार्थमर्जुनस्य नरर्षभ ।। ४७ ।। 

नरश्रेष्ठ! अर्जुन तुम्हारा भाई, मित्र और गुरु है। वह युद्धके मैदानमें संकटमें पड़ा हुआ 
है। अतः तुम उसकी सहायताके लिये प्रयत्न करो || ४७ ।। 

त्वं हि सत्यव्रतः शूरो मित्राणामभयड्कर: । 

लोके विख्यायसे वीर कर्मभि: सत्यवागिति ।। ४८ ।। 

तुम सत्यव्रती, शूरवीर तथा मित्रोंको अभय देनेवाले हो। वीर! तुम अपने कर्माद्वारा 
संसारमें सत्यवादीके रूपमें विख्यात हो || ४८ ।। 

यो हि शैनेय मित्रार्थे युध्यमानस्त्यजेत्‌ तनुम्‌ । 

पृथिवीं च द्विजातिभ्यो यो दद्यात्‌ स समो भवेत्‌ ।। ४९ ।। 

शैनेय! जो मित्रके लिये युद्ध करते हुए शरीरका त्याग करता है तथा जो ब्राह्मणोंको 
समूची पृथ्वीका दान कर देता है, वे दोनों समान पुण्यके भागी होते हैं || ४९ ।। 

श्रुताश्ष बहवो5स्माभी राजानो ये दिवं गता: । 

दत्त्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि ।। ५० ।। 

हमने सुना है कि बहुत-से राजा ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक इस समूची पृथ्वीका दान करके 
स्वर्गलोकमें गये हैं || ५० ।। 

एवं त्वामपि धर्मात्मन्‌ प्रयाचे5हं कृताञज्जलि: । 

पृथिवीदानतुल्यं स्यादधिकं वा फलं विभो ।। ५१ ।। 

धर्मात्मन्‌! इसी प्रकार तुमसे भी मैं अर्जुनकी सहायताके लिये हाथ जोड़कर याचना 
करता हूँ। प्रभो! ऐसा करनेसे तुम्हें पृथ्वीदानके समान अथवा उससे भी अधिक फल प्राप्त 
होगा ।। ५१ ।। 

एक एव सदा कृष्णो मित्राणामभयड्करः । 

रणे संत्यजति प्राणान्‌ द्वितीयस्त्वं च सात्यके ।। ५२ ।। 

सात्यके! मित्रोंको अभय प्रदान करनेवाले एक तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सदा हमारे 
लिये युद्धमें अपने प्राणोंका परित्याग करनेके लिये उद्यत रहते हैं और दूसरे तुम || ५२ ।। 

विक्रान्तस्य च वीरस्य युद्धे प्रार्थथतो यश: । 

शूर एव सहाय: स्यान्नेतर: प्राकृतो जन: ।। ५३ ।। 

युद्धमें सुयश पानेकी इच्छा रखकर पराक्रम करनेवाले वीर पुरुषकी सहायता कोई 
शूरवीर पुरुष ही कर सकता है। दूसरा कोई निम्न कोटिका मनुष्य उसका सहायक नहीं हो 
सकता || ५३ ।। 


ईदृशे तु परामर्दे वर्तमानस्य माधव । 

त्वदन्यो हि रणे गोप्ता विजयस्य न विद्यते ।। ५४ ।। 

माधव! ऐसे घोर युद्धमें लगे हुए रणक्षेत्रमें अर्जुनका सहायक एवं संरक्षक होनेयोग्य 
तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं है |। ५४ ।। 

श्लाघन्नेव हि कर्माणि शतशस्तव पाण्डव: । 

मम संजनयन्‌ हर्ष पुन: पुनरकीर्तयत्‌ || ५५ ।। 

पाणए्डुपुत्र अर्जुनने तुम्हारे सैकड़ों कार्योंकी प्रशंसा करते और मेरा हर्ष बढ़ाते हुए 
बारंबार तुम्हारे गुणोंका वर्णन किया था ।। ५५ ।। 

लघुहस्तश्नित्रयोधी तथा लघुपराक्रम: । 

प्राज्ञ: सर्वास्त्रविच्छूरों मुहुते न च संयुगे || ५६ ।। 

वह कहता था--'सात्यकिके हाथोंमें बड़ी फुर्ती है। वह विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाला 
और शीतघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखानेवाला है। सम्पूर्ण अस्त्रोंका ज्ञाता, विद्वान्‌ एवं शूरवीर 
सात्यकि युद्धस्थलमें कभी मोहित नहीं होता है || ५६ ।। 

महास्कन्धो महोरस्को महाबाहुर्महाहनु: । 

महाबलो महावीर्य: स महात्मा महारथ: ।। ५७ |। 

“उसके कंधे महान, छाती चौड़ी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ठोढ़ी विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट हैं। 
वह महाबली, महापराक्रमी, महामनस्वी और महारथी है ।। ५७ ।। 

शिष्यो मम सखा चैव प्रियो<स्याहं प्रियश्न मे । 

युयुधान: सहायो मे प्रमथिष्यति कौरवान्‌ ॥। ५८ ।। 

'सात्यकि मेरा शिष्य और सखा है। मैं उसको प्रिय हूँ और वह मुझे। युयुधान मेरा 
सहायक होकर मेरे विपक्षी कौरवोंका संहार कर डालेगा ।। ५८ ।। 

अस्मदर्थ च राजेन्द्र संनहोद्‌ यदि केशव: । 

रामो वाप्यनिरुद्धो वा प्रद्मयुम्नो वा महारथ: ।। ५९ |। 

गदो वा सारणो वापि साम्बो वा सह वृष्णिभि: | 

सहायार्थ महाराज संग्रामोत्तममूर्थनि ।। ६० ।। 

तथाप्यहं नरव्याप्रं शैनेयं सत्यविक्रमम्‌ । 

साहाय्ये विनियोक्ष्यामि नास्ति मे5न्यो हि तत्सम: ।। ६३ ।। 

'राजेन्द्र! महाराज! यदि युद्धके श्रेष्ठ मुहानेपर हमारी सहायताके लिये भगवान्‌ 
श्रीकृष्ण, बलराम, अनिरुद्ध, महारथी प्रद्युम्न, गद, सारण अथवा वृष्णिवंशियोंसहित साम्ब 
कवच धारण करके तैयार होंगे, तो भी मैं पुरुषसिंह सत्यपराक्रमी शिनिपौत्र सात्यकिको 
अवश्य ही अपनी सहायताके कार्यमें नियुक्त करूँगा; क्योंकि मेरी दृष्टिमें दूसरा कोई 
सात्यकिके समान नहीं है” || ५९--६१ ।। 

इति द्वैतवने तात मामुवाच धनंजय: । 


परोक्षे त्वदगुणांस्तथ्यान्‌ कथयन्नार्यसंसदि ।। ६२ ।। 

तात! इस प्रकार अर्जुनने द्वैतवनमें श्रेष्ठ पुरुषोंकी सभामें तुम्हारे यथार्थ गुणोंका वर्णन 
करते हुए परोक्षमें मुझसे उपर्युक्त बातें कही थीं ।। ६२ ।। 

तस्य त्वमेवं संकल्पं न वृथा कर्तुमरहसि । 

धनंजयस्य वाष्णेय मम भीमस्य चोभयो: ।। ६३ ।। 

वार्ष्षय! अर्जुनका, मेरा, भीमसेनका तथा दोनों माद्रीकुमारोंका तुम्हारे विषयमें जो 
वैसा संकल्प है, उसे तुम्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिये ।। ६३ ।। 

यच्चापि तीर्थानि चरन्नगच्छं द्वारकां प्रति । 

तत्राहमपि ते भक्तिमर्जुनं प्रति दृष्टवान्‌ ।। ६४ ।। 

जब मैं तीर्थोमें विचरता हुआ द्वारकामें गया था, वहाँ भी अर्जुनके प्रति जो तुम्हारा 
भक्तिभाव है, उसे मैंने प्रत्यक्ष देखा था || ६४ ।। 

न तत्‌ सौहदमन्येषु मया शैनेय लक्षितम्‌ | 

यथा त्वमस्मान्‌ भजसे वर्तमानानुपप्लवे ।। ६५ ।। 

शैनेय! इस विनाशकारी संकटमें पड़े हुए हमलोगोंकी तुम जिस प्रकार सेवा एवं 
सहायता कर रहे हो, वैसा सौहार्द मैंने तुम्हारे सिवा दूसरोंमें नहीं देखा है ।। ६५ ।। 

सो5भिजात्या च भवत्या च सख्यस्याचार्यकस्य च । 

सौहृदस्य च वीर्यस्य कुलीनत्वस्य माधव ।। ६६ ।। 

सत्यस्य च महाबाहो अनुकम्पार्थमेव च । 

अनुरूप महेष्वास कर्म त्वं कर्तुमहसि ।। ६७ ।। 

महाबाहु महाधनुर्धर माधव! वही तुम हमलोगोंपर कृपा करनेके लिये ही उत्तम कुलमें 
जन्म-ग्रहण, अर्जुनके प्रति भक्तिभाव, मैत्री, गुरुभाव, सौहार्द, पराक्रम, कुलीनता और 
सत्यके अनुरूप कर्म करो ।। ६६-६७ ।। 

सुयोधनो हि सहसा गतो द्रोणेन दंशित: । 

पूर्वमेवानुयातास्ते कौरवाणां महारथा: ।। ६८ ।। 

द्रोणाचार्यद्वारा दी गयी कवचधारणासे सुरक्षित हो दुर्योधन सहसा अर्जुनका सामना 
करनेके लिये गया है। बहुतेरे कौरव महारथियोंने पहलेसे ही उसका पीछा किया 
था || ६८ ।। 

सुमहान्‌ निनदश्चैव श्रूयते विजयं प्रति । 

स शैनेय जवेनाशु गन्तुमरहसि मानद ।। ६९ ।। 

जहाँ अर्जुन हैं, उस ओर बड़े जोरकी गर्जना सुनायी दे रही है। अतः दूसरोंको मान 
देनेवाले शैनेय! तुम्हें शीघ्रतापूर्वक बड़े वेगसे वहाँ जाना चाहिये ।। ६९ ।। 

भीमसेनो वयं चैव संयत्ता: सहसैनिका: । 

द्रोणमावारयिष्यामो यदि त्वां प्रति यास्यति ।। ७० ।। 


भीमसेन और हमलोग अपने सैनिकोंके साथ सब प्रकारसे सावधान हैं। यदि द्रोणाचार्य 
तुम्हारा पीछा करेंगे तो हम सब लोग उन्हें रोकेंगे || ७० ।। 

पश्य शैनेय सैन्यानि द्रवमाणानि संयुगे । 

महान्तं च रणे शब्द दीर्यमाणां च भारतीम्‌ ।। ७१ ।। 

शैनेय! वह देखो, उधर युद्धस्थलमें सेनाएँ भाग रही हैं। रणक्षेत्रमें महान्‌ कोलाहल हो 
रहा है और मोरचेबंदी करके खड़ी हुई कौरवी सेनामें दरारें पड़ रही हैं | ७१ ।। 

महामारुतवेगेन समुद्रमिव पर्वसु । 

धार्रराष्ट्रबलं तात विक्षिप्तं सव्यसाचिना ।। ७२ ।। 

तात! पूर्णिमाके दिन प्रचण्ड वायुके वेगसे विक्षुब्ध हुए समुद्रके समान सव्यसाची 
अर्जुनके द्वारा पीड़ित हुई दुर्योधनकी सेनामें हलचल मच गयी है ।। ७२ ।। 

रथैरविपरिधावद्धिममनुष्यैश्व हयैश्व ह । 

सैन्यं रज:समुद्धूतमेतत्‌ सम्परिवर्तते || ७३ ।। 

इधर-उधर भागते हुए रथों, मनुष्यों और घोड़ोंके द्वारा उड़ी हुई धूलसे आच्छादित हुई 
यह सारी सेना चक्कर काट रही है ।। ७३ ।। 

संवृतः सिन्धुसौवीरैर्नखरप्रासयोधिभि: । 

अत्यन्तोपचितै: शूरै: फाल्गुन: परवीरहा ।। ७४ ।। 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला अर्जुन, नखर (बघनखे) और प्रासोंद्वारा युद्ध करनेवाले 
तथा अधिक संख्यामें एकत्र हुए सिन्धु-सौवीर देशके शूरवीर सैनिकोंसे घिर गया 
है || ७४ ।। 

नैतद्‌ बलमसंवार्य शक्‍्यो जेतुं जयद्रथः । 

एते हि सैन्धवस्यार्थे सर्वे संत्यक्तजीविता: ।। ७५ ।। 

इस सेनाका निवारण किये बिना जयद्रथको जीतना असम्भव है। ये सभी सैनिक 
सिन्धुराजके लिये अपना जीवन न्यौछावर कर चुके हैं || ७५ ।। 

शरशक्तिध्वजवरं हयनागसमाकुलम्‌ | 

पश्यैतद्‌ धार्तराष्ट्राणामनीकं सुदुरासदम्‌ || ७६ ।। 

बाण, शक्ति और ध्वजाओंसे सुशोभित तथा घोड़े और हाथियोंसे भरी हुई कौरवोंकी 
इस दुर्जय सेनाको देखो || ७६ ।। 

शणु दुन्दुभिनिर्घोषं शडखशब्दां श्व पुष्कलान्‌ | 

सिंहनादरवांश्षैव रथनेमिस्वनांस्तथा ।। ७७ ।। 

सुनो, डंकोंकी आवाज हो रही है, जोर-जोरसे शंख बज रहे हैं, वीरोंके सिंहनाद तथा 
रथोंके पहियोंकी घर्घराहटके शब्द सुनायी पड़ रहे हैं || ७७ ।। 

नागानां शृणु शब्दं च पत्तीनां च सहस्रश: । 

सादिनां द्रवतां चैव शूणु कम्पयतां महीम्‌ ।। ७८ ।। 


हाथियोंके चिग्धाड़नेकी आवाज सुनो। सहस्रों पैदल सिपाहियों तथा पृथ्वीको कम्पित 
करते हुए दौड़ लगानेवाले घुड़सवारोंके शब्द सुन लो || ७८ ।। 

पुरस्तात्‌ सैन्धवानीकं द्रोणानीकं च पृष्ठत: । 

बहुत्वाद्धि नरव्याप्र देवेन्द्रमपि पीडयेत्‌ ।। ७९ ।। 

नरव्याप्र! अर्जुनके सामने सिन्धुराजकी सेना है और पीछे द्रोणाचार्यकी। इसकी संख्या 
इतनी अधिक है कि यह देवराज इन्द्रको भी पीड़ित कर सकती है ।। ७९ ।। 

अपर्यन्ते बले मग्नो जह्मादपि च जीवितम्‌ | 

तस्मिंश्न निहते युद्धे कथं जीवेत मादृूश: ।। ८० ।। 

सर्वथाहमनुप्राप्त: सुकृच्छ त्वयि जीवति । 

इस अनन्त सैन्यसमुद्रमें डूबकर अर्जुन अपने प्राणोंका भी परित्याग कर देगा। युद्धमें 
उसके मारे जानेपर मेरे-जैसा मनुष्य कैसे जीवित रह सकता है? युयुधान! तुम्हारे जीते-जी 
मैं सब प्रकारसे बड़े भारी संकटमें पड़ गया हूँ || ८०३ ।। 

श्यामो युवा गुडाकेशो दर्शनीयश्व पाण्डव: ।। ८१ ।। 

लघ्वस्त्रश्नित्रयोधी च प्रविष्टस्तात भारतीम्‌ । 

सूर्योदये महाबाहुर्दिवसश्लातिवर्तते ।। ८२ ।। 

निद्राविजयी पाण्डुकुमार अर्जुन श्यामवर्णवाला दर्शनीय तरुण है। वह शीघ्रतापूर्वक 
अस्त्र चलाता और विचित्र रीतिसे युद्ध करता है। तात! उस महाबाहु वीरने सूर्योदयके समय 
अकेले ही कौरवी-सेनामें प्रवेश किया था और अब दिन बीतता चला जा रहा 
है || ८१-८२ ।। 

तन्न जानामि वार्ष्णेय यदि जीवति वा न वा । 

कुरूणां चापि तत्‌ सैन्यं सागरप्रतिमं महत्‌ ।। ८३ ।। 

एक एव च बीभत्सु: प्रविष्टस्तात भारतीम्‌ । 

अविषह्ाां महाबाहु: सुरैरपि महाहवे ।। ८४ ।। 

वार्ष्णेय! पता नहीं, इस समयतक अर्जुन जीवित है या नहीं। महासमरमें जिसके 
वेगको सहन करना देवताओंके लिये भी असम्भव है, कौरवोंकी वह सेना समुद्रके समान 
विशाल है, तात! उस कौरवी-सेनामें महाबाहु अर्जुनने अकेले ही प्रवेश किया 
है || ८३-८४ ।। 

न हि मे वर्तते बुद्धिरद्य युद्धे कथंचन । 

दोणो<5पि रभसो युद्धे मम पीडयते बलम्‌ ।। ८५ ।। 

आज किसी प्रकार मेरी बुद्धि युद्धमें नहीं लग रही है। इधर द्रोणाचार्य भी युद्धस्थलमें 
बड़े वेगसे आक्रमण करके मेरी सेनाको पीड़ित कर रहे हैं || ८५ ।। 

प्रत्यक्ष ते महाबाहो यथासौ चरति द्विज: । 

युगपच्च समेतानां कार्याणां त्वं विचक्षण: ।। ८६ ।। 


महाबाहो! विप्रवर द्रोणाचार्य जैसा कार्य कर रहे हैं, वह सब तुम्हारी आँखोंके सामने 
है। एक ही समय प्राप्त हुए अनेक कार्योमेंसे किसका पालन आवश्यक है, इसका निर्णय 
करनेमें तुम कुशल हो ।। ८६ ।। 

महार्थ लघुसंयुक्त कर्तुमहसि मानद । 

तस्य मे सर्वकार्येषु कार्यमेतन्‍्मतं महत्‌ ।। ८७ ।। 

अर्जुनस्य परित्राणं कर्तव्यमिति संयुगे । 

मानद! सबसे महान्‌ प्रयोजनको तुम्हें शीघ्रतापूर्वक सम्पन्न करना चाहिये। मुझे तो सब 
कार्योमें सबसे महान्‌ कार्य यही जान पड़ता है कि युद्धस्थलमें अर्जुनकी रक्षा की 
जाय || ८७३ || 

नाहं शोचामि दाशाहं गोप्तारं जगत: पतिम्‌ । ८८ ।। 

स हि शक्तो रणे तात त्रींललोकानपि संगतान्‌ । 

विजेतुं पुरुषव्याप्र: सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ८९ ।। 

कि पुनर्धात॑राष्ट्रस्य बलमेतत्‌ सुदुर्बलम्‌ । 

तात! मैं दशार्हनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये शोक नहीं करता। वे तो सम्पूर्ण जगत्‌के 
संरक्षक और स्वामी हैं। युद्धस्थलमें तीनों लोक संघटित होकर आ जायाँ तो भी वे पुरुषसिंह 
श्रीकृष्ण उन सबको परास्त कर सकते हैं, यह तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। फिर दुर्योधनकी 
इस अत्यन्त दुर्बल सेनाको जीतना उनके लिये कौन बड़ी बात है? || ८८-८९ ६ ।। 

अर्जुनस्त्वेष वा्ष्णेय पीडितो बहुभिययुधि ।। ९० ।। 

प्रजह्मयात्‌ समरे प्राणांस्तस्माद्‌ विन्दामि कश्मलम्‌ | 

परंतु वार्ष्णेय! यह अर्जुन तो युद्धस्थलमें बहुसंख्यक सैनिकोंद्वारा पीड़ित होनेपर 
समरांगणमें अपने प्राणोंका परित्याग कर देगा। इसीलिये मैं शोक और दु:खमें डूबा जा रहा 
हूँ ।। ९०६३ ।। 

तस्य त्वं पदवीं गच्छ गच्छेयुस्त्वाद्शा यथा ।। ९१ ।। 

तादृशस्येदृशे काले मादृशेनाभिनोदित:ः । 

अतः तुम मेरे-जैसे मनुष्यसे प्रेरित हो ऐसे संकटके समय अर्जुन-जैसे प्रिय सखाके 
पथका अनुसरण करो, जैसा कि तुम्हारे-जैसे वीर पुरुष किया करते हैं || ९१३ ।। 

रणे वृष्णिप्रवीराणां द्वावेवातिरथौ स्मृती ।। ९२ ।। 

प्रद्मुम्नश्च महाबाहुस्त्वं च सात्वत विश्रुतः । 

सात्वत! वृष्णिवंशी प्रमुख वीरोंमें रणक्षेत्रके लिये दो ही व्यक्ति अतिरथी माने गये हैं-- 
एक तो महाबाह प्रद्युम्न और दूसरे सुविख्यात वीर तुम || ९२३ ।। 

अस्त्रे नारायणसम: संकर्षणसमो बले ।। ९३ ।। 

वीरतायां नरव्यात्र धनंजयसमो हासि । 


नरव्याप्र! तुम अस्त्रविद्याके ज्ञानमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके समान, बलमें बलरामजीके 
तुल्य और वीरतामें धनंजयके समान हो ।। ९३ ३ ।। 

भीष्मद्रोणावतिक्रम्य सर्वयुद्धविशारदम्‌ ।। ९४ ।। 

त्वामेव पुरुषव्याप्रं लोके सन्त: प्रचक्षते । 

इस जगत्‌में भीष्म और द्रोणके बाद तुझ पुरुषसिंह सात्यकिको ही श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण 
युद्धकलामें निपुण बताते हैं ।। ९४ ई ।। 

(सदेवासुरगन्धर्वान्‌ सकिन्नरमहोरगान्‌ । 

योधयेत्‌ स जगत्‌ सर्व विजयेत रिपून्‌ बहुन्‌ ।। 

इति ब्रुवन्ति लोकेषु जनास्तव गुणान्‌ सदा । 

समागमेषु जल्पन्ति पृथगेव च सर्वदा ।।) 

जब अच्छे पुरुषोंका समाज जुटता है, उस समय उसमें आये हुए सब लोग संसारमें 
तुम्हारे गुणोंको सदा-सर्वदा सबसे विलक्षण ही बतलाते हैं। उनका कहना है कि सात्यकि 
देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर तथा बड़े-बड़े नागोंसहित बहुसंख्यक शत्रुओंपर विजय पा 
सकते हैं। सम्पूर्ण जगत्से अकेले ही युद्ध कर सकते हैं। 

नाशक्यं विद्यते लोके सात्यकेरिति माधव ।। ९५ ।। 

तत्‌ त्वां यदभिवक्ष्यामि तत्‌ कुरुष्व महाबल । 

सम्भावना हि लोकस्य मम पार्थस्य चोभयो: ।। ९६ ।। 

नान्यथा तां महाबाहो सम्प्रकर्तुमिहाहसि । 

परित्यज्य प्रियान्‌ प्राणान्‌ रणे चर विभीतवत्‌ ।। ९७ ।। 

माधव! लोग कहते हैं कि संसारमें सात्यकिके लिये कोई कार्य असाध्य नहीं है। 
महाबली वीर! सब लोगोंकी तथा मेरी और अर्जुनकी-दोनों भाइयोंकी तुम्हारे विषयमें 
बड़ी उत्तम भावना है। अतः मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसका पालन करो। महाबाहो! तुम 
हमारी पूर्वोक्त धारणाको बदल न देना। समरांगणमें प्यारे प्राणोंका मोह छोड़कर निर्भयके 
समान विचरो ।। ९५--९७ || 

न हि शैनेय दाशार्हा रणे रक्षन्ति जीवितम्‌ । 

अयुद्धमनवस्थानं संग्रामे च पलायनम्‌ ।। ९८ ।। 

भीरूणामसतां मार्गो नैष दाशार्हसेवित: । 

शैनेय! दशार्हकुलके वीर पुरुष रणक्षेत्रमें अपने प्राण बचानेकी चेष्टा नहीं करते हैं। 
युद्धसे मुँह मोड़ना, युद्धस्थलमें डटे न रहना और संग्रामभूमिमें पीठ दिखाकर भागना यह 
कायरों और अधम पुरुषोंका मार्ग है। दशाकुलके वीर पुरुष इससे दूर रहते हैं || ९८ ई ।। 

तवार्जुनो गुरुस्तात धर्मात्मा शिनिपुज्रव ।। ९९ |। 

वासुदेवो गुरुश्नापि तव पार्थस्य धीमत: । 


तात! शिनिप्रवर! धर्मात्मा अर्जुन तुम्हारा गुरु है तथा भगवान्‌ श्रीकृष्ण तुम्हारे और 
बुद्धिमान अर्जुनके भी गुरु हैं ।। ९९६ ।। 

कारणद्वयमेतद्धि जानंस्त्वामहमब्रुवम्‌ | १०० ।। 

मावमंस्था वचो महां गुरुस्तव गुरोह[हम्‌ । 

इन दोनों कारणोंको जानकर मैं तुमसे इस कार्यके लिये कह रहा हूँ। तुम मेरी बातकी 
अवहेलना न करो; क्‍योंकि मैं तुम्हारे गुरुका भी गुरु हूँ || १००६ ।। 

वासुदेवमतं चैव मम चैवार्जुनस्य च ।। १०१ ।। 

सत्यमेतन्मयोक्तं ते याहि यत्र धनंजय: । 

तुम्हारा वहाँ जाना भगवान्‌ श्रीकृष्णको, मुझको तथा अर्जुनको भी प्रिय है। यह मैंने 
तुमसे सच्ची बात कही है। अत: जहाँ अर्जुन है, वहाँ जाओ ।। १०१३ ।। 

एतद्‌ वचनमाज्ञाय मम सत्यपराक्रम ।। १०२ ।। 

प्रविशैतद्‌ बल॑ तात धार्तराष्ट्रस्थ दुर्मते: । 

सत्यपराक्रमी वत्स! तुम मेरी इस बातको मानकर दुर्बुद्धि दुर्योधनकी इस सेनामें प्रवेश 
करो || १०२६ || 

प्रविश्य च यथान्यायं संगम्य च महारथै: । 

यथार्हमात्मन: कर्म रणे सात्वत दर्शय ।। १०३ ।। 

सात्वत! इसमें प्रवेश करके यथायोग्य सब महारथियोंसे मिलकर युद्धमें अपने अनुरूप 
पराक्रम दिखाओ ।। १०३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरवाक्ये 
दशाधिकशततमोड<ध्याय: ।। ११० ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्िरवाक्यविषयक एक 
सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १०५ श्लोक हैं) 


निफमशा (0) अमन न 


एकादरशाधिकशततमोड< ध्याय: 


सात्यकि और युधिष्ठिरका संवाद 
संजय उवाच 
प्रीतियुक्ते च हृद्यं च मधुराक्षरमेव च । 
कालयुक्तं च चित्र च न्याय्यं यच्चापि भाषितुम्‌ ॥। १ ।। 
धर्मराजस्य तद्‌ वाक्‍्यं निशम्य शिनिपुज्भव: । 


सात्यकिर्भरतश्रेष्ठ प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्‌ ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! धर्मराजका वह वचन प्रेमपूर्ण, मनको प्रिय लगनेवाला, 
मधुर अक्षरोंसे युक्त, सामयिक, विचित्र, कहनेयोग्य तथा न्‍्यायसंगत था। भरतश्रेष्ठ! उसे 
सुनकर शिनिप्रवर सात्यकिने युधिष्ठिरको इस प्रकार उत्तर दिया-- ।। १-२ ।। 

श्रुत॑ ते गदतो वाक्‍्यं सर्वमेतन्मयाच्युत । 

न्याययुक्त च चित्र च फाल्गुनार्थे यशस्करम्‌ ।। ३ ।। 

“अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले नरेश! आपने अर्जुनकी सहायताके लिये जो- 
जो बातें कही हैं, वह सब मैंने सुन लीं। आपका कथन अद्भुत, न्‍्यायसंगत और यशकी 
वृद्धि करनेवाला है ।। ३ ।। 

एवंविधे तथा काले मादृशं प्रेक्ष्य सम्मतम्‌ । 

वक्तुम्हसि राजेन्द्र यथा पार्थ तथैव माम्‌ ।। ४ ।। 

राजेन्द्र! ऐसे समयमें मेरे-जैसे प्रिय व्यक्तिको देखकर आप जैसी बात कह सकते हैं, 
वैसी ही कही है। आप अर्जुनसे जो कुछ कह सकते हैं, वही आपने मुझसे भी कहा 
है ।। ४ ।। 

न मे धनंजयस्यार्थे प्राणा रक्ष्या: कथंचन । 

त्वत्प्रयुक्तः पुनरहं कि न कुर्या महाहवे ।। ५ ।। 

“महाराज! अर्जुनके हितके लिये मुझे किसी प्रकार भी अपने प्राणोंकी रक्षाकी चिन्ता 
नहीं करनी है; फिर आपका आदेश मिलनेपर मैं इस महायुद्धमें क्या नहीं कर सकता 
हूँ? ।। ५ ।। 

लोकत्रयं योधयेयं सदेवासुरमानुषम्‌ । 

त्वत्प्रयुक्तो नरेन्द्रेह किमुतैतत्‌ सुदुर्बलम्‌ ।। ६ ।। 

“नरेन्द्र! आपकी आज्ञा हो तो देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंसहित तीनों लोकोंके साथ 
मैं युद्ध कर सकता हूँ। फिर यहाँ इस अत्यन्त दुर्बल कौरवी सेनाका सामना करना कौन 
बड़ी बात है? ।। ६ ।। 

सुयोधनबल  त्वद्य योधयिष्ये समन्तत: । 


विजेष्ये च रणे राजन्‌ सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते || ७ ।। 

“राजन! मैं रणक्षेत्रमें आज चारों ओर घूमकर दुर्योधनकी सेनाके साथ युद्ध करूँगा 
और उसपर विजय पाऊँगा; यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ ।। ७ ।। 

कुशल्यहं कुशलिनं समासाद्य धनंजयम्‌ | 

हते जयद्रथे राजन्‌ पुनरेष्यामि तेडन्तिकम्‌ ।। ८ ।। 

“राजन! मैं कुशलपूर्वक रहकर सकुशल अर्जुनके पास पहुँच जाऊँगा और जयद्रथके 
मारे जानेपर उनके साथ ही आपके पास लौट आऊँगा ।। ८ ।। 

अवश्यं तु मया सर्व विज्ञाप्यस्त्वं नराधिप । 

वासुदेवस्य यद्‌ वाक्‍्यं फाल्गुनस्थ च धीमत: ।। ९ ।। 

'परंतु नरेश्वर! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बुद्धिमान्‌ अर्जुनने युद्धके लिये जाते समय मुझसे 
जो कुछ कहा था, वह सब आपको सूचित कर देना मेरे लिये अत्यन्त आवश्यक है ।। ९ ।। 

दृढं त्वभिपरीतो5हमर्जुनेन पुनः पुन: । 

मध्ये सर्वस्य सैन्यस्थ वासुदेवस्य शृण्वत: ।। १० ।। 

“अर्जुनने सारी सेनाके बीचमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके सुनते हुए मुझे बारंबार कहकर 
दृढ़तापूर्वक बाँध लिया है ।। 

अद्य माधव राजानमप्रमत्तोडनुपालय । 

आर्या युद्धे मतिं कृत्वा यावद्धन्मि जयद्रथम्‌ ।। ११ ।। 

“उन्होंने कहा था--'माधव! आज मैं जबतक जयद्रथका वध करता हूँ, तबतक युद्धमें 
तुम श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय लेकर पूरी सावधानीके साथ राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करो ।। ११ ।। 

त्वयि चाहं महाबाहो प्रद्युम्ने वा महारथे । 

नृपं निक्षिप्य गच्छेयं निरपेक्षो जयद्रथम्‌ ॥। १२ ।। 

“महाबाहो! मैं तुमपर अथवा महारथी प्रद्युम्मपर ही भरोसा करके राजाको धरोहरकी 
भाँति सौंपकर निरपेक्षभावसे जयद्रथके पास जा सकता हूँ ।। १२ ।। 

जानीषे हि रणे द्रोणं रभसं श्रेष्ठमम्मतम्‌ । 

प्रतिज्ञा चापि ते नित्यं श्रुता द्रोणस्य माधव ।। १३ ।। 

“माधव! तुम जानते ही हो कि रणक्षेत्रमें श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सम्मानित आचार्य द्रोण कितने 
वेगशाली हैं। उन्होंने जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे भी तुम प्रतिदिन सुनते ही होगे ।। १३ ।। 

ग्रहणे धर्मराजस्य भारद्वाजोडपि गृध्यति । 

शक्तश्नापि रणे द्रोणो निग्रहीतुं युधिष्चिरम्‌ ।। १४ ।। 

“'ट्रोणाचार्य भी धर्मराजको बंदी बनाना चाहते हैं और वे समरांगणमें राजा युधिष्ठिरको 
कैद करनेमें समर्थ भी हैं ।। १४ ।। 

एवं त्वयि समाधाय धर्मराजं नरोत्तमम्‌ | 

अहमद्य गमिष्यामि सैन्धवस्य वधाय हि ।। १५ ।। 


'ऐसी अवस्थामें नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिरकी रक्षाका सारा भार तुमपर ही रखकर 
आज मैं सिन्धुराजके वधके लिये जाऊँगा ।। १५ ।। 

जयद्रथं च हत्वाहं द्रुतमेष्यामि माधव । 

धर्मराजं न चेद्‌ द्रोणो निगृह्लीयाद्‌ रणे बलात्‌ ।। १६ ।। 

“माधव! यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें धर्मरमाजको बलपूर्वक बंदी न बना सकें तो मैं 
जयद्रथका वध करके शीघ्र ही लौट आऊँगा ।। १६ ।। 

निगृहीते नरश्रेष्ठे भारद्वाजेन माधव । 

सैन्धवस्य वधो न स्थान्ममाप्रीतिस्तथा भवेत्‌ ।। १७ ।। 

“मधुवंशी वीर! यदि द्रोणाचार्यने नरश्रेष्ठ युधिष्ठिरको कैद कर लिया तो सिन्धुराजका 
वध नहीं हो सकेगा और मुझे भी महान्‌ दुःख होगा ।। १७ ।। 

एवंगते नरश्रेष्ठे पाण्डवे सत्यवादिनि । 

अस्माकं गमनं व्यक्त वन॑ प्रति भवेत्‌ पुन: ॥। १८ ।। 

“यदि सत्यवादी नरश्रेष्ठ पाण्डुकुमार युधिष्ठिर इस प्रकार बंदी बनाये गये तो निश्चय ही 
हमें पुन: वनमें जाना पड़ेगा || १८ ।। 

सो<5यं मम जयो व्यक्त व्यर्थ एव भविष्यति । 

यदि द्रोणो रणे क्रुद्धों निगृह्लीयाद्‌ युधिष्ठिरम्‌ ।। १९ ।। 

“यदि द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें कुपित होकर युधिष्ठिरको कैद कर लेंगे तो मेरी यह विजय 
अवश्य ही व्यर्थ हो जायगी ।। १९ |। 

स त्वमद्य महाबाहो प्रियार्थ मम माधव । 

जयार्थ च यशो<र्थ च रक्ष राजानमाहवे ।। २० ।। 

“महाबाहु माधव! इसलिये तुम आज मेरा प्रिय करने, मुझे विजय दिलाने और मेरे 
यशकी वृद्धि करनेके लिये युद्धस्थलमें राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करो” ।। २० ।। 

स भवान्‌ मयि निक्षेपो निक्षिप्त: सव्यसाचिना । 

भारद्वाजाद भयं नित्यं मन्यमानेन वै प्रभो ।। २१ ।। 

'प्रभो! इस प्रकार द्रोणाचार्यसे निरन्तर भय मानते हुए सव्यसाची अर्जुनने आपको मेरे 
पास धरोहरके रूपमें रख छोड़ा है |। २१ ।। 

तस्यापि च महाबाहो नित्यं पश्यामि संयुगे | 

नान्यं हि प्रतियोद्धारं रौक्मिणेयादृते प्रभो ।। २२ ।। 

“महाबाहो! प्रभो! मैं प्रतिदिन युद्धस्थलमें रुक्मिणी-नन्दन प्रद्युम्मके सिवा दूसरे किसी 
वीरको ऐसा नहीं देखता जो द्रोणाचार्यके सामने खड़ा होकर उनसे युद्ध कर सके ।। २२ ।। 

मां चापि मन्यते युद्धे भारद्वाजस्य धीमतः । 

सो<हं सम्भावनां चैतामाचार्यवचनं च तत्‌ ।। २३ ।। 

पृष्ठतो नोत्सहे कर्तु त्वां वा त्यक्तुं महीपते । 


“अर्जुन मुझे भी बुद्धिमान्‌ द्रोणाचार्यका सामना करनेमें समर्थ योद्धा मानते हैं। 
महीपते! मैं अपने आचार्यकी इस सम्भावनाको तथा उनके उस आदेशको न तो पीछे ढकेल 
सकता हूँ और न आपको ही त्याग सकता हूँ ।। २३३ ।। 

आचार्यो लघुहस्तत्वादभेद्यकवचावृत: ।। २४ ।। 

उपलभ्य रणे क्रीडेदू यथा शकुनिना शिशु: । 

'ट्रोणाचार्य अभेद्य कवचसे सुरक्षित हैं। वे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेके कारण रणक्षेत्रमें 
अपने विपक्षीको पाकर उसी प्रकार क्रीड़ा करते हैं, जैसे कोई बालक पक्षीके साथ खेल 
रहा हो || २४३ || 

यदि कार्ष्णिर्धनुष्पाणिरिह स्यान्मकरध्वज: ।। २५ ।। 

तस्मै त्वां विसूजेयं वै स त्वां रक्षेद्‌ यथार्जुन: । 

“यदि कामदेवके अवतार श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न यहाँ हाथमें धनुष लेकर खड़े होते तो 
उन्हें मैं आपको सौंप देता। वे अर्जुनके समान ही आपकी रक्षा कर सकते थे || २५६ ।। 

कुरु त्वमात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता गते मयि ।। २६ ।। 

यः प्रतीयाद्‌ रणे द्रोणं यावद्‌ गच्छामि पाण्डवम्‌ | 

“आप पहले अपनी रक्षाकी व्यवस्था कीजिये। मेरे चले जानेपर कौन आपका संरक्षण 
करनेवाला है, जो रणक्षेत्रमें तबतक द्रोणाचार्यका सामना करता रहे जबतक कि मैं अर्जुनके 
पास जाता (और लौटता) हूँ || २६३ ।। 

मा च ते भयमपद्यास्तु राजन्नर्जुनसम्भवम्‌ ।। २७ ।। 

नस जातु महाबाहुर्भारमुद्यम्य सीदति | 

“महाराज! आज आपके मनमें अर्जुनके लिये भय नहीं होना चाहिये। वे महाबाहु 
किसी कार्यभारको उठा लेनेपर कभी शिथिल नहीं होते हैं || २७६ ।। 

ये च सौवीरका योधास्तथा सैन्धवपौरवा: ।। २८ ।। 

उदीच्या दाक्षिणात्याशक्षु ये चान्येडपि महारथा: । 

ये च कर्णमुखा राजन्‌ रथोदारा: प्रकीर्तिता: ।। २९ |। 

एतेड<र्जुनस्य क्रुद्धस्प कलां ना्हन्ति षोडशीम्‌ । 

'राजन्‌! जो सौवीर, सिन्धु तथा पुरुदेशके योद्धा हैं, जो उत्तर और दक्षिणके निवासी 
एवं अन्य महारथी हैं तथा जो कर्ण आदि श्रेष्ठ रथी बताये गये हैं वे कुपित हुए अर्जुनकी 
सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं ।। 

उद्युक्ता पृथिवी सर्वा ससुरासुरमानुषा ।। ३० ।। 

सराक्षसगणा राजन्‌ सकिन्नरमहोरगा । 

जड़मा: स्थावरा: सर्वे नाल॑ पार्थस्य संयुगे || ३१ ।। 


“नरेश्वर! देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, किन्नर तथा महान्‌ सर्पगणोंसहित यह समूची 
पृथ्वी और सभी स्थावर-जंगम प्राणी युद्धके लिये उद्यत हो जायँ तो भी सब मिलकर भी 
युद्धस्थलमें अर्जुनका सामना नहीं कर सकते हैं | ३०-३१ ।। 

एवं ज्ञात्वा महाराज व्येतु ते भीर्धनंजये । 

यत्र वीरौ महेष्वासौ कृष्णौ सत्यपराक्रमौ ।। ३२ ।। 

न तत्र कर्मणो व्यापत्‌ कथज्चिदपि विद्यते । 

“महाराज! ऐसा जानकर अर्जुनके विषयमें आपका भय दूर हो जाना चाहिये। जहाँ 
सत्यपराक्रमी और महाथनुर्धर वीर श्रीकृष्ण एवं अर्जुन विद्यमान हैं वहाँ किसी प्रकार भी 
कार्यमें व्याघात नहीं हो सकता ।। ३२३६ ।। 

दैवं कृतास्त्रतां योगममर्षमपि चाहवे ।। ३३ ।। 

कृतज्ञतां दयां चैव भ्रातुस्त्वमनुचिन्तय । 

“आपके भाई अर्जुनमें जो दैवीशक्ति, अस्त्रविद्याकी निपुणता, योग, युद्धस्थलमें अमर्ष, 
कृतज्ञता और दया आदि सदगुण हैं उनका आप बारंबार चिन्तन कीजिये || ३३ ६ ।। 

मयि चापि सहाये ते गच्छमानेड<र्जुनं प्रति । ३४ ।। 

द्रोणे चित्रास्त्रतां संख्ये राज॑स्त्वमनुचिन्तय । 

“राजन! मैं आपका सहायक रहा हूँ, यदि मैं भी अर्जुनके पास चला जाता हूँ तो युद्धमें 
द्रोणाचार्य जिन विचित्र अस्त्रोंका प्रयोग करेंगे उनपर भी आप अच्छी तरह विचार कर 
लीजिये || ३४३ ।। 

आचार्यो हि भृशं राजन्‌ निग्रहे तव गृध्यति ।। ३५ ।। 

प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्‌ सत्यां कर्तु च भारत | 

“भरतवंशी नरेश! द्रोणाचार्य आपको कैद करनेकी बड़ी इच्छा रखते हैं। वे अपनी 
प्रतिज्ञाकी रक्षा करते हुए उसे सत्य कर दिखाना चाहते हैं || ३५६ ।। 

कुरुष्वाद्यात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता गते मयि ॥। ३६ ।। 

यस्याहं प्रत्ययात्‌ पार्थ गच्छेयं फाल्गुनं प्रति । 

“अब आप अपनी रक्षाका प्रबन्ध कीजिये। पार्थ! मेरे चले जानेपर कौन आपका रक्षक 
होगा, जिसपर विश्वास करके मैं अर्जुनके पास चला जाऊँ ।। ३६३ ।। 

न हाहं त्वां महाराज अनिक्षिप्य महाहवे ।। ३७ ।। 

क्वचिद्‌ यास्यामि कौरव्य सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते | 

“महाराज! कुरुनन्दन! मैं आपको इस महासमरमें किसी वीरके संरक्षणमें रखे बिना 
कहीं नहीं जाऊँगा; यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ ।। ३७६ ।। 

एतद्विचार्य बहुशो बुद्धया बुद्धिमतां वर ।। ३८ ।। 

दृष्टवा श्रेय: परं बुद्धया ततो राजन्‌ प्रशाधि माम्‌ ।। ३९ ।। 


“बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ महाराज! अपनी बुद्धिसे इस विषयमें बहुत सोच-विचार करके 
आपको जो परम मंगलकारक कृत्य जान पड़े, उसके लिये मुझे आज्ञा दें! || ३८-३९ ।। 
युधिछिर उवाच 


एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव । 

नतुमे शुद्धयते भाव: श्वेताश्वं प्रति मारिष ।। ४० ।। 

युधिष्ठिर बोले--महाबाहु माधव! तुम जैसा कहते हो, वही ठीक है। आर्य! श्वेतवाहन 
द्रोणाचार्यकी ओरसे मेरा हृदय शुद्ध (निश्चिन्त) नहीं हो रहा है ।। 

करिष्ये परमं यत्नमात्मनो रक्षणे हाहम्‌ | 

गच्छ त्वं समनुज्ञातो यत्र यातो धनंजय: ।। ४१ ।। 

मैं अपनी रक्षाके लिये महान्‌ प्रयत्न करूँगा। तुम मेरी आज्ञासे वहीं जाओ, जहाँ अर्जुन 
गया है ।। ४१ ।। 

आत्मसंरक्षणं संख्ये गमन॑ चार्जुनं प्रति । 

विचार्यतत्‌ स्वयं बुद्धया गमनं तत्र रोचय ।। ४२ ।। 

मुझे युद्धमें अपनी रक्षा करनी चाहिये या अर्जुनके पास तुम्हें भेजना चाहिये। इन दोनों 
बातोंपर तुम स्वयं ही अपनी बुद्धिसे विचार करके वहाँ जाना ही पसंद करो ।। 

स त्वमातिष्ठ यानाय यत्र यातो धनंजय: । 

ममापि रक्षणं भीम: करिष्यति महाबल: ।॥। ४३ ।। 

अतः जहाँ अर्जुन गया है वहाँ जानेके लिये तुम तैयार हो जाओ। महाबली भीमसेन 
मेरी भी रक्षा कर लेंगे ।। ४३ ।। 

पार्षतश्न ससोदर्य: पार्थिवाश्व महाबला: । 

द्रौपदेयाश्व मां तात रक्षिष्यन्ति न संशय: ।। ४४ ।। 

तात! भाइयोंसहित धृष्टद्युम्न, महाबली भूपालगण तथा द्रौपदीके पाँचों पुत्र मेरी रक्षा 
कर लेंगे; इसमें संशय नहीं है || ४४ ।। 

केकया भ्रातर: पज्च राक्षसक्ष घटोत्कच: । 

विराटो द्रुपदश्चैव शिखण्डी च महारथ: ।। ४५ ।। 

धृष्टकेतुश्न बलवान्‌ कुन्तिभोजश्न मातुल: । 

नकुल: सहदेवश्न पञ्चाला: सृज्जयास्तथा ।। ४६ ।। 

एते समाहितास्तात रक्षिष्यन्ति न संशय: । 

तात! पाँच भाई केकयराजकुमार, राक्षस घटोत्कच, विराट, ट्रपद, महारथी शिखण्डी, 
धृष्टकेतु, बलवान्‌ मामा कुन्तिभोज (पुरुजित), नकुल, सहदेव, पांचाल तथा सूंजय-वीरगण 
--ये सभी सावधान होकर निःसंदेह मेरी रक्षा करेंगे || ४५-४६ ३ ।। 

न द्रोण: सह सैन्येन कृतवर्मा च संयुगे ।। ४७ ।। 


समासादयितु शक्तो न च मां धर्षयिष्यति । 

सेनासहित द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा--ये युद्धस्थलमें मेरे पास नहीं पहुँच सकते और न 
मुझे परास्त ही कर सकेंगे || ४७६ ।। 

धृष्टय्युम्नश्व॒ समरे द्रोणं क़ुद्धं परंतप: ।। ४८ ।। 

वारयिष्यति विक्रम्य वेलेव मकरालयम्‌ । 

शत्रुओंको संताप देनेवाला धृष्टद्युम्न समरांगणमें कुपित हुए द्रोणाचार्यको पराक्रम 
करके रोक लेगा। ठीक वैसे ही, जैसे तटकी भूमि समुद्रको आगे बढ़नेसे रोक देती है ।। ४८ 
ई | 

यत्र स्थास्यति संग्रामे पार्षत: परवीरहा ।। ४९ ।। 

द्रोणो न सैन्यं बलवत्‌ क्रामेत्‌ तत्र कथंचन । 

जहाँ शत्रुवीरोंका संहार करनेवाला द्रुपदकुमार संग्रामभूमिमें खड़ा होगा, वहाँ मेरी 
प्रबल सेनापर द्रोणाचार्य किसी तरह आक्रमण नहीं कर सकते ।। 

एष द्रोणविनाशाय समुत्पन्नो हुताशनात्‌ ।। ५० ।। 

कवची स शरी खड्गी धन्वी च वरभूषण: । 

यह धृष्टद्युम्न, द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये कवच, धनुष, बाण, खड्ग और श्रेष्ठ 
आभूषणोंके साथ अग्निसे प्रकट हुआ है ।। ५०३ ।। 

विश्रब्धं गच्छ शैनेय मा कार्षीमयि सम्भ्रमम्‌ 

धृष्टय्युम्नो रणे क्रुद्धं द्रोणमावारयिष्यति ।। ५१ ।। 

अतः शिनिनन्दन! तुम निश्चिन्त होकर जाओ। मेरे लिये संदेह मत करो। धृष्टद्युम्न 
रणक्षेत्रमें कुपित हुए द्रोणाचार्यको सर्वथा रोक देगा || ५१ ।। 

इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरसात्यकिवाक्ये 
एकादशाधिकशततमो<ध्याय: ।। १११ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्ठिर और सात्यकिका 
संवादविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १११ ॥ 


ऑपन--माजल बछ। अ<-छऋा 


दादशाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिकी अर्जुनके पास जानेकी तैयारी और 
सम्मानपूर्वक विदा होकर उनका प्रस्थान तथा साथ 
आते हुए भीमको कक रक्षाके लिये लौटा 
ना 


संजय उवाच 
धर्मराजस्य तद्‌ वाक्‍्यं निशम्य शिनिपुड्भव: । 

स पार्थाद्‌ भयमाशंसन्‌ _परित्यागान्महीपते: ।। १ ।। 

अपवादं हाात्मनश्न लोकात्‌ पश्यन्‌ विशेषत: । 

ते मां भीतमिति ब्रूयुरायान्तं फाल्गुनं प्रति ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! धर्मराजका वह कथन सुनकर शिनिप्रवर 
सात्यकिके मनमें राजाको छोड़कर जानेसे अर्जुनके अप्रसन्न होनेकी आशंका 
उत्पन्न हुई। विशेषतः उन्हें अपने लिये लोकापवादका भय दिखायी देने लगा। वे 
सोचने लगे--मुझे अर्जुनकी ओर आते देख सब लोग यही कहेंगे कि यह डरकर 
भाग आया है ।। १-२ ।। 

निश्चित्य बहुधैवं स सात्यकिर्युद्धदुर्मद: । 

धर्मराजमिदं वाक्यमत्रवीत्‌ पुरुषर्षभ: ।। ३ ।। 

युद्धमें दुर्जय वीर पुरुषरत्न सात्यकिने इस प्रकार भाँति-भाँतिसे विचार 
करके धर्मराजसे यह बात कही-- ।। ३ || 

कृतां चेन्मन्यसे रक्षां स्वस्ति ते5स्तु विशाम्पते । 

अनुयास्यामि बीभत्सुं करिष्ये वचनं तव ।। ४ ।। 

'प्रजानाथ! यदि आप अपनी रक्षाकी व्यवस्था की हुई मानते हैं तो आपका 
कल्याण हो। मैं अर्जुनके पास जाऊँगा और आपकी आज्ञाका पालन 
करूँगा ।। ४ ।। 

न हि मे पाण्डवात्‌ वक्ित्‌ त्रिषु लोकेषु विद्यते । 

यो मे प्रियतरो राजन्‌ सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ५ ।। 

'राजन्‌! मैं आपसे सच कहता हूँ कि तीनों लोकोंमें कोई ऐसा पुरुष नहीं है, 
जो मुझे पाण्डुनन्दन अर्जुनसे अधिक प्रिय हो ।। ५ ।। 

तस्याहं पदवीं यास्ये संदेशात्‌ तव मानद । 


त्वत्कृते न च मे किंचिदकर्तव्यं कथंचन ।। ६ ।। 

“मानद! मैं आपके आदेश और संदेशसे अर्जुनके पथका अनुसरण करूँगा। 
आपके लिये कोई ऐसा कार्य नहीं है जिसे मैं किसी प्रकार न कर सकूँ ।। ६ ।। 

यथा हि मे गुरोरवाक्यं विशिष्टं द्विपदां वर । 

तथा तवापि वचन विशिष्टतरमेव मे ।। ७ ।। 

“नरश्रेष्ठ! मेरे गुरु अर्जुनका वचन मेरे लिये जैसा महत्त्व रखता है, आपका 
वचन भी वैसा ही है, बल्कि उससे भी बढ़कर है ।। ७ ।। 

प्रिये हि तव वर्तेते भ्रातरौ कृष्णपाण्डवौ । 

तयो: प्रिये स्थितं चैव विद्धि मां राजपुड़व ।। ८ ।। 

“नृपश्रेष्ठ! दोनों भाई श्रीकृष्ण और अर्जुन आपके प्रिय साधनमें लगे हुए हैं 
और उन दोनोंके प्रिय कार्यमें आप मुझे तत्पर जानिये ।। ८ ।। 

तवाज्ञां शिरसा गृह पाण्डवार्थमहं प्रभो । 

भिच््वेदं दुर्भिदं सैन्यं प्रयास्पे नरपुड़व ।। ९ ।। 

'प्रभो! नरश्रेष्ठ! मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके पाण्डुनन्दन अर्जुनके 
लिये इस दुर्भद्य सैन्यव्यूहका भेदनकर उनके पास जाऊँगा ।। ९ |। 

द्रोणानीकं विशाम्येष क्रुद्धो झष इवार्णवम्‌ । 

तत्र यास्यामि यत्रासौ राजन्‌ राजा जयद्रथ: ।। १० ।। 

'राजन्‌! जैसे महामत्स्य महासागरमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार मैं भी 
कुपित होकर द्रोणाचार्यकी सेनामें घुसता हूँ। मैं वहीं जाऊँगा जहाँ राजा जयद्रथ 
है ।। १० ।। 

यत्र सेनां समाश्रित्य भीतस्तिष्ठति पाण्डवात्‌ । 

गुप्तो रथवरश्रेष्ठैद्रॉणिकर्णकृपादिभि: ।। ११ ।। 

'पाण्डुनन्दन अर्जुनसे भयभीत हो अपनी सेनाका आश्रय लेकर जयद्रथ 
जहाँ अश्व॒त्थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महारथियोंसे सुरक्षित होकर 
खड़ा है वहीं मुझे पहुँचना है ।। ११ ।। 

इतस्त्रियोजनं मन्ये तमध्वानं विशाम्पते । 

यत्र तिष्ठति पार्थोडसौ जयद्रथवधोद्यत: ।। १२ ।। 

'प्रजापालक नरेश! इस समय जहाँ जयद्रथ-वधके लिये उद्यत हुए अर्जुन 
खड़े हैं, उस स्थानको मैं यहाँसे तीन योजन दूर मानता हूँ || १२ ।। 

त्रियोजनगतस्यापि तसस्‍्य यास्याम्यहं पदम्‌ । 

आसैन्धववधाद्‌ राजन सुदृढेनान्तरात्मना ।। १३ |। 

“राजन! अर्जुनके तीन योजन दूर चले जानेपर भी मैं जयद्रथ-वधके पहले 
ही सुदृढ़ हृदयसे अर्जुनके स्थानपर पहुँच जाऊँगा ।। १३ ।। 


अनादिष्टस्तु गुरुणा को नु युध्येत मानव: । 

आदिष्टस्तु यथा राजन्‌ को न युध्येत मादृश: ।। १४ ।। 

“नरेश्वर! गुरुकी आज्ञा प्राप्त हुए बिना कौन मनुष्य युद्ध करेगा और गुरुकी 
आज्ञा मिल जानेपर मेरे-जैसा कौन वीर युद्ध नहीं करेगा? ।। १४ ।। 

अभिजानामि त॑ देशं यत्र यास्याम्यहं प्रभो । 

हलशक्तिगदाप्रासचर्मखड््‌गर्धितोमरम्‌ ।। १५ ।। 

इष्वस्त्रवरसम्बाधं क्षोभयिष्ये बलार्णवम्‌ | 

'प्रभो! मुझे जहाँ जाना है, उस स्थानको मैं जानता हूँ। वह हल, शक्ति, गदा, 
प्रास, ढाल, तलवार, ऋष्टि और तोमरोंसे भरा है। श्रेष्ठ धनुष-बाणोंसे परिपूर्ण 
शत्रु-सैन्यरूपी महासागरको मैं मथ डालूँगा || १५३ ।। 

यदेतत्‌ कुञ्जरानीकं॑ साहस्रमनुपश्यसि ।। १६ ।। 

कुलमाञ्जनकं नाम यत्रैते वीर्यशालिन: । 

आस्थिता बहुभिम्लेंच्छैर्युद्धशौण्डै: प्रहारिभि: ।। १७ ।। 

“महाराज! यह जो आप हजारों हाथियोंकी सेना देखते हैं, इसका नाम है 
आंजनककुल। इसमें पराक्रमशाली गजराज खड़े हैं, जिनके ऊपर प्रहारकुशल 
और युद्धनिपुण बहुत-से म्लेच्छ योद्धा सवार हैं ।। १६-१७ ।। 

नागा मेघनिभा राजन्‌ क्षरन्त इव तोयदा: । 

नैते जातु निवर्तेरन्‌ प्रेषिता हस्तिसादिभि: ।। १८ ।। 

अन्यत्र हि वधादेषां नास्ति राजन्‌ पराजय: । 

'राजन्‌! ये हाथी मेघोंकी घटाके समान दिखायी देते हैं और पानी 
बरसानेवाले बादलोंके समान मदकी वर्षा करते हैं। हाथीसवारोंके हाँकनेपर ये 
कभी युद्धसे पीछे नहीं हटते हैं। महाराज! वधके अतिरिक्त और किसी उपायसे 
इनकी पराजय नहीं हो सकती ।। १८३ ।। 

अथ यान्‌ रथिनो राजन्‌ सहस्रमनुपश्यसि ।। १९ ।। 

एते रुक्मरथा नाम राजपुत्रा महारथा: । 

रथेष्वस्त्रेषु निपुणा नागेषु च विशाम्पते || २० ।। 

“राजन! आप जिन सहस्रों रथियोंको देख रहे हैं, ये रुक्मरथ नामवाले 
महारथी राजकुमार हैं। प्रजानाथ! ये रथों, अस्त्रों और हाथियोंके संचालनमें भी 
निपुण हैं ।। 

धनुर्वेदे गता: पारं मुष्टियुद्धे च कोविदा: । 

गदायुद्धविशेषज्ञा नियुद्धकुशलास्तथा ।। २१ ।। 

'ये सब-के-सब थधरनुर्वेदके पारंगत दिद्वान्‌ हैं। मुष्टियुद्धमें भी निपुण हैं, 
गदायुद्धके विशेषज्ञ हैं और मल्लयुद्धमें भी कुशल हैं || २१ ।। 


खड्गप्रहरणे युक्ता: सम्पाते चासिचर्मणो: । 

शूराश्व कृतविद्याश्च स्पर्थन्ते च परस्परम्‌ || २२ ।। 

“तलवार चलानेका भी इन्हें अच्छा अभ्यास है। ये ढाल, तलवार लेकर 
विचरनेमें समर्थ हैं। शूर और अस्त्र-शस्त्रोंके विद्वान होनेके साथ ही परस्पर 
स्पर्धा रखते हैं | २२ ।। 

नित्यं हि समरे राजन्‌ विजिगीषन्ति मानवान्‌ | 

कर्णेन विहिता राजन्‌ दुःशासनमनुव्रता: ।। २३ ।। 

“नरेश्वर! ये सदा समरभूमिमें मनुष्योंको जीतनेकी इच्छा रखते हैं। महाराज! 
कर्णने इन्हें दःशासनका अनुगामी बना रखा है ।। २३ ।। 

एतांस्‍्तु वासुदेवो5पि रथोदारान्‌ प्रशंसति । 

सतत प्रियकामाश्ष्‌ कर्णस्यैते वशे स्थिता: ।। २४ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी इन श्रेष्ठ महारथियोंकी प्रशंसा करते हैं, ये सब-के-सब 
कर्णके वशमें स्थित हैं और सदा उसका प्रिय करनेकी अभिलाषा रखते 
हैं ।। २४ ।। 

तस्यैव वचनाद्‌ राजन निवृत्ता: श्वेतवाहनात्‌ । 

ते न क्लान्ता न च श्रान्ता दृढावरणकार्मुका: ।। २५ || 

'राजन्‌! कर्णके ही कहनेसे ये अर्जुनकी ओरसे इधर लौट आये हैं। इनके 
कवच और धनुष अत्यन्त सुदृढ़ हैं। वे न तो थके हैं और न पीड़ित ही हुए 
हैं ।। २५ ।। 

मदर्थेड्धिछिता नून॑ धार्तराष्ट्रस्य शासनात्‌ । 

एतान्‌ प्रमथ्य संग्रामे प्रियार्थ तव कौरव ।। २६ ।। 

प्रयास्यामि तत: पश्चात्‌ पदवीं सव्यसाचिन: । 

'दुर्योधनके आदेशसे ये निश्चय ही मुझसे युद्ध करनेके लिये खड़े हैं। 
कुरुनन्दन! मैं आपका प्रिय करनेके लिये इन सबको संग्राममें मथकर सव्यसाची 
अर्जुनके मार्गपर जाऊँगा ।। २६६ ।। 

यांस्त्वेतानपरान्‌ राजन्‌ नागान्‌ सप्त शतानिमान्‌ ।। २७ ।। 

प्रेक्षसे वर्मसंछन्नानू किरातैः समधिष्ठितान्‌ । 

किरातराजो यानू्‌ प्रादाद्‌ द्विरदान्‌ सव्यसाचिन: ।। २८ ।। 

स्वलंकृतांस्तदा प्रेष्पानिच्छन्‌ जीवितमात्मन: । 


“महाराज! जिन दूसरे इन सात सौ हाथियोंको आप देख रहे हैं, जो कवचसे 
आच्छादित हैं और जिनपर किरात योद्धा चढ़े हुए हैं, ये वे ही हाथी हैं, जिन्हें 
दिग्विजयके समय अपने प्राण बचानेकी इच्छा रखकर किरातराजने सव्यसाची 
अर्जुनको भेंट किया था। ये सजे-सजाये हाथी उन दिनों आपके सेवक 
थे ।। २७-२८ ३ ।। 

आनम्ेते पुरा राज॑स्तव कर्मकरा दृढम्‌ ।। २९ |। 

त्वामेवाद्य युयुत्सन्ते पश्य कालस्य पर्ययम्‌ । 

“महाराज! यह कालचक्रका परिवर्तन तो देखिये--जो पूर्वकालमें 
दृढ़तापूर्वक आपकी सेवा करनेवाले थे, वे आज आपफसे ही युद्ध करना चाहते 
हैं ।। २९६ ।। 

एषामेते महामात्रा: किराता युद्धदुर्मदा: ।। ३० ।। 

हस्तिशिक्षाविदश्नैव सर्वे चैवाग्नियोनय: । 

एते विनिर्जिता: संख्ये संग्रामे सव्यसाचिना ।। ३१ ।। 

'ये रणदुर्मद किरात इन हाथियोंके महावत और इन्हें शिक्षा देनेमें कुशल हैं। 
ये सब-के-सब अग्निसे उत्पन्न हुए हैं। सव्यसाची अर्जुनने इन सबको 
संग्रामभूमिमें पराजित कर दिया था | ३०-३१ ।। 

मदर्थमद्य संयत्ता दुर्योधनवशानुगा: । 

एतान्‌ हत्वा शरै राजन्‌ किरातान्‌ युद्धदुर्मदान्‌ ।। ३२ ।। 

सैन्धवस्य वधे यत्तमनुयास्यामि पाण्डवम्‌ | 

'राजन्‌! आज दुर्योधनके वशीभूत होकर ये मेरे साथ युद्ध करनेको तैयार 
खड़े हैं। इन रणदुर्मद किरातोंका अपने बाणोंद्वारा संहार करके मैं सिंधुराजके 
वधके प्रयत्नमें लगे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुनके पास जाऊँगा ।। ३२३६ || 

ये त्वेते सुमहानागा अञ्जनस्य कुलोद्धवा: ।। ३३ ।। 

कर्कशाश्च विनीताश्च प्रभिन्नकरटामुखा: । 

जाम्बूनदमयै: सर्वे वर्मभि: सुविभूषिता: ।। ३४ ।। 

लब्धलक्ष्या रणे राजन्नैरावणसमा युधि । 

उत्तरात्‌ पर्वतादेते ती4&णैर्दस्युभिरास्थिता: ।। ३५ ।। 

'ये जो बड़े-बड़े गजराज दृष्टिगोचर हो रहे हैं, ये अंजन नामक दिग्गजके 
कुलमें उत्पन्न हुए हैं-। इनका स्वभाव बड़ा ही कठोर है। इन्हें युद्धकी अच्छी 
शिक्षा मिली है। इनके गण्डस्थल और मुखसे मदकी धारा बहती रहती है। वे 
सब-के-सब सुवर्णमय कवचोंसे विभूषित हैं। राजन्‌! ये पहले भी युद्धस्थलमें 
अपने लक्ष्यपर विजय पा चुके हैं और समरांगणमें ऐरावतके समान पराक्रम 


प्रकट करते हैं। उत्तर पर्वत (हिमालय-प्रदेश)-से आये हुए तीखे स्वभाववाले 
लुटेरे और डाकू इन हाथियोंपर सवार हैं || ३३--३५ ।। 

कर्कशै: प्रवरै्योधै: कार्ष्णायसतनुच्छदै: । 

सन्ति गोयोनयश्नात्र सन्ति वानरयोनय: ।। ३६ ।। 

अनेकयोनयश्चान्ये तथा मानुषयोनय: । 

'वे कर्कश स्वभाववाले तथा श्रेष्ठ योद्धा हैं। उन्होंने काले लोहेके बने हुए 
कवच धारण कर रखे हैं। उनमेंसे बहुत-से दस्यु गायोंके पेटसे उत्पन्न हुए हैं। 
कितने ही बंदरियोंकी संतानें हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें अनेक योनियोंका 
सम्मिश्रण है तथा कितने ही मानव-संतान भी हैं | ३६६ ।। 

अनीकं समवेतानां धूम्रवर्णमुदीर्यते |। ३७ ।। 

म्लेच्छानां पापकर्तुणां हिमदुर्गनिवासिनाम्‌ । 

“यहाँ एकत्र हुए हिमदुर्गनिवासी पापाचारी म्लेच्छोंकी यह सेना धूएँके समान 
काली प्रतीत होती है || ३७३ ।। 

एतद्‌ दुर्योधनो लब्ध्वा समग्र राजमण्डलम्‌ ।॥। ३८ ।। 

कृपं च सौमदत्तिं च द्रोणं च रथिनां वरम्‌ | 

सिन्धुराजं तथा कर्णमवमन्यत पाण्डवान्‌ ।। ३९ ।। 

कृतार्थमथ चात्मानं मन्‍्यते कालचोदित: । 

“कालसे प्रेरित हुआ दुर्योधन इन समस्त राजाओंके समुदायको तथा 
रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, जयद्रथ और कर्णको पाकर 
पाण्डवोंका अपमान करता है तथा अपने-आपको कृतार्थ मान रहा 
है || ३८-३९ ६ || 

ते तु सर्वेड्द्य सम्प्राप्ता मम नाराचगोचरम्‌ ।। ४० ।। 

न विमोक्ष्यन्ति कौन्तेय यद्यपि स्युर्मनोजवा: । 

“कुन्तीनन्दन! वे सब लोग आज मेरे नाराचोंके लक्ष्य बने हुए हैं। वे मनके 
समान वेगशाली हों तो भी मेरे हाथोंसे छूट नहीं सकेंगे || ४० ३ ।। 

तेन सम्भाविता नित्यं परवीर्योपजीविना ।। ४१ ।। 

विनाशमुपयास्यन्ति मच्छरौघनिपीडिता: । 

'दूसरोंके बलपर जीनेवाले दुर्योधनने इन सब लोगोंका सदा आदसरपूर्वक 
भरण-पोषण किया है; परंतु ये मेरे बाणसमूहोंसे पीड़ित होकर आज विनष्ट हो 
जायँगे ।। ४१३ ।। 

ये त्वेते रथिनो राजन्‌ दृश्यन्ते काड्चनध्वजा: ।। ४२ ।। 

एते दुर्वारणा नाम काम्बोजा यदि ते श्रुता: । 


“राजन! ये जो सोनेकी ध्वजावाले रथी दिखायी देते हैं, ये दुर्वारण नामवाले 
काम्बोज सैनिक हैं। आपने इनका नाम सुना होगा ।। ४२३ ।। 

शूराश्व कृतविद्याश्व धनुर्वेदे च निछ्ठिता: ।। ४३ ।। 

संहताश्न भशं होते अन्योन्यस्य हितैषिण: । 

'ये शूर, विद्वान्‌ तथा धरनुर्वेदमें परिनिष्ठित हैं। इनमें परस्पर बड़ा संगठन है। 
ये एक-दूसरेका हित चाहनेवाले हैं ।। ४३ ३ ।। 

अक्षौहिण्यश्व संरब्धा धार्तराष्ट्स्य भारत ।। ४४ ।। 

यत्ता मदर्थे तिष्ठन्ति कुरुवीराभिरक्षिता: । 

अप्रमत्ता महाराज मामेव प्रत्युपस्थिता: ।। ४५ ।। 

“भरतनन्दन! दुर्योधनकी क्रोधमें भरी हुई ये कई अक्षौहिणी सेनाएँ 
कौरववीरोंसे सुरक्षित हो मेरे लिये तैयार खड़ी हैं। महाराज! ये सब सावधान 
होकर मुझपर ही आक्रमण करनेवाली हैं || ४४-४५ ।। 

तानहं प्रमथिष्यामि तृणानीव हुताशन: । 

तस्मात्‌ सर्वानुपासंगान्‌ सर्वोपकरणानि च ।। ४६ ।। 

रथे कुर्वन्तु मे राजन्‌ यथावद्‌ रथकल्पका: । 

'परंतु जैसे आग तिनकोंको जला डालती है, उसी प्रकार मैं उन समस्त 
कौरव-सैनिकोंको मथ डालूँगा। अतः राजन्‌! रथको सुसज्जित करनेवाले लोग 
आज मेरे रथपर यथावत्‌ रूपसे भरे हुए तरकसों तथा अन्य सब आवश्यक 
उपकरणोंको रख दें || ४६३ ।। 

अस्मिंस्तु किल सम्मर्दे ग्राह्में विविधमायुधम्‌ ।। ४७ ।। 

यथोपदिष्टमाचार्य: कार्य: पजचगुणो रथ: । 

“इस संग्राममें नाना प्रकारके आयुधोंका उसी प्रकार संग्रह कर लेना चाहिये, 
जैसा कि आचार्योने उपदेश किया है। रथपर रखी जानेवाली युद्धसामग्री पहलेसे 
पाँचगुनी कर देनी चाहिये || ४७६ ।। 

काम्बोजै्हि समेष्यामि तीक्ष्णराशीविषोपमै: ।। ४८ ।। 

नानाशस्त्रसमावायैर्विविधायुधयोधिभि: । 

“आज मैं विषधर सर्पके समान क्रूर स्वभाववाले उन काम्बोज-सैनिकोंके 
साथ युद्ध करूँगा, जो नाना प्रकारके शस्त्रसमुदायोंसे सम्पन्न और भाँति- 
भाँतिके आयुधोंद्वारा युद्ध करनेमें कुशल हैं ।। ४८ ई ।। 

किरातैश्न समेष्यामि विषकल्पै: प्रहारिभि: ।। ४९ ।। 

लालितै: सतत राज्ञा दुर्योधनहितैषिभि: । 


“दुर्योधनका हित चाहनेवाले और विषके समान घातक उन प्रहारकुशल 
किरात-योद्धाओंके साथ भी संग्राम करूँगा, जिनका राजा दुर्योधनने सदा ही 
लालन-पालन किया है ।। ४९३ ।। 

शकैश्नापि समेष्यामि शक्रतुल्यपराक्रमै: ।। ५० ।। 

अग्निकल्पैर्दरा धर्ष: प्रदीप्तिरिव पावकै: । 

'प्रजलित अग्निके समान तेजस्वी, दुर्धर्ष एवं इन्द्रके समान पराक्रमी 
शकोंके साथ भी आज मैं भिड़ जाऊँगा ।। ५०६ ।। 

तथान्यैरविविधैर्योचै: कालकल्पैर्दुरासदै: ।। ५१ ।। 

समेष्यामि रणे राजन्‌ बहुभिरययुद्धदुर्मदै: । 

'राजन्‌! इनके सिवा और भी जो नाना प्रकारके बहुसंख्यक युद्धदुर्मद, 
कालके तुल्य भयंकर तथा दुर्जय योद्धा हैं, रणक्षेत्रमें उन सबका सामना 
करूँगा || ५१ है || 

तस्माद्‌ वै वाजिनो मुख्या विश्रान्ता: शुभलक्षणा: ।। ५२ ।। 

उपावत्ताश्न पीताश्न पुनर्युज्यन्तु मे रथे । 

“इसलिये उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न श्रेष्ठ घोड़े, जो विश्राम कर चुके हों, जिन्हें 
ट॒हलाया गया हो और पानी भी पिला दिया गया हो, पुनः मेरे रथमें जोते 
जायूँ || ५२३ ।। 

संजय उवाच 

तस्य सर्वानुपासंगान्‌ सर्वोपकरणानि च ।। ५३ ।। 

रथे चास्थापयद्‌ राजा शस्त्राणि विविधानि च | 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर राजा युधिष्ठटिरने सात्यकिके रथपर 
भरे हुए तरकसों, समस्त उपकरणों तथा भाँति-भाँतिके शस्त्रोंको रखवा 
दिया || ५३६ ।। 

ततस्तानू सर्वतो युक्तान्‌ सदश्वां श्वतुरो जना: ।। ५४ ।। 

रसवत्‌ पाययामासु: पान॑ मदसमीरणम्‌ | 

तदनन्तर सब प्रकारसे सुशिक्षित उन चारों उत्तम घोड़ोंको सेवकोंने मदमत्त 
बना देनेवाला रसीला पेय पदार्थ पिलाया || ५४ $ ।। 

पीतोपवृत्तान्‌ स्नातांश्व॒ जग्धान्नानू समलंकृतान्‌ ।। ५५ ।। 

विनीतशल्यांस्तुरगां श्षतुरो हेममालिन: । 

तान्‌ युक्तान्‌ रुक्मवर्णाभान्‌ विनीतान्‌ शीघ्रगामिन: ।। ५६ ।। 

संहृष्टमनसो व्यग्रान्‌ विधिवत्कल्पितान्‌ रथे । 

महाध्वजेन सिंहेन हेमकेसरमालिना ।। ५७ |। 


संवृते केतकैहेंमैर्मणिविद्रुमचित्रितै: । 

पाण्डुरा भ्रप्रकाशाभि: पताकाभिरलंकृते ।। ५८ ।। 

हेमदण्डोच्छ्ितच्छत्रे बहुशस्त्रपरिच्छदे । 

योजयामास विधिवद्धेमभाण्डविभूषितान्‌ ।। ५९ |। 

जब वे पी चुके तो उन्हें टहलाया और नहलाया गया। उसके बाद दाना और 
चारा खिलाया गया। फिर उन्हें सब प्रकारसे सुसज्जित किया गया। उनके 
अंगोंमें गड़े हुए बाण पहले ही निकाल दिये गये थे। वे चारों घोड़े सोनेकी 
मालाओंसे विभूषित थे। उन योग्य अश्वोंकी कान्ति सुवर्णके समान थी। वे 
सुशिक्षित और शीघ्रगामी थे। उनके मनमें हर्ष और उत्साह था। तनिक भी 
व्यग्रता नहीं थी। उन्हें विधिपूर्वक सजाया गया था। स्वर्णमय अलंकारोंसे 
अलंकृत उन अभश्वोंको सारथिने विधिपूर्वक रथमें जोता। वह रथ सुवर्णमय 
केशरोंसे सुशोभित सिंहके चिह्लवाले विशाल ध्वजसे सम्पन्न था। मणियों और 
मूँगोंसे चित्रित सोनेकी शलाकाओंसे शोभायमान एवं श्वेत पताकाओंसे अलंकृत 
था। उस रथके ऊपर स्वर्णमय दण्डसे विभूषित छत्र तना हुआ था तथा रथके 
भीतर नाना प्रकारके शस्त्र तथा अन्य आवश्यक सामान रखे गये थे ।। ५५-- 
५९ || 

दारुकस्यानुजो भ्राता सूतस्तस्य प्रिय: सखा । 

न्यवेदयद्‌ रथं युक्त वासवस्येव मातलि: ।। ६० ।। 

जैसे मातलि इन्द्रका सारथि और सखा भी है, उसी प्रकार दारुकका छोटा 
भाई सात्यकिका सारथि और प्रिय सखा था। उसने सात्यकिको यह सूचना दी 
कि रथ जोतकर तैयार है ।। ६० ।। 

ततः स्नात: शुचिर्भूत्वा कृतकौतुकमज़ल: । 

स्‍्नातकानां सहस्रस्य स्वर्णनिष्कानथो ददौ ।। ६१ ।। 

तदनन्तर सात्यकिने स्नान करके पवित्र हो यात्राकालिक मंगलकृत्य सम्पन्न 
करनेके पश्चात्‌ एक सहसख्र स्नातकोंको सोनेकी मुद्राएँ दान कीं ।। ६१ ।। 

आशीवदि: परिष्वक्तः सात्यकि: श्रीमतां वर: । 

ततः स मधुपर्कार्ह: पीत्वा कैलातकं मधु । ६२ ।। 

लोहिताक्षो बभौ तत्र मदविद्वललोचन: । 

आलकभ्य वीरकांस्यं च हर्षण महतान्वित: ।। ६३ ।। 

द्विगुणीकृततेजा हि प्रज्वलन्निव पावक: । 

उत्सड्गे धनुरादाय सशरं रथिनां वर: ।। ६४ ।। 

कृतस्वस्त्ययनो विप्रै: कवची समलंकृतः । 

लाजैर्गन्धैस्तथा माल्यै: कन्याभिक्षाभिनन्दित: ।। ६५ || 


ब्राह्मणोंके आशीर्वाद पाकर तेजस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ एवं मधुपर्कके अधिकारी 
सात्यकिने कैलातक नामक मधुका पान किया। उसे पीते ही उनकी आँखें लाल 
हो गयीं। मदसे नेत्र चंचल हो उठे, फिर उन्होंने अत्यन्त हर्षमें भरकर 
वीरकांस्यपात्रका स्पर्श किया। उस समय प्रज्वलित अग्निके समान रथियोंमें 
श्रेष्ठ सात्यकिका तेज दूना हो गया। उन्होंने बाणसहित धनुषको गोदमें लेकर 
ब्राह्मणोंके मुखसे स्वस्तिवाचनका कार्य सम्पन्न कराकर कवच एवं आभूषण 
धारण किये, फिर कुमारी कन्याओंने लावा, गन्ध तथा पुष्पमालाओंसे उनका 
पूजन एवं अभिनन्दन किया || ६२--६५ ।। 

युधिष्ठटिरस्थ चरणावभिवाद्य कृताञ्जलि: । 

तेन मूर्थन्युपाप्रात आरुरोह महारथम्‌ ।। ६६ ।। 

इसके बाद सात्यकिने हाथ जोड़कर युधिष्ठिरके चरणोंमें प्रणाम किया और 
युधिष्ठिरने उनका मस्तक सूँघा। फिर वे उस विशाल रथपर आखरूढ़ हो 
गये ।। ६६ ।। 

ततस्ते वाजिनो हृष्टा: सुपुष्टा: वातरंहस: । 

अजय्या जैत्रमूहुस्तं विकुर्वाणा: सम सैन्धवा: ।। ६७ ।। 

तदनन्तर वे हृष्ट-पुष्ट वायुके समान वेगशाली एवं अजेय सिंधुदेशीय घोड़े 
मदमत्त हो उस विजयशील रथको लेकर चल दिये ।। ६७ ।। 

तथैव भीमसेनो<पि धर्मराजेन पूजित: । 

प्रायात्‌ सात्यकिना सार्थमभिवाद्य युधिष्टिरम्‌ । ६८ ।। 

इसी प्रकार धर्मराजसे सम्मानित भीमसेन भी युधिष्ठिरको प्रणाम करके 
सात्यकिके साथ चले ।। ६८ ।। 

तौ दृष्टवा प्रविविक्षन्ती तव सेनामरिंदमौ । 

संयत्तास्तावका: सर्वे तस्थुद्रोणपुरोगमा: ।। ६९ ।। 

उन दोनों शत्रुदमन वीरोंको आपकी सेनामें प्रवेश करनेके लिये इच्छुक देख 
ट्रोणाचार्य आदि आपके सारे सैनिक सावधान होकर खड़े हो गये ।। ६९ |। 

संनद्धमनुगच्छन्तं दृष्टवा भीमं स सात्यकि: । 

अभिनन्द्राब्रवीद्‌ वीरस्तदा हर्षकरं वच: ।। ७० || 

उस समय भीमसेनको कवच आदिसे सुसज्जित होकर अपने पीछे आते 
देख उनका अभिनन्दन करके वीर सात्यकिने उनसे यह हर्षवर्धक वचन कहा 
-- || ७० || 

त्वं भीम रक्ष राजानमेतत्‌ कार्यतमं हि ते । 

अहं भित्त्वा प्रवेक्ष्यामि कालपक्वमिदं बलम्‌ ।। ७१ ।। 


'भीमसेन! तुम राजा युधिष्ठिरकी रक्षा करो। यही तुम्हारे लिये सबसे महान्‌ 
कार्य है। जिसे कालने राँधकर पका दिया है, इस कौरव-सेनाको चीरकर मैं 
भीतर प्रवेश कर जाऊँगा ।। ७१ ।। 

आयत्यां च तदात्वे च श्रेयो राज्ञोडभिरक्षणम्‌ | 

जानीषे मम वीर्य त्वं तव चाहमरिंदम ।। ७२ ।। 

तस्माद्‌ भीम निवर्तस्व मम चेदिच्छसि प्रियम्‌ । 

“शत्रुदमन वीर! इस समय और भविष्यमें भी राजाकी रक्षा करना ही 
श्रेयस्कर है। तुम मेरा बल जानते हो और मैं तुम्हारा। अतः भीमसेन! यदि तुम 
मेरा प्रिय करना चाहते हो तो लौट जाओ || ७२६ ।। 

तथोक्त: सात्यकिं प्राह व्रज त्वं कार्यसिद्धये ।। ७३ ।। 

अहं राज्ञ: करिष्यामि रक्षां पुरुषसत्तम | 

सात्यकिके ऐसा कहनेपर भीमसेनने उनसे कहा--'अच्छा भैया! तुम 
कार्यसिद्धिके लिये आगे बढ़ो। पुरुषप्रवर! मैं राजाकी रक्षा करूँगा” || ७३ $ ।। 

एवमुक्त: प्रत्युवाच भीमसेनं स माधव: ।। ७४ ।। 

गच्छ गच्छ ध्रुवं पार्थ ध्रुवी हि विजयो मम । 

भीमसेनके ऐसा कहनेपर सात्यकिने उनसे कहा--“कुन्तीकुमार! तुम 
जाओ। निश्चय ही लौट जाओ। मेरी विजय अवश्य होगी || ७४ ६ ।। 

यन्मे गुणानुरक्तश्न त्वमद्य वशमास्थित: ।। ७५ ।। 

निमित्तानि च धन्यानि यथा भीम वदन्ति माम्‌ । 

निहते सैन्धवे पापे पाण्डवेन महात्मना ।। ७६ ।। 

परिष्वजिष्ये राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्‌ । 

'भीमसेन! तुम जो मेरे गुणोंमें अनुरक्त होकर मेरे वशमें हो गये हो तथा इस 
समय दिखायी देनेवाले शुभ शकुन मुझे जैसी बात बता रहे हैं, इससे जान 
पड़ता है कि महात्मा अर्जुनके द्वारा पापी जयद्रथके मारे जानेपर मैं निश्चय ही 
लौटकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरका आलिंगन करूँगा” || ७५-७६ ३ || 

एतावदुक्त्वा भीम॑ तु विसृज्य च महायशा: || ७७ ।। 

सम्प्रैक्षत्‌ तावकं सैन्यं व्याप्रो मृगगणानिव । 

भीमसेनसे ऐसा कहकर उन्हें विदा करनेके पश्चात्‌ महायशस्वी सात्यकिने 
आपकी सेनाकी ओर उसी प्रकार देखा, जैसे बाघ मृगोंके झुंडकी ओर देखता 
है ।। ७७३ || 

त॑ं दृष्टवा प्रविविक्षन्तं सैन्यं तव जनाधिप ।। ७८ ।। 

भूय एवाभवन्मूढं सुभृशं चाप्यकम्पत । 


नरेश्वर! सात्यकिको अपने भीतर प्रवेश करनेके लिये उत्सुक देख आपकी 
सेनापर पुनः: मोह छा गया और वह बारंबार काँपने लगी || ७८ | ।। 

ततः प्रयात: सहसा तव सैन्यं स सात्यकि: ।। ७९ ।। 

दिदृक्षुरर्जुनं राजन्‌ धर्मराजस्य शासनात्‌ । 

राजन्‌! तदनन्तर धर्मराजकी आज्ञाके अनुसार अर्जुनसे मिलनेके लिये 
सात्यकि आपकी सेनाकी ओर वेगपूर्वक बढ़े || ७९३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिक््रवेशे 
दादशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका 
कौरव-सेनामें प्रवेशविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११२ ॥ 


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> अंजनके कुलमें उत्पन्न हुए हाथियोंका लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है-- 
स्निग्धनीलाम्बुदप्रख्या बलिनो विपुलै: करै: । सुविभक्तमहाशीर्षा: 
करिणो5ज्जनवंशजा: ।। 
“स्निग्ध एवं नील-वर्णके मेघोंकी घटाके समान काले, बलवान, विशाल शुण्डदण्डसे 
सुशोभित तथा सुन्दर विभागयुक्त विशाल मस्तकवाले हाथी अंजनकुलकी संतानें हैं।' 


त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिका द्रोण और हक साथ युद्ध करते हुए 
काम्बोजोंकी पास पहुँचना 


संजय उवाच 
प्रयाते तव सैन्यं तु युयुधाने युयुत्सया । 
धर्मराजो महाराज स्वेनानीकेन संवृत: ।। १ ।। 
प्रायाद्‌ द्रोणरथं प्रेप्सुर्युयुधानस्य पृष्ठत: । 


संजय कहते हैं--महाराज! जब युयुधान युद्धकी इच्छासे आपकी सेनाकी ओर बढ़े, 
उस समय अपने सैनिकोंसे घिरे हुए धर्मराज युधिष्छिर द्रोणाचार्यके रथका सामना करनेके 
लिये उनके पीछे-पीछे गये ।। १६ ।। 

तत: पाञउ्चालराजस्य पुत्र: समरदुर्मद: ।। २ ।। 

प्राक्रोशत्‌ पाण्डवानीके वसुदानश्च पार्थिव: । 

आगच्छत प्रहरत द्रुतं विपरिधावत ।। ३ ।। 

यथा सुखेन गच्छेत सात्यकिर्युद्धदुर्मद: । 

महारथा हि बहवो यतिष्यन्त्यस्य निर्जये ।। ४ ।। 

तदनन्तर समरभूमिमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न तथा राजा 
वसुदानने पाण्डवसेनामें पुकारकर कहा--'योद्धाओ! आओ , दौड़ो और शीचघ्रतापूर्वक प्रहार 
करो, जिससे रणदुर्मद सात्यकि सुखपूर्वक आगे जा सकें; क्योंकि बहुत-से कौरव महारथी 
इन्हें पराजित करनेका प्रयत्न करेंगे” || २--४ ।। 

इति ब्रुवन्तो वेगेन निपेतुस्ते महारथा: । 

वयं प्रतिजिगीषन्तस्तत्र तान्‌ समभिद्रुता: ।। ५ ।। 

सेनापतिकी पूर्वोक्त बात दुहराते हुए सभी पाण्डव महारथी बड़े वेगसे वहाँ आ पहुँचे। 
उस समय हमलोगोंने भी उन्हें जीतनेकी अभिलाषासे उनपर धावा कर दिया ।। ५ |। 

(बाणशब्दरवान्‌ कृत्वा विमिश्रान्‌ शड्खनिस्वनै: । 

युयुधानरथं दृष्टवा तावका अभिदुद्रुवु: ।।) 

युयुधानके रथको देखकर आपके सैनिक शंखध्वनिसे मिश्रित बाणोंका शब्द प्रकट 
करते हुए उनके सामने दौड़े आये ।। 

ततः: शब्दो महानासीद्‌ युयुधानरथं प्रति । 

आकीर्यमाणा धावन्ती तव पुत्र॒स्य वाहिनी । ६ ।। 

सात्वतेन महाराज शतधाभिव्यशीर्यत । 


तदनन्तर सात्यकिके रथके समीप महान्‌ कोलाहल मच गया। महाराज! चारों ओरसे 
दौड़कर आती हुई आपके पुत्रकी सेना सात्यकिके बाणोंसे आच्छादित हो सैकड़ों 
टुकड़ियोंमें बँटकर तितत-बितर हो गयी ।। ६६ ।। 

तस्यां विदीर्यमाणायां शिने: पौत्रो महारथ: ।॥ ७ || 

सप्त वीरान्‌ महेष्वासानग्रानीकेष्वपोथयत्‌ । 

उस सेनाके छिलन्न-भिन्न होते ही शिनिके महारथी पौत्रने सेनाके मुहानेपर खड़े हुए सात 
महाधनुर्धर वीरोंको मार गिराया ।। ७६ ।। 

अथान्यानपि राजेन्द्र नानाजनपदेश्वरान्‌ ।। ८ ।॥। 

शरैरनलसंकाशैरनिन्ये वीरान्‌ यमक्षयम्‌ | 

राजेन्द्र! तदनन्तर विभिन्न जनपदोंके स्वामी अन्यान्य वीर राजाओंको भी उन्होंने अपने 
अग्निसदृश बाणोंद्वारा यमलोक पहुँचा दिया || ८३ ।। 

शतमेकेन विव्याध शतेनैकं च पत्रिणाम्‌ । ९ ।। 

द्विपारोहान ड्विपांश्चैव हयारोहान्‌ हयांस्तथा । 

रथिन:ः साश्वसूतांश्व जघानेश: पशूनिव ।। १० ।। 

वे एक बाणसे सैकड़ों वीरोंको और सैकड़ों बाणोंसे एक-एक वीरको घायल करने 
लगे। जिस प्रकार भगवान्‌ पशुपति पशुओंका संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार सात्यकिने 
हाथीसवारों और हाथियोंको, घुड़सवारों और घोड़ोंको तथा घोड़े और सारथिसहित 
रथियोंको मार डाला || ९-१० ।। 

त॑ तथाद्भुतकर्माणं शरसम्पातवर्षिणम्‌ | 

न केचनाभ्यधावन्‌ वै सात्यकिं तव सैनिका: ।। ११ ।। 

इस प्रकार बाणधाराकी वर्षा करनेवाले उस अद्भुत पराक्रमी सात्यकिके सामने 
जानेका साहस आपके कोई सैनिक न कर सके ।। ११ ।। 

ते भीता मृद्यमानाश्ष प्रमृष्टा दीर्घबाहुना । 

आयोधनं जहुर्वीरा दृष्टवा तमतिमानिनम्‌ ।। १२ ।। 

उस महाबाहु वीरने अपने बाणोंसे रौंदकर आपके सारे सिपाहियोंको मसल डाला। वे 
वीर सिपाही ऐसे डर गये कि उस अत्यन्त मानी शूरवीरको देखते ही युद्धका मैदान छोड़ 
देते थे । १२ ।। 

तमेकं॑ बहुधापश्यन्‌ मोहितास्तस्य तेजसा । 

रथैरविमथितैश्वैव भग्ननीडैश्व मारिष ।। १३ || 

चक्रैविमथितैश्छत्रैर्ध्वजैश्न विनिपातितै: । 

अनुकर्ष: पताकाभि: शिरस्त्राणै: सकाउ्चनै: ।। १४ ।। 

बाहुभिश्वन्दनादिग्धैः साड्गदैश्व विशाम्पते । 

हस्तिहस्तोपमैश्वापि भुजज्राभोगसंनिभै: ।। १५ ।। 


ऊरुभि: पृथिवी च्छन्ना मनुजानां नराधिप । 

माननीय नरेश! सारे कौरव-सैनिक सात्यकिके तेजसे मोहित हो अकेले होनेपर भी 
उन्हें अनेक रूपोंमें देखने लगे। वहाँ बहुसंख्यक रथ चूर-चूर हो गये थे। उनकी बैठकें टूट- 
फूट गयी थीं। पहियोंके टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। छत्र और ध्वज छिन्न-भिन्न होकर धरतीपर 
पड़े थे। अनुकर्ष, पताका, शिरस्त्राण, सुवर्णभूषित अंगदयुक्त चन्दनचर्चित भुजाएँ, हाथीकी 
सूँड़ तथा सर्पोंके शरीरके समान मोटे-मोटे ऊरु सब ओर बिखरे पड़े थे। नरेश्वर! मनुष्योंके 
विभिन्न अंगों तथा रथके पूर्वोक्त अवयवोंसे वहाँकी भूमि आच्छादित हो गयी थी || १३-- 
१५३ || 

शशाड्कसंनिभैश्वैव वदनैश्लारुकुण्डलै: ।। १६ ।। 

पतितैर्ऋषभाक्षाणां सा बभावति मेदिनी । 

वृषभके समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले वीरोंके सीरे हुए मनोहर कुण्डलमण्डित चन्द्रमा-जैसे 
मुखोंसे वहाँकी भूमि अत्यन्त शोभा पा रही थी || १६६ ।। 

गजैश्न बहुधा छिन्नै: शयानै: पर्वतोपमै: ।। १७ ।। 

रराजातिभृशं भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतै: । 

अनेकों टुकड़ोंमें कटकर धराशायी हुए पर्वताकार गजराजोंसे वहाँकी भूमि इस प्रकार 
अत्यन्त शोभासम्पन्न हो रही थी, मानो वहाँ बहुत-से पर्वत बिखरे हुए हों ।। 

तपनीयमरयैयोंक्त्रैरमुक्ताजालवि भूषितै: ।। १८ ।। 

उरश्छदैर्विचित्रैश्व व्यशो भन्‍्त तुरज्भमा: | 

गतसत्त्वा महीं प्राप्य प्रमृष्टा दीर्घबाहुना ।। १९ ।। 

कितने ही घोड़े सुनहरी रस्सियों तथा मोतीकी जालियोंसे विभूषित विचित्र आच्छादन 
वस्त्रोंस विशेष शोभायमान हो रहे थे। महाबाहु सात्यकिके द्वारा रौंदे जाकर वे धरतीपर पड़े 
थे और उनके प्राण-परखेरू उड़ गये ।। १८-१९ |। 

नानाविधानि सैन्यानि तव हत्वा तु सात्वतः । 

प्रविष्टस्तावकं सैन्यं द्रावयित्वा चमूं भूशम्‌ ।। २० ।। 

इस प्रकार आपकी नाना प्रकारकी सेनाओंका संहार करके तथा बहुत-से सैनिकोंको 
भगाकर सात्यकि आपकी सेनाके भीतर घुस गये ।। २० ।। 

ततस्तेनैव मार्गेण येन यातो धनंजय: । 

इयेष सात्यकिर्गन्तुं ततो द्रोणेन वारित: ।। २१ ।। 

तदनन्तर जिस मार्गसे अर्जुन गये, उसीसे सात्यकिने भी जानेका विचार किया; परंतु 
द्रोणाचार्यने उन्हें रोक दिया || २१ ।। 

भारद्वाजं समासाद्य युयुधानश्न सात्यकि: । 

न न्यवर्तत संक़्रुद्धो वेलामिव जलाशय: ।। २२ ।। 


अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए सत्यकनन्दन युयुधान द्रोणाचार्यके पास पहुँचकर रुक तो गये; 
परंतु पीछे नहीं लौटे। जैसे क्षुब्ध जलाशय अपनी तटभूमितक पहुँचकर फिर पीछे नहीं 
लौटता है || २२ ।। 

निवार्य तु रणे द्रोणो युयुधानं महारथम्‌ । 

विव्याध निशितैर्बाणै: पञ्चभिर्मर्मभेदिभि: || २३ ।। 

द्रोणाचार्यने रणक्षेत्रमें महारथी युयुधानको रोककर मर्मस्थलको विदीर्ण कर देनेवाले 
पाँच पैने बाणोंसे उन्हें घायल कर दिया ।। २३ ।। 

सात्यकिस्तु रणे द्रोणं राजन्‌ विव्याध सप्तभि: । 

हेमपुड्खै: शिलाधौतै: कड्कबर्हिणवाजितै: ।। २४ ।। 

राजन्‌! तब सात्यकिने भी समरांगणमें शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय 
पाँखवाले तथा कंक और मोरकी पाँखोंसे संयुक्त हुए सात बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको क्षत- 
विक्षत कर डाला || २४ ।। 

त॑ षड़्भि: सायकैद्रोण: साश्वयन्तारमार्दयत्‌ | 

सतं न ममृषे द्रोणं युयुधानो महारथ: ।। २५ ।। 

फिर दट्रोणने छः बाण मारकर घोड़ों और सारथिसहित सात्यकिको पीड़ित कर दिया। 
द्रोणाचार्यके इस पराक्रमको महारथी युयुधान सहन न कर सके ।। २५ ।। 

सिंहनादं ततः कृत्वा द्रोणं विव्याध सात्यकि: । 

दशभि: सायकैश्चान्यै: पड़भिरष्टाभिरेव च ।। २६ ।। 

उन्होंने सिंहनाद करके लगातार दस, छ: और आठ बाणोंद्वारा टद्रोणाचार्यको गहरी चोट 
पहुँचायी || २६ ।। 

युयुधान: पुनद्रोणं विव्याध दशभि: शरै: । 

एकेन सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरो हयान्‌ ।। २७ ।। 

ध्वजमेकेन बाणेन विव्याध युधि मारिष । 

माननीय नरेश! तदनन्तर युयुधानने पुनः दस बाण मारकर द्रोणाचार्यको घायल कर 
दिया। फिर एक बाणसे उनके सारथिको, चारसे चारों घोड़ोंको और एक बाणसे उनकी 
ध्वजाको युद्धस्थलमें बींध डाला || २७३ ।। 

तं द्रोण: साश्चयन्तारं सरथध्वजमाशुगै: ।। २८ ।। 

त्वरन्‌ प्राच्छादयद्‌ बाणैः शलभानामिव व्रजै: । 

इसके बाद द्रोणाचार्यने उतावले होकर टिट्ठीदलोंके समान अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा 
घोड़े, सारथि, रथ और ध्वजसहित सात्यकिको आच्छादित कर दिया ।। २८६ || 

तथैव युयुधानो<पि द्रोणं बहुभिराशुगैः ।। २९ ।। 

आच्छादयदसम्भ्रान्तस्ततो द्रोण उवाच ह । 


इसी प्रकार सात्यकिने भी बिना किसी घबराहटके बहुत-से शीघ्रगामी बाणोंकी वर्षा 
करके द्रोणाचार्यको ढक दिया। तब द्रोणाचार्य बोले-- ।। २९६ ।। 

तवाचार्यों रणं हित्वा गत: कापुरुषो यथा ।। ३० ।। 

युध्यमानं च मां हित्वा प्रदक्षिणमवर्तत । 

त्वं हि मे युध्यतो नाद्य जीवन्‌ यास्यसि माधव ।। ३१ ।। 

यदि मां त्वं रणे हित्वा न यास्याचार्यवद्‌ द्रुतम्‌ 

“माधव! तुम्हारे आचार्य अर्जुन तो कायरके समान युद्धका मैदान छोड़कर चले गये हैं। 
मैं युद्ध कर रहा था तो भी मुझे छोड़कर मेरी परिक्रमा करते हुए चल दिये। तुम भी अपने 
आचार्यके समान तुरंत ही समरांगणमें मुझे छोड़कर चले नहीं जाओगे तो युद्धमें तत्पर रहते 
हुए मेरे हाथसे आज जीवित बचकर नहीं जा सकोगे' || ३०-३१ ३ ।। 

सात्यकिरुवाच 


धनंजयस्य पदवीं धर्मराजस्य शासनात्‌ ॥। ३२ ।। 

गच्छामि स्वस्ति ते ब्रह्मन्‌ू न मे कालात्ययो भवेत्‌ | 

आचार्यनुगतो मार्ग: शिष्यैरन्वास्थते सदा ।। ३३ |। 

तस्मादेव व्रजाम्याशु यथा मे स गुरुर्गत: । 

सात्यकिने कहा--ब्रह्मम! आपका कल्याण हो। मैं धर्मराजकी आज्ञासे धनंजयके 
मार्गपर जा रहा हूँ। आप ऐसा करें, जिससे मुझे विलम्ब न हो। शिष्यगण तो सदासे ही 
अपने आचार्यके मार्गका ही अनुसरण करते आये हैं। अतः जिस प्रकार मेरे गुरुजी गये हैं, 
उसी प्रकार मैं भी शीघ्र ही चला जाता हूँ || ३२-३३ $ ।। 

संजय उवाच 

एतावदुक्त्वा शैनेय आचार्य परिवर्जयन्‌ ॥। ३४ ।। 

प्रयात: सहसा राजन्‌ सारथिं चेदमब्रवीत्‌ । 

संजय कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर सात्यकि सहसा द्रोणाचार्यको छोड़कर चल 
दिये और सारथिसे इस प्रकार बोले-- || ३४३६ ।। 

द्रोण: करिष्यते यत्नं सर्वथा मम वारणे ।। ३५ ।। 

यत्तो याहि रणे सूत शृणु चेदं॑ वच: परम्‌ | 

'सूत! द्रोणाचार्य मुझे रोकनेके लिये सब प्रकारसे प्रयत्न करेंगे, अतः तुम रफणक्षेत्रमें 
सावधान होकर चलो और मेरी यह दूसरी बात भी सुन लो || ३५३ ।। 

एतदालोक्यते सैन्यमावन्त्यानां महाप्रभम्‌ ।। ३६ ।। 

अस्यानन्तरतस्त्वेतद्‌ दाक्षिणात्यं महद्‌ बलम्‌ । 

तदनन्तरमेतच्च बाह्विकानां महद्‌ बलम्‌ ।। ३७ || 


“यह अवन्‍न्तिनिवासियोंकी अत्यन्त तेजस्विनी सेना दिखायी देती है। इसके बाद यह 
दाक्षिणात्योंकी विशाल सेना है। उसके पश्चात्‌ यह बाह्िकोंकी विशाल वाहिनी 
है || ३६-३७ ।। 

बाह्विकाभ्याशतो युक्त कर्णस्य च महद्‌ बलम्‌ | 

अन्योन्येन हि सैन्यानि भिन्नान्येतानि सारथे ।। ३८ ।। 

“बाह्लिकोंके पास ही उनसे जुड़ी हुई कर्णकी बड़ी भारी सेना खड़ी है। सारथे! ये सारी 
सेनाएँ एक-दूसरीसे भिन्न हैं | ३८ ।। 

अन्योन्यं समुपाश्रित्य न त्यक्ष्यन्ति रणाजिरम्‌ | 

एतदन्तरमासाद्य चोदयाश्चान्‌ प्रहष्टयत्‌ ।। ३९ ।। 

“ये सब-की-सब एक-दूसरीका सहारा लेकर युद्धके लिये डटी हुई हैं। ये कभी भी 
समरांगणका परित्याग नहीं करेंगी। तुम इन्हींके बीचमें होकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घोड़ोंको 
आगे बढ़ाओ ।। ३९ |। 

मध्यमं जवमास्थाय वह मामत्र सारथे | 

बाह्लिका यत्र दृश्यन्ते नानाप्रहरणोद्यता: ।। ४० ।। 

'सारथे! मध्यम वेगका आश्रय लेकर तुम मुझे वहाँ ले चलो, जहाँ नाना प्रकारके अस्त्र- 
शस्त्र लिये युद्धके लिये उद्यत हुए बाह्लिकदेशीय सैनिक दिखायी देते हैं ।। 

दाक्षिणात्याश्व बहव: सूतपुत्रपुरोगमा: । 

हस्त्यश्वरथसम्बाधं यच्चानीकं॑ विलोक्यते ।। ४१ ।। 

नानादेशसमुत्थैश्ष पदातिभिरधिष्ितम्‌ । 

“जहाँ सूतपुत्र कर्णको आगे करके बहुत-से दाक्षिणात्य योद्धा खड़े हैं, हाथी, घोड़ों और 
रथोंसे भरी हुई जो वह सेना दृष्टिगोचर हो रही है, उसमें अनेक देशोंके पैदल सैनिक मौजूद 
हैं; तुम वहाँ भी मेरे रथको ले चलो' ।। ४१६ ।। 

एतावदुक्त्वा यन्तारं ब्राह्म॒णं परिवर्जयन्‌ ।। ४२ ।। 

स व्यतीयाय यत्रोग्रं कर्णस्य च महद्‌ बलम्‌ | 

सारथिसे ऐसा कहकर सात्यकि ब्राह्मण द्रोणाचार्यको छोड़ते हुए सबको लाँधकर उस 
स्थानपर जा पहुँचे जहाँ कर्णकी भयंकर एवं विशाल सेना खड़ी थी ।। ४२ $ ।। 

त॑ं द्रोणोडनुययौ क्रुद्धो विकिरन्‌ विशिखान्‌ बहून्‌ ।। ४३ ।। 

युयुधानं महाभागं गच्छन्तमनिवर्तिनम्‌ । 

युद्धसे पीछे न हटनेवाले महाभाग युयुधानको आगे बढ़ते देख द्रोणाचार्य कुपित हो उठे 
और वे बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए कुछ दूरतक उनके पीछे-पीछे दौड़े || ४३ ३ ।। 

कर्णस्य सैन्यं सुमहदभिहत्य शितै: शरै: ।। ४४ ।। 

प्राविशद्‌ भारतीं सेनामपर्यन्तां च सात्यकि: । 


सात्यकि कर्णकी विशाल वाहिनीको अपने पैने बाणोंद्वारा घायल करके अपार कौरवी 
सेनामें घुस गये ।। 

प्रविष्टे युयुधाने तु सैनिकेषु द्रुतेषु च ।। ४५ ।। 

अमर्षी कृतवर्मा तु सात्यकिं पर्यवारयत्‌ | 

सात्यकिके प्रवेश करते ही सारे कौरव-सैनिक भागने लगे। तब क्रोधमें भरे हुए 
कृतवर्मने उन्हें आ घेरा ।। 

तमापतन्तं विशिखै: षड्भिराहत्य सात्यकि: ।। ४६ ।। 

चतुर्भिश्चतुरोअस्याश्वानाजघानाशु वीर्यवान्‌ | 

उसे आते देख पराक्रमी सात्यकिने छ: बाणोंद्वारा उसे चोट पहुँचाकर चार बाणोंसे 
उसके चारों घोड़ोंको शीघ्र ही घायल कर दिया || ४६६ ।। 

ततः पुन: षोडशभिरन्नतपर्वभिराशुगै: ।। ४७ ।। 

सात्यकि: कृतवर्माणिं प्रत्यविध्यत्‌ स्तनान्तरे । 

तदनन्तर पुनः झुकी हुई गाँठवाले सोलह बाण मारकर सात्यकिने कृतवर्माकी छातीमें 
गहरी चोट पहुँचायी || ४७३ ।। 

स ताड्यमानो विशिखेैर्बहुभिस्तिग्मतेजनै: ।। ४८ ।। 

सात्वतेन महाराज कृतवर्मा न चक्षमे । 

महाराज! सात्यकिके प्रचण्ड तेजवाले बहुसंख्यक बाणोंद्वारा घायल होनेपर कृतवर्मा 
सहन न कर सका |। 

स वत्सदन्तं संधाय जिह्मुगानलसंनिभम्‌ ।। ४९ ।। 

आकृष्य राजजन्नाकर्णाद्‌ विव्याधोरसि सात्यकिम्‌ | 

राजन्‌! वक्रमतिसे चलनेवाले अग्निके समान तेजस्वी वत्सदन्‍्त नामक बाणको 
धनुषपर रखकर कृतवर्मने उसे कानतक खींचा और उसके द्वारा सात्यकिकी छातीमें प्रहार 
किया ।। ४९३ ।। 

स तस्य देहावरणं भित्त्वा देह च सायक: ।। ५० || 

सपुड्खपत्र: पृथिवीं विवेश रुधिरोक्षित: । 

वह बाण सात्यकिके शरीर और कवच दोनोंको विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो पंख 
एवं पत्रसहित धरतीमें समा गया ।। ५० ई ।। 

अथास्य बहुभिराणैरच्छिनत्‌ परमास्त्रवित्‌ ।। ५१ ।। 

समार्गणगणं राजन्‌ कृतवर्मा शरासनम्‌ । 

राजन्‌! कृतवर्मा उत्तम अस्त्रोंका ज्ञाता है। उसने बहुत-से बाण चलाकर 
बाणसमूहोंसहित सात्यकिके शरासनको काट दिया ।। ५१ ६ ।। 

विव्याध च रणे राजन्‌ सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ ।। ५२ ।। 


दशभिर्विशिखैस्ती #णैरभिक्रुद्धः स्तनान्तरे । 

नरेश्वर! इसके बाद क्रोधमें भरे हुए कृतवर्माने सत्यपराक्रमी सात्यकिकी छातीमें पुनः 
दस पैने बाणोंद्वारा गहरा आघात किया || ५२३ ।। 

ततः प्रशीर्णे धनुषि शक्‍्त्या शक्तिमतां वर: ।। ५३ ।। 

जघान दक्षिणं बाहुं सात्यकि: कृतवर्मण: । 

धनुष कट जानेपर शक्तिशाली शूरवीरोंमें श्रेष्ठ सात्यकिने कृतवर्माकी दाहिनी भुजापर 
शत्तिद्वारा ही प्रहार किया || ५३६ ।। 

ततोअन्‍्यत्‌ सुदृढं चाप॑ं पूर्णमायम्य सात्यकि: ।। ५४ ।। 

व्यसृजद्‌ विशिखांस्तूर्ण शतशो5थ सहसत्रश: । 

सरथं कृतवर्माणं समन्तात्‌ पर्यवारयत्‌ ।। ५५ ।। 

तदनन्तर दूसरे सुदृढ़ धनुषको अच्छी तरह खींचकर सात्यकिने तुरंत ही सैकड़ों और 
हजारों बाणोंकी वर्षा की और रथसहित कृतवर्माको सब ओरसे ढक दिया ।। ५५ ।। 

छादयित्वा रणे राजन हार्दिक्यं स तु सात्यकि: | 

अथास्य भल्लेन शिर: सारथे: समकृन्तत ।। ५६ ।। 

राजन! रणक्षेत्रमें इस प्रकार कृतवर्माको आच्छादित करके सात्यकिने एक भल्ल द्वारा 
उसके सारथिका सिर काट दिया ।। ५६ ।। 

स पपात हत: सूतो हार्दिक्यस्य महारथात्‌ । 

ततस्ते यन्तृरहिता: प्राद्रवंस्तुरगा भूशम्‌ || ५७ ।। 

उनके द्वारा मारा गया सारथि कृतवर्मके विशाल रथसे नीचे गिर पड़ा। फिर तो 
सारथिके बिना उसके घोड़े बड़े जोरसे भागने लगे || ५७ ।। 

अथ भोजस्तु सम्भ्रान्तो निगृहा[ तुरगान्‌ स्वयम्‌ | 

तस्थौ वीरो धनुष्पाणिस्तत्‌ सैन्यान्यभ्यपूजयन्‌ ।। ५८ ।। 

इससे कृतवर्माको बड़ी घबराहट हुई; परंतु वह वीर स्वयं ही घोड़ोंको काबूमें करके 
हाथमें धनुष ले युद्धके लिये डट गया। उसके इस कर्मकी सभी सैनिकोंने भूरि-भूरि प्रशंसा 
की ।। ५८ ।। 

स मुहूर्तमिवाश्वस्य सदश्चान्‌ समनोदयत्‌ । 

व्यपेतभीरमित्राणामावहत्‌ सुमहद्‌ भयम्‌ ।। ५९ |। 

उसने थोड़ी ही देरमें आश्वस्त होकर अपने उत्तम घोड़ोंको आगे बढ़ाया तथा स्वयं 
निर्भय रहकर शत्रुओंके हृदयमें महान्‌ भय उत्पन्न कर दिया ।। ५९ ।। 

सात्यकिश्वाभ्यगात्‌ तस्मात्‌ स तु भीममुपाद्रवत्‌ | 

युयुधानो5पि राजेन्द्र भोजानीकाद्‌ विनि:सृतः ।। ६० ।। 

प्रययौ त्वरितस्तूर्ण काम्बोजानां महाचमूम्‌ । 

स तत्र बहुभि: शूरै: संनिरुद्धो महारथै: ।। ६१ ।। 


न चचाल तदा राजन्‌ सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

राजेन्द्र यही अवसर पाकर सात्यकि वहाँसे आगे निकल गये। तब कृतवमनि 
भीमसेनपर धावा किया। कृतवर्माकी सेनासे निकलकर युयुधान तुरंत ही काम्बोजोंकी 
विशाल वाहिनीके पास आ पहुँचे। वहाँ बहुत-से शूरवीर महारथियोंने उन्हें आगे बढ़नेसे 
रोक दिया। महाराज! तो भी उस समय सत्यपराक्रमी सात्यकि विचलित नहीं 
हुए ।| ६०-६१ ह || 

संधाय च चमूं द्रोणो भोजे भारं निवेश्य च ।। ६२ ।। 

अभ्यधावदू रणे यत्तो युयुधानं युयुत्सया । 

द्रोणाचार्यने अपनी बिखरी हुई सेनाको एकत्र करके उसकी रक्षाका भार कृतवर्माको 
सौंपकर समरांगणमें सात्यकिके साथ युद्ध करनेकी इच्छासे उद्यत हो उनके पीछे-पीछे 
दौड़े | ६२ई ।। 

तथा तमनुधावन्तं युयुधानस्य पृष्ठत: ।। ६३ ।। 

न्यवारयन्त संदहृष्टा: पाण्डुसैन्ये बृहत्तमा: । 

इस प्रकार उन्हें युयुधानके पीछे दौड़ते देख पाण्डव-सेनाके प्रमुख वीर हर्षमें भरकर 
द्रोणाचार्यको रोकनेका प्रयत्न करने लगे ।। ६३ $ ।। 

समासाद्य तु हार्दिक्यं रथानां प्रवरं रथम्‌ ।। ६४ ।। 

पञज्चाला विगतोत्साहा भीमसेनपुरोगमा: । 

परंतु रथियोंमें श्रेष्ठ महारथी कृतवर्मके पास पहुँचकर भीमसेनको आगे करके 
आक्रमण करनेवाले पांचालोंका उत्साह नष्ट हो गया || ६४ $ ।। 

विक्रम्य वारिता राजन्‌ वीरेण कृतवर्मणा ।। ६५ ।। 

यतमानांश्व तान्‌ सर्वानीषद्विगतचेतस: । 

अभितस्तान्‌ शरौघेण क्लान्तवाहानकारयत्‌ ।। ६६ ।। 

राजन्‌! वीर कृतवर्मने पराक्रम करके उनको रोक दिया। वे सभी वीर कुछ-कुछ 
शिथिल एवं अचेत-से हो रहे थे तो भी अपनी विजयके लिये प्रयत्नशील थे; परंतु कृतवर्मानि 
सब ओरसे उनके ऊपर बाणसमूहोंकी वर्षा करके उनके वाहनोंको व्याकुल कर 
दिया ।। ६५-६६ || 

निगृहीतास्तु भोजेन भोजानीकेप्सवो रणे | 

अतिष्ठन्नार्यवद्‌ वीरा: प्रार्थयन्तो महद्यश: ।॥ ६७ ।। 

कृतवर्माद्वारा रोके जानेपर वे पाण्डव वीर रणक्षेत्रमें महान्‌ यशकी इच्छा करते हुए 
उसीकी सेनाके साथ युद्धकी अभिलाषा करके श्रेष्ठ पुरुषोंके समान डटकर खड़े हो 
गये ।। ६७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिक््रवेशे 
त्रयोदशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें यात्यकिप्रवेशविषयक एक 
सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११३ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६८ श्लोक हैं) 


ऑपन-माज बछ। जज: 


चतुर्दशाधिकशततमो< ध्याय: 


धृतराष्ट्रका विषादयुक्त वचन, संजयका धृतराष्ट्रको ही दोषी 
बताना, कृतवर्माका भीमसेन और शिखण्डीके साथ युद्ध 
तथा पाण्डव-सेनाकी पराजय 


धृतराष्ट्र रवाच 

एवं बहुगुणं सैन्यमेवं प्रविचितं बलम्‌ । 

व्यूढमेवं यथान्यायमेवं बहु च संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! मेरी सेना इस प्रकार अनेक गुणोंसे सम्पन्न है और इस तरह 
अधिक संख्यामें इसका संग्रह किया गया है। पाण्डव-सेनाकी अपेक्षा यह प्रबल भी है। 
इसकी व्यूह-रचना भी इस प्रकार शास्त्रीय विधिके अनुसार की जाती है और इस तरह 
बहुत-से योद्धाओंका समूह जुट गया है || १ ।। 

नित्यं पूजितमस्माभिरभिकामं च नः सदा । 

प्रौढमत्यद्भुताकारं पुरस्ताद्‌ दृष्टविक्रमम्‌ ।। २ ।। 

हमलोगोंने सदा अपनी सेनाका आदर-सत्कार किया है तथा वह हमारे प्रति सदासे ही 
अनुरक्त भी है। हमारे सैनिक युद्धकी कलामें बढ़े-चढ़े हैं। हमारा सैन्यसमुदाय देखनेमें 

जान पड़ता है तथा इस सेनामें वे ही लोग चुन-चुनकर रखे गये हैं जिनका पराक्रम 
ही देख लिया गया है ।। २ ।। 

नातिवृद्धमबालं च नाकृशं नातिपीवरम्‌ | 

लघुवृत्तायतप्रायं सारगात्रमनामयम्‌ ।। ३ ।। 

इसमें न तो कोई अधिक बूढ़ा है, न बालक है, न अधिक दुबला है और न बहुत ही 
मोटा है। उनका शरीर हलका, सुडौल तथा प्राय: लंबा है। शरीरका एक-एक अवयव 
सारवान्‌ (सबल) तथा सभी सैनिक नीरोग एवं स्वस्थ हैं ।। ३ ।। 

आत्तसंनाहसंछन्न॑ बहुशस्त्रपरिच्छदम्‌ । 

शस्त्रग्रहणविद्यासु बह्मीषु परिनिष्ठितम्‌ ।। ४ ।। 

इन सैनिकोंका शरीर बाँधे हुए कवचसे आच्छादित है। इनके पास शस्त्र आदि 
आवश्यक सामग्रियोंकी बहुतायत है। ये सभी सैनिक शशण्त्रग्रहणसम्बन्धी बहुत-सी 
विद्याओंमें प्रवीण हैं || ४ ।। 

आरोहे पर्यवस्कन्दे सरणे सान्तरप्लुते । 

सम्यक्प्रहरणे याने व्यपयाने च कोविदम्‌ ॥। ५ ।। 


चढ़ने, उतरने, फैलने, कूद-कूदकर चलने, भली-भाँति प्रहार करने, युद्धके लिये जाने 
और अवसर देखकर पलायन करनेमें भी कुशल हैं || ५ ।। 

नागेष्वश्वेषु बहुशो रथेषु च परीक्षितम्‌ 

परीक्ष्य च यथान्यायं वेतनेनोपपादितम्‌ ।। ६ ।। 

हाथियों, घोड़ों तथा रथोंपर बैठकर युद्ध करनेकी कलामें सब लोगोंकी परीक्षा ली जा 
चुकी है और परीक्षा लेनेके पश्चात्‌ उन्हें यथायोग्य वेतन दिया गया है || ६ ।। 

न गोष्ठया नोपकारेण न सम्बन्धनिमित्तत: । 

नानाहूत॑ नाप्यभूतं मम सैन्यं बभूव ह ।। ७ ।। 

हमने किसीको भी गोष्ठीद्वारा बहकाकर, उपकार करके अथवा किसी सम्बन्धके 
कारण सेनामें भर्ती नहीं किया है। इनमें ऐसा भी कोई नहीं है जिसे बुलाया न गया हो 
अथवा जिसे बेगारमें पकड़कर लाया गया हो। मेरी सारी सेनाकी यही स्थिति है ।। ७ ।। 

कुलीनार्यजनोपेतं तुष्टपुष्टमनुद्धतम्‌ । 

कृतमानोपचारं च यशस्वि च मनस्वि च ।। ८ ।। 

इसमें सभी लोग कुलीन, श्रेष्ठ, हृष्ट-पुष्ट, उद्ण्डताशून्य, पहलेसे सम्मानित, यशस्वी 
तथा मनस्वी हैं ।। 

सचिवैश्वापरैर्मुख्यैर्बहुभि: पुण्यकर्मभि: । 

लोकपालोपमैस्तात पालितं नरसत्तमै: ।। ९ ।। 

तात! हमारे मन्त्री तथा अन्य बहुतेरे प्रमुख कार्यकर्ता जो पुण्यात्मा, लोकपालोंके 
समान पराक्रमी और मजनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं, सदा इस सेनाका पालन करते आये हैं ।। ९ ।। 

बहुभि: पार्थिवैर्गुप्तमस्मत्प्रियचिकीर्षुभि: । 

अस्मानभिसृतै: कामात्‌ सबलै: सपदानुगै: ।। १० ।। 

हमारा प्रिय करनेकी इच्छावाले तथा सेना और अनुचरोंसहित स्वेच्छासे ही हमारे पक्षमें 
आये हुए बहुत-से भूपालगण भी इसकी रक्षामें तत्पर रहते हैं ।। 

महोदधिमिवापूर्णमापगाभि: समन्ततः । 

अपक्षै: पक्षिसंकाशै रथैरश्वैश्व संवृतम्‌ ।। ११ ।॥। 

सम्पूर्ण दिशाओंसे बहकर आयी हुई नदियोंसे परिपूर्ण होनेवाले महासागरके समान 
हमारी यह सेना अगाध और अपार है। पक्षरहित एवं पक्षियोंके समान तीव्र वेगसे चलनेवाले 
रथों और घोड़ोंसे यह भरी हुई है | ११ ।। 

प्रभिन्नकरटैश्वैव द्विरदैरावृतं महत्‌ । 

यदहन्यत मे सैन्यं किमन्यद्‌ भागधेयत: ।। १२ ।। 

गण्डस्थलसे मद बहानेवाले गजराजोंद्वारा आवृत यह मेरी विशाल वाहिनी यदि 
शत्रुओंद्वारा मारी गयी है तो इसमें भाग्यके सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है? ।। १२ ।। 

योधाक्षय्यजलं भीम॑ वाहनोर्मितरज्धिणम्‌ । 


क्षेपण्यसिगदाशक्तिशरप्रासझषाकुलम्‌ ।। १३ ।। 

ध्वजभूषणसम्बाधरत्नोपलसुसंचितम्‌ । 

वाहनैरभिधावद्धिर्वायुवेगविकम्पितम्‌ ।। १४ ।। 

द्रोणगम्भीरपातालं कृतवर्ममहाह्दम्‌ । 

जलसंधमटहाग्राहं कर्णचन्द्रोदयोद्धतम्‌ । १५ ।। 

संजय! मेरी सेना भयंकर समुद्रके समान जान पड़ती है। योद्धा ही इसके अक्षय जल 
हैं, वाहन ही इसकी तरंगमालाएँ हैं, क्षेपणीय, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्रास आदि 
अस्त्र-शस्त्र इसमें मछलियोंके समान भरे हुए हैं। ध्वजा और आभूषणोंके समुदाय इसके 
भीतर रत्नोंके समान संचित हैं। दौड़ते हुए वाहन ही वायुके वेग हैं, जिनसे यह सैन्यसमुद्र 
कम्पित एवं क्षुब्ध-सा जान पड़ता है। द्रोणाचार्य ही इसकी पातालतक फैली हुई गहराई है। 
कृतवर्मा इसमें महान्‌ हृदके समान है, जलसंध विशाल ग्राह है और कर्णरूपी चन्द्रमाके 
उदयसे यह सदा उद्धेलित होता रहता है || १३--१५ ।। 

गते सैन्यार्णवं भित्त्वा तरसा पाण्डवर्षभे । 

संजयैकरथेनैव युयुधाने च मामकम्‌ ।। १६ ।। 

तत्र शेषं न पश्यामि प्रविष्टे सव्यसाचिनि । 

सात्वते च रथोदारे मम सैन्यस्य संजय ।। १७ ।। 

संजय! ऐसे मेरे सैन्यरूपी महासागरका वेगपूर्वक भेदन करके जब पाण्डवश्रेष्ठ 
सव्यसाची अर्जुन तथा सात्वतवंशी उदार महारथी युयुधान एकमात्र रथकी सहायतासे 
इसके भीतर घुस गये, तब मैं अपनी सेनाके शेष रहनेकी आशा नहीं देखता 
हूं ।| १६-१७ ।। 

तौ तत्र समतिक्रान्तौ दृष्टवातीव तरस्विनौ । 

सिन्धुराजं तु सम्प्रेक्ष्य गाण्डीवस्येषुगोचरे ॥। १८ ।। 

कि नु वा कुरव: कृत्यं विदधु: कालचोदिता: । 

दारुणैकायने काले कथं वा प्रतिपेदिरे ।। १९ ।। 

उन दोनों अत्यन्त वेगशाली वीरोंको वहाँ सबका उल्लंघन करके घुसे हुए देख तथा 
सिन्धुराज जयद्रथको गाण्डीवसे छूटे हुए बाणोंकी सीमामें उपस्थित पाकर कालप्रेरित 
कौरवोंने वहाँ कौन-सा कार्य किया? उस दारुण संहारके समय, जहाँ मृत्युके सिवा दूसरी 
कोई गति नहीं थी, किस प्रकार उन्होंने कर्तव्यका निश्चय किया? ।। १८-१९ ।। 

ग्रस्तान्‌ हि कौरवान्‌ मन्ये मृत्युना तात संगतान्‌ । 

विक्रमो5पि रणे तेषां न तथा दृश्यते हि वै ।। २० ।। 

तात! मैं युद्धस्थलमें एकत्र हुए कौरवोंको कालका ग्रास ही मानता हूँ; क्योंकि रणक्षेत्रमें 
उनका पराक्रम भी पहले-जैसा नहीं दिखायी देता है || २० ।। 

अक्षतौ संयुगे तत्र प्रविष्टी कृष्णपाण्डवौ । 


न च वारयिता कश्चित्‌ तयोरस्तीह संजय ।। २१ ।। 

संजय! श्रीकृष्ण और अर्जुन बिना कोई क्षति उठाये युद्धस्थलमें मेरी सेनाके भीतर घुस 
गये; परंतु इसमें कोई भी वीर उन दोनोंको रोकनेवाला न निकला ।। २१ ।। 

भृताश्न बहवो योधा: परीक्ष्यैव महारथा: । 

वेतनेन यथायोगं प्रियवादेन चापरे || २२ ।। 

हमने दूसरे बहुत-से महारथी योद्धाओंकी परीक्षा करके ही उन्हें सेनामें भर्ती किया है 
और यथायोग्य वेतन देकर तथा प्रिय वचन बोलकर उनका सत्कार किया है ।। २२ ।। 

असत्कारभृतस्तात मम सैन्ये न विद्यते । 

कर्मणा हानुरूपेण लभ्यते भक्तवेतनम्‌ ।। २३ ।। 

तात! मेरी सेनामें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अनादरपूर्वक रखा गया हो। सबको 
उनके कार्यके अनुरूप ही भोजन और वेतन प्राप्त होता है ।। २३ ।। 

न चायोधो5भवत्‌ कश्चिन्मम सैन्ये तु संजय । 

अल्पदानभृतस्तात तथा चाभूतको नर: ।। २४ ।। 

तात संजय! मेरी सेनामें ऐसा एक भी योद्धा नहीं रहा होगा जिसे थोड़ा वेतन दिया 
जाता हो अथवा बिना वेतनके ही रखा गया हो ।। २४ ।। 

पूजितो हि यथाशक्त्या दानमानासनैर्मया । 

तथा पुन्रैश्न मे तात ज्ञातिभिश्न सबान्धवै: ।। २५ ।। 

तात! मैंने, मेरे पुत्रोंने तथा कुटुम्बीजनों एवं बन्धु-बान्धवोंने भी सभी सैनिकोंका 
यथाशक्ति दान, मान और आसन आदि देकर सत्कार किया है ।। २५ ।। 

तेच प्राप्यैव संग्रामे निर्जिता: सव्यसाचिना । 

शैनेयेन परामृष्टा: किमन्यद्‌ भागधेयत: ।। २६ ।। 

तथापि सव्यसाची अर्जुनने संग्रामभूमिमें पहुँचते ही उन सबको पराजित कर दिया है 
और सात्यकिने भी उन्हें कुचल डाला है। इसे भाग्यके सिवा और क्‍या कहा जा सकता 
है? । २६ ।। 

रक्ष्यते यश्ष संग्रामे ये च संजय रक्षिण: । 

एक: साधारण: पन्था रक्ष्यस्य सह रक्षिभि: ।। २७ |। 

संजय! संग्राममें जिसकी रक्षा की जाती है और जो लोग रक्षक हैं, उन रक्षकोंसहित 
रक्षणीय पुरुषके लिये एकमात्र साधारण मार्ग रह गया है पराजय ।। २७ ।। 

अर्जुन समरे दृष्टवा सैन्धवस्याग्रत: स्थितम्‌ । 

पुत्रो मम भृशं मूढ: कि कार्य प्रत्यपद्यत ।। २८ ।। 

अर्जुनको समरांगणमें सिन्धुराजके सामने खड़ा देख अत्यन्त मोहग्रस्त हुए मेरे पुत्रने 
कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया? ।। २८ ।। 

सात्यकिं च रणे दृष्टवा प्रविशन्‍्तम भीतवत्‌ । 


कि नु दुर्योधन: कृत्यं प्राप्तकालममन्यत ।। २९ ।। 

सात्यकिको रफक्षेत्रमें निर्भय-सा प्रवेश करते देख दुर्योधनने उस समयके लिये कौन- 
सा कर्तव्य उचित माना? ।। २९ ।। 

सर्वशस्त्रातिगौ सेनां प्रविष्टी रथिसत्तमौ । 

दृष्टवा कां वै धृतिं युद्धे प्रत्यपद्यन्त मामका: ।। ३० ।। 

सम्पूर्ण शस्त्रोंकी पहुँचसे परे होकर जब रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकि और अर्जुन मेरी सेनामें 
प्रविष्ट हो गये, तब उन्हें देखकर मेरे पुत्रोंने युद्धस्थलमें किस प्रकार धैर्य धारण 
किया? ।। ३० ।। 

दृष्टवा कृष्णं तु दाशार्हमर्जुनार्थे व्यवस्थितम्‌ । 

शिनीनामृषभं चैव मन्ये शोचन्ति पुत्रका: || ३१ ।। 

मैं समझता हूँ कि अर्जुनके लिये रथपर बैठे हुए दशाहनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णको तथा 
शिनिप्रवर सात्यकिको देखकर मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे || ३१ ।। 

दृष्टवा सेनां व्यतिक्रान्तां सात्वतेनार्जुनेन च । 

पलायमानांश्व कुरून्‌ मन्ये शोचन्ति पुत्रका: ।। ३२ ।। 

सात्यकि और अर्जुनको सेना लाँधकर जाते और कौरव-सैनिकोंको युद्धस्थलसे भागते 
देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोकमें डूब गये होंगे || ३२ ।। 

विद्रुतान्‌ रथिनो दृष्टवा निरुत्साहान्‌ द्विषज्जये । 

पलायनकृतोत्साहान्‌ मन्ये शोचन्ति पुत्रका: || ३३ ।। 

मेरे मनमें यह बात आती है कि अपने रथियोंको शत्रु-विजयकी ओरसे उत्साहशून्य 
होकर भागते और भागनेमें ही बहादुरी दिखाते देख मेरे पुत्र शोक कर रहे होंगे || ३३ ।। 

शून्यान्‌ कृतान्‌ रथोपस्थान्‌ सात्वतेनार्जुनेन च । 

हतांश्व योधान्‌ संदृश्य मन्ये शोचन्ति पुत्रका: ।। ३४ ।। 

सात्यकि और अर्जुनने हमारी रथोंकी बैठकें सूनी कर दी हैं और योद्धाओंको मार 
गिराया है, यह देखकर मैं सोचता हूँ कि मेरे पुत्र बहुत दुःखी हो गये होंगे ।। ३४ ।। 

व्यश्वनागरथान्‌ दृष्टवा तत्र वीरान्‌ सहस्रश: । 

धावमानान्‌ रणे व्यग्रान्‌ मन्‍्ये शोचन्ति पुत्रका: ।। ३५ ।। 

सहस्ौरों वीरोंको वहाँ युद्धके मैदानमें घोड़े, रथ और हाथियोंसे रहित एवं उद्विग्न होकर 
भागते देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे || ३५ ।। 

महानागान्‌ विद्रवतो दृष्टवार्जुनशराहतान्‌ । 

पतितान्‌ पततक्चान्यान्‌ मन्ये शोचन्ति पुत्रका: || ३६ ।। 

अर्जुनके बाणोंसे आहत होकर बड़े-बड़े गजराजोंको भागते, गिरते और गिरे हुए 
देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक कर रहे होंगे || ३६ ।। 

विहीनांश्व॒ कृतानश्चान्‌ विरथांश्व कृतान्‌ नरान्‌ । 


तत्र सात्यकिपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रका: ।। ३७ ।। 

सात्यकि और अर्जुनने घोड़ोंको सवारोंसे हीन और मनुष्योंको रथसे वंचित कर दिया 
है। यह देख-सुनकर मेरे पुत्र शोकमें डूब रहे होंगे || ३७ ।। 

हयौघान्‌ निहतान्‌ दृष्टवा द्रवमाणांस्ततस्तत: । 

रणे माधवपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रका: ।। ३८ ।। 

रणक्षेत्रमें सात्यकि और अर्जुनद्वारा मारे गये तथा इधर-उधर भागते हुए अश्वसमूहोंको 
देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकदग्ध हो रहे होंगे || ३८ ।। 

पत्तिसंघान्‌ रणे दृष्टवा धावमानांश्व सर्वश: । 

निराशा विजये सर्वे मन्ये शोचन्ति पुत्रका: || ३९ ।। 

पैदल सिपाहियोंको रणक्षेत्रमें सब ओर भागते देख मैं समझता हूँ, मेरे सभी पुत्र 
विजयसे निराश हो शोक कर रहे होंगे ।। ३९ ।। 

द्रोणस्प समतिक्रान्तावनीकमपराजितौ । 

क्षणेन दृष्टवा तौ वीरौ मन्ये शोचन्ति पुत्रका: || ४० ।। 

मेरे मनमें यह बात आती है कि किसीसे पराजित न होनेवाले दोनों वीर अर्जुन और 
सात्यकिको क्षणभरमें द्रोणाचार्यकी सेनाका उल्लंघन करते देख मेरे पुत्र शोकाकुल हो गये 
होंगे || ४० ।। 

सम्मूढो 5स्मि भृशं तात श्रुत्वा कृष्णधनंजयौ । 

प्रविष्टी मामकं सैन्यं सात्वतेन सहाच्युतौ ।। ४१ ।। 

तात! अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीकृष्ण और अर्जुनके सात्यकिसहित 
अपनी सेनामें घुसनेका समाचार सुनकर मैं अत्यन्त मोहित हो रहा हूँ ।। ४१ ।। 

तस्मिन्‌ प्रविष्टे पृतनां शिनीनां प्रवरे रथे । 

भोजानीकं व्यतिक्रान्ते किमकुर्वत कौरवा: || ४२ ।। 

शिनिप्रवर महारथी सात्यकि जब कृतवर्माकी सेनाको लाँचधकर कौरवी सेनामें प्रविष्ट हो 
गये तब कौरवोंने क्या किया? ।। ४२ ।। 

तथा द्रोणेन समरे निगृहीतेषु पाण्डुषु । 

कथें युद्धम भूत्‌ तत्र तनन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। ४३ ।। 

संजय! जब द्रोणाचार्यने समरभूमिमें पूर्वोक्त प्रकारसे पाण्डवोंको रोक दिया, तब वहाँ 
किस प्रकार युद्ध हुआ? यह सब मुझे बताओ ।। ४३ ।। 

द्रोणो हि बलवान श्रेष्ठ: कृतास्त्रो युद्धदुर्मद: । 

पज्चालास्ते महेष्वासं प्रत्यविध्यन्‌ कथं रणे ।। ४४ ।। 

बद्धवैरास्ततो द्रोणे धनंजयजयैषिण: । 


द्रोणाचार्य अस्त्रविद्यामें निपुण, युद्धमें उन्‍्मत्त होकर लड़नेवाले, बलवान एवं श्रेष्ठ वीर 
हैं। पांचाल-सैनिकोंने उस समय रणक्षेत्रमें महाधनुर्धर द्रोणको किस प्रकार घायल किया? 
क्योंकि वे द्रोणाचार्यसे वैर बाँधकर अर्जुनकी विजयकी अभिलाषा रखते थे || ४४ $ ।। 

भारद्वाजसुतस्तेषु दृढवैरो महारथ: ।। ४५ ।। 

अर्जुनश्वापि यच्चक्रे सिन्धुराजवध॑ प्रति । 

तन्मे सर्व समाचक्ष्व कुशलो हासि संजय ।। ४६ ।। 

संजय! भरद्वाजके पुत्र महारथी अश्वत्थामा भी पांचालोंसे दृढ़तापूर्वक वैर बाँधे हुए थे। 
अर्जुनने सिन्धुराज जयद्रथका वध करनेके लिये जो-जो उपाय किया, वह सब मुझसे कहो; 
क्योंकि तुम कथा कहनेमें कुशल हो ।। 

संजय उवाच 

आत्मापराधात्‌ सम्भूतं व्यसनं भरतर्षभ । 

प्राप्प प्राकृतवद्‌ वीर न त्वं शोचितुमरहसि ।। ४७ ।। 

संजयने कहा--भरतश्रेष्ठ) यह सारी विपत्ति आपको अपने ही अपराधसे प्राप्त हुई 
है। वीर! इसे पाकर निम्न कोटिके मनुष्योंकी भाँति शोक न कीजिये ।। ४७ ।। 

पुरा यदुच्यसे प्राज्जैः सुहृद्धिर्विदुरादिभि: । 

मा हार्षी: पाण्डवान्‌ राजन्निति तन्न त्वया श्रुतम्‌ ।। ४८ ।। 

पहले जब आपके बुद्धिमान्‌ सुहृद्‌ विदुर आदिने आपसे कहा था कि राजन! आप 
पाण्डवोंके राज्यया अपहरण न कीजिये, तब आपने उनकी यह बात नहीं सुनी 
थी || ४८ ।। 

सुहृदां हितकामानां वाक्‍्यं यो न शूणोति ह । 

स महद्‌ व्यसन प्राप्प शोचते वै यथा भवान्‌ ।। ४९ ।। 

जो हितैषी सुहृदोंकी बात नहीं सुनता है, वह भारी संकटमें पड़कर आपके ही समान 
शोक करता है ।। ४९ ।। 

याचितो<सि पुरा राजन्‌ दाशार्हैण शमं प्रति । 

नच तं लब्धवान्‌ काम॑ त्वत्त: कृष्णो महायशा: ।। ५० |। 

राजन! दशा्हनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने पहले आपसे शान्तिके लिये याचना की थी; 
परंतु आपकी ओरसे उन महायशस्वी श्रीकृष्णकी वह इच्छा पूरी नहीं की गयी ।। ५० ।। 

तव निर्गुणतां ज्ञात्वा पक्षपातं सुतेषु च । 

द्वैधीभावं तथा धर्मे पाण्डवेषु च मत्सरम्‌ || ५१ ।। 

तव जिद्दामभिप्रायं विदित्वा पाण्डवान्‌ प्रति | 

आर्तप्रलापांश्व बहूनू मनुजाधिपसत्तम ।। ५२ ।। 

सर्वलोकस्य तत्त्वज्ञ: सर्वलोकेश्वर: प्रभु: 


वासुदेवस्ततो युद्ध कुरूणामकरोन्महत्‌ ।। ५३ ।। 

नृपश्रेष्ठ! सम्पूर्ण लोकोंके तत्त्वज्ञ तथा सर्वलोकेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब यह जान 
लिया कि आप सर्वथा सदगुणशून्य हैं, अपने पुत्रोंपर पक्षपात रखते हैं, धर्मके विषयमें 
आपके मनमें दुविधा बनी हुई है, पाण्डवोंके प्रति आपके हृदयमें डाह है, आप उनके प्रति 
कुटिलतापूर्ण मनसूबे बाँधते रहते हैं और व्यर्थ ही आर्त मनुष्योंके समान बहुत-सी बातें 
बनाते हैं, तब उन्होंने कौरव-पाण्डवोंके महान्‌ युद्धका आयोजन किया || ५१--५३ ।। 

आत्मापराधात्‌ सुमहान्‌ प्राप्तस्ते विपुल: क्षय: । 

नैन॑ दुर्योधने दोष कर्तुमहसि मानद ।। ५४ ।। 

मानद! अपने ही अपराधसे आपके सामने यह महान्‌ जनसंहार प्राप्त हुआ है। आपको 
यह सारा दोष दुर्योधनपर नहीं मढ़ना चाहिये ।। ५४ ।। 

न हि ते सुकृतं किंचिदादौ मध्ये च भारत । 

दृश्यते पृष्ठतश्चैव त्वन्मूलो हि पराजय: ।। ५५ ।। 

भारत! मुझे तो आगे, पीछे या बीचमें आपका कोई भी शुभ कर्म नहीं दिखायी देता। 
इस पराजयकी जड़ आप ही हैं ।। ५५ || 

तस्मादवस्थितो भूत्वा ज्ञात्वा लोकस्य निर्णयम्‌ । 

शृणु युद्ध यथावृत्तं घोरं देवासुरोपमम्‌ ।। ५६ ।। 

इसलिये स्थिर होकर और लोकके नियत स्वभावको जानकर देवासुर-संग्रामके समान 
भयंकर इस कौरव-पाण्डव-युद्धका यथार्थ वृत्तान्त सुनिये || ५६ ।। 

प्रविष्टे तव सैन्यं तु शैनेये सत्यविक्रमे । 

भीमसेनमुखा: पार्था: प्रतीयुर्वाहिनीं तव ।। ५७ || 

जब सत्यपराक्रमी सात्यकि कौरव-सेनामें प्रविष्ट हो गये, तब भीमसेन आदि 
कुन्तीकुमारोंन आपकी विशाल वाहिनीपर आक्रमण किया ।। ५७ ।। 

आगच्छतस्तान्‌ सहसा क्रुद्धरूपान्‌ सहानुगान्‌ । 

दधारैको रणे पाण्डून्‌ कृतवर्मा महारथ: ।। ५८ ।। 

सेवकोंसहित कुपित होकर सहसा आक्रमण करनेवाले उन पाण्डववीरोंको रणक्षेत्रमें 
एकमात्र महारथी कृतवर्माने रोका ।। ५८ ।। 

यथोद्वृत्तं वारयते वेला वै सलिलार्णवम्‌ | 

पाण्डुसैन्यं तथा संख्ये हार्दिक्य: समवारयत्‌ ।। ५९ || 

जैसे उद्वेलित हुए महासागरको किनारेकी भूमि आगे बढ़नेसे रोकती है, उसी प्रकार 
युद्धस्थलमें कृतवर्माने पाण्डव-सेनाको रोक दिया ।। ५९ |। 

तत्राद्भुतमपश्याम हार्दिक्यस्य पराक्रमम्‌ । 

यदेनं सहिता: पार्था नातिचक्रमुराहवे ।। ६० ।। 


वहाँ हमने कृतवर्माका अद्भुत पराक्रम देखा। सारे पाण्डव एक साथ मिलकर भी 
समरांगणमें उसे लाँधच न सके ।। ६० ।। 

ततो भीमस्टत्रिभिर्विंद्ध्वा कृतवर्माणमाशुगै: । 

शड्खं दध्मौ महाबाहुर्हर्षयन्‌ सर्वपाण्डवान्‌ ।। ६१ ।। 

तदनन्तर महाबाहु भीमने तीन बाणोंद्वारा कृतवर्माको घायल करके समस्त पाण्डवोंका 
हर्ष बढ़ाते हुए शंख बजाया ।। ६१ ।। 

सहदेवस्तु विंशत्या धर्मराजश्न पञ्चभि: । 

शतेन नकुलश्नापि हार्दिक्यं समविध्यत ।। ६२ ।। 

सहदेवने बीस, धर्मराजने पाँच और नकुलने सौ बाणोंसे कृतवर्माको बींध 
डाला || ६२ ।। 

द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या सप्तभिश्न घटोत्कच: । 

धृष्टद्युम्नस्त्रिभिश्वापि कृतवर्माणमार्दयत्‌ ।। ६३ ।। 

द्रौपदीके पुत्रोंने तिहत्तर, घटोत्कचने सात और धृष्टद्युम्नने तीन बाणोंद्वारा उसे गहरी 
चोट पहुँचायी ।। ६३ ।। 

विराटो द्रुपदश्चैव याज्ञसेनिश्व पञ्चभि: । 

शिखण्डी चैव हार्दिक्यं विद्ूध्वा पजचभिराशुगै: ।। ६४ ।। 

पुनर्विव्याध विंशत्या सायकानां हसन्निव | 

विराट, ट्रुपद और उनके पुत्र धृष्टद्युम्नने पाँच-पाँच बाणोंसे उसको घायल किया। फिर 
शिखण्डीने पहले पाँच बाणोंद्वारा चोट करके फिर हँसते हुए ही बीस बाणोंसे कृतवर्माको 
बींध डाला || ६४ ई || 

कृतवर्मा ततो राजन्‌ सर्वतस्तान्‌ महारथान्‌ ॥। ६५ ।। 

एकैकं पज्चभिर्विद्ध्वा भीमं॑ विव्याध सप्तभि: । 

धनुर्ध्वजं चास्य तथा रथाद्‌ भूमावपातयत्‌ ।। ६६ ।। 

राजन्‌! उस समय कृतवर्माने चारों ओर बाण चलाकर उन महारथियोंमेंसे प्रत्येकको 
पाँच बाणोंद्वारा बींध डाला और भीमसेनको सात बाणोंसे घायल कर दिया। फिर तत्काल 
ही उनके धनुष और ध्वजको काटकर रथसे पृथ्वीपर गिरा दिया || ६५-६६ ।। 

अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथ: । 

आजपघानोरसि क्रुद्ध: सप्तत्या निशितै: शरै: ।। ६७ ।। 

भीमसेनका धनुष कट जानेपर महारथी कृतवर्माने कुपित हो बड़ी उतावलीके साथ 
सत्तर पैने बाणोंद्वारा उनकी छातीमें गहरा आघात किया ।। ६७ ।। 

स गाढविद्धो बलवान हार्दिक्यस्य शरोत्तमै: । 

चचाल रथमध्यस्थ: क्षितिकम्पे यथाचल: ।। ६८ ।। 


कृतवमकि श्रेष्ठ बाणोंद्वारा अत्यन्त घायल हुए बलवान्‌ भीमसेन रथके भीतर बैठे हुए 
ही भूकम्पके समय हिलनेवाले पर्वतके समान काँपने लगे ।। ६८ ।। 

भीमसेनं तथा दृष्टवा धर्मराजपुरोगमा: । 

विसृजन्त: शरान्‌ राजन्‌ कृतवर्माणमार्दयन्‌ ।। ६९ ।। 

राजन! भीमसेनको वैसी अवस्थामें देखकर धर्मराज आदि महारथियोंने बाणोंकी वर्षा 
करके कृतवर्माको बड़ी पीड़ा दी ।। ६९ ।। 

त॑ं तथा कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष । 

विव्यधु: सायकै्ईश्टा रक्षार्थ मारुतेर्मुधे । ७० ।। 

माननीय नरेश! हर्षमें भरे हुए पाण्डव-सैनिक भीमसेनकी रक्षाके लिये अपने 
रथसमूहद्वारा कृतवर्माको कोष्ठबद्ध-सा करके उसे युद्धसस्‍्थलमें अपने बाणोंका निशाना 
बनाने लगे || ७० ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञां भीमसेनो महाबल: । 

शक्ति जग्राह समरे हेमदण्डामयस्मयीम्‌ ।। ७१ ।। 

इसी बीचमें महाबली भीमसेनने सचेत होकर समरांगणमें सुवर्णमय दण्डसे विभूषित 
एक लोहेकी शक्ति हाथमें ले ली || ७१ ।। 

चिक्षेप च रथात्‌ तूर्ण कृतवर्मरथं प्रति । 

सा भीमभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसंनिभा ।। ७२ ।। 

कृतवर्माणमभित: प्रजज्वाल सुदारुणा | 

और शीघ्र ही उसे अपने रथसे कृतवर्मके रथपर चला दिया। भीमसेनके हाथोंसे छूटी 
हुई, केंचुलसे निकले हुए सर्पके समान वह भयंकर शक्ति कृतवर्मके समीप जाकर 
प्रज्वलित हो उठी || ७२३ ।। 

तामापतन्तीं सहसा युगान्ताग्निसमप्रभाम्‌ ।। ७३ ।। 

द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यो निजघान द्विधा तदा । 

उस समय अपने ऊपर आती हुई प्रलयकालकी अग्निके समान उस शक्तिको सहसा दो 
बाण मारकर कृतवर्माने उसके दो टुकड़े कर दिये | ७३ $ ।। 

सा छिन्ना पतिता भूमौ शक्ति: कनकभूषणा ।। ७४ ।। 

द्योतयन्ती दिशो राजन्‌ महोल्केव नभश्च्युता । 

राजन! सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करती हुई वह सुवर्णभूषित शक्ति कटकर 
आकाशशसे गिरी हुई बड़ी भारी उल्काके समान पृथ्वीपर गिर पड़ी || ७४ ३ ।। 

शक्ति विनिहतां दृष्टवा भीमश्लुक्रोध वै भूशम्‌ ॥। ७५ ।। 

ततोअन्यद्‌ धनुरादाय वेगवत्‌ सुमहास्वनम्‌ । 

भीमसेनो रणे क्रुद्धो हार्दिक्यं समवारयत्‌ ।। ७६ ।। 


अपनी शक्तिको कटी हुई देख भीमसेनको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने बड़ी भारी 
टंकारध्वनि करनेवाले दूसरे वेगशाली धनुषको हाथमें लेकर समरांगणमें कुपित हो 
कृतवर्माका सामना किया || ७५-७६ ।। 

अथैनं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे । 

भीमो भीमबलो राजंस्तव दुर्मन्त्रितेन च ।। ७७ ।। 

राजन्‌! आपकी ही कुमन्त्रणासे वहाँ भयंकर बलशाली भीमसेनने कृतवर्माकी छातीमें 
पाँच बाण मारे || ७७ ।। 

भोजतस्तु क्षतसर्वाजड्रो भीमसेनेन मारिष | 

रक्ताशोक इवोत्फुल्लो व्यभ्राजत रणाजिरे ।। ७८ ।। 

माननीय नरेश! भीमसेनने उन बाणोंद्वारा कृतवर्माके सम्पूर्ण अंगोंको क्षत-विक्षत कर 
दिया। वह रणांगणमें खूनसे लथपथ हो खिले हुए लाल फूलोंवाले अशोकवृक्षके समान 
सुशोभित होने लगा || ७८ ।। 

ततः क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैर्भीमसेनं हसन्निव । 

अभिहत्य दृढं युद्धे तान्‌ सर्वान्‌ प्रत्यविध्यत ।। ७९ ।। 

त्रिभिस्त्रिभिर्महेष्वासो यतमानान्‌ महारथान्‌ । 

तदनन्तर उस महाथधनुर्धरने क्रोधमें भरकर हँसते हुए ही तीन बाणोंद्वारा भीमसेनको 
गहरी चोट पहुँचाकर युद्धमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले उन सभी महारथियोंको तीन- 
तीन बाणोंसे बींध डाला || ७९६ ।। 

तेडपि त॑ प्रत्यविध्यन्त सप्तभि: सप्तभि: शरै: || ८० ।। 

शिखण्डिनस्ततः: क्रुद्धः क्षुरप्रेण महारथ: । 

धनुश्रिच्छेद समरे प्रहसन्निव सात्वत: ।। ८१ ।। 

तब उन महारथियोंने भी कृतवर्माको सात-सात बाण मारे। उस समय क्रोधमें भरे हुए 
महारथी कृतवर्माने हँसते हुए ही समरांगणमें एक क्षुरप्रद्वारा शिखण्डीका धनुष काट 
डाला || ८०-८१ |। 

शिखण्डी तु ततः क्रुद्धश्छिन्ने धनुषि सत्वर: | 

असिं जग्राह समरे शतचन्द्रं च भास्वरम्‌ । ८२ ।। 

धनुष कट जानेपर शिखण्डीने तुरंत ही कुपित हो उस युद्धस्थलमें सौ चन्द्रमाओंके 
चिह्से युक्त चमकीली ढाल और तलवार हाथमें ले ली || ८२ ।। 

भ्रामयित्वा महच्चर्म चामीकरविभूषितम्‌ । 

तमसिं प्रेषयामास कृतवर्मरथं प्रति ।। ८३ ।। 

उसने स्वर्णभूषित विशाल ढालको घुमाकर कृतवर्मके रथपर वह तलवार दे 
मारी ।। ८३ ।। 

स तस्य सशरं चापं छित्त्वा राजन्‌ महानसि: । 


अभ्यगाद्‌ धरणीं राजंश्ष्युतं ज्योतिरिवाम्बरात्‌ ।। ८४ ।। 

राजन! वह महान्‌ खड्ग कृतवर्माके बाणसहित धनुषको काटकर आकाशशसे टूटे हुए 
तारेके समान धरतीमें समा गया ।। ८४ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणं महारथा: । 

विव्यधु: सायकैर्गाढं कृतवर्माणमाहवे ।। ८५ ।। 

इसी समय पाण्डव महारथियोंने युद्धमें जल्दी-जल्दी हाथ चलानेवाले कृतवर्माको 
अपने बाणोंद्वारा भारी चोट पहुँचायी ।। ८५ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय त्यक्त्वा तच्च महद्‌ धनु: । 

विशीर्ण भरतश्रेष्ठ: हार्दिक्य: परवीरहा ।। ८६ ।। 

विव्याध पाण्डवान्‌ युद्धे त्रिभिस्त्रिभिरजिद्वागै: । 

शिखण्डिनं च विव्याध त्रिभि: पठचभिरेव च ।। ८७ ।। 

भरतश्रेष्ठ। तदनन्तर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कृतवर्माने टूटे हुए उस विशाल 
धनुषको त्यागकर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और युद्धमें पाण्डवोंको तीन-तीन बाण 
मारकर घायल कर दिया। साथ ही शिखण्डीको भी तीन और पाँच बाणोंसे बींध 
डाला || ८६-८७ |। 

धनुरन्यत्‌ समादाय शिखण्डी तु महायशा: । 

अवारयन्‌ कूर्मनखैराशुगै्दिकात्मजम्‌ ।। ८८ ।। 

तत्पश्चात्‌ महायशस्वी शिखण्डीने भी दूसरा धनुष लेकर कछुओंके नखोंके समान 
धारवाले बाणोंद्वारा कृतवर्माका सामना किया ।। ८८ ।। 

ततः क्रुद्धो रणे राजन्‌ हृदिकस्यात्मसम्भव: । 

अभिदुद्राव वेगेन याज्ञसेनिं महारथम्‌ ।। ८९ ।। 

भीष्मस्य समरे राजन मृत्योहेतुं महात्मन: । 

विदर्शयन्‌ बल॑ शूर: शार्टूल इव कुज्जरम्‌ ।। ९० ।। 

राजन! जैसे सिंह हाथीपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार उस रणक्षेत्रमें कुपित हुए 
शूरवीर कृतवर्माने समरांगणमें महात्मा भीष्मकी मृत्युका कारण बने हुए महारथी 
शिखण्डीपर अपने बलका प्रदर्शन करते हुए बड़े वेगसे धावा किया ।। ८९-९० ।। 

तौ दिशां गजसंकाशौ ज्वलिताविव पावकौ । 

समापेततुरन्योन्यं शरसड्घैररिंदमौ ।। ९१ ।। 

प्रज्वलित अग्नियोंके समान तेजस्वी तथा शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों वीर 
अपने बाणसमूहोंद्वारा दो दिग्गजोंके समान एक-दूसरेपर टूट पड़े ।। ९१ ।। 

विधुन्वानौ धनुःश्रेष्ठे संदथधानौ च सायकान्‌ | 

विसृजन्तो च शतशो गभस्तीनिव भास्वरौ ।। ९२ ।। 


जैसे दो सूर्य पृथक्‌ू-पृथक्‌ अपनी किरणोंका विस्तार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर 
अपने श्रेष्ठ धनुष हिलाते और उनपर सैकड़ों बाणोंका संधान करके छोड़ते थे ।। 

तापयन्तौ शरैस्ती&णैरन्योन्यं तौ महारथौ | 

युगान्तप्रतिमौ वीरौ रेजतुर्भास्कराविव ।। ९३ ।। 

अपने पैने बाणोंद्वारा एक-दूसरेको संताप देते हुए वे दोनों महारथी वीर प्रलयकालके 
दो सूर्योके समान शोभा पा रहे थे ।। ९३ ।। 

कृतवर्मा च समरे याज्ञसेनिं महारथम्‌ | 

विद्ध्वेषुभिस्त्रिसप्तत्या पुनर्विव्याध सप्तभि: ।। ९४ ।। 

कृतवर्माने समरांगणमें महारथी शिखण्डीको पहले तिहत्तर बाणोंसे घायल करके फिर 
सात बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया ।। ९४ ।। 

स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्‌ | 

विसृज्य सशरं चापं मूर्च्छयाभिपरिप्लुत: ।। ९५ ।। 

उन बाणोंकी गहरी चोट खाकर शिखण्डी व्यथित एवं मूर्च्छित हो धनुष-बाण त्यागकर 
रथकी बैठकमें बैठ गया ।। ९५ ।। 

तं॑ विषण्णं रणे दृष्टवा तावका: पुरुषर्षभ । 

हार्दिक्यं पूजयामासुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह ।। ९६ ।। 

नरश्रेष्ठ! रणक्षेत्रमें शिखण्डीको विषादग्रस्त देख आपके सैनिक कृतवर्माकी प्रशंसा 
करने और वस्त्र हिलाने लगे ।। ९६ ।। 

शिखण्डिनं तथा ज्ञात्वा हार्दिक्यदशरपीडितम्‌ । 

अपोवाह रणाद यन्ता त्वरमाणो महारथम्‌ ।। ९७ |। 

महारथी शिखण्डीको कृतवर्माके बाणोंसे पीड़ित जान सारथि बड़ी उतावलीके साथ 
उसे रणभूमिसे बाहर ले गया || ९७ ।। 

सादितं तु रथोपस्थे दृष्टवा पार्था: शिखण्डिनम्‌ । 

परिवव्रू रथैस्तूर्ण कृतवर्माणमाहवे ।। ९८ ।। 

कुन्तीकुमारोंने शिखण्डीको रथके पिछले भागमें बेसुध होकर बैठा देख तुरंत ही 
कृतवर्माको रणभूमिमें अपने रथोंद्वारा चारों ओरसे घेर लिया ।। ९८ ।। 

तत्राद्भुतं परं चक्रे कृतवर्मा महारथ: । 

यदेक: समरे पार्थान्‌ वारयामास सानुगान्‌ ॥। ९९ ।। 

वहाँ महारथी कृतवर्माने अत्यन्त अद्भुत पराक्रम प्रकट किया। उसने अकेले होनेपर भी 
सेवकोंसहित समस्त पाण्डवोंका समरभूमिमें सामना किया ।। ९९ ।। 

पार्थान्‌ जित्वाजयच्चेदीन्‌ पज्चालान्‌ सृञ्जयानपि । 

केकयांश्व महावीर्यान्‌ कृतवर्मा महारथ: | १०० || 


महारथी कृतवर्माने पाण्डवोंको जीतकर चेदिदेशीय सैनिकोंको परास्त किया, फिर 
पांचालों, सूंजयों और महापराक्रमी केकयोंको भी हरा दिया || १०० ।। 
ते वध्यमाना: समरे हार्दिक्येन सम पाण्डवा: | 
इतश्रैतश्न धावन्तो नैव चक्रुर्धुतिं रणे | १०१ ।। 
समरांगणमें कृतवर्मके बाणोंकी मार खाकर पाण्डव-सैनिक इधर-उधर भागने लगे। वे 
रणभूमिमें कहीं भी स्थिर न हो सके || १०१ ।। 
जित्वा पाण्डुसुतान्‌ युद्धे भीमसेनपुरोगमान्‌ । 
हार्दिक्य: समरे$तिष्ठद्‌ विधूम इव पावक: ।। १०२ ।। 
युद्धमें भीमसेन आदि पाण्डवोंको जीतकर कृतवर्मा उस रणक्षेत्रमें धूमरहित अग्निके 
समान शोभा पाता हुआ खड़ा था ।। १०२ |। 
ते द्राव्यमाणा: समरे हार्दिक्येन महारथा: । 
विमुखा: समपद्यन्त शरवृष्टिभिरार्दिता: ॥। १०३ || 
समरांगणमें कृतवर्माके द्वारा खदेड़े गये और उसकी बाण-वर्षसे पीड़ित हुए पूर्वोक्त 
सभी महारथियोंने युद्धसे मुँह मोड़ लिया || १०३ ।। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे कृतवर्मपराक्रमे 
चतुर्दशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका कौरव-सेनामें 
प्रवेश तथा कृतवर्गाका पराक्रमविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११९४ ॥ 


ऑपन--माज बछ। अप ऋाल 


पञ्चदशाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिके द्वारा कृतवर्माकी पराजय, त्रिगर्तोंकी 
गजसेनाका संहार और जलसंधका वध 


संजय उवाच 

शृणुष्वैकमना राजन्‌ यन्मां त्वं परिपृच्छसि । 

द्राव्यमाणे बले तस्मिन्‌ हार्दिक्येन महात्मना ।। १ ।। 

लज्जयावनते चापि प्रहृष्टेश्नापि तावकै: । 

डीपो य आसीत्‌ पाण्डूनामगाथे गाधमिच्छताम्‌ ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे हैं, उसे एकाग्रचित्त होकर 
सुनिये। महामना कृतवमकि द्वारा खदेड़ी जानेके कारण जब पाण्डव-सेना लज्जासे 
नतमस्तक हो गयी और आपके सैनिक हर्षसे उललसित हो उठे, उस समय अथाह सैन्य- 
समुद्रमें थाह पानेकी इच्छावाले पाण्डव-सैनिकोंके लिये जो द्वीप बनकर आश्रयदाता हुआ 
(उस सात्यकिका पराक्रम श्रवण कीजिये) ।। १-२ ।। 

श्रुत्वा स निनदं भीम॑ तावकानां महाहवे । 

शैनेयस्त्वरितो राजन्‌ कृतवर्माणम भ्ययात्‌ ।। ३ ।। 

राजन्‌! उस महासमरमें आपके सैनिकोंका भयंकर सिंहनाद सुनकर सात्यकिने तुरंत 
ही कृतवर्मापर आक्रमण किया ।। ३ ।। 

उवाच सारथिं तत्र क्रोधामर्षसमन्वित: । 

हार्दिक्याभिमुखं सूत कुरु मे रथमुत्तमम्‌ ।। ४ ।। 

उन्होंने क्रोध और अमर्षमें भरकर वहाँ सारथिसे कहा--“सूत! तुम मेरे उत्तम रथको 
कृतवर्माके सामने ले चलो ।। ४ ।। 

कुरुते कदनं पश्य पाण्डुसैन्ये हामर्षित: । 

एनं जित्वा पुनः सूत यास्यामि विजयं प्रति ।। ५ ।। 

“देखो, वह अमर्षयुक्त होकर पाण्डव-सेनामें संहार मचा रहा है। सारथे! इसे जीतकर 
मैं पुनः अर्जुनके पास चलूँगा” ।। ५ ।। 

एवमुक्ते तु वचने सूतस्तस्य महामते । 

निमेषान्तरमात्रेण कृतवर्माणम भ्ययात्‌ ।। ६ ।। 

महामते! सात्यकिके ऐसा कहनेपर सारथि पलक गिरते-गिरते रथ लेकर कृतवमकि 
पास जा पहुँचा ।। ६ ।। 

कृतवर्मा तु हार्दिक्य: शैनेयं निशितै: शरै: । 


अवाकिरत्‌ सुसंक्रुद्धस्ततो5क़्रुद्धयबत्‌ स सात्यकि: ।। ७ ।। 

हृदिकपुत्र कृतवर्माने अत्यन्त कुपित हो सात्यकिपर पैने बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। 
इससे सात्यकिका क्रोध भी बहुत बढ़ गया ।। ७ ।। 

अथाशु निशितं भल्लं शैनेय: कृतवर्मण: । 

प्रेषयामास समरे शरांश्व चतुरो5परान्‌ ।। ८ ।। 

उन्होंने तुरंत ही कृतवर्मापर समरभूमिमें एक तीखे भल्लका प्रहार किया। फिर चार 
बाण और मारे ।। ८ ।। 

ते तस्य जध्निरे वाहान्‌ भल्लेनास्याच्छिनद्‌ धनु: । 

पृष्ठरक्ष॑ं तथा सूतमविध्यन्निशितै: शरै: ।। ९ |। 

उन चारों बाणोंने कृतवर्माके चारों घोड़ोंको मार डाला। सात्यकिने भलल से उसके 
धनुषको काट दिया। फिर पैने बाणोंद्वारा उसके पृष्ठरक्षक और सारथिको भी क्षत-विक्षत 
कर दिया ।। ९ ।। 

ततस्तं विरथं कृत्वा सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

सेनामस्यार्दयामास शरै: संनतपर्वभि: ।। १० ।। 

तदनन्तर सत्यपराक्रमी सात्यकिने कृतवर्माको रथहीन करके झुकी हुई गाँठवाले 
बाणोंद्वारा उसकी सेनाको पीड़ित करना आरम्भ किया ।। १० ।। 

अभज्यताथ पृतना शैनेयशरपीडिता । 

ततः प्रायात्‌ स त्वरित: सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। ११ ।। 

सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित हो कृतवर्माकी सेना भाग खड़ी हुई। तत्पश्चात्‌ 
सत्यपराक्रमी सात्यकि तुरंत आगे बढ़ गये ।। ११ ।। 

शृणु राजन्‌ यदकरोत्‌ तव सैन्येषु वीर्यवान्‌ । 

अतीत्य स महाराज द्रोणानीकमहार्णवम्‌ ।। १२ ।। 

महाराज! पराक्रमी सात्यकिने द्रोणाचार्यके सैन्य-समुद्रको लाँधकर आपकी सेनाओंमें 
जो पराक्रम किया, उसका वर्णन सुनिये ।। १२ ।। 

पराजित्य तु संहृष्ट: कृतवर्माणमाहवे । 

यन्तारमब्रवीच्छूर: शनैर्याहीत्यसम्भ्रमम्‌ ।। १३ ।। 

उस महासमरमें कृतवर्माको पराजित करके हर्षमें भरे हुए शूरवीर सात्यकि बिना किसी 
घबराहटके सारथिसे बोले--'सूत! धीरे-धीरे चलो' ।। १३ ।। 

दृष्टवा तु तव तत्‌ सैन्यं रथाश्वद्धिपसंकुलम्‌ । 

पदातिजनसम्पूर्णमब्रवीत्‌ सारथिं पुन: ।। १४ ।। 

रथ, घोड़े, हाथी और पैदलोंसे भरी हुई आपकी सेनाको देखकर सात्यकिने पुनः 
सारथिसे कहा-- ।। १४ ।। 

यदेतन्मेघसंकाशं द्रोणानीकस्य सव्यतः । 


सुमहत्‌ कुञ्जरानीकं यस्य रुक्मरथो मुखम्‌ ॥। १५ ।। 

एते हि बहव: सूत दुर्निवाराश्च संयुगे । 

दुर्योधनसमादिष्टा मदर्थे त्यक्तजीविता: ।। १६ ।। 

'सूत! द्रोणाचार्यकी सेनाके बायें भागमें जो यह मेघोंकी घटाके समान विशाल गजसेना 
दिखायी देती है, इसके मुहानेपर रुक्मरथ खड़ा है। इसमें बहुत-से ऐसे शूरवीर हैं, जिन्हें 
युद्धमें रोकना अत्यन्त कठिन है। ये दुर्योधनकी आज्ञासे प्राणोंका मोह छोड़कर मेरे साथ 
युद्ध करनेके लिये खड़े हैं || १५-१६ ।। 

(न चाजित्वा रणे होतान्‌ शक: प्राप्तुं जयद्रथ: । 

नापि पार्थों मया सूत शक्‍्य: प्राप्तुं कथंचन ।। 

एते तिष्ठन्ति सहिता: सर्वविद्यासु निषछ्िता: ।।) 

'सूत! इन्हें रणमें परास्त किये बिना न तो जयद्रथको प्राप्त किया जा सकता है और न 
किसी प्रकार अर्जुन ही मुझे मिल सकते हैं। ये समस्त विद्याओंमें प्रवीण योद्धा एक साथ 
संगठित होकर खड़े हैं। 

राजपुत्रा महेष्वासा: सर्वे विक्रान्तयोधिन: । 

त्रिगर्तानां रथोदारा: सुवर्णविकृतध्वजा: ।। १७ ।। 

'ये त्रिगर्तदेशके उदार महारथी राजकुमार महान धनुर्धर हैं और सभी पराक्रमपूर्वक 
युद्ध करनेवाले हैं। इन सबकी ध्वजा सुवर्णमयी है ।। १७ ।। 

मामेवाभिमुखावीरा योत्स्यमाना व्यवस्थिता: । 

अत्र मां प्रापय क्षिप्रमश्वांश्रोदय सारथे ।। १८ ।। 

त्रिगर्ती: सह योत्स्यामि भारद्वाजस्य पश्यत: । 

“ये समस्त वीर मेरी ही ओर मुँह करके युद्ध करनेके लिये खड़े हैं। सारथे! घोड़ोंको 
हॉको और मुझे शीघ्र ही इनके पास पहुँचा दो। मैं द्रोणाचार्यके देखते-देखते त्रिगर्तोंके साथ 
युद्ध करूँगा” ।। १८६ || 

ततः प्रायाच्छनै: सूत: सात्वतस्य मते स्थित: ।। १९ |। 

रथेनादित्यवर्णेन भास्वरेण पताकिना । 

तदनन्तर सात्यकिकी सम्मतिके अनुसार सारथि सूर्यके समान तेजस्वी तथा 
पताकाओंसे विभूषित रथके द्वारा धीरे-धीरे आगे बढ़ा || १९६ ।। 

तमूहु: सारथेरवश्या वल्गमाना हयोत्तमा: ।। २० ।। 

वायुवेगसमा: संख्ये कुन्देन्दुरजतप्रभा: । 

उस रथके उत्तम घोड़े कुन्द, चन्द्रमा और चाँदीके समान श्वेत रंगके थे; वे सारथिके 
अधीन रहनेवाले और वायुके समान वेगशाली थे तथा युद्धमें उछलते हुए उस रथका भार 
वहन करते थे ।। २०६ ।। 

आपततन्तं रणे तं तु शड्खवर्णहयोत्तमै: ।। २१ ।। 


परिवद्रुस्तत: शूरा गजानीकेन सर्वतः । 

किरन्तो विविधांस्तीक्ष्णानू सायकॉल्लघुवेधिन: ।॥ २२ ।। 

शंखके समान श्वैत रंगवाले उन उत्तम घोड़ोंद्वारा रणभूमिमें आते हुए सात्यकिको 
त्रिगर्तदेशीय शूरवीरोंने सब ओरसे गजसेनाद्वारा घेर लिया। शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य वेधनेवाले वे 
समस्त सैनिक नाना प्रकारके तीखे बाणोंकी वर्षा कर रहे थे || २१-२२ ।। 

सात्वतो निशितैर्बाणैर्गजानीकमयोधयत्‌ | 

पर्वतानिव वर्षेण तपान्ते जलदो महान्‌ ।। २३ ।। 

सात्यकिने भी पैने बाणोंद्वारा गजसेनाके साथ युद्ध प्रारम्भ किया, मानो वर्षाकालमें 
महान्‌ मेघ पर्वतोंपर जलकी धारा बरसा रहा हो ।। २३ ।। 

वज्राशनिसमस्पर्शर्वध्यमाना: शरैर्गजा: । 

प्राद्रवन्‌ रणमुत्सूज्य शिनिवीरसमीरितै: ।। २४ ।। 

शिनिवंशके वीर सात्यकिद्वारा चलाये हुए वज् और बिजलीके समान स्पर्शवाले उन 
बाणोंकी मार खाकर उस सेनाके हाथी युद्धका मैदान छोड़कर भागने लगे ।। 





0०७ आ कं ० 


शीर्णदन्ता विरुधिरा भिन्नमस्तकपिण्डिका: । 
विशीर्णकर्णास्यकरा विनियन्तृपताकिन: ।। २५ ।। 


सम्भिन्नमर्मघण्टाश्न विनिकृत्तमहाध्वजा: । 

हतारोहा दिशो राजन्‌ भेजिरे भ्रष्टकम्बला: ।। २६ ।। 

उन हाथियोंके दाँत टूट गये, सारे अंगोंसे खूनकी धाराएँ बहने लगीं, कुम्भस्थल और 
गण्डस्थल फट गये, कान, मुख और शुण्ड छिलन्न-भिन्न हो गये, महावत मारे गये और ध्वजा- 
पताकाएँ टूटकर गिर गयीं। उनके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये, घंटे टूट गये और विशाल ध्वज 
कटकर गिर पड़े। सवार मारे गये तथा झूल खिसककर गिर गये थे। राजन्‌! ऐसी अवस्थामें 
उन हाथियोंने भागकर विभिन्न दिशाओंकी शरण ली थी ।। २५-२६ ।। 

रुवन्तो विविधान्‌ नादान्‌ जलदोपमनिः:स्वना: । 

नाराचैर्वत्सदन्तैश्व भल्‍लैरञण्जलिकैस्तथा ।। २७ |। 

क्षुप्रैरर्धचन्द्रैश्न सात्वतेन विदारिता: । 

क्षरन्तोडसृक्‌ तथा मूत्रं पुरीषं च प्रदुद्रुवु: ।। २८ ।। 

उनके चिग्घाड़नेकी ध्वनि मेघोंकी गर्जनाके समान जान पड़ती थी। वे सात्यकिके 
चलाये हुए नाराच, वत्सदन्त, भल्ल, अंजलिक, क्षुरप्र और अर्द्धचन्द्र नामक बाणोंसे विदीर्ण 
हो नाना प्रकारसे आर्तनाद करते, रक्त बहाते तथा मल-मूत्र छोड़ते हुए भाग रहे 
थे ।। २७-२८ ।। 

बभ्रमुश्न स्खलुश्नान्ये पेतुर्मम्लुस्तथापरे । 

एवं तत्‌ कुञ्जरानीकं युयुधानेन पीडितम्‌ ।। २९ ।। 

शरैरग्न्यर्कसंकाशै: प्रदुद्राव समन्तत: । 

उनमेंसे कुछ हाथी चक्कर काटने लगे, कुछ लड़खड़ाने लगे, कुछ धराशायी हो गये 
और कुछ पीड़ाके मारे अत्यन्त शिथिल हो गये थे। इस प्रकार युयुधानके अग्नि और सूर्यके 
समान तेजस्वी बाणोंद्वारा पीड़ित हुई हाथियोंकी वह सेना सब ओर भाग गयी ।। २९३६ ।। 

तस्मिन्‌ हते गजानीके जलसंधो महाबल: ।। ३० ।। 

यत्त: सम्प्रापयन्नागं रजताश्वरथं प्रति । 

उस गजसेनाके नष्ट होनेपर महाबली जलसंध युद्धके लिये उद्यत हो श्वेत घोड़ोंवाले 
सात्यकिके रथके समीप अपना हाथी ले आया ।। ३० ३ ।। 

रुक्मवर्मधर: शूरस्तपनीयाड्रद: शुचि: ।। ३१ ।। 

कुण्डली मुकुटी खड्गी रक्तचन्दनरूषित: । 

शिरसा धारयन्‌ दीप्तां तपनीयमयीं स्रजम्‌ ।। ३२ ।। 

उरसा धारयन्‌ निष्कं कण्ठसूत्रं च भास्वरम्‌ | 


शूरवीर एवं पवित्र जलसंधने अपने शरीरमें सोनेका कवच धारण कर रखा था। उसकी 
दोनों भुजाओंमें सोनेके ही बाजूबंद शोभा पा रहे थे। दोनों कानोंमें कुण्डल और मस्तकपर 
किरीट चमक रहे थे। उसके हाथमें तलवार थी और सम्पूर्ण शरीरमें रक्त चन्दनका लेप लगा 
हुआ था। उसने अपने सिरपर सोनेकी बनी हुई चमकीली माला और वक्ष:स्थलपर 
प्रकाशमान पदक एवं कण्ठहार धारण कर रखे थे ।। ३१-३२ ६ ।। 

चापं च रुक्मविकृतं विधुन्वन्‌ गजमूर्थनि ।। ३३ ।। 

अशोभत महाराज सविद्युदिव तोयद: । 

महाराज! हाथीकी पीठपर बैठकर अपने सोनेके बने हुए धनुषको हिलाता हुआ 
जलसंध बिजलीसहित मेघके समान शोभा पा रहा था ।। ३३ $ || 

तमापतन्तं सहसा मागधस्य गजोत्तमम्‌ ।। ३४ ।। 

सात्यकिर्वारियामास वेलेव मकरालयम्‌ | 

सहसा अपनी ओर आते हुए मगधराजके उस गजराजको सात्यकिने उसी प्रकार रोक 
दिया, जैसे तटकी भूमि समुद्रको रोक देती है ।। ३४३ ।। 

नागं निवारितं दृष्टवा शैनेयस्य शरोत्तमै: ।। ३५ ।। 

अक्कुद्धबत रणे राजन्‌ जलसंधो महाबल: । 

राजन! सात्यकिके उत्तम बाणोंसे उस हाथीको अवरुद्ध हुआ देख महाबली जलसंध 
रणक्षेत्रमें कुपित हो उठा || ३५३ ।। 

ततः क्रुद्धो महाराज मार्गणैर्भारसाधनै: ।। ३६ ।। 

अविध्यत शिने: पौत्रं जलसंधो महोरसि । 

महाराज! क्रोधमें भरे हुए जलसंधने भार सहन करनेमें समर्थ बाणोंद्वारा शिनिपौत्र 
सात्यकिकी विशाल छातीपर गहरा आघात किया ।। ३६३६ ।। 

ततो5परेण भल्‍्लेन पीतेन निशितेन च ।। ३७ ।। 

अस्यतो वृष्णिवीरस्य निचकर्त शरासनम्‌ | 

तत्पश्चात्‌ दूसरे तीखे, पैने और पानीदार भल्लसे उसने बाण फेंकते हुए वृष्णिवीर 
सात्यकिके धनुषको काट डाला || ३७३ || 

सात्यकिं छिन्नथन्वानं प्रहसन्निव भारत ।। ३८ ।। 

अविध्यन्मागधो वीर: पज्चभिरनर्निशितै: शरै: | 

भारत! धनुष काटनेके पश्चात्‌ सात्यकिको उस मागध वीरने हँसते हुए ही पाँच तीखे 
बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। ३८ $ ।। 

स विद्धो बहुभिर्बाणैर्जलसंधेन वीर्यवान्‌ ॥। ३९ ।। 

नाकम्पत महाबाहुस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ | 


जलसंधके बहुत-से बाणोंद्वारा क्षत-विक्षत होनेपर भी पराक्रमी महाबाहु सात्यकि 
कम्पित नहीं हुए। यह अद्भुत-सी बात थी ।। ३९३ ।। 

अचिन्तयन्‌ वै स शरान्नात्यर्थ सम्भ्रमाद्‌ बली ।। ४० ।। 

धनुरन्यत्‌ समादाय तिष्ठ तिछेत्युवाच ह । 

बलवान सात्यकिने उसके बाणोंको कुछ भी न गिनते हुए अधिक संभ्रममें न पड़कर 
दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और कहा--'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४० $ ।। 

एतावदुक्त्वा शैनेयो जलसंधं महोरसि ।। ४१ ।। 

विव्याध षष्ट्या सुभृशं शराणां प्रहसन्निव । 

ऐसा कहकर सात्यकिने हँसते हुए ही साठ बाणोंद्वारा जलसंधकी चौड़ी छातीपर गहरी 
चोट पहुँचायी || ४१६ ।। 

क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन मुष्टिदेशे महद्‌ धनु: ।। ४२ ।। 

जलसंधस्य चिच्छेद विव्याध च त्रिभि: शरै: | 

फिर अत्यन्त तीखे क्षुरप्रसे जलसंधके विशाल धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट 
दिया और तीन बाण मारकर उसे घायल भी कर दिया || ४२६ ।। 

जलसंधस्तु तत्‌ त्यक्त्वा सशरं वै शरासनम्‌ ।। ४३ ।। 

तोमरं व्यसृजत्‌ तूर्ण सात्यकिं प्रति मारिष । 

माननीय नरेश! जलसंधने बाणसहित उस धनुषको त्यागकर सात्यकिपर तुरंत ही 
तोमरका प्रहार किया ।। ४३ $ ।। 

स निर्भिद्य भुजं सव्यं माधवस्य महारणे ।। ४४ ।। 

अभ्यगाद्‌ धरणीं घोर: श्वसन्निव महोरग: । 

फुफकारते हुए महान्‌ सर्पके समान वह भयंकर तोमर उस महासमरमें सात्यकिकी 
बायीं भुजाको विदीर्ण करता हुआ धरतीमें समा गया ।। ४४ ६ ।। 

निर्भिन्ने तु भुजे सव्ये सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। ४५ ।। 

त्रिंशद्धिर्विशिखैस्तीक्षैजलसंधमताडयत्‌ । 

अपनी बायीं भुजाके घायल होनेपर सत्यपराक्रमी सात्यकिने तीस तीखे बाणोंद्वारा 
जलसंधको आहत कर दिया || ४५३ || 

प्रगृह्मा तु ततः खड्गं जलसंधो महाबल: ।। ४६ ।। 

आर्षभं चर्म च महच्छतचन्द्रकसंकुलम्‌ । 

आविध्य च तत: खड्गं सात्वतायोत्ससर्ज ह ।। ४७ ।। 

तब महाबली जलसंधने सौ चन्द्राकार चमकीले चिह्लोंसे युक्त वृषभ-चर्मकी बनी हुई 
विशाल ढाल और तलवार हाथमें ले ली तथा उस तलवारको घुमाकर सात्यकिपर छोड़ 
दिया ।। ४६-४७ ।। 


शैनेयस्य धनुश्छित्त्वा स खड्गो न्‍न्यपतन्महीम्‌ । 

अलातचक्रवच्चैव व्यरोचत महीं गत: ।। ४८ ।। 

वह खड्ग सात्यकिके धनुषको काटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। धरतीपर पहुँचकर वह 
अलातचक्रके समान प्रकाशित हो रहा था ।। ४८ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सर्वकायावदारणम्‌ | 

शालस्कन्धप्रतीकाशमिन्द्राशनिसमस्वनम्‌ ।। ४९ ।। 

विस्फार्य विव्यधे क्रुद्धो जलसंधं शरेण ह | 

तब सात्यकिने साखूके तनेके समान विशाल, इन्द्रके वज्रकी भाँति घोर टंकार 
करनेवाले तथा सबके शरीरको विदीर्ण करनेमें समर्थ दूसरा धनुष हाथमें लेकर उसे 
कानतक खींचा और कुपित हो एक बाणसे जलसंधको बींध डाला ।। ४९६ ।। 

ततः साभरणोौ बाहू क्षुराभ्यां माधवोत्तम: ।। ५० || 

सात्यकिर्जलसंधस्य चिच्छेद प्रहसन्निव | 

फिर मधुवंशशिरोमणि सात्यकिने हँसते हुए-से दो छुरोंका प्रहार करके जलसंधकी 
आभूषणभूषित दोनों भुजाओंको काट दिया ।। ५० ३ ।। 

तौ बाहू परिघप्रख्यौ पेततुर्गजसत्तमात्‌ ।। ५१ ।। 

वसुंधराधराद्‌ भ्रष्टी पज्चशीर्षाविवोरगौ । 

उसकी वे परिघके समान मोटी भुजाएँ उस गजराजकी पीठसे नीचे गिर पड़ीं, मानो 
पर्वतसे पाँच-पाँच मस्तकोंवाले दो नाग पृथ्वीपर गिरे हों ।। ५१ $ ।। 

तत: सुदष्ट्रं सुमहच्चारुकुण्डलमण्डितम्‌ ।। ५२ ।। 

क्षुरेणास्य तृतीयेन शिरश्रिच्छेद सात्यकि: । 

तदनन्तर सात्यकिने तीसरे छुरेसे उसके सुन्दर दाँतोंवाले मनोहर कुण्डलमण्डित 
विशाल मस्तकको काट गिराया ।। ५२३ ।। 

तत्पातितशिरोबाहुकबन्धं॑ भीमदर्शनम्‌ ।। ५३ ।। 

द्विरदं जलसंधस्य रुधिरेणा भ्यषिज्चत । 

मस्तक और भुजाओंके गिर जानेसे अत्यन्त भयंकर दिखायी देनेवाले जलसंधके उस 
धड़ने अपने खूनसे उस हाथीको नहला दिया ।। ५३ $ ।। 

जलसंध॑ निहत्याजौ त्वरमाणस्तु सात्वत: ।। ५४ ।। 

विमान पातयामास गजस्कन्धाद्‌ विशाम्पते । 

प्रजानाथ! युद्धस्थलमें जलसंधको मारकर फुर्ती करनेवाले सात्यकिने हाथीकी पीठसे 
उसके हौदेको भी गिरा दिया || ५४३ ।। 

रुधिरेणावसिक्ताज़ो जलसंधस्य कुड्जर: ।। ५५ ।। 

विलम्बमानमवहत्‌ संश्लिष्टं परमासनम्‌ | 


खूनसे भीगे शरीरवाला जलसंधका वह हाथी अपनी पीठसे सटकर लटकते हुए उस 
हौदेको ढो रहा था ।। ५५३ ।। 

शरार्दित: सात्वतेन मर्दमान: स्ववाहिनीम्‌ ।। ५६ ।। 

घोरमार्तस्वरं कृत्वा विदुद्राव महागज: । 

सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित हो वह महान्‌ गजराज घोर चीत्कार करके अपनी ही 
सेनाको कुचलता हुआ भाग निकला ।। ५६३ || 

हाहाकारो महानासीत्‌ तव सैन्यस्य मारिष ।। ५७ ।। 

जलसंध॑ हतं दृष्टवा वृष्णीनामृषभेण तु । 

आर्य! वृष्णिप्रवर सात्यकिके द्वारा जलसंधको मारा गया देख आपकी सेनामें महान्‌ 
हाहाकार मच गया || ५७३ ।। 

विमुखाश्नवा भ्यधावन्‍न्त तव योधा: समन्तत: ।। ५८ ।। 

पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये । 

आपके योद्धा शत्रुओंपर विजय पानेका उत्साह खो बैठे। अब वे भाग निकलनेमें ही 
उत्साह दिखाने लगे और युद्धसे मुँह मोड़कर चारों ओर भाग गये || ५८३ ।। 

एतस्मिन्नन्तरे राजन्‌ द्रोण: शस्त्रभूतां वर: ।। ५९ ।। 

अभ्ययाज्जवनैरश्वैर्युयुधानं महारथम्‌ । 

राजन! इसी समय शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य अपने वेगशाली घोड़ोंद्वारा महारथी 
युयुधानका सामना करनेके लिये आ पहुँचे || ५९३ ।। 

तमुदीर्ण तथा दृष्टवा शैनेयं नरपुड्रवा: ।। ६० ।। 

द्रोणेनैव सह क्रुद्धा: सात्यकिं समुपाद्रवन्‌ । 

शिनिपौत्र सात्यकिको बढ़ते देख नरश्रेष्ठ कौरव महारथी द्रोणाचार्यके साथ ही कुपित 
हो उनपर टूट पड़े ।। 

ततः प्रववृते युद्ध कुरूणां सात्वतस्य च | 

द्रोणस्य च रणे राजन्‌ घोरं देवासुरोपमम्‌ ।। ६१ ।। 

राजन्‌! फिर तो उस रफणक्षेत्रमें कौरवोंसहित द्रोणाचार्य तथा सात्यकिका देवासुर- 
संग्रामके समान भयंकर युद्ध होने लगा ।। ६१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे जलसंधवधो नाम 
पजञ्चदशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिके कौरव-सेनामें 
प्रवेशके अवसरपर जलसंधका वध नामक एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११५ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६३ “लोक मिलाकर कुल ६२३ श्लोक हैं।) 


० गा 


षोडशाधिकशततमोड<्ध्याय: 


सात्यकिका पराक्रम तथा दुर्योधन और कृतवर्माकी पुनः 
पराजय 


संजय उवाच 

ते किरन्त: शरव्रातान्‌ सर्वे यत्ता: प्रहारिण: । 

त्वरमाणा महाराज युयुधानमयोधयन्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! वे प्रहारकुशल सम्पूर्ण योद्धा सावधान हो बड़ी फुर्तीके 
साथ बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए वहाँ युयुधानके साथ युद्ध करने लगे ।। १ ।। 

तं द्रोण: सप्तसप्तत्या जघान निशितै: शरे: । 

दुर्मर्षणो द्वादशभिर्दु:सहो दशभि: शरै: ।। २ ।। 

द्रोणाचार्यने सात्यकिको सतहत्तर तीखे बाणोंसे घायल कर दिया। फिर दुर्मर्षणने बारह 
और दु:सहने दस बाणोंसे उन्हें बींध डाला ।। २ ।। 

विकर्णश्वापि निशितैस्त्रिंशद्धिः कड्कपत्रिभि: । 

विव्याध स्ये पाश्वें तु स्‍्तनाभ्यामन्तरे तथा ।। ३ ।। 

तत्पश्चात्‌ विकर्णने भी कंककी पाँखवाले तीस तीखे बाणोंसे सात्यकिकी बायीं पसली 
और छाती छेद डाली ।। ३ ।। 

दुर्मुखो दशभिर्बाणैस्तथा दुःशासनोडष्टभि: । 

चित्रसेनश्न शैनेयं द्वाभ्यां विव्याध मारिष ।। ४ ।। 

आर्य! तदनन्तर दुर्मुखने दस, दुःशासनने आठ और चित्रसेनने दो बाणोंसे सात्यकिको 
घायल कर दिया ।। ४ ।। 

दुर्योधनश्व॒ महता शरवर्षेण माधवम्‌ | 

अपीडयद्‌ू रणे राजन शूराश्षान्ये महारथा: ।। ५ ।। 

राजन! उस रणक्षेत्रमें दुर्योधन तथा अन्य शूरवीर महारथियोंने भारी बाण-वर्षा करके 
सात्यकिको पीड़ित कर दिया ।। ५ ।। 

सर्वतः प्रतिविद्धस्तु तव पुत्रैर्महारथै: । 

तान्‌ प्रत्यविध्यद्‌ वार्ष्णेय: पृथक्‌ पृथगजिद्दागैः ॥ ६ ।। 

आपके महारथी पुत्रोंद्वारा सब ओरसे घायल किये जानेपर वृष्णिवंशी वीर सात्यकिने 
उन सबको पृथक्‌-पृथक्‌ अपने बाणोंसे बींधकर बदला चुकाया ।। ६ ।। 

भारद्वाजं त्रिभिरबणर्दु:सहं नवभि: शरै: । 

विकर्ण पञज्चविंशत्या चित्रसेनं च सप्तभि: || ७ ।। 


दुर्मर्षणं द्वादशभिरष्टाभिश्न विविंशतिम्‌ । 

सत्यव्रतं च नवभिर्विजयं दशभि: शरै: ।। ८ ।। 

उन्होंने द्रोणाचार्यको तीन, दुःसहको नौ, विकर्णको पचीस, चित्रसेनको सात, 
दुर्मीषणको बारह, विविंशतिको आठ, सत्यव्रतको नौ तथा विजयको दस बाणोंसे घायल 
किया ।। ७-८ ।। 

ततो रुक्‍्माड़्दं चाप॑ं विधुन्चानो महारथ: । 

अभ्ययात्‌ सात्यकिस्तूर्ण पुत्र तव महारथम्‌ ।। ९ ।। 

तदनन्तर महारथी सात्यकिने सोनेके अंगदसे विभूषित अपने विशाल धनुषको हिलाते 
हुए तुरंत ही आपके महारथी पुत्र दुर्योधनपर आक्रमण किया ।। ९ |। 

राजानं सर्वलोकस्य सर्वलोकमहारथम्‌ | 

शरैरभ्याहनद्‌ गाढं ततो युद्धम भूत्‌ तयो: ।। १० ।। 

सब लोगोंके राजा और समस्त संसारके विख्यात महारथी दुर्योधनको उन्होंने अपने 
बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी। फिर तो उन दोनोंमें भारी युद्ध छिड़ गया ।। १० ।। 

विमुज्चन्तौ शरांस्तीक्ष्णान्‌ संदधानौ च सायकान्‌ | 

अदृश्यं समरे<न्योन्यं चक्रतुस्तो महारथौ ।। ११ ।। 

उन दोनों महारथियोंने समरभूमिमें बाणोंका संधान और तीखे बाणोंका प्रहार करते हुए 
एक-दूसरेको अदृश्य कर दिया ।। ११ ।। 

सात्यकि: कुरुराजेन निर्विद्धों बह्मशो भत । 

अस्रवद्‌ रुधिरं भूरि स्वरसं चन्दनो यथा || १२ ।। 

सात्यकि कुरुराज दुर्योधनके बाणोंसे बिंधकर अधिक मात्रामें रक्त बहाने लगे। उस 
समय वे अपना रक्त बहाते हुए लाल चन्दनवृक्षके समान अधिक शोभा पा रहे थे || १२ ।। 

सात्वतेन च बाणीौचघैर्निरविद्धिस्तनयस्तव । 

शातकुम्भमयापीडो बभौ यूप इवोच्छित: ।। १३ ।। 

सात्यकिके बाणसमूहोंसे घायल होकर आपका पुत्र दुर्योधन सुवर्णमय मुकुट धारण 
किये ऊँचे यूपके समान सुशोभित हो रहा था ।। १३ ।। 

माधवस्तु रणे राजन्‌ कुरुराजस्य धन्विन: । 

धनुश्चिच्छेद समरे क्षुरप्रेण हसन्निव ।। १४ ।। 

राजन! रफणक्षेत्रमें सात्यकिने धनुर्धर दुर्योधनके धनुषको एक क्षुरप्रद्वारा हँसते हुए-से 
काट दिया ।। १४ ।। 

अथीैनं छिन्नधन्वानं शरैर्बहुभिसचिनोत्‌ । 

निर्भिन्निश्न शरैस्तेन द्विषता क्षिप्रकारिणा ।। १५ ।। 

नामृष्यत रणे राजा शत्रोर्विजयलक्षणम्‌ | 


धनुष कट जानेपर उन्होंने बहुत-से बाण मारकर दुर्योधनके शरीरको चुन दिया। 
शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले अपने शत्रु सात्यकिके बाणोंद्वारा विदीर्ण होकर राजा दुर्योधन 
रणभूमिमें विपक्षीके उस विजय-सूचक पराक्रमको सह न सका | १५३ || 

अथान्यद्‌ धनुरादाय हेमपृष्ठं दुरासदम्‌ ।। १६ ।। 

विव्याध सात्यकिं तूर्ण सायकानां शतेन ह | 

उसने सोनेकी पीठवाले दूसरे दुर्धर्ष धनुषको लेकर शीघ्र ही सौ बाणोंसे सात्यकिको 
घायल कर दिया ।। १६६ ।। 

सो$तिविद्धों बलवता तव पुत्रेण धन्विना ।। १७ ।। 

अमर्षवशमापतन्नस्तव पुत्रमपीडयत्‌ | 

आपके बलवान्‌ और धरनुर्धर पुत्रके द्वारा अत्यन्त घायल किये जानेपर सात्यकिने भी 
अमर्षके वशीभूत होकर आपके पुत्रको बड़ी पीड़ा दी || १७३ || 

पीडित॑ नृपतिं दृष्टवा तव पुत्रा महारथा: ।। १८ ।। 

सात्यकिं शरवर्षेण छादयामासुरोजसा । 

राजाको पीड़ित देखकर आपके अन्य महारथी पुत्रोंने बलपूर्वक बाणोंकी वर्षा करके 
सात्यकिको आच्छादित कर दिया ।। १८६ ।। 

स च्छाद्यमानो बहुभिस्तव पुत्रैर्महारथै: ।। १९ ।। 

एकैकं पज्चभिर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध सप्तभि: । 

दुर्योधनं च त्वरितो विव्याधाष्टभिराशुगै: ।। २० ।॥। 

आपके बहुसंख्यक महारथी पुत्रोंद्वारा बाणोंसे आच्छादित किये जानेपर सात्यकिने 
उनमेंसे एक-एकको पहले पाँच-पाँच बाणोंसे घायल किया। फिर सात-सात बाणोंसे बींध 
डाला। तत्पश्चात्‌ तुरंत ही आठ शीघ्रगामी बाणोंद्वारा दुर्योधनको भी गहरी चोट 
पहुँचायी || १९-२० ।। 

प्रहसंश्षास्य चिच्छेद कार्मुकं रिपुभीषणम्‌ । 

नागं मणिमयं चैव शरैर्ध्वजमपातयत्‌ ।। २१ ।। 

इसके बाद युयुधानने हँसते हुए ही दुर्योधनके शत्रु भीषण धनुषको और मणिमय 
नागसे चिह्नित ध्वजको भी बाणोंद्वारा काट गिराया || २१ ।। 

हत्वा तु चतुरो वाहांश्षतुर्भिनिशितै: शरै: । 

सारथिं पातयामास क्षुरप्रेण महायशा: ।। २२ ।। 

फिर चार तीखे बाणोंसे उसके चारों घोड़ोंको मारकर महायशस्वी सात्यकिने क्षुरप्रद्वारा 
उसके सारथिको भी मार गिराया ।। २२ ।। 

एतस्मिन्नन्तरे चैव कुरुराजं महारथम्‌ । 

अवाकिरच्छरैईष्टो बहुभिर्मर्म भेदिभि: ।॥ २३ ।। 


तदनन्तर हर्षमें भरे हुए सात्यकिने महारथी कुरुराज दुर्योधनपर बहुत-से मर्मभेदी 
बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। २३ ।। 

स वध्यमान: समरे शैनेयस्य शरोत्तमै: । 

प्राद्रवत्‌ सहसा राजन पुत्रो दुर्योधनस्तव ।। २४ ।। 

आप्लुतश्न ततो यान॑ चित्रसेनस्थ धन्विन: । 

राजन! सात्यकिके श्रेष्ठ बाणोंद्वारा समरांगणमें क्षत-विक्षत होकर आपका पुत्र दुर्योधन 
सहसा भागा और थधनुर्धर चित्रसेनके रथपर जा चढ़ा || २४३६ |। 

हाहाभूतं जगच्चासीद्‌ दृष्टवा राजानमाहवे ।। २५ ।। 

ग्रस्यमानं सात्यकिना खे सोममिव राहुणा । 

जैसे आकाशमें राहु चन्द्रमापर ग्रहण लगाता है, उसी प्रकार सात्यकिद्वारा राजा 
दुर्योधनको ग्रस्त होते देख वहाँ सब लोगोंमें हाहाकार मच गया ।। २५३ ।। 

त॑ तु शब्दमथ श्रुत्वा कृतवर्मा महारथ: ।। २६ ।। 

अभ्ययात्‌ सहसा तत्र यत्रास्ते माधव: प्रभु: । 

उस कोलाहलको सुनकर महारथी कृतवर्मा सहसा वहीं आ पहुँचा, जहाँ शक्तिशाली 
सात्यकि खड़े थे ।। 

विधुन्वानो धनु: श्रेष्ठ चोदयंश्वैव वाजिन: ।। २७ ।। 

भर्त्सयन्‌ सारथिं चाग्रे याहि याहीति सत्वरम्‌ । 

वह अपने श्रेष्ठ धनुषको कँपाता, घोड़ोंको हाँकता और “आगे बढ़ो, जल्दी चलो” 
कहकर सारथिको फटकारता हुआ वहाँ आया || २७३ ।। 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य व्यादितास्यमिवान्तकम्‌ ॥। २८ ।। 

युयुधानो महाराज यन्तारमिदमब्रवीत्‌ | 

महाराज! मुँह बाये हुए कालके समान कृतवर्माको वहाँ आते देख युयुधानने अपने 
सारथिसे कहा-- || २८३ || 

कृतवर्मा रथेनैष द्रुतमापतते शरी ।। २९ ।। 

प्रत्युद्याहि रथेनैनं प्रवरं सर्वधन्विनाम्‌ । 

'सूत! यह कृतवर्मा बाण लेकर रथके द्वारा तीव्र वेगसे आ रहा है। यह सम्पूर्ण 
धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ है। तुम रथके द्वारा इसकी अगवानी करो” || २९३६ ।। 

ततः प्रजविताश्वेन विधिवत्‌ कल्पितेन च ।। ३० ।। 

आससाद रणे भोजं प्रतिमानं धनुष्मताम्‌ । 

तदनन्तर सात्यकि विधिपूर्वक सजाये गये तेज घोड़ोंवाले रथके द्वारा रणभूमिमें 
धनुर्धरोंके आदर्शभूत कृतवर्माके पास जा पहुँचे || ३०३ ।। 

ततः: परमसंक्रुद्धो ज्वलिताविव पावकौ ।। ३१ ।। 


समेयातां नरव्याप्रौ व्याप्राविव तरस्विनौ । 

तत्पश्चात्‌ प्रजजलित पावक और वेगशाली व्याप्रोंके समान वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर अत्यन्त 
कुपित हो एक-दूसरेसे भिड़ गये || ३१६ ।। 

कृतवर्मा तु शैनेयं षड़्विंशत्या समार्पयत्‌ ।। ३२ ।। 

निशितै: सायकैस्ती&णैर्यन्तारं चास्य पठचभि: । 

कृतवमनि सात्यकिपर तेज धारवाले छब्बीस तीखे बाण चलाये और पाँच बाणोंद्वारा 
उनके सारथिको भी घायल कर दिया || ३२६ ।। 

चतुरक्षतुरो वाहांश्षतुर्भि: परमेषुभि: || ३३ ।। 

अविध्यत्‌ साधुदान्तान्‌ वै सैन्धवान्‌ सात्वतस्य हि | 

इसके बाद चार उत्तम बाण मारकर उसने सात्यकिके सुशिक्षित एवं विनीत चारों सिंधी 
घोड़ोंको भी बींध डाला ।। ३३३ ।। 

रुक्मध्वजो रुक्मपृष्ठं महद्‌ विस्फार्य कार्मुकम्‌ ।। ३४ ।। 

रुक्माड्दी रुक्मवर्मा रुक्मपुड्खैरवारयत्‌ । 

तदनन्तर सोनेके केयूर और सोनेके ही कवच धारण करनेवाले सुवर्णमय ध्वजासे 
सुशोभित कृतवर्माने सोनेकी पीठवाले अपने विशाल धनुषकी टंकार करके स्वर्णमय 
पंखवाले बाणोंसे सात्यकिको आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। ३४ ३ ।। 

ततो<शीतिं शिने: पौत्र: सायकान्‌ कृतवर्मणे ।। ३५ ।। 

प्राहिणोत्‌ त्वरया युक्तो द्रष्टकामो धनंजयम्‌ | 

तब शिनिपौत्र सात्यकिने बड़ी उतावलीके साथ मनमें अर्जुनके दर्शनकी कामना लिये 
वहाँ कृतवर्माको अस्सी बाण मारे | ३५३ ।। 

सो5तिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापन: ।। ३६ ।। 

समकम्पत दुर्धर्ष: क्षितिकम्पे यथाचल: । 

शत्रुओंको संताप देनेवाला दुर्धर्ष वीर कृतवर्मा अपने बलवान शत्रु सात्यकिके द्वारा 
अत्यन्त घायल होकर उसी प्रकार काँपने लगा, जैसे भूकम्पके समय पर्वत हिलने लगता 
है | ३६३ || 

त्रिषष्ट्या चतुरोअस्याश्वान्‌ सप्तभि: सारथिं तथा ।। ३७ ।। 

विव्याध निशितैस्तूर्ण सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

तत्पश्चात्‌ सत्यपराक्रमी सात्यकिने तिरसठ बाणोंसे उसके चारों घोड़ोंको और सात 
तीखे बाणोंसे उसके सारथिको भी शीघ्र ही क्षत-विक्षत कर दिया ।। ३७३ ।। 

सुवर्णपुडुखं विशिखं समाधाय च सात्यकि: ।। ३८ ।। 

व्यसृजत्‌ तं॑ महाज्वालं संक्ुद्धमिव पन्नगम्‌ । 


अब सात्यकिने अपने धनुषपर सुवर्णमय पंखवाले अत्यन्त तेजस्वी बाणका संधान 
किया, जो क्रोधमें भरे हुए सर्पके समान प्रतीत होता था। उस बाणको उन्होंने कृतवर्मापर 
छोड़ दिया ।। ३८६ ।। 

सो<विध्यत्‌ कृतवर्माणं यमदण्डोपम: शर: ।। ३९ |। 

जाम्बूनदविचित्रं च वर्म निर्भिद्य भानुमत्‌ 

अभ्यगाद्‌ धरणीमुग्रो रुधिरेण समुक्षित: ।। ४० ।। 

सात्यकिका वह बाण यमदण्डके समान भयंकर था। उसने कृतवमकिे सुवर्णजटित 
चमकीले कवचको छित्न-भिन्न करके उसे गहरी चोट पहुँचायी तथा खूनसे लथपथ होकर 
वह धरतीमें समा गया ।। ३९-४ ० ।। 

संजातरुधिरश्नाजौ सात्वतेषुभिररदित: । 

सशरं धनुरुत्सृज्य न्यपतत्‌ स्यन्दनोत्तमात्‌ || ४१ ।। 

युद्धसस्‍्थलमें सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित हो कृतवर्मा खूनकी धारा बहाता हुआ धनुष- 
बाण छोड़कर उस उत्तम रथसे उसके पिछले भागमें गिर पड़ा ।। ४१ ।। 

स सिंहदंष्टो जानुभ्यां पतितो5मितविक्रम: । 

शरार्दित: सात्यकिना रथोपस्थे नरर्षभ: ।। ४२ ।। 

सिंहके समान दाँतोंवाला अमितपराक्रमी नरश्रेष्ठ कृतवर्मा सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित 
हो घुटनोंके बलसे रथकी बैठकमें गिर गया ।। ४२ ।। 

सहस्रबाहुसदृशमक्षोभ्यमिव सागरम्‌ | 

निवार्य कृतवर्माणं सात्यकि: प्रययौ ततः ।। ४३ ।। 

सहस्रबाहु अर्जुनके समान दुर्जय तथा महासागरके समान अक्षोभ्य कृतवर्माको इस 
प्रकार पराजित करके सात्यकि वहाँसे आगे बढ़ गये ।। ४३ ।। 

खड्गशक्तिधनु:कीर्णा गजाश्वरथसंकुलाम्‌ । 

प्रवर्तितोग्ररुधिरां शतश: क्षत्रियर्षभै: ।। ४४ ।। 

प्रेक्षतां सर्वसैन्यानां मध्येन शिनिपुड्भव: । 

अभ्यागाद्वाहिनीं हित्वा वृत्रहेवासुरी चमूम्‌ ।। ४५ ।। 

जैसे वृत्रनाशक इन्द्र असुरोंकी सेनाको लाँधकर जा रहे हों, उसी प्रकार शिनिप्रवर 
सात्यकि सम्पूर्ण सैनिकोंके देखते-देखते उनके बीचसे होकर उस सेनाका परित्याग करके 
चल दिये। उस कौरव-सेनामें सैकड़ों क्षत्रिय-शिरोमणियोंने भयानक रक्तकी धारा बहा दी 
थी। वहाँ हाथी, घोड़े तथा रथ खचाखच भरे हुए थे और खड्ग, शक्ति एवं धनुष सब ओर 
व्याप्त थे ।। ४४-४५ ।। 

समाश्चस्य च हार्दिक्यो गृह चान्यन्महद्‌ धनु: । 

तस्थौ स तत्र बलवान्‌ वारयन्‌ युधि पाण्डवान्‌ ।। ४६ ।। 


उधर बलवान कृतवर्मा आश्वस्त होकर दूसरा विशाल धनुष हाथमें लेकर युद्धस्थलमें 
पाण्डवोंका सामना करता हुआ वहीं खड़ा रहा ।। ४६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिकप्रवेशे 
दुर्योधनकृतवर्मपराजये षोडशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११६ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वरें सात्यकिके कौरव-सेनामें 
प्रवेशके पश्चात्‌ दुर्योधन और कृतवमाकि पराजयविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा 
हुआ ॥। ११६ ॥/ 


अप ह< बक। है २ >> 


सप्तदशाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकि और द्रोणाचार्यका युद्ध, द्रोणकी पराजय तथा 
कौरव-सेनाका पलायन 


संजय उवाच 

काल्यमानेषु सैन्येषु शैनेयेन ततस्तत: । 

भारद्वाज: शख्रातैर्महद्धिः: समवाकिरत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! जब सात्यकि जहाँ-तहाँ जा-जाकर आपकी सेनाओंको 
कालके गालमें भेजने लगे, तब भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यने उनपर महान्‌ बाणसमूहोंकी वर्षा 
प्रारम्भ कर दी ।। १ ।। 

स सम्प्रहारस्तुमुलो द्रोणसात्वतयोरभूत्‌ । 

पश्यतां सर्वसैन्यानां बलिवासवयोरिव ।। २ ।। 

राजन! सम्पूर्ण सैनिकोंके देखते-देखते बलि और इन्द्रके समान द्रोणाचार्य और 
सात्यकिका वह युद्ध बड़ा भयंकर हो गया ।। २ ।। 

ततो द्रोण: शिने: पौत्रं चित्रै: सर्वायसै: शरै: । 

त्रिेभिराशीविषाकारैललाटे समविध्यत ।। ३ ।। 

उस समय द्रोणाचार्यने सम्पूर्णतः लोहेके बने हुए विचित्र तथा विषधर सर्पके समान 
भयंकर तीन बाणोंद्वारा शिनिपौत्र सात्यकिके ललाटमें गहरा आघात किया ।। ३ ।। 

तैर्ललाटार्पितिर्बाणर्युयुधानस्त्वजिद्वागै: । 

व्यरोचत महाराज त्रिशूज्र इव पर्वत: ।। ४ ।। 

महाराज! ललाटमें धँसे हुए उन सीधे जानेवाले बाणोंके द्वारा युयुधान तीन शिखरोंवाले 
पर्वतके समान सुशोभित हुए ।। ४ ।। 

ततो<5स्य बाणानपरानिन्द्राशनिसमस्वनान्‌ | 

भारद्वाजोडन्तरप्रेक्षी प्रेषयामास संयुगे || ५ ।। 

द्रोणाचार्य अवसर देखते रहते थे। उन्होंने मौका पाकर इन्द्रके वज्रकी भाँति भयंकर 
शब्द करनेवाले और भी बहुत-से बाण युद्धस्थलमें सात्यकिपर चलाये || ५ ।। 

तान्‌ द्रोणचापनिर्मुक्तान्‌ दाशा्: पतत: शरान्‌ | 

द्वाभ्यां द्वाभ्यां सुपुड्खाभ्यां चिच्छेद परमास्त्रवित्‌ ।। ६ ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटकर गिरते हुए उन बाणोंको दशा्हकुलनन्दन परमास्त्रवेत्ता 
सात्यकिने उत्तम पंखोंसे युक्त दो-दो बाणोंद्वारा काट डाला ।। ६ ।। 

तामस्य लघुतां द्रोण: समवेक्ष्य विशाम्पते । 


प्रहस्य सहसाविध्यत्‌ त्रिंशता शिनिपुड्रवम्‌ ।। ७ ।। 

प्रजानाथ! सात्यकिकी वह फुर्ती देखकर द्रोणाचार्य हँस पड़े। उन्होंने सहसा तीस बाण 
मारकर शिनिप्रवर सात्यकिको घायल कर दिया ।। ७ ।। 

पुन: पञ्चाशतेषूणां शितेन च समार्पयत्‌ । 

लघुतां युयुधानस्य लाघवेन विशेषयन्‌ ।। ८ ।। 

तत्पश्चात्‌ उन्होंने युयुधानकी फुर्तीको अपनी फुर्तीसे मन्द सिद्ध करते हुए तेज धारवाले 
पचास बाणोंद्वारा पुनः उन्हें घायल कर दिया ।। ८ ।। 

समुत्पतन्ति वल्मीकाद्‌ यथा क्ुद्धा महोरगा: । 

तथा द्रोणरथाद्‌ राजन्नापतन्ति तनुच्छिद: ।। ९ ।। 

राजन! जैसे बॉबीसे क्रोधमें भरे हुए बहुत-से सर्प प्रकट होते हैं, उसी प्रकार 
द्रोणाचार्यके रथसे शरीरको छेद डालनेवाले बाण प्रकट होकर वहाँ सब ओर गिरने 
लगे || ९ 

तथैव युयुधानेन सृष्टा: शतसहस्रश: । 

अवाकिरन्‌ द्रोणरथं शरा रुधिरभोजना: ।। १० ।। 

उसी प्रकार युयुधानके चलाये हुए लाखों रुधिरभोजी बाण द्रोणाचार्यके रथपर बरसने 
लगे ।। १० ।। 

लाघवाद्‌ द्विजमुख्यस्य सात्वतस्य च मारिष । 

विशेष नाध्यगच्छाम समावास्तां नरर्षभौ ।। ११ ।। 

माननीय नरेश! हाथोंकी फुर्तीकी दृष्टिसे द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य और सात्यकिमें हमें कोई 
अन्तर नहीं जान पड़ा था। वे दोनों ही नरश्रेष्ठ समान प्रतीत होते थे || ११ ।। 

सात्यकिस्तु ततो द्रोणं नवभिर्नतपर्वभि: । 

आजपघान भुशं क्रुद्धो ध्वजं च निशितै: शरै: ।। १२ ।। 

तदनन्तर सात्यकिने अत्यन्त कुपित हो झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यपर 
गहरा आघात किया तथा तीखे बाणोंसे उनके ध्वजको भी चोट पहुँचायी ।। १२ ।। 

सारथिं च शतेनैव भारद्वाजस्य पश्यत: । 

लाघवं युयुधानस्य दृष्टवा द्रोणो महारथ: ।। १३ ।। 

सप्तत्या सारथिं विद्ध्वा तुरज्जांश्न त्रिभिस्त्रिभि: । 

ध्वजमेकेन चिच्छेद माधवस्य रथे स्थितम्‌ ।। १४ ।। 

तत्पश्चात्‌ द्रोणके देखते-देखते सात्यकिने सौ बाणोंसे उनके सारथिको भी घायल कर 
दिया। युयुधानकी यह फुर्ती देखकर महारथी द्रोणने सत्तर बाणोंसे सात्यकिके सारथिको 
बींधकर तीन-तीन बाणोंसे उनके घोड़ोंको भी घायल कर दिया। फिर एक बाणसे 
सात्यकिके रथपर फहराते हुए ध्वजको भी काट डाला || १३-१४ ।। 

अथापरेण भल्लेन हेमपुड्खेन पत्रिणा । 


धनुश्वचिच्छेद समरे माधवस्य महात्मन: ।। १५ ।। 

इसके बाद सुवर्णमय पंखवाले दूसरे भल्लसे आचार्यने समरांगणमें महामनस्वी 
सात्यकिके धनुषको भी खण्डित कर दिया ।। १५ ।। 

सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो धनुस्त्यक्त्वा महारथः । 

गदां जग्राह महतीं भारद्वाजाय चाक्षिपत्‌ ।। १६ ।। 

इससे महारथी सात्यकिको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धनुष त्यागकर विशाल गदा हाथमें 
ले ली और उसे द्रोणाचार्यपर दे मारा || १६ ।। 

तामापतन्तीं सहसा पट्टबद्धामयस्मयीम्‌ । 

न्यवारयच्छरैद्रोणो बहुभिर्बहुरूपिभि: ।। १७ ।। 

वह लोहेकी गदा रेशमी वस्त्रसे बँधी हुई थी। उसे सहसा अपने ऊपर आती देख 
द्रोणाचार्यने अनेक रूपवाले बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उसका निवारण कर दिया ।। १७ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

विव्याध बहुभिवररं भारद्वाजं शिलाशितै: ।। १८ ।। 

तब सत्यपराक्रमी सात्यकिने दूसरा धनुष लेकर सानपर तेज किये हुए बहुसंख्यक 
बाणोंद्वारा वीर द्रोणाचार्यको बींध डाला ।। १८ ।। 

स विद्ध्वा समरे द्रोणं सिंहनादममुछ्चत । 

तं वैन ममृषे द्रोण: सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। १९ ।। 

इस प्रकार समरांगणमें द्रोणको घायल करके सात्यकिने सिंहके समान गर्जना की। उसे 
सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य सहन न कर सके ।। १९ || 

ततः शक्ति गृहीत्वा तु रुक्मदण्डामयस्मयीम्‌ । 

तरसा प्रेषयामास माधवस्य रथं प्रति । २० ।। 

उन्होंने सोनेकी डंडेवाली लोहेकी शक्ति लेकर उसे सात्यकिके रथपर बड़े वेगसे 
चलाया || २० || 

अनासाद्य तु शैनेयं सा शक्ति: कालसंनिभा । 

भित्त्वा रथं जगामोग्रा धरणीं दारुणस्वना || २१ ।। 

वह कालके समान विकराल शक्ति सात्यकितक न पहुँचकर उनके रथको विदीर्ण 
करके भयंकर शब्द करती हुई पृथ्वीमें समा गयी ।। २१ ।। 

ततो द्रोणं शिने: पौत्रो राजन्‌ विव्याध पत्रिणा । 

दक्षिणं भुजमासाद्य पीडयन्‌ भरतर्षभ ।। २२ ।। 

राजन! भरतश्रेष्ठ! तब शिनिके पौत्रने एक बाणसे द्रोणाचार्यकी दाहिनी भुजापर चोट 
करके उसे पीड़ा देते हुए आचार्यको घायल कर दिया ।। २२ ।। 

द्रोणो5पि समरे राजन्‌ माधवस्य महद्‌ धनु: । 

अर्धचन्द्रेण चिच्छेद रथशक्त्या च सारथिम्‌ ।। २३ |। 


नरेश्वर! तब समरभूमिमें द्रोणाचार्यने भी सात्यकिके विशाल धनुषको अर्द्धचन्द्राकार 
बाणसे काट दिया तथा रथशक्तिका प्रहार करके सारथिको भी गहरी चोट 
पहुँचायी || २३ ।। 

मुमोह सारथिस्तस्य रथशकक्‍्त्या समाहत: । 

स रथोपस्थमासाद्य मुहूर्त संन्यषीदत ।। २४ ।। 

द्रोणकी रथशक्तिसे आहत हो सारथि मूर्च्छिंत हो गया। वह रथकी बैठकमें पहुँचकर 
वहाँ दो घड़ीतक चुपचाप बैठा रहा ।। २४ ।। 

चकार सात्यकी राजन्‌ सूतकर्मातिमानुषम्‌ । 

अयोधयच्च यद्‌ द्रोणं रश्मीन्‌ जग्राह च स्वयम्‌ ।। २५ ।। 

महाराज! उस समय सात्यकिने लोकोत्तर सारथ्य कर्म कर दिखाया। वे द्रोणाचार्यसे 
युद्ध भी करते रहे और स्वयं ही घोड़ोंकी बागडोर भी सँभाले रहे || २५ ।। 

तत: शरशतेनैव युयुधानो महारथ: । 

अविध्यद ब्राह्माणं संख्ये हृष्टरूपो विशाम्पते ।। २६ ।। 

प्रजानाथ! उस युद्धस्थलमें महारथी सात्यकिने हर्षमें भरकर विप्रवर द्रोणाचार्यको सौ 
बाणोंसे घायल कर दिया || २६ ।। 

तस्य द्रोण: शरान्‌ पञ्च प्रेषयामास भारत । 

ते घोरा: कवचं भित्त्वा पपु: शोणितमाहवे ।। २७ ।। 

भारत! फिर द्रोणाचार्यने सात्यकिपर पाँच बाण चलाये। वे भयंकर बाण उस रफक्षेत्रमें 
सात्यकिका कवच फाड़कर उनका लोहू पीने लगे ।। २७ ।। 

निर्विद्धस्तु शरैघोेरिरक्रुद्धयत्‌ सात्यकिर्भृशम्‌ । 

सायकान्‌ व्यसृजच्चापि वीरो रुक्मरथं प्रति ।। २८ ।। 

उन भयंकर बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर वीर सात्यकिको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने 
सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्यपर बाणोंकी झड़ी लगा दी ।। २८ ।। 

ततो द्रोणस्य यन्तारं निपात्यैकेषुणा भुवि | 

अश्वान्‌ व्यद्रावयद्‌ बाणैरहतसूतांस्ततस्ततः ।। २९ |। 

एक बाणसे युयुधानने द्रोणाचार्यके सारथिको धरतीपर गिरा दिया और सारथिहीन 
घोड़ोंको अपने बाणोंसे इधर-उधर मार भगाया ।। २९ |। 

स रथ: प्रद्रुत: संख्ये मण्डलानि सहस्रश: । 

चकार राजतो राजन्‌ भ्राजमान इवांशुमान्‌ ।। ३० || 

राजन! वह चाँदीका बना हुआ रथ- युद्धस्थलमें दौड़ लगाता हुआ हजारों चक्कर 
काटता रहा। उस समय उसकी अंशुमाली सूर्यके समान शोभा हो रही थी ।। ३० ।। 

अभिद्रवत गृह्नीत हयान्‌ द्रोणस्प धावत | 

इति सम चुक्रुशु: सर्वे राजपुत्रा: सराजका: ।। ३१ ।। 


उस समय समस्त राजा और राजकुमार पुकार-पुकारकर कहने लगे--“अरे! दौड़ो 
दौड़ो! द्रोणाचार्यके घोड़ोंको पकड़ो” | ३१ ।। 

ते सात्यकिमपास्याशु राजन्‌ युधि महारथा: । 

यतो द्रोणस्तत: सर्वे सहसा समुपाद्रवन्‌ ।। ३२ ।। 

नरेश्वर! उस युद्धस्थलमें वे सभी महारथी शीघ्र ही सात्यकिका सामना छोड़कर जहाँ 
द्रोणाचार्य थे, वहीं सहसा भाग गये ।। ३२ ।। 

तान्‌ दृष्टवा प्रद्रुतान्‌ संख्ये सात्वतेन शरार्दितान्‌ | 

प्रभग्नं पुनरेवासीत्‌ तव सैन्यं समाकुलम्‌ ।। ३३ ।। 

सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित हो उन सबको युद्धस्थलसे पलायन करते देख आपकी 
संगठित हुई सारी सेना पुनः भाग खड़ी हुई ।। ३३ ।। 

व्यूहस्यैव पुनर्दधारें गत्वा द्रोणो व्यवस्थित: । 

वातायमानैस्तैरश्वैर्नीतो वृष्णिशरार्दितै: ।। ३४ ।। 

द्रोणाचार्य पुनः व्यूहके ही द्वारपर जाकर खड़े हो गये। सात्यकिके बाणोंसे पीड़ित 
होकर वायुके समान वेगसे भागनेवाले उनके घोड़ोंने ही उन्हें वहाँ पहुँचा दिया || ३४ ।। 

पाण्डुपाज्चालसम्भिन्न॑ व्यूहमालोक्य वीर्यवान्‌ । 

शैनेये नाकरोद्‌ू यत्नं व्यूहमेवा भ्यरक्षत ।। ३५ ।। 

पराक्रमी द्रोणने अपने व्यूहको पाण्डवों और पांचालोंद्वारा भंग हुआ देख सात्यकिको 
रोकनेका प्रयत्न छोड़ दिया। वे पुनः व्यूहकी ही रक्षा करने लगे || ३५ ।। 

निवार्य पाण्डुपञज्चालान्‌ द्रोणाग्नि: प्रदहन्निव । 

तस्थौ क्रोधेध्मसंदीप्त: कालसूर्य इवोद्यत: ।। ३६ ।। 

क्रोधरूपी ईंधनसे प्रज्वलित हुई द्रोणरूपी अग्नि पाण्डवों और पांचालोंको रोककर 
सबको दग्ध करती हुई-सी खड़ी हो गयी और प्रलयकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित होने 
लगी | ३६ |। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे सात्यकिपराक्रमे 
सप्तदशाधिकशततमो<ध्याय: ।। ११७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका कौरव-सेनामें 
प्रवेश तथा पराक्रमविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ ११७ ॥। 


अपना बछ। | अत-४#-रकात जा 


- अद्वाईसवें श्लोकमें द्रोणके रथको सोनेका बताया है और इसमें चाँदीका बताया है। इससे यह समझना चाहिये कि 
उस रथमें सोना और चाँदी दोनों ही धातुएँ लगी हुई थीं। 


अष्टादरशाधिकशततमो< ध्याय: 
सात्यकिद्वारा सुदर्शनका वध 


संजय उवाच 
द्रोणं स जित्वा पुरुषप्रवीर- 
स्तथैव हार्दिक्यमुखांस्त्वदीयान्‌ | 
प्रहस्य सूतं॑ वचनं बभाषे 
शिनिप्रवीर: कुरुपुड्भवाग्रय ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--कुरुवंशशिरोमणे! द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा आदि आपके प्रमुख 
महारथियोंको जीतकर नरवीर सात्यकिने अपने सारथिसे हँसते हुए कहा-- ।। १ ।। 

निमित्तमात्रं वयमद्य सूत 

दग्धारय: केशवफाल्गुनाभ्याम्‌ । 
हतान्‌ निहन्मेह नरर्षभेण 
वयं सुरेशात्मसमुद्धवेन ।। २ ।। 

'सारथे! इस विजयमें आज हमलोग तो निमित्त-मात्र हो रहे हैं। वास्तवमें श्रीकृष्ण और 
अर्जुनने ही हमारे इन शत्रुओंको दग्ध कर दिया है। देवराजके पुत्र नरश्रेष्ठ अर्जुनके मारे हुए 
सैनिकोंको ही हमलोग यहाँ मार रहे हैं! || २ ।। 

तमेवमुक्‍्त्वा शिनिपुज्गवस्तदा 

महामृधे सो5ग्रयधनुर्धरो 5रिहा । 
किरन्‌ समन्तात्‌ सहसा शरान्‌ बली 
समापतच्छयेन इवामिषं यथा ।। ३ ।। 

उस महासमरमें सारथिसे ऐसा कहकर धनुर्धर-शिरोमणि शत्रुसूदन शिनिप्रवर बलवान्‌ 
सात्यकिने सहसा सब ओर बाणोंकी वर्षा करते हुए शत्रुओंपर उसी प्रकार आक्रमण किया, 
जैसे बाज मांसके टुकड़ेपर झपटता है ।। ३ ।। 

त॑ यान्तमश्वैः शशिशड्खवर्ण- 

विंगाहा सैन्यं पुरुषप्रवीरम्‌ । 
नाशवनुवन्‌ वारयितुं समन्ता- 
दादित्यरश्मिप्रतिमं रथाग्रयम्‌ ।। ४ ।। 

सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशमान रथियोंमें श्रेष्ठ नरवीर सात्यकि आपकी सेनामें 
घुसकर चन्द्रमा और शंखके समान श्वेतवर्णवाले घोड़ोंद्वारा आगे बढ़ते चले जा रहे थे। उस 
समय किसी ओरसे कोई योद्धा उन्हें रोक न सके ।। ४ ।। 

असहाविक्रान्तमदीनसत्त्व॑ 


सर्वे गणा भारत ये त्वदीया: । 
सहसनेत्रप्रतिमप्रभावं 
दिवीव सूर्य जलदव्यपाये ।। ५ ।। 
भारत! सात्यकिका पराक्रम असहा था। उनका धैर्य और बल महान्‌ था। वे इन्द्रके 
समान प्रभावशाली तथा आकाशमें प्रकाशित होनेवाले शरत्कालके सूर्यके समान प्रचण्ड 
तेजस्वी थे। आपके समस्त सैनिक मिलकर भी उन्हें रोक न सके ।। ५ ।। 
अमर्षपूर्णस्त्वतिचित्रयो धी 
शरासनी काज्चनवर्मधारी । 
सुदर्शन: सात्यकिमापततन्तं 
न्यवारयद्‌ राजवर: प्रसहा[ ।। ६ ।। 
उस समय अत्यन्त विचित्र युद्ध करनेवाले, सुवर्ण-कवचधारी धनुर्धर नृपश्रेष्ठ सुदर्शनने 
अपनी ओर आते हुए सात्यकिको अमर्षमें भरकर बलपूर्वक रोका ।। ६ ।। 
तयोरभूद्‌ भारत सम्प्रहार: 
सुदारुणस्तं समतिप्रशंसन्‌ । 
योधास्त्वदीयाक्ष हि सोमकाश्र 
वृत्रेन्द्रयोर्युद्धमिवामरौघा: ।। ७ ।। 
भारत! उन दोनों वीरोंमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। जैसे देवगण वृत्रासुर और इन्द्रके 
युद्धकी गाथा गाते हैं, उसी प्रकार आपके योद्धाओं तथा सोमकोंने भी उन दोनोंके उस 
युद्धकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।। ७ ।। 
शरै: सुतीक्ष्णपै: शतशो< भ्यविध्यत्‌ 
सुदर्शन: सात्वतमुख्यमाजौ । 
अनागतानेव तु तान्‌ पृषत्कां- 
श्रिच्छेद राजन्‌ शिनिपुड्रवोडपि ।। ८ ।। 
राजन! सुदर्शनने समरांगणमें सात्वतशिरोमणि सात्यकिपर सैकड़ों सुतीक्ष्ण बाणोंद्वारा 
प्रहार किया; परंतु शिनिप्रवर सात्यकिने उन बाणोंको अपने पास आनेसे पहले ही काट 
डाला ।| ८ ॥। 
तथैव शक्रप्रतिमो5पि सात्यकि: 
सुदर्शने यान्‌ क्षिपति सम सायकान्‌ । 
द्विधा त्रिधा तानकरोत्‌ सुदर्शन: 
शरोत्तमै: स्यन्दनवर्यमास्थित: ।। ९ ।। 
इसी प्रकार इन्द्रके समान पराक्रमी सात्यकि भी सुदर्शनपर जिन-जिन बाणोंका प्रहार 
करते थे, श्रेष्ठ रथपर बैठे हुए सुदर्शन भी अपने उत्तम बाणोंद्वारा उन सबके दो-दो तीन-तीन 
टुकड़े कर देते थे ।। ९ ।। 


तान्‌ वीक्ष्य बाणान्‌ निहतांस्तदानीं 
सुदर्शन: सात्यकिबाणवेगै: । 
क्रोधाद्‌ दिधक्षन्निव तिग्मतेजा: 
शरानमुज्चत्‌ तपनीयचित्रान्‌ ॥। १० ।। 
उस समय सात्यकिके वेगशाली बाणोंद्वारा अपने चलाये हुए बाणोंको नष्ट हुआ देख 
प्रचण्ड तेजस्वी राजा सुदर्शनने क्रोधसे उन्हें जला डालनेकी इच्छा रखते हुए-से 
सुवर्णजटित विचित्र बाणोंका उनपर प्रहार आरम्भ किया ।। १० ।। 
पुनः स बाणैस्त्रिभिरग्निकल्पै- 
राकर्णपूर्णनिशितै: सुपुड्खै: । 
विव्याध देहावरणं विभिद्य 
ते सात्यकेराविविशु: शरीरम्‌ ।। ११ ।। 
फिर उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी तथा कानतक खींचकर छोड़े हुए सुन्दर पंखवाले 
तीन तीखे बाणोंसे सात्यकिको बींध दिया। वे बाण सात्यकिका कवच विदीर्ण करके उनके 
शरीरमें समा गये ।। ११ ।। 
तथैव तस्यावनिपालपुत्र: 
संधाय बाणैरपरैज्वलडद्धि: | 
आजण्निवांस्तान्‌ रजतप्रकाशां- 
श्वतुर्भिरश्वां श्वतुरः प्रसहा | १२ ।। 
तत्पश्चात्‌ उन राजकुमार सुदर्शनने अन्य चार तेजस्वी बाणोंका संधान करके उनके 
द्वारा चाँदीके समान चमकनेवाले सात्यकिके उन चारों घोड़ोंको भी बलपूर्वक घायल कर 
दिया ।। १२ ।। 
तथा तु तेनाभिहतस्तरस्वी 
नप्ता शिनेरिन्द्रसमानवीर्य: । 
सुदर्शनस्येषुगणै: सुतीक्ष्णै- 
हयान्‌ निहत्याशु ननाद नादम्‌ ।। १३ ।। 
सुदर्शनके द्वारा इस प्रकार घायल होनेपर इन्द्रके समान बलवान्‌ और वेगशाली 
शिनिपौत्र सात्यकिने अपने सुतीक्षण बाणसमूहोंसे सुदर्शनके अश्वोंका शीघ्र ही संहार करके 
उच्च स्वरसे सिंहनाद किया ।। १३ ।। 
अथास्य सूतस्य शिरो निकृत्य 
भल्लेन शक्राशनिसंनि भेन । 
सुदर्शनस्यापि शिनिप्रवीर: 
क्षुरेण कालानलसंनिभेन ।। १४ ।। 
सकुण्डलं पूर्णशशिप्रकाशं 


भ्राजिष्णु वक्‍त्रं विचकर्त देहात्‌ । 
यथा पुरा वज्रधर: प्रसहा 
बलस्य संख्येडतिबलस्य राजन ।। १५ ।। 
राजन! तत्पश्चात्‌ इन्द्रके वज़तुल्य भल्‍लसे उनके सारथिका सिर काटकर शिनिवंशके 
प्रमुख वीर सात्यकिने कालाग्निके समान तेजस्वी छुरेसे सुदर्शनके पूर्ण चन्द्रमाके समान 
प्रकाशमान शोभाशाली कुण्डलमण्डित मस्तकको भी धड़से काट गिराया। ठीक उसी 
प्रकार, जैसे पूर्वकालमें वज्रधारी इन्द्रने समरांगणमें अत्यन्त बलवान्‌ बलासुरका सिर 
बलपूर्वक काट लिया था ।। १४-१५ ।। 
निहत्य त॑ पार्थिवपुत्रपौत्र 
रणे यदूनामृषभस्तरस्वी । 
मुदा समेत: परया महात्मा 
रराज राजन्‌ सुरराजकल्प: ।॥। १६ ।। 
नरेश्वर! राजाके पुत्र एवं पौत्र सुदर्शनका रणभूमिमें वध करके यदुकुलतिलक 
देवेन्द्रसदूश पराक्रमी वेगशाली महामनस्वी सात्यकि अत्यन्त प्रसन्न होकर विजयश्रीसे 
सुशोभित होने लगे ।। १६ ।। 
ततो ययावर्जुन एव येन 
निवार्य सैन्यं तव मार्गणौचै: । 
सदश्वयुक्तेन रथेन राज- 
ल्‍लाॉँक॑ विसिस्मापयिषुर्नुवीर: ।। १७ ।। 
राजन! तदनन्तर लोगोंको आश्वर्यवयकित करनेकी इच्छावाले नरवीर सात्यकि अपने 
सुन्दर अश्वोंसे जुते हुए रथके द्वारा बाणसमूहोंसे आपकी सेनाको हटाते हुए उसी मार्गसे 
चल दिये, जिससे अर्जुन गये थे ।। १७ ।। 
तत्‌ तस्य विस्मापयनीयम ग्रय- 
मपूजयन्‌ योधवरा: समेता: । 
प्रवर्तमानानिषुगोचरेडरीन्‌ 
ददाह बाणै्तभुग्‌ यथैव ।। १८ ।। 
उनके उस आश्चर्यजनक उत्तम पराक्रमकी वहाँ एकत्र हुए समस्त योद्धाओंने बड़ी 
प्रशंसा की। सात्यकि अपने बाणोंके पथमें आये हुए शत्रुओंको उन बाणोंद्वारा अग्निदेवके 
समान दग्ध कर रहे थे ।। १८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सुदर्शनवधे 
अष्टादशाधिकशततमो< ध्याय: ।। ११८ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सुदर्शनवधविषयक एक सौ 
अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११८ ॥। 


ऑपन--माज छा जि: 


एकोनविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकि और उनके सारथिका संवाद तथा सात्यकिद्धारा 
काम्बोजों और यवन आदिकी सेनाकी पराजय 


संजय उवाच 

ततः स सात्यकिर्धीमान्‌ महात्मा वृष्णिपुड्भव: । 

सुदर्शन निहत्याजौ यन्तारं पुनरब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वृष्णिवंशावतंस बुद्धिमान्‌ महामनस्वी सात्यकिने 
युद्धमें सुदर्शनको मारकर सारथिसे फिर इस प्रकार कहा-- ।। १ ।। 

रथाश्वनागकलिलं शरशक्त्यूमिमालिनम्‌ । 

खड्गमत्स्यं गदाग्राहं शूरायुधभहास्वनम्‌ ।। २ ।। 

प्राणापहारिणं रौद्रं वादित्रोत्क़ुष्टनादितम्‌ । 

योधानामसुखस्पर्श दुर्धर्षमजयैषिणाम्‌ ।। ३ ।। 

तीर्णा: सम दुस्तरं तात द्रोणानीकमहार्णवम्‌ । 

जलसंधबलेनाजोौ पुरुषादैरिवावृतम्‌ ।। ४ ।। 

“तात! रथ, घोड़े और हाथियोंसे भरी हुई द्रोणाचार्यकी सेना महासागरके समान थी। 
उसमें बाण और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्र तरंगमालाओंके समान प्रतीत होते थे। खड़्ग 
मत्स्यके समान और गदा ग्राहके तुल्य थी। शूरवीरोंके आयुधोंके प्रहारसे जो महान्‌ शब्द 
होता था, वही मानो महासागरका भयानक गर्जन था। बाजे बजानेकी ध्वनि और वीरोंके 
ललकारनेकी आवाजसे उस गर्जनका स्वर और भी बढ़ा हुआ था। योद्धाओंके लिये उसका 
स्पर्श अत्यन्त दुःखदायक था। जो विजयकी अभिलाषा नहीं रखते, ऐसे लोगोंके लिये वह 
प्राणनाशक भयंकर सैन्य-समुद्र दुर्धर्ष था। युद्धस्थलमें खड़ी हुई जलसंधकी सेनाने उसे 
राक्षसोंके समान घेर रखा था। उस दुस्तर सेना-सागरसे हमलोग पार हो गये हैं || २--४ ।। 

अतोथचन्‍्यत्‌ पृतनाशेषं मन्ये कुनदिकामिव । 

तर्तव्यामल्पसलिलां चोदयाश्वानसम्भ्रमम्‌ ।। ५ ।। 

“उससे भिन्न जो शेष सेना है, उसे मैं सुगमता-पूर्वक लाँघनेयोग्य थोड़े जलवाली छोटी 
नदीके समान समझता हूँ। अतः तुम निर्भय होकर घोड़ोंको आगे बढ़ाओ ।। ५ ।। 

हस्तप्राप्तमहं मन्ये साम्प्रतं सव्यसाचिनम्‌ । 

निर्जित्य दुर्धरं द्रोणं सपदानुगमाहवे ।। ६ ।। 

'सेवकोंसहित दुर्धर्ष वीर द्रोणाचार्यको युद्धस्थलमें जीतकर मैं ऐसा मानता हूँ कि इस 
समय सव्यसाची अर्जुन हमारे हाथमें ही आ गये हैं ।। ६ ।। 


हार्दिक्यं योधवर्य च मन्ये प्राप्त धनंजयम्‌ । 

न हि मे जायते त्रासो दृष्टवा सैन्यान्यनेकश: ।। ७ ।। 

वल्लेरिव प्रदीप्तस्य वने शुष्कतृणोलपे । 

'योद्धाओंमें श्रेष्ठ कृतवर्माको पराजित करके मैं ऐसा समझता हूँ कि अर्जुन मुझे मिल 
गये। जैसे सूखे तृण और लतावाले वनमें प्रज्वलित हुई अग्निके लिये कहीं कोई बाधा नहीं 
रहती, उसी प्रकार मुझे इन अनेक सेनाओंको देखकर तनिक भी त्रास नहीं हो रहा है ।। 

पश्य पाण्डवमुख्येन यातां भूमिं किरीटिना ।। ८ ।। 

पत्त्यश्वरथनागौघै: पतितैर्विषमीकृताम्‌ । 

“देखो, पाण्डवप्रवर किरीटधारी अर्जुन जिस मार्गसे गये हैं, वहाँकी भूमि धराशायी हुए 
पैदलों, घोड़ों, रथों और हाथियोंके समुदायसे विषम एवं दुर्लड्घ्य हो गयी है ।। ८६ ।। 

द्रवते तद्‌ यथा सैन्यं तेन भग्नं महात्मना ।। ९ ।। 

रथैरविंपरिधावद्धिर्गजैरश्वैश्न॒ सारथे | 

कौशेयारुणसंकाशमेतदुद्धूयते रज: ।। १० ।। 

'सारथे! उन्हीं महात्मा अर्जुनकी खदेड़ी हुई वह सेना इधर-उधर भाग रही है। दौड़ते 
हुए रथों, हाथियों और घोड़ोंसे लाल रेशमके समान यह धूल ऊपरको उठ रही 
है ।। ९-१० ।। 

अभ्याशस्थमहं मन्ये श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्‌ | 

स एष श्रुयते शब्दो गाण्डीवस्पामितौजस: ।। ११ ।। 

“इससे मैं समझता हूँ कि श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन हमारे निकट 
ही हैं, तभी यह अमित शक्तिशाली गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनायी दे रही है ।। ११ ।। 

यादृशानि निमित्तानि मम प्रादुर्भवन्ति वै 

अनस्तंगत आदित्ये हन्ता सैन्धवर्मर्जुन: ।। १२ ।। 

“इस समय मेरे सामने जैसे शुभ शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे जान पड़ता है अर्जुन 
सूर्यास्त होनेके पहले ही जयद्रथको मार डालेंगे || १२ ।। 

शनैर्विश्रम्भयन्नश्चान्‌ याहि यत्रारिवाहिनी । 

यत्रैते सतलत्राणा: सुयोधनपुरोगमा: ।। १३ ।। 

'सूत! धीरे-धीरे घोड़ोंको आराम देते हुए उस ओर चलो, जहाँ वह शत्रुसेना खड़ी है, 
जहाँ ये तलत्राण धारण किये दुर्योधन आदि योद्धा उपस्थित हैं ।। १३ ।। 


४ 
5 
६ 
९ 
ऐ 
। 





दंशिता: क्रूरकर्माण: काम्बोजा युद्धदुर्मदा: । 

शरबाणासनधरा यवनाश्ष प्रहारिण: ।। १४ ।। 

शका: किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तका: | 

अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणय: ।। १५ ।। 

यत्रैते सतलत्राणा: सुयोधनपुरोगमा: । 

मामेवाभिमुखा: सर्वे तिष्ठन्ति समरार्थिन: ।। १६ ।। 

“जहाँ कवच धारण किये रणदुर्मद क्रूरकर्मा काम्बोज, धनुष-बाण धारण किये 
प्रहारकुशल यवन, शक, किरात, दरद, बर्बर, ताम्रलिप्त तथा हाथोंमें भाँति-भाँतिके आयुध 
धारण किये अन्य बहुत-से म्लेच्छ--ये सब-के-सब जहाँ दुर्योधनको अगुआ बनाकर दस्ताने 
पहने युद्धकी इच्छासे मेरी ओर मुँह करके खड़े हैं, वहीं चलो | १४--१६ ।। 

एतान्‌ सरथनागाश्चान्‌ निहत्याजौ सपत्तिन: । 

इदं दुर्ग महाघोरं तीर्णमेवोपधारय ।। १७ ।। 

“इन सबको युद्धस्थलमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदलोंसहित मार लेनेपर निश्चितरूपसे 
समझ लो कि हमलोग इस अत्यन्त भयंकर दुर्गम संकटसे पार हो गये” ।। १७ ।। 

सूत उवाच 

न सम्भ्रमो मे वार्ष्णेय विद्यते सत्यविक्रम । 

यद्यपि स्यात्‌ तव क्रुद्धो जामदग्न्योडग्रत: स्थित: ।। १८ ।। 

सारथिने कहा--सत्यपराक्रमी वृष्णिनन्दग! आपके सामने क्रोधमें भरे हुए 
जमदग्निनन्दन परशुराम भी खड़े हो जायेँ तो मुझे भय नहीं होगा ।। १८ ।। 

द्रोणो वा रथिनां श्रेष्ठ: कृपो मद्रेश्वरो 5पि वा । 

तथापि सम्भ्रमो न स्यात्‌ त्वामाश्रित्य महाभुज ।। १९ ।। 

महाबाहो! रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अथवा मद्रराज शल्य ही क्यों न खड़े हों, 
तथापि आपके आश्रित रहकर मुझे कदापि भय नहीं हो सकता || १९ ।। 

त्वया सुबहवो युद्धे निर्जिता: शत्रुसूदन । 

दंशिता: क्रूरकर्माण: काम्बोजा युद्धदुर्मदा: ।। २० ।। 

शरबाणासनधरा यवनाश्ष प्रहारिण: । 

शका: किराता दरदा बर्बरास्ताम्रलिप्तका: || २१ ।। 

अन्ये च बहवो म्लेच्छा विविधायुधपाणय: । 

न च मे सम्भ्रम: कश्चिद्‌ भूतपूर्व: कथंचन ।। २२ ।। 

किमुतैतत्‌ समासाद्य धीरसंयुगगोष्पदम्‌ | 

आयुष्मन्‌ कतरेण त्वां प्रापपामि धनंजयम्‌ ।। २३ ।। 


शत्रुसूदन! आपने पहले भी युद्धमें बहुतेरे कवचधारी, क्रूरकर्मा रणदुर्मद काम्बोजोंको 
परास्त किया है। धनुष-बाण धारण करनेवाले प्रहारकुशल यवनोंको जीता है। शकों, 
किरातों, दरदों, बर्बरों, ताम्रलिप्तों तथा हाथोंमें नाना प्रकारके आयुध लिये अन्य बहुत-से 
मलेच्छोंको पराजित किया है। इन अवसरोंपर पहले कभी कोई किसी प्रकारका भय नहीं 
हुआ था। फिर इस गायकी खुरके समान तुच्छ युद्धस्थलमें आकर क्या भय हो सकता है? 
आयुष्मन्‌! बताइये, इन दो मार्गोर्मेंसे किसके द्वारा आपको अर्जुनके पास पहुँचाऊँ || २० 
--२३ || 

केषां क्रुद्धो$सि वार्ष्णेय केषां मृत्युरुपस्थित: । 

केषां संयमनीमद्य गन्तुमुत्सहते मन: ।। २४ ।। 

वार्ष्णेय! आप किनके ऊपर क़ुद्ध हैं, किनकी मौत आ गयी है और किनका मन आज 
यमपुरीमें जानेके लिये उत्साहित हो रहा है? ।। २४ ।। 

के त्वां युधि पराक्रान्तं कालान्तकयमोपमम्‌ | 

दृष्टवा विक्रमसम्पन्नं विद्रविष्यन्ति संयुगे || २५ ।। 

केषां वैवस्वतो राजा स्मरतेड्द्य महाभुज । 

युद्धमें काल, अन्तक और यमके समान पराक्रम दिखानेवाले आप-जैसे बल- 
विक्रमसम्पन्न वीरको देखकर आज कौन-कौन-से योद्धा मैदान छोड़कर भागनेवाले हैं? 
महाबाहो! आज राजा यम किनका स्मरण कर रहे हैं? || २५६ ।। 

सात्यकिरुवाच 


मुण्डानेतान्‌ हनिष्यामि दानवानिव वासव: ।। २६ ।। 

प्रतिज्ञां पारयिष्यामि काम्बोजानेव मां वह । 

अद्यैषां कदनं कृत्वा प्रियं यास्यामि पाण्डवम्‌ ।। २७ ।। 

सात्यकि बोले--सूत! जैसे इन्द्र दानवोंका वध करते हैं, उसी प्रकार आज मैं इन 
मथमुंडे काम्बोजोंका ही वध करूँगा और ऐसा करके अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर लूँगा। अतः 
तुम उनन्‍्हींकी ओर मुझे ले चलो। इन सबका संहार करके ही आज मैं अपने प्रिय सुहृद्‌ 
पाण्डुनन्दन अर्जुनके पास चलूँगा || २६-२७ ।। 

अद्य द्रक्ष्यन्ति मे वीर्य कौरवा: ससुयोधना: । 

मुण्डानीके हते सूत सर्वसैन्येषु चासकृत्‌ । २८ ।। 

अद्य कौरवसैन्यस्य दीर्यमाणस्य संयुगे । 

श्र॒त्वा विरावं बहुधा संतप्स्यति सुयोधन: ।। २९ ।। 

आज दुर्योधनसहित समस्त कौरव मेरा पराक्रम देखेंगे। सूत! आज इन सिरमुण्डोंके 
मारे जाने तथा अन्य सारी सेनाओंका बारंबार विनाश होनेपर युद्धस्थलमें छिन्न-भिन्न होती 


हुई कौरव-सेनाका नाना प्रकारसे आर्तनाद सुनकर दुर्योधनको बड़ा संताप 
होगा ।। २८-२९ || 

अद्य पाण्डवमुख्यस्य श्वेता श्वस्प महात्मन: । 

आचार्यस्य कृतं मार्ग दर्शयिष्यामि संयुगे ।। ३० ।। 

आज रणक्षेत्रमें मैं अपने आचार्य पाण्डवप्रवर श्वेतवाहन महात्मा अर्जुनके प्रकट किये 
हुए मार्गको दिखाऊँगा || ३० ।। 

अद्य मद्‌बाणनिहतान्‌ योधमुख्यान्‌ सहस्रश: । 

दृष्टवा दुर्योधनो राजा पश्चात्तापं गमिष्यति ॥। ३१ ।। 

आज मेरे बाणोंसे अपने सहस्रों प्रमुख योद्धाओंको मारा गया देखकर राजा दुर्योधन 
अत्यन्त पश्चात्ताप करेगा || ३१ ।। 

अद्य मे क्षिप्रहस्तस्य क्षिपत: सायकोत्तमान्‌ | 

अलातचक्रप्रतिमं धनुर्द्रक्ष्यन्ति कौरवा: ।। ३२ ।। 

आज शीतघ्रतापूर्वक हाथ चलाकर उत्तम बाणोंका प्रहार करते हुए मेरे धनुषको 
कौरवलोग अलातचक्रके समान देखेंगे || ३२ ।। 

मत्सायकचिताड्रानां रुधिरं स्रवतां मुहुः । 

सैनिकानां वध दृष्टवा संतप्स्यति सुयोधन: ।। ३३ ।। 

मैं अपने बाणोंसे सारे कौरव-सैनिकोंका शरीर व्याप्त कर दूँगा और वे बारंबार रक्त 
बहाते हुए प्राण त्याग देंगे। इस प्रकार अपने सैनिकोंका संहार देखकर सुयोधन संतप्त हो 
उठेगा ।। ३३ ।। 

अद्य मे क्रुद्धरूपस्य निघ्नतश्न वरान्‌ वरान्‌ | 

द्विरर्जुनमिमं लोकं मंस्यतेड्द्य सुयोधन: ।। ३४ ।। 

आज क्रोधमें भरकर मैं कौरव-सेनाके उत्तमोत्तम वीरोंको चुन-चुनकर मारूँगा, जिससे 
दुर्योधनको यह मालूम होगा कि अब संसारमें दो अर्जुन प्रकट हो गये हैं ।। ३४ ।। 

अद्य राजसहस्राणि निहतानि मया रणे । 

दृष्टवा दुर्योधनो राजा संतप्स्यति महामृथे ।। ३५ ।। 

आज महासमरमें मेरे द्वारा सहस्नों राजाओंका विनाश देखकर राजा दुर्योधनको बड़ा 
संताप होगा ।। ३५ ।। 

अद्य स्नेहं च भक्ति च पाण्डवेषु महात्मसु । 

हत्वा राजसहस््राणि दर्शयिष्यामि राजसु ।। ३६ ।। 

बल॑ वीर्य कृतज्ञत्वं मम ज्ञास्यन्ति कौरवा: । 

आज सहस्रों राजाओंका संहार करके मैं इन राजाओंके समाजमें महात्मा पाण्डवोंके 
प्रति अपने स्नेह और भक्तिका प्रदर्शन करूँगा। अब कौरवोंको मेरे बल, पराक्रम और 
कृतज्ञताका परिचय मिल जायगा ।। ३६६ ।। 


संजय उवाच 

एवमुक्तस्तदा सूत: शिक्षितान्‌ साधुवाहिन: ।। ३७ ।। 

शशाड्कसंनिकाशान्‌ वै वाजिनो व्यनुदद्‌ भृशम्‌ | 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सात्यकिके ऐसा कहनेपर सारथिने चन्द्रमाके समान श्वेत 
वर्णवाले उन घोड़ोंको, जो सुशिक्षित और अच्छी प्रकार सवारीका काम देनेवाले थे, बड़े 
वेगसे हाँका || ३७३ ।। 

ते पिबन्त इवाकाशं युयुधानं हयोत्तमा: ।। ३८ ।। 

प्रापपन्‌ यवनान्‌ शीघ्र॑ं मन:ःपवनरंहस: । 

मन और वायुके समान वेगवाले उन उत्तम घोड़ोंने आकाशको पीते हुए-से चलकर 
युयुधानको शीघ्र ही यवनोंके पास पहुँचा दिया || ३८६ ।। 

सात्यकिं ते समासाद्य पृतनास्वनिवर्तिनम्‌ ।। ३९ |। 

बहवो लघुहस्ताश्न॒ शरवर्षरवाकिरन्‌ । 

युद्धमें कभी पीछे न हटनेवाले सात्यकिको अपनी सेनाओंके बीच पाकर शीघ्रतापूर्वक 
हाथ चलानेवाले बहुतेरे यवनोंने उनके ऊपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ३९३६ ।। 

तेषामिषूनथास्त्राणि वेगवान्‌ नतपर्वभि: ।। ४० ।। 

अच्छिनत्‌ सात्यकी राजन  नैनं ते प्राप्तुवत्‌ शरा: । 

राजन! वेगशाली सात्यकिने झुकी हुई गाँठवाले अपने बाणोंद्वारा उन सबके बाणों तथा 
अन्य अस्त्रोंको काट गिराया। वे बाण उनके पासतक पहुँच न सके ।। 

रुक्मपुड्खै: सुनिशितैर्गार्ध्रपत्रैरजिह्मुगैः ।। ४१ ।। 

उच्चकर्त शिरांस्युग्रो यवनानां भुजानपि । 

शैक्यायसानि वर्माणि कांस्थानि च समन्ततः ।। ४२ ।। 

उन भयंकर वीरने सब ओर घूम-घूमकर सोनेके पुंख और गीधकी पाँखवाले तीखे 
बाणोंसे यवनोंके मस्तक, भुजाएँ तथा लाल लोहे एवं काँसेके बने हुए कवच भी काट 
डाले ।। ४१-४२ ।। 

भित्त्वा देहांस्तथा तेषां शरा जम्मुर्महीतलम्‌ | 

ते हन्यमाना वीरेण म्लेच्छा: सात्यकिना रणे ।। ४३ ।। 

शतशो< भ्यपतंस्तत्र व्यसवो वसुधातले । 

वे बाण उनके शरीरोंको विदीर्ण करके पृथ्वीमें घुस गये। वीर सात्यकिके द्वारा 
रणभूमिमें आहत होकर सैकड़ों म्लेच्छ प्राण त्यागकर धराशायी हो गये ।। ४३ $ ।। 

सुपूर्णायतमुक्तैस्तानव्यवच्छिन्नपिण्डितै: ।। ४४ ।। 

पज्च षट्‌ सप्त चाष्टौ च बिभेद यवनान्‌ शरै: । 


वे कानतक खींचकर छोड़े हुए और अविच्छिन्न गतिसे परस्पर सटकर निकलते हुए 

बाणोंद्वारा पाँच, छ, सात और आठ यवनोंको एक ही साथ विदीर्ण कर डालते थे || ४४३ 
|| 

काम्बोजानां सहसैश्न शकानां च विशाम्पते ।। ४५ ।। 

शबराणां किरातानां बर्बराणां तथैव च । 

अगम्यरूपां पृथिवीं मांसशोणितकर्दमाम्‌ ।। ४६ ।। 

कृतवांस्तत्र शैनेय: क्षपयंस्तावकं॑ बलम्‌ | 

प्रजानाथ! सात्यकिने आपकी सेनाका संहार करते हुए वहाँकी भूमिको सहस्रों 
काम्बोजों, शकों, शबरों, किरातों और बर्बरोंकी लाशोंसे पाटकर अगम्य बना दिया था। वहाँ 
मांस और रक्तकी कीच जम गयी थी || ४५-४६ ६ ।। 

दस्यूनां सशिरस्त्राणै: शिरोभिलूनमूर्थजै: ॥। ४७ ।। 

दीर्घकूचैर्मही कीर्णा विबर्हैरण्डजैरिव । 

उन लुटेरोंके लंबी दाढ़ीवाले शिरस्त्राणयुक्त मुण्डित मस्तकोंसे आच्छादित हुई रणभूमि 
पंखहीन पक्षियोंसे व्याप्त हुई-सी जान पड़ती थी || ४७६ ।। 

रुधिरोक्षितसवरज़िस्तैस्तदायोधनं बभौ ।। ४८ ।। 

कबन्‍न्धै: संवृतं सर्व ताम्रा भ्रे: खमिवावृतम्‌ | 

जिनके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे, उन कबन्धोंसे भरा हुआ वह सारा रफक्षेत्र 
लाल रंगके बादलोंसे ढके हुए आकाशके समान जान पड़ता था ।। 

वज्राशनिसमस्पर्श: सुपर्वभिरजिद्वागै: ।। ४९ ।। 

ते सात्वतेन निहता: समावत्रुर्वसुंधराम्‌ । 

वज्र और विद्युतकें समान कठोर स्पर्शवाले सुन्दर पर्वयुक्त बाणोंद्वारा सात्यकिके 
हाथसे मारे गये उन यवनोंने वहाँकी भूमिको अपनी लाशोंसे ढक लिया ।। 

अल्पावशिष्टा: सम्भग्ना: कृच्छुप्राणा विचेतस: ।। ५० ।। 

जिता: संख्ये महाराज युयुधानेन दंशिता: । 

पाण्णिशिश्व कशाभिश्च ताडयन्तस्तुरज्रमान्‌ ।। ५१ ।। 

जवमुनत्तममास्थाय सर्वतः प्राद्रवन्‌ भयात्‌ । 

महाराज! थोड़े-से यवन शेष रह गये थे, जो बड़ी कठिनाईसे अपने प्राण बचाये हुए थे। 
वे अपने समुदायसे भ्रष्ट होकर अचेत-से हो रहे थे। उन सभी कवचधारी यवनोंको युयुधानने 
युद्धस्थलमें जीत लिया था। वे हाथों और कोड़ोंसे अपने घोड़ोंको पीटते हुए उत्तम वेगका 
आश्रय ले चारों ओर भयके मारे भाग गये || ५०-५१३ ।। 

काम्बोजसैन्यं विद्राव्य दुर्जयं युधि भारत ।। ५२ ।। 

यवनानां च तत्‌ सैन्यं शकानां च महद्बलम्‌ | 

ततः स पुरुषव्यात्र: सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। ५३ ।। 


प्रविष्टस्तावकान्‌ जित्वा सूतं याहीत्यचोदयत्‌ । 
भरतनन्दन! उस रफणक्षेत्रमें दुर्जय काम्बोज-सेनाको, यवन-सेनाको तथा शकोंकी 
विशाल वाहिनीको खदेड़कर सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह सात्यकि आपके सैनिकोंपर विजयी 
हो कौरव-सेनामें घुस गये और सारथिको आदेश देते हुए बोले--“आगे बढ़ो” || ५२-५३ ई 
|| 
तत्‌ तस्य समरे कर्म दृष्ट्वान्यैरकृतं पुरा || ५४ ।। 
चारणा: सहगन्धर्वा: पूजयाज्चक्रिरे भृशम्‌ । 
जिसे पहले दूसरोंने नहीं किया था, समरांगणमें सात्यकिके उस पराक्रमको देखकर 
चारणों और ग्रन्धवोंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ।। ५४ $ ।। 
त॑ यान्तं पृष्ठगोप्तारमर्जुनस्य विशाम्पते । 
चारणा: प्रेक्ष्य संहृष्टास्त्वदीयाश्वा भ्यपूजयन्‌ ।। ५५ ।। 
प्रजानाथ! अर्जुनके पृष्ठरक्षक सात्यकिको जाते देख चारणोंको बड़ा हर्ष हुआ और 
आपके सैनिकोंने भी उनकी बड़ी सराहना की ।। ५५ |। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे यवनपराजये 
एकोनविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। ११९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिके कौरव-सेनामें 
प्रवेशके प्रसंगमें यवनोंकी पराजयविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ११९ ॥। 


&--“&<&< श्नु नासा त्सथिस 


विशत्यधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिद्वारा दुर्योधनकी सेनाका संहार तथा भाइयोंसहित 
दुर्योधनका पलायन 


संजय उवाच 

जित्वा यवन काम्बोजान्‌ युयुधानस्ततो<र्जुनम्‌ 

जगाम तव सैन्यस्य मध्येन रथिनां वर: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! रथियोंमें श्रेष्ठ युयुधान यवनों और काम्बोजोंको पराजित 
करके आपकी सेनाके बीचसे होते हुए अर्जुनकी ओर चले ।। १ ।। 

चारुदंष्टो नरव्याप्रो विचित्रकवचध्वज: । 

मृगं व्याप्र इवाजिप्रंस्तव सैन्यम भीषयत्‌ ।। २ ।। 

पुरुषसिंह सात्यकिके दाँत बड़े सुन्दर थे। उनके कवच और ध्वज भी विचित्र थे। वे 
मृगकी गन्ध लेते हुए व्याप्रके समान आपकी सेनाको भयभीत कर रहे थे ।। 

स रथेन चरन्‌ मार्गान्‌ धनुरभ्रामयद्‌ भृशम्‌ । 

रुक्मपृष्ठं महावेगं रुक्मचन्द्रकसंकुलम्‌ ।। ३ ।। 

युयुधान रथके द्वारा विभिन्न मार्गोपर विचरते हुए अपने उस महावेगशाली धनुषको 
जोर-जोरसे घुमा रहे थे, जिसका पृष्ठभाग सोनेसे मढ़ा था और जो सुवर्णमय चन्द्राकार 
चिह्नोंसे व्याप्त था ।। ३ ।। 

रुक्माड्गदशिरस्त्राणो रुक्मवर्मसमावृत: । 

रुक्मध्वजथनु: शूरो मेरुशुज्मिवाबभौ ।। ४ ।। 

उनके भुजबंद और शिरस्त्राण सुवर्णके बने हुए थे। वे स्वर्णमय कवचसे आच्छादित 
थे। सोनेके ध्वज और धनुषसे सुशोभित शूरवीर सात्यकि मेरुपर्वतके शिखरकी भाँति शोभा 
पा रहे थे || ४ ।। 

सभनुर्मण्डल: संख्ये तेजोभास्कररश्मिवान्‌ । 

शरदीवोदित: सूर्यो नूसूर्यों विरराज ह ।। ५ ।। 

युद्धस्थलमें मण्डलाकार धनुष धारण किये अपने तेजस्वरूप सूर्यरश्मियोंसे प्रकाशित, 
मानव-सूर्य सात्यकि शरतकालमें उगे हुए सूर्यदेवके समान देदीप्यमान हो रहे थे ।। ५ ।। 

वृषभस्कन्धविक्रान्तो वृषभाक्षो नरर्षभ: । 

तावकानां बभौ मध्ये गवां मध्ये यथा वृष: ।। ६ ।। 

उनके कंधे और चाल-ढाल वृषभके समान थे। नेत्र भी वृषभके ही तुल्य बड़े-बड़े थे। वे 
नरश्रेष्ठ सात्यकि आपके सैनिकोंके बीचमें उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे गौओंके 


झुंडमें साँड़की शोभा होती है ।। 

मत्तद्विरदसंकाशं मत्तद्विरदगामिनम्‌ | 

प्रभिन्नमिव मातडूं यूथमध्ये व्यवस्थितम्‌ ।। ७ ।। 

व्याप्रा इव जिघांसन्तस्त्वदीया: समुपाद्रवन्‌ । 

मतवाले हाथीके समान पराक्रमी और मदोनन्‍्मत्त गजराजके समान मन्दगतिसे 
चलनेवाले सात्यकि जब मदस्रावी मातंगके समान कौरव-सैनिकोंके मध्यभागमें खड़े हुए, 
उस समय आपके योद्धा उन्हें मार डालनेकी इच्छासे भूखे बाघोंके समान उनपर टूट 
पड़े ।| ७६ || 

द्रोणानीकमतिक्रान्तं भोजानीकं च दुस्तरम्‌ ।। ८ ।। 

जलसंधार्णवं तीर्त्वा काम्बोजानां च वाहिनीम्‌ । 

हार्दिक्यमकरान्मुक्त तीर्ण वै सैन्यसागरम्‌ ।। ९ ।। 

परिवत्र॒ुः सुसंक्रुद्धास्त्वदीया: सात्यकिं रथा: । 

वे सात्यकि जब द्रोणाचार्य और कृतवर्माकी दुस्तर सेनाको लाँधचकर जलसंधरूपी 

सिन्धुको पार करके काम्बोजोंकी सेनाका संहारकर कृतवर्मारूपी ग्राहके चंगुलसे छूटकर 

आपकी सेनाके समुद्रसे पार हो गये, उस समय अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए आपके रथियोंने 
उन्हें चारों ओरसे घेर लिया || ८-९ $ ।। 

दुर्योधनश्रित्रसेनो दःशासनविविंशती ।। १० ।। 

शकुनिर्दु:सहश्वैव युवा दुर्धर्षण: क्रथ: । 

अन्ये च बहव: शूरा: शस्त्रवन्तो दुरासदा: ।। ११ ।। 

पृष्ठतः सात्यकिं यान्तमन्वधावन्नमर्षिण: । 

दुर्योधन, चित्रसेन, दुःशासन, विविंशति, शकुनि, दुःसह, तरुण वीर दुर्धर्ष क्रथ तथा 
अन्य बहुत-से दुर्जय शूरवीर, अमर्षमें भरकर अस्त्र-शस्त्र लिये वहाँ आगे बढ़ते हुए 
सात्यकिके पीछे-पीछे दौड़े || १०-११३ ।। 

अथ शब्दो महानासीत्‌ तव सैन्यस्य मारिष ।। १२ ।। 

मारुतोद्धूतवेगस्य सागरस्येव पर्वणि । 

माननीय नरेश! पूर्णिमाके दिन वायुके झकोरोंसे वेगपूर्वक ऊपर उठनेवाले महासागरके 
समान आपकी सेनामें बड़े चोर-जोरसे गर्जन-तर्जनका शब्द होने लगा ।। 

तानभिद्रवत: सर्वान्‌ समीक्ष्य शिनिपुड़व: ।। १३ ।। 

शनैर्याहीति यन्तारमब्रवीत्‌ प्रहसन्निव | 

उन सबको आक्रमण करते देख शिनिप्रवर सात्यकिने अपने सारथिसे हँसते हुए-से 
कहा--'सूत! धीरे-धीरे चलो ।। १३ $ ।। 

इदमेतत्‌ समुद्धूतं धार्तराष्ट्रस्य यदू बलम्‌ ।। १४ ।। 

मामेवाभिमुखं तूर्ण गजाश्वरथपत्तिमत्‌ । 


नादयन्‌ वै दिश: सर्वा रथघोषेण सारथे ।। १५ ।। 

पृथिवीं चान्तरिक्षं च कम्पयन्‌ सागरानपि । 

एतद्‌ बलार्णवं सूत वारयिष्ये महारणे ।। १६ ।। 

ला | वेलेव मकरालयम्‌ । 

'सूत! यह हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसे भरी हुई जो दुर्योधनकी सेना युद्धके लिये 
उद्यत हो मेरी ही ओर तीव्र वेगसे चली आ रही है, इस सेना-समुद्रको मैं इस महान्‌ 
समरांगणमें अपने रथकी घर्घराहटसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करता तथा पृथ्वी, 
अन्तरिक्ष एवं सागरोंको भी कँपाता हुआ आगे बढ़नेसे रोकूँगा। ठीक उसी तरह, जैसे 
तटकी भूमि पूर्णिमाको उद्वेलित होनेवाले महासागरको रोक देती है || १४--१६६ ।। 

पश्य मे सूत विक्रान्तमिन्द्रस्येव महामृधे ।। १७ ।। 

एष सैन्यानि शत्रूणां विधमामि शितै: शरै: । 

'सारथे! इस महायुद्धमें देवराज इन्द्रके समान मेरा पराक्रम तुम देखो। मैं अभी-अभी 
अपने पैने बाणोंसे शत्रुओंकी सेनाओंका संहार कर डालता हूँ ।। १७६ ।। 

निहतानाहवे पश्य पदात्यश्चवरथद्विपान्‌ ।। १८ ।। 

मच्छरैरग्निसंकाशैरविंद्धदेहानू सहस्रश: । 

“इस युद्धस्थलमें मेरे द्वारा मारे गये सहस्रों पैदलों, घुड़सवारों, रथियों और 
हाथीसवारोंको देखना, जिनके शरीर मेरे अग्निसदृश बाणोंद्वारा विदीर्ण हुए होंगे” ।। 

इत्येवं ब्रुवतस्तस्य सात्यकेरमितौजस: ।। १९ |। 

समीपे सैनिकास्ते तु शीघ्रमीयुर्युयुत्सव: । 

जह्याद्रवस्व तिछेति पश्य पश्येति वादिन: ।। २० ।। 

अमित तेजस्वी सात्यकि जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय युद्धके लिये उत्सुक 
हुए आपके सारे सैनिक शीघ्र ही उनके समीप आ पहुँचे। वे “दौड़ो, मारो, ठहरो, देखो-देखो” 
इत्यादि बातें बोल रहे थे | १९-२० ।। 

तानेवं ब्रुवतो वीरान्‌ सात्यकिर्निशितै: शरै: । 

जघान त्रिशतानश्चान्‌ कुज्जरांश्व चतु:ःशतान्‌ ॥। २१ ।। 

(लघ्वस्त्रश्चनित्रयोधी च प्रहसन्‌ शिनिपुड्भवः ।) 

शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले एवं विचित्र युद्धकी कलामें निपुण शिनिप्रवर सात्यकिने 
हँसते हुए वहाँ उपर्युक्त बातें बोलनेवाले तीन सौ वीर घुड़सवारों तथा चार सौ 
हाथीसवारोंको अपने तीखे बाणोंसे मार गिराया || २१ ।। 

स सम्प्रहारस्तुमुलस्तस्य तेषां च धन्विनाम्‌ । 

देवासुररणप्रख्य: प्रावर्तत जनक्षय: ।। २२ ।। 

सात्यकि तथा आपकी सेनाके धनुर्धरोंका वह नरसंहारकारी युद्ध देवासुर-संग्रामके 
समान अत्यन्त भयंकर हो चला ।। २२ ।। 


मेघजालनिभ सैन्यं तव पुत्रस्य मारिष । 

प्रत्यगृह्नाच्छिने: पौत्र: शरैराशीविषोपमै: ।। २३ ।। 

माननीय नरेश! शिनिपौत्र सात्यकिने अपने विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंद्वारा 
मेघोंकी घटाके समान प्रतीत होनवाली आपके पुत्रकी सेनाका अकेले ही सामना 
किया ।। २३ ।। 

प्रच्छाद्यमान: समरे शरजालै: स वीर्यवान्‌ । 

असम्भ्रमन्‌ महाराज तावकानवधीद्‌ बहून्‌ ।। २४ ।। 

महाराज! उस समरांगणमें पराक्रमी सात्यकि बाणोंके समूहसे आच्छादित हो गये थे, 
तो भी उन्होंने मनमें तनिक भी घबराहट नहीं आने दी और आपके बहुत-से सैनिकोंका 
संहार कर डाला || २४ ।। 

आश्चर्य तत्र राजेन्द्र सुमहद्‌ दृष्टवानहम्‌ । 

न मोघ:ः सायकः: कश्चित्‌ सात्यकेरभवत्‌ प्रभो | २५ ।। 

शक्तिशाली राजेन्द्र! वहाँ सबसे महान्‌ आश्वर्यकी बात मैंने यह देखी कि सात्यकिका 
कोई भी बाण व्यर्थ नहीं गया ।। २५ ।। 

रथनागाश्वकलिल: पदात्यूमिसमाकुल: । 

शैनेयवेलामासाद्य स्थित: सैन्यमहार्णव: ।। २६ ।। 

रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी तथा पैदलरूपी लहरोंसे व्याप्त हुई आपकी सागर-सदृश 
सेना सात्यकिरूपी तटभूमिके समीप आकर अवरुद्ध हो गयी ।। २६ ।। 

सम्भ्रान्तनरनागाश्चवमावर्तत मुहुर्मुहु: । 

तत्‌ सैन्यमिषुभिस्तेन वध्यमानं समन्ततः ।। २७ ।। 

सात्यकिके बाणोंद्वारा सब ओरसे मारी जाती हुई आपकी सेनाके पैदल, हाथी और 
घोड़े सभी घबरा गये और बारंबार चक्कर काटने लगे || २७ |। 

बश्राम तत्र तत्रैव गाव: शीतार्दिता इव । 

पदातिन रथं नागं सादिनं तुरगं तथा ।। २८ ।। 

अदिद्धं तत्र नाद्राक्षं युयुधानस्य सायकै: । 

सर्दीसे पीड़ित हुई गायोंके समान आपकी सारी सेना वहीं चक्कर लगा रही थी। मैंने 
वहाँ एक भी पैदल, रथी, हाथी तथा सवारसहित घोड़ेको ऐसा नहीं देखा, जो युयुधानके 
बाणोंसे विद्ध न हुआ हो ।। २८३ ।। 

न तादूक्‌ कदनं राजन्‌ कृतवांस्तत्र फाल्गुन: ।॥। २९ ।। 

यादृक्‌ क्षयमनीकानामकरोत्‌ सात्यकिर्नूप । 

राजन! नरेश्वर! सात्यकिने आपके सैनिकोंका जैसा संहार किया था, वैसा वहाँ 
अर्जुनने भी नहीं किया था || २९३ ।। 

अत्यर्जुनं शिने: पौत्रो युध्यते पुरुषर्षभ: ।। ३० ।। 


वीतभीर्लाघवोपेत: कृतित्वं सम्प्रदर्शयन्‌ । 

शिनिपौत्र पुरुषश्रेष्ठ सात्यकि निर्भय हो बड़ी फुर्तीसे अस्त्र चलाते और अपनी 
कुशलताका प्रदर्शन करते हुए अर्जुनसे भी अधिक पराक्रमपूर्वक युद्ध कर रहे थे || ३० $ई 

|| 

ततो दुर्योधनो राजा सात्वतस्य त्रिभि: शरै: ।। ३१ ।। 

विव्याध सूत॑ निशितैश्नतुर्भिश्चतुरों हयान्‌ 

सात्यकिं च त्रिभिविद्ध्वा पुनरष्टाभिरेव च ।। ३२ ।। 

तब राजा दुर्योधनने तीन बाणोंसे सात्यकिके सारथिको और चार पैने बाणोंद्वारा उनके 
चारों घोड़ोंको घायल कर दिया। तत्पश्चात्‌ सात्यकिको भी पहले तीन बाणोंसे बींधकर फिर 
आठ बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी || ३१-३२ ।। 

दुःशासन: षोडशभिर्विव्याध शिनिपुड्भवम्‌ | 

शकुनि: पञ्चविंशत्या चित्रसेनश्व॒ पठचभि: ।। ३३ ।। 

तदनन्तर दुःशासनने सोलह, शकुनिने पचीस और चित्रसेनने पाँच बाणोंद्वारा शिनिप्रवर 
सात्यकिको बींध डाला ।। ३३ ।। 

दुःसह: पठचदशभिर्विव्याधोरसि सात्यकिम्‌ | 

उत्स्मयन्‌ वृष्णिशार्दटूलस्तथा बाणै: समाहतः ।। ३४ ।। 

तानविध्यन्महाराज सवनिव त्रिभिस्त्रिभि: | 

इसके बाद दुःसहने सात्यकिकी छातीमें पंद्रह बाण मारे। महाराज! इस प्रकार उन 
बाणोंसे आहत होकर वृष्णिवंशके सिंह सात्यकिने मुसकराते हुए ही उन सबको ही तीन- 
तीन बाणोंसे घायल कर दिया ।। ३४३ ।। 

गाढविद्धानरीन्‌ कृत्वा मार्गणै: सोडतितेजनै: ।। ३५ ।। 

शैनेय: श्येनवत्‌ संख्ये व्यचरल्लघुविक्रम: । 

उस युद्धस्थलमें शीघ्रतापूर्वक पराक्रम करनेवाले शिनिवंशी सात्यकि अपने अत्यन्त 
तेज बाणोंद्वारा शत्रुओंको गहरी चोट पहुँचाकर बाजके समान सब ओर विचरने लगे ।। ३५ 
हे || 

सौबलस्य धनुश्कछित्त्वा हस्तावापं निकृत्य च ।। ३६ ।। 

दुर्योधन त्रिभिरबाणिरभ्यविध्यत्‌ स्तनान्तरे । 

उन्होंने सुबलपुत्र शकुनिके धनुष और दस्ताने काटकर दुर्योधनकी छातीमें तीन बाण 
मारे || ३६३ || 

चित्रसेनं शतेनैव दशभिर्दु:सहं तथा ।। ३७ ।। 

दुःशासन तु विंशत्या विव्याध शिनिपुड्भव: । 


फिर शिनिवंशके प्रमुख वीरने चित्रसेनको सौ, दुःसहको दस और दुःशासनको बीस 
बाणोंसे घायल कर दिया ।। ३७३६ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय श्यालस्तव विशाम्पते ।। ३८ ।। 

अष्टाभि: सात्यकिं विदृध्वा पुनर्विव्याध पञ्चभि: । 

दुःशासनश्व दशभिर्दु:सहश्न त्रिभि: शरै:ः ।। ३९ ।। 

प्रजानाथ! तत्पश्चात्‌ आपके सालेने दूसरा धनुष लेकर सात्यकिको पहले आठ बाण 
मारे। फिर पाँच बाणोंसे उन्हें घायल कर दिया। दुःशासनने दस और दुःसहने भी तीन बाण 
मारे || ३८-३९ || 

दुर्मुखश्न॒ द्वादशभी राजन्‌ विव्याध सात्यकिम्‌ | 

दुर्योधनस्त्रिसप्तत्या विद्ूध्वा भारत माधवम्‌ ॥। ४० ।। 

ततोअस्य निशितैर्बाणैस्त्रिभिविंव्याध सारथिम्‌ । 

राजन! दुर्मुखने बारह बाणोंसे सात्यकिको क्षत-विक्षत कर दिया। भारत! इसके बाद 
दुर्योधनने तिहत्तर बाणोंसे युयुधानको घायल करके तीन पैने बाणोंद्वारा उनके सारथिको भी 
बींध डाला || ४० ई || 

तान्‌ सर्वान्‌ सहितान्‌ शूरान्‌ यतमानान्‌ महारथान्‌ ।। ४१ ।। 

पज्चभि: पज्चभिर्बाणै: पुनर्विव्याध सात्यकि: | 

तब सात्यकिने एक साथ विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले उन समस्त शूरवीर 
महारथियोंको पुन: पाँच-पाँच बाणोंसे घायल कर दिया ।। ४१३ ।। 

ततः स रथियनां श्रेष्ठस्तव पुत्रस्य सारथिम्‌ ।। ४२ ।। 

आजघानाशु भल्लेन स हतो न्यपतद्‌ भुवि । 

तत्पश्चात्‌ रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकिने आपके पुत्रके सारथिके ऊपर शीघ्र ही एक भल्लका 
प्रहार किया। सारथि उसके द्वारा मारा जाकर पृथ्वीपर गिर पड़ा || ४२६ ।। 

पतिते सारथौ तस्मिंस्तव पुत्ररथ: प्रभो || ४३ ।। 

वातायमानैस्तैरश्वैरपानीयत संगरात्‌ । 

प्रभो! उस सारथिके धराशायी होनेपर आपके पुत्रका रथ हवाके समान तीव्र वेगसे 
भागनेवाले घोड़ोंद्वारा युद्धस्थलसे दूर हटा दिया गया ।। ४३ $ ।। 

ततस्तव सुता राजन्‌ सैनिकाश्न विशाम्पते ।। ४४ ।। 

राज्ञो रथमभिप्रेक्ष्य विद्रुता:शतशो5भवन्‌ | 

राजन! प्रजानाथ! तदनन्तर आपके पुत्र और सैनिक राजा दुर्योधनके रथकी वैसी दशा 
देखकर सैकड़ोंकी संख्यामें भाग खड़े हुए || ४४ $ ।। 

विद्रुतं तत्र तत्‌ सैन्यं दृष्टवा भारत सात्यकि: ।। ४५ ।। 

अवाकिरच्छरैस्तीक्ष्ण रुक्मपुड्खै: शिलाशितै: । 


भारत! आपकी सेनाको भागती देख सात्यकिने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए 
सुवर्णमय पंखवाले तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी || ४५६ ।। 

विद्राव्य सर्वसैन्यानि तावकानि सहस्रश: ।। ४६ ।। 

प्रययौ सात्यकी राजन श्वेताश्वस्य रथं प्रति । 

राजन्‌! इस प्रकार आपके सहस्रों सैनिकोंको भगाकर सात्यकि श्वेतवाहन अर्जुनके 
रथकी ओर चल दिये ।। 

(तं प्रयान्तं महाबाहुं तावका:ः प्रेक्ष्य मारिष । 

दृष्टं चादृष्टवत्कृत्वा क्रियामन्यां प्रयोजयन्‌ ।।) 

आर्य! महाबाहु सात्यकिको आगे जाते देखकर आपके सैनिक उस देखी हुई घटनाको 
भी अनदेखी करके दूसरे काममें लग गये। 

त॑ं शरानाददानं च रक्षमाणं च सारथिम्‌ । 

आत्मानं पालयानं च तावका: समपूजयन्‌ ।। ४७ ।। 

सात्यकि बाणोंको ग्रहण करते हुए अपनी और सारथिकी भी रक्षा करते थे। उनके इस 
कार्यकी आपके सैनिकोंने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ४७ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे दुर्योधनपलायने 
विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका शत्रुसेनामें प्रवेश 
और दुर्योधनका पलायनविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२० ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६३ श्लोक मिलाकर कुल ४८३ “लोक हैं।) 


फल र (0) आज अत+- 


एकविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिके द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छोंकी सेनाका संहार 
और दुःशासनका सेनासहित पलायन 


धृतराष्ट्र रवाच 

सम्प्रमृद्य महत्‌ सैन्यं यान्तं शैनेयमर्जुनम्‌ । 

निर्ह्लीका मम ते पुत्रा: किमकुर्वत संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! मेरी विशाल सेनाको रौंदकर जाते हुए सात्यकि और 
अर्जुनको देखकर मेरे उन निर्लज्ज पुत्रोंने क्या किया? ।। १ ।। 

कथं वैषां तदा युद्धे धृतिरासीन्मुमूर्षताम्‌ । 

शैनेयचरितं दृष्टवा यादृशं सव्यसाचिन: ।। २ ।॥। 

वे सब-के-सब मरना चाहते थे। उस समय युद्धस्थलमें अर्जुनके समान ही सात्यकिका 
चरित्र देखकर उनकी कैसी धारणा हुई थी? ।। २ ।। 

कि नु वक्ष्यन्ति ते क्षात्र॑ सैन्यमध्ये पराजिता: । 

कथं नु सात्यकिर्युद्धे व्यतिक्रान्तो महायशा: ।। ३ ।। 

वे सेनाके बीचमें परास्त होकर अपने क्षात्रबलका क्‍या वर्णन करेंगे? समरांगणमें 
महायशस्वी सात्यकि किस प्रकार सारी सेनाको लाँचकर आगे बढ़ गये? ।। ३ ॥। 

कथं च मम पुत्राणां जीवतां तत्र संजय । 

शैनेयोडभिययौ युद्धे तन्ममाचक्ष्य संजय ।। ४ ।। 

संजय! युद्धस्थलमें मेरे पुत्रोंके जीते-जी शिनिनन्दन सात्यकि किस तरह आगे जा 
सके? संजय! यह सब मुझे बताओ ।। ४ ।। 

अत्यद्भुतमिदं तात त्वत्सकाशाच्छूणोम्यहम्‌ । 

एकस्य बहुभि: सार्ध शत्रुभिस्तैर्महारथै: ॥। ५ ।। 

तात! यह मैं तुम्हारे मुँहसे अत्यन्त विचित्र बात सुन रहा हूँ कि शत्रुदलके उन 
बहुसंख्यक महारथियोंके साथ एकमात्र सात्यकिका ऐसा घोर संग्राम हुआ || ५ ।। 

विपरीतमहं मन्ये मन्दभाग्यं सुतं प्रति । 

यत्रावध्यन्त समरे सात्वतेन महारथा: ।। ६ ।। 

मैं अपने भाग्यहीन पुत्रके लिये सब कुछ विपरीत ही मान रहा हूँ; क्योंकि समरांगणमें 
अकेले सात्यकिने बहुत-से महारथियोंका वध कर डाला है || ६ |। 

एकस्य हि न पर्याप्त यत्सैन्यं तस्प संजय । 

क़ुद्धस्य युयुधानस्य सर्वे तिष्ठन्तु पाण्डवा: ।। ७ ।। 


संजय! और सब पाण्डव तो दूर रहें, क्रोधमें भरे हुए अकेले सात्यकिके लिये भी मेरी 
सारी सेना पर्याप्त नहीं है ।। ७ ।। 

निर्जित्य समरे द्रोणं कृतिनं चित्रयोधिनम्‌ । 

यथा पशुगणान्‌ सिंहस्तद्वद्धन्ता सुतानू मम ॥। ८ ।। 

जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है, उसी प्रकार सात्यकि विचित्र युद्ध करनेवाले 
दिद्वान्‌ द्रोणाचार्यको भी युद्धमें परास्त करके मेरे पुत्रोंका वध कर डालेंगे ।। ८ ।। 

कृतवर्मादिश्ि: शूरैर्यत्तैर्बहुभिराहवे । 

युयुधानो न शकितो हन्तुं यत्‌ पुरुषर्षभ: ।। ९ ।। 

कृतवर्मा आदि बहुत-से शूरवीर समरांगणमें प्रयत्न करते ही रह गये; परंतु पुरुषप्रवर 
सात्यकि मारे न जा सके || ९ ।। 

नैतदीदृशकं युद्ध॑ कृतवांस्तत्र फाल्गुन: । 

यादृशं कृतवान्‌ युद्ध शिनेर्नप्ता महायशा: ।। १० ।। 

शिनिके महायशस्वी पौत्र सात्यकिने वहाँ जैसा युद्ध किया, वैसा तो अर्जुनने भी नहीं 
किया था || १० |। 

संजय उवाच 

तव दुर्मन्त्रिते राजन्‌ दुर्योधनकृतेन च । 

शृणुष्वावहितो भूत्वा यत्‌ ते वक्ष्यामि भारत ।। ११ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! आपकी खोटी सलाह और दुर्योधनकी काली करतूतसे यह 
सब कुछ हुआ है। भारत! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये ।। ११ ।। 

ते पुनः संन्यवर्तन्त कृत्वा संशप्तकान्‌ मिथ: । 

परां युद्धे मतिं क्रूरां तव पुत्रस्य शासनात्‌ ।। १२ ।। 

आपके पुत्रकी आज्ञासे युद्धके लिये अत्यन्त क्रूरतापूर्ण निश्चय करके परस्पर शपथ ले 
वे सभी पराजित योद्धा पुन: लौट आये ।। १२ ।। 

त्रीणि सादिसहस््राणि दुर्योधनपुरोगमा: । 

शककाम्बोजबाह्लीका यवना: पारदास्तथा ।। १३ ।। 

कुलिन्दास्तड्भणाम्बष्ठा: पैशाचाश्न सबर्बरा: । 

पर्वतीयाश्न राजेन्द्र क़ुद्धा: पाषाणपाणय: ।। १४ ।। 

अभ्यद्रवन्त शैनेयं शलभा: पावकं यथा । 

तीन हजार घुड़सवार और हाथीसवार दुर्योधनको अपना अगुआ बनाकर चले। उनके 
साथ शक, काम्बोज, बाह्लीक, यवन, पारद, कुलिन्द, तंगण, अम्बष्ठ, पैशाच, बर्बर तथा 
पर्वतीय योद्धा भी थे। राजेन्द्र! वे सब-के-सब कुपित हो हाथोंमें पत्थर लिये सात्यकिकी 
ओर उसी प्रकार दौड़े, जैसे फतिंगे जलती हुई आगपर टूट पड़ते हैं ।। १३-१४ | ।। 


युक्ताश्न पर्वतीयानां रथा: पाषाणयोधिनाम्‌ ।। १५ ।। 

शूरा: पञ्चशता राजन्‌ शैनेयं समुपाद्रवन्‌ | 

राजन! पत्थरोंद्वारा युद्ध करनेवाले पर्वतीयोंके पाँच सौ शूरवीर रथी युद्धके लिये 
सुसज्जित हो सात्यकिपर चढ़ आये || १५३ ।। 

ततो रथसहस्रेण महारथशतेन च ।। १६ ।। 

द्विरदानां सहस्नरेण द्विसाहसैश्व॒ वाजिभि: । 

शरवर्षाणि मुज्चन्तो विविधानि महारथा: ।। १७ ।। 

अभ्यद्रवन्त शैनेयमसंख्येयाश्ष पत्तय: । 

तत्पश्चात्‌ एक हजार रथी, सौ महारथी, एक हजार हाथी और दो हजार घुड़सवारोंके 
साथ बहुत-से महारथी और असंख्य पैदल सैनिक सात्यकिपर नाना प्रकारके बाणोंकी वर्षा 
करते हुए टूट पड़े || १६-१७ ३ ।। 

तांश्व संचोदयन्‌ सर्वान्‌ घ्नतैनमिति भारत ।। १८ ।। 

दुःशासनो महाराज सात्यकिं पर्यवारयत्‌ । 

भरतवंशी महाराज! “इस सात्यकिको मार डालो”, इस प्रकार उन समस्त सैनिकोंको 
प्रेरित करते हुए दुःशासनने उन्हें चारों ओरसे घेर लिया | १८ ६ ।। 

तत्राद्भुतमपश्याम शैनेयचरितं महत्‌ ।। १९ ।। 

यदेको बहुभि: सार्धमसम्भ्रान्तमयुध्यत । 

वहाँ हमने सात्यकिका अत्यन्त अद्भुत चरित्र देखा कि वे बिना किसी घबराहटके 
अकेले ही बहुसंख्यक योद्धाओंके साथ युद्ध कर रहे थे || १९३ ।। 

अवधीच्च रथानीकं द्विरदानां च तद्‌ बलम्‌ ।। २० ।। 

सादिनश्वैव तान्‌ सर्वान्‌ दस्यूनपि च सर्वशः । 

उन्होंने रथसेना और गजसेनाका तथा उन समस्त घुड़सवारों एवं लुटेरे म्लेच्छोंका भी 
सब प्रकारसे संहार कर डाला || २०६ ।। 

तत्र चक्रैविमथितैर्भग्नैश्न परमायुधै: ॥। २१ ।। 

अक्षैश्व बहुधा भग्नैरीषादण्डकबन्धुरै: । 

कुण्जरैर्मथितैश्वापि ध्वजैश्व विनिपातितैः ।। २२ ।। 

वर्मभिश्व तथानीकैव्यवरकीर्णा वसुंधरा । 

वहाँ चूर-चूर हुए चक्‍कों, टूटे हुए उत्तमोत्तम आयुधों, टूक-टूक हुए धुरों, खण्डित हुए 
ईषादण्डों और बन्धुरों, मथे गये हाथियों, तोड़कर गिराये हुए ध्वजों, छिन्न-भिन्न कवचों और 
विनष्ट हुए सैनिकोंकी लाशोंसे वहाँकी पृथ्वी पट गयी थी || २१-२२ ह ।। 

स्रग्भिराभरणैर्वस्त्रैरनुकर्षैश्व मारिष ।। २३ ।। 

संछन्ना वसुधा तत्र द्यौगग्रहैरिव भारत । 


माननीय भरतनरेश! योद्धाओंके हारों, आभूषणों, वस्त्रों और अनुकर्षोंसे आच्छादित 
हुई वहाँकी भूमि तारोंसे व्याप्त हुए आकाशके समान जान पड़ती थी ।। २३ ६ ।। 

गिरिरूपधराश्चापि पतिता: कुज्जरोत्तमा: ।। २४ ।। 

अजगज्जनस्य कुले जाता वामनस्य च भारत । 

भारत! अंजन और वामन नामक दिग्गजके कुलमें उत्पन्न हुए पर्वताकार श्रेष्ठ गजराज 
भी वहाँ धराशायी हो गये थे || २४३६ ।। 

सुप्रतीककुले जाता महापद्मकुले तथा ।। २५ ।। 

ऐरावतकुले चैव तथान्येषु कुलेषु च । 

जाता दन्तिवरा राजन्‌ शेरते बहवो हता: ।। २६ ।। 

नरेश्वर! सुप्रतीक, महापद्मय, ऐरावत तथा अन्य [पुण्डरीक, पुष्पदन्‍्त और सार्वभौम-- 
(इन) दिग्गजोंके] कुलोंमें उत्पन्न हुए बहुतेरे दंतार हाथी भी वहाँ धरतीपर लोट रहे 
थे ।। २५-२६ ।। 

वनायुजानू्‌ पर्वतीयान्‌ काम्बोजान्‌ बाह्विकानपि | 

तथा हयवरान्‌ राजन्‌ निजघ्ने तत्र सात्यकि: ।। २७ ।। 

राजन! वहाँ सात्यकिने वनायु, काम्बोज (काबुल) और बाह्लीक देशोंमें उत्पन्न हुए श्रेष्ठ 
अश्वों तथा पहाड़ी घोड़ोंको भी मार गिराया || २७ |। 

नानादेशसमुत्थांश्व नानाजातींश्व दन्तिन: । 

निजघ्ने तत्र शैनेय: शतशो5थ सहस्रश: ।। २८ ।। 

शिनिके उस वीर पौत्रने अनेक देशोंमें उत्पन्न हुए विभिन्न जातिके सैकड़ों और हजारों 
हाथियोंका भी संहार कर डाला || २८ ।। 

तेषु प्रकाल्यमानेषु दस्यून्‌ दुःशासनोडब्रवीत्‌ । 

निवर्तध्वमधर्मज्ञा युध्यध्वं कि सृतेन व: ।। २९ ।। 

वे हाथी जब कालके गालमें जा रहे थे, उस समय दुःशासनने लूट-पाट करनेवाले 
म्लेच्छोंसे इस प्रकार कहा--“धर्मको न जाननेवाले योद्धाओ! इस तरह भाग जानेसे तुम्हें 
क्या मिलेगा? लौटो और युद्ध करो” ।। २९ ।। 

तांश्वातिभग्नान्‌ सम्प्रेक्ष्य पुत्रो द:ःशासनस्तव । 

पाषाणयोधिन: शूरान्‌ पर्वतीयानचोदयत्‌ ।। ३० ।। 

इतनेपर भी उन्हें चोर-जोरसे भागते देख आपके पुत्र दुःशासनने पत्थरोंद्वारा युद्ध 
करनेवाले शूरवीर पर्वतीयोंको आज्ञा दी-- ।। ३० ।। 

अभश्मयुद्धेषु कुशला नैतज्जानाति सात्यकि: । 

अश्मयुद्धमजानन्तं घ्नतैनं युद्धकार्मुकम्‌ ।। ३१ ।। 

“वीरो! तुमलोग प्रस्तरोंद्वारा युद्ध करनेमें कुशल हो। सात्यकिको इस कलाका ज्ञान 
नहीं है। प्रस्तरयुद्धको न जानते हुए भी युद्धकी इच्छा रखनेवाले इस शत्रुकोी तुमलोग मार 


डालो ।। ३१ ।। 

तथैव कुरव: सर्वे नाश्मयुद्धविशारदा: । 

अभिद्रवत मा भैष्ट न व: प्राप्स्पति सात्यकि: ॥। ३२ |। 

“इसी प्रकार समस्त कौरव भी प्रस्तरयुद्धमें प्रवीण नहीं हैं। अतः तुम डरो मत। 
आक्रमण करो। सात्यकि तुम्हें नहीं पा सकता” ।। ३२ ।। 

ते पर्वतीया राजान: सर्वे पाषाणयोधिन: । 

अभ्यद्रवन्त शैनेयं राजानमिव मन्त्रिण: ।। ३३ ।। 

जैसे मन्त्री राजाके पास जाते हैं, उसी प्रकार वे पाषाणयोधी समस्त पर्वतीय नरेश 
सात्यकिकी ओर दौड़े ।। ३३ ।। 

ततो गजशिर:प्रख्यैरुपलै: शैलवासिन: । 

उद्यतैर्युयुधानस्य पुरतस्तस्थुराहवे ।। ३४ ।। 

वे पर्वतनिवासी योद्धा हाथीके मस्तकके समान बड़े-बड़े प्रस्तर हाथमें लेकर 
समरांगणमें युयुधानके सामने युद्धके लिये तैयार होकर खड़े हो गये ।। ३४ ।। 

क्षेपणीयैस्तथाप्यन्ये सात्वतस्य वधैषिण: । 

चोदितास्तव पुत्रेण सर्वतो रुरुधुर्दिश: ।। ३५ ।। 

आपके पुत्र दुःशासनसे प्रेरित होकर सात्यकिके वधकी इच्छा रखनेवाले अन्य बहुतेरे 
सैनिकोंने भी क्षेपणीयास्त्र उठाकर सब ओरसे सात्यकिकी सम्पूर्ण दिशाओंको अवरुद्ध कर 
लिया ।। ३५ |। 

तेषामापततामेव शिलायुद्ध॑ं चिकीर्षताम्‌ । 

सात्यकि: प्रतिसंधाय निशितान्‌ प्राहिणोच्छरान्‌ ।। ३६ ।। 

प्रस्तरयुद्धकी इच्छा रखनेवाले उन योद्धाओंके आक्रमण करते ही सात्यकिने तेज किये 
हुए बाणोंका संधान करके उन्हें उनपर चलाया ।। ३६ ।। 

तामश्मवृष्टिं तुमुलां पर्वतीय: समीरिताम्‌ । 

चिच्छेदोरगसंकाशै्नासचै: शिनिपुड्रव: ।। ३७ || 

पर्वतीय सैनिकोंद्वारा की हुई उस भयंकर पाषाणवर्षाको शिनिप्रवर सात्यकिने अपने 
सर्पतुल्य नाराचोंद्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया ।। ३७ ।। 

तैरश्मचूर्णै्दीप्यद्धि: खद्योतानामिव व्रजै: । 

प्राय: सैन्यान्यहन्यन्त हाहाभूतानि मारिष ।। ३८ ।। 

माननीय नरेश! जुगनुओंकी जमातोंके समान उद्धासित होनेवाले उन प्रस्तरचूर्णोंसे 
प्रायः सारी सेनाएँ आहत हो हाहाकार करने लगीं ।। ३८ ।। 

ततः पड्चशतं शूरा: समुद्यतमहाशिला: । 

निकृत्तबाहवो राजन निपेतुर्धरणीतले ।। ३९ ।। 


राजन! तदनन्तर बड़े-बड़े प्रस्तरखण्ड उठाये हुए पाँच सौ शूरवीर अपनी भुजाओंके 
कट जानेसे धरतीपर गिर पड़े ।। ३९ ।। 

पुनर्दशशताश्चान्ये शतसाहस्रिणस्तथा । 

सोपलैर्बाहुिभिश्क्िन्नै: पेतुरप्राप्पय सात्यकिम्‌ ।। ४० ।। 

फिर एक हजार दूसरे योद्धा तथा एक लाख अन्य सैनिक सात्यकितक पहुँचने भी नहीं 
पाये थे कि अपने हाथमें लिये शिलाखण्डोंसे कटी हुई बाहुओंके साथ ही धराशायी हो 
गये ।। ४० ।। 

(सात्वतस्य च भल्‍्लेन निष्पिष्टैस्तैस्तथाद्रिभि: । 

न्यपतन्‌ निहता म्लेच्छास्तत्र तत्र गतासव: ।। 

ते हन्यमाना: समरे सात्वतेन महात्मना | 

अभश्मवृष्टिं महाघोरां पातयन्ति सम सात्वते ।।) 

सात्यकिके भल्लसे चूर-चूर हुए शिलाखण्डोंद्वारा मारे गये म्लेच्छ प्राणशून्य होकर 
जहाँ-तहाँ पड़े थे। महामना सात्यकिद्वारा समरभूमिमें मारे जाते हुए वे म्लेच्छ सैनिक उनपर 
बड़ी भयंकर पत्थरोंकी वर्षा करते थे। 

पाषाणयोधिन: शूरान्‌ यतमानानवस्थितान्‌ । 

न्यवधीद्‌ बहुसाहस्रांस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ४१ ।। 

वे पाषाणोंद्वारा युद्ध करनेवाले शूरवीर विजयके लिये यत्नशील होकर रणक्षेत्रमें डटे 
हुए थे। उनकी संख्या अनेक सहस्र थी; परंतु सात्यकिने उन सबका संहार कर डाला। वह 
एक अद्भुत-सी घटना हुई ।। ४१ ॥। 

ततः पुनर्व्यात्तमुखास्ते5श्मवृष्टी: समनन्‍्ततः । 

अयोहस्ता: शूलहस्ता दरदास्तड्रणा: खसा: ।। ४२ ।। 

लम्पाकाश्न कुलिन्दाश्न चिक्षिपुस्तांश्न सात्यकि: । 

नाराचै: प्रतिचिच्छेद प्रतिपत्तिविशारद: ।। ४३ ।। 

तदनन्तर पुनः हाथमें लोहेके गोले और त्रिशूल लिये मुँह फैलाये हुए दरद, तंगण, खस, 
लम्पाक और कुलिन्ददेशीय म्लेच्छोंने सात्यकिपर चारों ओरसे पत्थर बरसाने आरम्भ किये; 
परंतु प्रतीकार करनेमें निपुण सात्यकिने अपने नाराचोंद्वारा उन सबको छिज्न-भिन्न कर 
दिया ।। ४२-४३ ।। 

अद्रीणां भिद्यमानानामन्तरिक्षे शितै: शरै: । 

शब्देन प्राद्रवन्‌ संख्ये रथाश्वगजपत्तय: ।। ४४ ।। 

आकाशकमें तीखे बाणोंद्वारा टूटने-फ़ूटनेवाले प्रस्तर-खण्डोंके शब्दसे भयभीत हो रथ, 
घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक युद्धस्थलमें इधर-उधर भागने लगे ।। ४४ ।। 

अश्मचूर्णरवाकीर्णा मनुष्यगजवाजिन: । 

नाशवनुवन्नवस्थातु भ्रमरैरिव दंशिता: ।। ४५ ।। 


पत्थरके चूर्णोंसे व्याप्त हुए मनुष्य, हाथी और घोड़े वहाँ ठहर न सके, मानो उन्हें 
भ्रमरोंने डस लिया हो || ४५ ।। 

हतशिष्टा: सरुधिरा भिन्नमस्तकपिण्डिका: । 

(विभिन्नशिरसो राजन दन्तैश्छिन्नेश्व॒ दन्तिन: । 

निर्धूतैश्व॒ करैनागा व्यड्राश्न शतश: कृता: ।। 

हत्वा पञ्चशतान्‌ योधांस्तत्क्षणेनैव मारिष । 

व्यचरत्‌ पृतनामध्ये शैनेय: कृतहस्तवत्‌ ।।) 

कुण्जरा वर्जयामासुर्युयुधानरथं तदा ।। ४६ ।। 

जो मरनेसे बचे थे, वे हाथी भी खूनसे लथपथ हो रहे थे। उनके कुम्भस्थल विदीर्ण हो 
गये थे। राजन! बहुत-से हाथियोंके सिर क्षत-विक्षत हो गये थे। उनके दाँत टूट गये थे, 
शुण्डदण्ड खण्डित हो गये थे तथा सैकड़ों गजराजोंके सात्यकिने अंग-भंग कर दिये थे। 
माननीय नरेश! सात्यकि सिद्धहस्त पुरुषकी भाँति क्षणभरमें पाँच सौ योद्धाओंका संहार 
करके सेनाके मध्यभागमें विचरने लगे। उस समय घायल हुए हाथी युयुधानके रथको 
छोड़कर भाग गये ।। ४६ ।। 

(अश्मनां भिद्यमानानां सायकै: श्रूयते ध्वनि: । 

घद्मपत्रेषु धाराणां पतन्तीनामिव ध्वनि: ।।) 

बाणोंसे चूर-चूर होनेवाले पत्थरोंकी ऐसी ध्वनि सुनायी पड़ती थी, मानो कमलदलोंपर 
गिरती हुई जलधाराओंका शब्द कानोंमें पड़ रहा हो । 

ततः शब्द: समभवत्‌ तव सैन्यस्य मारिष । 

माधवेनार्यमानस्य सागरस्येव पर्वणि ।। ४७ ।। 

आर्य! जैसे पूर्णिमाके दिन समुद्रका गर्जन बहुत बढ़ जाता है, उसी प्रकार सात्यकिके 
द्वारा पीड़ित हुई आपकी सेनाका महान्‌ कोलाहल प्रकट हो रहा था ।। ४७ ।। 

तं शब्द तुमुलं श्र॒ुत्वा द्रोणो यन्तारमब्रवीत्‌ । 

एष सूत रणे क्रुद्ध: सात्वतानां महारथ: ।। ४८ ।। 

दारयन्‌ बहुधा सैन्यं रणे चरति कालवत्‌ | 

यत्रैष शब्दस्तुमुलस्तत्र सूत रथं नय ।। ४९ ।। 

उस भयंकर शब्दको सुनकर द्रोणाचार्यने अपने सारथिसे कहा--'सूत! यह 
सात्वतकुलका महारथी वीर सात्यकि रफक्षेत्रमें क्ुद्ध होकर कौरव-सेनाको बारंबार विदीर्ण 
करता हुआ कालके समान विचर रहा है। सारथे! जहाँ यह भयानक शब्द हो रहा है, वहीं 
मेरे रथको ले चलो || ४८-४९ ।। 

पाषाणयोधिभिननू्‌नं युयुधान: समागत: । 

तथा हि रथिन: सर्वे ह्वियन्ते विद्रुतैर्हयै: ।। ५० ।। 


“निश्चय ही युयुधान पाषाणयोधी योद्धाओंसे भिड़ गया है, तभी तो ये भागे हुए घोड़े 
सम्पूर्ण रथियोंको रणभूमिसे बाहर लिये जा रहे हैं || ५० ।। 

विशस्त्रकवचा रुग्णास्तत्र तत्र पतन्ति च । 

न शवनुवन्ति यन्तार: संयन्तुं तुमुले हयान्‌ ।। ५१ ।। 

“ये रथी शस्त्र और कवचसे हीन होकर शस्त्रोंके आघातसे रुग्ण हो यत्र-तत्र गिर रहे हैं। 
इस भयंकर युद्धमें सारथि अपने घोड़ोंको काबूमें नहीं रख पाते हैं! || ५१ ।। 

इत्येतद्‌ वचन श्रुत्वा भारद्वाजस्य सारथि: । 

प्रत्युवाच ततो द्रोणं सर्वशस्त्रभूतां वरम्‌ । ५२ ।। 

सैन्यं द्रवति चायुष्मन्‌ कौरवेयं समन्तत: । 

पश्य योधान्‌ रणे भग्नान्‌ धावतो वै ततस्तत: ।। ५३ ।। 

द्रोणाचार्यका यह वचन सुनकर सारथिने सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणसे इस प्रकार 
कहा--'आयुष्मन्‌! कौरव-सेना चारों ओर भाग रही है। देखिये, रणक्षेत्रमें वे सब योद्धा 
व्यूह-भंग करके इधर-उधर दौड़ रहे हैं ।। 

इमे च संहता: शूरा: पञ्चाला: पाण्डवै: सह । 

त्वामेव हि जिघांसन्त आद्रवन्ति समन्‍्तत: ।। ५४ ।। 

'ये पाण्डवोंसहित पांचाल वीर संगठित हो आपको मार डालनेकी इच्छासे सब ओरसे 
आपपर ही आक्रमण कर रहे हैं ।। ५४ ।। 

अत्र कार्य समाधत्स्व प्राप्तकालमरिंदम । 

स्थाने वा गमने वापि दूरं यातश्न सात्यकि: ।। ५५ ।। 

'शत्रुदमन! इस समय जो कर्तव्य प्राप्त हो, उसपर ध्यान दीजिये; यहीं ठहरना है या 
अन्यत्र जाना है। सात्यकि तो बहुत दूर चले गये” || ५५ ।। 

तथैवं वदतस्तस्य भारद्वाजस्य सारथे: । 

प्रत्यदृश्यत शैनेयो निध्नन्‌ बहुविधान्‌ रथात्‌ ।। ५६ ।। 

द्रोणाचार्यका सारथि जब इस प्रकार कह रहा था, उसी समय शिनिनन्दन सात्यकि 
बहुतेरे रथियोंका संहार करते दिखायी दिये || ५६ ।। 

ते वध्यमाना: समरे युयुधानेन तावका: । 

युयुधानरथं त्यक्त्वा द्रोणानीकाय दुद्गरुवु: ॥। ५७ ।। 

समरांगणमें युयुधानकी मार खाते हुए आपके सैनिक उनके रथको छोड़कर 
द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर भाग गये ।। ५७ ।। 

यैस्तु दुःशासन: सार्ध रथै: पूर्व न्यवर्तत । 

ते भीतास्त्वभ्यधावन्त सर्वे द्रोणरथं प्रति ।। ५८ ।। 

पहले दुःशासन जिन रथियोंके साथ लौटा था, वे सब-के-सब भयभीत होकर 
द्रोणाचार्यके रथकी ओर भाग गये ।। ५८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिकप्रवेशे 
एकविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें यात्यकिप्रवेशविषयक एक 
सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२९१ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल ६३ श्लोक हैं।) 


ऑपन-माज बछ। अकाल 


द्वाविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 


द्रोणाचार्यका दःशासनको फटकारना और द्रोणाचार्यके 
द्वारा वीरकेतु आदि पांचालोंका वध एवं उनका धृष्टद्युम्नके 
साथ घोर युद्ध, द्रोणाचार्यका मूरच्छित होना, धृष्टद्युम्नका 
पलायन, आचार्यकी विजय 


संजय उवाच 

दुःशासनरथं दृष्टवा समीपे पर्यवस्थितम्‌ | 

भारद्वाजस्ततो वाक्यं दुःशासनमथाब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! दुःशासनके रथको अपने समीप खड़ा हुआ देख द्रोणाचार्य 
उससे इस प्रकार बोले-- || १ ।। 

दुःशासन रथा: सर्वे कस्माच्चैते प्रविद्रुता: । 

कच्चित्‌ क्षेम॑ तु नृपतेः: कच्चिज्जीवति सैन्धव: ।॥॥ २ ।॥। 

“दुःशासन! ये सारे रथी कहाँसे भागे आ रहे हैं? राजा दुर्योधन सकुशल तो हैं न? क्या 
सिंधुराज जयद्रथ अभी जीवित है? ।। २ ।। 

राजपुत्रो भवानत्र राजभ्राता महारथ: । 

किमर्थ द्रवते युद्धे यौवराज्यमवाप्य हि ।। ३ ।। 

“तुम तो राजाके बेटे, राजाके भाई और महारथी वीर हो। युवराजका पद प्राप्त करके 
तुम इस युद्धस्थलमें किसलिये भागे फिरते हो? ।। ३ ।। 

दासी जितासि दूते त्वं यथाकामचरी भव । 

वाससां वाहिका राज्ञो क्रातुर्ज्येष्ठस्य मे भव ।। ४ ।। 

“दुःशासन! तुमने द्रौपदीसे कहा था--“अरी! तू जूएमें जीती हुई दासी है। अतः हमारी 
इच्छाके अनुसार आचरण करनेवाली हो जा। मेरे बड़े भाई राजा दुर्योधनकी वस्त्रवाहिका 
बन जा ।। ४ ।। 

न सन्ति पतय: सर्वे तेडद्य षण्ढतिलै: समा | 

दुःशासनैवं कस्मात्‌ त्वं पूर्वमुकत्वा पलायसे ।। ५ ।। 

“अब तेरे सम्पूर्ण पति थोथे तिलोंके समान नहींके बराबर हो गये हैं।” पहले ऐसी बातें 
कहकर अब तुम युद्धसे भाग क्‍यों रहे हो? ।। ५ ।। 

स्वयं वैरं महत्‌ कृत्वा पञज्चालै: पाण्डवै: सह । 

एकं सात्यकिमासाद्य कथं भीतो5सि संयुगे ।। ६ ।। 


'पांचालों और पाण्डवोंके साथ स्वयं ही बड़ा भारी वैर ठानकर युद्धस्थलमें अकेले 
सात्यकिका सामना करके कैसे भयभीत हो उठे हो? ।। ६ ।। 

न जानीषे पुरा त्वं तु गृह्नन्नक्षान्‌ दुरोदरे । 

शरा होते भविष्यन्ति दारुणाशीविषोपमा: ।। ७ || 

“क्या पहले तुम जूएमें पासे उठाते समय नहीं जानते थे कि ये एक दिन भयंकर 
विषधर सर्पोके समान विनाशकारी बाण बन जायाँगे || ७ ।। 

अप्रियाणां हि वचसां पाण्डवस्य विशेषत: । 

द्रौपद्याश्न॒ परिक्लेशस्त्वन्मूलो हुभवत्‌ पुरा ।। ८ ।। 

'पूर्वकालमें विशेषतः पाण्डुपुत्र युधिष्ठिको जो अप्रिय वचन सुनाये गये और 
द्रौपदीदेवीको जो कष्ट पहुँचाया गया, इन सबकी जड़ तुम्हीं रहे हो | ८ ।। 

क्व ते मानश्न दर्पश्न क्य ते वीर्य क्व गर्जितम्‌ । 

आशीविषसमान्‌ पार्थान्‌ कोपयित्वा क्व यास्यसि ।। ९ ।। 

“कहाँ गया तुम्हारा वह दर्प और अभिमान? कहाँ है तुम्हारा पराक्रम? और कहाँ गयी 
तुम्हारी गर्जना? विषैले सर्पोंके समान कुन्तीकुमारोंको कुपित करके कहाँ भागे जा रहे 
हो? ।। ९ |। 

शोच्येयं भारती सेना राज्यं चैव सुयोधन: । 

यस्य त्वं कर्कशो भ्राता पलायनपरायण: ॥। १० ।। 

“यह कौरवी सेना, यह राज्य और इसका राजा दुर्योधन--ये सभी शोचनीय हो गये हैं; 
क्योंकि तुम राजाके क्रूरकर्मी भाई होकर आज युद्धमें पीठ दिखाकर भाग रहे हो ।। १० ।। 

ननु नाम त्वया वीर दीर्यमाणा भयार्दिता । 

स्वबाहुबलमास्थाय रक्षितव्या हनीकिनी ।। १३१ ।। 

“वीर! तुम्हें तो अपने बाहुबलका आश्रय लेकर इस भागती हुई भयभीत सेनाकी रक्षा 
करनी चाहिये ।। ११ ।। 

स त्वमद्य रणं हित्वा भीतो हर्षयसे परान्‌ । 

विद्रुते त्वयि सैन्यस्य नायके शरत्रुसूदन ।। १२ ।। 

कोडन्य: स्थास्यति संग्रामे भीतो भीते व्यपाश्रये । 

'परंतु तुम आज युद्ध छोड़कर भयभीत हो उठे और शत्रुओंका हर्ष बढ़ा रहे हो। 
शत्रुसूदन! तुम तो सेनापति हो। तुम्हारे भागनेपर दूसरा कौन युद्धभूमिमें ठहर सकेगा? जब 
आश्रयदाता या रक्षक ही डर जाय, तब दूसरा क्‍यों न भयभीत होगा? ।। १२६ ।। 

एकेन सात्वतेनाद्य युध्यमानस्य तेन वै ।। १३ ।। 

पलायने तव मति: संग्रामाद्धि प्रवर्तते | 

यदा गाण्डीवधन्वानं भीमसेनं च कौरव ।। १४ ।। 

यमौ वा युधि द्रष्टासि तदा त्वं कि करिष्यसि । 


“कौरव! अकेले सात्यकिके साथ युद्ध करते समय, जब आज तुम्हारी बुद्धि संग्रामसे 
पलायन करमेमें प्रवृत्त हो गयी, तुमने भागनेका विचार कर लिया, तब जिस समय तुम 
गाण्डीवधारी अर्जुन, भीमसेन अथवा नकुल-सहदेवको युद्धस्थलमें देखोगे, उस समय तुम 
क्या करोगे? ।। १३-१४ $ ।। 

युधि फाल्गुनबाणानां सूर्याग्निसमवर्चसाम्‌ ।। १५ ।। 

न तुल्या: सात्यकिशरा येषां भीत: पलायसे । 

'रणक्षेत्रमें अर्जुनके बाण सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं। उनके समान सात्यकिके 
बाण नहीं हैं, जिनसे भयभीत होकर तुम भागे जा रहे हो || १५३ ।। 

त्वरितो वीर गच्छ त्वं गान्धार्युदरमाविश ।। १६ ।। 

पृथिव्यां धावमानस्य नान्यत्‌ पश्यामि जीवनम्‌ | 

“वीर! जल्दी जाओ। अपनी माता गान्धारीदेवीके पेटमें घुस जाओ; अन्यथा इस 
भूतलपर दूसरा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ भाग जानेसे मुझे तुम्हारे जीवनकी रक्षा 
दिखायी देती हो || १६३६ ।। 

यदि तावत्‌ कृता बुद्धि: पलायनपरायणा ।। १७ ।। 

पृथिवी धर्मराजाय शमेनैव प्रदीयताम्‌ । 

“यदि तुमने भागनेका ही विचार कर लिया है, तब यह पृथ्वीका राज्य शान्तिपूर्वक ही 
धर्मराज युधिष्ठिरको सौंप दो || १७३ ।। 

यावत्‌ फाल्गुननाराचा निर्मुक्तोरगसंनिभा: ।। १८ ।। 

नाविशन्ति शरीरं ते तावत्‌ संशाम्य पाण्डवै: | 

'केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोंके समान अर्जुनके बाण जबतक तुम्हारे शरीरमें नहीं 
घुस रहे हैं, तबतक ही तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो ।। १८६ ।। 

यावत्‌ ते पृथिवीं पार्था हत्वा भ्रातृशतं रणे ।। १९ ।। 

नाक्षिपन्ति महात्मानस्तावत्‌ संशाम्य पाण्डवै: । 

“महामनस्वी कुन्तीकुमार जबतक तुम्हारे सौ भाइयोंको रणक्षेत्रमें मारकर यह सारी 
पृथ्वी तुमसे छीन नहीं लेते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो || १९३६ ।। 

यावन्न क्रुद्धयते राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।। २० ।। 

कृष्णश्व॒ समरश्लाघी तावत्‌ संशाम्य पाण्डवै: । 

“जबतक धर्मपुत्र राजा युधिष्छिर तथा युद्धकी प्रशंसा करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण क्रोध 
नहीं करते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो || २०६ ।। 

यावद्‌ भीमो महाबाहुर्विगाह्य महतीं चमूम्‌ ।। २१ ।। 

सोदरांस्ते न गृह्नाति तावत्‌ संशाम्य पाण्डवै: । 


“जबतक महाबाहु भीमसेन विशाल कौरव-सेनामें घुसकर तुम्हारे सारे भाइयोंको दबोच 
नहीं लेते हैं, तभीतक तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो || २१३ ।। 

पूर्वमुक्तश्न ते भ्राता भीष्मेणासौ सुयोधन: ।। २२ ।। 

अजेया: पाण्डवा: संख्ये सौम्य संशाम्य तैः सह । 

न च तत्‌ कृतवान्‌ मन्दस्तव भ्राता सुयोधन: ।। २३ ।। 

'पूर्वकालमें भीष्मजीने तुम्हारे भाई दुर्योधनसे यह कहा था कि 'सौम्य! पाण्डव युद्धमें 
अजेय हैं। तुम उनके साथ संधि कर लो।” परंतु तुम्हारे मूर्ख भ्राता दुर्योधनने वह कार्य नहीं 
किया ।। २२-२३ ।। 

स युद्धे धृतिमास्थाय यत्तो युध्यस्व पाण्डवै: । 

तवापि शोणितं भीम: पास्यतीति मया श्रुतम्‌ ।। २४ ।। 

तच्चाप्यवितथं तस्य तत्‌ तथैव भविष्यति | 

“अत: अब तुम रणक्षेत्रमें धैर्य धारण करके प्रयत्नपूर्वक पाण्डवोंके साथ युद्ध करो। 
मैंने सुना है भीमसेन तुम्हारा भी खून पीयेंगे। भीमसेनकी वह प्रतिज्ञा झूठी नहीं है। वह उसी 
रूपमें सत्य होगी ।। २४ ३ ।। 

कि भीमस्य न जानासि विक्रमं त्वं सुबालिश ।। २५ ।। 

यत्त्वया वैरमारब्धं संयुगे प्रपलायिना । 

'ओ मूर्ख! क्या तुम भीमसेनके पराक्रमको नहीं जानते, जो तुमने उनके साथ वैर ठाना 
और अब युद्धसे भागे जा रहे हो? ।। २५३६ ।। 

गच्छ तूर्ण रथेनैव यत्र तिष्तति सात्यकि: ॥। २६ ।। 

त्वया हीन॑ बल॑ होतदू विद्रविष्यति भारत । 

आत्मार्थ योधय रणे सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ ।। २७ ।। 

“भरतनन्दन! अब तुम शीघ्र ही इसी रथके द्वारा जहाँ सात्यकि खड़े हैं, वहाँ जाओ। 
तुम्हारे न रहनेसे यह सारी सेना भाग जायगी। तुम अपने लाभके लिये रफणक्षेत्रमें 
सत्यपराक्रमी सात्यकिके साथ युद्ध करो” || २६-२७ ।। 

एवमुक्तस्तव सुतो नाब्रवीत्‌ किंचिदप्यसौ । 

श्रुतं चाश्रुतवत्‌ कृत्वा प्रायाद्‌ येन स सात्यकि: ॥। २८ ।। 

द्रोणाचार्यके ऐसा कहनेपर आपका पुत्र दुःशासन कुछ भी नहीं बोला। वह उनकी सुनी 
हुई बातोंको भी अनसुनी-सी करके उसी मार्गपर चल दिया, जिससे सात्यकि गये 
थे ।। २८ ।। 

सैन्येन महता युक्तो म्लेच्छानामनिवर्तिनाम्‌ । 

आसाद्य च रणे यत्तो युयुधानमयोधयत्‌ ।। २९ ।। 

उसने युद्धसे पीछे न हटनेवाले म्लेच्छोंकी विशाल सेनाके साथ समरांगणमें सात्यकिके 
पास पहुँचकर उनके साथ प्रयत्नपूर्वक युद्ध आरम्भ किया ।। २९ ।। 


द्रोणो5पि रथिनां श्रेष्ठ; पज्चालान्‌ पाण्डवांस्तथा । 

अभ्यद्रवत संक्रुद्धो जवमास्थाय मध्यमम्‌ ।। ३० ।। 

इधर रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी क्रोधमें भरकर मध्यम वेगका आश्रय ले पांचालों और 
पाण्डवोंपर टूट पड़े || ३० ।। 

प्रविश्य च रणे द्रोण: पाण्डवानां वरूथिनीम्‌ । 

द्रावयामास योधान्‌ वै शतशोडथ सहस्रश: ।। ३१ ।। 

टद्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें पाण्डवोंकी विशाल सेनामें प्रवेश करके उनके सैकड़ों और हजारों 
सैनिकोंको भगाने लगे ।। ३१ ।। 

ततो द्रोणो महाराज नाम विश्नाव्य संयुगे । 

पाण्डुपाज्चालमत्स्यानां प्रचक्रे कदनं महत्‌ ।। ३२ ।। 

महाराज! उस समय आचार्य द्रोण युद्धस्थलमें अपना नाम सुना-सुनाकर पाण्डव, 
पांचाल तथा मत्स्यदेशीय सैनिकोंका महान्‌ संहार करने लगे ।। ३२ ।। 

त॑ जयन्तमनीकानि भारद्वाजं ततस्तत: । 

पाज्चालपुत्रो द्युतिमान्‌ वीरकेतु: समभ्ययात्‌ ।। ३३ ।। 

इधर-उधर घूम-घूमकर समस्त सेनाओंको पराजित करते हुए द्रोणाचार्यका सामना 
करनेके लिये उस समय तेजस्वी पांचालराजकुमार वीरकेतु आया ।। ३३ ।। 

स द्रोणं पञ्चभिर्विद्ध्वा शरै: संनतपर्वभि: । 

ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य सप्तभि: ।। ३४ ।। 

उसने झुकी हुई गाँठवाले पाँच बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यको घायल करके एकसे उनके 
ध्वजको और सात बाणोंसे उनके सारथिको भी बेध दिया ।। ३४ ।। 

तत्राद्भुतं महाराज दृष्टवानस्मि संयुगे । 

यद द्रोणो रभसं युद्धे पाञ्चाल्यं नाभ्यवर्तत ।। ३५ ।। 

महाराज! उस युद्धमें मैंने यह अद्भुत बात देखी कि द्रोणाचार्य उस वेगशाली 
पांचालराजकुमार वीरकेतुकी ओर बढ़ न सके ।। ३५ ।। 

संनिरुद्ध रणे द्रोणं पडचाला बीक्ष्य मारिष । 

आवत्र॒ुः सर्वतो राजन्‌ धर्मपुत्रजयैषिण: ।। ३६ ।। 

माननीय नरेश! द्रोणाचार्यको रणक्षेत्रमें अवरुद्ध हुआ देख धर्मपुत्रकी विजय 
चाहनेवाले पाञ्चालोंने सब ओरसे उन्हें घेर लिया || ३६ ।। 

ते शरैरग्निसंकाशैस्तोमरैश्व महाधनै: । 

शस्त्रैश्न विविध राजन्‌ द्रोणममेकमवाकिरन्‌ ।। ३७ ।। 

राजन! उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी बाणों, बहुमूल्य तोमरों तथा नाना प्रकारके 
शस्त्रोंकी वर्षा करके अकेले द्रोणाचार्यको ढक दिया ।। ३७ ।। 

निहत्य तान्‌ बाणगणैद्रोणो राजन्‌ समन्ततः । 


महाजलधरान्‌ व्योम्नि मातरिश्वेव चाबभौ || ३८ ।। 

नरेश्वर! द्रोणाचार्यने अपने बाणसमूहोंद्वारा चारों ओरसे उन समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके 
टुकड़े-टुकड़े करके आकाशभमें महान्‌ मेघोंकी घटाको छिन्न-भिन्न करनेके पश्चात्‌ प्रवाहित 
होनेवाले वायुदेवके समान सुशोभित हो रहे थे ।। ३८ ।। 

ततः शरं महाघोरं सूर्यपावकसंनिभम्‌ । 

संदधे परवीरघ्नो वीरकेतो रथ॑ं प्रति ।। ३९ ।। 

तत्पश्चात्‌ शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले आचार्यने सूर्य और अग्निके समान अत्यन्त 
भयंकर बाणको धनुषपर रखा और उसे वीरकेतुके रथपर चला दिया ।। ३९ |। 

स भित्त्वा तु शरो राजन्‌ पाज्चालकुलनन्दनम्‌ | 

अभ्यागाद्‌ धरणी तूर्ण लोहिताद्रों ज्वलन्निव ।। ४० ।। 

राजन! वह प्रज्वलित होता हुआ-सा बाण पांचाल-कुलनन्दन वीरकेतुको विदीर्ण करके 
खूनसे लथपथ हो तुरंत ही धरतीमें समा गया || ४० ।। 

ततो5पतद्‌ू रथात्‌ तूर्ण पाउ्चालकुलनन्दन: । 

पर्वताग्रादिव महांश्वम्पको वायुपीडित: ।। ४१ ।। 

फिर तो पांचालकुलको आनन्दित करनेवाला वह राजकुमार वायुसे टूटकर पर्वतके 
शिखरसे नीचे गिरनेवाले चम्पाके विशाल वृक्षके समान तुरंत रथसे नीचे गिर पड़ा ।। ४१ ।। 

तस्मिन्‌ हते महेष्वासे राजपुत्रे महाबले । 

पजञ्चालास्त्वरिता द्रोणं समन्तात्‌ पर्यवारयन्‌ ।। ४२ ।। 

उस महान्‌ धनुर्धर महाबली राजकुमारके मारे जानेपर पांचालसैनिकोंने शीघ्र ही आकर 
द्रोणाचार्यको चारों ओरसे घेर लिया ।। ४२ ।। 

चित्रकेतु: सुधन्वा च चित्रवर्मा च भारत । 

तथा चित्ररथश्चैव भ्रातृव्यसनकर्शिता: ।। ४३ ।। 

अभ्यद्रवन्त सहिता भारद्वाजं युयुत्सव:ः । 

मुज्चन्त: शरवर्षाणि तपान्ते जलदा इव ।। ४४ ।। 

भारत! चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्रवर्मा और चित्ररथ--ये चारों वीर अपने भाईकी मृत्युसे 
दुःखित हो युद्धकी इच्छा रखकर एक साथ ही द्रोणपर टूट पड़े और जिस प्रकार 
वर्षाकालमें मेघ पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे बाणोंकी वर्षा करने लगे || ४३-४४ ।। 

स वध्यमानो बहुधा राजपुत्रैर्महारथै: । 

क्रोधमाहारयत्‌ तेषामभावाय द्विजर्षभ: || ४५ || 

उन महारथी राजकुमारोंद्वारा बारंबार घायल किये जानेपर द्विजश्रेष्ठ द्रोणने उनके 
विनाशके लिये महान्‌ क्रोध प्रकट किया ।। ४५ ।। 

ततः शरमयं जाल द्रोणस्तेषामवासृजत्‌ । 

ते हन्यमाना द्रोणस्थ शरैराकर्णचोदितै: ।। ४६ ।। 


कर्तव्यं नाभ्यजानन्‌ वै कुमारा राजसत्तम | 

तब द्रोणाचार्यने उनके ऊपर बाणोंका जाल-सा बिछा दिया। नृपश्रेष्ठ! द्रोणाचार्यके 
कानतक खींचकर छोड़े हुए उन बाणोंद्वारा घायल होकर वे राजकुमार यह भी न जान सके 
कि हमें क्या करना चाहिये? || ४६३ ।। 

तान्‌ विमूढान्‌ रणे द्रोण: प्रहसन्निव भारत ।। ४७ ।। 

व्यश्वसूतरथांश्ष॒क्रे कुमारान्‌ कुपितो रणे । 

भरतनन्दन! रणक्षेत्रमें कुपित हुए द्रोणाचार्यने हँसते हुए-से अपने बाणोंद्वारा उन 
किंकर्तव्यविमूढ़ राजकुमारोंको घोड़े, सारथि तथा रथसे हीन कर दिया ।। ४७३ ।। 

अथापरै: सुनिशितैर्भल्लैस्तेषां महायशा: ।। ४८ ।। 

पुष्पाणीव विचिन्वन्‌ हि सोत्तमाड्ान्यपातयत्‌ | 

तत्पश्चात्‌ दूसरे तेज धारवाले भल्‍ल्लोंसे महायशस्वी द्रोणने उन राजकुमारोंके मस्तक 
उसी प्रकार काट गिराये, मानो वृक्षोंसे फूल चुन लिये हों || ४८ ३ ।। 

ते रथेभ्यो हता: पेतु: क्षितो राजन्‌ सुवर्चस: ।। ४९ ।। 

देवासुरे पुरा युद्धे यथा दैतेयदानवा: । 

राजन! जैसे पूर्वकालके देवासुर-संग्राममें दैत्य और दानव धराशायी हुए थे, उसी प्रकार 
वे सुन्दर कान्तिवाले राजकुमार मारे जाकर उस समय रथोंसे पृथ्वीपर गिर पड़े || ४९६ ।। 

तान्‌ निहत्य रणे राजन्‌ भारद्वाज: प्रतापवान्‌ ॥। ५० ।। 

कार्मुकं भ्रामयामास हेमपृष्ठं दुरासदम्‌ । 

(तदस्य भ्राजते राजन्‌ मेघमध्ये तडिद्‌ यथा ।।) 

महाराज! प्रतापी द्रोणने युद्धस्थलमें उन राजकुमारोंका वध करके सुवर्णमय 
पृष्ठभागवाले दुर्जय धनुषको घुमाना आरम्भ किया। राजन! उस समय वह धनुष मेघोंकी 
घटामें बिजलीके समान प्रकाशित हो रहा था ।। ५० $ ।। 

पज्चालान्‌ निहतान्‌ दृष्टवा देवकल्पान्‌ महारथान्‌ ।। ५१ ।। 

धृष्टय्युम्नो भुशोद्विग्नो नेत्राभ्यां पातयन्‌ जलम्‌ । 

अभ्यवर्तत संग्रामे क्रुद्धो द्रोणरथं प्रति || ५२ ।। 

देवताओंके समान तेजस्वी पांचाल महारथियोंको मारा गया देख धृष्टद्युम्न अत्यन्त 
उद्विग्न हो नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए कुपित हो उठे और संग्रामभूमिमें द्रोणाचार्यके रथकी ओर 
बढ़े || ५१-५२ |। 

ततो हाहेति सहसा नाद: समभवन्नूप । 

पाज्चाल्येन रणे दृष्टवा द्रोणमावारितं शरै: ।। ५३ ।। 

राजन! रणक्षेत्रमें धृष्टद्युम्नके बाणोंसे द्रोणाचार्यकी गति अवरुद्ध हुई देख (कौरव- 
सेनामें) सहसा हाहाकार मच गया ।। ५३ ।। 


स च्छाद्यमानो बहुधा पार्षतेन महात्मना । 

न विव्यथे ततो द्रोण: स्मयन्नेवान्वयुध्यत ।। ५४ ।। 

महामना धृष्टद्युम्नके द्वारा बाणोंसे आच्छादित किये जानेपर भी द्रोणाचार्यको तनिक 
भी व्यथा नहीं हुई। वे मुसकराते हुए ही युद्धमें संलग्न रहे || ५४ ।। 

ततो द्रोणं महाराज पाज्चाल्य: क्रोधमूर्च्छित: । 

आजपघानोरसि क्ुद्धो नवत्या नतपर्वणाम्‌ । ५५ ।। 

महाराज! तत्पश्चात्‌ धृष्टद्युम्नने क्रोधसे अचेत होकर झुकी हुई गाँठवाले नब्बे बाणोंद्वारा 
द्रोणाचार्यकी छातीमें प्रहार किया ।। ५५ ।। 

स गाढविद्धों बलिना भारद्वाजोी महायशा: । 

निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह ।। ५६ ।। 

बलवान वीर धृष्टद्युम्नके द्वारा गहरी चोट पहुँचायी जानेपर महायशस्वी द्रोणाचार्य 
रथके पिछले भागमें बैठ गये और मूर्च्छित हो गये ।। ५६ ।। 

त॑ वै तथागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्न: पराक्रमी । 

चापमुत्यृज्य शीघ्र तु असिं जग्राह वीर्यवान्‌ ।। ५७ ।। 

उनको उस अवस्थामें देखकर बल और पराक्रमसे सम्पन्न धृष्टद्युम्नने धनुष रख दिया 
और तुरंत ही तलवार हाथमें ले ली ।। ५७ ।। 

अवल्लुत्य रथाच्चापि त्वरित: स महारथ: । 

आरुरोह रथं तूर्ण भारद्वाजस्य मारिष ।। ५८ ।। 

माननीय नरेश! महारथी धृष्टद्युम्न शीघ्र ही अपने रथसे कूदकर द्रोणाचार्यके रथपर जा 
चढ़े || ५८ ।। 

हर्तुमिच्छन्‌ शिर: कायात्‌ क्रोधसंरक्तलोचन: । 

प्रत्याश्वस्तस्ततो द्रोणो धनुर्गृ.द्दा महारवम्‌ ।। ५९ ।। 

आसजन्नमागतं दृष्टवा धृष्टद्युम्न॑ जिघांसया । 

शरैर्वैतस्तिकै राजन्‌ विव्याधासन्नवेधिभि: ।। ६० ।। 

राजन! वे क्रोधसे लाल आँखें करके द्रोणाचार्यके सिरको धड़से अलग कर देना चाहते 
थे। इसी समय द्रोणाचार्य होशमें आ गये और उन्होंने अपनेको मार डालनेकी इच्छासे 
धृष्टद्यम्मको निकट आया देख महान्‌ टंकार करनेवाले अपने धनुषको हाथमें लेकर निकटसे 
वेधनेवाले बित्ते बराबर बाणोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया ।। ५९-६० ।। 

योधयामास समरे धृष्टद्युम्नं महारथम्‌ । 

ते हि वैतस्तिका नाम शरा आसन्नयोधिन: ।। ६१ ।। 

द्रोणस्य विहिता राजन यैर्धुष्टद्युम्नमाक्षिणोत्‌ । 


राजन! आचार्य समरांगणमें महारथी धृष्टद्युम्नके साथ युद्ध करने लगे। निकटसे युद्ध 
करनेवाले द्रोणाचार्यके पास उन्हींके बनाये हुए वैतस्तिक नामक बाण थे, जिनके द्वारा 
उन्होंने धृष्टद्युम्नको क्षत-विक्षत कर दिया ।। ६१३ ।। 

स वध्यमानो बहुभि: सायकैस्तैर्महाबल: ।। ६२ ।। 

अवल्लुत्य रथात्‌ तूर्ण भग्नवेग: पराक्रमी । 

आरुह्दु स्वरथं वीर: प्रगृह्द च महद्‌ धनु: ।। ६३ ।। 

विव्याध समरे द्रोणं धृष्टद्युम्नो महारथ: । 

द्रोणश्वापि महाराज शरैरविव्याध पार्षतम्‌ ।। ६४ ।। 

महाबली और पराक्रमी धृष्टद्युम्न उन बहुसंख्यक बाणोंद्वारा घायल होकर अपना वेग 
भंग हो जानेके कारण उस रथसे कूद पड़े और पुनः: अपने रथपर आरूढ़ हो वे वीर महारथी 
धष्टद्यम्न महान्‌ धनुष हाथमें लेकर समरांगणमें द्रोणाचार्यको वेधने लगे। महाराज! 
द्रोणाचार्यने भी अपने बाणोंद्वारा ट्रुपदपुत्रको घायल कर दिया || ६२--६४ ।। 

तदद्भुतम भूद्‌ युद्ध द्रोणपाउचालयोस्तदा । 

त्रैलोक्यकाड्क्षिणोरासीच्छक्रप्रह्लादयोरिव ।। ६५ ।। 

जैसे त्रिलोकीके राज्यकी इच्छा रखनेवाले इन्द्र और प्रह्नादमें परस्पर युद्ध हुआ था, 
उसी प्रकार उस समय द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्नमें अत्यन्त अद्भुत युद्ध होने लगा ।। 

मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च । 

चरन्तौ युद्धमार्गज्ञौ ततक्षतुरथेषुभि: ।। ६६ ।। 

वे दोनों ही युद्धकी प्रणालीके ज्ञाता थे। अतः विचित्र मण्डल, यमक तथा अन्य 
प्रकारके मार्गोंका प्रदर्शन करते हुए एक-दूसरेको बाणोंसे क्षत-विक्षत करने लगे ।। ६६ ।। 

मोहयन्तौ मनांस्याजौ योधानां द्रोणपार्षतौ । 

सृजन्तौ शरवर्षाणि वर्षास्विव बलाहकौ ।॥। ६७ ।। 

वर्षाकालके दो मेघोंके समान बाण-वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य और धृष्टट्युम्न युद्धस्थलमें 
सम्पूर्ण योद्धाओंके मन मोहने लगे ।। ६७ ।। 

छादयन्तौ महात्मानौ शरैव्योम दिशो महीम्‌ । 

तदद्धुतं तयोर्युद्धं भूतसड्घा हापूजयन्‌ ।। ६८ ।। 

वे दोनों महामनस्वी वीर अपने बाणोंद्वारा आकाश, दिशाओं तथा पृथ्वीको आच्छादित 
करने लगे। उन दोनोंके उस अद्भुत युद्धकी सभी प्राणियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की ।। 

क्षत्रियाश्ष महाराज ये चान्ये तव सैनिका: । 

अवश्यं समरे द्रोणो धृष्टद्युम्नेन सड़तः ।। ६९ ।। 

वशमेष्यति नो राजन्‌ पज्चाला इति चुक्रुशु: । 


महाराज! सभी क्षत्रियों तथा आपके अन्य सैनिकोंने भी उन दोनोंके युद्धकी प्रशंसा 
की। राजन! पांचालयोद्धा यों कहकर कोलाहल करने लगे कि द्रोणाचार्य समरांगणमें 
धृष्टद्युम्मके साथ उलझे हुए हैं। वे अवश्य ही हमारे अधीन हो जायँगे ।। ६९ | ।। 

द्रोणस्तु त्वरितो युद्धे धृष्टय्युम्नस्य सारथे: || ७० ।। 

शिर: प्रच्यावयामास फलं पक्‍व॑ तरोरिव । 

इसी समय द्रोणने युद्धमें बड़ी उतावलीके साथ धृष्टद्युम्मके सारथिका सिर वृक्षके पके 
हुए फलके समान धड़से नीचे गिरा दिया || ७० ई ।। 

ततस्तु प्रद्गुता वाहा राज॑स्तस्य महात्मन: ।। ७१ ।। 

तेषु प्रद्रवमाणेषु पडचालान्‌ सृञ्जयांस्तथा । 

अयोधयदू रणे द्रोणस्तत्र तत्र पराक्रमी ।। ७२ ।। 

राजन! फिर तो महामना धृष्टद्युम्नके घोड़े भाग चले। उनके भाग जानेपर पराक्रमी 
द्रोणाचार्य रणभूमिमें सब ओर घूम-घूमकर पांचालों और सूंजयोंके साथ युद्ध करने लगे ।। 

विजित्य पाण्डुपञ्चालान्‌ भारद्वाज: प्रतापवान्‌ । 

स्वं व्यूहं पुनरास्थाय स्थितो5भवदरिंदम: । 

न चैनं पाण्डवा युद्धे जेतुमुत्सेहिरे प्रभो । ७३ ।। 

इस प्रकार शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रतापी द्रोणाचार्य पाण्डवों और पांचालोंको 
पराजित करके पुनः अपने व्यूहमें आकर खड़े हो गये। प्रभो! उस समय पाण्डव-सैनिक 
युद्धमें उन्हें जीतनेका साहस न कर सके ।। ७३ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिकप्रवेशे द्रोणपराक्रमे 

द्वाविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका प्रवेश और 
द्रोणाचार्यका पराक्रमविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ई श्लोक मिलाकर कुल ७३ ३ “लोक हैं।) 


ऑपन-माज बक। डे 


त्रयोविशर्त्याधेकशततमो< ध्याय: 
सात्यकिका घोर युद्ध और दुःशासनकी पराजय 


संजय उवाच 

ततो दुःशासनो राजन्‌ शैनेयं समुपाद्रवत्‌ । 

किरन्‌ शतसहस्त्राणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर दुःशासनने वर्षा करनेवाले मेघके समान लाखों 
बाण बिखेरते हुए वहाँ शिनिपौत्र सात्यकिपर धावा कर दिया ।। १ |। 

स विद्ध्वा सात्यकिं षष्ट्या तथा षोडशभि: शरै: | 

नाकम्पयत्‌ स्थितं युद्धे मैनाकमिव पर्वतम्‌ ।। २ ।। 

वह पहले साठ फिर सोलह बाणोंसे बींधकर भी युद्धमें मैनाक पर्वतकी भाँति 
अविचलभावसे खड़े हुए सात्यकिको कम्पित न कर सका ।। २ ।। 

तं॑ तु दःशासन: शूर: सायकैरावृणोद्‌ भृशम्‌ । 

रथव्रातेन महता नानादेशोद्धवेन च ।। ३ ।। 

शूरवीर दुःशासनने नाना देशोंसे प्राप्त हुए विशाल रथसमूहके द्वारा तथा बाणोंकी 
वर्षसे भी सात्यकिको अत्यन्त आवृत कर लिया ।। ३ ।। 

सर्वतो भरतश्रेष्ठ विसृजन्‌ सायकान्‌ बहून्‌ । 

पर्जन्य इव घोषेण नादयन्‌ वै दिशो दश ।। ४ ।। 

भरतश्रेष्ठ)! उसने मेघके समान अपनी गम्भीर गर्जनासे दसों दिशाओंको निनादित करते 
हुए चारों ओरसे बहुत-से बाणोंकी वर्षा की ।। ४ ।। 

तमापतन्तमालोक्य सात्यकि: कौरवं रणे | 

अभिद्र॒ुत्य महाबाहुश्छादयामास सायकै: ।। ५ ।। 

कुरुवंशी दुःशासनको रणक्षेत्रमें आक्रमण करते देख महाबाहु सात्यकिने उसपर धावा 
करके अपने बाणोंद्वारा उसे आच्छादित कर दिया ।। ५ ।। 

ते छाद्यमाना बाणौघैर्द:शासनपुरोगमा: । 

प्राद्रवन्‌ समरे भीतास्तव सैन्यस्य पश्यत: ।। ६ ।। 

वे दुःशासन आदि योद्धा सात्यकिके बाण-समूहोंसे आच्छादित होनेपर समरभूमिमें 
भयभीत हो उठे और आपकी सारी सेनाके देखते-देखते भागने लगे ।। ६ ।। 

तेषु द्रवत्सु राजेन्द्र पुत्रो द:ःशासनस्तव | 

तस्थौ व्यपेतभी राजन्‌ सात्यकिं चार्दयच्छरै: ।। ७ ।। 

राजेन्द्र! उनके भागनेपर भी आपका पुत्र दुःशासन वहीं निर्भय खड़ा रहा। उसने 
सात्यकिको अपने बाणोंसे पीड़ित कर दिया ।। ७ ।। 


चतुर्भिवाजिनस्तस्य सारथिं च त्रिभि: शरै: | 

सात्यकिं च शतेनाजौ विद्ध्वा नादं मुमोच स: ।। ८ ।। 

उसने चार बाणोंसे उसके घोड़ोंको, तीनसे सारथिको और सौ बाणोंसे स्वयं 
सात्यकिको युद्धभूमिमें घायल करके बड़े जोरसे गर्जना की ।। ८ ।। 

ततः क्रुद्धो महाराज माधवस्तस्य संयुगे | 

रथं सूतं ध्वजं तं च चक्रेडदृश्यमजिद्दागैः ।। ९ ।। 

महाराज! तब मधुवंशी सात्यकिने समरांगणमें कुपित होकर दुःशासनके रथ, सारथि 
और ध्वजको अपने बाणोंद्वारा अदृश्य कर दिया || ९ ।। 

स तु दुःशासनं शूरं सायकैरावृणोद्‌ भृशम्‌ । 

सशड्कं समनुप्राप्तमूर्णनाभिरिवोर्णया ।। १० ।। 

त्वरन्‌ समावृणोद्‌ बाणैर्द:शासनममित्रजित्‌ | 

इतना ही नहीं, उन्होंने शूरवीर दुःशासनको अपने बाणोंसे अत्यन्त आच्छादित कर 
दिया। जैसे मकड़ी अपने जालेसे किसी जीवको लपेट देती है, उसी प्रकार शंकितभावसे 
पास आये हुए दुःशासनको शत्रुविजयी सात्यकिने बड़ी उतावलीके साथ अपने बाणोंद्वारा 
आवृत कर लिया ।। १०३ ।। 

दृष्टवा दुःशासनं राजा तथा शरशताचितम्‌ ।। ११ ।। 

त्रिगर्ताश्नोदयामास युयुधानरथं प्रति । 

इस प्रकार दुःशासनको सैकड़ों बाणोंसे ढका हुआ देख राजा दुर्योधनने त्रिगर्तोंको 
युयुधानके रथपर आक्रमण करनेकी आज्ञा दी || ११६ ।। 

तेडगच्छन्‌ युयुधानस्य समीपं क्रूरकर्मण: ।। १२ ।। 

त्रिगर्तानां त्रिसाहस्रा रथा युद्धविशारदा: । 

वे त्रिगर्तोंके तीन हजार रथी, जो युद्धमें कुशल थे, कठोर कर्म करनेवाले युयुधानके 
समीप गये ।। १२६ ।। 

ते तु तं रथवंशेन महता पर्यवारयन्‌ ।॥। १३ ।। 

स्थिरां कृत्वा मतिं युद्धे भूत्वा संशप्तका मिथ: । 

उन्होंने युद्धके लिये दृढ़ निश्चय करके परस्पर शपथ ग्रहण करनेके अनन्तर विशाल 
रथसेनाके द्वारा उन्हें घेर लिया ।। १३ ई ।। 

तेषां प्रपततां युद्धे शरवर्षाणि मुड्चताम्‌ ।। १४ ।। 

योधान्‌ पञ्चशतान्‌ मुख्यानग्रयानीके व्यपोथयत्‌ । 

तब सात्यकिने युद्धमें बाण-वर्षा करते हुए आक्रमण करनेवाले पाँच सौ प्रमुख 
योद्धाओंको सेनाके मुहानेपर मार गिराया ।। १४ $ ।। 

तेडपतन्‌ निहतास्तूर्ण शिनिप्रवरसायकै: ।। १५ ।। 


महामारुतवेगेन भग्ना इव नगाद्‌ द्रुमा: । 

जैसे आँधीके वेगसे टूटे हुए वृक्ष पर्वतसे नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार शिनिश्रेष्ठ 
सात्यकिके बाणोंसे मारे गये वे त्रिगर्त योद्धा तुरंत ही धराशायी हो गये || १५६ ।। 

नागैश्न बहुधा चिलिन्नैर्ध्वजैश्वेव विशाम्पते | १६ ।। 

हयैश्व कनकापीडै: पतितैस्तत्र मेदिनी । 

शैनेयशरसंकृत्तै: शोणितौघपरिप्लुतै: ।। १७ ।। 

अशोभत महाराज किंशुकैरिव पुष्पितै: । 

महाराज! प्रजापालक नरेश! उस समय गिरे हुए गजराजों, अनेक टुकड़ोंमें कटी हुई 
ध्वजाओं तथा धरतीपर पड़े हुए, सोनेकी कलंगियोंसे सुशोभित घोड़ोंसे, जो सात्यकिके 
बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर खूनसे लथपथ हो रहे थे, आच्छादित हुई यह पृथ्वी वैसी ही 
शोभा पा रही थी, मानो वह लाल फूलोंसे भरे हुए पलाशके वृक्षोंद्वारा ढक गयी 
हो || १६-१७ $ ।। 

ते वध्यमाना: समरे युयुधानेन तावका: ।। १८ ।। 

त्रातारं नाध्यगच्छन्त पड़कमग्ना इव द्विपा: । 

जैसे कीचड़में फँसे हुए हाथियोंको कोई रक्षक नहीं मिलता है, उसी प्रकार समरांगणमें 
युयुधानकी मार खाते हुए आपके सैनिक कोई रक्षक न पा सके ।। १८६ || 

ततस्ते पर्यवर्तन्त सर्वे द्रोणरथं प्रति ॥। १९ ।। 

भयात्‌ पतगराजस्य गर्तानीव महोरगा: । 

जैसे बड़े-बड़े सर्प गरुड़के भयसे बिलोंमें घुस जाते हैं, उसी प्रकार आपके वे सभी 
पराजित सैनिक द्रोणाचार्यके रथके पास इकट्ठे हो गये || १९६ ।। 

हत्वा पञज्चशतान्‌ योधान्‌ शरैराशीविषोपमै: ।। २० ।। 

प्रायात्‌ स शनकैर्वीरो धनंजयरथं प्रति । 

विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंद्वारा पाँच सौ योद्धाओंका संहार करके वीर 
सात्यकि धीरे-धीरे धनंजयके रथकी ओर बढ़ने लगे | २०३ ।। 

त॑ प्रयान्तं नरश्रेष्ठं पुत्रो दःशासनस्तव || २१ ।। 

विव्याध नवभिस्तूर्ण शरै: संनतपर्वभि: । 

उस समय आपके पुत्र दुःशासनने वहाँसे जाते हुए नरश्रेष्ठ सात्यकिको झुकी हुई 
गाँठवाले नौ बाणोंद्वारा शीघ्र ही बींध डाला || २१६ ।। 

सतुतंप्रतिविव्याध पञज्चभिरनिशितै: शरै: ।। २२ ।। 

रुक्मपुड्खैर्महेष्वासो गार्ध्रपत्रैरजिद्ागै: । 

तब महाथनुर्थर सात्यकिने भी सोनेके पुंख तथा गीधकी पाँखवाले पाँच तीखे और 
सीधे जानेवाले बाणोंद्वारा दुशासनको वेधकर बदला चुकाया || २२६ ।। 


सात्यकिं तु महाराज प्रहसन्निव भारत ।। २३ ।। 

दुःशासनस्सत्रिभिवविद्ध्वा पुनर्विव्याध पठ्चभि: । 

भरतवंशी महाराज! इसके बाद दुःशासनने हँसते हुए-से ही वहाँ तीन बाणोंद्वारा 
सात्यकिको घायल करके पुनः पाँच बाणोंसे बींध डाला || २३३ || 

शैनेयस्तव पुत्र तु हत्वा पडचभिराशुगै: ।। २४ ।। 

धनुश्नास्य रणे छित्त्वा विस्मयन्नर्जुनं ययौ । 

तब शिनिपौत्र सात्यकि पाँच बाणोंसे आपके पुत्रको रणक्षेत्रमें घायल करके उसका 
धनुष काटकर मुसकराते हुए वहाँसे अर्जुनकी ओर चल दिये || २४३ ।। 

ततो दुःशासन: क्रुद्धो वृष्णिवीराय गच्छते || २५ ।। 

सर्वपारशवीं शक्तिं विससर्ज जिघांसया । 

तदनन्तर दुःशासनने वहाँसे जाते हुए वृष्णिवीर सात्यकिपर कुपित हो उन्हें मार 
डालनेकी इच्छासे सम्पूर्णतः लोहेकी बनी हुई शक्ति चलायी || २५३ ।। 

तां तु शक्ति तदा घोरां तव पुत्रस्य सात्यकि: ।। २६ ।। 

चिच्छेद शतधा राजन्‌ निशितै: कड्कपत्रिभि: | 

राजन्‌! आपके पुत्रकी उस भयंकर शक्तिको उस समय सात्यकिने कंकपत्रयुक्त तीखे 
बाणोंद्वारा सौ टुकड़ोंमें खण्डित कर दिया || २६३ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय पुत्रस्तव जनेश्वर ।। २७ ।। 

सात्यकिं च शरैरविंद्ध्वा सिंहनादं ननर्द ह । 

जनेश्वर! तत्पश्चात्‌ आपके पुत्रने दूसरा धनुष लेकर सात्यकिको अपने बाणोंद्वारा 
घायल करके सिंहके समान गर्जना की || २७३ ।। 

सात्यकिस्तु रणे क्रुद्धो मोहयित्वा सुतं तव ।। २८ ।। 

शरैरग्निशिखाकारैराजघान स्तनान्तरे । 

त्रिभिरेव महाभाग: शरै: संनतपर्वभि: । 

इससे महाभाग सात्यकिने समरांगणमें कुपित होकर आपके पुत्रको मोहित करते हुए 
झुकी हुई गाँठवाले अग्निकी लपटोंके समान प्रज्वलित तीन बाणोंद्वारा उसकी छातीमें गहरी 
चोट पहुँचायी || २८ ३ ।। 

सर्वायसैस्तीक्षणवक्त्रै: पुनर्विव्याध चाष्टभि: ।। २९ |। 

दुःशासनस्तु विंशत्या सात्यकिं प्रत्यविध्यत । 

फिर लोहेके बने हुए तीखी धारवाले आठ बाणोंसे उसे पुनः: घायल कर दिया। तब 
दुःशासनने भी बीस बाण मारकर सात्यकिको क्षत-विक्षत कर दिया ।। २९३६ ।। 

सात्वतो5पि महाराज तं॑ विव्याध स्तनान्तरे ।। ३० ।। 

त्रिभिरेव महा भाग: शरै: संनतपर्वभि: | 


महाराज! इधर महाभाग सात्यकिने भी झुकी हुई गाँठवाले तीन बाणोंद्वारा 
दुःशासनकी छातीमें चोट पहुँचायी ।। 

ततो<स्य वाहान्‌ निशितै: शरैर्जघ्ने महारथ: ।। ३१ ।। 

सारथिं च सुसंक़्रुद्ध: शरै: संनतपर्वभि: । 

इसके बाद महारथी युयुधानने अत्यन्त कुपित हो पैने बाणोंसे उसके चारों घोड़ोंको मार 
डाला। फिर झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे सारथिको भी यमलोक पहुँचा दिया ।। 

धनुरेकेन भल्लेन हस्तावापं च पठचभि: ।। ३२ ।। 

ध्वजं च रथशक्ति च भल्लाभ्यां परमास्त्रवित्‌ | 

चिच्छेद विशिखैस्ती क्ष्णस्तथो भौ पार्ष्णिसारथी ।॥। ३३ ।। 

तदनन्तर महान्‌ अस्त्रवेत्ता सात्यकिने एक भल्लसे दुःशासनका धनुष, पाँचसे उसके 
दस्ताने तथा दो भल्लोंसे उसकी ध्वजा एवं रथशक्तिके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इतना ही 
नहीं, उन्होंने तीखे बाणोंद्वारा उसके दोनों पारश्वचरक्षकोंको भी मार डाला ।। ३२-३३ ।। 

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वचो हतसारथि: । 

त्रिगर्तसेनापतिना स्वरथेनापवाहितः ।। ३४ ।। 

धनुष कट जानेपर रथ, घोड़े और सारथिसे हीन हुए दुःशासनको त्रिगर्त-सेनापतिने 
अपने रथपर बिठाकर वहाँसे दूर हटा दिया ।। ३४ ।। 

तमभिद्र॒त्य शैनेयो मुहूर्तमिव भारत । 

न जघान महाबाहुर्भीमसेनवच: स्मरन्‌ ।। ३५ ।। 

भारत! उस समय महाबाहु सात्यकिने लगभग दो घड़ीतक दुःशासनका पीछा किया; 
परंतु भीमसेनकी बात याद आ जानेसे उसका वध नहीं किया ।। ३५ |। 

भीमसेनेन तु वध: सुतानां तव भारत । 

प्रतिज्ञात: सभामध्ये सर्वेषामेव संयुगे ।। ३६ ।। 

भरतनन्दन! भीमसेनने सभामें सबके सामने ही युद्धस्थलमें आपके पुत्रोंका वध 
करनेकी प्रतिज्ञा की थी ।। 

ततो दुःशासनं जित्वा सात्यकि: संयुगे प्रभो । 

जगाम त्वरितो राजन्‌ येन यातो धनंजय: ।। ३७ ।। 

राजन! प्रभो! इस प्रकार समरांगणमें दुःशासनपर विजय पाकर सात्यकि तत्काल ही 
उसी मार्गपर चल दिये, जिससे अर्जुन गये थे ।। ३७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे दःशासनपराजये 
त्रयोविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका प्रवेश और 
दुःशासनकी पराजयविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२३ ॥। 


भीकम (2 अमान 


चतुर्विशर्त्याधकशततमो< ध्याय: 


कौरव-पाण्डव-सेनाका घोर युद्ध तथा पाण्डवोंके साथ 
दुर्योधनका संग्राम 


घतयाट्र उवाच 


कि तस्यां मम सेनायां नासन्‌ केचिन्महारथा: । 

ये तथा सात्यकिं यान्तं नैवाघ्नन्‌ नाप्यवारयम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! क्या मेरी उस सेनामें कोई भी महारथी वीर नहीं थे, जिन्होंने 
जाते हुए सात्यकिको न तो मारा और न उन्हें रोका ही ।। १ ।। 

एको हि समरे कर्म कृतवान्‌ सत्यविक्रम: । 

शक्रतुल्यबलो युद्धे महेन्द्रो दानवेष्विव ।। २ ।। 

जैसे देवराज इन्द्र दानवोंके साथ युद्धमें पराक्रम दिखाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रतुल्य 
बलशाली सत्यपराक्रमी सात्यकिने समरांगणमें अकेले ही महान्‌ कर्म किया ।। २ ।। 

अथवा शून्यमासीत्‌ तत्‌ येन यातः स सात्यकि: । 

हतभूयिष्ठमथवा येन यातः स सात्यकि: ।। ३ ।। 

अथवा जिस मार्गसे सात्यकि आगे बढ़े थे, वह वीरोंसे शून्य तो नहीं हो गया था या 
वहाँके अधिकांश सैनिक मारे तो नहीं गये थे ।। ३ ।। 

यत्‌ कृतं वृष्णिवीरेण कर्म शंससि मे रणे । 

नैतदुत्सहते कर्तु कर्म शक्रोडपि संजय ।॥। ४ ।। 

संजय! तुम रणक्षेत्रमें वृष्णिवंशी वीर सात्यकिके द्वारा किये हुए जिस कर्मकी प्रशंसा 
कर रहे हो, वह कर्म देवराज इन्द्र भी नहीं कर सकते ।। ४ ।। 

अश्रद्धेयमचिन्त्यं च कर्म तस्य महात्मन: । 

वृष्ण्यन्धकप्रवीरस्य श्रुत्वा मे व्यथितं मन: ।। ५ ।। 

वृष्णि और अंधक वंशके प्रमुख वीर महामना सात्यकिका वह कर्म अचिन्त्य 
(सम्भावनासे परे) है। उसपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। उसे सुनकर मेरा मन 
व्यथित हो उठा है ।। ५ ।। 

न सन्ति तस्मात्‌ पुत्रा मे यथा संजय भाषसे । 

एको वै बहुला: सेना: प्रामृदूनत्‌ सत्यविक्रम: ।। ६ ।। 

संजय! जैसा कि तुम बता रहे हो, यदि एक ही सत्यपराक्रमी सात्यकिने मेरी बहुत-सी 
सेनाओंको धूलमें मिला दिया है, तब तो मुझे यह मान लेना चाहिये कि अब मेरे पुत्र जीवित 
नहीं हैं || ६ ।। 


कथं च युध्यमानानामपक्रान्तो महात्मनाम्‌ । 

एको बहूनां शैनेयस्तन्ममाचक्ष्व संजय ।। ७ ।। 

संजय! जब बहुत-से महामनस्वी वीर युद्ध कर रहे थे, उस समय अकेले सात्यकि उन्हें 
पराजित करके कैसे आगे बढ़ गये, यह सब मुझे बताओ ।। ७ ।। 

संजय उवाच 

राजन्‌ सेनासमुद्योगो रथनागाश्वपत्तिमान्‌ 

तुमुलस्तव सैन्यानां युगान्तसदृशो5भवत्‌ ।। ८ ।। 

संजयने कहा--राजन! रथ, हाथी, घोड़े और पैदलोंसे भरा हुआ आपका 
सेनासम्बन्धी उद्योग महान्‌ था। आपके सैनिकोंका समाहार प्रलयकालके समान भयंकर 
जान पड़ता था ।। ८ ।। 

आहूृतेषु समूहेषु तव सैन्यस्य मानद । 

नाभूल्लोके सम: कश्चित्‌ समूह इति मे मति: ।। ९ ।। 

मानद! जब आपकी सेनाके भिन्न-भिन्न समूह सब ओरसे बुलाये गये, उस समय जो 
महान्‌ समुदाय एकत्र हुआ, उसके समान इस संसारमें दूसरा कोई समूह नहीं था, ऐसा मेरा 
विश्वास है ।। ९ ।। 

तत्र देवास्त्वभाषन्त चारणाश्न समागता: । 

एतदन्ता: समूहा वै भविष्यन्ति महीतले ।। १० ।। 

वहाँ आये हुए देवता तथा चारण ऐसा कहते थे कि इस भूतलपर सारे समूहोंकी 
अन्तिम सीमा यही होगी ।। 

न च वै तादृशो व्यूह आसीत्‌ कश्चिद्‌ विशाम्पते | 

यादग्‌ जयद्रथवधे द्रोणेन विहितो$भवत्‌ ।। ११ ।। 

प्रजानाथ! जयद्रथवधके समय द्रोणाचार्यने जैसा व्यूह बनाया था, वैसा दूसरा कोई भी 
व्यूह नहीं बन सका था ।। ११ ।। 

चण्डवातविभिगन्नानां समुद्राणामिव स्वन: । 

रणे5भवद्‌ बलौघानामन्योन्यमभिधावताम्‌ ।। १२ ।। 

प्रचण्ड वायुके थपेड़े खाकर उद्वेलित हुए समुद्रोंक जलसे जैसा भैरव गर्जन सुनायी 
देता है, उस रणक्षेत्रमें एक-दूसरेपर धावा करनेवाले सैन्यसमूहोंका कोलाहल भी वैसा ही 
भयंकर था ।। १२ ।। 

पार्थिवानां समेतानां बहून्यासन्‌ नरोत्तम | 

तदबले पाण्डवानां च सहस्राणि शतानि च ।। १३ ।। 

नरश्रेष्ठ आपकी और पाण्डवोंकी सेनाओंमें सब ओरसे एकत्र हुए भूमिपालोंके सैकड़ों 
और हजारों दल थे ।। १३ ।। 


संरब्धानां प्रवीराणां समरे दृढकर्मणाम्‌ | 

तत्रासीत्‌ सुमहाशब्दस्तुमुलो लोमहर्षण: ।। १४ ।। 

वे सभी प्रमुख वीर रोषावेशसे परिपूर्ण हो समरभूमिमें सुदृढ़ पराक्रम कर दिखानेवाले 
थे। वहाँ उन सबका महान्‌ एवं तुमुल कोलाहल रोंगटे खड़े कर देनेवाला था || १४ ।। 

(पाण्डवानां कुरूणां च गर्जतामितरेतरम्‌ । 

क्ष्ेवेडा: किलकिलाशब्दास्तत्रासन्‌ वै सहस्रश:ः ।। 

एक-दूसरेके प्रति गर्जना करनेवाले पाण्डवों तथा कौरवोंके सिंहनाद और 
किलकिलाहटके शब्द वहाँ सहस्रों बार प्रकट होते थे। 

भेरीशब्दाश्न तुमुला बाणशब्दाश्व॒ भारत । 

अन्योन्यं निध्नतां चैव नराणां शुश्रुवे स्वन: ।।) 

भरतनन्दन! वहाँ नगाड़ोंकी भयानक गड़गड़ाहट, बाणोंकी सनसनाहट तथा परस्पर 
प्रहार करनेवाले मनुष्योंकी गर्जनाके शब्द बड़े जोरसे सुनायी दे रहे थे। 

अथाक्रन्दद्‌ भीमसेनो धृष्टद्युम्नश्व मारिष । 

नकुल: सहदेवश्व धर्मराजश्न पाण्डव: ।। १५ ।। 

माननीय नरेश! तदनन्तर भीमसेन, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव तथा पाण्डुपुत्र धर्मराज 
युधिष्ठिरने अपने सैनिकोंसे पुकारकर कहा-- || १५ ।। 

आगच्छत प्रहरत द्रुतं विपरिधावत । 

प्रविष्टावरिसेनां हि वीरी माधवपाण्डवौ ।। १६ |। 

“वीरो! आओ, शत्रुओंपर प्रहार करो। बड़े वेगसे इनपर टूट पड़ो; क्योंकि वीर सात्यकि 
और अर्जुन शत्रुओंकी सेनामें घुस गये हैं | १६ ।। 

यथा सुखेन गच्छेतां जयद्रथवध॑ प्रति । 

तथा प्रकुरुत क्षिप्रमिति सैन्यान्यचोदयन्‌ ।। १७ ।। 

'वे दोनों जयद्रथका वध करनेके लिये जैसे सुखपूर्वक आगे जा सकें, उसी प्रकार 
शीघ्रतापूर्वक प्रयत्न करो।” इस तरह उन्होंने सारी सेनाओंको आदेश दिया ।। १७ ।। 

तयोरभावे कुरव: कृतार्था: स्युर्वयं जिता: । 

ते यूयं सहिता भूत्वा तूर्णमेव बलार्णवम्‌ ।। १८ ।। 

क्षोभयध्वं महावेगा: पवन: सागरं यथा । 

(इसके बाद उन्होंने फिर कहा--) 'सात्यकि और अर्जुनके न होनेपर ये कौरव तो 
कृतार्थ हो जायँगे और हम पराजित होंगे। अत: तुम सब लोग एक साथ मिलकर महान्‌ 
वेगका आश्रय ले तुरंत ही इस सैन्य-समुद्रमें हलचल मचा दो। ठीक वैसे ही जैसे प्रचण्ड 
वायु महासागरको विकज्षुब्ध कर देती है” | १८६ ।। 

भीमसेनेन ते राजन्‌ पाञ्ताल्येन च नोदिता: ।। १९ |। 

आजलसघ्नु: कौरवान्‌ संख्ये त्यक्त्वासूनात्मन: प्रियान्‌ 


राजन! भीमसेन तथा धृष्टद्युम्नके द्वारा इस प्रकार प्रेरित हुए पाण्डव-सैनिकोंने अपने 
प्यारे प्राणोंका मोह छोड़कर युद्धस्थलमें कौरवयोद्धाओंका संहार आरम्भ कर दिया ।। १९ 
न ! 

इच्छन्तो निधन युद्धे शस्त्रैरुत्तमतेजस: ।। २० ।। 

स्वर्गेप्सवो मित्रकार्ये नाभ्यनन्दन्त जीवितम्‌ । 

वे उत्तम तेजवाले नरेश स्वर्गलोक प्राप्त करना चाहते थे। अतः उन्हें युद्धमें शस्त्रोंद्वारा 
मृत्यु आनेकी अभिलाषा थी। इसीलिये उन्होंने मित्रका कार्य सिद्ध करनेके प्रयत्नमें अपने 
प्राणोंकी परवा नहीं की || २० ६ ।। 

तथैव तावका राजन प्रार्थयन्तो महद्‌ यश: ।। २१ ।। 

आर्या युद्धे मतिं कृत्वा युद्धायैवावतस्थिरे । 

राजन! इसी प्रकार आपके सैनिक भी महान्‌ सुयश प्राप्त करना चाहते थे। अतः वे 
युद्धविषयक श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय ले वहाँ युद्धके लिये ही डँटे रहे || २१६ ।। 

तस्मिन्‌ सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयावहे || २२ ।। 

जित्वा सर्वाणि सैन्यानि प्रायात्‌ सात्यकिरर्जुनम्‌ । 

जिस समय वह अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध चल रहा था, उसी समय सात्यकि 
आपकी सारी सेनाओंको जीतकर अर्जुनकी ओर बढ़ चले ।। २२६ ।। 

कवचानां प्रभास्तत्र सूर्यरश्मिविराजिता: ।। २३ ।। 

दृष्टी: संख्ये सैनिकानां प्रतिजघ्नु: समनन्‍्ततः । 

वहाँ वीरोंके सुवर्णमय कवचोंकी प्रभाएँ सूर्यकी किरणोंसे उद्धासित हो युद्धस्थलमें सब 
ओर खड़े हुए सैनिकोंके नेत्रोंमें चकाचौंध पैदा कर रही थीं ।। २३ $ ।। 

तथा प्रयतमानानां पाण्डवानां महात्मनाम्‌ ।। २४ ।। 

दुर्योधनो महाराज व्यगाहत महद्‌ बलम्‌ | 

महाराज! इस प्रकार विजयके लिये प्रयत्नशील हुए महामनस्वी पाण्डवोंकी उस 
विशाल वाहिनीमें राजा दुर्योधनने प्रवेश किया || २४३ ।। 

स संनिपातस्तुमुलस्तेषां तस्य च भारत ॥। २५ ।। 

अभवत्‌ सर्वभूतानामभावकरणो महान्‌ | 

भारत! पाण्डव-सैनिकों तथा दुर्योधनका वह भयंकर संग्राम समस्त प्राणियोंके लिये 
महान्‌ संहारकारी सिद्ध हुआ || २५६ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 
तथा यातेषु सैन्येषु तथा कृच्छूगत: स्वयम्‌ ।। २६ ।। 
कच्चिद्‌ दुर्योधन: सूत नाकार्षीत्‌ पृष्ठतो रणम्‌ । 


धृतराष्ट्रने पूछा--सूत! जब इस प्रकार सारी सेनाएँ भाग रही थीं, उस समय स्वयं भी 
वैसे संकटमें पड़े हुए दुर्योधनने क्या उस युद्धमें पीठ नहीं दिखायी? ।। २६६ ।। 

एकस्य च बहूनां च संनिपातों महाहवे ।। २७ ।। 

विशेषतो नरपतेर्विषम: प्रतिभाति मे | 

उस महासमरमें बहुत-से योद्धाओंके साथ किसी एक वीरका विशेषतः राजा 
दुर्योधनका युद्ध करना तो मुझे विषम (अयोग्य) प्रतीत हो रहा है | २७६ ।। 

सो>त्यन्तसुखसंवृद्धो लक्ष्म्या लोकस्य चेश्वर: ।॥ २८ ।। 

एको बहून्‌ समासाद्य कच्चिन्नासीतू पराड्मुख: । 

अत्यन्त सुखमें पला हुआ, इस लोक तथा राजलक्ष्मीका स्वामी अकेला दुर्योधन 
बहुसंख्यक योद्धाओंके साथ युद्ध करके रणभूमिसे विमुख तो नहीं हुआ? ।। 

संजय उवाच 

राजन संग्राममाश्चर्य तव पुत्रस्य भारत ।। २९ |। 

एकस्य बहुभि: सार्ध शृणुष्व गदतो मम । 

संजयने कहा--भरतवंशी नरेश! आपके एकमात्र पुत्र दुर्योधनका शत्रुपक्षके 
बहुसंख्यक योद्धाओंके साथ जो आश्चर्यजनक संग्राम हुआ था, उसे मैं बताता हूँ, 


सुनिये || २९३ ।। 
दुर्योधनेन समरे पृतना पाण्डवी रणे ।। ३० ।। 
नलिनी द्विरदेनेव समन्तात्‌ प्रतिलोडिता । 


दुर्योधनने समरांगणमें पाण्डव-सेनाको सब ओरसे उसी प्रकार मथ डाला, जैसे हाथी 
कमलोंसे भरे हुए किसी पोखरेको || ३० ई ।। 

ततस्तां प्रहितां सेनां दृष्टवा पुत्रेण ते नृप ।। ३१ ।। 

भीमसेनपुरोगास्तं पञ्चाला: समुपाद्रवन्‌ | 

नरेश्वरर आपके पुत्रद्वारा आपकी सेनाको आगे बढ़नेके लिये प्रेरित हुई देख 
भीमसेनको अगुआ बनाकर पांचालयोद्धाओंने दुर्योधनपर आक्रमण कर दिया ।। ३१३ ।। 

स भीमसेनं दशभि: शरैरविव्याध पाण्डवम्‌ ।। ३२ || 

त्रिभिस्त्रिभिर्यमौ वीरौ धर्मराजं च सप्तभि: । 

तब दुर्योधनने पाण्डुपुत्र भीमसेनको दस बाणोंसे, वीर नकुल और सहदेवको तीन-तीन 
बाणोंसे तथा धर्मराज युधिष्ठिरको सात बाणोंसे घायल कर दिया ।। ३२३ ।। 

विराटद्रुपदौ षड़भि: शतेन च शिखण्डिनम्‌ ।। ३३ ।। 

धृष्टद्युम्नं च विंशत्या द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभि: । 


तत्पश्चात्‌ उसने राजा विराट और ट्रपदको छः:-छः बाणोंसे बींध डाला, फिर 
शिखण्डीको सौ, धृष्टद्यम्मनको बीस और द्रौपदीपुत्रोंकी तीन-तीन बाणोंसे घायल 
किया || ३३६ || 

शतशकश्षापरान्‌ योधान्‌ सद्दिपांश्व रथान्‌ रणे ।। ३४ ।। 

शरैरवचकर्तोंग्रै: क्रुद्धो 5न्तक इव प्रजा: । 

तदनन्तर उस रफक्षेत्रमें उसने अपने भयंकर बाणोंद्वारा दूसरे-दूसरे सैकड़ों योद्धाओं, 
हाथियों और रथोंको उसी प्रकार काट डाला, जैसे क्रोधमें भरा हुआ यमराज समस्त 
प्राणियोंका विनाश करता है ।। ३४ ६ ।। 

न संदधन्‌ विमुज्चन्‌ वा मण्डलीकृतकार्मुक: ।। ३५ ।। 

अदृश्यत रिपून्‌ निष्नन्‌ शिक्षयास्त्रबलेन च । 

दुर्योधनने अपने धनुषको खींचकर मण्डलाकार बना दिया था। वह अपनी शिक्षा और 
अस्त्र-बलसे इतनी शीघ्रताके साथ बाणोंको धनुषपर रखता, चलाता तथा शत्रुओंका वध 
करता था कि कोई उसके इस कार्यको देख नहीं पाता था || ३५६ ।। 

तस्य तान्‌ निध्नतः शत्रून्‌ हेमपृष्ठ महद्‌ धनु: ।। ३६ ।। 

अजसंरं मण्डलीभूतं ददृशु: समरे जना: । 

शत्रुओंके संहारमें लगे हुए दुर्योधनके सुवर्णमय पृष्ठवाले विशाल धनुषको सब लोग 
समरांगणमें सदा मण्डलाकार हुआ ही देखते थे || ३६३ ।। 

ततो युधिष्िरो राजा भल्लाभ्यामच्छिनद्‌ धनु: | ३७ ।। 

तव पुत्रस्य कौरव्य यतमानस्य संयुगे । 

कुरुनन्दन! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने दो भलल मारकर युद्धमें विजयके लिये प्रयत्न 
करनेवाले आपके पुत्रके धनुषको काट दिया || ३७३ ।। 

विव्याध चैनं दशभि: सम्यगस्तै: शरोत्तमै: ।। ३८ ।। 

वर्म चाशु समासाद्य ते भित्त्वा क्षितिमाविशन्‌ | 

और उसे विधिपूर्वक चलाये हुए उत्तम दस बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी। वे बाण 
तुरंत ही उसके कवचमें जा लगे और उसे छेदकर धरतीमें समा गये ।। 

ततः प्रमुदिता: पार्था: परिवत्रुर्युधिष्ठिरम्‌ ।। ३९ ।। 

यथा वृत्रवधे देवा: पुरा शक्रं महर्षय: । 

इससे कुन्तीकुमारोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे पूर्वकालमें वृत्रासुरका वध होनेपर 
सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियोंने इन्द्रको सब ओरसे घेर लिया था, उसी प्रकार पाण्डव भी 
युधिष्ठिरको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ।। 

ततोअन्यद्‌ धनुरादाय तव पुत्र: प्रतापवान्‌ । ४० ।। 

तिष्ठ तिछेति राजानं ब्रुवन्‌ पाण्डवमभ्ययात्‌ । 


तत्पश्चात्‌ आपके प्रतापी पुत्रने दूसरा धनुष लेकर “खड़ा रह, खड़ा रह” ऐसा कहते हुए 
वहाँ पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरपर आक्रमण किया ।। ४० ३ ।। 

तमायान्तमभिप्रेक्ष्य तव पुत्र महामृथे ।। ४१ ।। 

प्रत्युद्ययु: समुदिता: पठचाला जयगद्धिन: । 

उस महासमरमें आपके पुत्रको आते देख विजयकी अभिलाषा रखनेवाले पांचाल 
सैनिक संघबद्ध हो उसका सामना करनेके लिये आगे बढ़े ।। ४१३ ।। 

तान्‌ द्रोण: प्रतिजग्राह परीप्सन्‌ युधि पाण्डवम्‌ ।। ४२ ।। 

चण्डवातोद्धुतान्‌ मेघान्‌ गिरिरम्बुमुचो यथा । 

उस समय युद्धमें युधिष्ठिरको पकड़नेकी इच्छावाले द्रोणाचार्यने उन सब योद्धाओंको 
उसी प्रकार रोक दिया, जैसे प्रचण्ड वायुद्वारा उड़ाये गये जलवर्षी मेघोंको पर्वत रोक देता 
है || ४२६ || 

तत्र राजन्‌ महानासीत्‌ संग्रामो लोमहर्षण: ।। ४३ ।। 

पाण्डवानां महाबाहो तावकानां च संयुगे । 

रुद्रस्याक्रीडसदृश: संहार: सर्वदेहिनाम्‌ ।। ४४ ।। 

राजन! महाबाहो! फिर तो वहाँ युद्धस्थलमें पाण्डवों तथा आपके सैनिकोंमें महान्‌ 
रोमांचकारी संग्राम होने लगा। जो रुद्रकी क्रीडाभूमि (श्मशानके सदृश) सम्पूर्ण 
देहधारियोंके लिये संहारका स्थान बन गया था ।। ४३-४४ ।। 

तत: शब्दो महानासीत्‌ पुनर्येन धनंजय: । 

अतीव सर्वशब्देभ्यो लोमहर्षकर: प्रभो || ४५ ।। 

प्रभो! तदनन्तर जिधर अर्जुन गये थे, उसी ओर बड़े जोरका कोलाहल होने लगा, जो 
सम्पूर्ण शब्दोंसे ऊपर उठकर सुननेवालोंके रोंगटे खड़े किये देता था ।। 

अर्जुनस्य महाबाहो तावकानां च धन्विनाम्‌ | 

मध्ये भारतसैन्यस्य माधवस्य महारणे ।। ४६ ।। 

महाबाहो! उस महासमरमें कौरवी सेनाके भीतर आपके धनुर्धरोंकी तथा अर्जुन और 
सात्यकिकी भीषण गर्जना सुनायी देती थी ।। ४६ ।। 

द्रोणस्यापि परै: सार्ध व्यूहद्वारे महारणे । 

एवमेष क्षयो वृत्त: पृथिव्यां पृथिवीपते | 

क्रुद्धेडर्जुने तथा द्रोणे सात्वते च महारथे ।। ४७ ।। 

पृथ्वीपते! उस महायुद्धमें व्यूहके द्वारपर शत्रुओंके साथ जूझते हुए द्रोणाचार्यका भी 
सिंहनाद प्रकट हो रहा था। इस प्रकार अर्जुन, द्रोणाचार्य तथा महारथी सात्यकिके कुपित 
होनेपर युद्धभूमिमें यह भयंकर विनाशका कार्य सम्पन्न हुआ ।। ४७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रवेशे संकुलयुद्धे 
चतुर्विशत्यधिकशततमो<थध्याय: ।। १२४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका प्रवेश और दोनों 
सेनाओंका घमासान युद्धविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १२४ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४९ श्लोक हैं।) 


ऑपन-माज छा अऑफि-आकऋाल-ण 


पजञ्चविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


द्रोणाचार्यके द्वारा बृहत्क्षत्र, धृष्टकेतु, जरासन्धपुत्र सहदेव 
तथा धृष्टद्युम्नकुमार क्षत्रधर्माका वध और चेकितानकी 
पराजय 


संजय उवाच 

अपराह्ने महाराज संग्राम: सुमहान भूत्‌ । 

पर्जन्यसमनिर्घोष: पुनद्रोणस्य सोमकै: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! अपराह्नकालमें सोमकोंके साथ द्रोणाचार्यका पुनः महान्‌ 
संग्राम छिड़ गया, जिसमें मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर सिंहनाद हो रहा था ।। १ ।। 

शोणाश्वृं रथमास्थाय नरवीर: समाहित: । 

समरे< भ्यद्रवत्‌ पाण्डूनू जवमास्थाय मध्यमम्‌ ।। २ ।। 

नरखवीर द्रोण लाल घोड़ोंवाले रथपर आरूढ़ हो चित्तको एकाग्र करके मध्यम वेगका 
आश्रय ले समरभूमिमें पाण्डवोंपर टूट पड़े ।। २ ।। 

तव प्रियहिते युक्तो महेष्वासो महाबल: । 

चित्रपुड्खै: शितैर्बाणै: कलशोत्तमसम्भव: ।। ३ |। 

(जघान सोमकान्‌ राजन्‌ सृ०जयान्‌ केकयानपि ।) 

राजन! आपके प्रिय और हित-साधनमें लगे हुए महाधनुर्धर महाबली उत्तम 
कलशजन्मा द्रोणाचार्यने अपने विचित्र पंखोंवाले पैने बाणोंद्वारा सोमकों, सूंजयों तथा 
केकयोंका संहार आरम्भ किया ।। ३ ।। 

वरान्‌ वरान्‌ हि योधानां विचिन्वन्निव भारत । 

आक्रीडत रणे राजन्‌ भारद्वाज: प्रतापवान्‌ ॥। ४ ।। 

भरतवंशी नरेश! प्रतापी द्रोणाचार्य मानो उस युद्धस्थलमें प्रधान-प्रधान योद्धाओंको 
चुन रहे हों, इस प्रकार उनके साथ खेल-सा कर रहे थे ।। ४ ।। 

तमभ्ययाद्‌ बृहत्क्षत्र: केकयानां महारथ: । 

भ्रातृणां नूप पज्चानां श्रेष्ठ समरकर्कश: ।। ५ ।। 

नरेश्वर! उस समय रणकर्कश केकय महारथी वृहत्क्षत्र, जो अपने पाँचों भाइयोंमें सबसे 
बड़े थे, द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये आगे बढ़े ।। ५ ।। 

विमुज्चन्‌ विशिखांस्ती क्षणनाचार्य भृशमार्दयत्‌ | 

महामेघो यथा वर्ष विमुञ्चन्‌ गन्धमादने || ६ ।। 


उन्होंने गन्धमादन पर्वतपर पानी बरसानेवाले महामेघके समान पैने बाणोंकी वर्षा 
करके आचार्य द्रोणको अत्यन्त पीड़ित कर दिया ।। ६ ।। 

तस्य द्रोणो महाराज स्वर्णपुड्खान्‌ शिलाशितान्‌ । 

प्रेषयामास संक़्रुद्ध: सायकान्‌ दश पठ्च च ॥। ७ ।। 

महाराज! तब द्रोणने अत्यन्त कुपित हो सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सोनेके 
पंखवाले पंद्रह बाणोंका बृहत्क्षत्रपर प्रहार किया ।। ७ ।। 

तांस्तु द्रोणविनिर्मुक्तान्‌ क्रुद्धाशीविषसंनिभान्‌ | 

एकैकं पज्चभिर्बाणैर्युधि चिच्छेद हृष्टवत्‌ ।। ८ ।। 

द्रोणाचार्यके छोड़े हुए रोषभरे विषधर सर्पोंके समान उन भयंकर बाणोंमेंसे प्रत्येकको 
बृहत्क्षत्रने युद्धमें पाँच-पाँच बाण मारकर प्रसन्नतापूर्वक काट डाला ।। ८ ।। 

तदस्य लाघवं दृष्टवा प्रहस्य द्विजपुड्रव: । 

प्रेषयामास विशिखानष्टौ संनतपर्वण: ।। ९ ।। 

उनकी इस फुर्तीको देखकर विप्रवर द्रोणने हँसते हुए झुकी हुई गाँठवाले आठ बाणोंका 
प्रहार किया ।। ९ ।। 

तान्‌ दृष्टवा पततस्तूर्ण द्रोणचापच्युतान्‌ शरान्‌ । 

अवारयच्छरैरेव तावद्धिनिशितैमचे ॥। १० ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए उन बाणोंको शीघ्र ही अपने ऊपर आते देख वृहत्क्षत्रने 
उतने ही तीखे बाणोंद्वारा उन्हें युद्धस्थलमें काट गिराया ।। १० ।। 

ततो5भवन्महाराज तव सैन्यस्य विस्मय: । 

बृहत्क्षत्रेण तत्‌ कर्म कृत॑ दृष्टवा सुदुष्करम्‌ ।। ११ ।। 

ततो दोणो महाराज बृहत्क्षत्रं विशेषयन्‌ । 

प्रादुश्चक्रे रणे दिव्यं ब्राह्ममस्त्रं सुदुर्जयम्‌ ।। १२ ।। 

महाराज! इससे आपकी सेनाको बड़ा आश्चर्य हुआ। बृहत्क्षत्रद्वारा किये हुए उस 
अत्यन्त दुष्कर कर्मको देखकर उनकी अपेक्षा अपनी विशेषता प्रकट करते हुए द्रोणाचार्यने 
रणक्षेत्रमें परम दुर्जय दिव्य ब्रह्मास्त्र प्रकट किया || ११-१२ ।। 

कैकेयो<स्त्रं समालोक्य मुक्त द्रोणेन संयुगे । 

ब्रह्मास्त्रेणैव राजेन्द्र ब्राह्ममस्त्रमशातयत्‌ ।। १३ ।। 

राजेन्द्र! युद्धभूमिमें द्रोणाचार्यके द्वारा चलाये हुए ब्रह्मास्त्रको देखकर केकयनरेशने 
ब्रह्मास्त्रद्वारा ही उसे शान्त कर दिया ।। १३ ।। 

ततोओस्‍्त्रे निहते ब्राह्मे बृहत्क्षत्रस्तु भारत । 

विव्याध ब्राह्माणं षष्ट्या स्वर्णपुड्खै: शिलाशितै: ।। १४ ।। 

भरतनन्दन! ब्रह्मास्त्रका निवारण हो जानेपर बृहत्क्षत्रने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए 
सोनेके पंखोंसे युक्त साठ बाणोंद्वारा ब्राह्मण द्रोणाचार्यको वेध दिया ।। 


त॑ द्रोणो द्विपदां श्रेष्ठो नाराचेन समार्पयत्‌ । 

स तस्य कवचं भिन्त्वा प्राविशद्‌ धरणीतलम्‌ ।। १५ ।। 

तब मनुष्योंमें श्रेष्ठ द्रोणने उनपर नाराच चलाया। वह नाराच बृहत्क्षत्रका कवच विदीर्ण 
करके धरतीमें समा गया ।। १५ ।। 

कृष्णसर्पो यथा मुक्तो वल्मीकं नृपसत्तम । 

तथात्यगान्महीं बाणो भित्त्वा कैकेयमाहवे ।। १६ ।। 

नृपश्रेष्ट जैसे काला साँप बाँबीमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके धनुषसे 
छूटा हुआ वह बाण युद्धस्थलमें केकयराजकुमार बृहत्क्षत्रको विदीर्ण करके पृथ्वीमें घुस 
गया ।। १६ |। 

सो5तिविद्धों महाराज कैकेयो द्रोणसायकै: । 

क्रोधेन महता5<विष्टो व्यावृत्य नयने शुभे ।। १७ ।। 

महाराज! द्रोणाचार्यके बाणोंसे अत्यन्त घायल हो जानेपर केकयराजकुमारको बड़ा 
क्रोध हुआ। वे अपनी दोनों सुन्दर आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे ।। १७ ।। 

द्रोणं विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुड्खै: शिलाशितै: । 

सारथिं चास्य बाणेन भृशं मर्मस्वताडयत्‌ ।। १८ ।। 

उन्होंने सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्ण-पंखयुक्त सत्तर बाणोंसे द्रोणाचार्यको 
बींध डाला और एक बाणद्धारा उनके सारथिके मर्मस्थानोंमें गहरी चोट पहुँचायी ।। १८ ।। 

द्रोणस्तु बहुभिवविद्धों बृहत्क्षत्रेण मारिष । 

असृजद्‌ विशिखांस्तीक्ष्णान्‌ कैकेयस्य रथं प्रति ।। १९ ।। 

माननीय नरेश! जब बृहत्क्षत्रने बहुसंख्यक बाणोंसे द्रोणाचार्यको क्षत-विक्षत कर 
दिया, तब उन्होंने केकयनरेशके रथपर तीखे सायकोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। १९ ।। 

व्याकुलीकृत्य त॑ द्रोणो बृहत्क्षत्र महारथम्‌ | 

अश्रांश्षतुर्भिन्यवधीच्चतुरो5स्य पतत्त्रिभि: ।। २० ।। 

द्रोणाचार्यने महारथी बृहत्क्षत्रको व्याकुल करके अपने चार बाणोंद्वारा उनके चारों 
घोड़ोंको मार डाला ।। 

सूतं चैकेन बाणेन रथनीडादपातयत्‌ । 

द्वाभ्यां ध्वजं च च्छत्र॑ च च्छित्वा भूमावपातयत्‌ ।। २१ ।। 

फिर एक बाणसे मारकर सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया और दो बाणोंसे 
उनके ध्वज और छत्रको भी पृथ्वीपर काट गिराया ।। २१ ।। 

ततः साधुविसूृष्टेन नाराचेन द्विजर्षभ: । 

हृद्यविध्यद्‌ बृहत्क्षत्रं स च्छिन्नहृदयो5पतत्‌ ।। २२ ।। 

तदनन्तर अच्छी तरह चलाये हुए नाराचसे द्विजश्रेष्ठ द्रोणने बृहत्क्षत्रकी छाती छेद 
डाली। वक्ष:स्थल विदीर्ण होनेके कारण बृहत्क्षत्र धरतीपर गिर पड़े || २२ ।। 


बृहत्क्षत्रे हते राजन्‌ केकयानां महारथे । 

शैशुपालिरभिक्रुद्धों यन्तारमिदमब्रवीत्‌ ।। २३ ।। 

राजन! केकय महारथी बृहत्क्षत्रके मारे जानेपर शिशुपालपुत्र धृष्टकेतुने अत्यन्त कुपित 
हो अपने सारथिसे इस प्रकार कहा-- ।। २३ ।। 

सारथे याहि यत्रैष द्रोणस्तिष्ठति देशित: । 

विनिघ्नन्‌ केकयान्‌ सर्वान्‌ पज्चालानां च वाहिनीम्‌ ।। २४ ।। 

'सारथे! जहाँ ये द्रोणाचार्य कवच धारण किये खड़े हैं और समस्त केकयों तथा 
पांचाल-सेनाका संहार कर रहे हैं, वहीं चलो" || २४ ।। 

तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा सारथी रथिनां वरम्‌ । 

द्रोणाय प्रापयामास काम्बोजैर्जवनै्हयै: ।। २५ ।। 

उनकी वह बात सुनकर सारथिने काम्बोजदेशीय (काबुली) वेगशाली घोड़ोंद्वारा 
रथियोंमें श्रेष्ठ धृष्टकेतुको द्रोणाचार्यके निकट पहुँचा दिया | २५ ।। 

धष्टकेतुश्न चेदीनामृूष भोडतिबलोदित: । 

वधायाभ्यद्रवद्‌ द्रोणं पतड़ इव पावकम्‌ ॥। २६ ।। 

अत्यन्त बलसम्पन्न चेदिराज धुृष्टकेतु द्रोणाचार्यका वध करनेके लिये उनकी ओर उसी 
प्रकार दौड़ा, जैसे फतिंगा आगपर टूट पड़ता है || २६ ।। 

सो<विध्यत तदा द्रोणं षष्ट्या साश्चरथध्वजम्‌ | 

पुनश्चान्यै: शरैस्ती&णै: सुप्तं व्याप्र॑ तुदल्निव । २७ ।। 

उसने घोड़े, रथ और ध्वजसहित द्रोणाचार्यको उस समय साठ बाणोंसे वेध दिया। फिर 
सोते हुए शेरको पीड़ित करते हुए-से उसने अन्य तीखे बाणोंद्वारा भी आचार्यको घायल कर 
दिया ।। २७ |।। 

तस्य द्रोणो धरनुर्मध्ये क्षुपप्रेण शितेन च । 

चकर्त गार्ध्रपत्रेण यतमानस्य शुष्मिण: ।। २८ ।। 

तब द्रोणाचार्यने गीधकी पाँखवाले तीखे क्षुरप्रद्धारा विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले 
बलवान धृष्टकेतुके धनुषको बीचसे ही काट दिया ।। २८ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय शैशुपालिमीहारथ: । 

विव्याध सायकैद्रोणं कड़कबर्हिणवाजितै: ।। २९ |। 

यह देख महारथी शिशुपालकुमारने दूसरा धनुष हाथमें लेकर कंक और मोरकी 
पाँखोंसे युक्त बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यकोी घायल कर दिया ।। २९ |। 

तस्य द्रोणो हयान्‌ हत्वा चतुर्भिश्चतुर: शरै: । 

सारथेश्ष॒ शिर: कायाच्चकर्त प्रहसन्निव ।। ३० ।। 

द्रोणाचार्यने चार बाणोंसे धृष्टकेतुके चारों घोड़ोंको मारकर उनके सारथिके भी 
मस्तकको हँसते हुए-से काटकर धड़से अलग कर दिया ।। ३० ।। 


अथैनं पज्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्‌ । 

अवप्लुत्य रथाच्चैद्यो गदामादाय सत्वर: || ३१ ।। 

भारद्वाजाय चिक्षेप रुषितामिव पन्नगीम्‌ | 

तत्पश्चात्‌ उन्होंने धृष्टकेतुको पचीस बाण मारे। उस समय धृष्टकेतुने शीघ्रतापूर्वक रथसे 
कूदकर गदा हाथमें ले ली और रोषमें भरी हुई सर्पिणीके समान उसे द्रोणाचार्यपर दे 
मारा || ३१३ || 

तामापतन्तीमालोक्य कालरात्रिमिवोद्यताम्‌ ।। ३२ || 

अश्मसारमरयी गुर्वी तपनीयविभूषिताम्‌ । 

शरैरनेकसाहसैर्भारद्वाजो5च्छिनच्छितै: ।। ३३ ।। 

वह गदा लोहेकी बनी हुई और भारी थी। उसमें सोने जड़े हुए थे, उसे उठी हुई 
कालरात्रिके समान अपने ऊपर गिरती देख द्रोणाचार्यने कई हजार पैने बाणोंसे उसके 
टुकड़े-टकड़े कर दिये || ३२-३३ ।। 

सा छिज्ना बहुभिर्बाणैभरिद्वाजेन मारिष | 

गदा पपात कौरव्य नादयन्ती धरातलम्‌ || ३४ ।। 

माननीय कौरवनरेश! द्रोणाचार्यद्वारा अनेक बाणोंसे छिन्न-भिन्न की हुई वह गदा 
भूतलको निनादित करती हुई धमसे गिर पड़ी ।। ३४ ।। 

गदां विनिहतां दृष्टवा धृष्टकेतुरमर्षण: । 

तोमरं व्यसृजद्‌ वीर: शक्ति च कनकोज्ज्वलाम्‌ ॥। ३५ || 

अपनी गदाको नष्ट हुई देख अमर्षमें भरे हुए वीर धृष्टकेतुने द्रोणाचार्यपर तोमर तथा 
स्वर्णभूषित तेजस्विनी शक्तिका प्रहार किया || ३५ ।। 

तोमरं पज्चभिर्भित्त्वा शक्ति चिच्छेद पठचभि: । 

तौ जम्मतुर्महीं छिन्नौ सर्पाविव गरुत्मता ।। ३६ ।। 

द्रोणाचार्यने तोमरको पाँच बाणोंसे छिन्न-भिन्न करके पाँच बाणोंद्वारा धृष्टकेतुकी 
शक्तिके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। वे दोनों अस्त्र गरुड़के द्वारा खण्डित किये हुए दो 
सर्पोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ३६ ।। 

ततो<स्य विशिखं तीक्ष्णं वधाय वधकाड्क्षिण: । 

प्रेषयामास समरे भारद्वाज: प्रतापवान्‌ ॥। ३७ ।। 

तत्पश्चात्‌ अपने वधकी इच्छा रखनेवाले धृष्टकेतुके वधके लिये प्रतापी द्रोणाचार्यने 
समरभूमिमें उसके ऊपर एक बाणका प्रहार किया ।। ३७ ।। 

स तस्य कवचं भित्त्वा हृदयं चामितौजस: । 

अभ्यगाद्‌ धरणीं बाणो हंस: पद्मवनं यथा ॥। ३८ ।। 

जैसे हंस कमलवनमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह बाण अमित तेजस्वी धृष्टकेतुके 
कवच और वक्ष:स्थलको विदीर्ण करके धरतीमें समा गया ।। ३८ ।। 


पतद्ं हि ग्रसेच्चाषो यथा क्षुद्रं बुभुक्षित: । 

तथा द्रोणो5ग्रसच्छूरो धृष्टकेतुं महाहवे ।। ३९ ।। 

जैसे भूखा हुआ नीलकण्ठ छोटे फतिंगेकी खा जाता है, उसी प्रकार शूरवीर 
द्रोणाचार्यने उस महासमरमें धृष्टकेतुको अपने बाणोंका ग्रास बना लिया ।। ३९ |। 

निहते चेदिराजे तु तत्‌ खण्डं पित्रयमाविशत्‌ । 

अमर्षवशमापन्न: पुत्रो5स्य परमास्त्रवित्‌ || ४० ।। 

चेदिराजके मारे जानेपर उत्तम अस्त्रोंका ज्ञाता उसका पुत्र अमर्षके वशीभूत हो पिताके 
स्थानपर आकर डट गया ।। ४० ।। 

तमपि प्रहसन्‌ द्रोण: शरैर्निन्ये यमक्षयम्‌ । 

महाव्यात्रो महारण्ये मृगशावं यथा बली ।। ४१ ।। 

परंतु हँसते हुए द्रोणाचार्यने उसे भी अपने बाणोंद्वारा उसी प्रकार यमलोक पहुँचा 
दिया, जैसे बलवान्‌ महाव्यात्र विशाल वनमें किसी हिरनके बच्चेको दबोच लेता 
है || ४१ || 

तेषु प्रक्षीयमाणेषु पाण्डवेयेषु भारत । 

जरासंधसुतो वीर: स्वयं द्रोणमुपाद्रवत्‌ || ४२ ।। 

भरतनन्दन! उन पाण्डवयोद्धाओंके इस प्रकार नष्ट होनेपर जरासंधके वीर पुत्र 
सहदेवने स्वयं ही द्रोणाचार्यपर धावा किया ।। ४२ ।। 

सतु द्रोणं महाबाहु: शरधाराभिराहवे । 

अदृश्यमकरोत्‌ तूर्ण जलदो भास्करं यथा ।। ४३ ।। 

जैसे बादल आकाशमें सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार महाबाहु सहदेवने युद्धस्थलमें 
अपने बाणोंकी धाराओंसे द्रोणाचार्यको तुरंत ही अदृश्य कर दिया ।। ४३ ।। 

तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा द्रोण: क्षत्रियमर्दन: । 

व्यसृजत्‌ सायकांस्तूर्ण शतशो5थ सहस्रश: ।। ४४ ।। 

उसकी वह फुर्ती देखकर क्षत्रियोंका संहार करनेवाले द्रोणाचार्यने शीघ्र ही उसपर 
सैकड़ों और सहस्रों बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ४४ ।। 

छादयित्वा रणे द्रोणो रथस्थं रथिनां वरम्‌ । 

जारासंधिं जघानाशु मिषतां सर्वधन्विनाम्‌ ।। ४५ ।। 

इस प्रकार रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यने सम्पूर्ण धनुर्धरोंक देखत-देखते रथपर बैठे हुए 
रथियोंमें श्रेष्ठ जरासंधकुमारको अपने बाणोंद्वारा आच्छादित करके उसे शीघ्र ही कालके 
गालमें डाल दिया ।। ४५ ।। 

यो यः सम नीयते तत्र तं द्रोणो हान्तकोपम: । 

आदत्त सर्वभूतानि प्राप्ते काले यथान्तक: ।। ४६ ।। 


जैसे काल आनेपर यमराज समस्त प्राणियोंको ग्रस लेता है, उसी प्रकार कालके समान 
द्रोणाचार्यने जो-जो वीर उनके सामने पहुँचा, उसे-उसे मौतके हवाले कर दिया ।। ४६ ।। 

ततो द्रोणो महाराज नाम विश्राव्य संयुगे । 

शरैरनेकसाहसी: पाण्डवेयान्‌ समावृणोत्‌ ।। ४७ ।। 

महाराज! तदनन्तर द्रोणाचार्यने युद्धस्थलमें अपना नाम सुनाकर अनेक सहस्र 
बाणोंद्वारा पाण्डव-सैनिकोंको ढक दिया ।। ४७ ।। 

ते तु नामाड़किता बाणा द्रोणेनास्ता: शिलाशिता: । 

नरान्‌ नागान्‌ हयांश्वैव निजघ्नु: शतशो मृधे ।। ४८ ।। 

द्रोणाचार्यके चलाये हुए वे बाण सानपर चढ़ाकर तेज किये गये थे। उनपर आचार्यके 
नाम खुदे हुए थे। उन्होंने समरभूमिमें सैकड़ों मनुष्यों, हाथियों और घोड़ोंका संहार कर 
डाला || ४८ || 

ते वध्यमाना द्रोणेन शक्रेणेव महासुरा: । 

समकम्पन्त पड्चाला गाव: शीतार्दिता इव ।। ४९ |। 

जैसे सर्दीसे पीड़ित हुई गौएँ थर-थर काँपती हैं और जैसे देवराज इन्द्रकी मार खाकर 
बड़े-बड़े असुर काँपने लगते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके बाणोंसे विद्ध होकर पांचालसैनिक 
काँप उठे ।। ४९ ।। 

ततो निष्ठानको घोर: पाण्डवानामजायत । 

द्रोणेन वध्यमानेघु सैन्येषु भरतर्षभ ।। ५० ।। 

भरतश्रेष्ठ! फिर तो द्रोणाचार्यके द्वारा मारी जाती हुई पाण्डवोंकी सेनाओंमें घोर 
आर्तनाद होने लगा ।। ५० ।। 

प्रताप्पमाना: सूर्येण हन्‍्यमाना श्व॒ सायकै: । 

अन्यपद्यन्त पञज्चालास्तदा संत्रस्तचेतस: ।। ५१ ।। 

भरतनन्दन! उस समय ऊपरसे तो सूर्य तपा रहे थे और रणभूमिमें द्रोणाचार्यके 
सायकोंकी मार पड़ रही थी। उस अवस्थामें पांचाल वीर मन-ही-मन अत्यन्त भयभीत एवं 
व्याकुल हो उठे ।। ५१ ।। 

मोहिता बाणजालेन भारद्वाजेन संयुगे । 

ऊरुग्राहगृहीतानां पजचलानां महारथा: ।। ५२ ।। 

उस युद्धस्थलमें भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यके बाण-समूहोंसे आहत हो पांचाल महारथी 
मूर्छित हो रहे थे। उनकी जाँघें अकड़ गयी थीं || ५२ ।। 

चेदयश्न महाराज सृजजया: काशिकोसला: । 

अभ्यद्रवन्त संह्ृष्टा भारद्वाजं युयुत्सया ।। ५३ ।। 

महाराज! उस समय चेदि, सृंजय, काशी और कोसल प्रदेशोंके सैनिक हर्ष और 
उत्साहमें भरकर युद्धकी अभिलाषासे द्रोणाचार्यपर टूट पड़े || ५३ ।। 


ब्रुवन्तश्न॒ रणेडन्योन्यं चेदिपडचालसूञ्जया: । 

घ्नत द्रोणं घ्नत द्रोणमिति ते द्रोणमभ्ययु: । ५४ ।। 

“'ट्रोणाचार्यको मार डालो, द्रोणाचार्यको मार डालो” परस्पर ऐसा कहते हुए चेदि, 
पांचाल और सूंजय वीरोंने द्रोणाचार्यपर धावा किया || ५४ ।। 

यतन्तः पुरुषव्याप्रा: सर्वशक्‍्त्या महाद्युतिम्‌ । 

निनीषवो रणे द्रोणं यमस्य सदन प्रति | ५५ ।। 

वे पुरुषसिंह वीर समरांगणमें महातेजस्वी आचार्य द्रोणको यमराजके घर भेज देनेकी 
इच्छासे अपनी सारी शक्ति लगाकर प्रयत्न करने लगे ।। ५५ ।। 

यतमानांस्तु तान्‌ वीरान्‌ भारद्वाज: शिलीमुखै: । 

यमाय प्रेषयामास चेदिमुख्यान्‌ विशेषत: ।। ५६ ।। 

इस प्रकार प्रयत्नमें लगे हुए उन वीरोंको विशेषतः चेदि देशके प्रमुख योद्धाओंको 
ट्रोणाचार्यने अपने बाणोंद्वारा यमलोक भेज दिया ।। ५६ ।। 

तेषु प्रक्षीयमाणेषु चेदिमुख्येषु सर्वश: । 

पज्चाला: समकम्पन्त द्रोणसायकपीडिता: ।। ५७ ।। 

चेदि देशके प्रधान वीर जब इस प्रकार नष्ट होने लगे, तब द्रोणाचार्यके बाणोंसे पीड़ित 
हुए पांचालयोद्धा थर-थर काँपने लगे || ५७ ।। 

प्राक्रोशन्‌ भीमसेन ते धृष्टद्युम्नं च भारत । 

दृष्टवा द्रोणस्य कर्माणि तथारूपाणि मारिष ।। ५८ ।। 

माननीय भरतनन्दन! वे द्रोणके वैसे पराक्रमको देखकर भीमसेन तथा धृष्टद्युम्नको 
पुकारने लगे ।। ५८ ।। 

ब्राह्मणेन तपो नूनं चरितं दुश्चरं महत्‌ । 

तथा हि युधि संक्रुद्धों दहति क्षत्रियर्षभान्‌ ॥। ५९ ।। 

और परस्पर कहने लगे--“इस ब्राह्मणने निश्चय ही कोई बड़ी भारी दुष्कर तपस्या की 
है, तभी तो यह युद्धमें अत्यन्त क़ुद्ध होकर श्रेष्ठ क्षत्रियोंको दग्ध कर रहा है ।। 

धर्मो युद्ध क्षत्रियस्य ब्राह्मणस्य परं॑ तप: । 

तपस्वी कृतविद्यश्ष प्रेक्षितेनापि निर्देहित्‌ ।। ६० ।। 

'युद्ध करना तो क्षत्रियका धर्म है। तप करना ही ब्राह्मणका उत्तम धर्म माना गया है। 
यह तपस्वी और अस्त्रविद्याका दिद्वान्‌ ब्राह्मण अपने दृष्टिपातमात्रसे दग्ध कर सकता 
है! | ६० ।। 

द्रोणाग्निमस्त्रसंस्पर्श प्रविष्टा: क्षत्रियर्षभा: । 

बहवो दुस्तरं घोरं यत्रादहुन्त भारत ।। ६१ ।। 

भारत! उस युद्धमें बहुत-से क्षत्रियशिरोमणि वीर अस्त्ररूपी दाहक स्पर्शवाले 
द्रोणाचार्यरूपी भयंकर एवं दुस्तर अग्निमें प्रविष्ट होकर भस्म हो गये ।। ६१ ।। 


यथाबलं यथोत्साहं यथासत्त्वं महाद्युति: | 

मोहयन्‌ सर्वभूतानि दोणो हन्ति बलानि नः ।। ६२ ।। 

पांचालसैनिक कहने लगे--“महातेजस्वी द्रोण अपने बल, उत्साह और धैर्यके अनुसार 
समस्त प्राणियोंको मोहित करते हुए हमारी सेनाओंका संहार कर रहे हैं! || ६२ ।। 

तेषां तद्‌ वचन श्रुत्वा क्षत्रधर्मा व्यवस्थित: । 

अर्धचन्द्रेण चिच्छेद क्षत्रधर्मा महाबल: ।। ६३ ।। 

क्रोधसंविग्नमनसो द्रोणस्य सशरं धनु: । 

उनकी यह बात सुनकर क्षत्रधर्मा युद्धके लिये द्रोणाचार्यके सामने आकर खड़ा हो 
गया। उस महाबली वीरने अर्धचन्द्राकार बाण मारकर क्रोधसे उद्विग्न मनवाले द्रोणाचार्यके 
धनुष और बाणको काट दिया ।। ६३ $ || 

स संरब्धतरो भूत्वा द्रोण: क्षत्रियमर्दन: ।। ६४ ।। 

अन्यत्‌ कार्मुकमादाय भास्वरं वेगवत्तरम्‌ । 

तत्राधाय शरं तीक्ष्णं परानीकविशातनम्‌ ।। ६५ ।। 

आकर्णपूर्णमाचार्यो बलवानभ्यवासृजत्‌ । 

स हत्वा क्षत्रधर्माणं जगाम धरणीतलम्‌ ।। ६६ ।। 

इससे क्षत्रियोंका मर्दन करनेवाले द्रोणाचार्य अत्यन्त कुपित हो उठे और अत्यन्त 
वेगशाली तथा प्रकाशमान दूसरा धनुष हाथमें लेकर उन्होंने एक तीखा बाण अपने धनुषपर 
रखा, जो शत्रुसेनाका विनाश करनेवाला था। बलवान्‌ आचार्यने कानतक धनुषको खींचकर 
उस बाणको छोड़ दिया। वह बाण क्षत्रधर्माका वध करके धरतीमें समा गया ।। ६४-- 
६६ || 

स भिन्नहृदयो वाहान्न्यपतन्मेदिनीतले । 

ततः सैन्यान्यकम्पन्त धृष्टद्युम्नसुते हते ।। ६७ ।। 

क्षत्रधर्मा हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। इस प्रकार 
धृष्टद्युम्नकुमारके मारे जानेपर सारी सेनाएँ भयसे काँपने लगीं ।। ६७ ।। 

अथ द्रोणं समारोहच्चेकितानो महाबल: । 

स द्रोणं दशभिर्विद्ध्वा प्रत्यविद्धयत्‌ स्तनान्तरे ।। ६८ ।। 

चतुर्भि: सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरों हयान्‌ | 

तदनन्तर महाबली चेकितानने द्रोणाचार्यपर चढ़ाई की। उन्होंने दस बाणोंसे द्रोणको 
घायल करके उनकी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी। साथ ही चार बाणोंसे उनके सारथिको 
और चार ही बाणोंद्वारा उनके चारों घोड़ोंको भी बींध डाला || ६८ इ ।। 

तमाचार्यस्त्रिभि्बाणैर्बाह्वोरुगसि चार्पयत्‌ ।। ६९ ।। 

ध्वजं सप्तभिरुन्मथ्य यन्तारमवधीत्‌ त्रिभि: । 


तब आचार्यने उनकी दोनों भुजाओं और छातीमें कुल तीन बाण मारे। फिर सात 
सायकोंद्वारा उनकी ध्वजाके टुकड़े-टुकड़े करके तीन बाणोंसे सारथिका वध कर 
दिया ।। ६९३ ।। 

तस्य सूते हते ते5श्वा रथमादाय विद्रुता: ।। ७० ।। 

समरे शरसंवीता भारद्वाजेन मारिष | 

चेकितानके सारथिके मारे जानेपर वे घोड़े उनका रथ लेकर भाग चले। आर्य! 
द्रोणाचार्यने समरांगणमें उनके शरीरोंको बाणोंसे भर दिया था || ७० ई ।। 

चेकितानरथं दृष्टवा हताश्च॑ं हतसारथिम्‌ ।। ७१ ।। 

तान्‌ समेतान्‌ रणे शूरांश्नेदिपणचालसृञ्जयान्‌ | 

समन्ताद्‌ द्रावयन्‌ द्रोणो बह्मशोभत मारिष || ७२ |। 

जिसके घोड़े और सारथि मार दिये गये थे, चेकितानके उस रथको देखकर तथा 
रणक्षेत्रमें एकत्र हुए चेदि, पांचाल तथा सूंजय वीरोंपर दृष्टिपात करके द्रोणाचार्यने उन 
सबको चारों ओर भगा दिया। आर्य! उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी || ७१-७२ ।। 

आकर्णपलित: श्यामो ववसाशीतिपञ्चक: । 

रणे पर्यचरद्‌ द्रोणो वृद्ध: षोडशवर्षवत्‌ ॥। ७३ ।। 

जिनके कानतकके बाल पक गये थे, शरीरकी कान्ति श्याम थी तथा जो पचासी (या 
चार सौ) वर्षोकी अवस्थाके बूढ़े थे, वे द्रोणाचार्य रणक्षेत्रमें सोलह वर्षके नवजवानकी भाँति 
विचर रहे थे ।। ७३ ।। 

अथ द्रोणं महाराज विचरन्तमभीतवत्‌ | 

वज्हस्तममन्यन्त शत्रव: शत्रुसूदनम्‌ | ७४ ।। 

महाराज! रणभूमिमें निर्भय-से विचरते हुए शत्रुसूदन द्रोणको शत्रुओंने वज्रधारी इन्द्र 
समझा ।। ७४ |। 

ततोडब्रवीन्महाबाहुर्द्रपदो बुद्धिमान्‌ नूप । 

लुब्धो<यं क्षत्रियान्‌ हन्ति व्याघ्र: क्षुद्रमृगानिव ।। ७५ ।। 

नरेश्वर! उस समय महाबाहु बुद्धिमान राजा ट्रपदने कहा--'जैसे बाघ छोटे मृगोंको 
मारता है, उसी प्रकार यह व्याध-तुल्य ब्राह्मण क्षत्रियोंका संहार कर रहा है | ७५ ।। 

कृच्छान्‌ दुर्योधनो लोकान्‌ पाप: प्राप्स्यति दुर्मति: । 

यस्य लोभाद्‌ विनिहता: समरे क्षत्रियर्षभा: ।। ७६ ।। 

'दुर्बुद्धि पापी दुर्योधन अत्यन्त कष्टप्रद लोकोंमें जायगा, जिसके लोभसे इस 
समरांगणमें बहुत-से क्षत्रियशिरोमणि वीर मारे गये हैं || ७६ ।। 

शतश: शेरते भूमौ निकृत्ता गोवृषा इव । 

रुधिरेण परीताड़्ा श्वशृूगालादनीकृता: || ७७ ।। 


'सैकड़ों योद्धा कटकर गाय-बैलोंके समान धरतीपर सो रहे हैं। इन सबके शरीर खूनसे 
लथपथ हो गये हैं और ये कुत्तों तथा सियारोंके भोजन बन गये हैं" || ७७ ।। 

एवमुक्त्वा महाराज द्रुपदो5क्षौहिणीपति: । 

पुरस्कृत्य रणे पार्थान्‌ द्रोणमभ्यद्रवद्‌ द्रतम्‌ ।। ७८ ।। 

महाराज! ऐसा कहकर एक अक्षौहिणी सेनाके स्वामी राजा ट्रुपदने रणक्षेत्रमें कुन्तीके 
पुत्रोंको आगे करके तुरंत ही द्रोणाचार्यपर धावा बोल दिया ।। ७८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणपराक्रमे 
पजञ्चविंशत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १२५ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोगपराक्रमाविषयक एक यौ 
पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका $ “लोक मिलाकर कुल ७८ ३ “लोक हैं।) 


शीस््नश्शा >> | भ्निध्र्राइध्य 


षड्विशरत्याधेकशततमो< ध्याय: 


युधिष्ठिरका चिन्तित होकर भीमसेनको अर्जुन और 
सात्यकिका पता लगानेके लिये भेजना 


संजय उवाच 

व्यूहेष्वालोड्यमानेषु पाण्डवानां ततस्तत: । 

सुदूरमन्वयु: पार्था: पजचाला: सह सोमकै: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जब द्रोणाचार्य पाण्डवोंके व्यूहोंको इस प्रकार जहाँ-तहाँसे 
रौंदने लगे, तब पार्थ, पांचाल तथा सोमक योद्धा उनसे बहुत दूर हट गये ।। १ ।। 

वर्तमाने तथा रीद्रे संग्रामे लोमहर्षणे । 

संक्षये जगतस्तीव्रे युगान्त इव भारत ।। २ ।। 

भरतनन्दन! वह रोमांचकारी भयंकर संग्राम प्रलयकालमें होनेवाले जगत्‌के भीषण 
संहार-सा उपस्थित हुआ था ।। २ ।। 

द्रोणे युधि पराक्रान्ते नर्दमाने मुहुर्मुहुः । 

पज्चालेघु च क्षीणेषु वध्यमानेषु पाण्डुषु || ३ ।। 

नापश्यच्छरणं किज्चिद्‌ धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

चिन्तयामास राजेन्द्र कथमेतद्‌ भविष्यति ।। ४ ।। 

जब द्रोणाचार्य युद्धमें पराक्रम प्रकट करके बारंबार गर्जना कर रहे थे, पांचाल वीरोंका 
विनाश हो रहा था और पाण्डव-सैनिक मारे जा रहे थे, उस समय धर्मराज युधिष्ठिरको कोई 
भी अपना आश्रय या रक्षक नहीं दिखायी दिया। राजेन्द्र! वे सोचने लगे कि यह कैसे 
होगा? ।। ३-४ ।। 

ततो वीक्ष्य दिश: सर्वा: सव्यसाचिदिदृक्षया । 

युधिष्ठिरों ददर्शाथ नैव पार्थ न माधवम्‌ ।। ५ ।। 

तदनन्तर युधिष्ठिरने सव्यसाची अर्जुनको देखनेकी इच्छासे सम्पूर्ण दिशाओंमें दृष्टि 
दौड़ायी; परंतु उन्हें कहीं भी अर्जुन और सात्यकि नहीं दिखायी दिये || ५ |। 

सो<5पश्यन्‌ नरशार्दूलं वानरर्षभलक्षणम्‌ | 

गाण्डीवस्य च निर्घोषमशृण्वन्‌ व्यथितेन्द्रिय: ।। ६ ।। 

वानरश्रेष्ठ हनुमानके चिह्से युक्त ध्वजवाले पुरुषसिंह अर्जुनको न देखकर और उनके 
गाण्डीवका गम्भीर घोष न सुनकर उनकी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं ।। ६ ।। 

अपश्यन्‌ सात्यकिं चापि वृष्णीनां प्रवरं रथम्‌ । 

चिन्तयाभिपरीताज्े धर्मराजो युधिषछ्िर: ।। ७ ।। 


वृष्णिवंशके प्रमुख महारथी सात्यकिको भी न देखनेके कारण धर्मराज युधिष्ठिरका 
एक-एक अंग चिन्ताकी आगसे संतप्त हो उठा ।। ७ ।। 

नाध्यगच्छत्‌ तदा शान्तिं तावपश्यन्‌ नरोत्तमौ | 

लोकोपक्रोशभीरुत्वाद्‌ धर्मराजो महामना: ।। ८ ।। 

महामनस्वी धर्मराज युधिष्ठटिर लोकनिन्दाके डरसे बहुत डरते थे। अतः नरश्रेष्ठ अर्जुन 
और सात्यकिको न देखनेसे उस समय उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली ।। 

अचिन्तयन्महाबाहु: शैनेयस्य रथं प्रति । 

पदवीं प्रेषितश्वैव फाल्गुनस्थ मया रणे ।। ९ ।। 

शैनेय: सात्यकि: सत्यो मित्राणामभयंकर: । 

तदिदं होकमेवासीद्‌ द्विधा जात॑ ममाद्य वै ।। १० ।। 

महाबाहु युधिष्ठिर सात्यकिके रथके विषयमें मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे 
--अहो! मैंने ही रणक्षेत्रमें मित्रोंको अभय देनेवाले सत्यवादी शिनिपौत्र सात्यकिको 
अर्जुनके मार्गपर जानेके लिये भेजा था। इसलिये यह मेरा हृदय जो पहले एकहीकी 
चिन्तामें निमग्न था, अब दो व्यक्तियोंके लिये चिन्तित होकर दो भागोंमें बँट गया 
है ।। ९-१० ।। 

सात्यकिश्न हि विज्ञेय: पाण्डवश्न धनंजय: । 

सात्यकिं प्रेषयित्वा तु पाण्डवस्य पदानुगम्‌ ।। ११ ।। 

सात्वतस्यापि कं युद्धे प्रेषयिष्ये पदानुगम्‌ । 

“इस समय सात्यकिका भी पता लगाना चाहिये और पाण्डुपुत्र अर्जुनका भी। मैंने 
पाण्डुपुत्र अर्जुनके पीछे तो सात्यकिको भेज दिया। अब सात्यकिके पीछे किसको 
युद्धभूमिमें भेजूँगा? ।। ११३ ।। 

करिष्यामि प्रयत्नेन भ्रातुरनन्‍्वेषणं यदि ।। १२ ।। 

युयुधानमनन्विष्य लोको मां गर्हयिष्यति । 

“यदि मैं युयुधानकी खोज न कराकर प्रयत्नपूर्वक केवल अपने भाई अर्जुनका ही 
अन्वेषण करूँगा तो संसार मेरी निन्‍्दा करेगा || १२६ ।। 

भ्रातुरन्वेषणं कृत्वा धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।। १३ ।। 

परित्यजति वार्ष्णेयं सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ । 

“सब लोग यही कहेंगे कि धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने भाईकी खोज करके वृष्णिवंशी वीर 
सत्यपराक्रमी सात्यकिकी उपेक्षा कर रहे हैं || १३३ ।। 

लोकापवादभीरुत्वात्‌ सो*हं पार्थ वृकोदरम्‌ ।। १४ ।। 

पदवीं प्रेषयिष्यामि माधवस्य महात्मन: । 

“मुझे लोकनिन्दासे बड़ा भय मालूम होता है। अतः कुन्तीनन्दन भीमसेनको मैं 
महामनस्वी सात्यकिका पता लगानेके लिये भेजूँगा || १४६ ।। 


यथैव च मम प्रीतिरर्जुने शत्रुसूदने ।। १५ ।। 

तथैव वृष्णिवीरे5पि सात्वते युद्धदुर्मदे । 

अतिभारे नियुक्तश्न मया शैनेयनन्दन: ।। १६ ।। 

'शत्रुसूदन अर्जुनपर जैसा मेरा प्रेम है, वैसा ही रणदुर्मद वृष्णिवंशी वीर सात्यकिपर भी 
है। मैंने शिनिवंशका आनन्द बढ़ानेवाले सात्यकिको महान्‌ कार्यभार सौंप रखा 
था ।। १५-१६ || 

स तु मित्रोपरोधेन गौरवात्तु महाबल: । 

प्रविष्टो भारतीं सेनां मकर: सागरं यथा ।। १७ ।। 

“उन महाबली सात्यकिने मित्रके अनुरोधसे और अपने लिये गौरवकी बात समझकर 
समुद्रमें मगरकी भाँति कौरवीसेनामें प्रवेश किया था ।। १७ ।। 

असौ हि श्रूयते शब्द: शूराणामनिवर्तिनाम्‌ । 

मिथ: संयुध्यमानानां वृष्णिवीरेण धीमता ।। १८ ।। 

“बुद्धिमान्‌ वृष्णिवंशी वीर सात्यकिके साथ परस्पर युद्ध करनेवाले उन शूरवीरोंका वह 
महान्‌ कोलाहल सुनायी पड़ता है, जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते हैं |। १८ ।। 

प्राप्तकालं सुबलवन्निश्चितं बहुधा हि मे । 

तत्रैव पाण्डवेयस्य भीमसेनस्य धन्विन: ।। १९ ।। 

गमनं रोचते महां यत्र यातौ महारथौ । 

“इस समय जो कर्तव्य प्राप्त है, उसपर मैंने अनेक प्रकारसे प्रबल विचार कर लिया है। 
जहाँ महारथी अर्जुन और सात्यकि गये हैं, वहीं धनुर्धर वीर पाण्डुनन्दन भीमसेनको भी 
जाना चाहिये--यही मुझे ठीक जँचता है ।। १९३ ।। 

न चाप्यसहां भीमस्य विद्यते भुवि किंचन ।। २० ।। 

शक्तो होष रणे यत्तः पृथिव्यां सर्वधन्विनाम्‌ । 

स्वबाहुबलमास्थाय प्रतिव्यूहितुमजजसा ।। २१ ।। 

“इस भूतलपर कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो भीमसेनके लिये असहा हो। ये अपने 
बाहुबलका आश्रय ले रणक्षेत्रमें प्रययनशील होकर भूमण्डलके समस्त धनुर्धरोंका अनायास 
ही सामना करनेमें समर्थ हैं || २०-२१ ।। 

यस्य बाहुबलं सर्वे समाश्रित्य महात्मन: । 

वनवासान्निवृत्ता: सम न च युद्धेषु निर्जिता: ।। २२ ।। 

“इस महामनस्वी वीरके बाहुबलका आश्रय लेकर हम सब भाई वनवाससे सकुशल 
लौटे हैं और युद्धोंमें कभी पराजित नहीं हुए हैं || २२ ।। 

इतो गते भीमसेने सात्वतं प्रति पाण्डवे । 

सनाथौ भवितारीौ हि युधि सात्वतफाल्गुनौ ।। २३ ।। 


'यहाँसे सात्यकिके पथपर पाण्डुपुत्र भीमसेनके जानेपर युद्धस्थलमें डटे हुए सात्यकि 
और अर्जुन सनाथ हो जायूँगे ।। २३ ।। 

काम त्वशोचनीयौ तौ रणे सात्वतफाल्गुनौ | 

रक्षितौ वासुदेवेन स्वयं शस्त्रविशारदौ ।। २४ ।। 

“निश्चय ही सात्यकि और अर्जुन रणक्षेत्रमें शोकके योग्य नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों स्वयं 
तो शस्त्रविद्यामें कुशल हैं ही, भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा भी पूर्णरूपसे सुरक्षित हैं | २४ ।। 

अवश्यं तु मया कार्यमात्मन: शोकनाशनम्‌ | 

तस्माद्‌ भीम॑ नियोक्ष्यामि सात्वतस्य पदानुगम्‌ ।। २५ ।। 

“तथापि मुझे अपने मानसिक दुःखको निवारण करनेके लिये ऐसी व्यवस्था अवश्य 
करनी चाहिये। इसलिये मैं भीमसेनको सात्यकिके मार्गका अनुगामी अवश्य 
बनाऊँगा ।। २५ || 

ततः प्रतिकृतं मन्ये विधान सात्यकिं प्रति । 

एवं निश्चित्य मनसा धर्मपुत्रो युधिषछ्िर: ।। २६ ।। 

यन्तारमब्रवीद्‌ राजा भीम॑ प्रति नयस्व माम्‌ । 

'ऐसा करके ही मैं समझूँगा कि मैंने सात्यकिके प्रति समुचित कर्तव्यका पालन किया 
है।' मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने अपने सारथिसे कहा--“मुझे 
भीमके पास ले चलो” || २६६ || 

धर्मराजवच: श्रुत्वा सारथि्हयकोविद: ।। २७ ।। 

रथं हेमपरिष्कारं भीमान्तिकमुपानयत्‌ । 

धर्मराजकी बात सुनकर अश्वसंचालनमें कुशल सारथिने उनके सुवर्णभूषित रथको 
भीमसेनके निकट पहुँचा दिया || २७३ ।। 

भीमसेनमनुप्राप्य प्राप्तकालमचिन्तयत्‌ ।। २८ ।। 

कश्मलं प्राविशद्‌ राजा बहु तत्र समादिशन्‌ | 

भीमसेनके पास पहुँचकर राजा युधिष्ठिर समयोचित कर्तव्यका चिन्तन करने लगे और 
वहाँ बहुत कुछ कहते हुए वे मूर्छित-से हो गये || २८ ई ।। 

स कश्मलसमाविष्टो भीममाहूय पार्थिव: ।। २९ ।। 

अब्रवीद्‌ वचन राजन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । 

राजन! इस प्रकार मोहाविष्ट हुए कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिरने भीमसेनको सम्बोधित 
करके इस प्रकार कहा-- ।। २९३ ।। 

यः सदेवान्‌ सगन्धर्वान्‌ दैत्यांश्ैकरथो5जयत्‌ ।। ३० ।। 

तस्य लक्ष्म न पश्यामि भीमसेनानुजस्य ते । 


'भीमसेन! जिन्होंने एकमात्र रथकी सहायतासे देवताओंसहित गन्धर्वों और दैत्योंपर 
भी विजय पायी थी, उन्हीं तुम्हारे छोटे भाई अर्जुनका आज मुझे कोई चिह्न नहीं दिखायी 
देता है” || ३० ३ ।। 

ततोअब्रवीद्‌ धर्मराजं भीमसेनस्तथागतम्‌ ।। ३१ ।। 

नेवाद्राक्षं न चाऔष॑ तव कश्मलमीदृशम्‌ । 

तब वैसी अवस्थामें पड़े हुए धर्मराज युधिष्ठिरसे भीमसेनने कहा--“राजन्‌! आपकी 
ऐसी घबराहट तो पहले मैंने न कभी देखी थी और न सुनी ही थी || ३१३ ।। 

पुरातिदुःखदीर्णानां भवान्‌ गतिरभूद्धि न: ।। ३२ ।। 

उत्तिष्वोत्तिष्ठ राजेन्द्र शाधि कि करवाणि ते । 

“पहले जब कभी हमलोग अत्यन्त दुःखसे अधीर हो उठते थे, तब आप ही हमें सहारा 
दिया करते थे। राजेन्द्र! उठिये, उठिये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? ।। ३२३ 

|| 

न हयूसाध्यमकार्य वा विद्यते मम मानद || ३३ || 

आज्ञापय कुरुश्रेष्ठ मा च शोके मन: कृथा: । 

“मानद! इस संसारमें ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो मेरे लिये असाध्य हो अथवा जिसे मैं 
आपकी आज्ञा मिलनेपर न करूँ। कुरुश्रेष्ठ। आज्ञा दीजिये। अपने मनको शोकमें न 
डालिये' || ३३३ || 

तमब्रवीदश्रुपूर्ण: कृष्णसर्प इव श्वसन्‌ ।। ३४ ।। 

भीमसेनमिदं वाक्‍्यं प्रम्लानवदनो नृप: । 

तब राजा युधिष्ठिर म्लानमुख हो काले सर्पके समान लंबी साँसें खींचते हुए नेत्रोंमें आँसू 
भरकर भीमसेनसे इस प्रकार बोले-- || ३४३ ।। 

यथा शड्खस्य निर्घोष: पाउ्चजन्यस्य श्रूयते ।। ३५ ।। 

पूरितो वासुदेवेन संरब्धेन यशस्विना । 

नूनमद्य हतः शेते तव भ्राता धनंजय: ।। ३६ ।। 

“भैया! इस समय पांचजन्य शंखकी जैसी ध्वनि सुनायी देती है और यशस्वी वासुदेवने 
क्रोधमें भरकर उस शंखको जिस तरह बजाया है, उससे जान पड़ता है, आज तुम्हारा भाई 
अर्जुन निश्चय ही मारा जाकर रणभूमिमें सो रहा है ।। ३५-३६ ।। 

तस्मिन्‌ विनिहते नून॑ युध्यतेड्सौ जनार्दन: । 

यस्य सच्त्ववतो वीर्य ह्युपजीवन्ति पाण्डवा: ।। ३७ ।। 

यं भयेष्वभिगच्छन्ति सहस्राक्षमिवामरा: । 

स शूर: सैन्धवप्रेप्सुरन्वयाद्‌ भारतीं चमूम्‌ || ३८ ।। 


“उसके मारे जानेपर स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही युद्ध कर रहे हैं। जिस शक्तिशाली 
वीरके पराक्रमका भरोसा करके हम समस्त पाण्डव जी रहे हैं, भयके अवसरोंपर हम उसी 
प्रकार जिसका आश्रय लेते हैं, जैसे देवता देवराज इन्द्रका, वही शूरवीर अर्जुन सिंधुराज 
जयद्रथको अपने वशमें करनेके लिये कौरव-सेनामें घुसा है ।। ३७-३८ ।। 

तस्य वै गमनं विद्यो भीम नावर्तन॑ पुनः । 

श्यामो युवा गुडाकेशो दर्शनीयो महारथ: ।॥। ३९ ।। 

'भीमसेन! हमें उसके जानेका ही पता है, पुनः लौटनेका नहीं। अर्जुनकी अंगकान्ति 
श्याम है। वह नवयुवक, निद्रापर विजय पानेवाला, देखनेमें सुन्दर और महारथी है ।। ३९ ।। 

व्यूढोरस्को महाबाहहुर्मत्तद्विरदविक्रम: । 

चकोननेत्रस्ताम्रास्यो द्विषतां भयवर्धन: ।। ४० ।। 

“उसकी छाती चौड़ी और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। उसका पराक्रम मतवाले हाथीके समान 
है, आँखें चकोरके नेत्रोंक समान विशाल हैं और उसके मुख एवं ओषछ्ठ लाल-लाल हैं। वह 
शत्रुओंका भय बढ़ाता है ।। ४० ।। 

(मम प्रियहितार्थ च शक्रलोकादिहागत: । 

वृद्धोपसेवी धृतिमान्‌ कृतज्ञ: सत्यसड्रर: ।। 

प्रविष्टो महतीं सेनामपर्यन्तां धनंजय: । 

प्रविष्टे च चमूं घोरामर्जुने शत्रुनाशने ।। 

प्रेषित: सात्वतो वीर: फाल्गुनस्य पदानुग: । 

तस्याभिगमनं जाने भीम नावर्तन॑ पुनः ।।) 

“अर्जुन मेरे प्रिय और हितके लिये इन्द्रलोकसे यहाँ आया है। वह वृद्धजनोंका सेवक, 
धैर्यवान, कृतज्ञ तथा सत्यप्रतिज्ञ है। वह धनंजय शत्रुओंकी विशाल एवं अपार सेनामें घुसा 
है। शत्रुनाशन अर्जुनके उस भयंकर सेनामें प्रवेश करनेपर मैंने सात्वतवीर सात्यकिको 
उसके चरणोंका अनुगामी बनाकर भेजा है। भीमसेन! सात्यकिके भी मुझे जानेका ही पता 
है, लौटनेका नहीं। 

तदिदं मम भद्रें ते शोकस्थानमरिंदम । 

अर्जुनार्थे महाबाहो सात्वतस्य च कारणात्‌ ।। ४१ ।। 

वर्धते हविषेवाग्निरिध्यमान: पुन: पुन: । 

तस्य लक्ष्म न पश्यामि तेन विन्दामि कश्मलम्‌ || ४२ ।। 

“शत्रुदमन महाबाहु भीम! तुम्हारा कल्याण हो। यही मेरे शोकका कारण है। अर्जुन 
और सात्यकिके लिये ही मैं दुःखी हो रहा हूँ। जैसे बारंबार घी डालनेसे आग प्रज्वलित हो 
उठती है, उसी प्रकार मेरी शोकाग्नि बढ़ती जाती है। मैं अर्जुनका कोई चिह्न नहीं देखता, 
इसीसे मुझपर मोह छा रहा है || ४१-४२ ।। 

त॑ विद्धि पुरुषव्यात्रं सात्वतं च महारथम्‌ | 


सतं महारथं पश्चादनुयातस्तवानुजम्‌ ।। ४३ ।। 

“उन सात्वतवंशी पुरुषसिंह महारथी सात्यकिका भी पता लगाओ। वे तुम्हारे छोटे भाई 
महारथी अर्जुनके पीछे गये हैं ।। ४३ ।। 

तमपश्यन्महाबाहुमहं विन्दामि कश्मलम्‌ | 

पार्थे तस्मिन्‌ हते चैव युध्यते नूनमग्रणी: ।। ४४ ।। 

“उन महाबाहु सात्यकिको न देखनेके कारण भी मैं भारी घबराहटमें पड़ गया हूँ। 
पार्थके मारे जानेपर अवश्य ही सात्यकि भी आगे होकर युद्ध कर रहे हैं || ४४ ।। 

सहायोनास्य वै कश्रित्‌ तेन विन्दामि कश्मलम्‌ | 

तस्मिन्‌ कृष्णो हते नून॑ं युध्यते युद्धकोविद: ।। ४५ ।। 

“उनका कोई दूसरा सहायक नहीं है। इससे मुझे बड़ी घबराहट हो रही है। निश्चय ही 
उनके मारे जानेपर युद्धकलाकोविद भगवान्‌ श्रीकृष्ण युद्ध कर रहे हैं || ४५ ।। 

न हि मे शुध्यते भावस्तयोरेव परंतप । 

स तत्र गच्छ कौन्तेय यत्र यातो धनंजय: ।। ४६ ।। 

सात्यकिश्न महावीर्य: कर्तव्यं यदि मनन्‍्यसे । 

वचन मम धर्मज्ञ भ्राता ज्येष्ठो भवामि ते ।। ४७ ।। 

न ते<र्जुनस्तथा ज्ञेयो ज्ञातव्य: सात्यकिर्यथा । 

चिकीर्षुर्मत्प्रियं पार्थ स यात: सव्यसाचिन: । 

पदवीं दुर्गमां घोरामगम्यामकृतात्मभि: ।। ४८ ।। 

“परंतप! अर्जुन और सात्यकिके जीवनके विषयमें जो मेरे मनमें संशय उत्पन्न हो गया 
है, वह दूर नहीं हो रहा है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम वहीं जाओ, जहाँ अर्जुन और 
महापराक्रमी सात्यकि गये हैं। धर्मज्ञ! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ। यदि तुम मेरी आज्ञाका 
पालन करना उचित मानते हो तो ऐसा ही करो। तुम्हें अर्जुनकी उतनी खोज नहीं करनी है, 
जितनी सात्यकिकी। पार्थ! सात्यकिने मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे सव्यसाची अर्जुनके उस 
दुर्गम एवं भयंकर पथका अनुसरण किया है, जो अजितात्मा पुरुषोंके लिये अगम्य 
है || ४६--४८ ।। 

दृष्टवा कुशलिनौ कृष्णौ सात्वतं चैव सात्यकिम्‌ । 

संविदं चैव कुर्यास्त्वं सिंहनादेन पाण्डव ।। ४९ ।। 

'पाण्डुनन्दन! जब तुम भगवान्‌ श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा सात्वतवंशी वीर सात्यकिको 
सकुशल देखना, तब उच्च स्वरसे सिंहनाद करके मुझे इसकी सूचना दे देना” ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरचिन्तायां 
षड्विंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२६ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्टिरकी चिन्ताविषयक 
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२६ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ५२ श्लोक हैं।) 


अपन बक। ] अति्ऑशाए:< 


सप्तविशर्त्याधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेनका कौरव-सेनामें प्रवेश, द्रोणाचार्यके 
सारथिसहित रथका चूर्ण कर देना तथा उनके द्वारा 
धृतराष्ट्रके ग्यारह पुत्रोंका वध, अवशिष्ट पुत्रोंसहित 
सेनाका पलायन 


भीमसेन उवाच 


ब्रह्मेशानेन्द्रवरुणानवहद्‌ य: पुरा रथ: । 

तमास्थाय गतौ कृष्णौ न तयोर्विद्यते भयम्‌ ।। १ ।। 

भीमसेनने कहा--महाराज! जो रथ पहले ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र और 
वरुणकी सवारीमें आ चुका है, उसीपर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्धके लिये 
गये हैं। अतः उनके लिये तनिक भी भय नहीं है ।। १ ।। 

आज्ञां तु शिरसा बि भ्रदेष गच्छामि मा शुच: । 

समेत्य तान्‌ नरव्याघ्रांस्तव दास्यामि संविदम्‌ ।। २ ।। 

तथापि आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके यह मैं जा रहा हूँ। आप शोक या 
चिन्ता न करें। मैं उन पुरुषसिंहोंसे मिलकर आपको सूचना दूँगा ।। २ ।। 

संजय उवाच 

एतावदुक्त्वा प्रययौ परिदाय युधिष्ठटिरम्‌ । 

धृष्टद्युम्नाय बलवान्‌ सुहृद्धयश्न पुन: पुनः: ।। ३ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर बलवान भीमसेन राजा युधिष्ठिरको 
धृष्टद्युम्न तथा अन्य सुहृदोंकी देख-रेखमें सौंपकर वहाँसे चल दिये ।। ३ ।। 

धृष्टद्युम्नं चेदमाह भीमसेनो महाबल: । 

विदितं ते महाबाहो यथा द्रोणो महारथ: ।। ४ ।। 

ग्रहणे धर्मराजस्य सर्वोपायेन वर्तते । 

जाते समय महाबली भीमसेनने धृष्टद्युम्नसे इस प्रकार कहा--“महाबाहो! 
तुम्हें तो यह मालूम ही है कि महारथी द्रोण सारे उपाय करके किस प्रकार 
धर्मराजको पकड़नेपर तुले हुए हैं || ४६ ।। 

न च मे गमने कृत्यं तादृक्‌ पार्षत विद्यते ।। ५ ।। 

यादृशं रक्षणे राज्ञ: कार्यमात्ययिकं हि नः । 


“अतः ट्रुपदनन्दन! मेरे लिये वहाँ जानेकी वैसी आवश्यकता नहीं है, जैसी 
यहाँ रहकर राजाकी रक्षा करनेकी है। यही हमलोगोंके लिये सबसे महान्‌ कार्य 
है ।। ५६ ।। 

एवमुक्तो5स्मि पार्थेन प्रतिवक्तुं न चोत्सहे ।। ६ ।। 

प्रयास्ये तत्र यत्रासौ मुमूर्ष: सैन्धव: स्थित: । 

धर्मराजस्य वचने स्थातव्यमविशड्गकया || ७ ।। 

'परंतु जब कुन्तीनन्दन महाराजने इस प्रकार मुझे वहाँ जानेकी आज्ञा दे दी 
है, तब मैं उन्हें कोरा जवाब नहीं दे सकता--उनकी आज्ञा टाल नहीं सकता। 
अतः जहाँ मरणासन्न जयद्रथ खड़ा है, वहीं मैं जाऊँगा। मुझे बिना किसी 
संशयके धर्मराज युधिष्ठटिरकी आज्ञाके अधीन रहना चाहिये ।। ६-७ ।। 

यास्यामि पदवीं भ्रातु: सात्वतस्य च धीमत:ः । 

सोड्द्य यत्तो रणे पार्थ परिरक्ष युधिष्ठिरम्‌ ।। ८ ।। 

एतद्धि सर्वकार्याणां परमं कृत्यमाहवे | 

“अतः अब मैं भाई अर्जुन तथा बुद्धिमान्‌ सात्यकिके पथका अनुसरण 
करूँगा। अब तुम सावधान हो प्रयत्नपूर्वक रणभूमिमें कुन्तीकुमार राजा 
युधिष्ठिरकी रक्षा करो। इस युद्धस्थलमें यही हमारे लिये सब कार्योंसे बढ़कर 
महान्‌ कार्य है! || ८६ ।। 

तमब्रवीन्महाराज धृष्टद्युम्नो वृकोदरम्‌ ।। ९ ।। 

ईप्सितं ते करिष्यामि गच्छ पार्थाविचारयन्‌ । 

महाराज! यह सुनकर धृष्टद्युम्नने भीमसेनसे कहा--“कुन्तीनन्दन! तुम कुछ 
भी सोच-विचार न करके जाओ । मैं तुम्हारी इच्छाके अनुसार सब कार्य 
करूँगा ।। ९३६ |। 

नाहत्वा समरे द्रोणो धृष्टद्युम्नं कथठचन ।। १० ।। 

निग्रहं धर्मराजस्य प्रकरिष्यति संयुगे । 

'द्रोणाचार्य संग्राममें धृष्टद्यम्मका वध किये बिना किसी प्रकार धर्मराजको 
कैद नहीं कर सकेंगे” ।। १०६ ।। 

ततो निक्षिप्य राजानं धृष्टझुम्ने च पाण्डवम्‌ ।। ११ ।। 

अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठं प्रययौ येन फाल्गुन: । 

तब भीमसेन पाए्डुपुत्र राजा युधिष्छिरको धृष्टद्युम्नके हाथमें सौंपकर अपने 
बड़े भाईको प्रणाम करके जिस मार्गसे अर्जुन गये थे, उसीपर चल दिये ।। ११३६ 

|| 

परिष्वक्तश्न कौन्तेयो धर्मराजेन भारत ।॥। १२ || 


आध्रातश्न तथा मूर्थ्नि श्रावितश्वाशिष: शुभा: । 

भारत! उस समय धर्मराज युधिष्ठिरने कुन्तीकुमार भीमसेनको गलेसे 
लगाया, उसका सिर सूँघा और उन्हें शुभ आशीर्वाद सुनाये || १२६ ।। 

कृत्वा प्रदक्षिणान्‌ विप्रानर्चितांस्तुष्टमानसान्‌ ।। १३ ।। 

आलकभ्य मड़लान्यष्टौ पीत्वा कैरातकं मधु । 

द्विगुणद्रविणो वीरो मदरक्तान्तलोचन: ।। १४ ।। 

तदनन्तर पूजित एवं संतुष्टचित्त हुए ब्राह्मणोंकी परिक्रमा करके आठः 
प्रकारकी मांगलिक वस्तुओंका स्पर्श करनेके पश्चात्‌ भीमसेनने कैरातक मधुका 
पान किया। फिर तो वीर भीमसेनका बल और उत्साह दुगुना हो गया, उनके नेत्र 
मदसे लाल हो गये थे || १३-१४ ।। 

विप्रै: कृतस्वस्त्ययनो विजयोत्पादसूचित: । 

पश्यन्नेवात्मनो बुद्धिं विजयानन्दकारिणीम्‌ ।। १५ ।। 

उस समय ब्राह्मणोंने स्वस्तिवाचन किया, जिससे विजय-लाभ सूचित होता 
था। उन्हें अपनी बुद्धि विजयानन्दका अनुभव करती-सी दिखायी दी ।। १५ || 

अनुलोमानिलै श्वाशु प्रदर्शितजयोदय: । 

भीमसेनो महाबाहु: कवची शुभकुण्डली ।। १६ ।। 

साज्भद: सतलत्राण: सरथो रथिनां वर: । 

अनुकूल हवा चलकर उन्हें शीघ्र ही अवश्यम्भावी विजयकी सूचना देने 
लगी। रथियोंमें श्रेष्ठ महाबाहु भीमसेन कवच, सुन्दर कुण्डल, बाजूबन्द और 
तलत्राण (दस्ताने) धारण करके रथपर आरूढ़ हो गये || १६६ ।। 

तस्य कार्ष्णायसं वर्म हेमचित्र॑ं महर्द्धिमत्‌ । १७ ।। 

विबभौ सर्वतः श्लिष्टं सविद्युदिव तोयद: । 

उनका काले लोहेका बना हुआ सुवर्णजटित बहुमूल्य कवच उनके सारे 
अंगोंमें सटकर बिजलीसहित मेघके समान सुशोभित हो रहा था ।। १७३ ।। 

पीतरक्तासितसितैरवासोभिश्न सुवेष्टित: ।। १८ ।। 

कण्ठत्राणेन च बभौ सेन्द्रायुध इवाम्बुद: । 

लाल, पीले, काले और सफेद वस्त्रोंस अपने शरीरको सुसज्जित करके 
कण्ठत्राण पहनकर वे इन्द्रधनुषयुक्त मेघके समान शोभा पा रहे थे ।। १८३ ।। 

प्रयाते भीमसेने तु तव सैन्यं युयुत्समया ।। १९ ।। 

पाञ्चजन्यरवो घोर: पुनरासीद्‌ विशाम्पते । 

प्रजानाथ! जब भीमसेन युद्धकी इच्छासे आपकी सेनाकी ओर प्रस्थित हुए, 
उस समय पुन: पांचजन्य शंखकी भयंकर ध्वनि प्रकट हुई ।। १९६ ।। 


त॑ श्रुत्वा निनदं घोरें त्रैलेक्यत्रासनं महत्‌ ।। २० ।। 

पुनर्भीम॑ महाबाहुं धर्मपुत्रो5भ्यभाषत । 

त्रिलोकीको डरा देनेवाले उस घोर एवं महान्‌ सिंहनादको सुनकर धर्मपुत्र 
युधिष्ठटिरने (जाते हुए) महाबाहु भीमसेनसे पुनः इस प्रकार कहा-- ।। २०३ ।। 

एष वृष्णिप्रवीरेण ध्मात: सलिलजो भृूशम्‌ ।। २१ ।। 

पृथिवीं चान्तरिक्षं च विनादयति शड्खराट्‌ । 

नूनं व्यसनमापन्ने सुमहत्‌ सव्यसाचिनि ।। २२ ।। 

कुरुभिरययुध्यते सार्थ सर्वैश्वक्रगदाधर: । 

“भीम! देखो, यह वृष्णिवंशके प्रमुख वीर भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े जोरसे 
शंख बजाया है। यह शंखराज इस समय पृथ्वी और आकाश दोनोंको अपनी 
ध्वनिसे परिपूर्ण किये देता है। निश्चय ही सव्यसाची अर्जुनके भारी संकटमें पड़ 
जानेपर चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त कौरवोंके 
साथ युद्ध कर रहे हैं || २१-२२ ३ ।। 

आह कुन्ती नूनमार्या पापमद्य निदर्शनम्‌ ॥। २३ ।। 

द्रौपदी च सुभद्रा च पश्यन्त्यौ सह बन्धुभि: | 

“आज अवश्य ही माता कुन्ती किसी दुःखद अपशकुनकी चर्चा करती 
होंगी। बन्धुओंसहित द्रौपदी और सुभद्रा भी कोई असगुन देख रही होंगी ।। २३ 
डक 

स भीम त्वरया युक्तो याहि यत्र धनंजय: ।। २४ ।। 

मुहान्तीव हि मे सर्वा धनंजयदिदृक्षया । 

दिशश्व प्रदिश: पार्थ सात्वतस्य च कारणात्‌ ।। २५ ।। 

“अतः भीम! तुम तुरंत ही जहाँ अर्जुन हैं, वहाँ जाओ। आज अर्जुनको 
देखनेके लिये मेरी सारी दिशाएँ मोहाच्छन्न-सी हो रही हैं। सात्यकिको न देख 
पानेके कारण भी मेरे लिये सारी दिशाओंमें अँधेरा छा गया है” || २४-२५ ।। 

गच्छ गच्छेति गुरुणा सो<नुज्ञातो वृकोदर: । 

ततः पाण्डुसुतो राजन्‌ भीमसेन: प्रतापवान्‌ ।। २६ ।। 

बद्धगोधाडूगुलित्राण: प्रगृहीतशरासन: । 

ज्येछ्ेन प्रहितो क्रात्रा भ्राता भ्रातुः प्रियंकर: ॥। २७ ।। 

राजन! इस प्रकार 'जाओ, जाओ' कहकर बड़े भाईके आज्ञा देनेपर उदरमें 
वृक नामक अग्निको धारण करनेवाले प्रतापी पाण्डुपुत्र भीमसेन गोहके 
चमड़ेके बने हुए दस्ताने पहनकर हाथमें धनुष ले वहाँसे जानेके लिये तैयार हुए। 
वे भाईका प्रिय करनेवाले भाई थे और बड़े भाईके भेजनेसे ही वहाँसे जानेको 
उद्यत हुए थे ।। २६-२७ ।। 


आहत्य दुन्दुर्भि भीम: शड्खं प्रथ्माप्पय चासकृत्‌ | 

विनद्य सिंहनादेन ज्यां विकर्षन्‌ पुन: पुन: ।। २८ ।। 

भीमसेनने बारंबार डंका पीटा और अनेक बार शंख बजाकर बारंबार 
धनुषकी प्रत्यंचा खींचते हुए सिंहके दहाड़नेके समान भयंकर गर्जना 
की ।। २८ ।। 

तेन शब्देन वीराणां पातयित्वा मनांस्युत | 

दर्शयन्‌ घोरमात्मानममित्रान्‌ सहसाभ्ययात्‌ ।। २९ ।। 

उस तुमुल शब्दके द्वारा बड़े-बड़े वीरोंके दिल दहलाकर अपना भयंकर रूप 
दिखाते हुए उन्होंने सहसा शत्रुओंपर धावा बोल दिया ।। २९ |। 

तमूहुर्जवना दान्ता विरुवन्तो हयोत्तमा: | 

विशोकेनाभिसम्पन्ना मनोमारुतरंहस: ।। ३० |। 

उस समय विशोक नामक सारथिके द्वारा संचालित होनेवाले, मन और 
वायुके समान वेगशाली तीव्रगामी और सुशिक्षित सुन्दर घोड़े हर्षसूचक शब्द 
करते हुए उनका भार वहन करते थे ।। ३० ।। 

आरुजन्‌ विरुजन्‌ पार्थो ज्यां विकर्षश्न॒ पाणिना । 

सम्प्रकर्षन्‌ विमर्षश्न सेनाग्रं समलोडयत्‌ ।। ३१ ।। 

कुन्तीकुमार भीम अपने हाथसे धनुषकी डोरी खींचकर चढ़ाते, उसे 
भलीभाँति कानतक खींचते, बाणोंकी वर्षा करते तथा शत्रुओंको घायल करके 
उनके अंग-भंग करते हुए सेनाके अग्रभागको मथे डालते थे || ३१ ।। 

त॑ं प्रयान्‍्तं महाबाहुं पडचाला: सहसोमका: । 

पृष्ठतोडनुययु: शूरा मघवन्तमिवामरा: ।। ३२ ।। 

इस प्रकार यात्रा करते हुए महाबाहु भीमसेनके पीछे पांचाल और सोमक 
वीर भी चले, मानो देवगण देवराज इन्द्रका अनुसरण कर रहे हों ।। ३२ ।। 

त॑ समेत्य महाराज तावका: पर्यवारयन्‌ | 

दुःशलभ्षित्रसेनश्व कुण्डभेदी विविंशति: ।। ३३ ।। 

दुर्मुखो दुःसहश्वैव विकर्णश्र शलस्तथा । 

विन्दानुविन्दौ सुमुखो दीर्घबाहु: सुदर्शन: ।। ३४ ।। 

वृन्दारकः सुहस्तश्न सुषेणो दीर्घलोचन: । 

अभयो रौद्रकर्मा च सुवर्मा दुर्विमोचन: ।। ३५ ।। 

शोभन्तो रथिनां श्रेष्ठा: सहसैन्यपदानुगा: । 

संयत्ता: समरे वीरा भीमसेनमुपाद्रवन्‌ ।। ३६ ।। 

महाराज! उस समय आपके पुत्रोंने भीमसेनका सामना करके उन्हें रोका। 
दुःशल, चित्रसेन, कुण्डभेदी, विविंशति, दुर्मुख, दुःसह, विवर्ण, शल, विन्द, 


अनुविन्द, सुमुख, दीर्घबाहु, सुदर्शन, वृन्दारक, सुहस्त, सुषेण, दीर्घलोचन, 
अभय, रौद्रकर्मा, सुवर्मा और दुर्विमोचन--इन शोभाशाली रथिश्रेष्ठ वीरोंने अपने 
सैनिकों और सेवकोंके साथ सावधान एवं प्रयत्नशील होकर समरांगणमें 
भीमसेनपर धावा किया || ३३--३६ || 

तैः समन्ताद्‌ वृतः शूरै: समरेषु महारथ: । 

तान्‌ समीक्ष्य तु कौन्तेयो भीमसेन: पराक्रमी । 

अभ्यवर्तत वेगेन सिंह: क्षुद्रमूगानिव ।। ३७ ।। 

उन शूरवीरोंके द्वारा समरभूमिमें महारथी भीम सब ओरसे घिर गये थे। उन 
सबको सामने देखकर पराक्रमशाली कुन्तीकुमार भीमसेन उसी प्रकार वेगसे 
आगे बढ़े, जैसे सिंह क्षुद्र मूगोंकी ओर बढ़ता है || ३७ ।। 

ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र वीरा अदर्शयन्‌ । 

छादयन्त: शरैर्भीम॑ मेघा: सूर्यमिवोदितम्‌ ।। ३८ ।। 

परंतु जैसे बादल उगे हुए सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार वे वीरगण अपने 
बाणोंद्वारा भीमसेनको आच्छादित करते हुए वहाँ बड़े-बड़े दिव्यास्त्रोंका प्रदर्शन 
करने लगे || ३८ ।। 

स तानतीत्य वेगेन द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ । 

अग्रतश्न॒ गजानीकं शरवर्षरवाकिरत्‌ ।। ३९ ।। 

किंतु भीमसेन अपने वेगसे उन सबको लाँघकर द्रोणाचार्यकी सेनापर टूट 
पड़े और सामने खड़ी हुई गजसेनाको अपने बाणोंकी वर्षासे आच्छादित करने 
लगे ।। ३९ |। 

सो<चिरेणैव कालेन तद्‌ गजानीकमाशुगै: । 

दिश: सर्वा: समभ्यस्य व्यधमत्‌ पवनात्मज: ।। ४० || 

पवनपुत्र भीमने सम्पूर्ण दिशाओंमें बारंबार बाणोंकी वर्षा करके उनके द्वारा 
थोड़े ही समयमें उस गजसेनाको मार भगाया ।। ४० ।। 

त्रासिता: शरभस्येव गर्जितेन वने मृगा: । 

प्राद्रवन्‌ द्विरदा: सर्वे नदन्‍्तो भैरवान्‌ रवान्‌ ।। ४१ ।। 

जैसे शरभकी गर्जनासे भयभीत हो वनके सारे मृग भाग जाते हैं, उसी 
प्रकार भीमसेनसे डरे हुए समस्त गजराज भैरव स्वरसे आर्तनाद करते हुए भाग 
निकले ।। 

पुनश्चातीव वेगेन द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ । 

तमवारयदाचार्यों वेलोद्त्तमिवार्णवम्‌ ।। ४२ ।। 

फिर उन्होंने बड़े वेगसे द्रोणाचार्यकी सेनापर चढ़ाई की। उस समय उत्ताल 
तरंगोंके साथ उठे हुए महासागरको जैसे तटकी भूमि रोक देती है, उसी प्रकार 


द्रोणाचार्यने भीमसेनको रोका ।। ४२ ।। 

ललाटे5ताडयच्चैनं नाराचेन स्मयन्निव । 

ऊर्ध्वरश्मिरिवादित्यो विबभौ तेन पाण्डव: ।। ४३ ।। 

द्रोणने मुसकराते हुए-से नाराच चलाकर भीमसेनके ललाटमें चोट पहुँचायी। 
उस नाराचसे पाण्डुपुत्र भीमसेन ऊपर उठी किरणोंवाले सूर्यके समान सुशोभित 
होने लगे ।। ४३ ।। 

स मन्यमानस्त्वाचार्यो ममायं फाल्गुनो यथा । 

भीम: करिष्यते पूजामित्युवाच वृकोदरम्‌ ।। ४४ ।। 

द्रोणाचार्य यह समझकर कि यह भीम भी अर्जुनके समान मेरी पूजा करेगा, 
उनसे इस प्रकार बोले-- || ४४ ।। 

भीमसेन न ते शकया प्रवेष्टमरिवाहिनी । 

मामनिर्जित्य समरे शत्रुमद्य महाबल ।। ४५ ।। 

“महाबली भीमसेन! तुम समरभूमिमें आज मुझ शत्रुको पराजित किये बिना 
इस शत्रुसेनामें प्रवेश नहीं कर सकोगे ।। ४५ ।। 

यदि ते सो5नुज: कृष्ण: प्रविष्टोडनुमते मम । 

अनीकं न तु शब्यं मे प्रवेष्टमिह वै त्वया ।। ४६ ।। 

“तुम्हारे छोटे भाई अर्जुन मेरी अनुमतिसे इस सेनाके भीतर घुस गये हैं। यदि 
इच्छा हो तो उसी तरह तुम भी जा सकते हो; अन्यथा मेरे इस सैन्यव्यूहमें प्रवेश 
नहीं करने पाओगे' ।। ४६ ।। 

अथ भीमस्तु बुक त्वा गुरोर्वाक्यमपेतभी: । 

क्रुद्ध: प्रोवाच वै द्रोणं रक्तताम्रेक्षणस्त्वरन्‌ ।। ४७ ।। 

गुरुका यह वचन सुनकर भीमसेनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये, वे बड़ी 
उतावलीके साथ द्रोणाचार्यसे निर्भय होकर बोले || ४७ ।। 

तवार्जुनो नानुमते ब्रह्म॒बन्धो रणाजिरम्‌ | 

प्रविष्ट: स हि दुर्धर्ष: शक्रस्पापि विशेद्‌ बलम्‌ ।। ४८ ।। 

“ब्रह्मबन्धो! अर्जुन तुम्हारी अनुमतिसे इस समरांगणमें नहीं प्रविष्ट हुए हैं। वे 
तो दुर्जय हैं। देवराज इन्द्रकी सेनामें भी घुस सकते हैं || ४८ ।। 

तेन वै परमां पूजां कुर्वता मानितो हासि । 

नार्जुनो5हं घृणी द्रोण भीमसेनो5स्मि ते रिपु: ।। ४९ ।। 

उन्होंने तुम्हारी बड़ी पूजा करके निश्चय ही तुम्हें सम्मान दिया है, परंतु 
द्रोण! मैं दयालु अर्जुन नहीं हूँ। मैं तो तुम्हारा शत्रु भीमसेन हूँ ।। ४९ ।। 

पिता नस्त्वं गुरुब॑न्धुस्तथा पुत्रास्तु ते वयम्‌ । 

इति मन्यामहे सर्वे भवन्तं प्रणता: स्थिता: ।। ५० ।। 


“तुम हमारे पिता, गुरु और बन्धु हो और हम तुम्हारे पुत्रके तुल्य हैं। हम सब 
लोग यही मानते हैं और सदा तुम्हारे सामने प्रणतभावसे खड़े होते हैं || ५० ।। 

अद्य तद्विपरीतं ते वदतो<स्मासु दृश्यते । 

यदि त्वं शत्रुमात्मानं मन्यसे तत्तथास्त्विह || ५१ ।। 

एष ते सदृशं शत्रो: कर्म भीम: करोम्यहम्‌ | 

“परंतु आज तुम्हारे मुँहसे जो बात निकल रही है, उससे हमलोगोंपर तुम्हारा 
विपरीत भाव लक्षित होता है। यदि तुम अपने-आपको शत्रु मानते हो तो ऐसा 
ही सही। यह मैं भीमसेन तुम्हारे शत्रुके अनुरूप कर्म कर रहा हूँ" ।। ५१३ || 

अथोदश्राम्य गदां भीम: कालदण्डमिवान्तक: ।। ५२ ।। 

द्रोणाय व्यसृजद्‌ राजन्‌ स रथादवपुप्लुवे । 

राजन! ऐसा कहकर भीमसेनने गदा उठा ली, मानो यमराजने कालदण्ड 
हाथमें ले लिया हो। उन्होंने उस गदाको घुमाकर द्रोणाचार्यपर दे मारा, किंतु 
द्रोणाचार्य शीघ्र ही रथसे कूद पड़े | ५२ ६ ।। 

साश्वसूतध्वजं यान॑ द्रोणस्यापोथयत्‌ तदा ।। ५३ ।। 

प्रामृदूनाच्च बहून्‌ योधान्‌ वायुर्वृक्षानिवौजसा । 

जैसे हवा अपने वेगसे वृक्षोंको उखाड़ फेंकती है, उसी प्रकार उस गदाने 
उस समय घोड़े, सारथि और ध्वजसहित द्रोणाचार्यके रथको चूर-चूर कर दिया 
और बहुत-से योद्धाओंको भी धूलमें मिला दिया ।। ५३ $ ।। 

त॑ पुनः परिवत्रुस्ते तव पुत्रा रथोत्तमम्‌ ।। ५४ ।। 

अन्यं तु रथमास्थाय द्रोण: प्रहरतां वर: । 

व्यूहद्वारं समासाद्य युद्धाय समुपस्थित: ।। ५५ ।। 

उस समय उस श्रेष्ठ महारथी वीरको आपके पुत्रोंने पुन- आकर चारों ओरसे 
घेर लिया। योद्धाओंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य दूसरे रथपर बैठकर व्यूहके द्वारपर आ 
पहुँचे और युद्धके लिये उद्यत हो गये || ५४-५५ ।। 

ततः क्रुद्धो महाराज भीमसेन: पराक्रमी । 

अग्रतः स्यन्दनानीकं शरवर्षरवाकिरत्‌ ॥। ५६ ।। 

महाराज! तब क्रोधमें भरे हुए पराक्रमी भीमसेनने सामने खड़ी हुई 
रथसेनापर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। 

ते वध्यमाना: समरे तव पुत्रा महारथा: । 

भीम॑ भीमबला युद्धे योधयन्ति जयैषिण: | ५७ ।। 

युद्धस्थलमें भयंकर बलशाली विजयाभिलाषी आपके महारथी पुत्र बाणोंकी 
मार खाकर भी समरांगणमें भीमसेनके साथ युद्ध करते रहे || ५७ ।। 

ततो दुःशासन: क्रुद्धो रथशक्तिं समाक्षिपत्‌ | 


सर्वपारसवीं तीक्ष्णां जिघांसु: पाण्डुनन्दनम्‌ ।। ५८ ।। 

उस समय कुपित हुए दुःशासनने पाण्डुनन्दन भीमसेनको मार डालनेकी 
इच्छासे उनके ऊपर एक तीखी रथशक्ति चलायी, जो सम्पूर्णतः लोहेकी बनी हुई 
थी ।। ५८ ।। 

आपतन्तीं महाशर्ति तव पुत्रप्रणोदिताम्‌ । 

द्विधा चिच्छेद तां भीमस्तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ५९ |। 

आपके पुत्रकी चलायी हुई उस महाशक्तिको अपने ऊपर आती देख 
भीमसेनने उसके दो टुकड़े कर दिये। वह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। ५९ ।। 

अथान्यैरविशिखैस्ती&णै: संक़्रुद्ध: कुण्डभेदिनम्‌ । 

सुषेणं दीर्घनेत्रं च त्रिभिस्त्रीनवधीद्‌ बली | ६० ।। 

फिर अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए बलवान भीमने दूसरे तीन तीखे बाणोंद्वारा 
कुण्डभेदी, सुषेण तथा दीर्घलोचन (दीर्घरोमा)--इन तीनोंको मार डाला (जो 
आपके पुत्र थे) || ६० ।। 

ततो वृन्दारकं वीरं कुरूणां कीर्तिवर्धनम्‌ । 

पुत्राणां तव वीराणां युध्यतामवधीत्‌ पुन: ।। ६१ ।। 

तत्पश्चात्‌ आपके (अन्य) वीर पुत्रोंके युद्ध करते रहनेपर भी उन्होंने पुनः 
कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले वीर वृन्दारकका वध कर दिया ।। ६१ ।। 

अभयं रौद्रकर्माणं दुर्विमोचनमेव च । 

त्रिभिस्त्रीनवधीद्‌ भीम: पुनरेव सुतांस्तव ।। ६२ ।। 

इसके बाद भीमने पुनः तीन बाण मारकर अभय, रौद्रकर्मा तथा दुर्विमोचन 
(दुर्विरोचन)--आपके इन तीन पुत्रोंको भी मार गिराया ।। ६२ ।। 

वध्यमाना महाराज पुत्रास्तव बलीयसा । 

भीम॑ प्रहरतां श्रेष्ठ समन्‍्तात्‌ पर्यवारयन्‌ । ६३ ।। 

महाराज! अत्यन्त बलवान्‌ भीमसेनके बाणोंसे घायल होते हुए आपके 
पुत्रोंने योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीमसेनको फिर चारों ओरसे घेर लिया || ६३ ।। 

ते शरैर्भीमकर्माणं ववर्षु: पाण्डवं युधि । 

मेघा इवातपापाये धाराभिर्धरणीधरम्‌ ।। ६४ ।। 

जैसे वर्षा-ऋतुमें मेघ पर्वतपर जलधाराओंकी वर्षा करते हैं, उसी प्रकार वे 
आपके पुत्र युद्धस्थलमें भयंकर कर्म करनेवाले पाण्डुपुत्र भीमसेनपर बाणोंकी 
वर्षा करने लगे ।। 

स तद्‌ बाणमयं वर्षमश्मवर्षमिवाचल: । 

प्रतीच्छन्‌ पाण्डुदायादो न प्राव्यथत शत्रुहा | ६५ ।। 


जैसे पत्थरोंकी वर्षा ग्रहण करते हुए पर्वतको कोई पीड़ा नहीं होती, उसी 
प्रकार शत्रुसूदन पाण्डुपुत्र भीमसेन उस बाण-वर्षाको सहन करते हुए भी 
व्यथित नहीं हुए ।। 

विन्दानुविन्दौ सहितौ सुवर्माणं च ते सुतम्‌ । 

प्रहसन्नेव कौन्तेय: शरैरनिन्ये यमक्षयम्‌ ।। ६६ ।। 

कुन्तीनन्दन भीमने हँसते हुए ही अपने बाणोंद्वारा एक साथ आये हुए दोनों 
भाई विन्द और अनुविन्दको तथा आपके पुत्र सुवर्माकों भी यमलोक पहुँचा 
दिया ।। 

ततः सुदर्शन वीर पुत्र ते भरतर्षभ । 

विव्याध समरे तूर्ण स पपात ममार च ।। ६७ ।। 

भरतश्रेष्ठ) तदनन्तर उन्होंने समरभूमिमें आपके वीर पुत्र सुदर्शन (उर्णनाभ) 
को घायल कर दिया। इससे वह तुरंत ही गिरा और मर गया ।। ६७ ।। 

सो<चिरेणैव कालेन तद्रथानीकमाशुगै: । 

दिश: सर्वा: समालोक्य व्यधमत्‌ पाण्डुनन्दन: ।। ६८ ।। 

इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीमसेनने सम्पूर्ण दिशाओंमें दृष्टिपात करके अपने 
बाणोंद्वारा थोड़े ही समयमें उस रथसेनाको नष्ट कर दिया ।। ६८ ।। 

ततो वै रथघोषेण गर्जितेन मृगा इव । 

भज्यमानाश्व समरे तव पुत्रा विशाम्पते ।। ६९ ।। 

प्रजानाथ! तदनन्तर भीमसेनके रथकी घरघराहट और गर्जनासे समरांगणमें 
मृगोंके समान भयभीत हुए आपके पुत्रोंका उत्साह भंग हो गया || ६९ ।। 

प्राद्रयन्‌ सहसा सर्वे भीमसेन भयार्दिता: । 

अनुयायाच्च कौन्तेय: पुत्राणां ते महद्‌ बलम्‌ || ७० | 

वे सब-के-सब भीमसेनके भयसे पीड़ित हो सहसा भाग खड़े हुए। 
कुन्तीकुमार भीमसेनने आपके पुत्रोंकी विशाल सेनाका दूरतक पीछा 
किया || ७० |। 

विव्याध समरे राजन्‌ कौरवेयान्‌ समन्तत: । 

वध्यमाना महाराज भीमसेनेन तावका: ।। ७३ ।। 

त्यक्त्वा भीम॑ रणाज्जग्मुश्नोदयन्तो हयोत्तमान्‌ । 

राजन! उन्होंने रणक्षेत्रमें सब ओर कौरवोंको घायल किया। महाराज! 
भीमसेनके द्वारा मारे जाते हुए आपके सभी पुत्र उन्हें छोड़कर अपने उत्तम 
घोड़ोंको हाँकते हुए रणभूमिसे दूर चले गये || ७१३ ।। 

तांस्तु निर्जित्य समरे भीमसेनो महाबल: ।। ७२ |। 

सिंहनादरवं चक्रे बाहुशब्दं च पाण्डव: । 


उन सबको संग्राममें पराजित करके महाबली पाण्डुपुत्र भीमसेनने अपनी 
भुजाओंपर ताल ठोकी और सिंहके समान गर्जना की || ७२६ ।। 

तलशब्दं च सुमहत्‌ कृत्वा भीमो महाबल: ।। ७३ ।। 

भीषयित्वा रथानीकं हत्वा योधान्‌ वरान्‌ वरान्‌ । 

व्यतीत्य रथिनश्चापि द्रोणानीकमुपाद्रवत्‌ ।। ७४ ।। 

बड़े जोरसे ताली बजाकर महाबली भीमने रथसेनाको डरा दिया और श्रेष्ठ- 
श्रेष्ठ योद्धाओंको चुन-चुनकर मारा। फिर समस्त रथियोंको लाँधचकर 
द्रोणाचार्यकी सेनापर धावा बोल दिया || ७३-७४ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमसेनप्रवेशे 
भीमपराक्रमे सप्तविंशत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १२७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनका प्रवेश 
और भयंकर पराक्रमविषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १२७ ॥। 


2 (७ 
“ अनलो गौरिरिण्यं च दूर्वागोरोचनामृतम्‌ । अक्षतं दधि चेत्यष्टौ मड़लानि प्रचक्षते ।। 


अग्नि, गौ, सुवर्ण, दूर्वा, गोरोचन, अमृत (घी), अक्षत और दही--इन आठ वस्तुओंको 
मांगलिक कहते हैं। 


अष्टाविशत्यधिकशततमोब< ध्याय: 


भीमसेनका द्रोणाचार्य और अन्य कौरव योद्धा ओंको 
पराजित करते हुए द्रोणाचार्यके रथको आठ बार फेंक देना 
तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके समीप पहुँचकर गर्जना करना 
तथा युधिष्ठिरका प्रसन्न होकर अनेक प्रकारकी बातें सोचना 


संजय उवाच 

समुत्तीर्ण रथानीकं पाण्डवं विहसन्‌ रणे । 

विवारयिषुराचार्य: शरवर्षरवाकिरत्‌ ॥। १ | 

संजय कहते हैं--महाराज! रथसेनाको पार करके आये हुए पाण्डुनन्दन भीमसेनको 
युद्धमें रोकनेकी इच्छासे आचार्य द्रोणने हँसते-हँसते उनपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर 
दी ।। १ |। 

पिबन्निव शरौघांस्तान्‌ द्रोणचापपरिच्युतान्‌ । 

सो<भ्यद्रवत सोदर्यान्‌ मोहयन्‌ बलमायया ।। २ ।। 

द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए उन बाणोंको पीते हुए-से भीमसेन अपने बलकी मायासे 
समस्त कौरव बन्धुओंको मोहित करते हुए उनपर टूट पड़े ।। २ ।। 

त॑ मृथे वेगमास्थाय नृपा: परमधन्विन: । 

चोदितास्तव पुत्रैश्न सर्वत: पर्यवारयन्‌ ॥। ३ ।। 

उस समय आपके पुत्रोंद्वारा प्रेरित हुए बहुत-से महाधनुर्धर नरेशोंने महान्‌ वेगका 
आश्रय ले युद्धस्थलमें भीमसेनको सब ओरसे घेर लिया ।। ३ ।। 

स तैस्तु संवृतो भीम: प्रहसन्निव भारत । 

उद्यच्छन्‌ स गदां तेभ्य: सुघोरां सिंहवन्नदन्‌ | 

अवासृजच्च वेगेन शत्रुपक्षविनाशिनीम्‌ ।। ४ ।। 

भरतनन्दन! उनसे घिरे हुए भीमने हँसते हुए-से अपनी अत्यन्त भयंकर गदा ऊपर 
उठायी और सिंहनाद करते हुए उन्होंने शत्रुपक्षका विनाश करनेवाली उस गदाको बड़े वेगसे 
उन राजाओंपर दे मारा ।। ४ ।। 

इन्द्राशनिरिवेन्द्रेण प्रविद्धा संहतात्मना । 

प्रामथ्नात्‌ सा महाराज सैनिकांस्तव संयुगे ।। ५ ।। 

महाराज! सुस्थिरचित्तवाले इन्द्र जिस प्रकार अपने वज्रका प्रयोग करते हैं, उसी तरह 
भीमसेनद्वारा चलायी हुई उस गदाने युद्धसस्‍्थलमें आपके सैनिकोंका कचूमर निकाल 


दिया ।। ५ |। 

घोषेण महता राजन्‌ पूरयन्तीव मेदिनीम्‌ | 

ज्वलन्ती तेजसा भीमा त्रासयामास ते सुतान्‌ ।। ६ ।। 

राजन! तेजसे प्रज्वलित होनेवाली उस भयंकर गदाने अपने महान्‌ घोषसे इस पृथ्वीको 
परिपूर्ण करके आपके पुत्रोंको भयभीत कर दिया ।। ६ ।। 

तां पतन्तीं महावेगां दृष्टवा तेजो$भिसंवृताम्‌ । 

प्राद्रवंस्तावका: सर्वे नदन्‍्तो भैरवान्‌ रवान्‌ ।। ७ ।। 

उस महावेगशालिनी तेजस्विनी गदाको गिरती देख आपके समस्त सैनिक घोर स्वरमें 
आर्तनाद करते हुए वहाँसे भाग गये ।। ७ ।। 

तं च शब्दमसहां वै तस्या: संलक्ष्य मारिष । 

प्रापतन्मनुजास्तत्र रथेभ्यो रथिनस्तदा ।। ८ ।। 

माननीय नरेश! उस गदाके असहा शब्दको सुनकर उस समय कितने ही रथी मानव 
अपने रथोंसे नीचे गिर पड़े ।। ८ ।। 

ते हन्यमाना भीमेन गदाहस्तेन तावका: । 

प्राद्रवन्त रणे भीता व्याप्रप्राता मृगा इव ।। ९ ।। 

रणभूमिमें गदाधारी भीमके द्वारा मारे जानेवाले आपके सैनिक व्याप्रोंके सूँघे हुए 
मृगोंके समान भयभीत होकर भाग निकले ।। ९ ।। 

स तान्‌ विद्राव्य कौन्तेय: संख्येअमित्रान्‌ दुरासदान्‌ | 

सुपर्ण इव वेगेन पक्षिराडत्यगाच्चमूम्‌ ।। १० ।। 

कुन्तीकुमार भीमसेन युद्धस्थलमें उन दुर्जय शत्रुओंको भगाकर पक्षिराज गरुडके 
समान वेगसे उस सेनाको लाँघ गये ।। १० ।। 

तथा तु विप्रकुर्वाणं रथयूथपयूथपम्‌ । 

भारद्वाजो महाराज भीमसेनं समभ्ययात्‌ ॥। ११ ।। 

महाराज! रथयूथपतियोंके भी यूथपति भीमसेनको इस प्रकार सेनाका संहार करते 
देख द्रोणाचार्य उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़े || ११ ।। 

भीम॑ तु समरे द्रोणो वारयित्वा शरोरमिभि: | 

अकरोत्‌ सहसा नादं पाण्डूनां भयमादधत्‌ ।। १२ ।। 

उस समरांगणमें अपने बाणरूपी तरंगोंसे भीमसेनको रोककर आचार्य द्रोणने 
पाण्डवोंके मनमें भय उत्पन्न करते हुए सहसा सिंहनाद किया ।। १२ ।। 

तद युद्धमासीत्‌ सुमहद्‌ घोरं देवासुरोपमम्‌ | 

द्रोणस्प च महाराज भीमस्य च महात्मन: ।। १३ ।। 

महाराज! द्रोणाचार्य तथा महामनस्वी भीमसेनका वह महान युद्ध देवासुर-संग्रामके 
समान भयंकर था ।। १३ ।। 


यदा तु विशिखैस्ती&णैद्रोणचापविनि:सृतै: । 

वध्यन्ते समरे वीरा: शतशो5थ सहस्रश: ।। १४ ।। 

ततो रथादवप्लुत्य वेगमास्थाय पाण्डव: । 

निमील्य नयने राजन्‌ पदातिद्रोणमभ्ययात्‌ ।। १५ ।। 

अंसे शिरो भीमसेन: करौ कृत्वोरसि स्थिरौ | 

वेगमास्थाय बलवान्‌ मनो5निलगरुत्मताम्‌ ।। १६ ।। 

राजन्‌! जब इस प्रकार द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटे हुए पैने बाणोंद्वारा समरांगणमें 
सैकड़ों और हजारों वीर मारे जाने लगे, तब बलवान्‌ पाण्डुनन्दन भीम वेगपूर्वक रथसे कूद 
पड़े तथा दोनों नेत्र मूँदकर सिरको कंधेपर सिकोड़कर दोनों हाथोंको छातीपर सुस्थिर 
करके मन, वायु तथा गरुडके समान वेगका आश्रय ले पैदल ही द्रोणाचार्यकी ओर दौड़े ।। 

यथा हि गोवृषो वर्ष प्रतिगृह्ञाति लीलया । 

तथा भीमो नरव्याप्र: शरवर्ष समग्रहीत्‌ ।। १७ ।। 

जैसे साँड़ लीलापूर्वक वर्षाका वेग अपने शरीरपर ग्रहण करता है, उसी प्रकार 
पुरुषसिंह भीमसेनने आचार्यकी उस बाण-वर्षाको अपने शरीरपर ग्रहण किया ।। १७ ।। 

स वध्यमान: समरे रथं द्रोणस्य मारिष । 

ईषायां पाणिना गृह प्रचिक्षेप महाबल: ।। १८ ।। 

आर्य! समरांगणमें बाणोंसे आहत होते हुए महाबली भीमने द्रोणाचार्यके रथके 
ईषादण्डको हाथसे पकड़कर समूचे रथको दूर फेंक दिया ।। १८ ।। 

द्रोणस्तु सत्वरो राजन क्षिप्तो भीमेन संयुगे । 

रथमन्यं समारुहा व्यूहद्वारं ययौ पुन: ।। १९ ।। 

राजन! उस युद्धस्थलमें भीमसेनद्वारा फेंके गये आचार्य द्रोण तुरंत ही दूसरे रथपर 
आरूढ़ हो पुनः व्यूहके द्वारपर जा पहुँचे || १९ ।। 

तमायान्तं तथा दृष्टवा भग्नोत्साहं गुरुं तदा । 

गत्वा वेगात्‌ पुनर्भीमो धुरं गुह्रू रथस्य तु ।। २० ।। 

तमप्यतिरथं भीमश्रिक्षेप भूशरोषित: । 

एवमष्टो रथा: क्षिप्ता भीमसेनेन लीलया ।। २१ ।। 

उस समय गुरु द्रोणका उत्साह भंग हो गया था। उन्हें उस अवस्थामें आते देख भीमने 
पुनः वेगपूर्वक आगे बढ़कर उनके रथकी धुरी पकड़ ली और अत्यन्त रोषमें भरकर उन 
अतिरथी वीर द्रोणको भी पुनः रथके साथ ही फेंक दिया। इस प्रकार भीमसेनने खेल-सा 
करते हुए आठ रथ फेंके || २०-२१ ।। 

व्यदृश्यत निमेषेण पुन: स्वरथमास्थित: । 

दृश्यते तावकैर्योधैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनै: || २२ ।। 


परंतु द्रोणाचार्य पुन: पलक मारते-मारते अपने रथपर बैठे दिखायी देते थे। उस समय 
आपके योद्धा विस्मयसे आँखें फाड़-फाड़कर यह दृश्य देख रहे थे || २२ ।। 

तस्मिन्‌ क्षणे तस्य यन्ता तूर्णमश्वानचोदयत्‌ | 

भीमसेनस्य कौरव्य तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। २३ ।। 

कुरुनन्दन! इसी समय भीमसेनका सारथि तुरंत ही घोड़ोंको हाँककर वहाँ ले आया। 
वह एक अद्भुत-सी बात थी ।। २३ ।। 

ततः स्वरथमास्थाय भीमसेनो महाबल: । 

अभ्यद्रवत वेगेन तव पुत्रस्य वाहिनीम्‌ ।। २४ ।। 

तत्पश्चात्‌ महाबली भीमसेन पुनः अपने रथपर आरूढ़ हो आपके पुत्रकी सेनापर 
वेगपूर्वक टूट पड़े || २४ ।। 

स मृदनन्‌ क्षत्रियानाजौ वातो वृक्षानिवोद्धत: । 

आगच्छद्‌ दारयन्‌ सेनां सिन्धुवेगो नगानिव || २५ ।। 

जैसे उठी हुई आँधी वृक्षोंको उखाड़ फेंकती है और सिंधुका वेग पर्वतोंको विदीर्ण कर 
देता है, उसी प्रकार युद्धस्थलमें क्षत्रियोंको रौंदते और कौरव-सेनाको विदीर्ण करते हुए 
भीमसेन आगे बढ़ गये ।। २५ ।। 

भोजानीकं समासाद्य हार्दिक्येनाभिरक्षितम्‌ । 

प्रमथ्य तरसा वीरस्तदप्यतिबलो5भ्ययात्‌ ।। २६ ।। 

फिर अत्यन्त बलशाली वीर भीमसेन कृतवर्माद्वारा सुरक्षित भोजवंशियोंकी सेनाके 
पास जा पहुँचे और उसे वेगपूर्वक मथकर आगे चले गये ।। २६ ।। 

संत्रासयन्ननीकानि तलशब्देन पाण्डव: । 

अजयत्‌ सर्वसैन्यानि शार्दूल इव गोवृषान्‌ ।। २७ ।। 

जैसे सिंह गाय-बैलोंको जीत लेता है, उसी प्रकार पाण्डुनन्दन भीमने ताली बजाकर 
शत्रुसेनाओंको संत्रस्त करते हुए समस्त सैनिकोंपर विजय पा ली ।। २७ ।। 

भोजानीकमत्तिक्रम्य दरदानां च वाहिनीम्‌ | 

तथा म्लेच्छगणानन्यान्‌ बहून्‌ युद्धविशारदान्‌ ।। २८ ।। 

सात्यकिं चैव सम्प्रेक्ष्य युध्यमानं महारथम्‌ । 

रथेन यत्त: कौन्तेयो वेगेन प्रययौ तदा ।। २९ ।। 

उस समय कुन्तीकुमार भीमसेन भोजवंशियोंकी सेनाको लाँधकर दरदोंकी विशाल 
वाहिनीको पार कर गये तथा बहुत-से युद्धविशारद म्लेच्छोंको परास्त करके महारथी 
सात्यकिको शत्रुओंके साथ युद्ध करते देख सावधान हो रथके द्वारा वेगपूर्वक आगे 
बढ़े || २८-२९ |। 

भीमसेनो महाराज द्रष्टकामो धनंजयम्‌ | 

अतीत्य समरे योधांस्तावकान्‌ पाण्डुनन्दन: ।। ३० ।। 


महाराज! अर्जुनको देखनेकी इच्छा लिये पाण्डुनन्दन भीमसेन समरांगणमें आपके 
योद्धाओंको लाँघते हुए वहाँ पहुँचे थे || ३० ।। 

सो<पश्यदर्जुनं तत्र युध्यमानं महारथम्‌ । 

सैन्धवस्य वधार्थ हि पराक्रान्तं पराक्रमी ।। ३१ ।। 

पराक्रमी भीमने वहाँ सिंधुराजके वधके लिये पराक्रम करते हुए युद्धतत्पर महारथी 
अर्जुनको देखा || ३१ ।। 

त॑ दृष्टवा पुरुषव्याप्रश्लुक़्ोश महतो रवान्‌ 

प्रावृट्कले महाराज नर्दन्निव बलाहक: ।। ३२ ।। 

महाराज! उन्हें देखते ही पुरुषसिंह भीमने वर्षाकालमें गरजते हुए मेघके समान बड़े 
जोरसे सिंहनाद किया ।। ३२ ।। 

त॑ तस्य निनदं घोरें पार्थ: शुश्राव नर्दत: । 

वासुदेवश्चव॒ कौरव्य भीमसेनस्य संयुगे ।। ३३ ।। 

कुरुनन्दन! गरजते हुए भीमसेनके उस भयंकर सिंहनादको युद्धस्थलमें कुन्तीकुमार 
अर्जुन तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णने सुना || ३३ ।। 

तौ श्र॒ुत्वा युगपद्‌ वीरौ निनदं तस्य शुष्मिण: । 

पुन: पुनः प्राणदतां दिदृक्षन्ती वृकोदरम्‌ ।। ३४ ।। 

उस महाबली वीरके सिंहनादको एक ही साथ सुनकर उन दोनों वीरोंने भीमसेनको 
देखनेकी इच्छा प्रकट करते हुए बारंबार गर्जना की ।। ३४ ।। 

ततः पार्थों महानादं मुज्चन्‌ वै माधवश्च ह । 

अभ्ययातां महाराज नर्दन्तौ गोवृषाविव ।। ३५ |। 

महाराज! गरजते हुए दो साँड़ोंके समान अर्जुन और श्रीकृष्ण महान्‌ सिंहनाद करते 
हुए आगे बढ़ने लगे || ३५ ।। 

भीमसेनरवं श्रुत्वा फाल्गुनस्य च धन्विन: । 

अप्रीयत महाराज धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।। ३६ ।। 

नरेश्वर! भीमसेन तथा धनुर्धर अर्जुनकी गर्जना सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न 
हुए ।। ३६ |। 

विशोकश्चाभवद्‌ राजा श्रुत्वा तं निनदं तयो: । 

धनंजयस्य समरे जयमाशास्तवान्‌ विभु: ।। ३७ ।। 

उन दोनोंका सिंहनाद सुनकर राजाका शोक दूर हो गया। वे शक्तिशाली नरेश 
समरभूमिमें अर्जुनकी विजयके लिये शुभ कामना करने लगे || ३७ ।। 

तथा तु नर्दमाने वै भीमसेने मदोत्कटे । 

स्मितं कृत्वा महाबाहुर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: || ३८ ।। 

हृद्गतं मनसा प्राह ध्यात्वा धर्मभृतां वर: | 


मदोन्मत्त भीमसेनके बारंबार गर्जना करनेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धर्मपुत्र महाबाहु 
युधिष्ठिर मुसकराकर मन-ही-मन कुछ सोचते हुए अपने हृदयकी बात इस प्रकार कहने लगे 
-- | ३८३ || 

दत्ता भीम त्वया संवित्‌ कृतं गुरुवचस्तथा ।। ३९ ।। 

न हि तेषां जयो युद्धे येषां द्वेष्टासि पाण्डव । 

दिष्ट्या जीवति संग्रामे सव्यसाची धनंजय: ।। ४० ।। 

'भीम! तुमने सूचना दे दी और गुरुजनकी आज्ञाका पालन कर दिया। पाण्डुनन्दन! 
जिनके शत्रु तुम हो, उन्हें युद्धमें विजय नहीं प्राप्त हो सकती। सौभाग्यकी बात है कि 
संग्रामभूमिमें सव्यसाची अर्जुन जीवित है ।। ३९-४० ।। 

दिष्ट्या च कुशली वीर: सात्यकि: सत्यविक्रम: । 

दिष्ट्या शृणोमि गर्जन्तौ वासुदेवधनंजयौ ।। ४१ ।। 

“यह भी आनन्दकी बात है कि सत्यपराक्रमी वीर सात्यकि सकुशल हैं। मैं सौभाग्यवश 
इस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनकी गर्जना सुन रहा हूँ || ४१ ।। 

येन शक्रं रणे जित्वा तर्पितो हव्यवाहन: । 

स हन्ता द्विषतां संख्ये दिष्ट्या जीवति फाल्गुन: ।। ४२ ।। 

“जिसने रणक्षेत्रमें इन्द्रको जीतकर अग्निदेवको तृप्त किया था, वह शत्रुहन्ता अर्जुन 
मेरे सौभाग्यसे युद्धस्थलमें जीवित है || ४२ ।। 

यस्य बाहुबलं सर्वे वयमाश्रित्य जीविता: । 

स हन्ता रिपुसैन्यानां दिष्ट्या जीवति फाल्गुन: ।। ४३ ।। 

“जिसके बाहुबलका भरोसा करके हम सब लोग जीवन धारण करते हैं, शत्रुसेनाओंका 
संहार करनेवाला वह अर्जुन हमारे सौभाग्यसे जीवित है || ४३ ।। 

निवातकवचा येन देवैरपि सुदुर्जया: । 

निर्जिता धुनुषैकेन दिष्ट्या पार्थ: स जीवति ।। ४४ ।। 

“जिसने देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्जय निवातकवच नामक दानवोंको एकमात्र 
धनुषकी सहायतासे जीत लिया था, वह कुन्तीकुमार अर्जुन हमारे भाग्यसे जीवित 
है ।। ४४ ।। 

कौरवान्‌ सहितान्‌ सर्वान्‌ गोग्रहार्थे समागतान्‌ | 

यो5जयन्मत्स्यनगरे दिष्ट्या पार्थ: स जीवति ।। ४५ ।। 

“विराटकी गौओंका अपहरण करनेके लिये एक साथ आये हुए समस्त कौरवोंको 
जिसने मत्स्य देशकी राजधानीके समीप पराजित किया था, वह पार्थ जीवित है, यह 
सौभाग्यकी बात है || ४५ ।। 

कालकेयसहस्राणि चतुर्दश महारणे । 

योडवधीद्‌ भुजवीर्येण दिष्ट्या पार्थ: स जीवति ।। ४६ ।। 


“जिसने महासमरमें अपने बाहुबलसे चौदह हजार कालकेय नामक दैत्योंका वध किया 
था, वह अर्जुन हमारे भाग्यसे जीवित है || ४६ ।। 

गन्धर्वराजं बलिन॑ दुर्योधनकृते च वै । 

जितवान्‌ यो<स्त्रवीर्येण दिष्ट्या पार्थ: स जीवति ।। ४७ ।। 

“जिसने अपने अस्त्र-बलसे दुर्योधनके लिये बलवान गन्धर्वराज चित्रसेनको परास्त 
किया था, वह पार्थ सौभाग्यवश जीवित है ।। ४७ ।। 

किरीटमाली बलवान श्वेताश्वः कृष्णसारथि: । 

मम प्रियश्न॒ सततं दिष्ट्या पार्थ: स जीवति ।। ४८ ।। 

“जिसके मस्तकपर किरीट शोभा पाता है, जिसके रथमें श्वेत घोड़े जोते जाते हैं, 
भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिसके सारथि हैं तथा जो सदा ही मुझे प्रिय लगता है, वह बलवान्‌ 
अर्जुन अभी जीवित है, यह सौभाग्यकी बात है ।। ४८ ।। 

पुत्रशोकाभिसंतप्तश्निकीर्षन्‌ कर्म दुष्करम्‌ | 

जयद्रथवधान्वेषी प्रतिज्ञां कृतवान्‌ हि यः ।। ४९ ।। 

कच्चित्‌ स सैन्धवं संख्ये हनिष्यति धनंजय: । 

कच्चित्‌ तीर्णप्रतिज्ञं हि वासुदेवेन रक्षितम्‌ । ५० || 

अनस्तमित आदित्ये समेष्याम्यहमर्जुनम्‌ । 

“जिसने पुत्रशोकसे संतप्त हो दुष्कर कर्म करनेकी इच्छा रखकर जयद्रथके वधकी 
अभिलाषासे भारी प्रतिज्ञा कर ली है, वह अर्जुन क्या आज युद्धमें सिंधुराजको मार 
डालेगा? क्या सूर्यास्त होनेसे पहले ही प्रतिज्ञा पूर्ण करके लौटे हुए, भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वारा 
सुरक्षित अर्जुनसे मैं मिल सकूँगा? ।। ४९-५० $ ।। 

कच्चित्‌ सैन्धवको राजा दुर्योधनहिते रत: ।। ५१ ।। 

नन्दयिष्यत्यमित्रान्‌ हि फाल्गुनेन निपातित:ः । 

'क्या दुर्योधनके हितमें तत्पर रहनेवाला राजा जयद्रथ अर्जुनके हाथसे मारा जाकर 
शत्रुपक्षको आनन्दित करेगा? || ५१६ ।। 

कच्चिद्‌ दुर्योधनो राजा फाल्गुनेन निपातितम्‌ ।। ५२ ।। 

दृष्टवा सैन्धवर्क संख्ये शममस्मासु धास्यति । 

'क्या युद्धमें सिंधुराजको अर्जुनके हाथसे मारा गया देखकर राजा दुर्योधन हमारे साथ 
संधि कर लेगा? || ५२३ ।। 

दृष्टवा विनिहतान्‌ भ्रातृन्‌ भीमसेनेन संयुगे ।। ५३ ।। 

कच्चिद्‌ दुर्योधनो मन्द: शममस्मासु धास्यति । 

क्या मूर्ख दुर्योधन संग्रामभूमिमें भीमसेनके हाथसे अपने भाइयोंका वध होता देखकर 
हमारे साथ संधि कर लेगा? || ५३ $ || 

दृष्टवा चान्यान्‌ महायोधान्‌ पातितान्‌ धरणीतले । 


कच्चिद्‌ दुर्योधनो मन्द: पश्चात्तापं गमिष्यति ॥। ५४ ।। 
'अन्यान्य बड़े-बड़े योद्धाओंको भी धराशायी किये गये देखकर क्‍या मन्दबुद्धि 


दुर्योधनको पश्चात्ताप होगा? ।। 
कच्चिद्‌ भीष्मेण नो वैरं शममेकेन यास्यति । 
शेषस्य रक्षणार्थ च संधास्यति सुयोधन: ।। ५५ ।। 
“क्या एकमात्र भीष्मकी मृत्युसे हमलोगोंका वैर शान्त हो जायगा? क्या शेष वीरोंकी 
रक्षाके लिये दुर्योधन हमारे साथ संधि कर लेगा?” ।। ५५ ।। 
एवं बहुविध॑ तस्य राज्ञश्निन्तयतस्तदा । 
कृपयाभिपरीतस्य घोर युद्धमवर्तत ।। ५६ ।। 
इस प्रकार राजा युधिष्ठिर जब दयासे द्रवित होकर भाँति-भाँतिकी बातें सोच रहे थे, 
उस समय दूसरी ओर घोर युद्ध हो रहा था ।। ५६ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमसेनप्रवेशे युधिष्ठिरहर्षे 
अष्टाविंशत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १२८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनका कौरव-सेनामें 
प्रवेश तथा युधिष्ठिरका हर्षविषयक एक सौ अद्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२८ ॥ 


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एकोनत्रिशर्दाधिकशततमो<् ध्याय: 
भीमसेन और कर्णका युद्ध तथा कर्णकी पराजय 


धघतयाट्र उवाच 


निनदन्तं तथा तं तु भीमसेनं महाबलम्‌ | 

मेघस्तनितनिर्घोषं के वीरा: पर्यवारयन्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! इस प्रकार मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर स्वरसे सिंहनाद 
करते हुए महाबली भीमसेनको किन वीरोंने रोका? ।। १ ।। 

न हि पश्याम्यहं त॑ वै त्रिषु लोकेषु कंचन । 

क्ुद्धस्य भीमसेनस्य यस्तिछेदग्रतो रणे ।। २ ।। 

मैं तो तीनों लोकोंमें किसीको ऐसा नहीं देखता, जो क्रोधमें भरे हुए भीमसेनके सामने 
युद्धस्थलमें खड़ा हो सके ।। २ ।। 

गदां युयुत्ममानस्य कालस्येवेह संजय । 

न हि पश्याम्यहं युद्धे यस्तिछ्ेदग्रत: पुमान्‌ ।। ३ ।। 

संजय! मुझे ऐसा कोई वीर पुरुष नहीं दिखायी देता, जो कालके समान गदा उठाकर 
युद्धकी इच्छा रखनेवाले भीमसेनके सामने समरभूमिमें ठहर सके ।। ३ ।। 

रथं रथेन यो हन्यात्‌ कुज्जरं कुज्जरेण च । 

कस्तस्य समरे स्थाता साक्षादपि पुरंदर: ।। ४ ।। 

जो रथसे रथको और हाथीसे हाथीको मार सकता है, उस वीर पुरुषके सामने साक्षात्‌ 
इन्द्र ही क्यों न हो, कौन युद्धके लिये खड़ा होगा? ।। ४ ।। 

क्ुद्धस्य भीमसेनस्य मम पुत्रान्‌ जिघांसतः । 

दुर्योधनहिते युक्ता: समतिष्ठन्त केडग्रत: ।। ५ ।। 

क्रोधमें भरकर मेरे पुत्रोंका वध करनेकी इच्छावाले भीमसेनके आगे दुर्योधनके हितमें 
तत्पर रहनेवाले कौन-कौन योद्धा खड़े हो सके? ।। ५ ।। 

भीमसेनदवाग्नेस्तु मम पुत्रांस्तृणोपमान्‌ | 

प्रधक्षतो रणमुखे के5तिष्ठन्नग्रतो नरा: ।। ६ ।। 

भीमसेन दावानलके समान हैं और मेरे पुत्र तिनकोंके समान। उन्हें जला डालनेकी 
इच्छावाले भीमसेनके सामने युद्धके मुहानेपर कौन-कौन-से वीर खड़े हुए? ।। ६ ।। 

काल्यमानांस्तु पुत्रान्‌ मे दृष्टवा भीमेन संयुगे । 

कालेनेव प्रजा: सर्वा: के भीम॑ पर्यवारयन्‌ ।। ७ ।। 

जैसे काल समस्त प्रजाको अपना ग्रास बना लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थलमें 
भीमसेनके द्वारा मेरे पुत्रोंकोी कालके गालमें जाते देख किन वीरोंने आगे बढ़कर भीमसेनको 


रोका? ।। ७ ।। 

न मे<र्जुनादू भयं तादृक्‌ कृष्णान्नापि च सात्वतात्‌ । 

हुतभुग्जन्मनो नैव याद्ग्भीमाद्‌ भयं मम ।। ८ ।। 

मुझे भीमसेनसे जैसा भय लगता है, वैसा न तो अर्जुनसे और न श्रीकृष्णसे, न 
सात्यकिसे और न धृष्टद्युम्नसे ही लगता है || ८ ।। 

भीमवद्ले: प्रदीप्तस्य मम पुत्रान्‌ दिधक्षत: | 

के शूरा: पर्यवर्तन्त तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। ९ |। 

संजय! मेरे पुत्रोंको दग्ध करनेकी इच्छासे प्रज्वयलित हुए भीमरूपी अग्निदेवके सामने 
कौन-कौन शूरवीर डटे रह सके, यह मुझे बताओ ।। ९ ।। 

संजय उवाच 

तथा तु नर्दमानं तं भीमसेनं महाबलम्‌ । 

तुमुलेनैव शब्देन कर्णोउप्यभ्यद्रवदू बली ।। १० ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! इस प्रकार गरजते हुए महाबली भीमसेनपर बलवान कर्णने 
भयंकर सिंहनादके साथ आक्रमण किया ।। १० ।। 

व्याक्षिपन्‌ सुमहच्चापमतिमात्रममर्षण: । 

कर्ण: सुयुद्धमाकाड्शक्षन्‌ दर्शयिष्यन्‌ बल॑ मृथे ।। ११ ।। 

रुरोध मार्ग भीमस्य वातस्येव महीरुह: । 

अत्यन्त अमर्षशील कर्णने रणभूमिमें अपना बल दिखानेके लिये अपने विशाल 
धनुषको खींचते और युद्धकी अभिलाषा रखते हुए, जैसे वृक्ष वायुका मार्ग रोकता है, उसी 
प्रकार भीमसेनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया || ११६ ।। 

भीमो<पि दृष्ट्वा सावेगं पुरो वैकर्तनं स्थितम्‌ ।। १२ ।। 

चुकोप बलदद्दीरश्षिक्षेपास्प शिलाशितान्‌ । 

वीर भीमसेन भी अपने सामने कर्णको खड़ा देख अत्यन्त कुपित हो उठे और तुरंत ही 
उसके ऊपर सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए बाण बलपूर्वक छोड़ने लगे || १२३६ ।। 

तान्‌ प्रत्यगृह्नात्‌ कर्णोडपि प्रतीपं प्रापपच्छरान्‌ ।। १३ ।। 

कर्णने भी उन बाणोंको ग्रहण किया और उनके विपरीत बहुत-से बाण 
चलाये ।। १३ ।। 

ततस्तु सर्वयोधानां यततां प्रेक्षतां तदा । 

प्रावेपन्निव गात्राणि कर्णभीमसमागमे ।। १४ ।। 

उस समय कर्ण और भीमसेनके संघर्षमें विजयके लिये प्रयत्नशील होकर देखनेवाले 
सम्पूर्ण योद्धाओंके शरीर काँपने-से लगे ।। १४ ।। 

रथिनां सादिनां चैव तयो: श्रुत्वा तलस्वनम्‌ | 


भीमसेनस्य निनदं श्रुत्वा घोरं रणाजिरे ।। १५ ।। 

उन दोनोंके ताल ठोकनेकी आवाज सुनकर तथा समरांगणमें भीमसेनकी घोर गर्जना 
सुनकर रथियों और घुड़सवारोंके भी शरीर थर-थर काँपने लगे ।। १५ ।। 

खं च भूमिं च संरुद्धां मेनिरे क्षत्रियर्षभा: । 

पुनर्घोरेण नादेन पाण्डवस्य महात्मन: ।। १६ ।। 

वहाँ आये हुए क्षत्रियशिरोमणि योद्धा महामना पाण्डुनन्दन भीमसेनके बारंबार 
होनेवाले घोर सिंहनादसे आकाश और पृथ्वीको व्याप्त मानने लगे ।। १६ ।। 

समरे सर्वयोधानां ध्नूंष्यभ्यपतन्‌ क्षितौ | 

शस्त्राणि न्यपतन्‌ दोर्भ्य: केषांचिच्चासवो<5द्रवन्‌ ।। १७ ।। 

उस समरांगणमें प्राय: सम्पूर्ण योद्धाओंके धनुष तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र हाथोंसे छूटकर 
पृथ्वीपर गिर पड़े। कितनोंके तो प्राण ही निकल गये ।। १७ ।। 

वित्रस्तानि च सर्वाणि शकृन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः । 

वाहनानि च सर्वाणि बभूवुर्विमनांसि च ।। १८ ।। 

प्रादुरासन्‌ निमित्तानि घोराणि सुबहून्युत । 

गृध्रकड़कबलै श्वासीदन्तरिक्षं समावृतम्‌ ।। १९ ।। 

तस्मिन्‌ सुतुमुले राजन्‌ कर्णभीमसमागमे । 

सारी सेनाके समस्त वाहन संत्रस्त होकर मल-मूत्र त्यागने लगे। उनका मन उदास हो 
गया। बहुत-से भयंकर अपशकुन प्रकट होने लगे। राजन्‌! कर्ण और भीमके उस भयंकर 
युद्धमें आकाश गीधों, कौवों और कंकोंसे छा गया || १८-१९ $ ।। 

ततः कर्णस्तु विंशत्या शराणां भीममार्दयत्‌ ॥। २० ।। 

विव्याध चास्य त्वरित: सूतं पज्चभिराशुगै: । 

तदनन्तर कर्णने बीस बाणोंसे भीमसेनको गहरी चोट पहुँचायी। फिर तुरंत ही उनके 
सारथिको पाँच बाणोंसे बींध डाला || २०३६ ।। 

प्रहस्य भीमसेनो<पि कर्ण प्रत्याद्रवद्‌ रणे | २१ ।। 

सायकानां चतुःषष्ट्या क्षिप्रकारी महायशा: । 

तब शीघ्रता करनेवाले महायशस्वी भीमसेनने भी हँसकर चौंसठ बाणोंद्वारा रणभूमिमें 
कर्णपर आक्रमण किया || २१६ ।। 

तस्य कर्णो महेष्वास: सायकांशक्ष॒तुरो$क्षिपत्‌ || २२ ।। 

असप्प्राप्तांश्व तान्‌ भीम: सायकैर्नतपर्वभि: । 

चिच्छेद बहुधा राजन्‌ दर्शयन्‌ पाणिलाघवम्‌ ।। २३ ।। 

राजन! फिर महाधनुर्धर कर्णने चार बाण चलाये। परंतु भीमसेनने अपने हाथकी फुर्ती 
दिखाते हुए झुकी हुई गाँठवाले अनेक बाणोंद्वारा अपने पास आनेके पहले ही कर्णके 
बाणोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये || २२-२३ ।। 


तं॑ कर्णश्छादयामास शरब्रातैरनेकश: । 

संछाद्यमान: कर्णेन बहुधा पाण्डुनन्दन: ।। २४ ।। 

चिच्छेद चापं कर्णस्य मुष्टिदेशे महारथ: । 

विव्याध चैनं बहुभि: सायकैर्नतपर्वभि: ।। २५ ।। 

तब कर्णने अनेकों बार बाणसमूहोंकी वर्षा करके भीमसेनको आच्छादित कर दिया। 
कर्णके द्वारा बारंबार अच्छादित होते हुए पाण्डुनन्दन महारथी भीमने कर्णके धनुषको मुट्ठी 
पकड़नेकी जगहसे काट दिया और झुकी हुई गाँठवाले बहुत-से बाणोंद्वारा उसे घायल कर 
दिया ।। २४-२५ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सज्यं कृत्वा च सूतज: । 

विव्याध समरे भीम॑ भीमकर्मा महारथ: ।। २६ ।। 

तत्पश्चात्‌ भयंकर कर्म करनेवाले महारथी सूतपुत्र कर्णने दूसरा धनुष लेकर उसपर 
प्रत्यंचा चढ़ायी और समरभूमिमें भीमसेनको घायल कर दिया ।। २६ ।। 

तस्य भीमो भशं क्रुद्धस्त्रीन शरान्‌ नतपर्वण: । 

निचखानोरसि क्रुद्ध: सूतपुत्रस्य वेगत: ।। २७ ।। 

तब भीमसेनको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने वेगपूर्वक सूतपुत्रकी छातीमें झुकी हुई 
गाँठवाले तीन बाण धँसा दिये ।। 

तै: कर्णोडराजत शरैरुरोर्म ध्यगतैस्तदा । 

महीधर इवोदग्रस्त्रिशुड्रो भरतर्षभ ।। २८ ।। 

भरतश्रेष्ठ) ठीक छातीके बीचमें गड़े हुए उन बाणोंद्वारा कर्ण तीन शिखरोंवाले ऊँचे 
पर्वतके समान सुशोभित हुआ || २८ ।। 

सुस्राव चास्य रुधिरं विद्धस्य परमेषुभि: । 

धातुप्रस्यन्दिन: शैलादू यथा गैरिकधातव: ।। २९ ।। 

उन उत्तम बाणोंसे बिंधे हुए कर्णकी छातीसे बहुत रक्त गिरने लगा, मानो धातुकी 
धाराएँ बहानेवाले पर्वतसे गैरिक धातु (गेरु) प्रवाहित हो रहा हो ।। २९ ।। 

किंचिद्‌ विचलित: कर्ण: सुप्रहाराभिपीडित: । 

आकर्णपूर्णमाकृष्य भीम॑ विव्याध सायकै: ।। ३० ।। 

उस गहरे प्रहारसे पीड़ित हो कर्ण कुछ विचलित हो उठा। फिर धनुषको कानतक 
खींचकर उसने अनेक बाणोंद्वारा भीमसेनको बींध डाला ।। ३० ।। 

चिक्षेप च पुनर्बाणानू शतशो5थ सहस्रश: । 

स शरैररदितस्तेन कर्णेन दृढ्धन्विना । 

धनुर्ज्यामच्छिनत्‌ तूर्ण भीमस्तस्य क्षुरेण ह ।। ३१ ।। 

तत्पश्चात्‌ उनपर पुनः सैकड़ों और हजारों बाणोंका प्रहार किया। सुदृढ़ धनुर्धर कर्णके 
बाणोंसे पीड़ित हो भीमसेनने एक क्षुरके द्वारा तुरंत ही उसके धनुषकी प्रत्यंचा काट दी ।। 


सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्‌ | 

वाहांश्व चतुरस्तस्य व्यसूंश्चक्रे महारथ: ।। ३२ ।। 

साथ ही उसके सारथिको एक भल्लसे मारकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया। इतना 
ही नहीं, महारथी भीमने उसके चारों घोड़ोंके भी प्राण ले लिये || ३२ ।। 

हताश्वात्‌ तु रथात्‌ कर्ण: समाप्लुत्य विशाम्पते । 

स्यन्दनं वृषसेनस्य तूर्णमापुप्लुवे भयात्‌ ।। ३३ ।। 

प्रजानाथ! उस समय कर्ण भयके मारे उस अश्वहीन रथसे कूदकर तुरंत ही वृषसेनके 
रथपर जा बैठा ।। ३३ ।। 

निर्जित्य तु रणे कर्ण भीमसेन: प्रतापवान्‌ । 

ननाद बलवान नादं पर्जन्यनिनदोपमम्‌ ।। ३४ ।। 

इस प्रकार बलवान एवं प्रतापी भीमसेनने रणभूमिमें कर्णको पराजित करके मेघ- 
गर्जनाके समान गम्भीर स्वरसे सिंहनाद किया ।। ३४ ।। 

तस्य त॑ निनदं श्रुत्वा प्रह्ष्टो $ भूद्‌ युधिष्ठिर: । 

कर्ण पराजितं मत्वा भीमसेनेन संयुगे ॥। ३५ ।। 

भीमसेनका वह महान्‌ सिंहनाद सुनकर उनके द्वारा युद्धमें कर्णको पराजित हुआ जान 
राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए | ३५ ।। 

समन्ताच्छड्खनिनदं पाण्डुसेनाकरोत्‌ तदा । 

शत्रुसेनाध्वनिं श्रुत्वा तावका हानदन्‌ भूशम ।। ३६ ।। 

उस समय पाण्डव-सेना सब ओर शंखनाद करने लगी। शत्रुसेनाकी शंखध्वनि सुनकर 
आपके सैनिक भी जोर-जोरसे गर्जना करने लगे || ३६ ।। 

स शड्खबाणनिनदै्हर्षाद्‌ राजा स्ववाहिनीम्‌ । 

चक्रे युधिष्ठिर: संख्ये हर्षनादैश्व॒ संकुलाम्‌ ।। ३७ ।। 

राजा युधिष्ठिरने युद्धस्थलमें हर्षके कारण अपनी सेनाको शंख और बाणोंकी ध्वनि 
तथा हर्षनादसे व्याप्त कर दिया ।। ३७ ।। 

गाज्डीवं व्याक्षिपत्‌ पार्थ: कृष्णो5प्यन्जमवादयत्‌ । 

तमन्तर्धाय निनदं भीमस्य नदतो ध्वनि: । 

अश्रूयत तदा राजन सर्वसैन्येषु दारुण: ।। ३८ ।। 

इसी समय अर्जुनने गाण्डीव धनुषकी टंकार की और भगवान्‌ श्रीकृष्णने पांचजन्य 
शंख बजाया। परंतु उसकी ध्वनिको तिरोहित करके गरजते हुए भीमसेनका भयंकर 
सिंहनाद सम्पूर्ण सेनाओंमें सुनायी देने लगा || ३८ ।। 

ततो व्यायच्छतामस्त्रै: पृथक्‌ पृथगजिद्ाागै: । 

मृदुपूर्व तु राधेयो दृढपूर्व तु पाण्डव: ।। ३९ ।। 


तदनन्तर वे दोनों वीर एक-दूसरेपर पृथक्‌-पृथक्‌ सीधे जानेवाले बाणोंका प्रहार करने 
लगे। राधानन्दन कर्ण मृदुतापूर्वक बाण चलाता था और पाण्डुनन्दन भीमसेन 
कठोरतापूर्वक ।। ३९ |। 

(दृष्टवा कर्ण च पार्थेन बाधितं बहुभि: शरै: । 

दुर्योधनो महाराज दु:शलं प्रत्यभाषत ।। 

कर्ण कृच्छूगतं पश्य शीघ्र यानं प्रयच्छ ह । 

महाराज! कुन्तीपुत्र भीमसेनके द्वारा कर्णको बहुसंख्यक बाणोंसे पीड़ित हुआ देख 
दुर्योधनने दुःशलसे कहा--'दुःशल! देखो, कर्ण संकटमें पड़ा है। तुम शीघ्र उसके लिये रथ 
प्रस्तुत करो' । 

एवमुक्तस्ततो राज्ञा दुःशल: समुपाद्रवत्‌ । 

दुःशलस्य रथं कर्णश्वारुरोह महारथ: । 

तौ पार्थ: सहसा गत्वा विव्याध दशभि: शरै: । 

पुनश्न कर्ण विव्याध दुःशलस्य शिरो5हरत्‌ ।।) 

राजाके ऐसा कहनेपर दुःशल कर्णके पास दौड़ा गया; फिर महारथी कर्ण दुःशलके 
रथपर आरूढ़ हो गया। इसी समय भीमसेनने सहसा जाकर दस बाणोंसे उन दोनोंको 
घायल कर दिया। तत्पश्चात्‌ पुनः कर्णपर आघात किया और दुःशलका सिर काट लिया। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमप्रवेशे कर्णपराजये 
एकोनत्रिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १२९ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनका प्रवेश और 
कर्णकी पराजयविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १२९ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ३ श्लोक मिलाकर कुल ४२३ “लोक हैं) 


न२्ंखय्स््स्लििसस ह्य £>ाभ्प्ट् 


त्रेशरदाधिकशततमो<्ध्याय: 


दुर्योधनका द्रोणाचार्यको उपालम्भ देना, द्रोणाचार्यका उसे 
द्यूतका परिणाम दिखाकर युद्धके लिये वापस भेजना और 
उसके साथ युधामन्यु तथा उत्तमौजाका युद्ध 


संजय उवाच 

तस्मिन्‌ विलुलिते सैन्ये सैन्धवायार्जुने गते । 

सात्वते भीमसेने च पुत्रस्ते द्रोणमभ्ययात्‌ ।। १ ।। 

त्वरन्नेकरथेनैव बहुकृत्यं विचिन्तयन्‌ । 

संजय कहते हैं--महाराज! इस प्रकार जब वह सेना विचलित होकर भाग चली, 
अर्जुन सिंधुराजके वधके लिये आगे बढ़ गये और उनके पीछे सात्यकि तथा भीमसेन भी 
वहाँ जा पहुँचे, तब आपका पुत्र दुर्योधन बड़ी उतावलीके साथ एकमात्र रथद्वारा बहुत-से 
आवश्यक कार्योके सम्बन्धमें सोचता-विचारता हुआ द्रोणाचार्यके पास गया ।। १६ ।। 

स रथस्तव पुत्रस्य त्वरया परया युत: ॥। २ ।। 

तूर्णमभ्यद्रवद्‌ द्रोणं मनोमारुतवेगवान्‌ | 

आपके पुत्रका वह रथ मन और वायुके समान वेगशाली था। वह बड़ी तेजीके साथ 
तत्काल द्रोणाचार्यके पास जा पहुँचा ।। २६ ।। 

उवाच चैन पुत्रस्ते संरम्भाद्‌ रक्तलोचन: ।। ३ ।। 

ससम्भ्रममिदं वाक्यमब्रवीत्‌ कुरुनन्दन: । 

उस समय आपका पुत्र कुरुनन्दन दुर्योधन क्रोधसे लाल आँखें करके घबराहटके स्वरमें 
द्रोणाचार्यसे इस प्रकार बोला-- |। ३ ३ ।। 

अर्जुनो भीमसेनश्व सात्यकिश्वापराजित: ।। ४ ।। 

विजित्य सर्वसैन्यानि सुमहान्ति महारथा: । 

सम्प्राप्ता: सिन्धुराजस्य समीपमनिवारिता: ।। ५ ।। 

“आचार्य! अर्जुन, भीमसेन और अपराजित वीर सात्यकि--ये तीनों महारथी मेरी 
सम्पूर्ण एवं विशाल सेनाओंको पराजित करके सिंधुराज जयद्रथके समीप पहुँच गये हैं। 
उन्हें कोई रोक नहीं सका है || ४-५ ।। 

व्यायच्छन्ति च तत्रापि सर्व एवापराजिता: । 

यदि तावद्‌ू रणे पार्थो व्यतिक्रान्तो महारथ: ।। ६ ।। 

कथं सात्यकिभीमाशभ्यां व्यतिक्रान्तो$सि मानद । 


“वहाँ भी वे सब-के-सब अपराजित होकर मेरी सेनापर प्रहार कर रहे हैं। मान लिया, 
महारथी अर्जुन रणभूमिमें (अधिक शक्तिशाली होनेके कारण) आपको लाँघकर आगे बढ़ 
गये हैं; परंतु दूसरोंको मान देनेवाले गुरुदेव! सात्यकि और भीमसेनने किस तरह आपका 
लंघन किया है? ।। ६६ || 

आश्चर्यभूतं लोके5स्मिन्‌ समुद्रस्येव शोषणम्‌ ।। ७ ।। 

निर्जयस्तव विप्राग्रय सात्वतेनार्जुनेन च । 

तथैव भीमसेनेन लोक: संवदते भूशम्‌ ।। ८ ।। 

“विप्रवर! सात्यकि, भीमसेन तथा अर्जुनके द्वारा आपकी पराजय समुद्रको सुखा 
देनेके समान इस संसारमें एक आश्चर्यभरी घटना है। लोग बड़े जोरसे इस बातकी चर्चा कर 
रहे हैं || ७-८ ।। 

कथं द्रोणो जित: संख्ये धनुर्वेदस्य पारग: । 

इत्येवं ब्रुवते योधा अश्रद्धेयमिदं तव ।। ९ ।। 

'सारे योद्धा यह कह रहे हैं कि धनुर्वेदके पारंगत आचार्य द्रोण कैसे युद्धमें पराजित हो 
गये। आपका यह हारना लोगोंके लिये अविश्वसनीय हो गया है ।। ९ ।। 

नाश एव तु मे नूनं मन्दभाग्यस्य संयुगे | 

यत्र त्वां पुरुषव्याप्रं व्यतिक्रान्तास्त्रयो रथा: ।। १० ।। 

*वास्तवमें मेरा भाग्य ही खोटा है। ये तीनों महारथी जहाँ आप-जैसे पुरुषसिंह वीरको 
लाँघकर आगे बढ़ गये हैं, उस युद्धमें मेरा विनाश ही अवश्यम्भावी है ।। 

एवं गते तु कृत्ये5स्मिन्‌ ब्रूहि यत्‌ ते विवक्षितम्‌ | 

यद्‌ गतं गतमेवेदं शेषं चिन्तय मानद ।। ११ ।। 

'ऐसी परिस्थितिमें जो कर्तव्य है, उसके सम्बन्धमें आपकी क्‍या राय है, यह बताइये। 
मानद! जो हो गया सो तो हो ही गया। अब जो शेष कार्य है, उसका विचार 
कीजिये ।। ११ ।। 

यत्‌ कृत्यं सिन्धुराजस्य प्राप्तकालमनन्तरम्‌ । 

तत्‌ संविधीयतां क्षिप्रं साधु संचिन्त्य नो द्विज ॥। १२ ।। 

“ब्रह्म! इस समय सिंधुराजकी रक्षाके लिये तुरंत करनेयोग्य जो कार्य हमारे सामने 
प्राप्त है, उसे अच्छी तरह सोच-विचारकर शीघ्र सम्पन्न कीजिये” || १२ ।। 

द्रोण उवाच 

चिन्त्यं बहुविधं तात यत्‌ कृत्यं तच्छृणुष्व मे । 

त्रयो हि समतिक्रान्ता: पाण्डवानां महारथा: ।। १३ || 

यावत्‌ तेषां भयं पश्चात्‌ तावदेषां पुरःसरम्‌ । 

तद्‌ गरीयस्तरं मन्ये यत्र कृष्णधनंजयौ ।। १४ ।। 


द्रोणाचार्यने कहा--तात! सोचने-विचारनेको तो बहुत कुछ है, किंतु इस समय जो 
कर्तव्य प्राप्त है वह मुझसे सुनो। पाण्डवपक्षके तीन महारथी हमारी सेनाको लाँधकर आगे 
बढ़ गये हैं। पीछे उनका जितना भय है, उतना ही आगे भी है। परंतु जहाँ अर्जुन और 
श्रीकृष्ण हैं वहीं मेरी समझमें अधिक भयकी आशंका है ।। १३-१४ ।। 

सा पुरस्ताच्च पश्चाच्च गृहीता भारती चमू: । 

तत्र कृत्यमहं मन्ये सैन्धवस्याभिरक्षणम्‌ ।। १५ ।। 

इस समय कौरव-सेना आगे और पीछेसे भी शत्रुओंके आक्रमणका शिकार हो रही है। 
इस परिस्थितिमें मैं सबसे आवश्यक कार्य यही मानता हूँ कि सिंधुराज जयद्रथकी रक्षा की 
जाय ।। १५ || 

स नो रक्ष्यतमस्तात क्रुद्धाद्‌ भीतो धनंजयात्‌ । 

गतौ च सैन्धवं भीमौ युयुधानवृकोदरौ ।। १६ ।। 

तात! जयद्रथ कुपित हुए अर्जुनसे डरा हुआ है। अतः वह हमारे लिये सबसे रक्षणीय 
है। भयंकर वीर सात्यकि और भीमसेन भी जयद्रथको ही लक्ष्य करके गये हैं ।। १६ ।। 

सम्प्राप्तं तदिदं द्यूतं यत्‌ तच्छकुनिबुद्धिजम्‌ । 

न सभायां जयो वृत्तों नापि तत्र पराजय: ॥। १७ ।। 

इह नो ग्लहमानानामद्य तावज्जयाजयौ । 

शकुनिकी बुद्धिमें जो जूआ खेलनेकी बात पैदा हुई थी, वह वास्तवमें आज इस रूपमें 
सफल हो रही है। उस दिन सभामें किसी पक्षकी जीत या हार नहीं हुई थी। आज यहाँ जो 
हमलोग प्राणोंकी बाजी लगाकर जूआ खेल रहे हैं, इसीमें वास्तविक हार-जीत होनेवाली 
है ।। १७३ || 
यान्‌ सम तान्‌ ग्लहते घोरान्‌ शकुनि: कुरुसंसदि ।। १८ ।। 
अक्षान्‌ स मन्यमान: प्राक्‌ शरास्ते हि दुरासदा: । 
शकुनि कौरवसभामें पहले जिन भयंकर पासोंको हाथमें लेकर जूएका खेल खेलता 
उन्हें वह तो पासे ही समझता था, परंतु वास्तवमें वे दुर्धर्ष बाण थे ।। १८६ ।। 
यत्र ते बहवस्तात कौरवेया व्यवस्थिता: ।। १९ ।। 
सेनां दुरोदरं विद्धि शरानक्षान्‌ विशाम्पते । 
ग्लहं च सैन्धवं राजंस्तत्र द्यूतस्य निश्चय: ।। २० ।। 
तात! (असली जूआ तो वहाँ हो रहा है) जहाँ तुम्हारे बहुत-से कौरवयोद्धा खड़े हैं। इस 
सेनाको ही तुम जुआरी समझो। प्रजानाथ! बाणोंको ही पासे मान लो। राजन! सिंधुराज 
जयद्रथको ही बाजी या दाँव समझो। उसीपर जूएकी हार-जीतका फैसला 
होगा ।। १९-२० ।। 

सैन्धवे तु महद्‌ द्यूतं समासक्तं परै: सह । 

अत्र सर्वे महाराज त्यक्त्वा जीवितमात्मन: ।। २१ ।। 


विनय, 


था, 


सैन्धवस्य रणे रक्षां विधिवत्‌ कर्तुमर्हथ । 

तत्र नो ग्लहमानानां ध्रुवी जयपराजयौ ।। २२ ।। 

महाराज! सिंधुराजके ही जीवनकी बाजी लगाकर शत्रुओंके साथ हमारी भारी 
द्यूतक्रीड़ा चल रही है। यहाँ तुम सब लोग अपने जीवनका मोह छोड़कर रणभूमिमें 
विधिपूर्वक जयद्रथकी रक्षा करो। निश्चय ही उसीपर हम द्यूतक्रीड़ा करनेवालोंकी असली 
हार-जीत निर्भर है ।। २१-२२ ।। 

यत्र ते परमेष्वासा यत्ता रक्षन्ति सैन्धवम्‌ | 

तत्र गच्छ स्वयं शीघ्र तांश्व रक्षत्व रक्षिण: ।। २३ ।। 

राजन! जहाँ वे महाधनुर्धर योद्धा सावधान होकर सिंधुराजकी रक्षा करने लगे हैं, वहीं 
तुम स्वयं ही शीघ्र चले जाओ और सिंधुराजके उन रक्षकोंकी रक्षा करो ।। २३ ।। 

इहैव त्वहमासिष्ये प्रेषयिष्यामि चापरान्‌ | 

निरोत्स्यामि च पञ्चालान्‌ सहितान्‌ पाण्डुसृञ्जयै: ।। २४ ।। 

मैं तो यहीं रहूँगा और तुम्हारे पास दूसरे-दूसरे रक्षकोंको भेजता रहूँगा। साथ ही 
पाण्डवों तथा सूंजयोंसहित आये हुए पांचालोंको व्यूहके भीतर जानेसे रोकूँगा || २४ ।। 

ततो दुर्योधनो5गच्छत्‌ तूर्णमाचार्यशासनात्‌ | 

उद्यम्यात्मानमुग्राय कर्मणे सपदानुग: ।। २५ ।। 

तदनन्तर आचार्यकी आज्ञासे दुर्योधन अपने-आपको उग्र कर्म करनेके लिये तैयार 
करके अपने अनुचरोंके साथ शीघ्र वहाँसे चला गया ।। २५ ।। 

चक्ररक्षौ तु पाउ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ । 

बाहोन सेनामभ्येत्य जग्मतु: सव्यसाचिनम्‌ ।। २६ ।। 

अर्जुनके चक्ररक्षक पांचालराजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा सेनाके बाहरी भागसे 
होकर सव्यसाची अर्जुनके समीप जाने लगे ।। २६ ।। 

यौ तु पूर्व महाराज वारितौ कृतवर्मणा । 

प्रविष्टे त्वर्जुने राजंस्तव सैन्यं युयुत्सया ।। २७ ।। 

महाराज! जब अर्जुन युद्धकी इच्छासे आपकी सेनाके भीतर घुसे थे, उस समय (ये 
दोनों भीमके साथ ही थे, किंतु) कृतवर्माने उन दोनोंको पहले रोक दिया था ।। २७ ।। 

पाश्वें भित्त्वा चमूं वीरौ प्रविष्टो तव वाहिनीम्‌ | 

पाश्वेन सैन्यमायान्तौ कुरुराजो ददर्श ह ।। २८ ।। 

अब वे दोनों वीर पार्श्चधागसे आपकी सेनाका भेदन करके उसके भीतर घुस गये। 
पार््वभागसे सेनाके भीतर आते हुए उन दोनों वीरोंको कुरुराज दुर्योधनने देखा || २८ ।। 

ताभ्यां दुर्योधन: सार्थमकरोत्‌ संख्यमुत्तमम्‌ । 

त्वरितस्त्वरमाणाभ्यां भ्रातृभ्यां भारतो बली ।। २९ ।। 


तब उस बलवान्‌ भरतवंशी वीर दुर्योधनने तुरंत आगे बढ़कर बड़ी उतावलीके साथ 
आते हुए उन दोनों भाइयोंके साथ भारी युद्ध छेड़ दिया || २९ ।। 

तावेनमभ्यद्रवतामुभावुद्यतकार्मुकौ । 

महारथसमाख्वाती क्षत्रियप्रवरी युधि ।। ३० ।। 

वे दोनों क्षत्रियशिरोमणि विख्यात महारथी वीर थे। उन दोनोंने युद्धस्थलमें धनुष 
उठाकर दुर्योधनपर धावा बोल दिया ।। ३० ।। 

तमविध्यद्‌ युधामन्युस्त्रिंशता कड्कपत्रिभि: | 

विंशत्या सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरो हयान्‌ ।। ३१ ।। 

युधामन्युने कंकपत्रयुक्त तीस बाणोंद्वारा दुर्योधनको घायल कर दिया। फिर बीस 
बाणोंसे उसके सारथिको और चारसे चारों घोड़ोंको बींध डाला ॥। ३१ ।। 

दुर्योधनो युधामन्योर्ध्वजमेकेषुणाच्छिनत्‌ । 

एकेन कार्मुकं॑ चास्य चकर्त तनयस्तव ।। ३२ ।। 

तब आपके पुत्र दुर्योधनने एक बाणसे युधामन्युकी ध्वजा काट डाली और एकसे 
उसके धनुषके दो टुकड़े कर दिये |। ३२ ।। 

सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपाहरत्‌ । 

ततो<विध्यच्छरैस्ती #णै क्षतुर्भि क्षतुरो हयान्‌ ।। ३३ ।। 

इतना ही नहीं, एक भल्ल मारकर उसने युधामन्युके सारथिको भी रथकी बैठकसे नीचे 
गिरा दिया। फिर चार तीखे बाणोंद्वारा उसके चारों घोड़ोंको भी घायल कर दिया ।। 

युधामन्युश्व संक्रुद्धः शरांस्त्रिंशतमाहवे । 

व्यसृजत्‌ तव पुत्रस्य त्वरमाण: स्तनान्तरे ।। ३४ ।। 

इससे युधामन्यु भी कुपित हो उठा। उसने युद्धस्थलमें बड़ी उतावलीके साथ आपके 
पुत्रकी छातीमें तीस बाण मारे ।। ३४ ।। 

तथोत्तमौजा: संक्रुद्धः शरैहेमविभूषितै: । 

अविध्यत्‌ सारथिं चास्य प्राहिणोद्‌ू यमसादनम्‌ ।। ३५ ।। 

इसी प्रकार उत्तमौजाने भी अत्यन्त कुपित हो अपने सुवर्णभूषित बाणोंद्वारा उसके 
सारथिको गहरी चोट पहुँचायी और उसे यमलोक भेज दिया ।। ३५ |। 

दुर्योधनो5पि राजेन्द्र पाउ्चाल्यस्योत्तमौजस: । 

जघान चतुरो<स्याश्वानुभौ तौ पार्ष्णिसारथी ।। ३६ ।। 

राजेन्द्र! तब दुर्योधनने भी पांचालराज उत्तमौजाके चारों घोड़ों और दोनों 
पार्श्वरक्षकोंको सारथिसहित मार डाला ।। ३६ || 

उत्तमौजा हताश्वस्तु हतसूतश्च संयुगे । 

आरुरोह रथं भ्रातुर्युधामन्योरभित्वरन्‌ ।। ३७ ।। 


युद्धमें घोड़ों और सारथिके मारे जानेपर उत्तमौजा शीघ्रतापूर्वक अपने भाई युधामन्युके 
रथपर जा चढ़ा ।। 

स रथं प्राप्य त॑ भ्रातुर्दुयो धनहयान्‌ शरै: । 

बहुभिस्ताडयामास ते हता: प्रापतन्‌ भुवि ।। ३८ ।। 

भाईके रथपर बैठकर उत्तमौजाने अपने बहुसंख्यक बाणोंद्वारा दुर्योधनके घोड़ोंपर 
इतना प्रहार किया कि वे प्राणशून्य होकर धरतीपर गिर पड़े | ३८ ।। 

हयेषु पतितेष्वस्य चिच्छेद परमेषुणा । 

युधामन्युर्धनु: शीघ्रं शरावापं च संयुगे ।। ३९ ।। 

घोड़ोंके धराशायी हो जानेपर युधामन्युने उस युद्धस्थलमें उत्तम बाणका प्रहार करके 
दुर्योधनके धनुष और तरकसको भी शीजघ्रतापूर्वक काट गिराया | ३९ ।। 

हताश्वसूतात्‌ स रथादवतीर्य नराधिप: । 

गदामादाय ते पुत्र: पाज्चाल्यावभ्यधावत ।। ४० || 

घोड़े और सारथिके मारे जानेपर आपका पुत्र राजा दुर्योधन रथसे उतर पड़ा और गदा 
हाथमें लेकर पांचाल देशके उन दोनों वीरोंकी ओर दौड़ा || ४० ।। 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य क्रुद्धं कुरुपतिं तदा । 

अवष्लुतौ रथोपस्थाद्‌ युधामन्यूत्तमौजसौ ।। ४१ ।। 

उस समय क्रोधमें भरे हुए कुरुराज दुर्योधनको अपनी ओर आते देख दोनों भाई 
युधामन्यु और उत्तमौजा रथके पिछले भागसे नीचे कूद गये ।। ४१ ।। 

ततः स हेमचित्रं तं गदया स्यन्दनं गदी । 

संक्रुद्ध/ पोथयामास साश्वसूतध्वजं नृप ।। ४२ ।। 

नरेश्वर! तदनन्तर अत्यन्त कुपित हुए गदाधारी दुर्योधनने घोड़े, सारथि और ध्वजसहित 
उस सुवर्णजटित सुन्दर रथको गदाके आघातसे चूर-चूर कर दिया ।। ४२ ।। 

भड्वक्त्वा रथं स पुत्रस्ते हताश्वो हतसारथि: । 

मद्रराजरथं तूर्णमारुरोह परंतप: ।। ४३ ।। 

इस प्रकार उस रथको तोड़-फोड़कर घोड़ों और सारथिसे हीन हुआ शत्रुसंतापी 
दुर्योधन शीघ्र ही मद्रराज शल्यके रथपर जा चढ़ा ।। ४३ ।। 

पज्चालानां ततो मुख्यौ राजपुत्रौ महारथौ । 

रथावन्यौ समारुह् बीभत्सुमभिजग्मतु: ।। ४४ ।। 

तत्पश्चात्‌ पांचाल-सेनाके वे दोनों प्रधान महारथी राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा 
दूसरे दो रथोंपर आरूढ़ होकर अर्जुनके समीप चले गये ।। ४४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनयुद्धे 
त्रिंशयवधिकशततमो<ध्याय: ।। १३० ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनका युद्धविषयक एक 
सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३० ॥। 


ऑपन--माजल छा अफ-जआकऋा-ज 


एकत्रिशर्दाधेकशततमो< ध्याय: 
भीमसेनके द्वारा कर्णकी पराजय 


संजय उवाच 

वर्तमाने महाराज संग्रामे लोमहर्षणे । 

व्याकुलेषु च सर्वेषु पीड्यमानेषु सर्वश: ।। १ ।। 

राधेयो भीममानर्च्छद्‌ युद्धाय भरतर्षभ | 

यथा नागो वने नागं मत्तो मत्तमभिद्रवन्‌ ।। २ ।॥। 

संजय कहते हैं--भरतश्रेष्ठ महाराज! इस प्रकार रोमांचकारी संग्राम छिड़ जानेपर 
जब सारी सेनाएँ सब ओरसे पीड़ित और व्याकुल हो गयीं तब राधानन्दन कर्ण युद्धके लिये 
पुनः भीमसेनके सामने आया। ठीक उसी तरह, जैसे वनमें एक मतवाला हाथी दूसरे 
मदोन्मत्त हाथीपर आक्रमण करता है ।। १-२ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

यौ तौ कर्णश्न भीमश्च सम्प्रयुद्धो महाबलौ । 

अर्जुनस्य रथोपान्ते कीदृश: सो5भवद्‌ रण: ।॥। ३ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! महाबली कर्ण और भीमसेनने अर्जुनके रथके निकट जाकर 
जो बड़े वेगसे युद्ध किया, उनका वह संग्राम कैसा हुआ? ।। ३ ।। 

पूर्व हि निर्जित: कर्णो भीमसेनेन संयुगे । 

कथं भूय: स राधेयो भीममागान्महारथ: ।। ४ ।। 

भीमसेनने युद्धमें जब राधानन्दन महारथी कर्णको पहले ही जीत लिया था, तब वह 
पुनः उनका सामना करनेके लिये कैसे आया? ।। ४ ।। 

भीमो वा सूततनयं प्रत्युद्यात: कथं रणे । 

महारथं समाख्यातं पृथिव्यां प्रवरं रथम्‌ । ५ ।। 

अथवा भीमसेन भूमण्डलके श्रेष्ठ एवं विख्यात महारथी सूतपुत्र कर्णसे समरांगणमें 
युद्ध करनेके लिये कैसे आगे बढ़े? ।। ५ ।। 

भीष्मद्रोणावतिक्रम्य धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

नान्यतो भयमादत्त विना कर्णान्महारथात्‌ ।। ६ ।। 

भीष्म और द्रोणसे पार पाकर धर्मराज युधिष्ठिरको अब महारथी कर्णके सिवा दूसरे 
किसीसे भय नहीं रह गया है || ६ ।। 

भयाद्‌ यस्य महाबाहोरन शेते बहुला: समा: । 

चिन्तयन्‌ नित्यशो वीर्य राधेयस्य महात्मन: । 


त॑ कथं सूतपुत्रं तु भीमोड्योधयताहवे ।। ७ ।। 

पहले जिस महाबाहु महामना राधानन्दन कर्णके बल-पराक्रमका नित्य चिन्तन करते 
हुए राजा युधिष्ठिर भयके मारे बहुत वर्षोतक नींद नहीं लेते थे, उसी सूतपुत्र कर्णके साथ 
भीमसेनने समरभूमिमें किस तरह युद्ध किया? ।। ७ ।। 

ब्रद्माण्यं वीर्यसम्पन्नं समरेष्वनिवर्तिनम्‌ । 

कथं कर्ण युधां श्रेष्ठ योधयामास पाण्डव: ।। ८ ।। 

जो ब्राह्मणभक्त, पराक्रमसम्पन्न और समरभूमिमें कभी पीछे न हटनेवाला है, 
योद्धाओंमें श्रेष्ठ उस कर्णके साथ भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया? ।। ८ ।। 

यौ तौ समीयतुर्वीरी वैकर्तनवृकोदरौ । 

कथं तावत्र युध्येतां महाबलपराक्रमौ ।। ९ ।। 

जो वीर पहले आपसमें भिड़ चुके थे, वे ही महान्‌ बल और पराक्रमसे सम्पन्न कर्ण 
और भीमसेन यहाँ पुन: कैसे युद्धमें प्रवृत्त हुए? ।। ९ ।। 

भ्रातृत्वं दर्शितं पूर्व घूणी चापि स सूतज: । 

कथं भीमेन युयुधे कुन्त्या वाक्यमनुस्मरन्‌ ।। १० ।। 

पहले तो सूतपुत्र कर्णने अर्जुनके सिवा अन्य पाण्डवोंके प्रति बन्धुत्व दिखाया था और 
वह दयालु भी है ही, तथापि कुन्तीके वचनोंको बारंबार स्मरण करते हुए भी उसने 
भीमसेनके साथ कैसे युद्ध किया? ।। १० ।। 

भीमो वा सूतपुत्रेण स्मरन्‌ वैरं पुरा कृतम्‌ 

अयुध्यत कथं शूर: कर्णेन सह संयुगे ।। ११ ।। 

अथवा शूरवीर भीमसेनने पहलेके किये हुए वैरका स्मरण करके सूतपुत्र कर्णके साथ 
उस रफणक्षेत्रमें किस प्रकार युद्ध किया? ।। ११ ।। 

आशास्ते च सदा सूत पुत्रो दुर्योधनो मम । 

कर्णो जेष्यति संग्रामे समस्तान्‌ पाण्डवानिति ।। १२ ।। 

संजय! मेरा बेटा दुर्योधन सदा यही आशा करता है कि कर्ण संग्राममें समस्त 
पाण्डवोंको जीत लेगा ।। १२ ।। 

जयाशा यत्र पुत्रस्य मम मन्दस्य संयुगे | 

स कथं भीमकर्माणं भीमसेनमयोधयत्‌ ।। १३ ।। 

युद्धस्थलमें जिसके ऊपर मेरे मूर्ख पुत्रकी विजयकी आशा लगी हुई है, उस कर्णने 
भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनके साथ किस प्रकार युद्ध किया? ।। १३ ।। 

यं समासाद्य पुत्रै्मे कृतं वैरं महारथै: । 

त॑ सूततनयं तात कथं भीमो हायोधयत्‌ ।। १४ ।। 

तात! जिसका आश्रय लेकर मेरे पुत्रोंने महारथी पाण्डवोंके साथ वैर ठाना है, उस 
सूतपुत्र कर्णके साथ भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया? ।। १४ ।। 


अनेकान्‌ विप्रकारांश्व सूतपुत्रसमुद्भवान्‌ | 

स्मरमाण: कथं भीमो युयुथे सूतसूनुना ।। १५ ।। 

सूतपुत्रके द्वारा किये गये अनेक अपकारोंको स्मरण करके भीमसेनने उसके साथ 
किस तरह युद्ध किया? ।। १५ ।। 

योडजयत्‌ पृथिवीं सर्वा रथेनैकेन वीर्यवान्‌ । 

त॑ सूततनयं युद्धे कथं भीमो हायोधयत्‌ ।। १६ ।। 

जिस पराक्रमी वीरने एकमात्र रथकी सहायतासे सारी पृथ्वीको जीत लिया, उस 
सूतपुत्रके साथ रणभूमिमें भीमसेनने किस तरह युद्ध किया? ।। १६ ।। 

यो जात: कुण्डलाभ्यां च कवचेन सहैव च । 

त॑ सूतपुत्रं समरे भीम: कथमयोधयत्‌ ।। १७ ।। 

जो जन्मसे ही कवच और कुण्डलोंके साथ उत्पन्न हुआ था, उस सूतपुत्रके साथ 
समरांगणमें भीमसेनने किस प्रकार युद्ध किया? ।। १७ ।। 

यथा तयोर्युद्धमभूद्‌ यश्चासीद्‌ विजयी तयो: । 

तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन कुशलो हासि संजय ।। १८ ।। 

संजय! उन दोनों वीरोंमें जिस प्रकार युद्ध हुआ और उनमेंसे जिस एकको विजय प्राप्त 
हुई, उसका वह सब समाचार मुझे ठीक-ठीक बताओ; क्‍योंकि तुम इस कार्यमें कुशल 
हो ।। १८ ।। 

संजय उवाच 

भीमसेनस्तु राधेयमुस्तृज्य रथिनां वरम्‌ | 

इयेष गन्तुं यत्रास्तां वीरी कृष्णधनंजयौ ।। १९ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! भीमसेनने रथियोंमें श्रेष्ठ राधापुत्र कर्णको छोड़कर वहाँ 
जानेकी इच्छा की जहाँ वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन विद्यमान थे || १९ ।। 

त॑ प्रयान्तमभिद्रुत्य राधेय: कड्कपत्रिभि: । 

अभ्यवर्षन्महाराज मेघो वृष्ट्येव पर्वतम्‌ ।। २० ।। 

महाराज! वहाँसे जाते हुए भीमसेनपर आक्रमण करके राधापुत्र कर्णने उनके ऊपर 
कंकपत्रयुक्त बाणोंकी उसी प्रकार वर्षा आरम्भ कर दी, जैसे बादल पर्वतपर जलकी वर्षा 
करता है || २० ।। 

फुल्लता पड़कजेनेव वक्त्रेण विहसन्‌ बली । 

आजुहाव रणे यान्तं भीममाधिरथिस्तदा ।। २१ ।। 

बलवान्‌ अधिरथपुत्रने खिलते हुए कमलके समान मुखसे हँसकर जाते हुए भीमसेनको 
युद्धके लिये ललकारा ।। २१ ।। 


कर्ण उवाच 


भीमाहितैस्तव रणे स्वप्रेडपि न विभावितम्‌ । 

तद्‌ दर्शयसि कस्मान्मे पृष्ठं पार्थदिदृक्षया ।। २२ ।। 

कर्णने कहा--भीमसेन! तुम्हारे शत्रुओंने स्वप्नमें भी यह नहीं सोचा था कि तुम युद्धमें 
पीठ दिखाओगे; परंतु इस समय अर्जुनसे मिलनेके लिये तुम मुझे पीठ क्यों दिखा रहे 
हो? ।। २२ ।। 

कुन्त्या: पुत्रस्य सदृशं नेदं पाण्डवनन्दन । 

तेन मामभित: स्थित्वा शरवर्षैरवाकिर ।। २३ ।। 

पाण्डवनन्दन! तुम्हारा यह कार्य कुन्तीके पुत्रके योग्य नहीं है। अतः मेरे सम्मुख रहकर 
मुझपर बाणोंकी वर्षा करो ।। २३ ।। 

भीमसेनस्तदाद्धानं कर्णन्नामर्षयद्‌ युधि । 

अर्धमण्डलमावृत्य सूतपुत्रमयोधयत्‌ ।। २४ ।। 

कर्णकी ओरसे रणक्षेत्रमें वह युद्धकी ललकार भीमसेन न सह सके। उन्होंने 
अर्धमण्डल गतिसे घूमकर सूतपुत्रके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया ।। २४ ।। 

अवक्रगामिभिर्बाणैर भ्यवर्षन्महायशा: । 

दंशितं द्वैरथे यत्तं सर्वशस्त्रविशारदम्‌ ।। २५ || 

महायशस्वी भीमसेन सम्पूर्ण शस्त्रोंके चलानेमें निपुण, कवचधारी तथा द्वैरथ युद्धके 
लिये तैयार कर्णके ऊपर सीधे जानेवाले बाणोंकी वर्षा करने लगे || २५ ।। 

विधित्सु: कलहस्यान्तं जिघांसु: कर्णमक्षिणोत्‌ । 

हत्वा तस्यानुगांस्तं च हन्तुकामो महाबल: ।। २६ ।। 

कलहका अन्त करनेकी इच्छासे महाबली भीमसेन कर्णको मार डालना चाहते थे और 
इसीलिये उसे बाणोंद्वारा क्षत-विक्षत कर रहे थे। वे कर्णको मारकर उसके अनुगामी 
सेवकोंका भी वध करनेकी इच्छा रखते थे ।। २६ ।। 

तस्मै व्यसृजदुग्राणि विविधानि परंतप: । 

अमर्षात्‌ पाण्डव: क्रुद्ध: शरवर्षाणि मारिष ॥। २७ ।। 

माननीय नरेश! शत्रुओंको संताप देनेवाले पाण्डुनन्दन भीमसेन कुपित हो अमर्षवश 
कर्णपर नाना प्रकारके भयंकर बाणोंकी वर्षा करने लगे || २७ ।। 

तस्य तानीषुवर्षाणि मत्तद्विरदगामिन: । 

सूतपुत्रो5स्त्रमायाभिर ग्रसत्‌ परमास्त्रवित्‌ || २८ ।। 

उत्तम अस्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले सूतपुत्र कर्णने अपने अस्त्रोंकी मायासे मतवाले हाथीके 
समान मस्तीसे चलनेवाले भीमसेनकी उस बाण-वर्षाको ग्रस लिया ।। २८ ।। 

स यथावन्महाबाहुर्विद्यया वै सुपूजित: । 

आचार्यवन्महेष्वास: कर्ण: पर्यचरद्‌ बली ।। २९ ।। 


महाबाहु महाधनुर्धर बलवान्‌ कर्ण अपनी विद्याद्वारा आचार्य द्रोणके समान यथावत्‌ 
पूजित हो रणक्षेत्रमें विचरने लगा ।। २९ ।। 

युध्यमानं तु संरम्भाद्‌ भीमसेनं हसन्निव । 

अभ्यपद्यत कौन्तेयं कर्णो राजन्‌ वृकोदरम्‌ ।। ३० ।। 

राजन! क्रोधपूर्वक युद्ध करनेवाले कुन्तीपुत्र भीमसेनकी हँसी उड़ाता हुआ-सा कर्ण 
उनके सामने जा पहुँचा || ३० ।। 

तन्नामृष्यत कौन्तेय: कर्णस्य स्मितमाहवे । 

युध्यमानेषु वीरेषु पश्यत्सु च समन्‍्ततः ।। ३१ ।। 

त॑ं भीमसेन: सम्प्राप्तं वत्सदन्तै: स्तनान्तरे । 

विव्याध बलवान क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम्‌ ।। ३२ ।। 

कुन्तीकुमार भीम युद्धस्थलमें कर्णकी उस हँसीको न सह सके। सब ओर युद्ध करते 
हुए समस्त वीरोंको देखते-देखते बलवान्‌ भीमसेनने कुपित हो सामने आये हुए कर्णकी 
छातीमें वत्सदन्‍्त नामक बाणोंद्वारा उसी प्रकार चोट पहुँचायी, जैसे महावत महान्‌ 
गजराजको अंकुशोंद्वारा पीड़ित करता है ।। ३१-३२ ।। 

पुनश्न सूतपुत्र॑ तु स्वर्णपुडुखै: शिलाशितै: । 

सुमुक्तैश्नित्रवर्माणं निर्बिभेद त्रिसप्तभि: ।। ३३ |। 

तत्पश्चात्‌ विचित्र कवच धारण करनेवाले सूतपुत्रको सानपर चढ़ाकर तेज किये हुए 
सुवर्णमय पंखवाले तथा अच्छी तरह छोड़े हुए इक्कीस बाणोंद्वारा पुनः क्षत-विक्षत कर 
दिया ।। ३३ ।। 

कर्णो जाम्बूनदैर्जालै: संछन्नान्‌ वातरंहस: । 

हयान्‌ विव्याध भीमस्य पञ्चभि: पठ्चभि: शरै: ।। ३४ ।। 

उधर कर्णने भीमसेनके सोनेकी जालियोंसे आच्छादित हुए वायुके समान वेगशाली 
घोड़ोंको पाँच-पाँच बाणोंसे वेध दिया || ३४ ।। 

ततो बाणमयं जालं भीमसेनरयथं प्रति । 

कर्णेन विहितं राजन्‌ निमेषार्धाददृश्यत ।। ३५ ।। 

राजन! तदनन्तर आधे निमेषमें ही भीमसेनके रथपर कर्णद्वारा बाणोंका जाल-सा 
बिछाया जाता दिखायी दिया ।। ३५ ।। 

सरथ: सध्वजस्तत्र समूत: पाण्डवस्तदा । 

प्राच्छाद्यत महाराज कर्णचापच्युतै: शरै: ।। ३६ ।। 

महाराज! वहाँ कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा उस समय रथ, ध्वज और 
सारथिसहित पाण्डुनन्दन भीमसेन आच्छादित हो गये ।। ३६ ।। 

तस्य कर्णश्नतु:षष्ट्या व्यधमत्‌ कवचं दृढम्‌ । 

क्रुद्धक्षाप्पहनत्‌ पार्थ नाराचैर्मर्म भेदिभि: ।। ३७ ।। 


कर्णने चौंसठ बाण मारकर भीमसेनके सुदृढ़ कवचकी धज्जियाँ उड़ा दीं। फिर कुपित 
होकर उसने मर्मभेदी नाराचोंसे कुन्तीकुमारको अच्छी तरह घायल किया ।। ३७ ।। 

ततो<चिन्त्य महाबाहु: कर्णकार्मुकनि:सृतान्‌ । 

समाश्लिष्यदसम्शभ्रान्त: सूतपुत्रं वृकोदर: ।। ३८ ।। 

महाबाहु भीमसेन कर्णके धनुषसे छूटे हुए उन बाणोंकी कोई परवा न करके बिना 
किसी घबराहटके सूतपुत्रके इतने समीप पहुँच गये, मानो उससे सटे जा रहे हों ।। ३८ ।। 

स कर्णचापप्रभवानिषूनाशीविषोपमान्‌ । 

बिभ्रद्‌ भीमो महाराज न जगाम व्यथां रणे ॥। ३९ ।। 

महाराज! कर्णके धनुषसे छूटे हुए विषधर सर्पके समान भयंकर बाणोंको अपने 
शरीरपर धारण करते हुए भीमसेन रणक्षेत्रमें व्यथित नहीं हुए ।। ३९ ।। 

ततो द्वात्रिंशता भल्लैरनिशितैस्तिग्मतेजनै: । 

विव्याध समरे कर्ण भीमसेन: प्रतापवान्‌ ।। ४० ।। 

तत्पश्चात्‌ अच्छी तरह तेज किये हुए बत्तीस तीखे भल्लोंसे प्रतापी भीमसेनने 
समरांगणमें कर्णको भारी चोट पहुँचायी || ४० ।। 

अयल्नेनैव तं॑ कर्ण: शरैर्भूशमवाकिरत्‌ । 

भीमसेनं महाबाहुं सैन्धवस्य वधैषिणम्‌ ।। ४१ ।। 

उधर कर्ण जयद्रथके वधकी इच्छावाले महाबाहु भीमसेनपर अनायास ही बाणोंकी 
बड़ी भारी वर्षा करने लगा ।। ४१ ।। 

मृदुपूर्व तु राथेयो भीममाजावयोधयत्‌ । 

क्रोधपूर्व तथा भीम: पूर्व वैरमनुस्मरन्‌ ।। ४२ ।। 

राधानन्दन कर्ण तो भीमसेनपर कोमल प्रहार करता हुआ रणभूमिमें उनके साथ युद्ध 
करता था; परंतु भीमसेन पहलेके वैरको बारंबार स्मरण करते हुए क्रोधपूर्वक उसके साथ 
जूझ रहे थे || ४२ ।। 

त॑ भीमसेनो नामृष्यदवमानममर्षण: । 

स तस्मै व्यसृजत्‌ तूर्ण शरवर्षममित्रहा ।। ४३ ।। 

शत्रुओंका नाश करनेवाले अमर्षशील भीमसेन कर्णद्वारा दिखायी जानेवाली कोमलता 
या ढिलाईको अपने लिये अपमान समझकर उसे सह न सके। अतः उन्होंने भी तुरंत ही 
उसपर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी || ४३ ।। 

ते शरा: प्रेषितास्तेन भीमसेनेन संयुगे । 

निपेतु: सर्वतो वीरे कूजन्त इव पक्षिण: ।। ४४ ।। 

युद्धस्थलमें भीमसेनके द्वारा चलाये हुए वे बाण कूजते हुए पक्षियोंके समान वीर 
कर्णपर सब ओरसे पड़ने लगे || ४४ ।। 

हेमपुड्खा: प्रसन्नाग्रा भीमसेनथधनुश्चयुता: । 


प्राच्छादयंस्ते राधेयं शलभा इव पावकम्‌ ।। ४५ ।। 

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए चमचमाती हुई धारवाले सुवर्णमय पंखोंसे सुशोभित उन 
बाणोंने राधानन्दन कर्णको उसी प्रकार ढक दिया, जैसे पतिंगे आगको आच्छादित कर लेते 
हैं ।। ४५ || 

कर्णस्तु रथिनां श्रेष्ठश्छाद्यमान: समन्तत: । 

राजन्‌ व्यसृजदुग्राणि शरवर्षाणि भारत ।। ४६ ।। 

भरतवंशी नरेश! इस प्रकार सब ओरसे बाणोंद्वारा आच्छादित होते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ 
कर्णने भी भीमपर भयंकर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी || ४६ || 

तस्य तानशनिप्रख्यानिषून्‌ समरशोभिन: । 

चिच्छेद बहुभिर्भल्लैरसम्प्राप्तान्‌ वकोदर: ।। ४७ ।। 

परंतु समरभूमिमें शोभा पानेवाले कर्णके उन वज्रोपम बाणोंको भीमसेनने अपने पास 
आनेसे पहले ही बहुत-से भल्लोंद्वारा काट गिराया ।। ४७ ।। 

पुनश्च शरवर्षेण च्छादयामास भारत । 

कर्णो वैकर्तनो युद्धे भीमसेनमरिंदम: ।। ४८ ।। 

भरतनन्दन! शत्रुओंका दमन करनेवाले सूर्यपुत्र कर्णने युद्धमें पुन: बाण-वर्षा करके 
भीमसेनको ढक दिया ।। ४८ ।। 

तत्र भारत भीमं तु दृष्टवन्त: सम सायकै: । 

समाचिततनु संख्ये श्वाविधं शललैरिव ।। ४९ ।। 

भारत! उस समय युद्धस्थलमें बाणोंसे चिने हुए शरीरवाले भीमसेनको सब लोगोंने 
कंटकोंसे युक्त साहीके समान देखा ।। ४९ || 

हेमपुड्खान्‌ शिलाधौतान्‌ कर्णचापच्युतान्‌ शरान्‌ । 

दधार समरे वीर: स्वरश्मीनिव रश्मिवान्‌ ।। ५० || 

वीर भीमसेनने कर्णके धनुषसे छूटे और शिलापर तेज किये हुए सुवर्णपंखयुक्त 
बाणोंको समरांगणमें अपने शरीरपर उसी प्रकार धारण किया था, जैसे अंशुमाली सूर्य 
अपने किरणोंको धारण करते हैं || ५० ।। 

रुधिरोक्षितसर्वाड्रो भीमसेनो व्यराजत । 

समृद्धकुसुमापीडो वसन्ते5शोकवृक्षवत्‌ ।। ५१ ।। 

भीमसेनका सारा शरीर खूनसे लथपथ हो रहा था। वे वसन्त-ऋतुमें खिले हुए 
अधिकाधिक पुष्पोंसे सम्पन्न अशोक वृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे || ५१ ।। 

तत्तु भीमो महाबाहो: कर्णस्य चरितं रणे | 

नामृष्यत महाबाहु: क्रोधादुद्वृत्तलोचन: ।। ५२ ।। 

महाबाहु भीमसेन रणभूमिमें विशालबाहु कर्णके उस चरित्रको न सह सके। उस समय 
क्रोधसे उनके नेत्र घूमने लगे |। ५२ ।। 


स कर्ण पज्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्‌ | 

महीधरमिव श्वैतं गूढपादैर्विषोल्बणै: ।। ५३ ।। 

उन्होंने कर्णपर पचीस नाराच चलाये; उनके लगनेसे कर्ण छिपे हुए पैरोंवाले विषैले 
सर्पोसे युक्त श्वेत पर्वतके समान जान पड़ता था ।। ५३ ।। 

पुनरेव च विव्याध षड्भिरष्टाभिरेव च । 

मर्मस्वमरविक्रान्त: सूतपुत्र॑ं तनुत्यजम्‌ ।। ५४ ।। 

फिर देवोपम पराक्रमी भीमने अपने शरीरकी परवा न करनेवाले सूतपुत्रको उसके 
मर्मस्थानोंमें छः और आठ बाण मारकर घायल कर दिया ।। ५४ ।। 

पुनरन्येन बाणेन भीमसेन: प्रतापवान्‌ । 

चिच्छेद कार्मुकं तूर्ण कर्णस्य प्रहसन्निव || ५५ ।। 

इसके बाद हँसते हुए-से प्रतापी भीमसेनने दूसरा बाण मारकर तुरंत ही कर्णके 
धनुषको काट दिया ।। ५५ |। 

जघान चतुरश्नाश्वान्‌ सूतं च त्वरित: शरै: । 

नाराचैरर्करश्म्याभै: कर्ण विव्याध चोरसि ।। ५६ ।। 

फिर शीघ्रतापूर्वक बाणोंका प्रहार करके उसके चारों घोड़ों और सारथिको भी मार 
डाला। साथ ही सूर्यकी किरणोंके समान तेजस्वी नाराचोंसे कर्णकी छातीमें भारी आघात 
किया ।। ५६ ।। 

ते जम्मुर्धरणीमाशु कर्ण निर्भिद्य पत्रिण: । 

यथा जलधरं भित्त्वा दिवाकरमरीचय: ।। ५७ ।। 

जैसे सूर्यकी किरणें बादलोंको भेदकर सब ओर फैल जाती हैं, उसी प्रकार भीमसेनके 
बाण कर्णके शरीरको छेदकर शीघ्र ही धरतीमें समा गये ।। ५७ ।। 

स वैक्लव्यं महत्‌ प्राप्प छिन्नधन्वा शराहतः । 

तथा पुरुषमानी स प्रत्यपायाद्‌ रथान्तरम्‌ ।। ५८ ।। 

यद्यपि कर्णको अपने पुरुषत्वका बड़ा अभिमान था, तो भी भीमसेनके बाणोंसे घायल 
हो धनुष कट जानेपर रथहीन होनेके कारण वह बड़ी भारी घबराहटमें पड़ गया और दूसरे 
रथपर बैठनेके लिये वहाँसे भाग निकला ।। ५८ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णपराजये 
एकत्रिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३१३१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्णकी पराजयविषयक एक 
सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १३१ ॥। 


अपन काल छा | अप्-#-रू+ 


द्वात्रिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
भीमसेन और कर्णका घोर युद्ध 


धृतराष्ट्र रवाच 

स्वयं शिष्यो महेशस्य भृगूत्तम धनुर्धर: । 

शिष्यत्वं प्राप्तवान्‌ कर्णस्तस्य तुल्यो<स्त्रविद्यया ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! भृगुवंशशिरोमणि धनुर्धर परशुरामजी साक्षात्‌ भगवान्‌ 
शंकरके शिष्य हैं तथा कर्ण उन्हींका शिष्यत्व ग्रहण करके अस्त्रविद्यामें उनके समान ही 
सुयोग्य हो गया था || १ ।। 

तद्विशिष्टोडपि वा कर्ण: शिष्य: शिष्यगुणैर्युत: । 

कुन्तीपुत्रेण भीमेन निर्जित: स तु लीलया ।। २ ।। 

अथवा शिष्योचित सदगुणोंसे सम्पन्न परशुरामका वह शिष्य उनसे भी बढ़-चढ़कर है, 
तो भी उसे कुन्तीकुमार भीमसेनने खेल-खेलमें ही पराजित कर दिया ।। २ ।। 

यस्मिन्‌ जयाशा महती पुत्राणां मम संजय । 

तं॑ भीमाद्‌ विमुखं दृष्टवा कि नु दुर्योधनो<5ब्रवीत्‌ ।। ३ ।। 

संजय! जिसपर मेरे पुत्रोंकी विजयकी बड़ी भारी आशा लगी हुई है, उसे भीमसेनसे 
पराजित होकर युद्धसे विमुख हुआ देख दुर्योधनने क्या कहा? ।। ३ ।। 

कथं च युयुधे भीमो वीर्यश्लाघी महाबल: । 

कर्णो वा समरे तात किमकार्षीत्‌ ततः परम्‌ | 

भीमसेनं रणे दृष्टवा ज्वलन्तमिव पावकम्‌ ।। ४ ।। 

तात! अपने पराक्रमसे सुशोभित होनेवाले महाबली भीमसेनने किस प्रकार युद्ध 
किया? अथवा कर्णने रणक्षेत्रमें भीमसेनको अग्निके समान तेजसे प्रज्वलित होते देख 
उसके बाद क्‍या किया? ।। ४ ।। 

संजय उवाच 

रथमन्यं समास्थाय विधिवत्‌ कल्पितं पुन: । 

अभ्ययात्‌ पाण्डवं कर्णो गज त इवार्णव: ।। ५ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! बोध वेगसे ऊपर उठते हुए समुद्रके समान कर्णने 
विधिपूर्वक सजाये हुए दूसरे रथपर आरूढ़ होकर पुनः पाण्डुनन्दन भीमपर आक्रमण 
किया ।। ५ || 

क्रुद्धमाधिरथिं दृष्टवा पुत्रास्तव विशाम्पते । 

भीमसेनममन्यन्त वैश्वानरमुखे हुतम्‌ ।। ६ ।। 


प्रजानाथ! उस समय अधिरथपुत्र कर्णको क्रोधमें भरा हुआ देखकर आपके पुत्रोंने 
यही मान लिया कि भीमसेन अब अग्निके मुखमें दी हुई आहुतिके समान नष्ट हो 
जायँगे || ६ ।। 

चापशब्दं ततः कृत्वा तलशब्दं च भैरवम्‌ । 

अभ्यद्रवत राधेयो भीमसेनरथं प्रति ।। ७ ।। 

तदनन्तर धनुषकी टंकार और हथेलीका भयानक शब्द करते हुए राधानन्दन कर्णने 
भीमसेनके रथपर धावा बोल दिया ।। ७ ।। 

पुनरेव तयो राजन्‌ घोर आसीत्‌ समागम: । 

वैकर्तनस्य शूरस्य भीमस्य च महात्मन: ।। ८ ।। 

राजन! शूरवीर कर्ण और महामनस्वी भीमसेन--इन दोनों वीरोंमें पुनः घोर संग्राम 
छिड़ गया ।। ८ ।। 

संरब्धौ हि महाबाहू परस्परवधैषिणौ | 

अन्योन्यमीक्षांचक्राते दहन्ताविव लोचनै: ।। ९ ।। 

एक-दूसरेके वधकी इच्छावाले वे दोनों महाबाहु योद्धा अत्यन्त कुपित हो एक-दूसरेको 
नेत्रोंद्वारा दग्ध-से करते हुए परस्पर दृष्टिपात करने लगे || ९ ।। 

क्रोधरक्तेक्षणौ तीव्रौ नि:श्वसन्ताविवोरगौ । 

शूरावन्योन्यमासाद्य ततक्षतुररिंदमौ ।। १० ।। 

उन दोनोंकी आँखें लाल हो गयी थीं। दोनों ही फुफकारते हुए सर्पोके समान लंबी साँस 
खींच रहे थे। दोनों ही शत्रुदमन वीर उग्र हो परस्पर भिड़कर एक-दूसरेको बाणोंद्वारा क्षत- 
विक्षत करने लगे || १० ।। 





भीमसेनके द्वारा कर्णकी पराजय 


व्याप्राविव सुसंरब्धौ श्येनाविव च शीघ्रगौ । 

शरभाविव संक्रुद्धौ युयुधाते परस्परम्‌ ।। ११ ।। 

वे दो व्याप्रोंके समान रोषावेशमें भरकर दो बाजोंके समान परस्पर शीजघ्रतापूर्वक 
झपटते थे तथा अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए दो शरभोंके समान परस्पर युद्ध करते थे ।। ११ ।। 

ततो भीम: स्मरन्‌ क्लेशानक्षदूते वनेडपि च । 

विराटनगरे चैव दु:खं प्राप्तमरिंदम: ।। १२ ।। 

राष्ट्राणां स्फीतरत्नानां हरणं च तवात्मजै: । 

सततं च परिक्‍्लेशान्‌ सपुत्रेण त्वया कृतान्‌ ।। १३ ।। 

दग्धुमैच्छच्च यः कुन्तीं सपुत्रां त्वमनागसम्‌ | 

कृष्णायाश्व परिक्लेशं सभामध्ये दुरात्मभि: ।। १४ ।। 

केशपक्षग्रहं चैव दःशासनकृतं तथा । 

परुषाणि च वाक्यानि कर्णेनोक्तानि भारत ।। १५ ।। 

पतिमन्यं परीप्सस्व न सन्ति पतयस्तव । 

पतिता नरके पार्था: सर्वे षण्ढतिलोपमा: ।। १६ ।। 

समक्ष तव कौरव्य यदूचु: कौरवास्तदा । 

दासीभावेन कृष्णां च भोक्तुकामा: सुतास्तव ।। १७ | 

यच्चापि तान्‌ प्रव्रजतः कृष्णाजिननिवासिन: । 

परुषाण्युक्तवान्‌ कर्ण: सभायां संनिधौ तव ॥। १८ ।। 

तृणीकृत्य यथा पार्थास्तव पुत्रो ववल्ग ह । 

विषमस्थान्‌ समस्थो हि संरब्धो गतचेतन: ।। १९ ।। 

बाल्यात्‌ प्रभृति चारिघ्न: स्वानि दुःखानि चिन्तयन्‌ | 

निरविद्यत धर्मात्मा जीवितेन वृकोदर: | २० || 

जूआके समय, वनवासकालमें तथा विराटनगरमें जो दुःख प्राप्त हुआ था, उसका 
स्मरण करके, आपके पुत्रोंने जो पाण्डवोंके राज्यों तथा समुज्ज्वल रत्नोंका अपहरण किया 
था, उसे याद करके, पुत्रोंसहित आपने पाण्डवोंको जो निरन्तर क्लेश प्रदान किये हैं, उन्हें 
ध्यानमें लाकर निरपराध कुन्तीदेवी तथा उनके पुत्रोंकोी जो आपने जला डालनेकी इच्छा की 
थी, सभाके भीतर आपके दुरात्मा पुत्रोंने जो द्रौपदीको महान्‌ कष्ट पहुँचाया था, दुःशासनने 
जो उसके केश पकड़े थे, भारत! कर्णने जो उसके प्रति कठोर वचन सुनाये थे तथा 
कुरुनन्दन! आपकी आँखोंके सामने ही कौरवोंने जो द्रौपदीसे यह कहा था कि “कृष्णे! तू 
दूसरा पति कर ले, तेरे ये पति अब नहीं रहे, कुन्तीके सभी पुत्र थोथे तिलोंके समान निर्वीर्य 
होकर नरक (दुःख)-में पड़ गये हैं।! महाराज! आपके पुत्र जो द्रौपदीको दासी बनाकर 
उसका उपभोग करना चाहते थे तथा काले मृगचर्म धारण करके वनकी ओर प्रस्थान करते 
समय पाण्डवोंके प्रति सभामें आपके समीप ही कर्णने जो कटुवचन सुनाये थे और 


पाण्डवोंको तिनकोंके समान समझकर जो आपका पुत्र दुर्योधन उछलता-कूदता था, स्वयं 
सुखमयी परिस्थितिमें रहते हुए भी जो उस अचेत मूर्खने संकटमें पड़े हुए पाण्डवोंके प्रति 
क्रोधका भाव दिखाया था, इन सब बातोंको तथा बचपनसे लेकर अबतक आपकी ओरसे 
प्राप्त हुए अपने दुःखोंको याद करके शत्रुओंका दमन करनेवाले शत्रुनाशक धर्मात्मा 
भीमसेन अपने जीवनसे विरक्त हो उठे थे | १२--२० ।। 

ततो विस्फार्य सुमहद्धेमपृष्ठं दुरासदम्‌ । 

चापं भरतशार्टूलस्त्यक्तात्मा कर्णमभ्ययात्‌ ।। २१ ।। 

उस समय भरतवंशके उस सिंहने अपने जीवनका मोह छोड़कर सुवर्णमय पृष्ठभागसे 
सुशोभित दुर्धर्ष एवं विशाल धनुषकी टंकार करते हुए वहाँ कर्णपर धावा किया ।। २१ ।। 

स सायकमयैजललिैर्भीम: कर्णरथं प्रति । 

भानुमद्धिः शिलाधौतैर्भानो: प्राच्छादयत्‌ प्रभाम्‌ ।। २२ ।। 

कर्णके रथपर भीमसेनने सानपर चढ़ाकर स्वच्छ किये हुए तेजस्वी बाणोंका जाल-सा 
बिछाकर सूर्यकी प्रभाको आच्छादित कर दिया ।। २२ ।। 

ततः प्रहस्याधिरथिस्तूर्णमस्य शिलाशितै: । 

व्यधमद्‌ भीमसेनस्य शरजालानि पत्रिभि: ।। २३ ।। 

तब अधिरथपुत्र कर्णने हँसकर शिलापर तेज किये हुए पंखयुक्त बाणोंद्वारा भीमसेनके 
उन बाण-समूहोंको तुरंत ही छिन्न-भिन्न कर दिया || २३ ।। 

महारथो महाबाहुर्महाबाणैर्महाबल: । 

विव्याधाधिरथिभ्भीमं नवभिर्निशितैस्तदा ।। २४ ।। 

महारथी महाबाहु महाबली अधिरथपुत्र कर्णने उस समय नौ तीखे महाबाणोंसे 
भीमसेनको घायल कर दिया || २४ ।। 

स तोत्रैरिव मातड़ो वार्यमाण: पतत्रिभि: | 

अभ्यधावदसम्भ्रान्त: सूतपुत्रं वकोदर: || २५ ।। 

जैसे मतवाला हाथी अंकुशसे रोका जाय, उसी प्रकार पंखयुक्त बाणोंद्वारा रोके जाते 
हुए भीमसेन तनिक भी घबराहटमें न पड़कर सूतपुत्र कर्णपर चढ़ आये ।। २५ ।। 

तमापततन्तं वेगेन रभसं पाण्डवर्षभम्‌ | 

कर्ण: प्रत्युद्ययौ युद्धे मत्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। २६ ।। 

जैसे मतवाला हाथी दूसरे मतवाले हाथीपर धावा करता है, उसी प्रकार 
पाण्डवशिरोमणि वेगशाली भीमको वेगपूर्वक आक्रमण करते देख कर्ण भी युद्धस्थलमें 
उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा ।। २६ ।। 

ततः प्रध्माप्प जलजं भेरीशतसमस्वनम्‌ । 

अक्षुभ्यत बल हर्षादुद्धृत इव सागर: ।। २७ ।। 


तदनन्तर कर्णने हर्षपूर्वक सैकड़ों भेरियोंके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले शंखको 
बजाकर सब ओर गुँजा दिया। इससे पाण्डवोंकी सेनामें विक्षुब्ध समुद्रके समान हलचल 
पैदा हो गयी || २७ ।। 

तदुद्धूतं बल॑ दृष्टवा नागाश्वरथपत्तिमत्‌ । 

भीम: कर्ण समासाद्य च्छादयामास सायकै: ।। २८ ।। 

हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंसे युक्त उस सेनाको विकद्षुब्ध हुई देख भीमसेनने कर्णके 
पास जाकर उसे बाणोंद्वारा आच्छादित कर दिया ।। २८ ।। 

अश्वानृक्षसवर्णाश्व हंसवर्णर्हयोत्तमै: | 

व्यामिश्रयद्‌ रणे कर्ण: पाण्डवं छादयन्‌ शरै: ।। २९ ।। 

उस रणक्षेत्रमें पाण्डुनन्दन भीमको अपने बाणोंसे आच्छादित करते हुए कर्णने रीछके 
समान रंगवाले अपने काले घोड़ोंको भीमसेनके हंस-सदृश श्वेतवर्णवाले उत्तम घोड़ोंके साथ 
मिला दिया ।। २९ || 

ऋक्षवर्णान्‌ हयान्‌ कर्कर्मिश्रान्‌ मारुतरंहस: । 

निरीक्ष्य तव पुत्राणां हाहाकृतमभूद्‌ बलम्‌ ।। ३० ।। 

रीछके समान रंगवाले और वायुके समान वेगशाली घोड़ोंको श्वेत अश्वोंके साथ मिला 
हुआ देख आपके पुत्रोंकी सेनामें हाहाकार मच गया ।। ३० ।। 

ते हया बह्नशोभन्त मिश्रिता वातरंहस: । 

सितासिता महाराज यथा व्योम्नि बलाहका: ।। ३१ ।। 

महाराज! वायुके समान वेगवाले वे सफेद और काले घोड़े परस्पर मिलकर आकाशगमें 
उठे हुए सफेद और काले बादलोंके समान अधिक शोभा पा रहे थे ।। ३१ ।। 

संरब्धौ क्रोधताम्राक्षौ प्रेक्ष्य कर्णवृकोदरौ । 

संत्रसस्‍्ता: समकम्पन्त त्वदीयानां महारथा: ।। ३२ ।। 

रोषावेशमें भरकर क्रोधसे लाल आँखें किये कर्ण और भीमसेनको देखकर आपके 
महारथी भयभीत हो काँपने लगे ।। ३२ ।। 

यमराष्ट्रोपमं घोरमासीदायोधनं तयो: । 

दुर्दर्श भरतश्रेष्ठ प्रेतराजपुरं यथा ।। ३३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन दोनोंका संग्राम यमराजके राज्यके समान अत्यन्त भयंकर था। 
प्रेतराजकी पुरीके समान उसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था ।। ३३ ।। 

समाजमिव तच्चित्र॑ प्रेक्षमाणा महारथा: । 

नालक्षयन्‌ जयं व्यक्तमेकस्यैव महारणे ।। ३४ ।। 

उस विचित्र-से समाजको देखते हुए महारथियोंने उस महासमरमें निश्चय ही उन 
दोनोंमेंसे किसी एक ही व्यक्तिकी विजय होती नहीं देखी || ३४ ।। 

तयो: प्रैक्षन्त सम्मर्द संनिकृष्टं महास्त्रयो: । 


तव दुर्मन्त्रिते राजन्‌ सपुत्रस्य विशाम्पते ।। ३५ ।। 

राजन! प्रजानाथ! पुत्रोंसहित आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप महान्‌ अस्त्रधारी 
भीमसेन और कर्णका अत्यन्त निकटसे होनेवाला संघर्ष सब लोग देख रहे थे || ३५ ।। 

छादयन्तौ हि शत्रुघ्नावन्योन्यं सायकै: शितै: । 

शरजालावृत॑ व्योम चक्राते5द्धुतविक्रमौ ।। ३६ ।। 

उन दोनों त पराक्रमी शत्रुहन्ता वीरोंने एक-दूसरेको तीखे बाणोंसे आच्छादित 
करते हुए आकाशको बाण-समूहोंसे व्याप्त कर दिया ।। ३६ ।। 

तावन्योन्यं जिघांसन्तौ शरैस्तीक्ष्णैर्महारथौ । 

प्रेक्षणीयतरावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ || ३७ ।। 

पैने बाणोंद्वारा एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छावाले वे दोनों महारथी वीर वर्षा 
करनेवाले बादलोंके समान अत्यन्त दर्शनीय हो रहे थे ।। ३७ ।। 

सुवर्णविकृतान्‌ बाणान्‌ विमुञ्चन्तावरिंदमौ । 

भास्वरं व्योम चक्राते महोल्काभिरिव प्रभो ।। ३८ ।। 

प्रभो! उन दोनों शत्रुहन्ता वीरोंने सुवर्णनिर्मित बाणोंकी वर्षा करके आकाशको उसी 
प्रकार प्रकाशमान कर दिया, जैसे बड़ी-बड़ी उल्काओंके गिरनेसे वह प्रकाशित होने लगता 
है ।। ३८ ।। 

ताभ्यां मुक्ता: शरा राजन गार्ध्रपत्राश्चकाशिरे । 

श्रेण्य: शरदि मत्तानां सारसानामिवाम्बरे ।। ३९ |। 

राजन! उन दोनोंके छोड़े हुए गीधकी पाँखवाले बाण शरद्‌-ऋतुके आकाशमें मतवाले 
सारसोंकी श्रेणियोंके समान सुशोभित होते थे ।। ३९ ।। 

संसक्तं सूतपुत्रेण दृष्टया भीममरिंदमम्‌ | 

अतिभारममन्येतां भीमे कृष्णधनंजयौ ।। ४० ।। 

शत्रुदमन भीमसेनको सूतपुत्रके साथ उलझा हुआ देख श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमपर 
यह बहुत बड़ा भार समझा ।। ४० ।। 

तत्राधिरथिभीमाभ्यां शरैर्मुक्तिर्दृढ हता: । 

इषुपातमतिक्रम्य पेतुरश्वनरद्धिपा: ।। ४१ ।। 

उस युद्धस्थलमें कर्ण और भीमसेनके छोड़े हुए बाणोंसे अत्यन्त घायल हुए घोड़े, 
मनुष्य और हाथी बाणोंके गिरनेके स्थानको लाँधकर उससे दूर जा गिरते थे ।। ४१ ।। 

पतद्धि: पतितैश्वान्यैर्गतासुभिरनेकश: । 

कृतो राजन्‌ महाराज पुत्राणां ते जनक्षय: ।। ४२ ।। 

राजन्‌! महाराज! कुछ सैनिक गिर रहे थे, कुछ गिर चुके थे और दूसरे बहुत-से योद्धा 
प्राणशून्य हो गये थे; उन सबके कारण आपके पुत्रोंकी सेनामें बड़ा भारी नरसंहार 
हुआ || ४२ ।। 


मनुष्याश्वगजानां च शरीरैर्गतजीवितै: । 

क्षणेन भूमि: संजज्ञे संवृता भरतर्षभ ।। ४३ ।। 

(आक्रीडमिव रुद्रस्य दक्षयज्ञनिबर्हणे ।) 

भरतश्रेष्ठ! मनुष्य, घोड़े और हाथियोंके निष्प्राण शरीरोंसे वहाँकी भूमि क्षणभरमें ढक 
गयी और दक्षयज्ञके संहारकालमें रुद्रकी क्रीड़ाभूमिके समान प्रतीत होने लगी ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमकर्णयुद्धे 
द्वात्रिशदिधिकशततमो<्ध्याय: ।। १३२ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेन और कर्णका 
युद्धविषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३२ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ श्लोक मिलाकर कुल ४३ ६ “लोक हैं) 


त्रयस्त्रिशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


भीमसेन और कर्णका युद्ध, कर्णके सारथिसहित रथका 
विनाश तथा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जयका वध 


धृतराष्ट्र रवाच 

अत्यद्भुतमहं मनन्‍्ये भीमसेनस्य विक्रमम्‌ । 

यत्‌ कर्ण योधयामास समरे लघुविक्रमम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! मैं भीमसेनके पराक्रमको अत्यन्त अद्भुत मानता हूँ कि उन्होंने 
समरांगणमें शीघ्रतापूर्वक पराक्रम दिखानेवाले कर्णके साथ भी युद्ध किया ।। १ ।। 

त्रिदशानपि वा युक्तान्‌ सर्वशस्त्रधरान्‌ युधि । 

वारयेद्‌ यो रणे कर्ण: सयक्षासुरमानुषान्‌ ।। २ ।। 

स कथं पाण्डवं युद्धे भ्राजमानमिव श्रिया । 

नातरत्‌ संयुगे पार्थ तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। ३ ।। 

संजय! जो कर्ण रफक्षेत्रमें युद्धके लिये सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकोी धारण करके सुसज्जित 
हुए देवताओं तथा यक्षों, असुरों और मनुष्योंका भी निवारण कर सकता है, वह युद्धमें 
विजय-लक्ष्मीसे सुशोभित होते हुए-से पाण्डुनन्दन कुन्तीकुमार भीमसेनको कैसे नहीं लाँघ 
सका? इसका कारण मुझे बताओ ।। २-३ ।। 

कथं च युद्ध सम्भूतं तयो: प्राणदुरोदरे । 

अत्र मन्ये समायत्तो जयो वाजय एव च ।। ४ || 

उन दोनोंमें प्राणोंकी बाजी लगाकर किस प्रकार युद्ध हुआ? मैं समझता हूँ कि यहीं 
उभय पक्षकी जय अथवा विजय निर्भर है ।। ४ ।। 

कर्ण प्राप्प रणे सूत मम पुत्र: सुयोधन: । 

जेतुमुत्सहते पार्थान्‌ सगोविन्दान्‌ ससात्वतान्‌ ।। ५ ।। 

सूत! रणक्षेत्रमें कर्णको पाकर मेरा पुत्र दुर्योधन श्रीकृष्ण तथा सात्यकि आदि 
यादवोंसहित समस्त कुन्तीकुमारोंको जीतनेका उत्साह रखता है ।। ५ ।। 

श्र॒त्वा तु निर्जितं कर्णमसकृद्‌ भीमकर्मणा । 

भीमसेनेन समरे मोह आविशतीव माम्‌ ।। ६ ।। 

समरांगणमें भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनके द्वारा कर्णके बारंबार पराजित होनेकी 
बात सुनकर मेरे मनपर मोह-सा छा जाता है ।। ६ ।। 

विनष्टान्‌ कौरवान्‌ मन्ये मम पुत्रस्य दुर्नयै: । 

न हि कर्णो महेष्वासान्‌ पार्थान्‌ जेष्यति संजय ।। ७ ।। 


मेरे पुत्रकी दुर्नीतियोंक कारण मैं समस्त कौरवोंको नष्ट हुआ ही मानता हूँ। संजय! 
कर्ण कभी महाधनुर्धर कुन्तीकुमारोंको नहीं जीत सकेगा ।। ७ ।। 

कृतवान्‌ यानि युद्धानि कर्ण: पाण्डुसुतैः सह । 

सर्वत्र पाण्डवा: कर्णममजयन्त रणाजिरे ।। ८ ।। 

कर्णने पाण्डुपुत्रोंके साथ जो-जो युद्ध किये हैं, उन सबमें पाण्डवोंने ही रणक्षेत्रमें 
कर्णको जीता है ।। ८ ।। 

अजेया: पाण्डवास्तात देवैरपि सवासवै: । 

नच तद्‌ बुध्यते मन्द: पुत्रो दुर्योधनो मम ।। ९ ।। 

तात! इन्द्र आदि देवताओंके लिये भी पाण्डवोंपर विजय पाना असम्भव है; परंतु मेरा 
मूर्ख पुत्र दुर्योधन इस बातको नहीं समझता है ।। ९ ।। 

धनं धनेश्वरस्येव हृत्वा पार्थस्य मे सुत: । 

मधुप्रेप्सुरिवाबुद्धि: प्रपातं नावबुध्यते ।। १० ।। 

मेरा पुत्र कुबेरके समान कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके धनका अपहरण करके ऊँचे स्थानसे 
मधु लेनेकी इच्छावाले मूर्ख मनुष्यके समान पतनके भयको नहीं समझ रहा है ।। १० ।। 

निकृत्या निकृतिप्रज्ञो राज्यं हृत्वा महात्मनाम्‌ | 

जितमित्येव मन्वान: पाण्डवानवमन्यते ।। ११ ।। 

वह छल-कपटकी विद्याको जानता है। अतः छलसे ही उन महामनस्वी पाण्डवोंके 
राज्यका अपहरण करके उसे जीता हुआ मानकर पाण्डवोंका अपमान करता है || ११ ।। 

पुत्रस्नेहाभिभूतेन मया चाप्यकृतात्मना । 

धर्मे स्थिता महात्मानो निकृता: पाण्डुनन्दना: ।। १२ ।। 

मुझ अकृतात्माने भी पुत्रस्नेहके वशीभूत होकर सदा धर्मपर स्थित रहनेवाले महात्मा 
पाण्डवोंको ठगा है || १२ ।। 

शमकाम: ससोदर्यों दीर्घप्रेक्षी युधिष्ठिर: । 

अशक्त इति मत्वा तु मम पुत्रैर्निराकृत: ।। १३ ।। 

दूरदर्शी युधिष्ठिर अपने भाइयोंसहित संधिकी अभिलाषा रखते थे; परंतु उन्हें असमर्थ 
मानकर मेरे पुत्रोंने उनकी बात ठुकरा दी ।। १३ ।। 

तानि दुःखान्यनेकानि विप्रकारांश्व सर्वशः । 

हृदि कृत्वा महाबाहुर्भीमो5युध्यत सूतजम्‌ ।। १४ ।। 

अनेक बार दिये गये उन दुःखों और सम्पूर्ण अपकारोंको मनमें रखकर महाबाहु 
भीमसेनने सूतपुत्र कर्णके साथ युद्ध किया है ।। १४ ।। 

तस्मान्मे संजय ब्रूहि कर्णभीमौ यथा रणे | 

अयुध्येतां युधि श्रेष्ठी परस्परवधैषिणौ ।। १५ ।। 


अतः संजय! एक-दूसरेके वधकी इच्छावाले युद्धस्थलके श्रेष्ठ वीर कर्ण और भीमसेनने 

समरांगणमें जिस प्रकार युद्ध किया, वह सब मुझे बताओ ।। १५ ।। 
संजय उवाच 

शृणु राजन्‌ यथावृत्तं संग्रामं कर्णभीमयो: । 

परस्परवधप्रेप्स्वोर्वनकुज्जरयोरिव ।। १६ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! कर्ण और भीमसेनके युद्धका यथावत्‌ वृत्तान्त सुनिये। वे दोनों 
जंगली हाथियोंके समान एक-दूसरेके वधके लिये उत्सुक थे || १६ ।। 

राजन वैकर्तनो भीम॑ क्रुद्ध: क्ुद्धमरिंदमम्‌ । 

पराक्रान्तं पराक्रम्य विव्याध त्रिंशता शरै: ।। १७ ।। 

राजन! क्रोधमें भरे हुए सूर्यपुत्र कर्णने कुपित हुए शत्रुदमन पराक्रमी भीमसेनको अपने 
बल-पराक्रमका परिचय देते हुए तीस बाणोंसे बींध डाला ।। १७ ।। 

महावेगै: प्रसन्नाग्रै: शातकुम्भपरिष्कृतै: । 

अहनदू भरतश्रेष्ठ भीम॑ वैकर्तन: शरै: ।। १८ ।। 

भरतश्रेष्ठ) कर्णने चमकते हुए अग्रभागवाले सुवर्णजटित महान्‌ वेगशाली बाणोंद्वारा 
भीमसेनको घायल कर दिया ॥। १८ ।। 

तस्यास्यतो धरनुर्भीमश्नकर्त निशितैस्त्रिभि: । 

रथनीडाच्च यन्तारं भल्लेनापातयत्‌ क्षितौ ।। १९ ।। 

इस प्रकार बाण चलाते हुए कर्णके धनुषको भीमसेनने तीन तीखे बाणोंद्वारा काट 
डाला और एक भल्ल मारकर सारथिको रथकी बैठकसे नीचे पृथ्वीपर गिरा दिया ।। १९ ।। 

स काड्क्षन्‌ भीमसेनस्य वध॑ वैकर्तनो भूशम्‌ । 

शक्ति कनकवैदूर्यचित्रदण्डां परामृशत्‌ ।। २० ।। 

तब भीमसेनके वधकी अभिलाषा रखकर कर्णने वेगपूर्वक एक शक्ति हाथमें ली, 
जिसका डंडा सुवर्ण और वैदूर्यमणिसे जटित होनेके कारण विचित्र दिखायी देता 
था ।। २० |। 

प्रगृह्ा च महाशक्ति कालशक्तिमिवापराम्‌ | 

समुत्क्षिप्प च राधेय: संधाय च महाबल: ।। २१ ।। 

चिक्षेप भीमसेनाय जीवितान्तकरीमिव । 

वह महाशक्ति दूसरी कालशक्तिके समान प्रतीत होती थी। महाबली राधापुत्र कर्णने 
जीवनका अन्त कर देनेवाली उस शक्तिको लेकर ऊपर उठाया और उसे धनुषपर रखकर 
भीमसेनपर चला दिया ।। २१६ ।। 

शक्ति विसृज्य राधेय: पुरंदर इवाशनिम्‌ ।। २२ ।। 

ननाद सुमहानादं बलवान्‌ सूतनन्दन: । 


तं च नादं ततः श्र॒त्वा पुत्रास्ते हर्षिता3भवन्‌ ।। २३ ।। 

इन्द्रके वज़्की भाँति उस शक्तिको छोड़कर बलवान सूतनन्दन कर्णने बड़े जोरसे 
गर्जना की। उस समय उस सिंहनादको सुनकर आपके पुत्र बड़े प्रसन्न हुए || २२-२३ ।। 

तां कर्णभुजनिर्मुक्तामर्कवैश्वानरप्रभाम्‌ । 

शक्ति वियति चिच्छेद भीम: सप्तभिराशुगै: ।। २४ ।। 

कर्णके हाथोंसे छूटकर आकाशमें सूर्य और अग्निके समान प्रकाशित होनेवाली उस 
शक्तिको भीमसेनने सात बाणोंसे आकाशमें ही काट डाला ।। २४ ।। 

छित्त्वा शक्ति ततो भीमो निर्मुक्तोरगसंनिभाम्‌ । 

मार्गमाण इव प्राणान्‌ सूतपुत्रस्य मारिष ।। २५ ।। 

प्राहिणोत्‌ कृतसंरम्भ: शरान्‌ बर्हिणवासस: । 

स्वर्णपुड्खानू शिलाधौतान्‌ यमदण्डोपमान्‌ मृथे ॥। २६ ।। 

माननीय नरेश! केंचुलसे छूटी हुई सर्पिणीके समान उस शक्तिके टुकड़े-टुकड़े करके 
फिर भीमसेनने कुपित हो युद्धस्थलमें सूतपुत्र कर्णके प्राणोंकी खोज करते हुए-से सानपर 
चढ़ाकर तेज किये हुए, यमदण्डके समान भयंकर, मयूरपंख एवं स्वर्णपंखसे विभूषित 
बाणोंको उसके ऊपर चलाना आरम्भ किया ।। २५-२६ |। 

कर्णोउप्यन्यद्‌ धनुर्गह्म हेमपृष्ठं दुरासदम्‌ । 

विकृष्य तन्महच्चापं व्यसूजत्‌ सायकांस्तदा || २७ |। 

तब कर्णने भी सुवर्णमय पीठवाले दूसरे दुर्धर्ष एवं विशाल धनुषको हाथमें लेकर खींचा 
और बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी || २७ ।। 

तान्‌ पाण्डुपृत्रश्चिच्छेद नवभिर्नतपर्वभि: । 

वसुषेणेन निर्मुक्तान्‌ू नव राजन्‌ महाशरान्‌ ॥। २८ ।। 

राजन! वसुषेण (कर्ण)-के छोड़े हुए नौ विशाल बाणोंको पाण्डुपुत्र भीमसेनने झुकी 
हुई गाँठवाले नौ बाणोंद्वारा काट गिराया || २८ ।। 

छित्त्वा भीमो महाराज नादं सिंह इवानदत्‌ | 

तौ वृषाविव नर्दन्तौ बलिनौ वासितान्तरे ।। २९ |। 

शार्टूलाविव चान्योन्यमामिषार्थेड भ्यगर्जताम्‌ । 

महाराज! भीमसेनने कर्णके बाणोंको काटकर सिंहके समान गर्जना की। वे दोनों 
बलवान्‌ वीर कभी गायके लिये लड़नेवाले दो साँड़ोंके समान हँकड़ते और कभी मांसके 
लिये परस्पर जूझनेवाले दो सिंहोंके समान दहाड़ते थे || २९६ ।। 

अन्योनयं प्रजिहीर्षन्तावन्योन्यस्यान्तरैषिणौ || ३० ।। 

अन्योन्यमभिवीक्षन्तौ गोष्ठेष्विव महर्षभौ । 

वे गोशालाओंमें लड़नेवाले दो बड़े-बड़े साँड्ोंक॒ समान एक-दूसरेपर चोट करनेकी 
इच्छा रखते हुए अवसर ढूँढ़ते और परस्पर आँखें तरेरकर देखते थे || ३० $ ।। 


महागजाविवासाद्य विषाणाग्रै: परस्परम्‌ ।। ३१ ।। 

शरै: पूर्णायतोत्सूष्टैरन्योन्यमभिजष्नतु: । 

जैसे दो विशाल गजराज अपने दाँतोंके अग्रभागोंद्वारा एक-दूसरेसे भिड़ गये हों, उसी 
प्रकार कर्ण और भीमसेन धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणोंद्वारा एक-दूसरेको चोट 
पहुँचाते थे || ३१३ ।। 

निर्दहन्तौ महाराज श्त्रवृष्ट्या परस्परम्‌ ।। ३२ ।। 

अन्योन्यमभिवीक्षन्ती कोपाद्‌ विवृतलोचनौ । 

प्रहसन्तौ तथान्योन्यं भर्त्सयन्तौ मुहुर्मुहु: ।। ३३ ।। 

शंखशब्दं च कुर्वाणौ युयुधाते परस्परम्‌ । 

महाराज! वे परस्पर शस्त्रोंकी वर्षा करके एक-दूसरेको दग्ध करते, क्रोधसे आँखें 
फाड़-फाड़कर देखते, कभी हँसते और कभी बारंबार एक-दूसरेको डाँटते एवं शंखनाद 
करते हुए परस्पर जूझ रहे थे || ३२-३३ $ ।। 

तस्य भीम: पुनश्चापं मुष्टी चिच्छेद मारिष ।। ३४ ।। 

शड्खवर्णाश्व तानश्चान्‌ बाणैर्निन्यि यमक्षयम्‌ । 

सारथिं च तथाप्यस्य रथनीडादपातयत्‌ ।। ३५ ।। 

आर्य! भीमसेनने पुनः कर्णके धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट डाला, शंखके 
समान श्वेत रंगवाले उसके घोड़ोंको भी बाणोंद्वारा यमलोक पहुँचा दिया और उसके 
सारथिको भी मारकर रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया ।। ३४-३५ ।। 

ततो वैकर्तन: कर्णश्रिन्तां प्राप दुरत्ययाम्‌ । 

स च्छाद्यमान: समरे हताश्वो हतसारथि: ।। ३६ ।। 

घोड़े और सारथिके मारे जानेपर समरांगणमें बाणोंद्वारा आच्छादित हुआ सूर्यपुत्र कर्ण 
दुस्तर चिन्तामें निमग्न हो गया || ३६ ।। 

मोहित: शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत । 

तथा कृच्छूगतं दृष्टवा कर्ण दुर्योधनो नृूप: ।। ३७ ।। 

वेपमान इव क्रोधाद्‌ व्यादिदेशाथ दुर्जयम्‌ । 

गच्छ दुर्जय राधेयं पुरो ग्रसति पाण्डव: ।। ३८ ।। 

जहि तूबरकं क्षिप्रं कर्णस्य बलमादधत्‌ | 

बाणसमूहोंसे मोहित होनेके कारण उसे यह नहीं सूझता था कि अब क्या करना 
चाहिये। कर्णको इस प्रकार संकटमें पड़ा देख राजा दुर्योधन क्रोधसे काँपने-ला लगा और 
दुर्जयको आदेश देता हुआ बोला--*दुर्जय! जाओ। राधानन्दन कर्णको सामने ही पाण्डुपुत्र 
भीमसेन कालका ग्रास बनाना चाहता है। तुम कर्णका बल बढ़ाते हुए उस बिना दाढ़ी- 
मूँछके भुंडे भीमसेनको शीघ्र मार डालो” || ३७-३८ $ || 

एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा तव पुत्र॑ तवात्मज: ।। ३९ |। 


अभ्यद्रवद्‌ भीमसेनं व्यासक्तं विकिरन्‌ शरै: । 

ऐसा आदेश मिलनेपर आपके पुत्र दुर्योधनसे “बहुत अच्छा” कहकर आपके दूसरे पुत्र 
दुर्जयने युद्धमें आसक्त हुए भीमसेनपर बाणोंकी वर्षा करते हुए आक्रमण किया ।। ३९३ ।। 

स भीम॑ नवभिर्बाणैरश्वानष्टभितर्पयत्‌ ।। ४० ।। 

षड्भि: सूतं त्रिभि: केतुं पुनस्तं चापि सप्तभि: । 

उसने नौ बाणोंसे भीमसेनको, आठ बाणोंसे उनके घोड़ोंको और छ: बाणोंसे सारथिको 
घायल कर दिया। फिर तीन बाणोंद्वारा उनकी ध्वजापर आघात करके उन्हें भी पुन: सात 
बाणोंसे बींध डाला || ४० है ।। 

भीमसेनो<पि संक्रुद्ध: साश्वयन्तारमाशुगै: ।। ४१ ।। 

दुर्जयं भिन्नमर्माणमनयद्‌ यमसादनम्‌ । 

तब भीमसेनने भी अत्यन्त कुपित होकर अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा दुर्जय 
(दुष्पराजय)-के मर्मस्थलको विदीर्ण करके उसे सारथि और घोड़ोंसहित यमलोक भेज 
दिया ।। ४१३ ।। 

स्वलंकृतं क्षिती क्षुण्णं चेष्टमानं यथोरगम्‌ ।। ४२ ।। 

रुदन्नार्तस्तव सुतं कर्णश्नक्रे प्रदक्षिणम्‌ । 

आभूषणभूषित दुर्जय अपने क्षत-विक्षत अंगोंसे पृथ्वीपर गिरकर चोट खाये हुए सर्पके 
समान छटपटाने लगा। उस समय कर्णने शोकार्त होकर रोते-रोते आपके पुत्रकी परिक्रमा 
की ।। ४२३ ।|। 

सतुतंविरथं कृत्वा स्मयन्नत्यन्तवैरिणम्‌ ।। ४३ ।। 

समाचिनोद्‌ बाणगणै: शतघ्नीभिश्न शड्कुभि: । 

इस प्रकार अपने अत्यन्त वैरी कर्णको रथहीन करके मुसकराते हुए भीमसेनने उसे 
बाणसमूहों, शतप्नियों और शंकुओंसे आच्छादित कर दिया || ४३ ३ ।। 

तथाप्यतिरथ: कर्णो भिद्यमानो5स्यथ सायकै: ।। ४४ ।। 

न जहौ समरे भीम॑ क्रुद्धरूपं परंतप: | ४५ ।। 

भीमसेनके बाणोंसे क्षत-विक्षत होनेपर भी शत्रुओंको संताप देनेवाला अतिरथी कर्ण 
समरभूमिमें कुपित भीमसेनको छोड़कर भागा नहीं ।। ४४-४५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णभीमयुद्धे 
त्रयस्त्रिंयदधिकशततमो< ध्याय: ।। १३३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्ण और भीमयेनका 
युद्धविषयक एक सौ तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३३ ॥। 


भीस्न्आ तन () अजमना 


चतुस्त्रिंशर्दाधकशततमो< ध्याय: 


भीमसेन और कर्णका युद्ध, धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुखका वध तथा 
कर्णका पलायन 


संजय उवाच 

सर्वथा विरथ: कर्ण: पुनर्भीमेन निर्जित: । 

रथमन्यं समास्थाय पुनर्विव्याध पाण्डवम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सब प्रकारसे रथहीन एवं भीमसेनके द्वारा पुनः: पराजित हुए 
कर्णने दूसरे रथपर बैठकर पाण्डुकुमार भीमसेनको पुनः बींध डाला ।। 

महागजाविवासाद्य विषाणाग्रै: परस्परम्‌ । 

शरै: पूर्णायतोत्सूष्टैरन्योन्यमभिजषध्नतु: ।। २ ।। 

जैसे दो विशाल गजराज अपने दाँतोंके अग्रभागोंद्वारा एक-दूसरेसे भिड़ गये हों, उसी 
प्रकार कर्ण और भीमसेन धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बाणोंद्वारा एक-दूसरेको चोट 
पहुँचाने लगे || २ ।। 

अथ कर्ण: शरव्रातैर्भीमसेनं समार्पयत्‌ । 

ननाद च महानादं पुनर्विव्याध चोरसि ।। ३ ।। 

तदनन्तर कर्णने अपने बाणसमूहोंद्वारा भीमसेनको घायल कर दिया। उसने बड़े जोरसे 
गर्जना की और पुन: भीमसेनकी छातीमें चोट पहुँचायी ।। ३ ।। 

तं भीमो दशभिर्बाणै: प्रत्यविध्यदजिद्वागै: । 

पुनर्विव्याध सप्तत्या शराणां नतपर्वणाम्‌ ॥। ४ ।। 

तब भीमने सीधे जानेवाले दस बाणोंसे कर्णको मारकर बदला चुकाया। तत्पश्चात्‌ 
झुकी हुई गाँठवाले सत्तर बाणोंद्वारा पुनः कर्णको बींध डाला ।। ४ ।। 

कर्ण तु नवभिर्भीमो भित्त्वा राजन्‌ स्तनान्तरे । 

ध्वजमेकेन विव्याध सायकेन शितेन ह ।। ५ ।। 

राजन्‌! भीमसेनने कर्णकी छातीमें नौ बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचाकर एक तीखे 
बाणसे उसकी ध्वजाको भी छेद दिया ।। ५ ।। 

सायकानां ततः पार्थस्त्रिषष्ट्या प्रत्यविध्यत । 

तोत्रैरिव महानागं कशाभिरिव वाजिनम्‌ ।। ६ ।। 

तदनन्तर जैसे विशाल गजराजको अंकुशोंसे और घोड़ेको कोड़ोंसे पीटा जाय, उसी 
प्रकार कुन्तीकुमार भीमने तिरसठ बाणोंद्वारा कर्णको घायल कर दिया ।। ६ ।। 

सो5तिविद्धों महाराज पाण्डवेन यशस्विना । 


सृक्किणी लेलिहन्‌ वीर: क्रोधरक्तान्तलोचन: ।। ७ ।। 

महाराज! यशस्वी पाण्डुपुत्रके द्वारा अत्यन्त घायल होकर वीर कर्ण क्रोधसे लाल 
आँखें करके अपने दोनों जबड़ोंको चाटने लगा ।। ७ ।। 

तत: शरं महाराज सर्वकायावदारणम्‌ । 

प्राहिणोद्‌ भीमसेनाय बलायेन्द्र इवाशनिम्‌ ।। ८ ।। 

राजन! तदनन्तर जैसे इन्द्रने बलासुरपर वज्र चलाया था, उसी प्रकार उसने भीमसेनपर 
समस्त शरीरको विदीर्ण कर देनेवाले बाणका प्रहार किया ।। ८ ।। 

स निर्भिद्य रणे पार्थ सूतपुत्रधनुश्च्युत: । 

अगच्छद्‌ दारयन्‌ भूमिं चित्रपुडख: शिलीमुख: ।। ९ ।। 

रणक्षेत्रमें सूतपुत्रके धनुषसे छूटा हुआ वह विचित्र पंखोंवाला बाण भीमसेनको विदीर्ण 
करके पृथ्वीको चीरता हुआ उसके भीतर समा गया ।। ९ ।। 

ततो भीमो महाबाहु: क्रोधसंरक्तलोचन: । 

वज्जकल्पां चतुष्किष्कुं गुर्वी रुक्माड़दां गदाम्‌ ।। १० ।। 

प्राहिणोत्‌ सूतपुत्राय षडस्रामविचारयन्‌ | 

तब क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले महाबाहु भीमसेनने चार बित्तेकी बनी हुई वज्जके समान 
भयंकर तथा सुवर्णमय भुजबंदसे विभूषित छः कोणोंवाली भारी गदा उठाकर उसे बिना 
विचारे सूतपुत्र कर्णपर चला दिया ।। 

तया जघानाधिरथे: सदश्वान्‌ साधुवाहिन: ।। ११ ।। 

गदया भारत: क्रुद्धो वज्ेणेन्द्र इवासुरान्‌ | 

जैसे कुपित हुए इन्द्रने वज़्से असुरोंका वध किया था, उसी प्रकार क्रोधमें भरे 
भरतवंशी भीमने अपनी उस गदासे अधिरथपुत्र कर्णके उन उत्तम घोड़ोंको मार डाला, जो 
अच्छी तरह सवारीका काम देते थे || ११६ ।। 

ततो भीमो महाबाहु: क्षुराभ्यां भरतर्षभ ।। १२ ।। 

ध्वजमाधिरथेश्छित्त्वा सूतम भ्यहनच्छरै: । 

भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात्‌ महाबाहु भीमसेनने दो छुरोंसे कर्णकी ध्वजा काटकर अपने 
बाणोंद्वारा उसके सारथिको भी मार डाला || १२६ ।। 

हताश्वसूतमुत्सूज्य सरथं पतितध्वजम्‌ ।। १३ ।। 

विस्फारयन्‌ धनु: कर्णस्तस्थौ भारत दुर्मना: । 

भारत! घोड़े और सारथिके मारे जाने तथा ध्वजाके गिर जानेपर कर्ण उस रथको 
छोड़कर धनुषकी टंकार करता हुआ दुःखी मनसे वहाँ खड़ा हो गया || १३३ || 

तत्राद्भुतमपश्याम राधेयस्य पराक्रमम्‌ ।। १४ ।। 

विरथो रथिनां श्रेष्ठो वारयामास यद्‌ रिपुम्‌ | 


वहाँ हमलोगोंने राधानन्दन कर्णका अद्भुत पराक्रम देखा। रथियोंमें श्रेष्ठ उस वीरने 
रथहीन होनेपर भी अपने शत्रुको आगे नहीं बढ़ने दिया || १४३ ।। 

विरथं त॑ नरश्रेष्ठ दृष्टवका55घिरथिमाहवे ।। १५ ।। 

दुर्योधनस्ततो राजन्नभ्यभाषत दुर्मुखम्‌ । 

एष दुर्मुख राधेयो भीमेन विरथीकृत: ।। १६ ।। 

त॑ रथेन नरश्रेष्ठं सम्पादय महारथम्‌ । 

राजन! नरश्रेष्ठ कर्णको युद्धस्थलमें रथहीन खड़ा देख दुर्योधनने अपने भाई दुर्मुखसे 
कहा--*दुर्मुख! यह राधानन्दन कर्ण भीमसेनके द्वारा रथसे वंचित कर दिया गया है। इस 
महारथी नरश्रेष्ठ वीरको रथसे सम्पन्न करो” || १५-१६ ६ |। 

ततो दुर्योधनवच: श्रुत्वा भारत दुर्मुख: ।। १७ ।। 

त्वरमाणो< भ्ययात्‌ कर्ण भीम॑ चावारयच्छरै: । 

दुर्मुखं प्रेक्ष्य संग्रामे सूतपुत्रपदानुगम्‌ ।। १८ ।। 

वायुपुत्र: प्रहष्टे> भूत्‌ सक्किणी परिसंलिहन्‌ । 

भरतनन्दन! दुर्योधनकी यह बात सुनकर दुर्मुख बड़ी उतावलीके साथ कर्णके समीप 
आ पहुँचा और भीमसेनको अपने बाणोंद्वारा रोका। संग्राममें सूतपुत्रके चरणोंका अनुसरण 
करनेवाले दुर्मुखको देखकर वायुपुत्र भीमसेन बड़े प्रसन्न हुए। वे अपने दोनों गलफर चाटने 
लगे |। 

तत: कर्ण महाराज वारयित्वा शिलीमुखै: ।। १९ ।। 

दुर्मुखाय रथं तूर्ण प्रेषयामास पाण्डव: । 

महाराज! तदनन्तर कर्णको अपने बाणोंद्वारा रोककर पाण्डुकुमार भीम तुरंत ही अपने 
रथको दुर्मुखके पास ले गये ।। १९३ ।। 

तस्मिन्‌ क्षणे महाराज नवभिर्नतपर्वभि: ।॥ २० ।। 

सुमुखीैर्दुर्मुख॑ भीम: शरैर्निन्ये यमक्षयम्‌ | 

राजन! फिर झुकी हुई गाँठवाले नौ सुमुख बाणोंद्वारा भीमसेनने दुर्मुखको उसी क्षण 
यमलोक पहुँचा दिया || २०३ ।। 

ततस्तमेवाधिरथि: स्यन्दनं दुर्मुखे हते || २१ ।। 

आस्थित: प्रबभौ राजन्‌ दीप्यमान इवांशुमान्‌ । 

नरेश्वर! दुर्मुखके मारे जानेपर कर्ण उसी रथपर बैठकर देदीप्यमान सूर्यके समान 
प्रकाशित होने लगा ।। 

शयानं भिन्नमर्माणं दुर्मुखं शोणितोक्षितम्‌ ।। २२ ।। 

दृष्टवा कर्णोडश्रुपूर्णाक्षो मुहूर्त नाभ्यवर्तत । 

त॑ गतासुमतिक्रम्य कृत्वा कर्ण: प्रदक्षिणम्‌ ।। २३ ।। 

दीर्घमुष्णं श्वसन्‌ वीरो न किंचित्‌ प्रत्यपद्यत । 


दुर्मुखका मर्मस्थान विदीर्ण हो गया था। वह खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर पड़ा था। उसे 
उस दशामें देखकर कर्णके नेत्रोंमें आँसू भर आया। वह दो घड़ीतक विपक्षीका सामना न 
कर सका। जब उसके प्राणपखेरू उड़ गये, तब कर्ण उस शवकी परिक्रमा करके आगे 
बढ़ा। वह वीर गरम-गरम लंबी साँस खींचता हुआ किसी कर्तव्यका निश्चय न कर 
सका ।। २२-२३ ३ ।। 

तस्मिंस्तु विवरे राजन्‌ नाराचान्‌ गार्ध्रवासस: ।। २४ ।। 

प्राहिणोत्‌ सूतपुत्राय भीमसेनश्षतुर्दश । 

राजन! इसी अवसरमें भीमसेनने सूतपुत्रपर गीधकी पाँखवाले चौदह नाराच 
चलाये ।। २४३ ।। 

ते तस्य कवचं भित्त्वा स्वर्णचित्रं महौजस: ।। २५ ।। 

हेमपुड्खा महाराज व्यशोभन्त दिशो दश । 

महाराज! वे महातेजस्वी सुनहरी पाँखवाले बाण उसके सुवर्णजटित कवचको छिज्न- 
भिन्न करके दसों दिशाओंको सुशोभित करने लगे || २५३६ ।। 

अपिबन सूतपुत्रस्य शोणितं रक्तभोजना: ।। २६ ।। 

क्रुद्धा इव मनुष्येन्द्र भुजड़ा: कालचोदिता: । 

नरेन्द्र! वे रक्तका आहार करनेवाले बाण क्रोधभरे कालप्रेरित भुजंगोंके समान सूतपूत्र 
कर्णका खून पीने लगे ।। 

प्रसर्पमाणा मेदिन्यां ते व्यरोचन्त मार्गणा: ।। २७ ।। 

अर्धप्रविष्टा: संरब्धा बिलानीव महोरगा: । 

जैसे क्रोधमें भरे हुए महान्‌ सर्प बिलोंमें प्रवेश करते समय आधे ही घुस पाये हों, उसी 
प्रकार वे बाण पृथ्वीमें घुसते हुए शोभा पा रहे थे || २७३६ ।। 

त॑ प्रत्यविध्यद्‌ राधेयो जाम्बूनदविभूषितै: । २८ ।। 

चतुर्दशभिरत्युग्रैनराचैरविचारयन्‌ । 

तब कर्णने कुछ विचार न करके अत्यन्त भयंकर एवं सुवर्णभूषित चौदह नाराचोंसे 
भीमसेनको भी घायल कर दिया ।। २८३ ।। 

ते भीमसेनस्य भुजं सब्यं निर्भिद्य पत्रिण: ॥। २९ ।। 

प्राविशन्‌ मेदिनीं भीमा: क्रीज्च॑ पत्ररथा इव । 

वे पंखधारी भयानक बाण भीमसेनकी बायीं भुजा छेदकर पृथ्वीमें समा गये, मानो 
पक्षी क्रौंच पर्वतको जा रहे हों || २९३ ।। 

ते व्यरोचन्त नाराचा: प्रविशन्तो वसुंधराम्‌ ।। ३० ।। 

गच्छत्यस्तं दिनकरे दीप्यमाना इवांशव: । 


वे नाराच इस पृथ्वीमें प्रवेश करते समय वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे सूर्यके डूबते 
समय उनकी चमकीली किरणें प्रकाशित होती हैं || ३०३ ।। 

स निर्भिन्नो रणे भीमो नाराचैर्मर्मभेदिभि: ।। ३१ ।। 

सुस्राव रुधिरं भूरि पर्वतः सलिलं यथा । 

मर्मभेदी नाराचोंसे रणक्षेत्रमें विदीर्ण हुए भीमसेन उसी प्रकार भूरि-भूरि रक्त बहाने 
लगे, जैसे पर्वत झरनेका जल गिराता है || ३१३ ।। 

स भीमस्त्रिभिरायत्त: सूतपुत्रं पतत्त्रिभि: ।। ३२ ।। 

सुपर्णवेगैर्विव्याध सारथिं चास्य सप्तभि: । 

तब भीमसेनने भी प्रयत्नपूर्वक गरुड़के समान वेगशाली तीन बाणोंद्वारा सूतपुत्र 
कर्णको तथा सात बाणोंसे उसके सारथिको भी घायल कर दिया ।। ३२६ || 

स विह्वलो महाराज कर्णो भीमशराहत: ।। ३३ ।। 

प्राद्रवज्जवनैरश्वे रणं हित्वा महाभयात्‌ । 

महाराज! भीमके बाणोंसे आहत होकर कर्ण विह्नल हो उठा और महान्‌ भयके कारण 
युद्ध छोड़कर शीघ्रगामी घोड़ोंकी सहायतासे भाग निकला || ३३६ || 





भीमसेनस्तु विस्फार्य चापं हेमपरिष्कृतम्‌ ।। ३४ ।। 

आहवेडतिरथो<तिष्ठज्ज्वलन्निव हुताशन: ।। ३५ ।। 

परंतु अतिरथी भीमसेन अपने सुवर्णभूषित धनुषको ताने हुए प्रज्वलित अग्निके समान 
युद्धस्थलमें ही खड़े रहे || ३४-३५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णापयाने 
चतुस्त्रिंशदाधिकशततमो<ध्याय: ।। १३४ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्णका पलायनविषयक एक 
सौ चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३४ ॥। 


अपन क्ाा बछ। अकाल 


पजञ्चत्रिशर्दाधिकशततमोब् ध्याय: 


धृतराष्ट्रका खेदपूर्वक भीमसेनके बलका वर्णन और अपने 
पुत्रोंकी निन्दा करना तथा भीमके द्वारा दुर्मरषण आदि 
धृतराष्ट्रके पाँच पुत्रोंका वध 
धृतराष्ट उवाच 

दैवमेव पर मन्‍्ये धिक्‌ पौरुषमनर्थकम्‌ । 

यत्राधिरथिरायत्तों नातरत्‌ पाण्डवं रणे ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने कहा--संजय! मैं तो दैवको ही बड़ा मानता हूँ। पुरुषार्थ तो व्यर्थ है। उसे 
धिक्कार है; क्योंकि उसमें स्थित हुआ अधिरथपुत्र कर्ण सब प्रकारसे प्रयत्न करके भी 
रणक्षेत्रमें पाण्डुनन्दन भीमसे पार न पा सका ।। १ |। 

कर्ण: पार्थान्‌ सगोविन्दान्‌ जेतुमुत्सहते रणे । 

न च कर्णसमं योधं लोके पश्यामि कठ्चन ॥। २ ।। 

“कर्ण युद्धस्थलमें कृष्णसहित समस्त कुन्तीकुमारोंको जीतनेका उत्साह रखता है। मैं 
संसारमें कर्णके समान दूसरे किसी योद्धाको नहीं देख रहा हूँ! ।। २ ।। 

इति दुर्योधनस्याहमश्रौषं जल्पतो मुहुः । 

कर्णो हि बलवान्‌ शूरो दृढ्धन्वा जितक्लम: ।। ३ ।। 

इति मामब्रवीत्‌ सूत मन्दो दुर्योधन: पुरा । 

वसुषेणसहायं मां नाल॑ं देवाडपि संयुगे ।। ४ ।। 

कि नु पाण्डुसुता राजन्‌ गतसत्त्वा विचेतस: । 

इस प्रकार दुर्योधनके मुँहसे मैंने बारंबार सुना है। सूत! मूर्ख दुर्योधनने पहले मुझसे यह 
भी कहा था कि “कर्ण बलवान शूरवीर, सुदृढ़ धनुर्धर और युद्धमें श्रम तथा थकावटपर 
विजय पानेवाला है। राजन! कर्णके साथ रहनेपर समरभूमिमें मुझे देवता भी परास्त नहीं 
कर सकते; फिर शक्तिहीन और विवेकशून्य पाण्डव मेरा क्या कर सकते हैं?” ।। ३-४ $ ।। 

तत्र त॑ निर्जितं दृष्टवा भुजड्रमिव निर्विषम्‌ । ५ ।। 

युद्धात्‌ कर्णमपक्रान्तं किंस्विद्‌ दुर्योधनो<ब्रवीत्‌ । 

परंतु रणक्षेत्रमें विषहीन सर्पके समान कर्णको पराजित और युद्धसे भागा हुआ देखकर 
दुर्योधनने क्या कहा था ।। ५३ ।। 

अहो दुर्मुखमेवैकं युद्धानामविशारदम्‌ ।। ६ ।। 

प्रावेशयद्भधुतवहं पतज्गभमिव मोहित: । 


अहो! दुर्योधनने मोहित होकर युद्धकी कलासे अनभिज्ञ दुर्मुखको अकेले ही पतंगकी 
भाँति आगमें झोंक दिया || ६६ || 

अश्वत्थामा मद्रराज: कृप: कर्णश्व॒ संगता: ।। ७ ।॥। 

न शक्ता: प्रमुखे स्थातुं नूनं भीमस्य संजय । 

संजय! अभश्व॒त्थामा, मद्रराज शल्य, कृपाचार्य और कर्ण--ये सब मिलकर भी निश्चय 
ही भीमके सामने नहीं ठहर सकते ।। ७६ ।। 

ते5पि चास्य महाघोरं बल॑ नागायुतोपमम्‌ ।। ८ ।। 

जानन्तो व्यवसायं च क्रूरं मारुततेजस: । 

किमर्थ क्रूरकर्माणं यमकालान्तकोपमम्‌ ।। ९ ।। 

बलसंरम्भवीर्यज्ञा: कोपयिष्यन्ति संयुगे । 

वे भी वायुके तुल्य तेजस्वी भीमसेनके दस हजार हाथियोंके समान अत्यन्त घोर 
बलको तथा उनके क्रूरतापूर्ण निश्चयको जानते हैं; उनके बल, पराक्रम और क्रोधसे परिचित 
हैं। ऐसी दशामें वे यम, काल और अन्तकके समान क्रूर कर्म करनेवाले भीमसेनको युद्धमें 
अपने ऊपर कैसे कुपित करेंगे? ।। ८-९६ ।। 

कर्णस्त्वेको महाबाहु: स्वबाहुबलदर्पित: ।। १० ।। 

भीमसेनमनादृत्य रणे<युध्यत सूतज: । 

अकेला सूतपुत्र महाबाहु कर्ण ही अपने बाहुबलके घमंडमें भरकर भीमसेनका 
तिरस्कार करके रणभूमिमें उनके साथ जूझता रहा || १०६ || 

यो5जयत्‌ समरे कर्ण पुरंदर इवासुरम्‌ ।। ११ ।। 

नस पाण्डुसुतो जेतुं शक्य: केनचिदाहवे । 

जिन्होंने समरांगणमें असुरोंपर विजय पानेवाले देवराज इन्द्रके समान कर्णको पराजित 
कर दिया, उन पाण्डुपुत्र भीमसेनको कोई भी युद्धमें जीत नहीं सकता ।। 

द्रोणं यः सम्प्रमथ्यैक: प्रविष्टोी मम वाहिनीम्‌ ।। १२ ।। 

भीमो धनंजयान्वेषी कस्तमाच्छेज्जिजीविषु: । 

जो भीमसेन अकेले ही द्रोणाचार्यको मथकर धनंजयका पता लगानेके लिये मेरी सेनामें 
घुस आये, उनका सामना करनेके लिये जीवित रहनेकी इच्छावाला कौन पुरुष जा सकता 
है? ।। १२६ |। 

को हि संजय भीमस्य स्थातुमुत्सहतेडग्रत: ।। १३ ।। 

उद्यताशनिहस्तस्य महेन्द्रस्येव दानव: । 

संजय! जैसे हाथमें वज्र लिये हुए देवराज इन्द्रके सामने कोई दानव खड़ा नहीं हो 
सकता, उसी प्रकार भीमसेनके सम्मुख भला कौन ठहर सकता है? ।। १३ ६ || 

प्रेतराजपुरं प्राप्प निवर्तेतापि मानव: ।। १४ ।। 


न भीमसेन सम्प्राप्य निवर्तेत कदाचन । 

मनुष्य यमलोकमें भी जाकर लौट सकता है; परंतु युद्धमें भीमसेनके सामने जाकर 
कदापि जीवित नहीं लौट सकता ।। १४ ६ |। 

पतड्जा इव वह्रिं ते प्राविशन्नल्पचेतस: ।। १५ ।। 

ये भीमसेनं संक्रुद्धमन्वधावन्‌ विमोहिता: । 

मेरे जो मन्दबुद्धि पुत्र मोहित होकर क्रोधमें भरे हुए भीमसेनकी ओर दौड़े थे, वे 
पतंगोंके समान मानो आगमें ही कूद पड़े थे || १५६ ।। 

यत्‌ तत्‌ सभायां भीमेन मम पुत्रवधाश्रयम्‌ ।। १६ ।। 

उक्त संरम्भिणोग्रेण कुरूणां शृण्वतां तदा । 

तन्नूनमभिसंचिन्त्य दृष्टवा कर्ण च निर्जितम्‌ ।। १७ ।। 

दुःशासन: सह भ्रात्रा भयाद्‌ भीमादुपारमत्‌ | 

क्रोधमें भरे हुए भयंकर भीमसेनने सभाभवनमें उस दिन समस्त कौरवोंके सुनते हुए 
मेरे पुत्रोंके वधके सम्बन्धमें जो प्रतिज्ञा की थी, उसका विचार करके और कर्णको पराजित 
देखकर अपने भाई दुर्योधनसहित दुःशासन निश्चय ही भयके मारे भीमसेनसे दूर हट गया 
होगा | १६-१७ ६ ।। 

यश्व संजय दुर्बुद्धिरब्रवीत्‌ समितौ मुहुः ।। १८ ।। 

कर्णो दुःशासनो<हं च जेष्यामो युधि पाण्डवान्‌ । 

संजय! खोटी बुद्धिवाले दुर्योधनने सभामें बारंबार कहा था कि “कर्ण, दुःशासन तथा मैं 
--तीनों मिलकर युद्धमें अवश्य पाण्डवोंको जीत लेंगे” || १८३ ।। 

स नूनं॑ विरथं दृष्टवा कर्ण भीमेन निर्जितम्‌ ।। १९ ।। 

प्रत्याख्यानाच्च कृष्णस्य भृशं तप्यति पुत्रक: । 

परंतु अब कर्णको भीमसेनके द्वारा पराजित और रथहीन हुआ देख श्रीकृष्णकी बात न 
माननेके कारण मेरा वह पुत्र निश्चय ही बड़ा भारी पश्चात्ताप कर रहा होगा ।। १९३ ।। 

दृष्टवा भ्रातृन्‌ हतान्‌ संख्ये भीमसेनेन दंशितान्‌ | २० ।। 

आत्मापराधे सुमहन्ूनं तप्यति पुत्रक: । 

अपने कवचधारी भ्राताओंको युद्धमें भीमसेनके द्वारा मारा गया देख मेरे पुत्रको अपने 
अपराधके लिये अवश्य ही महान्‌ अनुताप हो रहा होगा || २०३ ।। 

को हि जीवितमन्विच्छन्‌ प्रतीपं पाण्डवं व्रजेत्‌ ।। २१ ।। 

भीम॑ भीमायुध॑ क्रुद्धं साक्षात्‌ कालमिव स्थितम्‌ । 

अपने जीवनकी इच्छा रखनेवाला कौन पुरुष क्रोधमें भरकर साक्षात्‌ कालके समान 
खड़े हुए भयानक अस्त्र-शस्त्रधारी पाण्डुपुत्र भीमसेनके विरुद्ध युद्धमें जा सकता है ।। २१ 
> 


वडवामुखमध्यस्थो मुच्येतापि हि मानव: ।। २२ ।। 

न भीममुखसम्प्राप्तो मुच्येदिति मतिर्मम । 

मेरा तो ऐसा विश्वास है कि बडवानलके मुखमें पड़ा हुआ मनुष्य शायद जीवित बच 
जाय; परंतु भीमसेनके सम्मुख युद्धके लिये आया हुआ कोई भी शूरमा जीवित नहीं छूट 
सकता || २२६ || 

न पार्था न च पञज्चाला न च केशवसात्यकी ।। २३ ।। 

जानते युधि संरब्धा जीवितं परिरक्षितुम्‌ । 

अहो मम सुतानां हि विपन्नं सूत जीवितम्‌ ।। २४ ।। 

सूत! युद्धमें क़ुद्ध होनेपर पाण्डव, पांचाल, श्रीकृष्ण तथा सात्यकि--ये कोई भी शत्रुके 
जीवनकी रक्षा करना नहीं जानते हैं। अहो! मेरे पुत्रोंका जीवन भारी विपत्तिमें पड़ गया 
है ।। २३-२४ ।। 

संजय उवाच 

यस्त्वं शोचसि कौरव्य वर्तमाने महाभये । 

त्वमस्थ जगतो मूलं विनाशस्य न संशय: ।। २५ ।। 

संजयने कहा--कुरुनन्दन! यह महान्‌ भय जब सिरपर आ गया है, तब आप शोक 
करने बैठे हैं, यह ठीक नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस जगत्‌के विनाशका मूल 
कारण आप ही हैं |। २५ ।। 

स्वयं वैरं महत्‌ कृत्वा पुत्राणां वचने स्थित: । 

उच्यमानो न गृल्लीषे मर्त्य: पथ्यमिवौषधम्‌ ।। २६ ।। 

पुत्रोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर आपने स्वयं ही इस महान्‌ वैरकी नींव डाली है और जब 
इसे मिटानेके लिये आपसे किसीने कोई बात कही, तब आपने उसे नहीं माना, ठीक उसी 
तरह, जैसे मरणासन्न मनुष्य हितकारक औषध नहीं ग्रहण करता है || २६ ।। 

स्वयं पीत्वा महाराज कालकूटं सुदुर्जरम्‌ । 

तस्येदानीं फल कृत्स्नमवाप्लुहि नरोत्तम ।। २७ ।। 

नरश्रेष्ठ महाराज! जिसको पचाना अत्यन्त कठिन है, उस कालकूट विषको स्वयं 
पीकर अब उसके सारे परिणामोंको आप ही भोगिये ।। २७ ।। 

यत्‌ तु कुत्सयसे योधान्‌ युध्यमानान्‌ महाबलान्‌ । 

तत्र ते वर्तयिष्यामि यथा युद्धमवर्तत ।। २८ ।। 

युद्धमें लगे हुए महाबली योद्धाओंको जो आप कोस रहे हैं, वह व्यर्थ है। अब जिस 
प्रकार वहाँ युद्ध हुआ था, वह सब आपको बता रहा हूँ, सुनिये || २८ ।। 

दृष्टवा कर्ण तु पुत्रास्ते भीमसेनपराजितम्‌ । 

नामृष्यन्त महेष्वासा: सोदर्या: पजडच भारत ॥। २९ |। 


भरतनन्दन! कर्णको भीमसेनसे पराजित हुआ देख आपके पाँच महाधनुर्थर पुत्र जो 
परस्पर सगे भाई थे, सह न सके ।। २९ |। 

दुर्मर्षणो दुःसहश्न दुर्मदो दुर्धरो जय: । 

पाण्डवं चित्रसंनाहास्तं प्रतीपमुपाद्रवन्‌ ।। ३० ।। 

उन पाँचोंके नाम ये हैं--दुर्मर्षण, दुःसह, दुर्मद, दुर्धर (दुराधार) और जय। इन सबने 
विचित्र कवच धारण करके अपने विरोधी पाण्डुपुत्र भीमसेनपर आक्रमण किया ।। ३० ।। 

ते समन्तान्महाबाहुं परिवार्य वृकोदरम्‌ । 

दिश: शरै: समावृण्वन्‌ शलभानामिव व्रजै: ।। ३१ ।। 

उन्होंने महाबाहु भीमसेनको चारों ओरसे घेरकर टिड्डीदलोंके समान अपने 
बाणसमूहोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर दिया ।। ३१ ।। 

आगच्छतस्तान्‌ सहसा कुमारान्‌ देवरूपिण: । 

प्रतिजग्राह समरे भीमसेनो हसन्निव ।। ३२ ।। 

उन देवतुल्य राजकुमारोंको सहसा देख समरभूमिमें भीमसेनने हँसते हुए-से उनका 
आघात सहन किया ।। ३२ || 

तव दृष्टवा तु तनयान्‌ भीमसेनपुरोगतान्‌ । 

अभ्यवर्तत राधेयो भीमसेनं महाबलम्‌ ।। ३३ ।। 

आपके पुत्रोंको भीमसेनके सामने गया हुआ देख राधानन्दन कर्ण पुनः महाबली 
भीमसेनका सामना करनेके लिये आ पहुँचा ।। ३३ ।। 

विसृजन्‌ विशिखांस्तीक्ष्णान्‌ स्वर्णपुड्खाज्छिलाशितान्‌ । 

तं॑ तु भीमो5भ्ययात्‌ तूर्ण वार्यमाण: सुतैस्तव ।। ३४ ।। 

वह शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखोंसे युक्त पैने बाणोंकी वर्षा कर रहा 
था। उस समय आपके पुत्रोंद्वारा रोके जानेपर भी भीमसेन तुरंत ही कर्णके साथ युद्ध 
करनेके लिये आगे बढ़ गये ।। ३४ ।। 

कुरवस्तु ततः कर्ण परिवार्य समन्तत: । 

अवाकिरन्‌ भीमसेनं शरै: संनतपर्वभि: ।। ३५ || 

तब उन कौरवोंने कर्णको चारों ओरसे घेरकर भीमसेनपर झुकी हुई गाँठवाले बाणोंकी 
वर्षा आरम्भ कर दी || ३५ |। 

तान्‌ बाणै: पञ्चविंशत्या साशथ्वान्‌ राजन्‌ नरर्षभान्‌ | 

ससूतान्‌ भीमधनुषो भीमो निन्‍्ये यमक्षयम्‌ ।। ३६ ।। 

राजन्‌! यह देखकर भीमसेनने पचीस बाणोंका प्रहार करके सारथि और घोड़ोंसहित 
भयंकर धनुष धारण करनेवाले उन नरश्रेष्ठ राजकुमारोंको यमलोक पहुँचा दिया || ३६ ।। 

प्रापतन्‌ स्यन्दने भ्यस्ते सार्थ सूतैर्गतासव: । 

चित्रपुष्पधरा भग्ना वातेनेव महाद्रुमा: || ३७ ।। 


वे प्राणशून्य होकर सारथियोंके साथ रथोंसे नीचे गिर पड़े, मानो प्रचण्ड आँधीने 
विचित्र पुष्प धारण करनेवाले विशाल वृक्षोंकोी उखाड़कर धराशायी कर दिया हो ।। ३७ ।। 

तत्राद्भुतमपश्याम भीमसेनस्य विक्रमम्‌ । 

संवार्याधिरथ्थिं बाणैर्यज्जघान तवात्मजान्‌ ।। ३८ ।। 

वहाँ हमने भीमसेनका यह अद्भुत पराक्रम देखा कि उन्होंने सूतपुत्र कर्णको अपने 
बाणोंद्वारा रोककर आपके पुत्रोंको मार डाला ।। ३८ ।। 

स वार्यमाणो भीमेन शितैर्बाणै: समन्ततः । 

सूतपुत्रो महाराज भीमसेनमवैक्षत ।। ३९ ।। 

महाराज! भीमसेनके पैने बाणोंद्वारा चारों ओरसे रोके जानेपर भी सूतपुत्र कर्णने 
भीमसेनकी ओर क्रोधपूर्वक देखा ।। ३९ ।। 

त॑ भीमसेन: संरम्भात्‌ क्रोधसंरक्तलोचन: । 

विस्फार्य सुमहच्चापं मुहुः कर्णमवैक्षत ।। ४० ।। 

इधर क्रोधसे लाल आँखें किये भीमसेन भी अपने विशाल धनुषको फैलाकर कर्णकी 
ओर रोषपूर्वक बारंबार देखने लगे || ४० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमसेनपराक्रमे 
पज्चत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय ।। १३५ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपरव्वमें भीमसेनका पराक्रमविषयक 
एक सौ पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३५ ॥। 


ऑपन-माजल बछ। जि 


षट्त्रिशर्दाधकशततमो< ध्याय: 


भीमसेन और कर्णका युद्ध, कर्णका पलायन, धृतराष्ट्रके 
सात पुत्रोंका वध तथा भीमका पराक्रम 


संजय उवाच 

तवात्मजांस्तु पतितान्‌ दृष्टवा कर्ण: प्रतापवान्‌ । 

क्रोधेन महता5<विष्टो निर्विण्णो5भूत्‌ स जीवितात्‌ ॥। १ ।॥। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! आपके पुत्रोंको रणभूमिमें गिरा हुआ देख प्रतापी कर्ण 
अत्यन्त कुपित हो अपने जीवनसे विरक्त हो उठा ।। १ ।। 

आगस्कृतमिवात्मानं मेने चाधिरथिस्तदा । 

यत्प्रत्यक्ष॑ं तव सुता भीमेन निहता रणे ॥। २ ।॥। 

उस समय अधिरथपुत्र कर्ण अपने-आपको अपराधी-सा मानने लगा; क्‍योंकि 
भीमसेनने उसकी आँखोंके सामने रणभूमिमें आपके पुत्रोंको मार डाला था || २ ।। 

भीमसेनस्तत: क्रुद्ध: कर्णस्य निशितान्‌ शरान्‌ | 

निचखान स सम्भ्रान्त: पूर्ववैरमनुस्मरन्‌ ।। ३ ।। 

तदनन्तर पहलेके वैरका बारंबार स्मरण करके कुपित हुए भीमसेनने कर्णके शरीरमें 
बड़े वेगसे अपने पैने बाण धँँसा दिये || ३ ।। 

स भीम॑ पज्चभिर्विद्ध्वा राधेय: प्रहसन्निव । 

पुनर्विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुड्खै: शिलाशितै: ।। ४ ।। 

तब राधानन्दन कर्णने हँसते हुए-से पाँच बाण मारकर भीमसेनको घायल कर दिया। 
फिर शानपर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पंखवाले सत्तर बाणोंद्वारा उन्हें गहरी चोट 
पहुँचायी || ४ ।। 

अविचिन्त्याथ तान्‌ बाणान्‌ कर्णेनास्तान्‌वृकोदर: । 

रणे विव्याध राधेयं शतेनानतपर्वणाम्‌ ।। ५ ।। 

कर्णके चलाये हुए उन बाणोंकी कुछ भी परवा न करके भीमसेनने रणभूमिमें झुकी हुई 
गाँठवाले सौ बाणोंद्वारा राधापुत्रको घायल कर दिया ।। ५ ।। 

पुनश्न विशिखैस्ती&णैर्विंद्ध्वा मर्मसु पठचभि: । 

धनुश्चिच्छेद भल्लेन सूतपुत्रस्य मारिष ।। ६ ।। 

माननीय नरेश! फिर पाँच तीखे बाणोंद्वारा सूतपुत्रके मर्मस्थानोंमें चोट पहुँचाकर 
भीमसेनने एक भल्लद्वारा उसका धनुष काट दिया ।। ६ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय कर्णो भारत दुर्मना: । 


इषुभिश्छादयामास भीमसेन॑ परंतप: ।। ७ ।। 

भारत! तब शत्रुओंको संताप देनेवाले कर्णने खिन्न होकर दूसरा धनुष हाथमें ले 
भीमसेनको अपने बाणोंद्वारा आच्छादित कर दिया ।। ७ ।। 

तस्य भीमो हयान्‌ हत्वा विनिहत्य च सारथिम्‌ । 

प्रजहास महाहासं कृते प्रतिकृते पुन: ।। ८ ।। 

भीमसेनने उसके घोड़ों और सारथिको मारकर उसके प्रहारका बदला चुका लेनेके 
पश्चात्‌ पुनः बड़े जोरसे अट्टहास किया ।। ८ ।। 

इषुश्नि: कार्मुकं चास्य चकर्त पुरुषर्षभ: । 

तत्‌ पपात महाराज स्वार्णपृष्ठं महास्वनम्‌ ।। ९ ।। 

महाराज! पुरुषशिरोमणि भीमने अपने बाणोंद्वारा कर्णका धनुष भी फिर काट दिया। 
स्वर्णमय पृष्ठभागसे युक्त और गम्भीर टंकार करनेवाला उसका वह धनुष पृथ्वीपर गिर 
पड़ा ।। ९ |। 

अवारोहदू रथात्‌ तस्मादथ कर्णो महारथ: । 

गदां गृहीत्वा समरे भीमाय प्राहिणोद्‌ रुषा ।। १० ।। 

महारथी कर्ण उस रथसे उतर गया और गदा लेकर उसने समरभूमिमें भीमसेनपर 
रोषपूर्वक चला दी || १० ।। 

तामापतन्तीमालक्ष्य भीमसेनो महागदाम्‌ । 

शरैरवारयद्‌ राजन्‌ सर्वसैन्यस्य पश्यत: ।। ११ ।। 

राजन्‌! उस विशाल गदाको अपने ऊपर आती देख भीमसेनने सब सेनाओंके देखते- 
देखते बाणोंद्वारा उसका निवारण कर दिया ।। ११ || 

ततो बाणसहस्राणि प्रेषयामास पाण्डव: । 

सूतपुत्रवधाकाड्क्षी त्वरमाण: पराक्रमी || १२ ।। 

तब सूतपुत्रके वधकी इच्छावाले पराक्रमी पाण्डुपुत्र भीमसेनने बड़ी उतावलीके साथ 
एक हजार बाण चलाये ।। 

तानिषूनिषुभि: कर्णो वारयित्वा महामृथे । 

कवचं भीमसेनस्य पाटयामास सायकै: ।॥। १३ ।। 

परंतु कर्णने उस महासमरमें अपने बाणोंद्वारा उन सभी बाणोंका निवारण करके 
भीमसेनके कवचको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया ।। १३ ।। 

अथैनं पजञ्चविंशत्या नाराचानां समार्पयत्‌ । 

पश्यतां सर्वसैन्यानां तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। १४ ।। 

तदनन्तर उसने सब सेनाओंके देखते-देखते भीमसेनपर पचीस नाराचोंका प्रहार 
किया। वह अद्भुत-सी बात हुई ।। १४ ।। 

ततो भीमो महाबाहुर्नवभिर्नतपर्वभि: । 


प्रेषयामास संक्रुद्ध: सूतपुत्रस्य मारिष ।। १५ ।। 

माननीय नरेश! तब अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए महाबाहु भीमसेनने सूतपुत्रको झुकी हुई 
गाँठवाले नौ बाण मारे || १५ ।। 

ते तस्य कवचं भिन्त्वा तथा बाहुं च दक्षिणम्‌ 

अभ्ययुर्धरणीं तीक्ष्णा वल्मीकमिव पन्नगा: ।। १६ ।। 

वे तीखे बाण कर्णके कवच तथा दाहिनी भुजाको विदीर्ण करके बाँबीमें घुसनेवाले 
सर्पोंके समान धरतीमें समा गये ।। १६ ।। 

स च्छाद्यमानो बाणौघैर्भीमसेन धनुश्च्युतैः । 

पुनरेवाभवत्‌ कर्णो भीमसेनात्‌ पराड्मुख: ।। १७ ।। 

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाणसमूहोंसे आच्छादित होकर कर्ण पुनः भीमसेनसे 
विमुख हो गया (उन्हें पीठ दिखाकर भाग चला) ।। १७ ।। 

त॑ पराड्मुखमालोक्य पदातिं सूतनन्दनम्‌ | 

कौन्तेयशरसंछन्न॑ राजा दुर्योधनो<ब्रवीत्‌ ।। १८ ।। 

सूतपुत्र कर्णको युद्धसे विमुख, पैदल तथा भीमसेनके बाणोंसे आच्छादित देखकर 
राजा दुर्योधन अपने सैनिकोंसे बोला-- || १८ ।। 

त्वरध्वं सर्वतो यत्ता राधेयस्य रथं प्रति । 

ततस्तव सुता राजन श्र॒त्वा क्षातुर्वचो द्रुतम्‌ ।। १९ ।। 

अभ्ययु: पाण्डवं युद्धे विसृजन्त: शिलीमुखान्‌ । 

“वीरो! सब ओरसे राधानन्दन कर्णके रथकी ओर शीघ्र आओ और उसकी रक्षाका 
प्रबन्ध करो।' राजन! तब भाईकी यह बात सुनकर आपके पुत्र शीघ्रतापूर्वक युद्धमें 
पाण्डुपुत्र भीमपर बाणोंकी वर्षा करते हुए आ पहुँचे ।। १९३ ।। 

चित्रोपचित्रश्षित्राक्ष क्षारुचित्र: शरासन: ।। २० |। 

चित्रायुथश्षित्रवर्मा समरे चित्रयोधिन: । 

उनके नाम इस प्रकार हैं--चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, चित्रायुध और 
चित्रवर्मा। ये सब-के-सब समरभूमिमें विचित्र रीतिसे युद्ध करनेवाले थे || २० ३ ।। 

तानापतत एवाशु भीमसेनो महारथ: ।। २१ ।। 

एकैकेन शरेणाजौ पातयामास ते सुतान्‌ । 

ते हता न्‍्यपतन्‌ भूमौ वातरुग्णा इव द्रुमा: ।। २२ ।। 

महारथी भीमसेनने उनके आते ही शीघ्रतापूर्वक एक-एक बाण मारकर आपके सभी 
पुत्रोंको युद्धमें धराशायी कर दिया। वे मारे जाकर आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंके समान 
पृथ्वीपर गिर पड़े || २१-२२ ।। 

दृष्टवा विनिहतान्‌ पुत्रांस्तव राजनमहारथान्‌ । 

अश्रुपूर्णमुख: कर्ण क्षत्तु: सस्मार तद्‌ वच: ।। २३ ।। 


राजन्‌! आपके महारथी पुत्रोंको इस प्रकार मारा गया देख कर्णके मुखपर आँसुओंकी 
धारा बह चली। उस समय उसे विदुरजीकी कही हुई बात याद आयी ।। २३ ।। 

रथं चान्यं समास्थाय विधिवत्‌ कल्पितं पुनः । 

अभ्ययात्‌ पाण्डवं युद्धे त्वरमाण: पराक्रमी ।। २४ ।। 

फिर उस पराक्रमी वीरने विधिपूर्वक सजाये हुए दूसरे रथपर बैठकर युद्धमें 
शीघ्रतापूर्वक पाण्डुपुत्र भीमसेनपर धावा किया ।। २४ ।। 

तावन्योन्यं शरैर्भित्त्वा स्वर्णपुड्खै: शिलाशितै: । 

व्यभ्राजेतां यथा मेघौ संस्यूतौ सूर्यरश्मिभि: ।। २५ ।। 

वे दोनों एक-दूसरेको शिलापर तेज किये हुए सुवर्णपंखयुक्त बाणोंद्वारा क्षत-विक्षत 
करके सूर्यकी किरणोंमें पिरोये हुए बादलोंके समान सुशोभित होने लगे || २५ ।। 

षट्त्रिंशद्धिस्ततो भल्लैरनिशितैस्तिग्मतेजनै: । 

व्यधमत्‌ कवचं क्रुद्धः सूतपुत्रस्य पाण्डव: ।। २६ ।। 

तत्पश्चात्‌ क्रोधमें भरे हुए भीमसेनने प्रचण्ड तेजवाले छत्तीस तीखे भल्लोंका प्रहार 
करके सूतपुत्रके कवचकी धज्जियाँ उड़ा दीं || २६ ।। 

सूतपुत्रो5पि कौन्तेयं शरै: संनतपर्वभि: । 

पज्चाशता महाबाहुर्विव्याध भरतर्षभ ।। २७ ।। 

भरतश्रेष्ठ। फिर महाबाहु सूतपुत्रने भी कुन्तीकुमार भीमसेनको झुकी हुई गाँठवाले 
पचास बाणोंसे बींध डाला || २७ |। 

रक्तचन्दनदिग्धाड़ौ शरै: कृतमहाव्रणौ । 

शोणिताक्तौ व्यराजेतां चन्द्रसूर्याविवोदितो || २८ ।। 

उन दोनोंने अपने शरीरमें लाल चन्दन लगा रखे थे। इसके सिवा उनके शरीरमें बाणोंके 
आघातसे बड़े-बड़े घाव हो गये थे। इस प्रकार खूनसे लथपथ हुए वे दोनों योद्धा 
उदयकालीन सूर्य और चन्द्रमाके समान शोभा पा रहे थे || २८ ।। 

तौ शोणितोक्षितैगत्रि: शरैश्छिन्नतनुच्छदौ । 

कर्णभीमौ व्यराजेतां निर्मुक्ताविव पन्नगौं || २९ ।। 

व्याप्राविव नरव्याप्रौ दृष्टाभिरितरेतरम्‌ । 

शरधारासूजौ वीरौ मेघाविव ववर्षतु: ।। ३० ।। 

बाणोंद्वारा उन दोनोंके कवच कट गये थे और सारे अंग रक्तसे भींग गये थे। उस दशामें 
वे कर्ण और भीमसेन केंचुल छोड़कर निकले हुए दो सर्पोके समान शोभा पाने लगे। जैसे 
दो व्याप्र अपनी दाढ़ोंसे एक-दूसरेपर चोट करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों पुरुषव्याप्र योद्धा 
परस्पर प्रहार कर रहे थे। वे दोनों वीर दो मेघोंके समान बाणधाराकी वर्षा कर रहे 
थे ।। २९-३० || 

वारणाविव चान्योन्यं विषाणाभ्यामरिंदमौ । 


निर्भिन्दन्तौ स्वगात्राणि सायकैश्लारु रेजतु: ।। ३१ ।। 

जैसे दो हाथी अपने दाँतोंसे एक-दूसरेपर आघात करते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुदमन वीर 
अपने बाणोंद्वारा एक-दूसरेके शरीरोंको विदीर्ण करते हुए सुशोभित हो रहे थे ।। 

नादयन्तौ प्रहर्षन्ती विक्रीडन्तो परस्परम्‌ । 

मण्डलानि विकुर्वाणौ रथाभ्यां रथसत्तमौ ।। ३२ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ भीम और कर्ण सिंहनाद करते, अत्यन्त हर्षसे उत्फुल्ल हो उठते और 
आपसमें खेल-सा करते हुए रथोंद्वारा मण्डलगतिसे विचरते थे ।। ३२ ।। 

वृषाविवाथ नर्दन्तौ बलिनौ वासितान्तरे | 

सिंहाविव पराक्रान्तौ नरसिंहौ महाबलौ ।। ३३ ।। 

परस्परं वीक्षमाणौ क्रोधसंरक्तलोचनौ । 

युयुधाते महावीर्यों शक्रवैरोचनी यथा ।। ३४ ।। 

जैसे गायके लिये दो बलवान्‌ साँड़ गरजते हुए लड़ जाते हैं, उसी प्रकार वे सिंहके 
समान पराक्रमी महान्‌ बलशाली पुरुषसिंह कर्ण और भीम क्रोधसे लाल आँखें करके एक- 
दूसरेको देखते हुए महापराक्रमी इन्द्र और बलिके समान युद्ध कर रहे थे || ३३-३४ ।। 

ततो भीमो महाबाहुर्बाहुभ्यां विक्षिपन्‌ धनु: । 

व्यराजत रणे राजन्सविद्युदिव तोयद: ।। ३५ ।। 

राजन! उस रणक्षेत्रमें महाबाहु भीमसेन अपनी भुजाओंसे धनुषकी टंकार करते हुए 
बिजलीसहित मेघके समान शोभा पा रहे थे ।। ३५ ।। 

स नेमिघोषस्तनितश्चापविद्युच्छराम्बुभि: । 

भीमसेनमहामेघ: कर्णपर्वतमावृणोत्‌ ।। ३६ ।। 

रथके पहियोंकी घरघराहट जिसकी गम्भीर गर्जना थी और धनुष ही विद्युतके समान 
प्रकाशित होता था, भीमसेनरूपी उस महामेघने बाणरूपी जलकी वर्षसे कर्णरूपी 
पर्वतको ढक दिया ।। ३६ ।। 

तत:ः शरसहस्रेण सम्यगस्तेन भारत । 

पाण्डवो व्यकिरत्‌ कर्ण भीमो भीमपराक्रम: ।। ३७ ।। 

भरतनन्दन! तदनन्तर अच्छी तरह चलाये हुए सहस्रों बाणोंसे भयंकर पराक्रमी 
पाण्डुपुत्र भीमने कर्णको आच्छादित कर दिया ।। ३७ ।। 

तत्रापश्यंस्तव सुता भीमसेनस्य विक्रमम्‌ । 

सुपुड्ख: कड़कवासोभिरययत्‌ कर्ण छादयच्छरै: || ३८ ।। 

आपके पुत्रोंने वहाँ भीमसेनका यह अद्भुत पराक्रम देखा कि उन्होंने कंकपत्रयुक्त 
सुन्दर पंखवाले बाणोंसे कर्णको आच्छादित कर दिया ।। ३८ ।। 

स नन्दयन्‌ रणे पार्थ केशवं च यशस्विनम्‌ । 

सात्यकिं चक्ररक्षी च भीम: कर्णमयोधयत्‌ ।। ३९ ।। 


भीमसेन रणक्षेत्रमें कुन्तीकुमार अर्जुन, यशस्वी श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा दोनों 
चक्ररक्षक युधामन्यु एवं उत्तमौजाको आनन्दित करते हुए कर्णके साथ युद्ध कर रहे 
थे।। ३९ |। 

विक्रमं भुजयोर्वीर्य धैर्य च विदितात्मन: । 

पुत्रास्तव महाराज दृष्टवा विमनसो5भवन्‌ ।। ४० || 

महाराज! सुविख्यात भीमसेनके पराक्रम, बाहुबल और धैर्यको देखकर आपके सभी 
पुत्र उदास हो गये || ४० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमयुद्धे 
षट्त्रिंयधिकशततमो<्ध्याय: ।। १३६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनका युद्धविषयक एक 
सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३६ ॥ 


अपन क्रात बछ। अर: 2 


सप्तत्रिशर्दाधिकशततमोब< ध्याय: 


भीमसेन और कर्णका युद्ध तथा दुर्योधनके सात भाइयोंका 
वध 


संजय उवाच 

भीमसेनस्य राधेय: श्रुत्वा ज्यातलनि:स्वनम्‌ | 

नामृष्यत यथा मत्तो गज: प्रतिगजस्वनम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! भीमसेनके धनुषकी टंकार सुनकर राधानन्दन कर्ण उसे 
सहन न कर सका। जैसे मतवाला हाथी अपने प्रतिपक्षी गजराजकी गर्जनाको नहीं सहन 
कर पाता ।। १ |। 

सो&पक्रम्य मुहूर्त तु भीमसेनस्य गोचरात्‌ । 

पुत्रांस्तव ददर्शाथ भीमसेनेन पातितान्‌ ।। २ ।। 

उसने थोड़ी देरके लिये भीमसेनकी दृष्टिसे दूर हटनेपर देखा कि भीमसेनने आपके 
पुत्रोंकी मार गिराया है |। २ ।। 

तानवेक्ष्य नरश्रेष्ठ विमना दु:खितस्तदा । 

नि:श्वसन्‌ दीर्घमुष्णं च पुन: पाण्डवम भ्ययात्‌ ।। ३ ।। 

नरश्रेष्ठ उनकी वह अवस्था देखकर उस समय कर्णको बहुत दुःख हुआ। उसका मन 
उदास हो गया। वह गरम-गरम लंबी साँस खींचता हुआ पुनः पाण्डुनन्दन भीमसेनके सामने 
आया ॥। ३ || 

स ताम्रनयन: क्रोधाच्छवसन्निव महोरग: । 

बभौ कर्ण: शरानस्यन्‌ रश्मीनिव दिवाकर: || ४ ।। 

उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं और वह फुफकारते हुए महान्‌ सर्पके समान 
उच्छवास खींच रहा था। उस समय बाणोंकी वर्षा करता हुआ कर्ण अपनी किरणोंका प्रसार 
करते हुए सूर्यदेवके समान शोभा पा रहा था ।। ४ ।। 

किरणैरिव सूर्यस्य महीध्रो भरतर्षभ । 

कर्णचापच्युतैर्बाणै: प्राच्छाद्यत वृकोदर: || ५ || 

भरतश्रेष्ठ! जैसे सूर्यकी किरणोंसे पर्वत ढक जाता है, उसी प्रकार कर्णके धनुषसे छूटे 
हुए बाणोंद्वारा भीमसेन आच्छादित हो गये ।। ५ ।। 

ते कर्णचापप्रभवा: शरा बर्हिणवासस: । 

विविशु: सर्वतः पार्थ वासायेवाण्डजा द्रुमम्‌ ।। ६ ।। 


कर्णके धनुषसे छूटे हुए वे मयूरपंखधारी बाण सब ओरसे आकर भीमसेनके शरीरमें 
उसी प्रकार घुसने लगे, जैसे पक्षी बसेरा लेनेके लिये वृक्षोंपर आ जाते हैं ।। 

कर्णचापच्युता बाणा: सम्पतन्तस्ततस्तत: । 

रुक्मपुड्खा व्यराजन्त हंसा: श्रेणीकृता इव ॥। ७ ।। 

कर्णके धनुषसे छूटकर इधर-उधर पड़नेवाले सुवर्णपंखयुक्त बाण श्रेणीबद्ध हंसोंके 
समान शोभा पा रहे थे || ७ ।। 

चापध्वजोपस्करेभ्यश्छत्रादीषामुखाद्‌ युगात्‌ 

प्रभवन्तो व्यदृश्यन्त राजन्नाधिरथे: शरा: ।। ८ ।। 

राजन्‌! उस समय अधिरथपुत्र कर्णके बाण केवल धनुषसे ही नहीं, ध्वज आदि अन्य 
समानोंसे, छत्रसे, ईषादण्ड आदिसे तथा रथके जूएसे भी प्रकट होते दिखायी देते 
थे।। ८ ।। 

खं पूरयन्‌ महावेगान्‌ खगमान्‌ गृध्रवासस: । 

सुवर्णविकृतां श्षित्रान मुमोचाधिरथि: शरान्‌ ॥। ९ ।। 

अधिरथपुत्र कर्णने अन्तरिक्षको व्याप्त करते हुए महान्‌ वेगशाली, आकाशमें 
विचरनेवाले गृध्रके पंखोंसे युक्त और सुवर्णके बने हुए विचित्र बाण चलाये ।। ९ ।। 

तमनन्‍्तकमिवायस्तमापतन्तं वृकोदर: । 

त्यक्त्वा प्राणानतिक्रम्य विव्याध निशितै: शरै: ।। १० ।। 

कर्णको यमराजके समान आयासयुक्त हो आते देख भीमसेन प्राणोंका मोह छोड़कर 
पराक्रमपूर्वक उसे पैने बाणोंद्वारा बीधने लगे || १० ।। 

तस्य वेगमसहां स दृष्टवा कर्णस्य पाण्डव: । 

महतश्न शरौघांस्तान्‌ न्यवारयत वीर्यवान्‌ ।। ११ ।। 

पराक्रमी पाण्डुपुत्र भीमने कर्णके वेगको असह्ां देखकर उसके महान्‌ बाणसमूहोंका 
निवारण किया ।। ११ ।। 

ततो विधम्याधिरथे: शरजालानि पाण्डव: | 

विव्याध कर्ण विंशत्या पुनरन्यै: शिलाशितै: ।। १२ ।। 

पाण्डुकुमार भीमने अधिरथपुत्रके शरसमूहोंका निवारण करके शिलापर चढ़ाकर तेज 
किये हुए बीस अन्य बाणोंद्वारा कर्णको घायल कर दिया ।। १२ |। 

यथैव हि स कर्णेन पार्थ: प्रच्छादित: शरै: । 

तथैव स रणे कर्ण छादयामास पाण्डव: ।। १३ ।। 

जैसे कर्णने अपने बाणोंद्वारा भीमसेनको आच्छादित किया था, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र 
भीमने भी कर्णको ढक दिया ।। १३ ।। 

दृष्टवा तु भीमसेनस्य विक्रमं युधि भारत । 

अभ्यनन्दंस्त्यदीयाश्व सम्प्रहृष्ठा क्ष चारणा: ।। १४ ।। 


भरतनन्दन! युद्धमें भीमसेनका वह पराक्रम देखकर आपके योद्धाओं तथा चारणोंने 
भी प्रसन्न होकर उनका अभिनन्दन किया ।। १४ ।। 

भूरिश्रवा: कृपो द्रौणिर्मद्रराजो जयद्रथ: । 

उत्तमौजा युधामन्यु: सात्यकि: केशवार्जुनौ ।। १५ ।। 

कुरुपाण्डवप्रवरा दश राजन्‌ महारथा: । 

साधु साध्विति वेगेन सिंहनादमथानदन्‌ ।। १६ ।। 

राजन! भूरिश्रवा, कृपाचार्य, अश्व॒त्थामा, मद्रराज शल्य, जयद्रथ, उत्तमौजा, युधामन्यु, 
सात्यकि, श्रीकृष्ण तथा अर्जुन--ये कौरव और पाण्डव-पक्षके दस श्रेष्ठ महारथी 'साधु- 
साधु” कहकर वेगपूर्वक सिंहनाद करने लगे ।। 

तस्मिन्‌ समुत्थिते शब्दे तुमुले लोमहर्षणे । 

अभ्यभाषत पुत्रस्ते राजन्‌ दुर्योधनस्त्वरन्‌ ।। १७ ।। 

राज्ञ: सराजपुत्रांश्न॒ सोदर्याश्व विशेषत: । 

कर्ण गच्छत भद्रें व: परीप्सन्तो वृकोदरात्‌ ।। १८ ।। 

महाराज! उस रोमांचकारी भयंकर शब्दके प्रकट होनेपर आपके पुत्र राजा दुर्योधनने 
बड़ी उतावलीके साथ राजाओं, राजकुमारों और विशेषत: अपने भाइयोंसे कहा--*तुम्हारा 
कल्याण हो, तुम सब लोग भीमसेनसे कर्णकी रक्षा करनेके लिये जाओ ।। १७-१८ ।। 

पुरा निध्नन्ति राधेयं भीमचापच्युता: शरा: । 

ते यतथध्वं महेष्वासा: सूतपुत्रस्य रक्षणे ।। १९ ।। 

“कहीं ऐसा न हो कि भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाण राधानन्दन कर्णको पहले ही 
मार डालें। अतः महाधनुर्धर वीरो! तुम सब लोग सूतपुत्रकी रक्षाका प्रयत्न करो” ।। १९ |। 

दुर्योधनसमादिष्टा: सोदर्या: सप्त भारत | 

भीमसेनमभिद्रुत्य संरब्धा: पर्यवारयन्‌ ।। २० ।। 

भारत! दुर्योधनकी आज्ञा पाकर उसके सात भाइयोंने कुपित हो भीमसेनपर आक्रमण 
करके उन्हें चारों ओरसे घेर लिया || २० ।। 

ते समासाद्य कौन्तेयमावृण्वन्‌ शरवृश्टिभि: । 

पर्वतं वारिधाराभि: प्रावृषीव बलाहका: ।। २१ ।। 

जैसे वर्षा-ऋतुमें मेघ पर्वतपर जलकी धाराएँ बरसाते हैं, उसी प्रकार उन कौरवोंने 
कुन्तीकुमारके समीप जाकर उन्हें अपने बाणोंकी वर्षासे आच्छादित कर दिया ।। २१ ।। 

ते5पीडयन्‌ भीमसेन क्रुद्धा: सप्त महारथा: । 

प्रजासंहरणे राजन्‌ सोम॑ सप्त ग्रहा इव ।। २२ ।। 

राजन! उन सात महारथियोंने कुपित हो भीमसेनको उसी प्रकार पीड़ा दी, जैसे सात 
ग्रह प्रजाओंके संहारकालमें सोमको पीड़ा देते हैं || २२ ।। 

ततो वेगेन कौन्तेय: पीडयित्वा शरासनम्‌ | 


मुष्टिना पाण्डवो राजन्‌ दृढेन सुपरिष्कृतम्‌ ।। २३ ।। 

मनुष्यसमतां ज्ञात्वा सप्त संधाय सायकान्‌ । 

तेभ्यो व्यसृजदायस्त: सूर्यरश्मिनिभान्‌ प्रभु: ।॥ २४ ।। 

महाराज! तब कुन्तीकुमार पाण्डुपुत्र भीमने अत्यन्त स्वच्छ धनुषको सुदृढ़ मुदट्टीसे 
वेगपूर्वक दबाकर उन सातों भाइयोंको साधारण मनुष्य जानकर उनके लिये धनुषपर सात 
बाणोंका संधान किया। सूर्यकिरणोंके समान उन चमकीले बाणोंको शक्तिशाली भीमने 
परिश्रमपूर्वक आपके उन पुत्रोंपर छोड़ दिया || २३-२४ ।। 

निरस्यन्निव देहे भ्यस्तनयानामसूंस्तव । 

भीमसेनो महाराज पूर्ववैरमनुस्मरन्‌ ।। २५ ।। 

नरेश्वर! पहलेके वैरका बारंबार स्मरण करके भीमसेनने आपके पुत्रोंके प्राणोंको उनके 
शरीरोंसे निकालते हुए-से उन बाणोंका प्रहार किया था || २५ ।। 

ते क्षिप्ता भीमसेनेन शरा भारत भारतान्‌ | 

विदार्य खं समुत्पेतु: स्वर्णपुड्खा: शिलाशिता: ।। २६ ।। 

भारत! भीमसेनके चलाये हुए वे बाण सुवर्णमय पंखोंसे सुशोभित तथा शिलापर तेज 
किये गये थे। वे आपके पुत्रोंको विदीर्ण करके आकाशमें उड़ चले || २६ ।। 

तेषां विदार्य चेतांसि शरा हेमविभूषिता: । 

व्यराजन्त महाराज सुपर्णा इव खेचरा: ।। २७ ।। 

महाराज! वे स्वर्णविभूषित बाण उन सातों भाइयोंके वक्ष:स्थलको विदीर्ण करके 
आकाश में विचरनेवाले गरुड़पक्षियोंके समान शोभा पाने लगे ।। २७ ।। 

शोणितादिग्धवाजाग्रा: सप्त हेमपरिष्कृता: । 

पुत्राणां तव राजेन्द्र पीत्वा शोणितमुद्गता: ।। २८ ।। 

राजेन्द्र! वे सुवर्णभूषित सातों बाण आपके पुत्रोंका रक्त पीकर लाल हो ऊपरको उछले 
थे। उनके पंख और अग्रभागोंपर अधिक रक्त जम गया था ।। २८ ।। 

ते शरैरभिन्नमर्माणो रथेभ्य: प्रापतन्‌ क्षितौ | 

गिरिसानुरुहा भग्ना द्विपेनेव महाद्रुमा: ।। २९ |। 

उन बाणोंसे मर्मस्थल विदीर्ण हो जानेके कारण वे सातों वीर रथोंसे पृथ्वीपर गिर पड़े, 
मानो किसी हाथीने पर्वतके शिखरपर खड़े हुए विशाल वृक्षोंको तोड़ गिराया हो ।। २९ ।। 

शत्रुंजयः शत्रुसहश्रित्रश्चित्रायुधो दृढ: । 

चित्रसेनो विकर्णश्र सप्तैते विनिपातिता: ।। ३० ।। 

शत्रुंजय-, शत्रुसह, चित्र (चित्रवाण), चित्रायुध (अग्रायुध), दृढ़ (दृढवर्मा), चित्रसेन 
(उग्रसेन) और विकर्ण--इन सातों भाइयोंको भीमसेनने मार गिराया ।। 

पुत्राणां तव सर्वेषां निहतानां वृकोदर: । 

शोचत्यतिभृशं दुःखाद्‌ विकर्ण पाण्डव: प्रियम्‌ ।। ३१ ।। 


राजन! वहाँ मारे गये आपके सभी पुत्रोंमेंसे विकर्ण पाण्डवोंको अधिक प्रिय था। 
पाण्डुनन्दन भीमसेन उसके लिये अत्यन्त दुःखी होकर शोक करने लगे || ३१ ।। 

प्रतिज्ञेयं मया वृत्ता निहन्तव्यास्तु संयुगे । 

विकर्ण तेनासि हत: प्रतिज्ञा रक्षिता मया ।। ३२ || 

वे बोले--'विकर्ण! मैंने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि युद्धस्थलमें धृतराष्ट्रके सभी 
पुत्रोंकी मार डालूँगा। इसीलिये तुम मेरे हाथसे मारे गये हो। ऐसा करके मैंने अपनी 
प्रतिज्ञाका पालन किया है ।। ३२ ।। 

त्वमागा: समर वीर क्षात्रधर्ममनुस्मरन्‌ । 

ततो विनिहत: संख्ये युद्धधर्मो हि निछुर: ।। ३३ ।। 

“वीर! तुम क्षत्रिय-धर्मका विचार करके समरभूमिमें आ गये। इसीलिये इस युद्धमें मारे 
गये; क्योंकि युद्धरधर्म कठोर होता है || ३३ ।। 

विशेषतो हि नृपतेस्तथास्माकं हिते रत: । 

न्यायतो<न्यायतो वापि हतः शेते महाद्युति: ।। ३४ ।। 

अगाथबुद्धिर्गाड्िय: क्षितौ सुरगुरो: सम: । 

त्याजित: समरे प्राणांस्तस्माद्‌ युद्ध हि निष्ठरम्‌ ।। ३५ ।। 

“जो विशेषत: राजा युधिष्ठिरके और हमारे हितमें तत्पर रहते थे, वे बृहस्पतिके समान 
अगाध बुद्धिवाले महातेजस्वी गंगानन्दन भीष्म भी न्याय अथवा अन्यायसे मारे जाकर 
समरभूमिमें सो रहे हैं और प्राणत्यागकी परिस्थितिमें डाल दिये गये हैं। इसीसे कहना पड़ता 
है कि युद्ध अत्यन्त निष्ठुर कर्म है” || ३४-३५ ।। 

संजय उवाच 

तान्‌ निहत्य महाबाहू राधेयस्यैव पश्यतः । 

सिंहनादरवं घोरमसृजत्‌ पाण्डुनन्दन: ।। ३६ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! राधानन्दन कर्णके देखते-देखते उन सातों भाइयोंको 
मारकर पाण्डुनन्दन महाबाहु भीमने भयंकर सिंहनाद किया ।। ३६ ।। 

स रवस्तस्य शूरस्य धर्मराजस्य भारत । 

आचख्याविव तद्‌ युद्ध विजयं चात्मनो महत्‌ ।। ३७ ।। 

भारत! उस सिंहनादने धर्मराज युधिष्ठिरको शूरवीर भीमके उस युद्धकी तथा अपनी 
महान्‌ विजयकी मानो सूचना दे दी || ३७ ।। 

त॑ श्रुत्वा तु महानादं भीमसेनस्य धन्विन: । 

बभूव परमा प्रीतिर्धर्मराजस्य धीमत: ।। ३८ ।। 

धनुर्धर भीमसेनके उस महानादको सुनकर बुद्धिमान्‌ धर्मराज युधिष्ठिरको बड़ी 
प्रसन्नता हुई || ३८ ।। 


ततो हृष्टमना राजन्‌ वादित्राणां महास्वनै: । 

सिंहनादरवं भ्रातु: प्रतिजग्राह पाण्डव: ।। ३९ |। 

राजन! तब प्रसन्नचित्त होकर युधिष्ठिरने वाद्योकी गम्भीर ध्वनिके द्वारा भाईके उस 
सिंहनादको स्वागतपूर्वक ग्रहण किया || ३९ ।। 

हर्षेण महता युक्त: कृतसंज्ञो वृकोदरे । 

अभ्ययात्‌ समरे द्रोणं सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। ४० ।। 

इस प्रकार भीमसेनको अपनी प्रसन्नताका संकेत करके सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ 
राजा युधिष्ठिरने बड़े हर्षके साथ रणभूमिमें द्रोणाचार्यपर आक्रमण किया ।। ३९ ।। 

एकत्रिंशन्महाराज पुत्रांस्तव निपातितान्‌ । 

हतान्‌ दुर्योधनो दृष्ट्वा क्षत्तु: सस्मार तद्‌ वच: ।। ४१ ।। 

महाराज! आपके इकतीस (दुःशलको लेकर बत्तीस) पुत्रोंको मारा गया देखकर 
दुर्योधनको विदुरजीकी कही हुई बात याद आ गयी ।। ४१ ।। 

तदिदं समनुप्राप्तं क्षत्तुर्नि:श्रेयसं वच: । 

इति संचिन्त्य ते पुत्रो नोत्तरं प्रत्यपद्यत ।। ४२ ।। 

विदुरजीने जो कल्याणकारी वचन कहा था, उसके अनुसार ही यह संकट प्राप्त हुआ 
है। ऐसा सोचकर आपके पुत्रसे कोई उत्तर देते न बना || ४२ ।। 

यद्‌ द्यूतकाले दुर्बुद्धिरब्रवीत्‌ तनयस्तव । 

सभामानाय्य पाज्चालीं कर्णेन सहितो5ल्‍ल्पथी: ।। ४३ ।। 

यच्च कर्णोडब्रवीत्‌ कृष्णां सभायां परुषं वच: । 

प्रमुखे पाण्डुपुत्राणां तव चैव विशाम्पते ।। ४४ ।। 

शृण्वतस्तव राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वश: । 

विनष्टा: पाण्डवा: कृष्णे शाश्वतं नरकं॑ गता: ।। ४५ ।। 

पतिमन्यं वृणीष्वेति तस्येदं फलमागतम्‌ । 

द्यूतके समय कर्णके साथ आपके मन्दमति पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधनने पांचालराजकुमारी 
द्रौपदीको सभामें बुलाकर उसके प्रति जो दुर्वचन कहा था तथा प्रजानाथ! महाराज! 
पाण्डवों और आपके सामने समस्त कौरवोंके सुनते हुए कर्णने सभामें द्रौपदीके प्रति जो 
यह कठोर वचन कहा था कि “कृष्णे! पाण्डव नष्ट हो गये। सदाके लिये नरकमें पड़ गये। तू 
दूसरा पति कर ले", उसी अन्यायका आज यह फल प्राप्त हुआ है || ४३-४५६ ।। 

यच्च षण्ढतिलादीनि परुषाणि तवात्मजै: । 

श्रावितास्ते महात्मान: पाण्डवा: कोपयिष्णुनि: ।। ४६ ।। 

त॑ भीमसेन: क्रोधाग्निं त्रयोदश समा: स्थितम्‌ | 

उद्गिरंस्तव पुत्राणामन्तं गच्छति पाण्डव: ।। ४७ ।। 


आपके पुत्रोंने जो पाण्डवोंको कुपित करनेके लिये षण्ढतिल (सारहीन तिल या 
नपुंसक) आदि कठोर बातें उन महामनस्वी पाण्डवोंको सुनायी थीं, उसके कारण पाण्षुपुत्र 
भीमसेनके हृदयमें तेरह वर्षोतक जो क्रोधाग्नि धधकती रही है उसीको निकालते हुए 
भीमसेन आपके पुत्रोंका अन्त कर रहे हैं || ४६-४७ ।। 

विलपंश्च बहु क्षत्ता शमं नालभत त्वयि । 

सपुत्रो भरतश्रेष्ठ तस्य भुड्क्ष्य फलोदयम्‌ ।। ४८ ।। 

भरतश्रेष्ठ विदुरजीने आपके समीप बहुत विलाप किया, परंतु उन्हें शान्तिकी भिक्षा 
नहीं प्राप्त हुई। आपके उसी अन्यायका यह फल प्रकट हुआ है। अब आप पुत्रोंसहित इसे 
भोगिये ।। ४८ ।। 

त्वया वृद्धेन धीरेण कार्यतत्त्वार्थदर्शिना । 

न कृतं सुह्ृदां वाक्‍्यं दैवमत्र परायणम्‌ ।। ४९ ।। 

आप वृद्ध हैं, धीर हैं, कार्यके तत्त्व और प्रयोजनको देखते और समझते हैं, तो भी 
आपने हितैषी सुहृदोंकी बातें नहीं मानीं। इसमें दैव ही प्रधान कारण है ।। ४९ ।। 

तन्मा शुचो नरव्यात्र तवैवापनयो महान्‌ | 

विनाशहेतु: पुत्राणां भवानेव मतो मम ।। ५० ।। 

अत: नरश्रेष्ठ आप शोक न कीजिये। इसमें आपका ही महान्‌ अन्याय कारण है। मैं तो 
आपको ही आपके पुत्रोंके विनाशका मुख्य हेतु मानता हूँ || ५० ।। 

हतो विकर्णों राजेन्द्र चित्रसेनश्व वीर्यवान्‌ | 

प्रवराश्षात्मजानां ते सुताश्चान्ये महारथा: ।। ५१ ।। 

राजेन्द्र! विकर्ण मारा गया। पराक्रमी चित्रसेनको भी प्राणोंका त्याग करना पड़ा। 
आपके पुत्रोंमें जो प्रमुख थे, वे तथा अन्य महारथी भी कालके गालमें चले गये ।। 

यानन्यान्‌ ददृशे भीमश्रक्षुर्विषयमागतान्‌ । 

पुत्रांस्तव महाराज त्वरया तान्‌ जघान ह ॥। ५२ ।। 

महाराज! भीमसेनने अपने नेत्रोंके सामने आये हुए जिन-जिन पुत्रोंको देखा, उन 
सबको तुरंत ही मार डाला ।। ५२ || 

त्वत्कृते हाहमद्राक्षं दह॒मानां वरूथिनीम्‌ । 

सहस्रश: शरैर्मुक्ते: पाण्डवेन वृषेण च ।। ५३ ।। 

आपके ही कारण मैंने भीमसेन और कर्णके छोड़े हुए हजारों बाणोंसे राजाओंकी 
विशाल सेना दग्ध होती देखी है |। ५३ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमयुद्धे 
सप्तत्रिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १३७ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेनयुद्धाविषयक एक सौ 
सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १३७ ॥। 


ऑपन- मा छा ्ः॑डि् 


- किसी-किसी प्रतिमें शत्रुंजय और शत्रुसह--इन दो नामोंके स्थानमें क्रमश: 'दृढसन्ध और “जरासन्ध” नाम मिलते 
हैं। 


अष्टात्रिशदधिकशततमो< ध्याय: 
भीमसेन और कर्णका भयंकर युद्ध 


धृतराष्ट्र रवाच 

महानपनय: सूत ममैवात्र विशेषत:ः । 

स इदानीमनुप्राप्तो मन्ये संजय शोचतः ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--सूत संजय! इसमें विशेषतः मेरा ही अन्याय है--यह मैं स्वीकार करता 
हूँ। इस समय शोकमें डूबे हुए मुझको मेरे उसी अन्यायका फल प्राप्त हुआ है ।। १ ।। 

यद्‌ गतं तद्‌ गतमिति ममासीन्मनसि स्थितम्‌ । 

इदानीमत्र कि कार्य प्रकरिष्यामि संजय ।। २ ।॥। 

संजय! अबतक मेरे मनमें यह बात थी कि जो बीत गया, सो बीत गया। उसके लिये 
चिन्ता करना व्यर्थ है। परंतु अब यहाँ इस समय मेरा क्या कर्तव्य है, उसे बताओ। मैं उसका 
पालन अवश्य करूँगा ।। २ ।। 

यथा होष क्षयो वृत्तो ममापनयसम्भव: । 

वीराणां तन्ममाचक्ष्व स्थिरीभूतो5स्मि संजय ।। ३ ।। 

सूत! मेरे अन्यायसे वीरोंका जो यह विनाश हुआ है, वह सब कह सुनाओ। मैं धैर्य 
धारण करके बैठा हूँ ।। ३ ।। 

संजय उवाच 

कर्णभीमौ महाराज पराक्रान्तो महाबलौ । 

बाणवर्षाण्यसृजतां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ।। ४ ।। 

संजयने कहा--महाराज! जलकी वर्षा करनेवाले दो बादलोंके समान महाबली, 
महापराक्रमी कर्ण और भीमसेन परस्पर बाणोंकी वर्षा करने लगे || ४ ।। 

भीमनामाड्किता बाणा: स्वर्णपुड्खा: शिलाशिता: । 

विविशु: कर्णमासाद्य च्छिन्दन्त इव जीवितम्‌ ।। ५ ।। 

जिनपर भीमसेनके नाम खुदे हुए थे, वे शिलापर तेज किये हुए स्वर्णमय पंखयुक्त बाण 
कर्णके पास पहुँचकर उसके जीवनका उच्छेद करते हुए-से उसके शरीरमें घुस गये ।। ५ ।। 

तथैव कर्णनिर्मुक्ता: शरा बर्हिणवासस: । 

छादयाज्चक्रिरे वीर शतशो5थ सहस्रश: ।। ६ ।। 

इसी प्रकार कर्णके छोड़े हुए मयूरपंखवाले सैकड़ों और हजारों बाणोंने वीर 
भीमसेनको आच्छादित कर दिया ।। ६ ।। 


तयो: शरैर्महाराज सम्पतद्धिः समन्ततः । 

बभूव तत्र सैन्यानां संक्षो भ: सागरोत्तर: || ७ ।। 

महाराज! चारों ओर गिरते हुए उन दोनोंके बाणोंसे वहाँकी सेनाओंमें समुद्रसे भी 
बढ़कर महान्‌ क्षोभ होने लगा || ७ ।। 

भीमचापच्युतैर्बाणैस्तव सैन्यमरिंदम । 

अवध्यत चमूमध्ये घोरैराशीविषोपमै: ।। ८ ।। 

शत्रुदमन! भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए विषधर सर्पोके समान भयंकर बाणोंद्वारा 
सेनाके मध्यभागमें आपके सैनिकोंका वध हो रहा था ।। ८ ।। 

वारणै: पतितै राजन्‌ वाजिभिश्न नरै: सह । 

अदृश्यत मही कीर्णा वातभग्नैरिव द्रुमै: ।। ९ ।। 

राजन! वहाँ गिरे हुए हाथियों, घोड़ों और पैदल मनुष्योंद्वारा ढकी हुई वह रणभूमि 
आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंसे आच्छादित-सी दिखायी देती थी || ९ ।। 

ते वध्यमाना: समरे भीमचापच्युतै: शरै: । 

प्राद्रवंस्तावका योधा: किमेतदिति चाब्रुवन्‌ ।। १० ।। 

भीमसेनके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा समरांगणमें मारे जाते हुए आपके सैनिक भाग 
चले और आपसमें कहने लगे, अरे! यह क्या हुआ ।। १० ।। 

ततो व्युदस्तं तत्‌ सैन्यं सिन्धुसौवीरकौरवम्‌ । 

प्रोत्सारितं महावेगै: कर्णपाण्डवयो: शरै: ।। ११ ।। 

इस प्रकार कर्ण और भीमसेनके महान्‌ वेगशाली बाणोंद्वारा सिन्धु, सौवीर और 
कौरवदलकी वह सेना उखड़ गयी और वहाँसे भाग खड़ी हुई ।। ११ ।। 

ते शूरा हतभूयिष्ठा हताश्चरथवारणा: । 

उत्सृज्य भीमकर्णो च सर्वतो व्यद्रवन्‌ दिश: ।। १२ ।। 

वे शूरवीर सैनिक जिनमें बहुत-से लोग मारे गये थे तथा जिनके हाथी, घोड़े और रथ 
नष्ट हो चुके थे, भीमसेन और कर्णको छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये | १२ ।। 

नूनं पार्थार्थमेवास्मान्‌ मोहयन्ति दिवौकस: । 

यत्‌ कर्णभीमप्रभवैर्वध्यते नो बल शरै:ः ।। १३ ।। 

“अवश्य ही कुन्तीकुमारोंके हितके लिये ही देवता हमें मोहमें डाल रहे हैं; क्योंकि कर्ण 
और भीमसेनके बाणोंसे वे हमारी सेनाका वध कर रहे हैं! || १३ ।। 

एवं ब्रुवाणा योधास्ते तावका भयपीडिता: । 

शरपातं समुत्सृज्य स्थिता युद्धदिदृक्षव: ।। १४ ।। 

ऐसा कहते हुए आपके योद्धा भयसे पीड़ित हो बाण मारनेका कार्य छोड़कर युद्धके 
दर्शक बनकर खड़े हो गये ।। १४ ।। 

ततः प्रावर्तत नदी घोररूपा रणाजिरे । 


शूराणां हर्षजननी भीरूणां भयवर्धिनी ।। १५ ।। 

तदनन्तर रणभूमिमें रक्तकी भयंकर नदी बह चली, जो शूरवीरोंको हर्ष देनेवाली और 
भीरु पुरुषोंका भय बढ़ानेवाली थी ।। १५ ।। 

वारणाश्वमनुष्याणां रुधिरौघसमुद्धवा । 

संवृता गतसच्त्वैश्व मनुष्यगजवाजिभि: ।। १६ ।। 

हाथी, घोड़े और मनुष्योंके रुधिरसमूहसे उस नदीका प्राकट्य हुआ था। वह प्राणशून्य 
मनुष्यों, हाथियों और घोड़ोंसे घिरी हुई थी ।। १६ ।। 

सानुकर्षपताकैश्र द्विपाश्वरथभूषणै: । 

स्यन्दनैरपविद्धैश्व भग्नचक्राक्षकूबरै: ।। १७ ।। 

जातरूपपरिष्कारेर्थनुर्भि: सुमहास्वनै: । 

सुवर्णपुड्खैरिषुभिनाराचैश्व सहस्रश: ।। १८ ।। 

कर्णपाण्डवनिर्मुक्तिनिर्मुक्तिरिव पन्नगै: 

प्रासतोमरसंघातै: खड्गैश्न सपरश्वधै: ।। १९ ।। 

सुवर्णविकृतैश्चापि गदामुसलपट्टिशै: । 

ध्वजैश्न विविधाकारै: शक्तिभि: परिघैरपि ।। २० ।। 

शतध्नीभिश्च चित्राभिर्बभौ भारत मेदिनी । 

भारत! उस समय अनुकर्ष, पताका, हाथी, घोड़े, रथ, आभूषण, टूटकर बिखरे हुए 
स्यन्दन (रथ), टूक-टूक हुए पहिये, धुरी और कूबर, सुवर्णभूषित एवं महान्‌ टंकार शब्द 
करनेवाले धनुष, सोनेके पंखवाले बाण, केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पोके समान कर्ण 
और भीमसेनके छोड़े हुए सहस्रों नाराच, प्रास, तोमर, खड्ग, फरसे, सोनेकी गदा, मुसल, 
पट्टिश, भाँति-भाँतिके ध्वज, शक्ति, परिघ और विचित्र शतघ्नी आदिसे उस रणभूमिकी 
अद्भुत शोभा हो रही थी || १७--२० ह || 

कनकाज्दहारैश्व कुण्डलैर्मुकुटैस्तथा || २१ ।। 

वलयैरपदिद्धैश्न तत्रैवाड्गुलिवेष्टकै: । 

चूडामणिभिरुष्णीषै: स्वर्णसूत्रैश्ष मारिष ।। २२ ।। 

तनुत्रै: सतलन्ैश्न हारैरनिष्किैश्व भारत । 

व्स्त्रैश्छत्रैश्न विध्वस्तैशज्ञामरव्यजनैरपि ।। २३ ।। 

गजाश्वमनुजैर्भिन्नि: शोणिताक्तैश्व पत्रिभि: | 

तैस्तैश्व विविधैभिन्निस्तत्र तत्र वसुंधरा || २४ ।। 

पतितैरपविद्धैश्न विबभौ द्यौरिव ग्रहै: । 


माननीय भरतनन्दन! इधर-उधर पड़े हुए सोनेके अंगद, हार, कुण्डल, मुकुट, वलय, 
अंगूठी, चूड़ामणि, उष्णीष, सुवर्णमय सूत्र, कवच, दस्ताने, हार, निष्क, वस्त्र, छत्र, टूटे हुए 
चँवर, व्यजन, विदीर्ण हुए हाथी, घोड़े, मनुष्य, खूनसे लथपथ हुए पंखयुक्त बाण आदि 
नाना प्रकारकी छिन्न-भिन्न, पतित और फेंकी हुई वस्तुओंसे वहाँकी भूमि ग्रहोंसे आकाशकी 
भाँति सुशोभित हो रही थी | २१--२४ $ ।। 

अचिन्त्यमद्भुतं चैव तयो: कर्मातिमानुषम्‌ ।। २५ ।। 

दृष्टवा चारणसिद्धानां विस्मय: समजायत । 

उन दोनोंके उस अचिन्त्य, अलौकिक और अद्धुत कर्मको देखकर चारणों और 
सिद्धोंके मनमें भी महान्‌ विस्मय हो गया || २५३ || 

अग्नेर्वायुसहायस्य गति: कक्ष इवाहवे ॥। २६ ।। 

आसीद्‌ भीमसहायस्य रौद्रमाधिरथेर्गतम्‌ । 

जैसे वायुकी सहायता पाकर सूखे वनमें तथा घास-फूँसमें अग्निकी गति बढ़ जाती है, 
उसी प्रकार उस महायुद्धमें भीमसेनके साथ सूतपुत्र कर्णकी भयंकर गति बढ़ गयी 
थी ।। २६६ ।। 

निपातितध्वजरथं हतवाजिनरद्धिपम्‌ ।। २७ ।। 

गजाभ्यां सम्प्रयुक्ता भ्यामासीन्नलवनं यथा । 

मेघजालनिभं सैन्यमासीत्‌ तव नराधिप ।। २८ ।। 

विमर्द: कर्णभीमाभ्यामासीच्च परमो रणे | 

नरेश्वर! जैसे दो हाथी किसीसे प्रेरित होकर नरकुलके वनको रौंद डालते हैं, उसी 
प्रकार मेघोंकी घटाके समान आपकी सेना बड़ी दुरवस्थामें पड़ गयी थी। उसके रथ और 
ध्वज गिराये जा चुके थे। हाथी, घोड़े और मनुष्य मारे गये थे। कर्ण और भीमसेनने उस 
युद्धस्थलमें महान्‌ संहार मचा रखा था || २७-२८ ३ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमकर्णयुद्धे 
अष्टात्रिंशधिकशततमो< ध्याय: ।। १३८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीम और कर्णका 
युद्धविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३८ ॥। 


नीसममा न (0) आफसऔअन+- 


एकोनचत्वारिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


भीमसेन और कर्णका भयंकर युद्ध, पहले भीमकी और 
पीछे कर्णकी विजय, उसके बाद अर्जुनके बाणोंसे व्यथित 
होकर कर्ण और अभश्रवृत्थामाका पलायन 


संजय उवाच 

ततः कर्णो महाराज भीम॑ विद्ध्वा त्रिभि: शरै: । 

मुमोच शरवर्षाणि विचित्राणि बहूनि च ।॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर कर्णने तीन बाणोंसे भीमसेनको घायल करके 
उनपर बहुत-से विचित्र बाण बरसाये ।। १ ।। 

वध्यमानो महाबाहु: सूतपुत्रेण पाण्डव: । 

न विव्यथे भीमसेनो भिद्यमान इवाचल: ।। २ ।। 

सूतपुत्रके द्वारा बेधे जानेपर भी महाबाहु पाण्डुपुत्र भीमसेनको विद्ध होनेवाले पर्वतके 
समान तनिक भी व्यथा नहीं हुई ।। २ ।। 

स कर्ण कर्णिना कर्णे पीतेन निशितेन च । 

विव्याध सुभृशं संख्ये तैलधौतेन मारिष ।। ३ ।। 

माननीय नरेश! फिर उन्होंने भी युद्धस्थलमें तेलके धोये हुए पानीदार तीखे “कर्णी' 
नामक बाणसे कर्णके कानमें गहरी चोट पहुँचायी ।। ३ ।। 

स कुण्डलं महच्चारु कर्णस्यापातयद्‌ भुवि | 

तपनीयं महाराज दीप्तं ज्योतिरिवाम्बरात्‌ ।। ४ ।। 

महाराज! भीमने कर्णके सोनेके बने हुए विशाल एवं सुन्दर कुण्डलको आकाशसे 
चमकते हुए तारेके समान पृथ्वीपर काट गिराया ।। ४ ।। 

अथापरेण भल्‍ल्लेन सूतपुत्र॑ स्तनान्तरे । 

आजयचघान भशं क्रुद्धो हसन्निव वृकोदर: ।। ५ ।। 

तदनन्तर भीमसेनने अत्यन्त कुपित हो हँसते हुए-से दूसरे भल्लसे सूतपुत्रकी छातीमें 
बड़े जोरसे आघात किया ।। ५ || 

पुनरस्य त्वरन्‌ भीमो नाराचान्‌ दश भारत । 

रणे प्रैषीन्महाबाहुर्निर्मुक्ताशीविषोपमान्‌ ।। ६ ।। 

भरतनन्दन! फिर महाबाहु भीमने बड़ी उतावलीके साथ केंचुलसे छूटे हुए विषधर 
सर्पोंके समान दस नाराच उस रणक्षेत्रमें कर्णपर चलाये ।। ६ ।। 

ते ललाटं विनिर्भिद्य सूतपुत्रस्य भारत | 


विविशुश्वोदितास्तेन वल्मीकमिव पन्नगा: ।। ७ ।। 

भारत! उनके चलाये हुए वे नाराच सूतपुत्रका ललाट छेद करके बाँबीमें सर्पोंके समान 
उसके भीतर घुस गये ।। ७ ।। 

ललाटस्थैस्ततो बाणै: सूतपुत्रो व्यरोचत । 

नीलोत्पलमयीं मालां धारयन्‌ वै यथा पुरा ॥। ८ ।। 

ललाटमें स्थित हुए उन बाणोंद्वारा सूतपुत्रकी उसी प्रकार शोभा हुई, जैसे वह पहले 
मस्तकपर नील कमलकी माला धारण करके सुशोभित होता था ।। ८ ।। 

सो5तिविद्धो भृशं कर्ण: पाण्डवेन तरस्विना । 

रथकूबरमालम्ब्य न्यमीलयत लोचने ।। ९ ।। 

वेगवान्‌ पाण्डुपुत्र भीमके द्वारा अत्यन्त घायल कर दिये जानेपर कर्णने रथके कूबरका 
सहारा लेकर आँखें बंद कर लीं ।। ९ ।। 

स मुहूर्तात्‌ पुनः संज्ञां लेभे कर्ण: परंतप: । 

रुधिरोक्षितसर्वाड्र:ः क्रोधभाहारयत्‌ परम्‌ ।। १० ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले कर्णको पुनः दो ही घड़ीके बाद चेत हो गया। उस समय 
उसका सारा शरीर रक्तसे भीग गया था। उस दशामें उसे बड़ा क्रोध हुआ ।। १० ।। 

ततः क्रुद्धो रणे कर्ण: पीडितो दृढ्धन्वना । 

वेग॑ं चक्रे महावेगो भीमसेनरथं प्रति ।। ११ ।। 

सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले भीमसेनसे पीड़ित हुए महान्‌ वेगशाली कर्णने रणभूमिमें 
कुपित हो भीमसेनके रथकी ओर बड़े वेगसे आक्रमण किया ।। ११ |। 

तस्मै कर्ण: शतं राजन्निषूणां गार्ध्रवाससाम्‌ । 

अमर्षी बलवान क्रुद्ध: प्रेषयामास भारत ।। १२ ।। 

राजन्‌! भरतनन्दन! अमर्षशील एवं क्रोधमें भरे हुए बलवान्‌ कर्णने भीमसेनपर गीधके 
पंखवाले सौ बाण चलाये ।। १२ ।। 

ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डव: । 

समरे तमनादृत्य तस्य वीर्यमचिन्तयन्‌ ।। १३ ।। 

तब समरभूमिमें कर्णके पराक्रमको कुछ न समझते हुए उसकी अवहेलना करके 
पाण्डुनन्दन भीमसेनने उसके ऊपर भयंकर बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी ।। १३ ।। 

कर्णस्ततो महाराज पाण्डवं नवभि: शरै: । 

आजपघानोरससि क्रुद्धः क्ुद्धरूपं परंतप ।। १४ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले महाराज! तब कर्णने कुपित हो क्रोधमें भरे हुए पाण्डुपुत्र 
भीमसेनकी छातीमें नौ बाण मारे ।। १४ ।। 

तावुभौ नरशार्टूलौ शार्दूलाविव दंष्टिणौ । 

जीमूताविव चान्योन्यं प्रववर्षतुराहवे ॥। १५ ।। 


वे दोनों पुरुषसिंह दाढ़ोंवाले दो सिंहोंके समान परस्पर जूझ रहे थे और आकाशमें दो 
मेघोंके समान युद्धस्थलमें वे दोनों एक-दूसरेपर बाणोंकी वर्षा कर रहे थे | १५ ।। 

तलशब्दरवैश्वैव त्रासयेतां परस्परम्‌ । 

शरजालैश्व विविधैस्त्रासयामासतुर्मुधे ।। १६ ।। 

अन्योन्यं समरे क़रुद्धो कृतप्रतिकृतेषिणौ । 

वे अपनी हथेलियोंके शब्दसे एक-दूसरेको डराते हुए युद्धसस्‍्थलमें विविध 
बाणसमूहोंद्वारा परस्पर त्रास पहुँचा रहे थे। वे दोनों वीर समरमें कुपित हो एक-दूसरेके किये 
हुए प्रहारका प्रतीकार करनेकी अभिलाषा रखते थे ।। १६३ ।। 

ततो भीमो महाबाहु: सूतपुत्रस्य भारत ।। १७ ।। 

क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ननाद परवीरहा । 

भरतनन्दन! तब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबाहु भीमसेनने क्षुरप्रके द्वारा 
सूतपुत्रके धनुषको काटकर बड़े जोरसे गर्जना की || १७६ ।। 

तदपास्य थनुश्छिन्नं सूतपुत्रो महारथ: ।। १८ ।। 

अन्यत्‌ कार्मुकमादत्त भारघ्नं वेगवत्तरम्‌ | 

तब महारथी सूतपुत्र कर्णने उस कटे हुए धनुषको फेंककर भार निवारण करनेमें समर्थ 
और अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लिया ।। १८३ ।। 

तदप्यथ निमेषार्धाच्चिच्छेदास्थ वृकोदर: ।। १९ || 

तृतीयं च चतुर्थ च पठ्चमं षष्ठमेव हि । 

सप्तमं चाष्टमं चैव नवमं दशमं तथा ।। २० ।। 

एकादश द्वादशं च त्रयोदशमथापि च । 

चतुर्दशं पडचदशं षोडशं च वृकोदर: ।। २१ ।। 

परंतु भीमसेनने आधे निमेषमें ही उसे भी काट दिया। इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पाँचवें 
छठे, सातवें, आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहदें 
धनुषको भी भीमसेनने काट डाला || १९--२१ |। 

तथा सप्तदशं वेगादष्टादशमथापि वा । 

बहूनि भीमश्रिच्छेद कर्णस्यैवं धनूंषि हि ।। २२ ।। 

इतना ही नहीं, भीमने सत्रहवें, अठारहवें तथा और भी बहुत-से कर्णके धनुषोंको 
वेगपूर्वक काट दिया || २२ ।। 

निमेषार्धात्‌ ततः कर्णो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत । 

दृष्टवा स कुरुसौवीरसिन्धुवीरबलक्षयम्‌ ।। २३ ।। 

सवर्मध्वजशस्त्रैश्न पतितै: संवृतां महीम्‌ । 

हस्त्यश्वरथदेहां श्व गतासून्‌ प्रेक्ष्य सर्वश: ।॥ २४ ।। 

सूतपुत्रस्य संरम्भाद्‌ दीप्तं वपुरजायत । 


इतनेपर भी कर्ण आधे ही निमेषमें दूसरा धनुष हाथमें लेकर खड़ा हो गया। कुरु, 
सौवीर तथा सिंधुदेशके वीरोंकी सेनाका विनाश, सब ओर गिरे हुए कवच, ध्वज तथा अस्त्र- 
शस्त्रोंसे आच्छादित हुई भूमि और प्राणशून्य हाथी, घोड़े एवं रथियोंके शरीरोंकोी सब ओर 
देखकर सूतपुत्र कर्णका शरीर क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा ।। 

स विस्फार्य महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम्‌ ।। २५ ।। 

भीम प्रैक्षत राधेयो घोरं घोरेण चक्षुषा । 

उस समय राधानन्दन कर्णने कुपित हो अपने सुवर्णभूषित विशाल धनुषकी टंकार 
करते हुए भयानक भीमसेनको घोर दृष्टिसे देखा || २५३ ।। 

ततः क्रुद्ध: शरानस्यथन्‌ सूतपुत्रो व्यरोचत ।। २६ ।। 

मध्यंदिनगतोडर्चिष्मान्‌ शरदीव दिवाकर: । 

तत्पश्चात्‌ सूतपुत्र कुपित हो बाणोंकी वर्षा करता हुआ शरत्कालके दोपहरके तेजस्वी 
सूर्यकी भाँति शोभा पाने लगा || २६३ ।। 

मरीचिविकचस्येव राजन्‌ भानुमतो वपु: ।। २७ ।। 

आसीदाधिरथेर्घोरं वपु: शरशताचितम्‌ | 

राजन्‌! अधिरथपुत्र कर्णका भयंकर शरीर सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त था। वह किरणोंसे 
प्रकाशित होनेवाले सूर्यके समान जान पड़ता था ।। २७३६ ।। 

कराभ्यामाददानस्य संदधानस्य चाशुगान्‌ ॥। २८ ।। 

कर्षतो मुज्चतो बाणान्‌ नान्तरं ददृशे रणे । 

उस रणभूमिमें दोनों हाथोंसे बाणोंको लेते, धनुषपर रखते, खींचते और छोड़ते हुए 
कर्णके इन कार्योंमें कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था || २८३ ।। 

अग्निचक्रोपमं घोरं मण्डलीकृतमायुधम्‌ ।। २९ ।। 

कर्णस्यासीन्महीपाल सव्यदक्षिणमस्यत: । 

भूपाल! दायें-बायें बाण चलाते हुए कर्णका मण्डलाकार धनुष अग्निचक्रके समान 
भयंकर प्रतीत होता था || २९६ ।। 

स्वर्णपुड्खा: सुनिशिता: कर्णचापच्युता: शरा: ।। ३० || 

प्राच्छादयन्महाराज दिश: सूर्यस्य च प्रभा: । 

महाराज! कर्णके धनुषसे छूटे हुए सुवर्णमय पंखवाले अत्यन्त तीखे बाणोंने सम्पूर्ण 
दिशाओं तथा सूर्यकी प्रभाको भी ढक दिया || ३० ३ ।। 

ततः कनकपुड्खानां शराणां नतपर्वणाम्‌ ।। ३१ ।। 

धनुश्ष्युतानां वियति ददृशे बहुधा व्रज: । 

तदनन्तर धनुषसे छूटे हुए झुकी हुई गाँठ तथा सुवर्णमय पंखवाले बहुत-से बाणोंके 
समूह आकाशमें दृष्टिगोचर होने लगे || ३१६ ।। 


बाणासनादाधिरथे: प्रभवन्ति सम सायका: || ३२ ।। 

श्रेणीकृता व्यरोचन्त राजन्‌ क्रौज्चा इवाम्बरे । 

राजन! अधिरथपुत्रके धनुषसे जो बाण छूटते थे, वे श्रेणीबद्ध होकर आकाशगमें क्रौंच 
पक्षियोंके समान सुशोभित होते थे || ३२६ ।। 

गार्ध्रपत्रानु शिलाधौतान्‌ कार्तस्वरविभूषितान्‌ ।। ३३ ।। 

महावेगानू्‌ प्रदीप्ताग्रान्‌ मुमोचाधिरथि: शरान्‌ | 

सूतपुत्रने गीधके पाँखवाले, शिलापर तेज किये, सुवर्णभूषित, महान्‌ वेगशाली और 
प्रज्वलित अग्र-भागवाले बहुत-से बाण छोड़े || ३३६ ।। 

ते तु चापबलोद्धूता: शातकुम्भविभूषिता: ।। ३४ ।। 

अजस्रमपतन्‌ बाणा भीमसेनरयथं प्रति । 

धनुषके बलसे उठे हुए वे सुवर्णभूषित बाण भीमसेनके रथपर लगातार गिर रहे 
थे ।। ३४३ || 

ते व्योम्नि रुक्मविकृता व्यकाशन्त सहस्रश: ।। ३५ ।। 

शलभानामिव व्राता: शरा: कर्णसमीरिता: । 

कर्णके चलाये हुए सहस्रों सुवर्गणमय बाण आकाशकमें टिड्डीदलोंके समान प्रकाशित हो 
रहे थे || ३५६ ।। 

चापादाधिरथेर्बाणा: प्रपतन्तश्नकाशिरे ।। ३६ ।। 

एको दीर्घ इवात्यर्थमाकाशे संस्थित: शर: । 

सूतपुत्रके धनुषसे गिरते हुए बाण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो एक ही अत्यन्त विशाल- 
सा बाण आकाशमें खड़ा हो || ३६६ ।। 

पर्वतं वारिधाराभिश्छादयन्निव तोयद: ।। ३७ ।। 

कर्ण: प्राच्छादयत्‌ क्रुद्धों भीमं सायकवृष्टिभि: । 

क्रोधमें भरे हुए कर्णने अपने बाणोंकी वर्षासे भीमसेनको उसी प्रकार आच्छादित कर 
दिया, जैसे बादल जलकी धाराओंसे पर्वतको ढक देता है ।। ३७३ ।। 

तत्र भारत भीमस्य बल वीर्य पराक्रमम्‌ ।। ३८ ।। 

व्यवसायं च पुत्रास्ते ददुशु:ः सहसैनिका: । 

भारत! वहाँ सैनिकोंसहित आपके पुत्रोंने भीमसेनके बल, वीर्य, पराक्रम और उद्योगको 
देखा ।। ३८६ ।। 

तां समुद्रमिवोद्धूतां शरवृष्टिं समुत्थिताम्‌ ।। ३९ ।। 

अचिन्तयित्वा भीमस्तु क्रुद्ध: कर्णमुपाद्रवत्‌ । 

क्रोधमें भरे हुए भीमसेनने समुद्रकी भाँति उठी हुई उस बाण-वर्षाकी तनिक भी परवा 
न करके कर्णपर धावा बोल दिया ।। ३९३६ || 


रुक्मपृष्ठं महच्चापं भीमस्यासीद्‌ विशाम्पते ।। ४० ।। 

आकर्षान्मण्डली भूतं शक्रचापमिवापरम्‌ । 

तस्माच्छरा: प्रादुरासन्‌ पूरयन्त इवाम्बरम्‌ ।। ४१ ।। 

प्रजानाथ! सुवर्णमय पृष्ठवाला भीमसेनका विशाल धनुष प्रत्यंचा खींचनेसे मण्डलाकार 
हो दूसरे इन्द्र-धनुषके समान प्रतीत हो रहा था। उससे जो बाण प्रकट होते थे, वे मानो 
आकाशको भर रहे थे || ४०-४१ ।। 

सुवर्णपुड्खैर्भीमेन सायकैर्नतपर्वभि: । 

गगने रचिता माला काञ्चनीव व्यरोचत ।। ४२ ।। 

भीमसेनने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे आकाशमें सोनेकी माला- 
सी रच डाली थी, जो बड़ी शोभा पा रही थी ।। ४२ ।। 

ततो व्योम्नि विषक्तानि शरजालानि भागश: । 

आहतानि व्यशीर्यन्त भीमसेनस्य पत्रिभि: | ४३ ।। 

उस समय भीमसेनके बाणोंसे आहत होकर आकाशमें फैले हुए बाणोंके जाल टुकड़े- 
टुकड़े होकर बिखर गये ।। ४३ ।। 

कर्णस्य शरजालौघैर्भीमसेनस्य चो भयो: । 

अग्निस्फुलिजड्गसंस्पर्शरञ्जोगतिभिराहवे ।। ४४ ।। 

तैस्तै: कनकपुड्खानां द्यौरासीत्‌ संवृता व्रजै: । 

कर्ण और भीमसेन दोनोंके बाणसमूह स्पर्श करनेपर आगकी चिनगारियोंके समान 
प्रतीत होते थे। अनायास ही उनकी युद्धमें सर्वत्र गति थी। सुवर्णमय पंखवाले उन बाणोंके 
समूहसे सारा आकाश छा गया था ।। 

न सम सूर्यस्तदा भाति न सम वाति समीरण: ।। ४५ ।। 

शरजालावृते व्योम्नि न प्राज्ञायत किंचन । 

उस समय न तो सूर्यका पता चलता था और न वायु ही चल पाती थी। बाणोंके समूहसे 
आच्छादित हुए आकाशगमें कुछ भी जान नहीं पड़ता था ।। ४५३ ।। 

स भीम॑ छादयन्‌ बाणै: सूतपुत्र: पृथग्विधै: ।। ४६ ।। 

उपारोहदनादृत्य तस्य वीर्य महात्मन: । 

सूतपुत्र कर्ण नाना प्रकारके बाणोंद्वारा भीमसेनको आच्छादित करता हुआ उन 
महामनस्वी वीरके पराक्रमका तिरस्कार करके उनपर चढ़ आया || ४६३ || 

तयोर्विसृजतोस्तत्र शरजालानि मारिष ।। ४७ ।। 

वायुभूतान्यदृश्यन्त संसक्तानीतरेतरम्‌ । 

माननीय नरेश! उन दोनोंके छोड़े हुए बाणसमूह वहाँ परस्पर सटकर अत्यन्त वेगके 
कारण वायुस्वरूप दिखायी देते थे || ४७३ ।। 

अन्योन्यशरसंस्पर्शात्‌ तयोर्मनुजसिंहयो: || ४८ ।। 


आकाशे भरतश्रेष्ठ पावक: समजायत । 

भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुषसिंहोंके बाणोंके परस्पर टकरानेसे आकाशमें आग प्रकट हो 
जाती थी ।। ४८ ६ ।। 

तथा कर्ण: शितान्‌ बाणान्‌ कर्मारपरिमार्जितान्‌ ।। ४९ ।। 

सुवर्णविकृतान्‌ क्रुद्ध: प्राहिणोद्‌ वधकाड्क्षया । 

कर्णने कुपित होकर भीमसेनके वधकी इच्छासे सुनारके माँजे हुए सुवर्णभूषित तीखे 
बाणोंका प्रहार किया ।। ४९ ३ ।। 

तानन्तरिक्षे विशिखैस्त्रिधैिकैकमशातयत्‌ ।। ५० ।। 

विशेषयन्‌ सूतपुत्र॑ भीमस्तिषछ्ेति चाब्रवीत्‌ । 

परन्तु भीमसेनने अपनेको सूतपुत्रसे विशिष्ट सिद्ध करते हुए बाणोंद्वारा आकाशमें उन 
बाणोंमेंसे प्रत्येकके तीन-तीन टुकड़े कर डाले और कर्णसे कहा--“अरे! खड़ा रह” ।। ५० ३ 

|| 

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डव: ।। ५१ ।। 

अमर्षी बलवान क्रुद्धो दिधक्षन्निव पावक: । 

फिर क्रोध एवं अमर्षमें भरे हुए बलवान्‌ भीमसेनने जलानेकी इच्छावाले अग्निदेवके 
समान भयंकर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी || ५१३ ।। 

ततश्नट्चटाशब्दो गोधाघातादभूत्‌ तयो: ।। ५२ ।। 

तलशब्दश्न सुमहान्‌ सिंहनादश्न भैरव: । 

रथनेमिनिनादक्ष ज्याशब्दश्चैव दारुण: ।। ५३ ।। 

उस समय उन दोनोंके गोहचर्मके बने हुए दस्तानोंके आधातसे चटाचटकी आवाज होने 
लगी। साथ ही हथेलीका शब्द और महाभयंकर सिंहनाद भी होने लगा। रथके पहियोंकी 
घरघराहट और प्रत्यंचाकी भयंकर टंकार भी कानोंमें पड़ने लगी || ५२-५३ ।। 

योधा व्युपारमन्‌ युद्धाद्‌ दिदृक्षन्त: पराक्रमम्‌ । 

कर्णपाण्डवयो राजन्‌ परस्परवधैषिणो: ।। ५४ ।। 

राजन! परस्पर वधकी इच्छा रखनेवाले कर्ण और भीमसेनके पराक्रमको देखनेकी 
अभिलाषासे समस्त योद्धा युद्धसे उपरत हो गये ।। ५४ ।। 

देवर्षिसिद्धगन्धर्वा: साधु साथ्वित्यपूजयन्‌ । 

मुमुचु: पुष्पवर्ष च विद्याधरगणास्तथा ।। ५५ |। 

देवता, ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व और विद्याधरगण 'साधु-साधु” कहकर उन दोनोंकी प्रशंसा 
और फूलोंकी वर्षा करने लगे || ५५ ।। 

ततो भीमो महाबाहु: संरम्भी दृढविक्रम: । 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य शरैरविव्याध सूतजम्‌ ।। ५६ ।। 


तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए सुदृढ़ पराक्रमी महाबाहु भीमसेनने अपने अस्त्रोंद्वारा कर्णके 
अस्त्रोंका निवारण करके उसे बाणोंसे बींध डाला || ५६ ।। 

कर्णोडपि भीमसेनस्य निवार्येषून्‌ महाबल: । 

प्राहिणोन्नच नाराचानाशीविषसमान्‌ रणे ।। ५७ ।। 

महाबली कर्णने भी रणक्षेत्रमें भीमसेनके बाणोंका निवारण करके उनके ऊपर विषैले 
सर्पोके समान नौ नाराच चलाये || ५७ |। 

तावद्धिरथ तान्‌ भीमो व्योम्नि चिच्छेद पत्रिभि: । 

नाराचान्‌ सूतपुत्रस्य तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। ५८ ।। 

भीमसेनने उतने ही बाणोंसे आकाशमें सूतपुत्रके सारे नाराच काट डाले और उससे 
कहा 'खड़ा रह, खड़ा रह” ।। 

ततो भीमो महाबाहु: शरं क्रुद्धान्तकोपमम्‌ । 

मुमोचाधिरथेवीरों यमदण्डमिवापरम्‌ ।। ५९ ।। 

तत्पश्चात्‌ महाबाहु वीर भीमसेनने कर्णके ऊपर ऐसा बाण चलाया, जो क्ुद्ध यमराजके 
समान तथा दूसरे यमदण्डके सदृश भयंकर था ।। ५९ |। 

तमापततन्तं चिच्छेद राधेय: प्रहसन्निव । 

त्रिभि: शरै: शरं राजन्‌ पाण्डवस्य प्रतापवान्‌ ।। ६० ।। 

राजन्‌! अपने ऊपर आते हुए भीमसेनके उस बाणको प्रतापी राधानन्दन कर्णने तीन 
बाणोंद्वारा हँसते हुए-से काट डाला || ६० ।। 

पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डव: । 

तस्य तान्याददे कर्ण: सर्वाण्यस्त्राण्यभीतवत्‌ ।। ६१ ।। 

तब पाण्डुनन्दन भीमने पुनः भयानक बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी; परंतु कर्णने उन 
सब अस्त्रोंको निर्भयतापूर्वक आत्मसात्‌ कर लिया ।। ६१ ।। 

युध्यमानस्य भीमस्य सूतपुत्रो5स्त्रमायया । 

तस्येषुधी धनुर्ज्या च बाणै: संनतपर्वभि: ।। ६२ ।। 

रश्मीन्‌ योक्‍त्राणि चाश्रानां क्रुद्ध: कर्णो5च्छिनन्मृधे । 

तस्याश्चांश्व पुनर्हत्वा सूतं विव्याध पठचभि: ।। ६३ ।। 

क्रोधमें भरे हुए सूतपुत्र कर्णने अपने अस्त्रोंकी मायासे तथा झुकी हुई गाँठवाले 
बाणोंद्वारा युद्धपरायण भीमसेनके दो तरकसों, धनुषकी प्रत्यंचा, बागडोर तथा घोड़े 
जोतनेकी रस्सियोंको भी युद्धस्थलमें काट डाला। फिर घोड़ोंको भी मारकर सारथिको पाँच 
बाणोंसे घायल कर दिया || ६२-६३ ।। 

सो<पसृत्य द्रुतं सूतो युधामन्यो रथं ययौ । 

विहसन्निव भीमस्य क्रुद्ध: कालानलद्युति: ।। ६४ ।। 

ध्वजं चिच्छेद राधेय: पताकां च व्यपातयत्‌ । 


सारथि वहाँसे भागकर तुरंत ही युधामन्युके रथपर चढ़ गया। इधर क्रोधमें भरे हुए 
कालाग्निके समान तेजस्वी राधापुत्र कर्णने भीमसेनका उपहास-सा करते हुए उनकी ध्वजा 
और पताकाको भी काट गिराया ।। 

स विधन्वा महाबाहुरथ शक्ति परामृशत्‌ ।। ६५ ।। 

तां व्यवासृजदाविध्य क्रुद्धः कर्णरथं प्रति । 

धनुष कट जानेपर कुपित हुए महाबाहु भीमसेनने शक्ति हाथमें ली और उसे घुमाकर 
कर्णके रथपर दे मारा | ६५३ ।। 

तामाधिरथिरायस्त: शक्ति काउ्चनभूषणाम्‌ ।। ६६ ।। 

आपतत्तीं महोल्काभां चिच्छेद दशभि: शरै: । 

कर्ण कुछ थक-सा गया था, तो भी उसने बहुत बड़ी उल्काके समान अपनी ओर आती 
हुई उस सुवर्णभूषित शक्तिको दस बाणोंसे काट दिया || ६६६ ।। 

सापतद्‌ दशधा छिज्ना कर्णस्य निशितै: शरै: ।। ६७ ।। 

अस्यतः: सूतपुत्रस्य मित्रार्थे चित्रयोधिन: । 

मित्रके हितके लिये विचित्र युद्ध करनेवाले तथा बाणप्रहारमें तत्पर सूतपत्र कर्णके 
तीखे बाणोंसे दस टुकड़ोंमें कटकर वह शक्ति धरतीपर गिर पड़ी || ६७६ ।। 

स चर्मादत्त कौन्तेयो जातरूपपरिष्कृतम्‌ ।। ६८ ।। 

खडगं चान्यतरप्रेप्सु्मत्योरग्रे जयस्य वा । 

तब कुन्तीकुमार भीमसेनने युद्धमें सम्मुख मृत्यु अथवा विजय इन दोमेंसे एकका 
निश्चिररूपसे वरण करनेकी इच्छा रखकर ढाल और सुवर्णभूषित तलवार हाथमें ले 
ली || ६८ ३ || 

तदस्य तरसा क्रुद्धों व्यधमच्चर्म सुप्रभम्‌ ।। ६९ ।। 

शरैर्बहुभिरत्युग्रै: प्रहसन्निव भारत । 

भारत! उस समय क्रोधमें भरे हुए कर्णने हँसते हुए-से वेगपूर्वक बहुत-से अत्यन्त 
भयंकर बाण मारकर भीमसेनकी चमकीली ढाल नष्ट कर दी || ६९ ६ ।। 

स विचर्मा महाराज विरथ: क्रोधमूर्च्छित: ॥। ७० ।। 

असिं प्रासृजदाविध्य त्वरन्‌ कर्णरथं प्रति | 

महाराज! ढाल और रथसे रहित हुए भीमसेनने क्रोधसे आतुर हो बड़ी उतावलीके साथ 
कर्णके रथपर तलवार घुमाकर चला दी || ७० ३ || 

स धनु: सूतपुत्रस्य सज्यं छित्ता महानसि: ।। ७१ ।। 

पपात भुवि राजेन्द्र क्रुद्ध: सर्प इवाम्बरात्‌ । 

राजेन्द्र! वह बड़ी तलवार आकाशसे कुपित सर्पकी भाँति आकर सूतपुत्र कर्णके 
प्रत्यंचासहित धनुषको काटती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी || ७१६ ।। 


ततः प्रहस्याधिरथिरन्यदादाय कार्मुकम्‌ ।। ७२ ।। 

शत्रुघ्नं समरे क्रुद्धों दृढज्यं वेगवत्तरम्‌ । 

व्यायच्छत्‌ स शरान्‌ कर्ण: कुन्तीपुत्रजिघांसया || ७३ ।। 

सहस्रशो महाराज रुक्मपुड्खान्‌ सुतेजनान्‌ | 

यह देखकर अधिरथपुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा और समरांगणमें कुपित हो उसने 
शत्रुविनाशकारी सुदृढ़ प्रत्यंचावाला अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लेकर उसपर 
कुन्तीपुत्रके वधकी इच्छासे सुवर्णमय पंखवाले सहस्रों अत्यन्त तीखे बाणोंका संधान 
किया || ७२-७३ | ।। 

स वध्यमानो बलवान्‌ कर्णचापच्युतै: शरै: ।। ७४ ।। 

वैहायसं प्राक्रमद्‌ वै कर्णस्य व्यथयन्मन: । 

कर्णके धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा घायल किये जाते हुए बलवान्‌ भीमसेन कर्णके 
मनमें व्यथा उत्पन्न करते हुए उसे पकड़नेके लिये आकाशमें उछले || ७४ $ ।। 

स तस्य चरितं दृष्टवा संग्रामे विजयैषिण: ।। ७५ ।। 

लयमास्थाय राधेयो भीमसेनमवज्चयत्‌ । 

संग्राममें विजय चाहनेवाले भीमसेनका वह चरित्र देख राधापुत्र कर्णने अपना अंग 
सिकोड़कर भीमसेनके आक्रमणको विफल कर दिया || ७५३ ।। 





तं च दृष्टवा रथोपस्थे निलीन व्यथितेन्द्रियम्‌ ।। ७६ ।। 

ध्वजमस्य समासाद्य तस्थौ भीमो महीतले । 

कर्णकी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो गयी थीं। वह रथके पिछले भागमें दुबक गया था। 
उसे उस अवस्थामें देखकर भीमसेन उसके ध्वजका सहारा लेकर पृथ्वीपर खड़े हो 
गये | ७६६ ।। 

तदस्य कुरव: सर्वे चारणाश्ना भ्यपूजयन्‌ ।। ७७ ।। 

यदियेष रथात्‌ कर्ण हर्तु ताक्ष्य इवोरगम्‌ । 

जैसे गरुड़ सर्पको दबोच लेते हैं, उसी प्रकार भीमसेनने कर्णको उसके रथसे पकड़ ले 
जानेकी जो इच्छा की थी, उनके इस कर्मकी समस्त कौरवों तथा चारणोंने भी प्रशंसा 
की || ७७३ ।। 

स च्छिन्नथन्वा विरथ: स्वधर्ममनुपालयन्‌ ।। ७८ ।। 

स्वरथं पृष्ठतः कृत्वा युद्धायैव व्यवस्थित: । 

धनुष कट जाने तथा रथहीन होनेपर भी स्वधर्मका पालन करते हुए भीमसेन अपने 
रथको पीछे करके युद्धके लिये ही खड़े रहे || ७८ ६ ।। 


तद्‌ विह॒त्यास्य राधेयस्तत एनं समभ्ययात्‌ ।। ७९ ।। 

संरम्भात्‌ पाण्डवं संख्ये युद्धाय समुपस्थितम्‌ । 

उनके रथ आदि साधनोंको नष्ट करके राधानन्दन कर्णने फिर क्रोधपूर्वक रणक्षेत्रमें 
युद्धके लिये उपस्थित हुए इन पाण्डुपुत्र भीमसेनपर आक्रमण किया ।। ७९३ ।। 

तौ समेतौ महाराज स्पर्धमानौ महाबलौ ।। ८० ।। 

जीमूताविव घ॒र्मान्ति गर्जमानौ नरर्षभौ । 

महाराज! एक-दूसरेसे स्पर्धा रखनेवाले वे दोनों नरश्रेष्ठ महाबली वीर परस्पर भिड़कर 
वर्षा-ऋतुमें गर्जना करनेवाले दो मेघोंके समान गरज रहे थे || ८०६ ।। 

तयोरासीत्‌ सम्प्रहार: क्रुद्धयोर्नरसिंहयो: ।। ८१ ।॥ 

अमृष्यमाणयो: संख्ये देवदानवयोरिव । 

युद्धस्थलमें अमर्ष और क्रोधसे भरे हुए उन दोनों पुरुषसिंहोंका संग्राम देव-दानव- 
युद्धके समान भयंकर हो रहा था ।। ८१६ ।। 

क्षीणशस्त्रस्तु कौन्तेय: कर्णेन समभिद्रुत: ।। ८२ ।। 

दृष्टवार्जुनहतान्‌ नागान्‌ पतितान्‌ पर्वतोपमान्‌ | 

रथमार्गविघातार्थ व्यायुध: प्रविवेश ह ।। ८३ ।। 

जब कुन्तीकुमार भीमसेनके सारे अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गये, उनके पास एक भी आयुध 
शेष नहीं रह गया और कर्णके द्वारा उनपर पूर्ववत्‌ आक्रमण होता रहा, तब वे रथके मार्गको 
बंद कर देनेके लिये अर्जुनके मारे हुए पर्वताकार हाथियोंको वहाँ गिरा देख उनके भीतर 
प्रवेश कर गये ।। ८२-८३ ।। 

हस्तिनां व्रजमासाद्य रथदुर्ग प्रविश्य च । 

पाण्डवो जीविताकाड्क्षी राधेयं नाभ्यहारयत्‌ ।। ८४ ।। 

हाथियोंके समूहमें पहुँचकर मानो वे रथके आक्रमणसे बचनेके लिये दुर्गके भीतर 
प्रविष्ट हो गये हों, ऐसा अनुभव करते हुए पाण्डुपुत्र भीम केवल अपने प्राण बचानेकी इच्छा 
करने लगे, उन्होंने राधापुत्र कर्णपर प्रहार नहीं किया ।। 

व्यवस्थानमथाकाडुक्षन्‌ धनंजयशरैहतम्‌ । 

उद्यम्य कुज्जरं पार्थस्तस्थौ परपुरंजय: ।। ८५ ।। 

महौषधिसमायुक्त हनूमानिव पर्वतम्‌ | 

शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले कुन्तीकुमार भीमसेन यह चाहते थे कि कर्णके 
बाणोंसे बचनेके लिये कोई व्यवधान (आड़) मिल जाय; इसीलिये वे अर्जुनके बाणोंसे मारे 
गये एक हाथीकी लाशको उठाकर चुपचाप खड़े हो गये। उस समय वे संजीवन नामक 
महान्‌ औषधिसे युक्त पर्वत उठाये हुए हनुमानूजीके समान जान पड़ते थे ।। ८५३ ।। 

तमस्य विशिखेै: कर्णो व्यधमत्‌ कुज्जरं पुन: ।। ८६ ।। 

हस्त्यड्रान्यथ कर्णाय प्राहिणोत्‌ पाण्डुनन्दन: । 


चक्राण्यश्वांस्तथा चान्यद्‌ यद्‌ यत्‌ पश्यति भूतले ।। ८७ ।। 

तत्‌ तदादाय चिक्षेप क्रुद्ध: कर्णाय पाण्डव: । 

तदस्य सर्व चिच्छेद क्षिप्तं क्षिप्तं शितैः शरै: ।। ८८ ।। 

कर्णने अपने बाणोंद्वारा उस हाथीके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब पाण्डुनन्दन 
भीमने हाथीके कटे हुए अंगोंको ही कर्णपर फेंकना शुरू किया। रथोंके पहिये, घोड़ोंकी 
लाशें तथा और भी जो-जो वस्तुएँ वे धरतीपर पड़ी देखते, उन्हें उठाकर क्रोधपूर्वक कर्णपर 
फेंकते थे; परंतु वे जो-जो वस्तु फेंकते, उन सबको कर्ण अपने तीखे बाणोंसे काट डालता 
था || ८६--८८ ।। 

भीमो5पि मुष्टिमुद्यम्य वज्गर्भा सुदारुणाम्‌ । 

हन्तुमैच्छत्‌ सूतपुत्रं संस्मरन्नर्जुनं क्षणात्‌ ।। ८९ ।। 

शक्तो5पि नावधीत्‌ कर्ण समर्थ: पाडुनन्दन: । 

रक्षमाण: प्रतिज्ञां तां या कृता सव्यसाचिना ।। ९० ।। 

अब भीमसेनने अपने अंगूठेको मुट्टीके भीतर करके वज्रतुल्य अत्यन्त भयंकर घूँसा 
तानकर सूतपुत्र कर्णको मार डालनेकी इच्छा की। तबतक क्षणभरमें उन्हें अर्जुनकी याद 
आ गयी। अतः सव्यसाची अर्जुनने पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी रक्षा करते हुए 
पाण्डुनन्दन भीमने समर्थ एवं शक्तिशाली होनेपर भी उस समय कर्णका वध नहीं 
किया ।। ८९-९० || 

तमेवं व्याकुलं भीम॑ भूयों भूय: शितै: शरै: । 

मूर्च्कयाभिपरीताड़मकरोत्‌ सूतनन्दन: ।। ९१ ।। 

इस प्रकार वहाँ बाणोंके आघातसे व्याकुल हुए भीमसेनको सूतपुत्र कर्णने बारंबार 
अपने पैने बाणोंकी मारसे मूर्च्छित-सा कर दिया || ९१ ।। 

व्यायुधं नावधीच्चैनं कर्ण: कुन्त्या वच: स्मरन्‌ । 

धनुषोअग्रेण तं कर्ण: सोभिद्रुत्य परामृशत्‌ । ९२ ।। 

परंतु कुन्तीके वचनका स्मरण करके उसने शस्त्रहीन भीमसेनका वध नहीं किया। 
कर्णने उनके पास जाकर अपने धनुषकी नोकसे उनका स्पर्श किया ।। ९२ ।। 





भीमसेनका कर्णके रथपर हाथीकी लाश फेंकना 


धनुषा स्पृष्टमात्रेण क्रुद्ध: सर्प इव श्वसन्‌ । 

आच्चछिद्य स धनुस्तस्य कर्ण मूर्धन्यताडयत्‌ ।। ९३ ।। 

धनुषका स्पर्श होते ही वे क्रोधमें भरे हुए सर्पफे समान फुफकार उठे और उन्होंने 
कर्णके हाथसे वह धनुष छीनकर उसे उसीके मस्तकपर दे मारा ।। ९३ ।। 

ताडितो भीमसेनेन क्रोधादारक्तलोचन: । 

विहसन्निव राधेयो वाक्यमेतदुवाच ह ।। ९४ ।। 

भीमसेनकी मार खाकर राधापुत्र कर्णकी आँखें लाल हो गयीं। उसने हँसते हुए-से यह 
बात कही-- || ९४ || 

पुन: पुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च । 

अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल संग्रामकातर ।। ९५ ।। 

“ओ बिना दाढ़ी-मूछके नपुंसक! ओ मूर्ख! अरे पेटू! तू तो अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञानसे सर्वथा 
शून्य है। युद्धभीरु कायर! छोकरे! अब फिर कभी युद्ध न करना ।। ९५ ।। 

यत्र भोज्यं बहुविध॑ भक्ष्यं पेयं च पाण्डव । 


तत्र त्वं दुर्मते योग्यो न युद्धेषु कदाचन ।। ९६ ।। 

'दुर्बुद्धि पाण्डव! जहाँ अनेक प्रकारकी खाने-पीनेकी वस्तुएँ रखी हों, तू वहीं रहनेके 
योग्य है! युद्धोंमें तुओ कभी नहीं आना चाहिये ।। ९६ ।। 

मूलपुष्पफलाहारो व्रतेषु नियमेषु च । 

उचिततस्त्वं वने भीम न त्वं युद्धविशारद: ।। ९७ ।। 

“भीम! वनमें रहकर तू फल-मूल और फूल खाकर व्रत एवं नियम आदि पालन करनेके 
योग्य है। युद्धकौशल तुझमें नाममात्रको भी नहीं है ।। ९७ ।। 

क्व युद्ध॑ क्व मुनित्वं च वनं गच्छ वृकोदर । 

न त्वं युद्धोचितस्तात वनवासरतिर्भवान्‌ ।। ९८ ।। 

“वृकोदर! कहाँ युद्ध और कहाँ मुनिवृत्ति। जा, जा, वनमें चला जा। तात! तुझमें 
युद्धकी योग्यता नहीं है। तू तो वनवासका ही प्रेमी है ।। ९८ ।। 

(सूद त्वामहमाजाने मात्स्ये प्रेष्षफकारकम्‌ ।) 

सूदान्‌ भृत्यजनान्‌ दासांस्त्वं गृहे त्वरयन्‌ भृशम्‌ । 

योग्यस्ताडयितु क्रोधाद्‌ भोजनार्थ वृकोदर ।। ९९ ।। 

“मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ। तू मत्स्यराज विराटका नौकर एक रसोइया रहा है। 
वृकोदर! तू तो घरमें रसोइयों, भृत्यजनों तथा दासोंको बहुत जल्दी भोजन तैयार करनेके 
लिये प्रेरणा देते हुए क्रोधसे उन्हें डॉँटने और मारने-पीटनेकी योग्यता रखता है || ९९ ।। 

मुनिर्भूत्वाथवा भीम फलान्यादत्स्व दुर्मते । 

वनाय व्रज कौन्तेय न त्वं युद्धविशारद: ।। १०० ।। 

“दुर्मति कुन्तीकुमार भीम! अथवा तू मुनि होकर वनमें चला जा। वहाँ इधर-उधरसे 
फल ले आ और खा। तू युद्धमें निपुण नहीं है ।। १०० ।। 

फलमूलाशने शक्तस्त्वं तथातिथिपूजने । 

न त्वां शस्त्रसमुद्योगे योग्यं मन्‍न्ये वृकोदर || १०१ ।। 

“वृकोदर! तू फल-मूल खाने और अतिथिसत्कार करनेमें समर्थ है। मैं तुझे हथियार 
उठानेके योग्य नहीं मानता' || १०१ |। 

कौमारे यानि वृत्तानि विप्रियाणि विशाम्पते । 

तानि सर्वाणि चाप्येव रूक्षाण्यश्रावयद्‌ भूशम्‌ ।। १०२ ।। 

प्रजापालक नरेश! कर्णने बाल्यावस्थामें जो अप्रिय वृत्तान्त घटित हुए थे, उन सबका 
उल्लेख करते हुए बहुत-सी रूखी बातें सुनायीं || १०२ ।। 

अथीैनं तत्र संलीनमस्पृशद्‌ धनुषा पुनः । 

प्रहसंश्व॒ पुनर्वाक्यं भीममाह वृषस्तदा ।। १०३ ।। 

तत्पश्चात्‌ वहाँ छिपे हुए भीमसेनका कर्णने पुनः धनुषसे स्पर्श किया और उस समय 
उनका उपहास करते हुए फिर कहा-- ।। १०३ ।। 


योद्धव्यं मारिषान्यत्र न योद्धव्यं च मादृशै: । 

मादृशैर्युध्यमानानामेतच्चान्यच्च विद्यते | १०४ ।। 

“आर्य! तुझे और लोगोंके साथ युद्ध करना चाहिये। मेरे-जैसे वीरोंके साथ नहीं। मेरे- 
जैसे योद्धाओंसे जूझनेवालोंकी ऐसी ही अथवा इससे भी बुरी दशा होती है || १०४ ।। 

गच्छ वा यत्र तौ कृष्णौ तौ त्वां रक्षिष्यतो रणे । 

गृहं वा गच्छ कौन्तेय कि ते युद्धेन बालक ।। १०५ ।। 

“अथवा जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं चला जा। वे रणभूमिमें तेरी रक्षा करेंगे 
अथवा कुन्तीकुमार! तू घर चला जा। बच्चे! तुझे युद्धसे क्या लाभ है?” || १०५ ।। 

कर्णस्य वचन श्रुत्वा भीमसेनो5तिदारुणम्‌ । 

उवाच कर्ण प्रहसन्‌ सर्वेषां शुण्वतां वच: || १०६ ।। 

कर्णके ये अत्यन्त कठोर वचन सुनकर भीमसेन ठठाकर हँस पड़े और सबके सुनते 
हुए उससे इस प्रकार बोले--- || १०६ ।। 

जितस्त्वमसकृद्‌ दुष्ट कत्थसे कि वृथा55त्मना । 

जयाजयीौ महेन्द्रस्य लोके दृष्टौ पुरातनै: ।। १०७ ।। 

“अरे दुष्ट! मैंने तुझे एक बार नहीं, बारंबार हराया है; फिर क्‍यों व्यर्थ अपने ही मुँहसे 
अपनी बड़ाई कर रहा है। संसारमें पूर्वपुरुषोंने देवराज इन्द्रकी भी कभी जय और कभी 
पराजय होती देखी है || १०७ ।। 

मल्लयुद्ध॑ मया सार्ध कुरु दुष्कुलसम्भव । 

महाबलो महाभोगी कीचको निहतो यथा ।। १०८ ।। 

तथा त्वां घातयिष्यामि पश्यत्सु सर्वराजसु । 

“नीच कुलमें पैदा हुए कर्ण! आ, मेरे साथ मल्ल-युद्ध कर ले। जैसे मैंने महान्‌ बलशाली 
महाभोगी कीचकको पीस डाला था, उसी प्रकार इन समस्त राजाओंके देखते-देखते मैं तुझे 
अभी मौतके हवाले कर दूँगा” || १०८३ ।। 

भीमस्य मतमाज्ञाय कर्णो बुद्धिमतां वर: ।। १०९ ।। 

विरराम रणात्‌ तस्मात्‌ पश्यतां सर्वधन्विनाम्‌ । 

भीमसेनका यह अभिप्राय जानकर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कर्ण समस्त धनुर्धरोंके सामने ही 
उस युद्धसे हट गया ।। १०९६ ।। 

एवं तं॑ विरथं कृत्वा कर्णो राजन्‌ व्यकत्थयत्‌ | ११० ।। 

प्रमुखे वृष्णिसिंहस्य पार्थस्य च महात्मन: । 

ततो राजन्‌ शिलाधौतान्‌ शरान्‌ शाखामृगध्वज: ।। १११ ।। 

प्राहिणोत्‌ सूतपुत्राय केशवेन प्रचोदित: । 


राजन्‌! इस प्रकार कर्णने भीमसेनको रथहीन करके जब वृष्णिवंशके सिंह भगवान्‌ 
श्रीकृष्ण और महामना अर्जुनके सामने ही अपनी इतनी प्रशंसा की, तब श्रीकृष्णकी 
प्रेरणासे कपिध्वज अर्जुनने शिलापर स्वच्छ किये हुए बहुत-से बाणोंको सूतपुत्र कर्णपर 
चलाया || ११०-१११६ || 

ततः पार्थभुजोत्सृष्टा: शरा: कनकभूषणा: ।। ११२ ।। 

गाण्डीवप्रभवा: कर्ण हंसा: क्रौज्चमिवाविशन्‌ | 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनकी भुजाओंसे छोड़े गये तथा गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए वे सुवर्णभूषित 
बाण कर्णके शरीरमें उसी प्रकार घुस गये, जैसे हंस क्रौंच पर्वतकी गुफाओंमें समा जाते 
हैं ।। ११२३ || 

स भुजड्जैरिवाविष्टेगाण्डीवप्रेषितै:ः शरै: ।। ११३ ।। 

भीमसेनादपासेधत्‌ सूतपुत्रं धनंजय: । 

इस प्रकार धनंजयने गाण्डीव धनुषसे छोड़े गये रोषभरे सर्पोंके समान बाणोंद्वारा 
सूतपुत्र कर्णको भीमसेनसे दूर हटा दिया || ११३३ ।। 

स च्छिन्नधन्वा भीमेन धनंजयशराहत: ।। ११४ ।। 

कर्णो भीमादपायासीद्‌ू रथेन महता द्रुतम्‌ 

भीमसेनने कर्णके धनुषको तो पहलेसे ही तोड़ दिया था। इसीलिये वह धनंजयके 
बाणोंसे घायल हो भीमसेनको छोड़कर अपने विशाल रथके द्वारा तुरंत ही वहाँसे दूर हट 
गया || ११४६३ || 

भीमो<पि सात्यकेर्वाहं समारुह्म नरर्षभ: ॥। ११५ ।। 

अन्वयाद्‌ भ्रातरं संख्ये पाण्डवं सव्यसाचिनम्‌ | 

इधर नरश्रेष्ठ भीमसेन भी सात्यकिके रथपर आरूढ़ हो युद्धस्थलमें सव्यसाची 
पाण्डुपुत्र भाई अर्जुनके पास जा पहुँचे || ११५३ ।। 

ततः कर्ण समुद्दिश्य त्वरमाणो धनंजय: ।। ११६ ।। 

नाराचां क्रोधताम्राक्ष: प्रैषीन्मृत्युमिवान्तक: । 

तत्पश्चात्‌ क्रोधसे लाल आँखें किये अर्जुनने बड़ी उतावलीके साथ कर्णको लक्ष्य करके 
एक नाराच चलाया, मानो यमराजने किसीके लिये मौत भेज दी हो || ११६३ ।। 

स गरुत्मानिवाकाशे प्रार्थयन्‌ भुजगोत्तमम्‌ ।। ११७ ।। 

नाराचो< भ्यपतत्‌ कर्ण तूर्ण गाण्डीवचोदित: । 

गाण्डीव धनुषसे छूटा हुआ वह नाराच आकाशमार्गसे तुरंत ही कर्णकी ओर चला, 
मानो गरुड़ किसी उत्तम सर्पको पकड़नेके लिये जा रहे हों || ११७३ ।। 

तमन्तरिक्षे नाराचं द्रौणिश्षिच्छेद पत्रिणा ।। ११८ ।। 

धनंजयभयात्‌ कर्णमुज्जिहीर्षन्‌ महारथ: । 


उस समय अर्जुनके भयसे कर्णका उद्धार करनेकी इच्छा रखकर महारथी अभश्वत्थामाने 
अपने बाणसे उस नाराचको आकाशमें ही काट दिया || ११८ ६ ।। 

ततो द्रौणिं चतुःषष्ट्या विव्याध कुपितोर्डर्जुन: ।। ११९ |। 

शिलीमुखैर्महाराज मा गास्तिषछ्ठेति चाब्रवीत्‌ । 

महाराज! तब क्रोधमें भरे हुए अर्जुनने अश्वत्थामाको चौंसठ बाण मारे और कहा 
--'खड़े रहो, भागना मत” ।। ११९६ ।। 

स तु मत्तगजाकीर्णमनीकं रथसंकुलम्‌ ।। १२० ।। 

तूर्णमभ्याविशद्‌ द्रौणिर्धनंजयशरार्दित: । 

परंतु अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हो अभश्व॒त्थामा तुरंत ही रथसे व्याप्त एवं मतवाले 
हाथियोंसे भरे हुए व्यूहके भीतर घुस गया || १२० ३ ।। 

ततः सुवर्णपृष्ठानां चापानां कूजतां रणे ।। १२१ ।। 

शब्दं गाण्डीवधोषेण कौन्तेयो5भ्यभवद्‌ बली । 

तब बलवान कुन्तीकुमार अर्जुनने रणक्षेत्रमें टंकार करते हुए सुवर्णमय पृष्ठभागवाले 
समस्त धनुषोंके सम्मिलित शब्दोंको अपने गाण्डीव धनुषके गम्भीर घोषसे दबा 
दिया ।। १२१३ ।। 

धनंजयस्तथा यान्तं पृष्ठतो द्रौणिमभ्यगात्‌ ।। १२२ ।। 

नातिदीर्घमिवाध्वानं शरै: संत्रासयन्‌ बलम्‌ | 

अर्जुन भागते हुए अभश्वत्थामाके पीछे-पीछे अपने बाणोंद्वारा कौरव-सेनाको संत्रस्त 
करते हुए कुछ दूरतक गये ।। १२२ ३ ।। 

विदार्य देहान्‌ नाराचैर्नरवारणवाजिनाम्‌ ।। १२३ ।। 

कड्कबर्हिणवासोभिर्बलं व्यधमदर्जुन: । 

उस समय उन्होंने कंक और मोरकी पाँखोंसे युक्त नाराचोंद्वारा घोड़ों, हाथियों और 
मनुष्योंके शरीरोंको विदीर्ण करके सारी सेनाको तहस-नहस कर दिया ।। 

तद्‌ बल॑ भरतश्रेष्ठ सवाजिद्विपमानवम्‌ ।। १२४ ।। 

पाकशासनिरायत्त: पार्थ: स निजघान ह ।। १२५ || 

भरतश्रेष्ठ] उस समय सावधान हुए इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुनने हाथी, घोड़ों और 
मनुष्योंसे भरी हुई उस सेनाका संहार कर डाला ।। १२४-१२५ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भीमकर्णयुद्धे 
एकोनचत्वारिंशदिधिकशततमो<ध्याय: ।। १३९ || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भीमसेन और कर्णका 
युद्धविषयक एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १३९ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ “लोक मिलाकर कुल १२५३ श्लोक हैं।) 


भीकम (2 अमान 


चत्वारिशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


सात्यकिद्वारा राजा अलम्बुषका और दुःशासनके घोड़ोंका 
वध 


धृतराष्ट्र रवाच 

अहन्यहनि मे दीप्त॑ यश: पतति संजय । 

हता मे बहवो योधा मन्ये कालस्य पर्ययम्‌ ।। १ ।। 

धृतराष्ट्र बोले--संजय! प्रतिदिन मेरा उज्ज्वल यश घटता या मन्द पड़ता जा रहा है, 
मेरे बहुत-से योद्धा मारे गये, इसे मैं समयका ही फेर समझता हूँ ।। १ ।। 

धनंजय: सुसंक्रुद्ध: प्रविष्टो मामकं बलम्‌ | 

रक्षितं द्रौणिकर्णाभ्यामप्रवेश्यं सुरैरपि ॥। २ ।। 

अश्वत्थामा और कर्णके द्वारा सुरक्षित मेरी सेनामें, जहाँ देवताओंका भी प्रवेश 
असम्भव था, क्रोधमें भरे हुए अर्जुन प्रविष्ट हो गये || २ ।। 

ताभ्यामूर्जितवीर्याभ्यामाप्यायितपराक्रम: । 

सहित: कृष्णभीमाभ्यां शिनीनामृषभेण च ।। ३ ।। 

महान्‌ पराक्रमी श्रीकृष्ण और भीमसेन तथा शिनिप्रवर सात्यकिका साथ होनेसे 
अर्जुनका बल तथा पराक्रम और भी बढ़ गया है ।। ३ ।। 

तदाप्रभूति मां शोको दहत्यग्निरिवाशयम्‌ । 

ग्रस्तानिव प्रपश्यामि भूमिपालान्‌ ससैन्धवान्‌ ।। ४ ।। 

जबसे यह बात मुझे मालूम हुई है, तबसे शोक मुझे उसी प्रकार दग्ध कर रहा है, जैसे 
काष्ठसे पैदा होनेवाली आग अपने आधारभूत काष्ठको ही जला देती है। मैं सिंधुराज 
जयद्रथसहित समस्त राजाओंको कालके गालमें गया हुआ ही समझता हूँ ।। ४ ।। 

अप्रियं सुमहत्‌ कृत्वा सिन्धुराज: किरीटिन: । 

चक्षुविषयमापन्न: कथं जीवितमाप्लनुयात्‌ । ५ ।। 

सिंधुराज जयद्रथ किरीटधारी अर्जुनका महान्‌ अप्रिय करके जब उनकी आँखोंके 
सामने आ गया है, तब कैसे जीवित रह सकता है? ।। ५ ।। 

अनुमानाच्च पश्यामि नास्ति संजय सैन्धव: । 

युद्ध तु तद्‌ यथावृत्तं तन्ममाचक्ष्व तत्त्तत:ः ।। ६ ।। 

संजय! मैं अनुमानसे यह देख रहा हूँ कि सिंधुराज जयद्रथ अब जीवित नहीं है। अब 
वह युद्ध जिस प्रकार हुआ था, वह सब यथार्थरूपसे बताओ ।। ६ ।। 

यश्च विक्षोभ्य महतीं सेनामालोड्य चासकृत्‌ । 


एक: प्रविष्ट: संक्रुद्धो नलिनीमिव कुज्जर: ।। ७ ।। 
तस्य मे वृष्णिवीरस्य ब्रूहि युद्धं यथातथम्‌ । 
धनंजयार्थे यत्तस्य कुशलो हासि संजय ।। ८ ।। 
संजय! जैसे हाथी किसी पोखरेमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार जिन्होंने अकेले ही 
कुपित होकर मेरी विशाल सेनाको क्षुब्ध करके बारंबार उसे मथकर उसके भीतर प्रवेश 
किया था, उन वृष्णिवंशी वीर सात्यकिने अर्जुनके लिये प्रयत्नपूर्वक जैसा युद्ध किया था, 
उसका वर्णन करो; क्योंकि तुम कथा कहनेमें कुशल हो ।। ७-८ ।। 
संजय उवाच 
तथा तु वैकर्तनपीडितं त॑ 
भीम॑ प्रयान्तं पुरुषप्रवीरम्‌ । 
समीक्ष्य राजन्‌ नरवीरमध्ये 
शिनिप्रवीरो$नुययौ रथेन ।। ९ ।। 
संजयने कहा--राजन्‌! पुरुषोंमें प्रमुख वीर भीमसेन अर्जुनके पास जाते समय जब 
पूर्वोक्त प्रकारसे कर्णद्वारा पीड़ित होने लगे, तब उन्हें उस अवस्थामें देखकर शिनिवंशके 
प्रधान वीर सात्यकिने उन नरवीरोंके समूहमें रथके द्वारा भीमसेनकी सहायताके लिये 
उनका अनुसरण किया ।। ९ |। 
नदन्‌ यथा वज्रधरस्तपान्ते 
ज्वलन्‌ यथा जलदान्ते च सूर्य: । 
निष्नन्नमित्रान्‌ धनुषा दृढेन 
स कम्पयंस्तव पुत्रस्य सेनाम्‌ ।। १० ।। 
जैसे वज्रधारी इन्द्र वर्षाकालमें मेघरूपसे गर्जना करते हैं और जैसे सूर्य शरत्कालमें 
प्रज्वलित होते हैं, उसी प्रकार गरजते और तेजसे प्रज्वलित होते हुए सात्यकि अपने सुदृढ़ 
धनुषद्वारा आपके पुत्रकी सेनाको कँपाते हुए शत्रुओंका संहार करने लगे ।। १० ।। 
त॑ यान्तमश्वै रजतप्रकाशै- 
रायोधने वीरवरं नदन्तम्‌ | 
नाशवनुवन्‌ वारयितु त्वदीया: 
सर्वे रथा भारत माधवाग्रयम्‌ ।। ११ ।। 
भारत! उस युद्धस्थलमें रजतवर्णके अभश्रोंद्वारा आगे बढ़ते और गरजना करते हुए 
मधुवंशशिरोमणि वीरवर सात्यकिको आपके सारे रथी मिलकर भी रोक न सके ।। ११ ।। 
अमर्षपूर्णस्त्वनिवृत्तयोधी 
शरासनी काज्चनवर्मधारी । 
अलम्बुष: सात्यकिं माधवाग्रय- 


मवारयद्‌ राजवरो5भिपत्य ।। १२ |। 
उस समय सोनेका कवच और धनुष धारण किये, युद्धसे कभी पीठ न दिखानेवाले, 
राजाओंमें श्रेष्ठ अलम्बुषने अमर्षमें भरकर मधुकुलके महान्‌ वीर सात्यकिको सहसा सामने 
आकर रोका ।। १२ ।। 
तयोरभूद्‌ भारत सम्प्रहारो 
यथाविधो नैव बभूव कश्ित्‌ | 
प्रेक्षनत एवाहवशोभिनौ तौ 
योधास्त्वदीयाक्ष्‌ परे च सर्वे ।। १३ ।॥ 
भरतनन्दन! उन दोनोंका जैसा संग्राम हुआ, वैसा दूसरा कोई युद्ध नहीं हुआ था। 
आपके और शत्रुपक्षके समस्त योद्धा संग्राममें शोभा पानेवाले उन दोनों वीरोंको देखते ही 
रह गये थे ।। १३ ।। 
आविध्यदेनं दशभ्रि: पृषत्कै- 
रलम्बुषो राजवर: प्रसहा । 
अनागतानेव तु तान्‌ पृषत्कां- 
श्रिच्छेद बाणै: शिनिपुजड्रवो5डपि ।। १४ ।। 
राजाओंमें श्रेष्ठ अलम्बुषने सात्यकिको बलपूर्वक दस बाण मारे। शिनिप्रवर सात्यकिने 
भी बाणोंद्वारा अपने पास आनेसे पहले ही उन समस्त बाणोंको काट गिराया ।। १४ ।। 
पुनः स बाणैस्त्रिभिरग्निकल्पै- 
राकर्णपूर्णनिशितै: सपुड्खै: । 
विव्याध देहावरणं विदार्य 
ते सात्यकेराविविशु: शरीरम्‌ ।। १५ ।। 
तब अलम्बुषने धनुषको कानतक खींचकर अग्निके समान प्रज्वलित, सुन्दर पंखवाले 
तीन तीखे बाणोंद्वारा पुनः सात्यकिपर प्रहार किया। वे बाण सात्यकिके कवचको विदीर्ण 
करके उनके शरीरमें घुस गये || १५ ।। 
तै: कायमस्याग्न्यनिलप्र भावै- 
विंदार्य बाणैर्निश्तिज्वलद्धि: | 
आजसघ्निवांस्तान्‌ रजतप्रकाशा- 
नश्नांक्षतुर्भिश्चतुर: प्रसहा । १६ ।। 
अग्नि और वायुके समान प्रभावशाली उन प्रज्वलित तीखे बाणोंद्वारा सात्यकिका 
शरीर विदीर्ण करके अलम्बुषने चाँदीके समान चमकनेवाले उनके उन चारों घोड़ोंको भी 
चार बाणोंसे हठात्‌ घायल कर दिया ।। १६ || 
तथा तु तेनाभिहतस्तरस्वी 
नप्ता शिनेशक्षुक्रधरप्रभाव: । 


अलम्बुषस्योत्तमवेगवद्धि- 
रश्वांश्षतुर्भि्निजघान बाणै: ।। १७ ।। 
इस प्रकार अलम्बुषके द्वारा घायल होकर चक्रधारी विष्णुके समान प्रभावशाली और 
वेगवान्‌ वीर शिनिपौत्र सात्यकिने अपने उत्तम वेगवाले चार बाणोंद्वारा राजा अलम्बुषके 
चारों घोड़ोंको मार डाला || १७ |। 
अथास्य सूतस्य शिरो निकृत्य 
भल्लेन कालानलसंनिभेन । 
सकुण्डलं पूर्णशशिप्रकाशं 
भ्राजिष्णु वक्‍त्रं निचकर्त देहात्‌ । १८ ।। 
तत्पश्चात्‌ उनके सारथिका भी मस्तक काटकर कालाग्निके समान तेजस्वी भल्लद्दारा 
पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिसे प्रकाशित होनेवाले उनके कुण्डलमण्डित मुखमण्डलको भी 
धड़से काट गिराया ॥। १८ ।। 
निहत्य त॑ पार्थिवपुत्रपौत्र 
संख्ये यदूनामृषभः प्रमाथी । 
ततोडन्वयादर्जुनमेव वीर: 
सैन्यानि राजंस्तव संनिवार्य ।। १९ ।। 
राजन! शत्रुओंको मथ डालनेवाले यदुकुलतिलक वीर सात्यकिने इस प्रकार 
युद्धस्थलमें राजाके पुत्र और पौत्र अलम्बुषको मारकर आपकी सेनाको स्तब्ध करके फिर 
अर्जुनका ही अनुसरण किया ।। १९ || 


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अन्वागतं वृष्णिवीरं समीक्ष्य 
तथारिमध्ये परिवर्तमानम्‌ । 
घ्नन्तं कुरूणामिषुभिर्बलानि 
पुन: पुनर्वायुमिवा भ्रपूगान्‌ ।। २० ।। 
ततो<5वहन्‌ सैन्धवा: साधुदान्ता 
गोक्षीरकुन्देन्दुहिमप्रकाशा: । 
सुवर्णजालावतता: सदश्वा 
यतो यत: कामयते नृसिंह: ।। २१ ।। 
अथात्मजास्ते सहिताभिपेतु- 
रन्ये च योधास्त्वरितास्त्वदीया: । 
कृत्वा मुखं भारत योधमुख्यं 
दुःशासन त्वत्सुतमाजमीढ ।। २२ |। 
उस समय गोदुग्ध, कुन्दकुसुम, चन्द्रमा तथा हिमके समान कान्तिवाले सिंधुदेशीय 
सुशिक्षित सुन्दर घोड़े, जो सोनेकी जालीसे आवृत थे, पुरुषसिंह सात्यकि जहाँ-जहाँ जाना 
चाहते, वहाँ-वहाँ उन्हें ले जाते थे। अजमीढवंशी भरतनन्दन! इस प्रकार जैसे वायु मेघोंकी 


घटाको छित्न-भिन्न करती रहती है, वैसे ही बारंबार बाणोंद्वारा कौरव-सेनाओंका संहार 
करते और शत्रुओंके बीचमें विचरते हुए वृष्णिवीर सात्यकिको वहाँ आया हुआ देख 
योद्धाओंमें प्रधान आपके पुत्र दुःशासनको अगुआ बनाकर आपके बहुत-से पुत्र तथा 
आपके पक्षके अन्य योद्धा भी शीघ्रतापूर्वक एक साथ ही उनपर टूट पड़े || २०--२२ ।। 
ते सर्वतः सम्परिवार्य संख्ये 
शैनेयमाजघ्नुरनीकसाहा: । 
स चापि तान्‌ प्रवर: सात्वतानां 
न्यवारयद्‌ बाणजालेन वीर: || २३ ।। 
वे सभी बड़ी-बड़ी सेनाओंका आक्रमण सहनेमें समर्थ थे। उन सबने युद्धस्थलमें 
सात्यकिको चारों ओरसे घेरकर उनपर प्रहार आरम्भ कर दिया। सात्वतशिरोमणि वीर 
सात्यकिने भी अपने बाणोंके समूहसे उन सबको आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। २३ ।। 
निवार्य तांस्तूर्णममित्रघाती 
नप्ता शिने: पत्रिभिरग्निकल्पै: । 
दुःशासनस्याभिजघान वाहा- 
नुद्यम्य बाणासनमाजमीढ ।। २४ ।। 
अजमीढनन्दन! उन सबको रोककर शत्रुघाती शिनिपौत्र सात्यकिने तुरंत ही धनुष 
उठाकर अग्निके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा दुःशासनके घोड़ोंको मार डाला ।। 
ततोडर्जुनो हर्षमवाप संख्ये 
कृष्णश्न दृष्टवा पुरुषप्रवीरम्‌ । २५ ।। 
उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरुषोंमें प्रधान वीर सात्यकिको उस युद्धभूमिमें 
उपस्थित देख बड़े प्रसन्न हुए || २५ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अलम्बुषवधे 
चत्वारिंशदाधिकशततमो< ध्याय: ।। १४० ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें अलग्बुषवधविषयक एक सौ 
चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४० ॥। 


है २ बछ। है २ >> 


एकचत्वारिंशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिका अद्भुत पराक्रम, श्रीकृष्णका अर्जुनको 
सात्यकिके आगमनकी सूचना देना और अर्जुनकी चिन्ता 


संजय उवाच 

तमुद्यतं महाबाहुं दुःशासनरथं प्रति । 

त्वरितं त्वरणीयेषु धनंजयजयैषिणम्‌ ।। १ ।। 

त्रिगर्तानां महेष्वासा: सुवर्णविकृतध्वजा: । 

सेनासमुद्रमाविष्टमनन्तं पर्यवारयन्‌ ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! महाबाहु सात्यकि जल्दी करनेयोग्य कार्योमें बड़ी फुर्ती 
दिखाते थे। वे अर्जुनकी विजय चाहते थे। उन्हें अनन्त सैन्य-सागरमें प्रविष्ट होकर 
दुःशासनके रथपर आक्रमण करनेके लिये उद्यत देख सोनेकी ध्वजा धारण करनेवाले 
त्रिगर्तदेशीय महाथनुर्धर योद्धाओंने सब ओरसे घेर लिया ।। १-२ ।। 

अथैनं रथवंशेन सर्वतः संनिवार्य ते । 

अवाकिरन्‌ शरव्रातै: क्रुद्धा: परमधन्विन: ।। ३ ।। 

रथसमूहद्वारा सब ओरसे सात्यकिको अवरुद्ध करके उन परम धनुर्धर योद्धाओंने 
उनपर क्रोधपूर्वक बाणसमूहोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ३ ।। 

अजयदू राजपुत्रांस्तान्‌ भ्राजमानान्‌ महारणे । 

एक: पज्चाशतं शत्रून्‌ सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। ४ ।। 

परंतु उस महासमरमें शोभा पानेवाले अपने शत्रुरूप उन पचास राजकुमारोंको 
सत्यपराक्रमी सात्यकिने अकेले ही परास्त कर दिया ।। ४ ।। 

सम्प्राप्प भारतीमध्यं तलघोषसमाकुलम्‌ । 

असिशक्तिगदापूर्णमप्लवं सलिलं यथा ।। ५ ।। 

तत्राद्भुतमपश्याम शैनेयचरितं रणे | 

कौरव-सेनाका वह मध्यभाग हथेलियोंके चट-चट शब्दसे गूँज उठा था। खड्ग, शक्ति 
तथा गदा आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे व्याप्त था और नौकारहित अगाध जलके समान दुस्तर 
प्रतीत होता था। वहाँ पहुँचकर हमलोगोंने रणभूमिमें सात्यकिका अद्भुत चरित्र देखा ।। ५६ 

|| 

प्रतीच्यां दिशि तं दृष्टवा प्राच्यां पश्यामि लाघवात्‌ ।। ६ ।। 

उदीची दक्षिणां प्राचीं प्रतीचीं विदिशस्तथा । 

नृत्यन्निवाचरच्छूरो यथा रथशतं तथा ।। ७ ।। 


वे इतनी फुर्तीसे इधर-उधर जाते थे कि मैं उन्हें पश्चिम दिशामें देखकर तुरंत ही पूर्व 
दिशामें भी उपस्थित देखता था, सैकड़ों रथियोंके समान वे शूरवीर सात्यकि उत्तर, दक्षिण, 
पूर्व और पश्चिम तथा कोणवर्ती दिशाओंमें भी नाचते हुए-से विचर रहे थे ।। ६-७ ।। 

तद्‌ दृष्टवा चरितं तस्य सिंहविक्रान्तगामिन: । 

त्रिगर्ता: संन्यवर्तन्त संतप्ता: स्वजनं प्रति ।। ८ ।। 

सिंहके समान पराक्रमसूचक गतिसे चलनेवाले सात्यकिके उस चरित्रको देखकर 
त्रिगर्तदेशीय योद्धा अपने स्वजनोंके लिये शोक-संताप करते हुए पीछे लौट गये ।। ८ ।। 

तमन्ये शूरसेनानां शूरा: संख्ये न्‍्यवारयन्‌ । 

नियच्छन्त: शरव्रातैर्मत्तं द्विपमिवाड्कुशै: ।। ९ ।। 

तदनन्तर युद्धस्थलमें दूसरे शूरसेनदेशीय शूरवीर सैनिकोंने अपने शरसमूहोंद्वारा उनपर 
नियन्त्रण करते हुए उन्हें उसी प्रकार रोका, जैसे महावत मतवाले हाथीको अंकुशोंद्वारा 
रोकते हैं ।। ९ ।। 

तैर्व्यवाहरदार्यात्मा मुहूतदिव सात्यकि: । 

ततः कलिड्रैर्युयुधे सोडचिन्त्यबलविक्रम: ।॥ १० ।। 

तब अचिन्त्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न महामना सात्यकिने उनके साथ युद्ध करके 
दो ही घड़ीमें उन्हें हा दिया और फिर वे कलिंगदेशीय सैनिकोंके साथ युद्ध करने 
लगे ।। १० ।। 

तां च सेनामतिक्रम्य कलिड्ानां दुरत्ययाम्‌ । 

अथ पार्थ महाबाहुर्धनंजयमुपासदत्‌ ।। ११ ।। 

कलिंगोंकी उस दुर्जय सेनाओंको लाँधकर महाबाहु सात्यकि कुन्तीकुमार अर्जुनके 
निकट जा पहुँचे || ११ ।। 

तरन्निव जले श्रान्तो यथा स्थलमुपेयिवान्‌ | 

त॑ दृष्टवा पुरुषव्याप्र॑ं युयुधान: समाश्चसत्‌ ।। १२ ।। 

जैसे जलमें तैरते-तैरते थका हुआ मनुष्य स्थलमें पहुँच जाय, उसी प्रकार पुरुषसिंह 
अर्जुनको देखकर युयुधानको बड़ा आश्वासन मिला ।। १२ || 

तमायान्तमभिप्रेक्ष्य केशव: पार्थमब्रवीत्‌ । 

असावायाति शैनेयस्तव पार्थ पदानुग: ।। १३ ।। 

सात्यकिको आते देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा--'पार्थ! देखो, यह तुम्हारे 
चरणोंका अनुगामी शिनिपौत्र सात्यकि आ रहा है || १३ ।। 








८ 000 0 कप पाप 
प्र कक 2276 ५ ७ पा कद 





एष शिष्य: सखा चैव तव सत्यपराक्रम: । 

सर्वान्‌ योधांस्तृणीकृत्य विजिग्ये पुरुषर्षभ: ।। १४ ।। 

“यह सत्यपराक्रमी वीर तुम्हारा शिष्प और सखा भी है। इस पुरुषसिंहने समस्त 
योद्धाओंको तिनकोंके समान समझकर परास्त कर दिया है ।। १४ ।। 

एष कौरवयोधानां कृत्वा घोरमुपद्रवम्‌ । 

तव प्राणै: प्रियतम: किरीटिन्नेति सात्यकि: ।। १५ ।। 

“किरीटधारी अर्जुन! जो तुम्हें प्राणोंके समान अत्यन्त प्रिय है, वही यह सात्यकि कौरव 
योद्धाओंमें घोर उपद्रव मचाकर आ रहा है ।। १५ ।। 

एष द्रोणं तथा भोजं॑ कृतवर्माणमेव च । 

कदर्थीकृत्य विशिखै: फाल्गुनाभ्येति सात्यकि: ।। १६ ।। 

'फाल्गुन! यह सात्यकि अपने बाणोंद्वारा द्रोणाचार्य तथा भोजवंशी कृतवर्माका भी 
तिरस्कार करके तुम्हारे पास आ रहा है || १६ ।। 

धर्मराजप्रियान्वेषी हत्वा योधान्‌ वरान्‌ वरान्‌ । 

शूरश्चैव कृतास्त्रश्न फाल्गुनाभ्येति सात्यकि: ।। १७ ।। 


'फाल्गुन! यह शूरवीर एवं उत्तम अस्त्रोंका ज्ञाता सात्यकि धर्मराजके प्रिय तुम्हारे 
समाचार लेनेके लिये बड़े-बड़े योद्धाओंको मारकर यहाँ आ रहा है ।। १७ ।। 

कृत्वा सुदुष्करं कर्म सैन्यमध्ये महाबल: । 

तव दर्शनमन्विच्छन्‌ पाण्डवाभ्येति सात्यकि: ।। १८ ।। 

'पाण्डुनन्दन! महाबली सात्यकि कौरव-सेनाके भीतर अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके 
तुम्हें देखनेकी इच्छासे यहाँ आ रहा है ।। १८ ।। 

बहूनेकरथेनाजौ योधयित्वा महारथान्‌ | 

आचार्यप्रमुखान्‌ पार्थ प्रयात्येष स सात्यकि: ।। १९ ।। 

'पार्थ! युद्धस्थलमें द्रोणाचार्य आदि बहुत-से महारथियोंके साथ एकमात्र रथकी 
सहायतासे युद्ध करके यह सात्यकि इधर आ रहा है ।। १९ |। 

स्वबाहुबलमाश्रित्य विदार्य च वरूथिनीम्‌ । 

प्रेषितो धर्मराजेन पार्थैषो5भ्येति सात्यकि: ।। २० || 

“कुन्तीकुमार! अपने बाहुबलका आश्रय ले कौरव-सेनाको विदीर्ण करके धर्मराजका 
भेजा हुआ यह सात्यकि यहाँ आ रहा है || २० ।। 

यस्य नास्ति समो योध: कौरवेषु कथंचन । 

सो<5यमायाति कौन्तेय सात्यकिर्युद्धदुर्मद: ॥। २१ ।। 

“कुन्तीनन्दन! कौरव-सेनामें किसी प्रकार भी जिसकी समता करनेवाला एक भी योद्धा 
नहीं है, वही यह रणदुर्मद सात्यकि यहाँ आ रहा है ।। २१ ।। 

कुरुसैन्याद्‌ विमुक्तो वै सिंहो मध्याद्‌ गवामिव । 

निहत्य बहुला: सेना: पार्थषो5भ्येति सात्यकि: ।। २२ ।। 

'पार्थ! जैसे सिंह गायोंके बीचसे अनायास ही निकल जाता है, उसी प्रकार कौरव- 
सेनाके घेरेसे छूटकर निकला हुआ यह सात्यकि बहुत-सी शत्रु-सेनाओंका संहार करके इधर 
आ रहा है ॥। २२ ।। 

एष राजसहस्राणां वक्त्रै: पड़कजसंनिभै: । 

आस्तीर्य वसुधां पार्थ क्षिप्रमायाति सात्यकि: ।। २३ ।। 

'कुन्तीनन्दर! यह सात्यकि सहस्रों राजाओंके कमलसदृश मस्तकोंद्वारा इस 
रणभूमिको पाटकर शीघ्रतापूर्वक इधर आ रहा है ॥। २३ ।। 

एष दुर्योधन जित्वा भ्रातृभि: सहितं रणे । 

निहत्य जलसंध॑ च क्षिप्रमायाति सात्यकि: ।। २४ ।। 

“यह सात्यकि रणभूमिमें भाइयोंसहित दुर्योधनको जीतकर और जलसंधका वध करके 
शीघ्र यहाँ आ रहा है || २४ ।। 

रुधिरौघवतीं कृत्वा नदीं शोणितकर्दमाम्‌ | 

तृणवद्‌ व्यस्य कौरव्यानेष हवायाति सात्यकि: ।॥। २५ ।। 


“शोणित और मांसरूपी कीचड़से युक्त खूनकी नदी बहाकर और कौरव-सैनिकोंको 
तिनकोंके समान उड़ाकर यह सात्यकि इधर आ रहा है” | २५ || 

ततः प्रहृष्ट: कौन्तेय: केशवं वाक्यमतब्रवीत्‌ । 

न मे प्रियं महाबाहो यन्मामभ्येति सात्यकि: | २६ ।। 

तब हर्षमें भरे हुए कुन्तीकुमार अर्जुनने केशवसे कहा--“महाबाहो! सात्यकि जो मेरे 
पास आ रहे हैं, यह मुझे प्रिय नहीं है ।। २६ ।। 

न हि जानामि वृत्तान्तं धर्मराजस्य केशव । 

सात्वतेन विहीन: स यदि जीवति वा न वा ॥। २७ || 

“केशव! पता नहीं, धर्मराजका क्या हाल है? सात्यकिसे रहित होकर वे जीवित हैं या 
नहीं? || २७ ।। 

एतेन हि महाबाहो रक्षितव्य: स पार्थिव: । 

तमेष कथमुत्सूज्य मम कृष्ण पदानुग: ।। २८ ।। 

“महाबाहो! सात्यकिको तो उन्हींकी रक्षा करनी चाहिये थी। श्रीकृष्ण! उन्हें छोड़कर ये 
मेरे पीछे कैसे चले आये? ।। २८ ।॥। 

राजा द्रोणाय चोत्सृष्ट: सैन्धवश्चानिपातित: । 

प्रत्युध्याति च शैनेयमेष भूरिश्रवा रणे | २९ ।। 

“इन्होंने राजा युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यके लिये छोड़ दिया और सिन्धुराज जयद्रथ भी 
अभी मारा नहीं गया। इसके सिवा ये भूरिश्रवा रणमें शिनिपौत्र सात्यकिकी ओर अग्रसर हो 
रहे हैं || २९ ।। 

सो<यं गुरुतरो भार: सैन्धवार्थे समाहित: । 

ज्ञातव्यक्ष हि मे राजा रक्षितव्यश्ष॒ सात्यकि: ।। ३० ।। 

“इस समय सिन्धुराज जयद्रथके कारण यह मुझपर बहुत बड़ा भार आ गया। एक तो 
मुझे राजाका कुशल-समाचार जानना है, दूसरे सात्यकिकी भी रक्षा करनी है || ३० ।। 

जयद्रथश्न हन्तव्यो लम्बते च दिवाकर: । 

श्रान्तश्नैष महाबाहुरल्पप्राणश्न साम्प्रतम्‌ ।। ३१ ।। 

परिश्रान्ता हयाश्वास्य हययन्ता च माधव । 

न च भूरिश्रवा: श्रान्त: ससहायश्व केशव ।। ३२ ।। 

“इसके सिवा जयद्रथका भी वध करना है। इधर सूर्यदेव अस्ताचलपर जा रहे हैं। 
माधव! ये महाबाहु सात्यकि इस समय थककर अल्पप्राण हो रहे हैं। इनके घोड़े और 
सारथि भी थक गये हैं। किंतु केशव! भूरिश्रवा और उनके सहायक थके नहीं 
हैं || ३१-३२ ।। 

अपीदानीं भवेदस्य क्षेममस्मिन्‌ समागमे । 

कच्चिन्न सागर तीर्त्वा सात्यकि: सत्यविक्रम: ।। ३३ ।। 


गोष्पदं प्राप्प सीदेत महौजा: शिनिपुड्भव: । 

“क्या इन दोनोंके इस संघर्षमें इस समय सात्यकि सकुशल विजयी हो सकेंगे? कहीं 
ऐसा तो नहीं होगा कि सत्यपराक्रमी शिनिप्रवर महाबली सात्यकि समुद्रको पार करके 
गायकी खुरीके बराबर जलमें डूबने लगे || ३३ $ || 

अपि कौरवमुख्येन कृतास्त्रेण महात्मना ।। ३४ ।। 

समेत्य भूरिश्रवसा स्वस्तिमान्‌ सात्यकिर्भवेत्‌ । 

“कौरवकुलके मुख्य वीर अस्त्रवेत्ता महामना भूरिश्रवासे भिड़कर क्‍या सात्यकि 
सकुशल रह सकेंगे ।। ३३ $ ।। 

व्यतिक्रममिमं मन्ये धर्मराजस्य केशव ।। ३५ ।। 

आचार्याद्‌ भयमुत्सृज्य यः प्रैषयत्‌ सात्यकिम्‌ । 

“केशव! मैं तो धर्मराजके इस कार्यको विपरीत समझता हूँ, जिन्होंने द्रोणाचार्यका भय 
छोड़कर सात्यकिको इधर भेज दिया || ३५३ ।। 

ग्रहणं धर्मराजस्य खग: श्येन इवामिषम्‌ ।। ३६ ।। 

नित्यमाशंसते द्रोण: कच्चित्‌ स्थात्‌ कुशली नृप: ।। ३७ ।। 

'जैसे बाजपक्षी मांसपर झपट्टा मारता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य प्रतिदिन धर्मराजको 
बंदी बनाना चाहते हैं। क्या राजा युधिष्ठिर सकुशल होंगे?” ।। ३६-३७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यक्यर्जुनदर्शने 
एकचत्वारिंशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १४१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकि और अजुनिका 
परस्पर साक्षात्कारविषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४१ ॥ 


ऑपनआक्रात बछ। >> आर: 2 


द्विचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


भूरिश्रवा और सात्यकिका कक वक सम्भाषण और युद्ध 
तथा सात्यकिका सिर काटनेके लिये उद्यत हुए भूरिश्रवाकी 
भुजाका अर्जुनद्वारा उच्छेद 


संजय उवाच 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं युद्धदुर्मदम्‌ । 

क्रोधाद्‌ भूरिश्रवा राजन्‌ सहसा समुपाद्रवत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! रणदुर्मद सात्यकिको आते देख भूरिश्रवाने क्रोधपूर्वक 
सहसा उनपर आक्रमण किया ।। १ ।। 

तमब्रवीन्महाराज कौरव्य: शिनिपुड्गवम्‌ | 

अद्य प्राप्तोडसि दिष्ट्या मे चक्षुरविषयमित्युत ।। २ ।। 

चिराभिलषितं काममहं प्राप्स्यामि संयुगे । 

न हि मे मोक्ष्यसे जीवन्‌ यदि नोत्सूजसे रणम्‌ ।। ३ ।। 

महाराज! कुरुनन्दन भूरिश्रवाने उस समय शिनिप्रवर सात्यकिसे इस प्रकार कहा 
--'युयुधान! बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने आ गये। आज 
युद्धमें मैं अपनी बहुत दिनोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। यदि तुम मैदान छोड़कर भाग नहीं गये 
तो आज मेरे हाथसे जीवित नहीं बचोगे ।। २-३ ।। 

अद्य त्वां समरे हत्वा नित्यं शूराभिमानिनम्‌ | 

नन्दयिष्यामि दाशार्ह कुरुराजं॑ सुयोधनम्‌ ।। ४ ।। 

“दाशाई! तुम सदा अपनेको बड़ा शूरवीर मानते हो। आज मैं समरभूमिमें तुम्हारा वध 
करके कुरुराज दुर्योधनको आनन्दित करूँगा ।। ४ ।। 

अद्य मद्वाणनिर्दग्ध॑ पतितं धरणीतले । 

द्रक्ष्यतस्त्वां रणे वीरी सहितौ केशवार्जुनौ ।। ५ ।। 

“आज युद्धमें वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों एक साथ तुम्हें मेरे बाणोंसे दग्ध होकर 
पृथ्वीपर पड़ा हुआ देखेंगे ।। ५ ।। 

अद्य धर्मसुतो राजा श्रुत्वा त्वां निहतं मया । 

सव्रीडो भविता सद्यो येनासीह प्रवेशित: ।। ६ ।। 

“आज जिन्होंने इस सेनाके भीतर तुम्हारा प्रवेश कराया है, वे धर्मपुत्र राजा युधिष्छिर 
मेरे द्वारा तुम्हारे मारे जानेका समाचार सुनकर तत्काल लज्जित हो जायाँगे ।। 

अद्य मे विक्रमं पार्थो विज्ञास्यति धनंजय: । 


त्वयि भूमौ विनिहते शयाने रुधिरोक्षिते ॥। ७ ।। 

“आज जब तुम मारे जाकर खूनसे लथपथ हो धरतीपर सो जाओगे, उस समय 
कुन्तीपुत्र अर्जुन मेरे पराक्रमको अच्छी तरह जान लेंगे || ७ ।। 

चिराभिलषितो होष त्वया सह समागम: । 

पुरा देवासुरे युद्धे शक्रस्य बलिना यथा ।। ८ ।। 

जैसे पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें इन्द्रका राजा बलिके साथ युद्ध हुआ था, उसी प्रकार 
तुम्हारे साथ मेरा युद्ध हो, यह मेरी बहुत दिनोंकी अभिलाषा थी ।। ८ ।। 

अद्य युद्ध महाघोरं तव दास्यामि सात्वत । 

ततो ज्ञास्यसि तत्त्वेन मद्वीर्यबलपौरुषम्‌ ।। ९ ।। 

'सात्वत! आज मैं तुम्हें अत्यन्त घोर संग्रामका अवसर दूँगा। इससे तुम मेरे बल, वीर्य 
और पुरुषार्थका यथार्थ परिचय प्राप्त करोगे ।। ९ ।। 

अद्य संयमनीं याता मया त्वं निहतो रणे । 

यथा रामानुजेनाजौ रावणिर्लक्ष्मणेन ह ।। १० ।। 

'जैसे पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजीके भाई लक्ष्मणके द्वारा युद्धमें रावणकुमार इन्द्रजित्‌ 
मारा गया था, उसी प्रकार इस रणभूमिमें मेरे द्वारा मारे जाकर तुम आज ही यमराजकी 
संयमनीपुरीकी ओर प्रस्थान करोगे ।। १० ।। 

अद्य कृष्णश्ष पार्थश्व॒ धर्मराजश्न माधव । 

हते त्वयि निरुत्साहा रण त्यक्ष्यन्त्यसंशयम्‌ ।। ११ ।। 

“माधव! आज तुम्हारे मारे जानेपर श्रीकृष्ण, अर्जुन और धर्मराज युधिष्ठिर उत्साहशून्य 
हो युद्ध बंद कर देंगे, इसमें संशय नहीं है ।। ११ ।। 

अद्य ते5पचितिं कृत्वा शितैर्माधव सायकै: । 

तत्स्त्रियो नन्दयिष्यामि ये त्वया निहता रणे ।। १२ ।। 

“मधुकुलनन्दन! आज तीखे बाणोंसे तुम्हारी पूजा करके मैं उन वीरोंकी स्त्रियोंको 
आनन्दित करूँगा, जिन्हें रणभूमिमें तुमने मार डाला है ।। १२ ।। 

मच्चक्षुविंषयं प्राप्तो न त्वं माधव मोक्ष्यसे । 

सिंहस्य विषयं प्राप्तो यथा क्षुद्रमृगस्तथा ।। १३ ।। 

“माधव! जैसे कोई क्षुद्र मृग सिंहकी दृष्टिमें पड़कर जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार 
मेरी आँखोंके सामने आकर अब तुम जीवित नहीं छूट सकोगे' || १३ ।। 

युयुधानस्तु तं राजन प्रत्युवाच हसन्निव । 

कौरवेय न संत्रासो विद्यते मम संयुगे ।। १४ ।। 

राजन! युयुधानने भूरिश्रवाकी यह बात सुनकर हँसते हुए-से यह उत्तर दिया 
--“कुरुनन्दन! युद्धमें मुझे कभी किसीसे भय नहीं होता है ।। १४ ।। 

नाहं भीषयितुं शक्‍्यो वाड्मात्रेण तु केवलम्‌ । 


स मां निहन्यात्‌ संग्रामे यो मां कुर्यान्निरायुधम्‌ ।। १५ ।। 

“मुझे केवल बातें बनाकर नहीं डराया जा सकता। संग्राममें जो मुझे शस्त्रहीन कर दे, 
वही मेरा वध कर सकता है ।। १५ ।। 

समास्तु शाश्चतीह्न्याद्‌ यो मां हन्याद्धि संयुगे । 

किं वृथोक्तेन बहुना कर्मणा तत्‌ समाचर ।। १६ ।। 

'जो युद्धमें मुझे मार सकता है, वह सदा सर्वत्र अपने शत्रुओंका वध कर सकता है। 
अस्तु, व्यर्थ ही बहुत-सी बातें बनानेसे क्या लाभ? तुमने जो कुछ कहा है, उसे करके 
दिखाओ ।। १६ ।। 

शारदस्येव मेघस्य गर्जितं निष्फलं हि ते । 

श्र॒त्वा त्वदगर्जितं वीर हास्यं हि मम जायते ।। १७ ।। 

“शरत्कालके मेघके समान तुम्हारे इस गर्जन-तर्जनका कुछ फल नहीं है। वीर! तुम्हारी 
यह गर्जना सुनकर मुझे हँसी आती है ।। १७ ।। 

चिरकालेप्सितं लोके युद्धमद्यास्तु कौरव । 

त्वरते मे मतिस्तात तव युद्धाभिकाड्क्षिणी ।। १८ ।। 

नाहत्वाहं निवर्तिष्ये त्वामद्य पुरुषाधम । 

“कौरव! इस लोकमें मेरी भी तुम्हारे साथ युद्ध करनेकी बहुत दिनोंसे अभिलाषा थी। 
वह आज पूरी हो जाय। तात! तुमसे युद्धकी अभिलाषा रखनेवाली मेरी बुद्धि मुझे जल्दी 
करनेके लिये प्रेरणा दे रही है। पुरुषाधम! आज तुम्हारा वध किये बिना मैं पीछे नहीं 
हटूँगा' ।। १८३ ।। 

अन्योन्यं तौ तथा वाग्भिस्तक्षन्तौ नरपुड़वी ।। १९ ।। 

जिघांसू परमक्रुद्धावभिजध्नतुराहवे । 

इस प्रकार एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छावाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर परस्पर 
वाग्बाणोंका प्रहार करते हुए उस युद्धस्थलमें अत्यन्त कुपित हो बाणोंद्वारा आघात करने 
लगे ।। १९६ ।। 

समेतौ तौ महेष्वासौ शुष्मिणौ स्पर्थिनौ रणे ।। २० ।। 

द्विरदाविव संक़ुद्धौ वासितार्थे मदोत्कटौ । 

वे दोनों महाधनुर्धर और पराक्रमी वीर उस रणक्षेत्रमें एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए 
हथिनीके लिये अत्यन्त कुपित होकर परस्पर युद्ध करनेवाले दो मदोन्मत्त हाथियोंकी तरह 
एक-दूसरेसे भिड़ गये | २० ३ ।। 

भूरिश्रवा: सात्यकिश्न ववर्षतुररिंदमौ || २१ ।। 

शरवर्षाणि घोराणि मेघाविव परस्परम्‌ | 

भूरिश्रवा और सात्यकि दोनों शत्रुदमन वीरोंने दो मेघोंकी भाँति परस्पर भयंकर बाण- 
वर्षा प्रारम्भ कर दी || २१६ ।। 


सौमदत्तिस्तु शैनेयं प्रच्छाद्येषुभिराशुगै: ।। २२ ।। 

जिधघांसुर्भरतश्रेष्ठ विव्याध निशितै: शरै: । 

भरतश्रेष्ठ! सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवाने शिनिप्रवर सात्यकिको मार डालनेकी इच्छासे 
शीघ्रगामी बाणोंद्वारा आच्छादित करके तीखे बाणोंसे घायल कर दिया || २२३६ ।। 

दशभि: सात्यकि विद्ध्वा सौमदत्तिरथापरान्‌ ।। २३ ।। 

मुमोच निशितान्‌ बाणान्‌ जिधघांसु: शिनिपुड्भवम्‌ । 

शिनिवंशके प्रधान वीर सात्यकिके वधकी इच्छासे भूरिश्रवाने उन्हें दस बाणोंसे घायल 
करके उनपर और भी बहुत-से पैने बाण छोड़े || २३६ ।। 

तानस्य विशिखांस्तीक्ष्णानन्तरिक्षे विशाम्पते || २४ ।। 

अप्राप्तानस्त्रमायाभिरग्रसत्‌ सात्यकि: प्रभो । 

प्रजानाथ! प्रभो! सात्यकिने भूरिश्रवाके उन तीखे बाणोंको अपने पास आनेके पूर्व ही 
अपने अस्त्र-बलसे आकाश्में ही नष्ट कर दिये || २४३ ।। 

तौ पृथक्‌ शस्त्रवर्षाभ्यामवर्षेतां परस्परम्‌ ।। २५ ।। 

उत्तमाभिजनीौ वीरौ कुरुवृष्णियशस्करौ । 

वे दोनों वीर उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए थे। एक कुरुकुलकी कीर्तिका विस्तार कर रहा था 
तो दूसरा वृष्णिवंशका यश बढ़ा रहा था। उन दोनोंने एक-दूसरेपर पृथक्‌-पृथक्‌ अस्त्र- 
शस्त्रोंकी वर्षा की || २५३ ।। 

तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ ।। २६ ।। 

रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्लवाप्पकृन्तताम्‌ । 

जैसे दो सिंह नखोंसे और दो बड़े-बड़े गजराज दाँतोंसे परस्पर प्रहार करते हैं, उसी 
प्रकार वे दोनों वीर रथ-शक्तियों तथा बाणोंद्वारा एक-दूसरेको क्षत-विक्षत करने लगे || २६ 
ई | 

निर्भिन्दन्तौ हि गात्राणि विक्षरन्ती च शोणितम्‌ ।। २७ ।। 

व्यष्टम्भयेतामन्योन्यं प्राणद्यूताभिदेविनौ । 

प्राणोंकी बाजी लगाकर युद्धका जूआ खेलनेवाले वे दोनों वीर एक-दूसरेके अंगोंको 
विदीर्ण करते और खून बहाते हुए एक-दूसरेको रोकने लगे ।। २७६ ।। 

एवमुत्तमकर्माणौ कुरुवृष्णियशस्करौ ।। २८ ।। 

परस्परमयुध्येतां वारणाविव यूथपौ । 

कुरुकुल तथा वृष्णिवंशके यशके विस्तार करनेवाले उत्तमकर्मा भूरिश्रवा और सात्यकि 
इस प्रकार दो यूथपति गजराजोंके समान परस्पर युद्ध करने लगे ।। २८३६ ।। 

तावदीर्घेण कालेन ब्रह्मलोकपुरस्कृतो ।। २९ ।। 

यियासन्तौ परं स्थानमन्योन्यं संजगर्जतु: । 


ब्रह्मतोकको सामने रखकर परमपद प्राप्त करनेकी इच्छावाले वे दोनों वीर कुछ 
कालतक एक-दूसरेकी ओर देखकर गर्जन-तर्जन करते रहे || २९६ ।। 

सात्यकि: सौमदत्तिश्व शरवृष्ट्या परस्परम्‌ ।। ३० ।। 

हृष्टवद्‌ धार्तराष्ट्राणां पश्यताम भ्यवर्षताम्‌ | 

सात्यकि और भूरिश्रवा दोनों परस्पर बाणोंकी बौछार कर रहे थे और धृतराष्ट्रके सभी 
पुत्र हर्षमें भरकर उनके युद्धका दृश्य देख रहे थे || ३० ६ ।। 

सम्प्रैक्षन्त जनास्तौ तु युध्यमानौ युधाम्पती ।। ३१ ।। 

यूथपौ वासिताहेतो: प्रयुद्धाविव कुड्जरौ । 

जैसे हथिनीके लिये दो यूथपति गजराज परस्पर घोर युद्ध करते हैं, उसी प्रकार 
आपसमें लड़नेवाले उन योद्धाओंके अधिपतियोंको सब लोग दर्शक बनकर देखने 
लगे ३१३ || 

अन्योन्यस्य हयान्‌ हत्वा धनुषी विनिकृत्य च ॥। ३२ ।। 

विरथावसियुद्धाय समेयातां महारणे । 

दोनोंने दोनोंके घोड़े मारकर धनुष काट दिये तथा उस महासमरमें दोनों ही रथहीन 
होकर खड्ग-युद्धके लिये एक-दूसरेके सामने आ गये || ३२३ ।। 

आर्षभे चर्मणी चित्रे प्रगृह् विपुले शुभे ।। ३३ ।। 

विकोशौ चाप्यसी कृत्वा समरे तौ विचेरतु: । 

बैलके चमड़ेसे बनी हुई दो विचित्र, सुन्दर एवं विशाल ढालें लेकर और तलवारोंको 
म्यानसे बाहर निकालकर वे दोनों समरांगणमें विचरने लगे || ३३ ६ |। 

चरन्तौ विविधान्‌ मार्गान्‌ मण्डलानि च भागश: ।। ३४ ।। 

मुहुराजघ्नतुः क्रुद्धावन्योन्यमरिमर्दनौ । 

सखड्गौ चित्रवर्माणौ सनिष्काड्रदभूषणौ ।। ३५ ।। 

क्रोधमें भरे हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर पृथक्‌-पृथक्‌ नाना प्रकारके मार्ग और मण्डल 
(पैंतरे और दाँव-पेंच) दिखाते हुए एक-दूसरेपर बारंबार चोट करने लगे। उनके हाथोंमें 
तलवारें चमक रही थीं। उन दोनोंके ही कवच विचित्र थे तथा वे निष्क और अंगद आदि 
आभूषणोंसे विभूषित थे ।। ३४-३५ ।। 

भ्रान्तमुद्भ्रान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम्‌ । 

सम्पातं समुदीर्ण च दर्शयन्तौ यशस्विनौ ।। ३६ ।। 

असिशभ्यां सम्प्रजह्गवाते परस्परमरिंदमौ । 

शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों यशस्वी वीर भ्रान्त, उद्धान्त, आविद्ध, आप्लुत, 
विप्लुत, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि गति और पैंतरे दिखाते हुए परस्पर तलवारोंका 
वार करने लगे || ३६६ ।। 


उभौ छिद्रेषिणौ वीरावुभौ चित्र ववल्गतु: ।॥ ३७ ।। 

दर्शयन्तायुभौ शिक्षां लाघवं सौष्ठवं तथा । 

रणे रणकृतां श्रेष्ठावन्योन्यं पर्यकर्षताम्‌ ।। ३८ ।। 

दोनों ही वीर एक-दूसरेके छिद्र (प्रहार करनेके अवसर) पानेकी इच्छा रखते हुए 
विचित्र रीतिसे उछलते-कूदते थे। दोनों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती तथा युद्ध-कौशल दिखाते 
हुए रणभूमिमें एक-दूसरेको खींच रहे थे। वे दोनों ही योद्धाओंमें श्रेष्ठ थे ।। ३७-३८ ।। 

मुहूर्तमिव राजेन्द्र समाहत्य परस्परम्‌ । 

पश्यतां सर्वसैन्यानां वीरावाश्वसतां पुन: ।। ३९ ।। 

असिशभ्यां चर्मणी चित्रे शतचन्द्रे नराधिप । 

निकृत्य पुरुषव्याप्रौ बाहुयुद्ध प्रचक्रतु: ।। ४० ।। 

राजेन्द्र! उस समय विश्राम करती हुई सम्पूर्ण सेनाओंके देखते-देखते लगभग दो 
घड़ीतक एक-दूसरेपर तलवारोंसे चोट करके दोनोंने दोनोंकी सौ चन्द्राकार चिह्लोंसे 
सुशोभित विचित्र ढालें काट डालीं। नरेश्वर! फिर वे दोनों पुरुषसिंह भुजाओंद्वारा मल्ल-युद्ध 
करने लगे || ३९-४० ।। 

व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ । 

बाहुभि: समसज्जेतामायसै: परिघैरिव ।। ४१ ।। 

दोनोंके वक्ष:स्थल चौड़े और भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्ल-युद्धमें कुशल थे 
और लोहेके परिघोंके समान सुदृढ़ भुजाओंद्वारा एक-दूसरेसे गुथ गये थे || ४१ ।। 

तयो राजन्‌ भुजाघातनिग्रहप्रग्रहास्तथा । 

शिक्षाबलसमुद्भूता: सर्वयोधप्रहर्षणा: ।। ४२ ।। 

राजन! उन दोनोंके भुजाओंद्वारा आघात, निग्रह (हाथ पकड़ना) और प्रग्रह (गलेमें 
हाथ लगाना) आदि दाँव उनकी शिक्षा और बलके अनुरूप प्रकट होकर समस्त योद्धाओंका 
हर्ष बढ़ा रहे थे || ४२ ।। 

तयोरनवरयो राजन्‌ समरे युध्यमानयो: । 

भीमो5भवन्महाशब्दो वज्रपर्वतयोरिव ।। ४३ ।। 

राजन्‌! समरभूमिमें जूझते हुए उन दोनों नरश्रेष्ठोंके पारस्परिक आघातसे प्रकट 
होनेवाला महान्‌ शब्द वज्र और पर्वतके टकरानेके समान भयंकर जान पड़ता था ।। 

द्विपाविव विषाणाग्रै: शुद्भरिव महर्षभौ । 

भुजयोक्त्रावबन्धैश्न शिरोभ्यां चावघातनै: ।। ४४ ।। 

पादावकर्षसंधानैस्तोमराड्कुशलासनै: । 

पादोदरविबन्धैश्व भूमावुद्भ्रमणैस्तथा || ४५ ।। 

गतप्रत्यागताक्षेपै: पातनोत्थानसम्प्लुतै: । 

युयुधाते महात्मानौ कुरुसात्वतपुड्वौ ।। ४६ ।। 


जैसे दो हाथी दाँतोंके अग्रभागसे तथा दो साँड़ सीगोंसे लड़ते हैं, उसी प्रकार वे दोनों 
वीर कभी भुजपाशोंसे बाँधकर, कभी सिरोंकी टक्कर लगाकर, कभी पैरोंसे खींचकर, कभी 
पैरमें पैर लपेटकर, कभी तोमर-प्रहारके समान ताल ठोंककर, कभी अंकुश गड़ानेके समान 
एक-दूसरेको नोचकर, कभी पादबन्ध, उदरबन्ध, उद्भ्रमणःर, गतः, प्रत्यागतः॑, आक्षेपर%ँ, 
पातनः, उत्थान और संप्लुत* आदि दावोंका प्रदर्शन करते हुए वे दोनों महामनस्वी कुरु 
और सात्वतवंशके प्रमुख वीर परस्पर युद्ध कर रहे थे || ४४--४६ ।। 

द्वात्रिंशत्करणानि स्युर्यानि युद्धानि भारत । 

तान्यदर्शयतां तत्र युध्यमानौ महाबलौ ।। ४७ ।। 

भारत! इस प्रकार वे दोनों महाबली वीर परस्पर जूझते हुए मल्ल-युद्धकी जो बत्तीस 
कलाएंँ हैं, उनका प्रदर्शन करने लगे ।। ४७ ।। 

क्षीणायुधे सात्वते युध्यमाने 

ततोअब्रवीदर्जुनं वासुदेव: । 
पश्यस्वैनं विरथं युध्यमानं 
रणे वरं सर्वधनुर्धराणाम्‌ ।। ४८ ।। 

तदनन्तर जब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो जानेपर सात्यकि युद्ध कर रहे थे, उस समय भगवान्‌ 
श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा--'पार्थ! रणमें समस्त धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ इस सात्यकिकी ओर 
देखो। यह रथहीन होकर युद्ध कर रहा है ।। 

(सीदन्तं सात्यकिं पश्य पार्थन परिरक्ष च ।।) 

प्रविष्टो भारतीं भित्त्वा तव पाण्डव पृष्ठत: । 

योधितश्न महावीर्य: सर्वेर्भारत भारतै: ।। ४९ ।। 

“कुन्तीनन्दन! देखो, सात्यकि शिथिल हो गया है। इसकी रक्षा करो। भारत! 
पाण्डुनन्दन! तुम्हारे पीछे-पीछे यह कौरव-सेनाका व्यूह भेदकर भीतर घुस आया है और 
भरतवंशके प्राय: सभी महापराक्रमी योद्धाओंके साथ युद्ध कर चुका है || ४९ ।। 

(धार्तराष्ट्रश्न ये मुख्या ये च मुख्या महारथा: । 

निहता वृष्णिवीरेण शतशो5थ सहस््रश: ।।) 

“दुर्योधनकी सेनामें जो मुख्य योद्धा और प्रधान महारथी थे, वे सैकड़ों और हजारोंकी 
संख्यामें इस वृष्णिवंशी वीरके हाथसे मारे गये हैं ।। 

परिश्रान्तं युधां श्रेष्ठ सम्प्राप्तो भूरिदक्षिण: । 

युद्धाकाड़क्षी समायान्तं नैतत्‌ सममिवार्जुन ।। ५० ।। 

“अर्जुन! यहाँ आता हुआ योद्धाओंमें श्रेष्ठ सात्यकि बहुत थक गया है, तो भी उनके 
साथ युद्ध करनेकी इच्छासे यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले भूरिश्रवा आये हैं। यह युद्ध 
समान योग्यताका नहीं है' || ५० ।। 


ततो भूरिश्रवा: क्रुद्धः सात्यकिं युद्धदुर्मद: । 

उद्यम्याभ्याहनद्‌ राजन्‌ मत्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। ५१ ।। 

राजन! इसी समय क्रोधमें भरे हुए रणदुर्मद भूरिश्रवाने उद्योग करके सात्यकिपर उसी 
प्रकार आघात किया, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदोन्मत्त हाथीपर चोट करता 
है ।। ५१ ।। 

रथस्थयोर्दयोर्युद्धे क्रुद्धयोर्योधमुख्ययो: । 

केशवार्जुनयो राजन्‌ समरे प्रेक्षमाणयो: ।। ५२ ।। 

नरेश्वर! समरांगणमें रथपर बैठे हुए क्रोधभरे योद्धाओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन वह 
युद्ध देख रहे थे || ५२ ।। 

अथ कृष्णो महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत । 

पश्य वृष्ण्यन्धकव्याप्र॑ं सौमदत्तिवशं गतम्‌ ।। ५३ ।। 

तब महाबाहु श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा--'पार्थ! देखो, वृष्णि और अंधकवंशका वह 
श्रेष्ठ वीर भूरिश्रवाके वशमें हो गया है || ५३ ।। 

परिश्रान्तं गतं भूमौ कृत्वा कर्म सुदुष्करम्‌ । 

तवान्तेवासिनं वीरं पालयार्जुन सात्यकिम्‌ ।। ५४ ।। 

“वह अत्यन्त दुष्कर कर्म करके परिश्रमसे चूर-चूर हो पृथ्वीपर गिर गया है। अर्जुन! 
वीर सात्यकि तुम्हारा ही शिष्य है। उसकी रक्षा करो ।। ५४ ।। 

न वशं यज्ञशीलस्य गच्छेदेष वरो<र्जुन । 

त्वत्कृते पुरुषव्याप्र तदाशु क्रियतां विभो ।। ५५ ।। 

'पुरुषसिंह अर्जुन! प्रभो! यह श्रेष्ठ वीर तुम्हारे लिये यज्ञशील भूरिश्रवाके अधीन न हो 
जाय, ऐसा शीघ्र प्रयत्न करो” ।। ५५ ।। 

अथाब्रवीद्धृष्टमना वासुदेवं॑ धनंजय: । 

पश्य वृष्णिप्रवीरेण क्रीडन्तं कुरुपुज्वम्‌ ।। ५६ ।। 

महाद्विपेनेव वने मत्तेन हरियूथपम्‌ | 

तब अर्जुनने प्रसन्नचित्त होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा--“भगवन्‌! देखिये, जैसे कोई 
सिंहोंका यूथपषति वनमें मतवाले महान्‌ गजके साथ क्रीडा करे, उसी प्रकार 
कुरुकुलशिरोमणि भूरिश्रवा वृष्णिवंशके प्रमुख वीर सात्यकिके साथ रणक्रीडा कर रहे 
हैं! || ५६६ || 

संजय उवाच 

इत्येवं भाषमाणे तु पाण्डवे वै धनंजये ।। ५७ ।। 

हाहाकारो महानासीत्‌ सैन्यानां भरतर्षभ । 

तदुद्यम्य महाबाहु: सात्यकिं न्यहनद्‌ भुवि ।। ५८ ।। 


संजय कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन अर्जुन इस प्रकार कह ही रहे थे कि 
सैनिकोंमें महान्‌ हाहाकार मच गया। महाबाहु भूरिश्रवाने सात्यकिको उठाकर धरतीपर 
पटक दिया || ५७-५८ || 

स सिंह इव मातजूं विकर्षन्‌ भूरिदक्षिण: । 

व्यरोचत कुरुश्रेष्ठ: सात्वतप्रवरं युधि ।। ५९ ।। 

जैसे सिंह किसी मतवाले हाथीको खींचता है, उसी प्रकार प्रचुर दक्षिणा देनेवाले 
कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा युद्धस्थलमें सात्वतवंशके प्रमुख वीर सात्यकिको घसीटते हुए बड़ी शोभा 
पा रहे थे | ५९ ।। 

अथ कोशाद्‌ विनिष्कृष्य खड्गं भूरिश्रवा रणे । 

मूर्थजेषु निजग्राह पदा चोरस्यताडयत्‌ ।। ६० ।। 

तदनन्तर भूरिश्रवाने रणभूमिमें तलवारको म्यानसे बाहर निकालकर सात्यकिकी 
चुटिया पकड़ ली और उनकी छातीमें लात मारी || ६० ।। 

ततोअस्य छेत्तुमारब्ध: शिर: कायात्‌ सकुण्डलम्‌ | 

तावत्क्षणात्‌ सात्वतो5ति शिर: सम्भ्रमयंस्त्वरन्‌ ।। ६१ ।। 

फिर उसने उनके कुण्डलमण्डित मस्तकको धड़से अलग कर देनेका उद्योग आरम्भ 
किया। उस समय सात्यकि भी बड़ी शीघ्रताके साथ अपने मस्तकको घुमाने लगे ।। ६१ ।। 

यथा चक्र तु कौलालो दण्डविद्धं तु भारत । 

सहैव भूरिश्रवसो बाहुना केशधारिणा ।। ६२ ।। 

भारत! जैसे कुम्हार छेदमें डंडा डालकर अपनी चाकको घुमाता है, उसी प्रकार केश 
पकड़े हुए भूरिश्रवाके बाँहके साथ ही सात्यकि अपने सिरको घुमाने लगे || ६२ ।। 

त॑ तथा परिकृष्यन्तं दृष्टवा सात्वतमाहवे । 

वासुदेवस्ततो राजन्‌ भूयो<र्जुनमभाषत ।। ६३ ।। 

राजन! इस प्रकार युद्धभूमिमें केश खींचे जानेके कारण सात्यकिको कष्ट पाते देख 
भगवान्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनसे पुनः इस प्रकार बोले-- ।। ६३ ।। 

पश्य वृष्ण्यन्धकव्याप्र॑ं सौमदत्तिवशं गतम्‌ | 

तव शिष्यं महाबाहो धनुष्यनवरं त्वया || ६४ ।। 

“महाबाहो! देखो, वृष्णि और अन्धकवंशका वह सिंह भूरिश्रवाके वशमें पड़ गया है। 
यह तुम्हारा शिष्य है और धर्नुर्विद्यामें तुमसे कम नहीं है ।। ६४ ।। 





असत्यो विक्रम: पार्थ यत्र भूरिश्रवा रणे । 

विशेषयति वार्ष्णेयं सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ ।। ६५ ।। 

'पार्थ! पराक्रम मिथ्या है, जिसका आश्रय लेनेपर भी वृष्णिवंशी सत्यपराक्रमी 
सात्यकिसे रणभूमिमें भूरिश्रवा बढ़ गये हैं! || ६५ ।। 

एवमुक्तो महाबाहुर्वासुदेवेन पाण्डव: । 

मनसा पूजयामास भूरिश्रवसमाहवे ।। ६६ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर पाण्डुपुत्र महाबाहु अर्जुनने मन-ही-मन युद्धस्थलमें 
भूरिश्रवाकी प्रशंसा की ।। 

विकर्षन्‌ सात्वतश्रेष्ठ क्रीडमान इवाहवे । 

संहर्षयति मां भूय: कुरूणां कीर्तिवर्धन: ।। ६७ ।। 

कुरुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले भूरिश्रवा इस युद्ध-स्थलमें सात्वतकुलके श्रेष्ठ वीर 
सात्यकिको घसीटते हुए खेल-सा कर रहे हैं और बारंबार मेरा हर्ष बढ़ा रहे हैं || ६७ ।। 

प्रवरं वृष्णिवीराणां यन्न हन्याद्धि सात्यकिम्‌ । 

महाद्विपमिवारण्ये मृगेन्द्र इव कर्षति ।। ६८ ।। 


जैसे सिंह वनमें किसी महान्‌ गजराजको खींचता है, उसी प्रकार ये भूरिश्रवा 
वृष्णिवंशके प्रमुख वीर सात्यकिको खींच रहे हैं, उसे मार नहीं रहे हैं || ६८ ।। 

एवं तु मनसा राजन्‌ पार्थ: सम्पूज्य कौरवम्‌ | 

वासुदेव॑ महाबाहुरर्जुन: प्रत्यभाषत ।। ६९ ।। 

राजन! इस प्रकार मन-ही-मन उस कुरुवंशी वीरकी प्रशंसा करके महाबाहु 
कुन्तीकुमार अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा-- ।। ६९ |। 

सैन्धवे सक्तदृष्टित्वान्नैनं पश्यामि माधवम्‌ । 

एतत्‌ त्वसुकरं कर्म यादवार्थे करोम्यहम्‌ ।। ७० ।। 

'प्रभो! मेरी दृष्टि सिन्धुराज जयद्रथपर लगी हुई थी। इसलिये मैं सात्यकिको नहीं देख 
रहा था; परंतु अब मैं इस यदुवंशी वीरकी रक्षाके लिये यह दुष्कर कर्म करता हूँ” ।। ७० ।। 

इत्युक्त्वा वचन कुर्वन्‌ वासुदेवस्य पाण्डव: । 

ततः क्षुरप्रं निशितं गाण्डीवे समयोजयत्‌ ।। ७१ ।। 

ऐसा कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आज्ञाका पालन करते हुए पाण्डुनन्दन अर्जुनने 
गाण्डीव धनुषपर एक तीखा क्षुरप्र रखा ।। ७१ ।। 

पार्थबाहुविसृष्ट: स महोल्केव नभश्ष्युता 

सखडूगं यज्ञशीलस्य साड्ुदं बाहुमच्छिनत्‌ | ७२ ।। 

अर्जुनकी भुजाओंसे छोड़े गये उस क्षुरप्रने आकाशसे गिरी हुई बहुत बड़ी उल्काके 
समान उन यज्ञशील भूरिश्रवाकी बाजूबंदविभूषित (दाहिनी) भुजाको खड्गसहित काट 
गिराया || ७२ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भूरिश्रवोबाहुच्छेदे 
द्विचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्या भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें भूरिश्रवाकी भुजाका 
उच्छेदविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १६ श्लोक मिलाकर कुल ७३ ३ “लोक हैं।) 


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३. पृथ्वीपर घुमाना। २. प्रतिद्वन्द्यीकी ओर बढ़ना। 3. पीछे लौटना। ४. पछाड़ना। ५. पृथ्वीपर पटकना। ६. उछलकर 
खड़ा होना। ७. पीठ लगाना। 


त्रिचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


भूरिश्रवाका अर्जुनको उपालम्भ देना, अर्जुनका उत्तर और 
आमरण अनशनके लिये बैठे हुए भूरिश्रवाका सात्यकिके 
द्वारा वध 


संजय उवाच 

स बाहुर्न्यपतद्‌ भूमौ सखड्ग: सशुभाज़द: । 

आदधज्जीवलोकस्य दुःखमद्भुतमुत्तम: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! भूरिश्रवाकी सुन्दर बाजूबंदसे विभूषित वह उत्तम बाँह 
समस्त प्राणियोंके मनमें अद्भुत दुःखका संचार करती हुई खड्गसहित कटकर पृथ्वीपर गिर 
पड़ी | १ ।। 

प्रहरिष्यन्‌ हृतो बाहुरदृश्येन किरीटिना । 

वेगेन न्‍न्यपतद्‌ भूमौ पठ्चास्य इव पन्नग: ॥। २ ।। 

प्रहार करनेके लिये उद्यत हुई वह भुजा अलक्ष्य अर्जुनके बाणसे कटकर पाँच मुखवाले 
सर्पकी भाँति बड़े वेगसे पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। २ ।। 

स मोघं कृतमात्मानं दृष्टवा पार्थेन कौरव: । 

उत्सृज्य सात्यकिं क्रोधाद्‌ गर्हयामास पाण्डवम्‌ ।। ३ ।। 

कुन्तीकुमार अर्जुनके द्वारा अपनेको असफल किया हुआ देख कुरुवंशी भूरिश्रवाने 
कुपित हो सात्यकिको छोड़कर पाण्डुनन्दन अर्जुनकी निन्दा करते हुए कहा ।। ३ ।। 

(स विबाहुर्महाराज एकपक्ष इवाण्डज: । 

एकचक्रो रथो यद्धद्‌ धरणीमास्थितो नृपः । 

उवाच पाण्डवं चैव सर्वक्षत्रस्थ शृण्वतः ।।) 

महाराज! वे राजा भूरिश्रवा एक बाँहसे रहित हो एक पाँखके पक्षी और एक पहियेके 
रथकी भाँति पृथ्वीपर खड़े हो सम्पूर्ण क्षत्रियोंके सुनते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुनसे बोले। 

भूरिश्रवा उवाच 

नृशंसं बत कौन्तेय कर्मेदे कृतवानसि । 

अपश्यतो विषक्तस्य यन्मे बाहुमचिच्छिद: ।। ४ ।। 

भूरिश्रवा बोले--कुन्तीकुमार! तुमने यह बड़ा कठोर कर्म किया है; क्‍योंकि मैं तुम्हें 
देख नहीं रहा था और दूसरेसे युद्ध करनेमें लगा हुआ था, उस दशामें तुमने मेरी बाँह काट 
दी है । ४ ।। 

कि नु वक्ष्यसि राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 


कि कुर्वाणो मया संख्ये हतो भूरिश्रवा रणे ।। ५ ।। 

तुम धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरसे क्या कहोगे? यही न कि “भूरिश्रवा किसी और कार्यमें लगे 
थे और मैंने उसी दशामें उन्हें युद्धमें मार डाला है” || ५ ।। 

इदमिन्द्रेण ते साक्षादुपदिष्टं महात्मना । 

अस्त्रं रुद्रेण वा पार्थ द्रोणेनाथ कृपेण वा ।। ६ ।। 

पार्थ! इस अस्त्र-विद्याका उपदेश तुम्हें साक्षात्‌ महात्मा इन्द्रने दिया है, या रुद्र, द्रोण 
अथवा कृपाचार्यने? ।। ६ |। 

ननु नामास्त्रधर्मज्ञस्त्वं लोके5 भ्यधिक: परै: । 

सोथ्युध्यमानस्य कथं रणे प्रहृतवानसि ।। ७ ।। 

तुम तो इस लोकमें दूसरोंसे अधिक अस्त्र-धर्मके ज्ञाता हो, फिर जो तुम्हारे साथ युद्ध 
नहीं कर रहा था, उसपर संग्राममें तुमने कैसे प्रहार किया? ।। ७ ।। 

न प्रमत्ताय भीताय विरथाय प्रयाचते । 

व्यसने वर्तमानाय प्रहरन्ति मनस्विन: ।। ८ ।। 

मनस्वी पुरुष असावधान, डरे हुए, रथहीन, प्राणों-की भिक्षा माँगनेवाले तथा संकटमें 
पड़े हुए मनुष्यपर प्रहार नहीं करते हैं ।। ८ ।। 

इदं तु नीचाचरितमसत्पुरुषसेवितम्‌ | 

कथमाचरितं पार्थ पापकर्म सुदुष्करम्‌ ।। ९ ।। 

पार्थ! यह नीच पुरुषोंद्वारा आचरित और दुष्ट पुरुषोंद्वारा सेवित अत्यन्त दुष्कर 
पापकर्म तुमने कैसे किया? ।। ९ ।। 

आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्म धनंजय । 

अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि ।। १० ।। 

धनंजय! श्रेष्ठ पुरुषके लिये श्रेष्ठ कर्म ही सुकर बताया गया है। नीच कर्मका आचरण 
तो इस पृथ्वीपर उसके लिये अत्यन्त दुष्कर माना गया है || १० ।। 

येषु येषु नरव्यात्र यत्र यत्र च वर्तते । 

आशु तच्छीलतामेति तदिदं त्वयि दृश्यते || ११ ।। 

नरव्याप्र! मनुष्य जहाँ-जहाँ जिन-जिन लोगोंके समीप रहता है, उसमें शीघ्र ही उन 
लोगोंका शीलस्वभाव आ जाता है; यही बात तुममें भी देखी जाती है || ११ ।। 

कथं हि राजवंश्यस्त्वं कौरवेयो विशेषत: । 

क्षत्रधर्मादपक्रान्त: सुवृत्तश्नरितव्रत: ।। १२ ।। 

अन्यथा राजाके वंशज और विशेषत: कुरुकुलमें उत्पन्न होकर भी तुम क्षत्रिय-धर्मसे 
कैसे गिर जाते? तुम्हारा शील-स्वभाव तो बहुत उत्तम था और तुमने श्रेष्ठ व्रतोंका पालन भी 
किया था ।। १२ ।। 

इदं तु यदत्तिक्षुद्रं वार्ष्णेयार्थे कृतं त्वया । 


वासुदेवमतं नूनं नैतत्‌ त्वय्युपपद्यते ।। १३ ।। 

तुमने सात्यकिको बचानेके लिये जो यह अत्यन्त नीच कर्म किया है, यह निश्चय ही 
वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका मत है, तुममें यह नीच विचार सम्भव नहीं है ।। १३ ।। 

को हि नाम प्रमत्ताय परेण सह युध्यते । 

ईदृशं व्यसन दद्यादू यो न कृष्णसखो भवेत्‌ ॥। १४ ।। 

कौन ऐसा मनुष्य है, जो दूसरेके साथ युद्ध करनेवाले असावधान योद्धाको ऐसा संकट 
प्रदान कर सकता है। जो श्रीकृष्णका मित्र न हो, उससे ऐसा कर्म नहीं बन सकता ।। १४ ।। 

व्रात्या: संक्लिष्टकर्माण: प्रकृत्यैव च गर्लहिता: । 

वृष्ण्यन्धका: कथं पार्थ प्रमाणं भवता कृता: ।। १५ ।। 

कुन्तीनन्दन! वृष्णि और अन्धकवंशके लोग तो संस्कारभ्रष्ट हिंसा-प्रधान कर्म 
करनेवाले और स्वभावसे ही निन्दित हैं। फिर उनको तुमने प्रमाण कैसे मान 
लिया? ।। १५ ।। 

एवमुक्तो रणे पार्थों भूरिश्रवसमब्रवीत्‌ | 

रणभूमिमें भूरिश्रवाके ऐसा कहनेपर अर्जुनने उससे कहा || १५३ ।। 

अर्जुन उवाच 

व्यक्त हि जीर्यमाणो<5पि बुद्धि जरयते नर: ।। १६ ।। 

अनर्थकमिदं सर्व यत्‌ त्वया व्यादह्वतं प्रभो । 

जानन्नेव हषीकेशं गर्हसे मां च पाण्डवम्‌ ।। १७ ।। 

अर्जुन बोले--प्रभो! यह स्पष्ट है कि मनुष्यके बूढ़े होनेके साथ-साथ उसकी बुद्धि भी 
बूढ़ी हो जाती है। तुमने इस समय जो कुछ कहा है, वह सब व्यर्थ है। तुम सम्पूर्ण इन्द्रियोंके 
नियन्ता भगवान्‌ श्रीकृष्णको और मुझ पाण्डुपुत्र अर्जुनको भी जानते हो, तो भी हमारी 
निन्‍्दा करते हो ।। १६-१७ ।। 

संग्रामाणां हि धर्मज्ञ: सर्वशास्त्रार्थपारग: । 

न चाधर्ममहं कुर्या जानंश्वैव हि मुहासे || १८ ।। 

मैं संग्रामके धर्मोंको जानता हूँ और सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंके अर्थज्ञानमें पारंगत हूँ। मैं 
किसी प्रकार अधर्म नहीं कर सकता; यह जानते हुए भी तुम मेरे विषयमें मोहित हो रहे 
हो ।। १८ ।। 

युध्यन्ति क्षत्रिया: शत्रून्‌ स्वै: स्वैः परिवृता नरा: । 

भ्रातृभि: पितृभि: पुत्रैस्तथा सम्बन्धिबान्धवै: ।। १९ ।। 

वयस्यैरथ मित्रैश्व ते च बाहुं समाश्रिता: । 


क्षत्रियलोग अपने-अपने भाई, पिता, पुत्र, सम्बन्धी, बन्धु-बान्धवों, समान अवस्थावाले 
साथी और मित्रोंसे घिरकर शत्रुओंके साथ युद्ध करते हैं। वे सब लोग उस प्रधान योद्धाके 
बाहुबलके अश्रित होते हैं ।। १९६ ।। 

स कथं सात्यकिं शिष्यं सुखसम्बन्धमेव च ।। २० ।। 

अस्मदर्थ च युध्यन्तं त्यक्त्वा प्राणान्‌ सुदुस्त्यजान्‌ । 

मम बाहुं रणे राजन्‌ दक्षिण युद्धदुर्मदम्‌ ।। २१ ।। 

(निकृष्यमाणं तं दृष्टवा कथं शत्रुवशं गतम्‌ । 

त्वया विकृष्यमाणं च दृष्टवानस्मि निष्क्रियम्‌ ।।) 

सात्यकि मेरा शिष्य और सुखप्रद सम्बन्धी है। वह मेरे ही लिये अपने दुस्त्यज प्राणोंका 
मोह छोड़कर युद्ध कर रहा है। राजन! रणदुर्मद सात्यकि युद्धस्थलमें मेरी दाहिनी भुजाके 
समान है। उसे तुम्हारे द्वारा कष्ट पाते देख मैं कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता था। मैंने देखा 
है तुम उसे घसीट रहे थे और वह शत्रुके अधीन होकर निश्चेष्ट हो गया था || २०-२१ ।। 

न चात्मा रक्षितव्यो वै राजन्‌ रणगतेन हि । 

यो यस्य युज्यते<र्थेषु स वै रक्ष्यो नराधिप ।। २२ ।। 

राजन! रणभूमिमें गये हुए वीरके लिये केवल अपनी ही रक्षा करना उचित नहीं है। 
नरेश्वर! जो जिसके कार्योमें संलग्न होता है, वह अवश्य ही उसके द्वारा रक्षणीय हुआ करता 
है || २२ ।। 

तै रक्ष्यममाणै: स नृपो रक्षितव्यो महामृधे । 

यद्यहं सात्यकिं पश्ये वध्यमानं महारणे ।। २३ ।। 

ततस्तस्य वियोगेन पाप॑ मेडनर्थतो भवेत्‌ | 

रक्षितश्न मया यस्मात्‌ तस्मात्‌ क्रुध्यसि कि मयि ।। २४ ।। 

इसी प्रकार उन सुरक्षित होनेवाले सुहृदोंका भी कर्तव्य है कि वे महासमरमें अपने 
राजाकी रक्षा करें। यदि मैं इस महायुद्धमें सात्यकिको अपने सामने मरते देखता तो उसके 
वियोगसे मुझे अनर्थकारी पाप लगता। इसीलिये मैंने उसकी रक्षा की है। अतः तुम मुझपर 
क्यों क्रोध करते हो? ।। २३-२४ ।। 

यच्च मे गर्हसे राजन्नन्येन सह संगतम्‌ | 

अहं त्वया विनिकृतस्तत्र मे बुद्धिविभ्रम: ।। २५ ।। 

राजन्‌! आप जो यह कहकर मेरी निन्दा कर रहे हैं कि “अर्जुन! मैं दूसरेके साथ युद्धमें 
लगा हुआ था, उस दशामें तुमने मेरे साथ छल किया” आपकी इस बातसे मेरी बुद्धिमें भ्रम 
पैदा हो गया है || २५ ।। 

कवचं धुन्वतस्तुभ्यं रथं चारोहत: स्वयम्‌ । 

धनुर्ज्या कर्षतश्चैव युध्यतः सह शत्रुभि: ।। २६ ।। 

एवं रथगजाकीर्णे हयपत्तिसमाकुले । 


सिंहनादोद्धतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे ।। २७ ।। 

स्वै: परैश्न समेतेभ्य: सात्वतेन च संगमे । 

एकस्यैकेन हि कथं संग्राम: सम्भविष्यति ।। २८ ।। 

तुम स्वयं कवच हिलाते हुए रथपर चढ़े थे, धनुषकी प्रत्यंचा खींचते थे और अपने 
बहुसंख्यक शत्रुओंके साथ युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार रथ, हाथी, घुड़सवार और पैदलोंसे 
भरे हुए सिंहनादकी भैरव गर्जनासे व्याप्त गम्भीर सैन्य-समुद्रमें जहाँ अपने और शत्रुपक्षके 
एकत्र हुए लोगोंका परस्पर युद्ध चल रहा था, तुम्हारी सात्यकिके साथ मुठभेड़ हुई थी। ऐसे 
तुमुल युद्धमें किसी भी एक योद्धाका एक ही योद्धाके साथ संग्राम कैसे माना जा सकता 
है? ।। २६--२८ ।। 

बहुभि: सह संगम्य निर्जित्य च महारथान्‌ | 

श्रान्तश्न श्रान्तवाहश्न विमना: शस्त्रपीडित: ।। २९ |। 

सात्यकि बहुत-से योद्धाओंके साथ युद्ध करके कितने ही महारथियोंको पराजित 
करनेके बाद थक गया था। उसके घोड़े भी परिश्रमसे चूर-चूर हो रहे थे और वह अस्त्र- 
शस्त्रोंसे पीड़ित हो खिन्नचित्त हो गया था ।। २९ ।। 

ईदृशं सात्यकिं संख्ये निर्जित्य च महारथम्‌ । 

अधिकत्वं विजानीषे स्ववीर्यवशमागतम्‌ ।। ३० ।। 

ऐसी अवस्थामें महारथी सात्यकिको युद्धमें जीतकर तुम यह समझने लगे कि मैं 
सात्यकिसे बड़ा वीर हूँ और वह मेरे पराक्रमसे वशमें आ गया है ।। ३० ।। 

यदिच्छसि शिरश्नलास्य असिना हन्तुमाहवे | 

तथा कृच्छूगतं चैव सात्यकिं क: क्षमिष्यति ।। ३१ ।। 

इसलिये तुम युद्धस्थलमें तलवारसे उसका सिर काट लेना चाहते थे। सात्यकिको वैसे 
संकटमें देखकर मेरे पक्षका कौन वीर सहन करेगा? ।। ३१ ।। 

त्वं वै विगर्हयात्मानमात्मानं यो न रक्षसि । 

कथं करिष्यसे वीर यो वा त्वां संश्रयेज्जन: ।। ३२ ।। 

तुम अपनी ही निन्‍्दा करो, जो कि अपनी भी रक्षातक नहीं कर सकते। वीरवर! फिर 
जो तुम्हारे आश्रयमें होगा, उसकी रक्षा कैसे कर सकोगे? ।। ३२ ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्तो महाबाहुर्यूपकेतुर्महायशा: । 

युयुधानं समुत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत्‌ ।। ३३ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! अर्जुनके ऐसा कहनेपर यूपके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले 
महायशस्वी महाबाहु भूरिश्रवा सात्यकिको छोड़कर रणभूमिमें आमरण अनशनका नियम 
लेकर बैठ गये ।। ३३ ।। 


शरानास्तीर्य सव्येन पाणिना पुण्यलक्षण: । 

यियासुर्ब्रह्य लोकाय प्राणान्‌ प्राणेष्वधाजुहोत्‌ ।। ३४ ।। 

पवित्र लक्षणोंवाले भूरिश्रवाने बायें हाथसे बाण बिछाकर ब्रह्मलोकमें जानेकी इच्छासे 
प्राणायामके द्वारा प्राणोंको प्राणोंमें ही होम दिया ।। ३४ ।। 

सूर्य चक्षु: समाधाय प्रसन्न सलिले मन: । 

ध्यायन्‌ महोपनिषदं योगयुक्तो5भवन्मुनि: । ३५ ।। 

वे नेत्रोंको सूर्यमें और प्रसन्न मनको जलमें समाहित करके महोपनिषत्प्रतिपादित 
परब्रह्मका चिन्तन करते हुए योगयुक्त मुनि हो गये || ३५ ।। 

ततः स सर्वसेनायां जन: कृष्णधनंजयौ । 

गर्हयामास तं॑ चापि शशंस पुरुषर्षभम्‌ ।। ३६ ।। 

तदनन्तर सारी कौरव-सेनाके लोग श्रीकृष्ण और अर्जुनकी निन्दा तथा नरश्रेष्ठ 
भूरिश्रवाकी प्रशंसा करने लगे || ३६ ।। 

निन्द्यमानौ तथा कृष्णौ नोचतु: किंचिदप्रियम्‌ । 

ततः प्रशस्यमानश्नव नाहृष्यद्‌ यूपकेतन: ।। ३७ ।। 

उनके द्वारा निन्दित होनेपर भी श्रीकृष्ण और अर्जुनने कोई अप्रिय बात नहीं कही तथा 
प्रशंसित होनेपर भी यूपकेतु भूरिश्रवाने हर्ष नहीं प्रकट किया ।। 

तांस्तथावादिनो राजन पुत्रांस्तव धनंजय: । 

अमृष्यमाणो मनसा तेषां तस्य च भाषितम्‌ ।। ३८ ।। 

राजन्‌! आपके पुत्र जब भूरिश्रवाकी ही भाँति निन्दाकी बातें कहने लगे, तब अर्जुन 
उनके तथा भूरिश्रवाके उस कथनको मन-ही-मन सहन न कर सके ।। ३८ ।। 

असंक्रुद्धमना वाच: स्मारयन्निव भारत | 

उवाच पाण्डुतनय: साक्षेपमिव फाल्गुन: ।। ३९ ।। 

भरतनन्दन! पाण्डुपुत्र अर्जुनके मनमें तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। उन्होंने मानो पुरानी 
बातें याद दिलाते हुए, कौरवोंपर आक्षेप करते हुए-से कहा-- ।। ३९ ।। 

मम सर्वेडपि राजानो जानन्त्येव महाव्रतम्‌ । 

न शक्‍यो मामको हन्तुं यो मे स्थादू बाणगोचरे ।। ४० ।। 

“सब राजा मेरे इस महान्‌ व्रतको जानते ही हैं कि जो कोई मेरा आत्मीयजन मेरे 
बाणोंकी पहुँचके भीतर होगा, वह किसी शत्रुके द्वारा मारा नहीं जा सकता || ४० ।। 

यूपकेतो निरीक्ष्यैतन्न मार्महसि गर्लितुम्‌ 

न हि धर्ममविज्ञाय युक्त गर्हयितुं परम्‌ ।। ४१ ।। 

'यूपध्वज भूरिश्रवाजी! इस बातपर ध्यान देकर आपको मेरी निन्दा नहीं करनी 
चाहिये। धर्मके स्वरूपको जाने बिना दूसरे किसीकी निन्‍्दा करना उचित नहीं है ।। ४१ ।। 

आत्तशस्त्रस्य हि रणे वृष्णिवीरं जिघांसत: । 


यदहं बाहुमच्छैत्सं न स धर्मो विगर्हित: ।। ४२ ।। 

“आप तलवार हाथमें लेकर रणभूमिमें वृष्णिवीर सात्यकिका वध करना चाहते थे। उस 
दशामें मैंने जो आपकी बाँह काट डाली है, वह आश्रितररक्षारूप धर्म निन्दित नहीं 
है || ४२ ।। 

न्यस्तशस्त्रस्य बालस्य विरथस्य विवर्मण: । 

अभिमन्योर्व॑धं तात धार्मिक: को नु पूजयेत्‌ ।। ४३ ।। 

तात! बालक अभिमन्यु शस्त्र, कवच और रथसे हीन हो चुका था, उस दशामें जो 
उसका वध किया गया, उसकी कौन धार्मिक पुरुष प्रशंसा कर सकता है ।। ४३ ।। 

(दुर्योधनस्य क्षुद्रस्यथ न प्रमाणेडवतिष्ठत: । 

सौमदत्तेरव॑ध: साधु: स वै साहाय्यकारिण: ।। 

“जो शास्त्रीय मर्यादामें स्थित नहीं रहता, उस नीच दुर्योधनकी सहायता करनेवाले 
सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाका जो इस प्रकार वध हुआ है, वह ठीक ही है। 

अस्मदीया मया रक्ष्या: प्राणबाध उपस्थिते । 

ये मे प्रत्यक्षतों वीरा हन्येरन्निति मे मति: ।। 

“मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि मुझे प्राण-संकट उपस्थित होनेपर आत्मीय जनोंकी रक्षा 
करनी चाहिये; विशेषत: उन वीरोंकी जो मेरी आँखोंके सामने मारे जा रहे हों। 

सात्यकिश्न वश॑ नीत: कौरवेण महात्मना । 

ततो मयैतच्चरितं प्रतिज्ञारक्षणं प्रति ।। 

“कुरुवंशी महामना भूरिश्रवाने सात्यकिको अपने वशमें कर लिया था। इसीसे अपनी 
प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये मैंने यह कार्य किया है'। 

संजय उवाच 

पुनश्चव कृपया5<विष्टो बहु तत्तद्‌ विचिन्तयन्‌ 

उवाच चैनं कौरव्यमर्जुन: शोकपीडित: ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! फिर बहुत-सी भिन्न-भिन्न बातें सोचकर अर्जुन दयासे द्रवित 
और शोकसे पीड़ित हो उठे तथा कुरुवंशी भूरिश्रवासे इस प्रकार बोले। 

अजुन उवाच 

धिगस्तु क्षत्रधर्म तु यत्र त्वं पुरुषेश्चर: । 

अवस्थामीदृशीं प्राप्त: शरण्य: शरणप्रद: । 

अर्जुनने कहा--उस क्षत्रिय-धर्मको धिक्कार है, जहाँ दूसरोंको शरण देनेवाले आप- 
जैसे शरणागतवत्सल नरेश एसी अवस्थाको जा पहुँचे हैं। 

को हि नाम पुमॉल्लोके मादृश: पुरुषोत्तम: । 

प्रहरेत्‌ त्वद्विधं त्वद्य प्रतिज्ञा यदि नो भवेत्‌ ।।) 


यदि पहलेसे प्रतिज्ञा न की गयी होती तो संसारमें मेरे-जैसा कौन श्रेष्ठ पुरुष आप-जैसे 
गुरुजनपर आज ऐसा प्रहार कर सकता था। 

एवमुक्त: स पार्थेन शिरसा भूमिमस्पृशत्‌ । 

पाणिना चैव सब्येन प्राहिणोदस्य दक्षिणम्‌ ।। ४४ ।। 

कुन्तीकुमार अर्जुनके ऐसा कहनेपर भूरिश्रवाने अपने मस्तकसे भूमिका स्पर्श किया। 
बायें हाथसे अपना दाहिना हाथ उठाकर अर्जुनके पास फेंक दिया ।। ४४ ।। 

एतत्‌ पार्थस्य तु वचस्तत: श्र॒ुत्वा महाद्युति: । 

यूपकेतुर्महाराज तूष्णीमासीदवाड्मुख: || ४५ ।। 

महाराज! पार्थकी उपर्युक्त बात सुनकर यूप-चिह्लित ध्वजावाले महातेजस्वी भूरिश्रवा 
नीचे मुँह किये मौन रह गये || ४५ ।। 

अर्जुन उवाच 

या प्रीतिर्थर्मराजे मे भीमे च बलिनां वरे । 

नकुले सहदेवे च सा मे त्वयि शलाग्रज ।। ४६ ।। 

उस समय अर्जुनने कहा--शलके बड़े भाई भूरिश्रवाजी! मेरा जो प्रेम धर्मराज 
युधिष्ठिर, बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन, नकुल और सहदेवमें है, वही आपमें भी है ।। ४६ ।। 

मया त्वं समनुज्ञात: कृष्णेन च महात्मना । 

गच्छ पुण्यकृताललोकान्‌ शिबिरौशीनरो यथा ।। ४७ ।। 

मैं और महात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण आपको यह आज्ञा देते हैं कि आप उशीनरपुत्र 
शिबिके समान पुण्यात्मा पुरुषोंके लोकोंमे जायेँ || ४७ ।। 

वासुदेव उवाच 


ये लोका मम विमला: सकृद्‌ विभाता 
ब्रह्माद्ये: सुरवृषभैरपीष्यमाणा: । 
तान्‌ क्षिप्रं ब्रज सतताग्निहोत्रयाजिन्‌ 
मत्तुल्यो भव गरुडोत्तमाड्यान: ।। ४८ ।। 
भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--निरन्तर अग्निहोत्रद्वारा यजन करनेवाले भूरिश्रवाजी! मेरे 
जो निरन्तर प्रकाशित होनेवाले निर्मल लोक हैं और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी जहाँ जानेकी 
सदैव अभिलाषा रखते हैं, उन्हीं लोकोंमें आप शीघ्र पधारिये और मेरे ही समान गरुड़की 
पीठपर बैठकर विचरनेवाले होइये ।। ४८ ।। 


संजय उवाच 
उत्थित: स तु शैनेयो विमुक्त: सौमदत्तिना । 
खड्गमादाय चिच्छित्सु: शिरस्तस्य महात्मन: ।। ४९ ।। 


संजय कहते हैं--राजन्‌! सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाके छोड़ देनेपर शिनिपौत्र सात्यकि 
उठकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने तलवार लेकर महामना भूरिश्रवाका सिर काट लेनेका 
निश्चय किया ।। ४९ || 

निहतं पाण्डुपुत्रेण प्रसक्त भूरिदक्षिणम्‌ 

इयेष सात्यकिह्न्तुं शलाग्रजमकल्मषम्‌ ।। ५० ।। 

निकृत्तभुजमासीनं छिन्नहस्तमिव द्विपम्‌ । 

शलके बड़े भाई प्रचुर दक्षिणा देनेवाले भूरिश्रवा सर्वथा निष्पाप थे। पाण्डुपुत्र अर्जुनने 
उनकी बाँह काटकर उनका वध-सा ही कर दिया था और इसीलिये वे आमरण अनशनका 
निश्चय लेकर ध्यान आदि अन्य कार्योमें आसक्त हो गये थे। उस अवस्थामें सात्यकिने बाँह 
कट जानेसे सूँड़ कटे हाथीके समान बैठे हुए भूरिश्रवाको मार डालनेकी इच्छा की || ५०६ 

|| 

क्रोशतां सर्वसैन्यानां निन्द्यमान: सुदुर्मना: ॥। ५१ ।। 

वार्यमाण: स कृष्णेन पार्थेन च महात्मना । 

भीमेन चक्ररक्षाभ्याम श्वत्थाम्ना कृपेण च ।। ५२ ।। 

कर्णेन वृषसेनेन सैन्धवेन तथैव च । 

विक्रोशतां च सैन्यानामवधीत्‌ तं धृतव्रतम्‌ । ५३ ।। 

उस समय समस्त सेनाके लोग चिल्ला-चिल्लाकर सात्यकिकी निन्दा कर रहे थे। परंतु 
सात्यकिकी मनोदशा बहुत बुरी थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा महात्मा अर्जुन भी उन्हें रोक 
रहे थे। भीमसेन, चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन 
तथा सिंधुराज जयद्रथ भी उन्हें मना करते रहे, किंतु समस्त सैनिकोंके चीखने-चिल्लानेपर 
भी सात्यकिने उस व्रतधारी भूरिश्रवाका वध कर ही डाला || ५१--५३ ।। 

प्रायोपविष्टाय रणे पार्थेन छिन्नबाहवे । 

सात्यकि: कौरवेयाय खड्गेनापाहरच्छिर: ।। ५४ ।। 

रणभूमिमें अर्जुनने जिनकी भुजा काट डाली थी तथा जो आमरण उपवासका व्रत 
लेकर बैठे थे, उन भूरिश्रवापर सात्यकिने खड़्गका प्रहार किया और उनका सिर काट 
लिया ।। ५४ ।। 


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नाभ्यनन्दन्त सैन्यानि सात्यकिं तेन कर्मणा । 

अर्जुनेन हतं॑ पूर्व यज्जघान कुरूद्गबहम्‌ ।। ५५ ।। 

अर्जुनने पहले जिन्हें मार डाला था, उन कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवाका सात्यकिने जो वध किया, 
उनके उस कर्मसे सैनिकोंने उनका अभिनन्दन नहीं किया ।। ५५ ।। 

सहस्राक्षसमं चैव सिद्धचारणमानवा: । 

भूरिश्रवसमालोक्य युद्धे प्रायगतं हतम्‌ ।। ५६ ।। 

अपूजयन्त त॑ देवा विस्मितास्ते5स्य कर्मभि: । 

युद्धमें प्रायोपवेशन करनेवाले, इन्द्रके समान पराक्रमी भूरिश्रवाको मारा गया देख 
सिद्ध, चारण, मनुष्य और देवताओंने उनका गुणगान किया; क्‍योंकि वे भूरिश्रवाके कर्मोंसे 
आश्चर्यचकित हो रहे थे || ५६३ ।। 

पक्षवादांश्व सुबहून्‌ प्रावदंस्तव सैनिका: ।। ५७ ।। 

न वार्ष्णेयस्यापराधो भवितव्यं हि तत्‌ तथा । 

तस्मान्मन्युर्न व: कार्य: क्रोधो दुः:खतरो नृणाम्‌ ।। ५८ ।। 

आपके सैनिकोंने सात्यकिके पक्ष और विपक्षमें बहुत-सी बातें कहीं। अन्तमें वे इस 
प्रकार बोले--“इसमें सात्यकिका कोई अपराध नहीं है। होनहार ही ऐसी थी। इसलिये 


आपलोगोंको अपने मनमें क्रोध नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्रोध ही मनुष्योंके लिये अधिक 
दुःखदायी होता है || ५७-५८ ।। 

हन्तव्यश्वैव वीरेण नात्र कार्या विचारणा । 

विहितो हास्य धात्रैव मृत्यु: सात्यकिराहवे ॥। ५९ |। 

“वीर सात्यकिके द्वारा ही भूरिश्रवा मारे जानेवाले थे। विधाताने युद्धस्थलमें ही 
सात्यकिको उनकी मृत्यु निश्चित कर दिया था; इसलिये इसमें विचार नहीं करना 
चाहिये ।। ५९ |। 

सात्यकिरुवाच 


न हन्तव्यो न हन्तव्य इति यन्मां प्रभाषत । 

धर्मवादैरधर्मिष्ठा धर्मकज्चुकमास्थिता: ।। ६० ।। 

सात्यकि बोले--धर्मका चोला पहनकर खड़े हुए अधर्मपरायण पापात्माओ! इस 
समय धर्मकी बातें बनाते हुए तुमलोग जो मुझसे बारंबार कह रहे हो कि “न मारो, न मारो' 
उसका उत्तर मुझसे सुन लो ।। ६० ।। 

यदा बाल: सुभद्राया: सुतः शस्त्रविना कृत: । 

युष्माभिनििहतो युद्धे तदा धर्म: क्व वो गत: ॥। ६१ ।। 

जब तुमलोगोंने सुभद्राके बालक पुत्र अभिमन्युको युद्धमें शस्त्रहीन करके मार डाला 
था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ६१ ।। 

मया त्वेतत्‌ प्रतिज्ञातं क्षेपे कस्मिंश्षिदेव हि । 

यो मां निष्पिष्य संग्रामे जीवन्‌ हन्यात्‌ पदा रुषा ।। ६२ ।। 

स मे वध्यो भवेच्छत्रुर्यद्यपि स्यान्मुनिव्रत: । 

मैंने तो पहलेसे ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिसके द्वारा कभी भी मेरा तिरस्कार हो 
जायगा अथवा जो संग्रामभूमिमें मुझे पटककर जीते-जी रोषपूर्वक मुझे लात मारेगा, वह 
शत्रु मुनियोंके समान मौनव्रत लेकर ही क्‍यों न बैठा हो, अवश्य मेरा वध्य होगा || ६२३ ।। 

चेष्टमानं प्रतीघाते सभुजं मां सचक्षुष: ।। ६३ ।। 

मन्यध्वं मृत इत्येवमेतद्‌ वो बुद्धिलाघवम्‌ । 

युक्तो हास्य प्रतीघात: कृतो मे कुरुपुड्रवा: ।। ६४ ।। 

मेरी बाँहें मौजूद हैं और मैं अपने ऊपर किये गये आघातका बदला लेनेकी निरन्तर 
चेष्टा करता आया हूँ तो भी तुमलोग आँख रहते हुए भी यदि मुझे मरा हुआ मान लेते हो, तो 
यह तुम्हारी बुद्धिकी मन्दताका परिचायक है। कुरुश्रेष्ठ वीरो! मैंने तो भूरिश्रवाका वध करके 
बदला चुकाया है, जो सर्वथा उचित है || ६३-६४ ।। 

यत्‌ तु पार्थन मां दृष्टवा प्रतिज्ञामभिरक्षता | 

सखडूगो<स्य हतो बाहुरेतेनैवास्मि वज्चित: ।। ६५ ।। 


कुन्तीकुमार अर्जुनने अपनी प्रतिज्ञाकी रक्षा करते हुए जो मुझे संकटमें देखकर 
भूरिश्रवाकी तलवारसहित बाँह काट डाली, इसीसे मैं भूरिश्रवाको मारनेके यशसे वंचित रह 
गया ।। ६५ || 
भवितव्यं हि यद्‌ भावि दैवं चेष्टयतीव च । 
सो<यं हतो विमर्देडस्मिन्‌ किमत्राधर्मचेष्टितम्‌ ।। ६६ |। 
जो होनहार होती है, उसके अनुकूल ही दैव चेष्टा कराता है। इसीके अनुसार इस 
संग्राममें भूरिश्रवा मारे गये हैं। इसमें अधर्मपूर्ण चेष्टा क्या है? ।। ६६ ।। 
अपि चायं पुरा गीत: श्लोको वाल्मीकिना भुवि । 
न हन्तव्या: स्त्रिय इति यद्‌ ब्रवीषि प्लवड्भम || ६७ ।। 
सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा । 
पीडाकरममित्राणां यत्‌ स्यात्‌ कर्तव्यमेव तत्‌ ।। ६८ ।। 
महर्षि वाल्मीकिने पूर्वकालमें ही इस भूतलपर एक श्लोकका गान किया है। जिसका 
भावार्थ इस प्रकार है--“वानर! तुम जो यह कहते हो कि स्त्रियोंका वध नहीं करना चाहिये, 
उसके उत्तरमें मेरा यह कहना है कि उद्योगी मनुष्यके लिये सदा सब समय वह कार्य करने 
ही योग्य माना गया है, जो शत्रुओंको पीड़ा देनेवाला हो” | ६७-६८ ।। 
संजय उवाच 
एवमुक्ते महाराज सर्वे कौरवपुड्रवा: । 
न सम किंचिदभाषन्त मनसा समपूजयन्‌ ।। ६९ ।। 
संजय कहते हैं--महाराज! सात्यकिके ऐसा कहनेपर समस्त श्रेष्ठ कौरवोंने उसके 
उत्तरमें कुछ नहीं कहा। वे मन-ही-मन उनकी प्रशंसा करने लगे ।। ६९ ।। 
मन्त्राभिपूतस्य महाध्वरेषु 
यशस्विनो भूरिसहस्रदस्य च । 
मुनेरिवारण्यगतस्य तस्य 
न तत्र कश्चिद्‌ वधमभ्यनन्दत ।। ७० ।। 
बड़े-बड़े यज्ञोंमें मन्त्रयुक्त अभिषेकसे जो पवित्र हो चुके थे, यज्ञोंमें कई हजार 
स्वर्णमुद्राओंकी दक्षिणा देते थे, जिनका यश सर्वत्र फैला हुआ था और जो वनवासी मुनिके 
समान वहाँ बैठे हुए थे, उन भूरिश्रवाके वधका किसीने भी अभिनन्दन नहीं किया ।। ७० ।। 
सुनीलकेशं वरदस्य तस्य 
शूरस्य पारावतलोहिताक्षम्‌ | 
अश्वस्य मेध्यस्य शिरो निकृत्तं 
न्यस्तं हविर्धानमिवान्तरेण ।। ७३ ।। 


वर देनेवाले भूरिश्रवाका नीले केशोंसे अलंकृत तथा कबूतरके समान लाल नेत्रोंवाला 
वह कटा हुआ सिर ऐसा जान पड़ता था, मानो अश्वमेधके मेध्य अश्वका कटा हुआ मस्तक 
अग्निकुण्डके भीतर रखा गया हो ।। ७१ ।। 
स तेजसा शस्त्रकृतेन पूतो 
महाहवे देहवरं विसृज्य । 
आक्रामदूर्ध्व वरदो वराहों 
व्यावृत्त्य धर्मेण परेण रोदसी ।। ७२ ।। 
वरदायक तथा वर पानेके योग्य भूरिश्रवाने उस महायुद्धमें शस्त्रके तेजसे पवित्र हो 
अपने उत्तम शरीरका परित्याग करके उत्कृष्ट धर्मके द्वारा पृथ्वी और आकाशको लाँघकर 
ऊर्ध्वलोकमें गमन किया || ७२ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि भूरिश्रवोवधे 
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४३ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें थूरिश्रवाका वधविषयक एक 
सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १४३ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८३ “लोक मिलाकर कुल ८०३ श्लोक हैं।) 


फल न (0) आफजअत+- 


चतुश्नत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिके भूरिश्रवाद्वारा अपमानित होनेका कारण तथा 
वृष्णिवंशी वीरोंकी प्रशंसा 


धृतराष्ट उवाच 

अजितो द्रोणराधेयविकर्णकृतवर्मभि: । 

तीर्ण: सैन्यार्णवं वीर: प्रतिश्रुत्य युधिषछ्ठिरे || १ ।। 

स कथं कौरवेयेण समरेष्वनिवारिता: । 

निगृहा भूरिश्रवसा बलाद्‌ भुवि निपातित: ।। २ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जो वीर सात्यकि द्रोण, कर्ण, विकर्ण और कृतवर्मासे भी 
परास्त न हुए और युधिष्छिरसे की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार कौरव-सेनारूपी समुद्रसे पार हो 
गये, जिन्हें समरांगणमें कोई भी रोक न सका, उन्हींको कुरुवंशी भूरिश्रवाने बलपूर्वक 
पकड़कर कैसे पृथ्वीपर गिरा दिया? ।। १-२ ।। 

संजय उवाच 

शृणु राजन्निहोत्पत्तिं शैनेयस्य यथा पुरा । 

यथा च भूरिश्रवसो यत्र ते संशयो नूप ।। ३ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! जिस विषयमें आपको संशय है, उसे स्पष्ट समझनेके लिये 
यहाँ पूर्वकालमें सात्यकि और भूरिश्रवाकी उत्पत्ति जिस प्रकार हुई थी, वह प्रसंग 
सुनिये ।। ३ ।। 

अत्रे: पुत्रो&भवत्‌ सोम: सोमस्य तु बुध: स्मृतः । 

बुधस्यैको महेन्द्रा भ: पुत्र आसीत्‌ पुरूरवा: ।। ४ ।। 

महर्षि अत्रिके पुत्र सोम हुए। सोमके पुत्र बुध माने गये हैं। बुधके एक ही पुत्र हुआ 
पुरूरवा, जो देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी था ।। ४ ।। 

पुरूरवस आयुस्तु आयुषो नहुष: सुतः । 

नहुषस्य ययातिस्तु राजा देवर्षिसम्मत: ।। ५ ।। 

पुरूरवाके पुत्र आयु और आयुके पुत्र नहुष हुए। नहुषके राजा ययाति हुए, जिनका 
देवताओं तथा ऋषियोंमें भी बड़ा आदर था ।। ५ ।। 

ययातेदेंवयान्यां तु यदुर्ज्येष्ठो5भवत्‌ सुतः । 

यदोरभूदन्ववाये देवमीढ इति स्मृत: ।। ६ ।। 

यादवस्तस्य तु सुतः शूरस्त्रैलोक्यसम्मत: । 

शूरस्य शौरिनवरो वसुदेवो महायशा: ।। ७ ।। 


ययातिसे देवयानीके गर्भसे जो ज्येष्ठ पुत्र हुआ, उसका नाम यदु था। इन्हीं यदुके वंशमें 
देवमीढ़ नामसे विख्यात एक यादव हो गये हैं। उनके पुत्रका नाम था शूर, जो तीनों लोकोंमें 
सम्मानित थे। शूरके पुत्र नरश्रेष्ठ शौरि हुए, जो महायशस्वी वसुदेवके नामसे प्रसिद्ध 
हैं ।। ६-७ ।। 

धनुष्यनवर: शूर: कार्तवीर्यसमो युधि । 

तद्वीर्यश्वापि तत्रेव कुले शिनिरभून्नप ।। ८ ।। 

शूर धर्नुर्विद्यामें सबसे श्रेष्ठ थे। वे युद्धमें कार्तवीर्य अर्जुनके समान पराक्रमी थे। नरेश्वर! 
जिस कुलमें शूरका जन्म हुआ था, उसीमें उन्हींके समान बलशाली शिनि हुए ।। ८ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु देवकस्य महात्मन: । 

दुहितुः स्वयंवरे राजन्‌ सर्वक्षत्रसमागमे ।। ९ ।। 

राजन्‌! इसी समय महात्मा देवककी पुत्री देवकीके स्वयंवरमें सम्पूर्ण क्षत्रिय एकत्र हुए 
थे।।९।। 

तत्र वै देवकीं देवीं वसुदेवार्थमाशु वै । 

निर्जित्य पार्थिवान्‌ सर्वान्‌ रथमारोपयच्छिनि: ।। १० ।। 

उस स्वयंवरमें शिनिने शीघ्र ही समस्त राजाओंको जीतकर वसुदेवके लिये देवकी 
देवीको रथपर बैठा लिया ।। १० ।। 

तां दृष्टवा देवकीं शूरो रथस्थां पुरुषर्षभ । 

नामृष्यत महातेजा: सोमदत्त: शिनेर्नूप ।। ११ ।। 

नरश्रेष्ठ! नरेश्वर! उस समय महातेजस्वी शूरवीर सोमदत्तने देवकी देवीको रथपर बैठे 
हुए देख शिनिके पराक्रमको सहन नहीं किया ।। ११ ।। 

तयोर्युद्धमभूद्‌ राजन्‌ दिनार्ध चित्रमद्भुतम्‌ । 

बाहुयुद्धे सुबलिनो: प्रसक्तं पुरुषर्षभ ।। १२ ।। 

पुरुषप्रवर महाराज! उन दोनों महाबली शिनि और सोमदत्तमें आधे दिनतक विचित्र 
एवं अद्भुत बाहुयुद्ध हुआ ।। 

शिनिना सोमदत्तस्तु प्रसहा भुवि पातित: । 

असिमुद्यम्य केशेषु प्रगृह्दा च पदा हतः: ।। १३ ।। 

उसमें शिनिने सोमदत्तको बलपूर्वक पृथ्वीपर पटक दिया और तलवार उठाकर उनकी 
चुटिया पकड़ ली एवं उन्हें लात मारी || १३ ।। 

मध्ये राजसहस्राणां प्रेक्षकाणां समन्तत: । 

कृपया च पुनस्तेन स जीवेति विसर्जित: ।। १४ ।। 

चारों ओरसे सहस्रों नरेश दर्शक बनकर यह युद्ध देख रहे थे। उनके बीचमें पुनः कृपा 
करके “जाओ, जीवित रहो” ऐसा कहकर शिनिने सोमदत्तको छोड़ दिया ।। 

तदवस्थ: कृतस्तेन सोमदत्तो5थ मारिष । 


प्रासादयन्महादेवममर्षवशमास्थित: ।। १५ ।। 

माननीय नरेश! जब शिनिने सोमदत्तकी ऐसी दुरवस्था कर दी, तब उन्होंने अमर्षके 
वशीभूत हो आराधनाद्वारा महादेवजीको प्रसन्न किया || १५ ।। 

तस्य तुष्टो महादेवो वराणां वरद: प्रभु: । 

वरेण च्छन्दयामास स तु वच्रे वरं॑ नृप: । १६ ।। 

श्रेष्ठ देवताओंमें भी सर्वश्रेष्ठ वरदायक तथा सामर्थ्यशाली महादेवजीने संतुष्ट होकर 
उन्हें इच्छानुसार वर माँगनेके लिये कहा। तब राजा सोमदत्तने इस प्रकार वर माँगा 
-- || १६ || 

पुत्रमिच्छामि भगवन्‌ यो निपात्य शिने: सुतम्‌ | 

मध्ये राजसहस््राणां पदा हन्याच्च संयुगे || १७ ।। 

“'भगवन्‌! मैं ऐसा पुत्र पाना चाहता हूँ, जो शिनिके पुत्रको सहस्रों राजाओंके बीच 
युद्धमें पृथ्वीपर गिराकर उसे पैरसे मारे” || १७ ।। 

तस्य तद्‌ वचन श्रुत्वा सोमदत्तस्य पार्थिव । 

(सशिर:कम्पमाहेदं नैतदेवं भवेन्नूप । 

स पूर्वमेव तपसा मामाराध्य जगत्त्रये ।। 

कस्याप्यवध्यता मत्तः प्राप्तवान्‌ वरमुत्तमम्‌ । 

तवाप्ययं प्रयासस्तु निष्फलो न भविष्यति ।। 

तस्य पौत्रं तु समरे त्वत्पुत्रो मोहयिष्यति । 

न तु मारयितुं शक्‍्य: कृष्णसंरक्षितो हासौ ।। 

अहमेव तु कृष्णो5स्मि नावयोरन्तरं क्वचित्‌ ।) 

एवमस्त्विति तत्रोक्त्वा स देवो5न्तरधीयत ।। १८ ।। 

राजन! सोमदत्तका यह कथन सुनकर महादेवजीने सिर हिलाकर कहा--'नहीं, ऐसा 
नहीं हो सकता। नरेश्वर! शिनिके पुत्रने तो पहले ही तपस्याद्वारा मेरी आराधना करके तीनों 
लोकोंमें किसीसे भी न मारे जानेका उत्तम वर मुझसे प्राप्त कर लिया है; परंतु तुम्हारा भी 
यह प्रयास निष्फल नहीं होगा। तुम्हारा पुत्र समरभूमिमें शिनिके पौत्रको तुम्हारी इच्छाके 
अनुसार मूर्च्छित कर देगा, परंतु उसके हाथसे वह मारा नहीं जा सकेगा; क्योंकि श्रीकृष्णसे 
वह सुरक्षित होगा। मैं ही श्रीकृष्ण हूँ। हम दोनोंमें कहीं कोई अन्तर नहीं है। जाओ, ऐसा ही 
होगा।' ऐसा कहकर महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये ।। १८ ।। 

स तेन वरदानेन लब्धवान्‌ भूरिदक्षिणम्‌ । 

अपातयच्च समरे सौमदत्ति: शिने: सुनम्‌ ।। १९ ।। 

उसी वरदानके प्रभावसे सोमदत्तने प्रचुर दक्षिणा देनेवाले भूरिश्रवाको पुत्ररूपमें प्राप्त 
किया और उसने समरांगणमें शिनिवंशज सात्यकिको गिरा दिया ।। १९ ।। 

पश्यतां सर्वसैन्यानां पदा चैनमताडयत्‌ | 


एतत्‌ ते कथितं राजन्‌ यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। २० ।। 

इतना ही नहीं, उसने सारी सेनाओंके देखते-देखते सात्यकिको लात भी मारी। राजन! 
आप मुझसे जो पूछ रहे थे, उसके उत्तरमें यह प्रसंग सुनाया है || २० ।। 

न हि शक्‍्यो रणे जेतुं सात्वतो मनुजर्षभै: । 

लब्धलक्ष्याश्न संग्रामे बहुशश्चित्रयोधिन: ।। २१ ।। 

सात्यकिको रणभाूमिमें श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ मनुष्य भी नहीं जीत सकते। वृष्णिवंशी योद्धा 
अपने निशानेको सफलतापूर्वक वेध लेते हैं। वे संग्रामभुमिमें अनेक प्रकारसे विचित्र युद्ध 
करनेवाले होते हैं || २१ ।। 

देवदानवगन्धर्वान्‌ विजेतारो हाविस्मिता: । 

स्ववीर्यविजये युक्ता नैते परपरिग्रहा: ।। २२ ।। 

देवताओं, दानवों तथा गन्धर्वोपर भी वे विजयी होते हैं। फिर भी इसके लिये उनके 
मनमें गर्व या विस्मय नहीं होता। वे अपने ही बलसे विजय पानेका उद्योग करते हैं। ये 
वृष्णिवंशी कभी पराधीन नहीं होते हैं || २२ ।। 

न तुल्यं वृष्णिभिरिह दृश्यते किंचन प्रभो । 

भूतं भव्यं भविष्यच्च बलेन भरतर्षभ ।। २३ ।। 

शक्तिशाली भरतश्रेष्ठ! भूत, वर्तमान और भविष्य कोई भी जगत्‌ बलमें वृष्णिवंशियोंके 
समान नहीं दिखायी देता || २३ ।। 

न ज्ञातिमवमन्यन्ते वृद्धानां शासने रता: । 

न देवासुरगन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसा: ।। २४ ।। 

जेतारो वृष्णिवीराणां कि पुनर्मानवा रणे | 

ये अपने कुट॒म्बीजनोंकी अवहेलना नहीं करते हैं। सदा बड़े-बूढ़ोंकी आज्ञामें तत्पर 
रहते हैं। देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग और राक्षस भी युद्धमें वृष्णिवीरोंपर विजय नहीं 
पा सकते; फिर मनुष्य किस गिनतीमें हैं? ।। 

ब्र्माद्रव्ये गुरुद्रव्ये ज्ञातिस्वे चाप्पहिंसका: ।। २५ ।। 

एतेषां रक्षितारश्न ये स्यु: कस्याज्चिदापदि । 

अर्थवन्तो न चोत्सिक्ता ब्रह्मुण्या: सत्यवादिन: ।। २६ ।। 

ये ब्राह्मण, गुरु तथा कुटुम्बीजनोंके धन लेनेके लिये कभी हिंसा नहीं करते हैं। इन 
ब्राह्मण-गुरु आदिमें जो कोई भी किसी आपत्तिमें पड़े हों, उनकी ये वृष्णिवंशी रक्षा करते 
हैं। ये सब-के-सब धनवान, अभिमानशाून्य, ब्राह्मण-भक्त और सत्यवादी होते हैं ।। 

समर्थान्‌ नावमन्यन्ते दीनानभ्युद्धरन्ति च । 

नित्यं देवपरा दान्तास्त्रातारश्चाविकत्थना: ॥। २७ ।। 

ये सामर्थ्यशाली पुरुषोंकी अवहेलना नहीं करते और दीन-दु:खियोंका उद्धार करते हैं। 
सदा देवभक्त, जितेन्द्रिय, दूसरोंके संरक्षक तथा आत्मप्रशंसासे दूर रहनेवाले हैं || २७ ।। 


तेन वृष्णिप्रवीराणां चक्र न प्रतिहन्यते । 
अपि मेरुं वहेत्‌ कश्चित्‌ तरेद्‌ वा मकरालयम्‌ । 
नतु वृष्णिप्रवीराणां समेत्यान्तं व्रजेन्नप ।। २८ ।। 
इसीसे वृष्णिवीरोंका यह समूह किसीके द्वारा प्रतिहत नहीं होता है। नरेश्वर! कोई 
मेरुपर्वतको सिरपर उठा ले अथवा समुद्रको हाथोंसे तैर जाय; परंतु वृष्णिवीरोंके समूहका 
अन्त नहीं पा सकता ।। २८ ।। 
एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं यत्र ते संशय: प्रभो । 
कुरुराज नरश्रेष्ठ तव व्यपनयो महान्‌ ॥। २९ ।। 
प्रभो! जहाँ आपको संदेह था, वह सब मैंने अच्छी तरह बता दिया है। कुरुराज 
नरश्रेष्ठस इस युद्धको चालू करनेमें आपका महान्‌ अन्याय ही कारण है ।। २९ ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि सात्यकिप्रशंसायां 
चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें सात्यकिका प्रशंसाविषयक 
एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १४४ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ ३ “लोक मिलाकर कुल ३२३ श्लोक हैं।) 


निज जा | मु । #* 


पञ्चचत्वारिशदाधिकशततमो< ध्याय: 


अर्जुनका जयद्रथपर आक्रमण, कर्ण और दुर्योधनकी 
बातचीत, कर्णके साथ अर्जुनका युद्ध और कर्णकी पराजय 
तथा सब योद्धाओंके साथ अर्जुनका घोर युद्ध 


धृतराष्ट्र रवाच 

तदवस्थे हते तस्मिन्‌ भूरिश्रवसि कौरवे । 

यथा भूयो5भवद्‌ युद्ध तन्ममाचक्ष्व संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! उस अवस्थामें कुरुवंशी भूरिश्रवाके मारे जानेपर पुनः: जिस 
प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ ।। १ ।। 

संजय उवाच 

भूरिश्रवसि संक्रान्ते परलोकाय भारत । 

वासुदेवं महाबाहुरर्जुन: समचूचुदत्‌ ।। २ ।। 

संजयने कहा--भारत! भूरिश्रवाके परलोकगामी हो जानेपर महाबाहु अर्जुनने 
भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रेरित करते हुए कहा-- ।। २ ।। 

चोदयाश्वान्‌ भृशं कृष्ण यतो राजा जयद्रथ: । 

श्रूयते पुण्डरीकाक्ष त्रिषु धर्मेषु वर्तते ॥। ३ ।। 

प्रतिज्ञां सफलां चापि कर्तुमहसि मेडनघ । 

अस्तमेति महाबाहो त्वरमाणो दिवाकर: ।। ४ ।। 

“श्रीकृष्ण! जिस ओर राजा जयद्रथ खड़ा है, उसी ओर अब इन घोड़ोंको शीघ्रतापूर्वक 
हॉकिये। कमलनयन! सुना जाता है कि वह इस समय तीन धर्मोमें विद्यमान है। निष्पाप 
केशव! मेरी प्रतिज्ञा आप सफल करें। महाबाहो! सूर्यदेव तीव्रणतिसे अस्ताचलकी ओर जा 
रहे हैं ।। ३-४ ।। 

एतद्धि पुरुषव्यात्र महदशभ्युद्यंतं मया । 

कार्य संरक्ष्यते चैष कुरुसेनामहारथै: ।। ५ ।। 

'पुरुषसिंह! मैंने यह बहुत बड़े कार्यके लिये उद्योग आरम्भ किया है। कौरव-सेनाके 
महारथी इस जयद्रथकी रक्षा कर रहे हैं ।। ५ ।। 

तथा नाभ्येति सूर्योडस्तं यथा सत्यं भवेद्‌ वच: । 

चोदयाश्वांस्तथा कृष्ण यथा हन्यां जयद्रथम्‌ ।। ६ ।। 


“श्रीकृष्ण! जबतक सूर्य अस्ताचलको न चले जाय, तभीतक जैसे भी मेरी प्रतिज्ञा 
सच्ची हो जाय और जैसे भी मैं जयद्रथको मार सकूँ, उसी प्रकार शीघ्रतापूर्वक इन घोड़ोंको 
हॉकिये' ।। ६ ।। 

ततः कृष्णो महाबाहू रजतप्रतिमान्‌ हयान्‌ । 

हयज्ञश्नोदयामास जयद्रथवध्ध॑ प्रति ।। ७ ।। 

तब अभश्वविद्याके ज्ञाता महाबाहु श्रीकृष्णने जयद्रथको मारनेके उद्देश्स्से उसकी ओर 
चाँदीके समान श्वेत घोड़ोंको हाँका ।। ७ ।। 

त॑ प्रयान्‍्तममोधघेषुमुत्पतद्धिरिवाशुगै: । 

त्वरमाणा महाराज सेनामुख्या: समाद्रवन्‌ ।। ८ ।। 

महाराज! जिनके बाण कभी व्यर्थ नहीं जाते, उन अर्जुनको धनुषसे छूटे हुए बाणोंके 
समान उड़ते हुए-से अभश्वोंद्वारा जयद्रथकी ओर जाते देख कौरव-सेनाके प्रधान-प्रधान वीर 
बड़े वेगसे दौड़े || ८ ।। 

दुर्योधनश्व कर्णश्र वृषसेनो5थ मद्रराट्‌ । 

अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धव: ।। ९ ।। 

दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अअश्वत्थामा, कृपाचार्य और स्वयं सिंधुराज 
जयद्रथ--ये सभी युद्धके लिये डट गये ।। ९ ।। 

समासाद्य च बीभत्सु: सैन्धवं समुपस्थितम्‌ । 

नेत्राभ्यां क्रोधदीप्ताभ्यां सम्प्रैक्षन्निर्दहज्िव ।। १० ।। 

वहाँ उपस्थित हुए सिंधुराजको सामने पाकर अर्जुनने क्रोधसे उद्दीप्त नेत्रोंद्वारा उसे इस 
प्रकार देखा, मानो जलाकर भस्म कर देंगे || १० ।। 

ततो दुर्योधनो राजा राधेयं त्वरितो<ब्रवीत्‌ । 

अर्जुन प्रेक्ष्य संयातं जयद्रथवर्ध॑ प्रति ॥। ११ ।। 

तब राजा दुर्योधनने अर्जुनको जयद्रथको मारनेके लिये उसकी ओर जाते देख तुरंत ही 
राधापुत्र कर्णसे कहा-- || ११ |। 

अयं स वैकर्तन युद्धकालो 

विदर्शयस्वात्मबलं महात्मन्‌ | 
यथा न वध्येत रणे<र्जुनेन 
जयद्रथ: कर्ण तथा कुरुष्व ।। १२ ।। 

'सूर्यपुत्र! यही वह युद्धका समय आया है। महात्मन्‌! तुम इस समय अपना बल 
दिखाओ। कर्ण! रणभूमिमें अर्जुनके द्वारा जैसे भी जयद्रथका वध न होने पावे, वैसा प्रयत्न 
करो ।। १२ ।। 

अल्पावशेषो दिवसो नृवीर 

विघातयस्वाद्य रिपुं शरौचै: । 


दिनक्षयं प्राप्य नरप्रवीर 
ध्रुवो हि न: कर्ण जयो भविष्यति ।॥। १३ ।। 

“नरवीर! अब दिनका थोड़ा-सा ही भाग शेष है। तुम अपने बाणसमूहोंद्वारा इस समय 
शत्रुको घायल करके उसके कार्यमें बाधा डालो। मनुष्यलोकके प्रमुख वीर कर्ण! दिन 
समाप्त होनेपर तो निश्चय ही हमारी विजय हो जायगी ।। १३ ।। 

सैन्धवे रक्ष्यमाणे तु सूर्यस्यास्तमन प्रति । 

मिथ्याप्रतिज्ञ: कौन्तेयः प्रवेक्ष्यति हुताशनम्‌ ।। १४ ।। 

'सूर्यास्त होनेतक यदि सिंधुराज सुरक्षित रहे तो प्रतिज्ञा झूठी होनेके कारण अर्जुन 
अग्निमें प्रवेश कर जायँगे ।। १४ ।। 

अनर्जुनायां च भुवि मुहूर्तमपि मानद । 

जीवितुं नोत्सहेरन्‌ वै भ्रातरो5स्य सहानुगा: ।। १५ ।। 

“मानद! फिर अर्जुनरहित भूतलपर उनके भाई और अनुगामी सेवक दो घड़ी भी 
जीवित नहीं रह सकते ।। १५ ।। 

विनष्टै: पाण्डवेयैश्न सशैलवनकाननाम्‌ | 

वसुंधरामिमां कर्ण भोक्ष्यामो हतकण्टकाम्‌ ।। १६ ।। 

“कर्ण! पाण्डवोंके नष्ट हो जानेपर हमलोग पर्वत, वन और काननोंसहित इस 
निष्कण्टक वसुधाका राज्य भोगेंगे ।। १६ ।। 

दैवेनोपहत: पार्थो विपरीतश्च मानद । 

कार्याकार्यमजानान: प्रतिज्ञां कृतवान्‌ रणे || १७ ।। 

“मानद! दैवके मारे हुए अर्जुनकी बुद्धि विपरीत हो गयी थी। इसीलिये कर्तव्य और 
अकर्तव्यका विचार न करके उन्होंने रणभूमिमें जयद्रथको मारनेकी प्रतिज्ञा कर 
ली ।। १७ ।। 

नूनमात्मविनाशाय पाण्डवेन किरीटिना । 

प्रतिज्ञेयं कृता कर्ण जयद्रथवर्ध॑ प्रति ।। १८ ।। 

“कर्ण! निश्चय ही किरीटधारी पाण्डव अर्जुनने अपने ही विनाशके लिये जयद्रथ-वधकी 
यह प्रतिज्ञा कर डाली है ।। १८ ।। 

कथं जीवति दुर्धर्षे त्वयि राधेय फाल्गुन: । 

अनस्तंगत आदित्ये हन्यात्‌ सैन्धवककं नृपम्‌ ।। १९ ।। 

'राधानन्दन! तुम-जैसे दुर्धर्ष वीरके जीते-जी अर्जुन सिंधुराजको सूर्यास्त होनेसे पहले 
ही कैसे मार सकेंगे? ।। १९ ।। 

रक्षितं मद्रराजेन कृपेण च महात्मना । 

जयद्रथं रणमुखे कथं हन्याद्‌ धनंजय: ।। २० ।। 


“मद्रराज शल्य और महामना कृपाचार्यसे सुरक्षित हुए जयद्रथको अर्जुन युद्धके 
मुहानेपर कैसे मार सकेंगे? || २० ।। 

द्रौणिना रक्ष्यमाणं च मया दुःशासनेन च । 

कथं प्राप्स्यति बीभत्सु: सैन्धवं कालचोदितः ।। २१ ।। 

“मैं, दःशासन तथा अभश्वत्थामा जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन सिंधुराज जयद्रथको अर्जुन 
कैसे प्राप्त कर सकेंगे? जान पड़ता है कि वे कालसे प्रेरित हो रहे हैं ।। 

युध्यन्ते बहव: शूरा लम्बते च दिवाकर: । 

शड़्के जयद्रथं पार्थो नैव प्राप्स्यति मानद || २२ ।। 

“मानद! बहुत-से शूरवीर युद्ध कर रहे हैं, उधर सूर्य भी अस्ताचलपर जा रहे हैं। अतः 
मुझे संदेह यह होता है कि अर्जुन जयद्रथतक नहीं पहुँच पायेंगे || २२ ।। 

स त्वं कर्ण मया सार्थ शूरैश्नान्यैर्महारथै: । 

द्रौणिना त्वं हि सहितो मद्रेशेन कृपेण च ।। २३ ।। 

युध्यस्व यत्नमास्थाय पर पार्थेन संयुगे | 

“कर्ण! तुम मेरे, अश्वत्थामाके, मद्रराज शल्यके, कृपाचार्यके तथा अन्य शूरवीर 
महारथियोंके साथ पूरा प्रयत्न करके रणक्षेत्रमें अर्जुनके साथ युद्ध करो” || २३६ || 

एवमुक्तस्तु राधेयस्तव पुत्रेण मारिष || २४ ।। 

दुर्योधनमिदं वाक्य प्रत्युवाच कुरूत्तमम्‌ । 

आर्य! आपके पुत्रके ऐसा कहनेपर राधानन्दन कर्णने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनसे इस प्रकार 
कहा-- || २४ $ || 

दृढलक्ष्येण वीरेण भीमसेनेन धन्विना ।। २५ ।। 

भृशं भिन्नतनु: संख्ये शरजालैरनेकश: । 

स्थातव्यमिति तिष्ठामि रणे सम्प्रति मानद ।। २६ ।। 

“मानद! सुदृढ़ लक्ष्यवाले वीर धनुर्धर भीमसेनने संग्राममें अपने बाणसमूहोंद्वारा अनेक 
बार मेरे शरीरको अत्यन्त क्षत-विक्षत कर दिया है। मुझे खड़ा रहना चाहिये (भागना नहीं 
चाहिये), यह सोचकर ही इस समय मैं रणभूमिमें ठहरा हुआ हूँ || २५-२६ ।। 

नाड़मिड्गति किंचिन्मे संतप्तस्य महेषुभि: । 

योत्स्यामि तु यथाशक्‍त्या त्वदर्थ जीवितं मम ।। २७ ।। 

“इस समय मेरा कोई भी अंग किसी प्रकारकी चेष्टा नहीं कर रहा है। मैं बड़े-बड़े 
बाणोंकी आगसे संतप्त हूँ, तथापि यथाशक्ति युद्ध करूँगा; क्योंकि यह मेरा जीवन तुम्हारे 
लिये ही है || २७ ।। 

यथा पाण्डवमुख्योडसौ न हनिष्यति सैन्धवम्‌ । 

न हि मे युध्यमानस्य सायकानस्यत: शितान्‌ ॥। २८ ।। 

सैन्धवं प्राप्स्ते वीर: सव्यसाची धनंजय: । 


'पाण्डवोंके प्रधान वीर अर्जुन जैसे भी किसी तरह सिंधुराजको नहीं मार सकेंगे, वैसा 
प्रयत्न करूँगा। जबतक मैं युद्धमें तत्पर होकर पैने बाण छोड़ता रहूँगा, तबतक सव्यसाची 
वीर धनंजय सिंधुराजको नहीं पा सकेंगे || २८३ ।। 

यत्तु भक्तिमता कार्य सततं हितकाड्क्षिणा ।। २९ |। 

तत्‌ करिष्यामि कौरव्य जयो दैवे प्रतिष्ठित: । 

“कुरुनन्दन! सदा मित्रका हित चाहनेवाले भक्तिमान्‌ पुरुषको जो कार्य करना चाहिये, 
वह मैं करूँगा। विजयकी प्राप्ति तो दैवके अधीन है ।। २९६ ।। 

सैन्धवार्थ परं यत्नं करिष्याम्यद्य संयुगे ।। ३० ।। 

त्वत्प्रियार्थ महाराज जयो दैवे प्रतिष्ठित: । 

“महाराज! आज युद्धस्थलमें आपका प्रिय करनेके लिये मैं सिंधुराजकी रक्षाके निमित्त 
पूरा प्रयत्न करूँगा। विजय तो दैवके अधीन है ।। ३०६ ।। 

अद्य योत्स्येडर्जुनमहं पौरुष॑ स्वं व्यपाश्रित: ।। ३१ ।। 

त्वदर्थे पुरुषव्याप्र जयो दैवे प्रतिष्ठित: । 

'पुरुषसिंह! आज मैं अपने पुरुषार्थका भरोसा करके तुम्हारे हितके लिये अर्जुनके 
साथ युद्ध करूँगा। विजयकी प्राप्ति तो दैवके अधीन है || ३१६ ।। 

अद्य युद्ध कुरुश्रेष्ठ मम पार्थस्य चोभयो: ।॥। ३२ ।। 

पश्यन्तु सर्वसैन्यानि दारुणं लोमहर्षणम्‌ | 

“कुरुश्रेष्ठ आज सारी सेनाएँ मेरे और अर्जुन दोनोंके भयंकर एवं रोमांचकारी युद्धको 
देखें! || ३२६ |। 

कर्णकौरवयोरेवं रणे सम्भाषमाणयो: ।। ३३ ।। 

अर्जुनो निशितैर्बाणैर्जघान तव वाहिनीम्‌ । 

जब रफक्षेत्रमें कर्ण और दुर्योधन इस तरह वार्तालाप कर रहे थे, उस समय अर्जुनने 
अपने पैने बाणोंद्वारा आपकी सेनाका संहार आरम्भ किया ।। ३३६ || 

चिच्छेद निशितैर्बाणै: शूराणामनिवर्तिनाम्‌ ।। ३४ ।। 

भुजान्‌ परिघसंकाशान्‌ हस्तिहस्तोपमान्‌ रणे । 

उन्होंने तीखे बाणोंसे रणभूमिमें कभी पीठ न दिखानेवाले शूरवीरोंकी परिघके समान 
सुदृढ़ तथा हाथीकी सूँड़के समान मोटी भुजाओंको काट डाला ।। 

शिरांसि च महाबाह॒श्चिच्छेद निशितै: शरैः ।। ३५ ।। 

हस्तिहस्तान्‌ हयग्रीवान्‌ रथाक्षांश्ष समन्ततः । 

महाबाहु अर्जुने सब ओर अपने तीखे बाणोंसे शत्रुओंके मस्तक, हाथियोंके 
शुण्डदण्डों, घोड़ोंकी गर्दनों तथा रथके धुरोंको भी खण्डित कर दिया || ३५३ ।। 

शोणिताक्तान्‌ हयारोहान्‌ गृहीतप्रासतोमरान्‌ ।। ३६ ।। 


क्षुरैश्रविच्छेद बीभत्सुर्द्धिधैकैकं त्रिधेव च 

अर्जुनने हाथोंमें प्रास और तोमर लिये खूनसे रँँगे हुए घुड़सवारोंमेंसे प्रत्येकके अपने 
छुरोंद्वारा दो-दो और तीन-तीन टुकड़े कर डाले || ३६३ ।। 

हया वारणमुख्याश्च प्रापतन्त समन्तत: ।। ३७ ।। 

ध्वजाश्छत्राणि चापानि चामराणि शिरांसि च | 

बड़े-बड़े हाथी और घोड़े सब ओर धराशायी होने लगे। ध्वज, छत्र, धनुष, चँवर तथा 
योद्धाओंके मस्तक कट-कटकर गिरने लगे ।। ३७३६ ।। 

कक्षमग्निरिवोद्धूत: प्रदहंस्तव वाहिनीम्‌ ।। ३८ ।। 

अचिरेण महीं पार्थश्च॒कार रुधिरोत्तराम्‌ । 

जैसे प्रचण्ड अग्नि घास-फ़ूसके जंगलको जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुनने 
आपकी सेनाको दग्ध करते हुए थोड़ी ही देरमें वहाँकी भूमिको रक्तसे आप्लावित कर 
दिया ।। ३८३ || 

हतभूयिष्ठयोधं तत्‌ कृत्वा तव बल॑ बली ।। ३९ ।। 

आससाद दुराधर्ष: सैन्धवं सत्यविक्रम: । 

सत्यपराक्रमी, बलवान एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुनने आपकी सेनाके अधिकांश योद्धाओंको 
मारकर सिंधुराजपर आक्रमण किया ।। ३९३ ।। 

बीभत्सुर्भीमसेनेन सात्वतेन च रक्षित: ।। ४० ।। 

प्रबभौ भरतश्रेष्ठ ज्वलन्निव हुताशन: । 

भरतश्रेष्ठ] भीमसेन और सात्यकिसे सुरक्षित अर्जुन उस समय प्रज्वलित अग्निके 
समान प्रकाशित हो रहे थे || ४० ३ ।। 

त॑ तथावस्थितं दृष्टवा त्वदीया वीर्यसम्पदा ।। ४१ ।। 

नामृष्यन्त महेष्वासा: पाण्डवं पुरुषर्षभा: । 

अर्जुनको इस प्रकार बल-पराक्रमकी सम्पत्तिसे युक्त होकर युद्धके लिये डटा हुआ देख 
आपकी सेनाके श्रेष्ठ पुरुष एवं महाधनुर्धर वीर सहन न कर सके ।। ४१६ ।। 

दुर्योधनश्व कर्णश्र वृषसेनो5थ मद्रराट्‌ ।। ४२ ।। 

अश्वत्थामा कृपश्चैव स्वयमेव च सैन्धव: । 

संनद्धा: सैन्धवस्यार्थे समावृण्वन्‌ किरीटिनम्‌ ।। ४३ ।। 

दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अअश्व॒त्थामा, कृपाचार्य तथा स्वयं सिंधुराज 
जयद्रथ--इन सबने जयद्रथकी रक्षाके लिये संनद्ध होकर किरीटधारी अर्जुनको सब ओरसे 
घेर लिया || ४२-४३ ।। 

नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुज्यातलनिःस्वनै: । 

संग्रामकोविदं पार्थ सर्वे युद्धविशारदा: ।। ४४ ।। 


अभीताः: पर्यवर्तन्त व्यादितास्यमिवान्तकम्‌ । 

उस समय युद्धकुशल कुन्तीकुमार धनुषकी टंकार करते हुए रथके मार्गोपर नाच रहे थे 
और मुँह बाये हुए यमराजके समान भयंकर जान पढ़ते थे। उन्हें युद्धविशारद समस्त 
कौरव-महारथियोंने निर्भय हो चारों ओरसे घेर लिया || ४४ ६ ।। 

सैन्धवं पृष्ठतः कृत्वा जिघांसन्तो<च्युतार्जुनौ || ४५ ।। 

सूर्यास्तमनमिच्छन्तो लोहितायति भास्करे । 

वे श्रीकृष्ण और अर्जुनको मार डालनेकी इच्छासे सिंधुराज जयद्रथको पीछे करके 
सूर्यास्त होनेकी इच्छा और प्रतीक्षा करने लगे। उस समय सूर्य लाल-से हो चले || ४५६ ।। 

ते भुजैभोगिभोगाभेर्थनूंष्यानम्य सायकान्‌ ।। ४६ ।। 

मुमुचु: सूर्यरश्म्याभान्‌ शतश: फाल्गुनं प्रति । 

उन कौरव-सैनिकोंने सर्पके शरीरके समान प्रतीत होनेवाली अपनी भुजाओंद्वारा 
धनुषोंको नवाकर अर्जुनपर सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले सैकड़ों बाण छोड़े ।। 

ततस्तानस्यमानांश्व किरीटी युद्धदुर्मद: ।॥ ४७ ।। 

द्विधा त्रिधाष्टथैकैकं छित्त्वा विव्याध तान्‌ रथान्‌ । 

तदनन्तर रणदुर्मद किरीटधारी अर्जुनने उन छोड़े गये बाणोंमेंसे प्रत्येकके दो-दो, तीन- 
तीन और आठ-आठ टुकड़े करके उन रथियोंको भी घायल कर दिया ।। 

सिंहलाड्गूलकेतुस्तु दर्शयन्‌ वीर्यमात्मन: ।। ४८ ।। 

शारद्वतीसुतो राजन्नर्जुनं प्रत्यवारयत्‌ । 

राजन! जिनकी ध्वजामें सिंहकी पूँछका चिह्न था, उन शारद्वतीपुत्र कृपाचार्यने अपना 
बल-पराक्रम दिखाते हुए अर्जुनको रोका ।। ४८६ ।। 

स विद्ध्वा दशभि: पार्थ वासुदेव॑ च सप्तभि: ।। ४९ ।। 

अतिष्ठद्‌ रथमार्गेषु सैन्धवं प्रतिपालयन्‌ । 

वे दस बाणोंसे अर्जुनको और सातसे श्रीकृष्णको घायल करके रथके मार्गोपर 
जयद्रथकी रक्षा करते हुए खड़े थे ।। ४९३ ।। 

अथैनं कौरवश्रेष्ठा: सर्व एव महारथा: || ५० || 

महता रथवंशेन सर्वतः प्रत्यवारयन्‌ । 

तत्पश्चात्‌ कौरव-सेनाके सभी श्रेष्ठ महारथियोंने विशाल रथसमूहके द्वारा कृपाचार्यको 
सब ओरसे घेर लिया ।। ५० ई || 

विस्फारयन्तश्नापानि विसृजन्तश्न सायकान्‌ ।। ५१ ।। 

सैन्धवं पर्यरक्षन्त शासनात्‌ तनयस्य ते | 

वे आपके पुत्रकी आज्ञासे धनुष खींचते और बाण छोड़ते हुए वहाँ जयद्रथकी सब 
ओरसे रक्षा करने लगे ।। 


ततः पार्थस्य शूरस्य बाह्दोर्बलमदृश्यत ।। ५२ ।। 

इषूणामक्षयत्वं च धनुषो गाण्डिवस्य च । 

तत्पश्चात्‌ वहाँ शूरवीर कुन्तीकुमारकी भुजाओंका बल देखा गया। उनके गाण्डीव धनुष 
तथा बाणोंकी अक्षयताका परिचय मिला || ५२६ ।। 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च ।। ५३ ।। 

एकैकं दशभिर्बाणै: सवनिव समार्पयत्‌ । 

उन्होंने अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके अस्त्रोंका अपने अस्त्रोंद्वारा निवारण करके बारी- 
बारीसे उन सबको दस-दस बाण मारे ।। ५३६ ।। 

तं॑ द्रौणि: पञचविंशत्या वृषसेनश्न सप्तभि: || ५४ ।। 

दुर्योधनस्तु विंशत्या कर्णशल्यौ त्रिभिस्त्रिभि: | 

अश्वत्थामाने पचीस, वृषसेनने सात, दुर्योधनने बीस तथा कर्ण और शल्यने तीन-तीन 
बाणोंसे अर्जुनको घायल कर दिया || ५४३ ।। 

त एनमभिगर्जन्तो विध्यन्तश्न पुनः पुन: ।। ५५ ।। 

विधुन्वतश्न चापानि सर्वतः प्रत्यवारयन्‌ | 

वे अर्जुनको लक्ष्य करके बार-बार गरजते, उन्हें बारंबार बाणोंसे बींधते और धनुषको 
हिलाते हुए सब ओरसे उन्हें आगे बढ़नेसे रोकने लगे || ५५६ ।। 

श्लिष्ट च सर्वतश्नक्रू रथमण्डलमाशु ते ।। ५६ ।। 

सूर्यास्तमनमिच्छन्तस्त्वरमाणा महारथा: । 

उन महारथियोंने सूर्यास्तकी इच्छा रखते हुए बड़ी उतावलीके साथ अपने रथसमूहको 
परस्पर सटाकर सब ओरसे खड़ा कर दिया ।। ५६३ || 

त एनमभिनर्दन्तो विधुन्वाना धनूंषि च ।। ५७ ।। 

सिषिचुर्मार्गणैस्ती&णैर्गिरिं मेघा इवाम्बुभि: । 

जैसे बादल पर्वतशिखरपर अपने जलकी बूँदोंसे आघात करते हैं, उसी प्रकार वे 
कौरव-महारथी धनुष हिलाते तथा अर्जुनके सामने गर्जना करते हुए उनपर तीखे बाणोंकी 
वर्षा करने लगे || ५७६ ।। 

ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र राजन्‌ व्यदर्शयन्‌ ।। ५८ ।। 

धनंजयस्य गात्रे तु शूरा: परिघबाहव: । 

राजन! परिघके समान सुदृढ़ भुजाओंवाले उन शूरवीरोंने अर्जुनके शरीरपर वहाँ बड़े- 
बड़े दिव्यास्त्रोंका प्रदर्शन किया || ५८३ ।। 

हतभूयिष्ठयोधं तत्‌ कृत्वा तव बल॑ बली ।। ५९ ।। 

आससाद दुराधर्ष: सैन्धवं सत्यविक्रम: । 


तथापि सत्यपराक्रमी बलवान एवं दुर्धर्ष वीर अर्जुनने आपकी सेनाके अधिकांश 
योद्धाओंका संहार करके सिन्धुराजपर आक्रमण किया || ५९३ ।। 

तं कर्ण: संयुगे राजन्‌ प्रत्यवारयदाशुगै: ।। ६० ।। 

मिषतो भीमसेनस्य सात्वतस्य च भारत | 

राजन! भरतनन्दन! उस युद्धस्थलमें कर्णने भीमसेन और सात्यकिके देखते-देखते 
अपने शीघ्रगामी बाणोंद्वारा अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। ६० ६ ।। 

त॑ पार्थों दशभिर्बाणै: प्रत्यविध्यद्‌ रणाजिरे || ६१ ।। 

सूतपुत्र॑ महाबाहुः सर्वसैन्यस्य पश्यत: । 

तब महाबाहु अर्जुनने समरांगणमें सारी सेनाके देखते-देखते सूतपुत्र कर्णको दस 
बाणोंसे घायल कर दिया ।। ६१ ६ ।। 

सात्वतश्ष त्रिभिर्बाणै: कर्ण विव्याध मारिष ।। ६२ |। 

भीमसेनस्टत्रिभिश्वैव पुनः पार्थश्च॒ सप्तभि: । 

माननीय नरेश! तदनन्तर सात्यकिने तीन बाणोंसे कर्णको वेध दिया, फिर भीमसेनने 
भी उसे तीन बाण मारे और अर्जुनने पुनः सात बाणोंसे कर्णको घायल कर दिया ।। 

तान्‌ कर्ण: प्रतिविव्याध षष्ट्या षष्ट्या महारथ: ।। ६३ ।। 

तद्‌ युद्धमभवद्‌ राजन्‌ कर्णस्य बहुभि: सह । 

तब महारथी कर्णने उन तीनोंको साठ-साठ बाण मारकर बदला चुकाया। राजन! 
कर्णका वह युद्ध अनेक वीरोंके साथ हो रहा था ।। ६३ $ ।। 

तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य मारिष ।। ६४ ।। 

यदेक: समरे क्रुद्धस्त्रीन्‌ रथान्‌ पर्यवारयत्‌ । 

आर्य! वहाँ हमने सूतपुत्रका अद्भुत पराक्रम देखा कि समरभूमिमें कुपित होकर उसने 
अकेले ही तीन-तीन महारथियोंको रोक दिया था ।। ६४ ई ।। 

फाल्गुनस्तु महाबाहु: कर्ण वैकर्तनं रणे ।। ६५ ।। 

सायकानां शतेनैव सर्वमर्मस्वताडयत्‌ । 

उस समय महाबाहु अर्जुनने रणभूमिमें सौ बाणोंद्वारा, सूर्यपुत्र कर्णको उसके सम्पूर्ण 
मर्मस्थानोंमें चोट पहुँचायी || ६५६ ।। 

रुधिरोक्षितसर्वाड्ि: सूतपुत्र: प्रतापवान्‌ ।। ६६ ।। 

शरै: पञ्चाशता वीर: फाल्गुनं प्रत्यविध्यत । 

तस्य तल्लाघवं दृष्टवा नामृष्यत रणेडर्जुन: ।। ६७ ।। 

प्रतापी सूतपुत्र कर्णके सारे अंग खूनसे लथपथ हो गये, तथापि उस वीरने पचास 
बाणोंसे अर्जुनको भी घायल कर दिया। रणक्षेत्रमें उसकी यह फुर्ती देखकर अर्जुन सहन न 
कर सके ।। ६६-६७ || 


ततः पार्थो धनुश्कछित्त्वा विव्याधैनं स्तनान्तरे । 

सायकैर्नवभिरर्वीरस्त्वरमाणो धनंजय: ।। ६८ ।। 

तदनन्तर कुन्तीकुमार वीर धनंजयने कर्णका धनुष काटकर बड़ी उतावलीके साथ 
उसकी छातीमें नौ बाणोंका प्रहार किया || ६८ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सूतपुत्र: प्रतापवान्‌ | 

सायकैरष्टसाहस्नैश्छादयामास पाण्डवम्‌ ।। ६९ ।। 

तब प्रतापी सूतपुत्रने दूसरा धनुष हाथमें लेकर आठ हजार बाणोंसे पाण्डुपुत्र अर्जुनको 
ढक दिया ।। ६९ ।। 

तां बाणवृष्टिमतुलां कर्णचापसमुत्थिताम्‌ | 

व्यधमत्‌ सायकै: पार्थ: शलभानिव मारुत: ।। ७० |। 

कर्णके धनुषसे प्रकट हुई उस अनुपम बाण-वर्षाको अर्जुनने बाणोंद्वारा उसी प्रकार 
नष्ट कर दिया, जैसे वायु टिड्डियोंके दलको उड़ा देती है || ७० ।। 

छादयामास च तदा सायकैरर्जुनो रणे । 

पश्यतां सर्वयोधानां दर्शयन्‌ पाणिलाघवम्‌ ।॥। ७१ ।। 

तत्पश्चात्‌ अर्जुनने रणभूमिमें दर्शक बने हुए समस्त योद्धाओंको अपने हाथोंकी फुर्ती 
दिखाते हुए उस समय कर्णको भी आच्छादित कर दिया ।। ७१ |। 

वधार्थ चास्य समरे सायकं सूर्यवर्चसम्‌ । 

चिक्षेप त्वरया युक्तस्त्वराकाले धनंजय: ।। ७२ ।। 

साथ ही शीघ्रताके अवसरपर शीघ्रता करनेवाले अर्जुनने समरभूमिमें सूतपुत्रका वध 
करनेके लिये उसके ऊपर सूर्यके समान तेजस्वी बाण चलाया ।। ७२ ।। 

तमापततन्तं वेगेन द्रौणिश्चविच्छेद सायकम्‌ । 

अर्धचन्द्रेण तीक्ष्णेन स च्छिन्न: प्रापतद्‌ भुवि ॥। ७३ ।। 

उस बाणको वेगपूर्वक आते देख अभश्वत्थामाने तीखे अर्धचन्द्रसे बीचमें ही काट दिया। 
कटकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा || ७३ ।। 

कर्णो5पि द्विषतां हन्ता छादयामास फाल्गुनम्‌ | 

सायकैर्बहुसाहस्रै: कृतप्रतिकृतेप्सया ।। ७४ ।। 

तब शत्रुहन्ता कर्णने भी उनके किये हुए प्रहारका बदला चुकानेकी इच्छासे अनेक 
सहस्र बाणोंद्वारा पुन: अर्जुनको आच्छादित कर दिया ।। ७४ ।। 

तौ वृषाविव नर्दन्तौ नरसिंहौ महारथौ । 

सायकैस्तु प्रतिच्छन्न॑ चक्रतु: खमजिद्दागै:ः ।। ७५ ।। 

वे दोनों पुरुषसिंह महारथी दो साँड़ोंके समान हँकड़ते हुए अपने सीधे जानेवाले 
बाणोंद्वारा आकाशको आच्छादित करने लगे || ७५ ।। 

अदृश्यौ च शरौघैस्तौ निघ्नन्तावितरेतरम्‌ | 


कर्ण पार्थोडस्मि तिष्ठ त्वं कर्णो5हं तिष्ठ फाल्गुन ।। ७६ ।। 

वे दोनों एक-दूसरेपर चोट करते हुए स्वयं बाण-समूहोंसे ढककर अदृश्य हो गये थे और 
एक-दूसरेको पुकारकर इस प्रकार कहते थे--'कर्ण! तू खड़ा रह, मैं अर्जुन हूँ; “अर्जुन! 
खड़ा रह, मैं कर्ण हूँ! ।। ७६ ।। 

इत्येवं तर्जयन्तौ तौ वाक्‍शल्यैस्तुदतां तदा । 

युध्येतां समरे वीरौ चित्र लघु च सुष्ठुच ।। ७७ ।। 

इस प्रकार एक-दूसरेको ललकारते और डाँटते हुए वे दोनों वीर वाक्यरूपी बाणोंद्वारा 
परस्पर चोट करते हुए समरांगणमें शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंगसे विचित्र युद्ध कर रहे 
थे ।। ७७ |। 

प्रेक्षणीयां चाभवतां सर्वयोधसमागमे । 

प्रशस्यमानौ समरे सिद्धचारणपन्नगै: ।। ७८ ।। 

अयुध्येतां महाराज परस्परवधैषिणौ । 

सम्पूर्ण योद्धाओंके उस सम्मेलनमें वे दोनों दर्शनीय हो रहे थे। महाराज! समरभूमिमें 
सिद्ध, चारण और नागोंद्वारा प्रशंसित होते हुए कर्ण और अर्जुन एक-दूसरेके वधकी 
इच्छासे युद्ध कर रहे थे || ७८३ ।। 

ततो दुर्योधनो राजंस्तावकानभ्यभाषत ।। ७९ |। 

यत्नाद्‌ रक्षत राधेयं नाहत्वा समरेअ<र्जुनम्‌ । 

निवर्तिष्यति राधेय इति मामुक्तवान्‌ वृष: ।। ८० ।। 

राजन! तदनन्तर दुर्योधनने आपके सैनिकोंसे कहा--“वीरो! तुम यत्नपूर्वक राधापुत्र 
कर्णकी रक्षा करो। वह युद्धस्थलमें अर्जुनका वध किये बिना नहीं लौटेगा; क्योंकि उसने 
मुझसे यही बात कही है! || ७९-८० ।। 

एतस्मिन्नन्तरे राजन्‌ दृष्टवा कर्णस्य विक्रमम्‌ | 

आकर्णममुक्तैरिषुभि: कर्णस्य चतुरो हयान्‌ ।। ८१ ।। 

अनयत्‌ प्रेतलोकाय चतुर्भि: श्वेतवाहन: । 

सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्‌ ।। ८२ ।। 

राजन्‌! इसी समय कर्णका वह पराक्रम देखकर श्वेतवाहन अर्जुनने कानतक खींचकर 
छोड़े हुए चार बाणोंद्वारा कर्णके चारों घोड़ोंको प्रेततोक पहुँचा दिया और एक भल्ल 
मारकर उसके सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया || ८१-८२ ।। 

छादयामास स शरैस्तव पुत्रस्य पश्यत: । 

संछाद्यमान: समरे हताश्चो हतसारथि: || ८३ ।। 

मोहित: शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत | 


इतना ही नहीं, आपके पुत्रके देखते-देखते उन्होंने कर्णको बाणोंसे ढक दिया। घोड़ 
और सारथिके मारे जानेपर समरांगणमें बाणोंसे ढका हुआ कर्ण बाण-जालसे मोहित हो 
यह भी नहीं सोच सका कि अब क्या करना चाहिये ।। ८३ ६ ।। 








"५५४ 407-#495 #॥ 


त॑ तथा विरथं दृष्टवा रथमारोप्य तं॑ तदा ।। ८४ ।। 

अश्वत्थामा महाराज भूयो<र्जुनमयोधयत्‌ । 

महाराज! कर्णको इस प्रकार रथहीन हुआ देख अश्व॒त्थामाने उस समय उसे रथपर 
बैठा लिया और वह पुन: अर्जुनके साथ युद्ध करने लगा ।। ८४६ ।। 

मद्रराजश्न॒ कौन्तेयमविध्यत्‌ त्रिंशता शरै: | ८५ ।। 

शारद्वतस्तु विंशत्या वासुदेवं समार्पयत्‌ । 

धनंजयं द्वादशशभिराजघान शिलीमुखै: ।। ८६ ।। 

मद्रराज शल्यने कुन्तीकुमार अर्जुनको तीस बाणोंसे घायल कर दिया। कृपाचार्यने 
भगवान्‌ श्रीकृष्णको बीस बाण मारे और अर्जुनपर बारह बाणोंका प्रहार किया ।। 

चतुर्भि: सिन्धुराजश्न वृषसेनश्न सप्तभि: । 

पृथक्‌ पृथड्महाराज विव्यधु: कृष्णपाण्डवौ ।। ८७ ।। 


महाराज! फिर सिन्धुराजने चार और वृषसेनने सात बाणोंद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको 
पृथक्‌-पृथक्‌ घायल कर दिया ।। ८७ ।। 
तथैव तानू प्रत्यविध्यत्‌ कुन्तीपुत्रो धनंजय: । 
द्रोणपुत्रं चतुःषष्ट्या मद्रराजं शतेन च ।। ८८ ।। 
सैन्धवं दशभिर्बाणैर्वुषसेन त्रिभि: शरै: । 
शारद्वतं च विंशत्या विद्ध्वा पार्थो ननाद ह ॥। ८९ ।। 
इसी प्रकार कुन्तीपुत्र अर्जुनने भी उन्हें बाणोंसे बींधकर बदला चुकाया। अर्जुनने 
द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको चौंसठ, मद्रराज शल्यको सौ, सिन्धुराज जयद्रथको दस, वृषसेनको 
तीन और कृपाचार्यको बीस बाणोंसे घायल करके सिंहनाद किया ।। ८८-८९ |। 
ते प्रतिज्ञाप्रतीघातमिच्छन्त: सव्यसाचिन: । 
सहितास्तावकास्तूर्णमभिपेतुर्धन॑ंजयम्‌ ।। ९० ।। 
यह देख सव्यसाची अर्जुनकी प्रतिज्ञाको भंग करनेकी अभिलाषासे आपके वे सभी 
सैनिक एक साथ संगठित हो तुरंत उनपर टूट पड़े || ९० ।। 
अथार्जुन: सर्वतो वारुणास्त्रं 
प्रादुश्षक्रे त्रासयन्‌ धार्तराष्ट्रान्‌ | 
त॑ प्रत्युदीयु: कुरव: पाण्डुपुत्रं 
रथैर्महाहैं: शरवर्षाण्यवर्षन्‌ ।। ९१ ।। 
तदनन्तर अर्जुनने धृतराष्ट्रके पुत्रोंको भयभीत करते हुए सब ओर वारुणास्त्र प्रकट 
किया। कौरव-सैनिक अपने बहुमूल्य रथोंद्वारा पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर बढ़े और उनपर 
बाणोंकी वर्षा करने लगे ।। ९१ ।। 
ततस्तु तस्मिंस्तुमुले समुत्थिते 
सुदारुणे भारत मोहनीये । 
नोमुहात प्राप्य स राजपुत्र: 
किरीटमाली व्यसृजच्छरौघान्‌ ।। ९२ ।। 
भारत! सबको मोहमें डालनेवाले उस अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्धके उपस्थित होनेपर 
भी किरीटधारी राजकुमार अर्जुन तनिक भी मोहित नहीं हुए। वे बाणसमूहोंकी वर्षा करते 
ही रहे || ९२ ।। 
राज्यप्रेप्सु: सव्यसाची कुरूणां 
स्मरन्‌ क्लेशान्‌ द्वादशवर्षवृत्तान्‌ । 
गाण्डीवमुक्तैरिषुभिमहात्मा 
सर्वा दिशो व्यावृणोदप्रमेय: ।। ९३ ।। 
अप्रमेय शक्तिशाली महामनस्वी सव्यसाची अर्जुन अपना राज्य प्राप्त करना चाहते थे। 
उन्होंने कौरवोंके दिये हुए क्लेशों और बारह वर्षोंतक भोगे हुए वनवासके कष्टोंको स्मरण 


करते हुए गाण्डीव धनुषसे छूटनेवाले बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित कर 
दिया ।। ९३ ।। 
प्रदीप्तोल्कमभवच्चान्तरिक्ष॑ 
मृतेषु देहेष्वपपतन्‌ वयांसि । 
यत्‌ पिड्जनलज्येन किरीटमाली 
क्रुद्धो रिपूनाजगवेन हन्ति ।। ९४ ।। 
आकाशमें कितनी ही उल्काएँ प्रज्वलित हो उठीं और योद्धाओंके मृत शरीरोंपर 
मांसभक्षी पक्षी गिरने लगे; क्योंकि उस समय क्रोधमें भरे हुए किरीटधारी अर्जुन पीली 
प्रत्यंचावाले गाण्डीव धनुषके द्वारा शत्रुओंका संहार कर रहे थे ।। ९४ ।। 
ततः किरीटी महता महायशा: 
शरासनेनास्थ शराननीकजित्‌ । 
हयप्रवेकोत्तमनागधूर्गतान्‌ 
कुरुप्रवीरानिषुभिव्यपातयत्‌ ।। ९५ ।। 
तत्पश्चात्‌ शत्रुसेनाकों जीतनेवाले महायशस्वी किरीटधारी अर्जुनने विशाल धनुषके 
द्वारा बाणोंका प्रहार करके उत्तम घोड़ों और श्रेष्ठ हाथियोंकी पीठपर बैठे हुए प्रमुख कौरव- 
वीरोंको मार गिराया ।। ९५ |। 
गदाश्न गुर्वी: परिघानयस्मया- 
नसींक्ष॒ शक्ती क्ष रणे नराधिपा: । 
महान्ति शस्त्राणि च भीमदर्शना: 
प्रगृह् पार्थ सहसाभिदुद्रुवु: । ९६ ।। 
उस रफणक्षेत्रमें भयंकर दिखायी देनेवाले कितने ही नरेश भारी गदाओं, लोहेके परिघों, 
तलवारों, शक्तियों और बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्रोंको हाथमें लेकर कुन्तीनन्दन अर्जुनपर सहसा 
टूट पड़े ।। ९६ ।। 
ततो युगान्ताभ्रसमस्वनं मह- 
न्महेन्द्रचापप्रतिमं च गाण्डिवम्‌ । 
चकर्ष दोर्भ्या विहसन्‌ भृशं ययौ 
दहंस्त्वदीयान्‌ यमराष्ट्रवर्धन: ।। १७ ।। 
तब यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाले अर्जुनने प्रलयकालके मेघोंके समान गम्भीर 
ध्वनि करनेवाले तथा इन्द्रधनुषके समान प्रतीत होनेवाले विशाल गाण्डीव धनुषको हँसते 
हुए दोनों हाथोंसे खींचा और आपके सैनिकोंको दग्ध करते हुए वे बड़े वेगसे आगे बढ़े ।। 
स तानुदीर्णान्‌ सरथान्‌ सवारणान्‌ 
पदातिसड्घांश्व॒ महाधनुर्धर: । 
विपन्नसर्वायुधजीवितान्‌ रणे 


चकार वीरो यमराष्ट्रवर्धनान्‌ ।। ९८ ।। 
महाधनुर्धर वीर अर्जुनने रथ, हाथी और पैदल-समूहोंसहित उन कौरव-सैनिकोंको 
प्रचण्ड गतिसे आगे बढ़ते देख उनके सम्पूर्ण आयुधों और जीवनको भी नष्ट करके उन्हें 
यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाला बना दिया ।। 
इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि संकुलयुद्धे 
पज्चचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें संकुलयुद्धाविषयक एक सौ 
पैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४५ ॥। 


अपन का छा अकाल 


षट्चत्वारिशर्दाधेकशततमो< ध्याय: 
अर्जुनका अदभुत पराक्रम और सिन्धुराज जयद्रथका वध 


संजय उवाच 
श्रुत्वा निनादं धनुषश्च तस्य 
विस्पष्टमुत्क़ुष्टमिवान्तकस्य । 
शक्राशनिस्फोटसमं सुघोरं 
विकृष्यमाणस्य धनंजयेन ।। १ ।। 

त्रासोद्धिग्नं तथोदश्रान्तं त्वदीयं तद्‌ बल॑ नृप । 

युगान्तवातसंक्षुब्धं चलद्वीचितरद्धितम्‌ ।। २ ।। 

प्रलीनमीनमकरं सागराम्भ इवाभवत्‌ | 

संजय कहते हैं--राजन्‌! उस समय अर्जुनके द्वारा खींचे जानेवाले गाण्डीव धनुषकी 
अत्यन्त भयंकर टंकार यमराजकी सुस्पष्ट गर्जना तथा इन्द्रके वज्रकी गड़गड़ाहटके समान 
जान पड़ती थी। उसे सुनकर आपकी सेना भयसे उद्विग्न हो बड़ी घबराहटमें पड़ गयी। उस 
समय उसकी दशा प्रलयकालकी आँधीसे क्षोभको प्राप्त एवं उत्ताल तरंगोंसे परिपूर्ण हुए 
उस महासागरके जलकी-सी हो गयी, जिसमें मछली और मगर आदि जलजन्तु छिप जाते 
हैं ।। १-२३ ।। 

स रणे व्यचरत्‌ पार्थ: प्रेक्षमाणो धनंजय: ।। ३ ।। 

युगपद्‌ दिक्षु सर्वासु सर्वाण्यस्त्राणि दर्शयन्‌ | 

उस रणक्षेत्रमें कुन्तीकुमार अर्जुन एक साथ सम्पूर्ण दिशाओंमें देखते और सब प्रकारके 
अस्त्रोंका कौशल दिखाते हुए विचर रहे थे ।। ३३ ।। 

आददानं महाराज संदधानं च पाण्डवम्‌ ।। ४ ।। 

उत्कर्षन्तं सृजन्तं च न सम पश्याम लाघवात्‌ | 

महाराज! उस समय अर्जुनकी अद्भुत फुर्तीके कारण हमलोग यह नहीं देख पाते थे कि 
वे कब बाण निकालते हैं, कब उसे धनुषपर रखते हैं, कब धनुषको खींचते हैं और कब 
बाण छोड़ते हैं ।। ४६ ।। 

ततः क्रुद्धो महाबाहुरैन्द्रमस्त्रं दुरासदम्‌ ।। ५ ।। 

प्रादुश्षक्रे महाराज त्रासयन्‌ सर्वभारतान्‌ । 

नरेश्वर! तदनन्तर महाबाहु अर्जुनने कुपित हो कौरव-सेनाके समस्त सैनिकोंको 
भयभीत करते हुए दुर्धर्ष इन्द्रास्त्रको प्रकट किया ।। ५३ ।। 

ततः शरा: प्रादुरासन्‌ दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिता: ।। ६ ।। 


प्रदीप्ताश्षन शिखिमुखा: शतशो5थ सहस्रश: । 

इससे दिव्यास्त्रसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित सैकड़ों तथा सहस्रों प्रज्वलित 
अग्निमुख बाण प्रकट होने लगे || ६६ ।। 

आकर्णपूर्णनिर्मुक्तिरग्न्यर्काशुनि भै: शरै: । ७ ।। 

नभो<भवत्‌ तद्‌ दुष्प्रेक्ष्ममुल्काभिरिव संवृतम्‌ । 

धनुषको कानतक खींचकर छोड़े गये अग्निशिखा तथा सूर्यकिरणोंके समान तेजस्वी 
बाणोंसे भरा हुआ आकाश उल्काओंसे व्याप्त-सा जान पड़ता था। उसकी ओर देखना 
कठिन हो रहा था ।। ७६ ।। 

ततः शस्त्रान्धकारं तत्‌ कौरवै: समुदीरितम्‌ ।। ८ ।। 

अशक्यं मनसाप्यन्यै: पाण्डव: सम्भ्रमन्निव | 

नाशयामास विक्रम्य शरैंदिव्यास्त्रमन्त्रिते: ।। ९ ।। 

नैशं तमों5शुभि: क्षिप्रं दिनादाविव भास्कर: । 

तदनन्तर कौरवोंने अस्त्र-शस्त्रोंकी इतनी वर्षा की कि वहाँ अँधेरा छा गया। दूसरे कोई 
योद्धा उस अन्धकारको नष्ट करनेका विचार भी मनमें नहीं ला सकते थे; परंतु पाण्डुपुत्र 
अर्जुनने बड़ी शीघ्रता-सी करते हुए दिव्यास्त्रसम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित बाणोंसे 
पराक्रमपूर्वक उसे नष्ट कर दिया। ठीक उसी तरह, जैसे प्रातःकालमें सूर्य अपनी 
किरणोंद्वारा रात्रिके अन्धकारको शीघ्र नष्ट कर देते हैं ।। ८-९३ ।। 

ततस्तु तावकं सैन्यं दीप्तै: शरगभस्तिभि: ।॥। १० ।। 

आशक्षिपत्‌ पल्‍ल्वलाम्बूनि निदाघार्क इव प्रभु: । 

तत्पश्चात्‌ जैसे ग्रीष्म-ऋतुके शक्तिशाली सूर्य छोटे-छोटे गड्डोंके पानीको शीघ्र ही सुखा 
देते हैं, उसी प्रकार सामर्थ्यशाली अर्जुनरूपी सूर्यने अपनी बाणमयी प्रज्वलित किरणोंद्वारा 
आपकी सेनारूपी जलको शीघ्र ही सोख लिया ।। १०६ ।। 

ततो दिव्यास्त्रविदुषा प्रहिता: सायकांशव: ।। ११ ।। 

समाप्लवन्‌ द्विषत्सैन्यं लोक॑ भानोरिवांशव: । 

इसके बाद दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता अर्जुनरूपी सूर्यकी छिटकायी हुई बाणरूपी किरणोंने 
शत्रुओंकी सेनाको उसी प्रकार आप्लावित कर दिया, जैसे सूर्यकी रश्मियाँ सारे जगत्‌को 
व्याप्त कर लेती हैं || ११६ ।। 

अथापरे समुत्सृष्टा विशिखास्तिग्मतेजस: ।। १२ ।। 

ह्ृदयान्याशु वीराणां विविशु: प्रियबन्धुवत्‌ । 

तदनन्तर अर्जुनके छोड़े हुए दूसरे प्रचण्ड तेजस्वी बाण वीर योद्धाओंके हृदयमें प्रिय 
बन्धुकी भाँति शीघ्र ही प्रवेश करने लगे || १२३ ।। 

य एनमीयु: समरे त्वद्योधा: शूरमानिन: ।। १३ ।। 


शलभा इव ते दीप्तमन्निं प्राप्प ययु: क्षयम्‌ । 

समरांगणमें अपनेको शूरवीर माननेवाले आपके जो-जो योद्धा अर्जुनके सामने गये, वे 
जलती आगममें पड़े हुए पतंगोंके समान नष्ट हो गये || १३३ ।। 

एवं स मृदनन्‌ शत्रूणां जीवितानि यशांसि च ।। १४ ।। 

पार्थश्चचार संग्रामे मृत्युर्विग्रहवानिव । 

इस प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन शत्रुओंके जीवन और यशको धूलमें मिलाते हुए 
मूर्तिमान्‌ मृत्युके समान संग्रामभूमिमें विचरण करने लगे ।। १४ ई ।। 

सकिरीटानि वक्‍त्राणि साड्दान्‌ विपुलान्‌ भुजान्‌ ।। १५ ।। 

सकुण्डलयुगान्‌ कर्णान्‌ केषांचिदहरच्छरै: । 

वे अपने बाणोंसे किन्हीं शत्रुओंके मुकुटमण्डित मस्तकों, किन्हींके बाजूबंदविभूषित 
विशाल भुजाओं तथा किन्हींके दो कुण्डलोंसे अलंकृत दोनों कानोंको काट गिराते थे ।। १५ 
हे || 

सतोमरान्‌ गजस्थानां सप्रासान्‌ हयसादिनाम्‌ ।। १६ ।। 

सचर्मण: पदातीनां रथीनां च सधन्वन: । 

सप्रतोदान्‌ नियन्तृणां बाहुंश्विच्छेद पाण्डव: ।। १७ ।। 

पाण्डुकुमार अर्जुनने हाथीसवारोंकी तोमरयुक्त, घुड़सवारोंकी प्रासयुक्त, पैदल 
सिपाहियोंकी ढालयुक्त, रथियोंकी धनुषयुक्त और सारथियोंकी चाबुकसहित भुजाओंको 
काट डाला ।। १६-१७ || 

प्रदीप्तोग्रशरार्चिष्मान्‌ बभौ तत्र धनंजय: । 

सविस्फुलिज्ञाग्रशिखो ज्वलन्निव हुताशन: ।॥। १८ ।। 

उद्दीप्त एवं उग्र बाणरूपी शिखाओंसे युक्त तेजस्वी अर्जुन वहाँ चिनगारियों और 
लपटोंसे युक्त प्रजजलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे ।। १८ ।। 

त॑ देवराजप्रतिमं सर्वशस्त्रभृतां वरम्‌ । 

युगपद्‌ दिक्षु सर्वासु रथस्थं पुरुषर्षभम्‌ ।। १९ ।। 

निक्षिपन्तं महास्त्राणि प्रेक्षणीयं धनंजयम्‌ । 

नृत्यन्तं रथमार्गेषु धनुज्यातलनादिनम्‌ ।। २० ।। 

निरीक्षितुं न शेकुस्ते यत्नवन्तो$पि पार्थिवा: । 

मध्यंदिनगतं सूर्य प्रतपन्‍्तमिवाम्बरे || २१ ।। 

देवराज इन्द्रके समान रथपर बैठे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ नरश्रेष्ठ अर्जुन एक ही 
साथ सम्पूर्ण दिशाओंमें महान्‌ अस्त्रोंका प्रहार करते हुए सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। वे 
अपने धनुषकी टंकार करते हुए रथके मार्गोपर नृत्य-सा कर रहे थे। जैसे आकाशगमें तपते 
हुए दोपहरके सूर्यकी ओर देखना कठिन होता है, उसी प्रकार उनकी ओर राजालोग यत्न 
करनेपर भी देख नहीं पाते थे ।। 


दीप्तोग्रसम्भूतशर: किरीटी विरराज ह । 

वर्षास्विवोदीर्णजल: सेन्द्रधन्वाम्बुदो महान्‌ ।। २२ ।। 

प्रज्वलित एवं भयंकर बाण लिये किरीटधारी अर्जुन वर्षा-ऋतुमें अधिक जलसे भरे हुए 
इन्द्रधनुषघसहित महामेघके समान सुशोभित हो रहे थे || २२ ।। 

महास्त्रसम्प्लवे तस्मिन्‌ जिष्णुना सम्प्रवर्तिते । 

सुदुस्तरे महाघोरे ममज्जुर्यो धपुड़रवा: ।। २३ ।। 

उस युद्धस्थलमें अर्जुनने बड़े-बड़े अस्त्रोंकी ऐसी बाढ़ ला दी थी, जो परम दुस्तर और 
अत्यन्त भयंकर थी। उसमें कौरवदलके बहुसंख्यक श्रेष्ठ योद्धा डूब गये || २३ ।। 

उत्कृत्तवदनैर्देहै: शरीरैः कृत्तबाहुभि: । 

भुजैश्न पाणिनिर्मुक्त: पाणिभिव्यड्गुलीकृतै: ।। २४ ।। 

कृत्ताग्रहस्तै: करिभि: कृत्तदन्तैर्मदोत्कटै: । 

हयैश्न विधुरग्रीवै रथैश्न शकलीकृतै: ।। २५ ।। 

निकृत्तान्त्रै: कृत्तपादैस्तथान्यै: कृत्तसंधिभि: । 

निश्रेष्विस्फुरद्धिश्न शतशो5थ सहस्रश: ।। २६ ।। 

मृत्योराघातललितं तत्पार्थायोधनं महत्‌ | 

अपश्याम महीपाल भीरूणां भयवर्धनम्‌ ॥। २७ ।। 

आक्रीडमिव रुद्रस्य पुराभ्यर्दयत: पशून्‌ । 

भूपाल! अर्जुनका वह महान्‌ युद्ध मृत्युका क्रीडास्थल बना हुआ था, जो श्त्रोंके 
आधघातसे ही सुन्दर लगता था। वहाँ बहुत-सी ऐसी लाशें पड़ी थीं, जिनके मस्तक कट गये 
थे और भुजाएँ काट दी गयी थीं। बहुत-सी ऐसी भुजाएँ दृष्टिगोचर होती थीं, जिनके हाथ 
नष्ट हो गये थे और बहुत-से हाथ भी अंगुलियोंसे शून्य थे। कितने ही मदोन्मत्त हाथी 
धराशायी हो गये थे। जिनकी सूँड़के अग्रभाग और दाँत काट डाले गये थे। बहुतेरे घोड़ोंकी 
गर्दनें उड़ा दी गयी थीं और रथोंके टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये थे। किन्हींकी आँतें कट गयी 
थीं, किन्हींके पाँव काट डाले गये थे तथा कुछ दूसरे लोगोंकी संधियाँ (अंगोंके जोड़) 
खण्डित हो गयी थीं। कुछ लोग निनश्वेष्ट हो गये थे और कुछ पड़े-पड़े छटपटा रहे थे। इनकी 
संख्या सैकड़ों तथा सहस्रों थी। हमने देखा कि वह युद्धस्थल कायरोंके लिये भयवर्धक हो 
रहा है। मानो पूर्व (प्रयल) कालमें पशुओं (जीवों) को पीड़ा देनेवाले रुद्रदेवका क्रीडास्थल 
हो || २४--२७ ३ || 

गजानां क्षुरनिर्मुक्ता: करैः: सभुजगेव भू: ॥। २८ ।। 

क्वचिद्‌ बभौ स्रग्विणीव वक्‍्त्रपद्ैः समाचिता । 

क्षुससे कटे हुए हाथियोंके शुण्डदण्डोंसे यह पृथ्वी सर्पयुक्त-सी जान पड़ती थी। कहीं- 
कहीं योद्धाओंके मुखकमलोंसे व्याप्त होनेके कारण रणभूमि कमलपुष्पोंकी मालाओंसे 
अलंकृत-सी प्रतीत होती थी | २८३ ।। 


विचित्रोष्णीषमुकुटै: केयूराड्रदकुण्डलै: ।। २९ ।। 
स्वर्णचित्रतनुत्रैश्न भाण्डैश्न गजवाजिनाम्‌ | 
किरीटशतसंकीर्णा तत्र तत्र समाचिता ।। ३० ।। 
विरराज भृशं चित्रा मही नववधूरिव । 
विचित्र पगड़ी, मुकुट, केयूर, अंगद, कुण्डल, स्वर्णजटित कवच, हाथी-घोड़ोंके 
आभूषण तथा सैकड़ों किरीटोंसे यत्र-तत्र आच्छादित हुई वह युद्धभूमि नववधूके समान 
बम. शोभासे सुशोभित हो रही थी ।। २९-३० ३ ।। 
जे :कर्दमिनीं शोणितौघतरज्लिणीम्‌ ।। ३१ ।। 
मर्मास्थिभिरगाधां च केशशैवलशाद्धलाम्‌ । 
शिरोबाहूपलतटां रुग्णक्रोडास्थिसंकटाम्‌ ।। ३२ ।। 
चित्रध्वजपताकादूयां छत्रचापोर्मिमालिनीम्‌ | 
विगतासुमहाकायां गजदेहाभिसंकुलाम्‌ ।। ३३ ।। 
रथोडुपशताकीर्णा हयसंघातरोधसम्‌ | 
रथचक्रयुगेषाक्षकूबरैरतिदुर्गमाम्‌ ।। ३४ ।। 
प्रासासिशक्तिपरशुविशिखाहिदुरासदाम्‌ । 
बलकड़्कमहानक्रां गोमायुमकरोत्कटाम्‌ ।। ३५ |। 
गृध्रोदग्रमहाग्राहां शिवाविरुतभैरवाम्‌ । 
नृत्यत्प्रेतपिशाचाद्यैर्भूताकीर्णा सहस्रश: ।। ३६ ।। 
गतासुयोधनिश्लेष्टशरीरशतवाहिनीम्‌ । 
महाप्रतिभयां रौद्रां घोरां वैतरणीमिव ।। ३७ ।। 
नदीं प्रवर्तयामास भीरूणां भयवर्धिनीम्‌ | 


अर्जुनने कायरोंका भय बढ़ानेवाली वैतरणीके समान एक अत्यन्त भयंकर रौद्र और 
घोर रक्तकी नदी बहा दी, जो प्राणशून्य योद्धाओंके सैकड़ों निश्चेष्ट शरीरोंको बहाये लिये 
जाती थी। मज्जा और मेद ही उसकी कीचड़ थे। उसमें रक्तका ही प्रवाह था और रक्तकी 
ही तरंगें उठती थीं। वीरोंके मर्मस्थान एवं हड्डियोंसे व्याप्त हुई वह नदी अगाध जान पड़ती 
थी। केश ही उस नदीके सेवार और घास थे। योद्धाओंके कटे हुए मस्तक और भुजाएँ ही 
किनारेके छोटे-छोटे प्रस्तरखण्डोंका काम देती थीं। टूटी हुई छातीकी हड्डियोंसे वह दुर्गम हो 
रही थी। विचित्र ध्वज और पताकाएँ उसके भीतर पड़ी हुई थीं। छत्र और धनुषरूपी 
तरंगमालाओंसे वह अलंकृत थी। प्राणशून्य प्राणी ही उसके विशाल शरीरके अवयव थे, 
हाथियोंकी लाशोंसे वह भरी हुई थी, रथरूपी सैकड़ों नौकाएँ उसपर तैर रही थीं, घोड़ोंके 
समूह उसके तट थे, रथके पहिये, जूए, ईषादण्ड, धुरी और कूबर आदिके कारण वह नदी 
अत्यन्त दुर्गग जान पड़ती थी। प्रास, खड्ग, शक्ति, फरसे और बाणरूपी सर्पोसे युक्त 
होनेके कारण उसके भीतर प्रवेश करना कठिन था। कौए और कंक आदि जनन्‍्तु उसके 
भीतर निवास करनेवाले बड़े-बड़े नक्र (घड़ियाल) थे। गीदड़रूपी मगरोंके निवाससे उसकी 
उग्रता और बढ़ गयी थी। गीध ही उसमें प्रचण्ड एवं बड़े-बड़े ग्राह थे। गीदड़ियोंके चीत्कारसे 
वह नदी बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। नाचते हुए प्रेत-पिशाचादि सहस्रों भूतोंसे वह व्याप्त 
थी || ३१--३७३ || 

त॑ दृष्टवा तस्य विक्रान्तमन्तकस्येव रूपिण: ।। ३८ ।। 

अभूतपूर्व कुरुषु भयमागाद्‌ रणाजिरे । 

समरांगणमें मूर्तिमानू यमराजके समान अर्जुनके उस अभूतपूर्व पराक्रमको देखकर 
कौरवोंपर भय छा गया ।। ३८६ ।। 

तत आदाय वीराणामस्त्रैरस्त्राणि पाण्डव: ।। ३९ |। 

आत्मानं रौद्रमाचष्ट रौद्रकर्मण्यधिष्ठित: । 

तदनन्तर पाण्डुकुमार अर्जुन अपने अस्त्रोंद्वारा विपक्षी वीरोंके अस्त्र लेकर रौद्रकर्ममें 
तत्पर हो अपनेको रौद्र सूचित करने लगे || ३९३६ ।। 

ततो रथवरान्‌ राजन्नत्यतिक्रामदर्जुन: ।। ४० ।। 

मध्यंदिनगतं सूर्य प्रतपन्तमिवाम्बरे । 

न शेकुः सर्वभूतानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम्‌ ।। ४१ ।। 

राजन! तत्पश्चात्‌ अर्जुन बड़े-बड़े रथियोंको लाँचकर आगे बढ़ गये। उस समय 
आकाशमें तपते हुए दोपहरके सूर्यके समान पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर सम्पूर्ण प्राणी देख 
नहीं पाते थे || ४०-४१ ।। 

प्रसृतांस्तस्य गाण्डीवाच्छरव्रातान्‌ महात्मन: । 

संग्रामे सम्प्रपश्यामो हंसपड्धक्तिमिवाम्बरे || ४२ || 


उन महात्माके गाण्डीव धनुषसे छूटकर संग्राममें फैले हुए बाणसमूहोंको हम आकाशमें 
हंसोंकी पंक्तिके समान देखते थे ।। ४२ ।। 

विनिवार्य स वीराणामस्त्रैरस्त्राणि सर्वतः । 

दर्शयन्‌ रौद्रमात्मानमुग्रे कर्मणि घिष्ठित: ।। ४३ ।। 

वीरोंके अस्त्र-शस्त्रोंको अस्त्रोंद्वारा सब ओरसे रोककर अपने रौद्रभावका दर्शन कराते 
हुए वे उग्र कर्ममें संलग्न हो गये ।। ४३ ।। 

स तान्‌ रथवरान्‌ राजजन्नत्याक्रामत्‌ तदार्जुन: | 

मोहयजन्निव नाराचैर्जयद्रथवधेप्सया । 

विसृजन्‌ दिक्षु सर्वासु शरानसितसारथि: ।। ४४ ।। 

सरयथो व्यचरत्‌ तूर्ण प्रेक्षणीयो धनंजय: । 

राजन्‌! उस समय जयद्रथवधकी इच्छासे अर्जुन नाराचोंद्वारा उन महारथियोंको मोहित 
करते हुए-से लाँघ गये। श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे धनंजय सम्पूर्ण दिशाओंमें बाणोंकी 
वृष्टि करते हुए रथसहित तुरंत वहाँ विचरने लगे। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य 
थी || ४४३ || 

भ्रमन्त इव शूरस्य शरबत्राता महात्मन: ।। ४५ ।। 

अदृश्यन्तान्तरिक्षस्था: शतशो5थ सहसख्रश: । 

शूरवीर महात्मा अर्जुनके चलाये हुए सैकड़ों और हजारों बाणसमूह आकाशमें घूमते 
हुए-से दिखायी देते थे || ४५६ |। 

आददानं महेष्वासं संदधानं च सायकम्‌ ।। ४६ ।। 

विसृजन्तं च कौन्तेयं नानुपश्याम वै तदा । 

उस समय हम कुन्तीकुमार महाधनुर्धर अर्जुनको बाण लेते, चढ़ाते और छोड़ते समय 
देख नहीं पाते थे || ४६३ ।। 

तथा सर्वा दिशो राजन्‌ सर्वाश्व रथिनो रणे ।। ४७ ।। 

कदम्बीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत्‌ । 

राजन! इस प्रकार अर्जुनने रणक्षेत्रमें सम्पूर्ण दिशाओं और समस्त रथियोंको कदम्बके 
फूलके समान रोमांचित करके जयद्रथपर धावा किया ।। ४७३ ।। 

विव्याध च चतु:षष्ट्या शराणां नतपर्वणाम्‌ ।। ४८ ।। 

सैन्धवाभिमुखं यान्तं योधा: सम्प्रेक्ष्य पाण्डवम्‌ । 

न्यवर्तन्त रणाद्‌ वीरा निराशास्तस्य जीविते ।। ४९ ।। 

साथ ही उसे झुकी हुई गाँठवाले चौंसठ बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया। पाण्डुपुत्र 
अर्जुनको सिंधुराजके सम्मुख जाते देख हमारे पक्षके वीर योद्धा उसके जीवनसे निराश 
होकर युद्धसे निवृत्त हो गये || ४८-४९ ।। 

यो यो<भ्यधावदाक्रन्दे तावक: पाण्डवं रणे । 


तस्य तस्यान्तगा बाणा: शरीरे न्यपतन्‌ प्रभो || ५० ।। 

प्रभो! उस घोर संग्राममें आपके पक्षका जो-जो योद्धा पाण्डुपुत्र अर्जुनकी ओर बढ़ा, 
उस-उसके शरीरपर प्राणान्तकारी बाण पड़ने लगे ।। ५० ।। 

कबन्धसंकुलं चक्रे तव सैन्यं महारथ: । 

अर्जुनो जयतां श्रेष्ठ: शरैरग्न्यंशुसंनिभै: ।। ५१ ।। 

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ महारथी अर्जुनने अग्निकी ज्वालाके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा 
आपकी सेनाको कबन्धोंसे भर दिया ।। ५१ ।। 

एवं तत्‌ तव राजेन्द्र चतुरड्गबलं तदा । 

व्याकुलीकृत्य कौन्तेयो जयद्रथमुपाद्रवत्‌ ।। ५२ ।। 

राजेन्द्र! उस समय इस प्रकार आपकी उस चतुरंगिणी सेनाको व्याकुल करके 
कुन्तीकुमार अर्जुन जयद्रथकी ओर बढ़े ।। ५२ ।। 

द्रौर्णि पज्चाशताविध्यद्‌ वृषसेन त्रिभि: शरै: । 

कृपायमाण: कौन्तेय: कृपं॑ नवभिरार्दयत्‌ ।। ५३ ।। 

उन्होंने अश्वत्थामाकों पचास और वृषसेनको तीन बाणोंसे बींध डाला। कृपाचार्यको 
कृपापूर्वक केवल नौ बाण मारे ।। ५३ ।। 

शल्यं षोडशभिर्बाणै: कर्ण द्वात्रिंशता शरै: | 

सैन्धवं तु चतुःषष्टया विद्ध्वा सिंह इवानदत्‌ ।। ५४ ।। 

शल्यको सोलह, कर्णको बत्तीस और सिंधुराजको चौंसठ बाणोंसे घायल करके 
अर्जुनने सिंहके समान गर्जना की || ५४ ।। 

सैन्धवस्तु तथा विद्ध: शरैगाण्डीवधन्वना । 

न चक्षमे सुसंक्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विप: ।। ५५ ।। 

गाण्डीवधारी अर्जुनके चलाये हुए बाणोंसे उस प्रकार घायल होनेपर सिंधुराज सहन न 
कर सका। वह अंकुशकी मार खाये हुए हाथीके समान अत्यन्त कुपित हो उठा ।। ५५ ।। 

स वराहध्वजस्तूर्ण गार्धपत्रानजिद्दगान्‌ । 

क्रुद्धाशीविषसंकाशान्‌ कर्मारपरिमार्जितान्‌ । ५६ ।। 

आकर्णपूर्णान्‌ चिक्षेप फाल्गुनस्य रथं प्रति । 

उसकी ध्वजापर वाराहका चिह्न था। उसने गीधकी पाँखोंसे युक्त, सीधे जानेवाले, 
सोनारके माँजे हुए तथा कुपित विषधरके समान बहुत-से बाण धनुषको कानतक खींचकर 
शीघ्रतापूर्वक अर्जुनके रथकी ओर चलाये ।। ५६३ ।। 

त्रिभिस्तु विद्ध्वा गोविन्द नाराचै: षड़भिरजुनम्‌ ।। ५७ ।। 

अष्टभिवाजिनो<विध्यद्‌ ध्वजं चैकेन पत्रिणा । 

तीन बाणोंसे श्रीकृष्णको, छः नाराचोंसे अर्जुनको तथा आठ बाणोंसे घोड़ोंको घायल 
करके जयद्रथने एक बाणसे अर्जुनकी ध्वजाको भी बींध डाला || ५७ $ ।। 


स विक्षिप्यार्जुनस्तूर्ण सैन्धवप्रहितान्‌ शरान्‌ ।। ५८ ।। 

युगपत्‌ तस्य चिच्छेद शराभ्यां सैन्धवस्थ ह | 

सारथेश्व शिर: कायाद्‌ ध्वजं च समलंकृतम्‌ ।। ५९ ।। 

परंतु अर्जुनने तुरंत ही जयद्रथके चलाये हुए बाणोंको काट गिराया और एक ही साथ 
दो बाणोंसे सिंधुराजके सारथिका सिर तथा अलंकारोंसे सुशोभित उसका ध्वज भी काट 
डाला ।। ५८-५९ || 

स छिन्नयष्टि: सुमहान्‌ धनंजयशराहत:ः । 

वराह: सिन्धुराजस्य पपाताग्निशिखोपम: ।। ६० ।। 

धनंजयके बाणोंसे आहत हो अग्निशिखाके समान तेजस्वी वह सिंधुराजका महान्‌ 
वाराह॒ध्वज दण्ड कट जानेसे पृथ्वीपर गिर पड़ा || ६० ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु द्रुतं गच्छति भास्करे । 

अब्रवीत्‌ पाण्डवं राजंस्त्वरमाणो जनार्दन: ॥। ६१ ।। 

राजन्‌! इसी समय जब कि सूर्यदेव तीव्रगतिसे अस्ताचलकी ओर जा रहे थे, उतावले 
हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डुपुत्र अर्जुनसे कहा-- ।। ६१ ।। 

एष मध्ये कृत: षड्भि: पार्थ वीरैर्महारथै: । 

जीवितेप्सुर्महाबाहो भीतस्तिष्ठति सैन्धव: ।। ६२ ।। 

“महाबाहु पार्थ! यह सिंधुराज जयद्रथ प्राण बचानेकी इच्छासे भयभीत होकर खड़ा है 
और उसे छ: वीर महारथियोंने अपने बीचमें कर रखा है || ६२ ।। 

एताननिर्जित्य रणे षड्‌ रथान्‌ पुरुषर्षभ । 

न शक्‍्य: सैन्धवो हन्तुं यतो निर्व्याजमर्जुन ।। ६३ ।। 

“नरश्रेष्ठ अर्जुन! रणभूमिमें इन छः: महारथियोंको परास्त किये बिना सिंधुराजको बिना 
मायाके जीता नहीं जा सकता है ।। ६३ ।। 

योगमत्र विधास्यामि सूर्यस्यावरणं प्रति । 

अस्तंगत इति व्यक्त द्रक्ष्यत्येक: स सिन्धुराट्‌ ।। ६४ ।। 

“अतः मैं यहाँ सूर्यदेवको ढकनेके लिये कोई युक्ति करूँगा, जिससे अकेला सिंधुराज ही 
सूर्यको स्पष्टरूपसे अस्त हुआ देखेगा ।। ६४ ।। 

हर्षेण जीविताकाडक्षी विनाशार्थ तव प्रभो । 

न गोप्स्यति दुराचार: स आत्मानं कथंचन ।। ६५ ।। 

'प्रभो! वह दुराचारी हर्षपूर्वक अपने जीवनकी अभिलाषा रखते हुए तुम्हारे विनाशके 
लिये उतावला होकर किसी प्रकार भी अपने-आपको गुप्त नहीं रख सकेगा ।। ६५ || 

तत्र छिठ्रे प्रहर्तव्यं त्वयास्य कुरुसत्तम । 

व्यपेक्षा नैव कर्तव्या गतो5स्तमिति भास्कर: ।। ६६ ।। 


“कुरुश्रेष्ठ॒ वैसा अवसर आनेपर तुम्हें अवश्य उसके ऊपर प्रहार करना चाहिये। इस 
बातपर ध्यान नहीं देना चाहिये कि सूर्यदेव अस्त हो गये” ।। ६६ ।। 

एवमस्त्विति बी भत्सु: केशवं प्रत्यभाषत । 

ततो$5सृजत्‌ तम: कृष्ण: सूर्यस्यावरणं प्रति ।। ६७ ।। 

योगी योगेन संयुक्तो योगिनामीश्वरो हरि: । 

यह सुनकर अर्जुनने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा--'प्रभो! ऐसा ही हो।” तब योगी, 
योगयुक्त और योगीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने सूर्यको छिपानेके लिये अन्धकारकी सृष्टि 
की || ६७३ ।। 

सृष्टे तमसि कृष्णेन गतो5स्तमिति भास्कर: | ६८ ।। 

त्वदीया जह्॒षुर्योधा: पार्थनाशान्नराधिप । 

नरेश्वर! श्रीकृष्णद्वारा अन्धकारकी सृष्टि होनेपर सूर्यदेव अस्त हो गये, ऐसा मानते हुए 
आपके योद्धा अर्जुनका विनाश निकट देख हर्षमग्न हो गये ।। ६८ ३ ।। 

ते प्रहष् रणे राजन्‌ नापश्यन्‌ सैनिका रविम्‌ ।। ६९ ।। 

उन्नाम्य वक्त्राणि तदा स च राजा जयद्रथ: । 

राजन! उस रणक्षेत्रमें हर्षमग्न हुए आपके सैनिकोंने सूर्यकी ओर देखातक नहीं। केवल 
राजा जयद्रथ उस समय बारंबार मुँह ऊँचा करके सूर्यकी अरि देख रहा था ।। ६९३ ।। 

वीक्षमाणे ततस्तस्मिन्‌ सिन्धुराजे दिवाकरम्‌ | ७० ।। 

पुनरेवाब्रवीत्‌ कृष्णो धनंजयमिदं वच: । 

जब इस प्रकार सिंधुराज दिवाकरकी ओर देखने लगा, तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुनः 
अर्जुनसे इस प्रकार बोले-- || ७० $ ।। 

पश्य सिन्धुपतिं वीर प्रेक्षमाणं दिवाकरम्‌ ।। ७१ ।। 

भयं हि विप्रमुच्यैतत्‌ त्वत्तो भरतसत्तम । 

“भरतश्रेष्ठ) देखो, यह वीर सिंधुराज अब तुम्हारा भय छोड़कर सूर्यदेवकी ओर 
दृष्टिपात कर रहा है ।। 

अयं कालो महाबाहो वधायास्य दुरात्मन: ।। ७२ ।। 

छिन्धि मूर्धानमस्थाशु कुरु साफल्यमात्मन: । 

“महाबाहो! इस दुरात्माके वधका यही अवसर है। तुम शीघ्र इसका मस्तक काट डालो 
और अपनी प्रतिज्ञा सफल करो” ।| ७२६ ।। 

इत्येवं केशवेनोक्त: पाण्डुपुत्र: प्रतापवान्‌ । ७३ ।। 

न्यवधीत्‌ तावकं सैन्यं शरैरकाग्निसंनि भै: । 

श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर प्रतापी पाण्डुपुत्र अर्जुनने सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी 
बाणोंद्वारा आपकी सेनाका वध आरम्भ किया || ७३३ ।। 


कृपं विव्याध विंशत्या कर्ण पज्चाशता शरै: ।। ७४ ।। 

शल्यं दुर्योधनं चैव षड़भि: षड़भिरताडयत्‌ | 

वृषसेनं तथाष्टाभि: षष्ट्या सैन्धवमेव च ।। ७५ ।। 

उन्होंने कृपाचार्यको बीस, कर्णको पचास तथा शल्य और दुर्योधनको छ:-छ: बाण 
मारे। साथ ही वृषसेनको आठ और सिंधुराज जयद्रथको साठ बाणोंसे घायल कर 
दिया || ७४-७५ || 

तथैव च महाबाहुस्त्वदीयान्‌ पाण्डुनन्दन: । 

गाढं विद्ध्वा शरै राजन्‌ जयद्रथमुपाद्रवत्‌ ।। ७६ ।। 

राजन्‌! इसी प्रकार महाबाहु पाण्डुनन्दन अर्जुनने आपके अन्य सैनिकोंको भी 
बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचाकर जयद्रथपर धावा किया || ७६ |। 

त॑ समीपस्थितं दृष्टवा लेलिहानमिवानलम्‌ । 

जयद्रथस्य गोप्तार: संशयं परमं गता: ।। ७७ ।। 

अपनी लपटोंसे सबको चाट जानेवाली आगके समान अर्जुनको निकट खड़ा देख 
जयद्रथके रक्षक भारी संशयमें पड़ गये || ७७ ।। 

तत: सर्वे महाराज तव योधा जयैषिण: । 

सिषिचु: शरधाराभि: पाकशासनिमाहवे || ७८ ।। 

महाराज! उस समय विजयकी अभिलाषा रखनेवाले आपके समस्त योद्धा युद्धस्थलमें 
इन्द्रकुमार अर्जुनका बाणोंकी धाराओंसे अभिषेक करने लगे ।। ७८ ।। 

संछाद्यमान: कौन्तेय: शरजालैरनेकश: । 

अक्रुध्यत्‌ स महाबाहुरजित: कुरुनन्दन: ।। ७९ ।। 

इस प्रकार बारंबार बाणसमूहोंसे आच्छादित किये जानेपर कुरुकूुलको आनन्दित 
करनेवाले अपराजित वीर कुन्तीकुमार महाबाहु अर्जुन अत्यन्त कुपित हो उठे || ७९ ।। 

तत: शरमयं जाल॑ तुमुलं पाकशासनि: । 

व्यसृजत्‌ पुरुषव्याप्रस्तव सैन्यजिघांसया ।। ८० ।। 

फिर उन पुरुषसिंह इन्द्रकुमारने आपकी सेनाके संहारकी इच्छासे बाणोंका भयंकर 
जाल बिछाना आरम्भ किया || ८० |। 

ते हन्यमाना वीरेण योधा राजन्‌ रणे तव । 

प्रजहु: सैन्धवं भीता द्वौ सम॑ नाप्यधावताम्‌ ।। ८१ ।। 

राजन! उस समय रणभूमिमें वीर अर्जुनकी मार खानेवाले योद्धा भयभीत हो 
सिंधुराजको छोड़ भाग चले। वे इतने डर गये थे कि दो सैनिक भी एक साथ नहीं भागते 
थे।। ८१ |। 

तत्राद्भुतमपश्याम कुन्तीपुत्रस्य विक्रमम्‌ । 

तादृड़ न भावी भूतो वा यच्चकार महायशा: ।। ८२ ।। 


वहाँ हमलोगोंने कुन्तीकुमारका अद्भुत पराक्रम देखा। उन महायशस्वी वीरने उस समय 
जो पुरुषार्थ प्रकट किया था, वैसा न तो पहले कभी प्रकट हुआ था और न आगे कभी होगा 
ही ।। ८२ ।। 

द्विपान द्विपगतांश्वैव हयान्‌ हयगतानपि । 

तथा स रथिनश्वैव न्यहन्‌ रुद्र: पशूनिव ।। ८३ ।। 

जैसे संहारकारी रुद्र समस्त प्राणियोंका विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार उन्होंने 
हाथियों और हाथीसवारोंको, घोड़ों और घुड़सवारोंको तथा रथों एवं रथियोंको भी नष्ट कर 
दिया ।। ८३ ।। 

न तत्र समरे कश्रिन्मया दृष्टो नराधिप । 

गजो वाजी नरो वापि यो न पार्थशराहत: ।। ८४ ।। 

नरेश्वर! उस समरभूमिमें मैंने कोई भी ऐसा हाथी, घोड़ा या मनुष्य नहीं देखा, जो 
अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत न हो गया हो || ८४ ।। 

रजसा तमसा चैव योधा: संछन्नचक्षुष: । 

कश्मलं प्राविशन्‌ घोरं नान्वजानन्‌ परस्परम्‌ ।। ८५ ।। 

उस समय धूल और अन्धकारसे सारे योद्धाओंके नेत्र आच्छादित हो गये थे। वे भयंकर 
मोहमें पड़ गये। उनके लिये एक-दूसरेको पहचानना भी असम्भव हो गया ।। 

ते शरैर्भिन्नमर्माण: सैनिका: पार्थचोदितै: । 

बभ्रमुश्नस्खलु: पेतु: सेदुर्मम्लुश्न भारत ।। ८६ ।। 

भारत! अर्जुनके चलाये हुए बाणोंसे जिनके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये थे, वे सैनिक 
चक्कर काटते, लड़खड़ाते, गिरते, व्यथित होते और प्राणशून्य होकर मलिन हो जाते 
थे।। ८६ |। 

तस्मिन्‌ महाभीषणके प्रजानामिव संक्षये । 

रणे महति दुष्पारे वर्तमाने सुदारुणे || ८७ ।। 

शोणितस्य प्रसेकेन शीघ्रत्वादनिलस्यथ च । 

अशाम्यत्‌ तद्‌ रजो भौममसृक्सिक्ते धरातले ॥। ८८ ।। 

आनाभि निरमज्जंक्ष रथचक्राणि शोणिते । 

समस्त प्राणियोंके प्रॉलयकालके समान जब वह महाभीषण अत्यन्त दारुण महान्‌ एवं 
दुर्लड़घ्य संग्राम चल रहा था, उस समय रक्तकी वर्षासे और वायुके वेगपूर्वक चलनेसे 
रुधिरसे भीगे हुए धरातलकी धूल शान्त हो गयी। रथके पहिये नाभितक खूनमें डूबे हुए 
थे || ८७-८८ ६ || 

मत्ता वेगवतो राजंस्तावकानां रणाड्रणे ।। ८९ ।। 

हस्तिनश्ष हतारोहा दारिताड़ा: सहस्रश: । 

स्वान्यनीकानि मृद्नन्त आर्तनादा: प्रदुद्रुवु: ॥॥ ९० ।। 


राजन! जिनके सवार मार डाले गये थे और समस्त अंग बाणोंसे विदीर्ण हो रहे थे, वे 
आपके योद्धाओंके वेगवान्‌ और मदमत्त सहस्रों हाथी समरभूमिमें अपनी ही सेनाओंको 
रौंदते और आर्तनाद करते हुए जोर-जोरसे भागने लगे ।। ८९-९० ।। 

हयाश्न पतितारोहा: पत्तयश्न नराधिप । 

प्रदुद्रुवर्भयाद्‌ राजन्‌ धनंजयशराहता: ।॥। ९१ ।। 

नरेश्वर! राजन! घुड़सवार गिर गये थे और घोड़े एवं पैदल सैनिक धनंजयके बाणोंसे 
अत्यन्त घायल हो भयके मारे भागे जा रहे थे || ९१ ।। 

मुक्तकेशा विकवचा: क्षरन्त: क्षतजं क्षतै: । 

प्रापलायन्त संत्रस्तास्त्यक्त्वा रणशिरो जना: ।। ९२ ।। 

लोगोंके बाल खुले हुए थे, कवच कटकर गिर गये थे और वे अत्यन्त भयभीत हो 
युद्धका मुहाना छोड़कर अपने घावोंसे रक्तकी धारा बहाते हुए जान बचानेके लिये भाग रहे 
थे ।। ९२ ।। 

ऊरुग्राहगृहीताश्न केचित्‌ तत्राभवन्‌ भुवि । 

हतानां चापरे मध्ये द्विरदानां निलिल्यिरे ।॥ ९३ ।। 

कुछ लोग बिना हिले-डुले इस प्रकार भूमिपर खड़े थे, मानो उनकी जाँघें अकड़ गयी 
हों। दूसरे बहुत-से सैनिक वहाँ मारे गये हाथियोंके बीचमें जा छिपे थे || ९३ ।। 

एवं तव बल राजन द्रावयित्वा धनंजय: । 

न्यवधीत्‌ सायकैघोरै: सिन्धुराजस्य रक्षिण: ।। ९४ ।। 

राजन! इस प्रकार अर्जुनने आपकी सेनाको भगाकर भयंकर बाणोंद्वारा सिंधुराजके 
रक्षकोंको मारना आरम्भ किया ।। ९४ ।। 

द्रौर्णि कृपं कर्णशल्यौ वृषसेनं सुयोधनम्‌ । 

छादयामास तीव्रेण शरजालेन पाण्डव: ।। ९५ ।। 

पाण्डुकुमार अर्जुनने अपने तीखे बाणसमूहसे अश्व॒त्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शल्य, 
वृषसेन तथा दुर्योधनको आच्छादित कर दिया ।। ९५ ।। 

न गृह्नन्‌ न क्षिपन्‌ राजन्‌ मुज्चन्नापि च संदधत्‌ । 

अदृश्यतार्जुन: संख्ये शीघ्रास्त्रत्वात्‌ कथंचन ।। ९६ ।। 

राजन! उस समय युद्धस्थलमें अर्जुन इतनी फुर्तीसे बाण चलाते थे कि कोई किसी 
प्रकार भी यह न देख सका कि वे कब बाण लेते हैं, कब उसे धनुषपर रखते हैं, कब प्रत्यंचा 
खींचते हैं और कब वह बाण छोड़ते हैं || ९६ ।। 

धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते स्मास्यत: सदा । 

सायकाश्च व्यदृश्यन्त निश्चरन्त: समन्तत: ।। ९७ |। 

निरन्तर बाण छोड़ते हुए अर्जुनका केवल मण्डलाकार धनुष ही लोगोंकी दृष्टिमें आता 
था एवं चारों ओर फैलते हुए उनके बाण भी दृष्टिगोचर होते थे || ९७ ।। 


कर्णस्य तु धनुश्छित्त्वा वृषसेनस्थ चैव ह । 

शल्यस्य सूतं भल्‍लेन रथनीडादपातयत्‌ ।। ९८ ।। 

अर्जुनने कर्ण और वृषसेनके धनुष काटकर एक भल्‍ल्लके द्वारा शल्यके सारथिको 
रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया ।। ९८ ।। 

गाढविद्धावुभौ कृत्वा शरै: स्वस्नीयमातुलौ । 

अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो द्रौणिशारद्वतो रणे ।। ९९ ।। 

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने रणभूमिमें मामा-भानजे कृपाचार्य और अभश्वत्थामा 
दोनोंको बाणोंद्वारा बीधकर गहरी चोट पहुँचायी ।। ९९ ।। 

एवं तान्‌ व्याकुलीकृत्य त्वदीयानां महारथान्‌ | 

उज्जहार शरं घोरं पाण्डवो5नलसंनिभम्‌ ।। १०० || 

इस प्रकार आपके उन महारथियोंको व्याकुल करके पाण्डुकुमार अर्जुनने एक अग्निके 
समान तेजस्वी एवं भयंकर बाण निकाला || १०० || 

इन्द्राशनिसमप्रख्यं दिव्यमस्त्राभिमन्त्रितम्‌ । 

सर्वभारसहं शश्चद्‌ गन्धमाल्यार्चितं महत्‌ ।। १०१ ।। 

वह दिव्य बाण दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित होकर इन्द्रके वज़के समान प्रकाशित हो रहा 
था। वह सब प्रकारका भार सहन करनेमें समर्थ और महान्‌ था। उसकी गन्ध और 
मालाओंद्वारा सदा पूजा की जाती थी ।। 

वज्ञेणास्त्रेण संयोज्य विधिवत्‌ कुरुनन्दन: । 

समादधन्‍न्महाबाहुर्गाण्डीवे क्षिप्रमर्जुन: ।। १०२ ।। 

कुरुनन्दन महाबाहु अर्जुनने उस बाणको विधिपूर्वक वच्ञास्त्रसे संयोजित करके शीघ्र 
ही गाण्डीव धनुषपर रखा ।। १०२ |। 

तस्मिन्‌ संधीयमाने तु शरे ज्वलनतेजसि । 

अन्तरिक्षे महानादो भूतानामभवन्नूप | १०३ ।। 

नरेश्वर! जब अर्जुन अग्निके समान तेजस्वी उस बाणका संधान करने लगे, उस समय 
आकाशबचारी प्राणियोंमें महान्‌ कोलाहल होने लगा || १०३ ।। 

अब्रवीच्च पुनस्तत्र त्वरमाणो जनार्दन: । 

धनंजय शिरश्छिन्धि सैन्धवस्य दुरात्मन: ।। १०४ ।। 

उस समय वहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुन: उतावले होकर बोल उठे--'धनंजय! तुम 
दुरात्मा सिंधुराजका मस्तक शीघ्र काट लो || १०४ ।। 

अस्तं महीधरश्रेष्ठं यियासति दिवाकर: । 

शृणुष्वैतच्च वाक्‍्यं मे जयद्रथवर्ध प्रति ॥। १०५ ।। 

"क्योंकि सूर्य अब पर्वतश्रेष्ठ अस्ताचलपर जाना ही चाहते हैं। जयद्रथवधके विषयमें 
तुम मेरी यह बात ध्यानसे सुन लो || १०५ ।। 


वृद्धक्षत्र: सैन्धवस्य पिता जगति विश्रुत: । 

स कालेनेह महता सैन्धवं प्राप्तवान्‌ सुतम्‌ ।। १०६ ।। 

सिंधुराजके पिता वृद्धक्षत्र इस जगत्‌में विख्यात हैं। उन्होंने दीर्घकालके पश्चात्‌ इस 
सिंधुराज जयद्रथको अपने पुत्रके रूपमें प्राप्त किया || १०६ ।। 

जयद्रथममित्रघ्नं वागुवाचाशरीरिणी । 

नृपमन्तर्हिता वाणी मेघदुन्दुभिनि:स्वना ।। १०७ |। 

“इसके जन्मकालमें मेघके समान गम्भीर स्वरवाली अदृश्य आकाशवाणीने शत्रुसूदन 
जयद्रथके विषयमें राजाको सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-- || १०७ ।। 

तवात्मजो मनुष्येन्द्र कुलशीलदमादिभि: । 

गुणैर्भविष्यति विभो सदृशो वंशयोर्द्धयो: ।। १०८ ।। 

'शाक्तिशाली नरेन्द्र! तुम्हारा यह पुत्र कुल, शील और संयम आदि सदगुणोंके द्वारा 
दोनों वंशोंके अनुरूप होगा ।। १०८ ।। 

क्षत्रियप्रवरो लोके नित्यं शूराभिसत्कृत: । 

कि त्वस्य युध्यमानस्य संग्रामे क्षत्रियर्षभ: ।। १०९ ।। 

शिरश्छेत्स्यति संक्रुद्धः शत्रुरालक्षितो भुवि । 

“इस जगतके क्षत्रियोंमें यह श्रेष्ठ माना जायगा। शूरवीर सदा इसका सत्कार करेंगे; 
परंतु अन्त समयमें संग्रामभूमिमें युद्ध करते समय कोई क्षत्रियशिरोमणि वीर इसका शत्रु 
होकर इसके सामने खड़ा हो क्रोधपूर्वक इसका मस्तक काट डालेगा” ।। १०९३ ।। 

एतच्छुत्वा सिन्धुराजो ध्यात्वा चिरमरिंदम: ।। ११० ।। 

ज्ञातीन्‌ सर्वनिवाचेदं पुत्रस्नेहाभिचोदित: । 

“यह सुनकर शत्रुओंका दमन करनेवाले सिंधुराज वृद्धछत्र देरतक कुछ सोचते रहे, फिर 
पुत्रस्नेहसे प्रेरित हो वे समस्त जाति-भाइयोंसे इस प्रकार बोले-- ।। 

संग्रामे युध्यमानस्य वहतो महतीं धुरम्‌ ।। १११ ।। 

धरण्यां मम पुत्रस्य पातयिष्यति यः शिर: । 

तस्यापि शतधा मूर्थधा फलिष्यति न संशय: ।। ११२ ।। 

'संग्राममें युद्धतत्पर हो भारी भार वहन करते हुए मेरे इस पुत्रके मस्तकको जो 
पृथ्वीपर गिरा देगा, उसके सिरके भी सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे, इसमें संशय नहीं 
हैं! | १११-११२ ।। 

एवमुकत्वा ततो राज्ये स्थापयित्वा जयद्रथम्‌ | 

वृद्धक्षत्रो वनं यातस्तपश्चोग्रं समास्थित: ।। ११३ ।। 

“ऐसा कहकर समय आनेपर वृद्धक्षत्रने जयद्रथको राज्य सिंहासनपर स्थापित कर 
दिया और स्वयं वनमें जाकर वे उग्र तपस्यामें संलग्न हो गये || ११३ ।। 

सो<यं तप्यति तेजस्वी तपो घोरं दुरासदम्‌ | 


समनन्‍तपजञ्चकादस्माद्‌ बहिर्वानरकेतन ।। ११४ ।। 

“कपिध्वज अर्जुन! वे तेजस्वी राजा वृद्धक्षत्र इस समय इस समन्तपंचक-द्षेत्रसे बाहर 
घोर एवं दुर्धर्ष तपस्या कर रहे हैं ।। ११४ ।। 

तस्माज्जयद्रथस्य त्वं शिरश्छित्त्वा महामृथे । 

दिव्येनास्त्रेण रिपुहन्‌ घोरेणाद्भुतकर्मणा ।। ११५ ।। 

सकुण्डलं सिन्धुपते: प्रभगजजनसुतानुज । 

उत्सड़े पातयस्वास्य वृद्धक्षत्रस्थ भारत ।। ११६ ।। 

“अतः शत्रुसूदन! तुम अद्भुत कर्म करनेवाले किसी भयंकर दिव्यास्त्रके द्वारा इस 
महासमरमें सिंधुराज जयद्रथका कुण्डलसहित मस्तक काटकर उसे इस वृद्धक्षत्रकी गोदमें 
गिरा दो। भारत! तुम भीमसेनके छोटे भाई हो (अतः सब कुछ कर सकते 
हो) || ११५-११६ ।। 

अथ त्वमस्य मूर्धानं पातयिष्यसि भूतले । 

तवापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशय: ।। ११७ ।। 

“यदि तुम इसके मस्तकको पृथ्वीपर गिराओगे तो तुम्हारे मस्तकके भी सौ टुकड़े हो 
जायँगे। इसमें संशय नहीं है” || ११७ ।। 

यथा चेदं न जानीयात्‌ स राजा तपसि स्थित: । 

तथा कुरु कुरुश्रेष्ठ दिव्यमस्त्रमुपाश्रित: ।। ११८ ।। 

“कुरुश्रेष्ठ! राजा वृद्धक्षत्र तपस्यामें संलग्न हैं। तुम दिव्यास्त्रका आश्रय लेकर ऐसा 
प्रयत्न करो, जिससे उसे इस बातका पता न चले” ।। ११८ ।। 

न हयूसाध्यमकार्य वा विद्यते तव किंचन । 

समस्तेष्वपि लोकेषु त्रिषु वासवनन्दन ।। ११९ ।। 

“इन्द्रकुमार! सम्पूर्ण त्रिलोकीमें कोई ऐसा कार्य नहीं है, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो 
अथवा जिसे तुम कर न सको” ।। ११९ || 

एतच्छुत्वा तु वचनं सक्किणी परिसंलिहन्‌ । 

इन्द्राशनिसमस्पर्श दिव्यमन्त्राभिमन्त्रितम्‌ ।। १२० ।। 

सर्वभारसहं शश्वद्‌ गन्धमाल्यार्चितं शरम्‌ । 

विससर्जार्जुनस्तूर्ण सैन्धवस्य वधे धृतम्‌ । १२१ ।। 

श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर अपने दोनों गलफर चाटते हुए अर्जुनने सिंधुराजके 
वधके लिये धनुषपर रखे हुए उस बाणको तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्रके वजके 
समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारोंको सहनेमें 
समर्थ था और जिसकी प्रतिदिन चन्दन और पुष्पमालाद्वारा पूजा की जाती 
थी ।। १२०-१२१ || 

स तु गाण्डीवनिर्मुक्त: शर: श्येन इवाशुग: । 


छित्त्वा शिर: सिन्धुपतेरुत्पपात विहायसम्‌ ।। १२२ ।। 

गाण्डीव धनुषसे छूटा हुआ वह शीघ्रगामी बाण सिंधुराजका सिर काटकर बाजपक्षीके 
समान उसे आकाशमें ले उड़ा || १२२ ।। 

तच्छिर: सिन्धुराजस्य शरैरूर्ध्वमवाहयत्‌ | 

दुर्हदामप्रहर्षाय सुह्ृदां हर्षणाय च ।। १२३ ।। 

सिंधुराज जयद्रथके उस मस्तकको उन्होंने बाणोंद्वारा ऊपर-ही-ऊपर ढोना आरम्भ 
किया। इससे अर्जुनके शत्रुओंको बड़ा दुःख और मित्रोंको महान्‌ हर्ष हुआ || १२३ ।। 

शरै: कदम्बकीकृत्य काले तस्मिंश्व पाण्डव: । 

योधयामास तांश्वैव पाण्डव: षण्महारथान्‌ ।। १२४ ।। 

उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुने एकके बाद एक करके अनेक बाण मारकर उस 
मस्तकको कदम्बके फूल-सा बना दिया। साथ ही वे पूर्वोक्त छ: महारथियोंसे युद्ध भी करते 
रहे || १२४ ।। 

ततः सुमहदाश्चर्य तत्रापश्याम भारत | 

समन्तपज्चकाद्‌ बाहां शिरो यद्‌ व्यहरत्‌ ततः ।। १२५ ।। 

भारत! उस समय हमने समनन्‍्तपंचकसे बाहर जहाँ वह बाण उस मस्तकको ले गया 
था, वहाँ बड़े भारी आश्चर्यकी घटना देखी || १२५ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु वृद्धक्षत्रो महीपति: । 

संध्यामुपास्ते तेजस्वी सम्बन्धी तव मारिष || १२६ ।। 

आर्य! इसी समय आपके तेजस्वी सम्बन्धी राजा वृद्धक्षत्र संध्योपासना कर रहे 
थे ।। १२६ |। 

उपासीनस्य तस्याथ कृष्णकेशं सकुण्डलम्‌ | 

सिन्धुराजस्य मूर्धानमुत्सड़े समपातयत्‌ ।। १२७ ।। 

संध्योपासनामें बैठे हुए वृद्धक्षत्रके अंकमें उस बाणने सिंधुराज जयद्रथका वह काले 
केशोंवाला कुण्डलमण्डित मस्तक डाल दिया ।। १२७ ।। 

तस्योत्सड्रे निपतितं शिरस्तच्चारुकुण्डलम्‌ । 

वृद्धक्षत्रस्थ नृपतेरलक्षितमरिंदम ।। १२८ ।। 

शत्रुदमन नरेश! जयद्रथका वह सुन्दर कुण्डलोंसे सुशोभित सिर राजा वृद्धक्षत्रकी 
गोदमें उनके बिना देखे ही गिर गया ।। १२८ ।। 

कृतजप्यस्य तस्याथ वृद्धक्षत्रस्यथ भारत । 

प्रोत्तेिछठतस्तत्‌ सहसा शिरो5गच्छद्‌ धरातलम्‌ ।। १२९ |। 

भरतनन्दन! जप समाप्त करके जब वृद्धक्षत्र सहसा उठने लगे, तब उनकी गोदसे वह 
मस्तक पृथ्वीपर जा गिरा ।। १२९ ।। 

ततस्तस्य नरेन्द्रस्य पुत्रमूर्धनि भूतले । 


गते तस्यापि शतधा मूर्धागच्छदरिंदम || १३० ।। 

शत्रुदमन महाराज! पुत्रका मस्तक पृथ्वीपर गिरते ही राजा वृद्धक्षत्रके मस्तकके भी सौ 
टुकड़े हो गये || १३० ।। 

तत: सर्वाणि सैन्यानि विस्मयं जग्मुरुत्तमम्‌ । 

वासुदेवं च बीभत्सुं प्रशशंसुर्महारथम्‌ ।। १३१ ।। 

तदनन्तर सारी सेनाएँ भारी आश्वर्यमें पड़ गयीं और सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुनकी 
प्रशंसा करने लगे || १३१ ।। 

ततो विनिहते राजन्‌ सिन्धुराजे किरीटिना । 

तमस्तद्‌ वासुदेवेन संहृतं भरतर्षभ ।। १३२ ।। 

राजन! भरतश्रेष्ठ! किरीटधारी अर्जुनके द्वारा सिंधुराज जयद्रथके मारे जानेपर भगवान्‌ 
श्रीकृष्णने अपने रचे हुए अन्धकारको समेट लिया ।। १३२ ।। 

पश्चाज्ज्ञातं महीपाल तव पुत्रै: सहानुगै: । 

वासुदेवप्रयुक्तेयं मायेति नृपसत्तम || १३३ ।। 

नृपश्रेष्ठ॒ महीपाल! पीछे सेवकोंसहित आपके पुत्रोंको यह ज्ञात हुआ कि इस 
अन्धकारके रूपमें भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वारा फैलायी हुई माया थी ।। १३३ ।। 

एवं स निहतो राजन्‌ पार्थेनामिततेजसा । 

अक्षौहिणीरष्ट हत्वा जामाता तव सैन्धव: ।। १३४ ।। 

राजन! इस प्रकार अमित तेजस्वी अर्जुनने आपकी आठ अक्षौहिणी सेनाओंके 
संहारकी पूर्ति करके आपके दामाद सिंधुराज जयद्रथको मार डाला ।। १३४ ।। 

हतं जयद्रथं दृष्टवा तव पुत्रा नराधिप । 

दुःखादश्रूणि मुमुचुर्निराशाश्वञाभवन्‌ जये ।। १३५ ।। 

नरेश्वर! जयद्रथको मारा गया देख आपके पुत्र दुःखसे आँसू बहाने लगे और अपनी 
विजयसे निराश हो गये ।। १३५ ।। 

ततो जयद्रथे राजन्‌ हते पार्थेन केशव: । 

दध्मौ शंखं महाबाहुरर्जुनश्व॒ परंतप: ।। १३६ ।। 

राजन! कुन्तीकुमारद्वारा जयद्रथके मारे जानेपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा शत्रुतापन 
महाबाहु अर्जुनने अपना-अपना शंख बजाया ।। १३६ |। 

भीमश्न वृष्णिसिंहश्न युधामन्युश्चव भारत । 

उत्तमौजाश्च विक्रान्त: शंखान्‌ दध्मु: पृथक्‌ पृथक्‌ ।। १३७ ।। 

भारत! तत्पश्चात्‌ भीमसेन, वृष्णिवंशके सिंह, युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजाने 
पृथक्‌-पृथक्‌ शंख बजाये ।। १३७ ।। 

श्रुत्वा महान्तं तं शब्दं धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

सैन्धवं निहतं मेने फाल्गुनेन महात्मना || १३८ ।। 


उस महान्‌ शंखनादको सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरको यह निश्चय हो गया कि महात्मा 
अर्जुनने सिंधुराज जयद्रथको मार डाला ।। १३८ ।। 

ततो वादित्रघोषेण स्वान्‌ योधान्‌ पर्यहर्षयत्‌ । 

अभ्यवर्तत संग्रामे भारद्वाजं युयुत्मया ।। १३९ ।। 

तदनन्तर युधिष्ठिर भी विजयके बाजे बजवाकर अपने योद्धाओंका हर्ष बढ़ाने लगे। वे 
युद्धकी इच्छासे संग्रामभूमिमें द्रोणाचार्यके सामने डटे रहे || १३९ ।। 

ततः प्रववृते राजन्नस्तंगच्छति भास्करे । 

द्रोणस्य सोमकै: सार्थ संग्रामो लोमहर्षण: ।। १४० ।। 

राजन! तदनन्तर सूर्यास्त होते समय द्रोणाचार्यका सोमकोंके साथ रोमांचकारी संग्राम 
छिड़ गया ।। १४० ।। 

ते तु सर्वे प्रयत्नेन भारद्वाजं जिघांसव: । 

सैन्धवे निहते राजन्नयुध्यन्त महारथा: ।। १४१ ।। 

नरेश्वर! सिंधुराजके मारे जानेपर समस्त सोमक महारथी द्रोणाचार्यके वधकी इच्छासे 
प्रयत्नपूर्वक युद्ध करने लगे || १४१ ।। 

पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सैन्धवं विनिहत्य च । 

अयोधयंस्तु ते द्रोणं जयोन्मत्तास्ततस्तत: | १४२ ।। 

पाण्डव सिंधुराजको मारकर विजय पा चुके थे। अतः वे विजयोल्लाससे उन्मत्त हो 
जहाँ-तहाँसे आकर द्रोणाचार्यके साथ युद्ध करने लगे || १४२ ।। 

अर्जुनो5पि ततो योधांस्तावकान्‌ रथसत्तमान्‌ | 

अयोधयन्महाबाहुर्हत्वा सैन्धव्क नृपम्‌ ।। १४३ ।। 

महाबाहु अर्जुनने भी सिंधुराजको मारकर आपके श्रेष्ठ रथी योद्धाओंके साथ युद्ध छेड़ 
दिया ।। १४३ ।। 

स देवशत्रूनिव देवराज: 

किरीटमाली व्यधमत्‌ समन्तात्‌ । 
यथा तमांस्यभ्युदितस्तमोधघ्न: 
पूर्वप्रतिज्ञां समवाप्य वीर: ।। १४४ ।। 

जैसे देवराज इन्द्र देवशत्रुओंका संहार करते हैं तथा जैसे तिमिरारि सूर्य उदित होकर 
अन्धकारका विनाश कर डालते हैं, उसी प्रकार किरीटधारी वीर अर्जुनने अपनी पहली 
प्रतिज्ञा पूरी करके सब ओरसे आपकी सेनाका संहार आरम्भ कर दिया ।। १४४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि जयद्रथवधे 
षट्चत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४६ ।। 


इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें जयद्रथवधविषयक एक सौ 
छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४६ ॥/ 


ऑपन-- माल छा जि: 


सप्तचत्वारिशर्दाधिकशततमोब ध्याय: 


अर्जुनके बाणोंसे कृपाचार्यका मूर्च्छित होना, अर्जुनका 
खेद तथा कर्ण और सात्यकिका युद्ध एवं कर्णकी पराजय 


घतयाट्र उवाच 


तस्मिन्‌ विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना । 

मामका यदकुर्वन्त तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! सव्यसाची अर्जुनके द्वारा वीर सिंधुराजके मारे जानेपर मेरे 
पुत्रोंने क्या किया? यह मुझे बताओ ।। १ ।। 

संजय उवाच 

सैन्धवं निहतं दृष्टवा रणे पार्थेन भारत । 

अमर्षवशमापन्न: कृप: शारद्वतस्तत: ।। २ ।। 

महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्‌ । 

द्रौणिश्चवाभ्यद्रवद्‌ राजन्‌ रथमास्थाय फाल्गुनम्‌ ॥। ३ ।। 

संजयने कहा--भरतनन्दन! सिंधुराजको अर्जुनके द्वारा रणभूमिमें मारा गया देख 
शरद्वानके पुत्र कृपाचार्य अमर्षके वशीभूत हो बाणकी भारी वर्षा करके पाण्डुपुत्र अर्जुनको 
आच्छादित करने लगे। राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने भी रथपर बैठकर अर्जुनपर धावा 
किया ।। २-३ ।। 

तावेतौ रथिनां श्रेष्ठी रथाभ्यां रथसत्तमौ | 

उभावुभयतस्ती ६णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्‌ ।। ४ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओंसे आकर अर्जुनपर पैने बाणोंकी वर्षा करने 
लगे ।। ४ ।। 

स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुज: । 

पीड्यमान: परामार्तिमगमद्‌ रथिनां वर: ।। ५ ।। 

इस प्रकार दो दिशाओंसे होनेवाली उस भारी बाणवर्षसे पीड़ित हो रथियोंमें श्रेष्ठ 
महाबाहु अर्जुन अत्यन्त व्यथित हो उठे ।। ५ ।। 

सो<जिधघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तनयमेव च । 

चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनंजय: ।। ६ ।। 

वे युद्धस्थलमें गुरु तथा गुरुपुत्रका वध करना नहीं चाहते थे। अतः कुन्तीपुत्र धनंजयने 
वहाँ अपने आचार्यका सम्मान किया ।। ६ ।। 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च । 


मन्दवेगानिषूंस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्‌ ।। ७ ।। 

उन्होंने अपने अस्त्रोंद्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यके अस्त्रोंका निवारण करके उनका 
वध करनेकी इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेगवाले बाण चलाये ।। ७ ।। 

ते चापि भृशमभ्यघ्नन्‌ विशिखा: पार्थचोदिता: । 

बहुत्वात्‌ तु परामार्ति शराणां तावगच्छताम्‌ ।॥। ८ ।। 

अर्जुनके चलाये हुए उन बाणोंकी संख्या अधिक होनेके कारण उनके द्वारा उन 
दोनोंको भारी चोट पहुँची। वे बड़ी वेदनाका अनुभव करने लगे ।। ८ ।। 


जयद्रथके कटे हुए मस्तकका उसके पिताकी गोदमें गिरना 





अथ शारद्वतो राजन्‌ कौन्तेयशरपीडित: । 

अवासीददू रथोपस्थे मूर्च्छाीम भिजगाम ह ।। ९ ।। 

राजन! कृपाचार्य अर्जुनके बाणोंसे पीड़ित हो मूर्च्छित हो गये और रथके पिछले 
भागमें जा बैठे || ९ ।। 

विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारें शरपीडितम्‌ । 

हतो<यमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्‌ ।। १० ।। 

अपने स्वामीको बाणोंसे पीड़ित एवं विह्लल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझकर 
सारथि रणभूमिसे दूर हटा ले गया ।। १० ।। 

तस्मिन्‌ भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि । 

अश्वत्थामाप्यपायासीत्‌ पाण्डवेयाद्‌ रथान्तरम्‌ ।। ११ ।। 

महाराज! युद्धस्थलमें शरद्वानके पुत्र कृपाचार्यके अचेत होकर वहाँसे हट जानेपर 
अश्वत्थामा भी अर्जुनको छोड़कर दूसरे किसी रथीका सामना करनेके लिये चला 
गया ।। ११ ।। 

दृष्टवा शारद्वतं पार्थों मूर्च्छितं शरपीडितम्‌ । 

रथ एव महेष्वास: सकृप॑ पर्यदेवयत्‌ ।। १२ ।। 

अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचन चेदमब्रवीत्‌ । 

कृपाचार्यको बाणोंसे पीड़ित एवं मूर्च्छिंत देखकर महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन 
दयावश रथपर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे। उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। 
वे दीनभावसे इस प्रकार कहने लगे-- ।। 

पश्यन्निदं महाप्राज्ञ: क्षत्ता राजानमुक्तवान्‌ ।। १३ ।। 

कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने । 

नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसन: ।। १४ ।। 

अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भसम्‌ । 

“जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधनका जन्म हुआ था, उस समय महाज्ञानी 
विदुरजीने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्रसे कहा था कि “इस 
कुलांगार बालकको परलोक भेज दिया जाय, यही अच्छा होगा; क्योंकि इससे प्रधान- 
प्रधान कुरुवंशियोंको महान्‌ भय उत्पन्न होगा” || १३-१४ ई || 

तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिन: ।। १५ |। 

तत्कृते हाद्य पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्‌ । 

धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्‌ ।। १६ ।। 

'सत्यवादी विदुरजीका वह कथन आज सत्य हो रहा है। दुर्योधनके ही कारण आज मैं 
अपने गुरुको शर-शय्यापर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रियके आचार, बल और पुरुषार्थको धिक्कार 
है! धिक्‍कार है ।। १५-१६ ।। 


को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्देत मादृश: । 

ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्थ परम: सखा ।। १७ ।। 

एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्धघाणपीडित: । 

“मेरे-जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्यसे द्रोह करेगा? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य 
तथा गुरुवर द्रोणाचार्यके परम सखा कृप मेरे बाणोंसे पीड़ित हो रथकी बैठकमें पड़े 
हैं ।। १७३ || 

अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भूशम्‌ ।। १८ ।। 

अवसीदन्‌ रथोपस्थे प्राणान्‌ पीडयतीव मे । 

“मैंने इच्छा न रहते हुए भी उन्हें बाणोंद्वारा अधिक चोट पहुँचायी है। वे रथकी बैठकमें 
पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यन्त पीड़ित-सा कर रहे हैं ।। १८ ६ ।। 

पुत्रशोकाभितप्तेन शरैरभ्यर्दितेन च ।। १९ ।। 

अभ्यस्तो बहुभिर्बाणर्दशधर्मगतेन वै । 

“मैंने पुत्रशोकसे संतप्त, बाणोंद्वारा पीड़ित तथा भारी दुरवस्थाको प्राप्त होकर 
बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उन्हें अनेक बार चोट पहुँचायी है ।। १९३ ।। 

शोचयत्येष नियतं भूय: पुत्रवधाद्धि माम्‌ ।। २० ।। 

कृपणं स्वरथे सन्नं पश्य कृष्ण यथागतम्‌ । 

“निश्चय ही ये कृपाचार्य आहत होकर मुझे पुत्रवधकी अपेक्षा भी अधिक शोकमें डाल 
रहे हैं। श्रीकृष्ण! देखिये, वे अपने रथपर कैसे सन्न और दीन होकर पड़े हैं || २०३ ।। 

उपाकृत्य तु वै विद्यामाचार्ये भ्यो नरर्षभा: ।। २१ ।। 

प्रयच्छन्तीह ये कामान्‌ देवत्वमुपयान्ति ते । 

“आचार्योंसे विद्या ग्रहण करके जो श्रेष्ठ पुरुष उन्हें उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देते हैं, वे 
देवत्वको प्राप्त होते हैं ।। २१ ३ ।। 

ये च विद्यामुपादाय गुरुभ्य: पुरुषाधमा: || २२ ।। 

घ्नन्ति तानेव दुर्वत्तास्ते वै निरयगामिन: । 

“गुरुसे विद्या ग्रहण करके जो नराधम उनपर ही चोट करते हैं, वे दुराचारी मानव निश्चय 
ही नरकगामी होते हैं || २२३ ।। 

तदिदं नरकायाद्य कृतं॑ कर्म मया ध्रुवम्‌ ।। २३ ।। 

आचार्य शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्‌ | 

“मैंने आचार्य कृपको अपने बाणोंकी वर्षद्वारा रथपर सुला दिया है। निश्चय ही यह कर्म 
मैंने आज नरकमें जानेके लिये ही किया है || २३३ ।। 

यत्‌ तत्‌ पूर्वमुपाकुर्वन्नस्त्रं मामब्रवीत्‌ कृप: ॥। २४ ।। 

न कथंचन कौरव्य प्रहर्तव्यं गुराविति । 


'पूर्वकालमें मुझे अस्त्रविद्याकी शिक्षा देकर कृपाचार्यने जो मुझसे यह कहा था कि 
“कुरुनन्दन! तुम्हें गुरुक ऊपर किसी प्रकार भी प्रहार नहीं करना चाहिये” || २४ ३ ।। 

तदिदं वचन साधोराचार्यस्य महात्मन: ।। २५ ।। 

नानुछितं तमेवाजी विशिखैरभिवर्षता । 

“जन श्रेष्ठ महात्मा आचार्यका यह वचन युद्धस्थलमें उन्हींपर बाणोंकी वर्षा करके मैंने 
नहीं माना है || २५६ || 

नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने ।। २६ ।। 

धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्पहम्‌ । 

4ार्ष्णेय! युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्यको 
मेरा नमस्कार है। मैं जो उनपर प्रहार करता हूँ, इसके लिये मुझे धिक्कार है” ।। 

तथा विलपमाने तु सव्यसाचिनि तं प्रति ॥। २७ ।। 

सैन्धवं निहतं दृष्टवा राधेय: समुपाद्रवत्‌ । 

सव्यसाची अर्जुन कृपाचार्यके लिये विलाप कर ही रहे थे कि सिंधुराजको मारा गया 
देख राधानन्दन कर्णने उनपर धावा कर दिया || २७३ ।। 

तमापततन्तं राधेयमर्जुनस्य रथं प्रति ।। २८ ।। 

पाज्चाल्यौ सात्यकिश्वैव सहसा समुपाद्रवन्‌ । 

राधापुत्र कर्णको अर्जुनके रथकी ओर आते देख दोनों भाई पांचालराजकुमार 
(युधामन्यु और उत्तमौजा) तथा सात्वतवंशी सात्यकि सहसा उसकी और दौड़े || २८३६ || 

उपायान्तं तु राधेयं दृष्टवा पार्थो महारथ: ।। २९ ।। 

प्रहसन्‌ देवकीपुत्रमिदं वचनमब्रवीत्‌ । 

राधापुत्रको अपने समीप आते देख महारथी कुन्तीकुमार अर्जुनने देवकीनन्दन 
श्रीकृष्णसे हँसते हुए कहा-- ।। २९६ ।। 

एष प्रयात्याधिरथि: सात्यके: स्यन्दनं प्रति ।। ३० ।॥। 

न मृष्यति हत॑ नूनं भूरिश्रवसमाहवे । 

“यह अधिरथपुत्र कर्ण सात्यकिके रथकी ओर जा रहा है। अवश्य ही युद्धस्थलमें 
भूरिश्रवाका मारा जाना इसके लिये असहयू हो उठा है || ३०६ ।। 

यत्र यात्येष तत्र त्वं चोदयाश्वान्‌ जनार्दन ।। ३१ ।। 

न सौमदत्तिपदवीं गमयेत्‌ सात्यकिं वृष: । 

“जनार्दन! यह जहाँ जाता है, वहीं आप भी अपने घोड़ोंको हाँकिये। कहीं ऐसा न हो 
कि कर्ण सात्यकिको भूरिश्रवाके पथपर पहुँचा दे” || ३१३ ।। 

एवमुक्तो महाबाहु: केशव: सव्यसाचिना ।। ३२ ।। 

प्रत्युवाच महातेजा: कालयुक्तमिदं वच: । 


सव्यसाची अर्जुनके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी महाबाहु केशवने उनसे यह समयोचित 
वचन कहा-- |। 

अलमेष महाबाहु: कणणयैकोडपि पाण्डव ।। ३३ ।। 

कि पुनद्रौपदेया भ्यां सहित: सात्वतर्षभ: । 

'पाण्डुनन्दन! यह महाबाहु सात्वतशिरोमणि सात्यकि अकेला भी कर्णके लिये पर्याप्त 
है। फिर इस समय जब द्रुपदके दोनों पुत्र इसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है ।। ३३३ 

|| 

न च तावत्‌ क्षम: पार्थ तव कर्णेन सजड्भर: | ३४ ।। 

प्रज्वलन्ती महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी । 

“कुन्तीकुमार! इस समय कर्णके साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं है; क्योंकि उसके 
पास बड़ी भारी उल्काके समान प्रज्वलित होनेवाली इन्द्रकी दी हुई शक्ति है || ३४ ६ ।। 

त्वदर्थ पूज्यमानैषा रक्ष्यते परवीरहन्‌ ।। ३५ ।। 

अत: कर्ण: प्रयात्वत्र सात्वतस्य यथातथा । 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुन! तुम्हारे लिये कर्ण उसकी प्रतिदिन पूजा करते हुए 
उसे सदा सुरक्षित रखता है; अतः कर्ण सात्यकिके पास जैसे-तैसे जाय और युद्ध 
करे || ३५३ || 

अहं ज्ञास्यामि कौन्तेय कालमस्य दुरात्मन: । 

यत्रैनं विशिखैस्ती3क्ष्ग: पातयिष्यसि भूतले ।। ३६ ।। 

“कुन्तीकुमार! मैं उस दुरात्माका अन्तकाल जानता हूँ, जब कि तुम अपने तीखे 
बाणोंद्वारा उसे पृथ्वीपर मार गिराओगे” ।। ३६ ।। 

धृतराष्ट उवाच 

योडसौ कर्णेन वीरस्य वाष्णेयस्य समागम: । 

हते तु भूरिश्रवसि सैन्धवे च निपातिते । ३७ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! भूरिश्रवाके मारे जाने और सिंधुराजके धराशायी किये 
जानेपर कर्णके साथ वीरवर सात्यकिका जो संग्राम हुआ, वह कैसा था? ।। ३७ ।। 

सात्यकिश्वापि विरथ: क॑ समारूढवान्‌ रथम्‌ | 

चक्ररक्षौ च पाउ्चाल्यौ तन्ममाचक्ष्व संजय ।। ३८ ।। 

संजय! सात्यकि भी तो रथहीन हो चुके थे। वे किस रथपर आरूढ़ हुए तथा चक्ररक्षक 
युधामन्यु और उत्तमौजा इन दोनों पांचाल वीरोंने किसके साथ युद्ध किया? यह सब मुझे 
बताओ ।। ३८ ।। 

संजय उवाच 
हन्त ते वर्तयिष्यामि यथा वृत्तं महारणे | 


शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा दुराचरितमात्मन: ।। ३९ ।। 

संजयने कहा--राजन! मैं बड़े खेदके साथ उस महासमरमें घटित हुई घटनाओंका 
आपके समक्ष वर्णन करूँगा। आप स्थिर होकर अपने दुराचारका परिणाम सुनें ।। 

पूर्वमेव हि कृष्णस्य मनोगतमिदं प्रभो । 

विजेतव्यो यथा वीर: सात्यकि: सौमदत्तिना ।। ४० ।। 

प्रभो! भगवान्‌ श्रीकृष्णके मनमें पहले ही यह बात आ गयी थी कि आज वीर 
सात्यकिको सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा परास्त कर देगा || ४० ।। 

अतीतानागते राजन्‌ स हि वेत्ति जनार्दन: । 

ततः सूतं समाहूय दारुकं संदिदेश ह ।। ४१ ।। 

रथो मे युज्यतां कल्यमिति राजन्‌ महाबल: । 

न हि देवा न गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसा: ।। ४२ ।। 

मानवा वापि जेतार: कृष्णयो: सन्ति केचन । 

राजन! वे जनार्दन भूत और भविष्य दोनों कालोंको जानते हैं। इसीलिये उन्होंने अपने 
सारथि दारुकको बुलाकर पहले ही दिन यह आज्ञा दे दी थी कि कल सबेरेसे ही मेरा रथ 
जोतकर तैयार रखना। महाराज! श्रीकृष्णका बल महान्‌ है। श्रीकृष्ण और अर्जुनको परास्त 
करनेवाले न तो कोई देवता हैं, न गन्धर्व हैं, न यक्ष, नाग तथा राक्षस हैं और न मनुष्य ही 
हैं || ४१-४२ ३ || 

पितामहपुरोगाश्च देवा: सिद्धाश्न त॑ं विदु: ।। ४३ ।। 

तयो: प्रभावमतुलं शृणु युद्ध तु तत्‌ तथा । 

उन्हें ब्रह्मा आदि देवता और सिद्ध पुरुष ही यथार्थ रूपसे जान पाते हैं। उन दोनोंके 
प्रभावकी कहीं तुलना नहीं है। अच्छा, अब युद्धका वृत्तान्त सुनिये || ४३ ३ ।। 

सात्यकिं विरथं दृष्टवा कर्ण चाभ्युद्यतं रणे ।। ४४ ।। 

दध्मौ शड्खं महानादमार्षभेणाथ माधव: । 

सात्यकिको रथहीन और कर्णको युद्धके लिये उद्यत देख भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े 
जोरकी ध्वनि करनेवाले शंखको ऋषभस्वरसे बजाया || ४४ ३ ।। 

दारुको<वेत्य संदेशं श्रुत्वा शड्खस्य च स्वनम्‌ || ४५ ।। 

रथमन्वानयत्‌ तस्मै सुपर्णोच्छितकेतनम्‌ । 

दारुकने उस शंखध्वनिको सुनकर भगवान्‌के संदेशको स्मरण करके तुरंत ही उनके 
लिये अपना रथ ला दिया, जिसपर गरुड़चिह्से युक्त ऊँची ध्वजा फहरा रही थी ।। ४५६ ।। 

स केशवस्यानुमते रथं दारुकसंयुतम्‌ ।। ४६ ।। 

आरुरोह शिने: पौत्रो ज्वलनादित्यसंनिभम्‌ | 


भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमति पाकर शिनिपौत्र सात्यकि दारुकद्वारा जोते हुए अग्नि 
और सूर्यके समान तेजस्वी उस रथपर आरूढ़ हुए || ४६३ ।|। 

कामगै: शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबनलाहकै: ।। ४७ ।। 

हयोगग्रैर्महावेगैहेंमभाण्डवि भूषितै: । 

युक्त समारुह्मु च तं विमानप्रतिमं रथम्‌ ।। ४८ ।। 

अभ्यद्रवत राधेयं प्रवपन्‌ सायकान्‌ बहून्‌ | 

उसमें इच्छानुसार चलनेवाले महान्‌ वेगशाली और सुवर्णमय अलंकारोंसे विभूषित 
शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामवाले श्रेष्ठ अश्व जुते हुए थे। वह रथ विमानके 
समान जान पड़ता था। उसपर आरूढ़ होकर बहुत-से बाणोंकी वर्षा करते हुए सात्यकिने 
राधापुत्र कर्णपर धावा किया || ४७-४८ ६ ।। 

चक्ररक्षावषि तदा युधामन्यूत्तमौजसौ ।। ४९ ।। 

धनंजयरयथं हित्वा राधेयं प्रत्युदीयतुः । 

उस समय चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजाने भी धनंजयका रथ छोड़कर कर्णपर ही 
आक्रमण किया ।। ४९६ ।। 

राधेयो5पि महाराज शरवर्ष समुत्सूजन्‌ ।। ५० ।। 

अभ्यद्रवत्‌ सुसंक्रुद्धो रणे शैनेयमच्युतम्‌ । 

महाराज! अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए कर्णने भी उस युद्धस्थलमें अपनी मर्यादासे च्युत न 
होनेवाले सात्यकिपर बाणोंकी वर्षा करते हुए धावा किया || ५० $ ।। 

नैव दैवं न गान्धर्व नासुरं न च राक्षसम्‌ ।। ५१ ।। 

तादृशं भुवि नो युद्ध दिवि वा श्रुतमित्युत । 

राजन! मैंने इस पृथ्वीपर या स्वर्गमें देवताओं, गन्धर्वों, असुरों तथा राक्षसोंका भी वैसा 
युद्ध नहीं सुना था ।। ५१३ ।। 

उपारमत तत्‌ सैन्यं सरथाश्चनरद्धिपम्‌ ।। ५२ ।। 

तयोर्दृष्टवा महाराज कर्म सम्मूढचेतस: । 

सर्वे च समपश्यन्त तद्‌ युद्धमतिमानुषम्‌ ।। ५३ ।। 

तयोरनवरयो राजन्‌ सारथ्यं दारुकस्य च । 

महाराज! उन दोनोंका वह संग्राम देखकर सबके चित्तमें मोह छा गया। राजन! सभी 
दर्शकके समान उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरोंके उस अतिमानव युद्धको और दारुकके सारथ्य 
कर्मको देखने लगे। हाथी, घोड़े, रथ और मनुष्योंसे युक्त वह चतुरंगिणी सेना भी युद्धसे 
उपरत हो गयी थी ।। ५२-५३ $ || 

गतप्रत्यागतावृत्तैर्मण्डलै: संनिवर्तनै: ।। ५४ ।। 

सारथेस्तु रथस्थस्य काश्यपेयस्य विस्मिता: । 


नभस्तलगताश्षैव देवगन्धर्वदानवा: ।। ५५ ।। 

अतीवावलिता द्र॒ष्ट॑ कर्णशैनेययो रणम्‌ । 

मित्रार्थे तौ पराक्रान्तौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे ।। ५६ ।। 

रथपर बैठे हुए कश्यपगोत्रीय सारथि दारुकके रथ-संचालनकी गमन, प्रत्यागमन, 
आवर्तन, मण्डल तथा संनिवर्तन आदि विविध रीतियोंसे आकाशमें खड़े हुए देवता, गन्धर्व 
और दानव भी चकित हो उठे तथा कर्ण और सात्यकिके युद्धको देखनेके लिये अत्यन्त 
सावधान हो गये। वे दोनों बलवान्‌ वीर रणभूमिमें एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए अपने-अपने 
मित्रके लिये पराक्रम दिखा रहे थे || ५४-५६ ।। 

कर्णश्वञामरसंकाशो युयुधानश्न सात्यकि: । 

अन्योन्यं तौ महाराज शरवर्षरवर्षताम्‌ ।। ५७ ।। 

महाराज! देवताओंके समान तेजस्वी कर्ण तथा सत्यकपुत्र युयुधान दोनों एक-दूसरेपर 
बाणोंकी बौछार करने लगे ।। ५७ ।। 

प्रममाथ शिने: पौत्रं कर्ण: सायकवृष्टिभि: । 

अमृष्यमाणो निधनं कौरव्यजलसंधयो: ।। ५८ ।। 

कर्णने भूरिश्रवा और जलसंधके वधको सहन न करनेके कारण अपने बाणोंकी वर्षासे 
शिनिपौत्र सात्यकिको मथ डाला ।। ५८ ।। 

कर्ण: शोकसमाविष्टो महोरग इव श्वसन्‌ । 

स शैनेयं रणे क्रुद्ध: प्रदहन्निव चक्षुषा ।। ५९ ।। 

अभ्यधावत वेगेन पुन: पुनररिंदम । 

शत्रुदमन नरेश! कर्ण उन दोनोंकी मृत्युसे शोकमग्न हो फुफकारते हुए महान्‌ सर्पकी 
भाँति लंबी साँसें खींच रहा था। वह युद्धमें क़रुद्ध हो अपने नेत्रोंसे सात्यकिकी ओर इस 
प्रकार देख रहा था, मानो वह उन्हें जलाकर भस्म कर देगा। उसने बारंबार वेगपूर्वक 
सात्यकिपर धावा किया ।। ५९३ ।। 

तं॑ तु सक्रोधमालोक्य सात्यकि: प्रत्ययुध्यत ।। ६० ।। 

महता शरवर्षेण गजं प्रति गजो यथा । 

कर्णको कुपित देख सात्यकि बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करते हुए उसका सामना करने 
लगे, मानो एक हाथी दूसरे हाथीसे लड़ रहा हो || ६० ६ ।। 

तौ समेतौ नरव्याप्रौ व्याप्राविव तरस्विनौ ।। ६१ ।। 

अन्योन्यं संततक्षाते रणेडनुपमविक्रमौ । 

वेगशाली व्याप्रोंक समान परस्पर भिड़े हुए वे दोनों पुरुषसिंह युद्धमें अनुपम पराक्रम 
दिखाते हुए एक-दूसरेको क्षत-विक्षत कर रहे थे ।। ६१३ || 

तत:ः कर्ण शिने: पौत्र: सर्वपारसवै: शरै: ।। ६२ ।। 

बिभेद सर्वगात्रेषु पुन: पुनररिंदम । 


सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्‌ ।। ६३ ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले महाराज! तदनन्तर शिनिपौत्र सात्यकिने सम्पूर्णत:ः लोहमय 
बाणोंद्वारा कर्णको उसके सारे अंगोंमें बारंबार चोट पहुँचायी और एक भल्लद्दवारा उसके 
सारथिको रथकी बैठकसे नीचे गिरा दिया || ६२-६३ ।। 

अश्वांश्व चतुरः श्वेतान्‌ निजघान शितै: शरै: । 

छित्त्वा ध्वजं रथं चैव शतधा पुरुषर्षभ ।। ६४ ।। 

चकार विरथं कर्ण तव पुत्रस्य पश्यत: । 

नरश्रेष्ठी इसके बाद सात्यकिने तीखे बाणोंद्वारा कर्णके चारों श्वेत घोड़ोंको मार डाला 
और उसके ध्वजको काटकर रथके सैकड़ों टुकड़े करके आपके पुत्रके देखते-देखते कर्णको 
रथहीन कर दिया ।। ६४ $ ।। 

ततो विमनसो राजंस्तावकास्ते महारथा: ।। ६५ ।। 

वृषसेन: कर्णसुत: शल्यो मद्राधिपस्तथा । 

द्रोणपुत्रश्न शैनेयं सर्वतः पर्यवारयन्‌ ।। ६६ ।। 

राजन! इससे खिन्नचित्त होकर आपके महारथी वीर कर्णपुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य 
तथा द्रोणकुमार अश्वत्थामाने सात्यकिको सब ओरसे घेर लिया ।। 

ततः पर्याकुलं सर्व न प्राज्ञायत किंचन । 

तथा सात्यकिना वीरे विरथे सूतजे कृते ।। ६७ ।। 

सात्यकिके द्वारा वीरवर सूतपुत्र कर्णके रथहीन कर दिये जानेपर सारा सैन्यदल सब 
ओरसे व्याकुल हो उठा। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था || ६७ ।। 

हाहाकारस्ततो राजन्‌ सर्वसैन्येष्वभून्महान्‌ । 

कर्णोडपि विरथो राजन्‌ सात्वतेन कृत: शरै: ॥। ६८ ।। 

दुर्योधनरथं तूर्णमारुरोह विनि:श्वसन्‌ । 

राजन्‌! उस समय सारी सेनाओंमें महान्‌ हाहाकार होने लगा। महाराज! सात्यकिके 
बाणोंसे रथहीन किया गया कर्ण भी लंबी साँस खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधनके रथपर जा 
बैठा || ६८३ || 

मानयंस्तव पुत्रस्य बाल्यात्‌ प्रभति सौहृदम्‌ ।। ६९ ।। 

कृतां राज्यप्रदानेन प्रतिज्ञां परिपालयन्‌ । 

बचपनसे लेकर सदा ही किये हुए आपके पुत्रके सौहार्दका वह समादर करता था और 
दुर्योधनको राज्य दिलानेकी जो उसने प्रतिज्ञा कर रखी थी, उसके पालनमें वह तत्पर 
था || ६९६ || 

तथा तु विरथं कर्ण पुत्रांश्ष॒ तव पार्थिव ।। ७० ।। 

दुःशासनमुखान्‌ वीरान्‌ नावधीत्‌ सात्यकिर्वशी । 

रक्षन्‌ प्रतिज्ञां भीमेन पार्थेन च पुराकृताम्‌ ।। ७१ ।। 


राजन्‌! अपने मनको वशमें करनेवाले सात्यकिने रथहीन हुए कर्णको तथा दुःशासन 
आदि आपके वीर पुत्रोंको भी उस समय इसलिये नहीं मारा कि वे भीमसेन और अर्जुनकी 
पहलेसे की हुई प्रतिज्ञाकी रक्षा कर रहे थे || ७०-७१ ।। 

विरथान्‌ विह्नलांश्षक्रे न तु प्राणै््ययोजयत्‌ । 

भीमसेनेन तु वध: पुत्राणां ते प्रतिश्रुतः ॥। ७२ ।। 

अनुद्यूते च पार्थेन वध: कर्णस्य संश्रुतः । 

उन्होंने उन सबको रथहीन और अत्यन्त व्याकुल तो कर दिया, परंतु उनके प्राण नहीं 
लिये। जब दुबारा द्यूत हुआ था, उस समय भीमसेनने आपके पुत्रोंके वधकी प्रतिज्ञा की थी 
और अर्जुनने कर्णको मार डालनेकी घोषणा की थी ।। ७२६ ।। 

वधे त्वकुर्वन्‌ यत्नं ते तस्यथ कर्णमुखास्तदा || ७३ ।। 

नाशवनुवंस्ततो हन्तुं सात्यकिं प्रवरा रथा: । 

कर्ण आदि श्रेष्ठ महारथियोंने सात्यकिके वधके लिये पूरा प्रयत्न किया; परंतु वे उन्हें 
मार न सके || ७३३६ ।। 

द्रौणिश्व कृतवर्मा च तथैवान्ये महारथा: ।। ७४ ।। 

निर्जिता धनुषैकेन शतशः क्षत्रियर्षभा: | 

काडुक्षता परलोकं च धर्मराजस्य च प्रियम्‌ ।। ७५ ।। 

अश्वत्थामा, कृतवर्मा, अन्यान्य महारथी तथा सैकड़ों क्षत्रियशिरोमणि सात्यकिद्धारा 
एकमात्र धनुषसे परास्त कर दिये गये। सात्यकि धर्मराजका प्रिय करना और परलोकपर 
विजय पाना चाहते थे || ७४-७५ ।। 

कृष्णयो: सदृशो वीर्ये सात्यकि: शत्रुतापन: । 

जितवान्‌ सर्वसैन्यानि तावकानि हसन्निव ।। ७६ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले सात्यकि श्रीकृष्ण और अर्जुनके समान पराक्रमी थे। उन्होंने 
आपकी सारी सेनाओंको हँसते हुए-से जीत लिया था | ७६ ।। 

कृष्णो वापि भवेल्लोके पार्थों वापि धनुर्धर: । 

शैनेयो वा नरव्याप्र चतुर्थस्तु न विद्यते || ७७ ।। 

नरव्याप्र! संसारमें श्रीकृष्ण, कुन्तीकुमार अर्जुन और शिनिपौत्र सात्यकि--ये तीन ही 
वास्तवमें धनुर्धर हैं। इनके समान चौथा कोई नहीं है || ७७ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

अजय्यं वासुदेवस्य रथमास्थाय सात्यकि: । 

विरथं कृतवान्‌ कर्ण वासुदेवसमो युधि ।। ७८ ।। 

दारुकेण समायुक्त: स्वबाहुबलदर्पित: । 

कच्चिदन्यं समारूढ: सात्यकि: शत्रुतापन: ।। ७९ ।। 


धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! सात्यकि युद्धमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके समान हैं। उन्होंने 
श्रीकृष्णके ही अजेय रथपर आरूढ़ होकर कर्णको रथहीन कर दिया। उस समय उनके 
साथ दारुक-जैसा सारथि था और उन्हें अपने बाहुबलका अभिमान तो था ही; परंतु 
शत्रुओंको संताप देनेवाले सात्यकि क्या किसी दूसरे रथपर भी आरूढ़ हुए 
थे? || ७८-७९ || 

एतदिच्छाम्यहं श्रीतुं कुशलो हासि भाषितुम्‌ | 

असहां तमहं मन्ये तनन्‍्ममाचक्ष्व संजय || ८० ।। 

मैं यह सुनना चाहता हूँ। तुम कथा कहनेमें बड़े कुशल हो। मैं तो सात्यकिको किसीके 
लिये भी असहा मानता हूँ, अतः संजय! तुम मुझसे सारी बातें स्पष्ट रूपसे 
बताओ ।। ८० || 

संजय उवाच 

शृणु राजन्‌ यथावृत्तं रथमन्यं महामति: । 

दारुकस्यानुजस्तूर्ण कल्पनाविधिकल्पितम्‌ ।। ८१ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे सुनिये। दारुकका एक छोटा भाई 
था, जो बड़ा बुद्धिमान्‌ था। वह तुरंत ही रथ सजानेकी विधिसे सुसज्जित किया हुआ एक 
दूसरा रथ ले आया ।। ८१ ।। 

आयसै: काज्चनैश्वापि पट्टेः संनद्धकूबरम्‌ । 

तारासहस्रखचितं सिंहध्वजपताकिनम्‌ ।। ८२ ।। 

लोहे और सोनेके पट्टोंसे उसका कूबर अच्छी तरह कसा हुआ था। उसमें सहसरों तारे 
जड़े गये थे। उसकी ध्वजा-पताकाओंमें सिंहका चिह्न बना हुआ था ।। ८२ ।। 

अश्वैर्वातजवैर्युक्ते हेमभाण्डपरिच्छदै: । 

सैन्धवैरिन्दुसंकाशै: सर्वशब्दातिगैर्दढै: ।। ८३ ।। 

उस रथमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित, वायुके समान वेगशाली, सम्पूर्ण शब्दोंको 
लाँघ जानेवाले, सुदृढ़ तथा चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण सिन्धी घोड़े जुते हुए थे || ८३ ।। 

चित्रकाज्चनसंनाहैवाजिमुख्यैर्विशाम्पते । 

घण्टाजालाकुलरवं शक्तितोमरविद्युतम्‌ ।। ८४ ।। 

प्रजानाथ! उन घोड़ोंको विचित्र स्वर्णमय कवचोंसे सुसज्जित किया गया था। वे सभी 
अश्व अच्छी श्रेणीके थे। उनसे जुते हुए उस रथमें क्षुद्र घंटिकाओंके समूहसे निकलती हुई 
मधुर ध्वनि व्याप्त हो रही थी। वहाँ रखे हुए शक्ति और तोमर आदि शस्त्र विद्युतूके समान 
प्रकाशित होते थे || ८४ ।। 

युक्तं सांग्रामिकैद्रव्यैर्बहुशस्त्रपरिच्छदै: । 

रथं सम्पादयामास मेघगम्भीरनि:स्वनम्‌ ।। ८५ ।। 


उसमें बहुत-से अस्त्र-शस्त्र आदि युद्धोपयोगी आवश्यक सामान एवं द्रव्य यथास्थान 
रखे गये थे। उस रथके चलनेपर मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर शब्द होता था। दारुकका 
छोटा भाई उस रथको सात्यकिके पास ले आया ।। ८५ |। 

तं॑ समारुहय शैनेयस्तव सैन्यमुपाद्रवत्‌ । 

दारुको5पि यथाकामं प्रययौ केशवान्तिकम्‌ ।। ८६ ।। 

सात्यकिने उसीपर आरूढ़ होकर आपकी सेनापर आक्रमण किया। दारुक भी 
इच्छानुसार भगवान्‌ श्रीकृष्णके निकट चला गया || ८६ ।। 

कर्णस्यापि रथं राजन्‌ शंखगोक्षीरपाण्डुरै: । 

चित्रकाञ्चनसंनाहै: सददश्लेवेगवत्तरै: ।। ८७ ।। 

राजन! कर्णके लिये भी एक सुन्दर रथ लाया गया, जिसमें शंख और गोदुग्धके समान 
ब्ैतवर्णवाले, विचित्र सुवर्णमय कवचसे सुसज्जित और अत्यन्त वेगशाली श्रेष्ठ अश्व जुते 
हुए थे || ८७ ।। 

हेमकक्ष्याध्वजोपेतं क्लृप्तयन्त्रपताकिनम्‌ | 

अग्रयं रथं सुयन्तारं बहुशस्त्रपरिच्छदम्‌ ।। ८८ ।। 

उसमें सुवर्णमयी रज्जुसे आवेष्टित ध्वजा फहरा रही थी। वह रथ यन्त्र और 
पताकाओंसे सुशोभित था। उसके भीतर बहुत-से अस्त्र-शस्त्र आदि आवश्यक सामान रखे 
गये थे। उस श्रेष्ठ रथका सारथि भी सुयोग्य था ।। ८८ ।। 

उपाजहुस्तमास्थाय कर्णो<प्यभ्यद्रवद्‌ रिपून्‌ | 

एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिमूच्छसि ।। ८९ ।। 

दुर्योधनके सेवक वह रथ लेकर आये और कर्णने उसके ऊपर आरूढ़ होकर शत्रुओंपर 
धावा किया। राजन! आप मुझसे जो कुछ पूछ रहे थे, वह सब मैंने आपको बता 
दिया ।। ८९ || 

भूयश्वापि निबोधेमं तवापनयजं क्षयम्‌ | 

एकत्रिंशत्‌ तव सुता भीमसेनेन पातिता: ।॥। ९० ।। 

दुर्मुखं प्रमुखे कृत्वा सततं चित्रयोधिनम्‌ । 

अब पुनः आपके ही अन्यायसे होनेवाले इस महान्‌ जनसंहारका वृत्तान्त सुनिये। 
भीमसेनने अबतक सदा विचित्र युद्ध करनेवाले दुर्मुख आदि आपके इकतीस पुत्रोंको मार 
गिराया है |। ९०३ ।। 

शतशो निहता: शूरा: सात्वतेनार्जुनेन च ।। ९१ ।। 

भीष्म प्रमुखत: कृत्वा भगदत्तं च भारत । 

एवमेष क्षयो वृत्तों राजन्‌ दुर्मन्त्रिते तव ।। ९२ ।। 

भारत! इसी प्रकार सात्यकि और अर्जुनने भी भीष्म और भगदत्त आदि सैकड़ों 
शूरवीरोंका संहार कर डाला है। राजन्‌! इस प्रकार आपकी कुमन्त्रणाके फलस्वरूप यह 


विनाश-कार्य सम्पन्न हुआ है || ९१-९२ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि कर्णसात्यकियुद्धि 
सप्तचत्वारिंशदधिकशततमो 5 ध्याय: ।। १४७ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें कर्ण और सात्यकिका 
युद्धविषयक एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १४७ ॥/ 


अपन का बा ] अतडणऑफा<ज 


अष्टचत्वारिशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


अर्जुनका कर्णको फटकारना 4 वधकी प्रतिज्ञा 
करना, श्रीकृष्णका अर्जुनको बधाई देकर उन्हें रणभूमिका 
भयानक दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिरके पास ले जाना 


ध्ृतराष्र उवाच 

तथा गतेषु शूरेषु तेषां मम च संजय । 

कि वै भीमस्तदाकार्षीत्‌ तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जब पाण्डवपक्षके और मेरे शूरवीर सैनिक पूर्वोक्तरूपसे 
युद्धके लिये उद्यत हो गये, तब भीमसेनने क्या किया? यह मुझे बताओ ।। १ ।। 

संजय उवाच 

विरथो भीमसेनो वै कर्णवाक्‌ृशल्यपीडित: । 

अमर्षवशमापन्न: फाल्गुनं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। २ ॥। 

संजयने कहा--राजन्‌! रथहीन भीमसेन कर्णके वाग्बाणोंसे पीड़ित हो अमर्षके 
वशीभूत हो गये थे। वे अर्जुनसे इस प्रकार बोले-- ।। २ ।। 

पुन: पुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च । 

अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल संग्रामकातर ।। ३ ।। 

इति मामब्रवीत्‌ कर्ण: पश्यतस्ते धनंजय । 

एवं वक्ता च मे वध्यस्तेन चोक्तो5स्मि भारत ।। ४ ।। 

“धनंजय! कर्णने तुम्हारे सामने ही मुझसे बारंबार कहा है कि “अरे! तू निमूछिया, मूर्ख, 
पेटू, अस्त्रविद्याको न जाननेवाला, बालक और संग्रामभीरु है; अतः युद्ध न कर।” भारत! 
जो ऐसा कह दे, वह मेरा वध्य होता है। उसने मुझे ऐसा कह दिया ।। ३-४ ।। 

एतद्‌ व्रतं महाबाहो त्वया सह कृतं मया । 

तथैतन्मम कौन्तेय यथा तव न संशय: ।। ५ ।। 

“महाबाहु कुन्तीकुमार! ऐसा कहनेवालेके वधकी यह प्रतिज्ञा मैंने तुम्हारे साथ ही की 
थी। यह कर्णका वध जैसे मेरा कार्य है, वैसे ही तुम्हारा भी है, इसमें संशय नहीं है ।। 

तद्गधाय नरश्रेष्ठ स्मरैतद्‌ वचनं मम । 

यथा भवति तत्‌ सत्यं तथा कुरु धनंजय ।। ६ ।। 

“नरश्रेष्ठी कर्णके वधके लिये तुम मेरे इस कथनपर भी ध्यान दो। धनंजय! जैसे भी 
मेरी वह प्रतिज्ञा सत्य हो सके, वैसा प्रयत्न करो' || ६ ।। 

तच्छुत्वा वचन तस्य भीमस्यामितविक्रम: । 


ततोअर्जुनो5ब्रवीत्‌ कर्ण किंचिदभ्येत्य संयुगे |। ७ ।। 

भीमसेनका यह वचन सुनकर अमित पराक्रमी अर्जुन युद्धस्थलमें कर्णके कुछ निकट 
जाकर उससे इस प्रकार बोले-- || ७ ।। 

कर्ण कर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्रात्मसंस्तुत । 

अधर्मबुद्धे शृणु मे यत्‌ त्वां वक्ष्यामि साम्प्रतम्‌ ।। ८ ।। 

“कर्ण! कर्ण! तेरी दृष्टि मिथ्या है। सूतपुत्र! तू स्वयं ही अपनी प्रशंसा करता है। 
अधर्मबुद्धे! मैं इस समय तुझसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुन ।। ८ ।। 

द्विविधं कर्म शूराणां युद्धे जयपराजयौ । 

तौ चाप्यनित्यौ राधेय वासवस्यापि युध्यत: ।। ९ ।। 

'राधानन्दन! युद्धमें शूरवीरोंके दो प्रकारके कर्म (परिणाम) देखे जाते हैं--जय और 
पराजय। यदि इन्द्र भी युद्ध करें तो उनके लिये भी वे दोनों परिणाम अनिश्ित हैं (अर्थात्‌ 
यह निश्चित नहीं कि कब किसकी विजय होगी और कब किसकी पराजय) ।। ९ ।। 

(रणमुत्सृज्य निर्लज्ज गच्छसे वै पुनः पुन: । 

माहात्म्यं पश्य भीमस्य कर्ण जन्म कुले तथा ।। 

नोक्तवान्‌ परुषं यत्‌ त्वां पलायनपरायणम्‌ | 

'ओ निर्लज्ज कर्ण! तू बार-बार युद्ध छोड़कर भाग जाता है, तो भी तुझ भागते हुएके 
प्रति भीमसेनने कोई कटु वचन नहीं कहा। भीमसेनके इस माहात्म्यको और उनके उत्तम 
कुलमें जन्म लेनेके कारण प्राप्त हुए अच्छे शील-स्वभावको प्रत्यक्ष देख ले। 

भूयस्त्वमपि सड्भरम्य सकृदेव यदृच्छया ।। 

विरथं कृतवान्‌ वीरं पाण्डवं सूतदायद । 

कुलस्य सदृशं चापि राधेय कृतवानसि ।। 

'सूतपूत्र! फिर तूने भी पुनः युद्ध करके केवल एक ही बार दैवेच्छासे पाण्डुपुत्र वीरवर 
भीमसेनको रथहीन किया है। राधापुत्र! तूने भीमको कटु॒ुवचन सुनाकर अपने कुलके 
अनुरूप कार्य किया है। 

त्वमिदानीं नरश्रेष्ठ प्रस्तुतं नावबुध्यसे । 

शृगाल इव वन्‍न्यान्‌ वै क्षत्रं त्वमवमन्यसे ।। 

पित्र्यं कर्मास्य संग्रामस्तव तस्य कुलोचितम्‌ । 

नरश्रेष्ठत इस समय जो संकट तेरे सामने प्रस्तुत है, उसे तू नहीं जानता है। जैसे सियार 
जंगली व्याप्र आदि जन्तुओंकी अवहेलना करे, उसी प्रकार तू भी क्षत्रियममाजका अपमान 
कर रहा है। संग्राम भीमसेनका तो पैतृक कर्म है और तेरा काम तेरे कुलके अनुरूप रथ 
हाँकना है। 

अहं त्वामपि राधेय ब्रवीमि रणमूर्थनि ।। 

सर्वशस्त्रभृतां मध्ये कुरु कार्याणि सर्वश: । 


नैकान्तसिद्धि: संग्रामे वासवस्यापि विद्यते ।।) 

'राधापुत्र! मैं इस युद्धके मुहानेपर सम्पूर्ण शस्त्रधारी योद्धाओंके बीचमें तुझसे कहे देता 
हूँ, तू अपने सारे कार्य सब प्रकारसे पूर्ण कर ले। संग्राममें इन्द्रको भी एकानातः सिद्धि नहीं 
प्राप्त होती। 

मुमूर्षुर्युयुधानेन विरथो विकलेन्द्रिय: । 

मद्व ध्यस्त्वमिति ज्ञात्वा जित्वा जीवन विसर्जित: ।। १० ।। 

'सात्यकिने तुझे रथहीन करके मृत्युके निकट पहुँचा दिया था। तेरी सारी इन्द्रियाँ 
व्याकुल हो उठी थीं, तो भी “तू मेरा वध्य है” यह जानकर उन्होंने तुझे जीतकर भी जीवित 
छोड़ दिया ।। १० ।। 

यदृच्छया रणे भीम॑ युध्यमानं महाबलम्‌ | 

कथंचिद्‌ विरथं कृत्वा यत्‌ त्वं रूक्षमभाषथा: ।। ११ ।। 

अधर्मस्त्वेष सुमहाननार्यचरितं च तत्‌ । 

'परंतु तूने रणभूमिमें युद्धपरायण महाबली भीमसेनको दैवेच्छासे किसी प्रकार रथहीन 
करके जो उनके प्रति कठोर बातें कही थीं, यह तेरा महान्‌ अधर्म है। नीच मनुष्य वैसा कार्य 
करते हैं || ११ ६ ।। 

नारिं जित्वातिकत्थन्ते न च जल्पन्ति दुर्वच: ।। १२ ।। 

न च कज्चन निन्दन्ति सन्त: शूरा नरर्षभा: | 

“नरश्रेष्ठ शूरवीर सज्जन शत्रुको जीतकर बढ़-बढ़कर बातें नहीं बनाते, किसीको कट 
वचन नहीं कहते और न किसीकी निन्‍्दा ही करते हैं | १२३ ।। 

त्वं तु प्राकृतविज्ञानस्तत्‌ तद्‌ वदसि सूतज ।। १३ ।। 

बह्नबद्धमकर्ण्य च चापलादपरीक्षितम्‌ | 

'सूतपुत्र! तेरी बुद्धि बहुत ओछी है। इसीलिये तू चपलतावश बिना जाँचे-बूझे बहुत-सी 
न सुननेयोग्य असम्बद्ध बातें बक जाया करता है || १३ ६ ।। 

युध्यमानं पराक्रान्तं शूरमार्यव्रते रतम्‌ ।। १४ ।। 

यदवोचोडप्रियं भीम॑ नैतत्‌ सत्यं वचस्तव । 

'तूने युद्धमें संलग्न, श्रेष्ठ व्रतके पालनमें तत्पर, पराक्रमी और शूरवीर भीमसेनके प्रति 
जो अप्रिय वचन कहा है, तेरा यह कथन ठीक नहीं है || १४ ३ ।। 

पश्यतां सर्वसैन्यानां केशवस्य ममैव च ।। १५ ।। 

विरथो भीमसेनेन कृतोडसि बहुशो रणे । 

“सारी सेनाओंके देखते-देखते मेरे और श्रीकृष्णके सामने युद्धस्थलमें भीमसेनने तुझे 
अनेक बार रथहीन कर दिया है ।। १५६ ।। 

नच त्वां परुषं किंचिदुक्तवान्‌ पाण्डुनन्दन: ।। १६ ।। 


यस्मात्‌ तु बहु रूक्ष॑ च श्रावितस्ते वृकोदर: । 

परोक्षं यच्च सौभद्रो युष्माभिन्निहतो मम ।। १७ ।। 

तस्मादस्यावलेपस्य सद्यः फलमवाप्रुहि । 

'परंतु उन पाण्डुनन्दन भीमने तुझसे कोई कटु वचन नहीं कहा। तूने जो भीमको बहुत- 
सी रूखी बातें सुनायी हैं और मेरे परोक्षमें तुमलोगोंने जो मेरे पुत्र सुभद्राकुमार अभिमन्युको 
अन्यायपूर्वक मार डाला है, अपने उस घमंडका तत्काल ही उचित फल तू प्राप्त कर 
ले || १६-१७ ३ |। 

त्वया तस्य धनुश्छिन्नमात्मनाशाय दुर्मते ।। १८ ।। 

तस्माद्‌ वध्यो5सि मे मूढ सभृत्यसुतबान्धव: । 

“दुर्मते! मूढ़! तूने अपने विनाशके लिये अभिमन्युका धनुष काट दिया था, अतः मेरे 
द्वारा भृत्य, पुत्र तथा वन्धु-बान्धवोंसहित प्राणदण्ड पानेयोग्य है ।। १८३ ।। 

कुरु त्वं सर्वकृत्यानि महत्‌ ते भयमागतम्‌ ।। १९ ।। 

हन्तास्मि वृषसेन ते प्रेक्षमाणस्य संयुगे । 

“तू अपने सारे कर्तव्य पूर्ण कर ले। तुझे भारी भय आ पहुँचा है। मैं युद्धस्थलमें तेरे 
देखते-देखते तेरे पुत्र वृषसेनको मार डालूँगा ।। १९६ ।। 

ये चान्ये5प्युपयास्यन्ति बुद्धिमोहेन मां नूपा: ।। २० ।। 

तांश्व सर्वान्‌ हनिष्यामि सत्येनायुधमालभे । 

“दूसरे भी जो राजा अपनी बुद्धिपर मोह छा जानेके कारण मेरे समीप आ जायाँगे, उन 
सबका संहार कर डालूँगा। इस सत्यको सामने रखकर मैं अपना धनुष छूता (शपथ खाता) 
हूँ ।। २०३६ ।। 

त्वां च मूढाकृतप्रज्ममतिमानिनमाहवे ।। २१ ।। 

दृष्टवा दुर्योधनो मन्दो भृशं तप्स्यति पातितम्‌ | 

'ओ मूढ़! तुझ अपवित्र बुद्धिवाले अत्यन्त घमंडी सहायकको युद्धस्थलमें धराशायी 
हुआ देखकर मूर्ख दुर्योधनको भी बड़ा पश्चात्ताप होगा || २१३ ।। 

अर्जुनेन प्रतिज्ञाते वधे कर्णसुतस्य तु ।। २२ ।। 

महान्‌ सुतुमुल: शब्दो बभूव रथिनां तदा । 

इस प्रकार अर्जुनके द्वारा कर्णपुत्र वृषसेनके वधकी प्रतिज्ञा होनेपर उस समय वहाँ 
रथियोंका महान्‌ एवं भयंकर कोलाहल छा गया ।। २२६ || 

तस्मिन्नाकुलसंग्रामे वर्तमाने महाभये ।। २३ ।। 

मन्दरश्मि: सहस्रांशुरस्तं गिरिमुपाद्रवत्‌ । 

उस महाभयानक तुमुल संग्रामके छिड़ जानेपर मन्द किरणोंवाले भगवान्‌ सूर्यदेव 
अस्ताचलको चले गये ।। 


ततो राजन्‌ हृषीकेश: संग्रामशिरसि स्थितम्‌ || २४ ।। 

तीर्णप्रतिज्ञं बीभत्सुं परिष्वज्यैनमब्रवीत्‌ । 

राजन! तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णने प्रतिज्ञासे पार होकर युद्धके मुहानेपर खड़े हुए 
अर्जुनको हृदयसे लगाकर इस प्रकार कहा-- || २४३ ।। 

दिष्टया सम्पादिता जिष्णो प्रतिज्ञा महती त्वया ।। २५ ।। 

दिष्टया विनिहतः पापो वृद्धक्षत्र: सहात्मज: । 

“विजयशील अर्जुन! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमने अपनी बड़ी भारी प्रतिज्ञा पूरी 
कर ली। सौभाग्यसे पापी वृद्धक्षत्र पुत्रसहित मारा गया ।। २५६ ।। 

धार्तराष्ट्रबलं प्राप्प देवसेनापि भारत ।। २६ ।। 

सीदेत समरे जिष्णो नात्र कार्या विचारणा | 

“भारत! दुर्योधनकी सेनामें पहुँचकर समरभूमिमें देवताओंकी सेना भी शिथिल हो 
सकती है। जिष्णो! इस विषयमें कोई दूसरा विचार नहीं करना चाहिये || २६३ ।। 

न तं पश्यामि लोकेषु चिन्तयन्‌ पुरुषं क्वचित्‌ || २७ ।। 

त्वदृते पुरुषव्याप्र य एतद्‌ योधयेद्‌ बलम्‌ | 

'पुरुषसिंह! मैं बहुत सोचनेपर भी तीनों लोकोंमें कहीं तुम्हारे सिवा किसी दूसरे 
पुरुषको ऐसा नहीं देखता, जो इस सेनाके साथ युद्ध कर सके ।। २७३ ।। 

महाप्रभावा बहवस्त्वया तुल्याधिकाडपि वा ।। २८ ।। 

समेता: पृथिवीपाला धार्तराष्ट्रस्य कारणात्‌ । 

धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके लिये बहुत-से महान्‌ प्रभावशाली राजा यहाँ एकत्र हो गये हैं, 
जिनमेंसे कितने ही तुम्हारे समान या तुमसे भी अधिक बलशाली हैं ।। 

ते त्वां प्राप्य रणे क्रुद्धा नाभ्यवर्तन्त दंशिता: ।। २९ ।। 

तव वीर्य बल॑ चैव रुद्रशक्रान्तकोपमम्‌ । 

'वे भी रणक्षेत्रमें कवच बाँधकर कुपित हो तुम्हारा सामना करनेके लिये आये, परंतु 
टिक न सके। तुम्हारा बल और पराक्रम रुद्र, इन्द्र तथा यमराजके समान है ।। 

नेदृश॑ शकक्‍्नुयात्‌ कश्चिद्‌ रणे कर्तु पराक्रमम्‌ । ३० ।। 

यादृशं कृतवानद्य त्वमेक: शत्रुतापन: । 

'युद्धमें कोई भी ऐसा पराक्रम नहीं कर सकता, जैसा कि आज तुमने अकेले ही कर 
दिखाया है। वास्तवमें तुम शत्रुओंको संताप देनेवाले हो || ३०३ ।। 

एवमेव हते कर्णे सानुबन्धे दुरात्मनि ।। ३१ ।। 

वर्धयिष्यामि भूयस्त्वां विजितारिं हतद्विषम्‌ । 

“इसी प्रकार सगे-सम्बन्धियोंसहित दुरात्मा कर्णके मारे जानेपर शत्रुओंको जीतने और 
द्वेषी विपक्षियोंको मार डालनेवाले तुझ विजयी वीरको पुन: बधाई दूँगा” ।। 


तमर्जुन: प्रत्युवाच प्रसादात्‌ तव माधव ।। ३२ ।। 

प्रतिज्ञेयं मया तीर्णा विबुधैरपि दुस्तरा । 

तब अर्जुनने उनकी बातोंका उत्तर देते हुए कहा--“माधव! आपकी कृपासे मैं इस 
प्रतिज्ञाकों पार कर सका हूँ; अन्यथा इसका पार पाना देवताओंके लिये भी कठिन 
था ।। ३२३६ |। 

अनाक्षर्यो जयस्तेषां येषां नाथोडसि केशव ।। ३३ || 

त्वत्प्रसादान्महीं कृत्स्नां सम्प्राप्स्यति युधिष्ठिर: । 

तव प्रभावो वार्ष्णेय तवैव विजय: प्रभो । 

वर्धनीयास्तव वयं सदैव मधुसूदन ।। ३४ ।। 

“केशव! आप जिनके रक्षक हैं, उनकी विजय हो, इसमें कोई आश्वर्यकी बात नहीं है। 
आपके कृपा-प्रसादसे राजा युधिष्छिर सम्पूर्ण भूमण्डलका राज्य प्राप्त कर लेंगे। 
वृष्णिनन्दन! प्रभो! यह आपका ही प्रभाव और आपकी ही विजय है। मधुसूदन! आपकी 
बधाईके पात्र तो हमलोग सदा ही बने रहेंगे! || ३३-३४ ।। 

एवमुक्तस्तत: कृष्ण: शनकैर्वाहयन्‌ हयान्‌ । 

दर्शयामास पार्थाय क्रूरमायोधनं महत्‌ ।। ३५ ।। 

अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌ श्रीकृष्णने धीरे-धीरे घोड़ोंको बढ़ाते हुए उस विशाल 
एवं क्रूरतापूर्ण संग्रामका दृश्य अर्जुनको दिखाना आरम्भ किया ।। ३५ |। 

श्रीकृष्ण उवाच 

प्रार्थयन्तो जयं युद्धे प्रथितं च महद्‌ यश: । 

पृथिव्यां शेरते शूरा: पार्थिवास्त्वच्छरैर्हता: । ३६ ।। 

श्रीकृष्ण बोले--अर्जुन! युद्धमें विजय और सब ओर फैले हुए महान्‌ सुयशकी 
अभिलाषा रखनेवाले ये शूरवीर भूपाल तुम्हारे बाणोंसे मरकर पृथ्वीपर सो रहे हैं ।। 





विकीर्णशस्त्राभरणा विपन्नाश्वरथद्विपा: । 

संछिन्नभिन्नमर्माणो वैक्लव्यं परमं गता: ।। ३७ ।। 

इनके अस्त्र-शस्त्र और आभूषण बिखरे पड़े हैं, घोड़े, रथ और हाथी नष्ट हो गये हैं तथा 
मर्मस्थल छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण ये नरेश भारी व्याकुलतामें पड़ गये हैं ।। ३७ ।। 

ससत्त्वा गतसत्त्वाश्न प्रभया परया युता: । 

सजीवा इव लक्ष्यन्ते गतसत्त्वा नराधिपा: ।। ३८ ।। 

कितने ही राजाओंके प्राण चले गये हैं और कितनोंके प्राण अभी नहीं निकले हैं। 
जिनके प्राण निकल गये हैं, वे नरेश भी अत्यन्त कान्तिसे प्रकाशित होनेके कारण जीवित- 
से दिखायी देते हैं || ३८ ।। 

तेषां शरै: स्वर्णपुड्खै: शस्त्रैश्व विविधै: शितै: । 

वाहनैरायुधैश्नैव सम्पूर्णा पश्य मेदिनीम्‌ ।। ३९ ।। 

देखो, यह सारी पृथ्वी उन राजाओंके सुवर्णमय पंखवाले बाणों, तेज धारवाले नाना 
प्रकारके शस्त्रों, वाहनों और आयुधोंसे भरी हुई है ।। ३९ ।। 

वर्मभिश्चर्मभिहरि: शिरोभिश्व॒ सकुण्डलै: । 

उष्णीषैर्मुकुटै: स्रग्भिश्वूडामणिभिरम्बरै: ।। ४० ।। 

कण्ठसूत्रैरड्रदैश्व निष्कैरपि च सप्रभै: । 


अन्यैश्षाभरणैश्षित्रैर्भाति भारत मेदिनी ।। ४१ ।। 

भारत! चारों ओर गिरे हुए कवच, ढाल, हार, कुण्डलयुक्त मस्तक, पगड़ी, मुकुट, 
माला, चूड़ामणि, वस्त्र, कण्ठसूत्र, बाजूबंद, चमकीले निष्क एवं अन्यान्य विचित्र 
आभूषणोंसे इस रणभूमिकी बड़ी शोभा हो रही है || ४०-४१ ।। 

अनुकर्षरुपासड्रैः पताकाभिर्ध्वजैस्तथा । 

उपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरै: ।। ४२ ।। 

चक्रैः प्रमथितैश्ित्रैरक्षेश्न॒ बहुधा रणे । 

युगै्योक्त्रै: कलापैश्न धनुर्भि: सायकैस्तथा ।। ४३ ।। 

परिस्तोमै: कुथाभि श्न परिघैरड्कुशैस्तथा । 

शक्तिभिभिन्दिपालैश्न तृणै: शूलै: परश्वचै: ।। ४४ ।। 

प्रासैश्न तोमरैश्वैव कुन्तैर्यष्टि भिरेव च । 

शतघध्नीभिर्भूशुण्डीभि: खड्गै: परशुभिस्तथा ।। ४५ ।। 

मुसलैर्मुद्गरैश्वैव गदाभि: कुणपैस्तथा । 

सुवर्णविकृताभिश्व कशाभिभर्भरतर्षभ ।। ४६ ।। 

घण्टाभिश्ष गजेन्द्राणां भाण्डैश्न विविधैरपि । 

स्रग्भिश्ष नानाभरणैवस्त्रैश्ैव महाधनै: ।। ४७ ।। 

अपदविद्धैर्बभौ भूमिगग्रहैद्यौरिव शारदी । 

बहुत-से अनुकर्ष, उपासंग, पताका, ध्वज, सजावटकी सामग्री, बैठक, ईषादण्ड, 
बन्धनरज्जु, टूटे-फ़ूटे पहिये, विचित्र धुरे, नाना प्रकारके जुए, जोत, लगाम, धनुष-बाण, 
हाथीकी रंगीन झूल, हाथीकी पीठपर बिछाये जानेवाले गलीचे, परिघ, अंकुश, शक्ति, 
भिन्दिपाल, तरकश, शूल, फरसे प्रास, तोमर, कुन्त, डंडे, शतघ्नी, भुशुण्डी, खड्ग, परशु, 
मुसल, मुद्गर, गदा, कुणप, सोनेके चाबुक, गजराजोंके घण्टे, नाना प्रकारके हौदे और 
जीन, माला, भाँति-भाँतिके अलंकार तथा बहुमूल्य वस्त्र रणभूमिमें सब ओर बिखरे पड़े हैं। 
भरतश्रेष्ठ! इनके द्वारा यह भूमि नक्षत्रोंद्वारा शरद-ऋतुके आकाशकी भाँति सुशोभित हो 
रही है || ४२--४७ ३ ।। 

पृथिव्यां पृथिवीहेतो: पृथिवीपतयो हता: ।। ४८ ।। 

पृथिवीमुपगुदाज्लैः सुप्ता: कान्तामिव प्रियाम्‌ 

इस पृथ्वीके राज्यके लिये मारे गये ये पृथ्वीपति अपने सम्पूर्ण अंगोंद्वारा प्यारी 
प्राणवललभाके समान इस भूमिका आलिंगन करके इसपर सो रहे हैं ।। ४८ $ ।। 

इमांश्व॒ गिरिकूटाभान्‌ नागानैरावतोपमान्‌ ।। ४९ ।। 

क्षरत: शोणितं भूरि शस्त्रच्छेददरीमुखै: । 

दरीमुखैरिव गिरीन्‌ गैरिकाम्बुपरिस्रवान्‌ ।। ५० || 

तांक्ष बाणहतान्‌ वीर पश्य निष्टनत: क्षितौ । 


वीर! देखो, से पर्वतशिखरके समान प्रतीत होनेवाले ऐरावत-जैसे हाथी शस्त्रोंद्वारा बने 
हुए घावोंके छिद्रसे उसी प्रकार अधिकाधिक रक्तकी धारा बहा रहे हैं, जैसे पर्वत अपनी 
कन्दराओंके मुखसे गेरुमिश्रित जलके झरने बहाया करते हैं। वे बाणोंसे मारे जाकर 
धरतीपर लोट रहे हैं || ४९-५० ३ ।। 

हयांश्व॒ पतितान्‌ पश्य स्वर्णभाण्डविभूषितान्‌ ।। ५१ ।। 

गन्धर्वनगराकारान्‌ रथांश्व निहतेश्वरान्‌ । 

छिन्नध्वजपताकाक्षान्‌ विचक्रान्‌ हतसारथीन्‌ ॥। ५२ ।। 

सोनेके जीन एवं साज-बाजसे विभूषित इन घोड़ोंको तो देखो, ये भी प्राणशून्य होकर 
पड़े हैं। ये रथ जिनके स्वामी मारे गये हैं, गन्धर्वनगरके समान दिखायी देते हैं। इनकी 
ध्वजा, पताका और धुरे छिन्न-भिन्न हो गये हैं, पहिये नष्ट हो चुके हैं और सारथि भी मार 
डाले गये हैं || ५१-५२ ।। 

निकृत्तकूबरयुगान्‌ भग्नेषाबन्धुरान्‌ प्रभो | 

पश्य पार्थ हयान्‌ भूमौ विमानोपमदर्शनान्‌ ।। ५३ ।। 

प्रभो! इन रथोंके कूबर और जुए खण्डित हो गये हैं। ईषादण्ड टुकड़े-टुकड़े कर दिये 
गये हैं और इनकी बन्धन-रज्जुओंकी भी धज्जियाँ उड़ गयी हैं। पार्थ! भूमिपर पड़े हुए इन 
घोड़ोंको तो देखो, ये विमानके समान दिखायी दे रहे हैं || ५३ ।। 

पत्ती क्षनिहतान वीर शतशो5थ सहस्रश: । 

धनुर्भुतश्चर्मभृतः शयानान्‌ रुधिरोक्षितान्‌ ।। ५४ ।। 

वीर! अपने मारे हुए इन सैकड़ों और हजारों पैदल सैनिकोंको देखो, जो धनुष और 
ढाल लिये खूनसे लथपथ हो धरतीपर सो रहे हैं || ५४ ।। 

महीमालिड्ग्य सर्वज्ञि: पांसुध्वस्तशिरोरुहान्‌ । 

पश्य योधान्‌ महाबाहो त्वच्छरैर्भिन्नविग्रहान्‌ । ५५ ।। 

महाबाहो! तुम्हारे बाणोंसे जिनके शरीर छिन्न-भिन्न हो रहे हैं, उन योद्धाओंकी दशा तो 
देखो। उनके बाल धूलमें सन गये हैं और वे अपने सम्पूर्ण अंगोंसे इस पृथ्वीका आलिंगन 
करके सो रहे हैं | ५५ ।। 

निपातितद्विपरथवाजिसंकुल- 

मसृग्वसापिशितसमृद्धकर्दमम्‌ । 
निशाचरश्ववृकपिशाचमोदनं 
महीतलं नरवर पश्य दुर्दशम्‌ ।। ५६ ।। 

नरश्रेष्ठ इस भूतलकी दशा देख लो। इसकी ओर दृष्टि डालना कठिन हो रहा है। यह 
मारे गये हाथियों, चौपट हुए रथों और मरे हुए घोड़ोंसे पट गया है। रक्त, चर्बी और मांससे 
यहाँ कीच जम गयी है। यह रणभूमि निशाचरों, कुत्तों, भेड़ियों और पिशाचोंके लिये 
आनन्ददायिनी बन गयी है ।। ५६ ।। 


इदं महत्‌ त्वय्युपपद्यते प्रभो 
रणाजिरे कर्म यशोभिवर्धनम्‌ | 
शतक्रतौ चापि च देवसत्तमे 
महाहवे जचघ्नुषि दैत्यदानवान्‌ ।। ५७ ।। 
प्रभो! समरांगणमें यह यशोवर्धक महान्‌ कर्म करनेकी शक्ति तुममें तथा महायुद्धमें 
दैत्यों और दानवोंका संहार करनेवाले देवराज इन्द्रमें ही सम्भव है ।। ५७ ।। 
संजय उवाच 
एवं संदर्शयन्‌ कृष्णो रणभूमिं किरीटिने । 
स्वै: समेत: समुदितै: पाउ्चजन्यं व्यनादयत्‌ ।। ५८ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार किरीटधारी अर्जुनको रणभूमिका दृश्य दिखाते 
हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने वहाँ जुटे हुए स्वजनोंसहित पांचजन्य शंख बजाया || ५८ ।। 
स दर्शयन्नेव किरीटिने5रिहा 
जनार्दनस्तामरिभूमिमज्जसा । 
अजातशशन्रुं समुपेत्य पाण्डवं 
निवेदयामास हतं जयद्रथम्‌ ।। ५९ ।। 
शत्रुसूदन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनको इस प्रकार रणभूमिका दृश्य दिखाते हुए 
अनायास ही अजातशत्रु पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके पास पहुँचकर उनसे यह निवेदन किया कि 
जयद्रथ मारा गया ।। ५९ |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकशततमो< ध्याय: 
|| १४८ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें एक सौ अड्श़तालीसवाँ 
अध्याय पूरा हुआ ॥। १४८ ॥ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६ श्लोक मिलाकर कुल ६५ श्लोक हैं।) 


ऑपनआक्ात बा अर क्ाज 


एकोनपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


श्रीकृष्णका युधिष्ठिससे विजयका समाचार सुनाना और 
युधिष्ठिरद्वारा श्रीकृष्णाकी स्तुति तथा अर्जुन, भीम एवं 
सात्यकिका अभिनन्दन 


संजय उवाच 

ततो राजानमभ्येत्य धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

ववन्दे स प्रहृष्टात्मा हते पार्थेन सैन्धवे ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर अर्जुनद्वारा सिंधुराज जयद्रथके मारे जानेपर 
धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके पास पहुँचकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने हर्षपूर्ण हृदयसे उन्हें प्रणाम 
किया और कहा-- ।॥। १ || 

दिष्टया वर्धसि राजेन्द्र हतशत्रुर्नरोत्तम | 

दिष्ट्या निस्तीर्णवांश्वैव प्रतिज्ञामनुजस्तव ।। २ ।। 

'राजेन्द्र! सौभाग्यसे आपका अभ्युदय हो रहा है। नरश्रेष्ठ. आपका शत्रु मारा गया। 
आपके छोटे भाईने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली, यह महान्‌ सौभाग्यकी बात है' ।। 

स त्वेवमुक्त: कृष्णेन हृष्ट: परपुरंजय: । 

ततो युधिष्ठिरो राजा रथादाप्लुत्य भारत ।। ३ ।। 

पर्यष्वजत्‌ तदा कृष्णावानन्दाश्रुपरिप्लुत: । 

भारत! भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले 
राजा युधिष्ठिर हर्षमें भरकर अपने रथसे कूद पड़े और आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने 
उस समय श्रीकृष्ण और अर्जुनको हृदयसे लगा लिया || ३६ ।। 

प्रमृज्य वदनं शुभ्र॑ पुण्डरीकसमप्रभम्‌ ।। ४ ।। 

अब्रवीद्‌ वासुदेवं च पाण्डवं च धनंजयम्‌ | 

फिर उनके कमलके समान कान्तिमान्‌ सुन्दर मुखपर हाथ फेरते हुए वे वसुदेवनन्दन 
श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुनसे इस प्रकार बोले-- || ४६ ।। 

प्रियमेतदुपश्रुत्य त्वत्त: पुष्करलोचन ।। ५ ।। 

नान्‍्तं गच्छामि हर्षस्य तितीर्षुरुदधेरिव । 

अत्यद्भुतमिदं कृष्ण कृतं पार्थेन धीमता ॥। ६ ।। 

“कमलनयन कृष्ण! जैसे तैरनेकी इच्छावाला पुरुष समुद्रका पार नहीं पाता, उसी 
प्रकार आपके मुखसे यह प्रिय समाचार सुनकर मेरे हर्षकी सीमा नहीं रह गयी है। बुद्धिमान्‌ 
अर्जुनने यह अत्यन्त अद्भुत पराक्रम किया है ।। ५-६ |। 


दिष्ट्या पश्यामि संग्रामे तीर्णभारी महारथौ । 

दिष्ट्या विनिहतः पाप: सैन्धव: पुरुषाधम: ।। ७ ।। 

“आज सौभाग्यवश संग्रामभूमिमें मैं आप दोनों महारथियोंको प्रतिज्ञाके भारसे मुक्त 
हुआ देखता हूँ। यह बड़े हर्षकी बात है कि पापी नराधम सिंधुराज जयद्रथ मारा 
गया ।। ७ ।। 

कृष्ण दिष्ट्या मम प्रीतिर्महती प्रतिपादिता । 

त्वया गुप्तेन गोविन्द घ्नता पापं जयद्रथम्‌ ॥। ८ ।। 

“श्रीकृष्ण! गोविन्द! सौभाग्यवश आपके द्वारा सुरक्षित हुए अर्जुनने पापी जयद्रथको 
मारकर मुझे महान्‌ हर्ष प्रदान किया है ।। ८ ।। 

किं तु नात्यद्धुतं तेषां येषां नस्त्वं समाश्रय: । 

न तेषां दुष्कृतं किंचित्‌ त्रिषु लोकेषु विद्यते ।। ९ ।। 

सर्वलोकगुरुयेषां त्वं नाथो मधुसूदन । 

त्वत्प्रसादाद्धि गोविन्द वयं जेष्यामहे रिपून्‌ ।। १० ।। 

'परंतु जिनके आप आश्रय हैं, उन हमलोगोंके लिये विजय और सौभाग्यकी प्राप्ति 
अत्यन्त अद्भुत बात नहीं है। मुधुसूदन! सम्पूर्ण जगतके गुरु आप जिनके रक्षक हैं, उनके 
लिये तीनों लोकोंमें कहीं कुछ भी दुष्कर नहीं है। गोविन्द! हम आपकी कृपासे शत्रुओंपर 
निश्चय ही विजय पायेंगे || ९-१० ।। 

स्थित: सर्वात्मना नित्य॑ प्रियेषु च हितेषु च । 

त्वां चैवास्माभिराश्रित्य कृत: शस्त्रसमुद्यम: ।। ११ ।। 

सुरैरिवासुरवधे शक्रं शक्रानुजाहवे । 

“उपेन्द्र! आप सदा सब प्रकारसे हमारे प्रिय और हितसाधनमें लगे हुए हैं। हमलोगोंने 
आपका ही आश्रय लेकर श्त्रोंद्वारा युद्धकी तैयारी की है। ठीक उसी तरह, जैसे देवता 
इन्द्रका आश्रय लेकर युद्धमें असुरोंके वधका उद्योग करते हैं || ११६ ।। 

असम्भाव्यमिदं कर्म देवैरपि जनार्दन ।। १२ ।। 

त्वद्बुद्धिबलवीर्येण कृतवानेष फाल्गुन: । 

“जनार्दन! आपकी ही बुद्धि, बल और पराक्रमसे इस अर्जुनने यह देवताओंके लिये भी 
असम्भव कर्म कर दिखाया है || १२६ ।। 

बाल्यात्‌ प्रभृति ते कृष्ण कर्माणि श्रुतवानहम्‌ ।। १३ ।। 

अमानुषाणि दिव्यानि महान्ति च बहूनि च 

तदैवाज्ञासिषं शत्रून्‌ हतान्‌ प्राप्तां च मेदिनीम्‌ ।। १४ ।। 

“श्रीकृष्ण! बाल्यावस्थासे ही आपने जो बहुत-से अलौकिक, दिव्य एवं महान्‌ कर्म 
किये हैं, उन्हें जबसे मैंने सुना है, तभीसे यह निश्चितरूपसे जान लिया है कि मेरे शत्रु मारे 
गये और मैंने भूमण्डलका राज्य प्राप्त कर लिया ।। १३-१४ ।। 


त्वत्प्रसादसमुत्थेन विक्रमेणारिसूदन । 

सुरेशत्वं गत: शक्रो हत्वा दैत्यानू सहस्रश: ।। १५ ।। 

'शत्रुसूदन! आपकी कृपासे प्राप्त हुए पराक्रमद्वारा इन्द्र सहस्रों दैत्योंका संहार करके 
देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुए हैं || १५ ।। 

त्वत्प्रसादाद्धुघीकेश जगत्‌ स्थावरजज्भमम्‌ । 

स्ववर्त्मनि स्थितं वीर जपहोमेषु वर्तते । १६ ।। 

“वीर हृषीकेश! आपके ही प्रसादसे यह स्थावर-जंगमरूप जगत्‌ अपनी मर्यादामें स्थित 
रहकर जप और होम आदि सत्कर्मोमें संलग्न होता है ।। १६ ।। 

एकार्णवमिदं पूर्व सर्वमासीत्‌ तमोमयम्‌ | 

त्वत्प्रसादान्महाबाहो जगत्‌ प्राप्तं नरोत्तम ।। १७ ।। 

“महाबाहो! नरश्रेष्ठ] पहले यह सारा जगत्‌ एकार्णवके जलमें निमग्न हो अन्धकारमें 
विलीन हो गया था। फिर आपकी ही कृपादृष्टिसे यह वर्तमान रूपमें उपलब्ध हुआ 
है ।। १७ ।। 

स्रष्टारं सर्वलोकानां परमात्मानमव्ययम्‌ । 

ये पश्यन्ति हृषीकेशं न ते मुहान्ति कहिचित्‌ ।। १८ ।। 

“जो सम्पूर्ण जगत॒की सृष्टि करनेवाले आप अविनाशी परमात्मा हृषीकेशका दर्शन पा 
जाते हैं, वे कभी मोहके वशीभूत नहीं होते हैं || १८ ।। 

पुराणं परम देवं देवदेवं सनातनम्‌ | 

ये प्रपन्ना: सुरगुरुं न ते मुहान्ति कर्िचित्‌ ।। १९ ।। 

“आप पुराण पुरुष, परमदेव, देवताओंके भी देवता, देवगुरु एवं सनातन परमात्मा हैं। 
जो लोग आपकी शरणमें जाते हैं, वे कभी मोहमें नहीं पड़ते हैं || १९ ।। 

अनादिनिधन देवं लोककर्तारमव्ययम्‌ | 

ये भक्तास्त्वां हृषीकेश दुर्गाण्यतितरन्ति ते । २० ।। 

“हृषीकेश! आप आदि-अन्तसे रहित विश्वविधाता और अविकारी देवता हैं। जो आपके 
भक्त हैं, वे बड़े-बड़े संकटोंसे पार हो जाते हैं || २० ।। 

परं पुराणं पुरुषं पराणां परमं च यत्‌ | 

प्रपद्यतस्तत्‌ परमं परा भूतिर्विधीयते ।। २१ ।। 

“आप परम पुरातन पुरुष हैं। परसे भी पर हैं। आप परमेश्वरकी शरण लेनेवाले पुरुषको 
परम ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है || २१ ।। 

गायन्ति चतुरो वेदा यश्च वेदेषु गीयते । 

त॑ प्रपद्य महात्मानं भूतिमश्षाम्यनुत्तमाम्‌ ।। २२ ।। 

“चारों वेद जिनके यशका गान करते हैं, जो सम्पूर्ण वेदोंमें गाये जाते हैं, उस महात्मा 
श्रीकृष्णकी शरण लेकर मैं सर्वोत्तम ऐश्वर्य (कल्याण) प्राप्त करूँगा ।। २२ ।। 


परमेश परेशेश तिर्यगीश नरेश्वर । 

सर्वेश्वरेश्वरेशेश नमस्ते पुरुषोत्तम ।। २३ ।। 

“पुरुषोत्तम! आप परमेश्वर हैं। पशु, पक्षी तथा मनुष्योंके भी ईश्वर हैं। “परमेश्वर” कहे 
जानेवाले इन्द्रादि लोकपालोंके भी स्वामी हैं। सर्वेश्वर! जो सबके ईश्वर हैं, उनके भी आप ही 
ईश्वर हैं। आपको नमस्कार है ।। २३ ।। 

त्वमीशेशेश्वरेशान प्रभो वर्धस्व माधव । 

प्रभवाप्यय सर्वस्य सर्वात्मन्‌ पृुथुलोचन ।। २४ ।। 

“विशाल नेत्रोंवाले माधव! आप ईश्वरोंके भी ईश्वर और शासक हैं। प्रभो! आपका 
अभ्युदय हो। सर्वात्मन्‌! आप ही सबके उत्पत्ति और प्रलयके कारण हैं ।। २४ ।। 

धनंजयसखा यश्चन धनंजयहितकश्षन यः । 

धनंजयस्य गोप्ता तं प्रपद्य सुखमेधते ।। २५ ।। 

“जो अर्जुनके मित्र, अर्जुनके हितैषी और अर्जुनके रक्षक हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णकी 
शरण लेकर मनुष्य सुखी होता है || २५ ।। 

मार्कण्डेय: पुराणर्षिश्नरितज्ञस्तवानघ । 

माहात्म्यमनुभावं च पुरा कीर्तितवान्‌ मुनि: ।। २६ ।। 

“निष्पाप श्रीकृष्ण! प्राचीनकालके महर्षि मार्कण्डेय आपके चरित्रको जानते हैं। उन 
मुनिश्रेष्ठने पहले (वनवासके समय) आपके प्रभाव और माहात्म्यका मुझसे वर्णन किया 
था ।। २६ |। 

असितो देवलश्लैव नारदश्न महातपा: । 

पितामहश्न मे व्यासस्त्वामाहुर्विधिमुत्तमम्‌ ।। २७ ।। 

“असित, देवल, महातपस्वी नारद तथा मेरे पितामह व्यासने आपको ही सर्वोत्तम विधि 
बताया है || २७ |। 

त्वं तेजस्त्वं परं ब्रह्म त्वं सत्यं त्वं महत्‌ तपः । 

त्वं श्रेयस्त्वं यशक्षाग्रयं कारणं जगतस्तथा || २८ ।। 

त्वया सृष्टमिदं सर्व जगत्‌ स्थावरजड्भमम्‌ । 

प्रलये समनुप्राप्ते त्वां वै निविशते पुन: ।। २९ ।। 

“आप ही तेज, आप ही परब्रह्म, आप ही सत्य, आप ही महान्‌ तप, आप ही श्रेय, आप 
ही उत्तम यश और आप ही जगतके कारण हैं। आपने ही इस सम्पूर्ण स्थावर-जंगम 
जगत्‌की सृष्टि की है और प्रलयकाल आनेपर यह पुनः आपटहीमें लीन हो जाता 
है || २८-२९ |। 

अनादिनिधनं देवं विश्वस्येशं जगत्पते । 

धातारमजमव्यक्तमाहुर्वेदविदो जना: ।। ३० ।। 

भूतात्मानं महात्मानमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ । 


“जगत्पते! वेदवेत्ता पुछ्णष आपको आदि-अन्तसे रहित, दिव्यस्वरूप, विश्वेश्वर, धाता, 
अजन्मा, अव्यक्त, भूतात्मा, महात्मा, अनन्त तथा विश्वतोमुख आदि नामोंसे पुकारते 
हैं ।। ३०६ || 

अपि देवा न जानन्ति गुह्माद्यं जगत्पतिम्‌ ।। ३१ ।। 

नारायणं परं देवं परमात्मानमी श्वरम्‌ । 

ज्ञानयोनिं हरिं विष्णुं मुमुक्षूणां परायणम्‌ । 

परं पुराणं पुरुष पुराणानां परं च यत्‌ ।। ३२ ।। 

“आपका रहस्य गूढ़ है। आप सबके आदि कारण और इस जगतके स्वामी हैं। आप ही 
परमदेव, नारायण, परमात्मा और ईश्वर हैं। ज्ञानस्वरूप श्रीहरि तथा मुमुक्षुओंके परम 
आश्रय भगवान्‌ विष्णु भी आप ही हैं। आपके यथार्थ स्वरूपको देवता भी नहीं जानते हैं। 
आप ही परम पुराणपुरुष तथा पुराणोंसे भी परे हैं ।। 

एवमादिगुणानां ते कर्मणां दिवि चेह च | 

अतीतभूतभव्यानां संख्यातात्र न विद्यते ।। ३३ ।। 

सर्वतो रक्षणीया: सम शक्रेणेव दिवौकस: । 

यैस्त्वं सर्वगुणोपेत: सुहृन्न उपपादित: ।। ३४ ।। 

“आपके ऐसे-ऐसे गुणों तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्यकालमें होनेवाले कर्मोकी गणना 
करनेवाला इस भूलोकमें या स्वर्गमें भी कोई नहीं है। जैसे इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते हैं, 
उसी प्रकार हम सब लोग आपके द्वारा सर्वथा रक्षणीय हैं। हमें आप सर्वगुणसम्पन्न सुहृदके 
रूपमें प्राप्त हुए हैं" || ३३-३४ ।। 

इत्येवं धर्मराजेन हरिरुक्तो महायशा: । 

अनुरूपमिदं वाक्यं प्रत्युवाच जनार्दन: ।। ३५ ।। 

धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर महायशस्वी भगवान्‌ जनार्दनने उनके कथनके 
अनुरूप इस प्रकार उत्तर दिया-- || ३५ |। 

भवता तपसोग्रेण धर्मेण परमेण च । 

साधुत्वादार्जवाच्चैव हत: पापो जयद्रथ: ।। ३६ ।। 

“धर्मराज! आपकी उग्र तपस्या, परम धर्म, साधुता तथा सरलतासे ही पापी जयद्रथ 
मारा गया है || ३६ ।। 

अयं च पुरुषव्याप्र त्ववनुध्यानसंवृतः । 

हत्वा योधसहस््राणि न्यहन्‌ जिष्णुर्जयद्रथम्‌ ।। ३७ ।। 

'पुरुषसिंह! आपने जो निरन्तर शुभ-चिन्तन किया है, उसीसे सुरक्षित हो अर्जुनने 
सहसीरों योद्धाओंका संहार करके जयद्रथका वध किया है || ३७ ।। 

कृतित्वे बाहुवीय्यें च तथैवासम्भ्रमेडपि च । 

शीघ्रतामोघबुद्धित्वे नास्ति पार्थसम: क्वचित्‌ ।। ३८ ।। 


“अस्त्रोंके ज्ञान, बाहुबल, स्थिरता, शीघ्रता और अमोघबुद्धिता आदि गुणोंमें कहीं कोई 
भी कुन्तीकुमार अर्जुनकी समता करनेवाला नहीं है ।। ३८ ।। 

तदयं भरतश्रेष्ठ भ्राता तेडद्य यदर्जुन: । 

सैन्यक्षयं रणे कृत्वा सिन्धुराजशिरो5हरत्‌ ।। ३९ ।। 

“भरतश्रेष्ठ) इसीलिये आज आपके इस छोटे भाई अर्जुनने संग्राममें शत्रुसेनाका संहार 
करके सिंधुराजका सिर काट लिया है” ।। ३९ |। 

ततो धर्मसुतो जिष्णुं परिष्वज्य विशाम्पते । 

प्रमृज्य वदनं तस्य पर्याश्चवासयत प्रभु: ॥॥ ४० ।। 

प्रजानाथ! तब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने अर्जुनको हृदयसे लगा लिया और उनका मुँह 
पोंछकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा-- || ४० ।। 

अतीव सुमहत्‌ कर्म कृतवानसि फाल्गुन । 

असहां चाविषहां च देवैरपि सवासवै: ।। ४१ ।। 

'फाल्गुन! आज तुमने बड़ा भारी कर्म कर दिखाया। इसका सम्पादन करना अथवा 
इसके भारको सह लेना इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी असम्भव था ।। ४१ ।। 

दिष्ट्या निस्तीर्णभारो5सि हतारिश्नासि शत्रुहन्‌ । 

दिष्ट्या सत्या प्रतिज्ञेयं कृता हत्वा जयद्रथम्‌ ।। ४२ ।। 

'शत्रुसूदन! आज तुम अपने शत्रुको मारकर प्रतिज्ञाके भारसे मुक्त हो गये। यह 
सौभाग्यकी बात है। हर्षका विषय है कि तुमने जयद्रथको मारकर अपनी यह प्रतिज्ञा सत्य 
कर दिखायी” ।। ४२ ।। 

एवमुक्त्वा गुडाकेशं धर्मराजो महायशा: । 

पस्पर्श पुण्यगन्धेन पृष्ठे हस्तेन पार्थिव: ।। ४३ ।। 

महायशस्वी धर्मराज राजा युधिष्ठिरने निद्राविजयी अर्जुनसे ऐसा कहकर उनकी 
पीठपर पवित्र सुगन्धसे युक्त अपना हाथ फेरा ।। ४३ ।। 

एवमुक्तौ महात्मानावुभौ केशवपाण्डवौ । 

तावब्रूतां तदा कृष्णौ राजानं पृथिवीपतिम्‌ ।। ४४ ।। 

उनके ऐसा कहनेपर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुनने उस समय उन पृथ्वीपति नरेशसे 
इस प्रकार कहा-- ।। ४४ ।। 

तव कोपाग्निना दग्ध: पापो राजा जयद्रथ: । 

उत्तीर्ण चापि सुमहद्‌ धार्तराष्ट्रबलं रणे ।। ४५ ।। 

“महाराज! पापी राजा जयद्रथ आपकी क्रोधाग्निसे दग्ध हो गया है तथा रणभूमिमें 
दुर्योधनकी विशाल सेनासे पार पाना भी आपकी कृपासे ही सम्भव हुआ है || ४५ ।। 

हन्यन्ते निहताश्चैव विनड्क्ष्यन्ति च भारत । 

तव क्रोधहता होते कौरवा: शत्रुसूदन ।। ४६ ।। 


“भारत! शत्रुसूदन! ये सारे कौरव आपके क्रोधसे ही नष्ट होकर मारे गये हैं, मारे जाते हैं 
और भविष्यमें भी मारे जायँगे ।। ४६ ।। 

त्वां हि चक्षुर्ठणं वीर॑ं कोपयित्वा सुयोधन: । 

समित्रबन्धु: समरे प्राणांस्त्यक्ष्यति दुर्मति: ।। ४७ ।। 

'क्रोधपूर्ण दृष्टिपातमात्रसे विरोधीको दग्ध कर देनेवाले आप-जैसे वीरको कुपित करके 
दुर्बद्धि दुर्योधन अपने मित्रों और वन्धुओंके साथ समरभूमिमें प्राणोंका परित्याग कर 
देगा || ४७ ।। 

तव क्रोधहत: पूर्व देवैरपि सुदुर्जय: । 

शरतल्पगत: शेते भीष्म: कुरुपितामह: | ४८ ।। 

“जिनपर विजय पाना पहले देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे कुरुकुलके 
पितामह भीष्म आपके क्रोधसे ही दग्ध होकर इस समय बाणशब्यापर सो रहे हैं || ४८ ।। 

दुर्लभो विजयस्तेषां संग्रामे रिपुसूदन । 

याता मृत्युवशं ते वै येषां क्रुद्धो+सि पाण्डव ।। ४९ ।। 

'शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन! आप जिनपर कुपित हैं, उनके लिये युद्धमें विजय दुर्लभ है। वे 
निश्चय ही मृत्युके वशमें हो गये हैं || ४९ ।। 

राज्यं प्राणा: श्रिय: पुत्रा: सौख्यानि विविधानि च | 

अचिरात्‌ तस्य नश्यन्ति येषां क्रुद्धो+सि मानद ।। ५० ।। 

“दूसरोंको मान देनेवाले नरेश! जिनपर आपका क्रोध हुआ है, उनके राज्य, प्राण, 
सम्पत्ति, पुत्र तथा नाना प्रकारके सौख्य शीघ्र नष्ट हो जायँगे || ५० ।। 

विनष्टान्‌ कौरवान्‌ मन्ये सपुत्रपशुबान्धवान्‌ | 

राजधर्मपरे नित्यं त्वयि क्रुद्धे परंतप ।। ५१ ।। 

'शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर! सदा राजधर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाले आपके 
कुपित होनेपर मैं कौरवोंको पुत्र, पशु तथा बन्धु-बान्धवोंसहित नष्ट हुआ ही मानता 
हूँ! | ५१ |। 

ततो भीमो महाबाहु: सात्यकिश्न महारथः । 

अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठ॑ मार्गणै: क्षतविक्षतौ ।। ५२ ।। 

क्षितावास्तां महेष्वासौ पाञ्चाल्यै: परिवारितौ | 

तौ दृष्टवा मुदितौ वीरौ प्राञ्जली चाग्रत: स्थितौ ।। ५३ ।। 

अभ्यनन्दत कौन्तेयस्तावुभौ भीमसात्यकी । 

तदनन्तर, बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए महाबाहु भीमसेन और महारथी सात्यकि अपने 
ज्येष्ठ गुरु युधिष्ठिरको प्रणाम करके भूमिपर खड़े हो गये। पांचालोंसे घिरे हुए उन दोनों 
महाथनुर्धर वीरोंको प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़े सामने खड़े देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने भीम 
और सात्यकि दोनोंका अभिनन्दन किया || ५२-५३ ह ।। 


दिष्ट्या पश्यामि वां शूरौ विमुक्तौ सैन्यसागरात्‌ ।। ५४ ।। 

द्रोणग्राहदुराधर्षाद्धार्दिक्यमकरालयात्‌ । 

वे बोले--'बड़े सौभाग्यकी बात है कि मैं तुम दोनों शूरवीरोंको शत्रुसेनाके समुद्रसे पार 
हुआ देख रहा हूँ। वह सैन्यसागर द्रोणाचार्यरूपी ग्राहके कारण दुर्धर्ष है और कृतवर्मा जैसे 
मगरोंका वासस्थान बना हुआ है || ५४ $ || 

दिष्ट्या विनिर्जिता: संख्ये पृथिव्यां सर्वपार्थिवा: ।। ५५ ।। 

युवां विजयिनौ चापि दिष्ट्या पश्यामि संयुगे । 

'युद्धमें सारे भूपाल पराजित हो गये और संग्राम-भूमिमें मैं तुम दोनोंको विजयी देख 
रहा हूँ--यह बड़े हर्षका विषय है ।। ५५३ ।। 

दिष्ट्या द्रोणोजित: संख्ये हार्दिक्यश्च महाबल: ।। ५६ ।। 

दिष्ठ्या विकर्णिशभि: कर्णो रणे नीत: पराभवम्‌ | 

विमुखश्न कृत: शल्यो युवाभ्यां पुरुषर्षभी ।। ५७ ।। 

“हमारे सौभाग्यसे ही आचार्य द्रोण और महाबली कृतवर्मा युद्धमें परास्त हो गये। 
भाग्यसे ही कर्ण भी तुम्हारे बाणोंद्वारा रणक्षेत्रमें पराभवको पहुँच गया। नरश्रेष्ठ वीरो! तुम 
दोनोंने राजा शल्यको भी युद्धसे विमुख कर दिया ।। ५६-५७ || 

दिष्ट्या युवां कुशलिनौ संग्रामात्‌ पुनरागतौ । 

पश्यामि रथिनां श्रेष्ठावुभौ युद्धविशारदौ ।। ५८ ।। 

'रथियोंमें श्रेष्ठ तथा युद्धमें कुशल तुम दोनों वीरोंको मैं पुन: रणभूमिसे सकुशल लौटा 
हुआ देख रहा हूँ--यह मेरे लिये बड़े आनन्दकी बात है ।। ५८ ।। 

मम वाक्यकरीौ वीरौ मम गौरवयन्त्रितौ । 

सैन्यार्णवं समुत्तीर्णो दिष्ट्या पश्यामि वामहम्‌ ।। ५९ ।। 

“मेरे प्रति गौरवसे बँधकर मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले तुम दोनों वीरोंको मैं सैन्य- 
समुद्रसे पार हुआ देख रहा हूँ, यह सौभाग्यका विषय है ।। ५९ ।। 

समरश्लाघधिनौ वीरौ समरेष्वपराजितौ । 

मम वाक्यसमोौ चैव दिष्ट्या पश्यामि वामहम्‌ ।। ६० ।। 

“तुम दोनों वीर मेरे कथनके अनुरूप ही युद्धकी श्लाघा रखनेवाले तथा समरांगणमें 
पराजित न होनेवाले हो। सौभाग्यसे मैं तुम दोनोंको यहाँ सकुशल देख रहा हूँ" | ६० ।। 

इत्युक्त्वा पाण्डवो राजन्‌ युयुधानवृकोदरौ । 

सस्वजे पुरुषव्याप्रौ हर्षाद्‌ वाष्पं मुमोच ह || ६१ ।। 

राजन! पुरुषसिंह सात्यकि और भीमसेनसे ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने उन 
दोनोंको हृदयसे लगा लिया और वे हर्षके आँसू बहाने लगे || ६१ ।। 

ततः प्रमुदितं सर्व बलमासीद्‌ विशाम्पते । 

पाण्डवानां रणे हृष्टं युद्धाय तु मनो दधे ।। ६२ ।। 


प्रजानाथ! तदनन्तर पाण्डवोंकी सारी सेनाने युद्धस्थलमें प्रसन्न एवं उत्साहित होकर 
संग्राममें ही मन लगाया ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि युधिष्ठिरहर्षे 
एकोनपञ्चाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १४९ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें युधिष्टिरका हर्षविषयक एक 
सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १४९ ॥। 


2: बछ। सं: 


पजञज्चाशर्दाधिकशततमोब् ध्याय: 


व्याकुल हुए दुर्योधनका खेद प्रकट करते हुए द्रोणाचार्यको 
उपालम्भ देना 


संजय उवाच 
सैन्धवे निहते राजन्‌ पुत्रस्तव सुयोधन: । 

अश्रुपूर्णमुखो दीनो निरुत्साहो द्विषज्जये ॥। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सिंधुराज जयद्रथके मारे जानेपर आपका पुत्र दुर्योधन बहुत 
दुःखी हो गया। उसके मुँहपर आँसुओंकी धारा बहने लगी। शत्रुओंको जीतनेका उसका 
सारा उत्साह जाता रहा ॥। १ ।। 

दुर्मना निःश्वसन्‌ दुष्टो भग्नदंष्ट इवोरग: । 

आगस्कृत्‌ सर्वलोकस्य पुत्रस्ते55रतिं परामगात्‌ ।। २ ।॥। 

जिसके दाँत तोड़ दिये गये हैं, उस दुष्ट सर्पफे समान वह मन-ही-मन दुःखी हो लंबी 
साँस खींचने लगा। सम्पूर्ण जगत्‌का अपराध करनेवाले आपके पुत्रको बड़ी पीड़ा 
हुई |। २ ।। 

दृष्टवा तत्कदनं घोरं स्वबलस्य कृतं महत्‌ । 

जिष्णुना भीमसेनेन सात्वतेन च संयुगे ।। ३ ।। 

स विवर्ण: कृशो दीनो बाष्पविप्लुतलोचन: । 

युद्धस्थलमें अर्जुन, भीमसेन और सात्यकिके द्वारा अपनी सेनाका अत्यन्त घोर संहार 
हुआ देखकर वह दीन, दुर्बल और कान्तिहीन हो गया। उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये ।। ३ ६ 

|| 

अमन्यतार्जुनसमो न योद्धा भुवि विद्यते ।। ४ ।। 

न द्रोणो न च राधेयो नाश्व॒त्थामा कृपो न च । 

क्रुद्धस्य समरे स्थातुं पर्याप्ता इति मारिष ।। ५ ।। 

माननीय नरेश! उसे यह निश्चय हो गया कि “इस भूतलपर अर्जुनके समान कोई दूसरा 
योद्धा नहीं है। समरांगणमें कुपित हुए अर्जुनके सामने न द्रोण, न कर्ण, न अश्वत्थामा और 
न कृपाचार्य ही ठहर सकते हैं" || ४-५ ।। 

निर्जित्य हि रणे पार्थ: सर्वान्‌ मम महारथान्‌ । 

अवधीत्‌ सैन्धवं संख्ये न च कश्निदवारयत्‌ ।। ६ ।। 

वह सोचने लगा कि “आजके युद्धमें अर्जुनने हमारे सभी महारथियोंकों जीतकर 
सिंधुराजका वध कर डाला, किंतु कोई भी उन्हें समरांगणमें रोक न सका ।। ६ ।। 


सर्वथा हतमेवेदं कौरवाणां महद्‌ बलम्‌ | 

न हास्य विद्यते त्राता साक्षादपि पुरंदर: ।। ७ ।। 

“कौरवोंकी यह विशाल सेना अब सर्वथा नष्टप्राय ही है। साक्षात्‌ देवराज इन्द्र भी 
इसकी रक्षा नहीं कर सकते ।। ७ ।। 

यमुपाश्रित्य संग्रामे कृत: शस्त्रसमुद्यम: । 

स कर्णो निर्जित: संख्ये हतश्नैव जयद्रथ: ।। ८ ॥। 

“जिसका भरोसा करके मैंने युद्धके लिये शस्त्र-संग्रहकी चेष्टा की, वह कर्ण भी 
युद्धस्थलमें परास्त हो गया और जयद्रथ भी मारा ही गया ।। ८ ।। 

यस्य वीर्य समाश्रित्य शमं याचन्तमच्युतम्‌ । 

तृणवत्‌ तमहं मन्ये स कर्णो निर्जितो युधि ।। ९ ।। 

“जिसके पराक्रमका आश्रय लेकर मैंने संधिकी याचना करनेवाले श्रीकृष्णको तिनकेके 
समान समझा था, वह कर्ण युद्धमें पराजित हो गया” ।। ९ ।। 

एवं क्लान्तमना राजन्नुपायाद्‌ द्रोणमीक्षितुम्‌ । 

आगस्कृत्‌ सर्वलोकस्य पुत्रस्ते भरतर्षभ ।। १० ।। 

राजन! भरतश्रेष्ठ! सम्पूर्ण जगत्‌का अपराध करनेवाला आपका पुत्र जब इस प्रकार 
सोचते-सोचते मन-ही-मन बहुत खिन्न हो गया, तब आचार्य द्रोणका दर्शन करनेके लिये 
उनके पास गया ।। १० |। 

ततस्तत्सर्वमाचख्यौ कुरूणां वैशसं महत्‌ । 

परान्‌ विजयतश्चापि धार्तराष्ट्रानू निमज्जत: ।। १३१ ।। 

तदनन्तर वहाँ उसने कौरवोंके महान्‌ संहारका वह सारा समाचार कहा और यह भी 
बताया कि शत्रु विजयी हो रहे हैं और महाराज धृतराष्ट्रके सभी पुत्र विपत्तिके समुद्रमें डूब 
रहे हैं । ११ ।। 


दुर्योधन उवाच 


पश्य मूर्धाभिषिक्तानामाचार्य कदनं महत्‌ | 

कृत्वा प्रमुखत: शूरं भीष्मं मम पितामहम्‌ ।। १२ ।। 

दुर्योधन बोला--आचार्य! जिनके मस्तकपर विधिपूर्वक राज्याभिषेक किया गया था, 
उन राजाओंका यह महान्‌ संहार देखिये। मेरे शूरवीर पितामह भीष्मसे लेकर अबतक 
कितने ही नरेश मारे गये || १२ ।। 

त॑ निहत्य प्रलुब्धोड्यं शिखण्डी पूर्णममानस: । 

पाज्चाल्यै: सहित: सर्व: सेनाग्रमभिवर्तते ।। १३ ।। 

व्याधों-जैसा बर्ताव करनेवाला यह शिखण्डी भीष्मको मारकर मन-ही-मन उत्साहसे 
भरा हुआ है और समस्त पांचाल सैनिकोंके साथ सेनाके मुहानेपर खड़ा है ।। १३ ।। 


अपरभ्नापि दुर्थर्ष: शिष्यस्ते सव्यसाचिना । 

अक्षौहिणी: सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथ: ।। १४ ।। 

अस्मद्विजयकामानां सुहृदामुपकारिणाम्‌ | 

गन्तास्मि कथमानृण्यं गतानां यमसादनम्‌ ।। १५ ।। 

सव्यसाची अर्जुनने मेरी सात अक्षौहिणी सेनाओंका संहार करके आपके दूसरे दुर्धर्ष 
शिष्य राजा जयद्रथको भी मार डाला है। मुझे विजय दिलानेकी इच्छा रखनेवाले मेरे जो- 
जो उपकारी सुहृद्‌ युद्धमें प्राण देकर यमलोकमें जा पहुँचे हैं, उनका ऋण मैं कैसे चुका 
सकूँगा? ।। १४-१५ ।। 

ये मदर्थ परीप्सन्ते वसुधां वसुधाधिपा: । 

ते हित्वा वसुधैश्चर्य वसुधामधिशेरते ।। १६ ।। 

जो भूमिपाल मेरे लिये इस भूमिको जीतना चाहते थे, वे स्वयं भूमण्डलका एऐश्वर्य 
त्यागकर भूमिपर सो रहे हैं ।। 

सो<हं कापुरुष: कृत्वा मित्राणां क्षयमीदृशम्‌ । 

अश्वमेधसहस्रेण पावितुं न समुत्सहे ।। १७ ।। 

मैं कायर हूँ, अपने मित्रोंका ऐसा संहार कराकर हजारों अश्वमेध-यज्ञोंसे भी अपनेको 
पवित्र नहीं कर सकता ।। १७ || 

मम लुब्धस्य पापस्य तथा धर्मापचायिन: । 

व्यायामेन जिगीषन्त: प्राप्ता वैवस्वतक्षयम्‌ ।। १८ ।। 

हाय! मुझ लोभी तथा धर्मनाशक पापीके लिये युद्धके द्वारा विजय चाहनेवाले मेरे 
मित्रगण यमलोक चले गये ।। १८ ।। 

कथं पतितवृत्तस्य पृथिवी सुद्दां द्रुह: 

विवरं नाशकद्‌ दातुं मम पार्थिवसंसदि ।। १९ |। 

मुझ आचारभ्रष्ट और मित्रद्रोहीके लिये राजाओंके समाजमें यह पृथ्वी फट क्‍यों नहीं 
जाती, जिससे मैं उसीमें समा जाऊँ ।। १९ |। 

यो>हं रुधिरसिक्ताडूुं राज्ञां मध्ये पितामहम्‌ । 

शयानं नाशकं त्रातुं भीष्ममायोधने हतम्‌ ।। २० ।। 

मेरे पितामह भीष्म राजाओंके बीच युद्धस्थलमें मारे गये और अब खूनसे लथपथ 
होकर बाणशबय्यापर पड़े हैं; परंतु मैं उनकी रक्षा न कर सका ।। २० ।। 

त॑ मामनार्यपुरुषं मित्रद्रुहमधार्मिकम्‌ । 

कि वक्ष्यति हि दुर्धर्ष: समेत्य परलोकजित्‌ ॥। २१ ।। 

ये परलोक-विजयी दुर्धर्ष वीर भीष्म यदि मैं उनके पास जाऊँ तो मुझ नीच, मित्रद्रोही 
तथा पापात्मा पुरुषसे क्‍या कहेंगे? ।। २१ ।। 

जलसंध॑ महेष्वासं पश्य सात्यकिना हतम्‌ । 


मदर्थमुद्यतं शूरं प्राणांस्त्यक्त्वा महारथम्‌ ।। २२ ।। 

आचार्य! देखिये तो सही, मेरे लिये प्राणोंका मोह छोड़कर राज्य दिलानेको उद्यत हुए 
महाधनुर्धर शूरवीर महारथी जलसंधको सात्यकिने मार डाला ।। २२ ।। 

काम्बोजं निहतं दृष्टवा तथालम्बुषमेव च । 

अन्यान्‌ बहुंश्व सुहददो जीवितार्थो5द्य को मम ।॥। २३ ।। 

काम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य बहुत-से सुहृदोंको मारा गया देखकर भी अब 
मेरे जीवित रहनेका क्या प्रयोजन है? ।। २३ ।। 

व्यायच्छन्तो हता: शूरा मदर्थे येडपराड्मुखा: । 

यतमाना: परं शक्‍त्या विजेतुमहितान्‌ मम ।। २४ ।। 

तेषां गत्वाहमानृण्यमद्य शक्‍त्या परंतप । 

तर्पयिष्यामि तानेव जलेन यमुनामनु ।। २५ ।। 

शत्रुओंके संताप देनेवाले आचार्य! जो युद्धसे विमुख न होनेवाले शूरवीर सुहृद्‌ मेरे लिये 
जूझते और मेरे शत्रुओंको जीतनेके लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करते हुए मारे गये हैं, उनका 
अपनी शक्तिभर ऋण उतारकर आज मैं यमुनाके जलसे उन सभीका तर्पण 
करूँगा ।। २४-२५ || 

सत्यं ते प्रतिजानामि सर्वशस्त्रभूतां वर । 

इष्टापूर्तेन च शपे वीर्येण च सुतैरपि ।। २६ ।। 

निहत्य तान्‌ रणे सर्वान्‌ पञज्चालान्‌ पाण्डवै: सह । 

शान्तिं लब्धास्मि तेषां वा रणे गन्ता सलोकताम्‌ ।। २७ ।। 

समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ गुरुदेव! आज मैं अपने यज्ञ-यागादि तथा कुँआ, बावली 
बनवाने आदि शुभ कर्मोंकी, पराक्रमकी तथा पुत्रोंकी शपथ खाकर आपके सामने सच्ची 
प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं पाण्डवोंके सहित समस्त पांचालोंको युद्धमें मारकर ही शान्ति 
पाऊँगा अथवा मेरे वे सुहृद्‌ युद्धमें मरकर जिन लोकोंमें गये हैं, उसीमें मैं भी चला 
जाऊँगा || २६-२७ ।। 

सो<हं तत्र गमिष्यामि यत्र ते पुरुषर्षभा: | 

हता मदर्थ संग्रामे युध्यमाना: किरीटिना ।। २८ ।। 

वे पुरुषशिरोमणि सुहृद्‌ रणभूमिमें मेरे लिये युद्ध करते-करते अर्जुनके हाथसे मारे 
जाकर जिन लोकोंमें गये हैं, वहीं मैं भी जाऊँगा ।। २८ ।। 

न हीदानीं सहाया मे परीप्सन्त्यनुपस्कृता: । 

श्रेयो हि पाण्डून्‌ मन्यन्ते न तथास्मान्‌ महाभुज ।। २९ |। 

महाबाहो! इस समय जो मेरे सहायक हैं, वे अरक्षित होनेके कारण हमारी सहायता 
करना नहीं चाहते हैं। वे जैसा पाण्डवोंका कल्याण चाहते हैं, वैसा हमलोगोंका 
नहीं ।। २९ |। 


स्वयं हि मृत्युर्विहित: सत्यसंधेन संयुगे । 

भवानुपेक्षां कुरुते शिष्यत्वादर्जुनस्य हि ॥। ३० ।। 

युद्धस्थलमें सत्यप्रतिज्ञ भीष्मने स्वयं ही अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली और आप भी 
हमारी इसलिये उपेक्षा करते हैं कि अर्जुन आपके प्रिय शिष्य हैं || ३० ।। 

अतो विनिहता: सर्वे येडस्मज्जयचिकीर्षव: । 

कर्णमेव तु पश्यामि सम्प्रत्यस्मज्जयैषिणम्‌ ।। ३१ ।। 

इसलिये हमारी विजय चाहनेवाले सभी योद्धा मारे गये। इस समय तो मैं केवल 
कर्णको ही ऐसा देखता हूँ, जो सच्चे हृदयसे मेरी विजय चाहता है ।। ३१ ।। 

यो हि मित्रमविज्ञाय याथातथ्येन मन्दधी: । 

मित्रार्थ योजयत्येनं तस्य सोडरथोडवसीदति ।। ३२ ।। 

जो मूर्ख मनुष्य मित्रको ठीक-ठीक पहचाने बिना ही उसे मित्रके कार्यमें नियुक्त कर 
देता है, उसका वह काम बिगड़ जाता है ।। ३२ ।। 

तादृग्‌ रूप॑ कृतमिदं मम कार्य सुद्दत्तमै: । 

मोहाल्लुब्धस्य पापस्य जिद्दास्य धनमीहत: ।। ३३ ।। 

मेरे परम सुह्ृद्‌ कहलानेवालोंने मोहवश धन (राज्य) चाहनेवाले मुझ लोभी, पापी और 
कुटिलके इस कार्यको उसी प्रकार चौपट कर दिया है ।। ३३ ।। 

हतो जयद्रथश्वैव सौमदत्तिश्न वीर्यवान्‌ । 

अभीषाहा: शूरसेना: शिबयो5थ वसातय: ।। ३४ ।। 

जयद्रथ और सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा मारे गये। अभीषाह, शूरसेन, शिबि तथा 
वसातिगण भी चल बसे ।। ३४ ।। 

सो5हमद्य गमिष्यामि यत्र ते पुरुषर्षभा: । 

हता मदर्थे संग्रामे युध्यमाना: किरीटिना ।। ३५ ।। 

वे नरश्रेष्ठ सुहृद्‌ रणभूमिमें मेरे लिये युद्ध करते-करते अर्जुनके हाथसे मारे जाकर जिन 
लोकोंमें गये हैं, वहीं आज मैं भी जाऊँगा ।। ३५ ।। 

न हि मे जीवितेनार्थस्तानृते पुरुषर्ष भान्‌ 

आचार्य: पाण्डुपुत्राणामनुजानातु नो भवान्‌ ।। ३६ ।। 

उन पुरुषरत्न मित्रोंके बिना अब मेरे जीवित रहनेका कोई प्रयोजन नहीं है। आप हम 
पाण्डुपुत्रोंके आचार्य हैं, अतः मुझे जानेकी आज्ञा दें || ३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि दुर्योधनानुतापे 
पजञ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५० || 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें दुर्योधनका अनुतापविषयक 
एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५० ॥/ 


भीकम (2 अमान 


एकपज्चाशर्दाधकशततमो< ध्याय: 
द्रोणाचार्यका दुर्योधनको उत्तर और युद्धके लिये प्रस्थान 


धृतराष्ट उवाच 
सिन्धुराजे हते तात समरे सव्यसाचिना । 
तथैव भूरिश्रवसि किमासीद्‌ वो मनस्तदा ।। १ |। 
धृतराष्ट्रने कहा--तात! समरांगणमें सव्यसाची अर्जुनके द्वारा सिंधुराज जयद्रथके 
तथा सात्यविद्दारा भूरिश्रवाके मारे जानेपर उस समय तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था 
हुई? ।। 
दुर्योधनेन च द्रोणस्तथोक्त: कुरुसंसदि | 
किमुक्तवान्‌ परं तस्मै तन्‍्ममाचक्ष्व संजय ।। २ ॥। 
संजय! दुर्योधनने जब कौरव-सभामें द्रोणाचार्यसे वैसी बातें कहीं, तब उन्होंने उसे क्या 
उत्तर दिया? यह मुझे बताओ ।। २ ।। 
संजय उवाच 
निष्टानको महानासीत्‌ सैन्यानां तव भारत । 
सैन्धवं निहतं दृष्टवा भूरिश्रवसमेव च ।। ३ ।। 
संजयने कहा--भारत! सिंधुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवाको मारा गया देखकर 
आपकी सेनाओंमें महान्‌ आर्तनाद होने लगा ।। ३ ।। 
मन्त्रितं तव पुत्रस्य ते सर्वमवमेनिरे । 
येन मन्त्रेण निहता: शतश: क्षत्रियर्षभा: ।। ४ ।। 
वे सब लोग आपके पुत्र दुर्योधनकी उस सारी मन्त्रणाका अनादर करने लगे, जिससे 
सैकड़ों क्षत्रिय-शिरोमणि कालके गालमें चले गये || ४ ।। 
द्रोणस्तु तद्‌ वच: श्रुत्वा पुत्रस्य तव दुर्मना: । 
मुहूर्तमिव तद्‌ ध्यात्वा भृशमार्तोडभ्यभाषत ।। ५ ।। 
आपके पुत्रका पूर्वोक्त वचन सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन दुःखी हो उठे। उन्होंने दो 
घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर अत्यन्त आर्तभावसे इस प्रकार कहा ।। 
द्रोण उदाच 
दुर्योधन किमेवं मां वाकृुशरैरपि कृन्तसि । 
अजय्यं सततं संख्ये ब्रुवाणं सव्यसाचिनम्‌ ।। ६ ।। 
द्रोणाचार्य बोले--दुर्योधन! तुम क्यों इस प्रकार अपने वचनरूपी बाणोंसे मुझे छेद रहे 
हो? मैं तो सदासे ही कहता आया हूँ कि सव्यसाची अर्जुन युद्धमें अजेय हैं |। ६ ।। 


एतेनैवार्जुनं ज्ञातुमलं कौरव संयुगे । 

यच्छिखण्ड्यवधीदू भीष्मं पाल्यमान: किरीटिना ।। ७ ।। 

कुरुनन्दन! अर्जुनको तो केवल इसी बातसे समझ लेना चाहिये था कि उनके द्वारा 
सुरक्षित होकर शिखण्डीने भी युद्धके मैदानमें भीष्मको मार डाला || ७ ।। 

अवध्यं निहतं दृष्टवा संयुगे देवदानवै: । 

तदैवाज्ञासिषमहं नेयमस्तीति भारती ।। ८ ।। 

जो देवताओं और दानवोंके लिये भी अवध्य थे, उन्हें युद्धमें मारा गया देख मैंने उसी 
समय यह जान लिया कि यह कौरव-सेना अब नहीं रह सकेगी ।। ८ ।। 

य॑ पुंसां त्रिषु लोकेषु सर्वशूरममंस्महि । 

तस्मिन्‌ निपतिते शूरे कि शेषं पर्युपास्महे ।। ९ ।। 

हमलोग जिन्हें तीनों लोकोंके पुरुषोंमें सबसे अधिक शूरवीर मानते थे, उन शौर्यसम्पन्न 
भीष्मके मारे जानेपर हम दूसरोंका क्या भरोसा करें? ।। ९ ।। 

यान्‌ सम तान्‌ ग्लहते तात शकुनि: कुरुसंसदि । 

अक्षान्‌ न ते$क्षा निशिता बाणास्ते शत्रुतापना: ।। १० ।। 

द्यूतक्रीड़ाके समय विदुरजीने तुमसे कहा था कि “तात! कौरव-सभामें शकुनि जिन 
पासोंको फेंक रहा है, उन्हें पासे न समझो, वे किसी दिन शत्रुओंको संताप देनेवाले तीखे 
बाण बन सकते हैं! || १० ।। 

त एते घ्नन्ति नस्तात विशिखा: पार्थचोदिता: । 

तांस्तदा55ख्यायमानस्त्वं विदुरेण न बुद्धवान्‌ । ११ ।। 

परंतु वत्स! उस समय विदुरजीकी कही हुई बातोंको तुमने कुछ नहीं समझा। तात! वे 
ही पासे ये अर्जुनके चलाये हुए बाण बनकर हमें मार रहे हैं ।। 

यास्ता विजयतश्चलापि विदुरस्य महात्मन: । 

धीरस्य वाचो नाश्रौषी: क्षेमाय वदत: शिवा: | १२ ।। 

तदिदं वर्तते घोरमागतं वैशसं महत्‌ । 

तस्यावमानाद्‌ू वाक्यस्य दुर्योधन कृते तव ।। १३ ।। 

दुर्योधन! विदुरजी धीर हैं, महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने तुम्हारे कल्याणके लिये जो 
मंगलकारक वचन कहे थे और जिन्हें तुमने विजयके उल्लासमें अनसुना कर दिया था, 
उनके उन वचनोंके अनादरसे ही तुम्हारे लिये यह घोर महासंहार प्राप्त हुआ 
है ।। १२-१३ ।। 

यो5वमन्य वच: पथ्यं सुहृदामाप्तकारिणाम्‌ | 

स्वमतं कुरुते मूढ: स शोच्यो नचिरादिव ।। १४ ।। 

जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रोंके हितकर वचनकी अवहेलना करके मनमाना बर्ताव 
करता है, वह थोड़े ही समयमें शोचनीय दशाको प्राप्त हो जाता है ।। १४ ।। 


यच्च न: प्रेक्षमाणानां कृष्णामानाय्य तत्सभाम्‌ | 

अनर्हन्तीं कुले जातां सर्वधर्मानुचारिणीम्‌ ।। १५ ।। 

तस्याधर्मस्य गान्धारे फल  प्राप्तमिदं महत्‌ । 

नो चेत्‌ पापं परे लोके त्वमर्च्छेथास्ततो5घिकम्‌ ।। १६ ।। 

इसके सिवा तुमने हमलोगोंके सामने ही जो द्रौपदीको सभामें बुलाकर अपमानित 
किया, वह अपमान उसके योग्य नहीं था। वह उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण 
धर्मोका निरन्तर पालन करती है। गान्धारीनन्दन! द्रौपदीके अपमानरूपी तुम्हारे अधर्मका 
ही यह महान्‌ फल प्राप्त हुआ है कि तुम्हारे दलका विनाश हो रहा है। यदि यहाँ यह फल 
नहीं मिलता तो परलोकमें तुम्हें उस पापका इससे भी अधिक दण्ड भोगना 
पड़ता ।। १५-१६ || 

यच्च तान्‌ पाण्डवान्‌ द्यूते विषमेण विजित्य ह । 

प्राव्राजयस्तदारण्ये रौरवाजिनवासस: ।। १७ ।। 

इतना ही नहीं, तुमने पाण्डवोंको जूएमें बेईमानीसे जीतकर और मृगचर्ममय वस्त्र 
पहनाकर उन्हें वनवास दे दिया (इस अधर्मका भी फल तुम्हें भोगना पड़ता है) || १७ ।। 

पुत्राणामिव चैतेषां धर्ममाचरतां सदा । 

द्रहोत्‌ को नु नरो लोके मदन्यो ब्राह्मणब्रुव: ।। १८ ।। 

पाण्डव मेरे पुत्रके समान हैं और वे सदा धर्मका आचरण करते रहते हैं। संसारमें मेरे 
सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे || १८ ।। 

पाण्डवानामयं कोपस्त्वया शकुनिना सह | 

आह्तो धृतराष्ट्रस्य सम्मते कुरुसंसदि ।। १९ ।। 

तुमने राजा धृतराष्ट्रकी सम्मतिसे कौरवोंकी सभामें शकुनिके साथ बैठकर पाण्डवोंका 
यह क्रोध मोल लिया है || १९ ।। 

दुःशासनेन संयुक्त: कर्णेन परिवर्धित: । 

क्षत्तर्वाक्यमनादृत्य त्वयाभ्यस्त: पुनः पुन: ।। २० ।। 

इस कार्यमें दुःशासनने तुम्हारा साथ दिया है, कर्णसे भी उस क्रोधको बढ़ावा मिला है 
और विदुरजीके उपदेशकी अवहेलना करके तुमने बारंबार पाण्डवोंके उस क्रोधको बढ़नेका 
अवसर दिया है || २० ।। 

यत्ता: सर्वे पराभूता: पर्यवारयतार्डर्जुनम्‌ । 

सिन्धुराजानमश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः ।। २१ ।। 

तुम सब लोगोंने बड़ी सावधानीसे अर्जुनको घेर लिया था। फिर सब-के-सब पराजित 
कैसे हो गये? तुमने सिंधुराजको आश्रय दिया था। फिर तुम्हारे बीचमें वह कैसे मारा 
गया? ।। २१ |। 

कथं त्वयि च कर्णे च कृपे शल्ये च जीवति । 


अश्वत्थाम्नि च कौरव्य निधनं सैन्धवो5गमत्‌ ।। २२ ।। 

कुरुनन्दन! तुम और कर्ण तो नहीं मर गये थे, कृपाचार्य, शल्य और अश्वत्थामा तो 
जीवित थे; फिर तुम्हारे रहते सिंधुराजकी मृत्यु क्यों हुई? || २२ ।। 

युध्यन्त: सर्वराजानस्तेजस्तिग्ममुपासते । 

सिन्धुराजं परित्रातुं स वो मध्ये कथं हत: ।। २३ ।। 

युद्ध करते हुए समस्त राजा सिंधुराजकी रक्षाके लिये प्रचण्ड तेजका आश्रय लिये हुए 
थे। फिर वह आपलोगोंके बीचमें कैसे मारा गया? ।। २३ ।। 

मय्येव हि विशेषेण तथा दुर्योधन त्वयि । 

आशंसत परित्राणमर्जुनातू स महीपति: ।। २४ ।। 

दुर्योधन! राजा जयद्रथ विशेषतः मुझपर और तुमपर ही अर्जुनसे अपनी जीवन- 
रक्षाका भरोसा किये बैठा था ।। 

ततस्तस्मिन्‌ परित्राणमलब्धवति फाल्गुनात्‌ 

न किंचिदनुपश्यामि जीवितस्थानमात्मन: ।। २५ ।। 

तो भी जब अर्जुनसे उसकी रक्षा न की जा सकी, तब मुझे अब अपने जीवनकी रक्षाके 
लिये भी कोई स्थान दिखायी नहीं देता | २५ ।। 

मज्जन्तमिव चात्मानं धृष्टद्युम्नस्य किल्बिषे | 

पश्याम्यहत्वा पज्चालान्‌ सह तेन शिखण्डिना ।। २६ ।। 

मैं धृष्टद्यमम और शिखण्डीसहित समस्त पांचालोंका वध न करके अपने-आपको 
धृष्टद्युम्नके पापपूर्ण संकल्पमें डूबता-सा देख रहा हूँ || २६ ।। 

तन्मां किमभितप्यन्तं वाकृशरैरेव कृन्तसि । 

अशक्त: सिन्धुराजस्य भूत्वा त्राणाय भारत ।। २७ ।। 

भारत! ऐसी दशामें तुम स्वयं सिंधुराजकी रक्षामें असमर्थ होकर मुझे अपने वाग्बाणोंसे 
क्यों छेद रहे हो? मै तो स्वयं ही संतप्त हो रहा हूँ || २७ ।। 

सौवर्ण सत्यसंधस्य ध्वजमक्लिष्टकर्मण: । 

अपश्यन्‌ युधि भीष्मस्य कथमाशंससे जयम्‌ ।। २८ ।। 

अनायास ही महान्‌ कर्म करनेवाले सत्यप्रतिज्ञ भीष्मके सुवर्णमय ध्वजको अब 
युद्धस्थलमें फहराता न देखकर भी तुम विजयकी आशा कैसे करते हो? ।। २८ ।। 

मध्ये महारथानां च यत्राहन्यत सैन्धव: । 

हतो भूरिश्रवाश्वैव कि शेषं तत्र मन्यसे || २९ ।। 

जहाँ बड़े-बड़े महारथियोंके बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तुम 
किसके बचनेकी आशा करते हो? ।। २९ ।। 

कृप एव च दुर्धर्षो यदि जीवति पार्थिव । 

यो नागात्‌ सिन्धुराजस्य वर्त्म तं पूजयाम्यहम्‌ ।। ३० ।। 


पृथ्वीपते! दुर्धर्ष वीर कृपाचार्य यदि जीवित हैं, यदि सिंधुराजके पथपर नहीं गये हैं तो 
मैं उनके बल और सौभाग्यकी प्रशंसा करता हूँ ।। ३० ।। 

यत्रापश्यं हतं भीष्म॑ पश्यतस्ते5नुजस्य वै । 

दुःशासनस्य कौरव्य कुर्वाणं कर्म दुष्करम्‌ ।। ३१ ।। 

अवध्यकल्पं संग्रामे देवेरपि सवासवै: । 

न ते वसुन्धरास्तीति तदाहं चिन्तये नूप ।। ३२ ।। 

कुरुनन्दन! नरेश! जिन्हें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी युद्धमें नहीं मार सकते थे, दुष्कर 
कर्म करनेवाले उन्हीं भीष्मको जबसे मैंने तुम्हारे छोटे भाई दुःशासनके देखते-देखते मारा 
गया देखा है, तबसे मैं यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें नहीं रह 
सकती ।। ३१-३२ ।। 

इमानि पाण्डवानां च सृज्जयानां च भारत । 

अनीकान्याद्रवन्ते मां सहितान्यद्य भारत ।। ३३ |। 

भारत! वह देखो, पाण्डवों और सूंजयोंकी सेनाएँ एक साथ मिलकर इस समय मुझपर 
चढ़ी आ रही हैं ।। ३३ ।। 

नाहत्वा सर्वपञ्चालान्‌ कवचस्य विमोक्षणम्‌ | 

कर्तास्मि समरे कर्म धार्तराष्ट्र हितं तव ।। ३४ ।। 

दुर्योधन! अब मैं समस्त पांचालोंको मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा। मैं 
समरांगणमें वही कार्य करूँगा, जिससे तुम्हारा हित हो || ३४ ।। 

राजन ब्रूया: सुतं मे त्वमश्व॒त्थामानमाहवे । 

न सोमकाः: प्रमोक्तव्या जीवितं परिरक्षता ।। ३५ ।। 

राजन! तुम मेरे पुत्र अश्वत्थामासे जाकर कहना कि “वह युद्धमें अपने जीवनकी रक्षा 
करते हुए जैसे भी हो, सोमकोंको जीवित न छोड़े” ।। ३५ ।। 

यच्च पित्रानुशिष्टोडसि तद्‌ वच: परिपालय । 

आनृशंस्ये दमे सत्ये चार्जवे च स्थिरो भव ।॥। ३६ ।। 

यह भी कहना कि पिताने जो तुम्हें उपदेश दिया है, उसका पालन करो। दया, दम, 
सत्य और सरलता आदि सदगुणोंमें स्थिर रहो ।। ३६ ।। 

धर्मार्थकामकुशलो धर्मार्थावप्यपीडयन्‌ । 

धर्मप्रधानकार्याणि कुर्यश्विति पुनः पुन: ।। ३७ ।। 

“तुम धर्म, अर्थ और कामके साधनमें कुशल हो। अतः धर्म और अर्थको पीड़ा न देते 
हुए बारंबार धर्मप्रधान कर्मोंका ही अनुष्ठान करो ।। ३७ ।। 

चक्षुर्मनो भ्यां संतोष्या विप्रा: पूज्याश्न॒ शक्तित: । 

नचैषां विप्रियं कार्य ते हि वल्लेशिखोपमा: ।। ३८ ।। 


“विनयपूर्ण दृष्टि और श्रद्धायुत्ह हृदयसे ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना, यथाशक्ति उनका 
आदर-सत्कार करते रहना। कभी उनका अप्रिय न करना; क्योंकि वे अग्निकी ज्वालाके 
समान तेजस्वी होते हैं! || ३८ ।। 

एष त्वहमनीकानि प्रविशाम्यरिसूदन । 

रणाय महते राजंस्त्वया वाकुशरपीडित: ।॥। ३९ || 

राजन! शत्रुसूदन! अब मैं तुम्हारे वाग्बाणोंसे पीड़ित हो महान्‌ युद्धके लिये शत्रुओंकी 
सेनामें प्रवेश करता हूँ || ३९ ।। 

त्वं च दुर्योधन बल॑ यदि शक्तोडसि पालय । 

रात्रावपि च योत्स्यन्ते संरब्धा: कुरुसृञज्जया: ।। ४० ।। 

दुर्योधन! यदि तुममें शक्ति हो तो सेनाकी रक्षा करना; क्योंकि इस समय क्रोधमें भरे 
हुए कौरव और सूंजय रात्रिमें भी युद्ध करेंगे || ४० ।। 

एवमुक्त्वा ततः प्रायाद्‌ द्रोण: पाण्डवसृज्जयान्‌ | 

मुष्णन्‌ क्षत्रियतेजांसि नक्षत्राणामिवांशुमान्‌ ।। ४१ ।। 

जैसे सूर्य नक्षत्रोंके तेज हर लेते हैं, उसी प्रकार क्षत्रियोंक तेजका अपहरण करते हुए 
आचार्य द्रोण दुर्योधनसे पूर्वोक्त बातें कहकर पाण्डवों और सूंजयोंसे युद्ध करनेके लिये चल 
दिये ।। ४१ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि द्रोणवाक्ये 
एकपज्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५१ ।। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें द्रोणवाक्यविषयक एक सौ 
इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५१ ॥/ 


अपर बक। है २ >> 


द्विपज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 
दुर्योधन और कर्णकी बातचीत तथा पुनः युद्धका आरम्भ 


संजय उवाच 

ततो दुर्योधनो राजा द्रोणेनैवं प्रचोदित: । 

अमर्षवशमापन्नो युद्धायैव मनो दथे ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर द्रोणाचार्यसे इस प्रकार प्रेरित हो अमर्षमें भरे हुए 
राजा दुर्योधनने मन-ही-मन युद्ध करनेका ही निश्चय किया ।। १ ।। 

अब्रवीच्च तदा कर्ण पुत्रो दुर्योधनस्तव । 

पश्य कृष्णसहायेन पाण्डवेन किरीटिना ।॥। २ ।॥। 

आचार्यविदहितं व्यूहं भित्त्वा देवै: सुदुर्भिदम्‌ । 

तव व्यायच्छमानस्य द्रोणस्यथ च महात्मन: ।। ३ ।। 

मिषतां योधमुख्यानां सैन्धवो विनिपातित: । 

उस समय आपके पुत्र दुर्योधनने कर्णसे इस प्रकार कहा--'कर्ण! देखो, श्रीकृष्णसहित 
पाण्डुपुत्र अर्जुनने आचार्यद्वारा निर्मित व्यूहको, जिसका भेदन करना देवताओंके लिये भी 
अत्यन्त कठिन था, भेदकर तुम्हारे और महात्मा द्रोणके युद्धमें तत्पर रहते हुए भी मुख्य- 
मुख्य योद्धाओंके देखते-देखते सिंधुराज जयद्रथको मार गिराया है ।। २-३ $ || 

पश्य राधेय पृथ्वीशा: पृथिव्यां प्रवरा युधि ।। ४ ।। 

पार्थेनैकेन निहता: सिंहेनेवेतरे मृगा: । 

“राधानन्दन! देखो, जैसे सिंह दूसरे वन्य पशुओंका संहार कर डालता है, उसी प्रकार 
एकमात्र कुन्तीकुमार अर्जुनद्वारा मारे गये ये भूमण्डलके श्रेष्ठ भूपाल युद्धभूमिमें पड़े हैं ।। ४ 


५ 
“| 





मम व्यायच्छमानस्थ द्रोणस्य च महात्मन: ।। ५ ।। 

अल्पावशेषं सैन्यं मे कृतं शक्रात्मजेन ह | 

“मेरे और महात्मा द्रोणके परिश्रमपूर्वक युद्ध करते रहनेपर भी इन्द्रपुत्र अर्जुनने मेरी 
सेनाको अल्प-मात्रामें ही जीवित छोड़ा है (अधिकांश सेनाको तो मार ही डाला है) ।। ५६ 

|| 

कथ॑ं नियच्छमानस्य द्रोणस्य युधि फाल्गुन: ।। ६ ।। 

भिन्द्यात्‌ सुदुर्भिदं व्यूहं यतमानो5पि संयुगे । 

प्रतिज्ञाया गत: पारं हत्वा सैन्धवमर्जुन: ।। ७ ।। 

“यदि इस युद्धमें आचार्य द्रोण अर्जुनको रोकनेकी पूरी चेष्टा करते तो प्रयत्न करनेपर 
भी वे समरांगणमें उस दुर्भद्य व्यूहको कैसे तोड़ सकते थे? सिंधुराजको मारकर अर्जुन 
अपनी प्रतिज्ञाके भारसे मुक्त हो गये ।। 

पश्य राधेय पृथ्वीशान्‌ पृथिव्यां पातितान्‌ बहून्‌ । 

पार्थेन निहतान्‌ संख्ये महेन्द्रोपमविक्रमान्‌ ।। ८ ।। 

'राधाकुमार! संग्रामभूमिमें पार्थके मारे और पृथ्वीपर गिराये हुए इन बहुसंख्यक 
भूपतियोंको देखो, ये सब-के-सब देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी थे ।। ८ ।। 


अनिच्छत: कथं वीर द्रोणस्य युधि पाण्डव: । 

भिन्द्यात्‌ सुदुर्भिदं व्यूहं यतमानस्य शुष्मिण: ।। ९ ।। 

“वीर! यदि बलवान द्रोणाचार्य पूरा प्रयत्न करके उन्हें व्यूहमें नहीं घुसने देना चाहते तो 
वे उस दुर्भद्य व्यूहको कैसे तोड़ सकते थे? ।। ९ ।। 

दयित: फाल्गुनो नित्यमाचार्यस्य महात्मन: । 

ततोअस्य दत्तवान्‌ द्वारमयुद्धेनैव शत्रुहन्‌ ।। १० ।। 

'शत्रुसूदन! किंतु अर्जुन तो महात्मा आचार्य द्रोणको सदा ही परम प्रिय हैं। इसीलिये 
उन्होंने युद्ध किये बिना ही उन्हें व्यूहमें घुसनेका मार्ग दे दिया || १० ।। 

अभयं सिन्धुराजाय दत्त्वा द्रोण: परंतप: । 

प्रादात्‌ किरीटिने द्वारं पश्य निर्गुणतां मयि ।। ११ ।। 

'शत्रुओंको संताप देनेवाले द्रोणाचार्यने सिंधुराजको अभय-दान देकर भी किरीटधारी 
अर्जुनको व्यूहमें घुसनेका मार्ग दे दिया। देखो, मुझमें कितनी गुणहीनता है ।। 

यद्यदास्यदनुज्ञां वै पूर्वमेव गृहान्‌ प्रति । 

प्रस्थातुं सिन्धुराजस्य नाभविष्यज्जनक्षय: ।। १२ ।। 

“यदि उन्होंने पहले ही सिंधुराजको घर जानेकी आज्ञा दे दी होती तो यह इतना बड़ा 
जनसंहार नहीं होता || १२ ।। 

जयद्रथो जीवितार्थी गच्छमानो गृहान्‌ प्रति । 

मयानार्येण संरुद्धो द्रोणात्‌ प्राप्पाभयं सखे ।। १३ ।। 

“सखे! जयद्रथ अपनी जीवनरक्षाके लिये घरकी ओर पधार रहे थे, परंतु मुझ अधमने 
ही द्रोणाचार्यसे अभय पाकर उन्हें रोक लिया ।। १३ ।। 

(रक्षामि सैन्धवं युद्धे नैन॑ प्राप्स्पति फाल्गुन: । 

मम सैन्यविनाशाय रुद्धो विप्रेण सैन्धव: ।। 

“'मैं युद्धमें सिंधुराजकी रक्षा करूँगा; अर्जुन उसे नहीं पा सकेंगे”! ऐसा कहकर इस 
ब्राह्मणने मेरी सेनाका संहार करानेके लिये सिंधुराजको रोक लिया। 

तस्य मे मन्दभाग्यस्य यतमानस्य संयुगे । 

हतानि सर्वसैन्यानि हतो राजा जयद्रथ: ।। 

'युद्धमें प्रयत्न करनेपर भी मुझ भाग्यहीनकी सारी सेनाएँ नष्ट हो गयीं और राजा 
जयद्रथ भी मार डाले गये। 

पश्य योधवरान्‌ कर्ण शतशो5थ सहस्रश: । 

पार्थनामाड्कितैर्बाणै: सर्वे नीता यमक्षयम्‌ ।। 

“कर्ण! इन सैकड़ों-हजारों श्रेष्ठ योद्धाओंको देखो, ये सब-के-सब अर्जुनके नामसे 
अंकित बाणोंद्वारा यमलोक पहुँचाये गये हैं । 

कथमेकरथेनाजौ बहूनां न: प्रपश्यताम्‌ । 


विपन्न: सैन्धवो राजा योधाश्रैव सहस्रश: ।।) 

“हम बहुसंख्यक योद्धा देखते ही रह गये और युद्धस्थलमें एकमात्र रथकी सहायतासे 
अर्जुनने मेरे इन सहस्रों योद्धाओं तथा सिंधुराज जयद्रथको भी मार डाला। यह कैसे सम्भव 
हुआ। 

अद्य मे भ्रातर: क्षीण॒क्षित्रसेनादयो रणे । 

भीमसेनं समासाद्य पश्यतां नो दुरात्मनाम्‌ ।। १४ ।। 

“आज युद्धमें हम दुरात्माओंके देखते-देखते मेरे चित्रसेन आदि भाई भीमसेनसे 
भिड़कर नष्ट हो गये” ।। 

कर्ण उवाच 

आचार्य मा विगर्हस्व शक्‍्त्यासौ युध्यते द्विज: । 

यथाबलं यथोत्साहं त्यक्त्वा जीवितमात्मन: ।। १५ || 

कर्ण बोला--भाई! तुम आचार्यकी निन्दा न करो। वह ब्राह्मण तो अपने बल, शक्ति 
और उत्साहके अनुसार प्राणोंका भी मोह छोड़कर युद्ध करता ही है ।। 

यद्येनं समतिक्रम्य प्रविष्ट: श्वेतवाहन: । 

नात्र सूक्ष्मोडपि दोष: स्यादाचार्यस्य कथंचन ।। १६ ।। 

यदि श्वेतवाहन अर्जुन आचार्य द्रोणका उल्लंघन करके सेनामें घुस गये तो इसमें किसी 
प्रकार आचार्यका कोई सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म दोष नहीं है ।। १६ ।। 

कृती दक्षो युवा शूर: कृतास्त्रो लघुविक्रम: । 

दिव्यास्त्रयुक्तमास्थाय रथं वानरलक्षणम्‌ ॥। १७ ।। 

कृष्णेन च गृहीताश्वमभेद्यकवचावृत: । 

गाण्डीवमजरं दिव्यं धनुरादाय वीर्यवान्‌ । १८ ।। 

प्रवर्षन्‌ निशितान्‌ बाणान्‌ बाहुद्रविणदर्पित: । 

यदर्जुनो5 भ्ययाद्‌ द्रोणमुपपन्नं हि तस्य तत्‌ ।। १९ ।। 

अर्जुन अस्त्रविद्याके विद्वान, दक्ष, युवावस्थासे सम्पन्न, शूरवीर, अनेक दिव्यास्त्रोंके 
ज्ञाता और शीतघ्रता-पूर्वक पराक्रम प्रकट करनेवाले हैं। वे दिव्यास्त्रोंसे सम्पन्न एवं 
वानरध्वजसे उपलक्षित रथपर बैठे हुए थे। श्रीकृष्णने उनके घोड़ोंकी बागडोर ले रखी थी। 
वे अभेद कवचसे सुरक्षित थे। उन्हे अपने बाहुबलका अभिमान है ही। ऐसी दशामें पराक्रमी 
अर्जुन कभी जीर्ण न होनेवाले दिव्य गाण्डीव धनुषको लेकर तीखे बाणोंकी वर्षा करते हुए 
यदि वहाँ आचार्य द्रोणको लाँघ गये तो वह उनके योग्य ही कर्म था ।। १७--१९ ।। 

आचार्य: स्थविरो राजन्‌ शीघ्रयाने तथाक्षम: । 

बाहुव्यायामचेष्टायामशक्तस्तु नराधिप ।। २० ।। 


राजन! नरेश्वर! आचार्य द्रोण अब बूढ़े हुए। वे शीघ्रतापूर्वक चलनेमें भी असमर्थ हैं। 
भुजाओंद्वारा परिश्रमपूर्वक की जानेवाली प्रत्येक चेष्टामें अब उनकी शक्ति उतनी काम नहीं 
देती है || २० ।। 

तेनैवमभ्यतिक्रान्त: श्वेताश्वः कृष्णसारथि: । 

तस्य दोषं न पश्यामि द्रोणस्थानेन हेतुना ।। २३१ ।। 

इसीलिये श्रीकृष्ण जिनके सारथि हैं, वे श्वेतवाहन अर्जुन द्रोणाचार्यको लाँच गये। यही 
कारण है कि मैं इसमें ट्रोणाचार्यका दोष नहीं देख रहा हूँ || २१ ।। 

अजय्यान्‌ पाण्डवान्‌ मन्ये द्रोणेनास्त्रविदा मृथे । 

तथा होनमततिक्रम्य प्रविष्ट: श्वेतवाहन: ।। २२ ।। 

मैं तो ऐसा मानता हूँ कि अस्त्रवेत्ता होनेपर भी द्रोण युद्धमें पाण्डवोंको नहीं जीत 
सकते, तभी तो उन्हें लाँधकर श्वेतवाहन अर्जुन व्यूहमें घुस गये | २२ ।। 

दैवादिष्टेडन्यथाभावो न मन्ये विद्यते क्वचित्‌ । 

यतो नो युध्यमानानां परं शकक्‍्त्या सुयोधन ।। २३ ।। 

सैन्धवो निहतो युद्धे दैवमत्र पर॑ स्मृतम्‌ । 

सुयोधन! दैवके विधानमें कहीं कोई उलट-फेर नहीं हो सकता, यह मेरी मान्यता है; 
क्योंकि हमलोग सम्पूर्ण शक्ति लगाकर युद्ध कर रहे थे, तो भी रणभूमिमें सिंधुराज मारे 
गये। इस विषयमें दैव (प्रारब्ध)-को ही प्रधान माना गया है || २३६ ।। 

परं यत्नं कुर्वतां च त्वया सार्थ रणाजिरे ।। २४ ।। 

हत्वास्माकं पौरुषं वै देवं पश्चात्‌ करोति नः । 

सतत चेष्टमानानां निकृत्या विक्रमेण च ।। २५ ।। 

समरांगणमें तुम्हारे साथ हमलोग भी विजयके लिये महान्‌ प्रयत्न करते हैं, छल-कपट 
तथा पराक्रमद्वारा भी सदा विजयकी चेष्टामें लगे रहते हैं, तो भी दैव हमारे पुरुषार्थको नष्ट 
करके हमें पीछे ढकेल देता है ।। 

दैवोपसृष्ट: पुरुषो यत्‌ कर्म कुरुते क्वचित्‌ । 

कृतं कृतं हि तत्कर्म दैवेन विनिपात्यते ।। २६ ।। 

दैव या दुर्भाग्यका मारा हुआ पुरुष कहीं जो भी कर्म करता है, उसके किये हुए प्रत्येक 
कर्मको दैव उलट देता है || २६ ।। 

यत्‌ कर्तव्यं मनुष्पेण व्यवसायवता सदा । 

तत्‌ कार्यमविशड्केन सिद्धिर्देवे प्रतेष्ठिता ।। २७ ।। 

मनुष्यको सदा उद्योगशील होकर निःशंकभावसे अपने कर्तव्यका पालन करना 
चाहिये; परंतु उसकी सिद्धि दैवके ही अधीन है || २७ ।। 

निकृत्या वज्चिता: पार्था विषयोगैश्व भारत | 

दग्धा जतुगृहे चापि द्यूतेन च पराजिता: ।। २८ ।। 


राजनीति व्यपश्रित्य प्रहिताश्वैव काननम्‌ । 

यत्नेन च कृतं॑ तत्तद्‌ दैवेन विनिपातितम्‌ ॥। २९ ।। 

भारत! हमलोगोंने कपट करके कुन्तीकुमारोंको छला, उन्हें मारनेके लिये विषका 
प्रयोग किया, लाक्षागृहमें जलाया, जूएमें हटाया और राजनीतिका सहारा लेकर उन्हें वनमें 
भी भेजा। इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक किये हुए हमारे उन सभी कार्योंको दैवने नष्ट कर 
दिया ।। २८-२९ |। 

युध्यस्व यत्नमास्थाय दैवं कृत्वा निरर्थकम्‌ । 

यततस्तव तेषां च दैवं मार्गेण यास्यति ।। ३० ।। 

फिर भी तुम दैवको व्यर्थ समझकर प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो। तुम्हारे और पाण्डवोंके 
अपनी-अपनी विजयके लिये प्रयत्न करते रहनेपर दैव अपने गन्तव्य मार्गसे जाता 
रहेगा ।। ३० || 

न तेषां मतिपूर्व हि सुकृतं दृश्यते क्वचित्‌ । 

दुष्कृतं तव वा वीर बुद्धया हीनं॑ कुरूद्धह ।। ३१ ।। 

वीर कुरुश्रेष्ठ! मुझे तो पाण्डवोंका बुद्धिपूर्वक किया हुआ कहीं कोई सुकृत नहीं 
दिखायी देता अथवा तुम्हारा बुद्धिहीनतापूर्वक किया हुआ कोई दुष्कृत भी देखनेमें नहीं 
आता || ३१ |। 

दैवं प्रमाणं सर्वस्य सुकृतस्येतरस्य वा | 

अनन्यकर्म दैवं हि जागर्ति स्वपतामपि ।। ३२ ।। 

सुकृत हो या दुष्कृत, सबपर दैवका ही अधिकार है; वही उसका फल देनेवाला है। 
अपना ही पूर्वकृत कर्म दैव है, जो मनुष्योंके सो जानेपर भी जागता रहता है || ३२ ।। 

बहूनि तव सैन्यानि योधाश्व बहवस्तव । 

न तथा पाण्डुपुत्राणामेवं युद्धमवर्तत ।। ३३ |। 

पहले तुम्हारे पास बहुत-सी सेनाएँ और बहुत-से योद्धा थे। पाण्डवोंके पास उतने 
सैनिक नहीं थे। इस अवस्थामें युद्ध आरम्भ हुआ था ।। ३३ ।। 

तैरल्पैर्बहवो यूय॑ क्षयं नीता: प्रहारिण: । 

शड्के दैवस्य तत्‌ कर्म पौरुषं येन नाशितम्‌ ।। ३४ ।। 

तथापि उन अल्पसंख्यकोंने तुम बहुसंख्यक योद्धाओंको क्षीण कर दिया। मैं समझता 
हूँ, वह दैवका ही कर्म है; जिसने तुम्हारे पुरुषार्थका नाश कर दिया है ।। ३४ ।। 

संजय उवाच 
एवं सम्भाषमाणानां बहु तत्‌ तज्जनाधिप | 
पाण्डवानामनीकानि समदृश्यन्त संयुगे ।। ३५ ।। 


संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार जब कर्ण और दुर्योधन परस्पर बहुत-सी बातें 
कर रहे थे, उसी समय युद्धस्थलमें पाण्डवोंकी सेनाएँ दिखायी दीं || ३५ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध व्यतिषक्तरथद्धिपम्‌ | 

तावकानां परै: सार्थ राजन दुर्मन्त्रिते तव ।। ३६ ।। 

राजन्‌! तदनन्तर आपकी कुमन्त्रणाके अनुसार आपके पुत्रोंका शत्रुओंके साथ घोर 
युद्ध छिड़ गया, जिसमें रथसे रथ और हाथीसे हाथी भिड़ गये थे || ३६ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि पुनर्युद्धारम्भे 
द्विपज्चाशदधिकशततमो<्ध्याय: ।। १५२ |। 
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत जयद्रथवधपर्वमें पुन: युद्धारम्भविषयक एक 
सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १५२ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं।) 


अपन क्रात बछ। आर: 2 


(घटोत्कचव धपर्व) 


त्रिपप्चाशदधिकशततमोड< ध्याय: 


कौरव-पाण्डव-सेनाका युद्ध, दुर्योधन और युधिषछिरका 
संग्राम तथा दुर्योधनकी पराजय 


संजय उवाच 

तदुदीर्ण गजानीकं॑ बल॑ तव जनाधिप । 

पाण्डुसेनामतिक्रम्य योधयामास सर्वतः ।। १ ।॥। 

संजय कहते हैं--जनेश्वर! आपकी प्रचण्ड गजसेना पाण्डव-सेनाका उल्लंघन करके 
सब ओर फैलकर युद्ध करने लगी ।। १ ।। 

पज्चाला: कुरवश्चैव योधयन्त: परस्परम्‌ । 

यमराष्ट्राय महते परलोकाय दीक्षिता: ।। २ ।। 

पांचाल और कौरव योद्धा महान्‌ यमराज्य एवं परलोककी दीक्षा लेकर परस्पर युद्ध 
करने लगे ।। २ ।। 

शूरा: शूरै: समागम्य शरतोमरशक्तिभि: । 

विव्यधु: समरे<न्योन्यं निन्युश्चैव यमक्षयम्‌ ।। ३ ।। 

एक पक्षके शूरवीर दूसरे पक्षके शूरवीरोंसे भिड़कर बाण, तोमर और शक्तियोंसे 
समरभूमिमें एक-दूसरेको चोट पहुँचाने और यमलोक भेजने लगे ।। ३ ।। 

रथिनां रथिभि: सार्थ रुधिरत्रावदारुणम्‌ | 

प्रावर्तत महद्‌ युद्ध निध्नतामितरेतरम्‌ ।। ४ ।। 

परस्पर प्रहार करनेवाले रथियोंका रथियोंके साथ महान्‌ युद्ध होने लगा, जो खूनकी 
धारा बहानेके कारण अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था ।। ४ ।। 

वारणाश्न महाराज समासाद्य परस्परम्‌ । 

विषाणैर्दारयामासु: सुसंक़्रुद्धा मदोत्कटा: ।। ५ ।। 

महाराज! अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए मदमत्त हाथी परस्पर भिड़कर दाँतोंके प्रहारसे एक- 
दूसरेको विदीर्ण करने लगे ।। 

हयारोहान्‌ हयारोहा: प्रासशक्तिपरश्वधै: । 

बिभिदुस्तुमुले युद्धे प्रार्थयन्तो महद्‌ यश: ।। ६ ।। 


उस भयंकर युद्धमें महान्‌ यशकी अभिलाषा रखते हुए घुड़सवार घुड़सवारोंको प्रास, 
शक्ति और फरसोंद्वारा घायल कर रहे थे || ६ ।। 

पत्तयश्न महाबाहो शतश: शस्त्रपाणय: । 

अन्योन्यमार्दयन्‌ राजन्‌ नित्यं यत्ता: पराक्रमे ।। ७ ।। 

राजन! हाथोंमें शस्त्र लिये सैकड़ों पैदल सैनिक सदा पराक्रमके लिये प्रयत्नशील हो 
एक-दूसरेपर चोट कर रहे थे || ७ ।। 

गोत्राणां नामधेयानां कुलानां चैव मारिष | 

श्रवणाद्धि विजानीम: पञ्चालान्‌ कुरुभि: सह ।। ८ ।। 

आर्य! नाम, गोत्र और कुलोंका परिचय सुनकर ही हमलोग उस समय कौरवोंके साथ 
युद्ध करनेवाले पांचालोंको पहचान पाते थे ।। ८ ।। 

तेडन्योन्यं समरे योधा: शरशक्तिपरश्वथै: । 

प्रैथयन्‌ परलोकाय विचरन्तो हभीतवत्‌ ।। ९ ।। 

उस समरांगणमें वे समस्त योद्धा निर्भय-से विचरते हुए बाण, शक्ति और फरसोंकी 
मारसे एक-दूसरेको परलोक भेज रहे थे ।। ९ ।। 

शरा दश दिशो राजंस्तेषां मुक्ता: सहस्रशः । 

न भ्राजन्ते यथातत्त्वं भास्करे5स्तंगतेडपि च ।। १० ।। 

राजन! सूर्यास्त हो जानेके कारण उन योद्धाओंके छोड़े हुए सहस्रों बाण दसों 
दिशाओंमें फैलकर अच्छी तरह प्रकाशित नहीं हो पाते थे ।। १० ।। 

तथा प्रयुध्यमानेषु पाण्डवेयेषु भारत । 

दुर्योधनो महाराज व्यवागाहत तद्‌ बलम्‌ ।। ११ ।। 

भरतवंशी महाराज! जब इस प्रकार पाण्डवसैनिक युद्ध कर रहे थे, उस समय 
दुर्योधनने उस सेनामें प्रवेश किया ।। 

सैन्धवस्य वधेनैव भृशं दुःखसमन्वित: । 

मर्तव्यमिति संचिन्त्य प्राविशच्च द्विषद्बलम्‌ ।। १२ ।। 

वह सिंधुराजके वधसे बहुत दुःखी हो गया था। अतः मरनेका ही निश्चय करके उसने 
शत्रुओंकी सेनामें प्रवेश किया || १२ ।। 

नादयन्‌ रथघोषेण कम्पयन्निव मेदिनीम्‌ । 

अभ्यवर्तत पुत्रस्ते पाण्डवानामनीकिनीम्‌ ।। १३ ।। 

अपने रथकी घरघराहटसे दिशाओंको प्रतिध्वनित करता और पृथ्वीको कँपाता हुआ- 
सा आपका पुत्र पाण्डव-सेनाके सम्मुख आया ।॥। १३ ।। 

स संनिपातस्तुमुलस्तस्य तेषां च भारत । 

अभवत्‌ सर्वसैन्यानामभावकरणो महान्‌ ॥। १४ ।। 


भारत! पाण्डव-सैनिकों तथा दुर्योधनका वह भयंकर संग्राम समस्त सेनाओंका महान्‌ 

विनाश करनेवाला था ।। 
(धृतराड्र उवाच 

द्रोण: कर्ण: कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वत: | 

नावारयन्‌ कथं युद्धे राजानं राजकाडुक्षिण: ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--द्रोण, कर्ण, कृप तथा सात्वतवंशी कृतवर्मा-ये तो राजाके 
चाहनेवालोंमेंसे हैं, इन्होंने उसे युद्धमें जानेसे रोका क्‍यों नहीं? 

सर्वोपायैहिं युद्धेषु रक्षितव्यो महीपति: । 

एषा नीति: परा युद्धे दृष्टा तत्र महर्षिभि: ।। 

युद्धमें सभी उपायोंसे राजाकी रक्षा करनी चाहिये। महर्षियोंने युद्धवेिषयक इसी 
सर्वोत्तम नीतिका साक्षात्कार किया है | 

प्रविष्टे वा मम सुते परेषां वै महद्‌ बलम्‌ । 

मामका रथिनां श्रेष्ठा: किमकुर्वत संजय ।। 

संजय! जब मेरा पुत्र शत्रुओंकी विशाल सेनामें घुस गया, उस समय मेरे पक्षके श्रेष्ठ 
रथियोंने क्या किया? 

संजय उवाच 

राजन संग्राममाश्चर्य पुत्रस्य तव भारत । 

एकस्य च बहूनां च शृणु मे ब्रुवतो5द्धुतम्‌ ।। 

संजयने कहा--भरतवंशी नरेश! आपके पुत्रके आश्चर्यजनक एवं अद्भुत संग्रामका, 
जो एकका बहुत-से योद्धाओंके साथ हुआ था, वर्णन करता हूँ, सुनिये। 

द्रोणेन वार्यमाणो5सौ कर्णेन च कृपेण च । 

प्राविशत्‌ पाण्डवीं सेनां मकरा: सागरं यथा ।। 

द्रोणाचार्य, कर्ण और कृपाचार्यके मना करनेपर भी जैसे मगर समुद्रमें प्रवेश करता है, 
उसी प्रकार दुर्योधन पाण्डव-सेनामें घुस गया था । 

किरन्निषुसहस्त्राणि तत्र तत्र तदा तदा । 

पज्चालान्‌ पाण्डवांश्वैव विव्याध निशितै: शरै: ।। 

जहाँ-तहाँ सब ओर सहसी्रों बाणोंकी वर्षा करते हुए उसने तीखे बाणोंद्वारा पांचालों 
और पाण्डवोंको घायल कर दिया। 

यथोद्यन्‌ विततं सूर्यो रश्मिभिनाशयेत्‌ तम: । 

तथा पुत्रस्तव बल॑ नाशयत्‌ तन्‍्महाबल: ।।) 

जैसे उदयकालका सूर्य अपनी किरणोंद्वारा सर्वत्र फैले हुए अंधकारका नाश कर देता 
है, उसी प्रकार आपके महाबली पुत्रने शत्रुसेनाका विनाश कर दिया। 


यथा मध्यंदिने सूर्य प्रतपन्तं गभस्तिभि: । 

तथा तव सुतं मध्ये प्रतपन्तं शराचिभि: ।। १५ ।। 

न शेकुर्भ्रातरं युद्धे पाण्डवा: समुदीक्षितुम्‌ | 

जैसे अपनी किरणोंसे तपते हुए दोपहरके सूर्यकी ओर कोई देख नहीं पाता, उसी 
प्रकार अपने बाणोंकी ज्वालाओंसे शत्रुओंको संताप देते हुए सेनाके मध्यभागमें खड़े 
आपके पुत्र एवं अपने भाई दुर्योधनकी ओर उस युद्धस्थलमें पाण्डव देख नहीं पाते 
थे।। १५३ || 

पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये ।। १६ ।। 

पर्यधावन्त पञ्चाला वध्यमाना महात्मना | 

महामनस्वी दुर्योधनकी मार खाकर पांचाल सैनिक इधर-उधर भागने लगे। अब वे 
पलायन करनेमें उत्साह दिखा रहे थे। उनमें शत्रुओंको जीतनेका उत्साह नहीं रह गया 
था।। १६३ || 

रुक्मपुड्खै: प्रसन्नाग्रैस्तव पुत्रेण धन्विना || १७ ।। 

अर्द्यमाना: शरैस्तूर्ण न्‍न्यपतन्‌ पाण्डुसैनिका: । 

आपके धरनुर्धर पुत्रके द्वारा चलाये हुए सुवर्णमय पंख तथा चमकती हुई धारवाले 
बाणोंसे पीड़ित होकर बहुतेरे पाण्डव-सैनिक तुरंत धराशायी हो गये ।। १७६ ।। 

न तादृशं रणे कर्म कृतवन्तस्तु तावका: ।। १८ ।। 

यादृशं कृतवान्‌ राजा पुत्रस्तव विशाम्पते । 

प्रजानाथ! आपके सैनिकोंने रणभूमिमें वैसा पराक्रम नहीं किया था, जैसा कि आपके 
पुत्र राजा दुर्योधनने किया ।। 

पुत्रेण तव सा सेना पाण्डवी मथिता रणे ।। १९ ।। 

नलिनी द्विरदेनेव समन्तात्‌ फुल्लपड्कजा । 

जैसे हाथी सब ओरसे खिले हुए कमलपुष्पोंसे सुशोभित पोखरेको मथ डालता है, 
उसी प्रकार आपके पुत्रने रणभूमिमें पाण्डव-सेनाको मथ डाला ।। १९३ || 

क्षीणतोयानिलाकंभ्यां हतत्विडिव पद्मिनी || २० ।। 

बभूव पाण्डवी सेना तव पुत्रस्य तेजसा । 

जैसे हवा और सूर्यसे पानी सूख जानेके कारण पद्चिनी हतप्रभ हो जाती है, उसी 
प्रकार आपके पुत्रके तेजसे तप्त होकर पाण्डव-सेना श्रीहीन हो गयी थी || २०६ ।। 

पाण्डुसेनां हतां दृष्टवा तव पुत्रेण भारत ।। २१ ।। 

भीमसेनपुरोगास्तु पञ्चाला: समुपाद्रवन्‌ | 

भारत! आपके पुत्रद्वारा पाण्डव-सेनाको मारी गयी देख पांचालोंने भीमसेनको अगुआ 
बनाकर उसपर आक्रमण किया || २१ $ || 


स भीमसेनं दशभिमद्ीपुत्रौ त्रिभिस्त्रिभि: ॥। २२ ।। 

विराटद्रुपदौ षड़भि: शतेन च शिखण्डिनम्‌ | 

धृष्टद्युम्नं च सप्तत्या धर्मपुत्रं च सप्तभि: ।। २३ ।। 

केकयांश्वैव चेदींश्व बहुभिर्निशितै: शरै: । 

उस समय दुर्योधनने भीमसेनको दस, माद्रीकुमारों-को तीन-तीन, विराट और द्रुपदको 
छः:-छ:, शिखण्डीको सौ, धृष्टद्युम्नको सत्तर, धर्मपुत्र युधिष्ठिको सात और केकय तथा 
चेदिदेशके सैनिकोंको बहुत-से तीखे बाण मारे || २२-२३ $ ।। 

सात्वतं पज्चभिर्विद्ध्वा द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभि: || २४ |। 

घटोत्कचं च समरे विद्ध्वा सिंह इवानदत्‌ । 

फिर सात्यकिको पाँच बाणोंसे घायल करके द्रौपदीपुत्रोंकी तीन-तीन बाण मारे। 
तत्पश्चात्‌ समरभूमिमें घटोत्कचको घायल करके दुर्योधनने सिंहके समान गर्जना की ।। २४ 
न 

शतशक्षापरान्‌ योधान्‌ सद्दिपांश्व महारणे ।। २५ ।। 

शरैरवचकर्तोंग्रै: क्रुद्धो 5न्तक इव प्रजा: । 

उस महायुद्धमें हाथियोंसहित सैकड़ों दूसरे योद्धाओंको क्रोधमें भरे हुए दुर्योधनने 
अपने भयंकर बाणोंद्वारा उसी प्रकार काट डाला, जैसे यमराज प्रजाका विनाश करते हैं ।। 

सा तेन पाण्डवी सेना वध्यमाना शिलीमुखै: ।। २६ ।। 

तव पुत्रेण संग्रामे विदुद्राव नराधिप । 

नरेश्वर! उस संग्राममें आपके पुत्रके चलाये हुए बाणोंकी मार खाकर पाण्डव-सेना 
इधर-उधर भागने लगी ।। २६६ ।। 

त॑ तपन्तमिवादित्यं कुरुराजं महाहवे । २७ ।। 

नाशकन्‌ वीक्षितुं राजन्‌ पाण्डुपुत्रस्य सैनिका: । 

राजन्‌! उस महासमरमें तपते हुए सूर्यके समान कुरुराज दुर्योधनकी ओर पाण्डव- 
सैनिक देख भी न सके || २७३ ।। 

ततो युधिष्ठटिरो राजा कुपितो राजसत्तम ।। २८ ।। 

अभ्यधावत्‌ कुरुपतिं तव पुत्र जिघांसया । 

नृपश्रेष्ठ) तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए राजा युधिष्ठिर आपके पुत्र कुरुराज दुर्योधनको मार 
डालनेकी इच्छासे उसकी ओर दौड़े | २८६ ।। 

तावुभौ युधि कौरव्यौ समीयतुररिंदमौ || २९ ।। 

स्वार्थहेतो: पराक्रान्तौ दुर्योधनयुधिष्ठिरी । 

शत्रुओंका दमन करनेवाले वे दोनों कुरुवंशी वीर दुर्योधन और युधिष्ठिर अपने-अपने 
स्वार्थके लिये युद्धमें पराक्रम प्रकट करते हुए एक-दूसरेसे भिड़ गये || २९३ ।। 


ततो दुर्योधन: क्रुद्धः शरै:ः संनतपर्वभि: ।॥ ३० ।। 

विव्याध दशभिस्तूर्ण ध्वजं चिच्छेद चेषुणा । 

तब दुर्योधनने कुपित होकर झुकी हुई गाँठवाले दस बाणोंद्वारा तुरंत ही युधिष्ठिरको 
घायल कर दिया और एक बाणसे उनका ध्वज भी काट डाला || ३०३ ।। 

इन्द्रसेनं त्रिभिश्वैव ललाटे जध्निवान्‌ नृप ।। ३१ ।। 

सारथिं दयितं राज्ञ: पाण्डवस्य महात्मन: । 

नरेश्वर! उन्होंने तीन बाणोंद्वारा महात्मा पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरके प्रिय सारथि 
इन्द्रसेनको उसके ललाट-प्रदेशमें चोट पहुँचायी ।। ३१ ३ ।। 

धनुश्न पुनरन्येन चकर्तास्थ महारथ: ।। ३२ ।। 

चतुर्भिश्नतुरश्चैव बाणैरविव्याध वाजिन: । 

फिर दूसरे बाणसे महारथी दुर्योधनने राजा युधिष्ठिरका धनुष भी काट दिया और चार 
बाणोंसे उनके चारों घोड़ोंको बींध डाला ।। ३२६ ।। 

ततो युधिष्ठिर: क्रुद्धों निमेषादिव कार्मुकम्‌ ।। ३३ ।। 

अन्यदादाय वेगेन कौरवं प्रत्यवारयत्‌ । 

तब राजा युधिष्ठिरने कुपित हो पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और 
बड़े वेगसे कुरुवंशी दुर्योधनको रोका ।। ३३ $ || 

तस्य तान्‌ निघ्नतः शत्रून्‌ रुक्मपृष्ठ महद्‌ धनुः ॥। ३४ ।। 

भल्लाभ्यां पाण्डवो ज्येष्ठस्त्रिधा चिच्छेद मारिष | 

माननीय नरेश! ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरने दो भल्‍ल मारकर शत्रुओंके संहारमें लगे हुए 
दुर्योधनके सुवर्णमय पृष्ठवाले विशाल धनुषके तीन टुकड़े कर डाले ।। ३४६ ।। 

विव्याध चैनं दशभि: सम्यगस्तै: शितै: शरैः ।। ३५ ।। 

मर्म भित्त्वा तु ते सर्वे संलग्ना: क्षितिमाविशन्‌ | 

साथ ही, उन्होंने अच्छी तरह चलाये हुए दस पैने बाणोंसे दुर्योधनको भी घायल कर 
दिया। वे सारे बाण दुर्योधनके मर्मस्थानोंमें लगकर उन्हें विदीर्ण करते हुए पृथ्वीमें समा 
गये ।। ३५३६ ।। 

ततः परिवृता योधा: परिवत्रुर्युधिष्तिरम्‌ । ३६ ।। 

वृत्रहत्यै यथा देवा: परिवत्रु: पुरंदरम्‌ । 

फिर तो भागे हुए पाण्डव-योद्धा लौट आये और युधिष्ठिरको वैसे ही घेरकर खड़े हो 
गये, जैसे वृत्रासुरके वधके लिये सब देवता इन्द्रको घेरकर खड़े हुए थे ।। 

ततो युधिष्ठिरो राजा तव पुत्रस्य मारिष । 

शरं च सूर्यरश्म्याभमत्युग्रमनिवारणम्‌ ।। ३७ ।। 

हा हतो$सीति राजानमुक्त्वामुज्चद्‌ युधिष्ठिर: । 


आर्य! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने आपके पुत्र राजा दुर्योधनपर सूर्यकिरणोंके समान 
तेजस्वी, अत्यन्त भयंकर तथा अनिवार्य बाण यह कहकर चलाया कि “हाय! तुम मारे 
गये” || ३७३ || 

स तेनाकर्णमुक्तेन विद्धो बाणेन कौरव: ॥। ३८ ।। 

निषसाद रथोपस्थे भृशं सम्मूढचेतन: । 

कानोंतक खींचकर चलाये हुए उस बाणसे घायल हो कुरुवंशी दुर्योधन अत्यन्त मूर्च्छित 
हो गया और रथके पिछले भागमें धम्मसे बैठ गया ।। ३८३ ।। 

ततः पाञ्चाल्यसेनानां भूशमासीद्‌ रवो महान्‌ ।। ३९ ।। 

हतो राजेति राजेन्द्र मुदितानां समन्‍्ततः । 

बाणशब्दरवश्षोग्र: शुश्रुवे तत्र मारिष ।। ४० ।। 

आदरणीय राजेन्द्र! उस समय प्रसन्न हुए पांचाल सैनिकोंने “राजा दुर्योधन मारा गया' 
ऐसा कहकर चारों ओर अत्यन्त महान्‌ कोलाहल मचाया। वहाँ बाणोंका भयंकर शब्द भी 
सुनायी दे रहा था ।। ३९-४० ।। 

अथ द्रोणो द्रुतं तत्र प्रत्यदृश्यत संयुगे । 

ह्ृष्टो दुर्योधनश्वापि दृढमादाय कार्मुकम्‌ ।। ४१ ।। 

तिष्ठ तिछेति राजानं ब्रुवन्‌ पाण्डवमभ्ययात्‌ | 

तत्पश्चात्‌ तुरंत ही वहाँ युद्धस्थलमें द्रोणाचार्य दिखायी दिये। इधर, राजा दुर्योधनने भी 
हर्ष और उत्साहमें भरकर सुदृढ़ धनुष हाथमें ले “खड़े रहो, खड़े रहो” कहते हुए वहाँ 
पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिरपर आक्रमण किया || ४१३ ।। 

प्रत्युद्ययुस्तं त्वरिता: पज्चाला जयगृद्धिन: ।। ४२ ।। 

तान्‌ द्रोण: प्रतिजग्राह परीप्सन्‌ कुरुसत्तमम्‌ | 

चण्डवातोदधुतान्‌ मेघान्‌ निघ्नन्‌ रश्मिमुचो यथा ।। ४३ ।। 

यह देख विजयाभिलाषी पांचाल सैनिक तुरंत ही उसका सामना करनेके लिये आगे 
बढ़े; परंतु कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनकी रक्षाके लिये द्रोणाचार्यने उन सबको उसी तरह नष्ट कर दिया, 
जैसे प्रचण्ड वायुद्वारा उठाये हुए मेघोंको सूर्यदेव नष्ट कर देते हैं || ४२-४३ ।। 

ततो राजन्‌ महानासीत्‌ संग्रामो भूरिवर्धन: । 

तावकानां परेषां च समेतानां युयुत्सया ।। ४४ ।। 

राजन! तदनन्तर युद्धकी इच्छासे एकत्र हुए आपके और शत्रुपक्षके सैनिकोंका महान्‌ 
संग्राम होने लगा, जिसमें बहुसंख्यक प्राणियोंका संहार हुआ ।। ४४ ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे दुर्योधनपरा भवे 
त्रिपठड्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५३ ।। 


इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रिकालिक युद्धके प्रसंगमें 
दुर्योधन-पराजयविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५३ ॥/ 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं।) 


चतुष्पञ्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


रात्रियुद्धमें पाण्डव-सैनिकोंका द्रोणाचार्यपर आक्रमण और 
द्रोणाचार्यद्वारा उनका संहार 


धृतराष्ट्र रवाच 

यत्‌ तदा प्राविशत्‌ पाण्डूनाचार्य: कुपितो बली । 

उक्त्वा दुर्योधन मन्दं मम शास्त्रातिगं सुतम्‌ । १ ।। 

प्रविश्य विचरन्तं च रथे शूरमवस्थितम्‌ । 

कथं द्रोणं महेष्वासं पाण्डवा: पर्यवारयन्‌ ।। २ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! मेरी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले मेरे मूर्ख पुत्र दुर्योधनसे 
पूर्वोक्त बातें कहकर क्रोधमें भरे हुए बलवान्‌ आचार्य द्रोणने जब वहाँ पाण्डव-सेनामें प्रवेश 
किया, उस समय रथपर बैठकर सेनाके भीतर प्रवेश करके सब ओर विचरते हुए 
महाधनुर्धर शूरवीर द्रोणाचार्यको पाण्डवोंने किस प्रकार रोका? ।। १-२ ।। 

केडरक्षन्‌ दक्षिणं चक्रमाचार्यस्य महाहवे । 

के चोत्तरमरक्षन्त निघ्नतः शात्रवान्‌ बहून्‌ ।। ३ ।। 

उस महासमरमें बहुसंख्यक शत्रुयोद्धाओंका संहार करनेवाले आचार्य द्रोणके दायें 
चक्रकी किन लोगोंने रक्षा की तथा किन लोगोंने उनके रथके बायें पहियेकी रखवाली 
की? ।। ३ ।। 

के चास्य पृष्ठतो5न्वासन्‌ वीरा वीरस्य योधिन: । 

के पुरस्तादवर्तन्त रथिनस्तस्य शत्रव: ।। ४ ।। 

युद्धपरायण वीर रथी आचार्यके पीछे कौन-से वीर थे और शत्रुपक्षेके कौन-कौनसे वीर 
उनके सामने खड़े हुए थे || ४ ।। 

मन्ये तानस्पृशच्छीतमतिवेलमनार्तवम्‌ । 

मन्ये ते समवेपन्त गावो वै शिशिरे यथा ।। ५ ।। 

मैं तो समझता हूँ शत्रुओंको बहुत देरतक बिना मौसमके ही सर्दी लगने लगी होगी। 
जैसे शिशिर-ऋतुमें गायें सर्दीके मारे काँपने लगती हैं, उसी तरह वे शत्रु-सैनिक भी 
आचार्यके भयसे थर-थर काँपने लगे होंगे ।। 

यत्प्राविशन्महेष्वास: पठचालानपराजित: । 

नृत्यन्‌ स रथमार्गेषु सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। ६ ।। 

क्योंकि किसीसे परास्त न होनेवाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्यने 
पांचालोंकी सेनामें रथके मार्गोंपर नृत्य-सा करते हुए प्रवेश किया था ।। 


निर्दहन्‌ सर्वसैन्यानि पञ्चालानां रथर्षभ: । 

धूमकेतुरिव क्रुद्ध: कथं मृत्युमुपेयिवान्‌ ।। ७ ।। 

रथियोंमें श्रेष्ठ द्रोण क्रोधमें भरे हुए धूमकेतुके समान प्रकट होकर पांचालोंकी समस्त 
सेनाओंको दग्ध कर रहे थे; फिर उनकी मृत्यु कैसे हो गयी? ।। ७ ।। 

संजय उवाच 

सायाह्रे सैन्धवं हत्वा राज्ञा पार्थ: समेत्य च | 

सात्यकिश्न महेष्वासो द्रोणमेवाभ्यधावताम्‌ ।। ८ ।। 

संजयने कहा--राजन! सायंकाल सिंधुराज जयद्रथका वध करके राजा युधिष्ठिरसे 
मिलकर कुन्तीकुमार अर्जुन और महाथनुर्थर सात्यकि दोनोंने द्रोणाचार्यपर ही धावा 
किया || ८ ।। 

तथा युधिष्ठिरस्तूर्ण भीमसेनश्न पाण्डव: । 

पृथक्‌चमूशभ्यां संयत्तौ द्रोणमेवाभ्यधावताम्‌ ।। ९ ।। 

इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर और पाण्डुपुत्र भीमसेनने भी पृथक्‌-पृथक्‌ सेनाओंके साथ 
तैयार हो शीघ्रतापूर्वक द्रोणाचार्यपर ही आक्रमण किया ।। ९ ।। 

तथैव नकुलो धीमान्‌ सहदेवश्न दुर्जय: । 

धृष्टद्युम्न: सहानीको विराटश्व॒ सकेकय: ।। १० ।। 

मत्स्या: शाल्वा: ससेनाश्न द्रोणमेव ययुर्युधि । 

इसी तरह बुद्धिमान्‌ नकुल, दुर्जय वीर सहदेव, सेनासहित धृष्टद्युम्न, राजा विराट, 
केकयराजकुमार तथा मत्स्य और शाल्वदेशके सैनिक अपनी सेनाओंके साथ युद्धस्थलमें 
द्रोणाचार्यपर ही चढ़ आये || १० | ।। 

द्रुपदश्ष तथा राजा पञ्चालैरभिरक्षित: ।। ११ || 

धृष्टद्युम्नपिता राजन्‌ द्रोणमेवाभ्यवर्तत । 

राजन! पांचाल-सैनिकोंसे सुरक्षित धृष्टद्युम्न-पिता राजा द्रुपदने भी द्रोणाचार्यका ही 
सामना किया ।। ११६ ।। 

द्रौपदेया महेष्वासा राक्षसश्नल घटोत्कच: ।। १२ ।। 

ससैन्यास्ते न्यवर्तन्त द्रोणमेव महाद्युतिम्‌ 

महाधनुर्धर द्रौपदीकुमार तथा राक्षस घटोत्कच भी अपनी सेनाओंके साथ महातेजस्वी 
द्रोणाचार्यकी ही ओर लौट आये ।। १२६ ।। 

प्रभद्रकाश्न॒ पञज्चाला: षट्सहस्रा: प्रहारिण: ।। १३ ।। 

द्रोणमेवा भ्यवर्तन्त पुरस्कृत्य शिखण्डिनम्‌ । 

प्रहार करनेमें कुशल छ: हजार प्रभद्रक और पांचाल योद्धा भी शिखण्डीको आगे 
करके द्रोणाचार्यपर ही चढ़ आये ।। १३३ ।। 


तथेतरे नरव्याप्रा: पाण्डवानां महारथा: ।। १४ || 

सहिता: संन्यवर्तन्त द्रोणमेव द्विजर्षभम्‌ । 

इसी प्रकार पाण्डव-सेनाके अन्य महारथी वीर पुरुषसिंह भी एक साथ द्विजदश्रेष्ठ 
ट्रोणाचार्ुकी ओर ही लौट आये ।। १४ $ ।। 

तेषु शूरेषु युद्धाय गतेषु भरतर्षभ ।। १५ ।। 

बभूव रजनी घोरा भीरूणां भयवर्धिनी । 

भरतश्रेष्ठ! युद्धके लिये उन शूरवीरोंके आ पहुँचनेपर वह रात बड़ी भयंकर हो गयी, जो 
भीरु पुरुषोंके भयको बढ़ानेवाली थी || १५६ ।। 

योधानामशिवा रौद्रा राजन्नन्तकगामिनी ।। १६ ।। 

कुण्जराश्वमनुष्याणां प्राणान्तकरणी तदा । 

राजन! वह रात्रि समस्त योद्धाओंके लिये अमंगल-कारक, भयंकर यमराजके पास ले 
जानेवाली तथा हाथी, घोड़े और मनुष्योंके प्राणोंका अन्त करनेवाली थी ।। १६३ ।। 

तस्यां रजन्यां घोरायां नदन्त्य: सर्वतः शिवा: ।। १७ ।। 

न्यवेदयन्‌ भयं घोरं सज्वालकवलै मुख: । 

उस घोर रजनीमें सब ओर कोलाहल करती हुई सियारिनें अपने मुँहले आग उगलती 
हुई घोर भयकी सूचना दे रही थीं ।। १७३६ ।। 

उलूकाश्चाप्यदृश्यन्त शंसन्तो विपुलं भयम्‌ ।। १८ ।। 

विशेषत: कौरवाणां ध्वजिन्यामतिदारुणा: । 

विशेषत: कौरव-सेनामें महान्‌ भयकी सूचना देनेवाले अत्यन्त दारुण उल्लू पक्षी भी 
दिखायी दे रहे थे ।। १८३ ।। 

ततः सैन्येषु राजेन्द्र शब्द: समभवन्महान्‌ ।। १९ || 

भेरीशब्देन महता मृदड्भानां स्वनेन च । 

गजानां बंहितैश्वापि तुरड्राणां च ह्रेषितै: । २० ।। 

खुरशब्दनिपातैश्न तुमुल: सर्वतो5भवत्‌ । 

राजेन्द्र! तदनन्तर सारी सेनाओंमें रणभेरीकी भारी आवाज, मृदंगोंकी ध्वनि, हाथियोंके 
चिग्घाड़ने, घोड़ोंके हिनहिनाने और धरतीपर उनकी टाप पड़नेसे चारों ओर अत्यन्त भयंकर 
शब्द गूँजने लगा || १९-२० ३ ।। 

ततः समभवद्‌ युद्ध संध्यायामतिदारुणम्‌ ।। २१ ।। 

द्रोणस्प च महाराज सृञ्जयानां च सर्वश: । 

महाराज! तत्पश्चात्‌ संध्याकालमें समस्त सूंजयवीरों तथा द्रोणाचार्यका अत्यन्त दारुण 
संग्राम होने लगा || २१६ || 

तमसा चावृते लोके न प्राज्ञायत किंचन ।। २२ ।। 


सैन्येन रजसा चैव समन्तादुत्थितेन ह । 

सारा जगत्‌ अंधकारसे तथा सेनाद्वारा सब ओर उड़ायी हुई धूलसे आच्छादित होनेके 
कारण किसीको कुछ भी ज्ञात नहीं होता था || २२६ ।। 

नरस्याश्वस्य नागस्य समसज्जत शोणितम्‌ ।। २३ ।। 

नापश्याम रजो भौम॑ कश्मलेनाभिसंवृता: । 

मनुष्यों, घोड़ों और हाथियोंके रक्तमें सन जानेके कारण हमें धरतीकी धूल दिखायी 
नहीं देती थी। हम सब लोगोंपर मोह-सा छा गया था ।। २३ ३ ।। 

रात्रौ वंशवनस्येव दह्यमानस्य पर्वते | २४ ।। 

घोरश्नट्चटाशब्द: शस्त्राणां पततामभूत्‌ । 

जैसे पर्वतपर रातके समय बाँसोंका जंगल जल रहा हो और उन बाँसोंका चटखनेका 
घोर शब्द सुनायी दे रहा हो, उसी प्रकार शस्त्रोंक आघात-प्रत्याघातसे घोर चटचट शब्द 
कानोंमें पड़ रहा था || २४३ ।। 

मृदज्रानकनिह्वदिर्सझरै: पटहैस्तथा ।। २५ ।। 

फेत्कारैहेषितै: शब्दै: सर्वमेवाकुलं बभौ | 

मृदंग और ढोलोंकी आवाजसे, झाँझ और पटहोंकी ध्वनिसे तथा हाथी-घोड़ोंके फुंकार 
और हींसनेके शब्दोंसे वहाँका सब कुछ व्याप्त जान पड़ता था || २५६ ।। 

नैव स्वे न परे राजन प्राज्ञायन्त तमोवृते ।। २६ ।। 

उन्मत्तमिव तत्‌ सर्व बभूव रजनीमुखे । 

राजन्‌! उस अन्धकाराच्छन्न प्रदेशमें अपने और परायेकी पहचान नहीं होती थी। उस 
प्रदोषकालमें सब कुछ उन्मत्त-सा जान पड़ता था ।। २६६ ।। 

भौमं॑ रजो<थ राजेन्द्र शोणितेन प्रणाशितम्‌ ।। २७ ।। 

शातकौम्भैश्न कवचैर्भूषणैश्ल तमो5भ्यगात्‌ । 

राजेन्द्र! रक्तकी धाराने धरतीकी धूलको नष्ट कर दिया। सोनेके कवचों और 
आभूषणोंकी चमकसे अंधकार दूर हो गया | २७३ ।। 

ततः: सा भारती सेना मणिहेमविभूषिता ।। २८ ।। 

द्यौरिवासीत्‌ सनक्षत्रा रजन्यां भरतर्षभ | 

भरतश्रेष्ठ] उस समय रात्रिकालमें मणियों तथा सुवर्णके आभूषणोंसे विभूषित हुई वह 
कौरव-सेना नक्षत्रोंसे युक्त आकाशके समान सुशोभित होती थी ।। 

गोमायुबलसंघुष्टा शक्तिध्वजसमाकुला ।। २९ ।। 

वारणाभिरस्ता घोरा क्ष्वेडितोत्क्रुष्टनादिता । 


उस सेनाके आसपास सियारोंके समूह अपनी भयंकर बोली बोल रहे थे। शक्तियों तथा 
ध्वजोंसे सारी सेना व्याप्त थी। कहीं हाथी चिग्घाड़ रहे थे, कहीं योद्धा सिंहनाद कर रहे थे 
और कहीं एक सैनिक दूसरेको पुकारते तथा ललकारते थे। इन शब्दोंसे कोलाहलपूर्ण हुई 
वह सेना बड़ी भयानक जान पड़ती थी ।। २९६ ।। 

तत्राभवन्महाशब्दस्तुमुलो लोमहर्षण: ।। ३० ।। 

समावृण्वन्‌ दिश: सर्वा महेन्द्राशनिनि:स्वन: । 

थोड़ी देरमें वहाँ रोंगटे खड़े कर देनेवाला अत्यन्त भयंकर महान्‌ शब्द गूँज उठा। ऐसा 
जान पड़ता था देवराज इन्द्रके वज्रकी गड़गड़ाहट फैल गयी हो। वह शब्द वहाँ सारी 
दिशाओंमें छा गया था || ३०६ ।। 

सा निशी्थे महाराज सेनादृश्यत भारती ।। ३१ ।। 

अड्डदे: कुण्डलैरनिष्कि: शस्त्रैश्वैवावभासिता | 

महाराज! रातके समय कौरव-सेना अपने बाजूबन्द, कुण्डल, सोनेके हार तथा अस्त्र- 
शस्त्रोंसे प्रकाशित हो रही थी ।। ३१ ६ ।। 

तत्र नागा रथाश्वैव जाम्बूनदविभूषिता: ।। ३२ ।। 

निशायां प्रत्यदृश्यन्त मेघा इव सविद्युत: । 

वहाँ रात्रिमें सुवर्णभपूषित हाथी और रथ बिजलीसहित मेघोंके समान दिखायी दे रहे 
थे।। ३२३६ ।। 

ऋष्टिशक्तिगदाबाणमुसलप्रासपट्टिशा: ।। ३३ ।। 

सम्पतन्तो व्यदृश्यन्त भ्राजमाना इवाग्नय: । 

वहाँ चारों ओर गिरते हुए ऋष्टि, शक्ति, गदा, बाण, मूसल, प्रास और पट्टिश आदि अस्त्र 
आगके अंगारोंके समान प्रकाशित दिखायी देते थे || ३३ ३ ।। 

दुर्योधनपुरोवातां रथनागबलाहकाम्‌ ।। ३४ ।। 

वादित्रघोषस्तनितां चापविद्युद्ध्वजैर्व॒ताम्‌ । 

द्रोणपाण्डवपर्जन्यां खड्गशक्तिगदाशनिम्‌ ।। ३५ |। 

शरधारास्त्रपवनां भुशं शीतोष्णसंकुलाम्‌ । 

घोरां विस्मापनीमुग्रां जीवितच्छिदमप्लवाम्‌ ।। ३६ ।। 

तां प्राविशन्नतिभयां सेनां युद्धचिकीर्षव: । 


युद्ध करनेकी इच्छावाले सैनिकोंने उस अत्यन्त भयंकर सेनामें प्रवेश किया, जो 
मेघोंकी घटाके समान जान पड़ती थी। दुर्योधन उसके लिये पुरवैया हवाके समान था। रथ 
और हाथी बादलोंके दल थे। रणवाद्योंकी गम्भीर ध्वनि मेघोंकी गर्जनाके समान जान पड़ती 
थी। धनुष और ध्वज बिजलीके समान चमक रहे थे। द्रोणाचार्य और पाण्डव पर्जन्यका 
काम देते थे। खड़ग, शक्ति और गदाका आघात ही वज्रपात था। बाणरूपी जलकी वहाँ 
वर्षा होती थी। अस्त्र ही पवनके समान प्रतीत होते थे। सर्दी और गर्मीसे व्याप्त हुई वह 
अत्यन्त भयंकर उग्र सेना सबको विस्मयमें डालनेवाली और योद्धाओंके जीवनका उच्छेद 
करनेवाली थी। उससे पार होनेके लिये नौकास्वरूप कोई साधन नहीं था || ३४--३६ ३ || 

तस्मिन्‌ रात्रिमुखे घोरे महाशब्दनिनादिते ।। ३७ ।। 

भीरूणां त्रासजनने शूराणां हर्षवर्धने । 

महान्‌ शब्दसे मुखरित एवं भयंकर रात्रिका प्रथम पहर बीत रहा था, जो कायरोंको 
डरानेवाला और शूरवीरोंका हर्ष बढ़ानेवाला था || ३७३६ || 

रात्रियुद्धे महाघोरे वर्तमाने सुदारुणे || ३८ ।। 

द्रोणमभ्यद्रवन्‌ क्रुद्धा: सहिता: पाण्डुसृज्जया: । 

जब वह अत्यन्त भयंकर और दारुण रात्रियुद्ध चल रहा था, उस समय क्रोधमें भरे हुए 
पाण्डवों तथा सूंजयोंने द्रोणाचार्यपर एक साथ धावा किया || ३८३ || 

ये ये प्रमुखतो राजन्नावर्तन्त महारथा: ।। ३९ ।। 

तान्‌ सर्वान्‌ विमुखांक्षक्रे कांश्रिन्निन्ये यमक्षयम्‌ । 

राजन! जो-जो प्रमुख महारथी द्रोणाचार्यके सामने आये, उन सबको उन्होंने युद्धसे 
विमुख कर दिया और कितनोंको यमलोक पहुँचा दिया ।। ३९३ ।। 

तानि नागसहस्राणि रथानामयुतानि च || ४० ।। 

पदातिहयसंघानां प्रयुतान्यर्बुदानि च | 

द्रोणेनैकेन नाराचैर्निर्भिन्नानि निशामुखे || ४१ ।। 

उस प्रदोषकालमें अकेले द्रोणाचार्यने अपने नाराचोंद्वारा एक हजार हाथी, दस हजार 
रथ तथा लाखों-करोड़ों पैदल एवं घुड़सवार नष्ट कर दिये || ४०-४१ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे 
चतुष्पड्चाशदधिकशततमोड्ध्याय: ।। १५४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धविषयक एक सौ 
चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५४ ॥। 


नसजआा रत (0) आसजअन+- 


पञ्चपञ्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


द्रणोचार्यद्वारा शिबिका वध तथा भीमसेनद्वारा घुस्से और 
थप्पड़से कलिंगराजकुमारका एवं ध्रुव, जयरात तथा 
धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मदका वध 


धृतराष्ट उवाच 

तस्मिन्‌ प्रविष्टे दुर्धषे सूज्जयानमितौजसि । 

अमृष्यमाणे संरब्धे का वो5भूद्‌ वै मतिस्तदा ।। १ ।। 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! अमित तेजस्वी दुर्धर्ष वीर आचार्य द्रोणने जब रोष और 
अमर्षमें भरकर सूंजयोंकी सेनामें प्रवेश किया, उस समय तुमलोगोंकी मनोवृत्ति कैसी 
हुई? ।। 

दुर्योधन तथा पुत्रमुक्त्वा शास्त्रतिगं मम | 

यत्‌ प्राविशदमेयात्मा किं पार्थ: प्रत्यपद्यत ।। २ | 

गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले मेरे पुत्र दुर्योधनसे पूर्वोक्त बातें कहकर जब 
अमेय आत्मबलसे सम्पन्न द्रोणाचार्यने शत्रु-सेनामें पदार्पण किया, तब कुन्तीकुमार अर्जुनने 
क्या किया? ।। २ ।। 

निहते सैन्धवे वीरे भूरिश्रवसि चैव ह । 

यदाभ्यगान्महातेजा: पञ्चालानपराजित: ।। ३ ।। 

किममन्यत दुर्थर्षे प्रविष्टे शत्रुतापने । 

दुर्योधनस्तु कि कृत्यं प्राप्तकालममन्यत ।। ४ ।। 

सिंधुराज जयद्रथ तथा वीर भूरिश्रवाके मारे जानेपर अपराजित वीर महातेजस्वी 
द्रोणाचार्य जब पांचालोंकी सेनामें घुसे, उस समय शत्रुओंको संताप देनेवाले उन दुर्धर्ष 
वीरके प्रवेश कर लेनेपर दुर्योधनने उस अवसरके अनुरूप किस कार्यको मान्यता प्रदान 
की ।। ३-४ ।। 

के च तं वरदं वीरमन्वयुर्द्धिजसत्तमम्‌ | 

के चास्य पृष्ठतो5गच्छन्‌ वीरा: शूरस्य युध्यत: ।। ५ ।। 

उन वरदायक वीर विप्रवर द्रोणाचार्यके पीछे-पीछे कौन गये तथा युद्धपरायण शूरवीर 
आचार्यके पृष्ठभागमें कौन-कौन-से वीर गये? ।। ५ ।। 

के पुरस्तादवर्तन्त निध्नन्तः शात्रवान्‌ रणे । 

मन्ये5हं पाण्डवान्‌ सर्वान्‌ भारद्वाजशरार्दितान्‌ ।। ६ ।। 

शिशिरे कम्पमाना वै कृशा गाव इव प्रभो । 


रणभूमिमें शत्रुओंका संहार करते हुए कौन-कौन-से वीर आचार्यके आगे खड़े थे। 
प्रभो! मैं तो समझता हूँ, द्रोणाचार्यके बाणोंसे पीड़ित होकर समस्त पाण्डव शिशिर-ऋतुमें 
दुबली-पतली गायोंके समान थर-थर काँपने लगे होंगे ।। ६६ ।। 

प्रविश्य स महेष्वास: पञठ्चालानरिमर्दन: । 

कथं नु पुरुषव्याप्र: पञ्चत्वमुपजग्मिवान्‌ ।। ७ ।। 

शत्रुओंका मर्दन करनेवाले महाधनुर्धर पुरुषसिंह द्रोणाचार्य पांचालोंकी सेनामें प्रवेश 
करके कैसे मृत्युको प्राप्त हुए? ।। ७ ।। 

सर्वेषु योधेषु च संगतेषु 

रात्रौ समेतेषु महारथेषु । 
संलोड्यमानेषु पृथग्बलेषु 
के वस्तदानीं मतिमन्‍त आसन्‌ ।। ८ ।। 

रात्रिके समय जब समस्त योद्धा और महारथी एकत्र होकर परस्पर जूझ रहे थे और 
पृथक्‌ू-पृथक्‌ सेनाओंका मन्‍न्थन हो रहा था, उस समय तुमलोगोंमेंसे किन-किन 
बुद्धिमानोंकी बुद्धि ठिकाने रह सकी? ।। ८ ।। 

हतांश्चैव विषक्तांश्व॒ पराभूतांश्व॒ शंससि । 

रथिनो विरथांश्वैव कृतान्‌ युद्धेषु मामकान्‌ ।। ९ ।। 

तुम प्रत्येक युद्धमें मेरे रथियोंकों हताहत, पराजित तथा रथहीन हुआ बताते 
हो ।। ९ ।। 

तेषां संलोड्यमानानां पाण्डवै्हतचेतसाम्‌ । 

अन्धे तमसि मग्नानामभवत्‌ का मतिस्तदा || १० || 

जब पाण्डवोंने उन सबको मथकर अचेत कर दिया और वे घोर अन्धकारमें डूब गये, 
तब मेरे उन सैनिकोंने क्या विचार किया? ।। १० ।। 

प्रह्षटं श्वाप्युदग्रांश्व॒ संतुष्टाश्नैव पाण्डवान्‌ | 

शंससीहाप्रद्नषटंश्न विश्रष्टांश्षैव मामकान्‌ । ११ ।। 

संजय! तुम पाण्डवोंको तो हर्ष और उत्साहसे युक्त, आगे बढ़नेवाले और संतुष्ट बताते 
हो और मेरे सैनिकोंको दुःखी एवं युद्धसे विमुख बताया करते हो ।। 

कथमेषां तदा तत्र पार्थानामपलायिनाम्‌ | 

प्रकाशमभवद्‌ू रात्रौ कथं कुरुषु संजय ।। १२ ।। 

सूत! युद्धसे पीछे न हटनेवाले इन कुन्तीकुमारोंके दलमें रातके समय कैसे प्रकाश हुआ 
और कौरवदलमें भी किस प्रकार उजाला सम्भव हुआ? ।। १२ ।। 


संजय उवाच 
रात्रियुद्धे तदा राजन्‌ वर्तमाने सुदारुणे | 


द्रोणमभ्यद्रवन्‌ सर्वे पाण्डवा: सह सोमकै: ।। १३ ।। 

संजयने कहा--राजन्‌! जब वह अत्यन्त दारुण रात्रियुद्ध चलने लगा, उस समय 
सोमकोंसहित समस्त पाण्डवोंने द्रोणाचार्यपर धावा किया ।। १३ ।। 

ततो द्रोण: केकयांश्व धृष्टद्युम्नस्प चात्मजान्‌ | 

सम्प्रैषयत्‌ प्रेतलोक॑ सर्वानिषुभिराशुगै: ।। १४ ।। 

तदनन्तर द्रोणाचार्यने केकयों और धृष्टद्युम्नके समस्त पुत्रोंको अपने शीघ्रगामी 
बाणोंद्वारा यमलोक भेज दिया ।। 

तस्य प्रमुखतो राजन्‌ येडवर्तन्त महारथा: । 

तान्‌ सर्वान्‌ प्रेषयामास पितृलोक॑ स भारत ।। १५ ।। 

भरतवंशी नरेश! जो-जो महारथी उनके सामने आये, उन सबको आचार्यने पितृलोकमें 
भेज दिया ।। 

प्रमथ्नन्तं तदा वीरान्‌ भारद्वाजं महारथम्‌ | 

अभ्यवर्तत संक्रुद्ध: शिबी राजा प्रतापवान्‌ ।। १६ ।। 

इस प्रकार शत्रुवीरोंका संहार करते हुए महारथी द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये 
प्रतापी राजा शिबि क्रोधपूर्वक आये || १६ ।। 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य पाण्डवानां महारथम्‌ | 

विव्याध दशभिर्बाणै: सर्वपारशवै: शितै: ।। १७ ।। 

पाण्डवपक्षके उन महारथी वीरको आते देख आचार्यने सम्पूर्णतः लोहेके बने हुए दस 
पैने बाणोंसे उन्हें घायल कर दिया ।। १७ ।। 

तं शिबि: प्रतिविव्याध त्रिंशता निशितै: शरैः । 

सारथिं चास्य भल्लेन स्मयमानो न्‍न्यपातयत्‌ ।। १८ ।। 

तब शिबिने तीस तीखे सायकोंसे बेधकर बदला चुकाया और मुसकराते हुए उन्होंने 
एक भल्लसे उनके सारथिको मार गिराया ।। १८ ।। 

तस्य द्रोणो हयान्‌ हत्वा सारथिं च महात्मन: । 

अथास्य सशिरस्त्राणं शिर: कायादपाहरत्‌ ।। १९ ।। 

यह देख द्रोणाचार्यने भी महामना शिबिके घोड़ोंको मारकर सारथिका भी वध कर 
दिया। फिर उनके शिरस्त्राणसहित मस्तकको धड़से काट लिया ।। १९ |। 

ततोअस्य सारथिं क्षिप्रमन्यं दुर्योधनो 5दिशत्‌ । 

स तेन संगृहीताश्वः पुनरभ्यद्रवद्‌ रिपून्‌ ।। २० ।। 

तत्पश्चात्‌ दुर्योधनने द्रोणाचार्यको शीघ्र ही दूसरा सारथि दे दिया। जब उस नये सारथिने 
उनके घोड़ोंकी बागडोर सँभाली, तब उन्होंने पुन: शत्रुओंपर धावा किया ।। 

कलिज्रानामनीकेन कालिड्रस्य सुतो रणे । 

पूर्व पितृवधात्‌ क्रुद्धो भीमसेनमुपाद्रवत्‌ ।। २१ ।। 


उस रणभूमिमें कलिंगराजकुमारने कलिंगोंकी सेना साथ लेकर भीमसेनपर आक्रमण 
किया। भीमसेनने पहले उसके पिताका वध किया था। इससे उनके प्रति उसका क्रोध बढ़ा 
हुआ था | २१ |। 

स भीम॑ पज्चभिर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध सप्तभि: । 

विशोकं त्रिभिरानर्च्छद्‌ ध्वजमेकेन पत्त्रिणा ।। २२ ।। 

उसने भीमसेनको पहले पाँच बाणोंसे बेधकर पुनः सात बाणोंसे घायल कर दिया। 
उनके सारथि विशोकको उसने तीन बाण मारे और एक बाणसे उनकी ध्वजा छेद 
डाली || २२ ।। 

कलिड्लनां तु त॑ शूरं क्रुद्ध क़ुद्धो वृकोदर: । 

रथाद्‌ रथमभिद्रुत्य मुष्टिनाभिजघान ह ।। २३ ।। 

क्रोधमें भरे हुए कलिंग देशके उस शूरवीरको कुपित हुए भीमसेनने अपने रथसे उसके 
रथपर कूदकर मुक्केसे मारा || २३ ।। 

तस्य मुष्टिहतस्याजी पाण्डवेन बलीयसा । 

सर्वाण्यस्थीनि सहसा प्रापतन्‌ वै पृथक्‌ पृथक्‌ ।। २४ ।। 

युद्धस्थलमें बलवान पाण्डुपुत्रके मुक्केकी मार खाकर कलिंगराजकी सारी हड्डियाँ 
सहसा चूर-चूर हो पृथक्‌-पृथक्‌ गिर गयीं ।। २४ ।। 

तं कर्णो भ्रातरश्चास्य नामृष्यन्त परंतप । 

ते भीमसेन नाराचैर्जघ्नुराशीविषोपमै: ।। २५ ।। 

परंतप! कर्ण और उसके भाई भीमसेनके इस पराक्रमको सहन न कर सके। उन्होंने 
विषधर सर्पोंके समान विषैले नाराचोंद्वारा भीमसेनको गहरी चोट पहुँचायी ।। 

ततः शत्रुरथं त्यक्त्वा भीमो ध्रुवरथं गत: । 

ध्रुवं चास्यन्तमनिशं मुष्टिना समपोथयत्‌ ।। २६ ।। 

तदनन्तर भीमसेन शत्रुके उस रथको त्यागकर दूसरे शत्रु ध्रुवके रथपर जा चढ़े। ध्रुव 
लगातार बाणोंकी वर्षा कर रहा था। भीमसेनने उसे भी एक मुक्केसे मार गिराया || २६ ।। 

स तथा पाण्डुपुत्रेण बलिनाभिहतो5पतत्‌ | 

त॑ निहत्य महाराज भीमसेनो महाबल: ।। २७ ।। 

जयरातरथं प्राप्य मुहु: सिंह इवानदत्‌ । 

बलवान पाण्डुपुत्रके मुक्केकी चोट लगते ही वह धराशायी हो गया। महाराज! ध्रुवको 
मारकर महाबली भीमसेन जयरातके रथपर जा पहुँचे और बारंबार सिंहनाद करने 
लगे || २७३ ।। 

जयरातमथाक्षिप्य नदन्‌ सब्येन पाणिना ॥। २८ ।। 

तलेन नाशयामास कर्णस्यैवाग्रत: स्थित: । 


गर्जना करते हुए ही उन्होंने बायें हाथसे जयरातको झटका देकर उसे थप्पड़से मार 
डाला। फिर वे कर्णके ही सामने जाकर खड़े हो गये || २८३ ।। 

कर्णस्तु पाण्डवे शक्ति काज्चनीं समवासृजत्‌ ।। २९ ।। 

यतस्तामेव जग्राह प्रहसन्‌ पाण्डुनन्दन: । 

तब कर्णने पाण्डुनन्द्न भीमपर सोनेकी बनी हुई शक्तिका प्रहार किया; परंतु 
पाण्डुनन्दन भीमने हँसते हुए ही उसे हाथसे पकड़ लिया ।। २९६ ।। 

कणयिव च दुर्धर्षश्रिक्षेपाजौ वृकोदर: ।। ३० || 

तामापतन्तीं चिच्छेद शकुनिस्तैलपायिना । 

दुर्धष वीर वृकोदरने उस युद्धस्थलमें कर्णपर ही वह शक्ति चला दी; परंतु शकुनिने 
कर्णपर आती हुई शक्तिको तेल पीनेवाले बाणसे काट डाला || ३०३ ।। 

एतत्‌ कृत्वा महत्‌ कर्म रणे5द्भुतपराक्रम: ।। ३१ ।। 

पुन: स्वरथमास्थाय दुद्राव तव वाहिनीम्‌ । 

अद्भुत पराक्रमी भीमसेन रणभूमिमें यह महान्‌ पराक्रम करके पुनः अपने रथपर आ 
बैठे और आपकी सेनाको खदेड़ने लगे || ३१३ ।। 

तमायान्तं जिघांसन्तं भीम॑ क्रुद्धमिवान्तकम्‌ ।। ३२ ।। 

न्यवारयन्‌ महाबाहुं तव पुत्रा विशाम्पते । 

महता शरवर्षेण च्छादयन्तो महारथा: ।। ३३ ।। 

प्रजानाथ! क्रोधमें भरे हुए यमराजके समान महाबाहु भीमसेनको शत्रुवधकी इच्छासे 
सामने आते देख आपके महारथी पुत्रोंने बाणोंकी बड़ी भारी वर्षा करके उन्हें आच्छादित 
करते हुए रोका ॥। ३२-३३ ।। 

दुर्मदस्य ततो भीम: प्रहसन्निव संयुगे । 

सारथिं च हयांश्वैव शरैनिन्ये यमक्षयम्‌ ।। ३४ ।। 

तब युद्धस्थलमें हँसते हुए-से भीमसेनने दुर्मदके सारथि और घोड़ोंको अपने बाणोंसे 
मारकर यमलोक पहुँचा दिया ।। ३४ ।। 

दुर्मदस्तु ततो यान॑ दुष्कर्णस्यावचक्रमे । 

तावेकरथमारूढौ भ्रातरौ परतापनौ ।। ३५ ।। 

संग्रामशिरसो मध्ये भीम॑ द्वावप्यधावताम्‌ | 

यथाम्बुपतिमित्रौ हि तारकं दैत्यसत्तमम्‌ ।। ३६ ।। 

तब दुर्मद दुष्कर्णके रथपर जा बैठा। फिर शत्रुओंको संताप देनेवाले उन दोनों भाइयोंने 
एक ही रथपर आरूढ़ हो युद्धके मुहानेपर भीमसेनपर धावा किया; ठीक उसी तरह, जैसे 
वरुण और मित्रने दैत्ययाज तारकपर आक्रमण किया था || ३५-३६ ।। 

ततस्तु दुर्मदश्चैव दुष्कर्णश्व॒ तवात्मजौ | 

रथमेकं समारुह[ भीम॑ बाणैरविध्यताम्‌ ।। ३७ ।। 


तत्पश्चात्‌ आपके पुत्र दुर्मद (दुर्धर्ष) और दुष्कर्ण एक ही रथपर बैठकर भीमसेनको 
बाणोंसे घायल करने लगे ।। ३७ ।। 
तत: कर्णस्य मिषतो द्रौणेर्दुयोधनस्य च । 
कृपस्य सोमदत्तस्य बाह्लीकस्य च पाण्डव: ।। ३८ ।। 
दुर्मदस्य च वीरस्य दुष्कर्णस्य च तं रथम्‌ । 
पादप्रहारेण धरां प्रावेशयदरिंदम: ।। ३९ ।। 
तदनन्तर कर्ण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, कृपाचार्य, सोमदत्त और बाह्लीकके देखते-देखते 
शत्रुदमन पाण्डुपुत्र भीमने वीर दुर्मद और दुष्कर्णके उस रथको लात मारकर धरतीमें धँसा 
दिया ।। ३८-३९ ।। 
तत: सुतौ ते बलिनौ शूरौ दुष्कर्णदुर्मदौ । 
मुष्टिना55हत्य संक्रुद्धों ममर्द च ननर्द च ।। ४० ।। 
फिर आपके बलवान एवं शूरवीर पुत्र दुर्मद और दुष्कर्णको क्रोधमें भरे हुए भीमसेनने 
मुक्केसे मारकर मसल डाला और वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ।। ४० ।। 
ततो हाहाकृते सैन्ये दृष्टवा भीम॑ नृपाउब्रुवन्‌ 
रुद्रोडयं भीमरूपेण धार्तराष्ट्रेषु युध्यति ॥ ४१ ।। 
यह देखकर कौरव-सेनामें हाहाकार मच गया। भीमसेनको देखकर राजालोग कहने 
लगे “ये साक्षात्‌ भगवान्‌ रुद्र ही भीमसेनका रूप धारण करके धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ युद्ध कर 
रहे हैं' || ४१ ।। 
एवमुक्त्वा पलायन्ते सर्वे भारत पार्थिवा: । 
विसंज्ञा वाहयन्‌ वाहान्‌ न च द्वौ सह धावत: ।। ४२ ।। 
भारत! ऐसा कहकर सब राजा अचेत होकर अपने वाहनोंको हाँकते हुए रणभूमिसे 
पलायन करने लगे। उस समय दो व्यक्ति एक साथ नहीं भागते थे ।। 
ततो बले भृशलुलिते निशामुखे 
सुपूजितो नृपवृषभैर्वकोदर: । 
महाबल: कमलविबुद्धलोचनो 
युधिष्ठिरं नूपतिमपूजयद्‌ बली ।। ४३ ।। 
तदनन्तर रात्रिके प्रथम प्रहरमें जब कौरव-सेना अत्यन्त भयभीत हो इधर-उधर भाग 
गयी, तब श्रेष्ठ राजाओंने विकसित कमलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले महाबली भीमसेनकी 
भूरि-भूरि प्रशंसा की और बलवान भीमने राजा युधिष्ठिरका समादर किया ।। ४३ ।। 
ततो यमौ द्रुपदविराटकेकया 
युधिष्ठिरश्नापि परां मुर्दे ययु: । 
वृकोदरं भृशमनुपूजयंश्न ते 
यथान्धके प्रतिनिहते हर॑ सुरा: ।। ४४ ।। 


तत्पश्चात्‌ जैसे अन्धकासुरके मारे जानेपर देवताओंने भगवान्‌ शंकरका स्तवन और 
पूजन किया था, उसी प्रकार नकुल, सहदेव, ट्रपद, विराट, केकयराजकुमार तथा युधिष्ठिर 
भी भीमसेनकी विजयसे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने वृकोदरकी बड़ी प्रशंसा की || ४४ ।। 
ततः सुतास्ते वरुणात्मजोपमा 
रुषान्विता: सह गुरुणा महात्मना । 
वृकोदरं सरथपदातिकुणञ्जरा 
युयुत्सवो भूशमभिपर्यवारयन्‌ ।। ४५ ।। 
इसके बाद वरुणपुत्रके समान पराक्रमी आपके सभी पुत्र रोषमें भरकर युद्धकी इच्छासे 
रथ, पैदल और हाथियोंकी सेना साथ ले महात्मा गुरु द्रोणाचार्यके साथ आये और वेगपूर्वक 
भीमसेनको सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये || ४५ ।। 
(ततो यमौ द्रुपदसुता: ससैनिका 
युधिष्ठिरद्रुपदविराटसात्वता: । 
घटोत्कचो जयविजयोौ द्रुमो वृकः 
ससृञ्जयास्तव तनयानवारयन्‌ ।।) 
यह देख नकुल, सहदेव, सैनिकोंसहित द्रुपदपुत्र, युधिष्ठिर, ट्रपद, विराट, सात्यकि, 
घटोत्कच, जय, विजय, द्रुम, वृक तथा सूंजय योधाओंने आपके पुत्रोंको आगे बढ़नेसे 
रोका। 
ततो5भवत्‌ तिमिरघनैरिवावृते 
महा भये भयदमतीव दारुणम्‌ | 
निशामुखे वृकबलगृध्रमोदनं 
महात्मनां नूपवर युद्धमद्भुतम्‌ ।। ४६ ।। 
नृपश्रेष्ठ॒ फिर तो घने अन्धकारसे आवृत महाभयंकर प्रदोषकालमें उन महामनस्वी 
वीरोंका अत्यन्त दारुण, भयदायक तथा भेड़ियों, गीधों और कौवोंको आनन्दित करनेवाला 
अद्भुत युद्ध होने लगा ।। ४६ ।। 
इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे भीमपराक्रमे 
पडञ्चपञ्चाशदधिकशततमोड< ध्याय: ।। १५५ || 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
भीमसोेनका पराक्रमविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५५ ॥। 
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४७ “लोक हैं।) 


पम्प बछ। अर: अं 


षट्पज्चाशर्दाधिकशततमो< ध्याय: 


सोमदत्त और सात्यकिका युद्ध, सोमदत्तकी पराजय, 
घटोत्कच और कक अआहिणी और अभ्रृत्थामाद्वारा 
घटोत्कचके पुत्रका, एक अ राक्षससेनाका तथा 
ट्रुपदपुत्रोका वध एवं पाण्डव-सेनाकी पराजय 


सयजय उवाच 


प्रायोपविष्टे तु हते पुत्रे सात्यकिना तदा । 

सोमदत्तो भृशं क्रुद्ध: सात्यकिं वाक्यमब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! आमरण उपवासका व्रत लेकर बैठे हुए अपने पुत्र 
भूरिश्रवाके, सात्यकिद्वारा मारे जानेपर उस समय सोमदत्तको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने 
सात्यकिसे इस प्रकार कहा-- || १ ।। 

क्षत्रधर्म: पुरा दृष्टो यस्तु देवैर्महात्मभि: । 

त॑ त्वं सात्वत संत्यज्य दस्युधर्मे कथं रत: ।। २ ।। 

'सात्वत! पूर्वकालमें महात्माओं तथा देवताओंने जिस क्षत्रियधर्मका साक्षात्कार किया 
है, उसे छोड़कर तुम लुटेरोंके धर्ममें कैसे प्रवृत्त हो गये? ।। २ ।। 

पराड्मुखाय दीनाय न्यस्तशस्त्राय सात्यके । 

क्षत्रधर्मरत: प्राज्ञ: कथं नु प्रहरेद्‌ रणे || ३ ।। 

'सात्यके! जो युद्धसे विमुख एवं दीन होकर हथियार डाल चुका हो, उसपर रणभूमिमें 
क्षत्रियधर्मपरायण दिद्वान्‌ पुरुष कैसे प्रहार कर सकता है? ।। ३ ।। 

द्वावेव किल वृष्णीनां तत्र ख्यातौ महारथौ । 

प्रद्युम्नश्च महाबाहुस्त्वं चैव युधि सात्वत ।। ४ ।। 

'सात्वत! वृष्णिवंशियोंमें दो ही महारथी युद्धके लिये विख्यात हैं। एक तो महाबाहु 
प्रद्यम्न और दूसरे तुम ।। ४ ।। 

कथं प्रायोपविष्टाय पार्थेन छिन्नबाहवे । 

नृशंसं पतनीयं च तादृशं॑ कृतवानसि ।। ५ ।। 

'अर्जुनने जिसकी बाँह काट डाली थी तथा जो आमरण अनशनका निश्चय लेकर बैठा 
था, उस मेरे पुत्रपर तुमने वैसा पतनकारक क्रूर प्रहार क्यों किया? ।। ५ ।। 

कर्मणस्तस्य दुर्वत्त फल प्राप्रुहि संयुगे । 

अद्य च्छेत्स्यामि ते मूढ शिरो विक्रम्य पत्रिणा ।। ६ ।। 


'ओ दुराचारी मूर्ख! उस पापकर्मका फल तुम इस युद्धस्थलमें ही प्राप्त करो। आज मैं 
पराक्रम करके एक बाणसे तुम्हारा सिर काट डालूँगा' ।। ६ ।। 

शपे सात्वत पुत्राभ्यामिष्टेन सुकृतेन च । 

अनतीतामिमां रात्रि यदि त्वां वीरमानिनम्‌ ।। ७ ।। 

अरक्ष्यमाणं पार्थेन जिष्णुना ससुतानुजम्‌ । 

न हन्यां नरके घोरे पतेयं वृष्णिपांसन ।। ८ ।। 

*वृष्णिकुलकलंक सात्वत! मैं अपने दोनों पुत्रोंकी तथा यज्ञ और पुण्यकर्मोकी शपथ 
खाकर कहता हूँ कि यदि आज रात्रि बीतनेके पहले ही कुन्तीपुत्र अर्जुनसे अरक्षित रहनेपर 
अपनेको वीर माननेवाले तुम्हें पुत्रों और भाइयोंसहित न मार डालूँ तो घोर नरकमें पड़ूँ ।। 

एवमुक्‍्त्वा सुसंक्रुद्ध: सोमदत्तो महाबल: । 

दध्मौ शड़्खं च तारेण सिंहनादं ननाद च ।। ९ ।। 

ऐसा कहकर महाबली सोमदत्तने अत्यन्त कुपित हो उच्चस्वरसे शंख बजाया और 
सिंहनाद किया ।। ९ ।। 

ततः कमलपत्राक्ष: सिंहदंष्टो दुरासद: । 

सात्यकिर्भुशसंक्रुद्ध: सोमदत्तमथाब्रवीत्‌ ।। १० ।। 

तब कमलके समान नेत्र और सिंहके सदृश दाँतवाले दुर्धर्ष वीर सात्यकि भी अत्यन्त 
कुपित हो सोमदत्तसे इस प्रकार बोले-- ।। १० ।। 

कौरवेय न मे त्रास: कथंचिदपि विद्यते । 

त्वया सार्थमथान्यैश्न युध्यतो हृदि कश्नन ।। ११ ।। 

“कौरवेय! तुम्हारे या किसी दूसरेके साथ युद्ध करते समय मेरे हृदयमें किसी तरह भी 
कोई भय नहीं होगा ।। 

यदि सर्वेण सैन्येन गुप्तो मां योधयिष्यसि । 

तथापि न व्यथा काचित्‌ त्वयि स्यान्मम कौरव ।। १२ ।। 

“कौरव! यदि सारी सेनासे सुरक्षित होकर तुम मेरे साथ युद्ध करोगे तो भी तुम्हारे 
कारण मुझे कोई व्यथा नहीं होगी ।। १२ ।। 

युद्धसारेण वाक्येन असतां सम्मतेन च | 

नाहं भीषयितुं शक्‍्य: क्षत्रवृत्ते स्थितस्त्वया ।। १३ ।। 

“मैं सदा क्षत्रियोचित आचारमें स्थित हूँ। युद्ध ही जिसका सार है तथा दुष्ट पुरुष ही 
जिसे आदर देते हैं; ऐसे कटुवाक्यसे तुम मुझे डरा नहीं सकते ।। १३ ।। 

यदि ते<स्ति युयुत्साद्य मया सह नराधिप । 

निर्दयो निशितैर्बाणै: प्रहर प्रहरामि ते ।। १४ ।। 

नरेश्वर! यदि मेरे साथ तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा है तो निर्दयतापूर्वक पैने बाणोंद्वारा 
मुझपर प्रहार करो। मैं भी तुमपर प्रहार करूँगा ।। १४ ।। 


हतो भूरिश्रवा वीरस्तव पुत्रो महारथ: । 

शलश्चैव महाराज भ्रातृव्यसनकर्षित: ।। १५ ।। 

“महाराज! तुम्हारा वीर महारथी पुत्र भूरिश्रवा मारा गया। भाईके दुःखसे दुःखी होकर 
शल भी वीरगतिको प्राप्त हुआ है ।। १५ ।। 

त्वां चाप्यद्य वधिष्यामि सहपुत्रं सबान्धवम्‌ । 

तिष्ठेदानीं रणे यत्त: कौरवो5सि महारथ: ।। १६ ।। 

“अब पुत्रों और बान्धवोंसहित तुम्हें भी मार डालूँगा। तुम कुरुकुलके महारथी वीर हो। 
इस समय रणभूमिमें सावधान होकर खड़े रहो ।। १६ ।। 

यस्मिन्‌ दानं दम: शौचमहिंसा ह्वीर्धति: क्षमा । 

अनपायानि सर्वाणि नित्यं राज्ञि युधिष्ठिरे | १७ ।। 

मृदड़केतोस्तस्य त्वं तेजसा निहत: पुरा । 

सकर्णसौबल: संख्ये विनाशमुपयास्यसि ।॥। १८ ।। 

“जिन महाराज युधिष्ठिरमें दान, दम, शौच, अहिंसा, लज्जा, धृति और क्षमा आदि सारे 
सदगुण अविनश्वरभावसे सदा विद्यमान रहते हैं, अपनी ध्वजामें मृदंगका चिह्न धारण 
करनेवाले उन्हीं धर्मराजके तेजसे तुम पहले ही मर चुके हो। अत: कर्ण और शकुनिके साथ 
ही इस युद्धस्थलमें तुम विनाशको प्राप्त होओगे ।। १७-१८ ।। 

शपे<हं कृष्णचरणैरिष्टपूर्तेन चैव ह । 

यदि त्वां ससुतं पाप॑ं न हन्यां युधि रोषित: ।। १९ ।। 

“मैं श्रीकृष्णके चरणों तथा अपने इष्टापूर्तकर्मोकी शपथ खाकर कहता हूँ कि यदि मैं 
युद्धमें क्ुद्ध होकर तुम-जैसे पापीको पुत्रोंसहित न मार डालूँ तो मुझे उत्तम गति न 
मिले || १९ |। 


अपयास्यसि चेत्युक्त्वा रणं॑ मुक्तो भविष्यसि । 
एवमाभाष्य चान्योन्यं क्रोधसंरक्तलोचनौ ।। २० |।। 
प्रवृत्ती शरसम्पातं कर्तु पुरुषसत्तमौ | 


“यदि तुम उपर्युक्त बातें कहकर भी युद्ध छोड़कर भाग जाओगे तभी मेरे हाथसे 
छुटकारा पा सकोगे।” परस्पर ऐसा कहकर क्रोधसे लाल आँखें किये उन दोनों नरश्रेष्ठ 
वीरोंने एक-दूसरेपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी || २०३ ।। 

ततो रथसहस्रेण नागानामयुतेन च ।। २१ ।। 

दुर्योधन: सोमदत्तं परिवार्य समन्तत: । 

तदनन्तर दुर्योधन एक हजार रथों और दस हजार हाथियोंद्वारा सोमदत्तको चारों 
ओरसे घेरकर उनकी रक्षा करने लगा || २१६ ।। 

शकुनिश्च सुसंक्रुद्धः सर्वशस्त्रभूृतां वर: ।। २२ ।। 

पुत्रपौत्रै: परिवृतो भ्रातृभिश्रेन्द्रविक्रमै: । 


स्यालस्तव महाबाहुर्वजसंहननो युवा ।। २३ ।। 

समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ और वज्रके समान सुदृढ़ शरीरवाला आपका नवयुवक 
साला महाबाहु शकुनि भी अत्यन्त कुपित हो इन्द्रके समान पराक्रमी भाइयों तथा पुत्र- 
पौत्रोंसे घिरकर वहाँ आ पहुँचा | २२-२३ ।। 

साग्रं शतसहस्र॑ तु हयानां तस्य धीमत: । 

सोमदत्तं महेष्वासं समन्तात्‌ पर्यरक्षत ।। २४ ।। 

बुद्धिमान शकुनिके एक लाखसे अधिक घुड़सवार महाधनुर्धर सोमदत्तकी सब ओरसे 
रक्षा करने लगे || २४ ।। 

रक्ष्यमाणश्न बलिभिश्छादयामास सात्यकिम्‌ । 

त॑ छाद्यमानं विशिखैर्दृष्टवा संनतपर्वभि: ।॥ २५ ।। 

धृष्टद्युम्नो5 भ्ययात्‌ क्रुद्ध: प्रगृह्ा महतीं चमूम्‌ । 

बलवान्‌ सहायकोंसे सुरक्षित हो सोमदत्तने अपने बाणोंसे सात्यकिको आच्छादित कर 
दिया। झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे सात्यकिको आच्छादित होते देख क्रोधमें भरे हुए 
धृष्टद्युम्म विशाल सेना साथ लेकर वहाँ आ पहुँचे || २५३ ।। 

चण्डवाताभिसृष्टानामुदधीनामिव स्वन: ।। २६ ।। 

आसीदू राजन्‌ बलौघानामन्योन्यमभिनिध्नताम्‌ । 

राजन! उस समय परस्पर प्रहार करनेवाली सेनाओंका कोलाहल प्रचण्ड वायुसे 
विक्षुब्ध हुए समुद्रोंकी गर्जनाके समान प्रतीत होता था || २६६ ।। 

विव्याध सोमदत्तस्तु सात्वतं नवभि: शरै: | २७ ।। 

सात्यकिर्नवभिश्वैनमवधीत्‌ कुरुपुड़्वम्‌ । 

सोमदत्तने सात्यकिको नौ बाणोंसे बींध डाला। फिर सात्यकिने भी कुरुश्रेष्ठ सोमदत्तको 
नौ बाणोंसे घायल कर दिया ।। २७३ ।। 

सो5तिविद्धो बलवता समरे दृढ्धन्विना || २८ ।। 

रथोपस्थं समासाद्य मुमोह गतचेतन: । 

सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले बलवान सात्यकिके द्वारा समरभूमिमें अत्यन्त घायल 
किये जानेपर सोमदत्त रथकी बैठकमें जा बैठे और सुध-बुध खोकर मूर्च्छित हो गये || २८ 
न] 

त॑ विमूढं समालक्ष्य सारथिस्त्वरया युत: ।। २९ |। 

अपोवाह रणाद्‌ वीरं सोमदत्तं महारथम्‌ | 

तब महारथी वीर सोमदत्तको मूर्छित हुआ देख सारथि बड़ी उतावलीके साथ उन्हें 
रणभूमिसे दूर हटा ले गया | २९३ ।। 

तं विसंज्ञं समालक्ष्य युयुधानशरार्दितम्‌ ।। ३० ।। 


अभ्यद्रवत्‌ ततो द्रोणो यदुवीरजिघांसया । 

सोमदत्तको युयुधानके बाणोंसे पीड़ित एवं अचेत हुआ देख द्रोणाचार्य यदुवीर 
सात्यकिका वध करनेकी इच्छासे उनकी ओर दौड़े || ३०६ ।। 

तमायान्तमभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरपुरोगमा: ।। ३१ ।। 

परिवत्र॒ुर्महात्मानं परीप्सन्तो यदूत्तमम्‌ । 

द्रोणाचार्यकी आते देख युधिष्ठिर आदि पाण्डववीर यदुकुलतिलक महामना 
सात्यकिकी रक्षाके लिये उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये | ३१६ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध द्रोणस्प सह पाण्डवै: ।। ३२ ।। 

बलेरिव सुरै: पूर्व त्रलोक्यजयकाड्क्षया । 

जैसे पूर्वकालमें त्रिलोकीपर विजय पानेकी इच्छासे राजा बलिका देवताओंके साथ 
युद्ध हुआ था, उसी प्रकार द्रोणाचार्यका पाण्डवोंके साथ घोर संग्राम आरम्भ हुआ ।। ३२ $ 

|| 

तत: सायकजालेन पाण्डवानीकमावृणोत्‌ ॥। ३३ ।। 

भारद्वाजो महातेजा विव्याध च युधिष्ठिरम्‌ । 

तत्पश्चात्‌ महातेजस्वी द्रोणाचार्यने अपने बाणसमूहसे पाण्डव-सेनाको आच्छादित कर 
दिया और युधिष्ठटिरको बींध डाला ।। ३३ ३ || 

सात्यकिं दशभिर्बाणैविशत्या पार्षतं शरै: ।। ३४ ।। 

भीमसेनं च नवभिनर्नकुलं पञ्चभिस्तथा । 

सहदेवं तथाष्टाभि: शतेन च शिखण्डिनम्‌ | ३५ ।। 

द्रौपदेयान्‌ महाबाहुः पञ्चभि: पठ्चभि: शरै: । 

विराट मत्स्यमष्टाभिर्दुपद॑ दशभि: शरै: ।। ३६ ।। 

युधामन्यु त्रिभि: षड़भिरुत्तमौजसमाहवे । 

अन्यांश्व सैनिकान्‌ विद्ध्वा युधिष्ठटिरमुपाद्रवत्‌ ।। ३७ ।। 

फिर महाबाहु द्रोणने सात्यकिको दस, धृष्टद्युम्मनको बीस, भीमसेनको नौ, नकुलको 
पाँच, सहदेवको आठ, शिखण्डीको सौ, द्रौपदी-पुत्रोंको पाँच-पाँच, मत्स्यराज विराटको 
आठ, ट्रुपदको दस, युधामन्युको तीन, उत्तमौजाको छः तथा अन्य सैनिकोंको अन्यान्य 
बाणोंसे घायल करके युद्धस्थलमें राजा युधिष्ठिरपर आक्रमण किया ।। 

ते वध्यमाना द्रोणेन पाण्डुपुत्रस्य सैनिका: । 

प्राद्रवन्‌ वै भयाद्‌ राजन्‌ सार्तनादा दिशो दश ॥। ३८ ।। 

राजन! द्रोणाचार्यकी मार खाकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके सैनिक आर्तनाद करते हुए 
भयके मारे दसों दिशाओंमें भाग गये ।। ३८ ।। 

काल्यमान तु तत्‌ सैन्यं दृष्टवा द्रोणेन फाल्गुन: । 

किंचिदागतसंरम्भो गुरु पार्थो3 भ्ययाद्‌ द्रुतम्‌ ।। ३९ ।। 


द्रोणाचार्यके द्वारा पाण्डव-सेनाका संहार होता देख कुन्तीकुमार अर्जुनके हृदयमें कुछ 
क्रोध हो आया। वे तुरंत ही आचार्यका सामना करनेके लिये चल दिये ।। 

दृष्टवा द्रोणं तु बीभत्सुमभिधावन्तमाहवे । 

संन्यवर्तत तत्‌ सैन्यं पुनर्योधिष्ठिरे बलम्‌ ।। ४० ।। 

अर्जुनको युद्धमें द्रोणाचार्यपर धावा करते देख युधिष्ठिरकी सेना पुनः: वापस लौट 
आयी ।। ४० ।। 

ततो युद्धम भूद्‌ भूयो भारद्वाजस्य पाण्डवै: । 

द्रोणस्तव सुतै राजन्‌ सर्वतः परिवारित: ।। ४१ ।। 

व्यधमत्‌ पाण्डुसैन्यानि तूलराशिमिवानल: । 

राजन्‌! तदनन्तर भरद्वाजनन्दन द्रोणका पाण्डवोंके साथ पुनः युद्ध आरम्भ हुआ। 
आपके पुत्रोंने द्रोणाचार्यको सब ओरसे घेर रखा था। जैसे आग रूईके ढेरको जला देती है, 
उसी प्रकार वे पाण्डव-सेनाको तहस-नहस करने लगे ।। ४१६ ।। 

तं॑ ज्वलन्तमिवादित्यं दीप्तानलसमद्युतिम्‌ ।। ४२ ।। 

राजन्ननिशमत्यन्तं दृष्टवा द्रोणं शरार्चिषम्‌ । 

मण्डलीकृतथन्वानं तपन्तमिव भास्करम्‌ ।। ४३ ।। 

दहन्तमहितान्‌ सैन्ये नैनं कश्चिदवारयत्‌ । 

नरेश्वर! प्रजजलित अग्निके समान कान्तिमान्‌ तथा निरन्तर बाणरूपी किरणोंसे युक्त 
सूर्यके समान अत्यन्त प्रकाशित होनेवाले द्रोणाचार्यको धनुषको मण्डलाकार करके तपते 
हुए प्रभाकरके समान शत्रुओंको दग्ध करते देख पाण्डव-सेनामें कोई वीर उन्हें रोक न 
सका || ४२-४३ $ || 

यो यो हि प्रमुखे तस्य तस्थौ द्रोणस्य पूरुष: || ४४ ।। 

तस्य तस्य शिरकश्शकछित्त्वा ययुद्रोणशरा:क्षितिम्‌ 

जो-जो योद्धा पुरुष द्रोणाचार्यके सामने खड़ा होता, उसी-उसीका सिर काटकर 
द्रोणाचार्यके बाण धरतीमें समा जाते थे || ४४ ई || 

एवं सा पाण्डवी सेना वध्यमाना महात्मना ॥। ४५ || 

प्रदुद्राव पुनर्भीता पश्यत: सव्यसाचिन: । 

इस प्रकार महात्मा द्रोणके द्वारा मारी जाती हुई पाण्डव-सेना पुन: भयभीत हो 
सव्यसाची अर्जुनके देखते-देखते भागने लगी ।। ४५३ ।। 

सम्प्रभग्नं बल॑ दृष्टवा द्रोणेन निशि भारत ।। ४६ ।। 

गोविन्दमब्रवीज्जिष्णुर्गच्छ द्रोणरथं प्रति । 

भरतनन्दन! रातमें द्रोणाचार्यके द्वारा अपनी सेनाको भगायी हुई देख अर्जुनने 
श्रीकृष्णससे कहा--'आप द्रोणाचार्यके रथके समीप चलिये' ।। ४६३ ।। 


ततो रजततगोक्षीरकुन्देन्दुसदृशप्रभान्‌ ।। ४७ ।। 

चोदयामास दाशा्हों हयान्‌ द्रोणरथं प्रति । 

तब दशा्हकुलनन्दन श्रीकृष्णने चाँदी, गोदुग्ध, कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमाके समान श्वेत 
कान्तिवाले घोड़ोंको द्रोणाचार्यके रथकी ओर हाँका || ४७३ ।। 

भीमसेनोडपि त॑ दृष्टवा यान्तं द्रोणाय फाल्गुनम्‌ ।। ४८ ।। 

स्वसारथिमुवाचेदं द्रोणानीकाय मा वह । 

अर्जुनको द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये जाते देख भीमसेनने भी अपने सारथिसे 
कहा--'तुम द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर मुझे ले चलो” ।। ४८ ६ ।। 

सो<पि तस्य वच: श्रुत्वा विशोकोडवाहयद्धयान्‌ ।। ४९ ।। 

पृष्ठत: सत्यसंधस्य जिष्णोर्भरतसत्तम । 

भरतश्रेष्ठ] उनके सारथि विशोकने उनकी बात सुनकर सत्यप्रतिज्ञ अर्जुनके पीछे अपने 
घोड़ोंको बढ़ाया || ४९६ ।। 

तौ दृष्टवा भ्रातरौ यत्तौ द्रोणानीकमभिद्रुती ।। ५० ।। 

पज्चाला: सृज्जया: मत्स्याश्वनेदिकारूषकोसला: । 

अन्वगच्छन्‌ महाराज केकयाश्न महारथा: ।। ५१ ।। 

महाराज! उन दोनों भाइयोंको द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर युद्धके लिये उद्यत होकर 
जाते देख पांचाल, सूंजय, मत्स्य, चेदि, कारूष, कोसल तथा केकय महारथियोंने भी 
उन्हींका अनुसरण किया ।। ५०-५१ ।। 

ततो राजन्नभूद्‌ घोर: संग्रामो लोमहर्षण: । 

बीभस्सुर्दक्षिणं पार्श्वमुत्तरं च वृकोदर: ।। ५२ ।। 

महद्भयां रथवृन्दाभ्यां बल॑ जगृहतुस्तव । 

राजन! फिर तो वहाँ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घोर संग्राम आरम्भ हो गया। अर्जुनने 
द्रोणाचार्यकी सेनाके दक्षिण-भागको और भीमसेनने वामभागको अपना लक्ष्य बनाया। उन 
दोनों भाइयोंके साथ विशाल रथ तथा सेनाएँ थीं || ५२६ ।। 

तौ दृष्टवा पुरुषव्याप्रौ भीमसेनधनंजयौ ।। ५३ ।। 

धृष्टद्युम्नो5 भ्ययाद्‌ राजन्‌ सात्यकिश्न महाबल: । 

राजन! पुरुषसिंह भीमसेन और अर्जुनको द्रोणाचार्यपर धावा करते देख धृष्टद्युम्न और 
महाबली सात्यकि भी वहीं जा पहुँचे ।। ५३ | ।। 

चण्डवाताभिपन्नानामुदधीनामिव स्वन: ।। ५४ ।। 

आसीद्‌ू राजन्‌ बलौघानां तदान्योन्यमभिध्नताम्‌ | 

महाराज! उस समय परस्पर आघात-प्रतिघात करते हुए उन सैन्यसमूहोंका कोलाहल 
प्रचण्ड वायुसे विक्षुब्ध हुए समुद्रकी गर्जनाके समान प्रतीत होता था || ५४ ६ ।। 


सौमदत्तिवधात्‌ क्रुद्धों दृष्टया सात्यकिमाहवे ।। ५५ ।। 

द्रौणिरभ्यद्रवद्‌ राजन्‌ वधाय कृतनिश्चय: । 

नरेश्वर! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा सोमदत्तकुमार भूरिश्रवाके वधसे अत्यन्त कुपित हो उठा 
था। उसने युद्धस्थलमें सात्यकिको देखकर उनके वधका दृढ़ निश्चय करके उनपर आक्रमण 
किया || ५५३ || 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य शैनेयस्य रथं प्रति । ५६ ।। 

भैमसेनि: सुसंक्रुद्धः प्रत्यमित्रमवारयत्‌ । 

अश्वत्थामाको शिनिपौत्रके रथकी ओर जाते देख अत्यन्त कुपित हुए भीमसेनके पुत्र 
घटोत्कचने अपने उस शत्रुको रोका || ५६३ || 

कार्ष्णायसं महाघोरमृक्षचर्मपरिच्छदम्‌ ।। ५७ ।। 

महान्तं रथमास्थाय त्रिंशन्नल्वान्तरान्तरम्‌ । 

विक्षिप्तयन्त्रसंनाहं महामेघौघनि:स्वनम्‌ ।। ५८ ।। 

युक्त गजनिभेर्वाहैर्न हयैर्नापि वारणै: । 

विक्षिप्तपक्षचरणविवृताक्षेण कूजता ।। ५९ ।। 

ध्वजेनोच्छितदण्डेन गृध्रराजेन राजितम्‌ । 

लोहितार्द्रपताकं तु अन्त्रमालाविभूषितम्‌ ।। ६० ।। 

घटोत्कच जिस विशाल रथपर बैठकर आया था, वह काले लोहेका बना हुआ और 
अत्यन्त भयंकर था। उसके ऊपर रीछकी खाल मढ़ी हुई थी। उसके भीतरी भागकी लंबाई- 
चौड़ाई तीस नल्व- (बारह हजार हाथ) थी। उसमें यन्त्र और कवच रखे हुए थे। चलते 
समय उससे मेघोंकी भारी घटाके समान गम्भीर शब्द होता था। उसमें हाथी-जैसे 
विशालकाय वाहन जुते हुए थे, जो वास्तवमें न घोड़े थे और न हाथी। उस रथकी ध्वजाका 
डंडा बहुत ऊँचा था। वह ध्वज पंख और पंजे फैलाकर आँखें फाड़-फाड़कर देखने और 
कूजनेवाले एक गृध्रराजसे सुशोभित था। उसकी पताका खूनसे भीगी हुई थी और उस 
रथको आँतोंकी मालासे विभूषित किया गया था || ५७--६० ।। 

अष्टचक्रसमायुक्तमास्थाय विपुलं रथम्‌ | 

शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया ।। ६१ ।। 

रक्षसां घोररूपाणामक्षौहिण्या समावृत: । 

ऐसे आठ पहियोंवाले विशाल रथपर बैठा हुआ घटोत्कच भयंकर रूपवाले राक्षसोंकी 
एक अक्षौहिणी सेनासे घिरा हुआ था। उस समस्त सेनाने अपने हाथोंमें शूल, मुद्गर, पर्वत- 
शिखर और वृक्ष ले रखे थे ।। ६१ है ।। 

तमुद्यतमहाचापं निशम्य व्यथिता नृपा: ।। ६२ ।। 

युगान्तकालसमये दण्डहस्तमिवान्तकम्‌ | 


प्रलयकालमें दण्डधारी यमराजके समान विशाल धनुष उठाये घटोत्कचको देखकर 
समस्त राजा व्यथित हो उठे || ६२ ई ।। 

ततस्तं गिरिशुद्भाभं भीमरूपं भयावहम्‌ ।। ६३ ।। 

दंष्टाकरालोग्रमुखं शड्कुकर्ण महाहनुम्‌ । 

ऊर्ध्वकेशं विरूपाक्ष॑ दीप्तास्यं निम्नितोदरम्‌ ।। ६४ ।। 

महाश्व॒ भ्रगलद्वारं किरीटच्छन्नमूर्थजम्‌ । 

त्रासनं सर्वभूतानां व्यात्तानममिवान्तकम्‌ ।। ६५ ।। 

वीक्ष्य दीप्तमिवायान्तं रिपुविक्षो भकारिणम्‌ | 

तमुद्यतमहाचापं राक्षसेन्द्रं घटोत्कचम्‌ ।। ६६ ।। 

भयार्दिता प्रचुक्षोभ पुत्रस्य तव वाहिनी । 

वायुना क्षोभितावर्ता गड्जेवोर्ध्वतरक्षलिणी ।। ६७ ।। 

वह देखनेमें पर्वत-शिखरके समान जान पड़ता था। उसका रूप भयानक होनेके 
कारण वह सबको भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बड़ा भीषण था; किंतु 
दाढ़ोंक कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूँटेके समान जान 
पड़ते थे। ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। बाल ऊपरकी ओर उठे हुए थे। आँखें डरावनी थीं। मुख 
आगके समान प्रज्वलित था, पेट भीतरकी ओर धँसा हुआ था। उसके गलेका छेद बहुत बड़े 
गड़्ढेके समान जान पड़ता था। सिरके बाल किरीटसे ढके हुए थे। वह मुँह बाये हुए 
यमराजके समान समस्त प्राणियोंके मनमें त्रास उत्पन्न करनेवाला था। शत्रुओंको क्षुब्ध कर 
देनेवाले प्रजजलित अग्निके समान राक्षसराज घटोत्कचको विशाल धनुष उठाये आते देख 
आपके पुत्रकी सेना भयसे पीड़ित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायुसे विक्षुब्ध हुई गंगामें 
भयानक भँवरें और ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही हों || ६३--६७ ।। 

घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिता: । 

प्रसुखरुवुर्गजा मूत्र विव्यथुश्न नरा भूशम्‌ ।। ६८ ।। 

घटोत्कचके द्वारा किये हुए सिंहनादसे भयभीत हो हाथियोंके पेशाब झड़ने लगे और 
मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे || ६८ ।। 

ततो<श्मवृष्टिरत्यर्थमासीत्‌ तत्र समन्ततः । 

संध्याकालाधिकबलेै: प्रयुक्ता राक्षसै: क्षितो ।। ६९ ।। 

तदनन्तर उस रणभूमिमें चारों ओर संध्याकालसे ही अधिक बलवान हुए राक्षसोंद्वारा 
की हुई पत्थरोंकी बड़ी भारी वर्षा होने लगी || ६९ ।। 

आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्य: प्रासतोमरा: । 

पतन्त्यविरता: शूला: शतघ्न्य: पट्टिशास्तथा ।। ७० || 

लोहेके चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र अविराम 
गतिसे गिरने लगे || ७० ।। 


तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्टवा युद्ध नराधिपा: । 

तनयास्तव कर्णश्न व्यथिता: प्राद्रवन्‌ दिश: || ७१ ।। 

उस अत्यन्त भयंकर और उग्र संग्रामको देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण 
--ये सभी पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये || ७१ ।। 

तत्रैको<स्त्रबलश्लाघी दौणिर्मानी न विव्यथे | 

व्यधमच्च शरैर्मायां घटोत्कचविनिर्मिताम्‌ ।। ७२ ।। 

उस समय वहाँ अपने अस्त्र-बलपर अभिमान करनेवाला एकमात्र द्रोणकुमार 
स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। उसने घटोत्कचकी रची हुई माया 
अपने बाणोंद्वारा नष्ट कर दी ।। ७२ ।। 

विहतायां तु मायायाममर्षी स घटोत्कच: । 

विससर्ज शरान्‌ घोरांस्ते5श्वत्थामानमाविशन्‌ ।। ७३ ।। 

माया नष्ट हो जानेपर अमर्षमें भरे हुए घटोत्कचने बड़े भयंकर बाण छोड़े। वे सभी 
बाण अभश्वृत्थामाके शरीरमें घुस गये || ७३ ।। 

भुजज़ा इव वेगेन वल्मीकं क्रोधमूर्च्छिता: । 

ते शरा रुधिराक्ताज़ा भिनत्त्वा शारद्वतीसुतम्‌ ।। ७४ ।। 

विविशुर्धरणीं शीघ्रा रुक्मपुड्खा: शिलाशिता: । 

जैसे क्रोधातुर सर्प बड़े वेगसे बाँबीमें घुसते हैं, उसी प्रकार शिलापर तेज किये हुए वे 
सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमारको विदीर्ण करके खूनसे लथपथ हो धरतीमें 
घुस गये || ७४ ३ ।। 

अश्वत्थामा तु संक़रुद्धो लघुहस्त: प्रतापवान्‌ ।। ७५ ।। 

घटोत्कचमभिक्रुद्धं बिभेद दशभि: शरै: | 

इससे अभश्वत्थामाका क्रोध बहुत बढ़ गया। फिर तो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले उस 
प्रतापी वीरने क्रोधी घटोत्कचको दस बाणोंसे घायल कर दिया || ७५३ || 

घटोत्कचो5तिविद्धस्तु द्रोणपुत्रेण मर्मसु | ७६ ।। 

चक्रं शतसहस्रारमगृह्नाद्‌ व्यथितो भृशम्‌ | 

क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिवजविभूषितम्‌ ।। ७७ ।। 

द्रोणपुत्रके द्वारा मर्मस्थानोंमें गहरी चोट लगनेके कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो 
उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथमें लिया, जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभागमें 
छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरोंसे विभूषित वह चक्र प्रातःकालके सूर्यके समान जान 
पड़ता था ।। ७६-७७ || 

अश्रत्थाम्नि च चिक्षेप भैमसेनिर्जिघांसया । 

वेगेन महता55गच्छद्‌ विक्षिप्तं द्रौणिना शरै: ।। ७८ ।। 

अभाग्यस्येव संकल्पस्तन्मोघमपतद्‌ भुवि । 


भीमसेनकुमारने अश्वत्थामाका वध करनेकी इच्छासे वह चक्र उसके ऊपर चला दिया, 
परंतु अश्वत्थामाने अपने बाणोंद्वारा बड़े वेगसे आते हुए उस चक्रको दूर फेंक दिया। वह 
भाग्यहीनके संकल्प (मनोरथ)-की भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा || ७८ $ || 

घटोत्कचस्ततस्तूर्ण दृष्टवा चक्रं निपातितम्‌ ।। ७९ ।। 

दौ्णिं प्राच्छादयद्‌ बाणै: स्वर्भानुरिव भास्करम्‌ | 

तदनन्तर अपने चक्रको धरतीपर गिराया हुआ देख घटोत्कचने अपने बाणोंकी वर्षासे 
अश्व॒त्थामाको उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहु सूर्यको आच्छादित कर देता है ।। 

घटोत्कचसुत: श्रीमान्‌ भिन्नाउजनचयोपम: ।। ८० ।। 

रुरोध द्रौणिमायान्तं प्रभञ्जनमिवाद्रिराट्‌ । 

घटोत्कचके तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वाने, जो कटे हुए कोयलेके ढेरके समान काला था, 
अपनी ओर आते हुए अअभश्वत्थामाको उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय 
आँधीको रोक देता है || ८०६ ।। 

पौत्रेण भीमसेनस्थ शरैरञ्जनपर्वणा ।। ८१ ।। 

बभौ मेघेन धाराभिर्गिरिमेंरुरिवावृत: । 

भीमसेनके पौत्र अंजनपर्वाके बाणोंसे आच्छादित हुआ अभश्व॒त्थामा मेघकी जलधारासे 
आवृत हुए मेरुपर्वतके समान सुशोभित हो रहा था ।। ८१६ ।। 

अभश्र॒त्थामा त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रम: ।। ८२ ।। 

ध्वजमेकेन बाणेन चिच्छेदाज्जनपर्वण: । 

रुद्र, विष्णु तथा इन्द्रके समान पराक्रमी अश्वत्थामाके मनमें तनिक भी घबराहट नहीं 
हुई। उसने एक बाणसे अंजनपर्वाकी ध्वजा काट डाली ।। ८२६ ।। 

द्वाभ्यां तु रथयन्तारौ त्रिभिश्वास्य त्रिवेणुकम्‌ ।। ८३ ।। 

धनुरेकेन चिच्छेद चतुर्भिश्चतुरो हयान्‌ 

फिर दो बाणोंसे उसके दो सारथियोंको, तीनसे त्रिवेणुकी, एकसे धनुषको और चारसे 
चारों घोड़ोंको काट डाला || ८३६ ।। 

विरथस्योद्यतं हस्ताद्धेमबिन्दुभिराचितम्‌ ।। ८४ ।। 

विशिखेन सुतीक्ष्णेन खड्गमस्य द्विधाकरोत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ रथहीन हुए राक्षसपुत्रके हाथसे उठे हुए सुवर्ण-बिन्दुओंसे व्याप्त खड्गको 
उसने एक तीखे बाणसे मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये ।। ८४३ ।। 

गदा हेमाड्दा राजंस्तूर्ण हैडिम्बिसूनुना ।। ८५ ।। 

भ्राम्योत्क्षिप्ता शरै: सा5पि द्रौणिनाभ्याहता5पतत्‌ । 


राजन! तब घटोत्कचपुत्रने तुरंत ही सोनेके अंगदसे विभूषित गदा घुमाकर 
अश्वृत्थामापर दे मारी; परंतु अश्वत्थामाके बाणोंसे आहत होकर वह भी पृथ्वीपर गिर 
पड़ी ।। ८५३ || 

ततो&न्‍्तरिक्षमुत्प्लुत्य कालमेघ इवोन्नदन्‌ ।। ८६ ।। 

ववर्षञ्जनपर्वा स द्रुमवर्ष नभस्तलात्‌ । 

तब आकाशमें उछलकर प्रलयकालके मेघकी भाँति गर्जना करते हुए अंजनपर्वाने 
आकाशसे वृक्षोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ८६६ ।। 

ततो मायाधरं द्रौणिर्घटोत्कचसुतं दिवि ।। ८७ ।। 

मार्गणैरभिविव्याध घन सूर्य इवांशुभि: । 

तदनन्तर द्रोणपुत्रने आकाशमें स्थित हुए मायाधारी घटोत्कचकुमारको अपने 
बाणोंद्वारा उसी तरह घायल कर दिया, जैसे सूर्य अपनी किरणोंद्वारा मेघोंकी घटाको गला 
देते हैं ।। ८७३ ।। 

सो<वतीर्य पुरस्तस्थौ रथे हेमविभूषिते ।। ८८ ।। 

महीगत इवात्युग्र: श्रीमानञ्चनपर्वत: । 

इसके बाद वह नीचे उतरकर अपने स्वर्णभूषित रथपर अभश्व॒त्थामाके सामने खड़ा हो 
गया। उस समय वह तेजस्वी राक्षस पृथ्वीपर खड़े हुए अत्यन्त भयंकर कज्जलगिरिके 
समान जान पड़ा ॥। ८८३ || 

तमयस्मयवर्माणं दौणिर्भीमात्मजात्मजम्‌ ।। ८९ |। 

जघानाज्चनपर्वाणं महेश्वर इवान्धकम्‌ । 

उस समय द्रोणकुमारने लोहेके कवच धारण करके आये हुए भीमसेनपौजत्र 
अंजनपर्वाको उसी प्रकार मार डाला, जैसे भगवान्‌ महेश्वरने अन्धकासुरका वध किया 
था | ८९६ ।। 

अथ दृष्ट्वा हत॑ पुत्रमश्चत्थाम्ना महाबलम्‌ ।। ९० || 

द्रौणे: सकाशमभ्येत्य रोषात्‌ प्रज्वलिताड्गभद: । 

प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तो वीरं शारद्वतीसुतम्‌ ।। ९१ ।। 

दहन्तं पाण्डवानीकं वनमग्निमिवोच्छितम्‌ । 

अपने महाबली पुत्रको अश्व॒त्थामाद्वारा मारा गया देख चमकते हुए बाजूबंदसे विभूषित 
घटोत्कच बड़े रोषके साथ द्रोणकुमारके समीप आकर बढ़े हुए दावानलके समान पाण्डव- 
सेनारूपी वनको दग्ध करते हुए उस वीर कृपीकुमारसे बिना किसी घबराहटके इस प्रकार 
बोला || ९०-९१ $ || 

घटोत्कच उवाच 


तिष्ठ तिष्ठ न मे जीवन द्रोणपुत्र गमिष्यसि ।। ९२ ।। 


त्वामद्य निहनिष्यामि क्रौड्चमग्निसुतो यथा । 

घटोत्कचने कहा--द्रोणपुत्र! खड़े रहो, खड़े रहो। आज तुम मेरे हाथसे जीवित 
बचकर नहीं जा सकोगे। जैसे अग्निपुत्र कार्तिकेयने क्रौंच पर्वतको विदीर्ण किया था, उसी 
प्रकार आज मैं तुम्हारा विनाश कर डालूँगा ।। 


अश्वत्थामोवाच 


गच्छ वत्स सहान्यैस्त्वं युध्यस्वामरविक्रम ।। ९३ ।। 

न हि पुत्रेण हैडिम्बे पिता न्याय्य: प्रबाधितुम्‌ । 

अश्वत्थामाने कहा--देवताओंके समान पराक्रमी पुत्र! तुम जाओ, दूसरोंके साथ युद्ध 
करो। हिडिम्बानन्दन! पुत्रके लिये यह उचित नहीं है कि वह पिताको भी सताये ।। ९३ ३ ।। 

काम खलु न रोषो मे हैडिम्बे विद्यते त्वयि ।। ९४ ।। 

कि तु रोषान्वितो जनन्‍्तुर्हन्यादात्मानमप्युत | 

हिडिम्बाकुमार! अभी मेरे मनमें तुम्हारे प्रति तनिक भी रोष नहीं है, परंतु यदि रोष हो 
जाय तो तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि रोषके वशीभूत हुआ प्राणी अपना भी विनाश कर 
डालता है (फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है? अतः मेरे कुपित होनेपर तुम सकुशल नहीं रह 
सकते) ।। ९४६ ।। 

संजय उवाच 

श्रुत्वैतत्‌ क्रोधताम्राक्ष: पुत्रशोकसमन्वित: ।। ९५ ।। 

अश्वत्थामानमायस्तो भैमसेनिरभाषत । 

संजय कहते हैं--राजन्‌! पुत्रशोकमें डूबे हुए भीमसेनकुमारने अश्वत्थामाकी यह बात 
सुनकर क्रोधसे लाल आँखें करके रोषपूर्वक उससे कहा-- ।। ९५३ || 

किमहं कातरो द्रौणे पृूथगजन इवाहवे ।। ९६ ।। 

यन्मां भीषयसे वाग्भिरसदेतद्‌ वचस्तव । 

'ट्रोणकुमार! क्‍या मैं युद्धस्थलमें नीच लोगोंके समान कायर हूँ, जो तू मुझे अपनी 
बातोंसे डरा रहा है। तेरी यह बात नीचतापूर्ण है ।। ९६६ ।। 

भीमात्‌ खलु समुत्पन्न: कुरूणां विपुले कुले ।। ९७ ।। 

पाण्डवानामहं पुत्र: समरेष्वनिवर्तिनाम्‌ | 

रक्षसामधिराजो<हं दशग्रीवसमो बले ।। ९८ ।। 

“देख, मैं कौरवोंके विशाल कुलमें भीमसेनसे उत्पन्न हुआ हूँ, समरांगणमें कभी पीठ न 
दिखानेवाले पाण्डवोंका पुत्र हूँ, राक्षम्ोंका राजा हूँ और दशग्रीव रावणके समान बलवान्‌ 
हूँ ।। ९७-९८ ।। 

तिष्ठ तिष्ठ न मे जीवन द्रोणपुत्र गमिष्यसि । 

युद्धश्रद्धामहं तेड्द्य विनेष्यामि रणाजिरे ।। ९९ ।। 


'टद्रोणपुत्र!! खड़ा रह, खड़ा रह, तू मेरे हाथसे छूटकर जीवित नहीं जा सकेगा। आज 
इस रणांगणमें मैं तेरा युद्धका हौसला मिटा दूँगा” ।। १९ ।। 

इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो राक्षस: सुमहाबल: । 

द्रौणिमभ्यद्रवत्‌ क्रुद्धो गजेन्द्रमिव केसरी ।। १०० ।। 

ऐसा कहकर क्रोधसे लाल आँखें किये महाबली राक्षस घटोत्कचने द्रोणपुत्रपर 
रोषपूर्वक धावा किया, मानो सिंहने गजराजपर आक्रमण किया हो ।। १०० ।। 

रथाक्षमात्रैरिषुभिर भ्यवर्षद्‌ घटोत्कच: । 

रथिनामृषभं द्रौणिं धाराभिरिव तोयद: ।। १०१ ।। 

जैसे बादल पर्वतपर जलकी धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियोंमें श्रेष्ठ 
अश्वत्थामापर रथकी धुरीके समान मोटे बाणोंकी वर्षा करने लगा ।। १०१ ।। 

शरवृष्टिं शरैद्रौणिरप्राप्तां तां व्यशातयत्‌ । 

ततोडन्‍्तरिक्षे बाणानां संग्रामो5न्य इवाभवत्‌ ।। १०२ ।। 

पंरतु द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अपने पास आनेसे पहले ही उस बाण-वर्षाको बाणोंद्वारा नष्ट 
कर देता था। इससे आकाशकमें बाणोंका दूसरा संग्राम-सा मच गया था ।। 

अथास्त्रसम्मर्दकृतैर्विस्फुलिज्जैस्तदा बभौ | 

विभावरीमुखे व्योम खद्योतैरिव चित्रितम्‌ ।। १०३ ।। 

अस्त्रोंके परस्पर टकरानेसे जो आगकी चिनगारियाँ छूटती थीं, उससे रात्रिके प्रथम 
प्रहरमें आकाश जुगनुओंसे चित्रित-सा प्रतीत होता था ।। १०३ ।। 

निशाम्य निहतां मायां द्रौणिना रणमानिना । 

घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हित: पुन: ।। १०४ ।। 

युद्धाभिमानी अश्व॒त्थामाके द्वारा अपनी माया नष्ट हुई देख घटोत्कचने अदृश्य होकर 
पुनः दूसरी मायाकी सृष्टि की || १०४ ।। 

सो5भवद्‌ गिरिरत्युच्च: शिखरैस्तरुसंकटै: । 

शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान्‌ ।। १०५ ।। 

वह वृक्षोंसे भरे हुए शिखरोंद्वारा सुशोभित एक बहुत ऊँचा पर्वत बन गया। वह महान्‌ 
पर्वत शूल, प्रास, खड्ग और मूसलरूपी जलके झरने बहा रहा था | १०५ ।। 

तमज्जनगिरिप्रख्य॑ द्रौणिर्दृष्टया महीधरम्‌ । 

प्रपतद्धिश्व बहुभि: शस्त्रसंघैर्न विव्यथे || १०६ ।। 

अंजनगिरिके समान उस काले पहाड़को देखकर और वहाँसे गिरनेवाले बहुतेरे अस्त्र- 
शस्त्रोंसे घायल होकर भी द्रोणकुमार अश्वत्थामा व्यथित नहीं हुआ ।। १०६ ।। 

ततो हसन्निव द्रौणिर्वज्ञमस्त्रमुदैरयत्‌ । 

स तेनास्त्रेण शैलेन्द्र: क्षिप्त: क्षिप्रं व्यनश्यत ।। १०७ ।। 


तदनन्तर द्रोणकुमारने हँसते हुए-से वज्ञास्त्रको प्रकट किया। उस अस्त्रका आघात होते 
ही वह पर्वतराज तत्काल अदृश्य हो गया ।। १०७ ।। 

ततः स तोयदो भूत्वा नील: सेन्द्रायुधो दिवि । 

अश्मवृष्टिभिरत्युग्रो दौणिमाच्छादयद्‌ रणे || १०८ ।। 

तत्पश्चात्‌ वह आकाशमें इन्द्रधनुषसहित अत्यन्त भयंकर नील मेघ बनकर पत्थरोंकी 
वर्षसे रणभूमिमें अश्वत्थामाको आच्छादित करने लगा ।। १०८ ।। 

अथ संधाय वायब्यमस्त्रमस्त्रविदां वर: । 

व्यधमद्‌ द्रोणतनयो नीलमेघं समुत्थितम्‌ ।। १०९ ।। 

तब अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोणकुमारने वायव्यास्त्रका संधान करके वहाँ प्रकट हुए नील 
मेघको नष्ट कर दिया ।। 

स मार्गणगणैद्रौणिर्दिश: प्रच्छाद्य सर्वश: । 

शतं रथसहस्राणां जघान द्विपदां वर: ।। ११० || 

मनुष्योंमें श्रेष्ठ अश्वत्थामाने अपने बाणसमूहोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित करके 
शत्रुपक्षके एक लाख रथियोंका संहार कर डाला || ११० |। 

स दृष्टवा पुनरायान्तं रथेनायातकार्मुकम्‌ । 

घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिवृतम्‌ ।। १११ ।। 

सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तद्विरदविक्रमै: । 

गजस्थैश्न रथस्थैश्न वाजिपृष्ठगतैरपि ।। ११२ ।। 

विकृतास्यशिरांग्रीवैहिडिम्बानुचरैः सह । 

पौलत्त्यर्यातुधानैश्व तामसै क्षेन्द्रविक्रमै: ।। ११३ ।। 

नानाशस्त्रधरैवीरि्नानाकवच भूषणै: । 

महाबलैर्भीमरवै: संरम्भोद्वृत्तलोचनै: ।। ११४ ।। 

उपस्थितैस्ततो युद्धे राक्षसैर्युद्धदुर्मदै: । 

विषण्णमभिसप्प्रेक्ष्य पुत्रं ते द्रौणिरब्रवीत्‌ । ११५ ।। 

तत्पश्चात्‌ अश्वत्थामाने देखा कि घटोत्कच बिना किसी घबराहटके बहुत-से राक्षसोंसे 
घिरा हुआ पुन: रथपर आरूढ़ होकर आ रहा है। उसने अपने धनुषको खींचकर फैला रखा 
है। उसके साथ सिंह, व्याप्र और मतवाले हाथियोंके समान पराक्रमी तथा विकराल मुख, 
मस्तक और कण्ठवाले बहुत-से अनुचर हैं, जो हाथी, घोड़ों तथा रथपर बैठे हुए हैं। उसके 
अनुचरोंमें राक्षस, यातुधान तथा तामस जातिके लोग हैं, जिनका पराक्रम इन्द्रके समान है। 
नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करनेवाले, भाँति-भाँतिके कवच और आशभूषणोंसे 
विभूषित, महाबली, भयंकर सिंहनाद करनेवाले तथा क्रोधसे घूरते हुए नेत्रोंवाले बहुसंख्यक 
रणदुर्मद राक्षस घटोत्कचकी ओरसे युद्धके लिये उपस्थित हैं। यह सब देखकर दुर्योधन 


विषादग्रस्त हो रहा है। इन सब बातोंपर दृष्टिपात करके अश्व॒त्थामाने आपके पुत्रसे कहा 
-- || १११--११५ || 

तिष्ठ दुर्योधनाद्य त्वं न कार्य: सम्भ्रमस्त्वया । 

सहैभि भ्रत्रभिवीरि: पार्थिवैश्रेन्द्रविक्रमै: ।। ११६ ।। 

“दुर्योधन! आज तुम चुपचाप खड़े रहो। तुम्हें इन्द्रके समान पराक्रमी इन राजाओं तथा 
अपने वीर भाइयोंके साथ तनिक भी घबराना नहीं चाहिये || ११६ ।। 

निहनिष्याम्यमित्रांस्ते न तवास्ति पराजय: । 

सत्यं ते प्रतिजानामि पर्याश्वासय वाहिनीम्‌ ।। ११७ ।। 

“राजन! मैं तुम्हारे शत्रुओंको मार डालूगा, तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; इसके लिये 
मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ। तुम अपनी सेनाको आश्वासन दो” ।। 

दुर्योधन उवाच 

न त्वेतदद्भुतं मन्‍ये यत्‌ ते महदिदं मनः । 

अस्मासु च परा भक्तिस्तव गौतमिनन्दन ।। ११८ ।। 

दुर्योधन बोला--गौतमीनन्दन! तुम्हारा यह हृदय इतना विशाल है कि तुम्हारे द्वारा इस 
कार्यका होना मैं अद्भुत नहीं मानता। हमलोगोंपर तुम्हारा अनुराग बहुत अधिक 
है || ११८ ।। 

संजय उवाच 

अश्वत्थामानमुक्‍त्वैवं तत: सौबलमब्रवीत्‌ | 

वृतं रथसहस्रेण हयानां रणशोभिनाम्‌ ।। ११९ || 

संजय कहते हैं--राजन्‌! अश्वत्थामासे ऐसा कहकर दुर्योधन संग्राममें शोभा पानेवाले 
घोड़ोंसे युक्त एक हजार रथोंद्वारा घिरे हुए शकुनिसे इस प्रकार बोला-- || ११९ |। 

षष्ट्या रथसहसैश्व प्रयाहि त्वं धनंजयम्‌ । 

कर्णश्न वृषसेनश्व॒ कृपो नीलस्तथैव च ।। १२० ।। 

उदीच्या: कृतवर्मा च पुरुमित्र: सुतापन: । 

दुःशासनो निकुम्भश्न कुण्डभेदी पराक्रम: ।। १२१ ।। 

पुरंजयो दृढरथ: पताकी हेमकम्पन: । 

शल्यारुणीन्द्रसेना श्व॒संजयो विजयो जय: ।। १२२ || 

कमलाक्ष: परक्राथी जयवर्मा सुदर्शन: । 

एते त्वामनुयास्यन्ति पत्तीनामयुतानि षघट्‌ ।। १२३ ।। 

“मामा! तुम साठ हजार रथियोंकी सेना साथ लेकर अर्जुनपर आक्रमण करो। कर्ण, 
वृषसेन, कृपाचार्य, नील, उत्तर दिशाके सैनिक, कृतवर्मा, पुरुमित्र, सुतापन, दुःशासन, 
निकुम्भ, कुण्डभेदी, पराक्रमी, पुरंजय, दृढ़रथ, पताकी, हेमकम्पन, शल्य, आरुणि, 


इन्द्रसेन, संजय, विजय, जय, कमलाक्ष, परक्राथी, जयवर्मा और सुदर्शन--ये सभी महारथी 
वीर तथा साठ हजार पैदल सैनिक तुम्हारे साथ जायँगे || १२०--१२३ ।। 

जहि भीम॑ यमौ चोभौ धर्मराजं च मातुल | 

असुरानिव देवेन्द्रो जयाशा मे त्वयि स्थिता || १२४ ।। 

“मामा! जैसे देवराज इन्द्र असुरोंका संहार करते हैं, उसी प्रकार तुम भीमसेन, नकुल, 
सहदेव तथा धर्मराज युधिष्ठिरका भी वध कर डालो। मेरी विजयकी आशा तुमपर ही 
अवलम्बित है || १२४ ।। 

दारितान्‌ द्रौणिना बाणैर्भुशं विक्षतविग्रहान्‌ । 

जहि मातुल कौन्तेयानसुरानिव पावकि: ।। १२५ ।। 

“मातुल! द्रोणकुमार अश्व॒त्थामाने कुन्तीकुमारोंको अपने बाणोंद्वारा विदीर्ण कर डाला 
है; उनके शरीरोंको क्षत-विक्षत कर दिया है। इस अवस्थामें असुरोंका वध करनेवाले कुमार 
कार्तिकेयकी भाँति तुम कुन्तीपुत्रोंकी मार डालो" || १२५ ।। 

एवमुक्तो ययौ शीघ्र पुत्रेण तव सौबल: । 

पिप्रीषुस्ते सुतान्‌ राजन्‌ दिधक्षुश्रवैव पाण्डवान्‌ ।। १२६ ।। 

राजन! आपके पुत्रके ऐसा कहनेपर सुबलपुत्र शकुनि आपके पुत्रोंको प्रसन्न करने तथा 
पाण्डवोंको दग्ध कर डालनेकी इच्छासे शीघ्र ही युद्धँके लिये चल दिया || १२६ ।। 

अथ प्रववृते युद्ध द्रौणिराक्षसयोर्मुधे । 

विभावर्या सुतुमुलं शक्रप्रह्लादयोरिव ।। १२७ ।। 

तदनन्तर रणभूमिमें रात्रिके समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा तथा राक्षस घटोत्कचका इन्द्र 
और प्रह्नादके समान अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ ।। १२७ ।। 

ततो घटोत्कचो बाणैर्दशभिगगॉतमीसुतम्‌ । 

जघानोरसि संक्रुद्धों विषाग्निप्रतिमैर्दृढै: । १२८ ।। 

उस समय घटोत्कचने अत्यन्त कुपित होकर विष और अग्निके समान भयंकर दस 
सुदृढ़ बाणोंद्वारा कृपीकुमार अश्वत्थामाकी छातीमें गहरा आघात किया ।। 

स तैरभ्याहतो गाढं शरैर्भीमसुतेरितै: । 

चचाल रथमध्यस्थो वातोद्धत इव द्रुम: ।। १२९ ।। 

भीमपुत्र घटोत्कचके चलाये हुए उन बाणोंद्वारा गहरी चोट खाकर रथमें बैठा हुआ 
अश्व॒ृत्थामा वायुके झकझोरे हुए वृक्षके समान काँपने लगा ।। १२९ ।। 

भूयश्वाञज्जलिकेनाथ मार्गणेन महाप्रभम्‌ | 

दौणिहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कच: ।। १३० ।। 

इतनेहीमें घटोत्कचने पुन: अंजलिक नामक बाणसे अअश्वत्थामाके हाथमें स्थित अत्यन्त 
कान्तिमान्‌ धनुषको शीघ्रतापूर्वक काट डाला || १३० ।। 

ततोअन्यद्‌ द्रौणिरादाय धनुर्भारसहं महत्‌ | 


ववर्ष विशिखांस्तीक्ष्णान्‌ वारिधारा इवाम्बुद: || १३१ ।। 

तब द्रोणकुमार भार सहन करनेमें समर्थ दूसरा विशाल धनुष हाथमें लेकर, जैसे मेघ 
जलकी धारा बरसाता है, उसी प्रकार तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगा ।। 

ततः शारद्वतीपुत्र: प्रेषयामास भारत । 

सुवर्णपुड्खाउछत्रुघ्नानू खचरान्‌ खचरं प्रति | १३२ ।। 

भारत! तदनन्तर गौतमीपुत्रने सुवर्णमय पंखवाले शत्रुनाशक आकाशचारी बाणोंको 
उस राक्षसपर चलाया ।। 

तद्‌ बाणैररदितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्‌ । 

सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्‌ ।। १३३ ।। 

उन बाणोंसे चौड़ी छातीवाले राक्षसरोंका वह समूह अत्यन्त पीड़ित हो सिंहोंद्वारा 
व्याकुल किये गये मतवाले हाथियोंके झुंडके समान प्रतीत होने लगा ।। १३३ ।। 

विधम्य राक्षसान्‌ बाणै: साथ्वसूरथद्विपान्‌ । 

ददाह भगवान्‌ वद्िर्भूतानीव युगक्षये ।। १३४ ।॥ 

जैसे भगवान्‌ अग्निदेव प्रलयकालमें सम्पूर्ण प्राणियोंको दग्ध कर देते हैं, उसी प्रकार 
अश्वत्थामाने अपने बाणोंद्वारा घोड़े, सारथि, रथ और हाथियोंसहित बहुत-से राक्षसोंको 
जलाकर भस्म कर दिया ।। १३४ ।। 

स ग्ग्ध्वाक्षौहिणीं बाणैर्नैतीं रुकुचे नृप । 

पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा दिवि देवो महेश्वर: ।। १३५ ।। 

नरेश्वर! जैसे भगवान्‌ महेश्वर आकाशमें त्रिपुरको दग्ध करके सुशोभित हुए थे, उसी 
प्रकार राक्षसोंकी अक्षौहिणी सेनाको बाणोंद्वारा दग्ध करके अअभ्वत्थामा शोभा पाने 
लगा || १३५ || 

युगान्ते सर्वभूतानि दग्ध्वेव वसुरुल्बण: । 

रराज जयतां श्रेष्ठो द्रोणपुत्रस्तवाहितान्‌ ।। १३६ ।। 

राजन! विजयी वीरोंमे श्रेष्ठ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा प्रलयकालमें समस्त प्राणियोंको भस्म 
कर देनेवाले संवर्तक अग्निके समान आपके शत्रुओंको दग्ध करके देदीप्यमान हो 
उठा ।। १३६ |। 

ततो घटोत्कच: क्रुद्धो रक्षसां भीमकर्मणाम्‌ | 

द्रौ्णिं हतेति महतीं चोदयामास तां चमूम्‌ ।। १३७ ।। 

तब घटोत्कचने कुपित हो भयानक कर्म करनेवाले राक्षसोंकी उस विशाल सेनाको 
आदेश दिया, “अरे! अश्वत्थामाको मार डालो” || १३७ ।। 

घटोत्कचस्य तामाज्ञां प्रतिगृह्माथ राक्षसा: | 

देष्टोज्ज्वला महावकत्रा घोररूपा भयानका: ।॥। १३८ ।। 

व्यात्तानना घोरजिद्दा: क्रोधताम्रेक्षणा भृशम्‌ | 


सिंहनादेन महता नादयन्तो वसुन्धराम्‌ ।। १३९ ।। 

हन्तुमभ्यद्रवन्‌ द्रौणिं नानाप्रहरणायुधा: । 

घटोत्कचकी उस आज्ञाको शिरोधार्य करके दाढ़ोंसे प्रकाशित, विशाल मुखवाले, घोर 
रूपधारी, फै ले मुँह और डरावनी जीभवाले भयानक राक्षस क्रोधसे लाल आँखें किये 
महान्‌ सिंहनादसे पृथ्वीको प्रतिध्वनित करते हुए हाथोंमें भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र ले 
अश्वत्थामाको मार डालनेके लिये उसपर टूट पड़े ।। १३८-१३९३ ।। 

शक्ती: शतघ्नी: परिघानशनी: शूलपट्टिशान्‌ ।। १४० ।। 

खड्गान्‌ गदा भिन्दिपालान्‌ मुसलानि परश्चधान्‌ | 

प्रासानसींस्तोमरांश्न कणपान्‌ कम्पनान्‌ शितान्‌ ।। १४१ ।। 

स्थूलान्‌ भुशुण्ड्यश्मगदा:स्थूणान्‌ कार्ष्णायसांस्तथा । 

मुद्गरांश्न महाघोरान्‌ समरे शत्रुदारणान्‌ ।। १४२ ।। 

द्रौणिमूर्धन्यसंत्रस्ता राक्षसा भीमविक्रमा: । 

चिक्षिपु: क्रोधताम्राक्षा: शतशो5थ सहस्रश: ।। १४३ ।। 

समरांगणमें किसीसे भी न डरनेवाले तथा क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले भयंकर पराक्रमी 
सैकड़ों और हजारों राक्षस अश्वत्थामाके मस्तकपर शक्ति, शतघ्नी, परिघ, अशनि, शूल, 
पट्टिश, खड़ग, गदा, भिन्दिपाल, मुसल, फरसे, प्रास, कटार, तोमर, कणप, तीखे कम्पन, 
मोटे-मोटे पत्थर, भुशुण्डी, गदा, काले लोहेके खंभे तथा शत्रुओंको विदीर्ण करनेमें समर्थ 
महाघोर मुद्गरोंकी वर्षा करने लगे || १४०--१४३ ।। 

तच्छस्त्रवर्ष सुमहद्‌ द्रोणपुत्रस्य मूर्थनि । 

पतमानं समीक्ष्याथ योधास्ते व्यथिताभवन्‌ ।। १४४ ।। 

द्रोणपुत्रके मस्तकपर अस्त्रोंकी वह बड़ी भारी वर्षा होती देख आपके समस्त सैनिक 
व्यथित हो उठे ।। 

द्रोणपुत्रस्तु विक्रान्तस्तद्‌ वर्ष घोरमुच्छितम्‌ । 

शरैरविध्वंसयामास वज्रकल्पै: शिलाशितै: ।। १४५ ।। 

पंरतु पराक्रमी द्रोणकुमारने शिलापर तेज किये हुए अपने वज्रोपम बाणोंद्वारा वहाँ 
प्रकट हुई उस भयंकर अस्त्र-वर्षाका विध्वंस कर डाला ।। १४५ ।। 

ततोअच्यैविशिखैस्तूर्ण स्वर्णपुड्खैर्महामना: । 

निजलेने राक्षसान द्रौणिर्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिति: ।। १४६ ।। 

तत्पश्चात्‌ महामनस्वी अश्वत्थामाने दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित सुवर्णमय पंखवाले अन्य 
बाणोंद्वारा तत्काल ही राक्षसोंको घायल कर दिया ।। १४६ ।। 

तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्‌ । 

सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्‌ ।। १४७ ।। 


उन बाणोंसे चौड़ी छातीवाले राक्षसोंका समूह अत्यन्त पीड़ित हो सिंहोंद्वारा व्याकुल 
किये गये मतवाले हाथियोंके झुंडके समान प्रतीत होने लगा ।। १४७ ।। 

ते राक्षसा: सुसंक्रुद्धा द्रोणपुत्रेण ताडिता: । 

क्रुद्धा: सम प्राद्रवन्‌ दौणिं जिघांसन्तो महाबला: ।। १४८ ।। 

द्रोणपुत्रकी मार खाकर, अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए महाबली राक्षस उसे मार डालनेकी 
इच्छासे रोषपूर्वक दौड़े ।। 

तत्राद्भुतमिमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्‌ । 

अशव्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत ।। १४९ ।। 

भारत! वहाँ अश्वत्थामाने यह ऐसा अद्भुत पराक्रम दिखाया, जिसे समस्त प्राणियोंमें 
और किसीके लिये कर दिखाना असम्भव था ।। १४९ |। 

यदेको राक्षसीं सेनां क्षणाद्‌ द्रौणिर्महास्त्रवित्‌ । 

ददाह ज्वलितैबणि राक्षसेन्द्रस्य पश्यत: ।। १५० ।। 

क्योंकि महान्‌ अस्त्रवेत्ता अश्वत्थामाने अकेले ही उस राक्षसी सेनाको राक्षसराज 
घटोत्कचके देखते-देखते अपने प्रज्वलित बाणोंद्वारा क्षणभरमें भस्म कर दिया ।। १५० ।। 

स हत्वा राक्षसानीकं रराज द्रौणिराहवे । 

युगान्ते सर्वभूतानि संवर्तक इवानल: ।। १५१ ।। 

जैसे प्रलयकालमें संवर्तक अग्नि समस्त प्राणियोंको दग्ध कर देती है, उसी प्रकार 
राक्षसोंकी उस सेनाका संहार करके युद्धस्थलमें अश्वत्थामाकी बड़ी शोभा हुई ।। 

त॑ दहन्तमनीकानि शरैराशीविषोपमै: । 

तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु भारत ।। १५२ ।। 

नैन॑ निरीक्षितुं कश्चिदशक्नोद्‌ द्रौणिमाहवे । 

ऋते घटोत्कचादू वीरादू राक्षसेन्द्रान्महाबलात्‌ ।। १५३ ।। 

भरतनन्दन! युद्धस्थलमें पाण्डवपक्षके सहस्रों राजाओंमेंसे वीर महाबली राक्षसराज 
घटोत्कचको छोड़कर दूसरा कोई भी विषधर सर्पोके समान भयंकर बाणोंद्वारा पाण्डवोंकी 
सेनाओंको दग्ध करते हुए अश्वत्थामाकी ओर देख न सका ।। १५२-१५३ ।। 

स पुनर्भरतश्रेष्ठ क्रोधादुदभ्रान्तलोचन: । 

तल॑ तलेन संहत्य संदश्य दशनच्छदम्‌ ।। १५४ ।। 

स्वं सूतमब्रवीत्‌ क्रुद्धो द्रोणपुत्राय मां वह । 

भरतश्रेष्ठ! पुनः क्रोधसे घटोत्कचकी आँखें घूमने लगीं। उसने हाथ-से-हाथ मलकर 
ओठ चबा लिया और कुपित हो सारथिसे कहा--'सूत! तू मुझे द्रोणपुत्रके पास ले 
चल' ।। १५४ ३ ।। 

स ययौ घोररूपेण सुपताकेन भास्वता ।। १५५ ।। 

द्वैरथं द्रोणपुत्रेण पुनरप्यरिसूदन: । 


शत्रुओंका संहार करनेवाला घटोत्कच सुन्दर पताकाओंसे सुशोभित, प्रकाशमान एवं 
भयंकर रथके द्वारा पुनः द्रोणपुत्रके साथ द्वैरथ युद्ध करनेके लिये गया ।। 

स विनद्य महानादं सिंहवद्‌ भीमविक्रम: ।। १५६ ।। 

चिक्षेपाविध्य संग्रामे द्रोणपुत्राय राक्षस: । 

अष्टघण्टां महाघोरामशनिं देवनिर्मिताम्‌ ।। १५७ ।। 

उस भयंकर पराक्रमी राक्षसने सिंहके समान बड़ी भारी गर्जना करके संग्राममें 
द्रोणपुत्रपर देवताओंद्वारा निर्मित तथा आठ घंटियोंसे सुशोभित एक महाभयंकर अशनि 
(वज्र) घुमाकर चलायी || १५६-१५७ ।। 

तामवसप्लुत्य जग्राह दौणिन्यस्य रथे धनु: । 

चिक्षेप चैनां तस्यैव स्वन्दनात्‌ सो5वपुप्लुवे | १५८ ।। 

यह देख अश्व॒त्थामाने रथपर अपना धनुष रख उछलकर उस अशनिको पकड़ लिया 
और उसे घटोत्कचके ही रथपर दे मारा। घटोत्कच उस रथसे कूद पड़ा ।। १५८ ।। 

साश्वसूतध्वजं यान भस्म कृत्वा महाप्रभा । 

विवेश वसुधां भित्त्वा साशनिर्भुशदारुणा ।। १५९ |। 

वह अत्यन्त प्रकाशभान तथा परम दारुण अशनि घोड़े, सारथि और ध्वजसहित 
घटोत्कचके रथको भस्म करके पथ्वीको छेदकर उसके भीतर समा गयी ।। १५९ ।। 

द्रौणेस्तत्‌ कर्म दृष्टवा तु सर्वभूतान्यपूजयन्‌ | 

यदवप्लुत्य जग्राह घोरां शड़करनिर्मिताम्‌ ।। १६० ।। 

अश्वत्थामाने भगवान्‌ शंकरद्वारा निर्मित उस भयंकर अशनिको जो उछलकर पकड़ 
लिया, उसके उस कर्मको देखकर समस्त प्राणियोंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा 
की ।। १६० ।। 

धृष्टद्युम्नरथं गत्वा भैमसेनिस्ततो मृष । 

धनुर्घोरंं समादाय महदिन्द्रायुधोपमम्‌ । 

मुमोच निशितान्‌ बाणान्‌ पुनद्रौणेमहोरसि ।॥ १६१ ।। 

नरेश्वरर! उस समय भीमसेनकुमारने धृष्टद्युम्मके रथपर आरूढ़ हो इन्द्रायुधके समान 
विशाल एवं घोर धनुष हाथमें लेकर अश्वत्थामाके विशाल वक्ष:स्थलपर बहुत-से तीखे बाण 
मारे || १६१ ।। 

धृष्टद्युम्नस्त्वसम्भ्रान्तो मुमोचाशीविषोपमान्‌ । 

सुवर्णपुड्खान्‌ विशिखान्‌ द्रोणपुत्रस्यथ वक्षसि ।। १६२ ।। 

धष्टद्युम्नने भी बिना किसी घबराहटके विषधर सर्पोंके समान सुवर्णमय पंखवाले बहुत- 
से बाण द्रोणपुत्रके वृक्षःस्थलपर छोड़े || १६२ ।। 

ततो मुमोच नाराचान्‌ द्रौणिस्तांश्व॒ सहस्रशः | 

तावप्यग्निशिखप्रख्यैर्जघ्नतुस्तस्य मार्गणान्‌ ।। १६३ ।। 


तब अभश्वत्थामाने भी उनपर सहस्रों नाराच चलाये। धृष्टद्युम्म और घटोत्कचने भी 
अग्निशिखाके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा अश्वत्थामाके नाराचोंको काट डाला ।। १६३ ।। 

अतितीव्रं महद्‌ युद्ध तयो: पुरुषसिंहयो: । 

योधानां प्रीतिजनन द्रौणेक्ष भरतर्षभ ।। १६४ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन दोनों पुरुषसिंहों तथा अश्वत्थामाका वह अत्यन्त उग्र और महान्‌ युद्ध 
समस्त योद्धाओंका हर्ष बढ़ा रहा था || १६४ ।। 

ततो रथसहस्रेण द्विरदानां शतैस्त्रिभि: । 

षड्भिवाजिसहसेश्व॒ भीमस्तं देशमागमत्‌ ।। १६५ ।। 

तदनन्तर एक हजार रथ, तीन सौ हाथी और छ: हजार घुड़सवारोंके साथ भीमसेन 
उस युद्धस्थलमें आये ।। 

ततो भीमात्मजं रक्षो धृष्टद्युम्नं च सानुगम्‌ 

अयोधयत धर्मात्मा दौणिरक्लिष्टविक्रम: ।। १६६ ।। 

उस समय अनायास ही पराक्रम प्रकट करनेवाला धर्मात्मा अश्व॒त्थामा भीमपुत्र राक्षस 
घटोत्कच तथा सेवकों-सहित धृष्टद्युम्नके साथ अकेला ही युद्ध कर रहा था ।। १६६ || 

तत्राद्धुततमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्‌ । 

अशव्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत ।। १६७ ।। 

भारत! वहाँ द्रोणपुत्रने अत्यन्त अद्भुत पराक्रम दिखाया, जिसे कर दिखाना समस्त 
प्राणियोंमें दूसरेके लिये असम्भव था || १६७ ।। 

निमेषान्तरमात्रेण साश्वसूतरथद्विपाम्‌ । 

अक्षौहिणीं राक्षसानां शितैर्बाणैरशातयत्‌ ।। १६८ ।। 

उसने पलक मारते-मारते अपने पैने बाणोंसे घोड़े, सारथि, रथ और हाथियोंसहित 
राक्षसोंकी एक अक्षौहिणी सेनाका संहार कर दिया ।। १६८ ।। 

मिषतो भीमसेनस्य हैडिम्बे: पार्षतस्य च । 

यमयोर्धर्मपुत्रस्य विजयस्याच्युतस्य च ।। १६९ ।। 

भीमसेन, घटोत्कच, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठचिर, अर्जुन और भगवान्‌ 
श्रीकृष्णके देखते-देखते यह सब कुछ हो गया ।। १६९ ।। 

प्रगाढठमञ्जोगतिभिनरराचैरभिताडिता: । 

निपेतुर्द्धिदा भूमौ सशृद्भा इव पर्वता: ।। १७० ।। 

शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़नेवाले नाराचोंकी गहरी चोट खाकर बहुत-से हाथी शिखरयुक्त 
पर्वतोंके समान धराशायी हो गये || १७० ।। 

निकत्तैहस्तिहस्तैश्न विचलद्धिरितस्तत: । 

रराज वसुधा कीर्णा विसर्पद्धिरिवोरगै: ।। १७१ ।। 


हाथियोंके शुण्ड कटकर इधर-उधर छटपटा रहे थे। उनसे ढकी हुई पृथ्वी रेंगते हुए 
सर्पोंसे आच्छादित हुई-सी शोभा पा रही थी ।। १७१ ।। 

क्षिप्तै: काउ्चनदण्डैश्व नृपच्छत्रै: क्षितिर्बभौ । 

द्यौरिवोदितचन्द्रार्का ग्रहाकीर्णा युगक्षये |। १७२ ।। 

इधर-उधर गिरे हुए सुवर्णमय दण्डवाले राजाओंके छत्रोंसे छायी हुई यह पृथ्वी 
प्रलयकालमें उदित हुए सूर्य, चन्द्रमा तथा ग्रहन-क्षत्रोंसे परिपूर्ण आकाशके समान जान 
पड़ती थी ।। १७२ ।। 

प्रवृद्धध्वजमण्डूकां भेरीविस्तीर्णकच्छपाम्‌ । 

छत्रहंसावलीजुष्टां फेनचामरमालिनीम्‌ ।। १७३ ।। 

कड्कगृध्रमहाग्राहां नैकायुधझषाकुलाम्‌ । 

विस्तीर्णगजपाषाणां हताश्वमकराकुलाम्‌ ।। १७४ ।। 

रथक्षिप्तमहावप्रां पताकारुचिरद्रुमाम्‌ । 

शरमीनां महारीद्रां प्रासशक्त्यूष्टिडुण्डुभाम्‌ | १७५ ।। 

मज्जामांसमहापड्कां कबन्धावर्जितोडुपाम्‌ । 

केशशैवलकल्माषां भीरूणां कश्मलावहाम्‌ ।। १७६ ।। 

नागेन्द्रहपयोधानां शरीरव्ययसम्भवाम्‌ । 

शोणितौघमहाधघोरां द्रौणि: प्रावर्तयन्नदीम्‌ ।। १७७ ।। 

योधार्तरवनिर्घोषां क्षतजोर्मिसमाकुलाम्‌ । 

श्वापदातिमहाघोरां यमराष्ट्रमहोदधिम्‌ ।। १७८ ।। 

अश्व॒त्थामाने उस युद्धस्थलमें खूनकी नदी बहा दी, जो शोणितके प्रवाहसे अत्यन्त 
भयंकर प्रतीत होती थी, जिसमें कटकर गिरी हुई विशाल ध्वजाएँ मेढकोंके समान और 
रणभेरियाँ विशाल कछुओंके सदृश जान पड़ती थीं। राजाओंके श्वेत छत्र हंसोंकी श्रेणीके 
समान उस नदीका सेवन करते थे। चँवरसमूह फेनका भ्रम उत्पन्न करते थे। कंक और गीध 
ही बड़े-बड़े ग्राह-से जान पड़ते थे। अनेक प्रकारके आयुध वहाँ मछलियोंके समान भरे थे। 
विशाल हाथी शिलाखण्डोंके समान प्रतीत होते थे। मरे हुए घोड़े वहाँ मगरोंके समान व्याप्त 
थे। गिरे पड़े हुए रथ ऊँचे-ऊँचे टीलोंके समान जान पड़ते थे। पताकाएँ सुन्दर वृक्षोंके समान 
प्रतीत होती थीं। बाण ही मीन थे। देखनेमें वह बड़ी भयंकर थी। प्रास, शक्ति और ऋष्षि 
आदि अस्त्र डुण्डुभ सर्पके समान थे। मज्जा और मांस ही उस नदीमें महापंकके समान 
प्रतीत होते थे। तैरती हुई लाशें नौकाका भ्रम उत्पन्न करती थीं। केशरूपी सेवारोंसे वह रंग- 
बिरंगी दिखायी दे रही थी। वह कायरोंको मोह प्रदान करनेवाली थी। गजराजों, घोड़ों और 
योद्धाओंके शरीरोंका नाश होनेसे उस नदीका प्राकट्य हुआ था। योद्धाओंकी आर्तवाणी ही 
उसकी कलकल ध्वनि थी। उस नदीसे रक्तकी लहरें उठ रही थीं। हिंसक जन्तुओंके कारण 


उसकी भयंकरता और भी बढ़ गयी थी। वह यमराजके राज्यरूपी महासागरमें मिलनेवाली 
थी ।। १७३--१७८ || 

निहत्य राक्षसान्‌ बाणैद्रौणिहैंडिम्बिमार्दयत्‌ । 

पुनरप्यतिसंक्रुद्ध: सवृकोदरपार्षतान्‌ । १७९ ।। 

स नाराचगणै: पार्थान्‌ द्रौणिर्विंदूध्वा महाबल: । 

जघान सुरथं नाम द्रुपदस्य सुतं विभु: ।। १८० ।। 

राक्षसोंका वध करके बाणोंद्वारा अश्वत्थामाने घटोत्कचको अत्यन्त पीड़ित कर दिया। 
फिर उस महाबली वीरने अत्यन्त कुपित होकर अपने नाराचोंसे भीमसेन और 
धृष्टद्यम्नसहित समस्त कुन्तीकुमारोंकों घायल करके द्रुपदपुत्र सुरथको मार 
डाला || १७९-१८० || 

पुन: शत्रुंजयं नाम द्रुपदस्यात्मजं रणे । 

बलानीकं॑ जयानीकं जयाश्वं चाभिजध्निनवान्‌ ।। १८१ ।। 

तत्पश्चात्‌ उसने रणक्षेत्रमें द्रपदकुमार शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक और जयाश्वको भी 
मार गिराया ।। 

श्रुताह्नयं च राजान॑ द्रौणिर्निन्ये यमक्षयम्‌ । 

त्रिभिश्षान्यै: शरैस्ती३णै: सुपुड्खै्लेममालिनम्‌ ।। १८२ |। 

जघान स पृषथ्रं च चन्द्रसेनं च मारिष | 

कुन्तिभोजसुतांश्चवासौ दशभिर्दश जध्निवान्‌ ।। १८३ ।। 

आर्य! इसके बाद द्रोणकुमारने राजा श्रुताह्मको भी यमलोक पहुँचा दिया। फिर दूसरे 
तीन तीखे और सुन्दर पंखवाले बाणोंद्वारा हेममाली, पृषध्र और चन्द्रसेन-का भी वध कर 
डाला। तदनन्तर दस बाणोंसे उसने राजा कुन्तिभोजके दस पुत्रोंको कालके गालमें डाल 
दिया ।। १८२-१८३ ।। 

अश्वत्थामा सुसंक्रुद्ध: संधायोग्रमजिह्मृगम्‌ । 

मुमोचाकर्णपूर्णेन धनुषा शरमुत्तमम्‌ ।। १८४ ।। 

यमदण्डोपमं घोरमुद्दिश्याशु घटोत्कचम्‌ | 

इसके बाद अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए अश्वत्थामाने एक सीधे जानेवाले अत्यन्त भयंकर 
एवं उत्तम बाणका संधान करके धनुषको कानतक खींचकर उसे शीघ्र ही घटोत्कचको 
लक्ष्य करके छोड़ दिया। वह बाण घोर यमदण्डके समान था || १८४६ ।। 

स भित्त्वा हृदयं तस्य राक्षसस्य महाशर: ।। १८५ ।। 

विवेश वसुधां शीघ्र॑ सुपुडख: पृथिवीपते । 

पृथ्वीपते! वह सुन्दर पंखोंवाला महाबाण उस राक्षसका हृदय विदीर्ण करके शीघ्र ही 
पृथ्वीमें समा गया ।। 

त॑ं हतं पतितं ज्ञात्वा धृष्टद्युम्नो महारथ: ।। १८६ ।। 


द्रौणे: सकाशाद्‌ राजेन्द्र व्यपनिन्ये रथोत्तमम्‌ 
राजेन्द्र! घटोत्कचको मरकर गिरा हुआ जान महारथी धृष्टद्युम्नने अपने उत्तम रथको 
अश्वत्थामाके पाससे हटा लिया ।। १८६३ ।। 
ततः: पराड्मुखनृपं सैन्यं यौधिष्ठटिरं नूप ।। १८७ ।। 
पराजित्य रणे वीरो द्रोणपुत्रो ननाद ह । 
पूजित: सर्वभूतेषु तव पुत्रैज्ञष भारत ।। १८८ ।। 
नरेश्वर! फिर तो युधिष्ठिरकी सेनाके सभी नरेश युद्धसे विमुख हो गये। उस सेनाको 
परास्त करके वीर द्रोणपुत्र रणभूमिमें गर्जना करने लगा। भारत! उस समय सम्पूर्ण 
प्राणियोंमें अश्वत्थामाका बड़ा समादर हुआ। आपके पुत्रोंने भी उसका बड़ा सम्मान 
किया ।। १८७-१८८ ।। 
अथ शरशतकभिन्नकृत्तदेहै- 
हतपतितै: क्षणदाचरै: समन्तात्‌ | 
निधनमुपगतैर्मही कृताभूद्‌ 
गिरिशिखरैरिव दुर्गमातिरौद्रा | १८९ ।। 
तदनन्तर सैकड़ों बाणोंसे शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण मरकर गिरे और मृत्युको 
प्राप्त हुए निशाचरोंकी लाशोंसे पटी हुई चारों ओरकी भूमि पर्वतशिखरोंसे आच्छादित हुई- 
सी अत्यन्त भयंकर और दुर्गम प्रतीत होने लगी ।। १८९ ।। 
तं॑ सिद्धगन्धर्वपिशाचसंघा 
नागा: सुपर्णा: पितरो वयांसि | 
रक्षोगणा भूतगणाश्र द्रौणि- 
मपूजयजन्नप्सरस: सुराश्ष ।। १९० ।। 
उस समय वहाँ सिद्धों, गन्धर्वों, पिशाचों, नागों, सुपर्णों, पितरों, पक्षियों, राक्षसों, भूतों, 
अप्सराओं तथा देवताओंने भी द्रोणपुत्र अश्वत्थामाकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || १९० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे 
षट्पञज्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५६ || 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धविषयक एक सौ 
छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५६ ॥। 


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- भूमि नापनेका एक नाप जो चार सौ हाथका होता है। 


सप्तपञ्चाशर्दाधिकशततमोब् ध्याय: 


सोमदत्तकी ! मूच्छ , भीमके द्वारा बाह्लीकका वध, धृतराष्ट्रके 
दस पुत्रों और शकुनिके सात रथियों एवं पाँच भाइयोंका 
संहार तथा द्रोणाचार्य हक आस युद्धमें युधिष्ठिरकी 
जय 


संजय उवाच 

द्रुपदस्यात्मजान्‌ दृष्टवा कुन्तिभोजसुतांस्तथा । 

द्रोणपुत्रेण निहतान्‌ राक्षसांश्ष सहस्रश: ।। १ ।। 

युधिष्ठिरों भीमसेनो धृष्टद्युम्नश्न पार्षत: । 

युयुधानश्न संयत्ता युद्धायैव मनो दधु: २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामाके द्वारा द्रपद और कुन्तिभोजके पुत्रों 
तथा सहसौ्रों राक्षसरोंको मारा गया देख युधिष्ठिर, भीमसेन, द्रुपदकुमार धुृष्टद्युम्न तथा 
युयुधानने भी सावधान होकर युद्धमें ही मन लगाया ।। १-२ ।। 

सोमदत्त: पुनः क्रुद्धो दृष्टया सात्यकिमाहवे । 

महता शरवर्षेणच्छादयामास भारत ।। ३ ।। 

भारत! युद्धस्थलमें सात्यकिको देखकर सोमदत्त पुनः कुपित हो उठे और उन्होंने बड़ी 
भारी बाण-वर्षा करके सात्यकिको आच्छादित कर दिया ।। ३ ।। 

ततः समभवद्‌ युद्धमतीव भयवर्धनम्‌ | 

त्वदीयानां परेषां च घोरं विजयकाड्क्षिणाम्‌ ।। ४ ।। 

फिर तो विजयकी अभिलाषा रखनेवाले आपके और शत्रुपक्षके सैनिकोंमें अत्यन्त 
भंयकर घोर युद्ध छिड़ गया ।। ४ ।। 

त॑ दृष्टवा समुपायान्तं रुक्मपुड्खे: शिलाशितै: । 

दशभ्रि: सात्वतस्यार्थे भीमो विव्याध सायकै: ।। ५ ।। 

सोमदत्तको आते देख भीमसेनने सात्यकिकी सहायताके लिये शिलापर तेज किये हुए 
सुवर्णमय पंखवाले दस बाणोंद्वारा उन्हें घायल कर दिया ।। ५ ।। 

सोमदत्तो5पि तं वीरं शतेन प्रत्यविध्यत । 

सात्वतस्त्वभिसंक्रुद्ध: पुत्राधिभिरभिप्लुतम्‌ ।। ६ ।। 

वृद्ध वृद्धगुणैर्युक्ते ययातिमिव नाहुषम्‌ । 

विव्याध दशभिस्ती $णै: शरैर्वज़निपातनै: ।। ७ ।। 


सोमदत्तने भी वीर भीमसेनको सौ बाणोंसे वेधकर बदला चुकाया। इधर सात्यकिने भी 
अत्यन्त कुपित हो पुत्रशोकमें डूबे हुए, नहुषनन्दन ययातिकी भाँति वृद्धताके गुणोंसे युक्त 
बूढ़े सोमदत्तको वज्रको भी मार गिरानेवाले दस तीखे बाणोंसे बींध डाला ।। ६-७ ।। 

शक्त्या चैन विनिर्भिवद्य पुनर्विव्याध सप्तभि: । 

ततस्तु सात्यकेरर्थे भीमसेनो नवं दृढम्‌ ।। ८ ।। 

मुमोच परिघं घोरं सोमदत्तस्य मूर्थनि । 

फिर शक्तिसे इन्हें विदीर्ण करके सात बाणोंद्वारा पुन: गहरी चोट पहुँचायी। तत्पश्चात्‌ 
सात्यकिके लिये भीमसेनने सोमदत्तके मस्तकपर नूतन, सुदृढ़ एवं भयंकर परिघका प्रहार 
किया ।। ८$ || 

सात्वतोप्यग्निसंकाशं मुमोच शरमुत्तमम्‌ ।। ९ ।। 

सोमदत्तोरसि क्रुद्धः सुपत्र॑ निशितं युधि । 

इसी समय सात्यकिने भी युद्धस्थलमें कुपित हो सोमदत्तकी छातीपर सुन्दर पंखवाले, 
अग्निके समान तेजस्वी, उत्तम और तीखे बाणका प्रहार किया ।। ९६ ।। 

युगपत्‌ पेततुर्वीरे घोरौ परिघमार्गणीौ ।। १० ।। 

शरीरे सोमदत्तस्थ स पपात महारथ: । 

वे भयंकर परिघ और बाण वीर सोमदत्तके शरीरपर एक ही साथ गिरे। इससे महारथी 
सोमदत्त मूर्च्छित होकर गिर पड़े || १० ६ ।। 

व्यामोहिते तु तनये बाह्लीकस्तमुपाद्रवत्‌ || ११ ।। 

विसृजन्‌ शरवर्षाणि कालवर्षीव तोयद: । 

अपने पुत्रके मूर्च्छित होनेपर बाह्लीकने वर्षाऋतुमें वर्षा करनेवाले मेघके समान 
बाणोंकी वृष्टि करते हुए वहाँ सात्यकिपर धावा किया ।। ११३ ।। 

भीमो<थ सात्वतस्यार्थे बाह्लीक॑ नवभि: शरै: || १२ ।। 

प्रपीडयन्‌ महात्मानं विव्याध रणमूर्थनि । 

भीमसेनने सात्यकिके लिये महात्मा बाह्नीकको पीड़ित करते हुए युद्धके मुहानेपर उन्हें 
नौ बाणोंसे घायल कर दिया ।। १२६ ।। 

प्रातिपेयस्तु संक्रुद्ध: शक्ति भीमस्य वक्षसि ।। १३ ।। 

निचखान महाबाहु: पुरंदर इवाशनिम्‌ | 

तब महाबाहु प्रतीपपुत्र बाह्नीकने अत्यन्त कुपित हो भीमसेनकी छातीमें अपनी शक्ति 
धँसा दी, मानो देवराज इन्द्रने किसी पर्वतपर वज्र मारा हो || १३६ ।। 

स तथाभिहतो भीमश्नचकम्पे च मुमोह च ।। १४ ।। 

प्राप्प चेतश्न॒ बलवान्‌ गदामस्मै ससर्ज ह | 


इस प्रकार शक्तिसे आहत होकर भीमसेन काँप उठे और मूर्च्छित हो गये। फिर सचेत 
होनेपर बलवान्‌ भीमने उनपर गदाका प्रहार किया ।। १४ ३ ।। 

सा पाण्डवेन प्रहिता बाह्लीकस्य शिरो5हरत्‌ ।। १५ ।। 

स पपात हतः पृथ्व्यां वज्जाहत इवाद्रिराट्‌ । 

पाए्डुपुत्र भीमसेनद्वारा चलायी हुई उस गदाने बाह्नलीकका सिर उड़ा दिया। वे वज्रके 
मारे हुए पर्वतराजकी भाँति मरकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। १५६ ।। 

तस्मिन्‌ विनिहते वीरे बाह्लीके पुरुषर्षभ ।। १६ ।। 

पुत्रास्ते5 भ्यर्दयन्‌ भीम॑ दश दाशरथे: समा: । 

नरश्रेष्ठ) वीर बाह्लीकके मारे जानेपर श्रीरामचन्द्रजीके समान पराक्रमी आपके दस पुत्र 
भीमसेनको पीड़ा देने लगे || १६३ ।। 

नागदत्तो दृढरथो महाबाहुरयोभुज: ।। १७ ।। 

दृढ: सुहस्तो विरजा: प्रमाथ्युग्रोडनुयाय्यपि । 

उनके नाम इस प्रकार हैं--नागदत्त, दृढ़रथ (दृढ़रथाश्रय), महाबाहु, अयोभुज 
(अयोबाहु), दृढ़ (दृढ़क्षत्र), सुहस्त, विरजा, प्रमाथी, उग्र (उम्रश्रवा) और अनुयायी 
(अग्रयायी) ।। १७६ ।। 

तान्‌ दृष्टवा चुक्रुधे भीमो जगृहे भारसाधनान्‌ ॥। १८ ।। 

एकमेकं समुद्दिश्य पातयामास मर्मसु । 

उनको सामने देखकर भीमसेन कुपित हो उठे। उन्होंने प्रत्येकके लिये एक-एक करके 
भारसाधनमें समर्थ दस बाण हाथमें लिये और उन्हें उनके मर्मस्थानोंपर चलाया ।। १८६ ।। 

ते विद्धा व्यसव: पेतु: स्यन्दने भ्यो हतौजस: ।। १९ |। 

चण्डवातप्रभग्नास्तु पर्वताग्रान्महीरुहा: । 

उन बाणोंसे घायल होकर आपके पुत्र अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे और पर्वतशिखरसे 
प्रचण्ड वायुद्वारा उखाड़े हुए वृक्षोंक समान तेजोहीन होकर रथोंसे नीचे गिर पड़े || १९३६ 

|| 

नाराचैर्दशभिर्भीमस्तान्‌ निहत्य तवात्मजान्‌ ॥। २० ।। 

कर्णस्य दयितं पुत्रं वृषसेनमवाकिरत्‌ । 

आपके उन पुत्रोंको दस नाराचोंद्वारा मारकर भीमसेनने कर्णके प्यारे पुत्र वृषसेनपर 
बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी || २०३६ || 

ततो वृकरथो नाम भ्राता कर्णस्य विश्रुत: ।। २१ ।। 

जघान भीम॑ नाराचैस्तमप्यभ्यद्रवद्‌ बली । 

तदनन्तर कर्णके सुविख्यात बलवान्‌ भ्राता वकरथने आकर भीमसेनपर भी आक्रमण 
किया और उन्हें नाराचोंद्वारा घायल कर दिया || २१६ ।। 


ततः सप्त रथान्‌ वीर: स्यालानां तव भारत ।। २२ ।। 

निहत्य भीमो नाराचै: शतचन्द्रमपोथयत्‌ | 

भारत! तत्पश्चात्‌ वीर भीमसेनने आपके सालोंमेंसे सात रथियोंको नाराचोंद्वारा मारकर 
शतचन्द्रको भी कालके गालमें भेज दिया || २२६ ।। 

अमर्षयन्तो निहतं शतचन्द्रं महारथम्‌ ।। २३ ।। 

शकुने भ्रातरो वीरा गवाक्ष: शरभो विभु: । 

सुभगो भानुदत्तश्न शूरा: पजच महारथा: ॥। २४ ।। 

अभिद्र॒त्य शरैस्तीकणैरभीमसेनमताडयन्‌ । 

महारथी शतचन्द्रके मारे जानेपर अमर्षमें भरे हुए शकुनिके वीर भाई गवाक्ष, शरभ, 
विभु, सुभग और भानुदत्त--ये पाँच शूर महारथी भीमसेनपर टूट पड़े और उन्हें पैने 
बाणोंद्वारा घायल करने लगे || २३-२४ $ ।। 

स ताड्यमानो नाराचैरवृष्टिवेगैरिवाचल: ।। २५ ।। 

जघान पज्चभिर्बाणै: पञ्चैवातिरथान्‌ बली । 

जैसे वर्षाके वेगसे पर्वत आहत होता है, उसी प्रकार उनके नाराचोंसे घायल होकर 
बलवान्‌ भीमसेनने अपने पाँच बाणोंद्वारा उन पाँचों अतिरथी वीरोंको मार डाला ।। २५६ 

|| 

तान्‌ दृष्टवा निहतान्‌ वीरान्‌ विचेलुर्नृपसत्तमा: || २६ ।। 

ततो युधिष्ठिर: क्रुद्धस्तवतानीकमशातयत्‌ । 

मिषत: कुम्भयोनेस्तु पुत्राणां तव चानघ ।। २७ ।। 

उन पाँचों वीरोंको मारा गया देख सभी श्रेष्ठ नरेश विचलित हो उठे। निष्पाप नरेश्वर! 
तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए राजा युधिष्ठिर द्रोणाचार्य तथा आपके पुत्रोंके देखते-देखते 
आपकी सेनाका संहार करने लगे ।। 

अम्बष्ठान्‌ मालवाजछूरांस्त्रिगर्तानू स शिबीनपि । 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्रुद्धो युद्धे युधिछ्विर: ।। २८ ।। 

उस युद्धमें क्रुद्ध होकर युधिष्ठिरने अम्बष्ठों, मालवों, शूरवीर त्रिगर्तों तथा शिविदेशीय 
सैनिकोंको भी मृत्युके लोकमें भेज दिया ।। २८ ।। 

अभीषाहाउुछूरसेनान्‌ बाह्लीकान्‌ सवसातिकान्‌ | 

निकृत्य पृथिवीं राजा चक्रे शोणितकर्दमाम्‌ ।। २९ ।। 

अभीषाह, सूरसेन, बाह्नीक और वसातिदेशीय योद्धाओंको नष्ट करके राजा युधिष्ठिरने 
इस भूतलपर रक्तकी कीच मचा दी ।। २९ ।। 

यौधेयान्‌ मालवान्‌ राजन्‌ मद्रकाणां गणान्‌ युधि । 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय शूरान्‌ बाणैर्युधिष्ठिर: || ३० ।। 


राजन! युधिष्ठिरने अपने बाणोंसे यौधेय, मालव तथा शूरवीर मद्रकगणोंको मृत्युके 
लोकमें भेज दिया ।। ३० ।। 

हताहरत गृह्नीत विध्यत व्यवकृन्तत । 

इत्यासीत्‌ तुमुलः शब्दो युधिष्ठिररथं प्रति ।। ३१ ।। 

युधिष्ठिरके रथके आसपास “मारो, ले आओ, पकड़ो, घायल करो, टुकड़े-टुकड़े कर 
डालो' इत्यादि भयंकर शब्द गूँजने लगा ।। ३१ ।। 

सैन्यानि द्रावयन्तं त॑ द्रोणो दृष्टवा युधिष्ठिरम्‌ । 

चोदितस्तव पुत्रेण सायकैरभ्यवाकिरत्‌ ।। ३२ ।। 

द्रोणाचार्यने युधिष्ठिको अपनी सेनाओंको खदेड़ते देख आपके पुत्र दुर्योधनसे प्रेरित 
होकर उनपर बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। ३२ ।। 

द्रोणस्तु परमक्रुद्धों वायव्यास्त्रेण पार्थिवम्‌ । 

विव्याध सो5पि तद्‌ दिव्यमस्त्रमस्त्रेण जध्निवान्‌ ।। ३३ ।। 

अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए द्रोणाचार्यने वायव्यास्त्रसे राजा युधिष्ठिरको बींध डाला। 
युधिष्ठिरने भी उनके दिव्यास्त्रोंको अपने दिव्यास्त्रसे ही नष्ट कर दिया || ३३ ।। 

तस्मिन्‌ विनिहते चास्त्रे भारद्वाजो युधिष्ठिरे । 

वारुणं याम्यमाग्नेयं त्वाष्टूं सावित्रमेव च ।। ३४ ।। 

चिक्षेप परमक्रुद्धों जिघांसु: पाण्डुनन्दनम्‌ । 

उस अस्त्रके नष्ट हो जानेपर द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरपर क्रमश: वारुण, याम्य, आग्नेय, 
त्वाष्ट और सावित्र नामक दिव्यास्त्र चलाया; क्योंकि वे अत्यन्त कुपित होकर पाण्डुनन्दन 
युधिष्ठिरको मार डालना चाहते थे || ३४६ ।। 

क्षिप्तानि क्षिप्यमाणानि तानि चास्त्राणि धर्मज: ।। ३५ ।। 

जधघानास्त्रैर्महाबाहु: कुम्भयोनेरवित्रसन्‌ । 

परंतु महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिरने द्रोणाचार्यसे तनिक भी भय न खाकर उनके द्वारा 
चलाये गये और चलाये जानेवाले सभी अस्त्रोंको अपने दिव्यास्त्रोंसे नष्ट कर दिया ।। ३५३६ 

|| 

सत्यां चिकीर्षमाणस्तु प्रतिज्ञां कुम्भसम्भव: ।। ३६ ।। 

प्रादुश्चक्रेउस्त्रमैन्द्र वै प्राजापत्यं च भारत । 

जिधघांसुर्धर्मतनयं तव पुत्रहिते रत: ।। ३७ ।। 

भारत! द्रोणाचार्यने अपनी प्रतिज्ञाको सच्ची करनेकी इच्छासे आपके पुत्रके हितमें 
तत्पर हो धर्मपुत्र युधिष्ठिककों मार डालनेकी अभिलाषा लेकर उनके ऊपर ऐन्द्र और 
प्राजापत्य नामक अस्त्रोंका प्रयोग किया || ३६-३७ ।। 

पति: कुरूणां गजसिंहगामी 

विशालवक्षा: पृथुलोहिताक्ष: । 


प्रादुश्षकारास्त्रमहीनतेजा 
माहेन्द्रमन्‍न्यत्‌ स जघान तेन ॥। ३८ ।। 

तब गज और सिंहके समान गतिवाले, विशाल वक्ष:स्थलसे सुशोभित, बड़े-बड़े लाल 
नेत्रोंवाले, उत्कृष्ट तेजस्वी कुरुपति युधिष्ठिरने माहेन्द्र अस्त्र प्रकट किया और उसीसे अन्य 
सभी दिव्यास्त्रोंकी नष्ट कर दिया | ३८ ।। 

विहन्यमानेष्वस्त्रेषु द्रोण: क्रोधसमन्वित: । 

युधिष्ठिरवध॑ प्रेप्सुब्राह्मिमस्त्रमुदैरयत्‌ ।। ३९ ।। 

उन अस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर क्रोधभरे द्रोणाचार्यने युधिष्ठिरका वध करनेकी इच्छासे 
ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया ।। ३९ |। 

ततो नाज्ञासिषं किंचिद्‌ घोरेण तमसा5<वृते । 

सर्वभूतानि च परं त्रासं जम्मुर्महीपते || ४० ।। 

महीपते! फिर तो मैं घोर अन्धकारसे आवृत उस युद्धसस्‍्थलमें कुछ भी जान न सका 
और समस्त प्राणी अत्यन्त भयभीत हो उठे || ४० ।। 

ब्रह्मास्त्रमुद्यतं दृष्टवा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर: । 

ब्र्मास्त्रेणैव राजेन्द्र तदस्त्रं प्रत्यवारयत्‌ ।। ४१ ।। 

राजेन्द्र! ब्रह्मास्त्रको उद्यत देख कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने ब्रह्मास्त्रसे ही उस अस्त्रका 
निवारण कर दिया ।। ४१ ।। 

ततः सैनिकमुख्यास्ते प्रशशंसुर्नरर्षभौ । 

द्रोणपार्थों महेष्वासौ सर्वयुद्धविशारदौ ।। ४२ ।। 

तदनन्तर प्रधान-प्रधान सैनिक सम्पूर्ण युद्धकलामें प्रवीण, महाधनुर्धर, नरश्रेष्ठ 
द्रोणाचार्य और युधिष्ठिरकी बड़ी प्रशंसा करने लगे || ४२ ।। 

ततः प्रमुच्य कौन्तेयं द्रोणो द्रुपदवाहिनीम्‌ | 

व्यधमत्‌ क्रोधताम्राक्षो वायव्यास्त्रेण भारत ।। ४३ ।। 

भारत! उस समय द्रोणाचार्यने कुन्तीकुमारका सामना करना छोड़कर क्रोधसे लाल 
आँखें किये वायव्यास्त्रके द्वारा द्रपदकी सेनाका संहार आरम्भ किया ।। ४३ ।। 

ते हन्यमाना दोणेन पज्चाला: प्राद्रवन्‌ भयात्‌ । 

पश्यतो भीमसेनस्य पार्थस्य च महात्मन: ।। ४४ ।। 

द्रोणाचार्यकी मार खाकर पांचाल-सैनिक भीमसेन और महात्मा अर्जुनके देखते-देखते 
भयके मारे भागने लगे ।। 

ततः किरीटी भीमश्न सहसा संन्यवर्तताम्‌ । 

महद्भयां रथवंशाभ्यां परिगृह बल॑ तदा ।। ४५ ।। 

यह देख किरीटधारी अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसेनाओंके द्वारा अपनी सेनाकी 
रोकथाम करते हुए सहसा उस ओर लौट पड़े ।। ४५ || 


बीभस्सुर्दक्षिणं पार्श्वमुत्तरं च वृकोदर: । 

भारद्वाजं शरौघाभ्यां महदभ्यामभ्यवर्षताम्‌ ।। ४६ ।। 

अर्जुनने द्रोणाचार्यके दाहिने पार्श्वमें और भीमसेनने बायें पारश्वमें महान्‌ बाणसमूहोंकी 
वर्षा आरम्भ कर दी ।। 

केकया: सृञ्जयाश्वैव पञज्चालाश्व महौजस: । 

अन्वगच्छन्‌ महाराज मत्स्याश्व सह सात्वतै ।। ४७ ।। 

महाराज! उस समय केकय, सूंजय, महातेजस्वी पांचाल, मत्स्य तथा यादव-सैनिकोंने 
भी उन दोनोंका अनुसरण किया ।। ४७ ।। 

ततः सा भारती सेना वध्यमाना किरीटिना । 

तमसा निद्रया चैव पुनरेव व्यदीर्यत ।। ४८ ।। 

उस समय किरीटधारी अर्जुनकी मार खाती हुई कौरवी-सेना अंधकार और निद्रासे 
पीड़ित हो पुनः: तितर-बितर हो गयी ।। ४८ ।। 

द्रोणेन वार्यमाणास्ते स्वयं तव सुतेन च | 

नाशक्यन्त महाराज योधा वारयितुं तदा ।। ४९ ।। 

महाराज! द्रोणाचार्य और स्वयं आपके पुत्र दुर्योधनके मना करनेपर भी उस समय 
आपके योद्धा रोके न जा सके ।। ४९ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे द्रोणयुधिष्ठिरयुद्धे 
सप्तपञ्चाशदधिकशततमो<ध्याय: ।। १५७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
द्रोणाचार्य और युधिष्ठिरका युद्धविषयक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५७ ॥। 


ऑपन-माज बछ। अफि्-"ऋण 


अष्टपञ्चाशदाधिकशततमो& ध्याय: 


दुर्योधन और कर्णकी बातचीत, कृपाचार्यद्वारा कर्णको 
फटकारना तथा कर्णद्वारा कृपाचार्यका अपमान 


संजय उवाच 

उदीर्यमाणं तद्‌ दृष्टवा पाण्डवानां महद्‌ बलम्‌ | 

अविषह्ां च मन्वान: कर्ण दुर्योधनो5ब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! पाण्डवोंकी उस विशाल सेनाका जोर बढ़ते देख उसे असहा 
मानकर दुर्योधनने कर्णसे कहा-- ।। १ ।। 

अयं स काल: सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल । 

त्रायस्व समरे कर्ण सर्वान्‌ योधान्‌ महारथान्‌ ॥। २ ।। 

पज्चालैर्मत्स्यकैकेयै: पाण्डवैश्व महारथै: । 

वृतान्‌ समन्तात्‌ संक्ुद्धै्नि:श्वसद्धिरिवोरगै: ।। ३ ।। 

“मित्रवत्सल कर्ण! यही मित्रोंके कर्तव्यपालनका उपयुक्त अवसर आया है। क्रोधमें भरे 
हुए पांचाल, मत्स्य, केकय तथा पाण्डव महारथी फुफकारते हुए सर्पोके समान भयंकर हो 
उठे हैं। उनके द्वारा चारों ओरसे घिरे हुए मेरे समस्त महारथी योद्धाओंकी आज तुम 
समरांगणमें रक्षा करो ।। 

एते नदन्ति संहृष्टा: पाण्डवा जितकाशिन: । 

शक्रोपमाश्न बहव: पज्चालानां रथव्रजा: ॥। ४ ।। 

“देखो, ये विजयसे सुशोभित होनेवाले पाण्डव तथा इन्द्रके समान पराक्रमी बहुसंख्यक 
पांचाल महारथी कैसे हर्षोत्फुल्ल होकर सिंहनाद कर रहे हैं! ।। ४ ।। 

कर्ण उवाच 

परित्रातुमिह प्राप्तो यदि पार्थ पुरंदर: । 

तमप्याशु पराजित्य ततो हन्तास्मि पाण्डवम्‌ ।। ५ ।। 

कर्णने कहा--राजन्‌! यदि साक्षात्‌ इन्द्र यहाँ कुन्तीकुमार अर्जुनकी रक्षा करनेके लिये 
आ गये हों तो उन्हें भी शीघ्र ही पराजित करके मैं पाण्डुपुत्र अर्जुनको अवश्य मार 
डालूँगा ।। ५ |। 

सत्य॑ ते प्रतिजानामि समाश्चसिहि भारत । 

हन्तास्मि पाण्डुतनयान्‌ पज्चालांश्व समागतान्‌ ॥। ६ ।। 

भरतनन्दन! तुम धैर्य धारण करो। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि 
युद्धस्थलमें आये हुए पाण्डवों तथा पांचालोंको निश्चय ही मारूँगा ।। ६ ।। 


जयं ते प्रतिदास्थामि वासवस्थेव पावकि: । 

प्रियं तव मया कार्यमिति जीवामि पार्थिव ।। ७ ।। 

जैसे अग्निकुमार कार्तिकेयने तारकासुरका विनाश करके इन्द्रको विजय दिलायी थी, 
उसी प्रकार मैं आज तुम्हें विजय प्रदान करूँगा। भूपाल! मुझे तुम्हारा प्रिय करना है, 
इसीलिये जीवन धारण करता हूँ ।। ७ ।। 

सर्वेषामेव पार्थानां फाल्गुनो बलवत्तर: | 

तस्यामोघां विमोक्ष्यामि शक्ति शक्रविनिर्मिताम्‌ ।। ८ ।। 

कुन्तीके सभी पुत्रोंमें अर्जुन ही अधिक शक्तिशाली हैं, अतः मैं इन्द्रकी दी हुई अमोघ 
शक्तिको अर्जुनपर ही छोड़ूँगा ।। ८ ।। 

तस्मिन्‌ हते महेष्वासे भ्रातरस्तस्य मानद । 

तव वश्या भविष्यन्ति वनं यास्यन्ति वा पुन: ।। ९ ।। 

मानद! महाधनुर्धर अर्जुनके मारे जानेपर उनके सभी भाई तुम्हारे वशमें हो जायाँगे 
अथवा पुनः वनमें चले जायँगे ।। ९ ।। 

मयि जीवति कौरव्य विषादं मा कृथा: क्वचित्‌ | 

अहं जेष्यामि समरे सहितान्‌ सर्वपाण्डवान्‌ ॥। १० ।। 

कुरुनन्दन! तुम मेरे जीते-जी कभी विषाद न करो। मैं समरभूमिमें संगठित होकर आये 
हुए समस्त पाण्डवोंको जीत लूँगा || १० ।। 

पंचालान्‌ केकयांश्वैव वृष्णीश्वापि समागतान्‌ | 

बाणौचै: शकलीकृत्य तव दास्यामि मेदिनीम्‌ ।। ११ ।। 

मैं अपने बाणसमूहोंद्वारा रणभूमिमें पधारे हुए पांचालों, केकयों और वृष्णिवंशियोंके 
भी टुकड़े-टुकड़े करके यह सारी पृथ्वी तुम्हें दे ूँगा || ११ ।। 

संजय उवाच 

एवं ब्रुवाणं कर्ण तु कृप: शारद्वतोड<ब्रवीत्‌ 

स्मयन्निव महाबाहु: सूतपुत्रमिदं वच: ।। १२ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस तरहकी बातें करते हुए सूतपुत्र कर्णसे शरद्वानके पुत्र 
महाबाहु कृपाचार्यने मुसकराते हुए-से यह बात कही-- ।। १२ ।। 

शोभनं शोभनं कर्ण सनाथ: कुरुपुड्गभव: । 

त्वया नाथेन राधेय वचसा यदि सिध्यति ।। १३ ।। 

“कर्ण! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! राधापुत्र! यदि बात बनानेसे ही कार्य सिद्ध हो 
जाय, तब तो तुम-जैसे सहायकको पाकर कुरुराज दुर्योधन सनाथ हो गये ।। १३ ।। 

बहुश: कत्थसे कर्ण कौरवस्य समीपतः । 

नतुते विक्रम: कश्चिद्‌ दृश्यते फलमेव वा ।। १४ ।। 


“कर्ण! तुम कुरुनन्दन सुयोधनके समीप तो बहुत बढ़कर बातें किया करते हो; किंतु न 
तो कभी कोई तुम्हारा पराक्रम देखा जाता है और न उसका कोई फल ही सामने आता 
है ।। १४ ।। 

समागम: पाण्डुसुतैर्दृष्टस्ते बहुशो युधि । 

सर्वत्र निर्जितश्चासि पाण्डवै: सूतनन्दन ।। १५ ।। 

'सूतनन्दन! पाण्डुके पुत्रोंसे युद्धस्थलमें तुम्हारी अनेकों बार मुठभेड़ हुई है; पंरतु सर्वत्र 
पाण्डवोंसे तुम्हीं परास्त हुए हो ।। १५ ।। 

ह्वियमाणे तदा कर्ण गन्धर्वर्धृतराष्ट्रजे । 

तदायुध्यन्त सैन्यानि त्वमेको5ग्रेडपलायिथा: ।। १६ ।। 

“कर्ण! याद है कि नहीं, जब गन्धर्व दुर्योधनको पकड़कर लिये जा रहे थे, उस समय 
सारी सेना तो युद्ध कर रही थी और अकेले तुम ही सबसे पहले पलायन कर गये 
थे।। १६ |। 

विराटनगरे चापि समेता: सर्वकौरवा: । 

पार्थेन निर्जिता युद्धे त्वं च कर्ण सहानुज: ।। १७ ।। 

“कर्ण! विराट नगरमें भी सम्पूर्ण कौरव एकत्र हुए थे; किंतु अर्जुनने अकेले ही वहाँ 
सबको हरा दिया था। कर्ण! तुम भी अपने भाइयोंके साथ परास्त हुए थे ।। १७ ।। 

एकस्याप्यसमर्थस्त्वं फाल्गुनस्य रणाजिरे । 

कथमुत्सहसे जेतुं सकृष्णान्‌ सर्वपाण्डवान्‌ ।। १८ ।। 

“समरांगणमें अकेले अर्जुनका सामना करनेकी भी तुममें शक्ति नहीं है; फिर 
श्रीकृष्णसहित सम्पूर्ण पाण्डवोंको जीत लेनेका उत्साह कैसे दिखाते हो? ।। 

अब्रुवन्‌ कर्ण युध्यस्व कत्थसे बहु सूनज । 

अनुकक्‍्त्वा विक्रमेद्‌ यस्तु तद्‌ वै सत्पुरुषब्रतम्‌ ।। १९ ।। 

'सूतपुत्र कर्ण! चुपचाप युद्ध करो। तुम बातें बहुत बनाते हो। जो बिना कुछ कहे ही 
पराक्रम दिखाये, वही वीर है और वैसा करना ही सत्पुरुषोंका व्रत है ।। १९ ।। 

गर्जित्वा सूतपुत्र त्वं शारदा भ्रमिवाफलम्‌ | 

निष्फलो दृश्यसे कर्ण तच्च राजा न बुध्यते ।। २० ।। 

'सूतपुत्र कर्ण! तुम शरद्‌-ऋतुके निष्फल बादलोंके समान गर्जना करके भी निष्फल ही 
दिखायी देते हो; किंतु राजा दुर्योधन इस बातको नहीं समझ रहे हैं ।। 

तावद्‌ गर्जस्व राधेय यावत्‌ पार्थ न पश्यसि | 

आरात्‌ परर्थ हि ते दृष्टवा दुर्लभं गर्जितं पुन: ।। २१ ।। 

'राधानन्दन! जबतक तुम अर्जुनको नहीं देखते हो, तभीतक गर्जना कर लो। 
कुन्तीकुमार अर्जुनको समीप देख लेनेपर फिर यह गर्जना तुम्हारे लिये दुर्लभ हो जायगी ।। 

त्वमनासाद्य तान्‌ बाणान्‌ फाल्गुनस्य विगर्जसि । 


पार्थसायकविद्धस्य दुर्लभं गर्जितं तव ।। २२ ।। 

“जबतक अर्जुनके वे बाण तुम्हारे पड़ रहे हैं, तभीतक तुम जोर-जोरसे गरज रहे हो। 
अर्जुनके बाणोंसे घायल होनेपर तुम्हारे लिये यह गर्जन-तर्जन दुर्लभ हो जायगा || २२ ।। 

बाहुभि: क्षत्रिया: शूरा वाम्भि: शूरा द्विजातय: । 

धनुषा फाल्गुन: शूर: कर्ण: शूरो मनोरथै: ।। २३ ।। 

तोषितो येन रुद्रोडपि कः पार्थ प्रतिघातयेत्‌ । 

क्षत्रिय अपनी भुजाओंसे शौर्यका परिचय देते हैं। ब्राह्मण वाणीद्वारा प्रवचन करनेमें 
वीर होते हैं। अर्जुन धनुष चलानेमें शूर हैं; किंतु कर्ण केवल मनसूबे बाँधनेमें वीर है। 
जिन्होंने अपने पराक्रमसे भगवान्‌ शंकरको भी संतुष्ट किया है, उन अर्जुनको कौन मार 
सकता है?” ।। 

एवं संरुषितस्तेन तदा शारद्वतेन ह ।। २४ ।। 

कर्ण: प्रहरतां श्रेष्ठ: कृपं वाक्यमथाब्रवीत्‌ | 

उन कृपाचार्यके ऐसा कहनेपर योद्धाओंमें श्रेष्ठ कर्णने उस समय रुष्ट होकर कृपाचार्यसे 
इस प्रकार कहा-- || २४३ || 

शूरा गर्जन्ति सततं प्रावषीव बलाहका: ।। २५ ।। 

फल चाशु प्रयच्छन्ति बीजमुप्तमृताविव । 

'शूरवीर वर्षाकालके मेघोंकी तरह सदा गरजते हैं और ठीक ऋतुमें बोये हुए बीजके 
समान शीघ्र ही फल भी देते हैं || २५३ ।। 

दोषमत्र न पश्यामि शूराणां रणमूर्थनि || २६ ।। 

तत्तद्‌ विकत्थमानानां भारं चोद्धहतां मृथे । 

'युद्धस्थलमें महान्‌ भार उठानेवाले शूरवीर यदि युद्धके मुहानेपर अपनी प्रशंसाकी ही 
बातें कहते हैं तो इसमें मुझे उनका कोई दोष नहीं दिखायी देता || २६३ ।। 

यं भारं पुरुषों वोढुं मनसा हि व्यवस्यति ।। २७ ।। 

दैवमस्य ध्रुवं तत्र साहाय्यायोपपद्यते | 

“पुरुष अपने मनसे जिस भारको ढोनेका निश्चय करता है, उसमें दैव अवश्य ही उसकी 
सहायता करता है ।। 

व्यवसायद्वितीयो5हं मनसा भारमुद्रहन्‌ ।। २८ ।। 

हत्वा पाण्ड्सुतानाजी सकृष्णान्‌ सहसात्वतान्‌ | 

गर्जामि यद्य॒हं विप्र तव कि तत्र नश्यति ।। २९ ।। 

“मैं मनसे जिस कार्यईभारका वहन कर रहा हूँ, उसकी सिद्धिमें दृढ़ निश्चय ही मेरा 
सहायक है। विप्रवर! मैं कृष्ण और सात्यकिसहित समस्त पाण्डवोंको युद्धमें मारनेका 
निश्चय करके यदि गरज रहा हूँ तो उसमें आपका क्‍या नष्ट हुआ जा रहा है? ।। २८-२९ ।। 

वृथा शूरा न गर्जन्ति शारदा इव तोयदा: । 


सामर्थ्यमात्मनो ज्ञात्वा ततो गर्जन्ति पण्डिता: ।। ३० ।। 

'शरद-ऋतुके बादलोंके समान शूरवीर व्यर्थ नहीं गरजते हैं। विद्वान्‌ पुरुष पहले अपनी 
सामर्थ्यको समझ लेते हैं, उसके बाद गर्जना करते हैं || ३० ।। 

सो5हमद्य रणे यत्तौ सहितौ कृष्णपाण्डवौ । 

उत्सहे मनसा जेतुं ततो गर्जामि गौतम ।। ३१ ।। 

“गौतम! आज मैं रणभूमिमें विजयके लिये साथ-साथ प्रयत्न करनेवाले श्रीकृष्ण और 
अर्जुनको जीत लेनेके लिये मन-ही-मन उत्साह रखता हूँ। इसीलिये गर्जना करता 
हूँ ।। ३१ ।। 

पश्य त्वं गर्जितस्यास्य फल मे विप्र सानुगान्‌ । 

हत्वा पाण्ड्सुतानाजी सहकृष्णान्‌ ससात्वतान्‌ ।। ३२ ।। 

दुर्योधनाय दास्यामि पृथिवीं हतकण्टकाम्‌ । 

“ब्रह्म! मेरी इस गर्जनाका फल देख लेना। मैं युद्धमें श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा 
अनुगामियोंसहित पाण्डवोंको मारकर इस भूमण्डलका निष्कण्टक राज्य दुर्योधनको दे 
दूँगा' ।। 





कृप उवाच 
मनोरथप्रलापा मे न ग्राह्मास्तव सूतज ।। ३३ ।। 


सदा क्षिपसि वै कृष्णौ धर्मराजं च पाण्डवम्‌ | 

ध्रुवस्तत्र जय: कर्ण यत्र युद्धविशारदौ ।। ३४ ।। 

कृपाचार्य बोले--सूतपुत्र! तुम्हारे ये मनसूबे बाँधनेके निरर्थक प्रलाप मेरे लिये 
विश्वासके योग्य नहीं हैं। कर्ण! तुम सदा ही श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरपर 
आक्षेप किया करते हो; परंतु विजय उसी पक्षकी होगी, जहाँ युद्धविशारद श्रीकृष्ण और 
अर्जुन विद्यमान हैं ।। ३३-३४ ।। 

देवगन्धर्वयक्षाणां मनुष्योरगरक्षसाम्‌ । 

दंशितानामपि रणे अजेयौ कृष्णपाण्डवौ ।। ३५ ।। 

यदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, सर्प और राक्षस भी कवच बाँधकर युद्धके लिये आ 
जायाँ तो रणभूमिमें श्रीकृष्ण और अर्जुनको वे भी जीत नहीं सकते ।। ३५ ।। 

ब्रह्मण्य: सत्यवाग दान्तो गुरुदैवतपूजक: । 

नित्यं धर्मरतश्नैव कृतास्त्रश्न विशेषत: ।। ३६ ।। 

धृतिमांश्व कृतज्ञश्न धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: । 

धर्मपुत्र युधिष्ठिर ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, गुरु और देवताओंका सम्मान 
करनेवाले, सदा धर्मपरायण, अस्त्रविद्यामें विशेष कुशल, धैर्यवान्‌ और कृतज्ञ हैं || ३६३ ।। 

भ्रातरश्नास्य बलिन: सर्वस्त्रिषु कृतश्रमा: || ३७ ।। 

गुरुवृत्तिरता: प्राज्ञा धर्मनित्या यशस्विन: । 

इनके बलवान्‌ भाई भी सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी कलामें परिश्रम किये हुए हैं। वे 
गुरुसेवापरायण, विद्वान, धर्मतत्पर और यशस्वी हैं || ३७३ ।। 

सम्बन्धिननश्रेन्द्रवीर्या: स्वनुरक्ता: प्रहारिण: ।। ३८ ।। 

धृष्टद्युम्म: शिखण्डी च दौर्मुखिर्जनमेजय: । 

चन्द्रसेनो रुद्रसेन: कीर्तिधर्मा ध्रुवो धर: ।। ३९ ।। 

वसुचन्द्रो दामचन्द्र: सिंहचन्द्र: सुतेजन: । 

द्रुपदस्य तथा पुत्रा द्रुपदश्च महास्त्रवित्‌ ।। ४० ।। 

उनके सम्बन्धी भी इन्द्रके समान पराक्रमी, उनमें अनुराग रखनेवाले और प्रहार करनेमें 
कुशल हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं--धृष्टद्युम्म, शिखण्डी, दुर्मुखपुत्र जनमेजय, चन्द्रसेन, 
रुद्रसेन, कीर्तिधर्मा, ध्रुव, धर, वसुचन्द्र, दामचन्द्र, सिंहचन्द्र, सुतेजन, द्रुपदके पुत्रगण तथा 
महान्‌ अस्त्रवेत्ता द्रपद || ३८--४० ।। 

येषामर्थाय संयत्तों मत्स्यराज: सहानुज: । 

शतानीक: सूर्यदत्त: श्रुतानीक: श्रुतध्वज: ।। ४१ ।। 

बलानीको जयानीको जयाश्वो रथवाहन: । 

चन्द्रोदय: समरथो विराटभ्रातर: शुभा: ।। ४२ ।। 

यमौ च द्रौपदेयाश्न राक्षसश्र॒ घटोत्कच: । 


येषामर्थाय युध्यन्ते न तेषां विद्यते क्षय: ।। ४३ ।। 

जिनके लिये शतानीक, सूर्यदत्त, श्रुतानीक, श्रुतध्वज, बलानीक, जयानीक, जयाश्व, 
रथवाहन, चन्द्रोदय तथा समरथ--ये विराटके श्रेष्ठ भाई और इन भाइयोंसहित मत्स्यराज 
विराट युद्ध करनेको तैयार हैं, नकुल, सहदेव, द्रौपदीके पुत्र तथा राक्षस घटोत्कच--ये वीर 
जिनके लिये युद्ध कर रहे हैं, उन पाण्डवोंकी कभी कोई क्षति नहीं हो सकती है || ४१-- 
४३ ।। 

एते चान्ये च बहवो गुणा: पाण्डुसुतस्य वै । 

कामं॑ खलु जगत्सर्व॑ सदेवासुरमानुषम्‌ ।। ४४ ।। 

सयक्षराक्षसगणं सभूतभुजगद्धिपम्‌ । 

निःशेषमस्त्रवीर्येण कुर्वाते भीमफाल्गुनौ ।। ४५ ।। 

पाणए्डुपुत्र युधिष्ठिरके ये तथा और भी बहुत-से गुण हैं। भीमसेन और अर्जुन यदि चाहें 
तो अपने अस्त्रबलसे देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, भूत, नाग और हाथियोंसहित इस 
सम्पूर्ण जगत्‌का सर्वथा विनाश कर सकते हैं ।। 

युधिष्ठिरश्न पृथिवीं निर्दहेद्‌ घोरचक्षुषा । 

अप्रमेयबल: शौरियेंषामर्थे च दंशित: ।। ४६ ।। 

कथं तान्‌ संयुगे कर्ण जेतुमुत्सहसे परान्‌ । 

युधिष्ठिर भी यदि रोषभरी दृष्टिसे देखें तो इस भूमण्डलको भस्म कर सकते हैं। कर्ण! 
जिनके लिये अनन्त बलशाली भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी कवच धारण करके लड़नेको तैयार हैं, 
उन शत्रुओंको युद्धमें जीतनेका साहस तुम कैसे कर रहे हो? ।। ४६६ ।। 

महानपनयस्त्वेष नित्यं हि तव सूतज ।। ४७ ।। 

यस्त्वमुत्सहसे योद्धुं समरे शौरिणा सह । 

सूतपुत्र! तुम जो सदा समरभूमिमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेका उत्साह 
दिखाते हो, यह तुम्हारा महान्‌ अन्याय (अक्षम्य अपराध) है ।। ४७३ ।। 

संजय उवाच 

एवमुक्तस्तु राधेय: प्रहसन्‌ भरतर्षभ ।। ४८ ।। 

अब्रवीच्च तदा कर्णों गुरुं शारद्वतं कृपम्‌ 

संजय कहते हैं--भरतश्रेष्ठ) उनके ऐसा कहनेपर राधापुत्र कर्ण ठठाकर हँस पड़ा 
और शरद्वानके पुत्र गुरु कृपाचार्यसे उस समय यों बोला-- || ४८ ई ।। 

सत्यमुक्त त्वया ब्रह्मन्‌ पाण्डवान्‌ प्रति यद्‌ वच: ।। ४९ |। 

एते चान्ये च बहवो गुणा: पाण्डुसुतेषु वै 

“बाबाजी! पाण्डवोंके विषयमें तुमने जो बात कही है वह सब सत्य है। यही नहीं, 
पाण्डवोंमें और भी बहुत-से गुण हैं || ४९३ ।। 


अजय्याश्षु रणे पार्था देवैरपि सवासवै: ।। ५० || 

सदैत्ययक्षगन्धर्वै: पिशाचोरगराक्षसै: । 

“यह भी ठीक है कि कुन्तीके पुत्रोंको रणभूमिमें इन्द्र आदि देवता, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, 
पिशाच, नाग और राक्षस भी जीत नहीं सकते || ५० है |। 

तथापि पार्थउ्जेष्यामि शक्‍्त्या वासवदत्तया ।। ५१ ।। 

मम ह्वमोघा दत्तेयं शक्ति: शक्रेण वै द्विज । 

एतया निहनिष्यामि सव्यसाचिनमाहवे ।। ५२ |। 

“तथापि मैं इन्द्रकी दी हुई शक्तिसे कुन्तीके पुत्रोंको जीत लूँगा। ब्रह्मन! मुझे इन्द्रने यह 
अमोघ शक्ति दे रखी है; इसके द्वारा मैं सव्यसाची अर्जुनको युद्धमें अवश्य मार 
डालूँगा ।। ५१-५२ ।। 

हते तु पाण्डवे कृष्णे भ्रातरश्नास्यथ सोदरा: । 

अनर्जुना न शक्ष्यन्ति महीं भोक्तुं कथठचन ।। ५३ ।। 

'पाण्डुपुत्र अर्जुनके मारे जानेपर उनके बिना उनके सहोदर भाई किसी तरह इस 
पृथ्वीका राज्य नहीं भोग सकेंगे ।। ५३ ।। 

तेषु नष्टेषु सर्वेषु पृथिवीयं ससागरा । 

अयत्नात्‌ कौरवेन्द्रस्य वशे स्थास्यति गौतम ।। ५४ ।। 

“गौतम! उन सबके नष्ट हो जानेपर बिना किसी प्रयत्नके ही यह समुद्रसहित सारी 
पृथ्वी कौरवराज दुर्योधनके वशमें हो जायगी ।। ५४ ।। 

सुनीतैरिह सर्वार्था: सिध्यन्ते नात्र संशय: । 

एतमर्थमहं ज्ञात्वा ततो ग्जामि गौतम ।॥। ५५ ।। 

“गौतम! इस संसारमें सुनीतिपूर्ण प्रयत्नोंसे सारे कार्य सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं 
है। इस बातको समझकर ही मैं गर्जना करता हूँ ।। ५५ ।। 

त्वंतुविप्रश्न वृद्धक्ष अशक्तश्नापि संयुगे 

कृतस्नेहश्न पार्थेषु मोहान्मामवमन्यसे ।। ५६ ।। 

“तुम तो ब्राह्मण और उसमें भी बूढ़े हो। तुममें युद्ध करनेकी शक्ति है ही नहीं। इसके 
सिवा, तुम कुन्तीके पुत्रोंपर स्नेह रखते हो; इसलिये मोहवश मेरा अपमान कर रहे 
हो ।। ५६ ।। 

यद्येवं वक्ष्यससे भूयो ममाप्रियमिह द्विज । 

ततस्ते खड्गमुद्यम्य जिद्लां छेत्स्यामि दुर्मते || ५७ ।। 

“दुर्बुद्धि ब्राह्मण! यदि यहाँ पुनः इस प्रकार मुझे अप्रिय लगनेवाली बात बोलोगे तो मैं 
अपनी तलवार उठाकर तुम्हारी जीभ काट लूँगा ।। ५७ ।। 

यच्चापि पाण्डवान्‌ विप्र स्तोतुमिच्छसि संयुगे । 

भीषयन्‌ सर्वसैन्यानि कौरवेयाणि दुर्मते || ५८ ।। 


अत्रापि शृणु मे वाक्‍्यं यथावद्‌ ब्रुवतो द्विज । 

“ब्रह्मन! दुर्मते! तुम तो युद्धस्थलमें समस्त कौरव-सेनाओंको भयभीत करनेके लिये 
पाण्डवोंके गुण गाना चाहते हो, उसके विषयमें भी मैं जो यथार्थ बात कह रहा हूँ, उसे सुन 
लो || ५८ ६ || 

दुर्योधनश्च द्रोणश्व॒ शकुनिर्दुर्मुखो जय: ।। ५९ || 

दुःशासनो वृषसेनो मद्रराजस्त्वमेव च | 

सोमदत्तश्न भूरिश्व॒ तथा द्रौणिविविंशति: ।। ६० ।। 

तिष्ठेयुर्देशिता यत्र सर्वे युद्धविशारदा: । 

जयेदेतान्‌ नरः को नु शक्रतुल्यबलोडप्यरि: ।। ६१ ।। 

“दुर्योधन, द्रोण, शकुनि, दुर्मुख, जय, दुःशासन, वृषसेन, मद्रराज शल्य, तुम स्वयं, 
सोमदत, भूरि, अश्वत्थामा और विविंशति--ये युद्धकुशल सम्पूर्ण वीर जहाँ कवच बाँधकर 
खड़े हो जायाँगे, वहाँ इन्हें कौन मनुष्य जीत सकता है? वह इन्द्रके तुल्य बलवान्‌ शत्रु ही 
क्यों न हो (इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता) ।। 

शूराश्च हि कृतास्त्राश्न बलिन: स्वर्गलिप्सव: । 

धर्मज्ञा युद्धकुशला हन्युर्युद्धे सुरानपि ॥। ६२ ।। 

“जो शूरवीर, अस्त्रोंके ज्ञाता, बलवान्‌, स्वर्गप्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवाले, धर्मज्ञ और 
युद्धकुशल हैं वे देवताओंको भी युद्धमें मार सकते हैं ।। ६२ ।। 

एते स्थास्यन्ति संग्रामे पाण्डवानां वधार्थिन: । 

जयमाकाड्क्षमाणा हि कौरवेयस्य दंशिता: ।। ६३ ।। 

“ये वीरगण कुरुराज दुर्योधनकी जय चाहते हुए पाण्डवोंके वधकी इच्छासे संग्राममें 
कवच बाँधकर डट जायाँगे || ६३ ।। 

दैवायत्तमहं मनन्‍्ये जयं सुबलिनामपि | 

यत्र भीष्मो महाबाहुः शेते शरशताचित: ।। ६४ ।। 

“मैं तो बड़े-से-बड़े बलवानोंकी भी विजय दैवके ही अधीन मानता हूँ। दैवाधीन होनेके 
कारण महाबाहु भीष्म आज सैकड़ों बाणोंसे विद्ध होकर रणभूमिमें शयन करते 
हैं ।। ६४ ।। 

विकर्णश्षित्रसेनश्व॒ बाह्नलीको5थ जयद्रथ: । 

भूरिश्रवा जयश्वैव जलसंध: सुदक्षिण: ।। ६५ || 

शलश्न रथिनां श्रेष्ठो भगदत्तश्न वीर्यवान्‌ 

एते चान्ये च राजानो देवैरपि सुदुर्जया: ।। ६६ ।। 

“विकर्ण, चित्रसेन, बाह्नलीक, जयद्रथ, भूरिश्रवा, जय, जलसंध, सुदक्षिण, रथियोंमें श्रेष्ठ 
शल तथा पराक्रमी भगदत्त--ये और दूसरे भी बहुत-से राजा देवताओंके लिये भी अत्यन्त 
दुर्जय थे || ६५-६६ ।। 


निहता: समरे शूरा: पाण्डवैर्बलवत्तरा: । 

किमन्यद्‌ दैवसंयोगान्मन्यसे पुरुषाधम ।। ६७ ।। 

'परंतु उन अत्यन्त प्रबल तथा शूरवीर नरेशोंको भी पाण्डवोंने युद्धमें मार डाला। 
पुरुषाधम! तुम इसमें दैवसंयोगके सिवा दूसरा कौन-सा कारण मानते हो? ।। 

यांश्व तान्‌ स्तौषि सततं दुर्योधनरिपून्‌ द्विज । 

तेषामपि हता: शूरा: शतशो5थ सहस्रश: ।। ६८ ।। 

“ब्रह्मन! तुम दुर्योधनके जिन शत्रुओंकी सदा स्तुति करते रहते हो, उनके भी तो सैकड़ों 
और सहसौरों शूरवीर मारे गये हैं || ६८ ।। 

क्षीयन्ते सर्वसैन्यानि कुरूणां पाण्डवैः सह । 

प्रभाव॑ नात्र पश्यामि पाण्डवानां कथंचन ।। ६९ ।। 

“कौरव तथा पाण्डव दोनों दलोंकी सारी सेनाएँ प्रतिदिन नष्ट हो रही हैं। मुझे इसमें 
किसी प्रकार भी पाण्डवोंका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखायी देता है ।। 

यस्तान्‌ बलवतो नित्यं मन्यसे त्वं द्विजाधम । 

यतिष्ये5हं यथाशक्ति योद्धुं तैः सह संयुगे । 

दुर्योधनहितार्थाय “जयो दैवे प्रतिष्ठित: | ७० ॥। 

'द्विजाधम! तुम जिन्हें सदा बलवान्‌ मानते रहते हो, उन्हींके साथ मैं संग्रामभूमिमें 
दुर्योधनके हितके लिये यथाशक्ति युद्ध करनेका प्रयत्न करूँगा। विजय तो दैवके अधीन 
है" || ७० |। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे 
कृपकर्णवाक्ये$ष्टपजचाशदधिकशततमो< ध्याय: ।। १५८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
कृपाचार्य और कर्णका विवादविषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५८ ॥। 


ऑपनआक्रा बछ। लि, 


एकोनषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: 


अभश्रत्थामाका कर्णको मारनेके लिये उद्यत होना, 
दुर्योधनका उसे मनाना, पाण्डवों और पाज्चालोंका कर्णपर 
आक्रमण, कर्णका पराक्रम, अर्जुनके द्वारा कर्णकी पराजय 
तथा दुर्योधनका अश्वत्थामासे पांचालोंके वधके लिये 
अनुरोध 
संजय उवाच 
तथा परुषितं दृष्टवा सूतपुत्रेण मातुलम्‌ | 
खड्गमुद्यम्य वेगेन द्रौणिरभ्यपतद्‌ द्रुतम्‌ ।। १ ।। 
संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार अपने मामाके प्रति सूतपुत्र कर्णको कटु वचन 
सुनाते देख अश्वत्थामा बड़े वेगसे तलवार उठाकर तुरंत कर्णपर टूट पड़ा ।। १ ।। 
ततः परमसंक्रुद्धः सिंहो मत्तमिव द्विपम्‌ । 
प्रेक्षत: कुरुराजस्य द्रौणि: कर्ण समभ्ययात्‌ ।। २ ।। 
जैसे सिंह मतवाले हाथीपर झपटता है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए द्रोणकुमार 
अश्व॒ृत्थामाने कुरुराज दुर्योधनके देखते-देखते कर्णपर आक्रमण किया ।। 


अश्वत्थामोवाच 


यदर्जुनगुणांस्तथ्यान्‌ कीर्तयानं नराधम । 

शूरं द्वेषात्‌ सुददुर्बुद्धे त्वं भर्त्समपसि मातुलम्‌ ।। ३ ।। 

विकत्थमान: शौर्येण सर्वलोकथनुर्थरम्‌ । 

दर्पोत्सेधगृहीतो5द्य न कज्चिद्‌ गणयन्‌ मृथे ।। ४ ।। 

अश्वत्थामाने कहा--दुर्बुद्धि! नराधम! मेरे मामा सम्पूर्ण जगतके श्रेष्ठ धनुर्धर एवं 
शूरवीर हैं। ये अर्जुनके सच्चे गुणोंका बखान कर रहे थे, तो भी तू द्वेषवश अपनी शूरताकी 
डींग हाँकता हुआ और घमण्डमें आकर आज युद्धमें किसीको कुछ न समझता हुआ जो 
इन्हें फटकार रहा है, उसका क्‍या कारण है? ।। ३-४ ।। 

क्व ते वीर्य क्‍्व चास्त्राणि यच्त्वां निर्जित्य संयुगे । 

गाण्डीवधन्वा हतवान्‌ प्रेक्षतस्ते जयद्रथम्‌ ।। ५ ।। 

जब युद्धस्थलमें गाण्डीवधारी अर्जुनने तुझे परास्त करके तेरे देखते-देखते जयद्रथको 
मार डाला था, उस समय तेरा पराक्रम कहाँ था? तेरे वे अस्त्र-शस्त्र कहाँ चले गये 


थे? ।। ५ ।। 

येन साक्षान्महादेवो योधित: समरे पुरा । 

तमिच्छसि वृथा जेतुं सूताधम मनोरथै: ।। ६ ।। 

सूताधम! जिन्होंने समरांगणमें पहले साक्षात्‌ महादेवजीके साथ युद्ध किया है, उन्हें 
केवल मनोरथोंद्वारा जीतनेकी तू व्यर्थ इच्छा प्रकट कर रहा है || ६ ।। 

यं हि कृष्णेन सहित सर्वशस्त्रभूृतां वरम्‌ । 

जेतुं न शक्ता: सहिता: सेन्द्रा अपि सुरसुरा: ।। ७ ।। 

लोकैकवीरमजितमर्जुनं सूत संयुगे । 

कि पुनस्त्व॑ सुद्दुर्बुद्धे सहैभिरवसुधाधिपै: ।। ८ ।। 

दुर्बद्धि! सूत! जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हैं तथा श्रीकृष्णके साथ रहनेपर जिन्हें 
इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी जीतनेमें समर्थ नहीं हैं, उन्हीं लोकके एकमात्र 
अपराजित वीर अर्जुनको जीतनेके लिये इन राजाओंसहित तेरी क्या शक्ति है? ।। ७-८ ।। 

कर्ण पश्य सुददुर्बुद्धे तिछेदानीं नराधम । 

एष तेड्द्य शिर: कायादुद्धरामि सुदुर्मते ॥। ९ ।। 

दुर्बद्धि नराधम! कर्ण! तू देख और खड़ा रह। दुर्मते! मैं अभी तेरा सिर धड़से उतार 
लेता हूँ ।। ९ ।। 

संजय उवाच 

तमुद्यतं तु वेगेन राजा दुर्योधन: स्वयम्‌ । 

न्यवारयन्महातेजा: कृपश्च द्विपदां वर: ।। १० ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार वेगपूर्वक उठे हुए अश्वत्थामाको महातेजस्वी 
स्वयं राजा दुर्योधन तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ कृपाचार्यने रोका ।। १० ।। 

कर्ण उवाच 

शूरो5यं समरश्लाघी दुर्मतिश्न द्विजाधम: । 

आसादयतु मद्दीर्य मुज्चेमं कुरुसत्तम ।। ११ ।। 

कर्ण बोला--कुरुश्रेष्ठ! यह दुर्बुद्धि एवं नीच ब्राह्मण बड़ा शूरवीर बनता है और 
युद्धकी श्लाघा रखता है। तुम इसे छोड़ दो। आज यह मेरे पराक्रमका सामना करे ।। ११ ।। 

अश्वत्थामोवाच 


तवैतत्‌ क्षम्यतेडस्माभि: सूतात्मज सुदुर्मते । 

दर्पमुत्सिक्तमेतत्‌ ते फाल्गुनो नाशयिष्यति ।। १२ ।। 

अश्वत्थामाने कहा--दुर्बुद्धि सूतपुत्र! हमलोग तेरे इस अपराधको क्षमा करते हैं। तेरे 
इस बढ़े हुए घमण्डका नाश अर्जुन करेंगे || १२ ।। 


दुर्योधन उवाच 


अश्वत्थामन्‌ प्रसीदस्व क्षन्तुमहसि मानद । 

कोप: खलु न कर्तव्य: सूतपुत्रं कथंचन ।॥। १३ ।। 

दुर्योधन बोला--दूसरोंको मान देनेवाले (भाई) अश्वत्थामा! प्रसन्न होओ। तुम्हें क्षमा 
करना चाहिये। सूतपुत्र कर्णपर तुम्हें किसी प्रकार भी क्रोध करना उचित नहीं है || १३ ।। 

त्वयि कर्णे कृपे द्रोणे मद्रराजेडथ सौबले । 

महत्‌ कार्य समासक्तं प्रसीद द्विजसत्तम || १४ ।। 

द्विजश्रेष्ठ! तुमपर, कर्णपर तथा कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, मद्रराज शल्य और शकुनिपर 
महान्‌ कार्यभार रखा गया है; तुम प्रसन्न होओ ।। १४ ।। 

एते हाभिमुखा: सर्वे राधेयेन युयुत्सव: । 

आयान्ति पाण्डवा ब्रद्वान्नाह्नयन्त: समन्तत: ।। १५ ।। 

ब्रह्मन! ये सामने राधापुत्र कर्णके साथ युद्धकी अभिलाषा रखकर समस्त पाण्डव- 
सैनिक सब ओरसे ललकारते आ रहे हैं ।। १५ ।। 

संजय उवाच 

प्रसाद्यमानस्तु ततो राज्ञा द्रौणिमहामना: । 

प्रससाद महाराज क्रोधवेगसमन्वित: ।। १६ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! राजा दुर्योधनके मनानेपर क्रोधके वेगसे युक्त महामना 
अश्र॒त्थामा शान्त एवं प्रसन्न हो गया ।। १६ ।। 

ततः: कृपो<प्युवाचेदमाचार्य: सुमहामना: । 

सौम्यस्वभावादू राजेन्द्र क्षिप्रमागतमार्दव: || १७ ।। 

राजेन्द्र! तत्पश्चात्‌ सौम्य स्वभावके कारण शीघ्र ही मृदुता आ जानेसे महामना 
कृपाचार्य भी शान्त हो गये और इस प्रकार बोले ।। १७ ।। 


कृप उवाच 

तवैतत्‌ क्षम्यतेडस्माभि: सूतात्मज सुदुर्मते । 

दर्पमुत्सिक्तमेतत्‌ ते फाल्गुनो नाशयिष्यति ।। १८ ।। 

कृपाचार्यने कहा--दुर्बुद्धि सूतपुत्र! हमलोग तो तेरे इस अपराधको क्षमा कर देते हैं; 
परंतु अर्जुन तेरे इस बढ़े हुए घमंडका अवश्य नाश करेंगे ।। १८ ।। 

संजय उवाच 
ततस्ते पाण्डवा राजन्‌ पज्चालाश्व यशस्विन: । 
आजम्मु: सहिता: कर्ण तर्जयन्त: समन्ततः ।। १९ ।। 


संजय कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वे यशस्वी पाण्डव और पांचाल एक साथ होकर 
गर्जन-तर्जन करते हुए चारों ओरसे कर्णपर चढ़ आये ।। १९ ।। 

कर्णोडपि रथियनां श्रेष्ठ श्नापमुद्यम्य वीर्यवान्‌ । 

कौरवाग्रयै: परिवृत: शक्रो देवगणैरिव ।। २० ।। 

पर्यतिष्ठत तेजस्वी स्वबाहुबलमाश्रित: । 

रथियोंमें श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं तेजस्वी वीर कर्ण भी देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रके समान 
प्रधान कौरववीरोंसे घिरकर अपने बाहुबलका भरोसा करके धनुष उठाकर युद्धके लिये 
खड़ा हो गया ।। २०३ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध कर्णस्य सह पाण्डवै: ।। २१ ।। 

भीषणं सुमहाराज सिंहनादविराजितम्‌ | 

महाराज! तदनन्तर कर्णका पाण्डवोंके साथ भीषण युद्ध आरम्भ हुआ, जो सिंहनादसे 
सुशोभित हो रहा था ।। 

ततस्ते पाण्डवा राजन्‌ पज्चालाश्न यशस्विन: ।। २२ ।। 

दृष्टवा कर्ण महाबाहुमुच्चै: शब्दमथानदन्‌ । 

राजन्‌! यशस्वी पाण्डव और पांचालोंने महाबाहु कर्णको देखकर उच्चस्वरसे इस 
प्रकार कहना आस्मभ किया || २२६ ।। 

अयं कर्ण: कुत: कर्णस्तिष्ठ कर्ण महारणे ।। २३ ।। 

युध्यस्व सहितोस्माभिवर्दुरात्मन्‌ पुरुषाधम । 

“कहाँ कर्ण है? यह कर्ण है। दुरात्मन्‌ नराधम कर्ण! इस महायुद्धमें खड़ा रह और 
हमारे साथ युद्ध कर” ।। २३ ६ ।। 

अन्‍्ये तु दृष्टवा राधेयं क्रोधरक्तेक्षणाउब्रुवन्‌ । २४ ।। 

हन्यतामयमुत्सिक्त: सूतपुत्रो5ल्पचेतन: । 

सर्वे: पार्थिवशार्टूलैननिनार्थो5स्ति जीवता ।। २५ ।। 

अत्यन्तवैरी पार्थानां सततं पापपूरुष: । 

एष मूलमनर्थानां दुर्योधनमते स्थित: ।। २६ ।। 

घ्नतैनमिति जल्पन्त: क्षत्रिया: समुपाद्रवन्‌ । 

महता शरवर्षेण च्छादयन्तो महारथा: ।। २७ ।। 

वधार्थ सूतपुत्रस्य पाण्डवेयेन चोदिता: । 


दूसरे लोगोंने राधापुत्र कर्णको देखकर क्रोधसे लाल आँखें करके कहा--“समस्त श्रेष्ठ 
राजा मिलकर इस घमंडी और मूर्ख सूतपुत्रको मार डालें। इसके जीनेसे कोई लाभ नहीं है। 
यह पापात्मा पुरुष सदा कुन्तीकुमारोंके साथ अत्यन्त वैर रखता आया है। दुर्योधनकी रायमें 
रहकर यही सारे अनर्थोकी जड़ बना हुआ है। अतः इसे मार डालो।” ऐसा कहते हुए समस्त 
क्षत्रिय महारथी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरसे सूतपुत्रके वधके लिये प्रेरित हो बाणोंकी बड़ी भारी 
वर्षद्वारा उसे आच्छादित करते हुए उसपर टूट पड़े || २४--२७ ह || 

तांस्तु सर्वास्तथा दृष्टवा धावमानान्‌ महारथान्‌ ॥। २८ ।। 

न विव्यथे सूतपुत्रो न च त्रासमगच्छत । 

उन समस्त महारथियोंको इस प्रकार धावा करते देख सूतपुत्रके मनमें न तो व्यथा हुई 
और न त्रास ही हुआ || २८६ ।। 

दृष्टवा संहारकल्पं तमुद्धूतं सैन्यसागरम्‌ ।। २९ ।। 

पिप्रीषुस्तव पुत्राणां संग्रामेष्वपराजित: । 

सायकौघेन बलवान क्षिप्रकारी महाबल: ।। ३० |। 

वारयामास तत्‌ सैन्यं समन्ताद्‌ भरतर्षभ | 

भरतश्रेष्ठ! प्रलयकालके समान उस सैन्यसागरको उमड़ा हुआ देख संग्राममें पराजित 
न होनेवाले बलवान, शीघ्रकारी और महान्‌ शक्तिशाली कर्णने आपके पुत्रोंको प्रसन्न 
करनेकी इच्छासे बाणसमूहकी वर्षा करके सब ओरसे शत्रुओंकी उस सेनाको रोक 
दिया || २९-३० ३ || 

ततस्तु शरवर्षेण पार्थिवास्तमवारयन्‌ ।। ३१ ।। 

धनूंषि ते विधुन्चाना: शतशो5थ सहस्रश: । 

अयोधयन्त राधेयं शक्रं दैत्यगणा इव ।। ३२ ।। 

तदनन्तर सैकड़ों और सहस्रों नरेशोंने अपने धनुषोंको कम्पित करते हुए बाणोंकी 
वर्षसे कर्णकी भी प्रगति रोक दी। जैसे दैत्योंने इन्द्रके साथ संग्राम किया था, उसी प्रकार वे 
राजालोग राधापुत्र कर्णके साथ युद्ध करने लगे || ३१-३२ ।। 

शरवर्ष तु तत्‌ कर्ण: पार्थिव: समुदीरितम्‌ । 

शरवर्षेण महता समन्ताद्‌ व्यकिरत्‌ प्रभो ।। ३३ ।। 

प्रभो! राजाओंद्वारा की हुई उस बाण-वर्षाको कर्णने बाणोंकी बड़ी भारी वृष्टि करके 
सब ओर बिखेर दिया ।। ३३ ।। 

तद्‌ युद्धमभवत्‌ तेषां कृतप्रतिकृतैषिणाम्‌ । 

यथा देवासुरे युद्धे शक्रस्य सह दानवै: ।। ३४ ।। 

जैसे देवासुर-संग्राममें दानवोंके साथ इन्द्रका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार घात- 
प्रतिघातकी इच्छावाले राजाओं तथा कर्णका वह युद्ध बड़ा भयंकर हो रहा था ।। 

तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य लाघवम्‌ । 


यदेनं सर्वतो यत्ता नाप्लुवन्ति परे युधि ।। ३५ ।। 

वहाँ हमने सूतपुत्र कर्णकी अद्भुत फुर्ती देखी, जिससे सब ओरसे प्रयत्न करनेपर भी 
शत्रुपक्षीय योद्धा उस युद्धस्थलमें कर्णको काबूमें नहीं कर पा रहे थे ।। 

निवार्य च शरौघांस्तान्‌ पार्थिवानां महारथ: । 

युगेष्वीषासु च्छत्रेषु ध्वजेषु च हयेषु च ।। ३६ ।। 

आत्मनामाड्कितान्‌ घोरान्‌ राधेय: प्राहिणोच्छरान्‌ | 

राजाओंके उन बाणसमूहोंका निवारण करके महारथी राधापुत्र कर्णने उनके रथके 
जुओं, ईषादण्डों, छत्रों, ध्वजाओं तथा घोड़ोंपर अपने नाम खुदे हुए भयंकर बाणोंका प्रहार 
किया ।। ३६३६ || 

ततस्ते व्याकुली भूता राजान: कर्णपीडिता: ।। ३७ ।। 

बश्रमुस्तत्र तत्रैव गाव: शीतार्दिता इव | 

तत्पश्चात्‌ कर्णके बाणोंसे पीड़ित और व्याकुल हुए राजालोग सर्दीसे कष्ट पानेवाली 
गायोंके समान इधर-उधर चक्कर काटने लगे ।। ३७३ ।। 

हयानां वध्यमानानां गजानां रथिनां तथा ।। ३८ ।। 

तत्र तत्राभ्यवेक्षाम संघान्‌ कर्णेन ताडितान्‌ । 

कर्णके बाणोंकी चोट खाकर मरनेवाले घोड़ों, हाथियों और रथियोंके झुंड-के-झुंड 
हमने वहाँ देखे थे ।। 

शिरोभि: पतितै राजन्‌ बाहुभिश्न समन्ततः ।। ३९ ।। 

आस्तीर्णा वसुधा सर्वा शूराणामनिवर्तिनाम्‌ । 

राजन! युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीरोंके कट-कटकर गिरे हुए मस्तकों और 
भुजाओंसे वहाँकी सारी भूमि सब ओरसे पट गयी थी ।। ३९३ ।। 

हतैश्न हन्यमानैश्व निष्टनद्धिश्ष सर्वश: ।। ४० ।॥। 

बभूवायोधन रौद्रं वैवस्वतपुरोपमम्‌ । 

कुछ लोग मारे गये थे, कुछ मारे जा रहे थे और कुछ लोग सब ओर पीड़ासे कराह रहे 
थे। इससे वह युद्धस्थल यमपुरीके समान भयंकर प्रतीत होता था ।। 

ततो दुर्योधनो राजा दृष्टवा कर्णस्य विक्रमम्‌ ।। ४१ ।। 

अश्वत्थामानमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह । 

उस समय राजा दुर्योधनने कर्णका पराक्रम देख अश्वत्थामाके पास पहुँचकर यह बात 
कही-- || ४१३ || 

युध्यतेड्सौ रणे कर्णो दंशित: सर्वपार्थिवै: ।। ४२ ।। 

पश्यैतां द्रवर्ती सेनां कर्णसायकपीडिताम्‌ । 

कार्तिकेयेन विध्यस्तामासुरीं पृततामिव ।। ४३ ।। 


“रणभूमिमें वह कवचधारी कर्ण समस्त राजाओंके साथ अकेला ही युद्ध कर रहा है। 
देखो, कर्णके बाणोंसे पीड़ित हुई यह पाण्डव-सेना कार्तिकेयके द्वारा नष्ट की हुई 
असुरवाहिनीके समान भागी जा रही है ।। ४२-४३ ।। 

दृष्टवैतां निर्जितां सेनां रणे कर्णेन धीमता । 

अभियात्येष बीभत्सु: सूतपुत्रजिधघांसया ।। ४४ ।। 

“बुद्धिमान्‌ कर्णके द्वारा रणभूमिमें पराजित हुई इस सेनाको देखकर सूतपुत्रका वध 
करनेकी इच्छासे ये अर्जुन आगे बढ़े जा रहे हैं ।। ४४ ।। 

तद्‌ यथा प्रेक्षमाणानां सूतपुत्रं महारथम्‌ | 

न हन्यात्‌ पाण्डव: संख्ये तथा नीतिर्विधीयताम्‌ ॥। ४५ ।। 

“अत: हमलोगोंके देखते-देखते युद्धमें पाण्डुपुत्र अर्जुन-जैसे भी महारथी सूतपुत्रको न 
मार सकें, वैसी नीतिसे काम लो” ।। ४५ ।। 

ततो दौणि: कृप: शल्यो हार्दिक्यश्व महारथ: । 

प्रत्युद्ययुस्तदा पार्थ सुतपुत्रपरीप्सया ।। ४६ ।। 

आयान्तं वीक्ष्य कौन्तेयं शक्रं दैत्यचमूमिव । 

तब दैत्य-सेनापर आक्रमण करनेवाले इन्द्रके समान अर्जुनको कौरव-सेनाकी ओर 
आते देख अभश्वत्थामा, कृपाचार्य शल्य और महारथी कृतवर्मा सूतपुत्रकी रक्षा करनेकी 
इच्छासे अर्जुनका सामना करनेके लिये आगे बढ़े || ४६३६ ।। 

बीभत्सुरपि राजेन्द्र पड्चालैरभिसंवृत: ।। ४७ ।। 

प्रत्युध्ययौ तदा कर्ण यथा वृत्रं शतक्रतुः । 

राजेन्द्र! उस समय वृत्रासुरपर चढ़ाई करनेवाले इन्द्रके समान पांचालोंसे घिरे हुए 
अर्जुनने भी कर्णपर धावा किया || ४७३ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

संरब्धं फाल्गुनं दृष्टया कालान्तकयमोपमम्‌ ।। ४८ ।। 

कर्णो वैकर्तन: सूत प्रत्यपद्यत्‌ किमुत्तरम्‌ । 

धृतराष्ट्रने पूछा--सूत! काल, अन्तक और यमके समान क्रोधमें भरे हुए अर्जुनको 
देखकर वैकर्तन कर्णने उन्हें किस प्रकार उत्तर दिया? (कैसे उनका सामना किया) ।। ४८ ६ 

|| 

यो हास्पर्धत पार्थेन नित्यमेव महारथ: ।। ४९ |। 

आशंसते च बीभत्सु युद्धे जेतुं सुदारुणम्‌ । 

महारथी कर्ण सदा ही अर्जुनके साथ स्पर्धा रखता था और युद्धमें अत्यन्त भयंकर 
अर्जुनको पराजित करनेका विश्वास प्रकट करता था || ४९३ ।। 

स तु तं सहसा प्राप्तं नित्यमत्यन्तवैरिणम्‌ ।। ५० ।। 


कर्णो वैकर्तन: सूत किमुत्तरमपद्यत । 

संजय! उस समय अपने सदाके अत्यन्त वैरी अर्जुनको सहसा सामने पाकर सूर्यपुत्र 
कर्णने उन्हें किस प्रकार उत्तर देनेका निश्चय किया? || ५० ई ।। 

संजय उवाच 

आयान्तं पाण्डवं दृष्टवा गजं प्रतिगजो यथा ।। ५१ ।। 

असम्भ्रान्तो रणे कर्ण: प्रत्युदीयाद्‌ धनंजयम्‌ । 

संजयने कहा--राजन्‌! जैसे एक हाथीको आते देख दूसरा हाथी उसका सामना 
करनेके लिये आगे बढ़े, उसी प्रकार पाण्डुपुत्र धनंजयको आते देख कर्ण बिना किसी 
घबराहटके युद्धमें उनका सामना करनेके लिये आगे बढ़ा ।। ५१३ ।। 

तमापततन्तं वेगेन वैकर्तनमजिह्ागै: ।। ५२ ।। 

छादयामास पार्थोडथ कर्णस्तु विजयं शरै: । 

वेगसे आते हुए वैकर्तन कर्णको अर्जुनने अपने सीधे जानेवाले बाणोंसे आच्छादित कर 
दिया और कर्णने भी अर्जुनको अपने बाणोंसे ढक दिया || ५२३६ ।। 

स कर्ण शरजालेन च्छादयामास पाण्डव: ।। ५३ ।। 

ततः कर्ण: सुसंरब्ध: शरैस्त्रिभिरविध्यत । 

पाए्डुपुत्र अर्जुनने पुन: अपने बाणोंके जालसे कर्णको आच्छादित कर दिया। तब 
क्रोधमें भरे हुए कर्णने तीन बाणोंसे अर्जुनको बींध डाला || ५३ ३ || 

तस्य तल्लाघवं पार्थो नामृष्पत महाबल: ।। ५४ ।। 

तस्मै बाणान्‌ शिलाधौतान प्रसन्नाग्रानजिद्दागान्‌ । 

प्राहिणोत्‌ सूतपुत्राय त्रिशतं शत्रुतापन: ।। ५५ ।। 

शत्रुओंको संताप देनेवाले महाबली अर्जुन कर्णकी इस फुर्तीको न सह सके। उन्होंने 
सूतपुत्र कर्णजो शिलापर तेज किये हुए स्वच्छ अग्रभागवाले तीन सौ बाण 
मारे ।। ५४-५५ || 

विव्याध चैनं संरब्धो बाणेनैकेन वीर्यवान्‌ । 

सव्ये भुजाग्रे बलवान्‌ नाराचेन हसन्निव ।। ५६ ।। 

इसके सिवा कुपित हुए पराक्रमी एवं बलवान्‌ अर्जुनने हँसते हुए-से एक नाराच नामक 
बाणके द्वारा कर्णकी बायीं भुजाके अग्रभागमें चोट पहुँचायी || ५६ ।। 

तस्य विद्धस्य बाणेन कराच्चापं पपात ह । 

पुनरादाय तच्चापं निमेषार्धान्महाबल: || ५७ || 

छादयामास बाणौघचै: फाल्गुनं कृतहस्तवत्‌ । 


उस बाणसे घायल हुए कर्णके हाथसे धनुष छूटकर गिर पड़ा। फिर आधे निमेषमें ही 
उस महाबली वीरने पुनः वह धनुष लेकर सिद्धहस्त योद्धाकी भाँति बाणसमूहोंकी वर्षा 
करके अर्जुनको ढक दिया ।। ५७ ६ || 

शरवष्टिं तु तां मुक्तां सूतपुत्रेण भारत ।। ५८ ।। 

व्यधमच्छरवर्षेण स्मयन्निव धनंजय: । 

भारत! सूतपुत्रद्वारा की हुई उस बाण-वर्षाको अर्जुनने मुसकराते हुए-से बाणोंकी वृष्टि 
करके नष्ट कर दिया ।। 

तौ परस्परमासाद्य शरवर्षेण पार्थिव ।। ५९ |। 

छादयेतां महेष्वासौ कृतप्रतिकृतैषिणौ । 

राजन! वे दोनों महाधनुर्धर वीर आघातका प्रतिघात करनेकी इच्छासे परस्पर बाणोंकी 
वर्षा करके एक-दूसरेको आच्छादित करने लगे ।। ५९३ ।। 

तदद्भुतं महद्‌ युद्ध कर्णपाण्डवयोर्मुधे ॥। ६० ।। 

क्रुद्धयोर्वासिताहेतोर्वन्ययोर्गजयोरिव । 

जैसे दो जंगली हाथी किसी हथिनीके लिये क्रोधपूर्वक लड़ रहे हों, उसी प्रकार उस 
युद्धस्थलमें कर्ण और अर्जुनका वह संग्राम महान्‌ एवं अद्भुत था ।। 

ततः पार्थों महेष्वासो दृष्टवा कर्णस्य विक्रमम्‌ ।। ६१ ।। 

मुष्टिदेशे धनुस्तस्य चिच्छेद त्वरयान्वित: । 

तदनन्तर महाधनुर्धर अर्जुनने कर्णका पराक्रम देखकर उसके धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी 
जगहसे शीघ्रतापूर्वक काट दिया ।। ६१३ ।। 

अश्वांश्व चतुरो भल्‍लैरनयदू यमसादनम्‌ ।। ६२ ।। 

सारथेश्व शिर: कायादहरच्छत्रुतापन: । 

साथ ही उसके चारों घोड़ोंको चार भल्‍ल्लोंद्वारा यमलोक पहुँचा दिया। फिर शत्रुसंतापी 
अर्जुनने उसके सारथिका सिर धड़से अलग कर दिया ।। ६२३ || 

अथीनं छिन्नधन्वानं हताश्वचं हतसारथिम्‌ ।। ६३ ।। 

विव्याध सायकै: पार्थश्चतुर्भि: पाण्डुनन्दन: । 

धनुष कट जाने और घोड़ों तथा सारथिके मारे जानेपर कर्णको पाण्डुनन्दन अर्जुनने 
चार बाणोंद्वारा घायल कर दिया ।। ६३ ई || 

हताश्चात्‌ तु रथात्‌ तूर्णमवप्लुत्य नरर्षभ: ।। ६४ ।। 

आरुरोह रथं तूर्ण कृपस्थ शरपीडित: । 

जिसके घोड़े मारे गये थे, उस रथसे तुरंत उतरकर बाणपीड़ित कर्ण शीघ्रतापूर्वक 
कृपाचार्यके रथपर चढ़ गया ।। ६४ ३ ।। 

स नुन्नो$र्जुनबाणौधचैराचित: शल्यको यथा ।। ६५ ।। 


जीवितार्थमभिप्रेप्सु: कृपस्य रथमारुहत्‌ । 

अर्जुनके बाणसमूहोंसे पीड़ित और व्याप्त होकर वह काँटोंसे भरे हुए साहीके समान 
जान पड़ता था। अपने प्राण बचानेके लिये कर्ण कृपाचार्यके रथपर जा बैठा था ।। ६५३ ।। 

राधेयं निर्जितं दृष्टवा तावका भरतर्षभ ॥। ६६ ।। 

धनंजयशरैनुन्ना: प्राद्रवन्त दिशो दश । 

भरतश्रेष्ठ! राधापुत्र कर्णको पराजित हुआ देख आपके सैनिक अर्जुनके बाणोंसे 
पीड़ित हो दसों दिशाओंमें भाग चले ।। ६६६ ।। 

द्रवतस्तान्‌ समालोक्य राजा दुर्योधनो नूप ।। ६७ ।। 

निवर्तयामास तदा वाक्यमेतदुवाच ह । 

नरेश्वर! उन्हें भागते देख राजा दुर्योधनने लौटाया और उस समय उनसे यह बात कही 
-- ६७३ || 

अलं द्रुतेन व: शूरास्तिष्ठ ध्वं क्षत्रियर्षभा: ।। ६८ ।। 

एष पार्थवधायाहं स्वयं गच्छामि संयुगे | 

अहं पार्थान हनिष्यामि सपञठ्चालान ससोमकान ।। ६९ || 

क्षत्रियशिरोमणि शूरवीरो! ठहरो, तुम्हारे भागनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं 
अभी अर्जुनका वध करनेके लिये युद्धभूमिमें चलता हूँ। मैं पांचालों और सोमकोंसहित 
कुन्तीकुमारोंका वध करूँगा ।। ६८-६९ ।। 

अद्य मे युध्यमानस्य सह गाण्डीवधन्चना । 

द्रक्ष्यन्ति विक्रमं पार्था: कालस्येव युगक्षये ।। ७० ।। 

“आज गाण्डीवधारी अर्जुनके साथ युद्ध करते समय कुन्तीके सभी पुत्र प्रलयकालमें 
कालके समान मेरा पराक्रम देखेंगे || ७० ।। 

अद्य मद्घाणजालानि विमुक्तानि सहस्रश: । 

द्रक्ष्यन्ति समरे योधा: शलभानामिवायती: ।। ७१ ।। 

“आज समरांगणमें सहस्रों योद्धा मेरे छोड़े हुए हजारों बाणसमूहोंको शलभोंकी 
पंक्तियोंके समान देखेंगे ।। 

अद्य बाणमयं वर्ष सृजतो मम धन्विन: । 

जीमूतस्येव घर्मान्ते द्रक्ष्यन्ति युधि सैनिका: ।। ७२ ।। 

'जैसे वर्षाकालमें मेघ जलकी वर्षा करता है, उसी प्रकार धनुष हाथमें लेकर मेरे द्वारा 
की हुई बाणमयी वर्षाको आज युद्धस्थलमें समस्त सैनिक देखेंगे || ७२ ।। 

जेष्याम्यद्य रणे पार्थ सायकैर्नतपर्वभि: । 

तिष्ठ ध्वं समरे शूरा भयं त्यजत फाल्गुनात्‌ ।। ७३ ।। 

“आज रणभूमिमें झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा मैं अर्जुनको जीत लूँगा। शूरवीरो! तुम 
समरभूमिमें डटे रहो और अर्जुनसे भय छोड़ दो ।। ७३ ।। 


न हि मद्वीर्यमासाद्य फाल्गुन: प्रसहिष्यति | 

यथा वेलां समासाद्य सागरो मकरालय: ।। ७४ ।। 

'जैसे समुद्र तटभूमितक पहुँचकर शान्त हो जाता है, उसी प्रकार अर्जुन मेरे समीप 
आकर मेरा पराक्रम नहीं सह सकेंगे” || ७४ ।। 

इत्युक्त्वा प्रययौ राजा सैन्येन महता वृत: । 

फाल्गुनं प्रति दुर्धर्ष: क्रोधात्‌ संरक्तलोचन: ।। ७५ ।। 

ऐसा कहकर दुर्धर्ष राजा दुर्योधनने क्रोधसे लाल आँखें करके विशाल सेनाके साथ 
अर्जुनपर आक्रमण किया ।। 

त॑ प्रयान्तं महाबाहुं दृष्टवा शारद्वतस्तदा । 

अश्वत्थामानमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह ।। ७६ ।। 

महाबाहु दुर्योधनको अर्जुनके सामने जाते देख शरद्वानके पुत्र कृपाचार्यने उस समय 
अश्वत्थामाके पास जाकर यह बात कही-- || ७६ ।। 

एष राजा महाबाहुरमर्षी क्रोधमूर्च्छित: । 

पतज्जवृत्तिमास्थाय फाल्गुनं योद्धुमिच्छति ।। ७७ ।। 

“यह अमर्षशील महाबाहु राजा दुर्योधन क्रोधसे अपनी सुधबुध खो बैठा है और 
पतंगोंकी वृत्तिका आश्रय ले अर्जुनके साथ युद्ध करना चाहता है || ७७ ।। 

यावन्न: पश्यमानानां प्राणान्‌ पार्थेन संगतः । 

न जह्दात्‌ पुरुषव्याप्रस्तावदू वारय कौरवम्‌ ।। ७८ ।। 

“यह पुरुषसिंह नरेश अर्जुनसे भिड़कर हमारे देखते-देखते जबतक अपने प्राणोंको 
त्याग न दे, उसके पहले ही तुम जाकर उस कुरुवंशी राजाको रोको ।। ७८ ।। 

यावत्‌ फाल्गुनबाणानां गोचरं नाद्य गच्छति । 

कौरव: पार्थिवो वीरस्तावद्‌ वारय संयुगे ।। ७९ ।। 

“यह कौरववंशका वीर भूपाल आज जबतक अर्जुनके बाणोंकी पहुँचके भीतर नहीं 
जाता है, तभीतक इसे रोक दो || ७९ ।। 

यावत्‌ पार्थशरैघेरिरनिर्मुक्तोरगसंनिभै: । 

न भस्मीक्रियते राजा तावद्‌ युद्धान्निवार्यताम्‌ ।। ८० ।। 

'केंचुलसे छूटे हुए सर्पोके समान अर्जुनके भयंकर बाणोंद्वारा जबतक राजा दुर्योधन 
भस्म नहीं कर दिया जाता है, तबतक ही उसे युद्धसे रोक दो ।। ८० ।। 

अयुक्तमिव पश्यामि तिष्ठस्त्वस्मासु मानद | 

स्वयं युद्धाय यद्‌ राजा पार्थ यात्यसहायवान्‌ ।। ८१ ।। 

“मानद! यह मुझे अनुचित-सा दिखायी देता है कि हमलोगोंके रहते हुए स्वयं राजा 
दुर्योधन बिना किसी सहायकके अर्जुनके साथ युद्धके लिये जाय ।। ८१ ।। 

दुर्लभ जीवितं मन्ये कौरव्यस्य किरीटिना । 


युध्यमानस्य पार्थेन शार्दूलेनेव हस्तिन: ।। ८२ ।। 

'जैसे सिंहके साथ हाथी युद्ध करे तो उसका जीवित रहना असम्भव हो जाता है, उसी 
प्रकार किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुनके साथ युद्धमें प्रवृत्त होनेपर कुरुवंशी दुर्योधनके 
जीवनको मैं दुर्लभ ही मानता हूँ || ८२ ।। 

मातुलेनैवमुक्तस्तु द्रौणि: शस्त्रभूतां वर: । 

दुर्योधनमिदं वाक्‍्यं त्वरित: समभाषत ।। ८३ ।। 

मामाके ऐसा कहनेपर शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणकुमार अश्वत्थामाने तुरतं ही दुर्योधनके 
पास जाकर इस प्रकार कहा-- ।। ८३ ।। 

मयि जीवति गान्धारे न युद्ध गन्तुमरहसि । 

मामनादृत्य कौरव्य तव नित्यं हितैषिणम्‌ ।। ८४ ।। 

“गान्धारीनन्दन! कुरुकुलरत्न! मैं सदा तुम्हारा हित चाहनेवाला हूँ। तुम मेरे जीते-जी 
मेरा अनादर करके स्वयं युद्धमें न जाओ ।। ८४ ।। 

नहि ते सम्भ्रम: कार्य: पार्थस्य विजयं प्रति । 

अहमावारयिष्यामि पार्थ तिष्ठ सुयोधन ।। ८५ ।। 

'सुयोधन! अर्जुनपर विजय पानेके सम्बन्धमें तुम्हें किसी प्रकार संदेह नहीं करना 
चाहिये। तुम खड़े रहो। मैं अर्जुनको रोकूँगा” || ८५ ।। 

दुर्योधन उवाच 


आचार्य: पाण्डुपुत्रान्‌ वै पुत्रवत्‌ परिरक्षति । 

त्वमप्युपेक्षां कुरुषे तेषु नित्यं द्विजोत्तम ।। ८६ ।। 

दुर्योधन बोला--द्विजश्रेष्ठ) हमारे आचार्य तो अपने पुत्रकी भाँति पाण्डवोंकी रक्षा 
करते हैं और तुम भी सदा उनकी उपेक्षा ही करते हो ।। ८६ ।। 

मम वा मन्दभाग्यत्वान्मन्दस्ते विक्रमो युधि । 

धर्मराजप्रियार्थ वा द्रौपद्या वा न विद्य तत्‌ । ८७ ।। 

अथवा मेरे दुर्भाग्यसे युद्धमें तुम्हारा पराक्रम मन्द पड़ गया है। तुम धर्मराज युधिष्ठछिर 
अथवा द्रौपदीका प्रिय करनेके लिये ऐसा करते हो, इसका मुझे पता नहीं है || ८७ ।। 

धिगस्तु मम लुब्धस्य यत्कृते सर्वबान्धवा: । 

सुखार्हा: परम॑ दु:खं प्राप्रुवन्त्यपराजिता: ।। ८८ ।। 

मुझ लोभीको धिक्‍्कार है, जिसके कारण किसीसे पराजित न होनेवाले और सुख 
भोगनेके योग्य मेरे सभी भाई-बन्धु महान्‌ दुःख उठा रहे हैं || ८८ ।। 

को हि शस्त्रविदां मुख्यो महेश्वरसमो युधि । 

शत्रुं न क्षपयेच्छक्तो यो न स्थाद्‌ गौतमीसुत: ।। ८९ ।। 


कृपीकुमार अश्व॒त्थामाके सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो श्त्रवेत्ताओंमें प्रधान, 
महादेवजीके समान पराक्रमी तथा शक्तिशाली होकर भी युद्धमें शत्रुका संहार नहीं 
करेगा ।। ८९ |। 

अश्वत्थामन्‌ प्रसीदस्व नाशयैतान्‌ ममाहितान्‌ | 

तवास्त्रगोचरे शक्ता: स्थातुं देवा न दानवा: ।। ९० ।। 

अश्वत्थामन्‌! प्रसन्न होओ। मेरे इन शत्रुओंका नाश करो। तुम्हारे अस्त्रोंके मार्गमें देवता 
और दानव भी नहीं ठहर सकते हैं ।। ९० ।। 

पज्चालान्‌ सोमकांश्चैव जहि द्रौणे सहानुगान्‌ । 

वयं शेषान्‌ हनिष्यामस्त्वयैव परिरक्षिता: ।। ९१ |। 

द्रोणकुमार! तुम अनुगामियोंसहित पांचालों और सोमकोंको मार डालो; फिर तुमसे ही 
सुरक्षित हो हमलोग अपने शेष शत्रुओंका संहार कर डालेंगे |। ९१ ।। 

एते हि सोमका विप्र पञ्चालाश्न यशस्विन: । 

मम सैन्येषु संक्रुद्धा विचरन्ति दवाग्निवत्‌ ।। ९२ |। 

तान्‌ वारय महाबाहो केकयांश्व नरोत्तम । 

पुरा कुर्वन्ति नि:शेषं रक्ष्यमाणा: किरीटिना ।। ९३ ।। 

विप्रवर! वे यशस्वी पांचाल और सोमक क्रोधमें भरकर दावानलके समान मेरी 
सेनाओंमें विचर रहे हैं। इन्हींके साथ केकय भी हैं। महाबाहो! नरश्रेष्ठ! वे किरीटधारी 
अर्जुनसे सुरक्षित हो मेरी सेनाका सर्वनगाश न कर डालें। अतः पहले ही उन्हें 
रोको ।। ९२-९३ ।। 

अभश्रृत्थामंस्त्वरायुक्तो याहि शीघ्रमरिंदम । 

आदी वा यदि वा पश्चात्‌ तवेदं कर्म मारिष ।। ९४ ।। 

शत्रुओंका दमन करनेवाले माननीय भाई अअश्वत्थामा! तुम शीघ्र ही जाओ। पहले करो 
या पीछे; यह कार्य तुम्हारे ही वशका है ।। ९४ ।। 

त्वमुत्पन्नो महाबाहो पञ्चालानां वध प्रति । 

करिष्यसि जगत्‌ सर्वमपाज्चालं किलोद्यत: ।। ९५ ।। 

महाबाहो! तुम पांचालोंका वध करनेके लिये ही उत्पन्न हुए हो। यदि तुम तैयार हो 
जाओ तो निश्चय ही सारे जगत्‌को पांचालोंसे शून्य कर दोगे ।। ९५ ।। 

एवं सिद्धा<ब्रुवन्‌ वाचो भविष्यति च तत्‌ तथा । 

तस्मात्त्वं पुरुषव्याप्र पज्चालाञउ्जहि सानुगान्‌ ।। ९६ ।। 

पुरुषसिंह! सिद्ध पुरुषोंने तुम्हारे विषयमें ऐसी ही बातें कही हैं। वे उसी रूपमें सत्य 
होंगी। अत: तुम सेवकोंसहित पांचालोंका वध करो ।। ९६ |। 

न ते<स्त्रगोचरे शक्ता: स्थातुं देवा: सवासवा: । 

किमु पार्था: सपाज्चाला: सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ९७ ।। 


मैं तुमसे यह सच कहता हूँ कि तुम्हारे बाणोंके मार्गमें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं 
ठहर सकते; फिर कुन्तीके पुत्रों और पांचालोंकी तो बिसात ही कया है? ।। 

नत्वां समर्था: संग्रामे पाण्डवा: सह सोमकै: । 

बलाद्‌ योधयितुं वीर सत्यमेतद्‌ ब्रवीमि ते ।। ९८ ।। 

वीर! सोमकोंसहित पाण्डव संग्राममें तुम्हारे साथ बलपूर्वक युद्ध करनेमें समर्थ नहीं हैं। 
यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ ।। ९८ ।। 

गच्छ गच्छ महाबाहो न न: कालात्ययो भवेत्‌ । 

इयं हि द्रवते सेना पार्थसायकपीडिता ।। ९९ ।। 

महाबाहो! जाओ, जाओ। हमारे इस कार्यमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। देखो, अर्जुनके 
बाणोंसे पीड़ित होकर यह सेना भागी जा रही है ।। ९९ ।। 

शक्तो हासि महाबाहो दिव्येन स्वेन तेजसा । 

निग्रहे पाण्डुपुत्राणां पज्चालानां च मानद ।। १०० || 

दूसरोंको मान देनेवाले महाबाहु वीर! तुम अपने दिव्य तेजसे पांचालों और पाण्डवोंका 
निग्रह करनेमें समर्थ हो || १०० ।। 


इति श्रीमहा भारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे दुर्योधनवाक्ये 
एकोनषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १५९ |। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
दुर्योधनका वचनविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १५९ ॥ 


ऑपन--मा_ज बक। जज: 


षष्टयाधेकशततमो< ध्याय: 


अश्वत्थामाका दुर्योधनको उपालम्भपूर्ण आश्वासन देकर 
पांचालोंके सा करते हुए धृष्टद्युम्नके रथसहित 
सारथिको नष्ट उसकी सेनाको भगाकर अद्भुत 
पराक्रम दिखाना 


संजय उवाच 

दुर्योधनेनैवमुक्तो द्रौणिराहवर्दुर्मद: । 

चकारारिवधे यत्नमिन्द्रो दैत्यवथे यथा ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन! दुर्योधनके ऐसा कहनेपर रणदुर्मद अश्व॒त्थामाने उसी प्रकार 
शत्रुवधके लिये प्रयत्न आरम्भ किया, जैसे इन्द्र दैत्यवधके लिये यत्न करते हैं ।। 

प्रत्युवाच महाबाहुस्तव पुत्रमिदं वच: । 

सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि कौरव ।। २ ।। 

उस समय महाबाहु अअश्वत्थामाने आपके पुत्रसे यह वचन कहा--“महाबाहु 
कौरवनन्दन! तुम जैसा कहते हो, यही ठीक है ।। २ ।। 

प्रिया हि पाण्डवा नित्यं मम चापि पितुश्न मे । 

तथैवावां प्रियौ तेषां न तु युद्धे कुरूद्वह ।। ३ ।। 

“कुरुश्रेष्ठ! पाण्डव मुझे तथा मेरे पिताजीको भी बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार उनको भी 
हम दोनों पिता-पुत्र प्रिय हैं, किंतु युद्धस्थलमें हमारा यह भाव नहीं रहता ।। ३ ।। 

शक्तितस्तात युध्यामस्त्यक्त्वा प्राणानभीतवत्‌ | 

अहं कर्णश्न शल्यश्न कृपो हार्दिक्य एव च । 

निमेषात्‌ पाण्डवीं सेनां क्षपयेम नृपोत्तम ।। ४ ।। 

“तात! हम अपने प्राणोंका मोह छोड़कर निर्भय-से होकर यथाशक्ति युद्ध करते हैं। 
नृपश्रेष्ठ! मैं, कर्ण, शल्य, कृप और कृतवर्मा पलक मारते-मारते पाण्डव-सेनाका संहार कर 
सकते हैं || ४ ।। 

ते चापि कौरवीं सेनां निमेषार्धात्‌ कुरूद्वह । 

क्षपयेयुर्महाबाहो न स्याम यदि संयुगे ।। ५ ।। 

“महाबाहु कुरुश्रेष्ठ) यदि युद्धस्थलमें हमलोग न रहें, तो पाण्डव भी आधे निमेषयमें ही 
कौरव-सेनाका संहार कर सकते हैं ।। ५ ।। 

युध्यतां पाण्डवान्‌ शक्‍्त्या तेषां चास्मान्‌ युयुत्सताम्‌ । 

तेजस्तेज: समासाद्य प्रशमं याति भारत || ६ ।। 


“हम यथाशक्ति पाण्डवोंसे युद्ध करते हैं और वे हमलोगोंसे युद्ध करना चाहते हैं। 
भारत! इस प्रकार हमारा तेज परस्पर एक-दूसरेसे टकराकर शान्त हो जाता है ।। ६ ।। 

अशक्या तरसा जेतुं पाण्डवानामनीकिनी । 

जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु तद्धि सत्यं ब्रवीमि ते ।। ७ ।। 

“राजन! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि पाण्डवोंके जीते-जी उनकी सेनाको बलपूर्वक 
जीतना असम्भव है ।। 

आत्मार्थ युध्यमानास्ते समर्था: पाण्डुनन्दना: । 

किमर्थ तव सैन्यानि न हनिष्यन्ति भारत || ८ ।। 

“भरतनन्दन! पाण्डव शक्तिशाली हैं और अपने लिये युद्ध करते हैं, फिर वे किसलिये 
तुम्हारी सेनाओंका संहार नहीं करेंगे? ।। ८ ।। 

त्वं तु लुब्धतमो राजन्‌ निकृतिज्ञश्व कौरव । 

सर्वाभिशड्की मानी च ततो5स्मानभिशड्कसे ।। ९ |। 

“कौरवनरेश! तुम तो लोभी और छल-कपटकी विद्याको जाननेवाले हो। सबपर संदेह 
करनेवाले और अभिमानी हो; इसलिये हमलोगोंपर भी शंका करते हो ।। 

मन्ये त्वं कुत्सितो राजन्‌ पापात्मा पापपुरुष । 

अन्यानपि स न: क्षुद्र शड़कसे पापभावित: ।। १० ।। 

“राजन! मेरी मान्यता है कि तुम निन्दित, पापात्मा एवं पापपुरुष हो।' क्षुद्र नरेश! 
तुम्हारा अन्तःकरण पापभावनासे ही पूर्ण है, इसीलिये तुम हमपर तथा दूसरोंपर भी संदेह 
करते हो ।। १० ।। 

अहं तु यत्नमास्थाय त्वदर्थ त्यक्तजीवित: । 

एष गच्छामि संग्रामं त्वत्कृते कुरुनन्दन ।। ११ ।। 

“कुरुनन्दन! मैं अभी तुम्हारे लिये जीवनका मोह छोड़कर पूरा प्रयत्न करके 
संग्रामभूमिमें जा रहा हूँ ।। 

योत्स्ये5हं शत्रुभि: सार्थ जेष्यामि च वरान्‌ वरान्‌ | 

पज्चालै: सह योत्स्यामि सोमकै: केकयैस्तथा ।। १२ ।। 

पाण्डवेयैश्न संग्रामे त्वत्प्रियार्थमरिंदम । 

शत्रुदमन! मैं शत्रुओंके साथ युद्ध करूँगा और उनके प्रधान-प्रधान वीरोंपर विजय 
पाऊँगा। संग्रामभूमिमें तुम्हारा प्रिय करनेके लिये मैं पांचालों, सोमकों, केकयों तथा 
पाण्डवोंके साथ भी युद्ध करूँगा || १२६ ।। 

अद्य मद्वाणनिर्दग्धा: पजचाला: सोमकास्तथा ।। १३ |। 

सिंहेनेवार्दिता गावो विद्रविष्यन्ति सर्वश: । 

“आज पांचाल और सोमक योद्धा मेरे बाणोंसे दग्ध होकर सिंहसे पीड़ित हुई गौओंके 
समान सब ओर भाग जायँगे || १३६ ।। 


अद्य धर्मसुतो राजा दृष्टवा मम पराक्रमम्‌ ।। १४ ।। 

अश्वत्थाममयं लोकं॑ मंस्यते सह सोमकै: । 

“आज सोमकोंसहित धर्मपुत्र राजा युधिष्छिर मेरा पराक्रम देखकर सम्पूर्ण जगत्‌को 
अश्वत्थामासे भरा हुआ मानेंगे || १४६ ।। 

आगमिष्यति निर्वेदं धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ।। १५ ।। 

दृष्टवा विनिहतान्‌ संख्ये पज्चालान्‌ सोमकै: सह । 

“सोमकोंसहित पांचालोंको युद्धमें मारा गया देख आज धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरके मनमें 
बड़ा निर्वेद (खेद एवं वैराग्य) होगा || १५३ ।। 

ये मां युद्धेडभियोत्स्यन्ति तान्‌ हनिष्यामि भारत ।। १६ ।। 

नहि ते वीर मोक्ष्यन्ते मदबाह्वन्तरमागता: । 

“भारत! जो लोग रणभूमिमें मेरे साथ युद्ध करेंगे, उन्हें मैं मार डालूँगा। वीर! मेरी 
भुजाओंके भीतर आकर शत्रुसैनिक जीवित नहीं छूट सकेंगे” || १६३ ।। 

एवमुक्त्वा महाबाहु: पुत्र दुर्योधनं तव ।। १७ ।। 

अभ्यवर्तत युद्धाय त्रासयन्‌ सर्वधन्विन: । 

चिकीर्षुस्तव पुत्राणां प्रियं प्राणभूतां वर: ।। १८ ।। 

आपके पुत्र दुर्योधनसे ऐसा कहकर महाबाहु अश्वत्थामा समस्त धनुर्धरोंको त्रास देता 
हुआ युद्धके लिये शत्रुओंके सामने डट गया। प्राणियोंमें श्रेष्ठ अश्वत्थामा आपके पुत्रोंका 
प्रिय करना चाहता था || १७-१८ ।। 

ततो<ब्रवीत्‌ सकैकेयान्‌ पज्चालान्‌ गौतमीसुतः । 

प्रहरध्वमित: सर्वे मम गात्रे महारथा: ।। १९ ।। 

स्थिरीभूताश्न युद्ध्यध्वं दर्शयन्तो5स्त्रलाघवम्‌ । 

तदनन्तर गौतमीनन्दन अभश्वत्थामाने केकयोंसहित पांचालोंसे कहा--“महारथियो! अब 
सब लोग मिलकर मेरे शरीरपर प्रहार करो और अपनी अस्त्र-संचालनकी फुर्ती दिखाते हुए 
सुस्थिर होकर युद्ध करो” ।। १९३ ।। 

एवमुक्तास्तु ते सर्वे शस्त्रवृष्टीरपातयन्‌ ।। २० ।। 

दौणिं प्रति महाराज जलं जलधरा इव । 

महाराज! अभ्र॒त्थामाके ऐसा कहनेपर वे सभी वीर उसके ऊपर उसी प्रकार अस्त्र- 
शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, जैसे मेघ पर्वतपर पानी बरसाते हैं || २०३ ।। 

तान्‌ निहत्य शरान्द्रौणिदेश वीरानपोथयत्‌ ।। २१ ।। 

प्रमुखे पाण्डुपुत्राणां धृष्टद्युम्नस्य च प्रभो । 

प्रभो! द्रोणकुमारने उनके उन बाणोंको नष्ट करके उनमेंसे दस वीरोंको पाण्डवों और 
धृष्टद्युम्नके सामने ही मार गिराया || २१३ ।। 


ते हन्यमाना: समरे पठ्चाला: सोमकास्तथा ।। २२ || 

परित्यज्य रणे दौ्णिं व्यद्रवन्त दिशो दश | 

समरांगणमें मारे जाते हुए पांचाल और सोमक द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको छोड़कर दसों 
दिशाओंमें भाग गये ।। 

तान्‌ दृष्टवा द्रवतः शूरान्‌ पज्चालान्‌ सहसोमकान्‌ ।। २३ ।। 

धृष्टद्युम्नो महाराज द्रौणिमभ्यद्रवद्‌ रणे । 

महाराज! शूरवीर पांचालों और सोमकोंको भागते देख धूष्टद्युम्नने रणक्षेत्रमें 
अश्व॒त्थामापर धावा किया ।। 

ततः काञ्चनचित्राणां सजलाम्बुदनादिनाम्‌ ।। २४ ।। 

वृतः शतेन शूराणां रथानामनिवर्तिनाम्‌ | 

पुत्र: पाउ्चालराजस्य धृष्टद्युम्नो महारथ: ।। २५ ।। 

द्रोणिमित्यब्रवीद्‌ वाक्‍्य॑ दृष्टवा योधान्‌ निपातितान्‌ । 

तदनन्तर सुवर्णचित्रित, सजल जलधरके समान गम्भीर घोष करनेवाले तथा युद्धसे 
कभी पीठ न दिखानेवाले सौ रथों एवं शूरवीर रथियोंसे घिरे हुए पांचाल-राजकुमार महारथी 
धृष्टद्यम्नने अपने योद्धाओंको मारा गया देख द्रोणकुमार अश्वत्थामासे इस प्रकार कहा-- ।। 

आचार्यपुत्र दुर्बुद्धे किमन्यै्निहतैस्तव ।। २६ ।। 

समागच्छ मया सार्ध यदि शूरो5सि संयुगे | 

अहं त्वां निहनिष्यामि तिष्ठेदानीं ममाग्रत: ।। २७ ।। 

“खोटी बुद्धिवाले आचार्यपुत्र! दूसरोंको मारनेसे तुम्हें क्या लाभ है? यदि शूरमा हो तो 
रणक्षेत्रमें मेरे साथ भिड़ जाओ। इस समय मेरे सामने खड़े तो हो जाओ, मैं अभी तुम्हें मार 
डालूँगा' || २६-२७ || 

ततस्तमाचार्यसुतं धृष्टद्युम्न: प्रतापवान्‌ । 

मर्मभिद्धि: शरैस्ती3क्ष्णर्णघान भरतर्षभ || २८ ।। 

भरतश्रेष्ठ ऐसा कहकर प्रतापी धृष्टद्युम्नने मर्मभेदी एवं पैने बाणोंद्वारा आचार्यपुत्रको 
घायल कर दिया ।। २८ ।। 

ते तु पद्धक्तीकृता द्रौणिं शरा विविशुराशुगा: । 

रुक्मपुड्खा: प्रसन्नाग्रा: सर्वकायावदारणा: ।। २९ |। 

मध्वर्थिन इवोद्दामा भ्रमरा: पुष्पितं ट्रुमम्‌ । 

सुवर्णमय पंख और स्वच्छ धारवाले, सबके शरीरोंको विदीर्ण करनेमें समर्थ वे 
शीघ्रगामी बाण श्रेणीबद्ध होकर अश्वत्थामाके शरीरमें वैसे ही घुस गये, जैसे मधुके लोभी 
उद्दाम भ्रमर फूले हुए वृक्षपर बैठ जाते हैं || २९६ ।। 

सोडतिविद्धो भृशं क्रुद्ध: पदाक्रान्त इवोरग: ।। ३० ।। 

मानी द्रौणिरसम्भ्रानन्‍्तो बाणपाणिरभाषत । 


उन बाणोंसे अत्यन्त घायल होकर मानी द्रोणकुमार पैरोंसे कुचले गये सर्पके समान 
अत्यन्त कुपित हो उठा और हाथमें बाण लेकर संभ्रमरहित हो इस प्रकार बोला-- ।। 

धृष्टय्युम्न स्थिरो भूत्वा मुहूर्त प्रतिपालय ।। ३१ ।। 

यावत्‌ त्वां निशितैर्बाणै: प्रेषयामि यमक्षयम्‌ । 

'धृष्टद्युम्न! स्थिर होकर दो घड़ी और प्रतीक्षा कर लो” तबतक मैं तुम्हें अपने पैने 
बाणोंद्वारा यमलोक भेज देता हूँ! | ३१३ ।। 

द्रौणिरेवमथाभाष्य पार्षतं परवीरहा ॥। ३२ ।। 

छादयामास बाणौघचै: समन्ताल्लघुहस्तवत्‌ । 

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अश्वात्थामाने ऐसा कहकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले 
कुशल योद्धाकी भाँति अपने बलसमूहोंद्वारा धृष्टद्यममको सब ओरसे आच्छादित कर 
दिया || ३२३ ।। 

स बाध्यमान: समरे द्रौणिना युद्धदुर्मद: ।॥ ३३ ।। 

द्रौ्णि पाउ्चालतनयो वाग्भिरातर्जयत्‌ तदा । 

समरांगणमें अश्व॒त्थामाद्वारा पीड़ित होनेपर रणदुर्मद पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्नने उसे 
वाणीद्वारा डाँट बतायी और इस प्रकार कहा-- ।। ३३३ || 

न जानीषे प्रतिज्ञां मे विप्रोत्पत्ति तथैव च ।। ३४ ।। 

द्रोणं हत्वा किल मया हन्तव्यस्त्वं सुदुर्मते । 

“दुर्बृद्धि ब्राह्मण! क्‍या तू मेरी प्रतिज्ञा और उत्पत्तिका वृत्तान्त नहीं जानता? निश्चय ही, 
मुझे पहले द्रोणाचार्यका वध करके फिर तेरा विनाश करना है ।। ३४६ ।। 

ततस्त्वाहं न हन्म्यद्य द्रोणे जीवति संयुगे |। ३५ ।। 

इमां तु रजनी प्राप्तामप्रभातां सुदुर्मते । 

निहत्य पितरं तेडद्य ततस्त्वामपि संयुगे ।। ३६ ।। 

नेष्यामि प्रेतलोकाय होतन्मे मनसि स्थितम्‌ । 

“इसीलिये द्रोणके जीते-जी अभी युद्धस्थलमें तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। दुर्मते! इसी 
रातमें प्रभात होनेसे पहले आज तेरे पिताका वध करके फिर तुझे भी युद्धस्थलमें 
प्रेतलोकको भेज दूँगा। यही मेरे मनका निश्चित विचार है || ३५-३६ ३ ।। 

यस्ते पार्थेषु विद्वेषो या भक्ति: कौरवेषु च ।। ३७ ।। 

तां दर्शय स्थिरो भूत्वा न मे जीवन विमोक्ष्यसे । 

“दुन्तीके पुत्रोंके प्रति जो तेरा द्वेषभाव और कौरवोंके प्रति जो भक्तिभाव है, उसे स्थिर 
होकर दिखा। तू जीते-जी मेरे हाथसे छुटकारा नहीं पा सकेगा || ३७३ ।। 

यो हि ब्राह्नमण्यमुस्तृज्य क्षत्रधर्मरतो द्विज: ।। ३८ ।। 

स वध्य: सर्वलोकस्य यथा त्वं पुरुषाधम: । 


'जो ब्राह्मण ब्राह्मणत्वका परित्याग करके क्षत्रियधर्ममें तत्पर हो, जैसा कि मनुष्योंमें 
अधम तू है, वह सब लोगोंके लिये वध्य है” || ३८३ ।। 

इत्युक्त: परुषं वाक्यं पार्षतेन द्विजोत्तम: ।। ३९ ।। 

क्रोधमाहारयत्‌ तीव्र तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ । 

द्रपदकुमारके इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर द्विजश्रेष्ठ अश्वत्थामाको बड़ा क्रोध हुआ 
और उसने कहा--'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ३९३ || 

निर्दहन्निव चक्षुर्भ्या पार्षत॑ सो5भ्यवैक्षत ।। ४० ।। 

छादयामास च शरैर्नि:श्वसन्‌ पन्नगो यथा । 

उसने धृष्टद्युम्मकी ओर इस प्रकार देखा मानो अपने नेत्रोंके तेजसे उन्हें दग्ध कर 
डालेगा। साथ ही सर्पकी भाँति फुफकारते हुए अभश्वत्थामाने उन्हें अपने बाणोंद्वारा ढक 
दिया ।। ४० ३ ।। 

स च्छाद्यमान: समरे द्रौणिना राजसत्तम || ४१ ।। 

सर्वपाञ्चालसेनाभि: संवृतो रथसत्तम: | 

नाकम्पत महाबाहु: स्ववीर्य समुपाश्रित: ।। ४२ ।। 

सायकांश्चैव विविधाननश्वत्थाम्नि मुमोच ह । 

नृपश्रेष्ठ! समरांगणमें अश्व॒त्थामाके द्वारा आच्छादित होनेपर भी समस्त पांचाल- 
सेनाओंसे घिरे हुए महारथी महाबाहु धृष्टद्युम्म कम्पित नहीं हुए। उन्होंने अपने 
बलपराक्रमका आश्रय लेकर अभश्वत्थामापर नाना प्रकारके बाणोंका प्रहार किया ।। ४१-४२ 
न्‍्।! 

तौ पुन: संन्यवर्तेतां प्राणधूतपणे रणे ।। ४३ ।। 

निपीडयन्तौ बाणौचै: परस्परममर्षिणौ । 

उत्सृजन्तौ महेष्वासौ शरवृष्टी: समनन्‍्तत:ः ।। ४४ ।। 

वे दोनों महाधनुर्धर वीर अमर्षमें भरकर एक-दूसरेपर चारों ओरसे बाणोंकी वर्षा करते 
और उन बाणसमूहोंद्वारा परस्पर पीड़ा देते हुए प्राणोंकी बाजी लगाकर रणभूमिमें डटे 
रहे || ४३-४४ ।। 

द्रौणिपार्षतयोर्युद्धें घोररूपं भयानकम्‌ | 

दृष्टवा सम्पूजयामासु: सिद्धचारणवातिका: ।। ४५ ।। 

अश्वत्थामा और धृष्टद्युम्मके उस घोर एवं भयानक युद्धको देखकर सिद्ध, चारण तथा 
वायुचारी गरुड़ आदिने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ४५ ।। 

शरौघै: पूरयन्तौ तावाकाशं च दिशस्तथा । 

अलक्ष्यौ समयुध्येतां महत्‌ कृत्वा शरैस्तम: ।। ४६ ।। 

वे दोनों अपने बाणसमूहोंसे आकाश और दिशाओंको भरते हुए उनके द्वारा महान्‌ 
अन्धकारकी सृष्टि करके अलक्ष्य होकर युद्ध करते रहे || ४६ ।। 


नृत्यमानाविव रणे मण्डलीकृतकार्मुकौ । 

परस्परवधे यत्तौ सर्वभूतभयड्करौ ।। ४७ ।। 

उस रणक्षेत्रमें धनुषको मण्डलाकार करके वे दोनों नृत्य-सा कर रहे थे। एक-दूसरेके 
वधके लिये प्रयत्नशील होकर समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर बन गये थे ।। ४७ ।। 

अयुध्येतां महाबाहू चित्र लघु च सुष्ठु च । 

सम्पूज्यमानौ समरे योधमुख्यै: सहस्रश: ।। ४८ ।। 

वे महाबाहु वीर समरांगणमें समस्त श्रेष्ठ योद्धाओंद्वारा हजारों बार प्रशंसित होते हुए 
शीघ्रतापूर्वक और सुन्दर ढंगसे विचित्र युद्ध कर रहे थे || ४८ ।। 

तौ प्रबुद्धौ रणे दृष्टवा वने वन्यौ गजाविव । 

उभयो: सेनयोर्हर्षस्तुमुल: समपद्यत ।। ४९ ।। 

वनमें लड़नेवाले दो जंगली हाथियोंके समान उन दोनोंको युद्धमें जागरूक देखकर 
दोनों सेनाओमें तुमुल हर्षनाद छा गया ।। ४९ ।। 

सिंहनादरवाश्नलासन्‌ दध्मु: शड्खांश्व सैनिका: । 

वादित्राण्य भ्यवाद्यन्त शतशो5थ सहस्रश: ।। ५० || 

सब ओर सिंहनाद होने लगा। सैनिक शंखध्वनि करने लगे तथा सैकड़ों एवं सहस्तरों 
प्रकारके रणवाद्य बजने लगे || ५० ।। 

तस्मिंस्तु तुमुले युद्धे भीरूणां भयवर्धने । 

मुहूर्तमपि तद्‌ युद्धं समरूपं तदाभवत्‌ ।। ५१ ।। 

कायरोंका भय बढ़ानेवाले उस तुमुल संग्राममें दो घड़ीतक उन दोनोंका समान रूपसे 
युद्ध चलता रहा ।। 

ततो द्रौणि्महाराज पार्षतस्य महात्मन: । 

ध्वजं धनुस्तथा छत्रमुभौ च पार्ष्णिसारथी ।। ५२ ।। 

सूतमश्चांश्व चतुरो निहत्याभ्यद्रवद्‌ रणे । 

महाराज! तदनन्तर द्रोणकुमारने महामना धृष्टद्युम्नके ध्वज, धनुष, छत्र, दोनों 
पाश्वरक्षक, सारथि तथा चारों घोड़ोंको नष्ट करके उस युद्धमें बड़े वेगसे धावा किया ।। ५२ 
हे || 

पज्चालां श्वैव तान्‌ सर्वान्‌ बाणै: संनतपर्वभि: ।। ५३ ।। 

व्यद्राववदमेयात्मा शतशो5थ सहस्रशः । 

अनन्त आत्मबलसे सम्पन्न अश्वत्थामाने झुकी हुई गाँठवाले सैकड़ों और सहस्रों 
बाणोंद्वारा उन समस्त पांचालोंको दूर भगा दिया ।। ५३ $ ।। 

ततस्तु विव्यथे सेना पाण्डवी भरतर्षभ ।। ५४ ।। 

दृष्टवा द्रौणेमहत्‌ कर्म वासवस्येव संयुगे । 


भरतमश्रेष्ठ! युद्धस्थलमें इन्द्रके समान अश्वत्थामाके उस महान्‌ कर्मको देखकर पाण्डव- 
सेना व्यथित हो उठी ।। ५४ ३ ।। 

शतेन च शतं हत्वा पठ्चालानां महारथ: ।। ५५ ।। 

त्रिभिश्व निशितैर्बाणत्वा त्रीन्‌ वै महारथान्‌ । 

द्रौणिर्द्रपदपुत्रस्य फाल्गुनस्यथ च पश्यत: ।। ५६ ।। 

नाशयामास पज्चालान भूयिष्ठं ये व्यवस्थिता: । 

महारथी द्रोणकुमारने पहले सौ बाणोंसे सौ पांचाल योद्धाओंका वध करके फिर तीन 
पैने बाणोंद्वारा उनके तीन महारथियोंकों भी मार गिराया और धूृष्टद्युम्न तथा अर्जुनके 
देखते-देखते वहाँ जो बहुसंख्यक पांचाल योद्धा खड़े थे, उन सबको नष्ट कर 
दिया || ५५-५६३ || 

ते वध्यमाना: पञ्चाला: समरे सह सृञ्जयै: ।। ५७ ।। 

अगच्छन्‌ द्रौणिमुस्तृज्य विप्रकीर्णरथध्वजा: । 

समरभूमिमें मारे जाते हुए पांचाल और सूंजय सैनिक अअश्वत्थामाको छोड़कर चल 
दिये, उनके रथ और ध्वजा नष्ट-भ्रष्ट होकर बिखर गये थे || ५७३ ।। 

स जित्वा समरे शत्रून्‌ द्रोणपुत्रो महारथ: ।। ५८ ।। 

ननाद सुमहानादं तपान्ते जलदो यथा । 

इस प्रकार रणभूमिमें शत्रुओंको जीतकर महारथी द्रोणपुत्र वर्षाकालके मेघके समान 
जोर-जोरसे गर्जना करने लगा || ४८३ ।। 

स निहत्य बहुन्‌ शूरानश्वत्थामा व्यरोचत । 

युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावक: ।। ५९ |। 

जैसे प्रलयकालमें अग्निदेव सम्पूर्ण भूतोंको भस्म करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार 
अश्व॒ृत्थामा वहाँ बहुसंख्यक शूरवीरोंका वध करके सुशोभित हो रहा था ।। ५९ ।। 

सम्पूज्यमानो युधि कौरवेयै- 

निर्जित्य संख्येडरिगणाम्‌ सहस्रश: । 
व्यरोचत द्रोणसुत: प्रतापवान्‌ 
यथा सुरेन्‍्द्रो<रिगणान्‌ निहत्य वै ।॥ ६० ।। 

जैसे देवराज इन्द्र शत्रुओंका संहार करके सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रतापी 
द्रोणपुत्र अश्व॒त्थामा संग्राममें सहस्रों शत्रुसमूहोंको परास्त करके कौरवोंद्वारा पूजित एवं 
प्रशंसित होता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था ।। ६० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे5श्वत्थामपराक्रमे 
षष्टयधिकशततमो< ध्याय: ।। १६० ।। 


इस प्रकार श्रीमह्ा भारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें यात्रियुद्धके अवसरपर 
अश्वत्थामाका पराक्रमविषयक एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६० ॥। 


है अर ० बछ। | क्र 


एकषष्ट्याधिकशततमोड< ध्याय: 


भीमसेन और अर्जुनका आक्रमण और कौरव-सेनाका 


पलायन 
संयज उवाच 

ततो युधिष्ठिरश्नैव भीमसेनश्न पाण्डव: । 

द्रोणपुत्रं महाराज समन्तात्‌ पर्यवारयन्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--महाराज! तदनन्तर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर और भीमसेनने द्रोणपुत्र 
अश्वत्थामाको चारों ओरसे घेर लिया ।। १ ।। 

ततो दुर्योधनो राजा भारद्वाजेन संवृतः । 

अभ्ययात्‌ पाण्डवान्‌ संख्ये ततो युद्धमवर्तत ।। २ ।। 

घोररूपं महाराज भीरूणां भयवर्धनम्‌ | 

यह देख द्रोणाचार्यकी सेनासे घिरे हुए राजा दुर्योधनने भी रणभूमिमें पाण्डवोंपर 
आक्रमण किया। महाराज! भी कायरोंका भय बढ़ानेवाला घोर युद्ध होने लगा ।। २६ ।। 

अम्बष्ठान्‌ मालवान्‌ वज्जन्‌ शिबींस्त्रैगर्तकानपि ।। ३ ।। 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय गणान्‌ क्रुद्धों वृकोदर: । 

क्रोधमें भरे हुए भीमसेनने अम्बष्ठ, मालव, वंग, शिबि तथा त्रिगर्तदेशके योद्धाओंको 
मृत्युके लोकमें भेज दिया || ३६ ।। 

अभीषाहान्‌ शूरसेनान्‌ क्षत्रियान्‌ युद्धदुर्मदान्‌ ।। ४ ।। 

निकृत्य पृथिवीं चक्रे भीम: शोणितकर्दमाम्‌ । 

अभीषाह तथा शूरसेन देशके रणदुर्मद क्षत्रियोंको भी काट-काटकर भीमसेनने वहाँकी 
भूमिको खूनसे कीचड़मयी बना दिया ।। ४ ई ।। 

यौधेयानद्रिजान्‌ राजन्‌ मद्रकान्मालवानपि ।। ५ ।। 

प्राहिणोन्मृत्युलोकाय किरीटी निशितै: शरै: । 

राजन! इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुनने अपने पैने बाणोंद्वारा यौधेय, पर्वतीय, मद्रक 
तथा मालव योद्धाओंको भी मृत्युके लोकका पथिक बना दिया ।। ५३ || 

प्रगाठमञ्जोगतिभिनारराचैरभिताडिता: ।। ६ ।। 

निपेतुर्द्धिरदा भूमौ द्विशृज्भा इव पर्वता: । 

अनायास ही दूरतक जानेवाले उनके नाराचोंकी गहरी चोट खाकर दो दाँतोंवाले हाथी 
दो शिखरोंवाले पर्वतोंके समान पृथ्वीपर गिर पड़ते थे ।। ६६ ।। 

निकत्तै्हस्तिहस्तैश्व चेष्टमानैरितस्तत: ।। ७ ।। 


रराज वसुधा55कीर्णा विसर्पद्धिरिवोरगै: । 

हाथियोंके शुण्डदण्ड कटकर इधर-उधर तड़पते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो सर्प 
चल रहे हों। उनके द्वारा आच्छादित हुई वहाँकी भूमि अद्भुत शोभा पा रही थी ।। ७३ ।। 

क्षिप्तै: कनकचित्रैश्न नृपच्छत्रै: क्षितिर्बभी ।। ८ ।। 

द्यौरिवादित्यचन्द्राद्यैर्ग्रहै: कीर्णा युगक्षये । 

प्रलयकालमें सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहोंसे व्याप्त हुए द्युलोककी जैसी शोभा होती है, 
उसी प्रकार इधर-उधर फेंके पड़े हुए राजाओंके सुवर्णचित्रित छत्रोंद्वारा उस रणभूमिकी भी 
शोभा हो रही थी ।। ८६ ।। 

हत प्रहरताभीता विध्यत व्यवकृन्तत ।। ९ ।। 

इत्यासीत्‌ तुमुल: शब्द: शोणाश्चस्य रथं प्रति । 

लाल घोड़ोंवाले द्रोणाचार्यके रथके समीप मार डालो, निर्भय होकर प्रहार करो, 
बाणोंसे बींध डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो” इत्यादि भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था ॥ ९३ ।। 

द्रोणस्तु परमक्रुद्धों वायव्यास्त्रेण संयुगे || १० ।। 

व्यधमत्‌ तान्‌ महावायुर्मेघानिव दुरत्यय: । 

जैसे दुर्जय महावायु मेघोंको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अत्यन्त क्रोधमें भरे 
हुए द्रोणाचार्यने वायव्यास्त्रके द्वारा युद्धमें समस्त शत्रुओंको तहस-नहस कर डाला || १०३ 

|| 

ते हन्यमाना द्रोणेन पञ्चाला: प्राद्रवन्‌ भयात्‌ ।। ११ ।। 

पश्यतो भीमसेनस्य पार्थस्य च महात्मन: । 

द्रोणाचार्युकी मार खाकर भीमसेन और महात्मा अर्जुनके देखते-देखते पांचाल-सैनिक 
भयके मारे भागने लगे ।। 

ततः किरीटी भीमश्न सहसा संन्यवर्तताम्‌ ।। १२ ।। 

महता रथवंशेन परिगृहा बल॑ महत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ अर्जुन और भीमसेन विशाल रथसमूहसे युक्त भारी सेना साथ लेकर सहसा 
द्रोणाचार्यकी ओर लौट पड़े ।। 

बीभत्सुर्दक्षिणं पार्श्वमुत्तरं तु वृकोदर: ।। १३ ।। 

भारद्वाजं शरौघाभ्यां महद्भ्यामभ्यवर्षताम्‌ | 

तो तथा सूंजयाश्वैव पञ्चालाश्न महौजस: ।। १४ ।। 

अन्वगच्छन्‌ महाराज मत्स्यैश्न सह सोमकै: । 

अर्जुनने द्रोणाचार्यकी सेनापर दक्षिण पार्श्से और भीमसेनने बायें पार्श्बले अपने 
बाणसमूहोंकी भारी वर्षा प्रारम्भ कर दी। महाराज! उस समय महातेजस्वी पांचालों, 
सृंजयों, मत्स्यों तथा सोमकोंने भी उन्हीं दोनोंके मार्गकका अनुसरण किया ।। १३-१४ $ ।। 





तथैव तव पुत्रस्य रथोदारा: प्रहारिण: ॥। १५ ।। 

महत्या सेनया राजन्‌ जम्मुद्रोणरथं प्रति । 

राजन! इसी प्रकार प्रहार करनेमें कुशल आपके पुत्रके श्रेष्ठ रथी भी विशाल सेनाके 
साथ द्रोणाचार्यके रथके समीप जा पहुँचे || १५६ ।। 

ततः सा भारती सेना हन्यमाना किरीटिना ।। १६ ।। 

तमसा निद्रया चैव पुनरेव व्यदीर्यत । 

उस समय किरीटवधारी अर्जुनके द्वारा मारी जाती हुई कौरवी-सेना अन्धकार और निद्रा 
दोनोंसे पीड़ित हो पुनः भागने लगी ।। १६३ ।। 

द्रोणेन वार्यमाणास्ते स्वयं तव सुतेन च ।। १७ ।। 

नाशक्यन्त महाराज योधा वारयितुं तदा | 

महाराज! द्रोणाचार्यने तथा स्वयं आपके पुत्रने भी उन्हें बहुतेरा रोका, तथापि उस 
समय आपके सैनिक रोके न जा सके | १७६ || 

सा पाण्डुपुत्रस्य शरैर्दीयमाणा महाचमू: ।। १८ ।। 

तमसा संवृते लोके व्यद्रवत्‌ सर्वतोमुखी । 


पाण्डुपुत्र अर्जुनके बाणोंसे विदीर्ण होती हुई वह विशाल सेना उस तिमिराच्छन्न जगत्‌में 
सब ओर भागने लगी || १८६ || 

उत्सृज्य शतशो वाहांस्तत्र केचिन्नराधिपा: । 

प्राद्रवन्त महाराज भयाविष्टा: समन्ततः ।। १९ ।। 

महाराज! कुछ नरेश, जो सैकड़ोंकी संख्यामें थे, अपने वाहनोंको वहीं छोड़कर भयसे 
व्याकुल हो सब ओर भाग गये ।। १९ ।। 

इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे 
एकषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६१ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें यात्रियुद्धके अवसरपर 
संकुलयुद्धविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६१ ॥। 


न२््््स्शितास् श््यु नी नत्तज्स 


द्विषष्ट्यांधेकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिद्वारा सोमदत्तका वध, द्रोणाचार्य और युधिष्ठिरका 
युद्ध तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यसे दूर 
रहनेका आदेश 


संजय उवाच 

सोमदत्तं तु सम्प्रेक्ष्य विधुन्वानं महद्‌ धनु: । 

सात्यकि: प्राह यन्तारं सोमदत्ताय मां वह ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! सोमदत्तको अपना विशाल धनुष हिलाते देख सात्यकिने 
अपने सारथिसे कहा--“मुझे सोमदत्तके पास ले चलो ।। १ ।। 

न हाहत्वा रणे शत्रुं सोमदत्तं महाबलम्‌ । 

निवर्तिष्ये रणात्‌ सूत सत्यमेतद्‌ वचो मम ।। २ ।। 

'सूत! आज मैं रणभूमिमें अपने महाबली शत्रु सोमदत्तका वध किये बिना वहाँसे पीछे 
नहीं लौटूँगा। मेरी यह बात सत्य है" || २ ।। 

ततः सम्प्रैषयद्‌ यन्ता सैन्धवांस्तान्‌ मनोजवान्‌ | 

तुरज़्माज्छड्खवर्णान्‌ सर्वशब्दातिगान्‌ रणे ।। ३ ।। 

तब सारथिने शंखके समान श्वेतवर्णवाले तथा सम्पूर्ण शब्दोंका अतिक्रमण करनेवाले 
मनके समान वेगशाली सिंधी घोड़ोंको रणभूमिमें आगे बढ़ाया || ३ ।। 

तेडवहन्‌ युयुधानं तु मनोमारुतरंहस: । 

यथेन्द्रं हरयो राजन्‌ पुरा दैत्यवधोद्यतम्‌ ।। ४ ।। 

राजन्‌! मन और वायुके समान वेगशाली वे घोड़े युयुधानको उसी प्रकार ले जाने लगे, 
जैसे पूर्वकालमें दैत्य-वधके लिये उद्यत देवराज इन्द्रको उनके घोड़े ले गये थे ।। 

तमापततन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं रभसं रणे । 

सोमदत्तो महाबाहुरसम्भ्रान्तो न्यवर्तत ।। ५ ।। 

वेगशाली सात्यकिको रणभूमिमें अपनी ओर आते देख महाबाहु सोमदत्त बिना किसी 
घबराहटके उनकी ओर लौट पड़े ।। ५ || 

विमुज्चञ्छरवर्षाणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्‌ । 

छादयामास शैनेयं जलदो भास्करं यथा ।। ६ ।। 

वर्षा करनेवाले मेघकी भाँति बाणसमूहोंकी वृष्टि करते हुए सोमदत्तने, जैसे बादल 
सूर्यको ढक लेता है, उसी प्रकार शिनिपौत्र सात्यकिको आच्छादित कर दिया ।। 

असम्भ्रान्तश्न समरे सात्यकि: कुरुपुड्रवम्‌ । 


छादयामास बाणौचै: समनन्‍्ताद्‌ भरतर्षभ ।। ७ ।। 

भरतश्रेष्ठ) उस समरांगणमें सम्भ्रमरहित सात्यकिने भी अपने बाणसमूहोंद्वारा सब 
ओरसे कुरुप्रवर सोमदत्तको आच्छादित कर दिया ।। ७ ।। 

सोमदत्तस्तु तं षष्ट्या विव्याधोरसि माधवम्‌ | 

सात्यकिश्चापि तं राजन्नविध्यत्‌ सायकैः शितै: ।। ८ ।॥। 

राजन्‌! फिर सोमदत्तने सात्यकिकी छातीमें साठ बाण मारे और सात्यकिने भी उन्हें 
तीखे बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया ।। ८ ।। 

तावन्योन्यं शरै: कृत्तौ व्यराजेतां नरर्षभौ । 

सुपुष्पौ पुष्पसमये पुष्पिताविव किंशुकौ ।। ९ ।। 

वे दोनों नरश्रेष्ठ एक-दूसरेके बाणोंसे घायल होकर वसनन्‍्त-ऋतुमें सुन्दर पुष्पवाले दो 
विकसित पलाशवृक्षोंके समान शोभा पा रहे थे || ९ ।। 

रुधिरोक्षितसर्वाड्री कुरुवृष्णियशस्करौ । 

परस्परमवेक्षेतां दहन्ताविव लोचनै: ।। १० ।। 

कुरुकुल और वृष्णिवंशके यश बढ़ानेवाले उन दोनों वीरोंके सारे अंग खूनसे लथपथ हो 
रहे थे। वे नेत्रोंद्वारा एक-दूसरेको जलाते हुए-से देख रहे थे || १० ।। 

रथमण्डलमार्गेषु चरन्तावरिमर्दनौ । 

घोररूपौ हि तावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ ।। ११ ।। 

रथ मण्डलके मार्गोंपर विचरते हुए वे दोनों शत्रुमर्दन वीर वर्षा करनेवाले दो बादलोंके 
समान भंयकर रूप धारण किये हुए थे ।। ११ ।। 

शरसम्भिन्नगात्रौ तु सर्वतः शकलीकृतौ । 

श्वाविधाविव राजेन्द्र दृश्येतां शरविक्षतौ ।। १२ ।। 

राजेन्द्र! उनके शरीर बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर सब ओरसे खण्डित-से हो बाणविद्ध 
हिंसक पशुओंके समान दिखायी दे रहे थे || १२ ।। 

सुवर्णपुड्खैरिषुभिराचितौ तौ व्यराजताम्‌ । 

खटद्योतैरावृती राजन्‌ प्रावषीव वनस्पती ।। १३ ।। 

राजन! सुवर्णमय पंखवाले बाणोंसे व्याप्त होकर वे दोनों योद्धा वर्षाकालमें जुगनुओंसे 
व्याप्त हुए दो वृक्षोंक समान सुशोभित हो रहे थे || १३ ।। 

सम्प्रदीपितसर्वाज्ञी सायकैस्तैर्महारथौ । 

अदृश्येतां रणे क्रुद्धावुल्काभिरिव कुज्जरी ।। १४ ।। 

उन दोनों महारथियोंके सारे अंग उन बाणोंसे उद्धासित हो रहे थे; इसीलिये वे दोनों, 
रणक्षेत्रमें उल्काओंसे प्रकाशित एवं क्रोधमें भरे हुए दो हाथियोंके समान दिखायी देते 
थे।। १४ ।। 

ततो युधि महाराज सोमदत्तो महारथ: । 


अर्धचन्द्रेण चिच्छेद माधवस्य महद्‌ धनु: ।। १५ ।। 

महाराज! तदनन्तर युद्धस्थलमें महारथी सोमदत्तने अर्धचन्द्राकार बाणसे सात्यकिके 
विशाल धनुषको काट दिया ।। १५ || 

अथैनं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्‌ । 

त्वरमाणस्त्वराकाले पुनश्न दशभि: शरै: ।। १६ ।। 

और तत्काल ही उनपर पचीस बाणोंका प्रहार किया। शीघ्रताके अवसरपर शीघ्रता 
करनेवाले सोमदत्तने सात्यकिको पुनः दस बाणोंसे घायल कर दिया ।। १६ || 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सात्यकिर्वेगवत्तरम्‌ । 

पज्चभि: सायकैस्तूर्ण सोमदत्तमविध्यत ।। १७ ।। 

तदनन्तर सात्यकिने अत्यन्त वेगशाली दूसरा धनुष हाथमें लेकर तुरंत ही पाँच बाणोंसे 
सोमदत्तको बींध डाला ।। १७ |। 

ततो5परेण भल्लेन ध्वजं चिच्छेद काउ्चनम्‌ | 

बाह्लीकस्य रणे राजन्‌ सात्यकि: प्रहसन्निव ।। १८ ।। 

राजन! फिर सात्यकिने हँसते हुए-से रणभूमिमें एक दूसरे भल्लके द्वारा बाह्लीकपुत्र 
सोमदत्तके सुवर्णमय ध्वजको काट दिया ।। १८ ।। 

सोमदत्तस्त्वसम्भ्रान्तो दृष्टवा केतुं निपातितम्‌ । 

शैनेयं पञचविंशत्या सायकानां समाचिनोत्‌ ।। १९ ।। 

ध्वजको गिराया हुआ देख सम्भ्रमरहित सोमदत्तने सात्यकिके शरीरमें पचीस बाण चुन 
दिये || १९ ।। 

सात्वतो5पि रणे क्रुद्ध: सोमदत्तस्य धन्विन: । 

धनुश्विच्छेद भल्‍्लेन क्षुरप्रेण शितेन ह ।। २० ।। 

तब रणक्षेत्रमें कुपित हुए सात्यकिने भी तीखे क्षुरप्र नामक भल्लसे धनुर्धर सोमदत्तके 
धनुषको काट दिया ।। 

अथैनं रुक्मपुड्खानां शतेन नतपर्वणाम्‌ | 

आचिनोद्‌ बहुधा राजन्‌ भग्नदंष्टमिव द्विपम्‌ ।। २१ ।। 

राजन! तत्पश्चात्‌ उन्होंने झुकी हुई गाँठ और सुवर्णमय पंखवाले सौ बाणोंसे टूटे 
दाँतवाले हाथीके समान सोमदत्तके शरीरको अनेक बार बींध दिया || २१ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय सोमदत्तो महारथ: । 

सात्यकिं छादयामास शरवृष्टया महाबल: ।। २२ || 

इसके बाद महारथी महाबली सोमदत्तने दूसरा धनुष लेकर सात्यकिको बाणोंकी 
वर्षासे ढक दिया ।। 

सोमदत्तं तु संक्रुद्धो रणे विव्याध सात्यकि: । 

सात्यकि शरजालेन सोमदत्तो5प्यपीडयत्‌ ।। २३ ।। 


उस युद्धमें क़ुद्ध हुए सात्यकिने सोमदत्तको गहरी चोट पहुँचायी और सोमदत्तने भी 
अपने बाणसमूहद्वारा सात्यकिको पीड़ित कर दिया ।। २३ ।। 

दशभि: सात्वतस्यार्थे भीमो5हन्‌ बाह्लिकात्मजम्‌ | 

सोमदत्तो5प्यसम्भ्रान्तो भीममार्च्छच्छितै: शरै: ।। २४ ।। 

उस समय भीमसेनने सात्यकिकी सहायताके लिये सोमदत्तको दस बाण मारे। इससे 
सोमदत्तको तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने भी तीखे बाणोंसे भीमसेनको पीड़ित कर 
दिया ।। २४ ।। 

ततस्तु सात्वतस्यार्थे भीमसेनो नवं दृढम्‌ । 

मुमोच परिघं घोरं सोमदत्तस्य वक्षसि ।। २५ ।। 

तत्पश्चात्‌ सात्यकिकी ओरसे भीमसेनने सोमदत्तकी छातीको लक्ष्य करके एक नूतन 
सुदृढ़ एवं भयंकर परिघ छोड़ा ।। २५ ।। 

तमापततन्तं वेगेन परिघं घोरदर्शनम्‌ । 

द्विधा चिच्छेद समरे प्रहसन्निव कौरव: ।। २६ ।। 

समरांगणमें बड़े वेगसे आते हुए उस भयंकर परिघके कुरुवंशी सोमदत्तने हँसते हुए-से 
दो टुकड़े कर डाले || २६ ।। 

स पपात द्विधा छिन्न आयस: परिघो महान्‌ । 

महीधरस्येव महच्छिखरं वज़दारितम्‌ ।। २७ ।। 

लोहेका वह महान्‌ परिघ दो खण्डोंमें विभक्त होकर वज्रसे विदीर्ण किये गये महान्‌ 
पर्ववशिखरके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। २७ ।। 

ततस्तु सात्यकी राजन्‌ सोमदत्तस्य संयुगे । 

धनुश्विच्छेद भल्‍लेन हस्तावापं च पञठ्चभि: ।। २८ ।। 

राजन! तदनन्तर संग्रामभूमिमें सात्यकिने एक भल्लसे सोमदत्तका धनुष काट दिया 
और पाँच बाणोंसे उनके दस्ताने नष्ट कर दिये || २८ ।। 

ततश्नतुर्भिश्न शरैस्तूर्ण तांस्तुरगोत्तमान्‌ । 

समीपं प्रेषयामास प्रेतराजस्य भारत ।। २९ ।। 

भारत! फिर तत्काल ही चार बाणोंसे उन्होंने सोमदत्तके उन उत्तम घोड़ोंको प्रेतराज 
यमके समीप भेज दिया ।। २९ ।। 

सारथेश्न शिर: कायाद्‌ भल्लेन नतपर्वणा । 

जहार नरशार्दूल: प्रहसज्छिनिपुड्रव: ।॥। ३० ।। 

इसके बाद पुरुषसिंह शिनिप्रवर सात्यकिने हँसते हुए झुकी हुई गाँठवाले भल्लसे 
सोमदत्तके सारथिका सिर धड़से अलग कर दिया || ३० ।। 

ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्‌ | 

मुमोच सात्वतो राजन्‌ स्वर्णपुड्खं शिलाशितम्‌ ।। ३१ ।। 


राजन! तत्पश्चात्‌ सात्वतवंशी सात्यकिने प्रजवलित पावकके समान एक महाभयंकर, 
सुवर्णमय पंखवाला और शिलापर तेज किया हुआ बाण सोमदत्तपर छोड़ा ।। ३१ ।। 

स विमुक्तो बलवता शैनेयेन शरोत्तम: । 

घोरस्तस्योरसि विभो निपपाताशु भारत ।। ३२ ।। 

भरतनन्दन! प्रभो! शिनिवंशी बलवान्‌ सात्यकिके द्वारा छोड़ा हुआ वह श्रेष्ठ एवं 
भयंकर बाण शीघ्र ही सोमदत्तकी छातीपर जा पड़ा || ३२ || 

सो5तिविद्धों महाराज सात्वतेन महारथ: । 

सोमदत्तो महाबाहुर्निपपात ममार च ।। ३३ ।। 

महाराज! सात्यकिके चलाये हुए उस बाणसे अत्यन्त घायल होकर महारथी महाबाहु 
सोमदत्त पृथ्वीपर गिरे और मर गये ।। ३३ ।। 

त॑ दृष्टवा निहतं तत्र सोमदत्तं महारथा: । 

महता शरवर्षेण युयुधानमुपाद्रवन्‌ ।। ३४ ।। 

सोमदत्तको मारा गया देख आपके बहुसंख्यक महारथी बाणोंकी भारी वृष्टि करते हुए 
वहाँ सात्यकिपर टूट पड़े ।। ३४ ।। 

छाद्यमानं शरैर्दृष्टवा युयुधानं युधिष्ठिर: । 

पाण्डवाश्न महाराज सह सर्व: प्रभद्रकै: । 

महत्या सेनया सार्ध द्रोणानीकमुपाद्रवन्‌ ।। ३५ ।। 

महाराज! उस समय सात्यकिको बाणोंद्वारा आच्छादित होते देख युधिष्ठिर तथा अन्य 
पाण्डवोंने समस्त प्रभद्रकोंसहित विशाल सेनाके साथ द्रोणाचार्यकी सेनापर धावा 
किया ।। ३५ |। 

ततो युधिष्ठिर: क्रुद्धस्तावकानां महाबलम्‌ | 

शरैरविद्रावयामास भारद्वाजस्य पश्यत: ।। ३६ ।। 

तदनन्तर क्रोधमें भरे हुए राजा युधिष्ठिरने अपने बाणोंकी मारसे आपकी विशाल 
वाहिनीको द्रोणाचार्यके देखते-देखते खदेड़ना आरम्भ किया ।। ३६ || 

सैन्यानि द्रावयन्तं तु द्रोणो दृष्टवा युधिष्ठिरम्‌ । 

अभिदुद्राव वेगेन क्रोधसंरक्तलोचन: ।। ३७ ।। 

द्रोणाचार्यने देखा कि युधिष्ठिर मेरे सैनिकोंको खदेड़ रहे हैं, तब वे क्रोधसे लाल आँखें 
करके बड़े वेगसे उनकी ओर दौड़े || ३७ ।। 

ततः सुनिशितैर्बाणै: पार्थ विव्याध सप्तभि: । 

युधिष्ठिरो5पि संक्रुद्ध: प्रतिविव्याध पठचभि: ।। ३८ ।। 

फिर उन्होंने सात तीखे बाणोंसे कुन्तीकुमार युधिष्ठिरको घायल कर दिया। अत्यन्त 
क्रोधमें भरे हुए युधिष्ठिरने भी उन्हें पाँच बाणोंसे बींधकर बदला चुकाया ।। 

सो5तिविद्धों महाबाहुः सृक्किणी परिसंलिहन्‌ । 


युधिष्ठटिरस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च ।। ३९ ।। 

स च्छिन्नधन्वा त्वरितस्त्वराकाले नृपोत्तम: । 

अन्यदादत्त वेगेन कार्मुक॑ समरे दृढम्‌ ।। ४० ।। 

तब अत्यन्त घायल हुए महाबाहु द्रोणाचार्य अपने दोनों गलफर चाटने लगे। उन्होंने 
युधिष्ठिरके ध्वज और धनुषको भी काट दिया। शीघ्रताके समय शीघ्रता करनेवाले नृपश्रेष्ठ 
युधिष्ठिरने समरांगणमें धनुष कट जानेपर दूसरे सुदृढ़ धनुषको वेगपूर्वक हाथमें ले 
लिया ।। ३९-४० ।। 

ततः शरसहस्रेण द्रोणं विव्याध पार्थिव: । 

साश्वसूतध्वजरथं तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ४१ ।। 

फिर सहस्रों बाणोंकी वर्षा करके राजाने घोड़े, सारथि, रथ और ध्वजसहित 
द्रोणाचार्यको बींध डाला। वह अद्भुत-सा कार्य हुआ ।। ४१ ।। 

ततो मुहूर्त व्यथितः शरपातप्रपीडित: । 

निषसाद रथोपस्थे द्रोणो भरतसत्तम ।। ४२ ।। 

भरतश्रेष्ठ! उन बाणोंके आघातसे अत्यन्त पीड़ित एवं व्यथित होकर द्रोणाचार्य दो 
घड़ीतक रथके पिछले भागमें बैठे रहे || ४२ ।। 

प्रतिलभ्य ततः संज्ञां मुहूर्ताद्‌ द्विजसत्तम: । 

क्रोधेन महता5<विष्टो वायव्यास्त्रमवासृजत्‌ ।। ४३ ।। 

तत्पश्चात्‌ सचेत होनेपर द्विजश्रेष्ठ द्रोणने महान्‌ क्रोधमें भरकर वायव्यास्त्रका प्रयोग 
किया ।। ४३ ।। 

असम्भ्रान्तस्ततः पार्थो धनुराकृष्य वीर्यवान्‌ 

ततस्तदस्त्रमस्त्रेण सतम्भयामास भारत ।। ४४ ।। 

भरतनन्दन! तदनन्तर पराक्रमी युधिष्ठिरने सम्भ्रमरहित हो धनुष खींचकर उनके उस 
अस्त्रको अपने दिव्यास्त्र-द्वारा कुण्ठित कर दिया ।। ४४ ।। 

चिच्छेद च भर्नुर्दीर्घ ब्राह्मणस्य च पाण्डव: । 

ततोथन्यद्‌ धनुरादत्त द्रोण: क्षत्रियमर्दन: ॥। ४५ || 

तदप्यस्य शितैर्भल्लैश्विच्छेद कुरुपुड्व: । 

इतना ही नहीं, उन पाण्डुकुमारने विप्रवर द्रोणाचार्यके विशाल धनुषको भी काट दिया। 
फिर क्षत्रियोंका मान-मर्दन करनेवाले द्रोणाचार्यने दूसरा धनुष हाथमें लिया। परंतु कुरुप्रवर 
युधिष्ठिरने अपने तीखे भल्लोंसे उसको भी काट दिया || ४५३ ।। 

ततोअब्रवीद्‌ वासुदेव: कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ ।। ४६ ।। 

युधिष्ठिर महाबाहो यच्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु । 

उपारमस्व युद्धे त्वं द्रोणाद्‌ भरतसत्तम ।। ४७ ।। 


तदनन्तर वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिससे कहा--“महाबाहु 
युधिष्ठिर! मैं तुमसे जो कह रहा हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्ठ! तुम युद्धमें द्रोणाचार्यसे अलग 
रहो || ४६-४७ ।। 

यतते हि सदा द्रोणो ग्रहणे तव संयुगे । 

नानुरूपमहं मन्ये युद्धमस्य त्वयवा सह ।। ४८ ।। 

क्योंकि द्रोणाचार्य युद्धस्थलमें सदा तुम्हें कैद करनेके प्रयत्नमें रहते हैं; अतः तुम्हारे 
साथ इनका युद्ध होना मैं उचित नहीं मानता || ४८ ।। 

यो<स्य सृष्टो विनाशाय स एवैनं हनिष्यति । 

परिवर्ज्य गुरुं याहि यत्र राजा सुयोधन: ।। ४९ ।। 

“जो इनके विनाशके लिये उत्पन्न हुआ है, वही इन्हें मारेगा। तुम अपने गुरुदेवको 
छोड़कर जहाँ राजा दुर्योधन हैं, वहाँ जाओ ।। ४९ ।। 

राजा राज्ञा हि योद्धव्यो नाराज्ञा युद्धमिष्यते । 

तत्र त्वं गच्छ कौन्तेय हस्त्यश्वरथसंवृत: ।। ५० ।। 

“क्योंकि राजाको राजाके ही साथ युद्ध करना चाहिये। जो राजा नहीं है, उसके साथ 
उसका युद्ध अभीष्ट नहीं है। अतः कुन्तीनन्दन! तुम हाथी, घोड़े और रथोंकी सेनासे घिरे 
रहकर वहीं जाओ ।। ५० ।। 

यावन्मात्रेण च मया सहायेन धनंजय: । 

भीमश्च रथशार्दूलो युध्यते कौरवै: सह ।। ५१ ।। 

“तबतक मेरे साथ रहकर अर्जुन तथा रथियोंमें सिंहके समान पराक्रमी भीमसेन 
कौरवोंके साथ युद्ध करते हैं" ।। 

वासुदेववच: श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिर: । 

मुहूर्त चिन्तयित्वा तु ततो दारुणमाहवम्‌ ।। ५२ ।। 

प्रायाद्‌ द्रुतममित्रघ्नो यत्र भीमो व्यवस्थित: । 

विनिष्नंस्तावकान्‌ योधान्‌ व्यादितास्य इवान्तक: ।। ५३ ।। 

भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने दो घड़ीतक उस दारुण 
युद्धके विषयमें सोचा। फिर वे तुरंत वहाँ चले गये, जहाँ शत्रुओंका संहार करनेवाले 
भीमसेन आपके योद्धाओंका वध करते हुए मुँह फैलाये यमराजके समान खड़े 
थे ।। ५२-५३ ।। 

रथघोषेण महता नादयन्‌ वसुधातलम्‌ । 

पर्जन्य इव घर्मान्ति नादयन्‌ वै दिशो दश || ५४ ।। 

भीमस्य निष्नतः शत्रून्‌ पार्ष्णि जग्राह पाण्डव: । 

द्रोणो5पि पाण्डुपज्चालान्‌ व्यधमद्‌ रजनीमुखे ।। ५५ ।। 


पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अपने रथकी भारी घर्घराहटसे भूतलको उसी प्रकार प्रतिध्वनित 
कर रहे थे, जैसे वर्षाकालमें गर्जना करता हुआ मेघ दसों दिशाओंको गुँजा देता है। उन्होंने 
शत्रुओंका संहार करनेवाले भीमसेनके पार्श्चभागकी रक्षाका भार ले लिया। उधर द्रोणाचार्य 
भी रात्रिके समय पाण्डव तथा पांचाल सैनिकोंका संहार करने लगे ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे 
द्विषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६२ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धविषयक एक सौ 
बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६२ ॥/ 


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त्रिषष्ट्याधिकशततमो< ध्याय: 


कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंमें प्रदीपों (मशालों)-का 
प्रकाश 


संजय उवाच 

वर्तमाने तथा युद्धे घोररूपे भयावहे । 

तमसा संवृते लोके रजसा च महीपते ।। १ ।। 

नापश्यन्त रणे योधा: परस्परमवस्थिता: । 

अनुमानेन संज्ञाभियद्धं तद्‌ ववृधे महत्‌ ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जिस समय वह भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय 
सम्पूर्ण जगत्‌ अन्धकार और धूलसे आच्छादित था; इसीलिये रणभूमिमें खड़े हुए योद्धा 
एक-दूसरेको देख नहीं पाते थे। वह महान्‌ युद्ध अनुमानसे तथा नाम या संकेतोंद्वारा चलता 
हुआ उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था ।। १-२ |। 

नरनागाश्चवमथनं परमं लोमहर्षणम्‌ । 

द्रोणकर्णकृपा वीरा भीमपार्षतसात्यका: ।। ३ ।। 

अन्योन्यं क्षोभयामासु: सैन्यानि नृपसत्तम । 

उस समय अत्यन्त रोमांचकारी युद्ध हो रहा था। उसमें मनुष्य, हाथी और घोड़े मथे जा 
रहे थे। एक ओरसे द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य ये तीन वीर युद्ध करते थे तथा दूसरी ओरसे 
भीमसेन, धृष्टद्युम्न एवं सात्यकि सामना कर रहे थे। नृपश्रेष्ठ) ये एक-दूसरेकी सेनाओंमें 
हलचल मचाये हुए थे । ३६ || 

वध्यमानानि सैन्यानि समन्तात्‌ तैर्महारथै: ॥। ४ ।। 

तमसा संवृते चैव समन्ताद्‌ विप्रदुद्रुवु: । 

उन महारथियोंद्वारा उस अन्धकाराच्छन्न प्रदेशमें सब ओरसे मारी जाती हुई सेनाएँ 
चारों ओर भागने लगीं ।। ४६ ।। 

ते सर्वतो विद्रवन्तो योधा विध्वस्तचेतना: ।। ५ ।। 

अहन्यन्त महाराज धावमानाश्न संयुगे । 

महाराज! वे योद्धा अचेत होकर सब ओर भागते थे और भागते हुए ही उस युद्धस्थलमें 
मारे जाते थे || ५६ ।। 

महारथसहस््राणि जषघ्नुरन्योन्यमाहवे ।। ६ ।। 

अन्धे तमसि मूढानि पुत्रस्य तव मन्त्रिते । 


आपके पुत्र दुर्योधनकी सलाहसे होनेवाले उस युद्धके भीतर प्रगाढ़ अन्धकारमें 
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए सहस्रों महारथियोंने एक-दूसरेको मार डाला ।। ६३ ।। 
ततः: सर्वाणि सैन्यानि सेनागोपाश्ष भारत । 
व्यमुहन्त रणे तत्र तमसा संवृते सति ।। ७ ।। 
भरतनन्दन! तदनन्तर उस रणभूमिके तिमिराच्छन्न हो जानेपर समस्त सेनाएँ और 
सेनापति मोहित हो गये ।। 
धृतराष्ट्र रवाच 
तेषां संलोड्यमानानां पाण्डवैर्विहतौजसाम्‌ । 
अन्धे तमसि मग्नानामासीत्‌ कि वो मनस्तदा ।। ८ |। 
धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! जिस समय तुम सब लोग अन्धकारमें डूबे हुए थे और 
पाण्डव तुम्हारे बल और पराक्रमको नष्ट करके तुम्हें मथे डालते थे, उस समय तुम्हारे और 
उन पाण्डवोंके मनकी कैसी अवस्था थी? ।। 
कथं प्रकाशस्तेषां वा मम सैन्यस्य वा पुन: । 
बभूव लोके तमसा तथा संजय संवृते ।। ९ ।। 
संजय! जब कि सारा जगत्‌ अन्धकारसे आवृत था, उस समय पाण्डवोंको अथवा मेरी 
सेनाको कैसे प्रकाश प्राप्त हुआ ।। ९ ।। 
संजय उवाच 
ततः सर्वाणि सैन्यानि हतशिष्टानि यानि वै । 
सेनागोप्तृनथादिश्य पुनर्व्यूहमकल्पयत्‌ ।। १० ।। 
संजयने कहा--राजन्‌! तदनन्तर जितनी सेनाएँ मरनेसे बची हुई थीं, उन सबको तथा 
सेनापतियोंको आदेश देकर दुर्योधनने उनका पुनः व्यूह-निर्माण करवाया ।। 
द्रोण: पुरस्ताज्जघने तु शल्य- 
स्तथा द्रौणि: पार्श्वृत: सौबलश्न । 
स्वयं तु सर्वाणि बलानि राजन्‌ 
राजाभ्ययाद्‌ गोपयन्‌ वै निशायाम्‌ | ११ ।। 
राजन! उस व्यूहके अग्रभागमें द्रोणाचार्य, मध्यभागमें शल्य तथा पार्श्चभागमें 
अश्वत्थामा और शकुनि थे। स्वयं राजा दुर्योधन उस रात्रिके समय सम्पूर्ण सेनाओंकी रक्षा 
करता हुआ युद्धके लिये आगे बढ़ रहा था ।। ११ ।। 
उवाच सर्वाश्चव पदातिसड्घान्‌ 
दुर्योधन: पार्थिव सान्त्वपूर्वम्‌ । 
उत्सृज्य सर्वे परमायुधानि 
गृह्नीत हस्तैज्वलितान्‌ प्रदीपान्‌ ।। १२ ।। 


पृथ्वीनाथ! उस समय दुर्योधनने समस्त पैदल सैनिकोंसे सान्त्वनापूर्ण वचनोंमें कहा 
--वीरो! तुम सब लोग उत्तम आयुध छोड़कर अपने हाथोंमें जलती हुई मशालें ले 
लो' ।। १२ ।। 
ते चोदिता: पार्थिवसत्तमेन 
ततः प्रह्ृष्टा जगृहुः प्रदीपान्‌ । 
देवर्षिगन्धर्वसुर्िसऊड्ूघा 
विद्याधराश्चाप्सरसां गणाश्न ।। १३ ।। 
नागा: सयक्षोरगकिन्नराश्न 
हृष्टा दिविस्था जगृहुः प्रदीपान्‌ | 
नृपश्रेष्ठ दुर्योधनकी आज्ञा पाकर उन पैदल सिपाहियोंने बड़े हर्षके साथ हाथोंमें मशालें 
ले लीं। आकाशमें खड़े हुए देवता, ऋषि, गन्धर्व, देवर्षि, विद्याधर, अप्सराओंके समूह, नाग, 
यक्ष, सर्प और किन्नर आदिने भी प्रसन्न होकर हाथोंमें प्रदीप ले लिये ।। १३ ई ।। 
दिग्देवतेभ्यश्ष॒ समापतन्तो- 
<दृश्यन्त दीपा: ससुगन्धितैला: ।। १४ ।। 
विशेषतो नारदपर्वताभ्यां 
सम्बोध्यमाना: कुरुपाण्डवार्थम्‌ | 
दिशाओंकी अधिष्ठात्री देवियोंके यहाँसे भी सुगन्धित तैलसे भरे हुए दीप वहाँ उतरते 
दिखायी दिये। विशेषत: नारद और पर्वत नामक मुनियोंने कौरव और पाण्डवोंकी सुविधाके 
लिये वे दीप जलाये थे || १४३ ।। 
सा भूय एव ध्वजिनी विभक्ता 
व्यरोचताग्निप्रभया निशायाम्‌ ॥। १५ |। 
महाधनैराभरणैश्न दिव्यै: 
शस्त्रैश्न दीप्तैरपि सम्पतद्धिः । 
रातके समय अग्निकी प्रभासे वह सेना पुनः विभागपूर्वक प्रकाशित हो उठी। बहुमूल्य 
आभूषणों तथा सैनिकोंपर गिरनेवाले दीप्तिमान्‌ दिव्यास्त्रोंस भी वह सेना बड़ी शोभा पा 
रही थी ।। १५३ || 
रथे रथे पञज्च विदीपकास्तु 
प्रदीपकास्तत्र गजे त्रयक्ष ।। १६ ।। 
प्रत्यश्चमेकश्न महाप्रदीप: 
कृतास्तु तैः पाण्डवै: कौरवेयै: । 
क्षणेन सर्वे विहिता: प्रदीपा 
व्यादीपयन्तो ध्वजिनीं तवाशु ।। १७ ।। 


एक-एक रथके पास पाँच-पाँच मशालें थीं। प्रत्येक हाथीके साथ तीन-तीन प्रदीप 
जलते थे। प्रत्येक घोड़ेके साथ एक महाप्रदीपकी व्यवस्था की गयी थी। पाण्डवों तथा 
कौरवोंके द्वारा इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक जलाये गये समस्त प्रदीप क्षणभरमें आपकी सारी 
सेनाको प्रकाशित करने लगे ।। १६-१७ ।। 
सर्वस्तु सेना व्यतिसेव्यमाना: 
पदातिभि: पावकतैलहस्तै: । 
प्रकाश्यमाना ददृशुर्निशायां 
यथान्तरिक्षे जलदास्तडिद्धिः ।। १८ ।। 
सब लोगोंने देखा कि मशाल और तेल हाथमें लिये पैदल सैनिकोंद्वारा सेवित सारी 
सेनाएँ रात्रिके समय उसी प्रकार प्रकाशित हो उठी हैं, जैसे आकाशमें बादल बिजलियोंके 
प्रकाशसे प्रकाशित हो उठते हैं ।। 
प्रकाशितायां तु ततो ध्वजिन्यां 
द्रोणो&ग्निकल्प: प्रतपन्‌ समन्तात्‌ । 
रराज राजेन्द्र सुवर्णवर्मा 
मध्यं गत: सूर्य इवांशुमाली ।। १९ ।। 
राजेन्द्र! सारी सेनामें प्रकाश फैल जानेपर अग्निके समान प्रतापी द्रोणाचार्य सुवर्णमय 
कवच धारण करके दोपहरके सूर्यकी भाँति सब ओर देदीप्यमान होने लगे ।। 
जाम्बूनदेष्वाभरणेषु चैव 
निष्केषु शुद्धेषु शरासनेषु । 
पीतेषु शस्त्रेषु च पावकस्य 
प्रतिप्रभास्तत्र तदा बभूवु: ।। २० ।। 
उस समय सोनेके आभूषणों, शुद्ध निष्कों, धनुषों तथा चमकीले शणस्त्रोंमें वहाँ उन 
मशालोंकी आगगके प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे || २० ।। 
गदाश्न शैक्या: परिधघाश्न शुभ्रा 
रथेषु शक्‍्त्यश्न विवर्तमाना: । 
प्रतिप्रभारश्मिभिराजमीढ 
पुनः पुन: संजनयन्ति दीपान्‌ ॥। २१ ।। 
अजमीढकुलनन्दन! वहाँ जो गदाएँ, शैक्य, चमकीले परिघ तथा रथ-शक्तियाँ घुमायी 
जा रही थीं, उनमें जो उन मशालोंकी प्रभाएँ प्रतिबिम्बित होती थीं, वे मानो पुन:-पुनः बहुत- 
से नूतन प्रदीप प्रकट करती थीं || २१ ।। 
छत्राणि वालव्यजनानि खड़््‌गा 
दीप्ता महोल्काश्न तथैव राजन्‌ | 
व्याघूर्णमानाश्न सुवर्णमाला 


व्यायच्छतां तत्र तदा विरेजु: ॥। २२ ।। 
राजन! छत्र, चँवर, खड्ग, प्रज्वलित विशाल उल्काएँ तथा वहाँ युद्ध करते हुए वीरोंकी 
हिलती हुई सुवर्णमालाएँ उस समय प्रदीपोंके प्रकाशसे बड़ी शोभा पा रही थीं ।। २२ ।। 
शस्त्रप्रभाभिक्ष विराजमान 
दीपप्रभाभिश्च तदा बल॑ तत्‌ 
प्रकाशितं चाभरणप्रभाभि- 
भुशं प्रकाशं नृपते बभूव ।। २३ ।। 
नरेश्वर! उस समय चमकीले अस्त्रों, प्रदीपों तथा आभूषणोंकी प्रभाओंसे प्रकाशित एवं 
सुशोभित आपकी सेना अत्यन्त प्रकाशसे उद्धासित होने लगी ।। २३ ।। 
पीतानि शस्त्राण्यसगुक्षितानि 
वीरावधूतानि तनुच्छदानि । 
दीप्तां प्रभां प्राजनयन्त तत्र 
तपात्यये विद्युदिवान्तरिक्षे | २४ ।। 
पानीदार एवं खूनसे रँँगे हुए शस्त्र तथा वीरोंद्वारा कँपाये हुए कवच वहाँ प्रदीपोंके 
प्रतिबिम्ब ग्रहण करके वर्षाकालके आकाशमें चमकनेवाली बिजलीकी भाँति अत्यन्त 
उज्ज्वल प्रभा बिखेर रहे थे || २४ ।। 
प्रकम्पितानामभिघातवेगै- 
रभिष्नतां चापततां जवेन । 
वक्‍्त्राण्यकाशन्त तदा नराणां 
वाय्वीरितानीव महाम्बुजानि | २५ |। 
आधघातके वेगसे कम्पित, आघात करनेवाले तथा वेगपूर्वक शत्रुकी ओर झपटनेवाले 
वीर मनुष्योंके मुख-मण्डल उस समय वायुसे हिलाये हुए बड़े-बड़े कमलोंके समान 
सुशोभित हो रहे थे || २५ ।। 
महावने दारुमये प्रदीप्ते 
यथा प्रभा भास्करस्यापि नश्येत्‌ । 
तथा तदा<5<सीद्‌ ध्वजिनी प्रदीप्ता 
महाभया भारत भीमरूपा || २६ || 
भरतनन्दन! जैसे सूखे काठके विशाल वनमें आग लग जानेपर वहाँ सूर्यकी भी प्रभा 
फीकी पड़ जाती है, उसी प्रकार उस समय अधिक प्रकाशसे प्रज्वलित होती हुई-सी 
आपकी भयानक सेना महान्‌ भय उत्पन्न करनेवाली प्रतीत होती थी ।। २६ ।। 
तत्‌ सम्प्रदीप्तं बलमस्मदीयं 
निशम्य पार्थास्त्विरितास्तथैव । 
सर्वेषु सैन्येषु पदातिसंघा- 


नचोदयंस्ते5पि चक्रुः प्रदीपान्‌ ।। २७ ।। 
हमारी सेनाको मशालोंके प्रकाशसे प्रकाशित देख कुन्तीके पुत्रोंने भी तुरंत ही सारी 
सेनाके पैदल सैनिकोंको मशाल जलानेकी आज्ञा दी, अतः उन्होंने भी मशालें जला 
लीं ।। २७ ।। 
गजे गजे सप्त कृताः प्रदीपा 
रथे रथे चैव दश प्रदीपा: । 
द्वावश्वपषछ्े परिपार्श्वतो 5न्ये 
ध्वजेषु चान्ये जघनेघु चान्ये || २८ ।। 
उनके एक-एक हाथीके लिये सात-सात और एक-एक रथके लिये दस-दस प्रदीपोंकी 
व्यवस्था की गयी। घोड़ोंके पृष्ठभागमें दो प्रदीप थे। अगल-बगलमें, ध्वजाओंके समीप तथा 
रथके पिछले भागोंमें अन्यान्य दीपकोंकी व्यवस्था की गयी थी ।। २८ ।। 
सेनासु सर्वासु च पार्श्चतो <5न्ये 
पश्चात्‌ पुरस्ताच्च समन्ततश्न । 
मध्ये तथान्ये ज्वलिताग्निहस्ता 
व्यदीपयन्‌ पाण्डुसुतस्य सेनाम्‌ ।। २९ |। 
सारी सेनाओंके पार्श्रभागमें, आगे, पीछे, बीचमें एवं चारों ओर भिन्न-भिन्न सैनिक 
चलती हुई मशालें हाथमें लेकर पाण्डुपुत्रकी सेनाको प्रकाशित करने लगे ।। 
मध्ये तथान्ये ज्वलिताग्निहस्ता: 
सेनाद्वयेडपि सम नरा विचेरु: । 
सर्वेषु सैन्येषु पदातिसड्घा 
विमिश्रिता हस्तिरथाश्चववन्दै: ।। ३० || 
व्यदीपयंस्ते ध्वजिनी  प्रदीप्तां 
तथा बलं॑ पाण्डवेयाभिगुप्तम्‌ । 
दोनों ही सेनाओंके अन्यान्य पैदल सैनिक हाथोंमें प्रदीप धारण किये दोनों ही 
सेनाओंके भीतर विचरण करने लगे। सारी सेनाओंके पैदलसमूह हाथी, रथ और 
अश्वसमूहोंके साथ मिलकर आपकी सेनाको तथा पाण्डवोंद्वारा सुरक्षित वाहिनीको भी 
अत्यन्त प्रकाशित करने लगे ।। ३० ६ || 
तेन प्रदीप्तेन तथा प्रदीप्तं 
बल॑ तवासीदू बलवद्‌ बलेन ॥। ३१ ।। 
भा: कुर्वता भानुमता ग्रहेण 
दिवाकरेणाग्निरिवाभिगुप्त: । 


जैसे किरणोंद्वारा सुशोभित और अपनी प्रभा बिखेरनेवाले सूर्यग्रहके द्वारा सुरक्षित 
अग्निदेव और भी प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार प्रदीपोंकी प्रभासे अत्यन्त प्रकाशित 
होनेवाले उस पाण्डव सैन्यके द्वारा आपकी सेनाका प्रकाश और भी बढ़ गया ।। ३१३ || 
तयो: प्रभा: पृथिवीमन्तरिक्षं 
सर्वा व्यतिक्रम्य दिशश्व वृद्धा: ।। ३२ ।। 
तेन प्रकाशेन भृशं प्रकाशं 
बभूव तेषां तव चैव सैन्यम्‌ | 
उन दोनों सेनाओंका बढ़ा हुआ प्रकाश पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओंको 
लाँघकर चारों ओर फैल गया। प्रदीपोंके उस प्रकाशसे आपकी तथा पाण्डवोंकी सेना भी 
अधिक प्रकाशित हो उठी थी ।। ३२६ || 
तेन प्रकाशेन दिवं गतेन 
सम्बोधिता देवगणाश्न राजन्‌ ॥। ३३ ।। 
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा: 
समागमन्नप्सरसश्ष सर्वा: | 
राजन! स्वर्गलोकतक फैले हुए उस प्रकाशसे उद्बोधित होकर देवता, गन्धर्व, यक्ष, 
असुर और सिद्धोंके समुदाय तथा सम्पूर्ण अप्सराएँ भी युद्ध देखनेके लिये वहाँ आ 
पहुँचीं || ३३६ ।। 
तद्‌ देवगन्धर्वसमाकुलं च 
यक्षासुरेन्द्राप्सरसां गणैश्न ।। ३४ ।। 
हतैश्न शूरैर्दिवमारुहद्धि- 
रायोधनं दिव्यकल्पं बभूव । 
देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों, असुरेन्द्रों और अप्सराओंके समुदायसे भरा हुआ वह 
युद्धस्थल वहाँ मारे जाकर स्वर्गलोकपर आरूढ़ होनेवाले शूरवीरोंके द्वारा दिव्यलोक-सा 
जान पड़ता था ।। ३४३ || 
रथाश्वनागाकुलदीपदीप्त॑ 
संरब्धयोध॑ं हतविद्रुताश्वम्‌ ।। ३५ ।। 
महद्‌ बल व्यूढरथाश्वनागं 
सुरासुरव्यूहसमं बभूव । 
रथ, घोड़े और हाथियोंसे परिपूर्ण, प्रदीपोंकी प्रभासे प्रकाशित, रोषमें भरे हुए 
योद्धाओंसे युक्त, घायल होकर भागनेवाले घोड़ोंसे उपलक्षित तथा व्यूहबद्ध रथ, घोड़े एवं 
हाथियोंसे सम्पन्न दोनों पक्षोंका वह महान्‌ सैन्यसमूह देवताओं और असुरोंके सैन्यव्यूहके 
समान जान पड़ता था ।। ३५६ ।। 


तच्छक्तिसंघाकुलचण्डवातं 
महारथाभ्रं गजवाजिघोषम्‌ ।। ३६ ।। 
शस्त्रौघवर्ष रुधिराम्बुधारं 
निशि प्रवृत्तं रणदुर्दिनं तत्‌ । 
रातमें होनेवाला वह युद्ध मेघोंकी घटासे आच्छादित दिनके समान प्रतीत होता था। 
उस समय शक्तियोंका समूह प्रचण्डवायुके समान चल रहा था। विशाल रथ मेघसमूहके 
समान दिखायी देते थे। हाथियों और घोड़ोंके हींसने और चिग्घाड़नेका शब्द ही मानो 
मेघोंका गम्भीर गर्जन था। अस्त्रसमूहोंकी वर्षा ही जलकी वृष्टि थी तथा रक्तकी धारा ही 
जलधाराके समान जान पड़ती थी || ३६६ ।। 
तस्मिन्‌ महाग्निप्रतिमो महात्मा 
संतापयन्‌ पाण्डवान्‌ विप्रमुख्य: ॥। ३७ ।। 
गभस्तिभिम्मध्यगतो यथार्को 
वर्षात्यये तद्धदभून्नरेन्द्र ॥| ३८ ।। 
नरेन्द्र! जैसे शरत्कालमें मध्याह्नका सूर्य अपनी प्रखर किरणोंसे भारी संताप देता है, 
उसी प्रकार उस युद्धस्थलमें महान्‌ अग्निके समान तेजस्वी महामना विप्रवर द्रोणाचार्य 
पाण्डवोंके लिये संतापकारी हो रहे थे ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे दीपोद्योतने 
त्रिषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६३ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें यात्रियुद्धके अवसरपर 
प्रदीपोंका प्रकाशविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६३ ॥। 


भीसस्नआ तन (2) आमने 


चतुःषष्ट्याधेकशततमो< ध्याय: 


दोनों सेनाओंका घमासान बुद्ध और दुध और दुर्योधनका 
द्रोणाचार्यकी रक्षाके लिये [को आदेश 


संजय उवाच 

प्रकाशिते तदा लोके रजसा तमसा<<वृते । 

समाजग्मुरथो वीरा: परस्परवधैषिण: ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! उस समय धूल और अन्धकारसे ढकी हुई रणभूमिमें इस 
प्रकार उजेला होनेपर एक-दूसरेके वधकी इच्छावाले वीर सैनिक आपसमें भिड़ 
गये ।। १ ।। 

ते समेत्य रणे राजन्‌ शस्त्रप्रासासिधारिण: । 

परस्परमुदैक्षन्त परस्परकृतागस: ।। २ ।। 

महाराज! समरांगणमें परस्पर भिड़कर वे नाना प्रकारके शस्त्र, प्रास और खड़्ग आदि 
धारण करनेवाले योद्धा, जो परस्पर अपराधी थे, एक-दूसरेकी ओर देखने लगे ।। २ ।। 

प्रदीपानां सहसैश्ष॒ दीप्यमानै: समनन्‍्तत: । 

रत्नाचितै: स्वर्णदण्डैर्गन्धतैलावसिज्चितै: ।। ३ ।। 

चारों ओर हजारों मशालें जल रही थीं। उनके डंडे सोनेके बने हुए थे और उनमें रत्न 
जड़े हुए थे। उन मशालोंपर सुगन्धित तेल डाला जाता था ।। ३ ।। 

देवगन्धर्वदीपाद्यै: प्रभाभिरधिकोज्ज्वलै: । 

विरराज तदा भूमिग्रहैद्यौरिव भारत ।। ४ ।। 

भारत! उन्हींमें देवताओं और गन्धरवोंके भी दीप आदि जल रहे थे, जो अपनी विशेष 
प्रभाके कारण अधिक प्रकाशित हो रहे थे। उनके द्वारा उस समय रणभूमि नक्षत्रोंसे 
आकाशकी भाँति सुशोभित हो रही थी ।। ४ ।। 

उल्काशतै: प्रज्वलितै रणभूमिवव्यराजत । 

दहामानेव लोकानामभावे च वसुंधरा ।। ५ ।। 

सैकड़ों प्रजजलित उल्काओं (मशालों)-से वह रणभूमि ऐसी शोभा पा रही थी, मानो 
प्रलयकालमें यह सारी पृथ्वी दग्ध हो रही हो ।। ५ ।। 

व्यदीप्यन्त दिश: सर्वा: प्रदीपैस्तै: समन्‍्ततः । 

वर्षाप्रदोषे खद्योतैर्व॒ता वृक्षा इवाबभु: ।। ६ ।। 

उन प्रदीपोंसे सब ओर सारी दिशाएँ ऐसी प्रदीप्त हो उठीं, मानो वर्षाके सायंकालमें 
जुगनुओंसे घिरे हुए वृक्ष जगमगा रहे हों ।। ६ ।। 


असज्जन्त ततो वीरा वीरेष्वेव पृथक्‌ पृथक्‌ 

नागा नागै: समाजम्मुस्तुरगा हयसादिभि: ।। ७ ।। 

उस समय वीरगण विपक्षी वीरोंके साथ पृथक्‌-पृथक्‌ भिड़ गये। हाथी हाथियोंके और 
घुड़सवार घुड़सवारोंके साथ जूझने लगे ।। ७ ।। 

रथा रथवरैरेव समाजम्मुर्मुदा युता: । 

तस्मिन्‌ रात्रिमुखे घोरे तव पुत्रस्य शासनात्‌ ।। ८ ।। 

चतुरजड्भस्य सैन्यस्य सम्पातश्न॒ महानभूत्‌ | 

इसी प्रकार रथी श्रेष्ठ रथियोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक युद्ध करने लगे। उस भयंकर 
प्रदोषकालमें आपके पुत्रकी आज्ञासे वहाँ चतुरंगिणी सेनामें भारी मारकाट मच गयी ।। 

ततोडर्जुनो महाराज कौरवाणामनीकिनीम्‌ ।। ९ ।। 

व्यधमत्‌ त्वरया युक्त: क्षपयन्‌ सर्वपार्थिवान्‌ | 

महाराज! तदनन्तर अर्जुन बड़ी उतावलीके साथ समस्त राजाओंका संहार करते हुए 
कौरव-सेनाका विनाश करने लगे ।। ९३ ।। 

धृतराष्ट्र रवाच 

तस्मिन्‌ प्रविष्टे संरब्धे मम पुत्रस्य वाहिनीम्‌ ।। १० ।। 

अमृष्यमाणे दुर्धर्षे कथमासीन्मनो हि व: । 

धृतराष्ट्रने पूछा--संजय! क्रोध और अमर्षमें भरे हुए दुर्धर्ष वीर अर्जुन जब मेरे पुत्रकी 
सेनामें प्रविष्ट हुए, उस समय तुमलोगोंके मनकी कैसी अवस्था हुई? ।। 

किमकुर्वत सैन्यानि प्रविष्टे परपीडने ।। ११ ।। 

दुर्योधनश्व कि कृत्यं प्राप्तकालममन्यत । 

शत्रुओंको पीड़ा देनेवाले अर्जुनके प्रवेश करनेपर मेरी सेनाओंने क्या किया? तथा 
दुर्योधनने उस समयके अनुरूप कौन-सा कार्य उचित माना? ।। ११३ || 

के चैनं समरे वीरें प्रत्युद्ययुररिंदमा: ।। १२ ।। 

द्रोणं च के व्यरक्षन्त प्रविष्टे श्वेतवाहने । 

समरांगणमें शत्रुओंका दमन करनेवाले कौन-कौन-से योद्धा वीर अर्जुनका सामना 
करनेके लिये आगे बढ़े। श्वेतवाहन अर्जुनके कौरव-सेनाके भीतर घुस आनेपर किन लोगोंने 
द्रोणाचार्यकी रक्षा की || १२३ ।। 

के<रक्षन्‌ दक्षिणं चक्रं के च द्रोणस्य सव्यत: ।। १३ ।। 

के पृष्ठतश्नाप्पयभवन्‌ वीरा वीरान्‌ विनिध्नतः । 

के पुरस्तादगच्छन्त निध्नन्तः शात्रवान्‌ रणे ।। १४ ।। 

कौन-कौन-से योद्धा द्रोणाचार्यके रथके दाहिने पहियेकी रक्षा करते थे और कौन-कौन- 
से बायें पहियेकी? कौन-कौन-से वीर वीरोंका वध करनेवाले द्रोणाचार्यके पृष्ठभागके रक्षक 


थे और रणमें शत्रुसैनिकोंका संहार करनेवाले कौन-कौन-से योद्धा आचार्यके आगे-आगे 
चलते थे? ।। १३-१४ ।। 

यत्‌ प्राविशन्महेष्वास: पज्चालानपराजित: । 

नृत्यन्निव नरव्याप्रो रथमार्गेषु वीर्यवान्‌ ।। १५ ।। 

महाधनुर्धर, पराक्रमी एवं किसीसे पराजित न होनेवाले पुरुषसिंह द्रोणाचार्यने रथके 
मार्गोंपर नृत्य-सा करते हुए वहाँ पांचालोंकी सेनामें प्रवेश किया था || १५ ।। 

यो ददाह शरैद्रोण: पञ्चालानां रथव्रजान्‌ | 

धूमकेतुरिव क्रुद्ध: कथं मृत्युमुपेयिवान्‌ ।। १६ ।। 

जिन आचार्य द्रोणने क्रोधमें भरे हुए अग्निदेवके समान अपने बाणोंकी ज्वालासे 
पांचाल महारथियोंके समुदायोंकों जलाकर भस्म कर दिया था, वे कैसे मृत्युको प्राप्त 
हुए? | १६ ।। 

अव्यग्रानेव हि परान्‌ कथयस्यपराजितान्‌ । 

हृष्टानुदीर्णान्‌ संग्रामे न तथा सूत मामकान्‌ ॥। १७ ।। 

सूत! तुम मेरे शत्रुओंको तो व्यग्रतारहित, अपराजित, हर्ष और उत्साहसे युक्त तथा 
संग्राममें वेगपूर्वक आगे बढ़नेवाले ही बता रहे हो; परंतु मेरे पुत्रोंकी ऐसी अवस्था नहीं 
बताते ।। १७ ।। 

हतांश्वैव विदीर्णाश्ष विप्रकीर्णाक्ष शंससि । 

रथिनो विरथांश्वैव कृतान्‌ युद्धेषु मामकान्‌ ।। १८ ।। 

सभी युद्धोंमें मेरे पक्षके रथियोंको तुम हताहत, छिन्न-भिन्न, तितर-बितर तथा रथहीन 
हुआ ही बता रहे हो ।। १८ ।। 

संजय उवाच 

द्रोणस्य मतमाज्ञाय योद्धुकामस्य तां निशाम्‌ | 

दुर्योधनो महाराज वश्यान्‌ भ्रातृुनुवाच ह ।। १९ ।। 

कर्ण च वृषसेनं च मद्रराजं॑ च कौरव । 

दुर्धर्ष दीर्घबाहुं च ये च तेषां पदानुगा: ।। २० ।॥। 

संजय कहते हैं--कुरुनन्दन महाराज! युद्धकी इच्छावाले द्रोणाचार्यका मत जानकर 
दुर्योधनने उस रातमें अपने वशवर्ती भाइयोंसे तथा कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, दुर्धर्ष, 
दीर्घबाहु तथा जो-जो उनके पीछे चलनेवाले थे, उन सबसे इस प्रकार कहा-- ।। 

द्रोणं यत्ता: पराक्रान्ता: सर्वे रक्षन्तु पृष्ठत: । 

हार्दिक्यो दक्षिणं चक्र शल्यश्लैवोत्तरं तथा ।। २३ ।। 

“तुम सब लोग सावधान रहकर पराक्रमपूर्वक पीछेकी ओरसे द्रोणाचार्यकी रक्षा करो। 
कृतवर्मा उनके दाहिने पहियेकी और राजा शल्य बायें पहियेकी रक्षा करें! || २१ ।। 


त्रिगर्तानां च ये शूरा हतशिष्टा महारथा: । 

तांश्वैव पुरत: सर्वान्‌ पुत्रस्ते समचोदयत्‌ ।। २२ ।। 

राजन! त्रिगर्तोंके जो शूरवीर महारथी मरनेसे शेष रह गये थे, उन सबको आपके पुत्रने 
द्रोणाचार्यके आगे-आगे चलनेकी आज्ञा देते हुए कहा-- ।। २२ ।। 

आचार्यो हि सुसंयत्तो भृशं यत्ताश्न पाण्डवा: | 

त॑ रक्षत सुसंयत्ता निध्नन्तं शात्रवान्‌ रणे | २३ ।। 

“आचार्य पूर्णतः सावधान हैं, पाण्डव भी विजयके लिये विशेष यत्नशील एवं सावधान 
हैं। तुमलोग रणभूमिमें शत्रु-सैनिकोंका संहार करते हुए आचार्यकी पूरी सावधानीके साथ 
रक्षा करो || २३ ।। 

द्रोणो हि बलवान युद्धे क्षिप्रहस्त: प्रतापवान्‌ । 

निर्जयेत्‌ त्रिदशान्‌ युद्धे किमु पार्थानू ससोमकान्‌ ॥। २४ ।। 

क्योंकि द्रोणाचार्य बलवान, प्रतापी और युद्धमें शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले हैं। वे 
संग्राममें देवताओंको भी परास्त कर सकते हैं; फिर कुन्तीके पुत्रों और सोमकोंकी तो बात 
ही क्या है? ।। २४ ।। 

ते यूयं सहिता: सर्वे भृशं यत्ता महारथा: । 

द्रोणं रक्षत पाञ्चालादू धृष्टद्युम्नान्महारथात्‌ ।। २५ ।। 

“इसलिये तुम सब महारथी एक साथ होकर पूर्णतः प्रयत्नशील रहते हुए पांचाल 
महारथी धृष्टद्युम्नसे द्रोणाचार्यकी रक्षा करो || २५ ।। 

पाण्डवीयेषु सैन्येषु न तं पश्याम कठ्चन । 

यो योधयेद्‌ रणे द्रोणं धृष्टद्युम्नादृते नृप: ॥। २६ ।। 

“हम पाण्डवोंकी सेनाओंमें धृष्टद्युम्मके सिवा ऐसे किसी वीर नरेशको नहीं देखते, जो 
रणक्षेत्रमें द्रोणाचार्यके साथ युद्ध कर सके ।। २६ ।। 

तस्मात्‌ सर्वात्मना मन्ये भारद्वाजस्य रक्षणम्‌ । 

सुगुप्त: पाण्डवान्‌ हन्यात्‌ सृञ्जयांश्व ससोमकान्‌ ।। २७ || 

“अतः मैं सब प्रकारसे द्रोणाचार्यकी रक्षा करना ही इस समय आवश्यक कर्तव्य मानता 
हूँ। वे सुरक्षित रहें तो पाण्डवों, सूंजयों और सोमकोंका भी संहार कर सकते हैं ।। 

सृञ्जयेष्वथ सर्वेषु निहतेषु चमूमुखे । 

धृष्टय्युम्नं रणे द्रौणिहनिष्पति न संशय: ।। २८ ।। 

'युद्धके मुहानेपर सारे सूंजयोंके मारे जानेपर अश्वत्थामा रणभूमिमें धृष्टद्युम्नको भी 
मार डालेगा, इसमें संशय नहीं है || २८ ।। 

तथार्जुनं च राधेयो हनिष्यति महारथ: । 

भीमसेनमहं चापि युद्धे जेष्यामि दीक्षित: ।। २९ ।। 

शेषांश्ष॒ पाण्डवान्‌ योधा: प्रसभं हीनतेजस: । 


'योद्धाओ! इसी प्रकार महारथी कर्ण अर्जुनका वध कर डालेगा तथा रणयज्ञकी दीक्षा 
लेकर युद्ध करनेवाला मैं भीमसेनको और तेजोहीन हुए दूसरे पाण्डवोंको भी बलपूर्वक 
जीत लूँगा || २९६ ।। 

सो<यं मम जयो व्यक्तो दीर्घकालं भविष्यति । 

तस्माद्‌ रक्षत संग्रामे द्रोणमेव महारथम्‌ ।। ३० ।। 

“इस प्रकार अवश्य ही मेरी यह विजय चिरस्थायिनी होगी, अत: तुम सब लोग मिलकर 
संग्राममें महारथी द्रोणकी ही रक्षा करो” || ३० ।। 

इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठ पुत्रो दुर्योधनस्तव । 

व्यादिदेश तथा सैन्यं तस्मिंस्तमसि दारुणे || ३१ ।। 

भरतश्रेष्ठ] ऐसा कहकर आपके पुत्र दुर्योधनने उस भयंकर अन्धकारमें अपनी सेनाको 
युद्धके लिये आज्ञा दे दी || ३१ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध रात्री भरतसत्तम । 

उभयो: सेनयोर्घोरं परस्परजिगीषया ।। ३२ ।। 

भरतसत्तम! फिर तो रात्रिके समय दोनों सेनाओंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे घोर 
युद्ध आरम्भ हो गया ।। ३२ ।। 

अर्जुन: कौरवं सैन्यमर्जुनं चापि कौरवा: । 

नानाशस्त्रसमावायैरन्योन्यं समपीडयन्‌ ।। ३३ ।। 

अर्जुन कौरव-सेनापर और कौरव-सैनिक अर्जुनपर नाना प्रकारके शस्त्र-समूहोंकी वर्षा 
करते हुए एक-दूसरेको पीड़ा देने लगे || ३३ ।। 

द्रौणि: पाज्चालराजं च भारद्वाजश्च सूंजयान्‌ । 

छादयांचक्रतु: संख्ये शरै: संनतपर्वभि: ।। ३४ ।। 

अश्वत्थामाने पांचालराज द्रुपदको और द्रोणाचार्यने सूंजयोंको युद्धस्थलमें झुकी हुई 
गाँठवाले बाणोंद्वारा आच्छादित कर दिया ।। ३४ ।। 

पाण्डुपाञज्चालसैन्यानां कौरवाणां च भारत | 

आसीजक्निष्टानको घोरो निघ्नतामितरेतरम्‌ ।। ३५ ।। 

भारत! एक ओरसे पाण्डव और पांचाल-सैनिकोंका और दूसरी ओरसे कौरव 
योद्धाओंका, जो एक-दूसरेपर गहरी चोट कर रहे थे, घोर आर्तनाद सुनायी पड़ता 
था || ३५ || 

नैवास्माभिस्तथा पूर्वर्दृष्टपूर्व तथाविधम्‌ । 

श्रुतं वा यादृशं युद्धमासीद्‌ रौद्रं भयानकम्‌ ।। ३६ ।। 

हमने तथा पूर्ववर्ती लोगोंने भी वैसा रौद्र एवं भयानक युद्ध न तो पहले कभी देखा था 
और न सुना ही था, जैसा कि वह युद्ध हो रहा था ।। ३६ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे 
चतुःषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६४ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्माभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
संकुलयुद्धविषयक एक सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १६४ ॥/ 


अपन क्रात _ रस: 


पज्चषष्ट्याधिकशततमोड< ध्याय: 


दोनों सेनाओंका युद्ध और कृतवर्माद्वारा युधिष्ठिरकी 
पराजय 


संजय उवाच 

वर्तमाने तदा रौद्रे रात्रियुद्धे विशाम्पते । 

सर्वभूतक्षयकरे धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: | १ ।। 

अब्रवीत्‌ पाण्डवांश्वैव पञज्चालांश्वैव सोमकान्‌ । 

अभिद्रवत संयात द्रोणमेव जिघांसया ।। २ ।। 

संजय कहते हैं--प्रजानाथ! जब सम्पूर्ण भूतोंका विनाश करनेवाला वह भयंकर 
रात्रियुद्ध आरम्भ हुआ, उस समय धर्मपुत्र युधिष्ठिरने पाण्डवों, पांचालों और सोमकोंसे कहा 
--दौड़ो, द्रोणाचार्यपर ही उन्हें मार डालनेकी इच्छासे आक्रमण करो” || १-२ ।। 

राज्ञस्ते वचनाद्‌ राजन्‌ पञज्चाला: सृञ्जयास्तथा । 

द्रोणमेवा भ्यवर्तन्त नदन्तो भैरवान्‌ रवान्‌ ॥। ३ ।। 

राजन! राजा युधिष्ठिरके आदेशसे पांचाल और सूंजय भयानक गर्जना करते हुए 
द्रोणाचार्यपर ही टूट पड़े ।। ३ ।। 

तंतुते प्रतिगर्जन्तः प्रत्युद्यातास्त्वमर्षिता: । 

यथाशक्ति यथोत्साहं यथासत्त्वं च संयुगे ।। ४ ।। 

वे सब-के-सब अमर्षमें भरे हुए थे और युद्धस्थलमें अपनी शक्ति, उत्साह एवं धैर्यके 
अनुसार बारंबार गर्जना करते हुए द्रोणाचार्यपर चढ़ आये ।। ४ ।। 

कृतवर्मा तु हार्दिक्यो युधिष्िरमुपाद्रवत्‌ । 

द्रोणं प्रति समायान्तं मत्तो मत्तमिव द्विपम्‌ ।। ५ ।। 

जैसे मतवाला हाथी किसी मतवाले हाथीपर आक्रमण कर रहा हो, उसी प्रकार 
युधिष्ठिरको द्रोणाचार्यपर धावा करते देख हृदिकपुत्र कृतवर्माने आगे बढ़कर उन्हें 
रोका || ५ || 

शैनेयं शरवर्षाणि विकिरन्तं समन्तत: । 

अभ्ययात्‌ कौरवो राजन भूरि: संग्राममूर्थनि || ६ ।। 

राजन! युद्धके मुहानेपर चारों ओर बाणोंकी बौछार करते हुए शिनिपौत्र सात्यकिपर 
कुरुवंशी भूरिने धावा किया ।। ६ ।। 

सहदेवमथायान्तं द्रोणप्रेप्सु महारथम्‌ । 

कर्णो वैकर्तनो राजन्‌ वारयामास पाण्डवम्‌ ।। ७ ।। 


राजन! द्रोणाचार्यको पकड़नेके लिये आते हुए महारथी पाण्डुपुत्र सहदेवको वैकर्तन 
कर्णने रोका || ७ ।। 

भीमसेनमथायान्तं व्यादितास्यमिवान्तकम्‌ | 

स्वयं दुर्योधनो राजा प्रतीप॑ं मृत्युमाव्रजत्‌ ।। ८ ।। 

मुँह बाये यमराजके समान अथवा विपक्षी बनकर आयी हुई मृत्युके समान भीमसेनका 
सामना स्वयं राजा दुर्योधनने किया ।। ८ ।। 

नकुलं॑ च युधां श्रेष्ठ सर्वयुद्धविशारदम्‌ । 

शकुनि: सौबलो राजन्‌ वारयामास सत्वर: || ९ ।। 

राजन! सम्पूर्ण युद्धकलामें कुशल योद्धाओंमें श्रेष्ठ नकुलको सुबलपुत्र शकुनिने 
शीघ्रतापूर्वक आकर रोका ।। 

शिखण्डिनमथायान्तं रथेन रथिनां वरम्‌ | 

कृप: शारद्वतो राजन्‌ वारयामास संयुगे ।। १० ।। 

नरेश्वरर रथसे आते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ शिखण्डीको युद्धसस्‍्थलमें शरद्वानके पुत्र 
कृपाचार्यने रोका ।। १० ।। 

प्रतिविन्ध्यमथायान्तं मयूरसदृशै्हयै: । 

दुःशासनो महाराज यत्तो यत्तमवारयत्‌ ।। १३ ।। 

महाराज! मयूरके समान रंगवाले घोड़ोंद्वारा आते हुए प्रयत्नशील प्रतिविन्ध्यको 
दुःशासनने यत्नपूर्वक रोका ।। 

भैमसेनिमथायान्तं मायाशतविशारदम्‌ | 

अश्व॒त्थामा महाराज राक्षसं प्रत्यषेधयत्‌ ।। १२ ।। 

राजन! सैकड़ों मायाओंके प्रयोगमें कुशल भीमसेन-कुमार राक्षस घटोत्कचको आते 
देख अभश्वत्थामाने रोका ।। 

ट्रुपदं वृषसेनस्तु ससैन्यं सपदानुगम्‌ । 

वारयामास समरे द्रोणप्रेप्सुं महारथम्‌ ।। १३ ।। 

समरांगणमें द्रोणको पराजित करनेकी इच्छावाले सेना और सेवकोंसहित महारथी 
द्रपदको वृषसेनने रोका ।। १३ ।। 

विराट द्रुतमायान्तं द्रोणस्य निधन प्रति । 

मद्रराज: सुसंक्कुद्धो वारयामास भारत ।। १४ ।। 

भारत! द्रोणको मारनेके उद्देश्यसे शीघ्रतापूर्वक आते हुए राजा विराटको अत्यन्त 
क्रोधमें भरे हुए मद्रराज शल्यने रोक दिया ।। १४ ।। 

शतानीकमथायान्तं नाकुलिं रभसं रणे । 

चित्रसेनो रुरोधाशु शरैद्रोणपरीप्सया ।। १५ ।। 


द्रोणाचार्यके वधकी इच्छासे रणक्षेत्रमें वेगपूर्वक आते हुए नकुलपुत्र शतानीकको 
चित्रसेनने अपने बाणोंद्वारा तुरंत रोक दिया || १५ ।। 

अर्जुन च युधां श्रेष्ठ प्राद्रवन्तं महारथम्‌ । 

अलम्बुषो महाराज राक्षसेन्द्रो न्यवारयत्‌ ।। १६ ।। 

महाराज! कौरव-सेनापर धावा करते हुए योद्धाओंमें श्रेष्ठ महारथी अर्जुनको राक्षसराज 
अलम्बुषने रोका ।। 

तथा द्रोणं महेष्वासं निध्नन्तं शात्रवान्‌ रणे | 

धृष्टद्युम्नो5थ पाज्चाल्यो हृष्टरूपमवारयत्‌ ।। १७ ।। 

इसी प्रकार रणभूमिमें शत्रुसैनिकोंका संहार करनेवाले, हर्ष और उत्साहसे युक्त, 
महाधनुर्धर द्रोणाचार्यको पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्नने आगे बढ़नेसे रोक दिया ।। 

तथान्यान्‌ पाण्डुपुत्राणां समायातान्‌ महारथान्‌ | 

तावका रथिनो राजन्‌ वारयामासुरोजसा ।। १८ ।। 

राजन्‌! इसी तरह आक्रमण करनेवाले पाण्डव-पक्षके अन्य महारथियोंकों आपकी 
सेनाके महारथियोंने बलपूर्वक रोका ।। १८ ।। 

गजारोहा गजैस्तूर्ण संनिपत्य महामृथे । 

योधयन्तश्न मृदूनन्त: शतशो5थ सहस्रश: ।। १९ |। 

उस महासमरमें सैकड़ों और हजारों हाथीसवार तुरंत ही विपक्षी गजारोहियोंसे 
भिड़कर परस्पर जूझने और सैनिकोंको रौंदने लगे || १९ ।। 

निशीथे तुरगा राजन्‌ द्रावयन्त: परस्परम्‌ । 

समदृश्यन्त वेगेन पक्षवन्तो यथाउद्रय: ।। २० ।। 

राजन! रातके समय एक-दूसरेपर वेगसे धावा करते हुए घोड़े पंखधारी पर्वतोंके समान 
दिखायी देते थे ।। 

सादिन: सादिश्ि: सार्थ प्रासशक्त्यृष्टिपाणय: । 

समागच्छन्‌ महाराज विनदन्तः पृथक्‌ पृथक्‌ ।। २१ ।। 

महाराज! हाथमें प्रास, शक्ति और ऋष्टि धारण किये घुड़सवार सैनिक पृथक्‌-पृथक्‌ 
गर्जना करते हुए शत्रुपक्षके घुड़सवारोंके साथ युद्ध कर रहे थे || २१ ।। 

नरास्तु बहवस्तत्र समाजम्मु: परस्परम्‌ । 

गदाभिमर्मुसलैश्वैव नानाशस्त्रैश्व संयुगे | २२ ।। 

उस युद्धस्थलमें बहुसंख्यक पैदल मनुष्य गदा और मुसल आदि नाना प्रकारके 
अस्त्रोंद्वारा एक-दूसरेपर आक्रमण करते थे || २२ ।। 

कृतवर्मा तु हार्दिक्यो धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्‌ । 

वारयामास संक्रुद्धों वेलेवोद्वृत्तमर्णवम्‌ ।। २३ ।। 


जैसे उत्ताल तरंगोंवाले महासागरको तटभूमि रोक देती है, उसी प्रकार धर्मपुत्र 
युधिष्ठिरको अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए हृदिकपुत्र कृतवर्माने रोक दिया ।। २३ ।। 

युधिष्ठिरस्तु हार्दिक्यं विदृध्वा पजचभिराशुगै: । 

पुनर्विव्याध विंशत्या तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। २४ ।। 

युधिष्ठिरने कृतवर्माकों पहले पाँच बाणोंसे घायल करके फिर बीस बाणोंसे बींध डाला 
और कहा--'खड़ा रह, खड़ा रह” ।। २४ ।। 

कृतवर्मा तु संक्रुद्धो धर्मपुत्रस्य मारिष | 

धनुश्विच्छेद भल्लेन तं च विव्याध सप्तभि: ।। २५ ।। 

माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए कृतवर्माने भी एक भल्‍ल्लसे धर्मपुत्र युधिष्ठिरका 
धनुष काट दिया और उन्हें भी सात बाणोंसे बींध डाला || २५ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय धर्मपुत्रो महारथ: । 

हार्दिक्यं दशभिर्बाणैर्बाह्लोरुससि चार्पयत्‌ ।। २६ ।। 

तदनन्तर महारथी धर्मकुमार युधिष्ठिरने दूसरा धनुष लेकर कृतवर्माकी छाती और 
भुजाओंमें दस बाण मारे ।। 

माधवस्तु रणे विद्धो धर्मपुत्रेण मारिष । 

प्राकम्पत च रोषेण सप्तभि क्षार्दयच्छरै: |। २७ ।। 

आर्य! रणभूमिमें धर्मपुत्र युधिष्ठिरके बाणोंसे घायल होकर कृतवर्मा काँपने लगा और 
उसने क्रोधपूर्वक युधिष्ठिरको भी सात बाण मारे ।। २७ ।। 

तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा हस्तावापं निकृत्य च । 

प्राहिणोत्नेशितान्‌ बाणान्‌ पज्च राजज्छिलाशितान्‌ ।। २८ ।। 

राजन! तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने कृतवर्माके धनुष और दस्तानेको काटकर उसके 
ऊपर पाँच तीखे बाण चलाये जो शिलापर तेज किये गये थे ।। २८ ।। 

ते तस्य कवचं भित्त्वा हेमचित्रं महाधनम्‌ । 

प्राविशन्‌ धरणीं भित्त्वा वल्मीकमिव पन्नगा: ।। २९ || 

जैसे सर्प बाँबीमें घुस जाते हैं, उसी प्रकार वे बाण कृतवर्माके सुवर्णजटित बहुमूल्य 
कवचको छिज्न-भिन्न करके धरती फाड़कर उसके भीतर घुस गये ।। २९ ।। 

अक्ष्णोनिमिषमात्रेण सो$5न्यदादाय कार्मुकम्‌ | 

विव्याध पाण्डवं षष्ट्या सूतं च नवभि: शरै: ।। ३० ।। 

कृतवर्माने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथमें लेकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको साठ 
और उनके सारथिको नौ बाणोंसे घायल कर दिया ।। ३० ।। 

तस्य शक्तिममेयात्मा पाण्डवो भुजगोपमाम्‌ | 

चिक्षेप भरतश्रेष्ठ रथे न्यस्य महद्‌ धनु: ।। ३१ ।। 


भरतश्रेष्ठ तब अमेय आत्मबलसे सम्पन्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने अपने विशाल 
धनुषको रथपर रखकर कृतवर्मापर एक सर्पाकार शक्ति चलायी ।। ३१ ।। 

सा हेमचित्रा महती पाण्डवेन प्रवेरिता । 

निर्भिद्य दक्षिणं बाहुं प्राविशद्‌ धरणीतलम्‌ ।। ३२ ।। 

पाण्डुकुमार युधिष्ठिरकी चलायी हुई वह सुवर्ण-चित्रित विशाल शक्ति कृतवर्माकी 
दाहिनी भुजाको छेदकर धरतीमें समा गयी ।। ३२ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु गृहा पार्थ: पुनर्धनु: । 

हार्दिक्यं छादयामास शरै: संनतपर्वभि: ।। ३३ | 

इसी समय युधिष्ठिरने पुनः धनुष हाथमें लेकर झुकी हुई गाँठवाले बाणोंद्वारा 
कृतवर्माको ढक दिया ।। ३३ ।। 

ततस्तु समरे शूरो वृष्णीनां प्रवरो रथी । 

व्यश्वसूतरथं चक्रे निमेषार्धाद्‌ युधिषछ्तिरम्‌ । ३४ ।। 

फिर तो वृष्णिवंशके शूरवीर श्रेष्ठ महारथी कृतवर्माने समरांगणमें आधे निमेषमें ही 
युधिष्ठिरको घोड़ों, सारथि और रथसे हीन कर दिया ।। ३४ ।। 

ततस्तु पाण्डवो ज्येष्ठ: खड्ग॑ चर्म समाददे । 

तदस्य निशितैर्बाणैव्यधमन्माधवो रणे ।। ३५ ।। 

तब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरने ढाल-तलवार हाथमें ले ली। किंतु कृतवर्माने रणक्षेत्रमें 
तीखे बाण मारकर उनके उस खड्गको नष्ट कर दिया ।। ३५ |। 

तोमरं तु ततो गृहा स्वर्णदण्डं दुरासदम्‌ । 

प्रैषयत्‌ समरे तूर्ण हार्दिक्यस्य युधिछ्िर: ।। ३६ ।। 

तब समरांगणमें युधिष्ठिरने सुवर्णमय दण्डसे युक्त दुर्धर्ष तोमर हाथमें लेकर उसे तुरंत 
ही कृतवर्मापर चला दिया ।। ३६ |। 

तमापतन्तं सहसा धर्मराजभुजच्युतम्‌ । 

द्विधा चिच्छेद हार्दिक्य: कृतहस्त: स्मयन्निव ।। ३७ ।। 

धर्मराजके हाथसे छूटकर सहसा अपने ऊपर आते हुए उस तोमरके सिद्धहस्त 
कृतवर्माने मुसकराते हुए-से दो टुकड़े कर दिये ।। ३७ ।। 

तत: शरशतेनाजोौ धर्मपुत्रमवाकिरत्‌ | 

कवचं चास्य संक्रुद्धः शरैस्तीक्ष्णरदारयत्‌ ।। ३८ ।। 

तब युद्धस्थलमें कृतवर्माने सैकड़ों बाणोंसे धर्मपुत्र युधिष्ठिरको ढक दिया और अत्यन्त 
कुपित होकर उसने उनके कवचको भी तीखे बाणोंसे विदीर्ण कर डाला ।। ३८ ।। 

हार्दिक्यशरसंछन्न॑ं कवचं तन्‍्महाधनम्‌ । 

व्यशीर्यत रणे राज॑स्ताराजालमिवाम्बरात्‌ ।। ३९ |। 


राजन! कृतवर्माके बाणोंसे आच्छादित हुआ वह बहुमूल्य कवच आकाशसे तारोंके 
समुदायकी भाँति रणभूमिमें बिखर गया ।। ३९ ।। 

स च्छिन्नधन्वा विरथ: शीर्णवर्मा शरार्दित: । 

अपायासीदू रणात्‌ तूर्ण धर्मपुत्रो युधिष्ठिर: ॥। ४० ।। 

इस प्रकार धनुष कट जाने, रथ नष्ट होने और कवच छित्न-भिन्न हो जानेपर बाणोंसे 
पीड़ित हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही युद्धसे पलायन कर गये ।। ४० ।। 

कृतवर्मा तु निर्जित्य धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्‌ । 

पुनद्रोणस्य जुगुपे चक्रमेव महात्मन: ।। ४१ ।। 

धर्मात्मा युधिष्ठिरको जीतकर कृतवर्मा पुनः महात्मा द्रोणके रथचक्रकी ही रक्षा करने 
लगा ।। ४१ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे युधिष्ठिरापयानं नाम 
पज्चषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६५ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें यात्रियुद्धके अवसरपर 
युधिष्टिरका पलायनविषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६५ ॥। 


अपना बछ। | अत-#-रा- 


षट्षष्ट्याॉधिेकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिके द्वारा भूरिका वध, घटोत्कच और अभ्चृत्थामाका 
घोर युद्ध तथा भीमके साथ दुर्योधनका युद्ध एवं दुर्योधनका 
पलायन 


संजय उवाच 

भूरिस्तु समरे राजन्‌ शैनेयं रथिनां वरम्‌ | 

आपतन्तमपासेधत्‌ प्रयाणादिव कुज्जरम्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! जैसे कोई हाथीको उसके निकलनेके स्थानसे ही रोक दे, 
उसी प्रकार भूरिने आक्रमण करते हुए रथियोंमें श्रेष्ठ सात्यकिको समरभूमिमें आगे बढ़नेसे 
रोक दिया ।। १ ।। 

अथीनं सात्यकि: क्रुद्ध: पञ्चभिन्निशितै: शरै: । 

विव्याध हृदये तस्य प्रास्रवत्‌ तस्य शोणितम्‌ ।। २ ।। 

यह देख सात्यकि कुपित हो उठे और उन्होंने पाँच तीखे बाणोंसे भूरिकी छाती छेद 
डाली। उससे रक्तकी धारा बहने लगी ।। २ ।। 

तथैव कौरवो युद्धे शैनेयं युद्धदुर्मदम्‌ । 

दशभिर्निशितैस्तीक्ष्णरविध्यत भुजान्तरे ।। ३ ।। 

इसी प्रकार युद्धस्थलमें कुरुवंशी भूरिने भी रणदुर्मद सात्यकिकी छातीमें दस तीखे 
बाणोंद्वारा गहरी चोट पहुँचायी ।। ३ ।। 

तावन्योन्यं महाराज तततक्षाते शरैर्भुशम्‌ । 

क्रोधसंरक्तनयनौ क्रोधाद्‌ विस्फार्य कार्मुके ।। ४ ।। 

महाराज! उन दोनोंके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे। वे दोनों ही रोषसे अपने-अपने धनुष 
खींचकर बाणोंकी वर्षासे एक-दूसरेको अत्यन्त घायल कर रहे थे ।। ४ ।। 

तयोरासीन्महाराज श्त्रवृष्टि: सुदारुणा | 

क्रुद्धयो: सायकमुचोर्यमान्तकनिकाशयो: ।। ५ ।। 

राजेन्द्र! उन दोनोंपर अस्त्र-शस्त्रोंकी अत्यन्त भयंकर वर्षा हो रही थी। ये यम और 
अन्तकके समान कुपित हो परस्पर बाणोंका प्रहार कर रहे थे ।। ५ ।। 

तावन्योन्यं शरै राजन्‌ संछाद्य समवस्थितौ । 

मुहूर्त चैव तद्‌ युद्धे समरूपमिवाभवत्‌ ।। ६ ।। 

राजन! वे दोनों ही एक-दूसरेको बाणोंद्वारा आच्छादित करके खड़े थे। दो घड़ीतक 
उनमें समानरूपसे ही युद्ध चलता रहा ।। ६ || 


ततः क्रुद्धो महाराज शैनेय: प्रहसन्निव । 

धनुश्चिच्छेद समरे कौरव्यस्य महात्मन: ।। ७ ।। 

महाराज! तब क्रोधमें भरे हुए सात्यकिने हँसते हुए-से समरांगणमें महामना कुरुवंशी 
भूरिके धनुषको काट दिया ।। ७ ।। 

अथैनं छिन्नथन्वानं नवभिर्निशितै: शरै: । 

विव्याध हृदये तूर्ण तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। ८ ।। 

धनुष कट जानेपर उसकी छातीमें सात्यकिने तुरंत ही नौ तीखे बाण मारे और कहा 
--'खड़ा रह, खड़ा रह ।। 

सो5तिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुतापन: । 

धनुरन्यत्‌ समादाय सात्वतं प्रत्यविध्यत ।। ९ ।। 

बलवान शत्रुके आघातसे अत्यन्त घायल हुए शत्रुतापन भूरिने दूसरा धनुष हाथमें लेकर 
सात्यकिको भी गहरी चोट पहुँचायी ।। ९ ।। 

स विद्ध्वा सात्वतं बाणैस्त्रिभिरेव विशाम्पते । 

धनुश्विच्छेद भल्लेन सुतीक्ष्णेन हसन्निव ।। १० ।। 

प्रजानाथ! तीन बाणोंसे ही सात्यकिको घायल करके भूरिने हँसते हुए-से अत्यन्त तीखे 
भल्लद्वारा उनके धनुषको भी काट दिया ।। १० ।। 

छिन्नधन्वा महाराज सात्यकि: क्रोधमूर्च्छित: । 

प्रजहार महावेगां शक्ति तस्य महोरसि ।। ११ ।। 

महाराज! धनुष कट जानेपर क्रोधातुर हुए सात्यकिने भूरिके विशाल वक्ष:स्थलपर एक 
अत्यन्त वेगशालिनी शक्तिका प्रहार किया ।। ११ ।। 

सतु शकक्‍त्या विभिन्नाज़ो निपपात रथोत्तमात्‌ । 

लोहिताड़ इवाकाशाद्‌ दीप्तरश्मिर्यद्च्छया ।। १२ ।। 

उस शक्तिसे भूरिके सारे अंग विदीर्ण हो गये और वह अपने उत्तम रथसे नीचे गिर 
पड़ा, मानो दैववश प्रदीप्त किरणोंवाला मंगलग्रह आकाशसे नीचे गिर गया हो | १२ ।। 

तंतु दृष्टवा हतं शूरमश्वत्थामा महारथ: । 

अभ्यधावत वेगेन शैनेयं प्रति संयुगे | १३ ।। 

शूरवीर भूरिको युद्धस्थलमें मारा गया देख महारथी अश्व॒त्थामा सात्यकिकी ओर बड़े 
वेगसे दौड़ा ।। १३ ॥। 

तिष्ठ तिषछ्ठेति चाभाष्य शैनेयं स नराधिप । 

अभ्यवर्षच्छरौचधेण मेरुं वृष्ट्या यथाम्बुद: ।। १४ ।। 

नरेश्वर! वह सात्यकिसे “खड़ा रह, खड़ा रह” ऐसा कहकर उनके ऊपर उसी प्रकार 
बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरु पर्वतपर जल बरसा रहा हो ।। १४ ।। 

तमापततन्तं संरब्धं शैनेयस्य रथं प्रति । 


घटोत्कचो<ब्रवीद्‌ राजन नादं मुक्त्वा महारथ: ।। १५ ।। 

क्रोधमें भरे हुए अश्वत्थामाको सात्यकिके रथपर आक्रमण करते देख महारथी 
घटोत्कचने सिंहनाद करके कहा ।। १५ ।। 

तिष्ठ तिष्ठ न मे जीवन द्रोणपुत्र गमिष्यसि । 

एष त्वां निहनिष्यामि महिषं षण्मुखो यथा ।। १६ ।। 

'द्रोणपुत्र! खड़ा रह, खड़ा रह, मेरे हाथसे जीवित छूटकर नहीं जा सकेगा। जैसे 
कार्तिकेयने महिषासुरका वध किया था, उसी प्रकार मैं भी तुझे मार डालूँगा ।। १६ ।। 

युद्धश्रद्धामहं तेड्द्य विनेष्यामि रणाजिरे । 

इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो राक्षस: परवीरहा ।। १७ ।। 

द्रौणिमभ्यद्रवत्‌ क्रुद्धो गजेन्द्रमिव केसरी । 

“आज समरांगणमें मैं तेरी युद्धविषयक श्रद्धा दूर कर दूँगा।! ऐसा कहकर क्रोधसे लाल 
आँखें किये, शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले कुपित राक्षस घटोत्कचने अश्वत्थामापर उसी 
प्रकार धावा किया, जैसे सिंह किसी गजराजपर आक्रमण करता है ।। १७६ ।। 

रथाक्षमात्रैरिषुभिर भ्यवर्षद्‌ घटोत्कच: ।। १८ ।। 

रथिनामृषभं द्रौणिं धाराभिरिव तोयद: । 

जैसे मेघ पर्वतपर जलकी धारा गिराता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियोंमें श्रेष्ठ 
अश्वत्थामापर रथके धुरेके समान मोटे-मोटे बाणोंकी वर्षा करने लगा || १८ ३ ।। 

शरवृष्टिं तु तां प्राप्तां शरैराशीविषोपमै: ।। १९ ।। 

शातयामास समरे तरसा द्रौणिरुत्स्मयन्‌ । 

परंतु अश्वत्थामाने मुसकराते हुए समरभूमिमें अपने ऊपर आयी हुई उस बाण-वर्षाको 
विषधर सर्पोके समान भयंकर बाणोंद्वारा वेगपूर्वक नष्ट कर दिया ।। १९३ ।। 

तत: शरशतैस्ती&णैर्मर्म भेदिभिराशुगै: ।। २० ।। 

समाचिनोदू राक्षसेन्द्रं घटोत्कचमरिंदमम्‌ । 

तत्पश्चात्‌ मर्मस्थलको विदीर्ण कर देनेवाले सैकड़ों पैने बाणोंद्वारा उसने शत्रुदमन 
राक्षसराज घटोत्कचको बींध दिया || २०६ ।। 

स शरैराचितस्तेन राक्षसो रणमूर्थनि ।। २१ ।। 

व्यकाशत महाराज श्वाविच्छललतो यथा । 

महाराज! अभ्रृत्थामाद्वारा उन बाणोंसे बिंधा हुआ वह राक्षस काँटोंसे भरे हुए साहीके 
समान सुशोभित हो रहा था || २१३ ।। 

ततः क्रोधसमाविष्टो भैमसेनि: प्रतापवान्‌ ।। २२ ।। 

शरैरवचकर्तोंग्रैद्रार्णिं वज्ञाशनिप्रभै: । 

क्षुरप्रैरर्धचन्द्रैश्ष नाराचै: सशिलीमुखै: ।। २३ ।। 


वराहकर्णनलिीकैर्विकर्ण श्षा भ्यवीवृषत्‌ । 

तत्पश्चात्‌ भीमसेनके प्रतापी पुत्र घटोत्कचने क्रोधमें भरकर वज्र एवं बिजलीके समान 
चमकनेवाले भयंकर बाणोंद्वारा अश्वत्थामाको क्षत-विक्षत कर दिया तथा उसके ऊपर 
क्षुगप्र, अर्धचन्द्र, नाराच, शिलीमुख, वराहकर्ण, नालीक और विकर्ण आदि अस्त्रोंकी चारों 
ओरसे वर्षा आरम्भ कर दी || २२-२३ ३ || 

तां शस्त्रवृष्टिमतुलां वज्ञाशनिसमस्वनाम्‌ ।। २४ ।। 

पतन्‍्तीमुपरि क्ुद्धो द्रौणिरव्यथितेन्द्रिय: । 

सुदुःसहां शरैघरिदिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रिते: ।। २५ ।। 

व्यधमत्‌ सुमहातेजा महाभ्राणीव मारुत: । 

जैसे वायु बड़े-बड़े बादलोंको छिलन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार व्यथारहित 
इन्द्रियोंवाले महातेजस्वी द्रोणपुत्र अश्वत्थामाने कुपित हो दिव्यास्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित 
भयंकर बाणोंसे अपने ऊपर पड़ती हुई उस अत्यन्त दुः:सह, अनुपम एवं वज्रपातके समान 
शब्द करनेवाली अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षाको नष्ट कर दिया || २४-२५ ३ || 

ततोडन्‍्तरिक्षे बाणानां संग्रामो5न्य इवाभवत्‌ ।। २६ ।। 

घोररूपो महाराज योधानां हर्षवर्धन: । 

महाराज! तत्पश्चात्‌ अन्तरिक्षमें बाणोंका दूसरा भयंकर संग्राम-सा होने लगा, जो 
योद्धाओंका हर्ष बढ़ा रहा था || २६३ ।। 

ततोअस्त्रसंघर्षकृतैर्विस्फुलिड्रैः समन्तत: ।। २७ ।। 

बभौ निशामुखे व्योम खद्योतैरिव संवृतम्‌ । 

अस्त्रोंके परस्पर टकरानेसे जो चारों ओर चिनगारियाँ छूट रही थीं, उनसे आकाश 
प्रदोषकालमें जुगनुओंसे व्याप्त-सा जान पड़ता था || २७३६ ।। 

स मार्गणगणैद्रौणिर्दिश: प्रच्छाद्य सर्वत:ः ।। २८ ।॥। 

प्रियार्थ तव पुत्राणां राक्षसं समवाकिरत्‌ । 

द्रोणपुत्रने आपके पुत्रोंका प्रिय करनेके लिये अपने बाणोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको 
आच्छादित करते हुए उस राक्षसको भी ढक दिया || २८६ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध द्रौणिराक्षसयोर्मुधे ।। २९ ।। 

विगाढे रजनीमध्ये शक्रप्रह्लादयोरिव । 

तदनन्तर गाढ़ अन्धकारसे भरी हुई आधीरातके समय रणभूमिमें इन्द्र और प्रह्नादके 
समान अभश्वत्थामा और घटोत्कचका घोर युद्ध आरम्भ हुआ ।। २९३ |। 

ततो घटोत्कचो बाणैर्दशभिद्रौणिमाहवे ।। ३० ।। 

जघानोरसि संक्रुद्ध: कालज्वलनसंनिभै: । 


अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए घटोत्कचने युद्धस्थलमें कालाग्निके समान दस तेजस्वी 
बाणोंद्वारा अश्वत्थामाकी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी ।। ३० इ ।। 

स तैरभ्यायतैर्विद्धो राक्षसेन महाबल: ।। ३१ ।। 

चचाल समरे द्रौणिर्वातनुन्न इव ट्रुम: । 

स मोहमनुसम्प्राप्तो ध्वजयष्टिं समाश्रित: ।। ३२ ।। 

राक्षसद्वारा चलाये हुए उन विशाल बाणोंसे घायल हो महाबली अभश्वत्थामा समरांगणमें 
आँधीके हिलाये हुए वृक्षके समान काँपने लगा। वह ध्वजदण्डका सहारा ले मूर्च्छित हो 
गया ।। ३१-३२ ।। 

ततो हाहाकृतं सैन्यं तव सर्व जनाधिप । 

हतं सम मेनिरे सर्वे तावकास्तं विशाम्पते ।। ३३ ।। 

नरेश्वरर फिर तो आपकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया। प्रजानाथ! आपके समस्त 
योद्धाओंने यह मान लिया कि अभश्वत्थामा मारा गया ।। ३३ ।। 

त॑ तु दृष्टवा तथावस्थमश्चत्थामानमाहवे । 

पज्चाला: सृञ्जयाश्रैव सिंहनादं प्रचक्रिरे |। ३४ ।। 

रणभूमिमें अश्वत्थामाकी वैसी अवस्था देख पांचाल और सूंजय योद्धा सिंहनाद करने 
लगे ।। ३४ ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञामश्वत्थामा महाबल: । 

धनु: प्रपीड्य वामेन करेणामित्रकर्शन: ।। ३५ ।। 

मुमोचाकर्णपूर्णेन धनुषा शरमुत्तमम्‌ | 

यमदण्डोपमं घोरमुद्दिश्याशु घटोत्कचम्‌ ।। ३६ ।। 

तदनन्तर सचेत हो महाबली शत्रुसूदन अश्वत्थामाने बायें हाथसे धनुषको दबाकर 
कानतक खींचे हुए धनुषसे घटोत्कचको लक्ष्य करके यमदण्डके समान एक भयंकर एवं 
उत्तम बाण शीघ्र छोड़ दिया || ३५-३६ ।। 

स भित्त्वा हृदयं तस्य राक्षसस्य शरोत्तम: | 

विवेश वसुधामुग्र: सपुड्ख: पृथिवीपते || ३७ ।। 

पृथ्वीपते! वह उत्तम एवं भयंकर बाण उस राक्षसकी छाती छेदकर पंखसहित पृथ्वीमें 
समा गया ।। 

सो5तिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत्‌ । 

राक्षसेन्द्र: सुबलवान्‌ द्रौणिना रणशालिना ॥। ३८ ।। 

महाराज! युद्धमें शोभा पानेवाले अअश्रवत्थामाद्वारा अत्यन्त घायल हुआ महाबली 
राक्षसराज घटोत्कच रथके पिछले भागमें बैठ गया ।। ३८ ।। 

दृष्टवा विमूढं हैडिम्बं सारथिस्तु रणाजिरात्‌ | 

द्रौणे: सकाशात्‌ सम्भ्रान्तस्त्वपनिन्ये त्वरान्वितः ।। ३९ ।। 


हिडिम्बाकुमारको मूर्च्छित देख उसका सारथि घबरा गया और तुरंत ही उसे 
समरांगणसे, विशेषत: अश्वत्थामाके निकटसे दूर हटा ले गया ।। ३९ ।। 

तथा तु समरे विद्ृध्वा राक्षसेन्द्रं घटोत्कचम्‌ । 

ननाद सुमहानादं द्रोणपुत्रो महारथ: ।। ४० ।। 

इस प्रकार समरभूमिमें राक्षसराज घटोत्कचको घायल करके महारथी द्रोणपुत्रने बड़े 
जोरसे गर्जना की ।। 

पूजितस्तव पुत्रैश्न सर्वयोधैश्व भारत । 

वपुषातिप्रजज्वाल मध्याह्न इव भास्कर: ।। ४१ ।। 

भरतनन्दन! उस समय सम्पूर्ण योद्धाओं तथा आपके पुत्रोंद्वारा पूजित हुआ अश्वत्थामा 
अपने शरीरसे मध्याह्न-कालके सूर्यकी भाँति अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था ।। ४१ ।। 

भीमसेन तु युध्यन्तं भारद्वाजरथं प्रति । 

स्वयं दुर्योधनो राजा प्रत्यविध्यच्छितै: शरै: ।। ४२ ।। 

द्रोणाचार्यके रथकी ओर आते हुए युद्धपरायण भीमसेनको स्वयं राजा दुर्योधनने पैने 
बाणोंसे बींध डाला ।। 

त॑ भीमसेनो दशक: शरैरविव्याध मारिष | 

दुर्योधनो5पि विंशत्या शराणां प्रत्यविध्यत ।। ४३ ।। 

माननीय नरेश! तब भीमसेनने भी दुर्योधनको दस बाणोंसे घायल किया। फिर 
दुर्योधनने भी उन्हें बीस बाण मारे ।। ४३ ।। 

तौ सायकैरवच्छिन्नावदृश्येतां रणाजिरे । 

मेघजालसमाच्छन्नौ नभसीवेन्दुभास्करौ ।। ४४ ।। 

जैसे कभी-कभी चन्द्रमा और सूर्य आकाशमें मेघोंके समूहसे आच्छादित हुए देखे जाते 
हैं, उसी प्रकार समरांगणमें वे दोनों वीर सायकसमूहोंसे आच्छन्न दिखायी देते थे || ४४ ।। 

अथ दुर्योधनो राजा भीम विव्याध पत्रिभि: | 

पज्चभिर्भरतश्रेष्ठ तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। ४५ ।। 

भरतश्रेष्ठ! राजा दुर्योधनने भीमसेनको पाँच बाणोंसे घायल कर दिया और कहा 
--खड़ा रह, खड़ा रह” ।। ४५ ।। 

तस्य भीमो धनुश्छित्त्वा ध्वजं च दशभि: शरै: । 

विव्याध कौरवश्रेष्ठ नवत्या नतपर्वणाम्‌ ।। ४६ ।। 

तब भीमसेनने दस बाण मारकर उसके धनुष और ध्वज काट डाले और झुकी हुई 
गाँठवाले नब्बे बाणोंसे कौरवश्रेष्ठ दुर्योधनको गहरी चोट पहुँचायी || ४६ ।। 

ततो दुर्योधन: क्रुद्धों धनुरन्यन्महत्तरम्‌ 

गृहीत्वा भरतश्रेष्ठो भीमसेनं शितै: शरै: ।। ४७ ।। 

अपीडयद्‌ रणमुखे पश्यतां सर्वधन्विनाम्‌ । 


तत्पश्चात्‌ भरतश्रेष्ठ दुर्योधनने कुपित हो दूसरा विशाल धनुष हाथमें लेकर युद्धके 
मुहानेपर सम्पूर्ण धनुर्धरोंके देखते-देखते पैने बाणोंद्वारा भीमसेनको पीड़ा देनी आरम्भ 
की ।। ४७३ ।। 

तान्‌ निहत्य शरान्‌ भीमो दुर्योधनधनुश्च्युतान्‌ ।। ४८ ।। 

कौरवं पज्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत्‌ । 

दुर्योधनके धनुषसे छूटे हुए उन सभी बाणोंको नष्ट करके भीमसेनने उस कौरव- 
नरेशको पचीस बाण मारे || ४८ ६ || 

दुर्योधनस्तु संक्रुद्धो भीमसेनस्य मारिष ।। ४९ ।। 

क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा दशश्ि: प्रत्यविध्यत । 

आर्य! इससे दुर्योधन अत्यन्त कुपित हो उठा और उसने एक क्षुरप्रसे भीमसेनका धनुष 
काटकर उन्हें दस बाणोंसे घायल कर दिया ।। ४९६ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय भीमसेनो महाबल: ।। ५० ।। 

विव्याध नृपतिं तूर्ण सप्तभिर्निशितै: शरै: । 

तब महाबली भीमसेनने दूसरा धनुष हाथमें लेकर तुरंत ही कौरवनरेशको सात तीखे 
बाणोंसे बींध डाला ।। 

तदप्यस्य धनुः क्षिप्रं चिच्छेद लघुहस्तवत्‌ || ५१ ।। 

द्वितीयं च तृतीयं च चतुर्थ पठचमं तथा । 

आत्तमात्तं महाराज भीमस्य धनुराच्छिनत्‌ ।। ५२ ।। 

तव पुत्रो महाराज जितकाशी मदोत्कट: । 

दुर्योधनने शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले कुशल योद्धाकी भाँति भीमसेनके उस 
धनुषको भी शीघ्र ही काट दिया। महाराज! भीमसेनके हाथमें लिये हुए दूसरे, तीसरे, चौथे 
और पाँचवें धनुषको भी विजयसे उल्लसित होनेवाले आपके मदोनन्‍्मत्त पुत्रने काट 
डाला || ५१-५२ ३ || 

स तथा भियद्यमानेषु कार्मुकेषु पुन: पुन: ।। ५३ ।। 

शक्ति चिक्षेप समरे सर्वपारशवीं शुभाम्‌ | 

मृत्योरिव स्वसारं हि दीप्तां वह्नमिशिखामिव ।। ५४ ।। 

इस प्रकार जब बारंबार धनुष काटे जाने लगे, तब भीमसेनने समरभूमिमें सम्पूर्णतः 
लोहेकी बनी हुई एक सुन्दर शक्ति चलायी, जो मौतकी सगी बहिनके समान जान पड़ती 
थी। वह आगकी ज्वालाके समान प्रकाशित हो रही थी ।। ५३-५४ ।। 

सीमन्तमिव कुर्वन्ती नभसो5ग्निसमप्रभाम्‌ । 

अप्राप्तामेव तां शक्तिं त्रिधा चिच्छेद कौरव: ।। ५५ || 

पश्यत: सर्वलोकस्य भीमस्य च महात्मन: । 


आकाशमें सीमन्तकी रेखा-सी बनाती हुई अग्निके समान देदीप्यमान होनेवाली उस 
शक्तिके अपने पास आनेसे पहले ही कौरवनरेशने तीन टुकड़े कर दिये। सम्पूर्ण योद्धाओं 
तथा महामना भीमसेनके देखते-देखते यह कार्य हो गया ।। ५५६ ।। 

ततो भीमो महाराज गदां गुर्वी महाप्रभाम्‌ ।। ५६ ।। 


चिक्षेपाविध्य वेगेन दुर्योधनरथं प्रति । 

महाराज! तब भीमसेनने अपनी अत्यन्त तेजस्विनी गदाको बड़े वेगसे घुमाकर 
दुर्योधनके रथपर दे मारा ।। 

ततः सा सहसा वाहांस्तव पुत्रस्य संयुगे || ५७ ।। 

सारथिं च गदा गुर्वी ममर्दास्य रथं पुन: । 


युद्धस्थलमें उस भारी गदाने सहसा आपके पुत्रके चारों घोड़ों, सारथि और रथका भी 
मर्दन कर दिया ।। ५७३ ।। 

पुत्रस्तु तव राजेन्द्र भीमाद्‌ भीत: प्रणश्य च ।। ५८ ।। 

आरुरोह रथं चान्यं नन्‍न्दकस्य महात्मन: । 

राजेन्द्र! उस समय आपका पुत्र भीमसेनसे भयभीत हो पहले ही भागकर महामना 
नन्‍्दकके रथपर जा बैठा था || ५८ ३ ।। 

ततो भीमो हतं मत्वा तव पुत्र महारथम्‌ ।। ५९ ।। 

सिंहनादं महच्चक्रे तर्जयन्‌ निशि कौरवान्‌ । 

उस समय भीमसेनने आपके महारथी पुत्रको मारा गया मानकर रातके समय 
कौरवोंको डाँट बताते हुए बड़े जोर-जोरसे सिंहनाद किया ।। ५९ ६ ।। 

तावका: सैनिकाश्नापि मेनिरे निहतं नूपम्‌ । 

ततो&तिचुक्रुशु: सर्वे ते हाहेति समन्‍्ततः ।। ६० ।। 

आपके सैनिकोंने भी राजा दुर्योधनको मरा हुआ ही मान लिया था; अतः वे सब ओर 
जोर-जोरसे हाहाकार करने लगे ।। ६० ।। 

तेषां तु निनदं श्र॒त्वा त्रस्तानां सर्वयोधिनाम्‌ | 

भीमसेनस्य नादं च श्रुत्वा राजन्‌ महात्मन: ।। ६१ ।। 

ततो युधिषिरो राजा हतं मत्वा सुयोधनम्‌ । 

अभ्यवर्तत वेगेन यत्र पार्थो वृकोदर: ।। ६२ |। 

राजन्‌! उन भयभीत हुए सम्पूर्ण योद्धाओंका आर्तनाद तथा महामनस्वी भीमसेनकी 
गर्जना सुनकर दुर्योधनको मरा हुआ मान राजा युधिष्ठिर बड़े वेगसे उस स्थानपर आ पहुँचे, 
जहाँ कुन्तीकुमार भीमसेन दहाड़ रहे थे | ६१-६२ ।। 

पज्चाला: केकया मत्स्या: सृञज्जयाश्न विशाम्पते | 

सर्वोद्योगेनाभिजम्मुद्रोणमेव युयुत्मया ।। ६३ ।। 


प्रजानाथ! फिर तो पांचाल, मत्स्य, केकय और सूंजय योद्धा युद्धकी इच्छासे पूर्ण 
उद्योग करके द्रोणाचार्यपर ही टूट पड़े || ६३ ।। 

तत्रासीत्‌ सुमहद्‌ युद्ध द्रोणस्थाथ परैः सह । 

घोरे तमसि मग्नानां निघध्नतामितरेतरम्‌ ।। ६४ ।। 

वहाँ शत्रुओंके साथ द्रोणाचार्यका बड़ा भारी संग्राम हुआ। सब लोग घोर अन्धकारमें 
डूबकर एक-दूसरेपर घातक प्रहार कर रहे थे ।। ६४ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे दुर्योधनापयाने 
षट्षष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६६ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके प्रसंगमें 
दुर्योधनका पलायनविषयक एक सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६६ ॥/ 


अपर बक। है २ >> 


सप्तषष्ट्याधिेकशततमो< ध्याय: 


कर्णके द्वारा सहदेवकी पराजय, शल्यके द्वारा विराटके 
भाई शतानीकका वध और विराटकी पराजय तथा अर्जुनसे 
पराजित होकर अलम्बुषका पलायन 


संजय उवाच 

सहदेवमथायान्तं द्रोणप्रेप्सु विशाम्पते । 

कर्णो वैकर्तनो युद्धे वारयामास भारत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--प्रजानाथ! भरतनन्दन! द्रोणाचार्यकी लक्ष्य करके आते हुए 
सहदेवको युद्धस्थलमें वैकर्तन कर्णने रोका ।। १ ।। 

सहदेवस्तु राधेयं विद्ध्वा नवभिराशुगै: । 

पुनर्विव्याध दशभिर्विशिखैर्नतपर्वभि: | २ ।। 

सहदेवने राधापुत्र कर्णको नौ बाणोंसे बींधकर झुकी हुई गाँठवाले दस बाणोंद्वारा पुनः 
घायल कर दिया ।। 

त॑ं कर्ण: प्रतिविव्याध शतेन नतपर्वणाम्‌ । 

सज्यं चास्य धनु: शीघ्र चिच्छेद लघुहस्तवत्‌ ।। ३ ।। 

कर्णने बदलेमें झुकी हुई गाँठवाले सौ बाण मारे और शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले वीर 
योद्धाकी भाँति उसने उनके प्रत्यंचासहित धनुषको भी शीघ्र ही काट दिया ।। 

ततोडन्यद्‌ धनुरादाय माद्रीपुत्र: प्रतापवान्‌ । 

कर्ण विव्याध विंशत्या तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ४ ।। 

तदनन्तर प्रतापी माद्रीकुमार सहदेवने दूसरा धनुष हाथमें लेकर कर्णको बीस बाणोंसे 
घायल कर दिया। वह अद्भुत-सा कार्य हुआ ।। ४ ।॥। 

तस्य कर्णो हयान्‌ हत्वा शरै: संनतपर्वभि: । 

सारथिं चास्य भल्‍्लेन द्रुतं निन्‍ये यमक्षयम्‌ ।। ५ ।। 

तब कर्णने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे सहदेवके घोड़ोंको मारकर एक भल्लका प्रहार 
करके उनके सारथिको भी शीघ्र ही यमलोक पहुँचा दिया ।। ५ |। 

विरथ: सहदेवस्तु खड््‌गं चर्म समाददे । 

तदप्यस्य शरै: कर्णो व्यधमत्‌ प्रहसन्निव ।। ६ ।। 

रथहीन हो जानेपर सहदेवने ढाल और तलवार हाथमें ले ली; परंतु कर्णने हँसते हुए-से 
बाण मारकर उनकी उस तलवारके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।। ६ ।। 

अथ गुर्वी महाघोरां हेमचित्रां महागदाम्‌ । 


प्रेषयामास संक्रुद्धों वैकर्तनरथं प्रति ।। ७ ।। 

तब सहदेवने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णजटित अत्यन्त भयंकर विशाल गदा 
सूर्यपुत्र कर्णके रथपर दे मारी ।। 

तामापतन्ती सहसा सहदेवप्रचोदिताम्‌ । 

व्यष्टम्भयच्छरै: कर्णो भूमौ चैनामपातयत्‌ ।। ८ ।। 

सहदेवके द्वारा चलायी हुई उस गदाको सहसा अपने ऊपर आती देख कर्णने बहुत-से 
बाणोंद्वारा उसे स्तम्भित कर दिया और पृथ्वीपर गिरा दिया ।। ८ ।। 

गदां विनिहतां दृष्टवा सहदेवस्त्वरान्वित: । 

शक्ति चिक्षेप कर्णाय तामप्यस्याच्छिनच्छरै: ।। ९ ।। 

अपनी गदाको असफल होकर गिरी हुई देख सहदेवने बड़ी उतावलीके साथ कर्णपर 
शक्ति चलायी; किंतु उसने बाणोंद्वारा उस शक्तिको भी काट डाला || ९ |। 

ससम्भ्रमं ततस्तूर्णमवप्लुत्य रथोत्तमात्‌ । 

सहदेवो महाराज दृष्ट्वा कर्ण व्यवस्थितम्‌ ।। १० ।। 

रथचक्रं प्रगृह्माजी मुमोचाधिरथिं प्रति । 

महाराज! तब सहदेव अपने उस उत्तम रथसे शीघ्र ही वेगपूर्वक कूद पड़े और 
युद्धस्थलमें अधिरथपुत्र कर्णको सामने खड़ा देख रथका एक चक्‍का लेकर उसके ऊपर 
चला दिया || १० | || 

तदापतद्‌ वै सहसा कालचक्रमिवोद्यतम्‌ ।। ११ ।। 

शरैरनेकसाहसैराच्छिनत्‌ सूतनन्दन: । 

उठे हुए कालचक्रके समान सहसा अपने ऊपर गिरते हुए उस रथचक्रको सूतनन्दन 
कर्णने कई हजार बाणोंसे काट गिराया ।। ११३ ।। 

तस्मिंस्तु निहते चक्रे सूतजेन महात्मना ।। १२ ।। 

ईषादण्डकयोक्त्रांश्व युगानि विविधानि च | 

हस्त्यज्ञानि तथाश्रांश्व मृतांश्व॒ पुरुषान्‌ बहुन्‌ ।। १३ ।। 

चिक्षेप कर्णमुद्दिश्य कर्णस्तान्‌ व्यधमच्छरै: । 

महामनस्वी सूतपुत्र कर्णके द्वारा उस रथचक्रके नष्ट कर दिये जानेपर ईषादण्ड, जोते, 
नाना प्रकारके जूए, हाथीके कटे हुए अंग, मरे घोड़े और बहुत-सी मृत मनुष्योंकी लाशें 
कर्णको लक्ष्य करके चलायीं; परंतु कर्णने अपने बाणोंद्वारा उन सबकी धज्जियाँ उड़ा दीं ।। 

स निरायुधमात्मान ज्ञात्वा माद्रवतीसुत: ।। १४ ।। 

वार्यमाणस्तु विशिखै: सहदेवो रणं जहौ । 

तत्पश्चात्‌ माद्रीकुमार सहदेवने अपने-आपको आयुधोंसे रहित समझकर कर्णके 
बाणोंसे अवरुद्ध हो उस रणभूमिको त्याग दिया || १४३ ।। 

तमभिद्रुत्य राधेयो मुहूर्तादू भरतर्षभ ।। १५ ।। 


अब्रवीत्‌ प्रहसन्‌ वाक्‍्यं सहदेवं विशाम्पते । 

भरतश्रेष्ठ! प्रजानाथ! तदनन्तर राधापुत्र कर्णने दो घड़ीतक सहदेवका पीछा करके 
उनसे हँसते हुए इस प्रकार कहा-- || १५३ ।। 

मा युध्यस्व रणेडथीर विशिष्टे रथिभि: सह ।। १६ ।। 

सदृशैर्युध्य माद्रेय वचो मे मा विशड्किथा: । 

“ओ अधीर बालक! तू युद्धस्थलमें विशिष्ट रथियोंके साथ संग्राम न करना। 
माद्रीकुमार! अपने समान योद्धाओंके साथ युद्ध किया कर। मेरी इस बातपर संदेह न 
करना” ।। १६६ ।। 

अथैनं धनुषो5ग्रेण तुदन्‌ भूयो5ब्रवीद्‌ वच: ।। १७ ।। 

एषोअर्जुनो रणे तूर्ण युध्यते कुरुभि: सह । 

तत्र गच्छस्व माद्रेय गृहं वा यदि मन्यसे ।। १८ ।। 

तदनन्तर धनुषकी नोकसे उन्हें पीड़ा देते हुए कर्णने पुनः: इस प्रकार कहा--'माद्रीपुत्र! 
ये अर्जुन कौरवोंके साथ रणभूमिमें शीघ्रतापूर्वक युद्ध कर रहे हैं। तू उन्हींके पास चला जा 
अथवा तेरा मन हो तो घरको लौट जा! ।। 

एवमुक्‍्त्वा तु तं कर्णो रथेन रथिनां वर: । 

प्रायात्‌ पाज्चालपाण्डूनां सैन्यानि प्रदहन्निव ।। १९ ।। 

सहदेवसे ऐसा कहकर रथियोंमें श्रेष्ठ कर्ण पांचालों और पाण्डवोंकी सेनाओंको दग्ध 
करता हुआ-सा रथके द्वारा उनकी ओर वेगपूर्वक चल दिया ।। १९ |। 

वध प्राप्तं तु माद्रेयं नावधीत्‌ समरेडरिहा । 

कुन्त्या: स्मृत्वा वचो राजन्‌ सत्यसंधो महायशा: ।। २० ।। 

यद्यपि सहदेव उस समय वध करने योग्य अवस्थामें पहुँच गये थे, तो भी कुन्तीको दिये 
हुए वचनको याद करके समरांगणमें शत्रुसूदन सत्यप्रतिज्ञ एवं महायशस्वी कर्णने उनका 
वध नहीं किया || २० ।। 

सहदेवस्ततो राजन्‌ विमना: शरपीडित: । 

कर्णवाक्छरतप्तक्ष जीवितान्निरविद्यत ।। २१ ।॥। 

राजन्‌! तदनन्तर सहदेव कर्णके बाणोंसे पीड़ित और उसके वचनरूपी बाणोंसे संतप्त 
एवं खिन्नचित्त हो अपने जीवनसे विरक्त हो गये ।। २१ ।। 

आरुरोह रथं चापि पाञज्वाल्यस्य महात्मन: । 

जनमेजयस्य समरे त्वरायुक्तो महारथ: ।। २२ ।। 

फिर वे महारथी सहदेव बड़ी उतावलीके साथ महामना पांचालराजकुमार जनमेजयके 
रथपर आरूढ़ हो गये ।। 

विराट सहसेन तु द्रोणं वै द्रतमागतम्‌ । 

मद्रराज: शरौघेण च्छादयामास धन्विनम्‌ ।। २३ ।। 


द्रोणाचार्यपर वेगपूर्वक आक्रमण करनेवाले सेनासहित धनुर्धर राजा विराटको मद्रराज 
शल्यने अपने बाणसमूहोंसे आच्छादित कर दिया ।। २३ ।। 

तयो: समभवद्‌ युद्ध समरे दृढ्धन्विनो: । 

यादृशं हाभवद्‌ राजन्‌ जम्भवासवयो: पुरा ॥। २४ ।। 

राजन! फिर तो समरांगणमें उन दोनों सुदृढ़ धनुर्धर योद्धाओंमें वैसा ही घोर युद्ध होने 
लगा, जैसा कि पूर्वकालमें इन्द्र और जम्भासुरमें हुआ था ।। २४ ।। 

मद्रराजो महाराज विराटं वाहिनीपतिम्‌ । 

आजमलछेने त्वरितस्तूर्ण शतेन नतपर्वणाम्‌ ।। २५ ।। 

महाराज! मद्रराज शल्यने सेनापति राजा विराटको बड़ी उतावलीके साथ झुकी हुई 
गाँठवाले सौ बाण मारकर तुरंत घायल कर दिया ।। २५ ।। 

प्रतिविव्याध तं राजन्‌ नवभिर्निशितै: शरै: । 

पुनश्चैनं त्रिसप्तत्या भूयश्चैव शतेन तु ।। २६ ।। 

राजन्‌! तब विराटने मद्रराजको पहले नौ, फिर तिहत्तर और पुनः सौ तीखे बाणोंसे 
घायल करके बदला चुकाया ।। 

तस्य मद्राधिपो हत्वा चतुरो रथवाजिन: । 

सूतं ध्वजं च समरे शराभ्यां संन्यपातयत्‌ ।। २७ ।। 

तदनन्तर मद्रराजने विराटके रथके चारों घोड़ोंको मारकर दो बाणोंसे समरांगणमें 
सारथि और ध्वजको भी काट गिराया ।। २७ ।। 

हताश्चात्‌ तु रथात्‌ तूर्णमवप्लुत्य महारथ: । 

तस्थौ विस्फारयंश्वापं विमुछ्चंश्व शिताउ्छरान्‌ ।। २८ ।। 

तब उस अश्वहीन रथसे तुरंत ही कूदकर महारथी राजा विराट धनुषकी टंकार करते 
और तीखे बाणोंको छोड़ते हुए भूमिपर खड़े हो गये || २८ ।। 

शतानीकस्ततो दृष्टवा भ्रातरं हतवाहनम्‌ | 

रथेनाभ्यपतत्‌ तूर्ण सर्वलोकस्य पश्यत: ।। २९ ।। 

तत्पश्चात्‌ शतानीक अपने भाईके वाहनको नष्ट हुआ देख सब लोगोंके देखते-देखते 
शीघ्र ही रथके द्वारा उनके पास आ पहुँचे ।। २९ |। 

शतानीकमथायान्तं मद्रराजो महामृथे । 

विशिखेैर्बहुभिरविद्ध्वा ततो निन्‍ये यमक्षयम्‌ ।। ३० ।। 

उस महासमरमें वहाँ आते हुए शतानीकको बहुत-से बाणोंद्वारा घायल करके मद्रराज 
शल्यने उन्हें यमलोक पहुँचा दिया || ३० ।। 

तस्मिंस्तु निहते वीरे विराटो रथसत्तम: । 

आरुरोह रथं तूर्ण तमेव ध्वजमालिनम्‌ ।। ३१ ।। 


वीर शतानीकके मारे जानेपर रथियोंमें श्रेष्ठ विराट तुरंत ही ध्वज-मालासे विभूषित 
उसी रथपर आरूढ़ हो गये ।। 

ततो विस्फार्य नयने क्रोधाद्‌ द्विगुणविक्रम: । 

मद्रराजरथं तूर्ण छादयामास पत्रिभि: ॥। ३२ ।। 

तब क्रोधसे आँखें फाड़कर दूना पराक्रम दिखाते हुए विराटने अपने बाणोंद्वारा 
मद्रराजके रथको शीघ्र ही आच्छादित कर दिया ।। ३२ ।। 

ततो मद्राधिप: क्रुद्ध/ शरेणानतपर्वणा । 

आजपघानोरसि दृढं विराट वाहिनीपतिम्‌ ।। ३३ ।। 

इससे कुपित हुए मद्रराज शल्यने झुकी हुई गाँठवाले एक बाणसे सेनापति विराटकी 
छातीमें गहरी चोट पहुँचायी ।। 

सो5तिविद्धों महाराज रथोपस्थ उपाविशत्‌ । 

कश्मलं चाविशत्‌ तीव्रं विराटो भरतर्षभ ।। ३४ ।। 

महाराज! भरतभूषण! राज विराट अत्यन्त घायल होकर रथके पिछले भागमें धम्म-से 
बैठ गये और उन्हें तीव्र मूच्छने दबा लिया ।। ३४ ।। 

सारथिस्तमपोवाह समरे शरविक्षतम्‌ | 

ततः सा महती सेना प्राद्रवन्निशि भारत ।। ३५ ।। 

वध्यमाना शरशतै: शल्येनाहवशोभिना । 

भरतनन्दन! समरांगणमें बाणोंसे क्षत-विक्षत हुए राजा विराटको उनका सारथि दूर 
हटा ले गया। तब संग्राममें शोभा पानेवाले शल्यके सैकड़ों सायकोंसे पीड़ित हुई वह 
विशाल सेना उस रात्रिके समय भाग खड़ी हुई || ३५६ ।। 

तां दृष्टवा विद्रुतां सेनां वासुदेवधनंजयौ ।। ३६ ।। 

प्रयातौ तत्र राजेन्द्र यत्र शल्यो व्यवस्थित: । 

राजेन्द्र! उस सेनाको भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुन उसी ओर चल दिये, जहाँ राजा 
शल्य खड़े थे ।। 

तौतु प्रत्युद्ययौ राजन्‌ राक्षसेन्द्रो हालम्बुष: ।। ३७ ।। 

अष्टचक्रसमायुक्तमास्थाय प्रवरं रथम्‌ । 

राजन्‌! उस समय राक्षसराज अलम्बुष आठ पहियोंसे युक्त श्रेष्ठ रथपर आरूढ़ हो उन 
दोनोंका सामना करनेके लिये आगे बढ़ आया ।। ३७३ ।। 

तुरड्रममुखैर्युक्ते पिशाचै्घोरदर्शनि: । ३८ ।। 

लोहितार्द्रपताक॑ त॑ रक्तमाल्यविभूषितम्‌ | 

कार्ष्णायसमयं घोरमृक्षचर्मसमावृतम्‌ ।। ३९ ।। 

उसके उस रथमें घोड़ोंक समान मुखवाले भयंकर पिशाच जुते हुए थे। उसपर लाल 
रंगकी आर्द्र पताका फहरा रही थी। उस रथको लाल रंगके फूलोंकी मालासे सजाया गया 


था। वह भयंकर रथ काले लोहेका बना था और उसके ऊपर रीछकी खाल मढ़ी हुई 
थी ।। ३८-३९ ।। 

रौद्रेण चित्रपक्षेण विवृताक्षेण कूजता । 

ध्वजेनोच्छितदण्डेन गृध्रराजेन राजता ।। ४० ।। 

स बभौ राक्षसो राजन्‌ भिन्नाउज्जनचयोपम: । 

उसकी ध्वजापर विचित्र पंख और फैले हुए नेत्रोंवाला भयंकर गृध्रराज अपनी बोली 
बोलता था। उससे उपलक्षित उस ऊँचे डंडेवाले कान्तिमान्‌ ध्वजसे कटे-छटे कोयलेके 
पहाड़के समान वह राक्षस बड़ी शोभा पा रहा था || ४०३ || 

रुरोधार्जुनमायान्तं प्रभञ्जनमिवाद्रिराट्‌ ।। ४१ ।। 

किरन्‌ बाणगणान्‌ राजन्‌ शतशोडर्जुनमूर्थनि । 

राजन! अर्जुनके मस्तकपर सैकड़ों बाणसमूहोंकी वर्षा करते हुए उस राक्षसने अपनी 
ओर आते हुए अर्जुनको उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय प्रचण्ड वायुको 
रोक देता है ।। ४१ ३ ।। 

अतितीव्रं महद्‌ युद्ध नरराक्षसयोस्तदा ।। ४२ ।। 

द्रष्टणां प्रीतिजनन सर्वेषां तत्र भारत । 

गृध्रकाकबलोलूककड़्कगोमायुहर्षणम्‌ ।। ४३ ।। 

भारत! उस समय वहाँ मनुष्य और राक्षसमें बड़े जोरसे महान्‌ संग्राम होने लगा, जो 
समस्त दर्शकोंका आनन्द बढ़ानेवाला और गीध, कौए, बगले, उल्लू, कंक तथा गीदड़ोंको 
हर्ष प्रदान करनेवाला था ।। ४२-४३ ।। 

तमर्जुन: शतेनैव पत्रिणां समताडयत्‌ | 

नवभिश्ष शितैर्बाणैर्थ्वजं चिच्छेद भारत || ४४ ।॥ 

भरतनन्दन! अर्जुनने सौ बाणोंसे उस राक्षसको घायल कर दिया और नौ तीखे बाणोंसे 
उसकी ध्वजा काट डाली ।। 

सारथिं च त्रिभिणिस्त्रिभिरेव त्रिवेणुकम्‌ । 

धनुरेकेन चिच्छेद चतुर्भि श्वतुरो हयान्‌ ।। ४५ ।। 

फिर तीन बाणोंसे उसके सारथिको, तीनसे ही रथके त्रिवेणुकी, एकसे उसके धनुषको 
और चार बाणोंसे चारों घोड़ोंको काट डाला ।। ४५ ।। 

पुन: सज्यं कृतं चापं तदप्यस्य द्विधाच्छिनत्‌ । 

विरथस्योद्यतं खड््‌ग॑ं शरेणास्य द्विधाकरोत्‌ ।। ४६ ।। 

जब उसने पुनः दूसरे धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ायी तो अर्जुनने उसके भी दो टुकड़े कर 
दिये। रथहीन होनेपर उस राक्षसने जब खड़्ग उठाया, तब अर्जुनने एक बाण मारकर उसके 
भी दो खण्ड कर डाले ।। ४६ ।। 

अथीैनं निशितैरबणिश्षतुर्भिर्भरतर्षभ | 


पार्थोड्विध्यद्‌ राक्षसेन्द्रं स विद्ध: प्राद्रवद्‌ भयात्‌ ।। ४७ ।। 

भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात्‌ कुन्तीकुमार अर्जुनने चार तीखे बाणोंद्वारा उस राक्षसराजको बींध 
डाला। उन बाणोंसे विद्ध होकर अलम्बुष भयके मारे भाग गया ।। ४७ ।। 

त॑ विजित्यार्जुनस्तूर्ण द्रोणान्तिकमुपाययौ । 

किरजञज्शरगणान्‌ राजन्‌ नरवारणवाजिषु ।। ४८ ।। 

राजन! उसे परास्त करके अर्जुन मनुष्यों, हाथियों तथा घोड़ोंपर बाणसमूहोंकी वर्षा 
करते हुए तुरंत ही द्रोणाचार्यके समीप चले गये || ४८ ।। 

वध्यमाना महाराज पाण्डवेन यशस्विना । 

सैनिका न्यपतन्नुर्व्या वातनुन्ना इव द्रुमा: ।। ४९ ।। 

महाराज! उन यशस्वी पाण्डुकुमारके द्वारा मारे जाते हुए आपके सैनिक आँधीके 
उखाड़े हुए वृक्षोंके समान धड़ाधड़ पृथ्वीपर गिर रहे थे ।। ४९ ।। 

तेषु तूत्साद्यमानेषु फाल्गुनेन महात्मना । 

सम्प्राद्रवद्‌ बल॑ सर्व पुत्राणां ते विशाम्पते || ५० ।। 

प्रजानाथ! जब इस प्रकार महात्मा अर्जुनके द्वारा उनका संहार होने लगा, तब आपके 
पुत्रोंकी सारी सेना भाग चली || ५० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे अलम्बुषपराभवे 
सप्तषष्ट्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १६७ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ााभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके अवसरपर 
अलगम्बुषका पराजयविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६७ ॥। 


ऑपनआक्रा बछ। अंक 


अष्टषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: 


शतानीकके द्वारा चित्रसेनकी और वृषसेनके द्वारा द्रुपदकी 
पराजय तथा प्रतिविन्ध्य एवं दुःशासनका युद्ध 


संजय उवाच 

शतानीकं शरैस्तूर्ण निर्दहन्तं चमूं तव । 

चित्रसेनस्तव सुतो वारयामास भारत ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--भारत! एक ओरसे नकुलपुत्र शतानीक अपनी शराग्निसे आपकी 
सेनाको भस्म करता हुआ आ रहा था। उसे आपके पुत्र चित्रसेनने रोका ।। १ ।। 

नाकुलिकश्रित्रसेनं तु विदृध्वा पजचभिराशुगै: । 

सतुतंप्रतिविव्याध दशभिर्निशितै: शरैः ।। २ ।। 

शतानीकने चित्रसेनको पाँच बाण मारे। चित्रसेनने भी दस पैने बाण मारकर बदला 
चुकाया ।। २ |। 

चित्रसेनो महाराज शतानीकं पुनर्युधि । 

नवभिर्निशितैर्बाणैराजघान स्तनान्तरे ॥। ३ ।। 

महाराज! चित्रसेनने युद्धस्थलमें पुनः नौ तीखे बाणोंद्वारा शतानीककी छातीमें गहरी 
चोट पहुँचायी ।। ३ ।। 

नाकुलिस्तस्य विशिखैर्वर्म संनतपर्वभि: । 

गात्रात्‌ संच्यावयामास तदद्भुतमिवाभवत्‌ ।। ४ ।। 

तब नकुलपुत्रने झुकी हुई गाँठवाले अनेक बाण मारकर चित्रसेनके शरीरसे उसके 
कवचको काट गिराया। वह अद्धभुत-सा कार्य हुआ || ४ ।। 

सो<पेतवर्मा पुत्रस्ते विरराज भृशं नृप । 

उत्सृज्य काले राजेन्द्र निर्मोकमिव पन्नग: ।। ५ ।। 

नरेश्वर! राजेन्द्र! कवच कट जानेपर आपका पुत्र चित्रसेन समयपर केंचुल छोड़नेवाले 
सर्पके समान अत्यन्त सुशोभित हुआ ।। ५ |। 

ततोअस्य निशितैर्बाणैर्थ्वजं चिच्छेद नाकुलि: । 

धनुश्वैव महाराज यतमानस्य संयुगे ।। ६ ।। 

महाराज! तदनन्तर नकुलपुत्र शतानीकने युद्धस्थलमें विजयके लिये प्रयत्न करनेवाले 
चित्रसेनके ध्वज और धनुषको पैने बाणोंद्वारा काट दिया || ६ ।। 

स च्छिन्नधन्वा समरे विवर्मा च महारथ: । 

धनुरन्यन्महाराज जग्राहारिविदारणम्‌ || ७ ।। 


राजेन्द्र! समरांगणमें धनुष और कवच कट जानेपर महारथी चित्रसेनने दूसरा धनुष 
हाथमें लिया, जो शत्रुको विदीर्ण करनेमें समर्थ था || ७ ।। 

ततस्तूर्ण चित्रसेनो नाकुलिं नवभि: शरै: | 

विव्याध समरे क्रुद्धो भरतानां महारथ: ।। ८ ।। 

उस समय समरभूमिमें कुपित हुए भरतकुलके महारथी वीर चित्रसेनने नकुलपुत्र 
शतानीकको नौ बाणोंसे घायल कर दिया ।। ८ ।। 

शतानीको<थ संक्रुद्धश्चित्रसेनस्थ मारिष । 

जघान चतुरो वाहान्‌ सारथिं च नरोत्तम: ।। ९ ।। 

माननीय नरेश! तब अत्यन्त कुपित हुए नरश्रेष्ठ शतानीकने चित्रसेनके चारों घोड़ों और 
सारथिको मार डाला || ९ || 

अवलप्लुत्य रथात्‌ तस्माच्चित्रसेनो महारथ: । 

नाकुलिं पञ्चविंशत्या शराणामार्दयद्‌ बली ।। १० ।। 

तब बलवान महारथी चित्रसेनने उस रथसे कूदकर नकुलपुत्र शतानीकको पचीस बाण 
मारे || १० |। 

तस्य तत्कुर्वत: कर्म नकुलस्य सुतो रणे । 

अर्धचन्द्रेण चिच्छेद चापं रत्नविभूषितम्‌ ।। ११ ।। 

यह देख रणक्षेत्रमें नकुलपुत्रने पूर्वोक्त कर्म करनेवाले चित्रसेनके रत्नविभूषित धनुषको 
एक अर्धचन्द्राकार बाणसे काट डाला ।। ११ ।। 

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वनो हतसारथि: । 

आरुरोह रथं तूर्ण हार्दिक्यस्य महात्मन: ।। १२ ।। 

धनुष कट गया, घोड़े और सारथि मारे गये और वह रथहीन हो गया। उस अवस्थामें 
चित्रसेन तुरंत भागकर महामना कृतवर्माके रथपर जा चढ़ा ।। १२ ।। 

ट्रुपदं तु सहानीकं द्रोणप्रेप्सुं महारथम्‌ । 

वृषसेनो<भ्ययात्‌ तूर्ण किर|ञ्शरशतैस्तदा ।। १३ ।। 

द्रोणाचार्यका सामना करनेके लिये आते हुए महारथी द्रुपदपर वृषसेनने सैकड़ों 
बाणोंकी वर्षा करते हुए तत्काल आक्रमण कर दिया ।। १३ ।। 

यज्ञसेनस्तु समरे कर्णपुत्रं महारथम्‌ । 

षष्ट्या शराणां विव्याध बाह्दवोरुगसि चानघ ।। १४ ।। 

निष्पाप नरेश! समरांगणमें राजा यज्ञसेन (द्रुपद)-ने महारथी कर्णपुत्र वृषसेनकी छाती 
और भुजाओंमें साठ बाण मारे || १४ ।। 

वृषसेनस्तु संक्रुद्धो यज्ञसेनं रथे स्थितम्‌ । 

बहुभि: सायकैस्ती3्ष्णराजघान स्तनान्तरे ।। १५ ।। 


तब वृषसेन अत्यन्त कुपित होकर रथपर बैठे हुए यज्ञसेनकी छातीमें बहुत-से पैने बाण 
मारे || १५ || 

तावुभौ शरनुन्नाज़ौ शरकण्टकितौ रणे । 

व्यभ्राजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव ।। १६ ।। 

महाराज! उन दोनोंके ही शरीर एक-दूसरेके बाणोंसे क्षत-विक्षत हो गये थे। वे दोनों ही 
बाणरूपी कंटकोंसे युक्त हो काँटोंसे भरे हुए दो साही नामक जन्तुओंके समान शोभित हो 
रहे थे ।। १६ ।। 

रुक्मपुड्खीै: प्रसन्नाग्रै: शरैश्छिन्नतनुच्छदौ । 

रुधिरीघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृथे ।। १७ ।। 

सोनेके पंख और स्वच्छ धारवाले बाणोंसे उस महासमरमें दोनोंके कवच कट गये थे 
और दोनों ही लहूलुहान होकर अद्भुत शोभा पा रहे थे ।। १७ ॥। 

तपनीयनिभौ चित्रौ कल्पवृक्षाविवाद्भुतौ । 

किंशुकाविव चोत्फुल्लौ व्यकाशेतां रणाजिरे ।। १८ ।। 

वे दोनों सुवर्णके समान विचित्र, कल्पवृक्षके समान अद्भुत और खिले हुए दो 
पलाशवृक्षोंके समान अनूठी शोभासे सम्पन्न हो रणभूमिमें प्रकाशित हो रहे थे || १८ ।। 

वृषसेनस्ततो राजन ट्रुपदं नवभि: शरै: | 

विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनरन्यैस्त्रिभिस्त्रिभि: ।। १९ |। 

राजन! तदनन्तर वृषसेनने राजा द्रुपदको नौ बाणोंसे घायल करके फिर सत्तर बाणोंसे 
बींध डाला। तत्पश्चात्‌ उन्हें तीन-तीन बाण और मारे ।। १९ ।। 

तत:ः शरसहस्राणि विमुज्चन्‌ विवभौ तदा । 

कर्णपुत्रो महाराज वर्षमाण इवाम्बुद: ।। २० ।। 

महाराज! तदनन्तर सहस्रों बाणोंका प्रहार करता हुआ कर्णपुत्र वृषसेन जलकी वर्षा 
करनेवाले मेघके समान सुशोभित होने लगा ।। २० ।। 

द्रपदस्तु ततः क्रुद्धो वृषसेनस्य कार्मुकम्‌ । 

द्विधा चिच्छेद भललेन पीतेन निशितेन च ।। २३ ।। 

इससे क्रोधमें भरे हुए राजा द्रपदने एक पानीदार पैने भल्लसे वृषसेनके धनुषके दो 
टुकड़े कर डाले || २१ ।। 

सोअन्यत्‌ कार्मुकमादाय रुक्मबद्धं नवं दृढम्‌ । 

तूणादाकृष्य विमलं भल्लं पीत॑ शितं दृढम्‌ ।। २२ ।। 

कार्मुके योजयित्वा त॑ द्रुपदं संनिरीक्ष्य च 

आकर्णपूर्ण मुमुचे त्रासयन्‌ सर्वसोमकान्‌ ।॥। २३ ।। 

तब उसने सोनेसे मढ़े हुए दूसरे नवीन एवं सुदृढ़ धनुषको हाथमें लेकर तरकशसे एक 
चमचमाता हुआ पानीदार, तीखा और मजबूत भल्ल निकाला। उसे धनुषपर रखा और 


कानतक खींचकर समस्त सोमकोंको भयभीत करते हुए वृषसेनने राजा ट्रुपदको लक्ष्य 
करके वह भल्‍ल्ल छोड़ दिया ।। २२-२३ ।। 

हृदयं तस्य भित्त्वाच जगाम वसुधातलम्‌ । 

कश्मलं प्राविशद्‌ राजा वृषसेनशराहत: ।। २४ ।। 

वह भल्‍ल्ल ट्रपदकी छाती छेदकर धरतीपर जा गिरा। वृषसेनके उस भललसे आहत 
होकर राजा ट्रुपद मूर्च्छित हो गये || २४ ।। 

सारथिस्तमपोवाह स्मरन्‌ सारथिचेष्टितम्‌ । 

तस्मिन्‌ प्रभग्ने राजेन्द्र पजचालानां महारथे ।। २५ ।। 

ततस्तु द्रुपदानीकं शरैश्छिन्नतनुच्छदम्‌ । 

सम्प्राद्रवत्‌ तदा राजन्‌ निशीथे भैरवे सति ।। २६ ।। 

राजेन्द्र! तब सारथि अपने कर्तव्यका स्मरण करके उन्हें रणभूमिसे दूर हटा ले गया। 
पांचालोंके महारथी द्रपदके हट जानेपर बाणोंसे कटे हुए कवचवाली द्रुपदकी सारी सेना 
उस भयंकर आधीरातके समय वहाँसे भाग चली ।। 

प्रदीपैर्हि परित्यक्तैज्वलट्धिस्तै: समन्‍्ततः । 

व्यराजत मही राजन वीताभ्रा द्यौरिव ग्रहै: ।। २७ ।। 

राजन! भागते हुए सैनिकोंने जो मशालें फेंक दी थीं, वे सब ओर जल रही थीं। उनके 
द्वारा वह रणभूमि ग्रह-नक्षत्रोंसे भरे हुए मेघहीन आकाशके समान सुशोभित हो रही 
थी || २७ |। 

तथाडूुदैर्निपतितैव्यराजत वसुंधरा । 

प्रावृट्काले महाराज विद्युदूभिरिव तोयद: ।। २८ ।। 

महाराज! वीरोंके गिरे हुए चमकीले बाजूबन्दोंसे वहाँकी भूमि वैसी ही शोभा पा रही 
थी, जैसे वर्षाकालमें बिजलियोंसे मेघ प्रकाशित होता है || २८ ।। 

ततः कर्णसुतात्‌ त्रस्ता: सोमका विद्रदुद्रुव॒ुः । 

यथेन्द्रभयवित्रस्ता दानवास्तारकामये ।। २९ |। 

तदनन्तर कर्णपुत्र वृषसेनके भयसे त्रस्त हो सोमकवंशी क्षत्रिय उसी प्रकार भागने लगे, 
जैसे तारकामय संग्राममें इन्द्रके भयसे डरे हुए दानव भागे थे ।। 

तेना्यमाना: समरे द्रवमाणाश्षु सोमका: । 

व्यराजन्त महाराज प्रदीपैरवभासिता: ।। ३० ।। 

महाराज! समरभूमिमें वृषसेनसे पीड़ित होकर भागते हुए सोमक-योद्धा प्रदीपोंसे 
प्रकाशित हो बड़ी शोभा पा रहे थे || ३० ।। 

तांस्तु निर्जित्य समरे कर्णपुत्रो5प्यरोचत । 

मध्यंदिनमनुप्राप्तो घर्माशुरिव भारत ।। ३१ ।। 


भारत! युद्धस्थलमें उन सबको जीतकर कर्णपुत्र वृषसेन भी दोपहरके प्रचण्ड 
किरणोंवाले सूर्यके समान उद्धासित हो रहा था || ३१ ।। 

तेषु राजसहस्रेषु तावकेषु परेषु च । 

एक एव ज्वलंस्तस्थौ वृषसेन: प्रतापवान्‌ ।। ३२ ।। 

आपके और शत्रुपक्षेके सहस्नों राजाओंके बीच एकमात्र प्रतापी वृषसेन ही अपने 
तेजसे प्रकाशित होता हुआ रणभूमिमें खड़ा था ।। ३२ ।। 

स विजित्य रणे शूरान्‌ सोमकानां महारथान्‌ | 

जगाम त्वरितस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठटिर: ।। ३३ ।। 

वह युद्धके मैदानमें शूरवीर सोमक महारथियोंको परास्त करके तुरंत वहाँ चला गया, 
जहाँ राजा युधिष्छिर खड़े थे ।। ३३ ।। 

प्रतिविन्ध्यमथ क्रुद्ध॑ प्रदहन्तं रणे रिपून्‌ 

दुःशासनस्तव सुत:ः प्रत्यगच्छन्महारथ: ।। ३४ ।। 

दूसरी ओर क्रोधमें भरा हुआ प्रतिविन्ध्य रणक्षेत्रमें शत्रुओंकी दग्ध कर रहा था। उसका 
सामना करनेके लिये आपका महारथी पुत्र दुःशासन आ पहुँचा || ३४ ।। 

तयो: समागमो राजंश्रित्ररूपो बभूव ह । 

व्यपेतजलद व्योम्नि बुधभास्करयोरिव ।। ३५ ।। 

राजन! जैसे मेघरहित आकाशमें बुध और सूर्यका समागम हो, उसी प्रकार युद्धस्थलमें 
उन दोनोंका अद्भुत मिलन हुआ ।। ३५ |। 

प्रतिविन्ध्यं तु समरे कुर्वाणं कर्म दुष्करम्‌ । 

दुःशासनस्त्रिभिर्बाणैर्ललाटे समविध्यत ।। ३६ ।। 

समरांगणमें दुष्कर कर्म करनेवाले प्रतिविन्ध्यके ललाटमें दुःशासनने तीन बाण 
मारे || ३६ ।। 

सो5तिविद्धों बलवता तव पुत्रेण धन्विना । 

विरराज महाबाहु: सशृज्ञ इव पर्वतः ।। ३७ ।। 

आपके बलवान धनुर्धर पुत्रद्वारा चलाये हुए उन बाणोंसे अत्यन्त घायल हो महाबाहु 
प्रतिविन्ध्य तीन शिखरोंवाले पर्वतके समान सुशोभित हुआ ।। ३७ ।। 

दुःशासन तु समरे प्रतिविन्ध्यो महारथ: । 

नवश्ि: सायकैर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध सप्तभि: ।। ३८ ।। 

तत्पश्चात्‌ महारथी प्रतिविन्ध्यने समरभूमिमें दुःशासनको नौ बाणोंसे घायल करके फिर 
सात बाणोंसे बींध डाला || ३८ ।। 

तत्र भारत पुत्रस्ते कृतवान्‌ कर्म दुष्करम्‌ | 

प्रतिविन्ध्यहयानुग्रै: पातयामास सायकै: ।। ३९ ।। 


भारत! उस समय वहाँ आपके पुत्रने एक दुष्कर पराक्रम कर दिखाया। उसने अपने 
भयंकर बाणोंद्वारा प्रतिविन्ध्यके घोड़ोंको मार गिराया ।। ३९ |। 

सारथिं चास्य भल्लेन ध्वजं च समपातयत्‌ | 

रथं च तिलशो राजन्‌ व्यधमत्‌ तस्य धन्विन: ।। ४० ।। 

राजन्‌! फिर एक भल्‍ल्ल मारकर उसने धनुर्थर वीर प्रतिविन्ध्यके सारथि और ध्वजको 
धराशायी कर दिया तथा रथके भी तिलके समान टुकड़े-टुकड़े कर डाले ।। ४० ।। 

पताकाश्व सतूणीरा रश्मीन्‌ योक्‍त्राणि च प्रभो । 

चिच्छेद तिलश: क्रुद्ध: शरै: संनतपर्वभि: ।। ४१ ।। 

प्रभो! क्रोधमें भरे हुए दुःशासनने झुकी हुई गाँठवाले बाणोंसे प्रतिविन्ध्यकी पताकाओं, 
तरकसों, उनके घोड़ोंकी बागडोरों और रथके जोतोंको भी तिल-तिल करके काट 
डाला ।। ४१ || 

विरथ: स तु धर्मात्मा धनुष्पाणिरवस्थित: । 

अयोधयत्‌ तव सुतं किरञ्शरशतान्‌ बहून्‌ ।। ४२ ।। 

धर्मात्मा प्रतिविन्ध्य रथहीन हो जानेपर हाथमें धनुष लिये पृथ्वीपर खड़ा हो गया और 
सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करता हुआ आपके पुत्रके साथ युद्ध करने लगा ।। ४२ ।। 

क्षुरप्रेण धनुस्तस्य चिच्छेद तनयस्तव । 

अथैनं दशभिर्बाणैश्छिन्नधन्वानमार्दयत्‌ ।। ४३ ।। 

तब आपके पुत्रने एक क्षुरप्रसे प्रतिविन्ध्यका धनुष काट दिया और धनुष कट जानेपर 
उसे दस बाणोंसे गहरी चोट पहुँचायी ।। ४३ ।। 

त॑ दृष्टवा विरथं तत्र भ्रातरो5स्य महारथा: । 

अन्ववर्तन्त वेगेन महत्या सेनया सह ।। ४४ ।। 

उसे रथहीन हुआ देख उसके अन्य महारथी भाई विशाल सेनाके साथ बड़े वेगसे 
उसकी सहायताके लिये आ पहुँचे ।। ४४ ।। 

आप्लुत: स ततो यान॑ सुतसोमस्य भास्वरम्‌ | 

धनुर्गह्ा महाराज विव्याध तनयं तव ।। ४५ ।। 

महाराज! तब प्रतिविन्ध्य उछलकर सुतसोमके तेजस्वी रथपर जा बैठा और हाथमें 
धनुष लेकर आपके पुत्रको घायल करने लगा ।। ४५ ।। 

ततस्तु तावका: सर्वे परिवार्य सुतं तव । 

अभ्यवर्तन्त संग्रामे महत्या सेनया वृता: ।। ४६ ।। 

यह देख आपके सभी योद्धा आपके पुत्र दुःशासनको सब ओरसे घेरकर विशाल 
सेनाके साथ वहाँ युद्धके लिये डट गये ।। ४६ ।। 

ततः प्रववृते युद्ध तव तेषां च भारत । 

निशीथे दारुणे काले यमराष्ट्रविवर्धनम्‌ ।। ४७ ।। 


भारत! तदनन्तर उस भयंकर निशीथकालमें आपके पुत्र और द्रौपदीपुत्रोंका घोर युद्ध 
आरम्भ हुआ, जो यमराजके राज्यकी वृद्धि करनेवाला था ।। ४७ ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे 
शतानीकादियुद्धे5ष्टषष्ट्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६८ ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय शतानीक 
आदिका युद्धविषयक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १६८ ॥। 


अपना बछ। | अतड-४--क+ 


एकोनसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय: 


नकुलके द्वारा शकुनिकी पराजय तथा शिखण्डी और 
कृपाचार्यका घोर युद्ध 


संजय उवाच 

नकुलं॑ रभसं युद्धे निघ्नन्तं वाहिनीं तव । 

अभ्ययात्‌ सौबल: क्रुद्धस्तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। १ ।। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! वेगशाली नकुल युद्धमें आपकी सेनाका संहार कर रहे थे। 
उनका सामना करनेके लिये क्रोधमें भरा हुआ सुबलपुत्र शकुनि आया और बोला “अरे! 
खड़ा रह, खड़ा रह' ।। १ ।। 

कृतवैरौ तु तौ वीरावन्योन्यवधकाड्क्षिणौ । 

शरै: पूर्णायतोत्सूष्टैरन्योन्यमभिजष्नतु: ।। २ ।। 

उन दोनों वीरोंने पहलेसे ही आपसमें वैर बाँध रखा था, वे एक-दूसरेका वध करना 
चाहते थे; इसलिये पूर्णतः: कानतक खींचकर छोड़े हुए बाणोंसे वे एक-दूसरेको घायल करने 
लगे ।। २ ।। 

यथैव नकुलो राजन्‌ शरवर्षाण्यमुज्चत । 

तथैव सौबलश्चापि शिक्षां संदर्शयन्‌ युधि ।। ३ ।। 

राजन्‌! नकुल जैसे-जैसे बाणोंकी वर्षा करते, शकुनि भी वैसे-ही-वैसे युद्धविषयक 
शिक्षाका प्रदर्शन करता हुआ बाण छोड़ता था ।। ३ ।। 

तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा । 

व्यराजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव ।। ४ ।। 

महाराज! वे दोनों शूरवीर समरांगणमें बाणरूपी कंटकोंसे युक्त होकर काँटेदार 
शरीरवाले साहीके समान सुशोभित हो रहे थे ।। ४ ।। 

रुक्मपुड्खैरजिद्ाग्रै: शरैश्छिन्नतनुच्छदौ । 

रुधिरौघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृथे ।। ५ ।। 

तपनीयनिभौ चित्रौ कल्पवृक्षाविव द्रुमौ । 

किंशुकाविव चोत्फुल्लो प्रकाशेते रणाजिरे ।। ६ ।। 

सोनेके पंख और सीधे अग्रभागवाले बाणोंसे उन दोनोंके कवच छिन्न-भिन्न हो गये थे। 
दोनों ही उस महासमरमें खूनसे लथपथ हो सुवर्णके समान विचित्र कान्तिसे सुशोभित हो 
रहे थे। वे दो कल्पवृक्षों और खिले हुए दो ढाकके पेड़ोंके समान समरांगणमें प्रकाशित हो 
रहे थे || ५-६ ।। 


तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा । 

व्यराजेतां महाराज कण्टकैरिव शाल्मली ।। ७ ।। 

महाराज! जैसे काँटोंसे सेमरका वृक्ष सुशोभित होता है, उसी प्रकार वे दोनों शूरवीर 
समरभूमिमें बाणरूपी कंटकोंसे युक्त दिखायी देते थे |। ७ ।। 

सुजिह्दां प्रेक्षमाणी च राजन्‌ विवृतलोचनौ । 

क्रोधसंरक्तनयनौ निर्दहन्तौ परस्परम्‌ ।। ८ ।। 

राजन! वे अत्यन्त कुटिलभावसे परस्पर आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे और क्रोधसे 
लाल नेत्र करके एक-दूसरेको ऐसे देखते थे, मानो भस्म कर देंगे || ८ ।। 

श्यालस्तु तव संक्रुद्धो माद्रीपुत्रं हसन्निव । 

कर्णिनिकेन विव्याध हृदये निशितेन ह ।। ९ ।। 

तदनन्तर अत्यन्त क्रोधमें भरकर हँसते हुए-से आपके सालेने एक तीखे कर्णी नामक 
बाणसे माद्रीपुत्र नकुलकी छातीमें गहरा आघात किया ।। ९ ।। 

नकुलस्तु भृशं विद्ध: श्यालेन तव धन्विना । 

निषसाद रथोपस्थे कश्मलं चाविशन्महत्‌ ।। १० ।। 

आपके धनुर्धर सालेके द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए नकुल रथके पिछले भागमें बैठ 
गये और भारी मूर्च्छामें पड़ गये || १० ।। 

अत्यन्तवैरिणं दृप्तं दृष्टवा शत्रुं तथागतम्‌ । 

ननाद शकुनी राजंस्तपान्ते जलदो यथा ।। ११ ।। 

राजन! अपने अत्यन्त वैरी और अभिमानी शत्रुको वैसी अवस्थामें पड़ा देख शकुनि 
वर्षाकालके मेघके समान जोर-जोरसे गर्जना करने लगा ।। ११ ।। 

प्रतिलभ्य तत: संज्ञां नकुल: पाण्डुनन्दन: । 

अभ्ययात्‌ सौबल भूयो व्यात्तानन इवान्तक: ॥। १२ ।। 

इतनेमें ही पाण्डुनन्दन नकुल होशमें आकर मुँह बाये हुए यमराजके समान पुनः 
सुबलपुत्रका सामना करनेके लिये आगे बढ़े || १२ ।। 

संक्रुद्ध: शकुनिं षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ | 

पुनश्चैनं शतेनैव नाराचानां स्तनान्तरे ।। १३ ।। 

भरतश्रेष्ठ! इन्होंने कुपित होकर शकुनिको साठ बाणोंसे घायल कर दिया। फिर उसकी 
छातीमें इन्होंने सौ नाराच मारे || १३ ।। 

अथास्य सशरं चापं मुष्टिदेशेडच्छिनत्‌ तदा । 

ध्वजं च त्वरितं छित्त्वा रथाद्‌ भूमावपातयत्‌ ।। १४ ।। 

तत्पश्चात्‌ नकुलने शकुनिके बाणसहित धनुषको मुट्ठी पकड़नेकी जगहसे काट दिया 
और तुरंत ही उसकी ध्वजाको भी काटकर रथसे भूमिपर गिरा दिया ।। 

विशिखेन च तीक्ष्णेन पीतेन निशितेन च । 


ऊरू निर्भिद्य चैकेन नकुल: पाण्डुनन्दन: ।। १५ ।। 

श्येनं सपक्ष॑ व्याधेन पातयामास तं तदा । 

इसके बाद एक पानीदार पैने एवं तीखे बाणसे पाण्डुनन्दन नकुलने शकुनिकी दोनों 
जाँघोंको विदीर्ण करके व्याधद्वारा विद्ध हुए पंखयुक्त बाज पक्षीके समान उसे गिरा 
दिया ।। १५३ || 

सो5तिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।। १६ ।। 

ध्वजयष्टिं परिक्लिश्य कामुक: कामिनीं यथा । 

महाराज! उस बाणसे अत्यन्त घायल हुआ शकुनि, जैसे कामी पुरुष कामिनीका 
आलिंगन करता है, उसी प्रकार ध्वज-यष्टि (ध्वजाके डंडे)-को दोनों भुजाओंसे पकड़कर 
रथके पिछले भागमें बैठ गया || १६३ ।। 

त॑ विसंज्ञ निपतितं दृष्टवा श्यालं तवानघ ।। १७ ।। 

अपोवाह रथेनाशु सारथिध्व॑जिनीमुखात्‌ । 

निष्पाप नरेश! आपके सालेको बेहोश पड़ा देख सारथि रथके द्वारा शीघ्र ही उसे 
सेनाके आगेसे दूर हटा ले गया || १७३ ।। 

ततः संचुक्रुशुः पार्था ये च तेषां पदानुगा: ।। १८ ।। 

निर्जित्य च रणे शत्रुं नकुल: शत्रुतापन: । 

अब्रवीत्‌ सारथिं क्रुद्धों द्रोणानीकाय मां वह ।। १९ ।। 

फिर तो कुन्तीके पुत्र और उनके सेवक बड़े जोरसे सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार 
रणभूमिमें शत्रुको परास्त करके क्रोधमें भरे हुए शत्रुसंतापी नकुलने अपने सारथिसे कहा 
--'सूत! मुझे द्रोणाचार्यकी सेनाके पास ले चलो” ।। १८-१९ ।। 

तस्य तद्‌ू वचन श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्थ सारथि: । 

प्रायात्‌ तेन तदा राजन्‌ यत्र द्रोणो व्यवस्थित: ।॥ २० ।। 

राजन! माद्रीकुमारका वह वचन सुनकर सारथि उस रथके द्वारा जहाँ द्रोणाचार्य खड़े 
थे, वहाँ तत्काल जा पहुँचा || २० ।। 

शिखण्डिनं तु समरे द्रोणप्रेप्सुं विशाम्पते । 

कृप: शारद्वतो यत्त: प्रत्यगच्छत्‌ सवेगित: ।। २१ ।। 

प्रजानाथ! द्रोणाचार्यके साथ युद्धकी इच्छावाले शिखण्डीका समरभूमिमें सामना 
करनेके लिये प्रयत्नशील हो शरद्वानके पुत्र कृपाचार्य बड़े वेगसे आगे बढ़े || २१ ।। 

गौतमं द्रुतमायान्तं द्रोणानीकमरिंदमम्‌ । 

विव्याध नवभिर्भल्लै: शिखण्डी प्रहसन्निव || २२ ।। 

शत्रुओंको दमन करनेवाले, द्रोणरक्षक, गौतमगोत्रीय कृपाचार्यको शीघ्रतापूर्वक आते 
देख हँसते हुए-से शिखण्डीने उन्हें नौ भल्लोंसे बींध डाला || २२ ।। 

तमाचार्यों महाराज विद्ध्वा पठ्चभिराशुगै: । 


पुनर्विव्याध विंशत्या पुत्राणां प्रियकृत्‌ तव ।। २३ ।। 

महाराज! तब आपके पुत्रोंका प्रिय करनेवाले कृपाचार्यने शिखण्डीको पाँच बाणोंसे 
बींधकर फिर बीस बाणोंसे घायल कर दिया ।। २३ ।। 

महद्‌ युद्ध तयोरासीद्‌ घोररूपं भयानकम्‌ । 

यथा देवासुरे युद्धे शम्बरामरराजयो: ।। २४ ।। 

पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके अवसरपर शम्बरासुर और इन्द्रमें जैसा युद्ध हुआ था, वैसा 
ही घोर भयानक एवं महान्‌ युद्ध उन दोनोंमें भी हुआ ।। २४ ।। 

शरजालावृतं व्योम चक्रतुस्ती महारथौ । 

मेघाविव तपापाये वीरौ समरदुर्मदौ ।। २५ ।। 

उन दोनों रणदुर्मद वीर महारथियोंने वर्षाकालके दो मेघोंके समान आकाशको 
बाणसमूहोंसे व्याप्त कर दिया ।। 

प्रकृत्या घोररूपं तदासीद्‌ घोरतरं पुन: । 

रात्रिश्व भरतश्रेष्ठ योधानां युद्शशालिनाम्‌ ।। २६ ।। 

कालरात्रिनिभा हासीद्‌ घोररूपा भयानका । 

भरतश्रेष्ठ) स्वभावसे ही भयंकर दिखायी देनेवाला आकाश उस समय और भी घोरतर 
हो उठा। युद्धभूमिमें शोभा पानेवाले योद्धाओंके लिये वह घोर एवं भयानक रात्रि 
कालरात्रिके समान प्रतीत होती थी || २६३ ।। 

शिखण्डी तु महाराज गौतमस्य महद्‌ धनु: ।॥ २७ ।। 

अर्धचन्द्रेण चिच्छेद सज्यं सविशिखं तदा । 

महाराज! शिखण्डीने उस समय अर्धचन्द्राकार बाण मारकर प्रत्यंचा और बाणसहित 
कृपाचार्यके विशाल धनुषको काट दिया ।। २७३ ।। 

तस्य क्रुद्ध: कृपो राजन्‌ शक्ति चिक्षेप दारुणाम्‌ || २८ ।। 

स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां कर्मारपरिमार्जिताम्‌ । 

राजन्‌! तब कृपाचार्यने कुपित होकर सोनेके दण्ड और अप्रतिहत धारवाली तथा 
कारीगरके द्वारा साफ की हुई एक भयंकर शक्ति उसके ऊपर चलायी ।। २८६ ।। 

तामापतन्तीं चिच्छेद शिखण्डी बहुभि: शरै: ।। २९ ।। 

सा5पतन्मेदिनीं दीप्ता भासयन्ती महाप्रभा | 

अपने ऊपर आती हुई उस शक्तिको शिखण्डीने बहुत-से बाण मारकर काट दिया। वह 
अत्यन्त कान्तिमती एवं प्रकाशमान शक्ति खण्डित हो सब ओर प्रकाश बिखेरती हुई 
पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। २९६ ।। 

अथान्यद्‌ धनुरादाय गौतमो रथिनां वर: ।। ३० ।। 

प्राच्छादयच्छितैर्बाणैमहाराज शिखण्डिनम्‌ । 


महाराज! तब रथियोंमें श्रेष्ठ कृपाचार्यने दूसरा धनुष हाथमें लेकर पैने बाणोंद्वारा 
शिखण्डीको ढक दिया ।। 

स च्छाद्यमान: समरे गौतमेन यशस्विना ।। ३१ ।। 

न्यषीदत रथोपस्थे शिखण्डी रथिनां वर: । 

समरभूमिमें यशस्वी कृपाचार्यद्वारा बाणोंसे आच्छादित किया जाता हुआ रथियोंमें श्रेष्ठ 
शिखण्डी रथके पिछले भागमें शिथिल होकर बैठ गया ।। ३१६ ।। 

सीदन्तं चैनमालोक्य कृप: शारद्वतो युधि ।। ३२ ।। 

आजलेने बहुभिर्बाणर्जिघांसन्निव भारत । 

भरतनन्दन! युद्धस्थलमें शिखण्डीको शिथिल हुआ देख शरद्वानके पुत्र कृपाचार्यने 
उसपर बहुत-से बाणोंका प्रहार किया, मानो वे उसे मार डालना चाहते हों ।। ३२६ ।। 

विमुखं तु रणे दृष्टवा याज्ञसेनिं महारथम्‌ ।। ३३ ।। 

पज्चाला: सोमकाश्वैव परिवद्रु: समनन्‍्तत: । 

राजा द्रुपदके उस महारथी पुत्रको युद्धविमुख हुआ देख पांचालों और सोमकोंने उसे 
चारों ओरसे घेरकर अपने बीचमें कर लिया ।। ३३ $ || 

तथैव तव पुत्राश्न परिवद्र॒ुर्द्धिजोत्तमम्‌ ।। ३४ ।। 

महत्या सेनया सार्ध ततो युद्धमवर्तत । 

इसी प्रकार आपके पुत्रोंने भी विशाल सेनाके साथ आकर द्विजश्रेष्ठ कृपाचार्यको अपने 
बीचमें कर लिया। फिर दोनों दलोंमें घोर युद्ध होने लगा ।। ३४ ३ ।। 

रथानां च रणे राजन्नन्योन्यमभिधावताम्‌ ।। ३५ || 

बभूव तुमुल: शब्दो मेघानां गर्जतामिव । 

राजन! रणभूमिमें परस्पर धावा करनेवाले रथोंकी घर्घराहटका भयंकर शब्द मेघोंकी 
गर्जनाके समान जान पड़ता था ।। ३५३ ।। 

द्रवतां सादिनां चैव गजानां च विशाम्पते ।। ३६ ।। 

अन्योन्यमभितो राजन्‌ क्रूरमायोधनं बभौ । 

प्रजापालक नरेश! चारों ओर एक-दूसरेपर आक्रमण करनेवाले घुड़सवारों और 
हाथीसवारोंके संघर्षसे वह रणभूमि अत्यन्त दारुण प्रतीत होने लगी || ३६३ ।। 

पत्तीनां द्रवतां चैव पादशब्देन मेदिनी ।। ३७ ।। 

अकम्पत महाराज भयत्रस्तेव चाड़ना | 

महाराज! दौड़ते हुए पैदल सैनिकोंके पैरोंकी धमकसे यह पृथ्वी भयभीत अबलाके 
समान काँपने लगी || ३७३६ ।। 

रथिनो रथमारुहा प्रद्रुता वेगवत्तरम्‌ ।। ३८ ।। 

अगृह्नन्‌ बहवो राजन्‌ शलभान्‌ वायसा इव | 


राजन! जैसे कौए दौड़-दौड़कर टिड्डियोंको पकड़ते हैं, उसी प्रकार रथपर बैठकर बड़े 
वेगसे धावा करनेवाले बहुसंख्यक रथी शत्रुपक्षके सैनिकोंको दबोच लेते थे || ३८३ ।। 

तथा गजानू प्रभिन्नांश्व॒ सम्प्रभिन्ना महागजा: ।। ३९ ।। 

तस्मिन्नेव पदे यत्ता निगृह्नन्ति सम भारत । 

भरतनन्दन! मदस्रावी विशाल हाथी मदकी धारा बहानेवाले दूसरे गजराजोंसे सहसा 
भिड़कर एक-दूसरेको यत्नपूर्वक काबूमें कर लेते थे || ३९६ ।। 

सादी सादिनमासाद्य पत्तयश्न पदातिनम्‌ ।॥। ४० ।। 

समासाद्य रणेडन्योन्यं संरब्धा नातिचक्रमु: । 

रणभूमिमें घुड़सवार घुड़सवारोंसे और पैदल पैदलोंसे भिड़कर परस्पर कुपित होते हुए 
भी एक-दूसरेको लाँधघकर आगे नहीं बढ़ पाते थे || ४० ३ ।। 

धावतां द्रवतां चैव पुनरावर्ततामपि ।। ४१ ।। 

बभूव तत्र सैन्यानां शब्द: सुविपुलो निशि । 

उस रात्रिके समय दौड़ते, भागते और पुनः लौटते हुए सैनिकोंका महान्‌ कोलाहल 
सुनायी पड़ता था || ४१३ ।। 

दीप्यमाना: प्रदीपाश्च॒ रथवारणवाजिषु ।। ४२ ।। 

अदृश्यन्त महाराज महोल्का इव खाच्च्युता: । 

महाराज! रथों, हाथियों और घोड़ोंपर चलती हुई मशालें आकाशसे गिरी हुई बड़ी-बड़ी 
उल्काओंके समान दिखायी देती थीं || ४२ $ ।। 

सा निशा भरतश्रेष्ठ प्रदीपेरवभासिता ।। ४३ ।। 

दिवसप्रतिमा राजन्‌ बभूव रणमूर्थनि । 

भरतभूषण नरेश! प्रदीपोंसे प्रकाशित हुई वह रात्रि युद्धके मुहानेपर दिनके समान हो 
गयी थी || ४३६ || 

आदित्येन यथा व्याप्तं तमो लोके प्रणश्यति ।। ४४ ।। 

तथा नष्ट तमो घोरें दीपैर्दीप्तैरितस्ततः । 

जैसे सूर्यके प्रकाशसे सम्पूर्ण जगत्‌में फैला हुआ अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी 
प्रकार इधर-उधर जलती हुई मशालोंसे वहाँका भयानक अँधेरा नष्ट हो गया था || ४४३ ।। 

द्यौश्वैव पृथिवी चापि दिशश्व प्रदिशस्तथा ।। ४५ ।। 

रजसा तमसा व्याप्ता द्योतिता: प्रभया पुन: । 

धूल और अन्धकारसे व्याप्त आकाश, पृथ्वी, दिशा और विदिशाएँ प्रदीपोंकी प्रभासे 
पुनः प्रकाशित हो उठी थीं ।। ४५६ ।। 

अस्त्राणां कवचानां च मणीनां च महात्मनाम्‌ || ४६ ।। 

अन्तर्दधु: प्रभा: सर्वा दीपैस्तैरव भासिता: । 


महामनस्वी योद्धाओंके अस्त्रों, कवचों और मणियोंकी सारी प्रभा उन प्रदीपोंके 
प्रकाशसे तिरोहित हो गयी थी ।। 

तस्मिन्‌ कोलाहले युद्धे वर्तमाने निशामुखे ।। ४७ ।। 

न किंचिद्‌ विदुरात्मानमयमस्मीति भारत । 

भारत! उस रात्रिके समय जब वह भयंकर कोलाहलपूर्ण संग्राम चल रहा था, तब 
योद्धाओंको कुछ भी पता नहीं चलता था। वे अपने-आपके विषयमें भी यह नहीं जान पाते 
थेकि “मैं अमुक हूँ || ४७३ ।। 

अवधीत्‌ समरे पुत्र पिता भरतसत्तम || ४८ ।। 

पुत्रश्न पितरं मोहातू सखायं च सखा तथा । 

स्वस्त्रीयं मातुलश्चापि स्वस्रीयश्चापि मातुलम्‌ ।। ४९ ।। 

भरतश्रेष्ठ] उस समरांगणमें मोहवश पिताने पुत्रका वध कर डाला और पुत्रने पिताका। 
मित्रने मित्रके प्राण ले लिये। मामाने भानजेको मार डाला और भानजेने मामाको ।। 

स्वे स्वान्‌ परे परांश्ञापि निजघ्नुरितरेतरम्‌ । 

निर्मर्यादम भूद्‌ युद्ध रात्री भीरुभयानकम्‌ ।॥। ५० ।। 

अपने पक्षके योद्धा अपने ही सैनिकोंपर तथा शत्रुपक्षेके सैनिक भी अपने ही 
योद्धाओंपर परस्पर घातक प्रहार करने लगे। इस प्रकार रात्रिमें वह युद्ध मर्यादारहित होकर 
कायरोंके लिये अत्यन्त भयानक हो उठा || ५० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे 
एकोनसप्तत्यधिकशततमो< ध्याय: ।। १६९ || 
इस प्रकार श्रीमह्याभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें रात्रियुद्धके समय 
संकुलयुद्धविषयक एक सौ उनहठत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १६९ ॥/ 


नस ह्य ४-3 


सप्तत्याधेकशततमो< ध्याय: 


धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्यका युद्ध, धृष्टदय्युम्नद्वारा द्रमसेनका 
वध, सात्यकि और कर्णका युद्ध, कर्णकी दुर्योधनको 
सलाह तथा शकुनिका पाण्डव-सेनापर आक्रमण 


संजय उवाच 

तस्मिन्‌ सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयावहे । 

धृष्टद्युम्नो महाराज द्रोणमेवाभ्यवर्तत ।। १ ॥। 

संजय कहते हैं--महाराज! जिस समय वह भयंकर घमासान युद्ध चल रहा था, उसी 
समय धृष्टट्युम्नने द्रोणाचार्यपर चढ़ाई की ।। १ ।। 

संदधानो धनुःश्रेष्ठ ज्यां विकर्षन्‌ पुनः पुनः । 

अभ्यद्रवत द्रोणस्य रथं रुक्मविभूषितम्‌ ।। २ ।। 

उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनुषपर बाणोंका संधान करके बारंबार उसकी प्रत्यंचा खींचते हुए 
द्रोणाचार्यके स्वर्णभूषित रथपर आक्रमण किया ।। २ ।। 

धृष्टद्युम्नम थायान्तं द्रोणस्थान्तचिकीर्षया । 

परिवत्रुर्महाराज पञ्चाला: पाण्डवै: सह ।। ३ ।। 

महाराज! द्रोणाचार्यका अन्त करनेकी इच्छासे आते हुए धृष्टद्युम्नको पाण्डवोंसहित 
पांचालोंने घेरकर अपने बीचमें कर लिया ।। ३ ।। 

तथा परिवृतं दृष्टवा द्रोणमाचार्यसत्तमम्‌ | 

पुत्रास्ते सर्वतो यत्ता ररक्षुद्रोणमाहवे ।। ४ ।। 

धृष्टद्युम्मको इस प्रकार रक्षकोंसे घिरा हुआ देख आपके पुत्र भी सावधान हो 
युद्धस्थलमें सब ओरसे आचार्यप्रवर टद्रोणकी रक्षा करने लगे ।। ४ ।। 

बलार्णवी ततस्तौ तु समेयातां निशामुखे । 

वातोद्धूतौ क्षुब्धसत्त्वी भैरवी सागराविव ।। ५ ।। 

जैसे वायुके वेगसे उद्वेलित तथा विक्षुब्ध जल-जन्तुओंसे भरे हुए दो भयंकर समुद्र 
एक-दूसरेसे मिल रहे हों, उसी प्रकार उस रात्रिके समय वे सागर-सदृश दोनों सेनाएँ एक- 
दूसरेसे भिड़ गयीं ।। ५ ।। 

ततो द्रोणं महाराज पाञज्चाल्य: पठ्चभि: शरै: । 

विव्याध हृदये तूर्ण सिंहनादं ननाद च ।। ६ ।। 

महाराज! उस समय धृष्टद्युम्नने द्रोणाचार्यकी छातीमें तुरंत ही पाँच बाण मारे और 
सिंहके समान गर्जना की ।। ६ ।। 


त॑ द्रोणग: पञ्चविंशत्या विद्ध्वा भारत संयुगे । 

चिच्छेदान्येन भल्लेन धनुरस्य महास्वनम्‌ ।। ७ ।। 

भरतनन्दन! तब द्रोणाचार्यने युद्धस्थलमें धृष्टद्युम्मको पचीस बाणोंसे घायल करके 
एक-दूसरे भल्लके द्वारा उनके घोर टंकार करनेवाले धनुषको काट दिया ।। ७ ।। 

धष्टय्युम्नस्तु निर्विद्धो द्रोणेन भरतर्षभ । 

उत्ससर्ज धनुस्तूर्ण संदश्य दशनच्छदम्‌ ।। ८ ।। 

भरतश्रेष्ठ! द्रोणाचार्यके द्वारा घायल किये हुए धृष्टद्युम्नने रोषपूर्वक अपने ओठको 
दाँतोंसे दबा लिया और उस टूटे हुए धनुषको तुरंत फेंक दिया ।। ८ ।। 

ततः क्रुद्धो महाराज धृष्टद्युम्न: प्रतापवान्‌ | 

आददे>न्यद्‌ धनुःश्रेष्ठ द्रोणस्पान्तचिकीर्षया ।। ९ ।। 

महाराज! तदनन्तर क्रोधसे भरे हुए प्रतापी धृष्टद्युम्नने द्रोणाचार्यका विनाश करनेकी 
इच्छासे दूसरा श्रेष्ठ धनुष हाथमें ले लिया ।। ९ ।। 

विकृष्य च धनुश्चित्रमाकर्णात्‌ परवीरहा । 

द्रोणस्यान्तकरं घोरं व्यसूजत्‌ सायकं ततः ।। १० ।। 

फिर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले उस पांचाल वीरने उस विचित्र धनुषको कानोंतक 
खींचकर उसके द्वारा द्रोणाचार्यका अन्त करनेमें समर्थ एक भयंकर बाण छोड़ा ।। १० ।। 

स विसृष्टो बलवता शरो घोरो महामृथे । 

भासयामास तत्‌ सैन्यं दिवाकर इवोदित: ।। ११ ।। 

उस महासमरमें बलवान्‌ वीरके द्वारा छोड़ा हुआ वह घोर बाण उदित हुए सूर्यके समान 
उस सेनाको प्रकाशित करने लगा ।। ११ ।। 

तं तु दृष्टवा शरं घोरं देवगन्धर्वमानवा: । 

स्वस्त्यस्तु समरे राजन द्रोणायेत्यब्रुवन्‌ वच: ।। १२ ।। 

राजन! समरभूमिमें उस भयंकर बाणको देखकर देवता, गन्धर्व और मनुष्य सभी 
कहने लगे कि “द्रोणाचार्यका कल्याण हो” ।। १२ ।। 

त॑ तु सायकमायान्तमाचार्यस्य रथं प्रति । 

कर्णो द्वादशधा राजंश्रिच्छेद कृतहस्तवत्‌ ।। १३ ।। 

नरेश्वर! आचार्यके रथकी ओर आते हुए उस बाणके कर्णने सिद्धहस्त योद्धाकी भाँति 
बारह टुकड़े कर डाले ।। १३ ।। 

स च्छिन्नो बहुधा राजन्‌ सूतपुत्रेण धन्विना । 

निपपात शरस्तूर्ण निर्विषो भुजगो यथा ।। १४ ।। 

राजन! धनुर्धर सूतपुत्रके द्वारा अनेक टुकड़ोंमें कटा हुआ वह बाण विषहीन भुजंगके 
समान तुरंत पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। १४ ।। 

धृष्टद्युम्नं ततः कर्णो विव्याध दशभि: शरै: | 


पज्चभिद्रॉणपुत्रस्तु स्वयं द्रोणस्तु सप्तभि: ।। १५ ।। 

तदनन्तर धृष्टद्युम्मनको कर्णने दस, अभश्वत्थामाने पाँच और स्वयं द्रोणने सात बाण 
मारे || १५ |। 

शल्यश्न दशभिबणिस्त्रिभिर्द:शासनस्तथा । 

दुर्योधनस्तु विंशत्या शकुनिश्चापि पठचभि: ।। १६ ।। 

फिर शल्यने दस, दुःशासनने तीन, दुर्योधनने बीस और शकुनिने पाँच बाणोंसे उन्हें 
घायल कर दिया ।। १६ ।। 

पाज्चाल्यं त्वरयाविध्यन्‌ सर्व एव महारथा: । 

स विद्ध: सप्तभिवर्वरिद्रोणस्यार्थे महाहवे ।। १७ ।। 

सर्वानसम्भ्रमाद्‌ राजन प्रत्यविद्धयत्‌ त्रिभिस्त्रिभि: । 

द्रोणं द्रौ्णिं च कर्ण च विव्याध च तवात्मजम्‌ ।। १८ ।। 

राजन्‌! इस प्रकार सभी महारथियोंने बड़ी उतावलीके साथ पांचालराजकुमारपर 
अपने-अपने बाणोंका प्रहार किया। उस महासमरमें द्रोणाचार्यकी रक्षाके लिये सात 
वीरोंद्वारा घायल किये जानेपर भी धूृष्टद्युम्नने बिना किसी घबराहटके उन सबको तीन-तीन 
बाणोंसे बींध डाला। फिर द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण तथा आपके पुत्र दुर्योधनको भी 
घायल कर दिया ।। १७-१८ ।। 

ते भिन्ना धन्विना तेन धृष्टट्युम्नं पुनर्मधे । 

विव्यधु: पञ्चभिस्तूर्णमेकैको रथिनां वर: ।। १९ ।। 

उन थधनुर्धर वीर धृष्टद्युम्नके बाणोंसे क्षत-विक्षत हो उन सभी योद्धाओंने युद्धस्थलमें 
पुनः उन्हें पाँच-पाँच बाणोंसे शीघ्र ही बींध डाला। प्रत्येक महारथीने उनपर प्रहार किया 
था || १९ || 

ट्रुमसेनस्तु संक्रुद्धो राजन विव्याध पत्रिणा । 

त्रिभिक्षान्यै:शरैस्तूर्ण तिष्ठ तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। २० ।। 

राजन्‌! उस समय द्रुमसेनने अत्यन्त कुपित होकर एक बाणसे धृष्टद्युम्नको बींध डाला। 
फिर तुरंत ही अन्य तीन बाणोंसे उन्हें घायल करके कहा--'अरे! खड़ा रह, खड़ा 
रह” || २० ।। 

सतुतंप्रतिविव्याध त्रिभिस्तीक्ष्णैरजिद्ागै: । 

स्वर्णपुड्खै: शिलाधौतै: प्राणान्तकरणैर्युधि | २१ ।। 

तब धृष्टद्युम्नने रणभूमिमें सोनेके पंखवाले, शिलापर स्वच्छ किये हुए, तीन तीखे एवं 
प्राणान्तकारी बाणोंद्वारा द्रमसेनको घायल कर दिया ।। २१ ।। 

भल्‍्लेनान्येन तु पुनः सुवर्णोज्ज्वलकुण्डलम्‌ । 

निचकर्त शिर: कायाद्‌ ट्रुमसेनस्थ वीर्यवान्‌ ।। २२ ।। 


फिर दूसरे भल्लद्वारा उन पराक्रमी वीरने द्रुमसेनके सुवर्णनिर्मित कान्तिमान्‌ 
कुण्डलोंद्वारा मण्डित मस्तकको धड़से काट गिराया ।। २२ |। 

तच्छिरो न्‍्यपतद्‌ भूमौ संदष्टौष्ठपुर्ट रणे । 

महावातसमुद्धूतं पकक्‍वं तालफलं यथा ।। २३ ।। 

रणभूमिमें उस मस्तकने अपने ओठको दाँतोंसे दबा रखा था। वह आँधीके द्वारा गिराये 
हुए पके ताल-फलके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। २३ ।। 

तान्‌ स विद्ध्वा पुनर्योधान्‌ वीर: सुनिशितै: शरैः । 

राधेयस्याच्छिनद्‌ भल्लै: कार्मुकं चित्रयोधिन: || २४ ।। 

तत्पश्चात्‌ वीर धृष्टद्युम्नने अत्यन्त तीखे बाणोंद्वारा उन सभी योद्धाओंको पुनः घायल 
करके विचित्र युद्ध करनेवाले राधापुत्र कर्णके धनुषको भल्लोंसे काट डाला ।। 

न तु तन्ममृषे कर्णो धनुषश्छेदनं तथा । 

निकर्तनमिवात्युग्रं लाड्गूलस्य महाहरि: || २५ ।। 

जैसे सिंहकी पूँछ काट लेना अत्यन्त भयंकर कर्म है, उसे कोई महान्‌ सिंह नहीं सह 
सकता, उसी प्रकार कर्ण अपने धनुषका काटा जाना सहन न कर सका || २५ |। 

सोअन्यद्‌ धनु: समादाय क्रोधरक्तेक्षण:श्वसन्‌ । 

अभ्यद्रवच्छरौचैस्तं धृष्टद्युम्नं महाबलम्‌ ।। २६ ।। 

क्रोधसे उसकी आँखें लाल हो रही थीं। वह दूसरा धनुष हाथमें लेकर लंबी साँस 
खींचता हुआ महाबली धृष्टद्युम्मकी ओर दौड़ा और उनपर बाण-समूहोंकी वर्षा करने 
लगा ।। २६ |। 

दृष्टवा कर्ण तु संरब्धं ते वीरा: षड़थर्षभा: । 

पाज्चाल्यपुत्र त्वरिता: परिवत्रुर्जिघांसया ।। २७ ।। 

कर्णको क्रोधमें भरा हुआ देख उन छहों- श्रेष्ठ रथी वीरोंने पांचालराजकुमार 
धृष्टद्युम्नको मार डालनेकी इच्छासे तुरंत ही घेर लिया ।। २७ ।। 

षण्णां योधप्रवीराणां तावकानां पुरस्कृतम्‌ | 

मृत्योरास्यमनुप्राप्तं धृष्टद्युम्नममंस्महि || २८ ।। 

आपकी सेनाके इन छ: प्रमुख वीर योद्धाओंके सामने खड़े हुए धृष्टद्युम्मको हमलोग 
मृत्युके मुखमें पड़ा हुआ ही मानने लगे ।। २८ ।। 

एतस्मिन्नेव काले तु दाशाहों विकिरन्‌ शरान्‌ । 

धृष्टय्युम्नं पराक्रान्तं सात्यकि: प्रत्यपद्यत ।। २९ ।। 

इसी समय दशा्हकुलभूषण सात्यकि बाणोंकी वर्षा करते हुए वहाँ पराक्रमी धृष्टद्युम्नके 
पास आ पहुँचे ।। २९ ।। 

तमायान्तं महेष्वासं सात्यकिं युद्धदुर्मदम्‌ । 

राधेयो दशभिर्बाणै: प्रत्यविध्यदजिद्वागैः ।। ३० ।। 


वहाँ आते हुए महाधनुर्धर युद्धदुर्मद सात्यकिको राधापुत्र कर्णने सीधे जानेवाले दस 
बाणोंसे बींध डाला ।। 

त॑ सात्यकिर्महाराज विव्याध दशभि: शरै: | 

पश्यतां सर्ववीराणां मा गास्तिछेति चाब्रवीत्‌ ।। ३१ ।। 

महाराज! तब सात्यकिने भी समस्त वीरोंके देखते-देखते कर्णको दस बाणोंसे घायल 
कर दिया और कहा--'खड़े रहो, भाग न जाना” ।। ३१ ।। 

स सात्यकेस्तु बलिन: कर्णस्य च महात्मन: । 

आसीत्‌ समागमो राजन्‌ बलिवासवयोरिव ।। ३२ |। 

राजन्‌! उस समय बलवान्‌ सात्यकि और महामनस्वी कर्णका वह संग्राम राजा बलि 
और इन्द्रके युद्ध-सा प्रतीत होता था ।। ३२ ।। 

त्रासयन्‌ रथघोषेण क्षत्रियान क्षत्रियर्षभ: । 

राजीवलोचनं कर्ण सात्यकि: प्रत्यविध्यत ।। ३३ ।। 

अपने रथकी घर्घराहटसे क्षत्रियोंकों भयभीत करते हुए क्षत्रियशिरोमणि सात्यकिने 
कमललोचन कर्णको अच्छी तरह घायल कर दिया ।। ३३ ।। 

कम्पयन्निव घोषेण धनुषो वसुधां बली । 

सूतपुत्रो महाराज सात्यकिं प्रत्ययोधयत्‌ ।। ३४ ।॥ 

महाराज! बलवान सूतपुत्र कर्ण भी अपने धनुषकी टंकारसे पृथ्वीको कम्पित करता 
हुआ-सा सात्यकिके साथ युद्ध करने लगा ।। ३४ ।। 

विपाठकर्णिनाराचैरवत्सदन्तै: क्षुरैरपपि । 

कर्ण: शरशतैश्नापि शैनेयं प्रत्यविध्यत ।। ३५ ।। 

कर्णने शिनिषौत्र सात्यकिको विपाठ, कर्णी, नाराच, वत्सदन्त, क्षुर तथा सैकड़ों 
बाणोंसे क्षत-विक्षत कर दिया ।। 

तथैव युद्ध्यमानो5पि वृष्णीनां प्रवरो युधि । 

अभ्यवर्षच्छरै: कर्ण तद्‌ युद्धमभवत्‌ समम्‌ ।। ३६ ।। 

इसी प्रकार रणभूमिमें वृष्णिवंशके श्रेष्ठ वीर सात्यकि भी युद्ध-तत्पर हो कर्णपर 
बाणोंकी वर्षा करने लगे। उन दोनोंका वह युद्ध समानरूपसे चलने लगा ।। 

तावकाश्न महाराज कर्णपुत्रश्न दंशित: । 

सात्यकिं विव्यधुस्तूर्ण समन्तान्निशितै: शरै: ॥। ३७ ।। 

महाराज! आपके अन्य योद्धा तथा कर्णका पुत्र कवचधारी वृषसेन--ये सब-के-सब 
चारों ओरसे तीखे बाणोंद्वारा सात्यकिको बींधने लगे ।। ३७ ।। 

अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य तेषां कर्णस्य वा विभो । 

अविद्ध्यत्‌ सात्यकि: क्रुद्धो वृषसेनं स्तनान्तरे ॥। ३८ ।। 


प्रभो! इससे कुपित हुए सात्यकिने उन सब योद्धाओं तथा कर्णके अस्त्रोंका अस्त्रोंद्वारा 
निवारण करके वृषसेनकी छातीमें गहरी चोट पहुँचायी ।। ३८ ।। 

तेन बाणेन निर्विद्धो वृषसेनो विशाम्पते । 

न्यपतत्‌ स रथे मूढो धनुरुत्सृज्य वीर्यवान्‌ ।। ३९ ।। 

प्रजानाथ! सात्यकिके बाणसे घायल हो बलवान वृषसेन धनुष छोड़कर मूर्च्छित हो 
रथपर गिर पड़ा ।| ३९ |। 

ततः कर्णो हतं मत्वा वृषसेनं महारथम्‌ । 

पुत्रशोकाभिसंतप्त: सात्यकिं प्रत्यपीडयत्‌ ।। ४० ।। 

तब महारथी वृषसेनको मारा गया मानकर कर्ण पुत्रशोकसे संतप्त हो सात्यकिको 
पीड़ा देने लगा || ४० ।। 

पीड्यमानस्तु कर्णेन युयुधानो महारथ: । 

विव्याध बहुभि: कर्ण त्वरमाण: पुन: पुन: ।। ४१ ।। 

कर्णसे पीड़ित होते हुए महारथी युयुधान बड़ी उतावलीके साथ कर्णको अपने 
बहुसंख्यक बाणोंद्वारा बारंबार बींधने लगे || ४१ ।। 

स कर्ण दशभिर्विद्ध्वा वृषसेनं च सप्तभि: । 

स हस्तावापधनुषी तयोश्रिच्छेद सात्वत: || ४२ ।। 

सात्वतवंशी सात्यकिने कर्णको दस और वृषसेनको सात बाणोंसे घायल करके उन 
दोनोंके दस्ताने और धनुष काट दिये || ४२ ।। 

तावन्ये धनुषी सज्ये कृत्वा शत्रुभयंकरे । 

युयुधानमविध्येतां समन्तान्निशितै: शरै: ।। ४३ ।। 

तब उन दोनोंने दूसरे शत्रु-भयंकर धनुषोंपर प्रत्यंचा चढ़्ाकर सब ओरसे तीखे 
बाणोंद्वारा युयुधानको बींधना आरम्भ किया ।। ४३ ।। 

वर्तमाने तु संग्रामे तस्मिन्‌ वीरवरक्षये । 

अतीव शुश्रुवे राजन्‌ गाण्डीवस्य महास्वन: ।। ४४ ।। 

राजन! जब बड़े-बड़े वीरोंका विनाश करनेवाला वह संग्राम चल रहा था, उसी समय 
वहाँ गाण्डीव धनुषकी गम्भीर टंकार-ध्वनि बड़े जोर-जोरसे सुनायी देने लगी ।। 

श्र॒त्वा तु रथनिर्घोषं गाण्डीवस्य च नि:स्वनम्‌ । 

सूतपुत्रो5ब्रवीद्‌ राजन्‌ दुर्योधनमिदं वच: ।। ४५ ।। 

नरेश्वर! अर्जुनके रथका गम्भीर घोष और गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनकर सूतपुत्र 
कर्णने दुर्योधनसे इस प्रकार कहा-- ।। ४५ ।। 

एष सर्वा चमूं हत्वा मुख्यांश्वैव नरर्षभान्‌ । 

पौरवांश्व महेष्वासो विक्षिपन्नुत्तमं धनु: ।। ४६ ।। 

पार्थो विजयते तत्र गाण्डीवनिनदो महान्‌ । 


श्रूयते रथघोषश्न वासवस्येव नर्दत: ।। ४७ ।। 

“राजन! ये महाधनुर्धर कुन्तीकुमार अर्जुन हमारी सारी सेनाका संहार और मुख्य-मुख्य 
कुरुवंशी श्रेष्ठ पुरुषोंका वध करके अपने उत्तम धनुषकी टंकार करते हुए विजयी हो रहे हैं। 
उधर गाण्डीव धनुषका महान्‌ घोष तथा गरजते हुए मेघके समान पार्थके रथकी घोर 
घर्घराहट सुनायी दे रही है ।। ४६-४७ ।। 

करोति पाण्डवो व्यक्त कर्मौपयिकमात्मन: । 

एषा विदार्यते राजन्‌ बहुधा भारती चमू: || ४८ ।। 

“इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि अर्जुन वहाँ अपने अनुरूप पुरुषार्थ कर रहे हैं। राजन! 
भरतवंशियोंकी इस सेनाको वे अनेक भागोंमें विदीर्ण (विभक्त) किये देते हैं || ४८ ।। 

विप्रकीर्णान्यनेकानि न हि तिष्ठन्ति कर्हिचित्‌ | 

वातेनेव समुद्धूतमभ्रजालं विदीर्यते || ४९ ।। 

सव्यसाचिनमासाद्य भिन्ना नौरिव सागरे | 

“उनके द्वारा तितर-बितर किये हुए हमारे बहुत-से सैन्यदल कहीं भी ठहर नहीं पाते हैं। 
जैसे हवा घिरे हुए बादलोंको छिलन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुनके सामने पड़कर 
अपनी सारी सेना अनेक टुकड़ियोंमें बँ.कर भागने लगी है। उसकी अवस्था समुद्रमें फटी 
हुई नौकाके समान हो रही है || ४९३ ।। 

द्रवतां योधमुख्यानां गाण्डीवप्रेषितै: शरै: ।। ५० ।। 

विद्धानां शतशो राजन्‌ श्रूयते निःस्वनो महान्‌ । 

“राजन! गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा बिद्ध होकर भागते हुए सैकड़ों मुख्य- 
मुख्य योद्धाओंका वह महान्‌ आर्तनाद सुनायी पड़ता है || ५० ।। 

शृणु दुन्दुभिनिर्घोषमर्जुनस्य रथं प्रति ।। ५१ ।। 

निशीथे राजशार्दूल स्तनयित्नोरिवाम्बरे | 

“नृपश्रेष्ठी इस रात्रिके समय आकाशमें मेघकी गर्जनाके समान जो अर्जुनके रथके 
समीप नगाड़ोंकी ध्वनि हो रही है, उसे सुनो || ५१६ ।। 

हाहाकाररवांश्वैव सिंहनादां श्व पुष्ललान्‌ ।। ५२ ।। 

शृणु शब्दान्‌ बहुविधानर्जुनस्य रथं प्रति । 

'अर्जुनके रथके आसपास जो भाँति-भाँतिके हाहाकार, बारंबार सिंहनाद तथा अनेक 
प्रकारके और भी बहुत-से शब्द हो रहे हैं, उनको भी श्रवण करो ।। 

अयं मध्ये स्थितो<स्माकं सात्यकि: सात्वतां वर: ।। ५३ ।। 

इह चेल्लभ्यते लक्ष्यं कृत्स्नान्‌ जेष्यामहे परान्‌ | 

'ये सात्वतशिरोमणि सात्यकि इस समय हमलोगोंके बीचमें खड़े हैं। यदि यहाँ इन्हें हम 
अपने बाणोंका निशाना बना सकें तो निश्चय ही सम्पूर्ण शत्रुओंपर विजय पा सकेंगे ।। ५३ ३ 

|| 


एष पाउ्चालराजस्य पुत्रो द्रोणेन संगत: ।। ५४ ।। 

सर्वतः संवृतो योधै: शूरैश्वन रथसत्तमै: । 

'ये पांचालराज ट्रुपदके पुत्र धृष्टद्युम्म, जो आचार्य द्रोणके साथ जूझ रहे हैं, हमारे 
रथियोंमें श्रेष्ठठम शूरवीर योद्धाओंद्वारा चारों ओरसे घिर गये हैं ।। ५४ ३ ।। 

सात्यकिं यदि हन्याम धृष्टद्युम्नं च पार्षतम्‌ ।। ५५ ।। 

असंशयं महाराज ध्रुवो नो विजयो भवेत्‌ । 

“महाराज! यदि हम सात्यकि तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्नको मार डालें तो हमारी स्थायी 
विजय होगी, इसमें संदेह नहीं है ।। ५५६ ।। 

सौभद्रवदिमौ वीरौ परिवार्य महारथी ।। ५६ ।। 

प्रयतामो महाराज निहन्तुं वृष्णिपार्षतौ । 

'राजेन्द्र! अत: हमलोग सुभद्राकुमार अभिमन्युके समान वृष्णिवंश तथा पार्षतकुलके 
इन दोनों महारथी वीरोंको सब ओरसे घेरकर मार डालनेका प्रयत्न करें ।। 

सव्यसाची पुरो<भ्येति द्रोणानीकाय भारत ।। ५७ ।। 

संसक्तं सात्यकिं ज्ञात्वा बहुभि: कुरुपुड्भवै: । 

“भारत! सात्यकिको बहुत-से प्रधान कौरववीरोंक साथ उलझा हुआ जानकर 
सव्यसाची अर्जुन सामनेसे द्रोणाचार्यकी सेनाकी ओर आ रहे हैं | ५७ ३ ।। 

तत्र गच्छन्तु बहव: प्रवरा रथसत्तमा: ।। ५८ ।। 

यावत्‌ पार्थो न जानाति सात्यकिं बहुभिव॒तम्‌ | 

ते त्वरध्वं तथा शूरा: शराणां मोक्षणे भूशम्‌ ।। ५९ ।। 

“अतः बहुत-से श्रेष्ठ महारथी वहाँ उनका सामना करनेके लिये जायँँ। जबतक अर्जुन 
यह नहीं जानते कि सात्यकि बहुसंख्यक योद्धाओंसे घिर गये हैं, तभीतक तुम सभी शूरवीर 
बाणोंका प्रहार करनेमें अधिकाधिक शीघ्रता करो || ५८-५९ || 

यथा ल्विह व्रजत्येष परलोकाय माधव: । 

तथा कुरु महाराज सुनीत्या सुप्रयुक्तया ।। ६० ।। 

“महाराज! जिस उपायसे भी यहाँ ये मधुवंशी सात्यकि परलोकगामी हो जाये, अच्छी 
तरह प्रयोगमें लायी हुई सुन्दर नीतिके द्वारा वैसा ही प्रयत्न करो” || ६० ।। 

कर्णस्य मतमास्थाय पुत्रस्ते प्राह सौबलम्‌ | 

यथेन्द्र: समरे राजनू्‌ _प्राह विष्णुं यशस्विनम्‌ ।। ६१ ।। 

राजन! जैसे इन्द्र समरांगणमें परम यशस्वी भगवान्‌ विष्णुसे कोई बात कहते हैं, उसी 
प्रकार आपके पुत्र दुर्योधनने कर्णकी सलाह मानकर सुबलपुत्र शकुनिसे इस प्रकार कहा 
-- || ६१ || 

वृतः सहस्रैर्दशभिर्गजानामनिवर्तिनाम्‌ | 

रथैश्व दशसाहसैस्तूर्ण याहि धनंजयम्‌ ॥। ६२ ।। 


“मामा! तुम युद्धसे पीछे न हटनेवाले दस हजार हाथियों और उतने ही रथोंके साथ 
तुरंत ही अर्जुनका सामना करनेके लिये जाओ ।। ६२ ।। 

दुःशासनो दुर्विषह: सुबाहुर्दुष्प्रधर्षण: । 

एते त्वामनुयास्यन्ति पत्तिभिर्बहुभिववृता: ।। ६३ ।। 

“दुःशासन, दुर्विषह, सुबाहु और दुष्प्रधर्षण--ये (महारथी) बहुत-से पैदल सैनिकोंको 
साथ लेकर तुम्हारे पीछे-पीछे जायँगे ।। ६३ ।। 

जहि कृष्णौ महाबाहो धर्मराजं च मातुल । 

नकुलं सहदेवं च भीमसेनं तथैव च ।। ६४ ।। 

“मेरे महाबाहु मामा! तुम श्रीकृष्ण, अर्जुन, धर्मराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा 
भीमसेनको भी मार डालो ।। ६४ ।। 

देवानामिव देवेन्द्रे जयाशा त्वयि मे स्थिता । 

जहि मातुल कौन्तेयानसुरानिव पावकि: ।। ६५ ।। 

“मामा! जैसे देवताओंकी आशा देवराज इन्द्रपर लगी रहती है, उसी प्रकार मेरी 
विजयकी आशा तुमपर अवलम्बित है। जैसे अग्निकुमार स्कन्दने असुरोंका संहार किया 
था, उसी प्रकार तुम भी कुन्तीकुमारोंका वध करो” ।। ६५ ।। 

एवमुक्तो ययौ पार्थान्‌ पुत्रेण तव सौबल: । 

महत्या सेनया सार्ध सह पुत्रैश्न ते विभो ।। ६६ ।। 

प्रभो! आपके पुत्र दुर्योधनके ऐसा कहनेपर शकुनि विशाल सेना और आपके अन्य 
पुत्रोंके साथ कुन्तीकुमारोंका सामना करनेके लिये गया ।। ६६ ।। 

प्रियार्थ तव पुत्राणां दिधक्षु: पाण्डुनन्दनान्‌ । 

ततः प्रववृते युद्धं तावकानां परै: सह ।। ६७ ।। 

वह आपके पुत्रोंका प्रिय करनेके लिये पाण्डवोंको भस्म कर देना चाहता था। फिर तो 
आपके योद्धाओंका शत्रुओंके साथ घोर युद्ध आरम्भ हो गया ।। ६७ ।। 

प्रयाते सौबले राजन्‌ पाण्डवानामनीकिनीम्‌ । 

बलेन महता युक्त: सूतपुत्रस्तु सात्वतम्‌ ।। ६८ ।। 

अभ्ययात्‌ त्वरितो युद्धे किरन्‌ शरशतान्‌ बहून्‌ 

तथैव पार्थिवा: सर्वे सात्यकिं पर्यवारयन्‌ ।। ६९ ।। 

राजन्‌! जब शकुनि पाण्डव-सेनाकी ओर चला गया, तब विशाल सेनाके साथ सूतपुत्र 
कर्णने युद्धस्थलमें कई सौ बाणोंकी वर्षा करते हुए तुरंत ही सात्यकिपर आक्रमण किया। 
इसी प्रकार अन्य सब राजाओंने भी सात्यकिको घेर लिया || ६८-६९ ।। 

भारद्वाजस्ततो गत्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति । 

महद्‌ युद्ध तदा55सीत्‌ तु द्रोणस्य निशि भारत । 

धृष्टुम्नेन वीरेण पञ्चालैश्व सहाद्भुतम्‌ ।। ७० ।। 


भारत! तदनन्तर द्रोणाचार्यने धृष्टद्युम्मनके रथपर आक्रमण किया। उस रात्रिके समय 
वीर धृष्टद्युम्न और पांचालोंके साथ द्रोणाचार्यका महान्‌ एवं अद्भुत युद्ध हुआ || ७० ।। 


इति श्रीमहाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि रात्रियुद्धे संकुलयुद्धे 
सप्तत्यधिकशततमो<ध्याय: ।। १७० ।। 
इस प्रकार श्रीमह्ाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्वमें यात्रियुद्धके अवसरपर 
संकुलयुद्धविषयक एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥/ १७० ॥। 


अपना बछ। | अत-४#-#का+ 


- दुर्योधन, दुःशासन, द्रोण, कर्ण, शल्य और शकुनि--ये ही छः श्रेष्ठ रथी यहाँ ग्रहण किये गये हैं। 


एकसप्तत्याधिकशततमो< ध्याय: 


सात्यकिसे दुर्योधनकी, अर्जुनसे शकुनि और उलूककी 
तथा धृष्टद्युम्नससे कौरव-सेनाकी पराजय 


संजय उवाच 

तततस्ते प्राद्रवन्‌ सर्वे त्वरिता युद्धदुर्मदा: । 

अमृष्यमाणा: संरब्धा युयुधानरथं प्रति ॥। १ ॥। 

संजय कहते हैं--राजन्‌! तत्पश्चात्‌ वे समस्त रणदुर्मद योद्धा बड़ी उतावलीके साथ 
अमर्ष और क्रोधमें भरकर युयुधानके रथकी ओर दौड़े ।। १ ।। 

ते रथै: कल्पितै राजन हेमरूप्यविभूषितै: । 

सादिभिश्न गजैश्लैव परिवद्रु: समन्‍्तत:ः ।। २ ।। 

नरेश्वर! उन्होंने सोने-चाँदीसे विभूषित एवं सुसज्जित रथों, घुड़सवारों और हाथियोंके 
द्वारा चारों ओरसे सात्यकिको घेर लिया || २ ।। 

अथीैनं कोष्ठकीकृत्य सर्वतस्ते महारथा: । 

सिंहनादांस्ततश्नक्रुस्तर्जयन्ति सम सात्यकिम्‌ ।। ३ ।। 

इस प्रकार सब ओरसे सात्यकिको कोष्ठबद्ध-सा करके वे महारथी योद्धा सिंहनाद 
करने और उन्हें डाँट बताने लगे ।। ३ ।। 

ते भ्यवर्षञछरैस्तीक्ष्णै: सात्यकिं सत्यविक्रमम्‌ । 

त्वरमाणा महावीरा माधवस्य वधैषिण: ।। ४ ।। 

इतना ही नहीं, मधुवंशी सात्यकिका वध करनेकी इच्छासे उतावले हो वे महावीर 
सैनिक उन सत्यपराक्रमी सात्यकिपर तीखे बाणोंकी वर्षा करने लगे || ४ ।। 

तान्‌ दृष्टवा पततस्तूर्ण शैनेय: परवीरहा । 

प्रत्यगृह्नान्महाबाहु: प्रमुऊचन्‌ विशिखान्‌ बहून्‌ ।। ५ ।। 

तब शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले महाबाहु शिनिपौत्र सात्यकिने उन लोगोंको अपनेपर 
धावा करते देख स्वयं भी तुरंत ही बहुत-से बाणोंका प्रहार करते हुए उनका स्वागत 
किया ।। ५ ।। 

तत्र वीरो महेष्वास: सात्यकिर्युद्धदुर्मद: । 

निचकर्त शिरांस्युग्रै: शरै: संनतपर्वभि: ।। ६ ।। 

वहाँ महाधनुर्धर रणदुर्मद वीर सात्यकिने झुकी हुई गाँठवाले भयंकर बाणोंद्वारा बहुतेरे 
शत्रु-योद्धाओंके मस्तक काट डाले ।। ६ ।। 

हस्तिहस्तान्‌ हयग्रीवा बाहुनपि च सायुधान्‌ | 


क्षुरप्रै: शातयामास तावकानां स माधव: ।। ७ ।। 

उन मधुवंशी वीरने आपकी सेनाके हाथियोंके शुण्डदण्डों, घोड़ोंकी गर्दनों तथा 
योद्धाओंकी आयुधोंसहित भुजाओंको भी क्षुरप्रोंद्ारा काट डाला ।। ७ ।। 

पतितैश्नामरैश्वैव श्वेतच्छत्रैश्ष भारत । 

बभूव धरणी पूर्णा नक्षत्रैद्यौरिव प्रभो ।। ८ ।। 

भरतनन्दन! प्रभो! वहाँ गिरे हुए चामरों और श्वेत छत्रोंसे भरी हुई भूमि नक्षत्रोंसे युक्त 
आकाशके समान जान पड़ती थी ।। ८ ॥। 

एतेषां युयुधानेन युध्यतां युधि भारत । 

बभूव तुमुल: शब्द: प्रेतानां क्रनदतामिव ।। ९ ।। 

भारत! युद्धस्थलमें युयुधानके साथ जूझते हुए इन योद्धाओंका भयंकर आर्तनाद 
प्रेतोंके करुण-क्रन्दन-सा प्रतीत होता था || ९ ।। 

तेन शब्देन महता पूरिताभूद्‌ वसुन्धरा । 

रात्रि: समभवच्चैव तीव्ररूपा भयावहा ।। १० ।। 

उस महान्‌ कोलाहलसे भरी हुई वह रणभूमि और रात्रि अत्यन्त उग्र एवं भयंकर जान 
पड़ती थी || १० ।। 

दीर्यमाणं बल॑ दृष्टवा युयुधानशराहतम्‌ । 

श्रुत्वा च विपुलं नादं निशीथे लोमहर्षणे ।। ११ ।। 

सुतस्तवाब्रवीद्‌ राजन्‌ सारथिं रथिनां वर: । 

यत्रैष शब्दस्तत्राश्वांश्वोदयेति पुनः पुन: ॥। १२ ।। 

राजन! युयुधानके बाणोंसे आहत हुई अपनी सेनामें भगदड़ पड़ी देख और उस 
रोमांचकारी निशीथकालमें वह महान्‌ कोलाहल सुनकर रथियोंमें श्रेष्ठ आपके पुत्र दुर्योधनने 
अपने सारथिसे बारंबार कहा--“जहाँ यह कोलाहल हो रहा है, वहाँ मेरे घोड़ोंको हाँक ले 
चलो” ।। ११-१२ ।। 

तेन संचोद्यमानस्तु ततस्तांस्तुरगोत्तमान्‌ | 

सूत: संचोदयामास युयुधानरथं प्रति ।। १३ ।। 

उसका आदेश पाकर सारथिने उन श्रेष्ठ घोड़ोंको सात्यकिके रथकी ओर हाँक 
दिया ।। १३ ।। 

ततो दुर्योधन: क्रुद्धो दृढ्धन्वा जितक्लम: । 

शीघ्रहस्तश्चित्रयोधी युयुधानमुपाद्रवत्‌ ।। १४ ।। 

तदनन्तर दृढ़ धनुर्थधर, श्रमविजयी, शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले और विचित्र रीतिसे 
युद्ध करनेवाले दुर्योधनने क्रोधमें भरकर सात्यकिपर धावा किया ।। १४ ।। 

ततः पूर्णायतोत्सृष्टे: शरैः शोणितभोजनै: । 

दुर्योधन द्वादशभिर्माधव: प्रत्यविध्यत ।। १५ ।। 


तब मधुवंशी युयुधानने धनुषको पूर्णतः खींचकर छोड़े गये बारह रक्तभोजी बाणोंद्वारा 
दुर्योधनको घायल कर दिया ।। १५ || 

दुर्य